प्यार किया तो डर के किया

धर्म और जाति की बिना पर प्यार से नाकभौं सिकोड़ते रहने वाले लोग अगर एक दफा ईमानदारी से अपने दिमाग से नफरत का कूड़ा निकाल कर प्यार करने वालों की बातों, जो वे दिल से करते हैं, को सुन लें तो तय है उन का नजरिया प्यार और प्यार करने वालों के हक में बदल जाएगा.

जिस समाज में हम रहते हैं उस पर उन लोगों का दबदबा है जिन्हें धर्म ने रटा दिया है कि प्यार करना बुरी बात है और धर्म के उसूलों के खिलाफ है, इसलिए जहां भी किसी को प्यार करते देखो, तुरंत एतराज जताओ, उन्हें धर्मजाति के अलावा घर की मानमर्यादाओं के नाम पर परेशान करो और इतना परेशान करो कि वे मरने तक कि सोचने लगें. यह हर्ज की बात नहीं क्योंकि धर्म जिंदा रहना चाहिए, वही जीवन का सार है.

इस कट्टरवादी सोच के तले हमेशा से ही इश्क करने वाले हारते आए हैं. वे आज भी कायदेकानूनों, रीतिरिवाजों और उसूलों के नाम पर अपनी हंसतीखेलती जिंदगी व हसीन ख्वाबों की बलि चढ़ा रहे हैं. पर प्यार में जान देने वालों की जिम्मेदारी लेने को कोई आगे नहीं आता तो यह महसूस होना कुदरती बात है कि हमें एक ऐसा समाज और माहौल चाहिए जिस में प्यार करने की आजादी हो, नौजवानों को अपनी मरजी से शादी करने का हक हो, नहीं तो प्रेमी यों ही डरडर कर जीते रहेंगे और इन में से कुछ मरते रहेंगे.

एकदूजे के लिए

भोपाल के बाग मुगालिया इलाके  में रहने वाले 19 वर्षीय रंजीत को अपने ही महल्ले में रहने वाली 17 वर्षीया काजल साहू से प्यार हो गया. एक सुनहरी जिंदगी का ख्वाब उन की आंखों ने देखा. लेकिन उन की नजरें दुनियादारी नहीं देख पाईं. जल्दी ही उन के हौसलों ने घर, समाज, जाति और धर्म के आगे घुटने टेक दिए.

पेशे से मैकेनिक रंजीत ठीकठाक कमा लेता था. उस की जिंदगी की कहानी औरों से हट कर है. एक साल पहले ही उस के पिता की मौत हुई तो मां ने दूसरी शादी कर ली थी. जब मां अपने दूसरे शौहर के यहां चली गई तो वह अपने मामा अरविंद के यहां रहने चले आया. जवानी में विधवा हो गई मां को अगर दूसरा सहारा मिल गया था तो यह कतई हर्ज की बात नहीं थी.

लेकिन एक साल के अंतर से हुई इन 2 घटनाओं ने रंजीत की जिंदगी में एक खालीपन ला दिया, जिसे पूरा किया कमसिन और खूबसूरत काजल ने जो उस के दिल का दर्द समझने लगी थी.

19 फरवरी की दोपहर में रंजीत घर आया और खुद को कमरे में बंद कर फांसी लगा ली. जैसे ही मामा अरविंद ने भांजे को फांसी के फंदे पर झूलते देखा, तुरंत पुलिस को खबर दी. पुलिस आई, कानूनी कार्यवाही व पूछताछ की और फिर रंजीत की लाश को पोस्टमौर्टम के लिए भेज दिया. सारे महल्ले में इस खुदकुशी की चर्चा थी कि क्यों सीधेसादे रंजीत, जिस का अपने रास्ते आनाजाना था, ने बुजदिलों की तरह अपनी जान, भरी जवानी में दे दी जबकि उस के सामने तो पूरी जिंदगी पड़ी थी.

कुछ ही लोगों को समझ आया कि माजरा क्या हो सकता है लेकिन वे कुछ नहीं बोले. बोलने से अब कोई फायदा भी नहीं था कि रंजीत दरअसल काजल से प्यार करता था और शादी करना चाहता था लेकिन उस के घर वाले तैयार नहीं हो रहे थे. शायद, इसलिए उस ने जान दे दी. रंजीत कोई सुसाइड नोट नहीं छोड़ गया था.

जैसे ही रंजीत की खुदकुशी की खबर काजल को लगी तो उस ने बगैर वक्त गंवाए फैसला ले लिया. यह फैसला दरअसल रंजीत के साथ जीनेमरने की कसमें और वादे निभाने का था. रंजीत की मौत की खबर जिस वक्त काजल को मिली, उस वक्त वह पड़ोस की एक शादी में गई थी. वह घर आई और शाम का खाना बनाया, फिर अपने कमरे में चली गई.

इस वक्त काजल की दिमागी हालत क्या रही होगी, इस का सहज अंदाजा हर कोई नहीं लगा सकता. जिस का प्यार उस से कभी छिन गया हो वही समझ सकता है कि काजल पर क्या गुजर रही होगी. रात कोई साढ़े 8 बजे काजल भी रंजीत की तरह फांसी पर झूल गई. मरने से पहले सुसाइड नोट में उस ने खुद के और रंजीत के प्यार का जिक्र किया.

अपनों द्वारा विरोध

शुरू हुआ चर्चाओं का दौर, हरेक की अपनी अलग राय थी. कुछ ऐसे लोग भी थे जिन्होंने यह कहा कि रंजीत को काजल के बालिग होने तक इंतजार करना चाहिए था. बात सच थी लेकिन ऐसा कहने वाले लोग यह नहीं सोच पाए कि आखिर क्या वजहें थी जिन के चलते रंजीत और काजल को इंतजार करना भी बेकार लगने लगा था. यह बात 10वीं में पढ़ने वाली काजल भी जानतीसमझती थी कि नाबालिग की शादी कानूनन जुर्म होती है.

दरअसल, ये दोनों इंतजार करने को तैयार थे पर इन का प्रेमप्रसंग घरवालों को रास नहीं आ रहा था. रंजीत और काजल का प्यार कोई ढकीमुंदी बात नहीं रह गई थी. जानने वालों को यह भी मालूम था कि कुछ दिनों पहले ही काजल के घरवाले शादी के लिए तैयार हो गए थे पर फिर बाद में मुकर गए थे. यह बात रंजीत के मामा अरविंद ने मानी कि दोनों में प्यार था.

इस वाकए ने अनायास ही फिल्म ‘एक दूजे के लिए’ की याद दिला दी जिस में हीरो कमल हासन और हीरोइन रति अग्निहोत्री थे. ये दोनों भी एकदूसरे से टूटकर प्यार करते थे पर घरवाले अलगअलग धर्मों, जाति और इलाकों के थे, इसलिए विवाह के लिए तैयार नहीं थे. सपना और वासु पर उन्होंने तरहतरह की बंदिशें व शर्तें लाद रखी थीं जिन पर वे खरे भी उतर रहे थे पर इस के बाद भी बात नहीं बनी तो दोनों ने एकएक कर खुदकुशी कर ली थी.

यह फिल्म जबरदस्त हिट हुई थी. आज भी प्रेमियों के बीच इस के किरदारों सपना और वासु की मिसाल दी जाती है और यह आज भी इस लिहाज से मौजूं है कि प्यार के मामले में भारतीय समाज की सोच और संकरापन ज्यों का त्यों 35 साल और उस से भी पहले जैसा है. 35 साल में कितने प्रेमियों ने अपनी जान दी होगी, इस की कोई गिनती नहीं, लेकिन कुछ चर्चित मामले जरूर हैं.

जुदाई का डर

भोपाल के हमीदिया रोड स्थित होटल अमरदीप के एक कमरे में इसी साल 5 जनवरी को ही मनीषा लोवंशी और शुभम पटेल नाम के प्रेमियों ने खुदकुशी कर ली थी. इन दोनों ने जुदाईर् के डर से बाकायदा योजना बना कर साथ मरने की कसम निभाई थी. 24 वर्षीया मनीषा ने इस दिन दोपहर को एक होटल में कमरा किराए पर लिया था. थोड़ी देर बाद शुभम भी होटल के कमरे में आ गया. दोनों ने साथ मिल कर खाना खाया.

खाना खाने के बाद उन्होंने जो बातें की होंगी, वो तो उन के साथ गईं पर उन की खुदकुशी कुछ सवाल जरूर छोड़ गई. दोनों ने होटल के कमरे में सल्फास की गोलियां खा लीं.

मनीषा इंदौर की रहने वाली थी जो अकसर भोपाल आया करती थी. यहां उस की जानपहचान अपनी उम्र से 4 साल छोटे शुभम से हो गई. दोनों ने तय कर लिया कि अब साथ जिएंगे और साथ नहीं जी पाए तो मर तो साथ सकते हैं.

इस हादसे पर भी खूब सनसनी मची थी जिस में एक बात यह सामने आई थी कि मनीषा की मामीमामा को उस का शुभम से मिलनाजुलना पसंद नहीं था क्योंकि अगर वह शुभम से शादी करती तो इस का असर उन की 3 लड़कियों की शादी पर भी पड़ता यानी गैरबिरादरी के कम उम्र के लड़के से शादी करने पर पूरे घर की बदनामी होती.

ये दोनों बालिग   थे, चाहते तो शादी कर सकते थे पर इन्हें चिंता और डर जाति व समाज का था. क्यों? इस सवाल का जवाब साफ है कि प्यार करने वाले इस मोड़ पर उसूलों और ख्वाहिशों की चक्की में पिस रहे होते हैं जिस से बाहर निकलने में इन की मदद के लिए कोई न आगे आता है और न ही सही राह दिखाता है.

फिर क्या करें? रंजीतकाजल और मनीषाशुभम जैसे प्रेमी. यह सवाल हमेशा से ही मुंहबाए खड़ा है. लेकिन हारते प्यार करने वाले ही हैं जिन का गुनाह सिर्फ इतना सा होता है कि उन्होंने प्यार किया. यह प्यार आज भी चोरी और या गुनाह माना जाता है तो इस के असल जिम्मेदार धर्म के ठेकेदार हैं जो नहीं चाहते कि नौजवान अपनी मरजी से शादी करें, अगर करेंगे तो इन के खोखले उसूल, कायदे, कानून और रीतिरिवाज ताश के पत्तों की तरह ढह जाएंगे जो इन की रोजीरोटी का तो बड़ा जरिया हैं ही, साथ ही समाज पर इन का दबदबा भी बनाए रखते हैं.

बीती 18 दिसंबर को मध्य प्रदेश के शिवपुरी में एक और ऐसा ही हादसा हुआ था जिस में 20 वर्षीया माशूका आरती कुशवाह ने अपने 22 वर्षीय आशिक महावीर रजक के खुदकुशी करने के बाद खुद भी आत्महत्या कर ली. महावीर चूंकि छोटी जाति का था और आरती ऊंची जाति की, इसलिए इन दोनों की शादी के लिए इन के घर वाले राजी नहीं हो रहे थे. ये दोनों बैराड़ गांव से शिवपुरी पढ़ने आए थे और एकदूसरे को बेइंतहा चाहने लगे थे.

महावीर और आरती ने धर्म द्वारा बनाए और फैलाए गए जातिवाद की सजा अपनी जानें दे कर भुगतीं तो किसी ने कुछ नहीं कहा, न ही सोचा कि आखिर इन मासूमों का इस में कुसूर क्या था. कुल मिला कर साबित यह हुआ कि वाकई प्यार करने वाले धर्म, जाति और ऊंचनीच वगैरा कुछ नहीं देखते और ऐसा होना तभी मुमकिन है जब दिलों में प्यार का एहसास जाग जाए.

पर इन्हें सजा क्यों

2 बालिग जब प्यार करते हैं तो सही मानो में उन्हें जिंदगी के माने समझ आते हैं. प्रेमियों को सारी दुनिया हसीन लगती है और उन का कुछ करगुजरने का जज्बा भी सिर उठाने लगता है. उन्हें अपने वजूद का एहसास होता है, जिंदगी का मकसद मिलता है और एक सुकूनभरी जिंदगी गुजारने के लिए वे एकदूसरे के साथ जीनेमरने की कसमें खाने लगते हैं. धर्म, जाति और उम्र के बंधन तोड़ने पर ये उतारू हो जाते हैं. लेकिन हकीकत से जब टकराते हैं तो इन की हिम्मत जवाब देने लगती है.

यह हकीकत है कि ये प्यार करने वाले धर्म के ठेकेदारों और समाज के पैराकारों के बिछाए सदियों पुराने जाल में फड़फड़ा कर परिंदों की तरह दम तोड़ देते हैं. किसी का दिल नहीं पसीजता, उलटे प्रचार यह किया जाता है कि देख लो, प्यार करने का अंजाम.

कई मामलों में प्रेमी बालिग होते हैं और हर लिहाज से काबिल भी होते हैं लेकिन उसूल तोड़ कर अपने सपनों का आशियाना बनाने की हिम्मत वे नहीं जुटा पाते. इस की वजह सिर्फ यह है कि वे एक बुजदिल बेडि़यों में जकड़े समाज और दुनिया में जीने के बजाय साथ मर जाना बेहतर समझते हैं.

कहने का मतलब यह नहीं कि खुदकुशी करना कोई बहादुरी वाली बात है बल्कि यह है कि प्रेमियों को अपनेआप में दुनिया, धर्म और समाज से लड़ने की हिम्मत जुटानी चाहिए क्योंकि अपनी मरजी के मुताबिक शादी करना और जिंदगी जीना हर किसी का हक है. जिंदगी को बेकार के रीतिरिवाजों व नियमों की बलि चढ़ा कर ये लोग प्यार को कमजोर साबित कर जाते हैं.

आ रहा है बदलाव

एकसाथ खुदकुशी कर मर जाने वालों को समाज में आ रहे बदलावों को भी गौर से देखना चाहिए. आजकल पढ़ेलिखे, खातेपीते घरों में 60 फीसदी शादियां दूसरी जाति में हो रही हैं और हैरत की बात यह है कि राजीखुशी हो रही हैं. मांबाप खुद बच्चों की मरजी से शादी कराने के लिए आगे आ रहे हैं. थोड़ी तकलीफ हालांकि उन्हें भी होती है पर बच्चे खुद को अच्छा पतिपत्नी साबित कर दें, तो वक्त रहते वह तकलीफ भी दूर  हो जाती है.

दरअसल, फर्क शिक्षा और माहौल का है जिसे बदलने के लिए जरूरी है कि पहले कैरियर बना कर खुद के पैरों पर खड़ा हुआ जाए, दुनियाजमाने की परवा न की जाए.  इस के लिए जरूरी है कि आशिक और माशूका साथ जीने की कसम खाएं, साथ मरने की बात तो उन्हें सोचनी ही नहीं चाहिए क्योंकि कानून उन के साथ है. धीरेधीरे लोगों का नजरिया भी बदल रहा है पर उस का दायरा अभी सिमटा है, तो जाहिर है नौजवानों के विरोध, गैरत और अच्छे कैरियर से ही और बढ़ेगा.   

इन्होंने जीती जंग

नए साल की शुरुआत प्यार के मामले में ठीकठाक नहीं हुई थी. 3 जनवरी की सुबह भोपाल के कलैक्ट्रेट में बजरंग दल के कार्यकर्ताओं का जमावड़ा था और उन के इरादे नेक नहीं लग रहे थे. लिहाजा, भारी तादाद में पुलिस बल यहां तैनात था जिसे देख हर कोई हैरत में था कि आखिर यहां कौन सा पहाड़ टूटने वाला है.

दरअसल, इस दिन बैंक की एक मुलाजिम रितु अपने प्रेमी विशाल से कोर्टमैरिज करने वाली थी. विशाल चूंकि ईसाई धर्म को मानने वाला है, यह भनक लगते ही कि एक हिंदू लड़की क्रिश्चियन लड़के से शादी करने जा रही है वह भी अपने घरवालों की मरजी के खिलाफ, तो बजरंगियों ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था.

ये लोग रितु और विशाल की शादी न होने देने पर आमादा थे तो इन दोनों ने दृढ़ कर रखा था कि कुछ भी हो जाए, प्यार के इन दुश्मनों के सामने सिर नहीं झुकाना है. शादी से रोकने के लिए रितु के घरवालों ने उसे मारापीटा भी था. इस से साबित हो गया था कि ऐसा गांवदेहातों के अनपढ़ कहे जाने वाले लोगों में ही नहीं, बल्कि पढ़ेलिखे शहरी भी जातपांत, धर्म और ऊंचनीच की गिरफ्त में हैं.

खूब हंगामा हुआ लेकिन ये दोनों अपने फैसले से टस से मस नहीं हुए और रजिस्ट्रार के यहां शादी की दरख्वास्त लगा दी. शादी के दिन भारी गहमागहमी के बीच एडीएम रत्नाकर झा ने रितु को कोर्ट में बुला कर पूछा कि कहीं विशाल और उस के घरवाले तुम्हें बहलाफुसला कर तो शादी नहीं कर रहे हैं और मुमकिन है शादी के बाद तुम्हारा धर्मपरिवर्तन भी करा दें. जवाब में पूरे भरोसे के साथ रितु ने कहा कि वह विशाल से ही शादी करना चाहती है. एडीएम के यह पूछने पर कि तुम्हारे घरवाले नहीं चाहते कि तुम किसी दूसरे लड़के से शादी करो तो रितु ने कहा कि विशाल और मैं ने एकसाथ जीनेमरने की कसम खाई है और इसे मैं उम्रभर निभाऊंगी.

रितु का यह भी कहना था कि वह बालिग है और अपना भलाबुरा बखूबी समझती है. अपने घरवालों के एतराज से उसे कोई सरोकार या लेनादेना नहीं है. उधर, विशाल ने पूरी सख्ती के साथ कहा कि भले ही रितु के मांबाप गुस्सा हों लेकिन वह उन्हें अपने मांबाप की तरह इज्जत देगा और जिंदगीभर रितु का खयाल रखेगा. एडीएम ने बाहर हिंदूवादियों के  जमावड़े की परवा न करते हुए इन दोनों की शादी पर कानूनी मुहर लगा दी.

इस मामले से सबक यह मिलता है कि अगर प्रेमी प्यार के दुश्मनों से लड़ने की ठान लें, तो कोई उन का कुछ नहीं बिगाड़ सकता. फिर मरने की बात सोचने का तो सवाल ही नहीं उठता.

क्या करें

प्यार करना गुनाह नहीं है पर उस में साथसाथ या फिर अलगअलग किसी एक का खुदकुशी कर लेना, वह भी डर से, जरूर गुनाह है जिस से इस तरह बचा जा सकता है

–       शादी का फैसला बालिग होने पर ही लें.

–       शादी से पहले काबिल बनें यानी अपने पैरों पर खड़े हों.

–       कोई भी फैसला लेने से पहले घर वालों को मनाने की हर मुमकिन कोशिश करें.

–       घरवाले न मानें तो रिश्तेदारों और दोस्तों का साथ लेने की कोशिश करें.

–       अगर कोई भी साथ न दे तो कोर्टमैरिज करें और अलग रहें.

बिलाशक ये बातें कहनेसुनने में आसान लगती हैं लेकिन इन पर अगर आसानी से अमल किया जा सकता तो बड़े पैमाने पर प्रेमी खुदकुशी करते ही क्यों? पर मुहब्बत की जंग जीतने के लिए जरूरी है अपनेआप में हिम्मत पैदा की जाए. इस के लिए जरूरी है कि घरपरिवार, जाति और धर्म को ले कर ज्यादा जज्बाती न हुआ जाए और यह भी न सोचा जाए कि अगर अपने घरवालों की मरजी के खिलाफ शादी कर ली तो उन पर क्या गुजरेगी.

सोचें यह कि जब हम एकदूसरे के बगैर वाकई नहीं रह सकते तो हम पर क्या गुजरेगी. खुदकुशी करना आसान काम है, पर इस से सपने पूरे नहीं होते, न खुद के और न ही घरवालों के जो धर्म व जाति के चक्रव्यूह में फंसे अपने बच्चों का भला भी नहीं सोच सकते.

लेटलतीफी के मुरीद क्यों हैं हम

ऐसा लगता है कि वक्त की कीमत नहीं समझना और आधा घंटा देरी संबंधी भारतीय मानक समय के कुख्यात मुहावरे को हमारे सरकारी कर्मचारियों ने पूरी तरह आत्मसात कर रखा है, वरना इस बारे में सरकार को बारबार अपनी चिंता नहीं प्रकट करनी पड़ती. इस का एक उदाहरण तब देखने को मिला, जब दिल्ली के नवनियुक्त चीफ सैक्रेटरी एम एम कुट्टी ने दिसंबर 2016 के आखिरी हफ्ते में सभी विभागों के सचिवों को निर्देश जारी कर के लेटलतीफ बाबुओंकर्मियों का पता लगाने और आदतन ऐसा करने वालों के खिलाफ कड़ा ऐक्शन लेने को कहा.

मोदी सरकार पहले भी दफ्तरों में देर से आने वाले कर्मचारियों से परेशान है और वह सरकारी मंत्रालयों, विभिन्न विभागों और दफ्तरों में कामकाज की लुंजपुंज शैली में लगातार आग्रह के बावजूद, सुधार होता नहीं देख कर लेटलतीफ कर्मचारियों पर नजर रखने व उन पर कार्यवाही करने का संकेत देती रही है. पर लगता है कि सरकारी बाबुओं ने ठान रखा है कि सरकार चाहे जितने डंडे चला ले वे अपनी लेटलतीफी की आदत नहीं बदलेंगे.

उल्लेखनीय है कि डिपार्टमैंट औफ पर्सनल ऐंड ट्रेनिंग (डीओपीटी) वर्ष 2015 में जारी एक निर्देश में साफ कह चुका है कि सरकारी कर्मचारियों के लिए आदतन देर से दफ्तर आना दंडनीय अपराध है और ऐसे कर्मचारियों के खिलाफ विभागीय कार्यवाही की जा सकती है. इस के लिए सर्विस रूल्स (नौकरी संबंधी नियमावली) का हवाला दिया गया था. जारी आदेश में कहा गया था कि सरकारी कर्मचारियों के लिए समय की पाबंदी सुनिश्चित करने का दायित्व मंत्रालयों, विभागों और कार्यालयों का है, इसलिए उन के अधिकारी विभाग के कर्मचारियों की उपस्थिति का रिकौर्ड रखें.

डीओपीटी ने सभी अधिकारियों से कहा था कि वे उपस्थिति के लिए बायोमैट्रिक सिस्टम को ही आधार मानें और उसी आधार पर कार्यवाही करें. पर लेटलतीफी की आदत से मजबूर सरकारी कर्मचारियों ने बायोमैट्रिक सिस्टम से बचने के कई उपाय कर रखे थे और वे उपस्थिति दर्ज करने के लिए दूसरे तरीकों को अपनाए हुए थे.

यही नहीं, जिन कार्यालयों में उपस्थिति दर्ज करने के आधुनिक तौरतरीके अपना लिए गए हैं, वहां भी उपस्थिति का रिकौर्ड नहीं रखा जाता. इस से कुछ समय बाद यह पता नहीं चलता कि एक निश्चित समयावधि के बीच कौन सा कर्मचारी आदतन समय पर नहीं आता रहा है.

डीओपीटी के निर्देश में यह भी सुझाया गया था कि एक सरकारी कर्मचारी के लिए एक हफ्ते में 40 घंटे (8 घंटे प्रतिदिन) की उपस्थिति अनिवार्य है.

ऐसी स्थिति में यदि कोई कर्मचारी महीने में 2 बार 30 मिनट की देरी से आता है, तो उसे समय की पाबंदी में छूट मिल सकती है, लेकिन तीसरी बार इतनी ही देरी पर उस की आधे दिन की छुट्टी काट ली जाएगी. यदि वह आदतन ऐसा करता रहता है, तो वार्षिक मूल्यांकन रिपोर्ट (अप्रेजल) में उस के बारे में नकारात्मक टिप्पणी की जा सकती है.

आदत से मजबूर

सरकारी विभागों में काम के वक्त अधिकारियों व कर्मचारियों का नदारद रहना और अपनी कुरसी पर देर से आना खास कर तब अखरता है, जब उस अधिकारी व कर्मचारी के जिम्मे जनता से जुड़े कामकाज हों. ऐसी स्थिति में लोग लंबी लाइन लगा कर कर्मचारी व अधिकारी के दफ्तर और अपनी सीट पर विराजमान होने का लंबा इंतजार करते रहते हैं. ऐसे कर्मचारी को यदि कोई व्यक्ति भूलवश देरी से आने के लिए कोई बात कह दे, तो ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति का कोई काम हो पाना नामुमकिन ही हो जाता है.

यही नहीं, दफ्तर आ कर भी अपनी सीट से गायब हो जाना भी ज्यादातर सरकारी कर्मचारियों की आदत में शुमार हो गया है, वे घंटों तक दफ्तर तो क्या, उस के आसपास तक नजर नहीं आते, भले ही लाइन में जनता अपने सौ काम छोड़ कर सिर्फ उन का वहां इंतजार ही क्यों न कर रही हो. इन मुश्किलों का समाधान क्या है?

बायोमैट्रिक सिस्टम का तोड़

देश की राजधानी दिल्ली के सरकारी दफ्तरों में भले ही अटैंडेंस के लिए बायोमैट्रिक सिस्टम की शुरुआत हो चुकी है, पर अन्य हिस्सों में मौजूद ज्यादातर सरकारी दफ्तरों में उपस्थिति दर्ज कराने का पुराना सिस्टम चला आ रहा है, जिस में कर्मचारी औफिस में रखे रजिस्टर में अपने नाम के आगे हस्ताक्षर करते हैं. इस में अकसर समय के उल्लेख का कोई प्रावधान नहीं होता.

यदि समय दर्ज किया जाता है, तो जरूरी नहीं कि वह एकदम सही लिखा जाए और महीने के आखिर में उस उपस्थिति के आधार पर कर्मचारी की छुट्टियों और वेतन का समायोजन किया जाए. इस में भी बाबुओं की मिलीभगत से कोई कर्मचारी दफ्तर आए बिना वर्षों तक अपनी उपस्थिति लगवाता रह सकता है. ऐसे दर्जनों किस्से उजागर हो भी चुके हैं जब कोई कर्मचारी दफ्तर आए बिना वेतन लेता रहता है.

उपस्थिति के सिस्टम के आधुनिकीकरण का तब भी कोई फायदा नहीं, जब तक कि दफ्तर आए कर्मचारी की अनिवार्य मौजूदगी के प्रमाण न जुटाए जाएं. कार्ड पंचिंग के तौरतरीकों के दुरुपयोग की भी सैकड़ों शिकायतें मिल चुकी हैं. ऐसे सिस्टम में भी तब मिलीभगत एक कामयाब नुस्खे के तौर पर आजमाई जाती रही है, जब एकदूसरे के कार्ड से कर्मचारी उपस्थिति दर्ज करवाते रहे हैं. यही वजह है कि अब सरकार उपस्थिति दर्ज करने के मौजूदा तौरतरीकों को खत्म कर उन की जगह ऐसा बायोमैट्रिक सिस्टम लागू करना चाहती है जो सारे मैन्युअल सिस्टम की जगह ले सके. आधार एनेबल्ड बायोमैट्रिक अटैंडेंस सिस्टम (एईबीएएस) नामक इस प्रणाली में कर्मचारी की उंगलियों व आंखों की पुतलियों की छाप ली जा सकेगी, जिस से उपस्थिति की धांधलियों पर काफी हद तक रोकथाम की उम्मीद है. पर ये सिर्फ यांत्रिक उपाय हैं. ऐसे में इस की भरपूर आशंका आगे भी रहेगी कि कामचोर व बेईमान कर्मचारी इन का कोई न कोई तोड़ निकाल लें.

सवाल कार्य संस्कृति का

नियमों का पालन डंडे के बल पर करवाना पड़े, तो किसी देश और समाज के लिए इस से ज्यादा शर्मनाक और क्या हो सकता है. आखिर हमारे देश में ऐसी कार्य संस्कृति क्यों नहीं जग पा रही है जिस में वक्त पर दफ्तर आना, सौंपे गए काम और जिम्मेदारी का समर्पण के साथ निर्वाह करना और देश के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना लोग जरूरी समझते हों.

देश में जो नई कौर्पोरेट संस्कृति पनप रही है उस में देर से दफ्तर आने वालों के लिए कोई जगह नहीं होती है. वहां देर से दफ्तर आने वालों के लिए पर्याप्त दंड की व्यवस्था है. इस से कर्मचारी वक्त के पाबंद रहते हैं. अचरज इस बात को ले कर होता है कि सरकारी कर्मचारियों ने इस बदलाव का जरा भी नोटिस नहीं लिया है और इस का इंतजार कर रहे हैं कि सरकार जब तक उन पर पाबंदियां नहीं लगाएगी, तब तक वे नहीं सुधरेंगे.

इस सिलसिले में एक दावा यह किया जाता है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही जिस प्रकार सरकारी कार्यालयों में बायोमैट्रिक अटैंडेंस लागू करवाने की बात कही थी, उस से सरकारी कर्मचारियों में काफी नाराजगी थी. बताते हैं कि इस का बदला उन्होंने दिल्ली विधानसभा चुनावों में लिया और केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी को करारा झटका दिया.

ऐसी सूरत में सरकारी कर्मचारियों को सख्त कायदों के बल पर दफ्तरों में उपस्थित रहने को मजबूर करना सरकार के लिए टेढ़ी खीर साबित होता है. इसलिए ज्यादा जरूरत लोगों को यह समझाने की है कि समय को ले कर उन की काहिली देश और समाज ही नहीं, खुद उन के लिए भी दिक्कतें पैदा करती है. उन्हें ऐसे उदाहरण देने की जरूरत है कि जिन पिद्दी से देशों ने मामूली संसाधनों के बल पर पूरी दुनिया में छा जाने के करिश्में किए हैं, उस में उन की कार्यसंस्कृति का बड़ा भारी योगदान है.

जापान इसी एशिया का एक मुल्क है जहां लोग देर से दफ्तर आने को सिर्फ अपराध नहीं मानते हैं, बल्कि औफिस पहुंचने पर दिए गए काम को नहीं कर पाना भी खुद उन के लिए गुनाह है. जापानी वक्त के किस कदर पाबंद हैं, इस का एक उदाहरण भारत में करीब एक दशक पहले देखने को मिला था. वर्ष 2004 में एक जापानी इंजीनियर मत्सू काजू हिरो अपनी कंपनी के काम से भारत आया था. दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे पर उतरने के एक घंटे बाद तक जब भारत स्थित कंपनी की इकाई की गाड़ी उसे लेने नहीं पहुंची, तो देरी से खफा मत्सू ने फौरन जापान वापसी की फ्लाइट पकड़ ली थी. हवाईअड्डे पर विलंब का यह नजारा डेढ़ दशक में भी नहीं बदला.

एयरइंडिया की लेटलतीफी

यह किस्सा सरकार के वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू से जुड़ा है. वर्ष 2016 में एक अवसर पर उन्हें एयर इंडिया की जिस फ्लाइट से हैदराबाद में आयोजित एक महत्त्वपूर्ण सरकारी बैठक में जाना था, वह फ्लाइट पायलट के नहीं पहुंचने के कारण समय पर उड़ान ही नहीं भर पाई. घंटों इंतजार के बाद वेंकैया नायडू घर वापस लौट गए और नाराजगी में सोशल मीडिया पर ट्वीट करते हुए एयर इंडिया से यह कहते हुए जवाब मांगा कि प्रतिस्पर्धा के इस युग में एयर इंडिया इतनी लेटलतीफी आखिर कैसे कर सकती है.

एयर इंडिया ने इस मामले में मंत्रीजी से माफी मांग ली, पर इस सरकारी उपक्रम में विलंब का यह पहला वाकेआ नहीं था. ऐसा तकरीबन हर रोज होता है पर उन उड़ानों में कोई वीआईपी नहीं होने के कारण देरी कोई मुद्दा नहीं बनती.

ध्यान रहे कि छोटेछोटे देशों ने घड़ी की सूइयों के साथ कदमताल कर के ही विकसित होने की राह खोली है. अब तो ऐसे उदाहरण देश में ही कई निजी कंपनियां पेश कर रही हैं. उन्होंने लगभग हर कायदे में सरकारी प्रतिष्ठानों से आगे निकल कर साबित कर दिया है कि कार्यसंस्कृति को बदलने का कितना बड़ा फर्क किसी संस्थान की तरक्की पर पड़ता है. सरकारी और निजी बैंकों के कामकाज में अंतर आज हर व्यक्ति महसूस करता है.

ऐट द इलेवैंथ आवर

सवाल यह है कि डीओपीटी के निर्देश और बायोमैट्रिक सिस्टम सरकारी कर्मचारियों को वक्त का पाबंद बनाते हैं या फिर सरकारी दफ्तरों में ये कायदे और उपाय सिर्फ आधुनिकीकरण का एक पैबंद बन कर रह जाते हैं. असल में बात भारतीय आदतों की है. अंतिम क्षणों यानी ‘ऐट द इलेवैंथ औवर’ पर ही जगने का उपक्रम करने की इस मानसिकता के दर्शन देश में हर जगह होते हैं.

आयकर रिटर्न दाखिल कराना हो, स्कूलकालेज में फीस भरनी हो, बिजली व टैलीफोन के बिल जमा करने हों या कोई अन्य काम निबटाना हो, अमूमन ये सभी काम एक औसत भारतीय अंतिम दिन और आखिरी घंटे तक टालता है. नतीजा है लंबीलंबी, बोझिल कतारें. यही मनोवृत्ति दफ्तरों, विशेषरूप से सरकारी कार्यालयों में बाबुओं के पहुंचने को ले कर भी है और शायद इसलिए भारतीय मानक समय यानी तय समय से आधा घंटा लेट का तंजभरा मुहावरा प्रचलित है.

कौनसा देश, वक्त का कितना पाबंद

वक्त की पाबंदी को ले कर देशदुनिया में रोचक सर्वेक्षण होते रहते हैं. ऐसा एक सर्वेक्षण जून 2016 में औनलाइन गेमिंग वैबसाइट मिस्टर गेम्ज ने 15 देशों में किया था. इस के कई दिलचस्प नतीजे सामने आए थे. जैसे, मैक्सिको में भारत की तरह आधा घंटा विलंब को ले कर कोई नाराज नहीं होता. इसी तरह मोरक्को ऐसा देश है जहां दिए गए समय से यदि कोई एक घंटे से ले कर पूरे एक दिन का विलंब करता है तो भी कोई त्योरियां नहीं चढ़ाता. वहीं, दक्षिण कोरिया में जरा सी भी देरी बरदाश्त नहीं की जाती. मलयेशिया में अगर कोई 5 मिनट में आने को कह कर 1 घंटे में भी नहीं आता है तो इस के लिए क्षमायाचना की जरूरत भी महसूस नहीं की जाती है. इसी तरह यदि चीन में कोई व्यक्ति तय समय से 10 मिनट की देरी से आता है, तो इस से कोई ज्यादा हर्ज नहीं होता है.

लेकिन जिन देशों में काम और वक्त की कीमत को समझा गया है, वहां इस के उलट नजारे मिलते हैं. जैसे, जापान में अगर ट्रेन 1 मिनट से ज्यादा देरी से चलती है, तो इसे लेट की श्रेणी में डाला जाता है. भारत में इस तथ्य को भले ही हैरानी से देखा जाए कि जापान में पिछले 50 वर्षों में एक भी मौका ऐसा नहीं आया है जब कोई ट्रेन डेढ़ मिनट से ज्यादा लेट हुई हो.

अपने देश में तो हर साल सर्दी में कोहरे को एक बड़ी वजह बताते हुए ट्रेनें औसतन 3-4 घंटे की देरी से चल सकती हैं और उस पर रेलवे कोई हर्जाना देने की जिम्मेदारी नहीं लेता. जापान की तरह जरमनी में देरी स्वीकार्य नहीं है और अपेक्षा की जाती है कि कोई भी व्यक्ति तय वक्त से 10 मिनट पहले उपस्थित हो जाए.

वक्त के मामले में भारत जैसी सुस्ती कई अन्य देशों में भी फैली हुई है. जैसे, नाइजीरिया में अगर किसी बैठक की शुरुआत का वक्त दिन में 1 बजे है तो इस का अर्थ यह लगाया जाता है कि मीटिंग 1 से 2 बजे के बीच कभी भी शुरू हो सकती है. इसी तरह सऊदी अरब में वक्त को ले कर ज्यादा पाबंदियां नहीं हैं, वहां लोग आधे घंटे तक आराम से लेट हो सकते हैं. बल्कि वहां आलम यह है कि अगर मीटिंग में वक्त पर पहुंच गया व्यक्ति बारबार अपनी घड़ी देखता है तो इसे लेट आने वालों की अवमानना की तरह लिया जाता है.

सर्वेक्षण के मुताबिक, ब्राजील में देर से आने वालों के लिए मुहावरा ‘इंग्लिश टाइम’ इस्तेमाल किया जाता है, जिस का मतलब है कि वहां भी देरी बरदाश्त नहीं की जाती. इस के उलट घाना में भले ही किसी मीटिंग का वक्त पहले से बता दिया गया हो, पर  इस मामले में उदारता की अपेक्षा की जाती है.

इसी सर्वेक्षण के नतीजे में भारत का उल्लेख करते हुए लिखा गया था कि यहां के लोग वक्त पर आने वालों की सराहना तो करते हैं, लेकिन वक्त की पाबंदी को खुद पर लागू किए जाना पसंद नहीं करते यानी भारत में वक्त की पाबंदी को एक अनिवार्यता की तरह नहीं लिया जाता.

भारत जैसा हाल यूनान (ग्रीस) का है जहां समय की बंदिश को लोग नहीं मानते. लेकिन विदेशियों से उम्मीद करते हैं कि उन्हें निश्चित समय पर किसी जगह पर उपस्थित रहना चाहिए.

कजाकिस्तान में तो वक्त की पाबंदी पर चुटकुले सुनाए जाते हैं और समारोहों में देरी से पहुंचने को स्वीकार्यता हासिल है. इस के विपरीत रूस के नागरिक वैसे तो हर मामले में सहनशीलता अपनाने की बात कहते हैं लेकिन वक्त की पाबंदी के मामले में कोई छूट नहीं देते. हालांकि वहां विदेशियों से तो वक्त पर उपस्थित रहने को कहा जाता है पर यदि किसी रूसी व्यक्ति से इस नियम का पालन करने को कहा जाए तो वह नाराज हो सकता है.

कुल मिला कर मिस्टर गेम्स नामक वैबसाइट ने सर्वेक्षण के आधार पर जो नतीजे निकाले थे, वे शब्ददरशब्द सही साबित हुए हैं.

जापान से लें सबक

वैसे तो अब जापान में भी वक्त की पाबंदी के कायदों में विचलन आने की बात कही जा रही है, खासतौर से युवाओं में इस नियम को ले कर बेरुखी देखने को मिलने लगी है पर मोटेतौर पर जापान अभी भी वक्त के पाबंद देश के रूप में देखा और सराहा जाता है.

समय की पाबंदी को जापानियों ने एक आदत के रूप में अपनाया है और इस के लिए उन्हें किसी आदेशनिर्देश की जरूरत नहीं होती है. निजी जलसों में लोगों को इस नियम से छूट हासिल होती है, लेकिन वहां भी वे विलंब की जानकारी मोबाइल, एसएमएस या व्हाट्सऐप से अवश्य देते हैं.

ट्रेनों के मामले में जापान में नियम यह है कि अगर कोई ट्रेन एक मिनट से ज्यादा लेट होती है, तो जापानी रेलवे कंपनियां इस के लिए सार्वजनिक क्षमायाचना करती हैं. बुलेट ट्रेनों के आवागमन में 15 सैकंड से ज्यादा की देरी नहीं होती है.

समय की इतनी बंदिश को ले कर जापान में बसे विदेशी काफी हैरान होते हैं. उन्हें लगता है कि वक्त को ले कर जापानी कुछ ज्यादा ही कठोर हैं. जापान में समय की पाबंदी को ले कर इतनी ज्यादा सतर्कता बरतने के पीछे कई कहानियां प्रचलित हैं.

एक कहानी के मुताबिक, मेइजी दौर में ट्रेनें अकसर आधा घंटे की देरी से चलती थीं, जिस से फैक्टरियों में काम करने वाले लोग कभी भी समय पर नहीं पहुंच पाते थे. इसी के फलस्वरूप करीब 80 साल पहले शोआ युग में जापान में ट्रेनों के लिए साइंटिफिक मैनेजमैंट सिस्टम लागू किया गया. इस सिस्टम की शुरुआत अमेरिका में हुई थी जिस का इस्तेमाल टाइमकीपिंग के जरिए फैक्टरियों में उत्पादन बढ़ाने का प्रयास किया गया था.

जापान में यह सिस्टम अपना असर छोड़ने में कामयाब रहा. सचाई तो यह है कि आज के जापान में भी पार्कों से ले कर बाजारों और विज्ञापनपट्टों तक पर वक्त को ले कर जापानियों की सख्ती के दर्शन होते हैं और लोगों की निगाह घड़ी से कभी भी हटती नहीं दिखाई देती.

भले ही अब जापानी युवा इस नियम में कुछ छूट की मांग करने लगे हैं पर जापानी संस्कृति का असर वहां काम करने वाली अमेरिकी कंपनियों पर भी हुआ है जो वक्त की पाबंदी को जापान के बाहर अन्य मुल्कों में लागू करने लगी हैं.       

हर निसंतान जोड़े को आईवीएफ की जरूरत नहीं

आजकल लोगों के काम करने के अनियमित घंटे, निष्क्रिय जीवनशैली, तनावपूर्ण जीवन, अपर्याप्त खानपान, अधिक उम्र में विवाह, तंबाकू एवं शराब का सेवन, शारीरिक परिश्रम में कमी होने आदि के कारण वे निसंतानता के शिकार हो रहे हैं. ऐसे में आईवीएफ एवं आईयूआई जैसी प्रक्रियाएं ऐसे लोगों के लिए काफी लाभप्रद साबित हो रही हैं.

हालांकि निसंतान जोड़ों के लिए केवल आईवीएफ ही एकमात्र विकल्प नहीं, सही और सटीक इलाज से प्राकृतिक रूप से भी संतानसुख प्राप्त हो सकता है. लोगों की यह धारणा होती है कि आईवीएफ द्वारा जन्मा बच्चा अनुवांशिक तौर से जोड़े का नहीं होता, जो गलत है क्योंकि महिलाएं अपने ही अंडे और पुरुष अपने ही शुक्राणु से मातापिता बन सकते हैं. साथ ही, आईवीएफ दर्दरहित प्रक्रिया होती है. इस दौरान रोज के काम भी आसानी से किए जा सकते हैं और इस में अस्पताल में भरती रहने की जरूरत भी नहीं होती है.

निसंतान जोड़ों को बिना देरी के निसंतानता विशेषज्ञ से अवश्य परामर्श लेना चाहिए. आईवीएफ, आईयूआई, लैप्रोस्कोपी प्रक्रियाओं आदि के बारे में जानना चाहिए. इस के अलावा आईवीएफ कराने से पहले सभी प्रकार की जांचों को करा लेना चाहिए जिस में सब से ज्यादा महत्त्वपूर्ण पुरुष के शुक्राणुओं की संख्या और आकार एवं स्त्रियों के अंडे की संख्या व गर्भाशय का आकार होता है.

जिन महिलाओं की फैलोपियन ट्यूब खराब या बंद हो जाती है, वे मां बनने में अक्षम हो जाती हैं. पर यदि लैप्रोस्कोपी से बंद ट्यूब को खोल दिया जाए तो सामान्यतौर पर, आईयूआई या आईवीएफ से मां बनना संभव है.

शून्य शुक्राणु वाले पुरुष भी अपने ही शुक्राणुओं से पिता बन सकते हैं. कम शुक्राणु वाले पुरुष बिना आईवीएफ के सफलता प्राप्त कर सकते हैं. जिन महिलाओं में अंडा बनने की क्षमता कम है, वे भी अपने अंडे से गर्भवती हो सकती हैं, आवश्यकता है केवल सटीक जांच एवं सही उपचार की.

निसंतानता के कारण

आईवीएफ पद्धति से इलाज करवाने वाली महिलाओं में पहले 38 से 45 वर्ष आयुवर्ग की महिलाएं अधिक होती थीं लेकिन बीते कुछ सालों में इस इलाज के लिए आने वाली महिलाओं के आयु समूह में बदलाव आया है. अब कम आयुवर्ग की महिलाएं भी आईवीएफ के लिए आती हैं.

आज के समय में ये तकनीक बांझपन को दूर कर निसंतान दंपतियों के लिए आशा की एक नई किरण है.

किस चिकित्सक से परामर्श लें?

–       निसंतानता विशेषज्ञ से परामर्श लें.

–       आईवीएफ व उस से जुड़ी बातों के बारे में जानें.

–       स्त्रीरोग विशेषज्ञ का परामर्श ही काफी नहीं.

–       उम्र के साथ शुक्राणु कम होने पर विशेषज्ञ की सलाह अवश्य लें.    

(डा. पूजा गांधीलेखिका उदयपुर में गीतांजलि फर्टिलिटी सैंटर में आईवीएफ की विशेषज्ञ हैं.)          

चीन की सिंगिंग सेंसेशन हैं ट्यूबलाइट की एक्ट्रेस झू झू

सलमान खान की फिल्म ‘ट्यूबलाइट’ में उनकी को-स्टार कोई और नहीं बल्कि फेमस चाइनीज एक्ट्रेस और सिंगर झू झू हैं. इससे पहले झू झू, चाइनीज फिल्मों के साथ ही कई हॉलीवुड फिल्मों और अमेरिकन टीवी शो में भी काम कर चुकी हैं और अब ‘ट्यूबलाइट’ के जरिए वह बॉलीवुड में डेब्यू करने जा रही हैं.

इस बेहतरीन एक्ट्रेस के बारे में ऐसी कई बातें हैं जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं. जानें झू झू के बारे में कुछ अनसुनी बातें.

बचपन से है पिआनो बजाने का शौक

महज 3 साल की उम्र से ही झू झू ने पिआनो बजाना शुरू कर दिया था. धीरे-धीरे वह इतना अच्छा पिआनो बजाने लगीं कि जूनियर स्कूल में उन्होंने स्टेज पर ब्यूटी एंड द बीस्ट की कहानी को स्टेज पर पिआनो के जरिए परफॉर्म किया.

चाइना की सिंगिंग सेंसेशन हैं झू झू

2005 में झू झू, चीन के एक फेमस म्यूजिक चैनल के साथ जुड़ी और म्यूजिकल प्रोग्राम होस्ट करने लगीं. पेइचिंग में हुए एक लोकल सिंगिंग कॉन्टेस्ट में उनका टैलंट सामने आया और इसके बाद उन्होंने नैशनल लेवल सिंगिंग प्रतियोगिता में तीसरा स्थान हासिल किया. 2009 में झू झू का पहला एल्बम लॉन्च हुआ.

हॉलीवुड में भी किया काम

‘क्लाउड ऐटलस’ और ‘द मैन विद द आयरन फिस्ट्स’ जैसी हॉलीवुड फिल्मों में छोटे-छोटे रोल करने के बाद आखिरकार झू झू को अमेरिकन टीवी सीरीज मॉर्को पोलो में मुख्य किरदार निभाने का मौका मिला.

एक काबिल इंजिनियर

एक्टर और सिंगर होने के साथ ही झू झू एक काबिल इंजिनियर भी हैं. झू झू ने पेईचिंग टेक्नॉलजी एंड बिजनस यूनिवर्सिटी से ग्रैजुएशन किया. उनके मेजर सब्जेक्ट्स में इल्केट्रॉनिक्स और इन्फॉर्मेशन इंजिनियरिंग शामिल था.

संगीत में प्रयोग जारी रहेगा : शेखर रावजुआनी

बौलीवुड के गानों को अपनी आवाज दे चुके शेखर रावजुआनी ने हिंदी के अलावा मराठी और गुजराती गानों को भी अपनी आवाज दी है.

8 साल की उम्र से संगीत को अपना साथी बनाने वाले शेखर ने छोटे परदे पर अपने कैरियर की शुरुआत रिऐलिटी शो ‘सारेगामा पा’ के जज से की थी. लेकिन फिल्मी कैरियर की शुरुआत ‘प्यार में कभीकभी…’ गाने से की. यह गाना म्यूजिक लवर्स को बेहद पसंद आया था. लेकिन शेखर को पहचान 2003 में फिल्म ‘झंकार बीट्स’ से मिली. इस फिल्म में उन की गायकी ने उन्हें ‘न्यू टेलैंट हंट आर.डी बर्मन’ का पुरस्कार भी दिलाया था.

संगीत के अलावा अंगरेजी थिएटर में भी काम कर चुके शेखर ने फिल्म ‘नीरजा’ से अपने ऐक्टिंग कैरियर की शुरुआत की थी. फिल्म में सोनम के साथ उन के छोटे से अभिनय की भी प्रशंसा हुई, लेकिन इस के बावजूद उन्होंने अभिनय को कैरियर बनाने में जल्दबाजी नहीं की.

उन के संगीत व ऐक्टिंग के बारे में हुई उन से गुफ्तगू के कुछ अंश पेश हैं.

विशाल के साथ आप की जोड़ी कैसे बनी?

हम दोनों में कोई पारिवारिक संबंध नहीं है. सिर्फ दोस्ती और संगीत का रिश्ता है, जो हम दोनों को आज तक एकसाथ जोड़े हुए है. 1999 में हम दोनों एक साथ आए और कई फिल्मों को संगीत दिया. 2003 में आई फिल्म ‘झंकार बीट्स’ से ले कर ‘चेन्नई ऐक्सप्रैस’, ‘सुलतान’, ‘बैंजो’, ‘बेफिक्रे’ सहित कई सुपरहिट फिल्मों का संगीत हमारे नाम है.

हम दोनों आज भी एकदूसरे का सम्मान करते हैं. हम संगीत को हलके में नहीं लेते. जब हम काम करते हैं, तो न ईगो होता है और न ही प्रतिस्पर्धा की भावना. एक और बात हम दोनों में समान है कि जब किसी फिल्म की धुन बनानी होती है तो हम लोगों के विचार काफी हद तक मिलते हैं.

आप अपने संगीत पर क्या नया प्रयोग  करते हैं?

मैं हमेशा अपने संगीत में नएनए प्रयोग करता रहता हूं जैसे मेरी पिछली फिल्म ‘सुलतान’ हरियाणा की कहानी पर थी तो मैं ने हरियाणवी रागिनी का प्रयोग सुलतान के गाने ‘बेबी को बेस पसंद है…’ पर किया है. इसी तरह हम लोगों ने फिल्म ‘रा वन’ के गाने ‘छम्मक छल्लो…’ को इंटरनैशनल कलाकारों के साथ मिल कर बनाया था. वह गाना हिंदी होते हुए भी अमेरिका, ब्रिटेन में खूब हिट हुआ.

अब आप की ऐक्टिंग कब देखने मिलेगी?

फिल्म ‘नीरजा’ को साइन करने से पहले मेरे पास कई फिल्मों की स्क्रिप्ट्स आई थीं, लेकिन मैं ने साइन नहीं की. जब ‘नीरजा’ में लोगों ने मेरे छोटे से अभिनय की तारीफ की तो अब सोचा है कि अगर अच्छी फिल्म का औफर आता है तो जरूर काम करूंगा. मुझे ऐक्टिंग करने की जल्दबाजी पहले भी नहीं थी और अब भी नहीं है. मैं कुछ अर्थपूर्ण करना चाहता हूं.

आप ने ब्रिटिश नाटकों में भी काम किया है. क्या वे हिंदी नाटकों से अलग होते हैं?

बेशक, रंगमंच की जिम्मेदारी बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है. मैं ने ब्रिटिश प्ले ‘सिंफनी टू ए लास्ट जैनरेशन’ में काम किया था. उस में मेरा रोल बेहद अलग किस्म का था. मुझे नहीं लगता कि यहां के लोगों को मेरे किरदार के बारे में पता होगा. मैं ने एक ब्रिटिश सिपाही का किरदार निभाया था. इस के मेकअप और हथियार के लिए उन लोगों ने महीनों रिसर्च की. यहां के नाटकों में मैं ने अभी तक काम नहीं किया है, इसलिए मैं कुछ बता नहीं सकता.

लेकिन इतना रोमांटिक चेहरा और सिपाही का रोल क्या यह अन्याय नहीं है?

बिलकुल नहीं. मैं फिल्म ‘नीरजा’ में भी हलकी दाढ़ी रखे था, क्योंकि अगर क्लीनशेव हो गया तो लोग मुझे पहचानेंगे नहीं. सिपाही के रोल के लिए उन्होंने मेरे मेकअप पर महीनों मेहनत की. वे मेरे चेहरे पर एक निशान बनाना चाहते थे. जब मैं पूरे गैटअप में आया तो खुद को न पहचान सका.

आम के शौकीन हैं तो जरूर बनाएं मैंगो भल्ले

सामग्री

2 आम

100 ग्राम मूंग की दाल

1/2 छोटा चम्मच अदरक कद्दूकस किया

200 ग्राम दही

1 बड़ा चम्मच इमली की चटनी

100 ग्राम तेल

1/2 छोटा चम्मच भूना जीरा पाउडर

1 बड़ा चम्मच बेसन

1 बड़ा चम्मच धनियापत्ती की चटनी

शक्कर एवं लालमिर्च पाउडर स्वादानुसार

नमक स्वादानुसार

विधि

मूंग की दाल को 3 घंटे पानी में भिगो लें. आधी दाल को मिक्सी में मोटी एवं आधी को बारीक पीस लें. एक आम की कतरन कर मिक्सी में चला लें. कांच के प्याले में दाल, 2 बड़े चम्मच आम की कतरन, अदरक, बेसन एवं मसाले डाल कर अच्छी तरह मिला लें.

कड़ाही में तेल गरम कर हाथ से दाल के भल्ले बना तेल में सुनहरा होने तक तल लें. गरम पानी में मैंगो भल्ले डाल दें. दही में आम का पल्प एवं मसाले डाल मथ लें.

दही में मैंगो भल्ले पानी लगे हाथ से दबा कर निकाल कर, इमली की चटनी, नमक, जीरा, मिर्च पाउडर, आम की कतरन, धनियापत्ती की चटनी डाल लें.

फ्रिज में ठंडा कर मैंगो भल्ले पर इमली व धनिया की चटनी, आम की कतरन और जीरा पाउडर डाल कर सर्व करें.

-व्यंजन सहयोग: मंजु जैसलमेरिया

खूबसूरती के लिए करें ये एक्सरसाइज

आप कितनी भी खूबसूरत क्यों न हों लेकिन फेस का फैट आपकी ब्यूटी को दबा देता है. चेहरे पर चर्बी की वजह से डबल चिन दिखाई देने लगती है. तो कुछ ऐसे एक्सरसाइज करें जिससे यह फैट खत्म हो जाए.

हा-हा-हा

हा हा हा.. समझ गईं न आप. आपको हंसना है और वो भी खुलकर. फेस को खूबसूरत लुक देने में यह एक्सरसाइज आपके खूब काम आएगी. मुस्कुराएं और फिर मुस्कान के दोनों छोरों को उंगलियों की मदद से स्ट्रेच करें. कुछ देर बाद छोड़ दें. कम से कम पांच बार ऐसा करें. हंसने से फेस की मसल्स टोन और टाइट बनती हैं.

लॉयन फेस

इसे करने के लिए मुंह जितना खोल सकते हैं खोलें, सांस बाहर छोड़ें. आंखें जितनी खोल सकें खोलें. दो से तीन मिनट तक इसी अवस्था में रहें. इसके बाद सामान्य मुद्रा में आकर गहरी लंबी सांस लें.

मुंह को बनाएं गुब्बारा

मुंह में इतनी हवा भरें, जैसे कि गुब्बारा फुलाने के लिए भरते हैं. पांच सेकंड तक इसी पॉजिशन में रहें. पांच सेकंड तक दाएं गाल को दबाएं और फिर बाएं को. फिर नॉर्मल पॉजिशन में आ जाएं. ऐसा पांच से आठ बार करें.

गरदन को सामने की ओर खींचें

अपनी गरदन को सामने की ओर खींचें और पीछे की ओर ले जाएं. गरदन जितना पीछे ले जा सकती हैं, ले जाएं. ऐसा पांच सेकंड के लिए करें. यह एक बेहद साधारण-सा योगासन है. इसे करने से ठुड्डी के नीचे का फैट आपको कम होता महसूस होगा.

नीचे के होंठ से ढ़कें ऊपर के होंठ

अपने निचले होंठ से ऊपरी होंठ को ढकने की कोशिश करें. ऐसा करने से आप चिन वाले हिस्से में खिंचाव महसूस करेंगी. 10 सेकंड तक ऐसा करें. रुकें और फिर से यह आसन करें.

बड़ों के संघर्ष से लें प्रेरणा

सफलता और असफलता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जीवन में इन दोनों का खासा महत्त्व है. असफलता से अधिकतर लोग घबरा कर अपने लक्ष्य से भटक जाते हैं. ऐसे में हमें बड़ों के संघर्ष से प्रेरणा मिलती है, जिस के सहारे हम अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ते हैं. महात्मा गांधी से ले कर अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन, लाल बहादुर शास्त्री और राजेंद्र प्रसाद जैसे बहुत से ऐसे महापुरुष हुए हैं, जिन के जीवन से प्रेरणा ली जा सकती है. ये लोग भी कई बार बचपन से ले कर पढ़ाई और बाकी जीवन में असफल हुए पर हार न मानी.

बड़े लोगों की आत्मकथा या उन के संघर्ष के बारे में जान कर पता चलता है कि सफलता मेहनत के बाद ही मिलती है. इन बड़े लोगों की कहानियों से हमें प्रेरणा मिलती है. उन की राह पर चल कर हम भी सफल हो सकते हैं.

युवावस्था में कैरियर से ले कर निजी संबंधों तक कई बार असफलता हाथ लगती है. काफी मेहनत से पढ़ाई करने के बाद भी कंपीटिशन में सफलता नहीं मिलती. खेल, ऐक्टिंग, डांस और सिंगिंग जैसे कैरियर में भी असफलता ज्यादा और सफलता कम मिलती है. 

ऐसे में जब हम बड़े लोगों के संघर्ष को देखते हैं तो मन मजबूत हो जाता है. हम नए सिरे से मेहनत करने लग जाते हैं. इस के बाद हम दोहरी मेहनत से सफलता के लिए जुट जाते हैं. सही दिशा में किए गए प्रयास से सफलता मिलनी तय है.

असफलता में छिपी सफलता

असफलता में ही सफलता छिपी होती है. जरूरत इस बात की है कि हम यह अवश्य देखें कि किन कारणों से असफलता मिली है. अगर हम सही माने में विचार करेंगे तो साफ पता चल जाता है कि हम क्यों असफल हुए? कई बार अपनी सफलता के लिए हम खुद को जिम्मेदार न मान कर दूसरे पर दोषारोपण करते हैं, जो सही नहीं है. जब तक हम खुद का सही तरह से आत्मविवेचन नहीं करेंगे तब तक हमें असफलता के कारण का पता ही नहीं चलेगा और उसे दूर कर हम सफलता की राह पर आगे नहीं बढ़ सकते. ऐसे में जरूरी है कि हम खुद अपना आत्मविवेचन सही तरह से करें, इसी से सफलता का रास्ता निकलता है.

शिमला में पहचान विमन वैलफेयर सोसाइटी चलाने वाली मनोविज्ञानी बिंदू जोशी कहती हैं, ‘‘जिंदगी की तपिश को मुसकरा कर झेलिए, ‘धूप कितनी भी तेज हो समंदर सूखा नहीं करते.’ असफलता से घबराने की जरूरत नहीं है. बड़े लोग हमारे प्रेरणास्रोत हैं, उन के जीवन के संघर्ष से पता चलता है कि सफल होने से पहले वे कितने प्रयास करते हैं.

‘‘आमतौर पर युवाओं को लगता है कि हम पहली बार में ही सफल क्यों नहीं हो गए. यह सोच ठीक नहीं होती. यही हमें डिप्रैशन का शिकार बना देती है. बी पौजिटिव छोटा शब्द जरूर है, पर इस का असर गहरा है. यह आगे बढ़ने की राह दिखाता है.’’

जरूरी है लगातार प्रयास

 ‘‘लाइफ इज नौट द बैड औफ रोज यानी जीवन सदा खुशहाल नहीं रहता,’’ यह कहती हैं टीचर दीपिका चतुर्वेदी. लखनऊ निवासी दीपिका आगे कहती हैं, ‘‘बिना संघर्ष के सफलता नहीं मिलती. देश को आजाद कराने में हमारे स्वतंत्रता सैनानियों ने लंबे समय तक लड़ाई लड़ी. उन की कहानियों को पढ़ कर हमें पता चलता है कि उन्हें महान बनने में कई बार असफलता मिली और लंबा संघर्ष करना पड़ा. आज की युवापीढ़ी कम मेहनत में सफलता पाना चाहती है, इसीलिए उसे निराशा भी जल्दी मिलती है. यह सोच रखना बहुत जरूरी है कि सफलता आसानी से नहीं मिलती और असफलता से घबराना नहीं चाहिए.‘‘

परिवार का साथ मददगार

एकल परिवारों के बच्चे अपने मन की बात खुल कर नहीं कह पाते, क्योंकि वे दब्बू बन जाते हैं. मातापिता के पास उन के लिए समय की कमी होती है. वे बच्चों के मन का हाल नहीं जान पाते. ऐसे में असफल हो रहे बच्चों को भावनात्मक मदद नहीं मिलती. कहानीकार प्रिया सिंह कहती हैं, ‘‘हमारे घरपरिवार में ही ऐसे तमाम उदाहरण मौजूद हैं, जिन्हें असफलता के बाद सफलता मिली है. संयुक्त परिवारों में दादादादी या नानानानी ऐसी बातें बच्चों को बताती थीं.

‘‘अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘बागवान’ में दिखाया गया था कि बच्चे अपने मातापिता के बजाय दादादादी के ज्यादा करीब थे. वे दादादादी को अपने मन की बात आसानी से बताते थे. इसी तरह सामान्य घरों में भी होता था. एकल परिवारों में बच्चे ज्यादा हतोत्साहित होते हैं. संयुक्त परिवारों में यह हालात कम दिखते हैं. परिवार का साथ और देखरेख भी बहुत मददगार होती है.’’

सफलता का ताला खोलती है संघर्ष की चाबी

मनोविज्ञान में पोस्ट ग्रैजुएट दीपाली श्रीवास्तव का मानना है, ‘‘जीवन में सफलता संघर्ष के बाद ही मिलती है. संघर्ष के दौर में जो बातें निराशाजनक होती हैं, सफलता मिलने के बाद वही सब अच्छा लगने लगता है. उस की यादें सुखद हो जाती हैं. हम जब तमाम फिल्म स्टारों की चकाचौंध भरी जिंदगी देखते हैं तो सोचते हैं कि इन लोगों का रहनसहन कितना अच्छा है, लेकिन हमें उस समय यह पता नहीं होता कि यह सफलता उन्हें कितने संघर्ष के बाद मिली है.

‘‘ये लोग जब अपने बारे में बताते हैं तो पता चलता है कि इन का जीवन भी संघर्ष भरा था. वे सड़क पर खड़े हो कर खाना खाते थे, एक छोटे से घर में रहते थे, बस और ट्रेन से सफर करते थे. कई लोगों ने तो यहां तक बताया कि वे संघर्ष के दिनों में कईकई दिन भूखे रहे. संघर्ष के जरिए ही सफलता का ताला खुलता है. बड़े लोगों के संस्मरण हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देने के साथसाथ निराशा भरे जीवन से बाहर निकालने का काम भी करते हैं.’’

बड़ों की जीवनी प्रेरणादायक

बड़े लोगों का जीवनपरिचय सदा हमारी शिक्षा व्यवस्था का अंग रहा है. इस की सब से बड़ी वजह यह थी कि इस से बच्चों को पता चल जाता था कि महान लोग कैसे सफल हुए. पहले लोगों के पास अवसर कम और साधन सीमित होते थे. ऐसे में सफलता बड़ी मुश्किल से मिलती थी. समाजसेवी शिवा पांडेय कहती हैं, ‘‘प्रेरक प्रसंग, जीवनी और मार्गदर्शक कहानियों का जीवन में काफी महत्त्व होता है. इन्हें पढ़ने के बाद उत्साह का संचार होता है और निराशा का भाव खत्म हो जाता है.

‘‘आज बड़ी संख्या में युवाओं के आत्महत्या के उदाहरण सुनने को मिलते हैं, अगर वे सही माने में सफलता और असफलता के बीच के महत्त्व को समझ जाएं तो ऐसे हालात से बचा जा सकता है. हर क्षेत्र में असफलता होती है. हर महान आदमी को उस से गुजरना पड़ता है. फेल होने के बाद दोगुनी मेहनत की जरूरत होती है. पूरे उत्साह से किया गया प्रयास सफल जरूर होता है. बस, हिम्मत नहीं हारनी चाहिए.’’

सही दिशा में हो प्रयास

शादी के बाद सौंदर्य प्रतियोगिता में हिस्सा ले कर मिसेज यूपी बनी इलाहाबाद की काजल माधवानी कहती हैं, ‘‘पेरैंट्स को शुरू से ही बच्चों को ये प्रेरणादायक कहानियां पढ़ने की आदत डालनी चाहिए. बड़े लोगों की जीवनी बच्चे खुद न पढ़ सकें तो उन्हें पढ़ कर सुनाएं. केवल राजनीति या फिल्म ही नहीं विज्ञान के क्षेत्र में भी देखें तो पता चलता है कि कितनी बार असफल होने के बाद प्रयोग सफल होते हैं. आविष्कारक कईकई बार असफल होने के बाद अपने प्रयोग में सफल हुए हैं. भाप का इंजन, बिजली का बल्ब, टैलीफोन जैसे बहुत से ऐसे आविष्कार हैं जो धीरधीरे वैज्ञानिकों द्वारा किए गए. आविष्कार पहली बार कम ही सफल होते हैं.

‘‘आविष्कार करने वाला कभी हार नहीं मानता. लगातार प्रयास करने के बाद ही सफलता हासिल होती है. वैज्ञानिकों की जीवनी पढ़ने से पता चलता है कि यदि वे पहली बार मिली असफलता से घबरा कर हिम्मत हार गए होते तो आज इतनी सारी चीजें नहीं मिलतीं. जरूरत इस बात की है कि हम सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ें तभी सफलता निश्चित होगी.’’

संघर्ष से मिलती है प्रेरणा

महिला नेता और बिजनैस विमन वंदना प्रसाद कहती हैं, ‘‘महान लोगों के संघर्ष के साथ ही अपने मातापिता, बड़े भाईबहन या आसपास के सफल लोगों की बातें भी हमें प्रभावित करती हैं. कई बार बच्चों को लगता है कि कहानियां काफी पहले की हैं. अब ये उतनी प्रभावी नहीं रहीं. ऐसे में आज के समय में जो लोग अपनी मेहनत से सफल हुए हैं उन को देख कर भी प्रेरणा ली जा सकती है, जो जोखिम लेने को तैयार होता है, वही सफल रहता है.

‘‘जोखिम में असफलता भी मिलती है. जरूरत इस बात की है कि आप असफलता से घबरा कर न बैठें. घरपरिवार के साथ शिक्षा व्यवस्था में यह होना चाहिए कि महान लोगों के विषय में उन की असफलताओं के बारे में बताया जाए. यह भी बताया जाए कि असफलता से किस तरह से बाहर आ कर उन लोगों को सफलता मिली. आमिर खान की फिल्म ‘थ्री इडिएट’ में एक शब्द ‘औल इज वैल’ के महत्त्व को प्रभावी तरह से दिखाया गया. यह सामान्य जीवन में प्रेरणा देता है.’’             

विश्वव्यापी दृष्टिकोण विकसित करने की जरूरत

निर्माण, अनुसंधान, सुशासन, मानवीय  स्वतंत्रताओं, संवैधानिक सरकारों, जनता की चाह, निरंकुश मीडिया, गरीबी व बीमारी से लड़ाई की जगह दुनिया भर में नए ट्रैंड उभर रहे हैं, जो जनता को न जाने किस तरफ ले जा रहे हैं. यह सरकारों की जबरदस्ती के कारण हो रहा है या तकनीक की नई खोजों के कारण और उन के बावजूद कहना थोड़ा कठिन होता जा रहा है. इन उदाहरणों को देखिए :

–       फिलीपींस के  राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतेर्ते ने चेतावनी देते हुए कहा कि अगर देश में नशीली दवाओं की तस्करी नहीं रुकी तो सैनिक शासन लगाया जाएगा. एक बैठक में उन्होंने देश में भयावह होती ड्रग्स की समस्या पर भी चिंता जताई. उन्होंने कहा कि नशीली दवाओं से देश में 40 लाख लोग प्रभावित हैं. यदि यह समस्या अधिक गंभीर हुई तो मैं मार्शल लौ की घोषणा कर दूंगा. राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट और कांग्रेस का हवाला देते हुए कहा कि हमें इस संबंध में कोई नहीं रोक सकता. मेरे लिए देश सर्वोपरि है. नशीली दवा के तस्करों के खिलाफ चलाए अभियान में गत वर्ष जुलाई से अब तक 6 हजार से अधिक लोग मारे जा चुके हैं और 10 लाख से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है या फिर खुद उन्होंने आत्मसमर्पण किया है.

–       जापान के बुजुर्ग जेल जाना पसंद कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें वहां वे तमाम सुविधाएं मिल रही हैं जो उन के घर में मौजूद नहीं हैं. ये लोग जेल जाने के लिए चोरी जैसे अपराध कर रहे हैं. जेल में समय पर भोजन और चिकित्सकीय सुविधाएं मिलती हैं और बुढ़ापे में इस से ज्यादा इंसान को क्या चाहिए? रोज सुबह पौने 7 बजे उठना, 20 मिनट बाद नाश्ता करना. फिर ठीक 8 बजे काम पर पहुंच जाना. समय पर दोपहर तथा रात्रि का भोजन मिलता है. यह  बुजुर्ग कैदियों की दिनचर्या है.

बुजुर्ग कैदियों की देखरेख के लिए सरकार ने अलग से बजट जारी किया है. वहां की जेलें नर्सिंगहोम बनती जा रही हैं. बुजुर्गों का अकेलापन जेल जाने का एक प्रमुख कारण है. बुजुर्गों को जेल में कई लोगों के साथ रहने का मौका मिलता है. वे घर की तरह अकेलापन व मायूसी महसूस नहीं करते. पुलिस की एक रिपोर्ट में बुजुर्गों के अपराध में वृद्धि के लिए आर्थिक कठिनाई, बुजुर्गों की बढ़ रही आबादी और उन में बढ़ती लालची प्रवृत्ति को जिम्मेदार ठहराया गया है. उत्तरी ब्राजील की एक जेल में 2 गिरोहों के बीच हुई हिंसा में 10 कैदियों के मारे जाने की खबर थी. ब्राजील की जेलें कैदियों के बीच होने वाली हिंसा के लिए विश्व में बदनाम हैं.

–       तालिबान के कब्जे में कैद लोगों के वीडियो में एक अमेरिकी और एक आस्ट्रेलियाई नागरिक दिखाई दिया है. इन दोनों का अपहरण पिछले साल अगस्त में काबुल से किया गया था. वीडियो तालिबान के प्रवक्ता जबीहुल्ला मुजाहिद ने प्रसारित किया. यह वीडियो इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि ये दोनों जीवित हैं. हिंसाग्रस्त अफगानिस्तान के उत्तरी प्रांत जावजान में सैकड़ों महिलाओं ने आतंकवादी संगठन इसलामिक स्टेट और तालिबान के खिलाफ हथियार उठा लिए हैं.

अपने परिवार पर ढाए जुल्मों से दुखी इन महिलाओं ने यह कदम उठाया है. अफगानिस्तान के  गृह मंत्रालय के उप प्रवक्ता नजीब दानिश ने कहा कि हम किसी भी प्रकार के सशस्त्र समूह का तब तक समर्थन नहीं करेंगे, जब तक वे सेना के अंतर्गत नहीं आते. हम उम्मीद करते हैं कि ये महिलाएं अफगानिस्तान में सुरक्षाबलों में शामिल हों तो उन्हें सेना के हिस्से के रूप में मदद कर सकते हैं. दूसरी ओर, महिलाओं ने सेना पर उन की सुरक्षा करने में असमर्थ रहने का आरोप लगाया है.

–       अगर समुद्र का जलस्तर महज 1 मीटर बढ़ता है तो पर्यटनस्थली माने जाने वाला मालदीव जलमग्न हो जाएगा. अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा की अर्थ औब्जर्वेटरी रिपोर्ट में यह अंदेशा जताया गया है. मालदीव दुनिया के उन तमाम देशों में से एक है, जिन के अस्तित्व पर जलवायु परिवर्तन का खतरा मंडरा रहा है. मालदीव वास्तव में एक द्वीप समूह है. पर्यटन मालदीव की अर्थव्यवस्था का मूल आधार है. संयुक्त राष्ट्र संघ का कहना है कि समुद्री जलस्तर में बढ़ोतरी से मालदीव अपना बहुत कुछ खो सकता है. मालदीव एशिया का सब से छोटा देश है. इस की कुल आबादी लगभग पौने 4 लाख है.

–       पाकिस्तान का कहना है कि भारत की अग्नि-5 जैसी अंतर महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलें दक्षिण एशियाई इलाके में अमन के लिए खतरा हैं. पाकिस्तान ने यह बात बौखलाहट में उस मिसाइल टैक्नोलौजी कंट्रोल रेजीम (एमटीसीआर) से कही है, जिस के 35 देश हिस्सा हैं और जो खतरनाक मिसाइल टैक्नोलौजी के ट्रांसफर को रोकने का काम करता है.

–       चीन ने पाकिस्तान के बीच तैयार हो रहे आर्थिक कौरिडोर की सुरक्षा के नाम पर विशाल लड़ाकू जलपोत पाकिस्तान को सौंपे हैं. इस के अलावा 2 अन्य पोत भी वह आने वाले समय में पाकिस्तान को सौंपेगा. इस के जरिए वह इस आर्थिक कौरिडोर की जौइंट सिक्योरिटी करेगा. पाक नेवी के अधिकारी के मुताबिक पाकिस्तान और चीन के बीच बन रहा यह आर्थिक कौरिडोर पूरे क्षेत्र में गेम चेंजर साबित होगा. अधिकारी के मुताबिक इस कौरिडोर का फायदा बलूचिस्तान को भी समान रूप से मिलेगा और वहां पर रोजगार के अवसर पैदा होंगे, साथ ही हजारों युवाओं को भी काम मिल सकेगा.

–       अमेरिका के लौस एंजिलिस में 15 साल की एक किशोरी जेना को हिजाब पहनने के कारण चालक ने स्कूल बस से 2 बार उतारा. किशोरी के परिवार वालों ने घटना को ले कर केस दर्ज करा दिया है और स्कूल वालों से माफी की मांग की है. बाद में जेना ने एक साक्षात्कार में बताया कि हिजाब मेरे मजहब का हिस्सा है. हर दिन मैं अपने कपड़ों के हिसाब से हिजाब पहनती हूं. उस ने बताया कि ड्राइवर ने बस में स्पीकर से मेरे हिजाब पर कमैंट किया.

–       फ्रांस ने लश्करे तैयबा, जैशे मोहम्मद और हिजबुल मुजाहिद्दीन जैसे भारत को निशाना बनाने वाले पाकिस्तान के आतंकी समूहों के खिलाफ निर्णायक कार्यवाही पर जोर दिया. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद जिस आतंकी मसूद अजहर पर प्रतिबंध का प्रस्ताव लाई थी उसे पकड़ने के लिए उस ने भारत के साथ मिल कर काम करने का संकल्प लिया. फ्रांस के विदेश मंत्री ज्यां मार्क एरौल्ट ने कहा, ‘‘खतरे की गंभीरता पर न जाते हुए आतंकवाद से लड़ने की अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी की प्रतिबद्धता हर जगह एक सी होनी चाहिए. ऐसे खतरों के मद्देनजर देश को अपनी रक्षा का अधिकार है. हम आतंकवादियों के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत निर्णायक कार्यवाही होते देखना चाहते हैं.’’ उन्होंने फ्रांस और भारत के बीच आतंक से लड़ाई में सहयोग बढ़ाने का भी जिक्र किया.

–       अमेरिका के राष्ट्रपति डौनल्ड ट्रंप ने कहा कि मैक्सिको सरकार के साथ इस मामले में बातचीत अभी लंबित है और उन का प्रशासन जल्द ही दक्षिणी सीमा पर दीवार बनाने की अपनी योजना पर अमल करेगा ताकि अवैध आवर्जनों को बाहर रखा जा सके तथा मैक्सिको इस पर आने वाले खर्च की भरपाई करेगा. मैक्सिको के राष्ट्रपति एनरिक पेना नीतो ने कहा है कि वे दीवार बनाने का खर्च वहन नहीं करेंगे, लेकिन उन्होंने ट्रंप के साथ अच्छे संबंध स्थापित करने की इच्छा जताई. उन्होंने आगे कहा, ‘‘हम एक देश के तौर पर और मैक्सिको के नागरिक होने के नाते किसी चीज को कभी बरदाश्त नहीं करेंगे जो हमारी प्रतिष्ठा के खिलाफ हो.’’

–       अमेरिकी राष्ट्रपति डौनल्ड ट्रंप द्वारा विदेश मंत्री पद के लिए चुने गए रेक्स टिलरसन ने कहा कि वह यात्रा पर आने वाले मुसलिमों पर पूर्ण प्रतिबंध का समर्थन नहीं करते. हालांकि उन्होंने जोर दे कर कहा कि इसलामिक स्टेट आतंकवादियों के खिलाफ अमेरिका को युद्ध मैदान में तो लड़ाई जीतनी ही चाहिए. विचारों का युद्ध भी उसे जीतना होगा. ट्रंप ने देश में मुसलिमों की यात्रा और अप्रवासन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की बात कही थी.

अमेरिका के राष्ट्रपति डौनल्ड ट्रंप ने रूस के पास उन के खिलाफ विवादास्पद दस्तावेज होने के लिए अपने ही देश की खुफिया एजेंसियों को जिम्मेदार ठहराया और कहा कि यह नाजी जरमनी में रहने जैसा है. उन्होंने कहा कि वे सब से बड़े रोजगारसृजक होंगे और मैं सच कह रहा हूं कि इस पर कड़ी मेहनत करने वाला हूं. प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति डौनल्ड ट्रंप के रुख की आलोचना करते हुए जगहजगह रैलियां निकालीं और प्रवासी अधिकारों के प्रति समर्थन जताया. साथ ही यह भी बताया कि मुसलिम तथा अल्पसंख्यकों के प्रति डौनल्ड ट्रंप के चुनाव के दौरान दिए गए बयान संतुलित नहीं हैं.

–       अमेरिका के निवर्तमान ओबामा प्रशासन ने कहा कि भारत के एनएसजी सदस्यता की राह में चीन अवरोधक बना हुआ है. यह कम्युनिस्ट देश नई दिल्ली के प्रयास में लगातार बाधा डाल रहा है. चीन इस बात को ले कर भारत का पक्षपातपूर्ण विरोध कर रहा है कि उस ने परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं. उस का कहना है कि बिना एनपीटी पर हस्ताक्षर के भारत को एनएसजी सदस्यता नहीं दी जा सकती. अगर ऐसा किया जाता है तो पाकिस्तान को भी एनएसजी सदस्यता दी जानी चाहिए.

हमारा मानना है कि केवल अपने राष्ट्रीय हित की सोच के चलते विश्व को एकमात्र अपनी स्वार्थपूर्ति के तरीके से चलाने की होड़ से विश्व का हर विचारशील व्यक्ति चिंतित है. आज हम ने विश्व में ऐसा कोई अंतर्राष्ट्रीय कानून नहीं बनाया है, जिसे प्रभावशाली ढंग से पूरे विश्व के देशों तथा उस में रहने वाले प्रत्येक नागरिक पर वैधानिक रूप से लागू किया जा सके.

उस कानून की कोई मान्यता नहीं होती जिसे न तो वैधानिक रूप से लागू किया जा सके और न ही उसे तोड़ने वाले को दंडित किया जा सके. ऐसे कानून को कानून की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. वैश्विक दृष्टि से आज कोई अंतर्राष्ट्रीय कानून विश्व में नहीं है, जिस के अभाव में सारा विश्व कानूनविहीन बनता जा रहा है.

प्रदीप कुमार सिंह ‘पाल’          

समझदार बनें, अंधविश्वास से बचें

हमारे परिवारों में बच्चे को अंधविश्वास के घेरे में पालपोस कर बड़ा किया जाता है. बचपन से बच्चे के दिमाग में बैठा शुभअशुभ का डर उस के जीवन में मजबूती से पकड़ बना कर उसे कमजोर और भाग्यवादी बना देता है. किस दिन किस दिशा की तरफ जाना है, घर से क्या खा कर जाने से शुभ होगा, किस रंग के कपड़े पहनने से हर इच्छा पूरी होगी, इस तरह के अंधविश्वासों के घेरे में जब बच्चा बड़ा होता है तो वह इसे अपने बुजुर्गों की परंपरा समझ पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाता है.

अब प्रश्न उठता है कि एक बेहद अंधविश्वासी बच्चे को जो हर रूढ़ी को बड़ी सख्ती से बचपन से जवान होने तक निभाता है, अपने जीवन में असफलता का सामना क्यों करना पड़ता है? जवाब बहुत ही सहज और सरल है, सफलता और असफलता जीवन के 2 अभिन्न अंग हैं. हम कितने भी जादूटोने व अंधविश्वास अपनाएं सफलताअसफलता, सुखदुख सामान्य रूप से हमारे जीवन में आतेजाते रहेंगे.

कैसे मिलता है अंधविश्वास को बढ़ावा

राजीव का बेटा पिछले साल 12वीं में फेल हो गया था. सभी को काफी बुरा लगा. पढ़ने में एवरेज स्टूडैंट उन का बेटा इस साल काफी मेहनत कर रहा था. बच्चे को गले में एक देवी की आकृति वाला लौकेट पहनाया गया था जिसे कभी न उतारने की उसे सख्त हिदायत दी गई थी. पूछने पर राजीव ने बताया, ‘‘जब से परीक्षा में अच्छे अंक दिलाने वाला लौकेट बेटे को पहनाया है, उस का मन पढ़ने में खूब लग रहा है.’’

सच यह था कि राजीव का बेटा साइंस साइड से नहीं पढ़ना चाहता था. उस का मन आर्ट साइड में था पर राजीव ने प्रैशर में उसे साइंस दिला दी. इस तरह समस्या का मूल कारण जाने बिना किशोर के दिल में बैठ गया कि लौकेट पहनने से वह अच्छे अंकों से पास हो जाएगा. अब वह अपने मित्रों में भी इस लौकेट के चमत्कार को बताएगा और बहुत से उस के साथी इस अंधविश्वास को अपना कर बिना मेहनत के पास होने का भ्रम पाल लेंगे.

इस में कोई शक नहीं कि समाज में अंधविश्वास की जड़ें काफी मजबूती से हमारे दिलोदिमाग में बैठ जाती हैं. बारबार असफल होने पर मन बहुत कमजोर हो जाता है, कमी कहां हुई जो सफलता की राह में रोड़ा बनी उन के कारण जानने के स्थान पर टोनेटोटके, तंत्रमंत्र, गंडेताबीज और भी न जाने कितनी तरह के अंधविश्वासों में फंस जाता है.

कैसे पाएं अंधविश्वास पर काबू

अंधविश्वास का मतलब है किसी पर भी आंख मूंद कर विश्वास करना औैर जब हम किसी के बताए रास्ते पर बिना अपनी बुद्धिविवेक के इस्तेमाल के चल पड़ते हैं, तो वह रास्ता हमें प्रगति के बजाय विनाश की ओर ले जाता है. कुछ समय के लिए ये रास्ते सुखद लग सकते हैं, परंतु अंत में अंधविश्वासी व्यक्ति अपने को लुटा हुआ ही महसूस करता है.

बहुत से परिवारों में बरसों पुराने ऐसे ही अंधविश्वास चलते रहते हैं. बिना लौजिक जाने घरपरिवार में बेतुके बिना सिरपैर के अंधविश्वास इसलिए चलाए जाते हैं, क्योंकि बुजुर्गों ने इन्हें शुरू किया था. ऐसे अंधविश्वासों को छोड़ना ही समझदारी है, लेकिन बच्चों के मन में इन का इतना डर बैठा होता है कि वे सोचते हैं अगर हम ने कुछ नया किया तो परिवार के साथ कुछ न कुछ बुरा हो जाएगा. पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही परंपरावादी रूढि़यों को एकदम से तोड़ना भी आसान नहीं है परंतु प्रयास करने से बहुत कुछ किया जा सकता है. आइए, देखें कैसे बच्चे इन प्रगतिबाधक अंधविश्वासों पर काबू पा सकते हैं :

मेहनत और लगन से करें काम : किशोरावस्था नए जोश और हौसले का दूसरा नाम है. किशोरों को खुद भी अंधविश्वास का बहिष्कार करना चाहिए और अपने परिजनों से भी पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही इस खोखली परंपरा से होने वाले नुकसान पर बात करनी चाहिए. संभव हो तो अपने आसपास के मित्रों को भी बताएं कि मेहनत ही एक ऐसी सीढ़ी है जो सफलता तक पहुंचा सकती है. अंधविश्वास पर निर्भरता इंसान को बुजदिल और आलसी बनाती है, जो किशोरों के पूरे व्यक्तित्व को कुंठित कर देता है.

सकारात्मक सोच को दें वरीयता :  नकारात्मक विचारों के लोग ही अंधविश्वास में ज्यादा विश्वास करते हैं. सुखसुविधाओं में पले लोग जरा सी परेशानी आते ही टोनेटोटकों या किसी जादुई शक्ति में विश्वास करने लगते हैं. जहां नकारात्मक विचार होंगे वहां अंधविश्वास लंबे समय तक पैर जमा कर अपना राज करता है. पंडेपुजारियों, पूजापाठ और तंत्रमंत्र पर पैसा व वक्त बरबाद होता है. अत: सकारात्मक विचारों को वरीयता दें. कई बार हमारे प्रयास और मेहनत में कोई कमी नहीं होती, परंतु दिशा ठीक न होने के कारण बारबार असफलता का मुंह देखना पड़ता है. अगर मन को मजबूत कर तथ्यहीन अंधविश्वासों को त्याग कर सही दिशा में सकारात्मक प्रयास करें तो आप को सफलता अवश्य मिलेगी.

एक अन्वेषक की तरह जागरूक बनें : एक जागरूक अन्वेषक की तरह हर समय यह विश्लेषण करें कि अंधविश्वास हमें कितना नुकसान पहुंचा रहा है. उस पर अमल कर के घरपरिवार का कितना भला हो रहा है. अपनी कमियों पर बारीकी से विचार करें, संभव हो तो परिजनों के साथ बैठ कर अपने सफलअसफल कार्यों की लिस्ट बनाएं और उस पर ध्यान दें.

कैरियर के लिए प्रयास कर रहे युवाओं के लिए यह फौर्मूला बहुत उपयोगी है. इस के बाद उन्हें किसी जादुई ताबीज या अंधविश्वास की जरूरत नहीं रहेगी.

अंत में हम कह सकते हैं कि अंधविश्वास हमारी बुद्धि, विद्या और बल को बाधित करते हैं और जीवन में उन्नति के सारे दरवाजे बंद कर देते हैं.

अपनी कड़ी मेहनत और लगन का पूरा श्रेय किसी ताबीज, टोनेटोटके या तंत्रमंत्र को देना ठीक नहीं. कैरियर में सफलता चाहिए या परीक्षा में अच्छे अंक तो सही दिशा में मेहनत करें. कदमकदम पर अंधविश्वास की दुकानें खोले ढोंगी बाबातांत्रिक मौके का फायदा उठाते हैं. अत: किशोर हर समय जागरूक रहें, समझदार बनें और अंधविश्वास से बचें.   

– पुनीता सिंह               

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