केरल की संस्कृति का अहम हिस्सा है ‘वल्लमकली’

दुनिया भर में भारत को अपनी संस्कृति, बदलते मौसम और प्रकृति के अद्भुत नजारों के लिए जाना जाता है. यहां अलग-अलग ऋतुओं के स्वागत में तीज-त्योहार मनाए जाते हैं. हमारे यहां जब सावन का महीना आता है तो बारिश में सराबोर यहां के लोग अपनी खुशी को पर्व के रूप में जाहिर करते हैं.

केरल की फेमस बोट रेस भी बारिश के मौसम में ही होती है. इस रेस को यहां ‘वल्लमकली’ कहते हैं जिसे देखने दुनियाभर से टूरिस्ट जुटते हैं.

नेहरू ट्रॉफी बोट रेस

केरल में अल्लपुझा के बैकवॉटर की पुन्नमड झील में होने वाली यह बोट रेस सबसे प्रसिद्ध है. ये रेस हर साल अगस्त के दूसरे शनिवार को होती है. इस आयोजन में चुंदन वेलोम (स्नेक बोट) की पारंपरिक दौड़ के अलावा पानी पर झांकियां भी होती हैं. इस कॉम्पिटीशन के नजारे वाकई में  अद्भुत होते हैं.

पय्यपड़ बोट रेस

अलप्पुझा में ही पय्यपड़ नदी में एक अन्य बोट रेस होती है. केरल में नेहरू ट्रॉफी बोट रेस के बाद स्नेक बोट की सबसे बड़ी रेस यही है इस रेस की शुरुआत हरीपाद मंदिर और सुब्रह्मण्य स्वामी मंदिर में मूर्ति की स्थापना से हुई. कहते इस मूर्ति स्थापना के दौरान वहां ग्रामीणों को एक सपना आया, जिसके बाद वे कायमकुलम झील में एक चक्रवात तक पहुंचे, जहां उन्हें मूर्ति प्राप्त हुई. उसी समय से यहां बोट रेस की परंपरा चली आ रही है.

कुमारकोम बोट रेस

जिस दिन पय्यपड़ में बोट रेस होती है, उसी दिन प्रसिद्ध रिजॉर्ट कुमारकोम में भी श्री नारायण जयंती बोट रेस होती है. यह रेस केरल में होने वाली बाकी रेसों से अलग है. यह रेस महान समाज सुधारक श्री नारायण गुरु के गांव में आने की याद में आयोजित की जाती है. बताया जाता है कि नारायण गुरु 1903 में नाव में बैठकर अल्लपुझा से कुमारकोम आए थें. उनके साथ कई नावों में लोग थे. इसलिए हर साल श्री नारायण गुरु की जयंती पर उनकी याद में यह बोट रेस होती है.

अरण्मुला वल्लमकली

केरल में यह बोट रेस अपनी प्राचीन परंपरा और भव्यता के लिए जानी जाती है. यह रेस कम और पारंपरिक रस्म ज्यादा है. अर्णामुला में पंबा नदी में होने वाला यह आयोजन दरअसल ओणम का हिस्सा है.

अगर आप भी इस सावन में कहीं घूमने का प्लान कर रहीं हैं तो केरल के इस बैकवॉटर रेस का लुत्फ उठाएं.

पोषक तत्वों से भरपूर हैं कच्चे केले

पके हुए केले के फायदों के बारे में तो आप जानती ही होंगी. पका हुआ केला जहां चाव से खाया जाता है वहीं कच्चे केले का इस्तेमाल सिर्फ सब्जी, कोफ्ता, केले का चिप्स बनाने में ही किया जाता है.

कच्चा केला पोटैशियम का खजाना होता है जो इम्यून सिस्टम को तो मजबूत बनाता है ही साथ ही ये शरीर को दिनभर एक्टि‍व भी बनाए रखता है. इसमें मौजूद विटामिन बी6, विटामिन सी कोशिकाओं को पोषण देने का काम करता है. कच्चे केले में सेहतमंद स्टार्च होता है और साथ ही एंटी-ऑक्सीडेंट्स भी. ऐसे में नियमित रूप से एक कच्चा केला खाना बेहद फायदेमंद साबित हो सकता है.

वजन घटाने में मददगार

वजन घटाने की कोशि‍श करने वालों को हर रोज एक केला खाने की सलाह दी जाती है. इसमें भरपूर मात्रा में फाइबर्स पाए जाते हैं जो अनावश्यक फैट सेल्स और अशुद्धियों को साफ करने में मददगार होते हैं.

कब्ज की समस्या में राहत

कच्चे केले में फाइबर और हेल्दी स्टार्च होते हैं. जोकि आंतों में किसी भी तरह की अशुद्ध‍ि को जमने नहीं देते. ऐसे में अगर आपको अक्सर कब्ज की समस्या रहती है तो कच्चा केला खाना आपके लिए बहुत फायदेमंद रहेगा.

भूख को शांत करने में

कच्चे केले में मौजूद फाइबर्स और दूसरे कई पोषक तत्व भूख को नियंत्रित करने का काम करते हैं. कच्चा केला खाने से समय-समय पर भूख नहीं लगती है और हम जंक फूड और दूसरी अनहेल्दी चीजें खाने से बच जाते हैं.

मधुमेह को कंट्रोल करने में मददगार

अगर आपको मधुमेह की शिकायत है और ये अपने शुरुआती रूप में है तो अभी से कच्चा केला खाना शुरू कर दें. ये डायबिटीज कंट्रोल करने की अचूक औषधि है.

पाचन क्रिया को बेहतर बनाने में मददगार

कच्चे केले के नियमित सेवन से पाचन क्रिया बेहतर होती है. कच्चा केला खाने से पाचक रसों का स्त्रावण बेहतर तरीके से होता है.

कैंसर से बचाए

इसके अलावा कच्चा केला कई तरह के कैंसर से बचाव में भी सहायक है. कच्चे केले में मौजूद कैल्शियम हड्ड‍ियों को मजबूत बनाने में सहायक है और साथ ही ये मूड स्व‍िंग की समस्या में भी फायदेमंद है.

मॉनसून में भी दिखना है ट्रेंडी और स्टाइलिश!

काम के व्यस्तता के कारण अगर आप ऑफिस में स्टाइलिश ड्रेस पहनकर जाने की योजना के बारे में बस सोचती रह जाती हैं तो ऐसे में कभी-कभी स्कार्फ और आभूषण भी आपके लिए बेहतर एक्सेसरीज साबित हो सकते हैं. मॉनसून में स्कार्फ और ज्वेलरी आपको आकर्षक लुक देंगे.

स्कार्फ कैरी कर आप स्टाइलिश दिख सकती हैं. जानें स्कार्फ से आकर्षक लुक पाने के टिप्स.

– बारिश के मौसम में मॉनसून बालों की सुरक्षा करते हैं और साथ ही बेहतरीन एक्सेसरीज भी साबित होते हैं.

– इस मॉनसून में हल्के कॉटन मलमल या हैंडलूम के तैयार कॉटन जमदानी स्कार्फ डालें, जो आपको बरसात या धूप से सुरक्षा प्रदान करने के साथ ही आपके लिए नया फैशन स्टेटमेंट भी बनते हैं.

– सिंपल ड्रेसे पर झालरदार या फुंदने वाले स्कार्फ को कंधे के चारों ओर डाल लें. यह भी आपको स्टाइलिश लुक देगा.

– मॉनसून में आप स्कार्फ को बालों के ऊपर बंदना के रूप में भी बांध सकती हैं.

– जूड़े या पोनी टेल को इसके चारों ओर पतले स्कार्फ से बांध लें और बाकी बालों को खुला लहराने दें, इससे बरबस ही लोगों का ध्यान आपकी ओर खींचा चला जाएगा.

सिर्फ स्कार्फ ही नहीं इस मौसम आप सही आभूषण पहन अपना रूप निखार सकती हैं.

– हल्के लेकिन बड़े गोल छल्लेदार या बाले वाले हूप ईयर रिंग इस मौसम में प्रचलन में हैं.

– खूबसूरत जडा़ऊ रत्न वाले छोटे ईयर स्टड आपके व्यक्तिव में चार चांद लगा सकते हैं.

– आप चाहें तो गले में कई लेयर वाली चेन और हाथों में मल्टी फिंगर रिंग (एक ऐसी अंगूठी जो एक से ज्यादा उंगलियों को कवर कर ले) को भी पहन सकती हैं, जो आपको मॉडर्न और स्टाइलिश लुक देगा.

कोचिंग की बैसाखी पर शिक्षा

कुछ वर्षों पहले रसायन का नोबेल पुरस्कार हासिल करने वाले भारतीय मूल के अमेरिकीब्रिटिश वैज्ञानिक वी रामकृष्णन ने एक टिप्पणी भारत की कोचिंग इंडस्ट्री के बारे में की थी. इस संबंध में पहली बात उन्होंने यह कही थी कि शुद्ध विज्ञान (प्योर साइंस) की तरफ उन का आना इसलिए संभव हुआ क्योंकि उन का दाखिला देश (भारत) के किसी मैडिकल या इंजीनियरिंग कालेज में नहीं हो पाया था.

दाखिला इसलिए नहीं हुआ क्योंकि पुराने खयाल के उन के मातापिता यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि मैडिकल-इंजीनियरिंग कालेजों का ऐंट्रैंस टैस्ट निकालने के लिए कोचिंग लेनी बहुत जरूरी है.

कोचिंग इंडस्ट्री को ले कर अपनी बात को और ज्यादा साफ करते हुए उन्होंने यह भी कहा था कि अब तो कोचिंग संस्थानों में दाखिले के लिए भी कोचिंग की जरूरत पड़ने लगी है. लिहाजा, जब तक ऐंट्रैंस टैस्ट का स्वरूप नहीं बदला जाता व छात्रों और अभिभावकों में कोचिंग के प्रति नफरत नहीं पैदा की जाती, तब तक इस बीमारी का इलाज संभव नहीं है.

कोचिंग बिना कामयाबी

कोचिंग के खिलाफ वी रामकृष्णन से मिलतीजुलती राय अपने देश में सुनाई पड़ती रही है. इधर यूपीएससी (आईएएस) की परीक्षा में देश में तीसरी रैंक हासिल करने और बेहद गरीब परिवार से ताल्लुक रखने वाले 30 साल के गोपाल कृष्ण रोनांकी ने भी वैज्ञानिक वी रामकृष्णन जैसी बातें कही हैं.

सिविल सेवा की तैयारी के लिए समाज की परिपाटी के मुताबिक वे भी कोचिंग सैंटर जौइन करना चाहते थे, लेकिन पिछड़े इलाके से आने की वजह से किसी भी कोचिंग सैंटर ने उन्हें दाखिला नहीं दिया. ऐसे में गोपाल के पास सैल्फ स्टडी के अलावा कोई चारा नहीं बचा.

कोचिंग से महरूम होने को उन्होंने कमजोरी के बजाय अपनी ताकत बनाई. परीक्षा के लिए उन्होंने कोई कोचिंग अटैंड नहीं की और कड़ी मेहनत व लगन की बदौलत सिविल सर्विस एग्जाम में कामयाब हो कर दिखा दिया कि बिना कोचिंग के भी सफलता पाई जा सकती है.

गोपाल कृष्ण रोनांकी भले ही कोचिंग सैंटर में दाखिला नहीं मिलने के कारण सैल्फ स्टडी के लिए प्रेरित हुए, लेकिन सीबीएसई की 12वीं परीक्षा की इस साल की टौपर नोएडा की रक्षा गोपाल के सामने ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी. उस ने अपनी मरजी से कोचिंग की बैसाखी लिए बिना खुद बेहतर पढ़ाई की योजना बनाई और परीक्षा में टौप कर के दिखा दिया कि अगर हौसला हो तो किसी भी परीक्षा की चुनौती ऐसी नहीं है, जिसे पार न किया जा सके. रक्षा गोपाल ने बिना ट्यूशनकोचिंग के 99.6 फीसदी अंक ला कर टौप किया है.

उपरोक्त उदाहरणों के बावजूद हमारे समाज में ट्यूशनकोचिंग का दबदबा बढ़ता जा रहा है. मांबाप कोचिंग सैंटरों और ट्यूशन पढ़ाने वाले अध्यापकों का स्तर जाने बगैर अपने बच्चों को कोचिंग के लिए भेज रहे हैं और सामान्य पढ़ाई से ज्यादा ट्यूशनकोचिंग पर खर्च कर रहे हैं.

लाइसैंस भी जरूरी नहीं है

कोचिंग का जाल इतना गहरा है कि सरकार को भी इस की चिंता है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय कई बार इस पर चिंता जताता रहा है. कुछ ऐसी ही टिप्पणी पिछले साल मशहूर फिल्म अभिनेता और लोकसभा सांसद परेश रावल ने संसद में की थी. उन्होंने प्राइवेट कोचिंग संस्थानों को शैक्षिक आतंकवाद फैलाने वाला बताते हुए देश में प्राइवेट कोचिंग के लिए नियमकानून बनाने की मांग की थी.

इस मर्ज का एक सिरा इस विरोधाभासी तथ्य से भी जुड़ा है कि लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने के लिए नहीं भेजना चाहते हैं, लेकिन उन कोचिंग सैंटरों में जरूर भेजते हैं जहां कई बार सरकारी स्कूलों के ही टीचर पढ़ाते हैं. इन तथ्यों के केंद्र में यह इशारा बारबार मिलता है कि कुछ ऐसे उपाय किए जाएं ताकि बोर्ड परीक्षाओं, मैडिकल और इंजीनियरिंग ऐंट्रैंस में कोचिंग की भूमिका घटाई जा सके.

लेकिन ऐसा लगता है कि यह भूमिका कम करने को ले कर समाज से ले कर सरकार तक कोई गहरी दुविधा है जो उन्हें इस दिशा में आगे बढ़ने से रोक देती है.

जब से मैडिकल और इंजीनियरिंग कालेजों का बोलबाला बढ़ा और इन संस्थानों से निकले डाक्टरइंजीनियर लाखोंकरोड़ों कमाते दिखे, तो हर कोई अपने बच्चे को जैसेतैसे इसी लाइन में खड़ा करने की तैयारी में जुट गया.

आज स्थिति यह है कि देश के सभी इंजीनियरिंग व मैडिकल कालेजों में कुल मिला कर 40 से 45 हजार सीटें हैं, पर इन में दाखिला पाने को ले कर हर साल 10 लाख छात्रों के बीच होड़ सी मची रहती है. वे चाहे इन सीटों के लिए पूरी तरह काबिल न हों, लेकिन हर हाल में उन्हें इन्हीं में दाखिला चाहिए. इस का फायदा उठाया है देश में कुकुरमुत्ते की तरह राजस्थान के कोटा और दिल्ली से ले कर हर छोटेबड़े शहर की गलीकूचों में खुले कोचिंग सैंटरों ने.

ये अपने एकाध पूर्व छात्र की सफलता का ढोल पीटते हुए बच्चे को इंजीनियर और डाक्टर बनाने का सपना देखने वाले मांबाप से लाखों रुपए ऐंठने में कामयाब होते हैं. पर क्या कोई यह देख पा रहा है कि आखिर इस गोरखधंधे में किस का भला हुआ है?

अरबों डौलर का बिजनैस

देश के वित्तीय कारोबारों पर नजर रखने वाली आर्थिक संस्था एसोचैम ने इस बारे में एक आकलन पेश करते हुए दावा किया था कि 2015 के अंत तक देश में कोचिंग का कारोबार 40 अरब डौलर तक पहुंच चुका है. यह आकलन बेमानी नहीं कहा जाएगा क्योंकि इस में यह आंकड़ा भी निकल कर आया था कि प्राइमरी में पढ़ने वाले 87 फीसदी और सैकंडरी में पढ़ने वाले करीब 95 फीसदी बच्चे ट्यूशन या कोचिंग लेते हैं.

इस ट्यूशन की वजह से अभिभावकों की जेब पर भारी बोझ पड़ा है पर चूंकि वे बच्चे के भविष्य की खातिर कोई रिस्क नहीं लेना चाहते, इसलिए वे कोचिंग से परहेज नहीं करते हैं. यही नहीं, 78 फीसदी अभिभावकों ने एसोचैम के अध्ययन में यह तक कहा कि आज बच्चों पर ज्यादा नंबर लाने का दबाव है और बिना कोचिंग के ऐसा कर पाना मुमकिन नहीं लगता है.

महानगरों और छोटे शहरों में प्राइमरी स्तर तक के बच्चों की हर महीने की ट्यूशन फीस जहां 1,000 से 3,000 रुपए है वहीं सैकंडरी के बच्चों के ट्यूशन पर हर महीने औसतन करीब 5,000 रुपए या इस से अधिक का खर्चा आता है. बड़े शहरों में तो स्कूल की फीस के बाद कोचिंग पर औसतन 10,000 रुपए तक का हर महीने का खर्चा पेरैंट्स पर आ रहा है.

एसोचैम ने यह सर्वे रिपोर्ट दिल्ली, एनसीआर, मुंबई, कोलकाता, हैदराबाद, बेंगलुरु, चेन्नई, लखनऊ, अहमदाबाद, जयपुर और चंडीगढ़ में 1,200 पेरैंट्स से बातचीत के बाद तैयार की थी.

सर्वे में शामिल 78 प्रतिशत पेरैंट्स ने कहा कि पढ़ाई का स्तर और माहौल काफी बदल गया है. बच्चों पर ज्यादा नंबर लाने का दबाव है. बिना ट्यूशन के ऐसा मुमकिन नहीं है. इन में करीब 86 प्रतिशत अभिभावकों ने माना था कि उन के पास अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए पर्याप्त समय नहीं है. पति और पत्नी दोनों कामकाजी होने की वजह से उन के पास तो अपने बच्चों के साथ गुजारने के लिए भी वक्त नहीं होता. ऐसे में उन के पास बच्चों को प्राइवेट कोचिंग में भेजने के अलावा और कोई चारा नहीं बचता.  

अमरनाथ यात्रा : गारंटी किसी बात की नहीं

पूरी तरह आतंक की गिरफ्त में आ चुकी कश्मीर घाटी में आतंकी गतिविधियों के चलते हालात कतई ऐसे नहीं हैं कि कोई सामान्य पर्यटक भी वहां जाए. लेकिन 29 जून से 7 अगस्त तक होने वाली अमरनाथ यात्रा में देशभर से लगभग 7 लाख श्रद्धालुओं के अमरनाथ पहुंचने के अनुमान ने जता दिया है कि धर्मांधता इन दिनों सिर चढ़ कर बोल रही है.

क्यों लाखों लोग धर्म के नाम पर मौत के मुंह में जानबूझ कर जा रहे हैं, इस सवाल का जवाब अब बेहद साफ है कि अमरनाथ यात्रा का उद्देश्य अब कुछकुछ बदल रहा है. कहने को तो यह कहा जाता है यहां शिव ने अपनी पत्नी पार्वती को अमरत्व का रहस्य बताया था लेकिन

अब यहां मरण की आशंका ज्यादा है. अधिकांश श्रद्धालु अब चमत्कारिक किस्सेकहानियों के फेर में पड़ कर ही नहीं, बल्कि मुसलिम आतंकवादियों को यह बतानेजताने भी जा रहे हैं कि हिंदू किसी गोलाबारूद या मौत से नहीं डरता. कश्यप ऋषि की तपोस्थली कश्मीर घाटी हमारी है, बर्फानी बाबा का पुण्य कोई हम से छीन नहीं सकता.

आस्था और कट्टरवाद में फर्क कर पाना हमेशा से ही मुश्किल काम रहा है. अमरनाथ यात्रा के मामले में तो हालत बेहद चिंताजनक और हास्यास्पद हो गई है कि देशभर में एक करंट सा फैल रहा है कि जितनी ज्यादा से ज्यादा संख्या में श्रद्धालु अमरनाथ पहुंचेंगे, उतनी ही तादाद में पुण्य मिलेगा और हिंदुओं की ताकत दिखेगी.

आस्था का करंट फैला कर पैसा बनाने वाले लोग खुश हैं कि इस साल कारोबार अच्छा चलेगा. पिछले साल कश्मीर के कुख्यात आतंकी बुरहान वानी की मौत के बाद घाटी में बारबार कर्फ्यू लगा था,

जिस से अमरनाथ यात्रा बाधित हुई थी. उस से धर्म के धंधेबाजों को वहां पहली दफा घाटा उठाना पड़ा था. उन लोगों को अंदाजा था कि साल 2017 में भी ऐसा दोहराव हो सकता है, इसलिए भीड़ बढ़ाने की तैयारियां तभी से शुरू कर दी गई थीं.

ऐसे उमड़ती है भीड़

देशदुनिया के राजनीतिक व सामाजिक सरोकारों से दूर अधिकांश श्रद्धालुओं की मंशा बेहद साफ रहती है कि जैसे भी हो, पापों व कष्टों से मुक्ति मिले. इस के लिए खूनपसीने की कमाई चढ़ाना सोचने की बात नहीं और अगर कर्ज भी लेना पड़े तो कोई हर्ज नहीं. एक बार वहां हो आएं, फिर तो तमाम कर्जे सूद के साथ उतारना ऊपर वाले की जिम्मेदारी हो जाएगी.

देश में तीर्थयात्राओं का इतना जबरदस्त क्रेज बेवजह नहीं है कि लोग परेशानियों, अभावों, मौसम की मार, पैसों और जान तक की चिंता नहीं करते. दरअसल तीर्थयात्राओं के कारोबारियों ने कोनेकोने में ऐसा जाल फैला रखा है कि इस से किसी का बच कर निकलना बहुत मुश्किल है. चारों दिशाओं में तीर्थस्थल हैं जिन के अलगअलग चमत्कारी किस्सेकहानियां प्रचलित हैं. इन्हें सुन धर्मांधों की बुद्धि बौरा जाती है कि अगर जिंदगी में एक बार तीर्थ नहीं किया तो सब व्यर्थ और नश्वर है.

धर्म के धंधे की सहायक शाखा तीर्थयात्रा का व्यापार धर्म जितना ही प्राचीन है, जिस का मकसद भी आम लोगों से पैसा कमाना रहा है. हर एक धर्मग्रंथ तीर्थ माहात्म्य से भरा पड़ा है जिस का प्रचार पंडेपुजारी हर धार्मिक आयोजन में करते रहते हैं. सार यही है कि तीर्थयात्रा जरूर करो, बगैर इस के जीवन निरर्थक, पशुवत है.

कृषि प्रधान इस देश के संस्कार और मानसिकता अभी भी देहाती हैं. लोग भले ही बड़े शहरों में जा कर बसने लगे हों, सुविधाजनक जिंदगी जीने लगे हों पर तीर्थयात्रा का भूत उन के घरों और दिमाग में सालों पहले जैसा लटका हुआ है.

70 के दशक में सड़कें नहीं थीं, गांवों में आवागमन के साधन नहीं थे जबकि लोगों की आमदनी ज्यादा थी. दूसरे शब्दों में कहें तो खर्च सीमित थे. तब बड़े पैमाने पर पंडेपुजारियों और बनियों ने लोगों को तीर्थयात्रा के बाबत उकसाना शुरू किया.

ब्राह्मणबनिया गठजोड़ ने श्रद्धालुओं को बताया कि तीर्थयात्रा दुर्लभ है और भाग्य वाले ही इसे कर सकते हैं. इस सोए भाग्य को जगाने के लिए तीर्थस्थलों से संबंध रखते चमत्कारिक किस्से हैंडबिलों के जरिए बताए जाने लगे. लोग आसानी से जेबें ढीली करें, इस बाबत इन पर्चों में बताया जाता था कि फलां ने चारधाम की यात्रा की तो उसे खेत में सोने का घड़ा मिला. फलां ने जा कर वैष्णो देवी के दर्शन किए तो उस के बेटे की नौकरी लग गई और बेटी की शादी धनाढ्य परिवार में हो गई.

देखते ही देखते तीर्थयात्रा से बेऔलादों को औलादें मिलने लगीं, असाध्य बीमारियों से ग्रस्त मरीज भलेचंगे हो कर घूमने लगे, पति ने पत्नी को मारनापीटना छोड़ दिया, क्योंकि उस की पत्नी ने तिरुपति और रामेश्वरम जा कर पूजापाठ किया था. रामलाल का व्यापार दिन दोगुना रात चौगुना चल निकला क्योंकि उस ने शिर्डी जा कर सांईंबाबा के दरबार में गुहार लगाई थी.

यह वह वक्त था जब लोगों के पास अचल संपत्तियां ज्यादा होती थीं, नकदी कम. लिहाजा हर गांवशहर में रातोंरात फाइनैंसर पैदा हो गए जो जमीन, गहने, खेत और मकान गिरवी रख कर ब्याज पर तीर्थयात्रा के लिए नकदी देने लगे. लोगों की लालची मानसिकता को भुनाने को हर स्तर पर कोशिशें हुईं.

तीर्थयात्रा के दलाल गांवगांव घूम कर बताने लगे कि चलो हमारे साथ, हम ने आप की सहूलियत के लिए सारे इंतजाम किए हुए हैं. दुर्गम तीर्थस्थल तक ले जाना हमारी जिम्मेदारी है, आप को तो बस पैसे देने हैं.

तीर्थयात्रा के कारोबार की गहरी जड़ें गमलों के जरिए शहरों तक आ गईं और आज सोशल मीडिया के दौर में हालत यह है कि चमत्कारों का प्रचार फेसबुक, इंटरनैट और व्हाट्सऐप के जरिए हो रहा है. लोग शिक्षित तो हुए पर जागरूक नहीं हो पाए. तीर्थयात्रा के फलों और फायदों का लालच बरकरार है और दलालों, पंडों का गिरोह उम्मीद से ज्यादा बड़ा हो चुका है.

अमरनाथ यात्रा का सच

अमरनाथ गुफा में बर्फ का शिवलिंग बनता है, श्रद्धालु जिसे बर्फानी बाबा कहते हैं. इस के चमत्कारिक किस्से दूसरे तीर्थस्थलों की तरह किसी सुबूत के मुहताज नहीं. सालभर कंजूसी और किफायत से पैसे खर्च करने वाले लोग अमरनाथ यात्रा के नाम पर बड़ी दरियादिली से पैसे फूंकते हैं जिस का नजारा हर गांव और शहर में देखा जा सकता है.

पिछले साल के घाटे से उबरने के लिए अमरनाथ यात्रा के व्यापारियों ने साल की शुरुआत में ही जाल बिछाना शुरू कर दिया था. 21 मई को दिल्ली के जंतरमंतर पर अमरनाथ यात्रा बचाओ मुहिम में हिस्सा लेने देशभर से पंडेपुजारी, लंगर संचालक और ट्रैवल एजेंट वगैरा पहुंचे थे. इन लोगों की मांग थी कि अमरनाथ यात्रा निर्विघ्न संपन्न कराने को सरकार लोगों को आश्वस्त करे.

इस राष्ट्रीय अभियान से एक बात यह स्पष्ट हुई थी कि बर्फानी बाबा भक्तों की सलामती की गारंटी नहीं लेता. वह न तो आतंकियों को तीसरी आंख खोल कर भस्म कर सकता है और न ही भक्तों की सहूलियत के लिए रास्तों में जमी बर्फ हटा सकता, क्योंकि उस का काम परीक्षा लेना है, परिणाम देना नहीं.

शिवलिंग को तो दूसरों की हिफाजत करनी चाहिए पर यहां तो उलटे उस की ही हिफाजत के लिए करोड़ों रुपए खर्च कर सेना तैनात करनी पड़ती है.

प्रचार यह किया जा रहा है कि बाबा कड़ा इम्तिहान ले रहा है, इसलिए तमाम बाधाओं को नजरअंदाज करते जो अमरनाथ पहुंच कर बर्फानी बाबा के दर्शन 7 अगस्त तक कर लेगा वह तर जाएगा.

ज्यादा से ज्यादा श्रद्धालु अमरनाथ आएं, इस बाबत इस से संबंध रखती तमाम धार्मिक समितियों व संगठनों ने साल की शुरुआत में ही प्रचार शुरू

कर दिया था. भोपाल के पौश इलाके शिवाजीनगर के 6 नंबर मार्केट में पान की गुमटी चलाने वाले एक सज्जन, जिन्हें लोग सिर्फ पंडितजी के नाम से जानते हैं, के पास जम्मू की एक संस्था की रसीदों की एक बुक और दूसरा प्रचार साहित्य पहुंच गया था.

इस संस्था का नारा है, भोले की फौज करेगी मौज. प्रचार सामग्री पा कर पंडितजी धन्य हो गए. वे पिछले साल एक जत्थे के साथ अमरनाथ गए थे. उन के हिसाब से यात्रा रोमांचक थी पर रास्तेभर जान का डर सताता रहा था. जम्मू में जिस संस्था में उन्होंने नामपता लिखाया था, उस ने उन्हें रसीदें और साहित्य भेजा था जिन्हें वे अपने ग्राहकों को बांटते रहे.

एक रसीद बुक से लगभग ढाई हजार रुपए का चंदा इकट्ठा हुआ जो उन्होंने डिमांड ड्राफ्ट के जरिए संस्था को भेज दिया. जवाब में जय भोलेनाथ और धन्यवाद सहित दूसरी रसीद बुक आ गई जिसे उन्होंने फिर काउंटर पर रख दिया. पंडितजी किसी से चंदा नहीं मांगते. दुकान पर आए ग्राहक श्रद्धानुसार जो दे जाते हैं, वह राशि वे एक अलग डब्बे में रखते जा रहे हैं. ऐसे देशभर में लाखों लोग इन समितियों और संस्थाओं के लिए चंदा इकट्ठा कर भेज रहे हैं.

रोजाना मुश्किल से 3-4 सौ रुपए कमाने वाले इस पान विक्रेता का कहना है कि पिछले साल उन्हें अमरनाथ यात्रा के दौरान 12 हजार रुपए उधार लेने पड़े थे जिन्हें धीरेधीरे वे चुका चुके हैं. अब बैठेबिठाए उन्हें धर्मकार्य सौंप दिया गया है. अगर कहीं से पैसा बरस पड़ा तो वे फिर इस साल, नहीं तो अगले साल तो जाएंगे ही.

शहरशहर में अमरनाथ यात्रा कराने वाली समितियां हैं जो अमरनाथ यात्रियों के रजिस्ट्रेशन से ले कर उन की हर मुमकिन मदद करती हैं. अधिकांश समितियों के कर्ताधर्ता हिंदूवादी संगठनों से जुड़े हैं और अकसर जम्मूकश्मीर जाते रहते हैं. इन रजिस्टर्ड और गैररजिस्टर्ड समितियों के पदाधिकारियों की सक्रियता यात्रा के दिनों में देखते ही बनती है.

जिस दिन जत्था रवाना होता है उस दिन ट्रेन पर ये लोग ढोलबाजों और फूलमाला ले कर पहुंच जाते हैं. समिति के नाम के बैनर स्टेशन पर फहराते

रहते हैं, ट्रेन के डब्बों में भी बैनरों को लटकाया जाता है. अमरनाथ यात्रियों से पहले स्टेशन के पास मंदिर में पूजापाठ कराया जाता है, फिर उन के गले में माला पहना कर उन का समारोहपूर्वक सम्मान किया जाता है.

दरअसल, ये श्रद्धालु उन के ग्राहक होते हैं जो अमरनाथ यात्रा का भुगतान तो करते ही हैं, साथ ही चंदा भी खूब देते हैं. बदले में इन्हें यह गारंटी मिलती है कि आप को कहीं कोई दिक्कत पेश नहीं आएगी. कहा जाता है कि जम्मू के भगवतीनगर में या पहलगाम में और बालटाल में भी समिति के डाक्टर और लंगर हैं जहां सबकुछ फ्री है. शिवसेवक आप की सेवा में मौजूद रहेंगे.

कहने और बताने को सेवा व पुण्य के इस काम में बैठेबिठाए पैसा बरसता है. इस कारोबार में लागत न के बराबर है जिस में भक्त किराया व दूसरे शुल्क एडवांस में दे चुका होता है और जाते व लौटते वक्त समिति को सहायता राशि यानी चंदा भी देता है. एवज में उसे मिलती है एक समूह यानी जत्थे में रहने की सुरक्षा क्योंकि जम्मू से अमरनाथ तक की पैदल यात्रा वाकई दुरूह और जोखिम भरी है. बालटाल और पहलगाम दोनों रास्तों पर लंगरों की भरमार रहती है.

महंगे भोजनालय – लंगर

जम्मू के भगवतीनगर इलाके में लंगरों की रौनक देखते ही बनती है. श्रद्धालुओं की आमधारणा यह है कि इन लंगरों में खाना मुफ्त में मिलता है जबकि हकीकत यह है कि ये लंगर दुनिया के सब से महंगे भोजनालय साबित होते हैं.

कैसे होते हैं, इसे भोपाल के पान विक्रेता पंडितजी के शब्दों में समझें. उन्होंने जम्मू के एक लंगर में एक दिन दोनों वक्त का खाना खाया था. खाने का मीनू हरेक लंगर में लगभग फिक्स है राजमा, चावल, पूरी, सब्जी और एक मीठा जो आमतौर पर हलवा होता है.

पंडितजी ने एक दिन खाना खा कर लंगर के नीचे बने अस्थायी मंदिर, जहां बर्फानी बाबा की तसवीर लगी थी, के पास रखी दानपेटी में श्रद्धापूर्वक 500 रुपए डाले यानी दान दिए.

निसंदेह यही खाना वे जम्मू के किसी होटल में खाते तो वह 60 रुपए में मिल जाता पर चूंकि जत्थे के साथ गए थे और सारा टूर प्रोग्राम पहले से तय था, इसलिए लंगर में खाना बाध्यता हो गई थी. लाखों श्रद्धालु इसी तरह ठगे जाते हैं जो मानते हैं कि अमरनाथ गए हैं तो दानपुण्य तो करें, खासतौर से उन लोगों को दें जो देश के विभिन्न सूबों से आ कर जम्मू, पहलगाम और बालटाल में लंगर लगा कर सेवा का काम कर रहे हैं.

धर्म और आस्था के अंधे ही तीर्थ के इस कारोबार को सेवा और धर्म का काम कह सकते हैं, वरना यह करोड़ों के मुनाफे वाला धंधा है जिसे 8-10 लोग अमरनाथ यात्रा की समाप्ति के बाद बांट लेते हैं.

इन तीनों जगहों में विभिन्न प्रांतों के लंगर देखे जा सकते हैं. हिंदीभाषी राज्यों के लंगर तो हैं ही, अब दक्षिणी राज्यों के लंगर भी लगने लगे हैं जिन के होर्डिंग्स और हैंडबिल वगैरा जम्मू स्टेशन पर उतरते ही भक्तों को मिल जाते हैं.

उत्तर प्रदेश के बदायूं के रहने वाले युवा संजय जोशी बीते 4 सालों से भगवतीनगर इलाके में लंगर लगा रहे हैं. जब उन से बातचीत की गई तो उन्होंने बताया कि हर साल वे यात्रा के 15-20 दिनों पहले ट्रकों में सामान भर कर भगवतीनगर में डेरा डाल लेते हैं. यही दूसरे राज्यों से आ कर लंगर लगाने वाले करते हैं. उन की भी कोई न कोई समिति या संस्था होती है.

बकौल संजय, डेढ़दो महीने का राशन वे बदायूं से ले कर आते हैं जो वहां के किसानों व व्यापारियों से चंदे की शक्ल में लिया जाता है. पहले लंगर लगाने का कोई शुल्क नहीं था पर पिछले साल से 20 हजार रुपए स्थान आवंटन के लिए जम्मूकश्मीर सरकार लेने लगी है, जिस से लंगर संचालकों में खासा गुस्सा है.

संजय तंबू खींच कर बैठ जाते हैं और समिति के साथ आए दूसरे सदस्य खाना बनाने व परोसने लगते हैं. लंगर बिलकुल फ्री है, संजय बताते हैं, पर सभी यात्री कुछ न कुछ पैसा चढ़ाते हैं जिस से लंगर का खर्च चलता है.

कुल कितना चंदा होता है और कितना चढ़ावा आता है, और एक लंगर लगाने में खर्च कितना आता है, इस सवाल पर चौकन्ने हो कर वे यह कहते बात को टाल जाते हैं कि भगवान के काम में कोई हिसाबकिताब नहीं होता.

दूसरे तमाम लंगर वाले भी यही कहते हैं जिन के स्टालों से दक्षिणा के मुताबिक खाने की महक बढ़ती रहती है. लंगर का धंधा चोखा इस लिहाज से भी है कि अनाज, आटा, तेल, घी, किराना सामान वगैरा सब दान का होता है. नकदी भी लाखों में आती है जिस का बमुश्किल 20-25 फीसदी ही खर्च होता है यानी यह 75 फीसदी मुनाफे का धंधा है. कुख्यात संत आशाराम बापू भले ही बलात्कार के आरोप में जेल में बंद हो पर उस की संस्था अमरनाथ यात्रियों से लाखों रुपए बना रही है.

इस पर भी हास्यास्पद या तरस खाने वाली बात भक्तों और श्रद्धालुओं का यह प्रचार है कि अमरनाथ यात्रा में लंगर मुफ्त मिलते हैं जहां एक से बढ़ कर एक पकवान खाने को मिलता है. इन भोलेभाले, भोले भक्तों को शायद ही कभी यह बात समझ आएगी कि वे 20-25 रुपए के खाने के सौ से ले कर 1 हजार रुपए तक अदा करते हैं.

भोपाल के नजदीक सीहोर के  एक अग्रणी युवा किसान हर साल 2 क्ंिवटल गेहूं और 1 क्ंिवटल अरहर की दाल अमरनाथ के लंगर के लिए एक स्थानीय समिति को दान में देते हैं. इस किसान का कहना है कि सब भगवान ही तो देता है, अब उस में से ही कुछ हिस्सा धर्म के काम में लगा दिया तो क्या हुआ.

अक्ल के मारे ऐसे किसानों पर तरस ही आता है जो बातबात पर सरकार की हायहाय करने का कोई मौका नहीं चूकते पर तीर्थयात्रा के लंगर के लिए 10 हजार रुपए की उपज दरियादिली से दे देते हैं. इन दानी किसानों को क्या किसान आत्महत्या पर किसी को कोसने का हक है, जिन्होंने कभी अपने ही गांव या शहर के किसी गरीब की मदद नहीं की होगी.

यही काम व्यापारी करते हैं शक्कर, दाल, चावल और किराने के दूसरे सामान ये लोग ऐसे दान करते हैं मानो इन के और इन के पूर्वजों के जहाज चलते रहे हों. इन्हीं व्यापारियों, किसानों और नौकरीपेशा लोगों की दान की मानसिकता के चलते केवल अमरनाथ ही नहीं, बल्कि देशभर में लंगरों का कारोबार खूब फलफूल रहा है.

अब तो बातबात पर लंगर हर कहीं लगने लगे हैं रामनवमी, हनुमान जयंती, जन्माष्टमी, नवदुर्गा तो दूर की बात है, बुद्ध और अंबेडकर जयंती पर भी लंगर, दूसरे तरीकों से ही सही, लगना शुरू हो गए हैं. यहां भी लोग दान करते हैं जो मुफ्तखोरों की जेबों में जाता है.

ज्यों की त्यों क्यों बदहाली

जम्मू के भगवतीनगर इलाके में लगने वाले लंगरों के ठीक नीचे एक झुग्गी बस्ती है जिस की आबादी लगभग 20 हजार है. इस बस्ती में झांक कर देखें तो यहां गंदगी और गरीबी के साक्षात दर्शन हो जाते हैं. ये झुग्गी वाले छोटेमोटे काम करते हैं और बच्चे दिनभर श्रद्धालुओं की फेंकी पानी की बोतलें और पौलिथीन बीनते रहते हैं.

इन दरिद्रनारायणों को लंगर में जा कर खाना खाने की इजाजत नहीं है. अगर कोई बच्चा या बड़ा कोशिश भी करे तो उसे लंगर के कार्यकर्ता दुत्कार कर भगा देते हैं. ये वही धार्मिक लोग हैं जो यह प्रचार करते हैं कि भगवान की नजर में सब बराबर हैं.

यह बराबरी हर तीर्थस्थल में देखी जा सकती है. पुरी के जगन्नाथ मंदिर के बाहर लूलेलंगडे़ भिखारियों की फौज खड़ी रहती है. मंदिर परिसर में प्रसाद यानी भोग की इफरात से दुकानें लगी रहती हैं. इसे दुनिया की सब से बड़ी फूड मार्केट कहा जाता है. जहां थोड़े से चावल खाने के एवज में भक्त हजारों रुपए दान में दे आते हैं.

भिखारी क्यों हैं, यह सवाल एक अलग बहस का विषय है. पर भिखारियों के हुजूम तीर्थ और धार्मिक स्थलों पर ही क्यों ज्यादा नजर आते हैं, इस पर बहस की कोई गुंजाइश नहीं. दरअसल, यहां भिखारियों को जानबूझ कर जगह दी जाती है जिस से लोग उन्हें देख सबक ले लें कि वे अगर धर्म और दान नहीं करेंगे तो अगली बार या इसी जन्म में वे भी इसी जगह, इसी भीड़ में कहीं खड़े नजर आएंगे.

अगर धर्म खुशहाली लाता होता तो किसी को भीख मांगने की जरूरत ही नहीं पड़नी चाहिए थी, इस सवाल का जवाब धर्म के कारोबारियों के पास सालों और सदियों पुराना है कि ये भिखारी अपने पिछले जन्मों के पापों की सजा भुगत रहे हैं, ये नास्तिक और अनीश्वरवादी थे. इसलिए इस हालत से बचने के लिए धर्म और दान करते रहो.

कभी कोई यह नहीं सोचता कि अगर दान देना बंद हो जाए तो भगवान के मंदिरों में दुकानें चला रही पंडों की फौज जरूर इसी भीड़ का हिस्सा बन कर रह जाएगी जो दानदक्षिणा के दम पर पूरी, हलवा, खीर पीढि़यों से सूत रही है.

अमरनाथ की गुफा तक सहूलियत से हैलीकौप्टर के जरिए जाने वाले यात्री

8 हजार रुपए हवा में उड़ा देते हैं और इस से 5 गुना ज्यादा लंगरों, जम्मू के वैष्णो देवी और रघुनाथ मंदिर में दान में दे आते हैं.

महिलाओं की बढ़ती भागीदारी

एक वक्त में अमरनाथ जैसे दुर्गम तीर्थस्थलों पर केवल पुरुष ही जाते थे, लेकिन अब अमरनाथ जाने वाले जत्थों में महिलाओं की तादाद लगातार बढ़ रही है.

महिलाएं पुरुषों के मुकाबले ज्यादा धर्मभीरू होती हैं, महज इसलिए ही उन की भागीदारी तीर्थयात्रा में नहीं बढ़ रही, बल्कि सच यह है कि उन की पारिवारिक, आर्थिक और सामाजिक परेशानियां पुरुषों के मुकाबले कहीं ज्यादा हैं, इसलिए वे भी बढ़चढ़ कर तीर्थयात्राएं करने लगी हैं. शिर्डी और तिरुपति में तो महिलाएं पुरुषों से ज्यादा दिखती हैं.

अमरनाथ का माहात्म्य सुन अब महिलाओं को अपनी परेशानियां का हल बर्फानी बाबा में भी दिखने लगा है, तो बात कतई हैरत की नहीं. भोपाल की एक प्रोफैसर 2 साल पहले अमरनाथ एक जत्थे के साथ गई थीं. उन का मकसद था राह भटक चुकी बेटी रास्ते पर आ जाए, यह प्रार्थना करना या मन्नत मांगना.

आज 2 वर्षों बाद भी बेटी हरकतों से बाज नहीं आ रही, तो उन का भरोसा भगवानों से ही उठने लगा है. वे बताती हैं कि बेटी की आजादखयाली के चलते कोई ढंग का लड़का उस से शादी करने को तैयार नहीं. अब तो नौबत यहां तक आ गई है कि बेटी बेशर्मी से कहने लगी है कि जब सारी जरूरतें बगैर शादी के ही पूरी हो जाती हैं तो शादी क्यों करूं.

ये प्रोफैसर केवल अमरनाथ ही नहीं, बल्कि कई तीर्थस्थलों की यात्रा कर चुकी हैं पर समस्या हल नहीं हो रही. बेटी को रास्ते पर लाने के टोनेटोटके और तंत्रमंत्र तक, अनिच्छापूर्वक ही सही, वे कर चुकी हैं.

कोई भारतीय महिला विधवा नहीं होना चाहती. वे केवल सधवा रहने के लिए भी तीर्थयात्राएं करने लगी हैं. जाहिर है विधवा जीवन की दुश्वारियों का एहसास उन्हें है और सामाजिक असुरक्षा सिर चढ़ कर बोलती है. इसलिए वे पति की दीर्घायु के लिए मन्नतें मांगने चारों दिशाओं में घूमने लगी हैं बावजूद यह जाननेसमझने के कि, कोई भगवान या देवीदेवता इस की गारंटी नहीं देता.

तीर्थयात्रा के कारोबारी भी महिलाओं को प्राथमिकता में लेने लगे हैं और लेडीज के लिए अलग से व्यवस्था का प्रचार करते नजर आते हैं. तो इस की अहम वजह महिलाओं की दानप्रवृत्ति या उदार होना है. जो महिलाएं अपने दरवाजे पर आए साधु को खाली हाथ जाने देना भी अधर्म समझती हों, वे तीर्थस्थलों पर जा कर कितनी दरियादिली से पैसा लुटाती होंगी, इस का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है.

हैरत की बात अब खुद महिलाओं का तीर्थयात्रा के कारोबार में शामिल हो जाना है. मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर की एक भाजपा नेत्री का तो यह फुलटाइम कारोबार बन गया है. उन के संपर्क ईश्वर की तरह व्यापक हैं, इसलिए साल में 4 बार वे बस में लोगों को भर कर तीर्थयात्रा कराती हैं.

हालत यह है कि एक तीर्थ करवा कर आती हैं और हिसाबकिताब कर दूसरे की तैयारी शुरू कर देती हैं. जबलपुर के ग्वारी घाट में रोज नर्मदा आरती में शामिल होने वाली इस नेत्री ने पुण्य के इस कारोबार से खासी जायदाद बना ली है और लोकप्रियता भी हासिल कर ली है. अब वे वार्ड मैंबरी के चुनाव की तैयारी कर रही हैं. चूंकि महिला हैं, इसलिए महिलाओं के अलावा पुरुषों का भी सहज विश्वास उन्हें मिला हुआ है कि वे कोई बेईमानी या हेराफेरी दूसरे तीर्थ कारोबारियों की तरह नहीं करेंगी.

महिलाएं व तीर्थयात्रा

इस साल ये नेत्री अमरनाथ जत्था ले कर जा रही हैं. पूछने पर वे बातती हैं कि औरतों में आस्था (धर्मभीरुता नहीं) ज्यादा होती है. ईश्वर उन की गुहार सुनता भी जल्दी है, इसलिए वे अब बढ़चढ़ कर सिद्ध और तीर्थस्थलों की यात्रा करने लगी हैं.

तीर्थयात्रा के मामले में महिलाओं से कोई धार्मिक भेदभाव नहीं होता है तो जाहिर है कारोबारियों को ग्राहक और पैसा चाहिए और उस के लिए कोई शर्त वे नहीं थोपते. धर्म में सुकून ढूंढ़ती महिलाओं की संख्या 90 फीसदी के लगभग आंकी जाती हैं जो तीर्थस्थलों पर शौपिंग भी खूब करती हैं.

जम्मू के रघुनाथ मंदिर परिसर के अंदर लगी कपड़ों की सरकारी दुकान की एक सेल्सगर्ल की मानें तो, ‘‘औरतें खूब बढ़चढ़ कर साडि़यां और सूट खरीदती हैं हालांकि हम से मोलभाव करती हैं पर पंडों से नहीं कर पातीं जो तरहतरह की मनोकामनाओं के लिए मंत्र फूंकते दक्षिणा वसूलते हैं.’’

असमंजस भी कम नहीं

ऐसा भी नहीं है कि लोग अब तीर्थयात्रा का फल नहीं मिलने पर संतुष्ट हो जाते हों या तीर्थयात्रा के दौरान खर्च किए पैसे के मुताबिक सुविधाएं न मिलने पर किलपते न हों.

भोपाल के एक इंजीनियर भी पिछले साल अमरनाथ गए थे पर उन की हिम्मत जम्मू से आगे जाने की नहीं हुई, इसलिए जिस जत्थे के साथ गए थे उसे उन्होंने जाने दिया और खुद जम्मू के एक होटल में पड़े रहे. इस इंजीनियर का कहना है कि घाटी के हालात देख मैं अपनी जान और सुरक्षा के प्रति आश्वस्त नहीं था. रास्ते में कभी भी बर्फ जम जाती है या हिंसा होने लगती है, इसलिए मुझे बेहतर लगा कि मैं वहां न जाऊं जहां सुरक्षा भगवान भी नहीं कर पाते.

कुछ तीर्थयात्रियों के असमंजस सहज हैं और बरकरार हैं जो खर्च किए गए पैसे को निवेश मानते हैं पर गारंटेड रिटर्न नहीं मिलता तो तर्क करने लगे हैं. लेकिन सुधर नहीं रहे तो यह उस जाल की देन है जो सदियों से लोगों के दिलोदिमाग पर बुना जा रहा है.

क्या तीर्थयात्रा से मन्नतें पूरी हो जाती हैं, इस सवाल के जवाब में एक युवती निधि दुबे दोटूक कहती है कि नहीं होतीं. निधि मैडिकल कालेज में दाखिला चाहती थी और इस बाबत वह शिर्डी, तिरुपति और वैष्णोदेवी तक जा चुकी थी पर लगातार 3 साल तक प्रीमैडिकल टैस्ट देने के बाद भी चयन नहीं हुआ तो उसे तीर्थयात्रा की दुकानदारी समझ आने लगी है.

बात सिर्फ असमंजस या अधकचरी दलीलों की भी नहीं है, बल्कि उन अव्यवस्थाओं और परेशानियों को भोगने की भी है जिन का सामना तीर्थयात्रा के दौरान लोगों को होता है. बनारस, पुरी, इलाहाबाद, मथुरा या गया के पंडों की लूटपाट कभी किसी सुबूत की मुहताज नहीं रही. इन और दूसरे तीर्थस्थलों की गंदगी देख भी भक्तों का मन वितृष्णा से भरने लगता है.

अमरनाथ जाने वाले श्रद्धालु पूरे रास्ते सहमे रहते हैं कि जाने कब, क्या अनहोनी हो जाए यानी आस्था की जगह आशंका लेने लगी है जो जयभोले, और हरहर महादेव का मंत्र रटते रहने और जयकारा करते रहने से दूर नहीं हो जाती. हां, अस्थायी रूप से दब जरूर जाती है.

पिछले साल उज्जैन में हुए सिंहस्थ कुंभ के मेले में पसरी गंदगी देख भक्ति का भाव छू होने लगा था तो इस में गलती श्रद्धालुओं की ही थी जो दलालों के जरिए भगवान के बुलावे पर दौड़ तो जाते हैं लेकिन परेशानियों से समझौता नहीं कर पाते. हर तरफ भीड़ है, धक्कामुक्की है, भेदभाव है, लूटपाट है. नहीं है तो मन्नत पूरी होने की गारंटी जिस के लिए लोग पैसे लुटाते हैं.           

अमिताभ की ये हीरोईन याद है आपको?

हिन्दी सिनेमा की एक बेहतरीन और अनुभवी अभिनेत्री, 71 साल की हो चुकीं सुमिता सान्याल की पिछले हफ्ते उनके कलकत्ता के घर में दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई थी.

शायद आपको याद होगा कि सुमिता ने अमिताभ बच्चन अभिनीत सुपरहिट फिल्म ‘आनंद’ और साल 1966 में आई सत्यजीत रे की फिल्म ‘नायक’ में सराहनीय सहायक भूमिकाएं अदी की थी. सुमिता काफी लंबे समय से बीमार चल रही थी और साउथ कलकत्ता के अपने घर में बेटे के साथ रह रहीं थी.

उनकी मृत्यु के बाद बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बेनर्जी उनके परिवार के लोगों, दोस्तों और प्रशंसकों के प्रति सहानुभुति दिखाते हुए, ट्वीट कर उन्हें श्रद्धानजली दी. शोक प्रकट करते हुए उन्होंने हिंदी सिनेमा की एक बेहद होनहार अभिनेत्री के गुजर जाने पर गहरा दु:ख व्यक्त किया.

इनके अलावा बंगाली सुपरस्टार प्रोसेनजीत चटर्जी ने भी उनकी मृत्यु पर ट्वीट कर दु:ख जाहिर किया है. बंगाल राज्य के खेल और युवा मंत्री अरूप बिस्वास ने उनके घर जाकर उन्हें श्रद्धांजली दी और कहा कि सुमिता की मौत फिल्म इंडस्ट्री के लिए ये एक अपूर्णीय क्षति है.

हम आपको बता देना चाहते हैं सुमिता को लगभग हर कोई सुमिता नाम से ही जानता है पर दरअसल में ये उनका असली नाम नहीं था. सुमिता का असल नाम मंजुला सान्याल था. इतना ही नहीं, उनके करियर के शुरुआती दिनों में, निर्देशक बिभूति लाहा ने, उनकी एक फिल्म के लिए उन्हें एक और नाम दिया था सुचोरिता, जो आगे चलकर सुमिता में बदल गया. सुमिता ने उस समय के फिल्म एडिटर सुबोध रॉय से शादी की थी.

सुमिता ने बहुत सी बॉलीवुड फिल्मों में कई यादगार किरदार निभाए हैं. उन्होंने साल 1970 की सुपरहिट फिल्म आनंद में अमिताभ बच्चन के विपरीत जो किरदार निभाया था, उसे आज भी लोग याद करते हैं. साल 1971 में गुलजार की फिल्म ‘मेरे अपने’ में भी उन्होंने बेमिसाल काम किया है. अपने करियर में 40 से अधिक बंगाली फिल्मों में काम करने के साथ-साथ, सुमिता टेलीविजन पर कई सारियल्स और कई थियेटर ग्रुप्स का हिस्सा भी रह चुकी हैं.

अगर किराये पर दें रही हैं अपना मकान तो ध्यान दें

किरायेदार की ओर से अनुचित दावेदारी और लंबे कानूनी विवाद के डर से कई लोग प्रॉपर्टी किराये पर देने से परहेज करते हैं. लेकिन, बिना डरे भी किराये पर प्रॉपर्टी देने का एक तरीका है और वो है लीव ऐंड लाइसेंस अग्रीमेंट.

आइए जानते हैं, क्या है लाइसेंस अग्रीमेंट? इस अग्रीमेंट से लैंडलॉर्ड को क्या फायदा होता है.

किरायेदार को पूरा पजेशन नहीं

लीव ऐंड लाइसेंस अग्रीमेंट के तहत मकान मालिक के पास प्रॉपर्टी में प्रवेश कर इसका इस्तेमाल करने का अधिकार होता है और जिसे प्रॉपर्टी का लाइसेंस दिया गया हो, यानी किरायेदार इसका विरोध नहीं कर सकता. लेकिन, लीज अग्रीमेंट के तहत लैंडलॉर्ड तय अवधि के लिए अपनी प्रॉपर्टी को पूरी तरह इसे लीज पर लेने वाले के हाथों सौंप देता है.

ऐसे होता है अग्रीमेंट

अग्रीमेंट की परिभाषा से कोई छेड़छाड़ नहीं की जा सके, इसके लिए जरूरी है कि आप लीव ऐंड लाइसेंस अग्रीमेंट ही करें, न कि लीज अग्रीमेंट. रेंट अग्रीमेंट में मकान मालिक और किराएदार को लाइसेंसर और लाइसेंसी के तौर पर पेश किया जाना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि जिसने किराए पर प्रॉपर्टी ली, उसे उस पर सिर्फ उसका ही अधिकार नहीं है.

मकान मालिक के पास भी चाबी

एक्सपर्ट्स बताते हैं कि लीज या रेंट अग्रीमेंट से इतर लीव ऐंड लाइसेंस अग्रीमेंट में प्रॉपर्टी के अहाते का अधिकार किरायेदार के पक्ष में नहीं होता है. पजेशन दिखाने के लिए कॉन्ट्रैक्ट में अडिशनल लाइन जोड़ी जाती है कि मकान मालिक के पास भी घर की चाबियां रहेंगी.

मालिकाना हक

प्रॉपर्टी बेचे जाने की सूरत में लीज पर कोई असर नहीं पड़ता है जबकि लीव ऐंड लाइसेंस अग्रीमेंट के तहत किराए पर दी गई प्रॉपर्टी अगर बिक जाए तो पुराने मकान मालिक और किरायेदार के बीच का अग्रीमेंट स्वतः खत्म हो जाता है.

नोटिस पीरियड

मकान मालिक या किरायेदार में जो भी लीज अग्रीमेंट को खत्म करना चाहता है, उसे दूसरे को नोटिस देना पड़ता है. नोटिस पीरियड खत्म होने के बाद ही लीज अग्रीमेंट भी खत्म हो सकता है जबकि लीव ऐंड लाइसेंस अग्रीमेंट में कोई नोटिस पीरियड की जरूरत नहीं होती है.

समझौते का उल्लंघन

समझौते का उल्लंघन होने की स्थिति में लीज अग्रीमेंट किसी भी याचिका या बहस पर भारी पड़ती है जबकि लीव ऐंड लाइसेंस अग्रीमेंट के तहत किसी भी कोर्ट में प्रॉपर्टी के नुकसान के लिए मुआवजे को लेकर मुकदमा किया जा सकता है.

फुहारों के मौसम में ऐसे करें लिपस्टिक का चुनाव

मौनसून के दिनों में मौसम के बदलते मिजाज का असर आपके लुक पर भी पड़ता है और इसी वजह से आपको लिपस्टिक के कलर पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत होती है. मौनसून के मौसम में आपको वॉटरप्रूफ लिपस्टिक का ही इस्तेमाल करना चाहिए. इस मौसम में बेवक्त की बारिश आपके लिप कलर को खराब कर सकती है, इसलिए वॉटरप्रूफ लिपस्टिक का इस्तेमाल आपके लिए बेहतर होगा.

लिपस्टिक चुनते समय सबसे जरूरी बात होती है कि आप कौन से रंग के कपड़े पहनने वाली हैं. हालंकि ये जरुरी नहीं कि हमेशा अपने कपड़ों से मैचिंग की ही लिपस्टिक लगाई जाए, पर कई बार ऐसा न करना आपका लुक बिगाड़ भी सकता है. इसलिए जब भी बाहर जाएं तो ऐसे कलर्स चुनें जिन्हें आप सालभर किसी भी मौसम में और किसी भी जगह पर लगाकर जा सकती हों. अपने लिए लिप कलर चुनते समय आपको मौसम और जिस जगह आपको वो कलर लगाकर जाना है उसका ध्यान रखना चाहिए.

आज हम आपको बताने जा रहे हैं कि तूफानी और बारिश के मौसम में आपको किस तरह की लिपस्टिक या लिप कलर लगाने चाहिए. इन्हें आप कभी भी, किसी भी वक्त और किसी भी जगह लगाकर जा सकती हैं. सबसे खास बात ये है कि ये लिप हर स्किन टोन और लिप शेप को सूट करेगी. तो चलिए हमारे साथ जानिए मौनसून के लिप कलर्स के बारे में.

1. नैचुरल न्यूड लिप कलर

कई महिलाओं को सिंपल रहने से ज्यादा खूब सारा मेकअप करके बाहर निकलना पसंद होता है. ये महिलाएं दूसरों को आकर्षित करने के लिए संज-संवरकर ही घर से निकलना पसंद करती हैं. ऐसी महिलाओं अपनी लुक में चार चांद लगाने के लिए नेचुरल न्यूड लिप कलर लगाना चाहिए. नैचुरल न्यूड लिप कलर आपके नैचुरल लिप कलर को ओवरकोट नहीं करेगा. नैचुरल न्यूड लिप कलर खरीदते समय आपको ग्लॉसी लिपस्टि‍क चुननी चाहिए.

2. मटैलिक लिप कलर

शहरों में लड़कियां लिपस्टिक के मामले में मटैलिक कलर काफी पसंद करती हैं. मौनसून के महीने में मटैलिक कलर की लिपस्टिक आपकी सुंदरता को और भी ज्यादा निखारने का काम करती है. इससे आपके होंठ भी हाईलाईट होते हैं. अगर आप मटैलिक लिप रेंज में जैली कोटिंग चाहती हैं तो आपको इसके शैंपेन शेड को चुनना चाहिए. लिपस्टिक के सेंटर में शैंपेन शेड लगाएं और किनारों पर अपना बेसिक लिप कलर लगाएं. लिपस्टिक लगाने से पहले होठों पर कंसीलर जरूर लगाएं. इससे मटैलिक लिपस्टिक का लुक एकदम परफैक्ट आएगा.

3. कोकोआ चॉकलेटी लिप कलर

रेंज कोकोआ चॉकलेटी लिप कलर की रेंज में आपको भूरे यानि ब्राउन कलर की लिपस्टिक मिलेगी. इस रंग की लिपस्टिक की सबसे खास बात है कि ये किसी भी स्किन टोन के साथ फब जाती है. आपका रंग चाहे गोरा हो या सांवला, ब्राउन बेस्ड लिप कलर हर रंग पर जंचता है. मौनसून में कोकोआ चॉकलेटी लिप कलर को परफैक्ट लुक देने के लिए वॉटरप्रूफ लिपस्टिक ही चुनें. ऑफिस जा रहीं हैं तो कोकोआ चॉकलेटी कलर का डबल कोट लगाएं, वहीं अगर किसी पार्टी या मीटिंग के लिए जा रहीं हैं तो जितना गहरा कोकोआ चॉकलेटी लिपस्टिक का रंग होगा उतनी ही ज्यादा चमक आपके चेहरे की बढ़ेगी.

4. लैवेंडर लिपस्टिक

लैवेंडर लिपस्टिक में इतनी सारी वैरायटियां हैं कि आप कंफ्यूज़ हो जाएंगी. लैवेंडर लिपस्टिक में लाइट प्लम से लेकर डीप पर्पल तक सभी खूबसूरत रंग मिल जाएंगें. मौनसून के महीने में ये रंग काफी अलग और अनोखे दिखते हैं. इससे आपके होंठ शेप में भी दिखते हैं. अगर आपने लैवेंडर लिप कलर का काफी हल्का शेड खरीद लिया है तो परफैक्ट पार्टी लुक पाने के लिए आप इसका ओवरकोट भी लगा सकती हैं. अगर आपके पास गहरा पर्पल शेड है और आप हल्के रंग की लिपस्टिक चाहती हैं तो आपको इसे लगाने से पहले होठों पर थोड़ा लूज़ पाउडर लगाना चाहिए.

5. सदाबहार रंग लाल

साल के किसी भी दिन आप लाल रंग की लिपस्टि‍क लगा सकती हैं. इस रंग की खास बात है कि आप ऑफिस या पार्टी से लेकर घर के किसी निजी कार्यक्रम में भी इसे लगाकर जा सकती हैं. रैड लिपस्टिक तभी लगाएं जब आप इसको लेकर कॉन्फिडेंट हों. अगर आपको ज़रा भी लग रहा है कि ये रंग आपको सूट नहीं कर रहा तो इसे हटा दें.

6. दो लिप कलर्स

आजकल दो लिप कलर्स का फैशन भी खूब चल रहा है. इस ट्रेंड में आप अपने होंठों पर दो रंग की लिपस्टिक लगा सकती हैं. सुनने में थोड़ा अजीब लगता है लेकिन ये काफी अनूठा ट्रेंड है. इसमें आप एक ही रंग के दो शेड या फिर कंट्रास्ट शेड की लिपस्टिक लगा सकती हैं. बाहर जाने से पहले ये एक्सपेरिमेंट खुद पर ही करके देखें. हो सकता है कि ये आपको सूट ना करे इसलिए पहले इसे घर पर ही ट्राई करें. ब्लैक एंड व्हाइट की जगह दो कंट्रास्टिंग शेड चुनेंगी तो ज्यादा बेहतर होगा.

बारिश के समय क्या आपकी मांसपेशियों में भी होता है दर्द?

बारिश के दिनों कई लोगों को थकान, मांसपेशियों में दर्द और शरीर में काफी दर्द होता है. इसलिए इन दिनों अपनी सेहत का ख्याल रखना बहुत जरूरी है.

आज हम आपको बता रहे हैं कुछ ऐसे ही तरीके जो इस मौसम में आपकी मांसपेशियों की अकड़न को रोक सकते हैं.

1. व्हे प्रोटीन का सेवन

इससे आपकी मांसपेशियों का दर्द तो कम नहीं होगा लेकिन मांसपेशियों को जल्दी से ठीक होने में मदद मिलेगी, इसलिए आपको ज़्यादा समय तक दर्द महसूस नहीं होगा. कसरत के पहले और बाद में 10 ग्राम व्हे प्रोटीन लेने से मांसपेशियों में दर्द के लक्षणों को कम करने में मदद मिल सकती है.

2. स्नान में समुद्री नमक का उपयोग

यह दादी-का-नुस्खा मांसपेशियों की पीड़ा को दूर करने के लिए प्रभावी उपाय है. यह शरीर की मांसपेशियों को आराम देनेवाले खनिज मैग्नीशियम की आपूर्ति करके मांसपेशियों को आराम दिलाता है.

3. खाने में विटामिन सी से भरपूर चीजें करें शामिल

क्योंकि यह मांसपेशियों के दर्द को रोकने के लिए प्रभावी है. मिर्च, अमरूद और खट्टे फल भी खाएं जो आपके आहार में विटामिन सी की मात्रा बढ़ाने का काम करेगा. यह आपके शरीर में ऊर्जा के स्तर को बढ़ाने और मांसपेशियों में दर्द से राहत दिलाने का करता है.

4. एक्सरसाइज पर विशेष दें ध्यान

ध्यान रखें कि आप नियमित रूप से स्ट्रेचिंग करते रहें क्योंकि यह रक्त प्रवाह को सुधारने और सूजन को कम करने में सहायता करता है. नियमित रूप से स्ट्रेचिंग एक्सरसाइज और दैनिक शारीरिक गतिविधियां आपको ऐसी परेशानियों से बचाएंगी. दिन में 2 बार स्ट्रेचिंग करने की कोशिश करना अच्छा होता है.

5. इसेंशियल ऑयल की मसाज

इसेंशियल ऑयल से अपनी मांसपेशियों की मालिश करने से आपको मांसपेशियों की पीड़ा से राहत पाने में मदद मिलती है. आप इलांग-इलांग (ylang ylang), पेपरमिंट, लैवेन्डेर, जीरियम और रोज़मेरी जैसे इसेंशियल तेलों से अपनी मांसपेशियों की मालिश कर सकते हैं.

मॉनसून में भी दमकती रहेगी आपकी त्वचा

मॉनसून में ऑयली और पसीने से तरबतर चेहरे व स्किन पर गंदगी जल्दी जमती है, जिससे मुहांसे हो जाते हैं या लाल दाने पड़ जाते हैं. हालांकि रोजाना अच्छी तरह शरीर और त्वचा की सफाई और सही उत्पादों के इस्तेमाल से इन समस्याओं से दूर रहा जा सकता है.

हम बता रहे हैं मॉनसून के मौसम में त्वचा की समस्याओं से निजात पाने के उपाय.

– त्वचा के रोम छिद्रों को हार्ड ऑयल से बचा कर रखें और चेहरे के तैलीयपन को दूर करना न भूलें. चेहरे की सफाई के बाद एस्ट्रिंजर टोनर लगाएं. रूई के फाहे से फिर चेहरे को पोछ ले. आप गुलाब जल और विच हेजल को समान मात्रा में मिलाकर भी चेहरे पर लगा सकती है और फिर थोड़ी देर बाद रूई के फाहे से चेहरे को पोछ लें.

– अगर चेहरे पर दाने, मुहांसे या चकत्ते पड़ गए हैं तो मेडिकेटेड साबुन या क्लिंजर से दिन में दो बार चेहरे को धोएं. दिन में कई बार सादे पानी से चेहरे को धोएं. आप गुलाब के तत्व से युक्त स्किन टोनर भी लगा सकती हैं, जो न सिर्फ त्वचा की सफाई करता है, बल्कि सामान्य एसिड एल्कालाइन बैलेंस भी बनाए रखता है.

– चेहरे पर अगर धब्बे हैं तो धब्बे वाली जगह पर फेशियल स्क्रब लगाएं, लेकिन कील, मुहांसे या दाने होने पर स्क्रब का इस्तेमाल न करें. धब्बे वाली जगह पर गुलाब जल में चावल का पाउडर मिलाकर रोज लगाएं और हल्के हाथों से मलें. पांच मिनट के लिए लगा रहने दें और फिर इसे पानी से धो लें. यह हर सुबह चेहरे को साफ करने के बाद करना चाहिए.

– मॉनसून में बालों में अच्छी कंपनी का शैम्पू और कंडीशनर लगाएं, जिससे बालों में नमी बरकरार रहे. नियमित तौर पर तेल से अच्छे से मसाज करें, जिससे बालों की जड़ें मजबूत होती हैं. आप स्टीमिंग भी कर सकती हैं.

– मॉनसून के दौरान नाखूनों को साफ रखें, ताकि किसी प्रकार की बीमारी या इंफेक्शन नहीं हो. सावधानी के साथ मैनीक्योर और पैडीक्योर कराएं. इस दौरान एंटीसेप्टिक पानी में ही हाथ या पैरों को डुबोएं और उपकरण भी साफ होने चाहिए.

– मॉनसून में पैरों की देखभाल भी करें, ताकि फंगल इंफेक्शन न हों. पैरों को अच्छे से धुलकर व पोछकर टैल्कम पाउडर लगाएं. गर्मी और उमस के दौरान ओपन फुटवेयर पहनें, ताकि ज्यादा पसीना नहीं निकले, इससे आपके पैरों में फंगल इंफेक्शन नहीं होगा.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें