क्या फिल्म ‘तकदुम’ बनेगी?

बॉलीवुड में चर्चा गर्म है कि फिल्मकार होमी अडजानिया की फिल्म ‘‘तकदुम’’ हमेशा के लिए बंद कर दी गयी. वास्तव में गत वर्ष होमी अडजानिया ने परिणीति चोपड़ा और सुशांत सिंह राजपूत को एक साथ लेकर फिल्म ‘तकदुम’ की घोषणा की थी. इस फिल्म की शूटिंग गत वर्ष ही अक्टूबर माह में शुरू होने वाली थी.

मगर कुछ दिन बाद खबर आयी कि होमी अडजानिया की फिल्म ‘‘तकदुम’’ तो पूरी तरह से करण जोहर की फिल्म ‘‘ऐ दिल है मुश्किल’’ की नकल है. उसके बाद इस फिल्म के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग गया. इस बीच सुशांत सिंह राजपूत भी दूसरी फिल्मों में व्यस्त होते चले गए. परिणामतः पिछले कुछ दिनों से बॉलीवुड में आम चर्चा हो रही है कि होमी अडजानिया ने अपनी फिल्म ‘‘तकदुम’’ को हमेशा के लिए ठंडे बस्ते में डाल दिया.

लेकिन अब होमी अडजानिया ने चुप्पी तोड़ी है. होमी अडजानिया का दावा है कि उन्होंने ‘तकदुम’ का निर्माण हमेशा के लिए बंद नहीं किया है, मगर कुछ समय के लिए टाल दिया है. इतना ही नहीं होमी अडजानिया यह तो मानते हैं कि फिल्म के कथानक में कुछ गड़बड़ी के चलते ऐसा हुआ, पर वह यह स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि उनकी फिल्म की कहानी और करण जोहर की फिल्म ‘‘ऐ दिल है मुश्किल’’ की कहानी एक समान लग रही थी.

अब होमी अडजानिया ने कहा है कि ‘‘हमारी फिल्म ‘तकदुम’ की कहानी व पटकथा अंग्रेजी में लिखी गयी थी. जब इसका हिंदी अनुवाद किया गया, तो हमें लगा कि कि कहानी केा जबरन मुंबई में बसाने की कोशिश की गयी हो. यह बात हमारे गले नहीं उतरी. मैंने अपनी तरफ से इसकी कमियों को दूर करने कोशिश की. पर बात जमी नहीं. तो अब इसे हम पुनः लिखवा रहे हैं. जब कहानी व पटकथा का पुनः लेखन पूरा हो जाएगा, उसके बाद हम इस फिल्म का निर्माण करेगें. तब तक के लिए निर्माण कार्य स्थगित किया है.’’

सिर्फ ताजमहल ही नहीं प्रेम का प्रतीक

जीवनसाथी के प्रति प्रेम को संसार में चिरस्मरणीय बनाए रखने के लिए खूबसूरत महल, ऊंचे ऊंचे, बडे़ बड़े शानदार किले, आलीशान मकबरों आदि का बनाना नई बात नहीं है. इस का ज्वलंत उदाहरण ‘महलों का ताज’, भारत के आगरा में बना अद्वितीय प्रेम का प्रतीक, ताजमहल, अपनी सुंदरता, भव्यता एवं आकर्षण के कारण विश्व के ‘सात वंडर्स’ में एक है.

आगरा का ताजमहल अकेला ही एक ऐसे प्रेम का प्रतीक है जिस का कोई मुकाबला नहीं है. भारत के मुगल बादशाह शाहजहां की पत्नी मुमताज की मृत्यु के बाद शाहजहां ने अपने सच्चे प्यार को अमर करने के लिए दुनिया का सब से सुंदर और सर्वश्रेष्ठ महल बनाने की ठान ली थी और इस तरह एक अत्यंत सुंदर, आलीशान महल बन गया जिसे उस की अद्वितीय सुंदरता एवं भव्यता के कारण ताजमहल का नाम दिया है.

यहां हम विश्व के कुछ और शानदार ताजमहलों की बात करेंगे. प्रेम के प्रतीक कई प्रकार के होते हैं. आगरा के ताजमहल को देखने के बाद ऐसे ही अमर प्रेम के और प्रतीकों को देखने का मुझे अवसर मिला.

बोल्ट कैसल

कनाडा में 1,000 आईलैंड्स पर बोल्ट कैसल महल को जौर्ज बोल्ट ने अपनी प्रिय पत्नी लुईस की याद में बनवाया था. 1851 में जन्मा जौर्ज बोल्ट, अमेरिका का एक अरबपति था. बोल्ट अपनी पत्नी लुईस, जिसे वह ‘ब्यूटीफुल प्रिंसैस’ कह कर पुकारता था, को बहुत प्यार करता था. बोल्ट ने 1,000 आइलैंड्स पर लुईस की याद में एक चिरस्मरर्णीय महल बनाने का निश्चय किया. 1900 में इस प्रेम के प्रतीक का बनना शुरू हुआ. शायद उस ने आगरा के ताजमहल का नाम नहीं सुना था.

उस ने उस समय के मशहूर एवं महंगे से महंगे आर्किटैक्ट व करीगरों को इस महत्त्वपूर्ण कार्य में लगाया. बोल्ट ने निश्चय किया कि वैलेंटाइन डे और लुईस के जन्मदिन के अवसर पर उसे इस अपार प्रेम के उपहार को भेंट करेगा. अपने जन्मदिन के ठीक 1 महीने पहले बोल्ट को अकेला छोड़ 42 वर्षीया लुईस अचानक इस संसार को छोड़ कर चली गई. 1904 में बोल्ट कैसल बनाने का काम लुईस की अचानक मृत्यु के कारण बंद कर दिया गया. आज यह 1977 से एक टूरिस्ट केंद्र के रूप में जाना जाता है.

अत्यंत आधुनिक साजसज्जा एवं विश्व के विभिन्न भागों से लाई गई कलाकृतियों से सजा यह कैसल दुनिया के किसी राजमहल से कम नहीं है.

माउसोलस का मकबरा

पति पत्नी के अमरप्रेम के प्रतीक की एक निशानी हमें 377 बीसी में बने माउसोलस के मकबरे के रूप में मिलती है. इस प्यार की यादगार के पीछे की कहानी थोड़ी अलग है. यहां पर महल या मकबरा पति न बनवा कर पत्नी अपने पति के मरने के बाद उस की याद में बनाती है. जिस की अमरप्रेम को निशानी के रूप में दुनिया के उस समय के सब से शानदार मकबरों में गिनती होती है. माउसोलस अपनी रानी अर्टमीसिया के साथ हैलीकारनासस और उस के आसपास के क्षेत्रों में 24 साल तक राज करता रहा. अर्टमीसिया और माउसोलस आपस में इतना प्यार करते थे कि माउसोलस कभी भी अर्टमीसिया के बिना रहने की कल्पना नहीं कर सकता था.

सन 353 बीसी में माउसोलस की अचानक मृत्यु हो गई. रानी अर्टमीसिया ने अपने पति की याद में दुनिया का सब से बड़ा और शानदार बहुमूल्य मकबरा बनाने का निश्चय किया. कई वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद 125 फुट ऊंचा तीनमंजिला मकबरा बन कर तैयार हुआ.

यह मकबरा अपनी सुंदरता, विशालता तथा अद्वितीय शिल्पकला की कृति के कारण विश्व का प्रसिद्ध एवं ऐतिहासिक मकबरा गिना जाने लगा. अपनी सजावट एवं इस में लगी अति सुंदर मूर्तियों के कारण इस की ख्याति में कई गुना वृद्धि हुई. अर्टमीसिया द्वारा अपने पति राजा माउसोलस के प्रति अमरप्रेम के प्रतीक के रूप में बनाए गए इस मकबरे को एंशिएंट वर्ल्ड के सातवें आश्चर्य में गौरवपूर्ण स्थान मिला.

माउसोलस की मृत्यु के 2 वर्ष भी नहीं बीते थे कि अर्टमीसिया की मृत्यु हो गई. पतिपत्नी दोनों के पार्थिव शरीर इसी मकबरे में दफन हैं. अमरप्रेम की निशानी भारत के ताजमहल की तरह दोनों प्रेमियों के शरीर अपने बनाए इस शानदार मकबरे के नीचे शांत पड़े हैं.

हुमायूं का मकबरा

दिल्ली में बने हुमायूं के मकबरे की शानोशौकत ताजमहल से कम नहीं है. मुगल बादशाह हुमायूं की मृत्यु के बाद उस की विधवा हमीदा बानो बेगम ने अपने पति की याद में 1565 में दिल्ली में मथुरा रोड के पास एक आलीशान एवं भव्य मकबरा बनाया. इसे देखने से आप को किसी राजा के आलीशान महल की याद आती है.

यह मुगल साम्राज्य की अद्वितीय वास्तुकला तथा शिल्कला को भारत में फैलाने वाला प्रथम स्मारक है. जिस में पर्शियन निर्माणशैली की छवि दिखती है जो चारों तरफ सुंदर, हरेभरे बगीचों और क्यारियों से घिरा है. यह मकबरा भारतीय उपमहाद्वीप में मुगलों द्वारा बना प्रथम औद्योगिक मकबरा है जो आगे चल कर मुगलों के अनेक स्मारकों को बनाने में प्रेरणा बना. ताजमहल उस में से एक है. 15 लाख रुपयों में बनने वाले हुमायूं के इस मकबरे को ‘ताजमहल का दादा’ भी कहते हैं. दिल्ली का यह एक महत्त्वपूर्ण पर्यटन स्थल है.

हैंगिंग गार्डेंस

हैंगिंग गार्डेंस को बने 2,500 वर्ष से अधिक समय बीच चुका है किंतु अपने समय में बने स्मारकों में यह अपनी खूबसूरती और इस के बनने के पीछे जुड़ी कहानी के कारण इसे ताजमहल की श्रेणी में गिना जाता है.

बेबीलोन का हैंगिंग गार्डेंस ‘सैवन वंडर्स औफ एंशिएंट वर्ल्ड’ में गिना जाता है. बेबीलोन के बादशाह ने इसे 605 बीसी में अपनी प्रिय पत्नी एमिटिस को खुश रखने के लिए बनवाया था. यह प्यार कुछ गहरा, कुछ अनोखा और कुछ दिल की गहराइयों को छूने वाला था. इतिहास में इस तरह के अनोखे प्यार का दूसरा कोई उदाहरण नहीं मिलता. विवाह के पहले एमिटिस हरेभरे मैदान, ऊंचेऊंचे पहाड़, झरने आदि, जो प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर थे, में रहती थी. शादी के बाद मैसोपोटामिया में राजा का महल और उस के आसपास के नीरस स्पौट्स, जो प्राकृतिक सौंदर्य से दूर थे, उसे रास नहीं आते थे. राजा ने अपने दिल की मल्लिका, सौंदर्य सामाज्ञी तथा गुणों की खान एमिटिस की उदासी दूर करने के लिए और उसे प्रसन्न रखने के लिए उसी तरह के पहाड़, हरेभरे जंगल, हरियाली, बागबगीचे आदि बनाने की योजना बनाई जो अंतिमरूप में हैंगिंग गार्डेंस के रूप में सामने आई.

एक कृत्रिम पहाड़ पर बने बड़ेबड़े खोखले खंभों के ऊपर छत, खंभों के अंदर भरी मिट्टी से निकलते पेड़पौधों और छतों को जोड़ती सुंदर कीमती संगमरमर की सीढि़यां, उस पर हरेभरे बगीचे, क्यारियां, पौधे आदि का यह एक मायावी संसार था. जगहजगह ऊंचेऊंचे फौआरे, वाटर फौल्स, विभिन्न प्रकार के रंगों के कई तरह के पुष्पों से सुसज्जित गमलों की सीढि़यों पर लगी कतारें प्राकृतिक सौंदर्य की कमी को सिर्फ पूरा ही नहीं किया बल्कि एक नई अनूठी, झूलती हुई अविश्वसनीय रचना ने एमिटिस के प्रति उस के प्रेम की निशानी को अमर बना दिया.

पति द्वारा पत्नी के प्यार में बनाया यह सुंदर, आकर्षक स्मारक किसी ताजमहल से कम न था. मगर समय के थपेड़ों ने इसे आज एक खंडहर के रूप में परिवर्तित कर दिया है.

इस प्रकार, विश्व के कई कोनों में कई ताजमहल बने, टूटे और इतिहास के पन्नों में गुम हो गए. पर शाहजहां द्वारा मुमताज के प्रति अपने प्रेम के प्रतीक के रूप में आगरा में बनाया गया ताजमहल आज भी सुंदर एवं कलाकृति के सर्वश्रेष्ठ नमूने के रूप में लोगों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है.

इस का चिरयौवन सदियों तक लोगों को अपने मोह में बांध कर रखता रहेगा. विश्व के अनेक देशों के राष्ट्रपति, राजनेता, राजा, महाराजा, प्रिंस आदि विश्व की इस बेजोड़ कलाकृति की एक झलक पाने के लिए अनयास ही यहां खिंचे चले आते हैं.

सावधान : सुरक्षित नहीं बच्चे

देशभर में जिस समस्या को ले कर आएदिन चर्चा होती रहती है और चिंता जताई जाती है उसे ले कर भोपाल के अभिभावक लंबे वक्त तक दहशत से उबर पाएंगे, ऐसा लग नहीं रहा. मार्च के महीने में एक के बाद एक 3 बड़े हादसे हुए जिन में मासूम बच्चियों को पुरुषों ने अपनी हवस का शिकार बनाया. ऐसे में शहर में हाहाकार मचना स्वाभाविक था.

हालत यह थी कि मांएं अपनी बच्चियों को बारबार बेवजह अपने सीने से भींच रही थीं तो पिता उन्हें सख्ती से पकड़े थे. समानता बस इतनी थी कि मांबाप देनों किसी पर भरोसा नहीं कर रहे थे. चिडि़यों की तरह चहकने वाली बच्चियों को समझ ही नहीं आ रहा था कि क्यों मम्मीपापा एकाएक इतना लाड़प्यार जताते उन की निगरानी कर रहे हैं.

समस्या देशव्यापी है. कहीं कोई चिडि़या किसी गिद्ध का शिकार बनती है तो स्वभाविक तौर पर सभी का ध्यान सब से पहले अपनी बच्ची पर जाता है और लोग तरहतरह की आशंकाओं से घिर जाते हैं. बच्चियों के प्रति दुष्कर्म एक ऐसा अपराध है जिस से बचने का कोई तरीका कारगर नहीं होता है.

कैसे सुलझेगी और क्या है समस्या, इसे समझने के लिए भोपाल के हालिया मामलों पर गौर करना जरूरी है कि वे किन हालात में और कैसे हुए.

किडजी स्कूल

भोपाल के कोलार इलाके का प्रतिष्ठित स्कूल है किडजी. किडजी में अपने बच्चों को दाखिला दिला कर मांबाप उन के भविष्य और सुरक्षा के प्रति निश्ंिचत हो जाते हैं.

उस प्ले स्कूल की संचालिका हेमनी सिंह हैं. एक छोटी बच्ची के मांबाप ने उस का नर्सरी में 8 फरवरी को ही ऐडमिशन कराया था. इस बच्ची का बदला नाम परी है. परी जब स्कूल यूनिफौर्म पहन पहली दफा स्कूल गई तो मांबाप दोनों ने उसे लाड़ से निहारा.

पर परी पर बुरी नजर लग गई थी हेमनी सिंह के पति अनुतोष प्रताप सिंह की, जो खुद एक ऐसी ही छोटी बच्ची का पिता है. 24 फरवरी को परी के पिता ने कोलार थाने में अनुतोष के खिलाफ परी के साथ दुष्कर्म किए जाने की रिपोर्ट दर्ज कराई. परी के भविष्य, मांबाप की प्रतिष्ठा और कानूनी निर्देशों के चलते यहां पूरा विवरण नहीं दिया जा सकता पर परी के पिता की मानें तो परी दर्द होने की शिकायत कर रही थी.

परी एक पढ़ेलिखे और खुद को सभ्य समाज का नुमाइंदा व हिस्सा कहने वाले की हैवानियत का शिकार हुई है.

अनुतोष प्रताप सिंह ने अपने रसूख और पहुंच के दम पर मामले को रफादफा करने और करवाने की कोशिश की.

उस के एक आईपीएस अधिकारी से पारिवारिक संबंध हैं, इसलिए पुलिस ने फौरन कोई कार्यवाही नहीं की. उलटे, थाने में उसे राजकीय अतिथियों जैसा ट्रीटमैंट दिया.

इस कांड पर हल्ला मचा और अखबारबाजी हुई, तब कहीं जा कर पुलिस हरकत में आई. उसे ससम्मान हिरासत में लिया गया. शुरुआत में पुलिस यह कह कर आरोपी को बचाने की कोशिश करती रही कि जांच चल रही है, मैडिकल परीक्षण हो गया है, सीसीटीवी फुटेज खंगाले जा रहे हैं लेकिन चूंकि आरोप साबित नहीं हुआ है, इसलिए आरोपी की गिरफ्तारी नहीं की गई है.

जब परी की मैडिकल जांच में दुष्कर्म की आधिकारिक पुष्टि हुई तो 28 फरवरी को पहली दफा पुलिस ने इस वहशी को यौनशोषण का आरोपी माना और उसे कोलार क्षेत्र के गिरधर परिसर स्थित किडजी प्ले स्कूल से गिरफ्तार किया.

परी के नाना ने मीडिया को बताया कि उन की नातिन के गुनहगार को महज इसलिए गिरफ्तार नहीं किया गया

क्योंकि वह कोलार थाना प्रभारी गौरव सिंह बुंदेला का अच्छा दोस्त है. दबाव बढ़ता देख पुलिस विभाग को इस थाना प्रभारी को लाइन अटैच करना पड़ा.

आरोपी को अदालत में संदेह का लाभ मिले, इस बात के भी पूरे इंतजाम पुलिस वालों ने किए. मसलन, एफआईआर में आरोपी की पहचान व्हाट्सऐप के जरिए करवाई गई. 3 साल की एक बच्ची मुमकिन है घबराहट या डर के चलते पहचान में गड़बड़ा जाए और दुष्कर्मी को कानूनी शिकंजे से बचने का मौका मिल जाए, इस के लिए पुलिस ने कोई कसर नहीं छोड़ी जिसे ले कर पुलिस विभाग और सरकार आम लोगों के निशाने पर हैं.

अवधपुरी स्कूल

भोपाल के ही अवधपुरी इलाके के एक सरकारी स्कूल का 56 वर्षीय शिक्षक मोहन सिंह पिछले 4 महीनों से एक 11 वर्षीय छात्रा बबली (बदला नाम) का शारीरिक शोषण कर रहा था. इस का खुलासा 15 मार्च को हुआ.

बकौल बबली, उस के सर (मोहन सिंह) उसे बुलाते थे, फिर कान उमेठते थे और पीठ पर मारते थे. बबली ने यह बात मां को बताई थी पर उन्होंने यह कहते उस की बात पर ध्यान नहीं दिया कि वह पढ़ाई से जी चुराती होगी, इसलिए सर ऐसा करते हैं. बबली की मां मोहन सिंह के यहां नौकरानी थी, इसलिए उस ने कोई बात उन से नहीं की.

एक दिन सर ने बबली को अपने कमरे में झाड़ू लगाने के लिए बुलाया तो वह हैरान हुई कि जब इस काम के लिए मां हैं तो सर उसे क्यों बुला रहे हैं. वह तो पहले से ही उन्हें ले कर दहशत में थी. चूंकि मजबूरी थी, इसलिए वह डरतेडरते मोहन सिंह के कमरे में गई. पर साथ में एक सहेली को भी ले गई. लेकिन मोहन सिंह ने उस सहेली को भगा दिया.

सहेली चली गई तो मोहन सिंह ने अपना वहशी रंग दिखाते हुए कमरा अंदर से बंद कर लिया और जबरदस्ती बबली के कपड़े उतार दिए. इस के पहले वह अपने कपड़े उतार चुका था. इस के बाद उस ने बबली को अपनी तरफ खींच लिया. इसी दौरान किसी ने दरवाजा खटखटाया तो मोहन सिंह ने बबली को धमकी दी कि किसी को कुछ बताया तो स्कूल से निकाल दूंगा. डरीसहमी बबली खामोश रही क्योंकि वह पढ़ना चाहती थी.

मां ने बात नहीं सुनी तो बबली ने बूआ को सारी बात बताई. उन्होंने भाभी को समझाया तो दोनों बबली को ले कर मोहन सिंह के घर गईं जो भांप चुका था कि पोल खुल चुकी है, इसलिए इन्हें देखते ही भाग गया.

जब मामला उजागर हुआ तो पुलिस ने मोहन सिंह के खिलाफ आईपीसी की धाराओं 376 और 342 के तहत मामला दर्ज कर लिया. 5 बच्चों के पिता मोहन सिंह की बड़ी बेटी की उम्र 30 साल है. अवधपुरी के प्राइमरी स्कूल में 15 बच्चियां पढ़ती हैं और 10 लड़के हैं. मोहन सिंह स्कूल का सर्वेसर्वा था. यह स्कूल 2 साल पहले शुरू हुआ है जिस में पढ़ने वाले छात्र गरीब घरों के हैं. बबली के पिता की मौत हो चुकी है और 7 भाईबहनों में यह छठे नंबर की है.

मोहन सिंह का मैडिकल देररात हुआ जबकि बबली और उस की मां, बूआ दोपहर साढ़े 4 बजे से देररात तक अवधपुरी थाने में भूखीप्यासी बैठी रहीं.

यानी पुलिस ने इस मामले में कोई गंभीरता नहीं दिखाई तो उस की मंशा पर सवालिया निशान लगना स्वभाविक है. दूसरी कक्षा में पढ़ रही छात्रा के साथ उस का शिक्षक अश्लील हरकतें करता था और दुष्कर्म भी किया, यह बात भी संवेदनशील पुलिस की निगाह में कतई नहीं थी.

शातिर दुष्कर्मी

15 मार्च के दिन एक और मासूम बच्ची, नाम आफिया, उम्र 6 वर्ष, ने फांसीं लगा कर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली. आफिया की 3 बड़ी बहनों के मुताबिक, हादसे की शाम मम्मी सब्जी लेने बाजार गई थीं तब उस ने ऊपर कमरे में जा कर फांसी लगा ली.

भोपाल के लालघाटी इलाके के नजदीक के गांव बरेला निवासी अफजल खान मंगलवारा इलाके में चिकन शौप चलते हैं. घर में उन की पत्नी और 4 बेटियां रहती हैं.

एक 6 साल की बच्ची फांसी लगा कर जान दे सकती है, यह बात किसी के गले उतरने वाली नहीं थी. मौके पर पुलिस पहुंची तो कमरे में बहुत से कपड़े बिखरे पड़े थे. लोगों का यह शक सच निकला कि परी और बबली की तरह आफिया भी दुष्कर्म की शिकार हुई है और जुर्म छिपाने की गरज से उस की हत्या कर दी गई है.

शौर्ट पीएम रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि हुई कि बच्ची के प्राइवेट पार्ट में जख्म हैं और उस के साथ प्राकृतिक व अप्राकृतिक कृत्य हुआ है. जाहिर है उस की मौत को खुदकुशी का रंग देने की कोशिश की गई थी जबकि 6 साल की बच्ची फांसी के फंदे की उतनी मजबूत गांठ नहीं लगा सकती जितनी की लगी हुई थी और दरवाजा खोल कर खुदकुशी नहीं करती.

आफिया के मामले में भी पुलिस की कार्यप्रणाली लापरवाहीभरी और शक के दायरे में रही. 15 मार्च को पुलिस की तरफ से कहा गया कि संभवतया उस के साथ बलात्कार नहीं हुआ है क्योंकि उस के प्राइवेट पार्ट पर कोई जख्म नहीं था.

4 दिनों में रिपोर्ट बदल गई तो सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि मासूमों के असुरक्षित होने की बहुत सी वजहों में से एक, पुलिस की भूमिका भी है. 22 मार्च को पुलिस वालों ने साबित भी कर दिखाया कि इस अबोध ने खुदकुशी की थी. उस की हत्या नहीं की गई थी. और न ही किसी तरह का दुष्कर्म उस के साथ हुआ था.

इन तीनों मामलों से उजागर यह भी हुआ कि लड़कियां कहीं सुरक्षित नहीं हैं, किसी ब्रैंडेड स्कूल में भी नहीं, न ही सरकारी स्कूल में और उस जगह भी जो सुरक्षा की गारंटी माना जाता है यानी घर में.

अबोध लड़कियां मुजरिमों के लिए सौफ्ट टारगेट होती हैं और हैरत की बात है कि अधिकांश दुष्कर्मी अधेड़ होते हैं और बच्ची अकसर इन के नजदीक होती हैं. इन्हें जरूरत एक अदद मौके की होती है जिस के लिए वे किसी इमारत को ज्यादा महफूज मानते हैं. खुले पार्क, सुनसान या फिर हाइवे पर बच्चियों के साथ दुष्कर्म के हादसे अपेक्षाकृत कम होते हैं.

एकांत इस तरह के हादसों में एक बड़ा फैक्टर है तो जाहिर है भेडि़ए की तरह घात लगाए ये दुष्कर्मी काफी पहले अपने दिमाग में बलात्कार का नक्शा खींच चुके होते हैं.

जब भी एकांत मिलता है तब वे अपनी हवस पूरी कर डालते हैं. साफ यह भी दिख रहा है कि अबोध लड़कियों के दुष्कर्मियों को किसी श्रेणी में रखा जा सकता. वे सूटेडबूटेड सभ्य से ले कर गंवारजाहिल कहे और माने जाने वाले तक होते हैं. कुत्सित मानसिकता के स्तर पर इन में कोई फर्क नहीं किया जा सकता.

क्या करें

भोपाल के हादसों से स्पष्ट हुआ कि मांबाप ने सावधानियां भी रखीं और लापरवाहियां भी की. परी और बबली के उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि अगर बच्ची किसी शिक्षक या दूसरे पुरुष के बाबत शिकायत कर रही है तो उसे किसी भी शर्त पर अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए.

भोपाल में मार्च के पूरे महीने इन मामलों की चर्चा रही पर कोई हल नहीं निकला. सारी बहस पुलिस की कार्यप्रणाली और दुष्कर्मियों की मानसिकता के इर्दगिर्द सिमट कर रह गई.

एक गृहिणी वंदना रवे की मानें तो वे 2 बेटियों की मां हैं और इन हादसों के बाद से व्यथित हैं. पर उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा.

क्या सरकार सभी बच्चियों की हिफाजत की गारंटी ले सकती है, इस सवाल का जवाब भी शीशे की तरह साफ है कि नहीं ले सकती. इस मसले पर सरकार के भरोसे रहना व्यावहारिक नहीं है.

एक व्यवसायी रितु कालरा का कहना है कि बलात्कारियों को तुरंत फांसी पर चढ़ाया जाना जरूरी है जिस से दूसरे लोगों में खौफ पैदा हो और वे दुष्कृत्य करने से डरें.

लेखिका विनीता राहुरकर इस बात से सहमति जताते कानूनी सख्ती पर जोर देती यूएई की मिसाल देती हैं कि वहां इस तरह के मामले न के बराबर होते हैं जबकि हमारे देश क्या, शहर में ही, यह आएदिन की बात हो चली है. कुछ महिलाओं ने पौर्न साइट्स के बढ़ते चलन को इस की वजह माना तो कइयों ने पुरुषों के कामुक स्वभाव को इस के लिए जिम्मेदार ठहराया.

एक कठिनाई यह है कि अब एकल परिवारों के चलते कामकाजी मांबाप हमेशा चौबीसों घंटे बच्चों से चिपके नहीं रह सकते. इसी बात का फायदा दुष्कर्मी उठाते हैं. उन में और घात लगाए बैठे हिंसक शिकारियों में वाकई कोई फर्क नहीं होता, इसलिए रितु और विनीता की बात में दम है.

अगर अनुतोष प्रताप सिंह को अपराध साबित होने के 72 घंटों के अंदर फांसी दे दी गई होती तो

क्या मोहन सिंह की हिम्मत बबली के  साथ दुष्कर्म करने की होती. हालांकि निर्णायक तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता पर संभावना इस बात की ज्यादा है कि हां, वह हिचकता.

3 साल की परी को क्यों अदालत ला कर बयान देना पड़े, यह बात भी विचारणीय है कि दुष्कर्म के ऐसे मामलों में मां के बयान ही काफी हों.

क्या यह सभ्य समाज की निशानी है कि 3 साल की एक मासूम बच्ची, जो दुष्कर्म जैसे घृणित अपराध का शिकार हुई, को ही मुजरिमों की तरह अदालत में जाना पड़ा जहां वह दीनदुनिया से बेखबर, कागज की नाव से खेलते प्रतीकात्मक तौर पर यह बताती रही कि औरत की जिंदगी तो दुनिया में आने के बाद से ही कागज की नाव सरीखी होती है. पुरुष की कुत्सित मानसिकता का जरा सा प्रवाह ही उसे डुबो देने के लिए काफी है.

अपराधी को अपनी बात कहने, बचाव करने या सफाई का मौका ही न देना मुमकिन है कानूनन और मानव अधिकारों के तहत ज्यादती लगे पर यह हर्ज की बात नहीं. एकाध बेगुनाह फांसी चढ़ भी जाए तो बात ‘कोई बात नहीं’ की तर्ज पर हुई मानी जानी चाहिए. बजाय इस के कि बच्ची का बलात्कार होने के बाद ‘ऐसा तो होता रहता है’ कह कर अपनी सामाजिक जिम्मेदारी पूरी हुई मान ली जाए. एक मासूम के प्रति यह विचार नहीं रखना चाहिए कि वह किसी बदले, प्रतिशोध या किसी तरह के लालच के लिए पुरुष को फंसाने की बात सोच पाएगी.

कमजोरी, धर्म और महिलाएं

लड़कियां सुरक्षित नहीं हैं, इस का सीधा सा मतलब यह शाश्वत सत्य है कि औरतें शारीरिक, सामाजिक और आर्थिक तौर पर कमजोर हैं. भोपाल की महिलाएं मानने को तैयार नहीं और देश की अधिसंख्य महिलाएं भी इस बात से सहमत नहीं होंगी कि महिलाओं के प्रति असम्मान और अपमान की शाश्वत मानसिकता में धर्म का बड़ा हाथ है. औरतों को तरहतरह से बेइज्जत करने के मर्द के डीएनए धर्म की देन हैं.

धर्म कहता है, स्त्री भोग्या है, पांव की जूती है, शूद्र है. फिर यही धर्म नारीपूजा का ढोंग करने लगता है. उसे देवी बताने लगता है. बात छोटी बच्चियों की करें तो नवरात्र के दिनों में घरघर में उन का पूजन होता है. उन्हें हलवापूरी खिलाया जाता है और उपहार व नकदी भी दी जाती है.

यह विरोधाभास देख लगता है कि बलि का बकरा तैयार किया जा रहा है. भोपाल के दुष्कर्म के मामलों के संदर्भ में यही धर्मशोषित महिलाएं चाहती हैं कि कृपया धर्म को बीच में न घसीटें, क्योंकि यह आस्था का विषय है.

पारिवारिक, सामजिक, प्रशासनिक और राजनीतिक वजहों से परे महिलाओं को अपनी दुर्दशा को धर्म के मद्देनजर भी देखना होगा, तभी बच्चियों की सुरक्षा को ले कर किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है.

आस्था की दुहाई देने वाली महिलाएं खुद दोयम दरजे की जिंदगी जी रही हैं तो क्या खाक  वे बच्चियों की सुरक्षा पर ठोस कुछ बोल पाएंगी. असल दोष पुरुष की मानसिकता का है जो कानून या राजनीति से नहीं, बल्कि धर्म से होते हुए समाज में आई है.

लड़कियों को पैदा होते ही मार दिया जाता था और अब तकनीक होने के चलते कोख में ही उन की कब्र बना दी जाती है. इन बातों की धर्म के मद्देनजर खूब आलोचना हुई कि लोग लड़का इसलिए चाहते हैं कि वह तारता है. अब बारी यह सोचने की है कि अब कहीं ऐसा इसलिए तो नहीं किया जा रहा कि मांबाप में यह डर बैठ गया हो कि जब वे बच्ची को सुरक्षित नहीं रख सकते तो उसे दुनिया में क्यों लाएं.

औरतें शिक्षित तो हुई हैं पर पर्याप्त जागरूक नहीं हो पाई हैं. अपने अधिकारों की उन की लड़ाई 8 मार्च के दिन ही शबाब पर होती है. वह भी शोपीस जैसी ही. न तो वे स्वाभिमानी हो पाई हैं और न ही आत्मनिर्भर हो गई हैं.

भोपाल के हादसों को ले कर कोई धरनाप्रदर्शन नहीं हुआ. खुद को मुख्यधारा में मानने वाली महिलाएं क्लबों और किटी पार्टी में व्यस्त रहीं. ऐसे में इन से क्या उम्मीद की जाए, सिवा इस के कि उन्हें इस समस्या से कोई सरोकार नहीं.

बच्चियां इस सांचे में इस लिहाज से फिट बैठती हैं कि उन्हें हिफाजत देने वाला पुरुष खुद बागड़ बन कर खेत को खा रहा है और कानून के नाम पर हायहाय मचाई जाती है जो आंशिक तौर पर सच भी है. पुरुष की सामंती और उद्दंड मानसिकता का धर्म के आगे नतमस्तक होना, मासूम बच्चियों को वासना की खाई में ढकेलने जैसी ही बात है.

कैसे हो हिफाजत

क्या मासूमों को हवस के इन शिकारियों से बचाया जा सकता है, यह सवाल बेहद गंभीर है जिस का जवाब यह निकलता है कि नहीं, आप कुछ भी कर लें, पूरे तौर पर बच्चियों को इन से बचाया नहीं जा सकता.

यह निष्कर्ष जाहिर है बेहद निराशाजनक है. पर ऐसे हादसों की संख्या कम की जा सकती है, इस के लिए इन टिप्स को ध्यान में रखना चाहिए :

–       बच्ची को अकेला कभी न छोड़ें.

–       किसी परिचित या अपरिचित पर कतई भरोसा न करें.

–       स्कूल में वक्तवक्त पर जा कर बच्ची की निगरानी करें.

–       बच्ची भयभीत या गुमसुम दिखे तो तुरंत उसे भरोसे में ले कर प्यार से उसे टटोलने की कोशिश करें कि माजरा क्या है. ऐसी हालत में उस के प्राइवेट पार्ट देखे जाना भी हर्ज की बात नहीं.

–       चाचा ने भतीजी से या मामा ने किया भांजी का बलात्कार, जैसी हिला देने वाली खबरें अब बेहद आम हैं. जिन के चलते नजदीकी रिश्तेदारों पर ज्यादा ध्यान देना जरूरी है कि कहीं उन की निगाह बच्ची पर तो नहीं. उन की बौडी लैंग्वेज और हरकतें देख अंदाजा लगाया जा सकता है कि कहीं इस तरह का कोई कीड़ा उन के दिमाग में तो नहीं कुलबुला रहा.

–       उसे अकेला न खेलने दें, निगरानी करते रहें, अंधेरा होने के बाद घर से बाहर न जाने दें, जैसी सावधानियों के साथ अहम बात यह है कि स्कूल में उस की 6-8 घंटे की जिंदगी है. इसलिए स्कूल चाहे प्राइवेट हो या सरकारी, यह जरूर सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि वहां महिला कर्मचारियों की संख्या ज्यादा हो और इमारत में हर जगह सीसीटीवी कैमरे लगे हों.

–       स्कूल बस के कंडक्टर और ड्राइवरों की इस लिहाज से निगरानी करते रहना चाहिए कि इन्हें लड़कियों के प्राइवेट पार्ट्स से छेड़छाड़ करने का पूरा मौका मिलता है. अब जरूरत महसूस होने लगी है कि लड़कियां जिस वाहन में जाएं उस में एक महिला कर्मचारी की नियुक्ति अनिवार्य हो.

–       लड़की को अगर होस्टल या झूलाघर में छोड़ना पड़े, तो उस की सतत निगरानी जरूरी है. बीते दिनों एक वीडियो वायरल हुआ था जिस में होस्टल या अनाथाश्रम में एक महिला एक छोटी बच्ची को जानवरों की तरह पीट रही थी. यह किस देश की घटना है, वीडियो से स्पष्ट नहीं है पर महिला बेहद व्याभिचारी भी है, यह भी दिखता है कि परपीड़न में उसे सुख मिलता है.

फर्जीवाड़ा डौट कौम

हम भारतीय हर माने में देश को अमेरिका बनाना चाहते हैं, पर यह नहीं देखते कि अमेरिका ने किस तरह अपनी एक टौप की ऐनर्जी कंपनी ‘एनरौन’ के खातों में घपला पाए जाने पर न सिर्फ कंपनी के मालिक को पकड़ कर जेल में डाल दिया, बल्कि इस की नीलामी से मिले पैसे धोखाधड़ी के शिकार निवेशकों में बांट दिए. अमेरिका ही नहीं, इंडस्ट्री के बल पर चल रहे दक्षिण कोरिया में दुनिया की 35वीं अर्थव्यवस्था के बराबर ताकत रखने वाली इलैक्ट्रौनिक्स कंपनी सैमसंग के मालिक ली जी योंग के साथ इस साल की शुरुआत में ऐसी रगड़ाई की खबरें आई थीं कि उन के बारे में हमारे देश में कल्पना तक नहीं की सकती.

यहां के उद्योपतियों के साथ वैसा बरताव होने पर कई राजनीतिक दल ही उन का पक्ष ले कर हंगामा करने सड़कों पर उतर आए. यहां तो हाल यह है कि विजय माल्या जैसा फ्रौड व्यक्ति बैंक अधिकारियों के साथ सांठगांठ कर करोड़ों रुपए ले कर विदेश भाग गया और उस से हुए नुकसान की भरपाई के लिए देश पर नोटबंदी थोप दी गई. इसी तरह वोडाफोन ने भारत में 12 अरब डौलर लगा कर हचिंसन को खरीद लिया, लेकिन टैक्स के रूप में एक पैसा तक सरकारी खजाने में जमा नहीं किया. ताजा उदाहरण साल की शुरुआत में पकड़ में आए साइबर ठगी मामले में महज 3 लोगों ने मिल कर नोएडा में चिटफंड कंपनी के रूप में 37 अरब का औनलाइन फर्जीवाड़ा कर डाला और सरकार को इस फर्जीवाड़े की खबर तक न हुई. यदि धोखाधड़ी के शिकार कुछ लोगों ने शिकायतें दर्ज न कराई होतीं, तो शायद यह घोटाला खरबों की रकम डकारने के बाद भी न रुकता. ध्यान रहे कि शारदा घोटाले में 17.4 लाख लोगों से 20 हजार करोड़ रुपए, रोज वैली में 60 हजार करोड़ और सहारा मामले में 36 हजार करोड़ रुपए की धोखाधड़ी की गई थी, कोई शक नहीं कि सोशल ट्रेड के नाम पर ठगी का यह सिलसिला 3,700 करोड़ रुपए के पार जा कर कहीं थमता, अगर कुछ लोगों ने इस की शिकायत न की होती.

वैसे तो इंटरनैट के प्रचारप्रसार का दौर शुरू होने के बाद लगातार यह कहा जाता रहा है कि भविष्य की सब से बड़ी चुनौती आपराधिक साइबर गतिविधियां ही होंगी, जिन से इंटरनैट के माध्यम से संचालित होने वाली इन आपराधिक और आतंकी गतिविधियों को कोई व्यक्ति या संगठन देशदुनिया और समाज को नुकसान पहुंचाने की चेष्टा करे. अभी तक देश में इस तरीके से कई गैरकानूनी काम हुए हैं, जैसे औनलाइन ठगी, बैंकिंग नैटवर्क में सेंध, लोगों खासकर महिलाओं को उन के गलत प्रोफाइल बना कर परेशान करना.

सोशल नैटवर्किंग के जरिए एक किस्म की पोंजी स्कीम (चिटफंड कंपनी जैसी योजना) चलाने का यह पहला बड़ा मामला है जो नोएडा में पकड़ में आया. नोएडा लाइक स्कैम नामक इस साइबर घोटाले का खुलासा यूपी एसटीएफ ने फरवरी के आरंभ में यह कहते हुए किया कि देशभर के करीब साढ़े 6 लाख लोगों से सोशल ट्रेड के नाम पर एक कंपनी ने 3,700 करोड़ रुपए ठग लिए हैं.

इस फर्जीवाड़े में 3 लोगों को गिरफ्तार करते हुए एसटीएफ ने दावा किया था कि एब्लेज इंफो सौल्यूशंस नाम की कंपनी नोएडा से अपना औफिस संचालित कर रही थी. यह कंपनी सोशल ट्रेड डौट बिज के नाम पर निवेशकों से मल्टी लैवल मार्केटिंग के जरिए डिजिटल मार्केटिंग के लिए पैसा ले रही थी, जिस में कंपनी के केनरा बैंक खाते में जमा 524 करोड़ रुपए सीज किए गए. कंपनी पर पड़े छापे में एसटीएफ को साढ़े 6 लाख लोगों के फोन नंबर डाटाबेस में मिले, जबकि 9 लाख लोगों के पहचानपत्र बरामद किए गए.

एसटीएफ ने कंपनी पर छापा मार कर कंपनी के निदेशक अनुभव मित्तल, सीईओ श्रीधर प्रसाद और तकनीकी प्रमुख महेश को गिरफ्तार किया. अनुभव मित्तल पुत्र सुनील मित्तल हापुड़ जनपद के पिलखुवा का

रहने वाला है, जबकि कंपनी का सीईओ श्रीधर पुत्र पीएस रमया मूलरूप से विशाखापट्टनम निवासी है और फिलहाल नोएडा के 53बी, सैक्टर-53 में रह रहा था. एसटीएफ द्वारा गिरफ्तार तीसरा अभियुक्त कंपनी का टैक्निकल हैड महेश दयाल पुत्र गोपाल मथुरा जनपद के थाना बरसाना क्षेत्र स्थित कमई गांव का रहने वाला है. इस मामले में केनरा बैंक के एक मैनेजर की गिरफ्तारी हुई.

फर्जीवाड़े को कैसे दिया अंजाम

यों तो कंपनी ने दावा किया कि उस ने अपने निवेशकों से मिले अधिकतर पैसे निवेशकों को लौटा दिए थे पर जिस तरह से कंपनी के खातों में सैकड़ों करोड़ रुपए मिले, उस से साफ है कि कंपनी कुछ और रकम जमा होने के बाद यहां से रफूचक्कर हो जाती और इस में फंसे लाखों लोग हाथ मलते हुए रह जाते.

हालांकि निवेशकों से पैसा लेने की इस कंपनी की स्कीम शारदा, सहारा और रोज वैली जैसी पोंजी स्कीमों से काफी अलग थी. कंपनी की स्कीम लेने वालों को तयशुदा रकम देने पर एक विशेष आईडी के जरिए सोशल ट्रेड डौट बिज पोर्टल से जोड़ा जाता था और उन्हें अपनी आईडी पर दिखने वाले विज्ञापनों को फेसबुक और ट्विटर की तरह रोजाना ‘लाइक’ यानी क्लिक करना पड़ता था, जिस के बदले प्रति लाइक रकम देने का वादा था. ‘घर बैठे कुछ वैबसाइट लिंक्स पर क्लिक करें और बदले में अच्छे पैसे कमाएं’, इस स्लोगन के साथ कंपनी ने कुछ ही समय में लाखों लोगों को अपने साथ जोड़ लिया था. आईडी यानी सदस्यता हासिल करने के लिए कंपनी सोशल ट्रेड डौट बिज पोर्टल से जोड़ने के नाम पर 5,750 रुपए, 11,500 रुपए, 28,750 रुपए तथा 57,500 रुपए सदस्यता के तौर पर लेती थी. आईडी मिलने पर जब सदस्य पोर्टल पर मिलने वाले लिंक को लाइक करता था, तो उसे एक लाइक पर कंपनी सदस्य के खाते में 5 रुपए के हिसाब से पेमैंट करती थी. यही नहीं, अन्य पोंजी स्कीमों की तरह इस योजना में भी हर सदस्य को 21 दिन में अपने साथ 2 और लोगों को जोड़ना होता था, जिस के बाद सदस्य को पोर्टल पर रोजाना मिलने वाले लिंक दोगुने हो जाते थे.

सदस्यों को शुरुआत में रोजाना पेमैंट दी जाती थी, लेकिन बाद में उसे साप्ताहिक कर दिया जाता था. इस के अलावा सदस्यों को प्रमोशनल इनकम के रूप में भी कुछ रकम देने का झांसा दिया जाता था.

हालांकि कंपनी दावा करती थी कि वह विभिन्न कंपनियों के विज्ञापनों को लाइक कराने के बदले ज्यादा रकम पाती थी, जिस में से अपना हिस्सा काट कर वह बाकी सदस्यों में बांट देती थी, पर सचाई यह है कि यह कंपनी खुद ही इस तरह के फर्जी विज्ञापन डिजाइन कर के पोर्टल पर डालती थी और नए सदस्यों से हासिल रकम का कुछ हिस्सा पुराने सदस्यों को वापस करती थी.

कंपनी की मनशा फर्जीवाड़े की ही थी, इस का खुलासा इस बात से होता है कि सरकारी जांच एजेंसियों की पकड़ से बचने के लिए यह कंपनी कुछ समय से लगातार नाम बदल रही थी.

कंपनी में लोगों का भरोसा तेजी से बढ़ने के पीछे की वजह यह थी कि असल में मामूली रकम लगाने के बाद इस में कोई विशेष दिमागी काम तो करना ही नहीं था. बस, घर बैठे मोबाइल या कंप्यूटर पर दिखने वाले लिंक्स पर क्लिक करने के मोह ने दिल्लीएनसीआर से ले कर विदेशों में बैठे लोगों को भी आकर्षित किया.

यही नहीं, जब नवंबर, 2016 में कंपनी के एक समारोह में बौलीवुड अभिनेत्री सन्नी लियोनी और अमीषा पटेल जैसी अभिनेत्रियां शामिल हुईं तो लोगों का भरोसा और पुख्ता हो गया. यही वजह है कि इस के झांसे में आए लोगों ने एक नही कई अकाउंट खोल रखे थे और कुछ ने तो क्लिक की मेहनत करवाने के लिए भी 300-400 रुपए रोजाना दे कर लड़के तक रख लिए थे. सब से आश्चर्यजनक बात तो यह है कि इस कंपनी का फर्जीवाड़ा सामने आने के बाद भी लोग इस के समर्थन में मुहिम चलाते रहे.

आंखों में धूल झोंकने की नीयत

यह कंपनी कैसे लोगों की आंखों में धूल झोंक रही थी, इस का खुलासा इस बात से हुआ कि पोर्टल पर विज्ञापनों के जिन लिंक्स के खुलने का दावा किया जाता था, खुद क्रिएट करती थी, जबकि कंपनी का दावा था कि लिंक उसे विज्ञापनदाता कंपनियां भेजती हैं.

शुरुआती जांच में ही नोएडा पुलिस ने साफ कर दिया कि इस में विज्ञापनदाता कोई थर्ड पार्टी नहीं थी. कंपनी के पोर्टल पर दिखने वाले सभी लिंक फर्जी होते थे जो लाइक के बाद कंपनी के सर्वर में डंप कर दिए जाते थे. कंपनी सिर्फ पैसा बनाने के लिए मल्टी लैवल मार्केटिंग के जरिए अपनी जेब भर रही थी.

खास बात यह है कि देश में इस तरह की मल्टी लैवल मार्केटिंग पर मनी सर्कुलेशन ऐक्ट, 1978 के तहत प्रतिबंध लगा है, लेकिन बावजूद इस के न तो ऐसी फ्रौड कंपनियों पर कोई प्रतिबंध है और न ही उन से धोखा खाने वालों का सिलसिला रुक रहा है. सोशल ट्रेड बिज से पहले स्पीक एशिया और क्यू नैट जैसी कंपनियां इसी तरह मल्टी लैवल मार्केटिंग के नाम पर लोगों को चूना लगा चुकी हैं.

व्यक्तिगत लालच एक वजह

इंटरनैट और सोशल मीडिया पर ठगी के दर्जनों तरीके हैं जिन के जरिए लोगों को फंसाया जाता है और उन से रकम ऐंठी जाती है. लौटरी का झांसा देना, किसी दूसरे मुल्क में वसीयत में छोड़ी गई संपत्ति आप के नाम ट्रांसफर करने के बदले फीस मांगना, विदेश से आए तोहफे की ड्यूटी चुका उसे आप तक पहुंचाना, क्रैडिट व एटीएम कार्ड की हैंकिंग जैसी अनगिनत वारदातें तकरीबन रोज होती हैं और एक किस्सा बंद होते ही साइबर ठगी का कोई दूसरा नया उदाहरण हमारे सामने उपस्थित हो जाता है.

ऐसे हादसे साबित करते हैं कि इंटरनैट और सोशल मीडिया के इस्तेमाल के बारे में सजगता का सारा मामला एकतरफा है. लोग इंटरनैट का इस्तेमाल करना तो सीख गए हैं, पर उस के विभिन्न मंचों पर क्याक्या सावधानियां बरतें, इस का उन्हें कोई आइडिया ही नहीं है. सरकार भी कानून पर कानून तो बनाती है, पर उस के पहरुओं की नींद तब टूटती है. जब अरबों का घोटाला हो चुका होता है और लाखों लोग अपनी पूंजी गंवा चुके होते हैं. 

वैसे साइबर ठगी की इस बड़ी घटना की 2 अहम वजह हैं. एक तो यह कि सूचना प्रौद्योगिकी के मामले में भारत खुद को अगुआ मानता रहा है, उस के आईटी ऐक्सपर्ट दुनियाभर में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुके हैं और अमेरिका के कैलिफोर्निया में स्थापित सिलीकौन वैली की स्थापना तक में भारतीय आईटी विशेषज्ञों की भूमिका मानी जाती है.

साइबर खतरों को भांपते हुए सरकार 2013 में राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा नीति जारी कर चुकी है, जिस में देश के साइबर सुरक्षा इंफ्रास्ट्रक्चर की रक्षा के लिए प्रमुख रणनीतियों को अपनाने की बात कही गई थी. इन नीतियों के तहत देश में चौबीसों घंटे काम करने वाले एक नैशनल क्रिटिकल इन्फौर्मेशन प्रोटैक्शन सैंटर (एनसीईआईपीसी) की स्थापना शामिल है, जो देश में महत्त्वपूर्ण इन्फौर्मेशन इंफ्रास्ट्रक्चर की सुरक्षा के लिए एक नोडल एजेंसी के रूप में काम कर सके.

सवाल है कि क्या इन उपायों को अमल में लाने में कोई देरी या चूक हुई है अथवा यह हमारे सूचना प्रौद्योगिकी तंत्र की कमजोर कडि़यों का नतीजा है कि एक ओर हैकर जब चाहे सरकारी प्रतिष्ठानों की वैबसाइट्स ठप कर रहे हैं और दूसरी ओर साइबर आतंकी भी अपनी गतिविधियां चलाने में सफल हो रहे हैं?

जो सरकार और पुलिस ठगी की बड़ी घटना के बाद संदिग्ध लोगों की धरपकड़ से ले कर उन के नैटवर्क का पता लगाने में मुस्तैद नजर आती है, वह किसी कंपनी के कामकाज शुरू करने से पहले यह पड़ताल क्यों नहीं करती कि आखिर वह किस तरह का काम कर रही है? क्या कंपनी ऐक्ट उसे ऐसी जानकारियां लेने से रोकता है या फिर सरकार का काम सिर्फ कागजी खानापूर्ति मात्र है?

सवाल कमाई के ऐसे आसान तरीके खोजने और उस में अपनी पूंजी फंस कर सिर पीटने वाली युवापीढ़ी से भी है, जो वैसे तो बेरोजगारी का रोना रोती है, लेकिन आसान काम के बदले बड़ी रकम के लालच में फंस जाती है. युवा यह क्यों नहीं सोचते कि किसी जरिए से उस के पास थोड़ेबहुत पैसे आते हैं, तो वह उन का इस्तेमाल ऐसे गैरकानूनी कामों में करती है जो आगे चल कर मुसीबत करते हैं. ऐसे लोगों के दिमाग में यह बात क्यों नहीं आती कि मात्र एक क्लिक के बदले कोई भी कंपनी 5-7 रुपए क्यों दे रही है, जबकि उस से किसी किस्म की आर्थिक सेवा का सर्जन नहीं हो रहा है?      

निवेश से पहले की सावधानियां

यदि आम लोग किसी भी वित्तीय योजना अथवा निवेश कराने वाली कंपनी में पैसा लगाने से पहले कुछ सावधानियां बरतें, तो ठगे जाने से बच सकते हैं :

–       कंपनी के कामकाज पर नजर डालें कि क्या वे जमा कराई गई रकम या ली गई फीस के बदले कोई विश्वसनीय सेवा कर रही हैं या कोई व्यवसाय कर रही हैं.

–       कंपनी के उच्चाधिकारियों के बारे में पूरी तरह से जांचपड़ताल करें. यह देखें कि उन का प्रोफैशनल अनुभव क्या है? क्या पहले उन्होंने इस तरह की कंपनियों या चिटफंड कंपनियों का संचालन किया है?

–       कंपनियों के उच्चाधिकारियों की राजनीतिक नहीं, वित्तीय पोजिशन देखी जाए. यह पता करने की कोशिश हो कि कंपनी की कुल परिसंपत्तियां क्या हैं. यदि कंपनी के उच्चाधिकारी किसी प्रकार की धोखाधड़ी कर के भागते हैं तो क्या उन की परिसंपत्ति बेच कर निवेशकों का पैसा लौटाया जा सकता है?

–       निवेश पर रिटर्न की दर की तुलना मार्केट रेट से की जानी चाहिए. यह जरूर देखा जाए कि अन्य वित्तीय कंपनियां क्या रिटर्न दे रही हैं.

–       बाजार विशेषज्ञों की राय अवश्य ली जानी चाहिए और शुरुआत में छोटी रकम का ही निवेश करना चाहिए. 

‘सेठजी’ के लिए तैयार होने में 1-2 घंटे लगते हैं

जब हम किसी हीरो-हीरोइन को बना ठना देखते हैं तो लगता है कि हमें भी उसके जैसा दिखने के लिये वैसी ही ड्रेस पहननी चाहिये. असल में हीरो-हीरोइन अपनी जरूरतों के हिसाब से ड्रेस, ज्वेलरी पहनते हैं और मेकअप करते हैं. सही मायनों में वह अपने को रिलैक्स फील करने के लिये कैजुअल ड्रेस ही पसंद करते है.

जीटीवी के टीवी शो सेठजीमें देवी का किरदार निभा रही प्राची ठक्कर कहती हैं, यह शो महाराष्ट्र के एक गांव की पृष्ठभूमि पर बना है. इसमें हैवी साड़ी, हैवी ज्वेलरी के साथ शुद्ध मराठी तानाबाना होता है. इस किरदार के गेटअप में आने में मुझे एक से दो घंटे का वक्त लग जाता है. अगर कोई ऐपीसोड फेसिटवल का होता है तो यह समय और भी अधिक लग जाता है.

सेठजीमें अपने किरदार के विषय में प्राची ठक्कर कहती हैं मेरा किरदार पहले के किरदारों से पूरी तरह से अलग है. ग्रे शेड लिये हुये निगेटिव जैसा किरदार है. पूरी तरह से ड्रामा से भरपूर है. मेरे पहले के शो रोने धोने वाले रहे हैं. यह कॉमेडी से भरपूर शो है. यह अलग टाइप का कैरेक्टर है. मुझे पूरी उम्मीद है कि दर्शक मुझे पसंद करेंगे. मेरा महाराष्ट्रियन लुक लोगों को खूब पसंद आ रहा है. मुम्बई की रहने वाली प्राची ठक्कर ने इसके पहले कसौटी जिदंगी’, ‘कागज की कश्ती’, ‘तू कहे अगर’, ‘हवनऔर नीली छतरी वालेजैसे कई सीरियलों में काम कर चुकी हैं.

प्राची ने शादी के बाद ऐक्टिंग की दुनिया में कदम रखा. वह अपने परिवार के जरूरतों को देखते हुये अभी भी समय समय पर ब्रेक लेती रहती है. प्राची के पति पंकित ठक्कर टीवी एक्टर हैं. एक पार्टी में प्राची को एकता कपूर ने देखा और उनको कसौटी जिदंगी में राखी का रोल ऑफर किया. इसके बाद प्राची को कई शो मिलने लगे.

जब वह पहली बार गर्भवती हुई तो टीवी की दुनिया से ब्रेक लिया. बच्चे की देखभाल करने के बाद वह समय निकालकर कुछ विज्ञापन फिल्मों और शूटिंग में काम करती रही. उसमें समय कम लगता है.

प्राची कहती हैं करियर के साथ परिवार भी बहुत जरूरी है. ऐसे में जरूरत के हिसाब से समय को मैनेज करने का प्रयास करती हूं. यही मेरी प्राथमिकता है. देवी के किरदार में मुझे जिस तरह की टेंपल ज्वेलरी पहनने को दी गई है वह मुझे बहुत पसंद है. मुझे अपना यह किरदारी ग्रे, फनी और लाउड लगता है. इसलिये बहुत पसंद है.

हलके बालों के लिए हेयरस्टाइल

अधिकांश युवतियां हलके बाल होने के कारण बालों को खुला रखने या किसी प्रकार का हेयरस्टाइल बनाने में हिचकिचाती हैं, वे समझ नहीं पातीं कि उन पर कौन सा हेयरस्टाइल सूट करेगा, जिस से स्कैल्प नजर न आए, क्योंकि हलके बालों के साथ यह दिक्कत आती है कि अगर पार्टिशन किया जाए या सैक्शन निकाला जाए तो स्कैल्प नजर आने लगता है.

ऐसे ही हलके बालों को खूबसूरत लुक देने के लिए हेयरस्टाइलिस्ट पूनम चुघ बता रही हैं कुछ खास हेयरस्टाइल जो आप को डिफरैंट व स्टाइलिश लुक देंगे:

यंगस्टर पार्टी हेयरस्टाइल

सब से पहले इयर टू इयर पार्टिशन करें, फिर पीछे के बालों को ले कर पोनीटेल बना लें. अब पोनी के बीच में राउंड डोनट लगाएं और पिन से अच्छी तरह फिक्स करें ताकि डोनट हिले नहीं. इस के बाद डोनट पर बालों को फैला दें और ऊपर से रबड़ बैंड लगा दें. अब आप इस में से थोड़े से बाल ले कर ट्विस्ट करें, राउंड सर्कल में ऐसे ही करें. अंत में पिन से अच्छी तरह फिक्स करें ताकि बाल निकलें नहीं.

इस के बाद आगे के दोनों भागों से बाल ले कर अच्छी तरह कंघी करें. फिर साइड के बालों को 2 भागों में बांटें और ट्विस्ट ऐंड टर्न कर बन के पास पिन करें. अब सैंटर के बालों से छोटेछोटे सैक्शन ले कर ट्विस्ट करें और बन के पास पिन करें. अंत में ऐक्सैसरीज से डैकोरेट करना न भूलें.

फ्लावर हेयरस्टाइल

इयर टू इयर पार्टिशन करने के बाद पीछे के बालों को ले कर साइड पोनीटेल बना लें. अब आगे के बालों से छोटेछोटे सैक्शन ले कर बैक कौंबिंग करें. बैक कौंबिंग के बाद ऊपर से बालों को क्लीन कर के रबड़ लगा लें. रबड़ लगाने के बाद एल शेप में पिन लगाएं ताकि पफ खराब न हो.

अब पफ के नीचे के बालों को ले कर चोटी बनाएं और एक साइड से लूज कर लें. फिर अंदर की साइड जहां लूप नहीं निकाला गया है उस साइड से रोल कर के पिन्स अच्छी तरह से लगाएं.

इस के बाद साइड पोनीटेल में हेयर ऐक्सटैंशन लगाएं. अगर ऐक्सटैंशन कलरफुल हो तो हेयरस्टाइल अट्रैक्टिव लगता है इसलिए कोशिश करें ऐक्सटैंशन कलरफुल हो. अब पोनीटेल को 2 भागों में बांटें. एक सैक्शन ले कर चोटी बनाएं. फिर एक साइड से हलका हलका लूज कर लें और अंदर की तरफ मोड़ कर पिन लगाएं. फिर दूसरे सैक्शन में भी ऐसा ही करें. अंत में खूबसूरत ऐक्सैसरीज से फिनिशिंग दें.             

फौरमल हेयरस्टाइल

इयर टू इयर पार्टिशन करने के बाद आगे के बालों में हेयर रोलर लगाएं और हेयर स्प्रे कर थोड़ी देर के लिए छोड़ दें. अब साइड के छोटे छोटे बालों को ट्विस्ट कर के रबड़ बैंड लगा लें.

इस के बाद सारे बालों को ले कर पोनीटेल बना लें. अब पोनी से छोटेछोटे सैक्शन ले कर बैक कौंबिंग करें. बैक कौंबिंग हो जाने के बाद साइड से रोल कर के पिन्स लगा लें. अब हलकाहलका खींच लें और साइड में ला कर पिन लगाएं. अंत में आगे के बालों से हेयर रोलर निकाल कर साइड पार्टिशन करें.

नौट लूप हेयरस्टाइल

इयर टू इयर पार्टिशन के बाद डोनट को सी शेप में काट लें. अब फ्रंट के बालों को सी शेप डोनट में रैप कर के पीछे पिन लगा लें. अब दोनों साइड छोड़े गए बालों को भी रैप कर लें. इस के बाद पीछे के बालों में पोनी कर के डोनट लगाएं, डोनट को पिन से फिक्स करें फिर नौट लूप बनाएं और डोनट पर फिक्स करें.

क्रिम्प पफ हेयरस्टाइल

कुछ नया करना चाहती हैं तो आगे के सैक्शन में क्रिम्पिंग मशीन से क्रिम्प करें. क्रिम्प करने के बाद यह न सोचें कि काम खत्म हो गया बल्कि एकदम हलके हाथों से बैक कौंबिंग कर के पफ बना लें. अब पीछे के बालों को ले कर पोनीटेल बनाएं और पोनी में डोनट लगाएं फिर पिन से अच्छी तरह से सैट करें. फिर डोनट के पास से बाल ले कर ट्विस्ट ऐंड टर्न करें फिर रोल कर के डोनट के ऊपर लगाएं. पूरे बालों में इसी तरह से करें और हां, अंत में ऐक्सैसरीज लगाना न भूलें.

कुछ जरूरी टिप्स

आगे के हलके बालों में बैक कौंबिंग छोटेछोटे सैक्शन ले कर करें, इस से पफ सही से बनता है.

हलके बालों में कभी भी हैवी ऐक्सैसरीज न लगाएं, क्योंकि यह बालों में टिकती नहीं है.

जब भी हेयरस्टाइल बनाएं तो बाल अच्छी तरह से वाश करें ताकि हेयरस्टाइल में नीटनैस नजर आए.

हेयरस्टाइल में क्लिप का इस्तेमाल कम से कम करें.

ऐक्टिंग के लिए पढ़ाई जरूरी नहीं : दिशा परमार

छोटी सी उम्र में दिल्ली से मुंबई जैसे महानगर में कदम रखने वाली दिशा को बंधी बंधाई परिपाटी पर चलना पसंद नहीं. उन्हें बचपन से ही सजनेसंवरने का शौक था. इसीलिए उन्होंने ऐक्टिंग को अपना कैरियर बनाया.

स्लिमट्रिम दिशा की सादगी उन के कपड़ों और मेकअप से साफ झलकती है. हैवी मेकअप से परहेज करने वाली दिल्ली की दिशा पर ऐक्टिंग का ऐसा जनून सवार हुआ कि 16 साल में ही पढ़ाई को अलविदा कह ऐक्टिंग से नाता जोड़ लिया.

दिल्ली की गलियों में शौपिंग करने और दही भल्ले खाने के मजे को दिशा मुंबई आने पर बहुत मिस करती हैं. शो ‘प्यार का दर्द है मीठा मीठा, प्यारा प्यारा’ से अपने कैरियर की शुरुआत करने वाली दिशा से उन के नए शो ‘कोई अपना सा’ के इवैंट पर मुलाकात के दौरान कुछ सवाल जवाब हुए.

कम उम्र में ऐक्टिंग की शुरुआत से बीच में पढ़ाई छोड़ने का कोई असर पड़ा?

मैं जब 12वीं कक्षा में थी तभी मुझे पहला शो मिल गया. तब मुझे पढ़ाई और ऐक्टिंग में से एक को चुनना पड़ा, क्योंकि दोनों एक साथ नहीं हो सकते थे. लेकिन मैं मानती हूं कि ऐक्टिंग के लिए पढ़ाई जरूरी नहीं है. हमारी इंडस्ट्री में कई ऐसे सितारे हैं, जो कम पढ़े लिखे होने के बावजूद आज बुलंदियों पर हैं. आमिर खान को ही देख लीजिए. वे 12वीं कक्षा पास हैं पर फिल्म इंडस्ट्री में टौप पर हैं. ऐक्टिंग पढ़ाने वाली चीज नहीं है और न ही इसे कोई सिखा सकता है. यह तो सैल्फ ग्रूमिंग से ही आती है.

तो जो एनएसडी और एफटीआईआई से आते हैं वे कौन होते हैं?

मैं आप की बात मानती हूं कि एनएसडी में अभिनय की बारीकियों को सिखाया जाता होगा, लेकिन आप ही बताएं कि कितने लोग हैं, जो एनएसडी और एफटीआईआई से निकल कर फिल्मों में हैं. इन की संख्या बहुत कम है. ज्यादातर को मौका नहीं मिलता. हालांकि मैं उन्हें अपने से बहुत अच्छा कलाकार मानती हूं. लेकिन उस कला का क्या फायदा जिसे दिखाने का मौका ही आप को न मिले.

थिएटर के मुकाबले टीवी में काम करना कितना आसान है?

मुझे थिएटर का ज्यादा ऐक्सपीरिएंस नहीं है, क्योंकि मैं ने बचपन में ही स्कूल थिएटर में भाग लिया था. मुझे नौन स्टौप बोलने से बड़ा डर लगता है. सैकड़ों की भीड़ में बिना कट के बोलना बहुत ही कठिन काम है. लेकिन टीवी में भी काम करना उतना आसान नहीं है. हफ्ते में रोज 12 से 14 घंटे बिना रुके शूटिंग करना कोई आसान काम नहीं. हम लोग एक दिन में 12 सीन तक शूट करते हैं, क्योंकि डेली सोप की शूटिंग रोज होती है. इस में तो हमें यह भी मालूम नहीं होता कि अगले दिन कहानी में क्या बदलाव आने वाला है.

डेली सोप में किसी तरह की तैयारी करने का या रोल पर खास वर्क करने का समय नहीं मिलता है, क्योंकि शौट से 15 मिनट पहले ही स्क्रिप्ट हाथ में दी जाती है. तभी पता चल पाता है कि क्या करना है. लेकिन फिल्मों में ऐसी मारामारी नहीं है. वहां एक दिन में एक ही सीन शूट हो पाता है.

रिश्तों में कितना विश्वास रखती हैं?

हर शख्स का किसी न किसी से रिश्ता जरूर है. मैं व्यक्तिगत जीवन में रिश्तों को बहुत महत्त्व देती हूं. मैं आज भी अपना कोई भी काम मम्मी पापा से पूछे बिना नहीं करती. फिर हमारा शो भी रिश्तों के ताने बाने पर आधारित है, जिस में मेरा जाह्नवी का कैरेक्टर भी बहुत कुछ मेरी निजी जिंदगी के करीब है. मैं भी जाह्नवी की तरह भूत, भविष्य में विश्वास नहीं करती. बिंदास हूं, कमजोर नहीं और न ही जीवन की कठिनाइयों में आंसू बहाती हूं.

पंखुड़ी से जाह्नवी किस तरह अलग है?

दोनों में जमीन आसमान का अंतर है. ‘प्यार का दर्द है’ की पंखुड़ी तो बिलकुल ही बात नहीं करती थी. हमेशा गुमसुम सी खयालों में खोई रहती थी पर जाह्नवी ठीक इस के विपरीत है. वह कभी चुप नहीं बैठती. हमेशा फिल्मों का कोई न कोई डायलौग सुनाती रहती है. हां, जो दोनों में समानता है वह है फैमिली को प्यार करना. मैं निजी जिंदगी में पंखुड़ी के ज्यादा करीब हूं, क्योंकि मैं बहुत सीधीसादी सिंपल गर्ल हूं. मुझे ज्यादा शो औफ करना और बोलना पसंद नहीं है. शुरू में तो बहुत ही कम बात करती थी. अब जब सैट पर जाने लगी हूं, तो बोलने भी लगी हूं.

पहले शो के बाद 3 साल तक कहां गायब रहीं?

यह 3 साल का ब्रेक मैं ने कुछ प्लान करने के लिए ही लिया था पर वह प्लानिंग फेल हो गई, इसलिए वापस टीवी में आ गई. इस के पहले मेरे पास ‘गुलाम’ और ‘एक था राजा एक थी रानी’ के भी प्रस्ताव आए थे, लेकिन फाइनली मैं उन का हिस्सा न बन सकी. लेकिन मैं जैसी कहानी चाहती थी वैसी जब मुझे इस शो की लगी, तो मैं ने तुरंत हां कर दी.

आप अपने होने वाले जीवनसाथी में क्या देखेंगी?

अभी तो ऐसा कुछ नहीं सोचा है. हां, अगर कोई मिलता है तो मैं चाहूंगी कि वह तमीज वाला जरूर हो. वह सच्चा हो, दूसरों की इज्जत करने वाला हो, क्योंकि मुझे घर में बचपन से यही सिखाया गया है कि अगर इज्जत दोगे तो इज्जत मिलेगी और यही मैं अपने पार्टनर में चाहती हूं.

कोई फिल्म मिलती है तो किस तरह का रोल करने की तमन्ना है?

मैं फिल्म ‘दिलवाले दुलहनिया ले जाएंगे’ में सिमरन वाला रोल करना चाहती हूं. जब यह फिल्म आई थी तब मैं बहुत छोटी थी, लेकिन तब से ले कर अब तक मैं इसे कई बार देख चुकी हूं. काजोल और शाहरुख की मैं बहुत बड़ी फैन हूं.

खाली समय में क्या करती हैं?

मुझे शौपिंग करना बहुत पसंद है. जब भी मौका मिलता है, तो शौपिंग करने निकल जाती हूं. मैं फैशन ट्रैंड पर नजर रखती हूं और अपडेट रहती हूं. ट्रैंड में रहना ही मेरा स्टाइल मंत्र है. कुछ भी मैं नहीं पहन सकती. मैं ऐसे कपड़े पहनती हूं जिन में सहज महसूस कर सकूं. हैवी मेकअप मुझे बिलकुल पसंद नहीं है. अपना ज्यादा समय अपने साथी कलाकारों के साथ बिताती हूं, इसलिए कि वे सभी मेरे दोस्त हैं.

प्रकृति प्रेमियों को लुभाता मांडू

चांदनी रात में दूर दूर तक पहाडि़यों और ऐतिहासिक महत्त्व की इमारतों को देखने का आनंद अगर कहीं देखने में आता है तो वह जगह मांडू है. प्रकृतिप्रेमियों को मांडू हमेशा से ही आमंत्रित करता रहा है. अद्भुत शांति के लिए मशहूर मांडू में आ कर लगता है कि शहरों की व्यस्त भागादौड़ी और आपाधापी भरी जिंदगी के मुकाबले एक ऐतिहासिक प्रेम कहानी को गुंजते इस स्थल की बात ही निराली है.

एक रोचक किस्सा

रूपमती अपने नाम के मुताबिक असाधारण रूप से सुंदर थी. वह एक किसान की बेटी थी. मुगल शासक बाज बहादुर उस के सौंदर्य पर ही नहीं मरमिटा था, बल्कि रूपमती गाती भी बहुत अच्छा थी. धर्म की परवा न करते उस ने रूपमती से शादी की थी. रूपमती के सौंदर्य और गायन के चर्चे जब अकबर तक पहुंचे तो उस ने बाज बहादुर को संदेश पहुंचाया कि रूपमती को उस के पास दिल्ली भिजवा दिया जाए. इस पर पतिधर्म निभाते बाज बहादुर ने जवाब यह दिया कि वे अपनी रानी को मांडू भिजवा दें.

इस बात पर तिलमिलाए अकबर ने मांडू पर हमला कर दिया और बाज बहादुर को बंदी बना लिया. वह रूपमती तक पहुंच पाता, इस के पहले ही रूपमती ने हीरा खा कर अपनी जान दे दी थी. इस प्यार और त्याग को अकबर ने समझा तो वह बहुत पछताया और बाज बहादुर को आजाद कर दिया. पर बाज बहादुर रूपमती को इतना चाहता था कि उस ने रूपमती की कब्र पर सिर फोड़ फोड़ कर जान दे दी थी. कहा यह भी जाता है कि अकबर का सेनापति आदम खां भी रूपमती पर जान देता था.

मध्य प्रदेश की औद्योगिक राजधानी इंदौर से लगभग 90 किलोमीटर दूर स्थित मांडू तक पहुंचना थोड़ा तकलीफदेह काम है. हालांकि यह तकलीफ मांडू में दाखिल होने के साथ ही खत्म हो जाती है जब यहां की हरियाली और रमणीयता से पर्यटक रूबरू होते हैं.

मांडू की हर इमारत की एक दास्तान है, उस का शिल्प है, इतिहास है और अंजान चुंबकीय खिंचाव है जो बरबस ही पर्यटकों को एहसास कराता है कि वे अगर यहां न आते तो एक यादगार अनुभव से वंचित रह जाते. आदिवासी बाहुल्य जिले धार के इस कसबे की आबोहवा भी पर्यटकों को ताजगी व स्फूर्ति से भर देती है.

जब पर्यटक यहां घूमना शुरू करते हैं तो औसतन हर आधा किलोमीटर पर इमारत में चस्पां एक कहानी उन का इंतजार कर रही होती है. नर्मदा किनारे बसे इस पर्यटन स्थल का सब से बड़ा आकर्षण बाज बहादुर शाह का महल है जिस का निर्माण 15वीं ईसवी में एक मुगल शासक नासिर शाह ने करवाया था. लाल पत्थरों से निर्मित इस महल का भीतरी उत्तरी भाग संगमरमर से बना है. ऐसे ही एक संगमरमरी झरोखे से बाज बहादुर जंगलों को देखता था.

मांडू के वैभव का एक दूसरा उदाहरण रूपमती महल है. नासिर शाह द्वारा ही बनवाए इस महल की छत से हरियाली और धुंध का दृश्य पर्यटकों का मन मोह लेता है. ऐसा कहा जाता है कि रानी रूपमती प्रतिदिन इस महल की छत से नर्मदा नदी का दर्शन कर के ही अन्नजल ग्रहण करती थी. बाज बहादुर और रूपमती के प्रेम का साक्षी यह महल 3 मंजिला है और संकरा है जिस की छत तक पहुंचने के लिए झुक कर चढ़ना पड़ता है. बारिश के दिनों में जब नर्मदा नदी उफान पर होती है तब यहां का दृश्य काफी मनोरम हो जाता है. चारों तरफ से धुआं सा उठता दिखता है.

मांडू के महल और इमारत देखने के लिए एक दिन काफी नहीं, हालांकि अधिकांश पर्यटक दिनभर में मांडू घूम लेते हैं क्योंकि वे इंदौर में ठहरते हैं. पर रात में मांडू देखने का लुत्फ कुछ और है, खास कर चांदनी रात में.

हिंडोला महल, होशंगशाह का मकबरा, अशरफी महल, जहाज महल, रेवा कुंड, तवेली महल और दाई का महल जैसी दर्जनों इमारतें मांडू की शान बढ़ाती हैं.

मांडू छोटा सा कसबा है जिस में रात 8 बजे के बाद चहलपहल खत्म सी हो जाती है. इसलिए घूमने के लिए सुबह जल्द उठ कर जाना बेहतर होता है. किराए की साइकिल से मांडू घूमना किफायत का काम है. यहां स्थानीय वाहन कम ही मिलते हैं और दूरदराज की इमारतों तक जाने से चालक कतराते हैं.

एक मुसलिम शासक बाज बहादुर और हिंदू रानी रूपमती की प्रणय गाथा को उकेरता मांडू वाकई रोमांटिक स्थल भी है जिस पर फिल्म भी बन चुकी है. भ्रमण के दौरान आदिवासी जीवन की सरलता और सहजता भी समझ आती है. आदिवासियों द्वारा निर्मित कई छोटी वस्तुएं यहां मिलती हैं. महेश्वर की मशहूर साडि़यां भी यहीं मिलती हैं.

रुकें ओंकारेश्वर में

इंदौर से मांडू आते वक्त रास्ते में ओंकारेश्वर रुक कर जरूर घूमना चाहिए जहां नर्मदा नदी पूरे वेग से बहती है. ओंकारेश्वर की प्राकृतिक छटा भी दर्शनीय है. कईर् फिल्मों की शूटिंग यहां हो चुकी है और अभी भी अकसर होती रहती है. मांडू से जब पर्यटक वापस लौटते हैं तो उन के साथ अटूट स्मृतियां होती हैं, जेहन में यहां की हरियाली, अद्भुत शांति, झूमते पेड़ और शानदार भव्य इमारतें होती हैं.

इंदौर से मांडू सड़क के रास्ते आना उपयुक्त रहता है. अब पर्यटक वर्षा ऋतु में भी यहां आने लगे हैं क्योंकि उस वक्त यहां की खूबसूरती और लहलहाते जंगल की खूबसूरती शबाब पर होती है. बारिश में ओंकारेश्वर का नजारा निराला होता है.

सोनाक्षी ने ‘नूर’ को बॉक्स ऑफिस पर डुबाया !

बॉलीवुड में हर शुक्रवार कलाकार की तकदीर बदलती है. यूं तो हमने इस फिल्म की समीक्षा में ‘नूर’ द्वारा बॉक्स ऑफिस पर लागत वसूल करने पर संषय व्यक्त किया था, लेकिन सोनाक्षी सिन्हा की फिल्म ‘नूर’ की तो बॉक्स ऑफिस पर हमारी सोच से भी ज्यादा बुरे हालात हैं. हमने समीक्षा में लिखा था कि सोनाक्षी सिन्हा पत्रकार के किरदार में फिट नहीं बैठी. उनकी परफॉर्मेंस बहुत गड़बड़ है. और अब ‘नूर’ के प्रदर्शन के बाद बॉलीवुड में लोग सवाल उठा रहे हैं कि क्या वास्तव में सोनाक्षी सिन्हा में अभिनय के गुण नहीं हैं?

बॉलीवुड में जो चर्चाएं हो रही हैं, उसके ठोस वजहें हैं. सोनाक्षी सिन्हा पिछले तीन वर्षों से लगातार असफल फिल्में देती आ रही हैं. उनकी पिछली बुरी तरह असफल हुई फिल्म ‘‘अकीरा’’ ने पहले दिन बॉक्स ऑफिस पर पांच करोड़ कमा लिए थे, मगर ‘नूर’ तो पहले दिन बॉक्स ऑफिस पर महज एक करोड़ 54 लाख ही कमा सकी. दूसरे दिन यानी कि शनिवार व छुट्टी के दिन भी यह फिल्म महज एक करोड़ 89 लाख ही कमा सकी. सोनाक्षी सिन्हा को अपने अभिनय करियर को लेकर नए सिरे से सोचने की जरुरत है.

पूरे देश में 1450 स्क्रीन्स/सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई फिल्म ‘‘नूर’’ को दर्शक नहीं मिल रहे हैं. शुक्रवार की सुबह इस फिल्म को देखने के लिए पूरे देश में महज दस प्रतिशत दर्शक ही थिएटरों में मौजूद रहें. मुंबई व उससे सटे भायंदर उपनगर के कुछ सिनेमाघरों में सुबह के शो में ‘नूर’ देखने लिए महज पांच प्रतिशत दर्शक ही मौजूद रहे. तीसरे दिन रविवार को शाम तक जो खबरें मिली, उसके अनुसार रविवार की छुट्टी के बावजूद फिल्म की कमाई में गिरावट आ गयी.

बॉलीवुड से जुड़े सूत्र तो सवाल कर रहे हैं कि क्या दो दिन के अंदर हुई तीन करोड़ तेंतालिस लाख रूपए की कमाई से 1450 स्क्रीन्स का खर्च निकल पाएगा? लागत की बात तो बाद में आएगी. ‘नूर’ के इतने बुरे हालात तब हैं, जबकि इस फिल्म के साथ एक भी ऐसी फिल्म प्रदर्शित नहीं हुई है, जो कि ‘नूर’ को टक्कर दे सकती हो. यदि ‘नूर’ के सामने कोई अच्छी फिल्म प्रदर्शित हुई होती, तो शायद ‘नूर’ के लिए मुसीबतें बढ़ जाती. यही वजह है कि ‘नूर’ की असफलता के लिए लोग पूरी तरह से सोनाक्षी सिन्हा को ही दोषी मान रहे हैं. तो वहीं आरोप प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हो चुका है.

सूत्रों के अनुसार फिल्म के निर्माता सोनाक्षी सिन्हा को दोषी ठहराते हुए आरोप लगा रहे हैं कि सोनाक्षी ने ‘‘नूर’’ को ठीक से प्रमोट करने की बजाय टीवी के रियालिटी शो को जज करने में व्यस्त रहीं. जबकि सोनाक्षी के नजदीक सूत्र फिल्म की असफलता का सारा ठीकरा फिल्म की पीआर टीम पर थोप रहे हैं. तो कुछ लोग सोनाक्षी को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. सूत्रों के अनुसार यदि फिल्म ‘‘नूर’’ को अच्छे ढंग से प्रमोट कर दर्शकों के मन में इस फिल्म को लेकर उत्सुकता पैदा की गयी होती, तो कम से कम सुबह के शो में अच्छे दर्शक मिल जाते. और फिर अच्छी फिल्म न होने पर दूसरे शो में दर्शक गिरते, मगर फिल्म का सही प्रचार न होने की वजह से सुबह के शो में दर्शक नहीं पहुंचे.

एक तरफ जहां आरोप प्रत्यारोप का सिलसला चल पड़ा है, तो दूसरी तरफ सोनाक्षी सिन्हा के पिता शत्रुघ्न सिन्हा ने पिता का फर्ज निभाते हुए सोनाक्षी सिन्हा का बचाव करने की जिम्मेदारी संभाल ली है. शत्रुघ्न सिन्हा ने अपनी बेटी सोनाक्षी सिन्हा के अभिनय तथा फिल्म ‘नूर’ की तारीफ में कसीदें पढ़ते हुए कहा है, ‘‘इस फिल्म से उसने साबित कर दिखाया कि वह उस काम को भी बेहतर ढंग से अंजाम दे सकती है, जिसे एक उत्कृष्ट कलाकार होते हुए भी मैं नहीं कर पाया था. मैं उसकी हर फिल्म नहीं देखता. मगर मैंने यह फिल्म देखी है और आज मैं एक पिता नहीं, बल्कि एक कलाकार की हैसियत यह कह रहा हूं कि वह बेहतरीन अदाकारा है. उसने बहुत कठिन हिस्से को भी आसानी से निभाया है. इस फिल्म में उसने बहुत कठिन किरदार निभाया है. ‘लुटेरा’ के बाद अब सोनाक्षी ने अति बेहतरीन परफॉर्मेंस दी है.’’

एक पिता होने के नाते शत्रुघ्न सिन को अपनी बेटी का हौसला हाफजाई करनी चाहिए. मगर हमें याद आ रहा है कि फिल्म ‘लुटेरा’ भी बॉक्स ऑफिस पर असफल थी और इस फिल्म के निर्देशक विक्रमादित्य मोटावणे हमसे बात करते हुए इस बात को स्वीकार कर चुके हैं. सिर्फ शत्रुघ्न सिन्हा ही नहीं अब तो संगीतकार शेखर राजवानी भी सोनाक्षी सिन्हा की परफॉर्मेंस की तारीफ करने के लिए मैदान में कूद पड़े हैं.

इसके बाद भला सोनाक्षी सिन्हा कहां चुप रहने वाली थी. उन्होंने ट्विटर पर शायरी करते हुए लोगों को जवाब देना शुरू कर दिया है. खैर, ‘नूर’ के बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह मात खाने के बाद जिस तरह से बॉलीवुड का एक तबका धीरे धीरे सोनाक्षी सिन्हा के अभिनय के कसीदें पढ़ते हुए सामने आ रहा है, उससे किसी को भी आश्चर्य नहीं हो रहा है. क्योंकि बॉलीवुड की शख्सियतों की पुरानी फितरत है कि लोगों को चने के झाड़ पर चढ़ाते रहो.

अब सबसे बड़ा कटु सत्य यह है कि आम दर्शक फिल्म ‘नूर’ देखकर अपना निर्णय डंके की चोट पर सुना रहे हैं कि उसे फिल्म ‘नूर’ और सोनाक्षी सिन्हा पसंद नही आयी.

यह आरोप प्रत्यारोप का सिलसिला धीरे धीरे क्या रूप लेता है, देखना रोचक होगा. साथ ही यह भी देखने लायक होगा कि सोनाक्षी सिन्हा की तारीफ में कसीदें पढ़ने के लिए कौन कौन सामने आता है.

इसरो नासा से कम नहीं

रूस और अमेरिका जैसी महाशक्तियों ने कभी नहीं सोचा होगा कि एक दिन उन्हें तकनीक के मामले में भारतचीन जैसे पूरब के देशों से तगड़ी चुनौती मिलेगी. चुनौती भी ऐसी कि वे इस संबंध में अपने भविष्य के बारे में सोचने को मजबूर हो जाएं.

इधर, जब भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने 15 फरवरी, 2017 को अपने प्रक्षेपणयान पीएसएलवी-सी37 से भारतीय कार्टोसैट-2 सीरीज के उपग्रह के अलावा स्वयं के 2 अन्य, अमेरिका के 96, इजरायल, कजाखस्तान, नीदरलैंड्स, स्विट्जरलैंड और संयुक्त अरब अमीरात का एकएक यानी कुल मिला कर 104 नैनोसैटेलाइट अंतरिक्ष में छोड़े, तो यह खुद उस के लिए ही नहीं, पूरी दुनिया के संदर्भ में भी एक नया रिकौर्ड था. एक मुख्य, 2 छोटे और 101 नन्हे (नैनो) सैटेलाइटों की यह एक किस्म की बरात थी, जिस से जलने वालों की दुनिया में कमी नहीं है. निश्चय ही इसरो की सफलता देश का सिर गर्व से ऊंचा करती है पर यह मामला अब बाजार का ज्यादा है, जिस में सेंध नहीं लगने देने का इंतजाम अगर हम ने कर लिया, तो जमीन पर रोजगार से ले कर शोध के आसमान तक हमारा वर्चस्व कायम होने में देर नहीं लगेगी.

चीन, रूस व अमेरिका को  चुनौती

एक वक्त था, जब हमारे देश को अपने उपग्रह अंतरिक्ष में स्थापित करने के लिए सोबियत रौकेटों और निजी कंपनी ‘आर्यनस्पेस’ पर निर्भर रहना पड़ता था. इनसैट श्रेणी के उपग्रह भारत ने इसी तरह भारी खर्च कर के प्रक्षेपित किए हैं और इस में लाखों डौलर की रकम खर्च की है, पर आज यह नजारा पूरी तरह बदल गया है, आज इसरो खुद दुनिया भर (करीब 21 देशों) के उपग्रह अपने सब से भरोसेमंद रौकेटों से अंतरिक्ष में भेज रहा है और सब से महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आर्यनस्पेस अब इसरो की व्यापारिक सहयोगी कंपनी बन गई है.

इसरो को मिली इस शानदार उपलब्धि के पीछे 2 अहम कारण हैं. पहला यह कि सैटेलाइट लौंचिंग के लिए इसरो अपने स्पेस मिशन दुनिया में सब से कम लागत में पूरे कर रहा है. इस का एक बड़ा उदाहरण वर्ष 2014 में तब मिला था, जब भारत का मार्स मिशन मंगल तक पहुंचा था. इस पर इसरो ने सिर्फ 73 अरब डौलर खर्च किए थे, जबकि अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा के मार्स मिशन में 671 अरब डौलर का खर्च आया था.

दूसरी महत्त्वपूर्ण बात स्पेस अभियानों में इसरो की सफलता की दर है. अमेरिका, रूस और यहां तक कि चीन की स्पेस एजेंसियों द्वारा प्रक्षेपित अंतरिक्ष अभियानों की असफलताएं कहीं ज्यादा हैं. सफलता की दर और अभियान की कीमत आज के अंतरिक्ष बाजार में ये 2 महत्त्वपूर्ण कारण बन गए हैं जिस में इसरो कामयाबी के बल पर अपनी साख बनाता जा रहा है.

उल्लेखनीय है कि पड़ोसी देश चीन भी भारत की तुलना में अपने स्पेस मिशनों पर ढाईगुना ज्यादा पैसा खर्च कर रहा है, हालांकि सैटेलाइट्स की लौंचिंग के मामले में उस की क्षमता भी भारत से चारगुना ज्यादा है. इस के बावजूद इसरो चीन के साथसाथ रूस और अमेरिका की स्पेस एजेंसियों के लिए चुनौती बन गया है. अमेरिका के लिए इसरो कैसे चुनौती बना है, इस की मिसाल इस से मिलती है कि पीएसएलवी-सी37 द्वारा इस बार जो 101 विदेशी नैनो सैटेलाइट सफलता से छोड़े गए, उन में से 96 अमेरिका के हैं. इन में भी 88 सैटेलाइट एक ही अमेरिकी कंपनी ‘प्लेनेट लैब’ के हैं. यह कंपनी धरती की छवियां लेने और उन्हें वर्गीकृत कर के बेचने का काम करती है. जाहिर है कि उस के पास अमेरिकी कंपनियों समेत कई विकल्प रहे होंगे, लेकिन मुनाफे के लिए व्यवसाय कर रही एक कंपनी ने इसरो पर भरोसा किया, यही इसरो की काबिलीयत दर्शाता है.

घबराई विदेशी एजेंसियां    

सचाई यह है कि इसरो की सफलता से अब अमेरिकी और ब्रिटिश स्पेस कंपनियां घबराने लगी हैं. अमेरिका के निजी अंतरिक्ष उद्योग के कारोबारियों और अधिकारियों ने पिछले साल इसरो के कम लागत वाले प्रक्षेपणयानों से कड़ी प्रतिस्पर्धा मिलने की बात एक सार्वजनिक चिंता के रूप में सामने रखी थी और कहा था कि इस से अमेरिकी अंतरिक्ष कंपनियों का भविष्य खतरे में पड़ सकता है. यह चिंता जताने वालों के मुखिया ‘स्पेस फाउंडेशन’ के सीईओ इलियट होलोकाउई पुलहम ने कहा था कि असली मुद्दा बाजार का है. उन का कहना था कि जिस तरह भारत सरकार इसरो के प्रक्षेपणयानों के लिए सब्सिडी देती है, वह इतनी नहीं होनी चाहिए कि उस से इस स्पेस बाजार में मौजूद अन्य कंपनियों के वजूद पर ही खतरा मंडराने लगे.

अमेरिका की तरह भारत के महत्त्वाकांक्षी अंतरिक्ष कार्यक्रमों से कई ब्रिटिश सांसद भी नाराज बताए जाते हैं. इस संबंध में ब्रिटिश मीडिया में छपी खबरों में कहा गया है कि भारत को ब्रिटेन की ओर से अरबों रुपए की सहायता राशि मिलती है, जिस का उपयोग इसरो लंबी दूरी की मिसाइलों और स्पेस कार्यक्रमों में करता है. ये बातें स्पष्ट करती हैं कि इसरो की सफलता अमेरिकाब्रिटेन जैसे देशों के पेट में मरोड़ पैदा कर रही है.

बढ़ रही कमाई

इसरो के अंतरिक्ष अभियानों की भारत में ही यह कहते हुए पहले काफी आलोचना हुई है कि उसे चंद्रमा या मंगल जैसे मिशन चलाने से पहले देश की गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी का इलाज करना चाहिए. आलोचना का आधार यह होता था कि चूंकि इन अभियानों में देश के करदाताओं से ली गई भारी रकम खर्च होती है जो असल में देश के विकास कार्यक्रमों में लगनी चाहिए थी, पर इसरो ने अपने स्पेस मिशनों से साबित किया है कि वह अब खुद कमाई करने वाला संगठन बन गया है.

हाल के आंकड़ों के अनुसार, इसरो की व्यापारिक इकाई ‘एंट्रिक्स कौरपोरेशन’ का विदेश व्यापार इस वित्त वर्ष (2015-2016) में 204.9त्न बड़ा है. एशियन साइंटिस्ट मैगजीन में पिछले साल प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार पिछले 3-4 वर्ष में ही विदेशी उपग्रहों को पीएसएलवी से प्रक्षेपित कर के इसरो ने 54 लाख डौलर की कमाई की है. हाल के 104 सैटेलाइट्स की लौंचिंग से मिले पैसों से इस कमाई में और इजाफा हुआ है, क्योंकि माना जा रहा है कि सिर्फ इसी अभियान से इसरो को 100 करोड़ रुपए विदेशी एजेंसियों से मिले हैं. हालांकि इस आंकड़े की पुष्टि इसरो ने नहीं की है.

इसरो या इस की सहयोगी संस्था एंट्रिक्स द्वारा विदेशी उपग्रहों की लौंचिंग की कीमत का सरकार ने भी कभी खुलासा नहीं किया, लेकिन माना जाता है कि यह शुल्क विदेशी स्पेस एजेंसियों के मुकाबले 60त्न तक कम होता है. अनुमान है कि नासा एक उपग्रह को लौंच करने के लिए अमूमन 25 हजार डौलर प्रति किलोग्राम के हिसाब से शुल्क लेता रहा है. कम शुल्क लेने के बावजूद पीएसएलवी से अब तक स्पेस में भेजे गए देशीविदेशी उपग्रहों के प्रक्षेपण के जरिए एंट्रिक्स कौरपोरेशन कंपनी लिमिटेड एक लाभदायक प्रतिष्ठान में बदल चुका है.

अनुमान है कि विदेशी सैटेलाइट लौंच कर के एंट्रिक्स कौरपोरेशन 750 करोड़ रुपए से ज्यादा की विदेशी मुद्रा कमा चुका है. उल्लेखनीय है कि आज दुनिया में पीएसएलवी को टक्कर देने वाला दूसरा रौकेट (वेगा) सिर्फ यूरोपीय स्पेस एजेंसी के पास है, लेकिन उस से उपग्रहों की लौंचिंग की कीमत इसरो के मुकाबले कई गुना अधिक है. प्रतिस्पर्धी कीमत पर सैटेलाइट का सफल प्रक्षेपण ही वह कारण है कि पीएसएलवी दुनिया के पसंदीदा रौकेटों में बदल गया है और आज ज्यादा से ज्यादा देश अपने सैटेलाइट इसरो की मदद से स्पेस में भेजने के इच्छुक हैं.

यह भी ध्यान रखने योग्य बात है कि अब पूरी दुनिया में मौसम की भविष्यवाणी, दूरसंचार और टैलीविजन प्रसारण का क्षेत्र तेजी से बढ़ रहा है और चूंकि ये सारी सुविधाएं उपग्रहों के माध्यम से संचालित होती हैं, लिहाजा ऐसे संचार उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित करने की मांग में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है.

दखल की शुरुआत

जहां तक भारतीय रौकेटों से विदेशी उपग्रहों की लौंचिंग का प्रश्न है, तो इस की शुरुआत डेढ़ दशक पहले 26 मई, 1999 को पीएसएलवी-सी2 से भारतीय उपग्रह ओशन सैट2 के साथ कोरियाई उपग्रह किट सैट3 और जरमनी के उपग्रह टब सैट को सफलतापूर्वक उन की कक्षा में स्थापित करने के साथ हुई थी, पर इस उड़ान में चूंकि एक भारतीय उपग्रह भी शामिल था, इसलिए इसे इसरो की पहली कामयाब व्यावसायिक उड़ान नहीं माना जाता. इस के बजाय पीएसएलवी-सी10 के 21 जनवरी, 2008 के प्रक्षेपण को इस मानक पर सफल करार दिया जाता है, क्योंकि उस से भेजा गया एकमात्र सैटेलाइट (इजरायल का पोलरिस) विदेशी था.                                             

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