अंकिता और कुशल की अचानक हुई दोस्ती की तस्वीरें वायरल

छोटे परदे की एक्ट्रेस अंकिता लोखंडे और टीवी से बॉलीवुड में आए सुशांत सिंह राजपूत की मोहब्बत का अंत पिछले साल हो गया था. इस जोड़ी के ब्रेकअप से सबसे ज्यादा दुख इनके चाहने वालों को हुआ था.

बॉलीवुड एक्टर से ब्रेकअप के बाद अंकिता के मेकओवर ने भी काफी लोगों का ध्यान खींचा था. वो जो भी करती हैं खबर बन जाती है.

ब्रेकअप के बाद जहां सुशांत का नाम अपनी रिलीज के लिए तैयार फिल्म ‘राब्ता’ की कोस्टार कृति सैनन के साथ जुड़ा, वहीं अब अंकिता का नाम टीवी स्टार कुशल टंडन के साथ खूब सामने आ रहा है.

लोखंडे और टंडन की बात करें तो दोनों ने हमेशा एक-दूसरे के साथ किसी तरह का रोमांटिक कनेक्शन होने की बात से इंकार किया है. लेकिन एक्ट्रेस की हालिया पोस्ट अफवाहों को फैलाने में कारगर साबित हो सकती हैं.

कुशल टंडन और अंकिता लोखंडे की सोशल अकाउंट की तस्वीरें भी यही बयान कर रही हैं कि दोनों की दोस्ती अब बेहद खास हो गई है.

एक-दूसरे के सोशल साइट इंस्टाग्राम में दोनों ने कई तस्वीरें और वीडियो शेयर किया है. दोनों वीडियो में बेहद सहज, नजदीक और मस्ती के मूड में नजर आ रहे हैं.

इंस्टाग्राम की इन तस्वीरों में दोनों की खास दोस्ती का साफ-साफ पता चल रहा है. जहां अंकिता ने कुशल के साथ इंस्टाग्राम में एक तस्वीर शेयर करते हुए लिखा, ‘अचानक हुई दोस्ती सबसे बेस्ट होती हैं’ वहीं कुशल ने अपने इंस्टाग्राम में अंकिता के साथ अपनी फोटो शेयर करते हुए लिखा, ‘अंकिता लोखंडे का डांस अस्तित्व की खुशी है.’

 

 

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कान फिल्म फेस्टिवल: किसके नाम रहा कौन सा अवॉर्ड

70वां कान फिल्म महोत्सव खत्म हो चुका है. इस साल प्रतिष्ठित अवॉर्ड जीतने वालों की लिस्ट जारी हो चुकी है. ऐसे में हम आपको बता देते हैं उन विजेताओं के नाम जिन्होंने कान फिल्म महोत्सव में अवॉर्ड जीते हैं अवॉर्ड.

‘कमेरा डेओर’ को बेस्ट फर्स्ट फीचर का अवॉर्ड मिला है. ‘ए जेंटल नाइट’ को बेस्ट शॉर्ट फिल्म का अवॉर्ड मिला है. बेस्ट स्क्रीनप्ले के लिए ‘द किलिंग ऑफ ए सेक्रेड डीयर’ को चुना गया. वहीं ज्यूरी प्राइज के लिए ‘लवलेस’ को चुना गया है.

कान फिल्म में बेस्ट एक्ट्रेस का अवॉर्ड डायने क्रूगेर को फिल्म ‘इन द फेड’ के लिए मिला. फिल्म’ यू वर नेवर रियली हेयर’ के एक्टर जोक्विन फॉएनिक्स को बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड मिला. ‘द बिगिल्ड’ की डायरेक्टर सोफिया कोपोल्ला को बेस्ट डायरेक्टर के लिए चुना गया.

ग्रैंड प्रिक्स के लिए ‘120 बीट्स पर मिनट’ को चुना गया. निकोल किडमैन को 70 एनिवर्सरी अवॉर्ड से सम्मानित किया गया. पाल्मे डेओर के लिए ‘द स्कवायर’ को चुना गया.

भारत से ऐश्वर्या राय बच्चन, दीपिका पादुकोण, सोनम कपूर और एमी जेक्सन ने भी कान फिल्म महोत्सव में शिरकत की. ऐश्वर्या, दीपिका और सोनम ने लॉरियल पेरिस के लिए रेड कार्पेट पर वॉक की.

वहीं एमी जैक्सन अपनी दोस्त किंबेरली गार्नर के साथ फ्रेंच रिविएरा पहुंची. ऐश्वर्या राय के लुक को देखकर फैंस काफी खुश हैं और उनकी फोटोज सोशल मीडिया पर काफी वायरल हो रही है. बहुत से लोगों ने उन्हें भारतीय सिंड्रेला का खिताब दे दिया है.

वहीं सआदत हसन मंटों के जीवन पर बन रही फिल्म ‘मंटो’ का पहला लुक जारी कर दिया गया है. इस फिल्म की डॉयरेक्टर ‘नंदिता दास’ ने इसे 70वें कान फिल्म फेस्टिवल में मीडिया के सामने रिलीज किया. जाने-माने एक्टर नवाजुद्दीन सिद्दीकी इस फिल्म में मंटो की भूमिका निभा रहे हैं. रिलीज किए गए पोस्टर में नवाजुद्दीन मंटो के रोल में एकदम फिट दिख रहे हैं. नवाजुद्दीन को मंटो का लुक देने के लिए बेहतरीन मेकअप किया गया है.

इसके अलावा प्रियंका चोपड़ा की सिक्किम के बैकग्राउंड पर बनी फिल्म ‘पहुना’ की पहली झलकी कान फिल्म महोत्सव में जारी की गई है. प्रियंका अपने और अपनी मां मधु चोपड़ा के बैनर ‘पर्पल पेबल पिक्चर्स’ के जरिए इस फिल्म का निर्माण कर रही हैं.

हालांकि प्रियंका 21 मई को हुए फिल्म के ट्रेलर लॉन्च के मौके पर मौजूद नहीं रहीं, लेकिन उनकी मां और भाई सिद्धार्थ चोपड़ा ने इसमें हिस्सा लिया.

प्रियंका होंगी दादा साहेब फाल्के अकैडमी अवॉर्ड से सम्मानित

हॉलीवुड फिल्म ‘बेवॉच’ में विक्टोरिया लीड्स का निगेटिव किरदार निभाने वालीं प्रियंका चोपड़ा के परफॉर्मेंस की खूब वाह वाही हो रही है. विदेशों में मिल रही प्रशंसा के साथ-साथ प्रियंका को भारतीय सिनेमा में उनके अभिन्न योगदान के लिए दादा साहेब फाल्के अकैडमी अवॉर्ड से नवाजे जाने की तैयारी चल रही है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति बटोर चुकीं प्रियंका के लिए इस अवॉर्ड को ध्यान में रखते हुए एक नई कैटिगरी तैयार की गई है.

दादा साहेब फाल्के अकैडमी शो कमिटी के चेयरमैन अशोक शेखर ने इस खबर को कन्फर्म करते हुए कहा, ‘हां, हम इस बार अवॉर्ड लिस्ट में एक नई कैटिगरी लेकर आ रहे हैं और यह है इंटरनैशनल स्तर पर अपनी अच्छी पहचान बना चुकीं एक्ट्रेस की कैटिगरी. इसमें कोई दो राय नहीं कि प्रियंका चोपड़ा एक इकलौती ऐसी एक्ट्रेस हैं, जो वाकई में यह अवॉर्ड डिजर्व करती हैं.’

अशोक शेखर ने यह भी कहा, ‘अपनी मेहनत और ईमानदारी भरी कोशिशों के बल पर प्रियंका ने भारतीय इंडस्ट्री को अंतरराष्ट्रीय मंच पर दमदार तरीके से पेश किया है. इसी वजह से इस अवॉर्ड के आयोजकों को इस लिस्ट में एक नए कैटिगरी को जोड़ना पड़ा.’

प्रियंका चोपड़ा के साथ उनकी मां मधु चोपड़ा को भी दादा साहेब फाल्के अकैडमी अवॉर्ड के दौरान सम्मानित किया जाएगा. यह सम्मान उन्हें उनकी मराठी बॉक्स ऑफिस पर हिट फिल्म ‘वेंटिलेटर’ के लिए दिया जाएगा, जिसे उन्होंने प्रड्यूस किया था.

गौरतलब है कि दादा साहेब अकैडमी अवॉर्ड, दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से अलग है. दादा साहेब फाल्के अकैडमी अवॉर्ड हिन्दी और रीजनल सिनेमा के क्षेत्र में अभिन्न योगदान के लिए दिया जाता है. यह सम्मान साल 2000 से फिल्मों से जुड़े मेकअप आर्टिस्ट से लेकर स्पॉट बॉय तक के 22 अलग-अलग क्षेत्र में योगदान के लिए दिया जाता है.

दादा साहेब फाल्के पुरस्कार, भारत सरकार की ओर से दिया जाने वाला सर्वोच्च वार्षिक पुरस्कार है, जिसके अंतर्गत किसी व्यक्ति विशेष को भारतीय सिनेमा में उसके आजीवन योगदान के लिए दिया जाता है. इस अवॉर्ड की शुरुआत 1969 से हुई है.

गर्मियों में करें इन जगहों की सैर

गर्मी बढ़ती जा रही है. ऐसे में ज्यादातर लोग इससे राहत पाने और मौज-मस्ती के लिए कहीं न कहीं घूमने की योजना बना रहे हैं. आप चाहें तो केरल, श्रीलंका जा सकती हैं जहां आप समुद्र किनारे सैर-सपाटा कर सकती हैं या तेज धूप से राहत पाने के लिए इसकी लहरों के साथ अठखेलियां कर सकती हैं. जानिए उन जगहों के बारे में जहां आप छुट्टियों का लुत्फ उठा सकती हैं.

कोवलम बीच, केरल

यह बीच उथले पानी और कम ऊंची लहरें उठने के लिए जाने जाता है. यह बीच आपके बच्चों के घूमने के लिए सबसे अच्छी जगह है, जहां वे समुद्र के किनारे चलती हवाओं के बीच पानी में मौज-मस्ती कर सकते हैं.

पुरी, ओडिशा

ओडिशा के समुद्र तट भारत के सुंदर और साफ समुद्र तटों में से एक है, जहां बड़े पैमाने पर लुप्तप्राय प्रजाति के ओलिव रिडले कछुए देखे जा सकते हैं. जगन्नाथपुरी मंदिर और सुंदर समुद्र तट ये दो चीजें ओडिशा को लोकप्रिय बनाते है. चांदीपुर और गोपालपुर ओडिशा के लोकप्रिय समुद्रतटों में से एक है.

थाईलैंड

यहां हर साल करीब तीन करोड़ पर्यटक आते हैं. भारतीय पर्यटकों का भी यह पसंदीदा पर्यटन स्थल बनता जा रहा है. यह बेहद खूबसूरत देश है. यहां शाही महल है और कई मनमोहक दृश्य देखने को मिल जाते हैं. कई प्रकार के व्यंजनों का भी आप यहां लुत्फ ले सकती हैं. इस देश का फुकेत प्रांत खूबसूरत जगहों में से एक है, जहां आप समुद्र किनारे जी भर के मौज-मस्ती कर सकती हैं.

श्रीलंका

इस देश में बेंटोटा में खूबसूरत समुद्रतट है. हरी-भरी वादियों और सुंदर तटों और पहाड़ियों वाले इस देश में आपको सुकून का अहसास भी होगा. नुवारा एलिया हरियाली से भरपूर जिला है, जहां की हसीन वादियां आपका मन मोह लेंगी. आप कोलंबों के कई ऐतिहासिक स्मारकों का भी दौरा कर सकती हैं. याला नेशनल पार्क में एनिमल सफारी भी कर सकती हैं, जहां आप हाथी, जंगली बिल्लियां, श्रीलंकाई स्लॉथ बेयर आदि जानवरों को देख सकती हैं.

दुबई

पाम बीच, बुर्ज खलीफा, बुर्ज अलअरब और कृत्रिम द्वीपसमूह ‘द वर्ल्ड’ दुबई के लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में से है. आप चाहें तो चार रात और पांच दिन की यात्रा को बुक करा कर इस खूबसूरत जगह की सैर कर सकती हैं.

सुबह में शहर के खूबसूरत जगहों की सैर, दोपहर में रेगिस्तान में सफारी और रात को बेहतरीन डिनर का आप लुत्फ उठा सकती हैं.

पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं हैल्थ सप्लिमेंट्स

झड़ते बाल, हड्डियों में दर्द, ब्लडप्रैशर में उतार चढ़ाव, थकावट, बेचैनी, अवसाद, ये सभी बढ़ती उम्र की निशानियां हैं, जिन का सामना हर महिला को करना ही पड़ता है. मगर गंभीर बात यह है कि अब ये सारी समस्याएं वक्त से पहले ही महिलाओं को घेर रही हैं.

इस का कारण बताते हुए मैक्स हैल्थ केयर की सीनियर काउंसलर एवं न्यूट्रिशनिस्ट डाक्टर मंजरी कहती हैं, ‘‘गांवों की अपेक्षा शहर की महिलाओं को ये बीमारियां अधिक होती हैं. इस के 2 कारण हैं. पहला यह कि शहर की महिलाओं में शारीरिक गतिविधियां न के बराबर होती हैं और दूसरा यह कि गांव से शहर तक पहुंचतेपहुंचते अनाज और फल इतनी तकनीकों से गुजर चुके होते हैं कि वे अपनी प्राकृतिक गुणवत्ता खो बैठते हैं. उदाहरण के तौर पर पोषक तत्त्व अनाज की ब्रान में होते हैं, मगर खूबसूरत दिखाने के लिए इन्हें इतना रिफाइन कर दिया जाता है कि ये अपनी सारी गुणवत्ता खो देते हैं.’’

जाहिर है, ऐसे में महिलाएं कितनी ही डाइट प्लान के मुताबिक चलें, पर जिन पोषक तत्त्वों की उन्हें जरूरत होती है वे उन के शरीर में नहीं पहुंच पाते. मगर महिलाओं की इस समस्या को दूर करने के लिए बाजार में ऐसे हैल्थ सप्लिमैंट्स मौजूद हैं, जो महिलाओं को वे सारे पोषक तत्त्व दे सकते हैं, जो उन्हें साधारण आहार से नहीं मिल पाते.

इस बाबत डा. मंजरी कहती हैं, ‘‘महिलाओं को कैल्सियम, विटामिन, प्रोटीन के अलावा कुछ माइक्रोन्यूट्रिएंट्स जैसे जिंक, पोटैशियम, मैग्नीशियम और कौपर की भी जरूरत होती है. फलों और अनाज दोनों में ही इन के बहुत कम स्रोत उपलब्ध हैं. इसलिए इन की भरपाई हैल्थ सप्लिमैंट्स से की जा सकती है.’’

डा. मंजरी महिलाओं के लिए निम्न कुछ जरूरी सप्लिमैंट्स के बारे में बताती हैं:

आयरन: महिलाओं में ऐनीमिया का रोग आम है. इस की बड़ी वजह शरीर में आयरन की कमी होती है. दरअसल, जब शरीर में रैड ब्लड सैल्स बनना बंद हो जाते हैं तो महिला को ऐनीमिया होने का खतरा रहता है. ऐनीमिया में अधिकतर महिलाओं को सांस लेने में दिक्कत और थकावट महसूस होती है. खून की कमी पूरी करने के लिए एलिमैंटरी आयरन, बी6 और बी12 की जरूरत होती है. ये सब एकसाथ एक आहार में नहीं मिल सकते, इसलिए रिवाइटल एच जैसे हैल्थ सप्लिमैंट्स के द्वारा इन्हें खुराक में शामिल किया जा सकता है.

मैग्नीशियम: शरीर से ऐनर्जी रिलीज करने के लिए मैग्नीशियम की जरूरत होती है. डा. मंजरी कहती हैं कि महिलाएं शारीरिक गतिविधियां कम से कम करती हैं, इसलिए शरीर में उतनी ऐनर्जी नहीं रहती. इस वजह से हड्डियां भी कमजोर हो जाती हैं. इस के लिए महिलाओं को मैग्नीशियम की जरूरत पड़ती है. वैसे तो मैग्नीशियम ज्वार, बाजरा, रागी में मौजूद होता है, मगर शहरी महिलाओं को इस तरह का अनाज मुश्किल से ही मिल पता है और जो मिलता भी है वह पैक्ड और प्रिजर्वेटिव वाला होता है. जबकि इस अनाज के ताजा पिसे आटे से बनी रोटियां खाने से ही मैग्नीशियम मिल सकता है. इसलिए इन के स्थान पर मैग्नीशियमयुक्त हैल्थ सप्लिमैंट्स लिए जा सकते हैं.

फौलेट: शरीर में रैड ब्लड सैल्स की संख्या बढ़ाना, मस्तिष्क की कार्यप्रणाली सुधारना और मानसिक सेहत के लिए आहार में फौलेट की उपस्थिति जरूरी होती है. मगर जिन फलों और पत्तों वाली सब्जियों में फोलेट मौजूद होता है उन के शुद्ध होने की गारंटी नहीं होती. इसलिए बाजार में खास महिलाओं के लिए मौजूद रिवाइटल एच जैसे सप्लिमैंट्स से इस की भरपाई की जा सकती है.

जिंक: महिलाओं को अपने आहार में जिंक भी शामिल करना चाहिए, क्योंकि इस की कमी से बालों का झड़ना, मुंह से स्वाद का गायब हो जाना, घाव का देर से भरना जैसी समस्याएं हो जाती हैं. वैसे तो कई अनाजों और फलों में यह मौजूद होता है, मगर ये फल सब्जियां इस की सही मात्र शरीर में पहुंचाने में सक्षम नहीं होतीं. बाजार में कई मल्टीविटामिंस सप्लिमैंट्स मौजूद हैं, जिन में जिंक भी शामिल होता है. इस का सेवन महिलाओं को कैंसर जैसे गंभीर रोग से भी बचाता है.

विटामिंस और कैल्सियम: महिलाओं को अपने आहार में इन्हें शामिल करना जरूरी होता है, क्योंकि ये हड्डियों को मजबूत बनाने के साथ ही हारमोंस में भी संतुलन बनाए रखते हैं. विटामिंस में महिलाओं को सब से अधिक विटामिन ए, सी और डी की जरूरत होती है. यदि वे कैल्सियम सप्लिमैंट ले रही हैं तो ध्यान रखें कि संतुलित आहार और व्यायाम जरूर करें, क्योंकि कैल्सियम का केवल 1/3 हिस्सा ही शरीर में अवशोषित होता है बाकी हिस्सा हड्डियों या दूसरे और्गंस में जम जाता है. ऐसा न हो इस के लिए व्यायाम जरूरी है.

हैल्थ सप्लिमैंट्स आप को वे सभी पोषक तत्त्व दे सकते हैं, जो आप को भोजन से भी नहीं मिलते. मगर इन का सेवन चिकित्सक से पूछने के बाद ही करें.      

कौन सा विटामिन क्यों जरूरी

विटामिन ए: यह आंखों की रोशनी और इम्यून सिस्टम को सुधारता है.

विटामिन बी1: नर्वस सिस्टम की कार्यप्रणाली को सामान्य बनाता है.

विटामिन बी2: यह भी आंखों की रोशनी को बढ़ाने में फायदेमंद है.

विटामिन बी3: यह त्वचा संबंधी दिक्कतों को दुरुस्त करने का अच्छा विकल्प है.

विटामिन बी6: मानसिक स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद है.

फौलिक ऐसिड: यह शरीर में सही रक्तसंचार के लिए आवश्यक है.

बायोटिन: बालों से जुड़ी समस्या को दूर करने के लिए आहार में बायोटिन जरूर शामिल करें.

विटामिन बी12: यह नर्वस सिस्टम और इम्यून सिस्टम की कार्यप्रणाली सुधारता है.

विटामिन सी: त्वचा, बालों और इम्यूनिटी के लिए जरूरी है.

विटामिन डी: यह कैल्सियम के अवशोषण के लिए आवश्यक है.

विटामिन ई: शरीर में मौजूद कोशिकाओं के लिए सुरक्षाकवच है और तनाव को दूर करने में मददगार है.

विटामिन के1: यह शरीर में खून जमने की समस्या को दूर करता है.

टेढ़ो टेढ़ो जाए

महल्ले में विकास समिति का गठन हुआ और पूरे महल्ले का विकास अबाध गति से किए जाने का संकल्प लिया गया. मुझे लगता है कि अब विकास खूब होगा क्योंकि इधर सरकार का दावा है कि वह सब का विकास करेगी और उधर महल्ला विकास समिति ने भी यही संकल्प दोहरा दिया है.

विकास की मार दोहरी है. अब विकास से हमारा महल्ला बच नहीं सकता. गठन के समय मैं खुद वहां मौजूद था. सर्वसम्मति से सदानंदजी को अध्यक्ष चुना गया. मुझ से उन्होंने पहले ही कहा था कि यदि उन्हें अध्यक्ष बना दिया गया तो वे मुझे चाय पिलाएंगे. मैं चाय पीने की गरज से उन के घर पहुंचा तो वे सफेद कुरता- पाजामा पहन कर कहीं जाने की तैयारी में थे. मैं अचरज से बोला, ‘‘क्यों, कहां जा रहे हैं? जाने से पहले चाय तो पिला जाइए.’’

‘‘प्रकाशजी, हमेशा मजाक ठीक नहीं होता. नगरनिगम प्रशासक से समय तय हो चुका है. महल्ले की सफाई के लिए उन से मिलना है,’’ वे बोले.

मैं ने कहा, ‘‘लेकिन महल्ले की सफाई में नगरनिगम क्या करेगा? हम जब कचरा ही नहीं डालेंगे तो गंदगी फैलेगी कैसे?’’

‘‘ओह, गजब है भाई, तुम समझते नहीं, महल्ले का काम है गंदगी फैलाना, मेरा कर्तव्य है कि फैली हुई गंदगी की अविलंब सफाई कराऊं. इसलिए अब जब अध्यक्ष बन गया हूं तो मुझे अथक प्रयास करने तो चाहिए. यदि सफाई व्यवस्था दुरुस्त नहीं हो पाई तो अगले वर्ष मुझे कौन बनाएगा अध्यक्ष.’’

‘‘आप व्यर्थ में सीरियस हो रहे हैं, सदानंदजी. यह तो एक औपचारिकता थी. उसे कर लिया गया है. बाकी कोई अध्यक्ष होने का मतलब काम करना तो नहीं है,’’ मैं ने कहा.

‘‘अरे, रहने दो, प्रकाशजी. आप सदैव मेरी छवि बिगाड़ने में लगे रहते हैं. मैं ने जनसेवा को तहेदिल से अख्तियार किया है और जब मैं ने विकास का संकल्प ले ही लिया है तो अब मुझे पीछे नहीं हटना है,’’ सदानंदजी बोले.

मैं ने कहा, ‘‘देखिए, नगर- निगम में जा कर अपना समय नष्ट न कीजिए. थोड़ा श्रमदान कर के हम लोग ही महल्ले को नया रूप दे सकते हैं.’’

‘‘लेकिन यह नगरनिगम फिर बना क्यों है? मेरी योजना है कि गलियारा कांच के माफिक दमक उठे. महल्ले के नागरिकों को बिना कष्ट दिए मैं एक ऐसा आदर्श स्थापित करना चाहता हूं कि वह दूसरे के लिए भी आदर्श बन जाए,’’ सदानंदजी ने कहा.

‘‘लेकिन विकास के लिए तो चंदा जरूरी है. चंदा जमा करना शुरू कीजिए. इस से बात बन जाएगी. बिना पैसे के कुछ नहीं होने वाला. महल्ले की गंदगी लाइलाज है और इस के लिए नगरनिगम का बजट पर्याप्त नहीं है. इसलिए आप रसीद बुक अवश्य छपवाइए और चंदा इकट्ठा करना शुरू कीजिए. चाहें तो चंदा इकट्ठा करने में मैं भी साथ चल सकता हूं,’’ मैं बोला.

‘‘देखो, प्रकाशजी,’’ सदानंदजी बोले, ‘‘काम करने की मेरी अपनी शैली है और आप इस में बाधा खड़ी मत कीजिए. देखते नहीं, मैं ने 4 जोड़ी कुरतेपाजामे की खरीदारी मिशनरी भाव से जनसेवा करने की दृष्टि से ही की है.’’

‘‘क्यों महल्ले की नेतागीरी के लिए बदखर्ची कर रहे हैं, सदानंदजी. कपड़े तो जो पहनते हैं वही पहन लेते. महल्ले के लिए नेतागीरी की पोशाक लाने की क्या आवश्यकता थी?’’ मैं बोला.

‘‘अरे, आप इतना भी नहीं समझते? महल्ले में आखिर मैं ही अकेला जनसेवक हूं. यदि आप लोगों जैसे कपड़े पहनूंगा तो लोग कैसे जानेंगे कि मैं महल्ला विकास समिति का अध्यक्ष हूं.’’

मैं ने कहा, ‘‘बात तो आप ठीक कह रहे हैं लेकिन मुझे लगता है कि आप में नेतागीरी के पूरे लक्षण नहीं हैं.’’

‘‘यह कैसे कह दिया जनाब आप ने?’’

‘‘वह इसलिए कि नेता कभी भी सत्य नहीं बोलता, कोई काम नहीं करता और झूठे आश्वासन देता है, लेकिन आप ने तो जनसेवा को बहुत गंभीरता से ले लिया है,’’ मैं बोला.

 

सदानंदजी बोले, ‘‘देखो, तुम मुझे मूर्ख मत समझना. मैं अपना स्कोप बना रहा हूं. आज महल्ले में नेता बना, कल शहर में, परसों एम.एल.ए. और एम.पी. बनूंगा. इसलिए यह अच्छी तरह जान लेना कि मैं ने कोई कच्ची गोलियां नहीं खेलीं.’’

‘‘इस का मतलब मैं मूर्ख हूं. मैं ने आप को समझने में भूल की.’’

‘‘तो इस का मैं क्या करूं?’’

‘‘बड़े घाघ निकले आप, सदानंदजी.’’

‘‘आखिर नेता जो हूं.’’

‘‘लेकिन वह अध्यक्ष बनवाने की चाय तो पिला दीजिए.’’

‘‘देखो, यह समय नेतागीरी का है. मेरा रास्ता छोड़ो और अपना रास्ता नापो. रहा सवाल एक कप चाय का, तो यह लो 5 रुपए का सिक्का और रास्ते में किसी दुकान से चाय पीते जाना. मेरा समय बरबाद मत करो,’’ सदानंदजी ने बड़ी चतुरता से जवाब दिया.

‘‘हमारी बिल्ली और हम से ही म्याऊं.’’

‘‘देखो, अपना काम करो,’’ वे बोले.

मैं ने कहा, ‘‘इस का मतलब अविश्वास मत ला कर आप के पांव उखाड़ने होंगे.’’

‘‘मैं ने कहा न, अपना काम करो. आप की कोई समस्या हो तो बताओ और फूटो,’’ सदानंदजी बोले.

मैं बोला, ‘‘समस्या यह है कि इस महल्ला विकास समिति से इस्तीफा कब दे रहे हो?’’

‘‘पागल कुत्ते ने नहीं काटा है मुझे, जो इस्तीफा दे दूं. मैं करेला ऊपर से नीम चढ़ा हूं.’’

‘‘इस का मतलब आप ने हम से किनारा कर लिया है.’’

‘‘मैं मसखरे लोगों को ज्यादा मुंह नहीं लगाता. थोड़ा गंभीर रहना सीखो प्रकाशजी.’’

‘‘सदानंदजी, आप अवश्य तरक्की करेंगे. आप में ‘विदइन नो टाइम’ नेतागीरी के तमाम गुण आ गए हैं. मैं ने आप को नहीं समझने की भूल की, उस के लिए मुझे पछतावा है,’’ मैं ने कहा.

इसी बीच उन का मोबाइल घनघना उठा. उन्होंने हैलो के बाद कहा, ‘‘अच्छा गुप्ता साहब, चिंता न करें, मैं नगरनिगम प्रशासक के पास ही बैठा हूं. महल्ला विकास समिति का अध्यक्ष हूं, टाइम कैसे नहीं देता,’’ फिर कुछ रुक कर बोले, ‘‘हांहां, आप के टैंडर के बारे में मैं अवश्य बात करूंगा. पर आप मेरा खयाल भी रखना, अच्छा बाय,’’ कह कर उन्होंने मोबाइल बंद कर दिया.

सदानंदजी ने मेरी तरफ देख कर बत्तीसी निकाली और नगरनिगम दफ्तर की ओर चल दिए.

मैं ठगा सा रह गया. ‘प्यादे से फरजी भयो, टेढ़ोटेढ़ो जाए.’  

पूरन सरमा     

प्यार किया तो डर के किया

धर्म और जाति की बिना पर प्यार से नाकभौं सिकोड़ते रहने वाले लोग अगर एक दफा ईमानदारी से अपने दिमाग से नफरत का कूड़ा निकाल कर प्यार करने वालों की बातों, जो वे दिल से करते हैं, को सुन लें तो तय है उन का नजरिया प्यार और प्यार करने वालों के हक में बदल जाएगा.

जिस समाज में हम रहते हैं उस पर उन लोगों का दबदबा है जिन्हें धर्म ने रटा दिया है कि प्यार करना बुरी बात है और धर्म के उसूलों के खिलाफ है, इसलिए जहां भी किसी को प्यार करते देखो, तुरंत एतराज जताओ, उन्हें धर्मजाति के अलावा घर की मानमर्यादाओं के नाम पर परेशान करो और इतना परेशान करो कि वे मरने तक कि सोचने लगें. यह हर्ज की बात नहीं क्योंकि धर्म जिंदा रहना चाहिए, वही जीवन का सार है.

इस कट्टरवादी सोच के तले हमेशा से ही इश्क करने वाले हारते आए हैं. वे आज भी कायदेकानूनों, रीतिरिवाजों और उसूलों के नाम पर अपनी हंसतीखेलती जिंदगी व हसीन ख्वाबों की बलि चढ़ा रहे हैं. पर प्यार में जान देने वालों की जिम्मेदारी लेने को कोई आगे नहीं आता तो यह महसूस होना कुदरती बात है कि हमें एक ऐसा समाज और माहौल चाहिए जिस में प्यार करने की आजादी हो, नौजवानों को अपनी मरजी से शादी करने का हक हो, नहीं तो प्रेमी यों ही डरडर कर जीते रहेंगे और इन में से कुछ मरते रहेंगे.

एकदूजे के लिए

भोपाल के बाग मुगालिया इलाके  में रहने वाले 19 वर्षीय रंजीत को अपने ही महल्ले में रहने वाली 17 वर्षीया काजल साहू से प्यार हो गया. एक सुनहरी जिंदगी का ख्वाब उन की आंखों ने देखा. लेकिन उन की नजरें दुनियादारी नहीं देख पाईं. जल्दी ही उन के हौसलों ने घर, समाज, जाति और धर्म के आगे घुटने टेक दिए.

पेशे से मैकेनिक रंजीत ठीकठाक कमा लेता था. उस की जिंदगी की कहानी औरों से हट कर है. एक साल पहले ही उस के पिता की मौत हुई तो मां ने दूसरी शादी कर ली थी. जब मां अपने दूसरे शौहर के यहां चली गई तो वह अपने मामा अरविंद के यहां रहने चले आया. जवानी में विधवा हो गई मां को अगर दूसरा सहारा मिल गया था तो यह कतई हर्ज की बात नहीं थी.

लेकिन एक साल के अंतर से हुई इन 2 घटनाओं ने रंजीत की जिंदगी में एक खालीपन ला दिया, जिसे पूरा किया कमसिन और खूबसूरत काजल ने जो उस के दिल का दर्द समझने लगी थी.

19 फरवरी की दोपहर में रंजीत घर आया और खुद को कमरे में बंद कर फांसी लगा ली. जैसे ही मामा अरविंद ने भांजे को फांसी के फंदे पर झूलते देखा, तुरंत पुलिस को खबर दी. पुलिस आई, कानूनी कार्यवाही व पूछताछ की और फिर रंजीत की लाश को पोस्टमौर्टम के लिए भेज दिया. सारे महल्ले में इस खुदकुशी की चर्चा थी कि क्यों सीधेसादे रंजीत, जिस का अपने रास्ते आनाजाना था, ने बुजदिलों की तरह अपनी जान, भरी जवानी में दे दी जबकि उस के सामने तो पूरी जिंदगी पड़ी थी.

कुछ ही लोगों को समझ आया कि माजरा क्या हो सकता है लेकिन वे कुछ नहीं बोले. बोलने से अब कोई फायदा भी नहीं था कि रंजीत दरअसल काजल से प्यार करता था और शादी करना चाहता था लेकिन उस के घर वाले तैयार नहीं हो रहे थे. शायद, इसलिए उस ने जान दे दी. रंजीत कोई सुसाइड नोट नहीं छोड़ गया था.

जैसे ही रंजीत की खुदकुशी की खबर काजल को लगी तो उस ने बगैर वक्त गंवाए फैसला ले लिया. यह फैसला दरअसल रंजीत के साथ जीनेमरने की कसमें और वादे निभाने का था. रंजीत की मौत की खबर जिस वक्त काजल को मिली, उस वक्त वह पड़ोस की एक शादी में गई थी. वह घर आई और शाम का खाना बनाया, फिर अपने कमरे में चली गई.

इस वक्त काजल की दिमागी हालत क्या रही होगी, इस का सहज अंदाजा हर कोई नहीं लगा सकता. जिस का प्यार उस से कभी छिन गया हो वही समझ सकता है कि काजल पर क्या गुजर रही होगी. रात कोई साढ़े 8 बजे काजल भी रंजीत की तरह फांसी पर झूल गई. मरने से पहले सुसाइड नोट में उस ने खुद के और रंजीत के प्यार का जिक्र किया.

अपनों द्वारा विरोध

शुरू हुआ चर्चाओं का दौर, हरेक की अपनी अलग राय थी. कुछ ऐसे लोग भी थे जिन्होंने यह कहा कि रंजीत को काजल के बालिग होने तक इंतजार करना चाहिए था. बात सच थी लेकिन ऐसा कहने वाले लोग यह नहीं सोच पाए कि आखिर क्या वजहें थी जिन के चलते रंजीत और काजल को इंतजार करना भी बेकार लगने लगा था. यह बात 10वीं में पढ़ने वाली काजल भी जानतीसमझती थी कि नाबालिग की शादी कानूनन जुर्म होती है.

दरअसल, ये दोनों इंतजार करने को तैयार थे पर इन का प्रेमप्रसंग घरवालों को रास नहीं आ रहा था. रंजीत और काजल का प्यार कोई ढकीमुंदी बात नहीं रह गई थी. जानने वालों को यह भी मालूम था कि कुछ दिनों पहले ही काजल के घरवाले शादी के लिए तैयार हो गए थे पर फिर बाद में मुकर गए थे. यह बात रंजीत के मामा अरविंद ने मानी कि दोनों में प्यार था.

इस वाकए ने अनायास ही फिल्म ‘एक दूजे के लिए’ की याद दिला दी जिस में हीरो कमल हासन और हीरोइन रति अग्निहोत्री थे. ये दोनों भी एकदूसरे से टूटकर प्यार करते थे पर घरवाले अलगअलग धर्मों, जाति और इलाकों के थे, इसलिए विवाह के लिए तैयार नहीं थे. सपना और वासु पर उन्होंने तरहतरह की बंदिशें व शर्तें लाद रखी थीं जिन पर वे खरे भी उतर रहे थे पर इस के बाद भी बात नहीं बनी तो दोनों ने एकएक कर खुदकुशी कर ली थी.

यह फिल्म जबरदस्त हिट हुई थी. आज भी प्रेमियों के बीच इस के किरदारों सपना और वासु की मिसाल दी जाती है और यह आज भी इस लिहाज से मौजूं है कि प्यार के मामले में भारतीय समाज की सोच और संकरापन ज्यों का त्यों 35 साल और उस से भी पहले जैसा है. 35 साल में कितने प्रेमियों ने अपनी जान दी होगी, इस की कोई गिनती नहीं, लेकिन कुछ चर्चित मामले जरूर हैं.

जुदाई का डर

भोपाल के हमीदिया रोड स्थित होटल अमरदीप के एक कमरे में इसी साल 5 जनवरी को ही मनीषा लोवंशी और शुभम पटेल नाम के प्रेमियों ने खुदकुशी कर ली थी. इन दोनों ने जुदाईर् के डर से बाकायदा योजना बना कर साथ मरने की कसम निभाई थी. 24 वर्षीया मनीषा ने इस दिन दोपहर को एक होटल में कमरा किराए पर लिया था. थोड़ी देर बाद शुभम भी होटल के कमरे में आ गया. दोनों ने साथ मिल कर खाना खाया.

खाना खाने के बाद उन्होंने जो बातें की होंगी, वो तो उन के साथ गईं पर उन की खुदकुशी कुछ सवाल जरूर छोड़ गई. दोनों ने होटल के कमरे में सल्फास की गोलियां खा लीं.

मनीषा इंदौर की रहने वाली थी जो अकसर भोपाल आया करती थी. यहां उस की जानपहचान अपनी उम्र से 4 साल छोटे शुभम से हो गई. दोनों ने तय कर लिया कि अब साथ जिएंगे और साथ नहीं जी पाए तो मर तो साथ सकते हैं.

इस हादसे पर भी खूब सनसनी मची थी जिस में एक बात यह सामने आई थी कि मनीषा की मामीमामा को उस का शुभम से मिलनाजुलना पसंद नहीं था क्योंकि अगर वह शुभम से शादी करती तो इस का असर उन की 3 लड़कियों की शादी पर भी पड़ता यानी गैरबिरादरी के कम उम्र के लड़के से शादी करने पर पूरे घर की बदनामी होती.

ये दोनों बालिग   थे, चाहते तो शादी कर सकते थे पर इन्हें चिंता और डर जाति व समाज का था. क्यों? इस सवाल का जवाब साफ है कि प्यार करने वाले इस मोड़ पर उसूलों और ख्वाहिशों की चक्की में पिस रहे होते हैं जिस से बाहर निकलने में इन की मदद के लिए कोई न आगे आता है और न ही सही राह दिखाता है.

फिर क्या करें? रंजीतकाजल और मनीषाशुभम जैसे प्रेमी. यह सवाल हमेशा से ही मुंहबाए खड़ा है. लेकिन हारते प्यार करने वाले ही हैं जिन का गुनाह सिर्फ इतना सा होता है कि उन्होंने प्यार किया. यह प्यार आज भी चोरी और या गुनाह माना जाता है तो इस के असल जिम्मेदार धर्म के ठेकेदार हैं जो नहीं चाहते कि नौजवान अपनी मरजी से शादी करें, अगर करेंगे तो इन के खोखले उसूल, कायदे, कानून और रीतिरिवाज ताश के पत्तों की तरह ढह जाएंगे जो इन की रोजीरोटी का तो बड़ा जरिया हैं ही, साथ ही समाज पर इन का दबदबा भी बनाए रखते हैं.

बीती 18 दिसंबर को मध्य प्रदेश के शिवपुरी में एक और ऐसा ही हादसा हुआ था जिस में 20 वर्षीया माशूका आरती कुशवाह ने अपने 22 वर्षीय आशिक महावीर रजक के खुदकुशी करने के बाद खुद भी आत्महत्या कर ली. महावीर चूंकि छोटी जाति का था और आरती ऊंची जाति की, इसलिए इन दोनों की शादी के लिए इन के घर वाले राजी नहीं हो रहे थे. ये दोनों बैराड़ गांव से शिवपुरी पढ़ने आए थे और एकदूसरे को बेइंतहा चाहने लगे थे.

महावीर और आरती ने धर्म द्वारा बनाए और फैलाए गए जातिवाद की सजा अपनी जानें दे कर भुगतीं तो किसी ने कुछ नहीं कहा, न ही सोचा कि आखिर इन मासूमों का इस में कुसूर क्या था. कुल मिला कर साबित यह हुआ कि वाकई प्यार करने वाले धर्म, जाति और ऊंचनीच वगैरा कुछ नहीं देखते और ऐसा होना तभी मुमकिन है जब दिलों में प्यार का एहसास जाग जाए.

पर इन्हें सजा क्यों

2 बालिग जब प्यार करते हैं तो सही मानो में उन्हें जिंदगी के माने समझ आते हैं. प्रेमियों को सारी दुनिया हसीन लगती है और उन का कुछ करगुजरने का जज्बा भी सिर उठाने लगता है. उन्हें अपने वजूद का एहसास होता है, जिंदगी का मकसद मिलता है और एक सुकूनभरी जिंदगी गुजारने के लिए वे एकदूसरे के साथ जीनेमरने की कसमें खाने लगते हैं. धर्म, जाति और उम्र के बंधन तोड़ने पर ये उतारू हो जाते हैं. लेकिन हकीकत से जब टकराते हैं तो इन की हिम्मत जवाब देने लगती है.

यह हकीकत है कि ये प्यार करने वाले धर्म के ठेकेदारों और समाज के पैराकारों के बिछाए सदियों पुराने जाल में फड़फड़ा कर परिंदों की तरह दम तोड़ देते हैं. किसी का दिल नहीं पसीजता, उलटे प्रचार यह किया जाता है कि देख लो, प्यार करने का अंजाम.

कई मामलों में प्रेमी बालिग होते हैं और हर लिहाज से काबिल भी होते हैं लेकिन उसूल तोड़ कर अपने सपनों का आशियाना बनाने की हिम्मत वे नहीं जुटा पाते. इस की वजह सिर्फ यह है कि वे एक बुजदिल बेडि़यों में जकड़े समाज और दुनिया में जीने के बजाय साथ मर जाना बेहतर समझते हैं.

कहने का मतलब यह नहीं कि खुदकुशी करना कोई बहादुरी वाली बात है बल्कि यह है कि प्रेमियों को अपनेआप में दुनिया, धर्म और समाज से लड़ने की हिम्मत जुटानी चाहिए क्योंकि अपनी मरजी के मुताबिक शादी करना और जिंदगी जीना हर किसी का हक है. जिंदगी को बेकार के रीतिरिवाजों व नियमों की बलि चढ़ा कर ये लोग प्यार को कमजोर साबित कर जाते हैं.

आ रहा है बदलाव

एकसाथ खुदकुशी कर मर जाने वालों को समाज में आ रहे बदलावों को भी गौर से देखना चाहिए. आजकल पढ़ेलिखे, खातेपीते घरों में 60 फीसदी शादियां दूसरी जाति में हो रही हैं और हैरत की बात यह है कि राजीखुशी हो रही हैं. मांबाप खुद बच्चों की मरजी से शादी कराने के लिए आगे आ रहे हैं. थोड़ी तकलीफ हालांकि उन्हें भी होती है पर बच्चे खुद को अच्छा पतिपत्नी साबित कर दें, तो वक्त रहते वह तकलीफ भी दूर  हो जाती है.

दरअसल, फर्क शिक्षा और माहौल का है जिसे बदलने के लिए जरूरी है कि पहले कैरियर बना कर खुद के पैरों पर खड़ा हुआ जाए, दुनियाजमाने की परवा न की जाए.  इस के लिए जरूरी है कि आशिक और माशूका साथ जीने की कसम खाएं, साथ मरने की बात तो उन्हें सोचनी ही नहीं चाहिए क्योंकि कानून उन के साथ है. धीरेधीरे लोगों का नजरिया भी बदल रहा है पर उस का दायरा अभी सिमटा है, तो जाहिर है नौजवानों के विरोध, गैरत और अच्छे कैरियर से ही और बढ़ेगा.   

इन्होंने जीती जंग

नए साल की शुरुआत प्यार के मामले में ठीकठाक नहीं हुई थी. 3 जनवरी की सुबह भोपाल के कलैक्ट्रेट में बजरंग दल के कार्यकर्ताओं का जमावड़ा था और उन के इरादे नेक नहीं लग रहे थे. लिहाजा, भारी तादाद में पुलिस बल यहां तैनात था जिसे देख हर कोई हैरत में था कि आखिर यहां कौन सा पहाड़ टूटने वाला है.

दरअसल, इस दिन बैंक की एक मुलाजिम रितु अपने प्रेमी विशाल से कोर्टमैरिज करने वाली थी. विशाल चूंकि ईसाई धर्म को मानने वाला है, यह भनक लगते ही कि एक हिंदू लड़की क्रिश्चियन लड़के से शादी करने जा रही है वह भी अपने घरवालों की मरजी के खिलाफ, तो बजरंगियों ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था.

ये लोग रितु और विशाल की शादी न होने देने पर आमादा थे तो इन दोनों ने दृढ़ कर रखा था कि कुछ भी हो जाए, प्यार के इन दुश्मनों के सामने सिर नहीं झुकाना है. शादी से रोकने के लिए रितु के घरवालों ने उसे मारापीटा भी था. इस से साबित हो गया था कि ऐसा गांवदेहातों के अनपढ़ कहे जाने वाले लोगों में ही नहीं, बल्कि पढ़ेलिखे शहरी भी जातपांत, धर्म और ऊंचनीच की गिरफ्त में हैं.

खूब हंगामा हुआ लेकिन ये दोनों अपने फैसले से टस से मस नहीं हुए और रजिस्ट्रार के यहां शादी की दरख्वास्त लगा दी. शादी के दिन भारी गहमागहमी के बीच एडीएम रत्नाकर झा ने रितु को कोर्ट में बुला कर पूछा कि कहीं विशाल और उस के घरवाले तुम्हें बहलाफुसला कर तो शादी नहीं कर रहे हैं और मुमकिन है शादी के बाद तुम्हारा धर्मपरिवर्तन भी करा दें. जवाब में पूरे भरोसे के साथ रितु ने कहा कि वह विशाल से ही शादी करना चाहती है. एडीएम के यह पूछने पर कि तुम्हारे घरवाले नहीं चाहते कि तुम किसी दूसरे लड़के से शादी करो तो रितु ने कहा कि विशाल और मैं ने एकसाथ जीनेमरने की कसम खाई है और इसे मैं उम्रभर निभाऊंगी.

रितु का यह भी कहना था कि वह बालिग है और अपना भलाबुरा बखूबी समझती है. अपने घरवालों के एतराज से उसे कोई सरोकार या लेनादेना नहीं है. उधर, विशाल ने पूरी सख्ती के साथ कहा कि भले ही रितु के मांबाप गुस्सा हों लेकिन वह उन्हें अपने मांबाप की तरह इज्जत देगा और जिंदगीभर रितु का खयाल रखेगा. एडीएम ने बाहर हिंदूवादियों के  जमावड़े की परवा न करते हुए इन दोनों की शादी पर कानूनी मुहर लगा दी.

इस मामले से सबक यह मिलता है कि अगर प्रेमी प्यार के दुश्मनों से लड़ने की ठान लें, तो कोई उन का कुछ नहीं बिगाड़ सकता. फिर मरने की बात सोचने का तो सवाल ही नहीं उठता.

क्या करें

प्यार करना गुनाह नहीं है पर उस में साथसाथ या फिर अलगअलग किसी एक का खुदकुशी कर लेना, वह भी डर से, जरूर गुनाह है जिस से इस तरह बचा जा सकता है

–       शादी का फैसला बालिग होने पर ही लें.

–       शादी से पहले काबिल बनें यानी अपने पैरों पर खड़े हों.

–       कोई भी फैसला लेने से पहले घर वालों को मनाने की हर मुमकिन कोशिश करें.

–       घरवाले न मानें तो रिश्तेदारों और दोस्तों का साथ लेने की कोशिश करें.

–       अगर कोई भी साथ न दे तो कोर्टमैरिज करें और अलग रहें.

बिलाशक ये बातें कहनेसुनने में आसान लगती हैं लेकिन इन पर अगर आसानी से अमल किया जा सकता तो बड़े पैमाने पर प्रेमी खुदकुशी करते ही क्यों? पर मुहब्बत की जंग जीतने के लिए जरूरी है अपनेआप में हिम्मत पैदा की जाए. इस के लिए जरूरी है कि घरपरिवार, जाति और धर्म को ले कर ज्यादा जज्बाती न हुआ जाए और यह भी न सोचा जाए कि अगर अपने घरवालों की मरजी के खिलाफ शादी कर ली तो उन पर क्या गुजरेगी.

सोचें यह कि जब हम एकदूसरे के बगैर वाकई नहीं रह सकते तो हम पर क्या गुजरेगी. खुदकुशी करना आसान काम है, पर इस से सपने पूरे नहीं होते, न खुद के और न ही घरवालों के जो धर्म व जाति के चक्रव्यूह में फंसे अपने बच्चों का भला भी नहीं सोच सकते.

लेटलतीफी के मुरीद क्यों हैं हम

ऐसा लगता है कि वक्त की कीमत नहीं समझना और आधा घंटा देरी संबंधी भारतीय मानक समय के कुख्यात मुहावरे को हमारे सरकारी कर्मचारियों ने पूरी तरह आत्मसात कर रखा है, वरना इस बारे में सरकार को बारबार अपनी चिंता नहीं प्रकट करनी पड़ती. इस का एक उदाहरण तब देखने को मिला, जब दिल्ली के नवनियुक्त चीफ सैक्रेटरी एम एम कुट्टी ने दिसंबर 2016 के आखिरी हफ्ते में सभी विभागों के सचिवों को निर्देश जारी कर के लेटलतीफ बाबुओंकर्मियों का पता लगाने और आदतन ऐसा करने वालों के खिलाफ कड़ा ऐक्शन लेने को कहा.

मोदी सरकार पहले भी दफ्तरों में देर से आने वाले कर्मचारियों से परेशान है और वह सरकारी मंत्रालयों, विभिन्न विभागों और दफ्तरों में कामकाज की लुंजपुंज शैली में लगातार आग्रह के बावजूद, सुधार होता नहीं देख कर लेटलतीफ कर्मचारियों पर नजर रखने व उन पर कार्यवाही करने का संकेत देती रही है. पर लगता है कि सरकारी बाबुओं ने ठान रखा है कि सरकार चाहे जितने डंडे चला ले वे अपनी लेटलतीफी की आदत नहीं बदलेंगे.

उल्लेखनीय है कि डिपार्टमैंट औफ पर्सनल ऐंड ट्रेनिंग (डीओपीटी) वर्ष 2015 में जारी एक निर्देश में साफ कह चुका है कि सरकारी कर्मचारियों के लिए आदतन देर से दफ्तर आना दंडनीय अपराध है और ऐसे कर्मचारियों के खिलाफ विभागीय कार्यवाही की जा सकती है. इस के लिए सर्विस रूल्स (नौकरी संबंधी नियमावली) का हवाला दिया गया था. जारी आदेश में कहा गया था कि सरकारी कर्मचारियों के लिए समय की पाबंदी सुनिश्चित करने का दायित्व मंत्रालयों, विभागों और कार्यालयों का है, इसलिए उन के अधिकारी विभाग के कर्मचारियों की उपस्थिति का रिकौर्ड रखें.

डीओपीटी ने सभी अधिकारियों से कहा था कि वे उपस्थिति के लिए बायोमैट्रिक सिस्टम को ही आधार मानें और उसी आधार पर कार्यवाही करें. पर लेटलतीफी की आदत से मजबूर सरकारी कर्मचारियों ने बायोमैट्रिक सिस्टम से बचने के कई उपाय कर रखे थे और वे उपस्थिति दर्ज करने के लिए दूसरे तरीकों को अपनाए हुए थे.

यही नहीं, जिन कार्यालयों में उपस्थिति दर्ज करने के आधुनिक तौरतरीके अपना लिए गए हैं, वहां भी उपस्थिति का रिकौर्ड नहीं रखा जाता. इस से कुछ समय बाद यह पता नहीं चलता कि एक निश्चित समयावधि के बीच कौन सा कर्मचारी आदतन समय पर नहीं आता रहा है.

डीओपीटी के निर्देश में यह भी सुझाया गया था कि एक सरकारी कर्मचारी के लिए एक हफ्ते में 40 घंटे (8 घंटे प्रतिदिन) की उपस्थिति अनिवार्य है.

ऐसी स्थिति में यदि कोई कर्मचारी महीने में 2 बार 30 मिनट की देरी से आता है, तो उसे समय की पाबंदी में छूट मिल सकती है, लेकिन तीसरी बार इतनी ही देरी पर उस की आधे दिन की छुट्टी काट ली जाएगी. यदि वह आदतन ऐसा करता रहता है, तो वार्षिक मूल्यांकन रिपोर्ट (अप्रेजल) में उस के बारे में नकारात्मक टिप्पणी की जा सकती है.

आदत से मजबूर

सरकारी विभागों में काम के वक्त अधिकारियों व कर्मचारियों का नदारद रहना और अपनी कुरसी पर देर से आना खास कर तब अखरता है, जब उस अधिकारी व कर्मचारी के जिम्मे जनता से जुड़े कामकाज हों. ऐसी स्थिति में लोग लंबी लाइन लगा कर कर्मचारी व अधिकारी के दफ्तर और अपनी सीट पर विराजमान होने का लंबा इंतजार करते रहते हैं. ऐसे कर्मचारी को यदि कोई व्यक्ति भूलवश देरी से आने के लिए कोई बात कह दे, तो ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति का कोई काम हो पाना नामुमकिन ही हो जाता है.

यही नहीं, दफ्तर आ कर भी अपनी सीट से गायब हो जाना भी ज्यादातर सरकारी कर्मचारियों की आदत में शुमार हो गया है, वे घंटों तक दफ्तर तो क्या, उस के आसपास तक नजर नहीं आते, भले ही लाइन में जनता अपने सौ काम छोड़ कर सिर्फ उन का वहां इंतजार ही क्यों न कर रही हो. इन मुश्किलों का समाधान क्या है?

बायोमैट्रिक सिस्टम का तोड़

देश की राजधानी दिल्ली के सरकारी दफ्तरों में भले ही अटैंडेंस के लिए बायोमैट्रिक सिस्टम की शुरुआत हो चुकी है, पर अन्य हिस्सों में मौजूद ज्यादातर सरकारी दफ्तरों में उपस्थिति दर्ज कराने का पुराना सिस्टम चला आ रहा है, जिस में कर्मचारी औफिस में रखे रजिस्टर में अपने नाम के आगे हस्ताक्षर करते हैं. इस में अकसर समय के उल्लेख का कोई प्रावधान नहीं होता.

यदि समय दर्ज किया जाता है, तो जरूरी नहीं कि वह एकदम सही लिखा जाए और महीने के आखिर में उस उपस्थिति के आधार पर कर्मचारी की छुट्टियों और वेतन का समायोजन किया जाए. इस में भी बाबुओं की मिलीभगत से कोई कर्मचारी दफ्तर आए बिना वर्षों तक अपनी उपस्थिति लगवाता रह सकता है. ऐसे दर्जनों किस्से उजागर हो भी चुके हैं जब कोई कर्मचारी दफ्तर आए बिना वेतन लेता रहता है.

उपस्थिति के सिस्टम के आधुनिकीकरण का तब भी कोई फायदा नहीं, जब तक कि दफ्तर आए कर्मचारी की अनिवार्य मौजूदगी के प्रमाण न जुटाए जाएं. कार्ड पंचिंग के तौरतरीकों के दुरुपयोग की भी सैकड़ों शिकायतें मिल चुकी हैं. ऐसे सिस्टम में भी तब मिलीभगत एक कामयाब नुस्खे के तौर पर आजमाई जाती रही है, जब एकदूसरे के कार्ड से कर्मचारी उपस्थिति दर्ज करवाते रहे हैं. यही वजह है कि अब सरकार उपस्थिति दर्ज करने के मौजूदा तौरतरीकों को खत्म कर उन की जगह ऐसा बायोमैट्रिक सिस्टम लागू करना चाहती है जो सारे मैन्युअल सिस्टम की जगह ले सके. आधार एनेबल्ड बायोमैट्रिक अटैंडेंस सिस्टम (एईबीएएस) नामक इस प्रणाली में कर्मचारी की उंगलियों व आंखों की पुतलियों की छाप ली जा सकेगी, जिस से उपस्थिति की धांधलियों पर काफी हद तक रोकथाम की उम्मीद है. पर ये सिर्फ यांत्रिक उपाय हैं. ऐसे में इस की भरपूर आशंका आगे भी रहेगी कि कामचोर व बेईमान कर्मचारी इन का कोई न कोई तोड़ निकाल लें.

सवाल कार्य संस्कृति का

नियमों का पालन डंडे के बल पर करवाना पड़े, तो किसी देश और समाज के लिए इस से ज्यादा शर्मनाक और क्या हो सकता है. आखिर हमारे देश में ऐसी कार्य संस्कृति क्यों नहीं जग पा रही है जिस में वक्त पर दफ्तर आना, सौंपे गए काम और जिम्मेदारी का समर्पण के साथ निर्वाह करना और देश के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना लोग जरूरी समझते हों.

देश में जो नई कौर्पोरेट संस्कृति पनप रही है उस में देर से दफ्तर आने वालों के लिए कोई जगह नहीं होती है. वहां देर से दफ्तर आने वालों के लिए पर्याप्त दंड की व्यवस्था है. इस से कर्मचारी वक्त के पाबंद रहते हैं. अचरज इस बात को ले कर होता है कि सरकारी कर्मचारियों ने इस बदलाव का जरा भी नोटिस नहीं लिया है और इस का इंतजार कर रहे हैं कि सरकार जब तक उन पर पाबंदियां नहीं लगाएगी, तब तक वे नहीं सुधरेंगे.

इस सिलसिले में एक दावा यह किया जाता है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही जिस प्रकार सरकारी कार्यालयों में बायोमैट्रिक अटैंडेंस लागू करवाने की बात कही थी, उस से सरकारी कर्मचारियों में काफी नाराजगी थी. बताते हैं कि इस का बदला उन्होंने दिल्ली विधानसभा चुनावों में लिया और केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी को करारा झटका दिया.

ऐसी सूरत में सरकारी कर्मचारियों को सख्त कायदों के बल पर दफ्तरों में उपस्थित रहने को मजबूर करना सरकार के लिए टेढ़ी खीर साबित होता है. इसलिए ज्यादा जरूरत लोगों को यह समझाने की है कि समय को ले कर उन की काहिली देश और समाज ही नहीं, खुद उन के लिए भी दिक्कतें पैदा करती है. उन्हें ऐसे उदाहरण देने की जरूरत है कि जिन पिद्दी से देशों ने मामूली संसाधनों के बल पर पूरी दुनिया में छा जाने के करिश्में किए हैं, उस में उन की कार्यसंस्कृति का बड़ा भारी योगदान है.

जापान इसी एशिया का एक मुल्क है जहां लोग देर से दफ्तर आने को सिर्फ अपराध नहीं मानते हैं, बल्कि औफिस पहुंचने पर दिए गए काम को नहीं कर पाना भी खुद उन के लिए गुनाह है. जापानी वक्त के किस कदर पाबंद हैं, इस का एक उदाहरण भारत में करीब एक दशक पहले देखने को मिला था. वर्ष 2004 में एक जापानी इंजीनियर मत्सू काजू हिरो अपनी कंपनी के काम से भारत आया था. दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे पर उतरने के एक घंटे बाद तक जब भारत स्थित कंपनी की इकाई की गाड़ी उसे लेने नहीं पहुंची, तो देरी से खफा मत्सू ने फौरन जापान वापसी की फ्लाइट पकड़ ली थी. हवाईअड्डे पर विलंब का यह नजारा डेढ़ दशक में भी नहीं बदला.

एयरइंडिया की लेटलतीफी

यह किस्सा सरकार के वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू से जुड़ा है. वर्ष 2016 में एक अवसर पर उन्हें एयर इंडिया की जिस फ्लाइट से हैदराबाद में आयोजित एक महत्त्वपूर्ण सरकारी बैठक में जाना था, वह फ्लाइट पायलट के नहीं पहुंचने के कारण समय पर उड़ान ही नहीं भर पाई. घंटों इंतजार के बाद वेंकैया नायडू घर वापस लौट गए और नाराजगी में सोशल मीडिया पर ट्वीट करते हुए एयर इंडिया से यह कहते हुए जवाब मांगा कि प्रतिस्पर्धा के इस युग में एयर इंडिया इतनी लेटलतीफी आखिर कैसे कर सकती है.

एयर इंडिया ने इस मामले में मंत्रीजी से माफी मांग ली, पर इस सरकारी उपक्रम में विलंब का यह पहला वाकेआ नहीं था. ऐसा तकरीबन हर रोज होता है पर उन उड़ानों में कोई वीआईपी नहीं होने के कारण देरी कोई मुद्दा नहीं बनती.

ध्यान रहे कि छोटेछोटे देशों ने घड़ी की सूइयों के साथ कदमताल कर के ही विकसित होने की राह खोली है. अब तो ऐसे उदाहरण देश में ही कई निजी कंपनियां पेश कर रही हैं. उन्होंने लगभग हर कायदे में सरकारी प्रतिष्ठानों से आगे निकल कर साबित कर दिया है कि कार्यसंस्कृति को बदलने का कितना बड़ा फर्क किसी संस्थान की तरक्की पर पड़ता है. सरकारी और निजी बैंकों के कामकाज में अंतर आज हर व्यक्ति महसूस करता है.

ऐट द इलेवैंथ आवर

सवाल यह है कि डीओपीटी के निर्देश और बायोमैट्रिक सिस्टम सरकारी कर्मचारियों को वक्त का पाबंद बनाते हैं या फिर सरकारी दफ्तरों में ये कायदे और उपाय सिर्फ आधुनिकीकरण का एक पैबंद बन कर रह जाते हैं. असल में बात भारतीय आदतों की है. अंतिम क्षणों यानी ‘ऐट द इलेवैंथ औवर’ पर ही जगने का उपक्रम करने की इस मानसिकता के दर्शन देश में हर जगह होते हैं.

आयकर रिटर्न दाखिल कराना हो, स्कूलकालेज में फीस भरनी हो, बिजली व टैलीफोन के बिल जमा करने हों या कोई अन्य काम निबटाना हो, अमूमन ये सभी काम एक औसत भारतीय अंतिम दिन और आखिरी घंटे तक टालता है. नतीजा है लंबीलंबी, बोझिल कतारें. यही मनोवृत्ति दफ्तरों, विशेषरूप से सरकारी कार्यालयों में बाबुओं के पहुंचने को ले कर भी है और शायद इसलिए भारतीय मानक समय यानी तय समय से आधा घंटा लेट का तंजभरा मुहावरा प्रचलित है.

कौनसा देश, वक्त का कितना पाबंद

वक्त की पाबंदी को ले कर देशदुनिया में रोचक सर्वेक्षण होते रहते हैं. ऐसा एक सर्वेक्षण जून 2016 में औनलाइन गेमिंग वैबसाइट मिस्टर गेम्ज ने 15 देशों में किया था. इस के कई दिलचस्प नतीजे सामने आए थे. जैसे, मैक्सिको में भारत की तरह आधा घंटा विलंब को ले कर कोई नाराज नहीं होता. इसी तरह मोरक्को ऐसा देश है जहां दिए गए समय से यदि कोई एक घंटे से ले कर पूरे एक दिन का विलंब करता है तो भी कोई त्योरियां नहीं चढ़ाता. वहीं, दक्षिण कोरिया में जरा सी भी देरी बरदाश्त नहीं की जाती. मलयेशिया में अगर कोई 5 मिनट में आने को कह कर 1 घंटे में भी नहीं आता है तो इस के लिए क्षमायाचना की जरूरत भी महसूस नहीं की जाती है. इसी तरह यदि चीन में कोई व्यक्ति तय समय से 10 मिनट की देरी से आता है, तो इस से कोई ज्यादा हर्ज नहीं होता है.

लेकिन जिन देशों में काम और वक्त की कीमत को समझा गया है, वहां इस के उलट नजारे मिलते हैं. जैसे, जापान में अगर ट्रेन 1 मिनट से ज्यादा देरी से चलती है, तो इसे लेट की श्रेणी में डाला जाता है. भारत में इस तथ्य को भले ही हैरानी से देखा जाए कि जापान में पिछले 50 वर्षों में एक भी मौका ऐसा नहीं आया है जब कोई ट्रेन डेढ़ मिनट से ज्यादा लेट हुई हो.

अपने देश में तो हर साल सर्दी में कोहरे को एक बड़ी वजह बताते हुए ट्रेनें औसतन 3-4 घंटे की देरी से चल सकती हैं और उस पर रेलवे कोई हर्जाना देने की जिम्मेदारी नहीं लेता. जापान की तरह जरमनी में देरी स्वीकार्य नहीं है और अपेक्षा की जाती है कि कोई भी व्यक्ति तय वक्त से 10 मिनट पहले उपस्थित हो जाए.

वक्त के मामले में भारत जैसी सुस्ती कई अन्य देशों में भी फैली हुई है. जैसे, नाइजीरिया में अगर किसी बैठक की शुरुआत का वक्त दिन में 1 बजे है तो इस का अर्थ यह लगाया जाता है कि मीटिंग 1 से 2 बजे के बीच कभी भी शुरू हो सकती है. इसी तरह सऊदी अरब में वक्त को ले कर ज्यादा पाबंदियां नहीं हैं, वहां लोग आधे घंटे तक आराम से लेट हो सकते हैं. बल्कि वहां आलम यह है कि अगर मीटिंग में वक्त पर पहुंच गया व्यक्ति बारबार अपनी घड़ी देखता है तो इसे लेट आने वालों की अवमानना की तरह लिया जाता है.

सर्वेक्षण के मुताबिक, ब्राजील में देर से आने वालों के लिए मुहावरा ‘इंग्लिश टाइम’ इस्तेमाल किया जाता है, जिस का मतलब है कि वहां भी देरी बरदाश्त नहीं की जाती. इस के उलट घाना में भले ही किसी मीटिंग का वक्त पहले से बता दिया गया हो, पर  इस मामले में उदारता की अपेक्षा की जाती है.

इसी सर्वेक्षण के नतीजे में भारत का उल्लेख करते हुए लिखा गया था कि यहां के लोग वक्त पर आने वालों की सराहना तो करते हैं, लेकिन वक्त की पाबंदी को खुद पर लागू किए जाना पसंद नहीं करते यानी भारत में वक्त की पाबंदी को एक अनिवार्यता की तरह नहीं लिया जाता.

भारत जैसा हाल यूनान (ग्रीस) का है जहां समय की बंदिश को लोग नहीं मानते. लेकिन विदेशियों से उम्मीद करते हैं कि उन्हें निश्चित समय पर किसी जगह पर उपस्थित रहना चाहिए.

कजाकिस्तान में तो वक्त की पाबंदी पर चुटकुले सुनाए जाते हैं और समारोहों में देरी से पहुंचने को स्वीकार्यता हासिल है. इस के विपरीत रूस के नागरिक वैसे तो हर मामले में सहनशीलता अपनाने की बात कहते हैं लेकिन वक्त की पाबंदी के मामले में कोई छूट नहीं देते. हालांकि वहां विदेशियों से तो वक्त पर उपस्थित रहने को कहा जाता है पर यदि किसी रूसी व्यक्ति से इस नियम का पालन करने को कहा जाए तो वह नाराज हो सकता है.

कुल मिला कर मिस्टर गेम्स नामक वैबसाइट ने सर्वेक्षण के आधार पर जो नतीजे निकाले थे, वे शब्ददरशब्द सही साबित हुए हैं.

जापान से लें सबक

वैसे तो अब जापान में भी वक्त की पाबंदी के कायदों में विचलन आने की बात कही जा रही है, खासतौर से युवाओं में इस नियम को ले कर बेरुखी देखने को मिलने लगी है पर मोटेतौर पर जापान अभी भी वक्त के पाबंद देश के रूप में देखा और सराहा जाता है.

समय की पाबंदी को जापानियों ने एक आदत के रूप में अपनाया है और इस के लिए उन्हें किसी आदेशनिर्देश की जरूरत नहीं होती है. निजी जलसों में लोगों को इस नियम से छूट हासिल होती है, लेकिन वहां भी वे विलंब की जानकारी मोबाइल, एसएमएस या व्हाट्सऐप से अवश्य देते हैं.

ट्रेनों के मामले में जापान में नियम यह है कि अगर कोई ट्रेन एक मिनट से ज्यादा लेट होती है, तो जापानी रेलवे कंपनियां इस के लिए सार्वजनिक क्षमायाचना करती हैं. बुलेट ट्रेनों के आवागमन में 15 सैकंड से ज्यादा की देरी नहीं होती है.

समय की इतनी बंदिश को ले कर जापान में बसे विदेशी काफी हैरान होते हैं. उन्हें लगता है कि वक्त को ले कर जापानी कुछ ज्यादा ही कठोर हैं. जापान में समय की पाबंदी को ले कर इतनी ज्यादा सतर्कता बरतने के पीछे कई कहानियां प्रचलित हैं.

एक कहानी के मुताबिक, मेइजी दौर में ट्रेनें अकसर आधा घंटे की देरी से चलती थीं, जिस से फैक्टरियों में काम करने वाले लोग कभी भी समय पर नहीं पहुंच पाते थे. इसी के फलस्वरूप करीब 80 साल पहले शोआ युग में जापान में ट्रेनों के लिए साइंटिफिक मैनेजमैंट सिस्टम लागू किया गया. इस सिस्टम की शुरुआत अमेरिका में हुई थी जिस का इस्तेमाल टाइमकीपिंग के जरिए फैक्टरियों में उत्पादन बढ़ाने का प्रयास किया गया था.

जापान में यह सिस्टम अपना असर छोड़ने में कामयाब रहा. सचाई तो यह है कि आज के जापान में भी पार्कों से ले कर बाजारों और विज्ञापनपट्टों तक पर वक्त को ले कर जापानियों की सख्ती के दर्शन होते हैं और लोगों की निगाह घड़ी से कभी भी हटती नहीं दिखाई देती.

भले ही अब जापानी युवा इस नियम में कुछ छूट की मांग करने लगे हैं पर जापानी संस्कृति का असर वहां काम करने वाली अमेरिकी कंपनियों पर भी हुआ है जो वक्त की पाबंदी को जापान के बाहर अन्य मुल्कों में लागू करने लगी हैं.       

हर निसंतान जोड़े को आईवीएफ की जरूरत नहीं

आजकल लोगों के काम करने के अनियमित घंटे, निष्क्रिय जीवनशैली, तनावपूर्ण जीवन, अपर्याप्त खानपान, अधिक उम्र में विवाह, तंबाकू एवं शराब का सेवन, शारीरिक परिश्रम में कमी होने आदि के कारण वे निसंतानता के शिकार हो रहे हैं. ऐसे में आईवीएफ एवं आईयूआई जैसी प्रक्रियाएं ऐसे लोगों के लिए काफी लाभप्रद साबित हो रही हैं.

हालांकि निसंतान जोड़ों के लिए केवल आईवीएफ ही एकमात्र विकल्प नहीं, सही और सटीक इलाज से प्राकृतिक रूप से भी संतानसुख प्राप्त हो सकता है. लोगों की यह धारणा होती है कि आईवीएफ द्वारा जन्मा बच्चा अनुवांशिक तौर से जोड़े का नहीं होता, जो गलत है क्योंकि महिलाएं अपने ही अंडे और पुरुष अपने ही शुक्राणु से मातापिता बन सकते हैं. साथ ही, आईवीएफ दर्दरहित प्रक्रिया होती है. इस दौरान रोज के काम भी आसानी से किए जा सकते हैं और इस में अस्पताल में भरती रहने की जरूरत भी नहीं होती है.

निसंतान जोड़ों को बिना देरी के निसंतानता विशेषज्ञ से अवश्य परामर्श लेना चाहिए. आईवीएफ, आईयूआई, लैप्रोस्कोपी प्रक्रियाओं आदि के बारे में जानना चाहिए. इस के अलावा आईवीएफ कराने से पहले सभी प्रकार की जांचों को करा लेना चाहिए जिस में सब से ज्यादा महत्त्वपूर्ण पुरुष के शुक्राणुओं की संख्या और आकार एवं स्त्रियों के अंडे की संख्या व गर्भाशय का आकार होता है.

जिन महिलाओं की फैलोपियन ट्यूब खराब या बंद हो जाती है, वे मां बनने में अक्षम हो जाती हैं. पर यदि लैप्रोस्कोपी से बंद ट्यूब को खोल दिया जाए तो सामान्यतौर पर, आईयूआई या आईवीएफ से मां बनना संभव है.

शून्य शुक्राणु वाले पुरुष भी अपने ही शुक्राणुओं से पिता बन सकते हैं. कम शुक्राणु वाले पुरुष बिना आईवीएफ के सफलता प्राप्त कर सकते हैं. जिन महिलाओं में अंडा बनने की क्षमता कम है, वे भी अपने अंडे से गर्भवती हो सकती हैं, आवश्यकता है केवल सटीक जांच एवं सही उपचार की.

निसंतानता के कारण

आईवीएफ पद्धति से इलाज करवाने वाली महिलाओं में पहले 38 से 45 वर्ष आयुवर्ग की महिलाएं अधिक होती थीं लेकिन बीते कुछ सालों में इस इलाज के लिए आने वाली महिलाओं के आयु समूह में बदलाव आया है. अब कम आयुवर्ग की महिलाएं भी आईवीएफ के लिए आती हैं.

आज के समय में ये तकनीक बांझपन को दूर कर निसंतान दंपतियों के लिए आशा की एक नई किरण है.

किस चिकित्सक से परामर्श लें?

–       निसंतानता विशेषज्ञ से परामर्श लें.

–       आईवीएफ व उस से जुड़ी बातों के बारे में जानें.

–       स्त्रीरोग विशेषज्ञ का परामर्श ही काफी नहीं.

–       उम्र के साथ शुक्राणु कम होने पर विशेषज्ञ की सलाह अवश्य लें.    

(डा. पूजा गांधीलेखिका उदयपुर में गीतांजलि फर्टिलिटी सैंटर में आईवीएफ की विशेषज्ञ हैं.)          

चीन की सिंगिंग सेंसेशन हैं ट्यूबलाइट की एक्ट्रेस झू झू

सलमान खान की फिल्म ‘ट्यूबलाइट’ में उनकी को-स्टार कोई और नहीं बल्कि फेमस चाइनीज एक्ट्रेस और सिंगर झू झू हैं. इससे पहले झू झू, चाइनीज फिल्मों के साथ ही कई हॉलीवुड फिल्मों और अमेरिकन टीवी शो में भी काम कर चुकी हैं और अब ‘ट्यूबलाइट’ के जरिए वह बॉलीवुड में डेब्यू करने जा रही हैं.

इस बेहतरीन एक्ट्रेस के बारे में ऐसी कई बातें हैं जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं. जानें झू झू के बारे में कुछ अनसुनी बातें.

बचपन से है पिआनो बजाने का शौक

महज 3 साल की उम्र से ही झू झू ने पिआनो बजाना शुरू कर दिया था. धीरे-धीरे वह इतना अच्छा पिआनो बजाने लगीं कि जूनियर स्कूल में उन्होंने स्टेज पर ब्यूटी एंड द बीस्ट की कहानी को स्टेज पर पिआनो के जरिए परफॉर्म किया.

चाइना की सिंगिंग सेंसेशन हैं झू झू

2005 में झू झू, चीन के एक फेमस म्यूजिक चैनल के साथ जुड़ी और म्यूजिकल प्रोग्राम होस्ट करने लगीं. पेइचिंग में हुए एक लोकल सिंगिंग कॉन्टेस्ट में उनका टैलंट सामने आया और इसके बाद उन्होंने नैशनल लेवल सिंगिंग प्रतियोगिता में तीसरा स्थान हासिल किया. 2009 में झू झू का पहला एल्बम लॉन्च हुआ.

हॉलीवुड में भी किया काम

‘क्लाउड ऐटलस’ और ‘द मैन विद द आयरन फिस्ट्स’ जैसी हॉलीवुड फिल्मों में छोटे-छोटे रोल करने के बाद आखिरकार झू झू को अमेरिकन टीवी सीरीज मॉर्को पोलो में मुख्य किरदार निभाने का मौका मिला.

एक काबिल इंजिनियर

एक्टर और सिंगर होने के साथ ही झू झू एक काबिल इंजिनियर भी हैं. झू झू ने पेईचिंग टेक्नॉलजी एंड बिजनस यूनिवर्सिटी से ग्रैजुएशन किया. उनके मेजर सब्जेक्ट्स में इल्केट्रॉनिक्स और इन्फॉर्मेशन इंजिनियरिंग शामिल था.

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