सिनेमा के इस बदले हुए दौर में कई प्रतिभाएं काफी तेजी से आगे बढ़ रही हैं. मगर साकिब सलीम ने सात वर्ष में महज सात फिल्में ही की, उनका करियर काफी धीमी गति से ही चल रहा है, पर उन्हें यकीन है कि ‘दिल जंगली’ के प्रदर्शन के बाद उनका करियर तेज गति से भागेगा.
आपका करियर काफी धीमी गति से आगे बढ़ रहा है?
यह सच है. मगर इस बीच मैने बहुत कुछ सीखा है. मैने कुछ अच्छी, कुछ कम अच्छी और कुछ खराब फिल्में की हैं. जहां तक मेरे करियर के धीमी गति से चलने का सवाल है, तो इसके लिए कहीं न कहीं फिल्मों के चयन को लेकर मेरा जो एटीट्यूड रहा, वह भी दोषी है.
पर आपने अतीत में ‘मुझसे फ्रेंडशिप करोगे’, ‘मेरे डैड की मारूती’ व ‘हवा हव्वाई’ सहित कुछ अच्छी फिल्में की हैं?इन फिल्मों का भी फायदा आपको नहीं मिल पाया?
सर, मुझे इसका जवाब पता होता तो मैं उसे सुधार लेता. मैं लोगों के पास काम के लिए मिन्नतें करने नहीं गया. मैं आज आपके सामने बैठा हूं, तो अपने बलबूते पर बैठा हूं. आज तक किसी ने भी मेरी मदद नहीं की. आज तक किसी ने मुझसे नहीं कहा कि आओ मैं तुम्हें हीरो बना दूं. ऊपर वाले ने मुझे इतनी नियामत दी है, मेरे माता पिता ने मुझे इतना सिखाया है कि मैं मेहनत करके आगे बढ़ सकता हूं. मैं वही करने का प्रयास कर रहा हूं. कई बार आपको अपने ऊपर काफी भरोसा होता है, पर कुछ लोगों को आपकी काबीलियत पर भरोसा नहीं होता है. तो कभी कभी लोगों का भरोसा जीतने में, कभी कभी अच्छी फिल्म ढूढ़ने में समय लग जाता है.
सही लोगों के साथ काम करने का अवसर पाने में समय लग जाता है. हां! मैं मानता हूं कि मेरे पास लंबे समय तक फिल्में नही रही, मैं इधर उधर भटक गया. मैंने सोचा कि कुछ इंतजार करते हुए अच्छी फिल्म हासिल की जाए. उसके बाद मेरे पास लोग आएं. मेरे पिता का नाम मोहम्मद कुरेशी है. मेरी फिल्म से पहले उन्होंने आखिरी फिल्म ‘‘मुगल ए आजम’’ देखी थी, पर मुझे समझ में आया कि मुझे यहां रहना है, तो इनके बीच ही प्रतिस्पर्धा करनी होगी. मेरी समझ में आया कि बौलीवुड में आपका लोकप्रिय होना बहुत जरुरी है, अन्यथा आपकी काबीलियत नहीं आंकी जाएगी.
तो अब पापुलर होने के लिए क्या कर रहे हैं?
-कुछ नहीं कर रहा. मैं झूठ बोलने में यकीन नहीं करता. मैं लोगों को बताना चाहता हूं कि मैं अति नहीं करता. मैं दिखावा नहीं करता.
जब गैर फिल्मी परिवार से कोई यहां आता है, तो उसे दो वर्ष यह समझने में लग जाते हैं कि बौलीवुड से कैसे जुड़ा जाए. लोग किसी कलाकार के साथ तस्वीर खिंचाते हैं, तो वह खुद को महान बताने लगते हैं. मगर मैं जब मुंबई आया, तो मुझे आते ही दो फिल्में मिल गयी. दोनों फिल्में सुपरहिट हो गयीं. अब यह कितनी बड़ी बात थी, इसका अहसास करने में ही मुझे दो से तीन वर्ष लग गए. मेरी समझ में आया कि जब हम यह सोचने लगते हैं या यह पता लगाने लगते है कि लोग मुझे किस वजह से पसंद कर रहे हैं, तो हम बहुत कौंशियस होकर फिल्में चुनने लगते हैं, इससे भी नुकसान होता है. यह सब सोचने के चक्कर में ही मैं डेढ़ दो वर्ष तक हर चीज से कट गया.
देखिए, मैं मुंबई अभिनेता बनने के लिए नहीं आया था, पर मैं बन गया. यदि शिद्दत से अभिनेता बनना चाहता, तो अल्लाह मियां मेरा पसीना निकाल देते. ऊपर वाले के करम से गाड़ी राइट जाते जाते लेफ्ट चली गई और ऐसे मुकाम पर पहुंच गयी, जहां मुझे पता ही नहीं था कि यहां पर कितना बड़ा खजाना है. खजाने को समझने में ही मेरे दो तीन साल चले गए और जब समझ में आया, तो मैने सोचा कि मुझे जो अच्छे अवसर मिले, उनका उपयोग न कर मैने गलती की है. दूसरी बात हम कोई खास फिल्म करने की इच्छा रखते हैं, पर उस फिल्म का निर्माता मुझे उस फिल्म के साथ नहीं जोड़ना चाहता, पर हम सोचते हैं कि मुझे जब वह फिल्म करनी है, तो जो मिल रही है, वह क्यों करुं. इस चक्कर में हम दोनों फिल्मों से हाथ धो बैठते हैं. सच कहूं तो बौलीवुड की जो प्रक्रिया है, उसके साथ मैं ठीक से तालमेल नहीं बिठा पाया. फिर भी मुझे आसान नहीं, कठिन काम ही करना है. बहरहाल, मुझे ‘दिल जंगली’ से काफी उम्मीदें हैं.
फिल्म ‘दिल जंगली’ को लेकर क्या कहेंगे?
-आलिया सेन निर्देशित और वासु भगनानी व दीपशिखा देशमुख निर्मित यह फिल्म रोमांटिक कामेडी तथा एडवेंचरस फिल्म है.
तो इसमें आपने रोमांटिक किरदार निभाया है?
ऐसा ही है, पर कुछ अलग तरह का है. मैंने दिल्ली के लाजपत नगर में रहने वाले सुमित उप्पल का किरदार निभाया है, जो कि जिम ट्रेनर है, पर बहुत बड़ा फिल्मी हीरो बनने का सपना देख रहा है. वह सिर्फ अपने बारे में ही सोचता है. उसने कुछ मौडलिंग की है, पर उनमें उसका चेहरा कभी नही आया. इसके अलावा उसे अंग्रेजी नही आती. अंग्रेजी सीखने के लिए करोली सेन की अंग्रेजी क्लास से जुड़ता है और फिर करोली के संग उसकी प्रेम कहानी शुरू होती है. यह आम कंविंशनल हीरो नहीं है. यह वैसा हीरो नहीं है, जो गलतियां नहीं करता. यह हीरो तो गलतियां करता है. छोटी नहीं बल्कि बड़ी बड़ी गलतियां करता है. इसे निभाना बहुत कठिन था, क्योकि हमें हीरो के तौर पर दर्शक भी नहीं खोने थे. बहुत ज्यादा ‘ग्रे’ भी नहीं होना था.
किरदार को निभाने के लिए किस तरह की तैयारी करनी पड़ी?
-मैं जिम तो पहले से ही जाता रहा हूं, पर इस फिल्म के किरदार सुमित उप्पल के लिए मुझे जिम जाकर ऐसी बौडी बनानी पड़ी कि मुझमे जिम ट्रेनर नजर आए. यह ऐसी फिल्म नहीं है, जिसके लिए मुझे खुद को किसी कमरे के अंदर बंद करके तैयारी करने की जरुरत पड़ी हो.
तापसी पन्नू के संग आपके रोमांस की भी चर्चा होती रहती है?
गलत है. मैं इतना ही कह सकता हूं कि वह मेरी अच्छी दोस्त हैं. हम दोनो ही दिल्ली से हैं. हमने एक साथ एक म्यूजिक वीडियो ‘तुम हो तो लगता है’ किया था और अब फिल्म ‘दिल जंगली’ की है.
सोशल मीडिया को आप कितना सही मानते हैं?
यह पूरे विश्व से जोड़ता है. मगर इसे लत नहीं बनानी चाहिए. हमें खुद तय करना पड़ेगा कि हमें इससे कितनी दूरी बनाकर रखनी चाहिए. मेरी इच्छा होती है कि कुछ समय के लिए जंगल में जाकर ट्वीटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम के बिना रहूं. जन्मदिन पर केक काटने के पल को कोई जीना ही नहीं चाहता, सभी अपने कैमरे को लेकर सेल्फी लेने में ही व्यस्त रहते हैं. मैं भी इसी बीमारी का शिकार हूं.
फिटनेस पर कितना ध्यान देते हैं?
स्पोर्ट्स में मेरी शुरू से रूचि रही है. इस कारण हमेशा फिट रहा हूं. पहले भी मैं जिम जाता था, पर घर पर खूब खाता भी था. मेरी मम्मी कश्मीरी हैं. दिल्ली में मेरे पापा के कई रेस्टोरेंट हैं, तो हम घर पर जमकर नौनवेज खाते हैं. फिटनेस के लिए मुझे अपने खाने पर पाबंदी लगाने की जरूरत कभी महसूस नही हुई. लेकिन ‘दिल जंगली’ के लिए मुझे जिम ट्रेनर वाली बौडी बनानी पड़ी. उसके बाद ‘रेस 3’ सलमान खान के साथ कर रहा हूं, तो उनके सामने बौडी बनाकर रखना जरूरी है. फिलहाल हर दिन ढाई घंटे जिम में बिताता हूं. वेट ट्रेनिंग लेता हूं. मिश्रित फंक्शनल वर्कआउट करता हूं. हफ्ते में तीन दिन वेट लिफ्टिंग करता हूं. योगा भी करता हूं. पर साथ में पौष्टिक भोजन भी लेता हूं. यदि आप अपनी जिंदगी में तेल, नमक व शक्कर कम कर दें, तो जिम जाने की भी जरूरत नही पड़ेगी.
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आज लड़के यह समझने को तैयार नहीं हैं कि लड़की के लिए उस का भविष्य उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि स्वयं किसी लड़के का होता है. लड़कियों के लिए भविष्य कोई सपना या विकल्प नहीं, बल्कि उस की आवश्यकता है. यह आवश्यकता केवल वित्त की ही नहीं, बल्कि लड़कियां अपनी क्षमता साबित करने और व्यक्तित्व को परिभाषित करने के लिए भी यह जरूरी समझती हैं.
स्त्री और पुरुष दोनों ही अपना भविष्य चुनने के लिए स्वतंत्र होते हैं. लेकिन इस का मतलब यह नहीं कि धीरेधीरे पनप रहे अपने प्रेमसंबंध से वे अपने पथ से विचलित हो जाएं. लेकिन दीर्घ अवधि का प्रेमालाप और मोमबत्ती की मध्यम रोशनी में साथ किया गया रात्रिभोज उन्हें एक रात के यौनसुख की ओर अग्रसर करता है और फिर सप्ताह के अंत में मद्यपान की शुरुआत होती है, जो धीरेधीरे प्रतिदिन में बदल जाती है. संपूर्ण प्रतिस्पर्धी, मतलबी दुनिया में युवाओं की यही सचाई है.
स्त्रीपुरुष संबंधों की विशेषज्ञा लूसी बेरेसफोर्ड अपनी पुस्तक ‘इनविजिबल थ्रैड्स’ के विमोचन समारोह में दिल्ली आई थीं. उन का कहना है कि आज के युवा आपसी संबंधों की अपेक्षा नौकरी और भविष्य को ज्यादा महत्त्व दे रहे हैं. वे ऐसे संबंधों को त्यागने, जो खुद के लिए कारगर नहीं हैं या खुद को अपने साथी के अनुरूप न पाने पर भी अलग होने में जरा भी देर नहीं करते. उन्हें विश्वास होता है कि उन के जीवन में शीघ्र ही कोई दूसरा आ जाएगा.
28 वर्षीय राकेश चौबे हाल ही में हुए अपने प्रथककरण की व्याख्या करते हुए कहते हैं, ‘‘मैं अपने साथी से व्यक्तित्व या गलतफहमी के आधार पर अलग नहीं हुआ, बल्कि व्यावसायिक व्यस्तता की असमानता और पद के बेमेल के कारण हुआ हूं.’’
27 वर्षीय अनीता सिंघल अपनी आंखों में आंसू झलकाते हुए पूर्व में हुए ब्रेकअप का जिक्र करते हुए कहती हैं, ‘‘पूर्व प्रेमी के साथ मेरा भविष्य सुरक्षित नहीं था क्योंकि कालेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद भी वह अपने रोजगार के प्रति प्रतिबद्ध नहीं था. प्यार का मतलब यह नहीं कि हम अपनी महत्त्वाकांक्षाओं और भविष्य को ले कर आंखें मूंद लें. सचाई यही है कि आप अपना भविष्य या नौकरी का चुनाव अपने भावनात्मक संबंधों पर नहीं छोड़ सकते.’’
29 वर्षीय व्यवसाई अंकित सक्सेना का कहना है, ‘‘जीवन में प्रेमालाप को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता लेकिन आपसी संबंधों का मतलब होता है कि हम एकदूसरे को खुशी प्रदान करें, एकदूसरे को सहयोग करें, एकदूसरे की आवश्यकताओं का ध्यान रखें. तनाव, चिंता और दबाव प्रत्येक व्यवसाय तथा नौकरी के हिस्से हैं. इन्हें हमें अपने निजी क्षणों पर हावी नहीं होने देना चाहिए. अगर हमारा जीवनसाथी हमारे लक्ष्य पर सवाल उठाता है, हम पर शक करता है, छोटीछोटी बातों को तूल दे कर झगड़ा करता है, तो अच्छा है कि हम एकदूसरे से अलग हो जाएं.’’
उपरोक्त उदाहरणों से आप ने जान लिया होगा कि प्यार से अधिक महत्त्वपूर्ण आत्मनिर्भरता है. अगर आप आत्मनिर्भर हैं तो आप को जीवनसाथी की कमी नहीं. इसलिए आप अपना ध्यान आत्मनिर्भर होने पर केंद्रित करें.
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7 साल का प्रद्युम्न ठाकुर गुड़गांव के ख्यातिप्राप्त रायन इंटरनैशनल स्कूल की कक्षा 2 का छात्र था. रोजाना की तरह गत 8 सितंबर को मां ने प्यार से तैयार कर उसे पढ़ने के लिए स्कूल भेजा. पिता द्वारा प्रद्युम्न को स्कूल में पहुंचाने के आधे घंटे के अंदर घर पर फोन आ गया कि बच्चे के साथ हादसा हो गया है.
प्रद्युम्न को संदिग्ध परिस्थितियों में ग्राउंडफ्लोर पर मौजूद वाशरूम में खून से लथपथ मृत अवस्था में पाया गया. देखने से स्पष्ट था कि उस की हत्या की गई है. उस पर 2 बार चाकू से वार किए गए थे. अत्यधिक खून बहने से उस की मौत हो गई.
प्रारंभिक जांच में बस कंडक्टर को दोषी पाया गया मगर बाद की जांच में उसी स्कूल की 11वीं कक्षा के एक छात्र को हिरासत में लिया गया. आरोपी छात्र ने स्वीकार किया कि महज परीक्षा की तिथि और टीचर पेरैंट्स मीटिंग की तारीख आगे बढ़वाने के मकसद से
उस ने, जानबूझ कर, इस घटना को अंजाम दिया. वैसे, इस केस में स्कूल प्रशासन पर सुबूत छिपाने के इलजाम भी लगे और एक बार फिर स्कूलों में बच्चों की लचर सुरक्षा व्यवस्था की हकीकत सामने आ गई.
बच्चों की सुरक्षा पर सवाल खड़ा करता ऐसा ही मामला द्वारका, दिल्ली के एक स्कूल का है. यहां 4 साल की बच्ची के साथ यौनशोषण की घटना सामने आई. आरोप बच्ची की ही कक्षा में पढ़ने वाले 4 साल के बच्चे पर लगा.
छोटी सी बच्ची से बलात्कार का एक मामला 14 नवंबर को दिल्ली के अमन विहार इलाके में भी सामने आया. यह नाबालिग बच्ची अपने मातापिता के साथ किराए के मकान में रहती थी. आरोपी युवक उसी मकान में पहली मंजिल पर रहता था.
दिल्ली के एक स्कूल में 5 साल की बच्ची के साथ स्कूल के चपरासी द्वारा बलात्कार की घटना ने भी सभी को स्तब्ध कर दिया.
इन घटनाओं ने स्कूल परिसरों में बच्चों की सुरक्षा को ले कर कई प्रश्न खड़े कर दिए हैं. स्कूल परिसरों में मासूम लड़कियां ही नहीं, लड़के भी यौनशोषण के शिकार हो रहे हैं.
इस संदर्भ में सभी राज्य सरकारों, स्कूल प्रशासनों और मातापिता को सतर्क होने की जरूरत है ताकि भविष्य में ऐसी घटनाएं न घट सकें.
स्कूल की जिम्मेदारियां
कोई भी मातापिता जब अपने बच्चे के लिए किसी स्कूल का चुनाव करते हैं तो स्कूल की आधारभूत संरचना और वहां की पढ़ाई के स्तर को जांचने के साथ ही उन का विश्वास भी होता है जो उन्हें किसी विशेष स्कूल को अपने बच्चे के लिए चुनने हेतु प्रेरित करता है. ऐसे में स्कूल प्रशासन की पूरी जिम्मेदारी बनती है कि वह न सिर्फ बेहतरीन शिक्षा उपलब्ध कराए, बल्कि मातापिता के विश्वास पर भी खरा उतरे.
मातापिता की जिम्मेदारियां
हर मातापिता का कर्तव्य है कि वे घरबाहर अपने बच्चों की सुरक्षा को ले कर सतर्क रहें. घर के बाद बच्चे सब से अधिक समय स्कूल में बिताते हैं. ऐसे में स्कूल परिसर में बच्चों की सुरक्षा एक गंभीर मुद्दा है.
मातापिता को चाहिए कि जिस स्कूल में वे बच्चे को दाखिल कराने जा रहे हैं, वहां की सुरक्षा व्यवस्था की वे विस्तृत जानकारी लें.
हमेशा टीचरपेरैंट्स मीटिंग में जाएं और बच्चों की सुरक्षा से संबंधित कोई कमी नजर आए तो टीचर से उस की चर्चा जरूर करें.
बच्चों से स्कूल में उन के अनुभवों के बारे में खुल कर चर्चा करें. अगर अचानक बच्चा स्कूल जाने से घबराने लगे या उस के नंबर कम आने लगें तो इन संकेतों को गंभीरता से लें और इन का कारण जानने का प्रयास करें.
बच्चों को अच्छे और बुरे टच के बारे में समझाएं ताकि यदि कोई उन्हें गलत मकसद से छुए तो वे शोर मचा दें.
बच्चों को यह भी समझाएं कि यदि कोई बच्चा उन्हें डराधमका रहा है तो वे टीचर या मम्मीपापा को सारी बात बताएं.
बच्चों को मोबाइल और दूसरी कीमती चीजें स्कूल न ले जाने दें.
अगर आप के बच्चे का व्यवहार कुछ दिनों से बदलाबदला नजर आ रहा है, वह आक्रामक होने लगा है या ज्यादा चुप रहने लगा है तो इस की वजह जानने का प्रयास करें.
रोज स्कूल से आने के बाद बच्चे का बैग चैक करें. उस के होमवर्क, क्लासवर्क और ग्रेड्स पर नजर रखें. उस के दोस्तों के बारे में भी सारी जानकारी रखें.
छोटे बच्चे को बस में चढ़नाउतरना सिखाएं.
बसस्टौप पर कम से कम 5 मिनट पहले पहुंचें.
आप अपने बच्चों को सिखाएं कि किसी आपातकालीन स्थिति में किस तरह के सुरक्षात्मक कदम उठाए जा सकते हैं. हो सके तो बच्चों को सैल्फडिफैंस के गुर, जैसे मार्शल आर्ट व कराटे वगैरा सिखाएं.
मनोवैज्ञानिक पहलू
तुलसी हैल्थ केयर, नई दिल्ली के मनोचिकित्सक डा. गौरव गुप्ता बताते हैं कि गुड़गांव के प्रद्युम्न केस की बात हो या 4 साल की बच्ची का यौनशोषण, इस तरह की घटनाएं बच्चों में बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति व गलत कामों के प्रति आकर्षण को चिह्नित करती हैं.
इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि आज लोगों के पास वक्त कम है. हर कोई भागदौड़भरी जिंदगी में व्यस्त है. संयुक्त परिवारों की प्रथा खत्म होने के कगार पर पहुंच चुकी है. नतीजा यह है कि बच्चों का लालनपालन एक मशीनी प्रक्रिया के तहत हो रहा है. परिवार वालों के साथ रह कर जीवन की वास्तविकताओं से अवगत होने और टीवी धारावाहिक व फिल्में देख कर जिंदगी को समझने में बहुत अंतर है.
एकाकीपन के माहौल में पल रहे बच्चों के मन की बातों और कुंठाओं को समझना जरूरी है. मांबाप द्वारा बच्चों के आगे झूठ बोलने, बेमतलब की कलह और विवादों में फंसने, छोटीछोटी बातों पर हिंसा करने पर उतारू हो जाने जैसी बातें ऐसी घटनाओं का सबब बनती हैं क्योंकि बच्चे बड़ों से ही सीखते हैं.
स्कूल भी पीछे कहां हैं? स्कूल आज शिक्षाग्रहण करने का स्थान कम, पैसा कमाने का जरिया अधिक बन गए हैं. स्कूल का जितना नाम, उतनी ही महंगी पढ़ाई. जरूरी है कि शिक्षा प्रणाली में बाल मनोविज्ञान का खास खयाल रखा जाए.
अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. यदि हम सब आज भी अपनी आने वाली पीढ़ी के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझें और उसे सही ढंग से निभाएं तो अवश्य ही हम उन्हें बेहतर भविष्य दे सकते हैं.
साइबर बुलिंग
बुलिंग का अर्थ है तंग करना. इतना तंग करना कि पीडि़त का मानसिक संतुलन बिगड़ जाए. बुलिंग व्यक्ति को भावनात्मक और दिमागी दोनों ही तौर पर प्रभावित करती है. बुलिंग जब इंटरनैट के जरिए होती है तो इसे साइबर बुलिंग कहते हैं.
साइबर बुलिंग के कहर से भी स्कूली बच्चे सुरक्षित नहीं हैं. हाल ही में 174 बच्चों पर किए गए एक अध्ययन के मुताबिक, 17 फीसदी बच्चे बुलिंग के शिकार हैं. स्टडी में पाया गया कि 15 फीसदी बच्चे शारीरिक तौर पर भी बुलिंग के शिकार हो रहे हैं. इस में मारपीट की धमकी प्रमुख है. लड़कियों की तुलना में लड़के इस के ज्यादा शिकार होते हैं.
अपराध के बढ़ते मामले चिंताजनक
एनसीआरबी द्वारा हाल ही में जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार, 2015 और 2016 के बीच बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों की संख्या में 11 फीसदी बढ़ोतरी हुई है.
क्राइ यानी चाइल्ड राइट्स ऐंड यू द्वारा किए गए विश्लेषण दर्शाते हैं कि पिछले एक दशक में बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराध तेजी से बढ़े हैं. 2006 में 18,967 से बढ़ कर 2016 में यह संख्या 1,06,958 हो गई. राज्यों के अनुसार बात करें तो 50 फीसदी से ज्यादा अपराध केवल 5 राज्यों उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, दिल्ली और पश्चिम बंगाल में दर्ज किए गए है. उत्तर प्रदेश 15 फीसदी अपराधों के साथ इस सूची में सब से ऊपर है. वहीं महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश क्रमश: 14 और 13 फीसदी अपराधों के साथ ज्यादा पीछे नहीं हैं.
अपराध की प्रवृत्ति और कैटिगरी की बात करें तो सूची में सब से ऊपर अपहरण रहा. 2016 में दर्ज किए गए कुल अपराधों में से लगभग आधे अपराध इसी प्रवृत्ति
(48.9 फीसदी) के थे. इस के बाद अगली सब से बड़ी कैटिगरी बलात्कार की रही. बच्चों के खिलाफ दर्ज किए गए 18 फीसदी से ज्यादा अपराध इस श्रेणी में दर्ज किए गए.
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वैलेंटाइन डे के खास दिन यानी कि प्यार भरे इस खास मौसम में आप भी चाहेंगी कि आपकी खूबसूरती आकर्षण का केंद्र हो. इस दिन अगर आप भी दमकती त्वचा और आकर्षक चेहरें की ख्वाहिश रखती हैं तो आपको पहले से इसके लिए कुछ खास तैयारियां करनी पड़ेगी. घबराइये नहीं क्योंकि इसके लिए आपको पार्लर जाकर सजने सवरने और ज्यादा पैसे खर्च करने की जरूरत नहीं है. हम आपको कुछ आसान से ब्यूटी टिप्स बता रहे हैं जिसे अपनाकर आप मनचाही खूबसूरती पा सकती हैं.
मलाई और हल्दी का मिश्रण बना कर इसे चेहरे पर लगा कर दस मिनट रखें और इसके बाद चेहरे को पानी से धो लें इससे आपकी त्वचा साफ हो जाएगी और चेहरे पर खोई आभा एक बार फिर लौट आएगी. चेहरे की रंगत चमकाने के लिए आप बेसन, चंदन और हल्दी का भी फेस पैक इस्तेमाल कर सकती है. इस पेस पैक को बना कर रोजाना चेहरे पर प्रयोग करने से आपकी त्वचा दमक उठेगी.
शहद में सफेद अंडा मिलाकर इसे चेहरे पर लगाएं और 5 मिनट बाद ताजे साफ पानी से धो डालिए. अगर आपकी त्वचा अत्यधिक शुष्क है इसमें थोड़ा सा दूध मिला लीजिए. चेहरे को साफ करने के बाद गुलाब जल में भीगे काटन वूल की मदद से त्वचा को दबाइए.
गुलाब जल में काटन वूल पैड डूबो कर 10 मिनट के लिए फ्रीज में रखें. इसके बाद इससे अपने चेहरे को धीरे-धीरे सहलाएं. इस मिश्रण को गालों पर ऊपरी तथा निचली दशा में हल्के-हल्के सहलाते हुए लगाएं तथा प्रत्येक स्ट्रोक को कनपटी तक ले जाएं. इस मिश्रण को माथे पर लगाते समय मध्य बिन्दू से शुरू करके तथा दोनों तरफ बाहरी दिशा में कनपटी तक घुमाएं. ठोड़ी पर इसे घुमावदार तरीके से लगाएं. इसके बाद गुलाब जल में भीगे काटनवूल पैड से त्वचा को तेजी से थपथपाइए. इससे आपकी त्वचा में निखार आएगा.
फेशियल स्क्रब का उपयोग कीजिए. इससे त्वचा से मृत कोशिकाएं हट जाती हैं जिससे त्वचा दमक उठती है. फेशियल स्क्रब बनाने के लिए अखरोट के पाउडर, शहद और दङी का प्रयोग करें. अखरोट के पाउडर में एक चम्मच शहद और एक चम्मच दही को अच्छी तरह मिलाकर फेशियल स्क्रब बना लीजिए इस मिश्रण को कुछ समय तक चेहरे पर लगा रहने दीजिए. इसके पश्चात चेहरे पर हल्के से मसाज कीजिए तथा बाद में स्वच्छ पानी से धो डालिए.
इस उपाय को 2 सो 3 बार अपनाने के बाद ही आपके तेहरे पर निखार आने लगेगा, आप इस आसान से उपाय को अपनाकर प्राकृतिक निखार पा सकती हैं.
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इन दिनों बौलीवुड में बहुमुखी प्रतिभाओं का आगमन और उनकी स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है. अब बौलीवुड से जो प्रतिभाएं जुड़ रही हैं, वह सिनेमा की कई विधाओं में खुद को झोंकना चाहते हैं. ऐसे ही प्रतिभाओं में से एक हैं- मूलतः श्रीनगर, कश्मीर निवासी डाक्टर पिता और मनोविज्ञान की प्रोफेसर मां के बेटे जेन दुर्रानी खान, जिनकी बतौर हीरो पहली फिल्म ‘‘कुछ भीगे अल्फ़ाज’’ 16 फरवरी को प्रदर्शित होने जा रही है. पर जेन खान दुर्रानी सिर्फ अभिेनता ही नही बथ्लक एक बेहतरीन कवि भी हैं. उन्होने बौलीवुड में 2014 में प्रवेश किया था. बौलीवुड में जेन ने अपने करियर की शुरूआत फिल्म ‘‘शब’’ के निर्माण के दौरान फिल्मकार ओनीर के साथ बतौर सहायक निर्देशक काम करते हुए शुरू किया था और अब ओनीर के ही निर्देशन में उन्होंने फिल्म ‘‘कुछ भीगे अल्फ़ाज’’में अभिनय किया है.
आपके पिता डाक्टर,आपकी मां सायकोलौजी की प्रोफेसर और आपके परिवार के कई लोग पुलिस व प्रशासन से जुड़े रहे हैं. तो फिर किससे प्रेरित होकर आपने अभिनय को करियर बनाने का निर्णय लिया?
मेरे पापा डाक्टर होने के साथ साथ सिनेमा के शौकीन हैं. मैने उनके साथ घर पर वीडियो पर तमाम फिल्में देखी हैं. इसके अलावा श्रीनगर में पढ़ाई के दौरान मैं स्कूल के नाटकों में अभिनय किया करता था. मेरे एक नाना कवि और कश्मीर रेडियो पर एंकर रहे हैं, तो मुझे भी कविताएं लिखने का शौक पैदा हुआ था. मैं पिछले 14 वर्षों से यानी कि जब मैं बारह साल का था, तब से कविताएं लिखता आ रहा हूं. पर अभिनय को करियर बनाने की बात मेरे दिमाग में कभी नहीं आयी थी.
आपने थिएटर में क्या किया है?
मैंने प्रोफेशनल थिएटर कभी नहीं किया. स्कूल में नाटको में अभिनय जरूर किया है. मैं श्रीनगर के जिस स्कूल में पढ़ा हूं, वहां पर बहुत सी गतिविधियां होती थी. जिन्होंने मुझे कला के प्रति प्रेरित किया. स्कूल स्तर पर कई नाट्य प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया और विजेता बना. मैंने एक नाटक में अभिनय करने के साथ ही उसे निर्देशित किया था. श्रीनगर के टैगोर हौल में अपने स्कूल की तरफ से कई नाटक किए. एक नाटक साइंस अकादमी, दिल्ली में किया था.
तो फिर मुंबई आना और अभिनय से जुड़ना कैसे संभव हुआ?
मैं उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए श्रीनगर से दिल्ली आ गया था. जब मैं बीकौम के अंतिम वर्ष की परीक्षा की तैयारी कर रहा था, तब अपने एक दोस्त के बार बार कहने पर मैंने एक फिल्म के लिए औडीशन दे दिया था, क्योंकि उन्हें कश्मीरी लड़का चाहिए था. इस फिल्म के लिए मेरा चयन नहीं हुआ. पर फिल्म निर्देशक ओनीर की सलाह पर मैं मुंबई आ गया और मैने उनके साथ बतौर सहायक निर्देशक फिल्म ‘‘शब’’ की. पिछले तीन वर्षो से मुंबई में मेरे माता-पिता, परिवार, मेरे गुरू सब कुछ ओनीर सर ही हैं. पर मैंने इस बीच कुछ विज्ञापन फिल्मों में काम किया. कई फिल्मों के लिए औडीशन दिया. पर अंत में वह फिल्में किसी अन्य को मिलती रही. औडीशन देते देते मेरी समझ में आया कि मेरे अंदर अभिनय क्षमता चाहे जितनी भरी हो, पर निर्देशक तभी मुझे चुनेगा जब पटकथा के अनुसार निर्देशक के जेहन में किरदार की जो छवि है, वह मेरे अंदर नजर आएगी. बहरहाल, मैने सारेगामा निर्मित और ओनीर निर्देशित फिल्म ‘‘कुछ भीगे अल्फ़ाज’’ के लिए औडीशन दिया, जिसके लिए मेरा चयन हुआ. अब यह फिल्म प्रदर्शित होने जा रही है.
फिल्म‘‘कुछ भीगे अल्फाज’’के निर्देशक ओनीर ही हैं.तो फिर आपको आॅडीषन देने की जरूरत क्यांे पड़ी?
फिल्म की निर्माण कंपनी ‘सारेगामा’ है और औडीशन निर्माण कंपनी की तरफ से लिए जा रहे थे. इसलिए ओनीर ने कहा कि मैं औडीशन दूं. वहीं से चयन हो, तभी सही होगा. बहरहाल, सारेगामा कंपनी ने औडीशन के बाद स्क्रीन टेस्ट लिया. उसके बाद मेरा चयन हुआ.
फिल्म ‘‘कुछ भीगे अल्फाज’’करने की मूल वजह क्या रही है?
पहली वजह तो बतौर हीरो फिल्म करने का अवसर मिल रहा था. दूसरी वजह फिल्म की कहानी व मेरे किरदार ने मुझे प्रभावित किया. इस फिल्म के नायक की ही तरह मैं भी निजी जिंदगी में काफी रोमांटिक हूं.
फिल्म ‘‘कुछ भीगे अल्फ़ाज’’के अपने किरदार पर रोशनी डालेंगे?
इसमें मैने प्रेम में टूटे व बिखरे अल्फाज नामक एक रेडियो जाकी की भूमिका में हूं, जो कि कलकत्ता रेडियो पर रात दस बजे एक कार्यक्रम में रोमांटिक कहानियों के साथ ही गाने सुनाता है. वह अल्फाज के नाम से शायरी भी लिखता है, पर वह अपनी असली पहचान छिपाकर रखता है. मगर अर्चना नामक एक लड़की उसके प्यार में पड़ जाती हैं.
जब आप फिल्म ‘‘कुछ भीगे अल्फाज’’की शूटिंग कर रहे थे,उस वक्त आपको अपने पहले प्यार और उसके लिए लिखे गए 2500 पन्नों में से कुछ याद आया?
कई दफा, क्योंकि एक कलाकार अपनी जिंदगी, अपने अनुभवों और अपने अहसास से ही कुछ लेकर फिल्म के अपने किरदार में पिरोता है. कलाकार जिन भावनाओं का अहसास कर चुका होता है, उन्ही को उठाकर नए अंदाज व नई कहानी में पेश करता है. कई बार मुझे अपने पहले प्यार के अहसास को याद करना पड़ा.
फिल्म “कुछ भीगे अल्फ़ाज’’ सोशल मीडिया के इर्दगिर्द है. आप भी सोशल मीडिया से जुड़े हुए हैं. क्या यह सही माध्यम है?
सोशल मीडिया को समझना व इसे मैनेज करना हर किसी के लिए मुश्किल हो रहा है. क्योंकि एक तरफ इसके कई फायदे हैं, तो वहीं इसके कई नुकसान भी हैं. एक तरफ आप इस मीडिया पर अपनी बात खुलकर कह सकते हैं और आपकी बात सुनी भी जा रही है. जबकि पहले आपकी राय सिर्फ आपके वोट तक ही सीमित थी. अब आप अपनी बात लोगों से कह सकते हैं. और लोगों के जवाब भी जान सकते हैं. इसी के साथ सोशल मीडिया एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी भी है. आपको यह समझना पड़ेगा कि महज आपकी अपनी राय होना ही जरूरी नहीं है, बल्कि वह कितना उपयोगी व जानकारी वाली है, यह भी जरूरी है.
सोशल मीडिया पर जिस तरह से लोग कमेंट कर रहे हैं,उससे नहीं लगता कि अराजकता फैल रही है?
मुझे लगता हैं कि इंसान शुरू से ही ऐसा रहा है. सोशल मीडिया आ गया, तो हमें यह बात समझ आ रही है. अब हमें समझ आ रहा है कि हमारा समाज कैसा है? देखिए, सआदत हसन मंटो से लोग सवाल करते थे कि आप ऐसी कहानियां क्यों लिखते हैं? तब वह जवाब देते थे कि,‘‘मैं कुछ नहीं लिखता. मैं सिर्फ तुम्हें और तुम्हारे समाज को तुम्हारा ही एक आइना दिखा रहा हूं. अब वह तुम्हें अच्छा लगे या बुरा लगे, यह तुम्हारी गलती है. तो सोशल मीडिया भी ऐसा ही है.
इंस्टाग्राम पर आप जो कुछ पोस्ट करते हैं,उस पर किस तरह की प्रतिक्रिया मिलती हैं?
मैं सिर्फ मोहब्बत की बात करता हूं, इसलिए मेरे पास नकारात्मक प्रतिक्रियाएं नहीं आती. उम्मीद है कि भविष्य में भी ऐसा ही होगा. मुझे लगता है कि जब इंसान बिना सोचे समझे कुछ भी पोस्ट कर देता है. तब उसे नकारात्मक प्रतिक्रियाएं मिलती हैं. लेकिन आप इस डर से ना बोले कि आपके मुंह से कुछ गलत निकल जाएगा, तो भी गलत है. सही चीज है कि आप गलत चीज बोलने के लिए ना बोले.
आप कविताएं भी लिखते हैं. यह शौक कहां से पैदा हुआ?
यह मुझे ईश्वर प्रदत्त गुण है. मैं 12 साल की उम्र से कविताएं लिखता आ रहा हूं. सबसे पहले मैंने अपने नाना के बारे में कविता लिखी थी. मुझे अपने नाना से बहुत मोहब्बत हैं. मेरे नाना श्रीनगर में पुलिस विभाग में बड़े पद पर थे. उन्हें उर्दू कविताओं का बड़ा शौक रहा है. उनके भाई यानी कि मेरे दूसरे नाना जी जिया सुल्तान मशहूर कवि रहे हैं. वह रेडियो कश्मीर में एंकरिंग किया करते थे. मुझे भी कविताएं अच्छी लगती थीं. मैंने स्कूल में भी उर्दू को पढ़ाई की तरह नहीं बल्कि बड़े मौज से पढ़ा. कश्मीर के एक बहुत बडे़ शायर की औटोग्राफ की हुई इकबाल की कविताओं की किताब मैंने सबसे पहले पढ़ी थी, उन कविताओं को पढ़ते हुए मैं अपनी नयी कविता लिखता था. शुरूआत में मैंने ज्यादातर कविताएं अंग्रेजी में लिखी. फिर हिंदी और उर्दू में लिखी. पिछले 14 वर्षो के अंतराल में कम से कम 500 कविताएं लिखी होंगी. इनमें से कुछ कविताओं को मैं कभी कभी अपने इंस्टाग्राम पर डाल देता हूं. मेरी मम्मी चाहती हैं कि मैं इन कविताओं को किताब के रूप में प्रकाशित करूं. पर मैंने अब तक ऐसा किया नहीं है. मैं इनमें से कुछ चुनिंदा कविताओं को किताब के रूप में लोगों के सामने लाना चाहता हूं. पर उन्हें चुनने की हिम्मत अभी तक नहीं ला पाया. वैसे आपको बता दूं कि कुछ वर्ष पहले मेरी आदत फोन पर ही कविताएं लिखने की थी. एक दिन फोन ऐसा टूटा कि मेरी करीबन 125 कविताएं भी चली गयी. जिसका मुझे बड़ा दुःख हुआ. क्योंकि मोबाइल टूटने के बाद वह कविताएं रिकवर नहीं हो पायी. वैसे इंस्टाग्राम पर मेरी कविताओं को पसंद किया जा रहा है. पर बहुत जल्द इसी वर्ष मैं किताब के रूप में कुछ कविताओं को लेकर जरूर आउंगा.
किस तरह की कविताएं लिखते हैं?
मैं रोमांस को लेकर ही कविताएं लिखता हूं. मेरी लिखी कविताएं किसी एक डायरी में नहीं है. कुछ अखबार के पन्नों पर हैं, कुछ कागजों पर हैं. जब मेरे दिमाग में कुछ लिखने की बात आती है, तो मैं डायरी तलाशने की बजाय जो भी कागज सामने होता है, उसी पर लिखने बैठ जाता हूं. निजी जीवन में मैं रोमाटिक इंसान हूं.
आप फिल्म ‘‘कुछ भीगे अल्फाज’’ में कविता या गाना लिख सकते थे?
सच कहूं तो मैंने जब पटकथा पढ़ी, तो उसमें जो शायरी लिखी हुई थीं, वह बहुत अच्छी थीं. जिन्हें अभिषेक चटर्जी और ओनीर की भतीजी रिचा ने लिखा है. यह सब फिल्म के साथ बहुत सटीक बैठती हैं. इसलिए मैंने खुद लिखने के बारे में नहीं सोचा. मुझे खुशी थी कि मुझे ऐसी बेहतरीन शायरी पर अभिनय करने का मौका मिल रहा था. वैसे भी मैं दी गयी सिच्युएशन के आधार पर कविताएं लिखने में माहिर नहीं हूं. मेरे दिमाग में जब कोई ख्याल आता है, तो उसे लिखता हूं. मेरा मानना है कि कविता लिखना मेहनत का काम नहीं है. बल्कि कविता लिखने का अर्थ होता है, दिल में जो बात आए, उसे कागज पर उतार देना.
कई बार ऐसा हुआ कि फिल्म देखते समय मैं किसी किरदार के साथ इस कदर जुड़ गया हूं कि उसको लेकर भी मैंने कुछ कविताएं लिखी. मैं अपने आसपास के अनुभवों को भी कविताओं का हिस्सा बनाता हूं. मैंने कश्मीर के हालातों पर भी कविताएं लिखी हैं. अपना दर्द बयां किया है. जब मैं कश्मीर जाता हूं, तो उस वक्त बहुत कुछ घटित होता रहता है. दिमाग में बहुत कुछ चलता है. ढेर सारे एहसास होते हैं, तो उन्हें कागज पर उतार कर सकून मिलता है. अपनी ही लिखी कविता को जब मैं कुछ समय बाद पढ़ता हूं, तो मुझे एहसास होता है कि मैं उन चीजों को किस तरह से एहसास कर रहा था.
आप किस तरह की चीजें पढ़ना पसंद करते हैं?
मैं अमर्त्य सेन का बहुत बड़ा फैन हूं. मुझे उनकी लिखायी बहुत पसंद है. मुझे हरिवंशराय बच्चन की कविता ‘अग्निपथ’ बहुत पसंद है. फैज अहमद फैज मुझे बहुत अच्छे लगते हैं. मुझे उनकी रोमांटिक कविताएं बहुत पसंद हैं. इकबाल व जोश मलिहाबादी को भी मैने काफी पढ़ा है.
इन दिनों क्या पढ़ रहे हैं?
आज कल मैं फैज अहमद फैज को पुनः पढ़ रहा हूं. फैज अहमद फैज की रोमांटिक कविता में जो मिठास है, वह मुझे हर दिन तरोताजा करती हैं. इसके अलावा मुझे अपनी मम्मी के कौलेज की मनेाविज्ञान विषय वाली किताबें पढ़ना भी बहुत पसंद रहा हैं. जिसकी वजह से मेरे अंदर सायकोलौजी की बहुत अच्छी समझ विकसित हुई.
सायकोलौजी/मनोविज्ञान की किताबें पढ़ने से क्या फायदा हुआ?
किसी भी किरदार को निभाना बहुत आसान हो गया है. देखिए, मैं बहुत बड़ी बड़ी बातें नहीं करना चाहता. अन्यथा लोग कहेंगे कि बिना किसी मुकाम को पाए ही बकवास कर रहा है. पर इन किताबों को पढ़ने से मुझे इंसानी दिमाग से प्यार हो गया है. अब मेरे लिए किसी भी इंसान को समझना आसान हो गया है. कलाकार के तौर पर हमें किरदार को समझने में मनोविज्ञान काफी मदद करता है. मनोविज्ञान को पढ़ने से ही मेरे अंदर अभिनय को समझने में रूचि पैदा हुई.
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अक्सर लोग पीएफ और पीपीएफ को लेकर कन्फ्यूज हो जाते हैं, लेकिन दोनों में एक मूलभूत अंतर होता है. पीपीएफ पीएफ के बजाए एक अलग तरह का अकाउंट है जिसे आप खोलकर सेविंग के साथ साथ इनकम टैक्स में छूट भी प्राप्त कर सकते हैं. इन दोनों के ही अपने अलग-अलग नियम होते हैं. हम अपनी इस खबर में आपको इसी बारे में विस्तार से बताने जा रहे हैं.
पीएफ और पीपीएफ में अंतर
पीएफ मूल रुप से वह अकाउंट होता है जिसे नौकरीपेशा लोगों के लिए खोला जाता है. इसे ईपीएफ भी कहते हैं. जबकि पीपीएफ केंद्र सरकार की एक स्कीम है जिसे बैंक और डाकघरों की ओर से संचालित किया जाता है. इस खाते को कोई भी खुलवा सकता है भले ही वो नौकरीपेशा न हो.
क्या है पीएफ
नौकरीपेशा लोगों के लिए खोले जाने वाले इस अकाउंट में नियोक्ता आपकी बेसिक सैलरी से कुछ निश्चित अमाउंट काटकर (मौजूदा समय में यह 12% है) पीएफ अकाउंट में जमा करा देता है. यह रकम सरकार की ओर से तय होती है और इतना ही हिस्सा कर्माचारी के योगदान के तौर पर अकाउंट में जमा किया जाता है. नियोक्ता की ओर से जमा रकम में से 8.33 फीसद हिस्सा कर्मचारी पेंशन योजना (ईपीएस) में जाता है. इस पर 8.65 फीसद ब्याज मिलता है. इसके लिए हर अकाउंट होल्डर को UAN नंबर जारी किया जाता है.
टैक्स बेनिफिट
5 साल से पहले निकाला तो धनराशि पर टैक्स लगेगा. अन्यथा 80C के अंतर्गत छूट मिलती है.
क्या है पीपीएफ
सरकार की यह स्कीम बैंकों और डाकघरों की ओर से संचालित की जाती है. इसमें खाता खुलवाने के लिए आपका नौकरी पेशा होना जरूरी नहीं है. इसमें 7.8 फीसद की दर से ब्याज मिलता है. इसमें मैच्योरिटी पीरियड 15 साल होती है लेकिन आप 5 साल बाद जमा का कुछ हिस्सा निकाल सकते हैं.
टैक्स बेनिफिट
खाते में जमा राशि पर 80C के अंतर्गत छूट और मेच्योरिटी अमाउंट पर टैक्स नहीं है.
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पीपीएफ के बड़े फायदे
पीपीएफ अकाउंट में जमा पैसों पर आयकर की धारा 80 सी के तहत छूट.
पीपीएफ अकाउंट पर कमाए ब्याज पर कोई टैक्स नहीं.
खाते में जमा राशि पर 8 फीसद की दर से ब्याज.
खाते में जमा रकम पर मैच्योरिटी पर भी कोई टैक्स नहीं.
किसी गंभीर बीमारी की स्थिति में या फिर अपने बच्चों की उच्च शिक्षा के लिए आप 5 साल पुराने पीपीएफ अकाउंट को बंद करके पूरी रकम निकाल सकते हैं.
उबले कौर्न में मक्खन, चाटमसाला, नीबू का रस और नमक मिलाएं. पापड़ को बीच से आधा करें. आंच में पापड़ सेंकें और गरमगरम में ही कोन की तरह मोड़ दें. पापड़ कोन तैयार हैं. इन में मसाला कौर्न भरें और ऊपर से अनार के दाने बुरक कर तुरंत सर्व करें.
व्यंजन सहयोग : नीरा कुमार
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1972 के अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिका के कैनेथ एरो ने 1963 में ही चेतावनी दे दी थी कि स्वास्थ्य सेवा को बाजार के हवाले कर देना आम लोगों के लिए घातक साबित होगा.
इस चेतावनी का दुनियाभर में जो भी असर हुआ हो लेकिन हमारे देश में स्वास्थ्य सेवाओं का स्वास्थ्य उद्योग में तबदील हो जाना क्या और कैसेकैसे गुल खिला रहा है, इस की ताजी बानगी बड़े वीभत्स, शर्मनाक और अमानवीय तरीके से बीती 1 दिसंबर को सामने आई.
दिल्ली के शालीमार बाग इलाके में स्थित मैक्स सुपर स्पैशलिटी हौस्पिटल के डाक्टरों ने एक दंपती को उन के जुड़वा बच्चों को पोलिथीन में पैक कर यह कहते थमा दी थी कि ले जाइए, ये दोनों मर चुके हैं.
जानना और समझना जरूरी है कि मैक्स सुपर स्पैशलिटी अस्पताल के डाक्टरों ने किस तरह की लापरवाही और अमानवीयता दिखाई थी जिस ने पूरे देश को झिंझोड़ कर रख दिया था. हालांकि महंगे पांचसितारा प्राइवेट अस्पतालों में होती आएदिन की लूटखसोट का यह पहला या आखिरी मामला नहीं था जिस ने सहज ही कैनेथ एरो की चेतावनी याद दिला दी, बल्कि ऐसा हर समय देश में कहीं न कहीं हो रहा होता है. और डाक्टरों को लुटेरा व हत्यारा तक कहने में लोगों को कोई संकोच या ग्लानि महसूस नहीं होती.
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जबकि जिंदा था बच्चा
शिकायतकर्ता पति या पिता आशीष की मानें तो उस ने 6 महीने की गर्भवती पत्नी वर्षा को उक्त अस्पताल में भरती किया था. भरती करने के बाद मैक्स के डाक्टरों ने गर्भस्थ जुड़वा शिशुओं के जिंदा रहने यानी बचने की संभावना महज 10-15 फीसदी ही बताई थी. निम्न मध्यवर्गीय आशीष यह सुन कर मायूस और परेशान हो उठा.
डरा कर पैसे ऐंठने के भी विशेषज्ञ हो चले डाक्टरों का यह दांव खाली नहीं गया. उन्होंने पुचकारते हुए आशीष से कहा कि खतरा टल सकता है यदि वर्षा को 35-35 हजार रुपए की कीमत वाले 3 इंजैक्शन लगाए जाएं. लगभग 1 लाख रुपए की रकम आशीष के लिए मामूली और गैरमामूली दोनों नहीं थी. पत्नी और बच्चों की सलामती के लिए वह इस बाबत तैयार हो गया तो उक्त 3 इंजैक्शन वर्षा को लगा दिए गए.
ये इंजैक्शन लगने के बाद ही चमत्कारिक ढंग से बच्चों के बचने की संभावना डाक्टरों ने बताई तो आशीष को 1 लाख रुपए खर्च करने का कोई मलाल नहीं हुआ. पैसा हाथ का मैल है, आताजाता रहता है, यह प्रचलित बात आशीष को भी मालूम थी कि जान अगर एक दफा चली जाए तो फिर कुछ नहीं हो सकता.
मैक्स अस्पताल में जाने से पहले वर्षा का नियमित चैकअप पश्चिम विहार इलाके के अट्टम नर्सिंग होम में होता था. जब भी वर्षा यहां आई तब डाक्टरों ने जांच के बाद यही कहा था कि सबकुछ नौर्मल और ठीकठाक है.
इस पर आशीष और वर्षा खुशी से फूले नहीं समाते थे. पहली दफा मांबाप बनने जा रहे नवदंपतियों की तरह उन्होंने होने वाले बच्चों के लिए खिलौने खरीदने भी शुरू कर दिए थे और बैडरूम में बच्चों के हंसते, खिलखिलाते पोस्टर भी लगा लिए थे. वर्षा के मायके वाले भी खुशखबरी सुनने का इंतजार करते अपने रस्मोरिवाज निभाने की तैयारियों में जुटे थे. आशीष और वर्षा की शादी को अभी 3 साल ही हुए थे.
नवंबर के तीसरे हफ्ते में वर्षा फिर से अट्टम नर्सिंग होम गई तो वहां की लेडी डाक्टर स्मृति ने परिवारजनों को मैक्स अस्पताल ले जाने की सलाह दी. उन के मुताबिक, वर्षा के वाटर बेग से लीकेज होने लगी थी.
आशीष या उस के पिता इस चिकित्सकीय भाषा को नहीं समझते थे. उन्हें तो बस वर्षा और होने वाले बच्चों की सलामती से सरोकार था. लिहाजा, वे भागेभागे मैक्स अस्पताल गए और
1 लाख रुपए के इंजैक्शन फिर लगवा लिए. अब खतरा टल गया है, यह बात ये लोग मैक्स जैसे नामी अस्पताल के डाक्टरों के मुंह से सुन कर ही वापस जाना चाहते थे.
खतरा कितना था और था भी या नहीं, यह इन्हें नहीं मालूम था. अस्पताल प्रबंधन के लालच का अंदाजा भी उन्हें कतई नहीं था. पहली दफा महंगे स्टार अस्पताल में इलाज के लिए जाने वाले कम पैसे वालों के साथ ऐसा न हो, तो जरूर बात हैरत की होती.
पहले तो उषारानी नाम की डाक्टर ने इन्हें यह कहते डराया कि बच्चों को जन्म के बाद 12 हफ्तों तक उन्हें नर्सरी में रखना पड़ेगा. हैरानपरेशान आशीष और उस के पिता कैलाश मैक्स अस्पताल के चाइल्ड स्पैशलिस्ट डाक्टर ए सी मेहता से मिले तो उन्होंने उषारानी की बात की पुष्टि करते सधे और कारोबारी ढंग से बताया कि शुरू के 4 दिन बच्चों को नर्सरी में रखने के 1 लाख रुपए प्रतिदिन और बाद में 50 हजार रुपए प्रतिदिन लगेंगे.
इतनी बड़ी रकम इन लोगों के पास नहीं थी. फिर भी, उन्होंने सोचा कि कहीं न कहीं से इंतजाम कर लेंगे. 29 नवंबर को वर्षा की मैक्स में ही अल्ट्रासाउंड जांच हुई थी जिस में बच्चों के पूरी तरह स्वस्थ होने की बात कही गई थी. इस से आशीष और उस के परिवारजनों ने राहत की सांस ली थी.
30 नवंबर को सुबह 7.30 बजे वर्षा ने पहले एक बेटे और फिर 12 मिनट बाद एक बेटी को जन्म दिया. सुबह 8 बजे परिवारजनों को बच्चे देखने की अनुमति मिली पर यह बता दिया गया था कि बेटी मृत पैदा हुई है और बेटा जिंदा है.
इन लोगों ने यह सोचते तसल्ली कर ली कि चलो, एक तो बचा. लेकिन फिर साढ़े 12 बजे के लगभग अस्पताल प्रबंधन की तरफ से बेटे के भी मर जाने की बात कही गई. जल्द ही आशीष के हाथ में 2 पैकेट यह कहते थमा दिए गए कि ये रहे आप के बच्चे.
कल तक जो आशीष अपनी फैमिली कंप्लीट हो जाने की आस लगाए बैठा था, उस का दिल पार्सल बना कर दी गई बच्चों की लाशें देख हाहाकार कर रहा था. उस का तो सबकुछ एक झटके में लुट गया था पर इस वक्त तक उसे यह नहीं मालूम था कि यह बेरहम लुटेरा कोई न दिखने वाला भगवान नहीं, बल्कि वे डाक्टर हैं जिन्हें भगवान के बाद दूसरा दरजा हर कोई देता है.
पैकेटों में पैक अपने नवजात बच्चों की लाशें ले कर आशीष अपने ससुर प्रवीण के साथ टैक्सी में बैठ कर चंदर विहार श्मशान की तरफ चल पड़ा.
कैसे अपने सपनों को दफन किया जाता है, यह उस से बेहतर कोई भी नहीं बता सकता. बीच में रास्ते में मधुबन चौक के पास लाश वाला पैकेट हिला, तो प्रवीण ने कहा, ‘लगता है बच्चा जिंदा है.’
यह हैरतअंगेज बात इस लिहाज से थी कि जिस बच्चे को मैक्स के डाक्टर मरा बता चुके हों वह जिंदा कैसे हो सकता है. आशीष ने इसे वहम समझा और उसे लगा कि गाड़ी हिलने की वजह से पैकेट हिला होगा, इसलिए प्रवीण को ऐसा लगा.
लेकिन बात सच थी. प्रवीण के हाथों में रखा पैकेट वाकई हिल रहा था, लग ऐसा रहा था, मानो बच्चा पांव झटक रहा हो. दोनों ने वक्त न गंवाते पैकेट खोलना शुरू किया जिसे बांधने में कोई लापरवाही नहीं की गई थी. पैकेट 5 परतों में बांधा गया था जिसे खोलने में लगभग 3 मिनट लग गए.
बच्चा वाकई जिंदा था, उसे ले कर वे तुरंत नजदीक के पीतमपुरा स्थित अग्रवाल अस्पताल ले गए. वहां तुरंत बच्चे को भरती किया गया और तुरंत ही उस का इलाज भी शुरू हो गया. अग्रवाल अस्पताल में मौजूद डाक्टर संदीप अग्रवाल ने बच्चे के जिंदा होने की पुष्टि की, साथ ही, यह भी बताया कि इंफैक्शन के चलते उस के बचने की उम्मीद कम है.
6 दिन इलाज हुआ पर बेटा बचा नहीं. इस के बाद सामने आई मैक्स की लारवाही या हैवानियत, कुछ भी कह लें, एक ही बात है. संदीप उस के घर वाले और नातेरिश्तेदार धरनाप्रदर्शन करने लगे तो दिल्ली हिलने लगी. ये लोग इंसाफ के साथसाथ उन 2 डाक्टरों को सजा दिए जाने की मांग कर रहे थे जिन्होंने बच्चे को मृत बता कर उन्हें दफनाने के लिए दे दिया था. इस बाबत आशीष ने शालीमार बाग थाने में एफआईआर दर्ज कराई. पुलिस ने आईपीसी की धारा 308 के तहत मामला दर्ज किया.
मामले ने तूल पकड़ा तो दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन ने पत्रकारवार्त्ता बुला कर बताया कि इस मामले की गंभीरता से जांच की जाएगी. इस बाबत जांच कमेटी गठित कर दी गई है. उस की रिपोर्ट आते ही कार्यवाही हुई. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने मैक्स अस्पताल का लाइसैंस रद्द कर दिया. इस पर दिल्ली मैडिकल एसोसिएशन यानी डीएमए ने एतराज जताते, बल्कि सरकार को धमकी देते, कहा कि अगर मैक्स का लाइसैंस रद्द करने का फैसला वापस नहीं लिया गया तो डीएमए कामकाज ठप कर देगा और डाक्टर्स काम नहीं करेंगे.
मैक्स के हक में डीएमए ने तर्क दिए जिन के माने सिर्फ इतने भर थे कि हम चोरी भी करेंगे और फिर सीनाजोरी भी. बच्चा प्रीमैच्योर था और सरकार ने एक हजार परिवारों की रोजीरोटी पर संकट खड़ा कर दिया है, जैसी बातें आशीष के इस बयान के सामने कुछ भी नहीं थीं कि उस के बच्चे को 3 घंटे इलाज नहीं मिला, उसे किसी सामान की तरह पैक कर दिया गया था जबकि वह जिंदा था.
कानूनन डाक्टरों को काफी छूटें मिली हुई हैं, पर इस मामले में उन की करतूत छिपाए नहीं छिप रही है. न तो चिकित्सकीय दृष्टि से वे खुद को सच साबित कर पा रहे हैं और न ही कानूनी लिहाज से कोई राहत उन्हें मिलने की संभावना दिख रही.
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने मैडिकल माफिया से एक आम परिवार के हक में सीधे टकराने की हिम्मत दिखाई. यह वाकई तारीफ की बात है जिस से देशभर के लोगों को उम्मीद बंधी कि अगर सभी राज्य सरकारें सख्त हो जाएं तो ऐसी नौबत ही क्यों आए. हालांकि, कुछ ही दिनों बाद मैक्स अस्पताल का लाइसैंस बहाल कर दिया गया.
इसी तरह गुरुग्राम स्थित फोर्टिस अस्पताल में डेंगू से बच्ची की मौत और इलाज के लिए 16 लाख रुपए का बिल वसूलने के आरोप में वहां के एक डाक्टर के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई गई.
हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज ने कहा कि जांच पैनल की रिपोर्ट के आधार पर आपराधिक धाराएं जोड़ी जाएंगी.
उदाहरणों से भयावह आंकड़े
ऐसी नौबत जबतब आती रहती है जिस में प्राइवेट अस्पतालों पर लूटखसोट करने का आरोप सच साबित होता है. मृत व्यक्ति को 7 दिन वैंटीलेटर पर रखा, जीवित को मृत बता दिया, जब तक बिल अदा नहीं किया तो शव नहीं दिया गया या फिर दिल्ली के नजदीक ही गुरुग्राम में डेंगू पीडि़त एक बच्ची के इलाज का बिल 15 लाख रुपए आया जैसी खबरें अब चौंकाती नहीं हैं बल्कि बताती हैं कि लोकतांत्रिक सरकारें राजशाही से ज्यादा खोखली हैं.
हालांकि यह मसला भी सोचनीय है कि जब हमें चिकित्सा सुविधा पास के सामान्य या सरकारी अस्पतालों में मिल जाती है तो फिर लोग उन मल्टी स्पेशिऐलिटी वाले अस्पताल का रुख करते ही क्यों हैं जहां के खर्चे व मैंटिनैंस चार्जेज इतने भारी होते हैं.
मैक्स सरीखे लग्जरी अस्पतालों में हर तरह की सर्जरी के अलावा बड़ेबड़े मर्ज का इलाज करने के लिए बहुमंजिला होटल जैसी सुविधाएं दी जाती हैं. लोग मामूली बुखार से ले कर बड़े मर्ज के इलाज के लिए यहां आ कर भीड़ बढ़ाते हैं जबकि 60 प्रतिशत बीमारियां तो आप के नजदीकी अस्पताल में कर्म खर्चे पर ही ठीक हो सकती हैं. या फिर ऐसे अस्पताल का रुख करें जहां सिर्फ उसी विशेष बीमारी का इलाज होता हो. इस से अतिरिक्त टैस्ट करवाने या पैसे ऐंठने के विकल्प ही खत्म हो जाएंगे और फिर ये अस्पताल भी अपनी मनमानी के बिल नहीं जोड़ेंगे.
लोग महंगे अस्पतालों में जा कर लुट रहे हैं तो कोई भी यह कह कर पल्ला नहीं झाड़ सकता कि आखिरकार लोग वहां इलाज के लिए जाते ही क्यों हैं. यह एक संवेदनशील बात है जो सच के करीब लगती है, लेकिन इस का सीधा संबंध सरकार से भी है जो शिक्षा और स्वास्थ्य के प्रति जवाबदेह होती है.
लोग महंगे अस्पतालों में जाते ही क्यों हैं, इस की जगह अगर यह सवाल पूछा जाए कि अस्पताल इतने महंगे क्यों हैं, तो जवाब की तरफ बढ़ने में सहूलियत रहेगी.
पेंच इतना भर नहीं है कि बड़े अस्पतालों की लागत और खर्च भी ज्यादा होते हैं और वे सरकार को टैक्स भी ज्यादा देते हैं और तमाम बड़े नेता व अफसरों का लगभग मुफ्त के भाव इन में इलाज होता है. सच यह है कि सरकार के निकम्मेपन के चलते पिछले 20 सालों से ब्रैंडेड अस्पतालों की शृंखला खूब फलफूल रही है जिन में निचुड़ता आखिरकार आम आदमी ही है.
साल 2017 की शुरुआत में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने ब्रैंडेड अस्पताल संचालकों के कान उन के नाम के साथ करतूतें गिनाते खींचे थे. वह भी एक मीटिंग में, तो उन की घुड़की से अस्पताल संचालक सहमे थे.
पर हर जगह ऐसा नहीं होता. वजह, स्वास्थ्य सेवाओं को मुनाफाखोरों के हवाले करने की जिम्मेदार सरकार लूटखसोट पर अंकुश लगाने के लिए कोई पहल नहीं करती. अस्पतालों में दवाओं के दाम अलगअलग हैं, सेवाओं की फीस अलगअलग हैं, और इस के बाद भी कोई मरीज अगर लापरवाही के चलते मर जाए तो प्राइवेट अस्पतालों को आमतौर पर कोई सजा क्यों नहीं होती, इन सवालों के जवाब आंकड़ों से गिनाए जाएं तो समझ आता है कि सरकार की नीतियां भी कम दोषी या जिम्मेदार नहीं.
बात कम हैरत की नहीं कि देश में कुल 19,817 सरकारी अस्पताल हैं जबकि प्राइवेट अस्पतालों की तादाद 80,671 है. इंडियन मैडिकल एसोसिएशन के मुताबिक, देशभर में रजिस्टर्ड एलोपैथिक डाक्टरों की संख्या 10,22,859 में से महज 1,13,328 डाक्टर ही सरकारी अस्पतालों में हैं यानी 90 फीसदी डाक्टर प्राइवेट सैक्टर में हैं.
देश की 75 फीसदी आबादी इस लिहाज से प्राइवेट अस्पतालों में इलाज कराने को मजबूर कर दी गई है. यानी घोषित तौर पर स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण हो चुका है जिस की चांदी कोई दर्जनभर ब्रैंडेड अस्पतालों की शृंखला, जिसे चेन कहा जाता है, काट रही है. सरकार स्वास्थ्य पर प्रतिव्यक्ति महीनेभर में 100 रुपए भी खर्च नहीं करती है.
जब बुनियादी सेवाएं बिकने लगती हैं तो वे पूरी तरह पूंजीपतियों की मुट्ठी में कैद हो कर रह जाती हैं. चूंकि कोई कुछ नहीं बोलता, उलटे, बतौर फैशन, यह कहा जाता है कि अगर जेब में पैसा है तो महंगे अस्पतालों में इलाज से हर्ज क्या.
हर्ज यह है कि फिर सरकार अपने बजट में कटौती करने लगती है. साल 2000 से ले कर 2017 तक स्वास्थ्य का सरकारी बजट 2,472 करोड़ से बढ़ कर 48,871 करोड़ रुपए हुआ लेकिन इन्हीं 17 सालों में प्राइवेट अस्पतालों का कारोबार साढ़े 6 लाख करोड़ का रिकौर्ड आंकड़ा छू रहा है जो साल 2000 में केवल 50 हजार करोड़ रुपए था.
यह पैसा कोई आसमान से नहीं बरस रहा, न ही प्राइवेट अस्पतालों के कारोबारी अपनी जेब से लगा रहे, बल्कि यह आशीष जैसे आम मेहनतकश लोगों की जेबकतरी का नतीजा है जिस पर कभीकभार कोई बड़ा हादसा होने पर ही हायहाय मचती है. मैक्स ग्रुप का सालाना टर्नओवर 17 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा है, कैसे है, यह भी आशीष जैसे पीडि़त नहीं समझ पाते कि सरकारी अस्पतालों पर जानबूझ कर पसराई गई बदहाली इस की बड़ी जिम्मेदार होती है जो यह कहती है कि अगर अपने जिंदा बच्चे को जिंदा चाहिए तो 50 लाख रुपए जमा करो.
हर कोई जानता है कि सरकारी अस्पताल में जाने पर डाक्टर के मिलने की गारंटी नहीं, लेकिन प्राइवेट अस्पताल में है जहां हर विजिट के 500 रुपए से ले कर 1,500 रुपए डाक्टर को देने पड़ते हैं. यह डाक्टर सरकारी अस्पताल के ही सुविधाभोगी चैंबर में बैठा या तो टीवी देखता रहता है या फिर वीडियो गेम खेल रहा होता है पर इस सवाल का जवाब कोई नहीं देता कि चंद कदमों की दूरी नापने के 500 रुपए क्यों. इसी एक डाक्टर से अस्पताल उस की 20 विजिट पर 10 हजार रुपए रोज कमाता है. ऐसे 10 डाक्टर हों तो यह आंकड़ा एक लाख रुपए रोजाना का होता है.
लूटखसोट के इस कारोबार में हर कोई हाथ धो रहा है. हर छोटे शहर में कई नर्सिंगहोम होने लगे हैं जो कुछ दिन मरीज की जेब कुतरने के बाद इलाज पूरा न हो पाने पर उसे नजदीक के बड़े शहर में भेज देते हैं. बोलचाल की भाषा में इसे रैफर करना कहा जाता है. बडे़ जेबकतरे अपनी शानोशौकत, चमकदमक और हैसियत के मुताबिक जरूरतमंद मरीजों की बचीखुची रकम लूट लेते हैं. मरीज ठीक हो जाए तो ठीक, वरना कहने को परंपरागत भारतीय जुमला ‘हरि इच्छा’ तो है ही.
लैबों की लूट
पैथोलौजी की दरें बंधी हैं. मामूली बुखार में भी कई तरह की जांचें प्राइवेट अस्पताल में गंगाडुबकी की तरह अनिवार्य होती हैं. कमीशनखोरी पैथौलाजी में भी खूब चलती है. तरहतरह के माफिया देशभर में सक्रिय हैं-किडनी माफिया, हार्ट माफिया, कैंसर माफिया और अब तो पेंक्रियाज माफिया तक होने लगे हैं.
देशभर में सरकारी बसें अब गांवदेहातों की तरफ ही चलती दिखती हैं क्योंकि घाटे के चलते वहां कोई प्राइवेट ट्रांसपोर्टर जाने को तैयार नहीं होता. ठीक यही हाल स्वास्थ्य सेवाओं का है. सरकार ने अस्पताल खोलना कम कर दिया है और अस्पतालों की बदहाली बढ़ा दी है ताकि मरीज घबरा कर प्राइवेट अस्पतालों की तरफ भागें.
कहने का मतलब यह नहीं कि प्राइवेट अस्पताल न हो, वे हों, पर लूटखसोट करने का हक उन से छीना जाना चाहिए.
अस्पतालों की लूटखसोट अब भी कम होगी, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं. प्राइवेट स्कूलों की तरह उन्हें फीस कम करने के लिए सरकार मजबूर नहीं कर सकती और करेगी भी तो वे हजार नए रास्ते ढूंढ़ लेंगे. इन को ठिकाने लगाने का इकलौता रास्ता सरकार के पास यह है कि ये अस्पताल रोज का हिसाब सार्वजनिक करें जैसा कि जीएसटी लागू होने के बाद हर छोटेबड़े व्यापारी को करना पड़ रहा है, तभी इन की पूरी पोल खुलेगी.
मरीज भी अपने कानूनी अधिकारों को जानें
निजी अस्पतालों में जिस तरह से मरीजों को ठगा जाता है, उन से बचने के लिए हमारी न्यायिक प्रणाली में कुछ कानून भी हैं जिन का उपयोग कर के आप अपने मरीज के खर्चे और अस्पताल द्वारा उठाए जा रहे कदमों की जानकारी ले सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता ऋचा पांडे ने मरीज के हित में बनाए गए कानूनों की व्याख्या की.
एमआरटीपी एक्ट 1969 : इस के तहत कोई भी अस्पताल चाहे वह सरकारी हो या प्राइवेट, किसी भी खास जगह या दुकान से दवाइयां खरीदने के लिए बाध्य नहीं कर सकता. इस कानून के तहत दवा विक्रेताओं के बीच प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए.
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 : हमारे देश में पेशेंट राइट नाम का कोई कानून नहीं है जबकि कई देशों में मरीजों के हित के लिए कानून बनाए गए हैं और सजा का भी प्रावधान है. लेकिन हम यहां स्वास्थ्य सेवा के उपभोक्ता होने के नाते देश के उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम (1986) कानून के तहत अपने अधिकार की लड़ाई लड़ सकते हैं.
सूचना का अधिकार कानून 2005 : 2005 के बाद जो आम लोगों के हाथों में हथियार आया है वह है, सूचना का अधिकार. इस कानून के तहत सब से पहले हमें डाक्टर और अस्पताल से ये जानने का अधिकार है कि मरीज पर किस तरह का उपचार चल रहा है, जांच में क्या निकल कर आया और दवाइयों से कितना सुधार है. मरीज के परिजन और मरीज इस की जानकारी अस्पताल से मांग सकते हैं. सूचना के अधिकार का उपयोग कर के आप जो डाक्टर आप का इलाज कर रहा है उस की योग्यता, डिगरी की जानकारी की मांग भी कर सकते हैं.
क्लिनिकल इस्टैब्लिशमैंट एक्ट 2010 : इस कानून को देश के सभी राज्यों ने लागू नहीं किया है. इस अधिनियम के तहत हर अस्पताल, क्लिनिक या फिर नर्सिंग होम को रजिस्टर करना अनिवार्य होता है. साथ ही, एक गाइडलाइन के तहत हर बीमारी के इलाज और टैस्ट की प्रक्रिया निर्धारित है. और ऐसा न करने पर इस एक्ट में जुर्माने का प्रावधान भी है.
प्रोफैशनल कंडक्ट ऐंड ऐथिक्स एक्ट : आईएमए ने भी डाक्टरों के लिए कुछ दिशानिर्देश जारी किए हैं जिस में अगर आप को इमरजैंसी में इलाज की जरूरत है तो कोई डाक्टर इस के लिए आप को मना नहीं कर सकता जब तक फर्स्ट एड दे कर मरीज की स्थिति खतरे से बाहर न कर लें.
इंडियन जर्नल औफ मैडिकल ऐथिक्स : कोई मरीज नहीं चाहता कि उस की बीमारी का पता परिवार वालों को चले तो डाक्टर कभी भी उस बीमारी की परिवारवालों से चर्चा नहीं करेंगे. साथ ही, अस्पताल में ऐडमिट मरीज अपनी बीमारी के बारे में सैकंड ओपिनियन या दूसरे डाक्टर की सलाह ले सकता है. ऐसा करने से कोई भी अस्पताल या डाक्टर रोक नहीं सकता. लेकिन अगर दूसरे डाक्टर की ओपेनियन पहले से अलग है तो किसी भी डाक्टर को दोषी नहीं ठहराया जा सकता.
किसी भी मरीज की सर्जरी के पहले यह डाक्टर की जिम्मेदारी है कि वह औपरेशन, सर्जरी के पहले मरीज के परिजन को संभावित खतरों की पूरी सही जानकारी दे और एग्रीमैंट लैटर पर उन के साइन ले. मरीज को दूसरे अस्पताल में शिफ्ट करने या डाक्टर बदलने के लिए अस्पताल को समय से रहते इस की सूचना मरीज के परिवारवालों को देनी चाहिए. मरीज के केस से जुड़ी पूरी प्रक्रिया सभी खर्चे के ब्योरे सहित अस्पताल से मरीज व उस के परिजन ले सकते हैं.
बौलीवुड सुपरस्टार सलमान खान ने कुछ समय पहले एक ट्वीट करके सनसनी मचा दी थी कि उन्हें लड़की मिल गयी है. दरअसल, वह जिस लड़की की बात कर रहे थे वो उनके बहनोई आयुष शर्मा की डेब्यू फिल्म की नई हीरोइन है. इस हीरोइन का नाम है वरीना. जबसे आयुष और वरीना के फिल्म करने की घोषणा हुई है, तभी से ये दोनों साथ में दिखने लगे हैं.
सलमान खान के जीजा आयुष शर्मा ने अपनी अपकमिंग फिल्म ‘लवरात्रि’ की हीरोइन वरीना हुसैन के साथ पहला टेस्ट फोटोशूट कराया है. जिसकी तस्वीरें आयुष ने अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर शेयर की है. फोटो में दोनों ने व्हाइट शर्ट और ब्लू जींस पहनी है. इनकी जोड़ी काफी रिफ्रेशिंग लग रही है. पहली बार दोनों को यूं साथ में देखकर फैंस के बीच इन्हें सिल्वर स्क्रीन पर देखने की बेताबी बढ़ गई है.
गौरतलब है कि मंगलवार को सलमान ने इस लड़की की तस्वीर को शेयर करते हुए बताया कि इस लड़की का नाम है वरीना, जो उनकी बहन अर्पिता खान के पति आयुष शर्मा की आने वाली फिल्म की हीरोइन होंगी. इस साल बौलीवुड में कई नए चेहरे लौन्च हो रहे हैं. सारा अली खान, जाह्नवी कपूर और बनीता संधू के साथ अब वरीना हुसैन न्यूकमर्स की लिस्ट में शामिल हो गई हैं. वरीना और आयुष दोनों ही एक्टर्स की ये पहली बौलीवुड फिल्म है. आपको बता दें कि यह फिल्म सलमान के प्रोडक्शन की ही है जिसकी चर्चा लंबे समय से हो रही थी.
लवरात्रि में गुजरात की एक लव स्टोरी दिखाई जाएगी. कहा जा रहा है कि वरीना इस फिल्म में बेले डांसर के किरदार में दिखाई देंगी. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, अभिराज मिनावाला फिल्म को डायरेक्ट करेंगे. अभिराज कई फिल्मों में अली अब्बास जफर को असिस्ट कर चुके हैं. खबरों की मानें तो फिल्म की शूटिंग फरवरी में शुरू होगी. फिल्म को 2018 में ही रिलीज करने की प्लानिंग की जा रही है.
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वरीना टीवी पर मशहूर हुए कैडबरी सिल्क चौकलेट के विज्ञापन में नजर आईं थीं. सलमान ने इस विज्ञापन में देखकर ही उन्हें अपने जीजा आयुष के अपोजिट कास्ट किया है. पहले वरीना के रोल के लिए मौनी रौय और सारा अली खान को लेने की खबरें थीं.