तुलसी के पत्तों से निखारें रंग-रूप

तुलसी एक जड़ी-बूटी है जिसका इस्तेमाल कई तरह की बीमारियों के इलाज में किया जाता है. लेकिन क्या आप जानते हैं इसका इस्तेमाल रूप-रंग निखारने के लिए भी किया जा सकता है? तुलसी में कई ऐसे औषधीय गुण पाए जाते हैं जो त्‍वचा और बालों से जुड़ी कई समस्याओं को दूर करने में सहायक हैं.

त्वचा और बालों से जुड़ी कई समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता है. ये एक नेचुरल उपाय है. ऐसे में किसी भी तरह के साइड-इफेक्ट का खतरा नहीं होता है.

डैंड्रफ से छुटकारा

अगर आपके सिर में रूसी है तो तुलसी के पत्‍तों का पेस्‍ट बना लें. इसे आंवले के पाउडर के साथ मिलाकर स्कैल्प में लगाएं. कुछ देर बाद बाल धो लें. इसके अलावा आप चाहें तो तुलसी की पत्त‍ि‍यों को पानी में उबालकर भी इसे प्रयोग में ला सकती हैं.

पिंपल्स से छुटकारा

तुलसी और नीम के पत्‍तों को पीस लें और एक पेस्ट तैयार कर लें. इस पेस्ट में शहद की कुछ बूंदें मिला लें. पेस्‍ट को पिंपल्‍स पर लगाकर सूखने के लिए छोड़ दें. कुछ दिन ये उपाय करने पर पिंपल दूर हो जाएंगे.

दांतों में लाए चमक

दांतों में पीलापन आ जाना एक आम समस्या है. आप चाहें तो तुलसी की पत्त‍ियों को सुखाकर एक पाउडर बना सकती हैं. इसके अलावा आप चाहें तो इसे संतरे के छिलके के साथ पीसकर पेस्ट भी बना सकती हैं. इस पेस्ट के नियमित इस्तेमाल से पायरिया की शि‍कायत दूर हो जाती है.

सेविंग अकाउंट से ज्यादा ब्याज चाहती हैं तो यहां जाएं…

अगर आप निवेश के साथ साथ टैक्स भी बचाना चाहती हैं तो पोस्ट ऑफिस की कुछ स्कीम्स आपके लिए फायदेमंद हो सकती हैं.

भविष्य की जरूरतों के मद्देनजर हर कोई थोड़ी बहुत बचत करता ही है. लोग बचत के लिए तरह-तरह के निवेश विकल्प का इस्तेमाल करते हैं. लेकिन अमूमन ज्यादातर लोग बैंक के सेविंग अकाउंट को ही बेहतर मानते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि इसमें जमा पैसा आप किसी भी समय निकाल सकती हैं और इस खाते में जमा रकम पर सालाना 4 से 6 फीसद तक का ब्याज भी मिलता है.

लेकिन डाकघर यानी पोस्ट ऑफिस में भी ऐसी तमाम स्कीम चलती हैं तो बैंक के सेविंग अकाउंट से भी ज्यादा फायदेमंद हैं. हम यहां आपको ऐसी ही कुछ स्कीम के बारे में बता रहे हैं.

डाकघर मासिक बचत आय (पोस्ट ऑफिस मंथली इनकम स्कीम अकाउंट)

डाकघर की मासिक आय खाता योजना ऐसे निवेशकों के लिए होती है जो एकमुश्त राशि का निवेश कर मासिक आधार पर ब्याज पाना चाहते हैं. यह योजना रिटायर्ड कर्मचारियों और वरिष्ठ नागरिकों के लिए बेहद उपयोगी होती है.

इस खाते में म्योच्योरिटी पीरियड पांच साल होता है. इसमें खाता धारक को जमा पर हर महीने ब्याज मिलता है. मौजूदा समय में इस योजना में 7.60 फीसद की दर से ब्याज मिल रहा है. इसे सिंगल या फिर ज्वाइंट दोनों तरह से खोला जा सकता है, दोनों में ही जमा की सीमा अलग अलग है.

जैसा कि सिंगल में अधिकतम निवेश 4.5 लाख है तो ज्वाइंट खाते में आप 9 लाख रुपए तक जमा करा सकते हैं.

पब्लिक प्रोविडेंट फंड (पीपीएफ)

पीपीएफ अकाउंट वेतनभोगी और व्यापारी वर्ग दोनों के लिए ही होता है. इसमें एक वित्तवर्ष में अधिकतम एक लाख रुपए तक के निवेश पर कर छूट का लाभ मिलता है. इसे या एकमुश्त या फिर 12 किश्तों में जमा किया जा सकता है. यह अकाउंट नाबालिग और बालिग दोनों का हो सकता है. इसका म्योच्योरिटी पीरियड 15 साल है. इसमें जमा पर 7.9 फीसद का ब्याज मिलता है.

राष्ट्रीय बचत पत्र (एनएससी)

अगर आप सुरक्षित निवेश के साथ बेहतर रिटर्न भी चाहते हैं तो आपको इसका चयन करना चाहिए. इस योजना को सरकारी कर्मचारी, बिजनेसमैन और कर अदा करने वाले अन्य वेतन भोगियों की जरूरतों को मद्देनजर रखते हुए जारी किया गया है. इसमें निवेश की कोई सीमा नहीं होती है.

राष्ट्रीय बचत पत्र दो तरह के होते हैं पहल है और इन पर टीडीएस नहीं कटता है. ट्रस्ट और एचयूएफ इसमें निवेश नहीं कर सकते हैं. इसमें जमा पर 7.9 फीसद की दर से ब्याज मिलता है. इसमें जमा पर आयकर की धारा 80सी के तहत छूट मिलती है.

पांच वर्षीय डाकघर आवर्ती जमा खाता

यह भी निवेश का एक बेहतर टूल्स है. इसमें आपका पैसा पांच साल के लिए जमा रहता है. इस खाते में जमा पर 7.2 फीसद की दर से ब्याज मिलता है. साथ ही इस बचत योजना में एक साल के बाद 50 फीसदी रकम निकलाने की व्यवस्था है. ध्यान रहे कि प्रति माह इसमें 10 रुपये का निवेश जरूरी है.

डाकघर सावधि जमा खाता (पोस्ट ऑफिस डिपोजिट अकाउंट)

डाकघर सावधि जमा खाता भी निवेश का एक बेहतर माध्यम है, जिसमें आपको 7.8 फीसद की दर से ब्याज मिलता है. यह ब्याज दर आपको पांच वर्षीय खाते पर मिलता है. यह खाता व्यक्तिगत तौर पर खोला जा सकता है. सावधि जमा खाते पर आयकर अधिनियम 80c के तहत आयकर से छूट मिलती है.

वरिष्ठ नागरिक बचत खाता (एससीएसएस)

यह बचत योजना खासतौर पर 60 साल से अधिक उम्र के लोगों के लिए है. ये 60 की उम्र पार कर चुके लोगों के लिए निवेश का शानदार विकल्प है. हालांकि, 55 साल से 60 साल की उम्र के बीच में रिटायर होने वाले या वीआरएस (स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति) लेने वाले व्यक्ति भी रिटायरमेंट के तीन माह पहले यह खाता खोल सकते हैं. एक हजार रुपए से यह खाता खोला जा सकता है. इसमें अधिकतम निवेश की सीमा 15 लाख रुपए है. इस अकाउंट का म्योच्योरिटी पीरियड पांच साल है. इस खाते को अपनी पत्नी के साथ ज्वाइंट अकाउंट के रुप में भी खोला जा सकता है. इस पर 8.4 फीसद की दर से ब्याज मिलता है.

एक दिन में कितने कप कॉफी पीती हैं आप?

ये जानकर आपमें से बहुत से लोग जो कॉफी के बहुत शौकीन हैं, उन्हें राहत मिलेगी. आप में से लगभग सभी लोगों ने अक्सर, ये सुना होगा कि कॉफी सेहत के लिए हानिकारक होती है. पर आज हम आपको बता हरे हैं कि कॉफी पीना आपके लिए जीवनदान साबित हो सकती है?

क्या आपको पता है कि एक दिन मे पांच कप कॉफी आपको हेपैटोसेलुलर कैंसर होने से बचा सकती है. इसका मतलब है कि अगर आप एक दिन में पांच कप कॉफी पीते हैं, तो आपकी ये आदत आपको लीवर कैंसर से बचा सकती है.

ब्रिटेन में हुए एक अध्ययन के अनुसार दिन में एक कप कॉफी पीने से हेपैटोसेलुलर कैंसर का खतरा 20% कम हो जाता है. 2 कप कॉफी 35% तक खतरा कम कर देती है और वहीं 5 कप कॉफी पीने वाले लोगों में हेपैटोसेलुलर कैंसर का जोखिम लगभग 50% तक कम हो जाता है.

शोध की रिपोर्ट में यह बात भी कही गई कि कैफीनमुक्त कॉफी का सेहत पर सकारात्मक असर है, पर कैफीनयुक्त कॉफी के मुकाबले उसका असर कम होता है. कॉफी को पीने के बहुत सारे फायदे हैं और इस अध्ययन के बाद लोगो को ये भी पता चला कि, कॉफी लीवर के कैंसर को ठीक करने में भी काफी मददगार है.’ ये बात उन लोगो के लिए बहुत महत्वपूर्ण है जो कि हेपैटोसेलुलर कैंसर के रोगी हैं.

लीवर के रोगियों के लिए जीवनदान

दुनिया में कैंसर से होने वाली मौतो में से दूसरे स्थान पर हेपैटोसेलुलर कैंसर से सबसे ज्यादा मौतें होती हैं, क्योंकि इस रोग का अभी तक कोई खास निदान नहीं मिल पाया. वैसे तो ये बीमारी सबसे ज्यादा चीन और साउथ-एशिया के लोगों में पाई जाती है. खासकर उन लोगों में जिन्हें पहले से क्रोनिक लीवर डिसीज हो.

ऐसा अनुमान है कि साल 2030 तक ये बीमारी 50% बारह लाख लोगों में और बढ़ जाएगी. कॉफी के कम्पाउंड मोलिक्यूल्स में एंटीऑक्सिडेंट, एंटीइन्फ्लेमेटरी, एंटीकर्सिनोजेनिक और कुछ अन्य महत्वपूर्ण प्रोटीन पाए जाते हैं जो कि लीवर के कैंसर को रोकने में लाभकारी हैं.

कुदरती खूबसूरती के लिए लें स्टीम

यूं तो बाजार में ऐसे बहुत से ब्यूटी प्रोडक्ट्स मौजूद हैं, जो दावा करते हैं कि उनका इस्तेमाल करने से त्वचा खूबसूरत और लंबे समय तक जवान बनी रहती है. क्या आप ये बात जानते हैं कि इनमें से ज्यादातर प्रोडक्ट्स कैमिकल बेस्ड ही होते हैं. इनमें कई तरह के कैमिकल्स मिले हुए होते हैं, जिनसे आपकी स्क‍िन डैमेज होने का खतरा बना रहता है.

ऐसे में सबसे बेहतर यही होता है कि आप घरेलू उपाय अपनाएं. घरेलू उपायों का कोई साइड इफेक्ट्स नहीं होते हैं. इन उपयों की मदद से त्वचा की कुदरती खूबसूरती बर्बाद नहीं होती. इसके अलावा लगभग सभी घरेलू उत्पाद त्वचा को पोषण देने का काम करते हैं.

ये घरेलू उपाय आप अपनी त्वचा के टाइप के अनुसार चुन सकते हैं. इनमें सबसे खास तरीका होता है स्टीम लेना. सटीम आपकी त्वचा पर बहुत फायदेमंद होता है. आमतौर पर लोगों को लगता है कि सिर्फ सर्दी हो जाने पर या कफ जमा हो जाने पर ही स्टीम ली जाती है लेकिन ऐसा नहीं है.

वास्तव में स्टीम लेना एक ब्यूटी ट्रीटमेंट जैसा है. फेस स्टीमिंग से, न सिर्फ चेहरे पर ग्लो आता है, बल्क‍ि ताजगी भी मिलती है. इसके लिए सबसे जरूरी है कि आपको स्टीम लेने का सही तरीका मालूम हो.

स्टीम लेने के लिए स्टीमर या फिर किसी बाल्टी में गर्म पानी ले लें. स्टीम लेने के दौरान पूरे चेहरे को अच्छी तरह ढक लें ताकि पूरे चेहरे पर अच्छे से और बराबर स्टीम मिले.

स्टीम लेने के फायदे

1. त्वचा की मैल साफ हो जाती है. स्टीम लेने से पोर्स खुल जाते हैं और अंदरुनी मैल भी साफ हो जाती है. स्टीम लेने से ब्लैक हेड्स आसानी से निकल जाते हैं. इससे त्वचा पर निखार आता है.

2. स्टीम लेने से डेड स्किन आसानी से साफ हो जाती है. जिससे त्वचा पर नेचुरल ग्लो नजर आता है.

3. अगर आपको मुहांसे और झुर्रियां हैं तो स्टीम लेने से वे कम हो जाते हैं और होने की आशंका भी बहुत कम हो जाती है.

4. स्टीम लेने से त्वचा का मॉइश्चर बैलेंस बना रहता है. इससे त्वचा रूखी और बेजान नजर नहीं आती.

संगीत मेरी रगों में है : अमित मिश्रा

पिछले कुछ वर्षों में बॉलीवुड में संगीत के क्षेत्र में कई नई प्रतिभाओं ने कदम रखा है और इनमें से कई सफल भी हैं. कुछ प्रतिभाओं ने तो ‘भाई भतीजावाद’ और ‘गैर फिल्मी’ अथवा ‘बाहरी होने’ का दंश झेलते हुए भी हिम्मत नहीं हारी. इसके पीछे इनकी सोच रही है कि बॉलीवुड में हर दिन हजारों प्रतिभांए आती हैं.

ऐसे में स्वाभाविक तौर पर हर किसी को संघर्ष करना पड़ता है. कुछ का संघर्ष रंग लाता है, तो कुछ का नहीं. ऐसा सिर्फ बॅालीवुड ही नहीं हर क्षेत्र में होता है. बॉलीवुड में ग्लैमर है, इसलिए हौव्वा कुछ ज्यादा ही बना हुआ है. ऐसी सोच के साथ निरंतर कुछ नया करने की चाह रखने वाले संगीतकार हैं, अमित मिश्रा.

पटना, बिहार में जन्में, वाराणसी में पले बढ़े और दिल्ली में फाइन आर्ट्स में गोल्ड मेडलिस्ट अमित मिश्रा बॉलीवुड के चर्चित संगीतकार हैं. कई टीवी सीरियल व फिल्मों को संगीत से संवारने के बाद इन दिनों वह परेश रावल, कार्तिक आर्यन, कृति खरबंदा व तनवी आजमी के अभिनय से सजी फिल्म ‘‘गेस्ट इन लंदन’’ को लेकर उत्साहित हैं. जिसमें उन्होंने शीर्ष गीत के अलावा एक सूफी गीत को संगीत से संवारा है. तथा नवेंदु त्रिपाठी लिखित गीत को नवेंदु त्रिपाठी और सुमित आनंद के साथ अमित मिश्रा ने स्वरबद्ध भी किया है.

हाल ही में उनसे लंबी बातचीत हुई, जो कि इस प्रकार रही.

आपने संगीत को ही करियर बनाने की बात कब सोची?

सच कहूं तो संगीत मुझे विरासत में मिला है. संगीत मेरी रगों में है. पर मैं पेंटर भी रहा हूं. दिल्ली विश्वविद्यालय से मैं फाइन आर्टस में गोल्ड मैडलिस्ट भी हूं.

इस पर विस्तार से रौशनी डालेंगे?

मेरी पैदाइश पटना, बिहार की है. पर मैं वाराणसी में रहा हूं. मेरे पिता जी शंभूनाथ मिश्रा पत्र सूचना कार्यालय में नौकरी करते थें. साहित्य व संगीत से उनका काफी लगाव था. मेरी दादी और मेरे पर दादा वगैरह संगीत से जुड़े रहे हैं. मेरी दादी कमला देवी बिहार रेडियो व बिहार टीवी पर गाती थीं. वह मशहूर मैथिली गायक थीं. क्लासिकल संगीत व फोक संगीत हमारे खानदान में रहा है, हमें बचपन से यह सब मिला है.

मेरे पिता शंभूनाथ मिश्रा, अब्दुल अलीम जाफर के शिष्य थें. उन्होंने संगीत पर किताब लिखी है. मेरे ससुर नेत्र सिंह रावत फिल्म आलोचक हैं. इनका भी कला व संगीत से जुड़े लोगों के संग मिलना जुलना रहा है. इसका असर मुझ पर भी रहा. जब घर पर संगीत से जुड़े लोग बैठते थें, तो मैं दूर से इन सभी का श्रोता हुआ करता था. पहले तो शाम को बैठकें लगती थीं. विचार विमर्ष होता रहता था. अब तो वह सब खत्म हो गया. संगीत, साहित्य व संस्कृति तो मेरे साथ बचपन से रही है.

बचपन से ही संगीत के वाद्ययंत्रो को बजाने की लालसा रही है. मैंने क्लासिकल संगीत, पश्चिमी संगीत और गिटार की ट्रेनिंग भी ली. राजस्थान घराने के संगीतज्ञ के पी मिश्रा से मैंने काफी ट्रेनिंग ली. दिल्ली स्कूल ऑफ म्यूजिक से मैंने पश्चिमी संगीत व गिटार बजाना सीखा. इसके अलावा अपने परिवार से बहुत कुछ सीखा.

संगीत का माहौल था, पर पेंटिंग, फाइन आर्टस का कोर्स वगैरह?

मैं मानता था कि किताबी कीड़ा मुझे नहीं बनना है. पर ऑब्जर्वेशन करना मेरे गुरूओं ने मुझे सिखाया था. ऑब्जर्वेशन के ही चलते हम दूसरों को ही नहीं अपने आपको भी ऑब्जर्व करना, अपने आप से बात करना शुरू करते हैं, तो फिर हमें पता चलता है कि मैं जो दिख रहा हूं, वह तो नहीं हूं. शुरू में संगीत मेरा प्रोफेशन नहीं था. मैंने पेंटर के तौर पर अपना करियर शुरू किया था. मेरी पेटिंग्स की काफी प्रदर्शनी लगीं. फाइन आर्टस में गोल्ड मेडलिस्ट हूं. पर साथ में संगीत के लाइव शो कर रहा था. अपने कुछ गानों की धुने भी बनायी.

संगीतकार के रूप में यात्रा कब शुरू हुई?

लगभग आठ वर्ष पहले. जब मैं दिल्ली में रह रहा था, तभी मुझे अश्विनी धीर के टीवी सीरियल ‘‘राम खेलावन सी एम एन फैमिली’’ में संगीत देने का ऑफर मिला था. मैंने इसका शीर्षक गीत को संगीत से संवारा था. इसी के समांनांतर मैं अपने लिए कुछ गीतों की धुन बना रहा था. कुछ लघु फिल्में कर रहा था. लाइव शो काफी कर रहा था. इस सीरियल में संगीत देने के बाद मुझे लगा कि एक राह खुल गयी है. मुंबई में किसी को मेरा काम पसंद आया है, तो अब मुंबई जाकर कुछ बेहतर रचनात्मक काम किया जाना चाहिए. यह वह दौर था, जब मैं कुछ अलग तरह का काम संगीत में कर रहा था. जिस तरह का संगीत फिल्मों में परोसा जा रहा था या जिस तरह के गीत बन रहे थें, वह सब मैं नहीं कर रहा था. अश्विनी धीर ने मुझे सबसे पहले फिल्म ‘‘अतिथि तुम कब जाओगे’’ भी दी थी. फिल्म ‘‘अतिथि तुम कब जाओगे’’ के शीर्ष गीत के साथ ही मैंने चार गाने लिखे, गाए और संगीत से संवारे थे.

आपने कहा कि आप अलग तरह का संगीत दे रहे हैं. इससे आपका मतलब?

संगीत में ही काम कर रहा था, पर कर्णप्रिय व अर्थपूर्ण संगीत बना रहा था. आप मेरी पिछली फिल्म ‘‘अतिथि तुम कब जाओगे’’ के गानों को देखें, तो वह सभी गानें फिल्म के कथानक से संबंधित थें. प्यार यानी रोमांटिक गाने नहीं थें. आइटम सॉन्ग नहीं था. और इन गीतों को सराहा गया था. तब मुझे लगा कि मैं जो कर रहा हूं, वह गलत तो नहीं कर रहा. फिर संगीत के क्षेत्र में कुछ अच्छा काम करने के लिए यही हमारे लिए मक्का मदीना है. यही वह जगह है, जहां आकर कुछ काम किया जाए. इसीलिए दिल्ली से मुंबई आ गया. उसके बाद कुछ सीरियल, लघु फिल्में व फीचर फिल्में मिली. फिर ‘अतिथि तुम कब जाओगे’ मिली, वहां से जो सिलसिला शुरू हुआ, तो लगातार काम कर रहा हूं. मेरे काम को सराहना मिली, दूसरे लोगों से मुलाकातें हुई, प्रोत्साहन मिला और यात्रा सतत चलती आ रही है. यह यात्रा काफी मजेदार रही. हम हर दिन कुछ नया सीखते रहे. कुछ नए अनुभव हुए. अब मेरी एक फिल्म ‘‘गेस्ट इन लंदन’’ प्रदर्शित होने वाली है. इस फिल्म से मुझे काफी उम्मीद है कि कुछ रोचक काम होगा.

क्या बॉलीवुड या मुंबई को लेकर आपके दिमाग में कोई ईमेज थी, जिसके चलते यहां काम करने पर आपको लगा कि आप कुछ भी गलत नहीं कर रहे हैं?

मेरे दिमाग में बॉलीवुड या संगीत जगत को लेकर कुछ भी गलत बात नहीं थी. मुझे यह था कि मैं अपना कुछ लेकर जा रहा हूं और मुझे अपना काम, अपने संगीत से बॉलीवुड को परिचित कराना है. ऐसा संगीत बनाना है, जिसमें मेरी अपनी पहचान होगी. मैं यहां आकर प्रीतम या ए आर रहमान की तरह का संगीत नहीं देना चाहता था. क्योंकि उसकी यहां पर जरुरत नहीं थी. मैं यहां अपना संगीत, अपना थॉट प्रोसेस लेकर आया था. पर यह सब कुछ पूरा का पूरा मैं किसी पर भी नहीं थोप सकता था. क्योंकि फिल्म मेकिंग एक टीम वर्क है. यदि मैं अपना सगीत बना रहा हूं, तो अलग बात है. पर यदि मैं किसी फिल्म के लिए संगीत बना रहा हूं, तो निर्माता, निर्देशक के वीजन व फिल्म के कथानक का भी ख्याल रखते हुए अपना रंग देना था. दाल को दाल की तरह बनाना होगा, पर उसमें तड़का आपका अपना होना चाहिए, तभी आप कहीं अलग खड़े हुए नजर आएंगे. मेरे अपने तरीके के कुछ विचार हैं, उन्हें लोग धीरे धीरे स्वीकार कर रहे हैं, इससे मैं खुश व उत्साहित हूं.

आप खुद को क्या मानते हैं?

मैं अपने आपको वोकलिस्ट मानता हूं. मुझे जहां मौका मिलता है, वहां अपनी आवाज देता हूं. मैं जब कोई संगीत की धुन बनाता हूं, तो उसका डेमो बनाकर देता हूं, जब लोगों को उस डेमो की आवाज पसंद आ जाती है, तो मैं गा भी देता हूं. हम दूसरे गायकों से भी गंवाते हैं. मेरी राय में हर गाना एक ही गायक गाने लगे, तो वह या मैं उसके साथ न्याय नहीं कर पाउंगा. जिस गाने को सुनकर पूरी टीम को लगता है कि मुझे ही गाना चाहिए, तो मैं गाता हूं. अन्यथा फिल्म के मूल भाव को समझ कर गाने की धुन बनाता हूं और जिस तरह की आवाज की जरुरत होती है, उस आवाज से गवाता हूं.

किसी भी फिल्म के गीत संगीत तैयार करने की आपकी कार्यशैली क्या होती है?

सबसे पहले निर्देशक के मुंह से सुनना पसंद करता हूं कि उनकी सोच क्या है, उन्हें किस तरह का गीत संगीत चाहिए. उसके बाद मैं पूरी फिल्म की पटकथा को सुनना पसंद करता हूं. मैं पेंटर भी रहा हूं तो जब पटकथा वगैरह सुनता हूं, तो मुझे गीत की आवाज के साथ ही विज्युअल्स भी दिखने लग जाते हैं और उस सिच्युएशन में पहुंच जाता हूं. मेरे अंदर यह ईश्वर प्रदत्त गुण है. जब मेरे पास किसी गाने का ऑफर आता है, तो मेरे हाथ पांव फूल जाते हैं, पर फिर एक बार मेरे दिमाग में बात बैठ जाती है, उसके बाद ईश्वर मुझसे अपने आप उस गीत के लिए संगीत तैयार करवा लेता है. जब तक वह काम पूरा न हो जाए, मुझे भूख प्यास कुछ नहीं लगती.

किसी प्रायवेट एलबम पर काम हो रहा है?

अब तक कोई एलबम नहीं निकाला. पर बहुत जल्द कुछ एलबम आने वाले हैं. हम अपना एक बड़ा एलबम 15 अगस्त के दिन लेकर आने वाले हैं. जिसे हम अपने सैनिकों, मदर नेचर को समर्पित कर रहे हैं. हमारे देश की कुछ संस्कृति लोगों के बीच है, तो कुछ विचार खत्म होते जा रहे हैं. संस्कृति के प्रति इज्जत खत्म होती जा रही है. आज की पीढ़ी तमाम अच्छी चीजों से थोड़ी दूर हो गयी है. अपने एलबम में उन्ही चीजों को लाने की कोशिश कर रहा हूं. इसमें फोक, शास्त्रीय संगीत, अच्छा साहित्य भी होगा. सिर्फ गाने नहीं होंगे. साहित्य को भी हम गाकर पेश करना चाहते हैं.

हम इसके वीडियो भी बना रहे हैं. इस पर मैं, नवेंदु त्रिपाठी और अश्विनी शंकर मिलकर काम कर रहे हैं. अश्विनी शंकर शहनाई के अच्छे घराने से हैं. कमाल के इंसान हैं. एलबम में शहनाई का भी उपयोग कर रहे हैं. यह एक लंबी सीरीज है. हमारा मकसद इससे पैसा कमाना नहीं है. हम जिस पर यकीन करते हैं, उसे हम इसके माध्यम से सामने रखना चाहते हैं. हम महज संगीत बनाने के लिए संगीत नहीं बना रहे हैं, बल्कि कुछ नया पेश करने का प्रयास है.

आखिर आज की युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति, अपने मूल्यों से दूर क्यों होती जा रही है?

आज हमारी युवा पीढ़ी के पास फास्ट फूड ज्यादा है. अब हमारे यहां हर चीज फास्ट फूड हो गयी है. युवा पीढ़ी के पास धैर्य नहीं है. आज उनमें सुनने की शक्ति नहीं है. युवा पीढ़ी के पास समय नही है.

बॉलीवुड में आठ वर्ष के अंदर आपने ज्यादा फिल्में नहीं की?

कम लेकिन अच्छा काम कर रहा हूं. मैं जो भी काम करता हूं, उसमें मेरी सिग्नेचर होती है. उसमें आत्मा होती है.

शौक?

पहाड़ों पर यात्राएं करने का शौक. बुलेट उठाकर कभी भी चल देता हूं.

जैसे फिल्मों में होता है, हो रहा है हुबहु

वैसे दुनिया में तो हर वक्त अलग-अलग तरह की घटनाएं होती रहती हैं और कई बार ये घटनाएं कुछ ऐसे अजीबोगरीब संयोग में बदल जाती हैं, जिनके बारे में जानकर आप हैरान रह जाते हैं.
ऐसी ही कुछ कहानियां है हमारे बॉलीवुड सितारों के जीवन में भी. हम और आप जैसे आम लोग ही नहीं, बल्कि बॉलीवुड के ये मशहूर सिलेब्रिटीज का भी अजीबोगरीब संयोगों से सामना होता रहा है.

आइये हम आपको बताते हैं ऐसी ही घटनाएं, जो आपको चौंका देंगी. इनमें से कुछ सुखद संयोग हैं, तो कुछ भयानक त्रासदियों जैसी घटनाएं भी हैं, जो ये सितारे अपने जीवन में झेल चुके हैं…

सोनू सूद और सोनू निगम

अभिनेता सोनू सूद और गायक सोनू निगम. दोंनो ही सोनू का जन्मदिन एक ही दिन यानि कि 20 जुलाई को होता है.

फिरोज खान और विनोद खन्ना

बॉलीवुड के मशहूर अभिनेता फिरोज खान और विनोद खन्ना अपनी दोस्ती के लिए बॉलीवुड में बहुत मशहूर थे. आपको जानकर हैरानी होगी कि फिरोज के मरने के ठीक 8 सालों बाद उसी दिन विनोद खन्ना इस दुनिया से विदा हुए.

राज कुंद्रा और अक्षय कुमार

शिल्पा शेट्टी और अक्षय कुमार के अफेयर की कहानी तो पूरे बॉलीवुड और उनके हर एक फैन को पता है, लेकिन क्या आप ये जानते हैं कि शिल्पा के पति राज कुंद्रा और उनके एक्स अक्षय दोनों का जन्मदिन, एक साथ 9 सितंबर को होता है.

अनुराग बासु

बॉलीवुड के फेमस फिल्म निर्देशक अनुराग बासु के लिए ये संयोग उनके जीवन में बेहद दर्दनाक था. दरअसल, अपने करियर के शुरुआती दौर में अनुराग एक सीरियल के लिए डेथ सीन लिख रहे थे और इसी दौरान वो सोचते-सोचते ये कल्पना कर बैठे कि उनके पिता का देहांत हो गया है. दुर्भाग्य से सीन पूरा लिखने के कुछ समय बाद ही उनके पिता की हार्ट अटैक से मौत हो गई थी.

धर्मा प्रोडक्शन

धर्मा प्रोडक्शन ने एक ही नाम से दो फ़िल्में रिलीज़ की हैं. साल 1990 में फ़िल्म ‘अग्निपथ’ में अमिताभ बच्चन और डैनी मुख्य भूमिका में थे, वहीं साल 2012 में रिलीज हुई फिल्म ‘अग्निपथ’ में रितिक रोशन और संजय दत्त मुख्य भूमिका में नजर आए थे.

ऐसे ही दूसरी फिल्म है, दोस्ताना. 1980 में आई इस फिल्म में शत्रुघ्न सिन्हा मुख्य भूमिका में थे. इसके बाद साल 2008 में आई दोस्ताना में जॉन अब्राहम, अभिषेक बच्चन और प्रियंका चोपड़ा मुख्य भूमिका में थे.

शाहिद कपूर और राजकुमार राव

आपने गौर नहीं किया होगा, लेकिन क्या आप जानते हैं कि राजकुमार राव ने ‘शाहिद’ नाम की फिल्म की है और वहीं शाहिद कपूर ने ‘आर. राजकुमार’ नाम की फिल्म में काम किया है.

शाहरुख खान और अमिताभ बच्चन

शाहरुख के बंगले का नाम मन्नत है, तो वहीं बिग बी के बंगले का नाम जलसा है. पहले शाहरुख के बंगले का नाम जन्नत था, जबकि अमिताभ के बंगले का नाम मनसा.

गुजारा भत्ता कानून : अदालतों का बदलता नजरिया

भारतीय कानून व्यवस्था में महिलाओं के हितों को ध्यान में रख कर कई कानून अस्तित्व में आए हैं. इसी प्रकार की एक कानूनी व्यवस्था गुजारा भत्ता व भरणपोषण को ले कर भी है. लेकिन, अदालतें अब आत्मनिर्भर महिलाओं को गुजारा भत्ता देने से साफ इनकार करने लगी हैं. अदालतें  उन महिलाओं की गुजारे भत्ते की मांग को खारिज कर रही हैं जो पति से वसूली की मंशा रखते हुए तलाक से पहले अपनी नौकरी छोड़ देती हैं या सक्षम होते हुए भी कुछ काम नहीं करतीं.

बदलते माहौल में अदालतें अब पत्नी की योग्यता और कार्यक्षमता का आकलन करने के बाद ही उन्हें गुजारे भत्ते का हकदार ठहरा रही हैं. पत्नी को हर प्रकरण में गुजारा भत्ता मिल ही जाएगा, यह जरूरी नहीं. पेश हैं कुछ उदाहरण जिन्होंने इस मामले को नए मोड़ दिए हैं :

पति की कमाई पर मुफ्तखोरी : हाल ही में दिल्ली की एक अदालत ने घरेलू हिंसा के एक मामले में महिला को मिलने वाले 5,500 रुपए के मासिक अंतरिम भत्ते में इजाफा कर उसे 25,000 रुपए करने की मांग की याचिका को खारिज कर दिया और अहम फैसला सुनाते हुए कहा कि महिला पढ़ीलिखी है. महिला के पास एमए, बीएड और एलएलबी जैसी डिगरियां हैं और वह खुद कमा सकती है, इसलिए उस से यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वह घर पर आलसी की तरह बैठे और पति की कमाई पर मुफ्तखोरी करे.

अदालत ने कहा कि महिला ने गुजारा भत्ते में वृद्धि की मांग का न तो कारण बताया और न ही यह साबित किया कि उस के खर्च में वृद्धि कैसे हो गई.  अदालत का यह फैसला गुजाराभत्ता कानून के हो रहे दुरुपयोग के मद्देनजर  काफी अहम है.

पति भी गुजारे भत्ते का हकदार : भारत जैसे देश में जहां यह माना जाता है कि गुजारे भत्ते की हकदार पत्नी ही होती है, ऐसे में अगर पति से गुजारा भत्ते की मांग कर रही पत्नी को उलटा पति को  गुजारा भत्ता देने का अदालत से फरमान मिल जाए तो आप को हैरानी होगी. लेकिन, ऐसा हुआ है. महिलाओं के गुजारा भत्ता मांगने की इसी खराब आदत पर दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महिला को आदेश दिया है कि वह अपने पति को गुजारे भत्ते के रूप में हर महीने 20 हजार रुपए का भुगतान करे. अदालत ने महिला को यह भी निर्देश दिया कि वह पति को कार भी दे.

दरअसल, मामला कुछ ऐसा था कि पतिपत्नी के एक विवादित मुकदमे में पति ने वर्ष 2002 में अपनी पत्नी को अपनी संपत्ति की मालकिन बनाया था लेकिन पतिपत्नी के बीच बाद में झगड़े होने लगे जिस के चलते पत्नी ने अपने बच्चों के साथ मिल कर अपने पति को साल 2007 में उस के ही घर से बाहर निकाल दिया. जिस के बाद साल 2008 में पति ने कड़कड़डूमा कोर्ट में तलाक की अर्जी दाखिल की और साथ ही, हिंदू मैरिज ऐक्ट की धारा-24 के तहत गुजारा भत्ता दिए जाने की गुहार लगाई.

याचिका में पति ने कहा कि उसे घर से निकाला गया और उसे गुजारे के लिए खर्चा तक नहीं दिया जा रहा. याचिका में कहा गया था कि पीडि़त की पत्नी की सालाना आमदनी एक करोड़ रुपए है और उस के पास 4 गाडि़यां भी हैं, दूसरी तरफ पति की कोई आमदनी नहीं है और वह सड़क पर आ चुका है.

जिस के बाद साल 2009 में निचली अदालत ने फैसला सुनाया कि हिंदू मैरिज ऐक्ट के तहत पतिपत्नी में से जो भी आर्थिक रूप से संपन्न है वह दूसरे को गुजारा भत्ता दे सकता है और चूंकि पत्नी आर्थिक रूप से संपन्न है, इसलिए वह हर महीने अपने पति को 20 हजार रुपए गुजारा भत्ता दे.

इस फैसले के बाद पत्नी हाईकोर्ट पहुंची थी लेकिन हाईकोर्ट ने भी निचली अदालत के फैसले को सही ठहराया और पत्नी को निर्देश दिया कि वह अपने पति को हर महीने 20 हजार रुपए गुजारा भत्ता और साथ ही कार भी दे.

बराबर कमाई तो गुजारा भत्ता नहीं: पति के बराबर ही कमाने वाली महिला को पति से गुजारा भत्ता पाने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है. इस का उदाहरण पिछले दिनों एक मामले में देखने को मिला जिस में गुजारा भत्ता मांगने अदालत पहुंची पत्नी की अर्जी को अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अनुराधा शुक्ला भारद्वाज ने खारिज कर दिया. कारण था पत्नी की पति के बराबर ही कमाई होना

अदालत ने कहा कि लैंगिक समानता के इस दौर में पति को महज मर्द होने के कारण कानून के समान संरक्षण से वंचित नहीं किया जा सकता है. दरअसल, इस मामले में पत्नी ने पति से आवास सुविधा मुहैया कराने की मांग की थी. अदालत ने कहा कि पत्नी को इस के लिए यह साबित करना होगा कि वह अपनी आर्थिक अक्षमता के कारण अपने लिए आवास का इंतजाम करने में लाचार है.

महिलाओं से आर्थिक सहयोग की उम्मीद : एक अन्य मामले में  महिला द्वारा अपने पति से गुजारा भत्ता मांगने पर कोर्ट ने महिला की मांग को खारिज कर दिया और कहा कि आज के समय में घर चलाने में महिलाओं से आर्थिक मदद की उम्मीद की जाती है, न कि बेकार बैठने की. महिला द्वारा की गई गुजारे भत्ते की मांग को खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा कि महिला ने खुद यह स्वीकार किया है कि उस ने ब्यूटीशियन का कोर्स किया है जिस का मतलब है कि उस के पास काम करने और कमाने का हुनर है, लेकिन इस के बावजूद वह काम करना नहीं चाहती.

इस मामले में मैट्रोपौलिटन मजिस्ट्रेट मोना टारडी ने फैसला सुनाते हुए कहा कि आज के जमाने में महिलाओं से भी उम्मीद है कि वे काम कर घर में आर्थिक रूप से सहयोग करेंगी.

पत्नी होना मुआवजे की वजह न बने: दिल्ली की  ही एक सत्र अदालत ने यह फैसला सुनाया कि अगर पत्नी अपने पति से ज्यादा पढ़ीलिखी है, तो तलाक की सूरत में केवल इस बिना पर उसे मुआवजा नहीं मिल सकता कि वह एक पत्नी है. इस मामले में एक महिला ने अपने पूर्व पति से गुजारा भत्ते की मांग को ले कर अदालत में मामला दाखिल किया था, लेकिन उस की दलील खारिज हो गई.

जिला व सत्र न्यायाधीश सुजाता कोहली की अदालत ने अपने फैसले में कहा कि चूंकि महिला अपने पति से ज्यादा पढ़ीलिखी है, इसलिए  वह गुजारा भत्ता पाने की हकदार नहीं है.

कोर्ट ने केस खारिज करते हुए कहा कि महिला कोर्ट को यह बताने में नाकाम रही कि वह ज्यादा पढ़ीलिखी है, लेकिन इस के बावजूद उस ने कभी नौकरी करने के बारे में क्यों नहीं सोचा. याचिकाकर्ता महिला दिल्ली यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएट थी  और उस के पास लाइब्रेरी साइंस में डिप्लोमा भी था जबकि पति केवल 12वीं पास था.

पति की हैसियत का होगा आकलन: एडवोकेट अनुपमा गुप्ता बताती हैं, ‘‘वैवाहिक विवादों से संबंधित मामलों में कई कानूनी प्रावधान हैं, जिन के जरिए पत्नी गुजारा भत्ता मांग सकती है. सीआरपीसी, हिंदू मैरिज ऐक्ट, हिंदू अडौप्शन ऐंड मेंटिनैंस ऐक्ट और घरेलू हिंसा कानून के तहत गुजारा भत्ते की मांग की जा सकती है. अगर पतिपत्नी के बीच किसी बात को ले कर अनबन हो जाए और पत्नी अपने पति से अपने और अपने बच्चों के लिए गुजारा भत्ता चाहे तो वह सीआरपीसी की धारा-125 के तहत गुजारे भत्ते की अर्जी दाखिल कर सकती है. लेकिन कई महिलाएं कानून का दुरुपयोग करते हुए अपने पति से भारी रकम वसूलती हैं.

‘‘कई बार प्रेमी के संपर्क में रहने के लिए विवाहित महिलाएं अपने मातापिता के घर जा कर बैठ जाती हैं और महिलाओं के लिए बने कानूनों, जैसे दहेज प्रताड़ना, घरेलू हिंसा और गुजारा भत्ता के कानूनों का पति पर दुरुपयोग करती है. कानून के दुरुपयोग को रोकने के लिए हाल ही में अदालत ने कई ऐसे फैसले दिए हैं जिन के अनुसार वे इस कानून का दुरुपयोग नहीं कर सकेंगी. हिंदू मैरिज ऐक्ट की धारा-24 के तहत गुजारा भत्ता तय होता है, जिसे तय करते वक्त पति व पत्नी की हैसियत देखी जाती है. अगर पत्नी की कमाई अच्छी हो और पति बेरोजगार हो तो गुजारा भत्ता पत्नी को भी देना पड़ सकता है. यानी पति या पत्नी जिस की भी माली हालत अच्छी नहीं है, उसे गुजारा भत्ता दिया जाता है. इस मामले में कानून में दोनों के प्रति एक ही नजरिया अपनाया गया है.’’

बिना कारण घर छोड़ेगी तो गुजारा भत्ता नहीं मिलेगा : एक दूसरे प्रकरण में पत्नी ने शादी के डेढ़ साल बाद ही पति का घर छोड़ दिया था. पति ने उसे इस के लिए कभी नहीं उकसाया था. पति ने उसे घर वापस बुलाने के लिए नोटिस भी भेजा लेकिन जब पत्नी की तरफ से कोई जवाब नहीं मिला तो पति ने फैमिली कोर्ट में वैवाहिक अधिकारों को ले कर याचिका दायर की.

इस बीच पत्नी ने गुजारा भत्ता पाने के लिए याचिका दायर कर दी. फैमिली कोर्ट ने पति की याचिका स्वीकार कर पत्नी की याचिका खारिज कर दी. न्यायाधीश ने यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी कि यदि पत्नी ने बिना किसी ठोस कारण के पति का घर छोड़ा है तो उसे गुजारा भत्ता पाने का हक नहीं है.

महिला पेशेवर है तो गुजारा भत्ता नहीं : एक अन्य फैसले में भी दिल्ली हाईकोर्ट ने घरेलू हिंसा के मामले में एक कामकाजी महिला को गुजारा भत्ता इस आधार पर देने से इनकार कर दिया कि महिला खुद एक पेशेवर है. वह बीते 13 साल से चार्टर्ड अकाउंटैंट के पेशे में है.

न्यायमूर्ति प्रदीप नंदराजोग और प्रतिभा रानी की खंडपीठ के समक्ष महिला ने अपने व अपने 2 बच्चों के अच्छे जीवन के लिए पति से 3 लाख रुपए प्रतिमाह गुजारा भत्ता दिए जाने की मांग की थी. निचली अदालत से निराशा हासिल होने पर महिला ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. सभी परिस्थितियों पर गौर करने के बाद खंडपीठ ने कहा कि उसे नहीं लगता कि महिला की याचिका में दम है.

अदालत ने महिला की उस दलील को भी खारिज कर दिया जिस में उस ने महज 7 हजार रुपए प्रतिमाह कमाने की बात कही थी. खंडपीठ ने कहा कि 7 हजार रुपए की राशि तो न्यूनतम आय के कानून से भी कम है. 13 साल तक चार्टर्ड अकाउंटैंट जैसे पेशे में रहने के बाद महज 7 हजार रुपए प्रतिमाह कमाने की दलील विश्वास योग्य नहीं है.

इस से पूर्व निचली अदालत ने महिला के पति को यह आदेश दिया था कि वह अपने 2 बच्चों के अच्छे जीवनयापन के लिए 22,900 रुपए प्रतिमाह गुजारा भत्ता दे. महिला के पेशेवर होने के कारण उसे गुजारा भत्ता दिए जाने से अदालत ने इनकार कर दिया था.

दरअसल, भारतीय समाज का ढांचा ही कुछ ऐसा बना हुआ है कि महिलाओं को जीवन के हर पड़ाव पर पुरुषों पर आश्रित रहने की आदत डाल दी जाती है और इसी आदत की वजह से महिलाएं आर्थिक रूप से सक्षम होते हुए भी पुरुषों पर निर्भर रहती हैं और उन से गुजारे के लिए मुआवजे की मांग करती हैं.

वैसे महिलाएं समानता की, बराबरी की मांग करती हैं, वे कहती हैं कि वे पुरुषों से किसी तरह से कम नहीं. मातापिता भी उन्हें बेटों के बराबर शिक्षा और सुविधाएं देते हैं तो फिर वे आत्मनिर्भर और पढ़ीलिखी होने के बावजूद पति से गुजारे भत्ते की मांग क्यों करती हैं? क्या सक्षम होते हुए भी सुविधा की मांग करना उन की बराबरी के अधिकार के आड़े नहीं आता?    

जैनरिक दवा जनता से दूर क्यों

हमारे देश में आबादी के मुकाबले डाक्टरों की कमी है, जरूरत के अनुसार अस्पताल नहीं हैं और दवाएं बेहद महंगी हैं. ऐसे में यदि मध्यवर्गीय या गरीब परिवार में एक व्यक्ति बीमार पड़ता है तो उस का इलाज कराने में पूरे परिवार की कमर टूट जाती है. इस की एक बड़ी वजह है डाक्टरों का फार्मा कंपनियों व टैस्ट लैब्स के बीच कायम गठजोड़, जो मरीज को ठीक करने के बजाय उस की आर्थिक तबाही में लगा रहता है.

डाक्टर मरीजों के इलाज में काम आने वाली सस्ती जैनरिक दवाएं लिख सकते हैं, पर कमीशन और फार्मा कंपनियों से मिलने वाले महंगे उपहारों व मोटे कमीशन के लालच में वे उन्हीं ब्रैंडों की दवाएं लिखते हैं. अकसर ऐसी ब्रैंडेड दवा सामान्य जैनरिक दवाओं की तुलना में कई गुना महंगी होती है.

पिछले दिनों  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस समस्या की नब्ज पर उंगली रखते हुए कहा था कि उन की सरकार एक लीगल फ्रेमवर्क के तहत यह सुनिश्चित करेगी कि डाक्टर सिर्फ जैनरिक दवाएं ही लिखें जो सस्ती होने के कारण मरीजों पर बोझ नहीं बनती.

एक आकलन है कि ब्रैंडेड और जैनरिक दवाओं की कीमत में 90 प्रतिशत तक का अंतर होता है. जैनरिक दवाएं ब्रैंडेड दवाओं के मुकाबले कितनी सस्ती हो सकती हैं, इस का एक अंदाजा ब्लड कैंसर की दवा ग्लिवेक नामक ब्रैंडेड दवा की एक महीने की खुराक से लगाया जा सकता है.

ब्रैंडेड दवा की एक महीने की डोज की कीमत तकरीबन 1.14 लाख रुपए की होती है, जबकि इस की जैनरिक दवा का महीनेभर का खर्च करीब 11 हजार रुपए ही पड़ता है. ऐसा ही अंतर बहुत सी ब्रैंडेड और जैनरिक दवाओं की कीमतों

में है. आम लोग इस मामले में ज्यादा जानकारी नहीं रखते. लिहाजा डाक्टर्स व फार्मा कंपनियां महंगी ब्रैंडेड दवा का ही विकल्प सब के आगे रखती हैं ताकि मरीज किसी ब्रैंडेड दवा लेने को मजबूर हो.

ब्रैंडेड बनाम जैनरिक

आमतौर पर सभी एलोपैथिक दवाएं एक खास तरह का कैमिकल सौल्ट होती हैं. लंबे अरसे तक शोध और जीवोंइंसानों पर परीक्षण के बाद उन्हें अलगअलग बीमारियों के लिए पृथक कर के बनाया जाता है. दवाओं के शोध और निर्माण की सामान्य प्रक्रिया यह है कि कोई फार्मा कंपनी वर्षों के शोध के बाद किसी बीमारी की दवा का विकास करती है तो वह उस का पेटेंट कराती है.

पेटेंट कराने का अर्थ यह है कि कोई अन्य कंपनी उस की नकल नहीं कर सकती और न ही उसे बेच सकती है. ऐसी पेटेंटेड दवाएं ब्रैंडेड दवाएं कहलाती हैं. चूंकि इन दवाओं के शोध, निर्माण व क्लीनिकल ट्रायल पर काफी पैसा और समय खर्र्च होता है, इसलिए कंपनियां लागत और मुनाफा वसूलने के लिए ब्रैंडेड दवाओं को ऊंची कीमत पर बेचती हैं. लेकिन एक अवधि के बाद ब्रैंडेड दवाओं का पेटेंट खत्म हो जाता है.

हमारे देश में पेटेंट की यह अवधि 20 साल है. इस दौरान पेटेंटधारी कंपनी ही इन्हें बना कर बेच सकती है. 20 साल के बाद यह सौल्ट पेटेंट-फ्री हो जाता है. तब इसे जैनरिक कहा जाने लगता है. ऐसा होने पर दूसरी कंपनियां जरूरत के हिसाब से उन्हीं के समान नुस्खे (फौर्मुलेशन) वाली दवाएं बनाने लगती हैं. चूंकि ऐसी दवाओं पर नए सिरे से शोध और क्लीनिकल ट्रायल करने की जरूरत नहीं होती, इसलिए उन की लागत बढ़ने का कोई दबाव नहीं होता. उन्हें जो रजिस्टर्ड कंपनी चाहे, बना सकती है और बाजार में बेच सकती है. ऐसी दवाएं जैनरिक दवाएं कहलाती हैं और इन की कीमतें भी काफी कम होती हैं.

डाक्टरों का परहेज

मरीजों से बीमारी का इलाज कराते समय तमाम परहेज बरतने की सलाह देने वाले डाक्टर खुद भी एक चीज से परहेज करते हैं, यह है जैनरिक दवाएं लिखने का परहेज. इलाज के लिए दिए वाले परचे पर वे ज्यादातर ब्रैंडेड दवाएं लिखते हैं, न कि जैनरिक. उन का आग्रह यह भी रहता है कि रोगी के मर्ज से संबंधित जांचें (मैडिकल लैब टैस्ट) उन की सुझाई पैथलैब में कराईर् जाएं और जो दवाएं उन्होंने परचे में लिखी हैं, वे या तो उन्हीं के क्लीनिक या अस्पताल से जुड़े मैडिकल स्टोर से खरीदी जाएं या फिर उन के आसपास के ऐसे मैडिकल स्टोर से जहां से उन्हें नियमित कमीशन मिलता है.

आज डाक्टर परामर्श की ऊंची फीस भी लेते हैं. शहरों में तो यह फीस अकसर 500 रुपए से ले कर 1,500 रुपए तक होती है. इस कीमत में वे चाहें तो अपने पास से जैनरिक दवाएं मुफ्त दे सकते हैं, पर कमीशन के लालच में वे मरीजों को ब्रैंडेड दवाएं लेने को मजबूर करते हैं. अपनी बीमारी और जान की जरा सी भी फिक्र करने वाला मरीज इस मामले में डाक्टरों से कोई बहस नहीं कर पाता है.

यही नहीं, अगर कोई डाक्टर जैनरिक दवा लिख दे, तो मैडिकल स्टोर वाले वे दवाएं मरीजों को इसलिए नहीं देते क्योंकि उन पर उन्हें ज्यादा कमीशन नहीं मिलता. ऐसे में मरीज मजबूर हो कर महंगी दवा ही खरीदता है. पर ऐसा करना यानी डाक्टरों को कानूनन जैनरिक दवाएं लिखने को बाध्य करना और मैडिकल स्टोर्स पर जैनरिक दवा बेचना कानूनन जरूरी किया जा सकता था, पर अफसोस कि पिछली सरकारें यह काम नहीं कर पाईं.

यह सवाल अकसर उठाया जाता रहा है कि जब दूसरे देशों में डाक्टरों के लिए जैनरिक दवाएं लिखना कानूनन अनिवार्य है तो भारत में क्यों नहीं? हाल के अरसे में वर्ष 2013 में मैडिकल काउंसिल औफ इंडिया ने भी डाक्टरों से जैनरिक दवाएं लिखने को कहा था और यह ताकीद की थी कि ब्रैंडेड दवा सिर्फ उसी केस में लिखी जानी चाहिए जब उस का जैनरिक विकल्प मौजूद न हो. इस बारे में संसद की एक स्थायी स्टैंडिंग कमेटी शांता कुमार की अध्यक्षता में बनाई गई थी, जिस ने सरकार से कहा था कि वह डाक्टरों के लिए केवल जैनरिक दवाएं लिखना अनिवार्य करे और इस के लिए जल्द से जल्द कानून बनाए. उस का यह भी कहना था कि देश में पहले से स्थापित दवा कंपनियों में एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) पर पूरी तरह पाबंदी लगाई जानी चाहिए.

आम आदमी की सेहत पर भारी

असल में, वाणिज्य विभाग की इस स्थायी संसदीय कमेटी ने दवा निर्माण (फार्मास्युटिकल) सैक्टर में एफडीआई के मुद्दे पर अपनी रिपोर्ट पेश की थी, जिस में उस ने कहा था कि डाक्टरों के एक बड़े तबके का अलगअलग वजहों से जैनरिक दवाएं लिखने से परहेज करना आम आदमी की सेहत पर भारी पड़ रहा है.

कमेटी की रिपोर्ट में इस बात पर गहरी चिंता जताई गई थी कि हाल के वर्षों में बहुराष्ट्रीय फार्मा कंपनियों ने एक के बाद कई नामी भारतीय दवा कंपनियों का अधिग्रहण किया है, जिस का असर दवाओं की महंगाई के रूप में दिखाई पड़ रहा है. इसलिए जरूरी है कि देश में पहले से स्थापित फार्मा कंपनियों में विदेशी निवेश पर पूरी तरह से पाबंदी लगाई जानी चाहिए.

इस बारे में कमेटी के चेयरमैन शांता कुमार ने आंकड़े पेश करते हुए बताया था कि हाल के वर्षों में देश के फार्मा सैक्टर में 67 विदेशी निवेश हुए. इन में से ज्यादातर मामलों में भारतीय दवा कंपनियों को बाजार रेट से 8-9 गुना ज्यादा दाम पर खरीदा गया था. शांता कुमार ने तब कहा था कि देश के मरीजों को मिल रही सस्ती दवाओं के खिलाफ यह एक बहुत बड़ी साजिश है. इसी वजह से देश की जनता को दवाओं की भारी कीमत चुकाने के लिए मजबूर होना पड़ा है.

रिपोर्ट में इस तथ्य की तरफ भी इशारा किया गया था कि विदेशी दवा कंपनियों की भारत में नई दवाएं खोजने में कोई दिलचस्पी नहीं होती. वे यहां महज ऐसी दवाएं बनाना चाहती हैं, जिन से उन्हें ज्यादा से ज्यादा मुनाफा मिल सके. इस का सुबूत यह है कि जिस फार्मा सैक्टर में पिछले कुछ अरसे में 18,678 करोड़ रुपए का विदेशी निवेश हुआ, वहां रिसर्च के नाम पर महज 524 करोड़ रुपए रखे गए.

सवाल जैनरिक दवाओं की क्वालिटी का जैनरिक दवाओं के मामले में भारत की गिनती दुनिया के बेहतरीन देशों में होती है. फिलहाल, हमारा देश दुनिया का तीसरा सब से बड़ा उत्पादक देश बना हुआ है. यह हर साल 42 हजार करोड़ रुपए की जैनरिक दवाएं एक्सपोर्ट करता है.

जैनरिक दवाओं के मामले में भारत की प्रतिष्ठा इस से साबित होती है कि यूनिसेफ अपनी जरूरत की 50 फीसदी दवाएं भारत से खरीदता है. भारत कई अफ्रीकी देशों में सस्ती जैनरिक दवाइयां भेजता आ रहा है. इस से स्पष्ट है कि भारत में आम जनता के लिए सस्ती जैनरिक दवाइयां आसानी से बनाई व बेची जा सकती हैं.

चूंकि भारतीय दवा कानून के तहत प्रिस्क्राइब की जाने वाली दवाओं के विज्ञापन की इजाजत नहीं है, इसलिए फार्मा कंपनियां अपने उत्पादों को बेचने के लिए मैडिकल रिप्रेजैंटेटिव का सहारा लेती हैं, जो डाक्टरों, मैडिकल स्टोर चलाने वालों को कमीशन व गिफ्ट का लालच दे कर बेहद महंगी ब्रैंडेड और ब्रैंडेड जैनरिक दवाओं की बिक्री करवाते हैं.

ऐसा कहने वाले विशेषज्ञों और डाक्टरों की कमी नहीं है जिन की राय में ब्रैंडेड दवाओं की गुणवत्ता भी अच्छी होती है. पर वे भी इस से इनकार नहीं करते हैं कि अगर कीमत को देखें, तो जैनरिक दवाओं से कराया जाने वाला इलाज किसी से कमतर नहीं होता. हालांकि ब्रैंडेड और जैनरिक की बहस में वे इतना अवश्य कहते हैं कि कहीं इस से फोकस दवा की गुणवत्ता के बजाय उस के मूल्य पर ही न चला जाए.

मुनाफे का द्वंद्व और जनऔषधि स्टोर

अगर सवाल मुनाफे का हो, तो कैमिस्ट यानी दवा बेचने वाला दुकानदार वही दवा बेचेगा, जिस में उसे ज्यादा मुनाफा हो. ऐसे में लोगों को जैनरिक दवाएं दिलाने का एक उपाय यह है कि सरकारी अस्पताल ये दवाएं अपने मरीजों को मुफ्त में दें, जैसे कि राजस्थान के हर सरकारी अस्पताल से मुफ्त दवाइयां दी जाती हैं. करीब 400-500 करोड़ रुपए की योजना के तहत मरीजों को दी जाने वाली ये सारी दवाएं जैनरिक होती हैं.

यही फार्मूला अगर देश के हर राज्य में लागू कर दिया जाए, तो ब्रैंडेड बनाम जैनरिक का आधे से ज्यादा मर्ज यों ही खत्म हो जाए. हालांकि जब तक ऐसा नहीं होता, डाक्टरों को इस के लिए बाध्य करना जरूरी है कि वे मरीजों के परचे पर दवाओं के ब्रैंड के बजाय उन के जैनरिक नाम ही लिखें.                        

दुष्चक्र दवा की महंगाई का

सरकार को भी इस का अंदाजा है कि कैंसर, दिल के रोगों, किडनी और लिवर आदि से जुड़ी जीवनरक्षक दवाओं को कैमिस्ट व डिस्ट्रीब्यूटर उन की लागत की 11 गुना ज्यादा कीमत पर बेचते हैं. लेकिन अफसोस कि उन पर नियंत्रण की कोई कोशिश सिरे नहीं चढ़ पाती है.

फार्मा कंपनियां क्रोसिन, डिस्प्रिन जैसी आम जैनरिक दवाओं की कीमतें नहीं बढ़ा पाती हैं क्योंकि इन में भारी प्रतिस्पर्धा है, लेकिन कैंसर, हार्ट, एचआईवी और किडनी, लिवर आदि बीमारियों के इलाज में काम आने वाली दवाओं को मनमानी कीमतों पर बेचा जाता है.

भारत सरकार के 2013 के आदेश के मुताबिक, 10 मिलीग्राम के डोक्सोरुबिसिन हाइड्रोक्लोराइड इंजैक्शन की कीमत 217 रुपए होनी चाहिए, लेकिन बिहार में एक फार्मा कंपनी का यह इंजैक्शन 9 हजार रुपए पर बिकता पाया गया. इसी तरह 50 मिलीग्राम का कैंसररोधी इंजैक्शन आईडौक्स 4,313 रुपए पर बेचा जा रहा था, जबकि इस की अधिकतम कीमत 1,085 रुपए होनी चाहिए.

जीवनरक्षक दवाएं 2 कारणों से महंगी हैं. एक तो उन्हें बनाने वाली फार्मा कंपनियां ही उन्हें महंगा बेचती हैं क्योंकि उन्हें उन पर पेटेंट हासिल है और वे एकाधिकार वाली स्थिति में हैं. दूसरे, कैमिस्ट और डिस्टीब्यूटर्स का गठजोड़ है जो अस्पतालों में डाक्टरों से मिलीभगत कर के उन्हीं कंपनियों की दवाओं को परचे पर लिखवाता है जो आम मैडिकल स्टोरों पर बेची जाती हैं.

फार्मा कंपनियों की मनमानी

फार्मा कंपनियां किस प्रकार दवाओं को महंगा कर रही हैं, इस की एक बड़ी मिसाल कुछ ही समय पहले एड्स, कैंसर व अन्य जीवाणुजनित बीमारियों की रोकथाम में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस्तेमाल होने वाली दवा डाराप्रिम के रूप में मिल चुकी है. साल 2015 में महीनेभर की इस दवा की खुराक की कीमत साढ़े 13 डौलर से रातोंरात 5 हजार प्रतिशत बढ़ा कर 750 डौलर कर दी गई. इस के लिए डाराप्रिम को बनाने व पूरी दुनिया में बेचने का अधिकार हासिल करने वाली अमेरिकी कंपनी ट्यूरिंग फार्मास्युटिकल ने इस के महंगे पेटेंट का हवाला दिया था. लेकिन जब पूरी दुनिया से इस पर दवा की कीमत घटाने का दबाव पड़ा, तो इस के अधिकारियों ने आश्वासन दिया कि कीमत में 10 फीसदी तक की कमी कर दी जाएगी.

डाराप्रिम की तरह ही टीबी के उपचार की अहम दवा साइक्लोसेराइन की 30 गोलियों की कीमत भी चंद दिनों के भीतर 500 डौलर से बढ़ा कर 10,800 डौलर कर दी गई और लोग उसे खरीदने को मजबूर हुए.

दवाओं की कीमत बढ़ाने के लिए फार्मा कंपनियां 2 तर्क देती हैं. एक तो यह कि उन्हें चूंकि प्रमुख दवाओं के पेटेंट ऊंची कीमत के बदले में मिलते हैं, जिस की भरपाई वे इसी तरह कीमतें बढ़ा कर कर सकती हैं. दूसरे, नई दवाओं के विकास पर उन्हें आरऐंडडी यानी शोध व विकास पर भारी पूंजी लगानी लड़ती है. लेकिन ये सिर्फ बाहरी कारण हैं. सचाई यह है कि दवा कंपनियां इस के पीछे की असली वजहों को छिपाती हैं, जैसे यदि मामले में अमेरिका का उदाहरण लिया जाए, तो वहां की फार्मा कंपनियां अमेरिकी राजनीतिक सिस्टम में भारी पैसा इसी मकसद से झोंकती हैं कि उन की इच्छित पार्टी की सरकार के सत्ता में आने पर उन्हें मनमानी कीमतों पर दवाएं बेचने की छूट मिल जाएगी. कोई संदेह नहीं है कि दवा कंपनियां सारे खर्च की भरपाई आखिरकार आम मरीजों से ही करती हैं और उन्हें ऐसा करने की छूट सरकारें ही देती हैं.

उल्लेखनीय है कि फिलहाल दवा बेचने वाले थोक व खुदरा कैमिस्ट दवाओं की बिक्री पर तगड़ा मुनाफा कमाते हैं. मोटेतौर पर देश में 8 लाख खुदरा दवा विक्रेता हैं, जिन का सालाना कारोबार 80 हजार करोड़ रुपयों का है. फिलहाल जिन दवाओं की कीमत पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है, उन की बिक्री पर उन की कमाई का न्यूनतम मार्जिन 30 फीसदी और इस से भी ज्यादा होता है, जिस में से 20 फीसदी मुनाफा तो अकेले रिटेलर का होता है. मूल्य निमंत्रण वाली दवाओं पर भी यह मुनाफा न्यूनतम 24 फीसदी होता है, जिस में 16 फीसदी मुनाफा रिटेलर का और 8 फीसदी मुनाफा होलसैलर कैमिस्ट का होता है.

प्यूर्टो रिको: मजा अमेरिका का, आनंद गोवा का

फ्लोरिडा, कैलिफोर्निया जैसे कुछ राज्यों को छोड़ कर अमेरिका के ज्यादातर राज्यों में सर्दी का मौसम भारतीयों के लिए असहनीय हो जाता है. ऐसे में अमेरिका के वंडर्स देख पाने के बजाय भारतीय टूरिस्ट गरम होटलों, कमरों, आर्ट गैलरियों में या फिर म्यूजियमों आदि में अपना समय व्यतीत करते हैं, क्योंकि सर्दी के मौसम में यहां हर घर, दुकान, मौल, गैलरी, म्यूजियम, भवन, औफिस अंदर से गरम रखा जाता है. सर्दी में जबतब बर्फ गिरती है. हिम, पाला, तुषार के इस मौसम के लिए आप को छाता, गरम कपड़े, कोट, दस्ताने, कैप तो चाहिए ही, शायद स्नो शूज भी खरीदने पड़ें.

ऐसे मौसम में आप की अमेरिकी यात्रा के सिलसिले में एक खास सुझाव यह है कि इस यात्रा के बीच समय निकाल 1 हफ्ते के लिए प्यूर्टो रिको हो आएं. अमेरिका के इस सहदेश की राजधानी सैन जुआन है. यहां जा कर आप को अमेरिका की कड़ाके की सर्दी से न केवल राहत मिलेगी, बल्कि सागर के मध्य बसे इस देश में आप को गोवा जैसा आनंद भी मिलेगा. नारियल, केले, पपीते के मनोहारी वृक्ष, गोवा जैसी गरमाहट, सुंदर चौपाटियां, सागर की मादक हवा, स्विमिंग पूल, भरपूर हरियाली आदि आप का मन मोह लेंगे. यहां के लोग भी हमीं जैसे हैं. अंगरेजी भाषा से यहां काम चल जाएगा, यह भी लाभ है.

नया जोश नई ऊर्जा

प्यूर्टो रिको देखने के बाद मन में पहला विचार यही आया कि वहां के आनंदकारी अनुभव गृहशोभा के पाठकों से शेयर करूं. खास बात यह है कि अगर आप ने अमेरिका का वीजा प्राप्त कर लिया है तो प्यूर्टो रिको को देखने से आप को कोई नहीं रोक सकता. जी हां, अमेरिकी वीजा व करेंसी ही चलते हैं वहां. दिलचस्प तथ्य यह भी है कि मेजर महानगरों न्यूयौर्क, अटलांटा, शिकागो, लास एंजिल्स, मियामी आदि से प्यूर्टो रिको की सीधी उड़ानें हैं जोकि आप को जल्दी सैन जुआन पहुंचा देंगी. इन सुविधाओं के अलावा यहां खानापीना, घूमना वगैरह भी अमेरिका के मुकाबले सस्ता है.

वहां जा कर अमेरिका की कड़ाके की सर्दी से 1 सप्ताह राहत पा जश्न मनाएं, फिर अमेरिका देखने पहुंचें, नए जोश, नई ऊर्जा के साथ. मैं परिवार संग अमेरिका गई तो मैं ने भी यही किया. जी हां, 6 दिन का वह सुंदर ट्रिप मुझे भूलता नहीं. तो आइए, आप को भी प्यूर्टो रिको घुमा लाऊं…

प्यूर्टो रिको में कायदाकानून अमेरिका का ही चलता है. अत: इसे अमेरिका का 51वां राज्य भी बोला जाता है, पर आप यहां महसूस करेंगे कि यह आजाद देश जैसा ही है. यहां की प्रमुख भाषा स्पैनिश है, यद्यपि अंगरेजी बोलसमझ लेने वाले पर्यटकों को कोई दिक्कत नहीं. यहां साइनबोर्ड स्पैनिश में हैं, फिर भी हर साल यहां 40-45 लाख टूरिस्ट आते हैं. हमें कुछ लोग ऐसे भी मिले जोकि पूरी सर्दी यहीं बिता कर बाद में अमेरिका जाते हैं.

विशाल और भव्य दृश्य

मैं अपने पति, बेटेबहू, पोतेपोती के संग न्यूयौर्क से निकली तो हम लोग 4 घंटों में ही सैन जुआन पहुंच गए. युनाइटेड की इस फ्लाइट में पानी और जूस तो मुफ्त सर्व हुआ, परंतु खाने का सामान खरीदना पड़ा. सैन जुआन में दुनिया के कई देशों से रोज फ्लाइटें आती हैं. अत: यह काफी बड़ा एअरपोर्ट है. खाने के स्थानीय व अमेरिकन जौइंट्स सभी एअरपोर्ट पर उपलब्ध हैं. यहां एअरपोर्ट पर थोड़ा खापी कर हम ने यहीं से किराए पर एक बड़ी कार ले ली, जिस ने 6 दिन का हम से 500 डौलर किराया लिया. इसे ड्राइव कर फिर अपने होटल विंढम पहुंचे, जहां 5 रातें ठहरने के लिए हम ने 3 कमरों का कोंडो किराए पर लिया. इस का टोटल किराया 1,500 डौलर था. कोंडो में बढि़या फर्नीचर, बरतन, फ्रिज, माइक्रोवेव जैसी सभी सुविधाएं थीं. थोड़ीबहुत खाद्यसामग्री हम बाजार से खरीद लाए. बाकी होटल से मंगाते थे.

2-3 घंटे आराम कर हम 4 बजे शहर देखने निकले. इस पहले दिन हमें पूरा माहौल खूब सुंदर दिखा मानो हम गोवा में हों. अलबत्ता गोवा के मुकाबले भीड़ व ट्रैफिक काफी कम था. खानेपीने और सामान खरीदने के लिए अमेरिकन रेस्तरां व दुकानों के साथसाथ स्थानीय रेस्तरां व दुकानें भी थीं. सड़क के किनारे हम ने केले, सेब, पपीते वगैरह भी खरीदे, न्यूयौर्क से आधे भाव में. फिर हम पहुंच गए पुराने सैन जुआन इलाके में एक सुंदर पुराना किला देखने.

1539 में इस किले का निर्माण स्पेनी लोगों ने शुरू किया था और जब पूरा बन गया तो इसे नाम दिया गया ‘कैस्टिलो सैन फैलिपे डेल मोरो.’ आज इस के अवशेष देखें तो भी मुंह से ये शब्द निकलेंगे कि विशाल, भव्य, रोमांचक. सागर से 140 फुट ऊंचा निर्मित यह किला पुराने सैन जुआन इलाके में है, जहां खूब रौनक है. असंख्य छोटीछोटी दुकानें हैं और हैं पुराने किस्म के सुंदर मकान. स्थानीय भोजन के अनेक रेस्तराओं में चुन कर एक में हम ने भोजन किया. रेस्तरां के बाहर स्ट्रीट डांसर व गायक टूरिस्टों के लिए परफौर्म कर रहे थे. लाइव डांस, म्यूजिक और पेट भर भोजन ने हमें करीबकरीब मदहोश कर दिया.

रोमांचक नजारे

एक और पुराना किला भी है सैन जुआन में जिस का नाम है ‘कैसिलो द सैन क्रिस्टोबल’ परंतु वह बंद हो चुका था. अत: देख नहीं पाए. पुराने सैन जुआन में हम ने एक ऐसी दुकान भी देखी जिस पर लिखा था, ‘आयुर्वेदिक मैडिसिन’ परंतु दुकान बंद थी. बहरहाल, हमारा पहला दिन संतुष्टि भरा गुजरा. रात को बढि़या नींद आई, मगर पंखा चला कर. लगा हम गोवा के किसी होटल में हैं अपनों के बीच. अगले दिन नाश्ता कर स्विमिंग कौस्ट्यूम में स्विमिंग पूल पहुंच गए. होटल के ग्राउंड फ्लोर पर 4 पूल्स हैं. इन में एक छोटे बच्चों के लिए है. बड़े बच्चों के लिए पूल में कूदने के लिए टेढ़ीमेढ़ी मजेदार स्लाइड्स हैं. घंटों जी भर के नहाए. बीचबीच में पास बने रेस्तरां में खातेपीते भी रहे.

बाद में होटल की दीवार से सटे सागर तट पर खूब घूमे. सागर जल एकदम स्वच्छ था. कहीं कोई गंदगी नहीं. सागर जल सूर्य की किरणों को पकड़ कभी सुनहरा, कभी हरा तो कभी नीला रंग इख्तियार कर लेता. 3-4 बजे कमरे में आ कर सो गए, फिर शाम को अनोखे अनुभव के लिए बायो बे गए. कहते हैं कि पूरी दुनिया में केवल 5 बायो बे स्थल हैं, जिन में से 3 प्यूर्टो रिको में हैं. इस नजरिए से प्यूर्टो रिको अनोखा है. हम ने इन में केवल एक ही बायो बे देखा और वह भी 2 किस्तों में, रात के वक्त. दूसरे और तीसरे दिन रात को 2-2 टिकट ही मिल पाए. रात 8 से 10 बजे के बीच देखे ये बायो बे वाकई रोमांचक थे.

अनोखा पर्यटक स्थल

सागर के कुछ ऐसे उथले अनोखे स्थल होते हैं जहां मैंग्रोट्ज के मध्य कुछ अद्भुत जीवाणु पनपते हैं, जो रात के समय जुगनुओं की तरह चमकते हैं. ये लाखोंकरोड़ों जीटाणु नीले, हरे प्रकाश से और ज्यादा चमकते हैं. इन्हीं स्थलों को बायो बे कहा जाता है, परंतु इन के पनपने के लिए खास कुदरती इकोलौजी चाहिए. इन स्थलों पर आप पैट्रोल, डीजल वाली मोटरबोट नहीं ले जा सकते, क्योंकि प्रदूषण इन जीवाणुओं को नष्ट कर देता है. इसीलिए हम लोग चप्पू चला कर साधारण बोटों से एक लीड बोट के पीछेपीछे बायो बे देखने गए. इस प्रकार की बोटिंग को कयाकिंग कहा जाता है. चढ़तेउतरते वक्त आप को कमर तक पानी में घुसना पड़ता है, परंतु प्रकृति की इस अद्भुत लीला का आनंद ही जुदा है. प्यूर्टो रिको की जो बायो बे हम ने देखी वह सैन जुआन में ही है. फ्जार्दो नामक स्थान पर बायो बे की बुकिंग बहुत पहले हो जाती है. अत: हमें वही टिकट मिल पाए थे जो कैंसल हुए थे. इसी कारण हम 2 किस्तों में गए थे.

2 अन्य बायो बे हैं- ला पार्गुयेरा और वियेक्स मैस्किटो बे. यद्यपि हम इन्हें देख नहीं पाए पर इन की भी तारीफ खूब सुनी. सैन जुआन में हमें स्थानीय लोगों ने बताया कि टूरिस्टों की अधिकता के कारण इन बे स्थलों पर प्रदूषण बढ़ रहा है और जीवाणुओं की संख्या कम हो रही है. हो सकता है कि कुछ वर्षों में ही ये बायो बे खत्म हो जाएं. प्यूर्टो रिको में अमेरिकन मैक डोनाल्ड, सबवे, डंकिन डोनट्स वगैरह सभी हैं, पर हम ‘चिलीज’ में ज्यादा जाते रहे. यहां वैजिटेरियन फूड मिलता है. चायकौफी, दूध वगैरह का स्टाक तो कमरे में ही था, बाहर से लेने की जरूरत नहीं पड़ी. इस प्रकार 3 दिन आराम से गुजर गए. तीसरी रात भी जी भर कर सोए. होटल के कमरे में आप को अतिरिक्त सुविधाएं चाहिए हों तो पहले ही सूचित कर देना बेहतर रहता है. वैसे जब भी आप होटल स्टाफ से बात करेंगे, वे सेवा के लिए तत्पर दिखाई देंगे.

अद्भुत प्राकृतिक नजारे

चौथे दिन हम अमेजौन, इंडोनेशिया, कांगो आदि वर्षावनों को देखने गए. छातेवाते लिए और थोड़े सैंडविच वगैरह बांधे निकल पड़े रेन फौरैस्ट देखने. कुछ किलोमीटर ही हमारी कार चली होगी कि घने वृक्ष शुरू हो गए. अचानक एक सुंदर बड़ा झरना दिखा तो कार रोक उस का आनंद लिया. उसे ‘ला कोका’ फौल कहते हैं. आगे 1-2 किलोमीटर के बाद हम पहुंच गए ‘एल यंग’ रेन फौरैस्ट. वाह, क्या नजारा. अद्भुत वृक्षलताएं, स्थानीय तोते और कोकी मेढक (बहुत छोटा मेढक है यह मगर खास आवाज में चिल्लानाटर्राना खूब जानते हैं), अन्यान्य लिजर्ड, रंगबिरंगे वृक्ष. टूरिस्टों के लिए जंगल में कैनोपियां बनी हैं ताकि अचानक बारिश शुरू होने पर उन में शरण ले सकें.

एक कैनोपी में बैठ कर सैंडविचचाय का आनंद लिया, फिर थोड़ा और घूमे. वापस आने का मन नहीं था. बीचबीच में वर्षा होती रही. 3-4 बजे भारी मन से कोंडो लौटे. थोड़ा आराम किया, खायापिया और फिर शाम ‘चिलीज’ रेस्तरां के नाम की. यहां खूब भीड़ थी. पेट भर खाया फिर कोंडो लौट आए.

दुनिया में हरी, नीली, पिंक और सफेद बालू वाले अनेक बीच हैं. 5वें दिन हम जल्दी जगे, बिना नहाए निकल पड़े कुलेब्रा आइलैंड के लिए जहां सफेद बालू वाले कई बीच हैं. इस के लिए पहले हम ने एक फैरी ली, जिस ने हमें कुलेब्रा पहुंचाया. फिर एक जीप किराए पर ले कर हम कुलेब्रा के सर्वाधिक लोकप्रिय बीच फ्लेमेंको पहुंचे. यह बीच विश्व के सर्वाधिक प्रसिद्ध बीचेज में शामिल है. यहां कोई पर्यटक सनबाथ, कोई स्नान, कोई कैंप आउट, कोई बोटिंग, कोई कयाकिंग तो कोई अन्य स्नोर्कलिंग में व्यस्त था. इस बीच को ‘बीच औफ व्हाइट सैंड्स ऐंड क्लियर ब्लू वाटर्स’ यों ही नहीं कहते. जल वाकई नीला व स्वच्छ था. हम ने भारत में इतना सुंदर, स्वच्छ, बढि़या बीच पहले नहीं देखा. यहां तक कि अमेरिका का ऐटलांटिक सिटी बीच भी इतना सुंदर नहीं. बहरहाल, कुल मिला कर लगा हम अपने प्रिय गोवा में हैं. शाम तक होटल वापस आ गए. फिर स्विमिंग पूल में घुस जलक्रीड़ा में मग्न हो गए.

नियमों का पालन जरूरी

स्विमिंग पूल्स के पास एक छोटा बगीचा भी है जहां 10 इगुआना पाली हुई हैं. टूरिस्ट उन्हें पत्ते खिला कर उन से दोस्ती करते हैं. इगुआना यहां की प्रसिद्ध लिजर्ड है जोकि बेबी मगरमच्छ जैसी लगती है. हम ने पहले इगुआना किसी भी म्यूजियम में नहीं देखी थीं. पूल्स से निकल हम इगुआना देखने चले गए पर खेलखेल में जब इगुआना ने हमारे पोते को काट लिया तो हम टैंशन में आ गए. पर गार्ड ने आश्वस्त किया कि कटे स्थान को साबुनपानी से धो निश्चिंत हो जाएं.

अगले दिन होटल से चैकआउट कर एअरपोर्ट के लिए निकल पड़े. फ्लाइट पकड़ न्यूयौर्क आ गए. नई ऊर्जा और नए ज्ञान के साथ लोग जिस रेसिज्म की बातें करते हैं वह हम ने न अमेरिका में महसूस की और न ही प्यूर्टो रिको में. हम तो यही कहेंगे कि वसुधा वाकई एक कुटुंब है. खूब पर्यटन कीजिए और कुटुंबीजनों से मिलते रहिए. हां, कोई ऐसा काम वहां न करें जिस कारण लज्जित होना पड़े खासकर कचरा तो कचरा डब्बे में ही डालें. स्थानीय नियमों का पालन करें और पर्यटन का पूरापूरा लुत्फ उठाएं.

ले रहीं हैं पर्सनल लोन?

ये बात तो आप भी समझती ही हैं कि पर्सनल लोन उसी समय लें जब आपको किसी काम के लिए तुरन्त धन की आवश्यकता हो. किसी भी व्यक्ति के समक्ष वित्तीय संकट कभी भी आ सकता है. तब ये जरुरी है कि इससे निपटने के लिए वे कैसे पूरी तरह से तैयार रहते हैं.

ऐसी परिस्थितियां तभी पैदा होती है जब आय के अनुपात में बचत कम होती है और खर्च बढ़ जाते हैं. अकस्मात खर्च के कई कारण होते हैं, जैसे – छुट्टीयां बिताने के लिए कहीं जाना, स्कूल और कॉलेज की फीस जमा कराना, वैवाहिक खर्च, घर के बढ़े हुए खर्च या उपभोक्त सामान की खरीद पर अनावश्यक खर्च आदि.

इन सभी खर्चों से वित्तीय संकट उपस्थित हो जाता है. यहां हम आपको कुछ ऐसी बाते बताने जा रहे हैं, जिन्हें आपको पर्सनल लोन लेते वक्त ध्यान में रखना जरूरी है…

लोन लेने से पहले सिबिल (CIBIL) स्कोर चेक करें

पर्सनल लोन के लिए आवेदन करने से पहले आपको सिबिल स्कोर को चेक कर लेना चाहिये. ऋण चुकाने की आपकी क्षमता के आधार पर ही पर्सनल लोन पर ब्याज की दर निर्धारित की जाती है, क्योंकि यदि आपके खर्च के अनुपात में बचत कम है तो ब्याज की दर बढ़ जाती है. यदि आपका क्रेडिट स्कोर ज्यादा है, तो बैंक आपसे अधिक ब्याज की दर वसूलता है. यदि आप लोन की र्इएमआर्इ नहीं चुका पाती हैं, तो आपकी ऋण चुकाने के संबंध में आपकी साख घट जाती है. CIBIL स्कोर चेक करने के लिए मासिक, छमाही और वार्षिक फीस लगती है.

प्रोसेसिंग फीस

बैंक आपके पर्सनल लोन के आवेदन पर कार्रवाई करने के लिए प्रोसेसिंग फीस लेता है, जिसको ले कर बैंकों में आपसी प्रतिस्पर्धा है. निजी बैंक सरकारी बैंको की तुलना में अधिक प्रोसेसिंग फिस लेते हैं.

पर्सनल लोन लेने से पहले जांच करें

त्यौहार या अन्य अवसर पर बैंक प्रोसेसिंग फीस नहीं लेते हैं. वे अपनी इस पालिसी के संबंध में बैंक विज्ञापन देते रहते हैं. आपको इस संबंध में पर्सनल लोन लेने के पहले जांच कर लेनी चाहिये.

जरुरत हो तभी लें पर्सनल लोन

आवश्यकता अनुसार ही लोन लें, क्योंकि अधिक लोन लेने पर आपकी इएमआर्इ और लोन चुकाने की अवधि बढ़ जाती है, जिससे ब्याज का भार अधिक वहन करना पड़ता है. वित्तीय क्षेत्र में यह बात कही जाती है कि पर्सनल लोन पर बैंक सर्वाधिक ब्याज वसूलते हैं . पर्सनल लोन सुरक्षित और असुरक्षित दोनों होता है, क्योंकि इसे लेने के लिए अपेक्षाकृत बहुत कम दस्तावेज जमा कराने रहते हैं. कर्इ बार बैंक व्यक्ति की बचत स्थिति को देखते हुए 24 प्रतिशत वार्षिक दर से ब्याज वसूलते हैं. ब्याज की दर सभी बैंकों की एक जैसी नहीं रहती है.

ब्याज दर का निर्धारण

बैंक वार्षिक अवधि के आधार पर ब्याज की दर निर्धारित करता है, अत: समयावधि के पूर्व ही लोन जमा कराने पर बैंक चार्जेज लगाता है. यह भी सम्भावना रहती है कि पहले ब्याज अदा करने पर बैंक चार्जेंज नहीं लगाये, परन्तु बैंक लोन देने पर वार्षिक लागत कितनी आयेगी इसी का पूर्वानुमान लगाता है.

समय पर चुकाएं ईएमआई

पर्सनल लोन की ईएमआई को समय पर ही चुकाएं, यदि आप ऐसा नहीं करती हैं तो आपका क्रेडिट स्कोर खराब हो सकता है और भविष्य में फिर आपको लोन मिलने या क्रेडिट कार्ड लेने में परेशानी हो सकती है.

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