‘इम्पावरमेंट ऑफ गर्ल चाइल्ड’ की बात करती है दंगल

मिस्टर परफैक्शनिस्ट के रूप में मशहूर आमिर खान इन दिनों 23 दिसंबर को प्रदर्शित होने वाली अपनी फिल्म‘‘दंगल’’ को लेकर काफी उत्साहित हैं. फिल्म ‘दंगल’ की शूटिंग के दौरान कैमरे के पीछे की कुछ हलचलों को लेकर ‘मेकिंग आफ दंगल’ नाम से एक वीडियो फिल्म बनायी गयी है. आमिर खान ने सोमवार को कुछ पत्रकारो को बुलाकर पहले यह वीडियो फिल्म दिखायी, उसके बाद उन्होंने वहां मौजूद सभी पत्रकारों के संग बात करते हुए पत्रकारों के सवालों के जवाब भी दिए..

फिल्म ‘‘दंगल’’ करने की वजह पर रोशनी डालते हुए आमिर खान ने कहा-‘‘मैंने यह फिल्म महज एक स्पोर्ट फिल्म होने के कारण नहीं की. फिल्म स्पोर्ट की हो या कोई और, कहानी महत्वपूर्ण होती है. इसकी कहानी कमाल की है. हम लोग यह मानकर चल रहे हैं कि यह फिल्म एक पहलवान की यानी कि एक कुश्ती लड़ने वाले इंसान की है. पर सही मायनों में यह फिल्म ‘इम्पावरमेंट ऑफ गर्ल चाइल्ड’ की बात करती है. तो दूसरे स्तर पर यह फिल्म देशभक्ति की बात करती है. तीसरे स्तर पर यह फिल्म पिता और बेटी के रिश्तों की दास्तान है. यह सारी बातें ह्यूमर के साथ फिल्म में पेश की गयी हैं. फिल्म के लेखक व निर्देशक नितीशतिवारी ने फिल्म का सुर बहुत अच्छा पकड़ा है.’’

फिल्म ‘‘दंगल’’ में नारी सशक्तिकरण की बात है, इसलिए आमिर खान चाहते हैं कि यह फिल्म टैक्स फ्री की जाए. इस बारे में पत्रकारों से बात करते हुए आमिर खान ने कहा-‘‘हमारी फिल्म ‘‘दंगल’’ नारी सशक्तिकरण की बात करती है. यह संदेश ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे, इसलिए मैं चाहता हूं कि ‘दंगल’ को टैक्स फ्री किया जाए. मेरी यह फिल्म टैक्स फ्री करने योग्य है. पर यह निर्णय तो हर राज्य सरकार को लेना है. हम फिल्म के प्रदर्शन से पहले टैक्स फ्री के लिए आवेदन करने वाले हैं, अब टैक्स फ्री होगी या नहीं, यह कह नहीं सकता.’’

फिल्म ‘‘दंगल’’ के किरदार के सुर को सही अर्थों में पकड़ने के लिए आमिर खान ने फिल्म की पटकथा को सबसे ज्यादा सहारा लिया. खुद आमिर खान ने कहा-‘‘यह फिल्म हरियाणा के कुश्तीबाज महावीर फोगट से प्रेरित है. इसलिए मैं महावीर फोगट से दो बार मिला. उनकी बेटियों गीता व बबीता से कई बार मिला. पर किरदार को तैयार करना, किरदार की समझ मुझे पटकथा से मिली. जब पटकथा पसंद आ जाए, तो उसके लिए वजन बढ़ाना हो या जो कुछ भी करना हम करने के लिए तैयार रहते हैं. पर मैं बार बार वजन नहीं बढ़ाउंगा. मेरे डाक्टरों ने भी ऐसा करने से मना किया है. अपने शरीर का वजन घटाना व बढ़ाना बहुत नुकसानदायक है. मगर कलाकार के तौर पर मेरी कोशिश रहती है कि मैं अपने किरदारों के साथ न्याय करूं. इसलिए मुझे ऐसा करना होता है. पर मैं यह जानता हूं कि इस तरह से मैं अपने शरीर व स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहा हूं. पर जब पटकथा पसंद आ जाए तो हम लाजिकली नहीं सोचते.’’

फिल्म ‘‘दंगल’’ में आमिर खान जवान के अलावा 55 साल के मोटे इंसान के रूप में नजर आने वाले हैं. फिल्म के निर्देशक नितीष तिवारी चाहते थे कि आमिर खान पहले जवानी वाले हिस्से की शूटिंग कर ले, उसके बाद वह वजन बढ़ाकर दूसरे हिस्से की शूटिंग करें. मगर आमिर खान ने उल्टा काम किया. उन्होंने पत्रकारों से कहा-‘‘फिल्म की शुरुआत उसकी रेसलिंग/कुश्तीबाजी से होगी. इस फिल्म में मेरे किरदार की अपनी एक यात्रा है. इस फिल्म में मेरा किरदार 30 प्रतिशत फिल्म में युवा है. उसके बाद 20 प्रतिशत में उसकी उम्र चालीस साल के आस पास है. और 50 प्रतिशत फिल्म में उसकी उम्र 55 साल है. 55 साल की उम्र में  वह मोटा होता है. 55 साल के मोटे इंसान वाले हिस्से को निर्देशक बाद में फिल्माना चाहते थे. पर मैने निर्देशक से कहा कि पहले वजन बढ़ा लेता हूं और मोटापा वाला हिस्सा पहले फिल्माते हैं. उसके बाद वजन घटाकर जवानी वाले हिस्से की शूटिंग कर लेंगे. अन्यथा मैं फिर वजन कम करने में आलस्य कर जाउंगा.’

जी हां! सामान्यतः आमिर खान का वजन 68 किलो रहता है. पर ‘दंगल’ के लिए उन्होंने 27 किलो वजन बढ़ाकर 95 किलो किया था. उसके बाद उन्होंने पांच माह का समय लेकर वजन कम किया. वजन बढ़ाने के बाद वजन को 95 किलो बरकरार रखने के लिए आमिर खान को अपने खानपान में काफी बदलाव करना पड़ा था. इस बारे में उन्होंने कहा- ‘‘पूरी तरह से शाकाहारी हो गया था. मछली, चिकन, मांस, अंडा सहित मांसाहारी भोजन छोड़ दिया था. दूध व दूध से बनने वाली हर चीज मसलन दही, पनीर आदि छोड़ दिया था. वजन 95 किलो के आस पास रहे, मेरा मोटापा बरकरार रहे, इसके लिए मैं सेवपुड़ी व समोसा खा रहा था. क्योंकि इनमें कैलरी ज्यादा होती है. चाकलेट या केक बहुत खाया.’’

वजन बढ़ाने से उन्हें तकलीफ भी हुई, पर अभिनय में उन्हें उसका फायदा भी मिला. इस बारे में पत्रकारों से चर्चा करते हुए आमिर खान ने कहा-‘‘जब मैंने अपना वजन 95 किलो किया, तो अपने आपको बीमार महसूस करने लगा था. उन दिनों मेरा हृदय 27 गुना ज्यादा पंपिंग कर रहा था. मेरी सांस लेने का अंदाज बदल गया था. पर यह सब मुझे अब फिल्म ‘दंगल’ के अपने किरदार के लिए करना पड़ा. उन दिनों थकावट बहुत जल्द आ जाती थी. मैं अपने जूतों के फीते बांधने के लिए झुकता, तो पेट रूकावट पैदा करता. जूते का फीता बांधते समय मेरा पेट दबता, जिसका असर मेरे फेफड़ों पर पड़ता. जिसकी वजह से एक जूते का फीता बांधने के बाद कम से कम बीस सेकंड तक मैं हांफता. उसके बाद ही दूसरे जूते का फीता बांधने की कोशिश करता. मैंने यह सब किया. मेरा मानना है कि जब हम किसी किरदार को निभाना चाहते हैं, तो उसके जैसा महसूस होना चाहिए. जैसे कि मैंने कहा कि मेरी श्वासन क्रिया बदल गयी थी. श्वासन क्रिया भी तो मेरी परफार्मेस का एक हिस्सा है. सांस लेने में तकलीफ परफार्मेंस में मेरी मदद करती थी. वजन बढ़ने के बाद बाडी लैंगवेज बदल जाती है’’. 

‘‘दंगल’’ की मेकिंग देखने पर पता चलता है कि आमिर खान किसी भी सीन में सिक्स पैक में नहीं नजर आ रहे हैं. इस पर आमिर खान ने कहा-‘‘रेसलर कई तरह के होते हैं. हर रेसलर का सिक्स पैक होना जरुरी नहीं है.अखाड़े में रेसलिंग करने वाले रेसलर मिट्टी में लड़ते हैं और काफी बलशाली व मोटे होते हैं. मगर यदि आप सुशील कुमार जैसे रेसलर को देखेंगे तो यह सब सिक्स पैक वाले और एकदम फिट नजर आते हैं. भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले रेसलर विनेश फोगट, गीता फोगट, बबीता फोगट एकदम फिट नजर आएंगे. इनकेशरीर पर चर्बी नजर नहीं आती. यदि मैं ‘मैट रेसलिंग’ का हिस्सा हूं और 70 किलो की प्रतियोगिता का हिस्साहूं, जिसमें मेरे शरीर में 30 प्रतिशत चर्बी है, तो यह मेरी गति को धीमी करेगा. यहां मोटापा बेकार है. सभी‘मैट रेसलर’ कम वजन के होते हैं.’’

फिल्म ‘‘दंगल’’ करने के बाद रेसलर यानी कि कुश्तीबाजी को लेकर उनकी सोच में आए बदलाव के संदर्भ में आमिर खान ने कहा-‘‘जब मैं रेसलिंग सीख रहा था, तब रेसलिंग को लेकर मेरी सोच, मेरा नजरिया बदला. ऐसा माना जाता है कि रेसलर कम या मंद बुद्धि के होते हैं, यह गलत सोच है. रेसलर को बहुत तेज दिमाग वाला होना चाहिए. एक सेकंड में उसे प्रतिक्रिया देनी होती है. यदि रेसलर बुद्धिमान नहीं है, तो वह अच्छा रेसलर बन ही नहीं सकता. सच कह रहा हूं कि मुझे यह समझ में आया कि कुश्ती पहलवान बनने के लिएशारीरिक ताकत ज्यादा महत्वपूर्ण नही होती है. इसमें एक्शन रिएक्शन और रिफलेक्शन तेजी से होना चाहिए.’’

यूं तो आमिर खान ने कृपाशंकर से कुश्ती की ट्रेनिंग ले रखी थी, फिर भी शूटिंग के दौरान उन्हे कई बार चोट लगी. इसे स्वीकार करते हुए आमिर खान ने कहा-‘ शूटिंग के दौरान कई जगह चोट लगी. जब मेरी पीठ में चोट लगी, तब डाक्टरों ने दो माह आराम करने के लिए कहा. हमारे पास इतना समय नहीं था, तो हमने दो सप्ताह आराम किया. उसके बाद भी हर दिन मुझे पेनकिलर लेना पड़ता था.’’

सलमान खान और आमिर खान के बीच अच्छे संबंध हैं. सलमान खान हमेशा सोशल मीडिया पर आमिर खान की फिल्मों को प्रमोट करते आ रहे हैं. आमिर खान को उम्मीद है कि सलमान खान ‘दंगल’ को भी प्रमोट करेंगे. फिल्म ‘‘दंगल’’ की मेंकिंग का वीडियो बाजार में लाते हुए आमिर खान ने कहा-‘‘मुझे यकीन है कि सलमान खान इस बार भी मेरी फिल्म को प्रमोट करेंगे. मुझे भी उनकी फिल्म को प्रमोट करना अच्छा लगता है. मैं अपनी फिल्म ‘दंगल’ उन्हे दिखाने के लिए बेताब हूं.’’

मगर आमिर खान अपनी फिल्म ‘‘दंगल’’ को प्रमोट करने के लिए सलमान खान के शो ‘‘बिग बॉस 10’’ में नहीं जाएंगे. इस बात को स्वीकार करते हुए खुद आमिर खान ने कहा-‘‘मैं अपनी फिल्मों को टीवी पर प्रमोट करना पसंद नहीं करता. इसलिए ‘दंगल’ को भी किसी भी टीवी शो में प्रमोट नहीं करुंगा. वैसे फिल्म के प्रोमो व विज्ञापन टीवी पर आएंगे. पर मैं खुद फिल्म को प्रमोट करने के लिए टीवी पर नहीं जाउंगा.’’ 

अमिताभ बच्चन के साथ ‘‘यशराज फिल्मस’’ की फिल्म ‘‘ठग्स आफ हिंदोस्तान’’ की शूटिंग शुरू करने के लिए आमिर खान इन दिनों अपने चेहरे पर दाढ़ी और बाल बढ़ा रहे हैं.

राधिका आप्टे के बोल्ड सीन होंगे लीक

एक्ट्रेस राधिका आप्टे के बोल्ड सीन अक्सर लीक हो जाते हैं. बड़े परदे पर देखने से पहले ही लोग यह सीन सोशल मीडिया में देख लेते हैं. बता दें, दो बार ऐसा मौका आया जब उनकी फिल्म की क्लिप लीक हुई है. फिल्म ‘मैडली’ और ‘पार्च्ड’ के प्रदर्शन के पूर्व ही राधिका के हॉट सीन इंटरनेट पर वायरल हो गए थे.

खबरों के मुताबिक, राधिका की नई फिल्म ‘बम्बईरिया’ में शावर क्लिप लीक हो जाएगी. इस फिल्म में वे मेघना नामक पब्लिसिस्ट की भूमिका में हैं. माइकल ई. वार्ड ने इस खबर की पुष्टि करते हुए कहा, “हां, हमारी फिल्म में इस तरह का सीन है और इसकी शूटिंग तभी हुई जब अनुराग कश्यप की फिल्म ‘मैडली’ का सीन लीक हुआ था.” उन्होंने बताया कि हमें लगा कि स्क्रिप्ट में बदलाव करना होगा, क्योंकि राधिका अपसेट थीं, लेकिन वे सीन करने के लिए राजी हो गईं.

अपनी बात आगे बढ़ाते हुए माइकल कहते हैं कि हमारी फिल्म में राधिका फिल्म पब्लिसिस्ट हैं. उनका फोन खींचकर चोर ले भागता है. वह चोर का पीछा करती हैं क्योंकि इसमें उनका नहाते हुए एमएमएस है. यदि यह लीक होता है तो उन बॉलीवुड एक्टर्स को भी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ सकता है जिनके लिए वह काम करती है.

रणबीर कपूर की यह कैसी इच्छा?

बॉलीवुड में कोई किसी का स्थायी दुश्मन या स्थायी दोस्त नहीं होता. यह तो सभी जानते हैं. मगर एक कलाकार अपनी पूर्व प्रेमिका को लेकर किस तरह की इच्छा खुलेआम टीवी पर व्यक्त कर सकता है, इसकी कल्पना लोगों ने नहीं की होगी.

मगर करण जोहर के कार्यक्रम ‘काफी विथ करण’ में रणबीर कपूर और रणवीर सिंह दोनों एक साथ पहुंचे. इस कार्यक्रम में रणवीर सिंह की मौजूदगी में रणबीर कपूर ने अपनी पूर्व प्रेमिका दीपिका पादुकोण व रणवीर सिंह के संदर्भ में अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए कहा कि वह चाहते हैं कि दीपिका पादुकोण और रणवीर सिंह के बच्चे हों और यह बच्चे रणबीर कपूर को एक अच्छा कलाकार मानें. वाह! क्या इच्छा है!!

अब रणबीर कपूर की इस इच्छा को महज मजाक में टाल दिया जाए या इसके पीछे रणबीर कपूर कुछ और कहना चाहते हैं? यह तो वही जानें, पर इस पर दीपिका पादुकोण क्या सोचती हैं यह पता नहीं. इतना ही नहीं दीपिका पादुकोण और रणवीर सिंह के गडमड हो रहे रिश्ते के बीच रणबीर कपूर के इस बयान का क्या क्या मतलब निकाला जाएगा, यह तो वक्त ही बताएगा.

‘बरस जा ए बादल..’ पर थिरकीं शमिता-शिल्पा

अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी इन दिनों लोकप्रिय डांस रिएलिटी शो सुपर डांसर्स को जज करते हुए नजर आ रही हैं. और उनकी बहन शमिता शेट्टी भी इस रियलिटी शो की बहुत बड़ी प्रशंशक हैं. अपनी बहन को सरप्राइज करने के लिए शमिता डांस रियलिटी शो के सेट पर अचानक जा पहुंची. और इतना ही नहीं उन्होंने फिल्म फरेब के फेमस डांस नंबर ‘बरस जा ए बादल बरस जा’ पर परफॉर्म भी किया.

शमिता और शिल्पा इस रिएलिटी शो में एक दूसरे के बगल में बैठी थी की पीछे से ऑडियंस ने फरेब के इस गाने पर दोनों बहनों को परफॉर्म करने के लिए अनुरोध किया. अपने प्रसंशको की इस रिक्वेस्ट को शिल्पा और शमिता ने पूरी की और उन दोनों ने स्टेज पर परफॉर्म किया.

वह नीला परदा: भाग-1

जौन एक सफल बैंक अधिकारी रहा था. संस्कारी परिवार के सद्गुणों ने उसे धर्मभीरु व कर्तव्यनिष्ठ बना रखा था. उस के पिता पादरी थे व माता अध्यापिका. शुरू से अंत तक उस का जीवन एक सुरक्षित वातावरण में कटा. नैतिक मूल्यों की शिक्षा, पिता के संग चर्च की तमाम गतिविधियों व बैंक की नौकरी के दौरान जौन ने कोई बड़ा हादसा नहीं देखा. जब तक नौकरी की, वह लंदन में रहा अपने छोटे से परिवार के साथ. फिर इकलौती बेटी का विवाह किया फिर समयानुसार उस ने रिटायरमैंट ले लिया. पत्नी को भी समय से पूर्व रिटायरमैंट दिला दिया था. फिर वह लंदन से 30 मील दूर रौक्सवुड में जा कर बस गया.

रौक्सवुड एक छोटा सा गांव था. हर तरह की चहलपहल से दूर, सुंदरसुंदर मकानों वाला. ज्यादा नहीं, बस, 100 से 150 मकान, दूरदूर छितरे हुए, बड़ेबड़े बगीचों वाले. वातावरण एकदम शांत. घर से आधा मील पर अगर कोई गाड़ी रुकती, तो यों लगता कि अपने ही दरवाजे पर कोई आया है. छोटा सा एक बाजार था,

2-3 छोटेबड़े स्कूल थे और एक चर्च था. हर कोई एकदूसरे को जानता था.

10 वर्षों से जौन यहां रह रहा था. चर्च की सामाजिक गतिविधियों में हिस्सा लेने की उस की पुरानी हौबी थी. दोनों पतिपत्नी सब के चहेते थे. शादी हो या बच्चे की क्रिसनिंग सब में वे आगे बढ़ कर मदद देते थे.

जौन सुबह अंधेरे ही उठ जाता. डोरा यानी उस की पत्नी सो ही रही होती. वह कुत्ते को ले कर टहलने चला जाता. अकसर टहलतेटहलते उसे अपने जानने वाले मिल जाते. अखबार की सुर्खियों पर चर्चा कर के वह 1-2 घंटों में वापस आ जाता.

ऐसी ही अक्तूबर की एक सुबह थी. दिन छोटे हो चले थे. 7 बजे से पहले सूरज नहीं उगता था. 4 दिन की लगातार झड़ी के बाद पहली बार आसमान नीला नजर आया. पेड़ों के पत्ते झड़ चुके थे. जहांतहां गीले पत्तों के ढेर जमा थे. घरों के मालिक जबतब उन्हें बुहार कर जला देते थे.

जौन की आंख सुबह 5 बजे ही खुल गई. उस का छोटा सा कुत्ता रोवर उस का कंबल खींचते हुए लगातार कूंकूं  किए जा रहा था.

‘‘चलता हूं भई, जरा तैयार तो हो लेने दे,’’ जौन ने उसे पुचकारा.

उस की पत्नी दूसरे कमरे में सोती थी. जौन को उस का देर रात तक टीवी पर डरावनी फिल्में देखना खलता था.

जौन ने जूते पहने, कोट और गुलूबंद पहना, हैट पहन कर कुत्ते को जंजीरपट्टा पहना कर वह चुपचाप निकल गया.

 

घर से करीब 1 मील पर जंगल था. करीब 3 वर्गमील के क्षेत्र में फैला यह जंगल इस कसबे की खूबसूरती का कारण था. इसी से गांव का नाम रौक्सवुड पड़ा था. जंगल में चीड़ और बल्ली के पेड़ों के अलावा करीने से उगे रोडोडेंड्रन के पेड़ भी थे, जो वसंत ऋतु में खिलते थे. इन के बीच अनेक ऊंचीनीची ढलानों वाली पगडंडियां थीं, जिन पर लोग साइकिल चलाने का अभ्यास करते थे. कभीकभी कोई छोटी गाड़ी भी दिख जाती थी. चूंकि लोग खाद के लिए सड़ी पत्तियां खोद कर ले जाते थे, इसलिए ढलानों पर बड़ेबड़े गड्ढे भी थे.

जंगल की पगडंडियों पर दूरदूर तक चलना जौन का खास शौक था. 2-4 मिलने वालों को दुआसलाम कर वह अपने रास्ते चलता गया.

सूरज अभी उगा नहीं था, मगर दिन का उजाला फैलने लगा था. जौन जंगल में काफी दूर तक आ गया था. इस हिस्से में कई गड्ढे थे. पत्तियों ने उन गड्ढों को भर दिया था. घने पेड़ों की जड़ों के पास छाया होने के कारण वहां सड़न और काई जमा थी, जिस में कुकुरमुत्तों के छत्ते उगे हुए थे. एक अजीब दुर्गंध हवा में थी, जो सुबह की ताजगी से मेल नहीं खा रही थी.

रोवर दूर निकल गया था. जौन ने सीटी बजाई, मगर उस ने अनसुना कर दिया. जौन उसे पुकारता वहां तक पहुंच गया. सामने कीचड़ व सड़े पत्तों से भरे एक गड्ढे में रोवर अपने अगले पंजे मारमार कर कूंकूं कर रहा था. जौन कहता रहा, ‘‘छोड़ यार, घर चल, वापस जाने में भी घंटा लगेगा अब तो.’’

मगर रोवर वहीं अड़ा रहा. जौन पास चला गया, ‘‘अच्छा बोल, क्या मिल गया तुझे?’’

तभी जौन ने देखा गड्ढे में कीचड़ से सना एक कपड़ा था, जिसे रोवर दांतों से खींचे जा रहा था. कपड़ा मोटे परदे का था, जिस का रंग नीला था. तभी जौन पूरी ताकत से वापस भागा. रोवर को भी वापस आना पड़ा. जौन तब तक भागता रहा, जब तक उसे दूसरा व्यक्ति नजर नहीं आ गया. जौन रुक गया, मगर उस के बोल नहीं फूटे.

अंगरेज अपनी भावनाओं को बखूबी छिपा लेते हैं. जौन ने हैट को छू कर उस से सलाम किया और चाल को सहज कर के वह सीधा घर आ गया. रोवर के साथ होते हुए भी उसे लग रहा था कि जैसे कोई उस के पीछे आ रहा है. घर में घुसते ही उस ने दरवाजा इतनी जोर से बंद किया कि डोरा ऊपर से चिल्लाई, ‘‘कौन है?’’

जौन ने उत्तर नहीं दिया और सोफे पर बैठ गया. डोरा नीचे दौड़ी आई. जौन का चेहरा देख कर वह घबरा गई पर कुछ कहा नहीं. चुपचाप रोवर को बगीचे में भेज कर दरवाजा बंद करने लगी तो जौन ने कहा, ‘‘उसे बंधा रहने दो, नहीं तो जंगल में भाग जाएगा.’’

डोरा की समझ में कुछ नहीं आया. उस ने वैसा ही किया और रोज की तरह चाय बनाने लगी. चाय की केतली की चिरपरिचित सीटी की आवाज से जौन वापस अपनी दुनिया में लौट आया और उस ने पास ही रखे फोन पर सीधा 999 नंबर मिलाया. पुलिस को अपना पता दे कर जल्दी आने को कहा.

पुलिस 10 मिनट में ही पहुंच गई. जौन ने पुलिस वालों को बताया कि उसे शक है कि जंगल में एक गड्ढे में कीचड़ में डूबी कोई लाश है. पुलिस को समझते देर नहीं लगी. हवलदार ने उस से संग चल कर दिखाने के लिए कहा, तो जौन को उलटी आ गई.

हवलदार समझदार आदमी था. वह समझ गया कि 75 वर्षीय जौन, जो दफ्तर की कुरसी पर बैठता आया था, इतना कठोर न था कि इस तरह के हादसे को सहजता से पचा लेता.

फिर भी उस ने कोशिश की. जौन से कहा, ‘‘कुछ दिशा, रास्ता आदि समझा सकते हो?’’

जौन को उगता सूरज याद आया, जिस से उस ने दिशा का अंदाजा लगाया. फिर कुकुरमुत्तों के झुरमुट याद आए और वह दुर्गंध जो पिछले 2 घंटे से उस के समूचे स्नायुतंत्र को जकड़े हुए थी और उसे बदहवास कर रही थी. फिर जौन को दोबारा उलटी आ गई.

हवलदार ने अंत में अपने एक सहायक सिपाही से कहा कि वह इंस्पैक्टर क्रिस्टी को ले कर आए, शायद यहां कोई हत्या का मामला है.

आननफानन हत्या परीक्षण दल अपने कुत्तों को ले कर आ पहुंचा. जौन थोड़ा संभल गया था. इंस्पैक्टर क्रिस्टी का स्वागत करते हुए उस ने सारी बात फिर से सुनाई.

क्रिस्टी ने पहला काम यह किया कि उस ने अपने कुत्ते को जौन के पास ले जा कर सुंघवाया. इस के बाद रोवर को भी अंदर लाया गया और पुलिस के कुत्ते ने उसे भी अच्छी तरह सूंघा, खासकर उस के अगले पंजों को. इस के बाद क्रिस्टी और उस का दल अपने कुत्ते को मार्गदर्शक बना कर जौन के बताए रास्ते पर निकल पड़े.

 

अगले 1 घंटे में ही पुलिस का एक भारी दस्ता अनेक उपकरण ले कर उस स्थान पर पहुंच गया और उस ने गड्ढे में से सड़ीगली एक स्त्री की लाश बरामद की, जिसे पता नहीं कितने महीनों पहले एक परदे में लपेट कर कोई वहां फेंक गया था. लाश का सिर गायब था और दोनों हाथ भी. परदे का रंग समुद्री नीला था, जो अब बिलकुल बदरंग हो गया था. कुत्तों की मदद से अधिकारियों ने जंगल का कोनाकोना छान मारा, मगर उस का सिर और हाथ नहीं मिले.

लाश को शव परीक्षण के लिए भेज दिया गया. जौन हफ्ता भर अस्पताल में रहा. स्थान बदलने की खातिर उसे पास के बड़े शहर वोकिंग में ले जाया गया. कुछ ही हफ्तों में उस ने वहीं दूसरा मकान ले लिया और रौक्सवुड छोड़ दिया.

शव परीक्षण से जो तथ्य सामने आए उन से पता चला कि स्त्री की हत्या किसी आरी जैसी चीज से गला काट कर की गई थी. मरने वाली भारतीय या अन्य किसी एशियाई देश की थी. उस के पेट पर मातृत्व के निशान थे. मृतका की उम्र 30 से 40 वर्ष ठहराई गई.

क्रिस्टी ने फाइल को मेज पर रखते हुए आवाज दी, ‘‘मौयरा.’’

‘‘यस डेव.’’

‘‘पिछले 3 सालों की खोई हुई स्त्रियों की लिस्ट निकलवाओ. हमें एक एशियन या ग्रीक जाति की थोड़ी हलके रंग की चमड़ी वाली स्त्री की तलाश है. उस का कद 5 फुट 3 से 5 इंच का हो सकता है. न बहुत मोटी, न पतली.’’

करीब 45 साल की मौयरा पिछले 15 सालों से डेविड क्रिस्टी की सेक्रेटरी है. क्रिमिनल ला में उस ने स्नातक किया था.

पूरे दिन की छानबीन के बाद भी कोई सुराग नहीं मिला. देश भर की सभी पुलिस चौकियों को इत्तिला भेज दी गई, मगर परिणाम कुछ नहीं निकला.

क्या वह कोई टूरिस्ट थी या किसी की मेहमान? हो सकता है कि उसे लूटपाट कर मार डाला गया हो. एशियन स्त्रियां अकसर कीमती गहने पहनती हैं. बाहर से आए आगंतुकों की पूरी जानकारी पासपोर्ट चैक करते समय रजिस्टर में दर्ज होती है. हीथ्रो एअरपोर्ट की पुलिस से पूछताछ की गई. अनेक नाम, अनेक देश, अनेक ऐसी स्त्रियां पिछले 3 सालों में ग्रेट ब्रिटेन में आईं.

लिस्टें महीने व साल के हिसाब से मौयरा के पास पहुंचीं. पासपोर्ट के फोटो सिर्फ चेहरे के होते हैं बाकी शरीर के नहीं और इस केस में सिर तो गायब ही था. ऐसे में चेहरा कहां देखने को मिलता, जिसे पासपोर्ट फोटो के साथ मैच किया जाता. खोए हुए पासपोर्ट भी गंभीरता से ढूंढ़े गए, मगर कोई सूत्र हाथ नहीं आया.

क्रिस्टी ने कहा, ‘‘अगर मेहमान थी तो 6 महीने के बाद जरूर वापस गई होगी अपने देश. जो वापस चली गईं उन को छोड़ दो, मगर जो वापस नहीं गईं उन की लिस्ट जरूर वीजा औफिस में होगी, क्योंकि वे अवैध नागरिक बन कर यहीं टिक गई होंगी.’’

3-4 दिन बाद वीजा औफिस से जवाब आ गया. ऐसी स्त्रियों में कोई भी लाश से मिलतीजुलती नहीं मिली.

आखिर डेविड क्रिस्टी ने फाइल बंद कर दी.

 

उसी दिन शाम को जौन का फोन आया. पूछा, ‘‘मि. क्रिस्टी, आप की तहकीकात कैसी चल रही है?’’

‘‘कुछ खास नहीं, कपड़े सड़गल गए हैं. न केश, न नाखून, न फिंगरप्रिंट, न दांत. किस आधार पर तहकीकात करूं?’’

‘‘मैं ने तो और कुछ नहीं बस वह नीला परदा देखा था, जो उस के बदन को ढके हुए था.’’

‘‘जौन, तुम परेशान क्यों होते हो. इस देश में हर महीने एक लड़की की हत्या होती है. लड़कियों को आजादी तो दे दी, मगर हम क्या उन्हें सुरक्षा दे सके? शायद पिछड़ी हुई सभ्यताओं में ठीक ही करते हैं कि स्त्रियों को घर से बाहर ही नहीं जाने देते.’’

‘‘परेशानी मुझे नहीं तो और किसे होगी. जब भी घर के अंदर घुसता हूं, तो लगता है कि वह मेरे पीछे भागी आ रही है और मैं ने उस के मुंह पर दरवाजा बंद कर दिया.’’

‘‘जौन, ऐसा है तो कुछ दिन किसी दूसरे देश में पत्नी के साथ हौलीडे मना कर आ जाओ और किसी अच्छे मनोरोगचिकित्सक को दिखा लो.’’

‘‘मुझे लगता है कि वह हम से न्याय मांग रही है.’’

‘‘हां, तुम चर्च में जाने वाले धर्मभीरु इंसान हो, मगर याद रखो मर कर कोई वापस नहीं आया. शांतचित्त हो कर सोचो, साहसमंद बनो, अपना खयाल रखो. तुम अगर विचलित होगे तो डोरा का क्या होगा?’’ कहने को तो क्रिस्टी बोल गया, मगर उस के मन में वह नीला परदा कौंध गया. उस ने उस परदे की बारीकी से छानबीन की, तो अंदर की तरफ एक लेबल मिल गया जिस पर कंपनी का नाम था.

‘‘मौयरा, देखो इस परदे की मैन्युफैक्चर कंपनी का नाम.’’

‘‘उस से क्या होगा. कंपनी ने कोई एक परदा तो बनाया नहीं होगा.’’

‘‘चलो, कोशिश करने में क्या हरज है.’’

मौयरा ने परदे बनाने वाली कंपनी को पत्र लिखा तो उत्तर मिला कि यह परदा 20 वर्ष पहले बना था, उन की कंपनी में. रिटेल में बेचने वाली दुकान का नाम ऐक्सल हाउजलिनेन स्टोर था. पर इस स्टोर की बीसियों ब्रांचें पूरे देश में फैली हुई थीं. सहायता के तौर पर उन्होंने अपने बचेखुचे स्टौक में से ढूंढ़ कर वैसा ही एक परदा क्रिस्टी को भेज दिया. उस स्टोर की एक भी ब्रांच इस क्षेत्र में नहीं थी. एक ब्रांच 40 मील दूर पर मिल ही गई, तो उन्होंने अपने सब रिकौर्ड उलटेपलटे और बताया कि परदा करीब 15 साल पहले बिका होगा. इस के बाद उस की बिक्री बंद हो गई थी, क्योंकि सारा माल खत्म हो गया था.

क्रिस्टी ने पुलिस फाइल के विशेष कार्यक्रम में कंपनी द्वारा भेजे गए परदों को टैलीविजन पर प्रस्तुत किया और जनता से अपील की कि अगर वे किसी को जानते हों, जिस के पास ऐसे परदे हों तो वे पुलिस की सहायता करें. उस ने किसी खोई हुई स्त्री का पता देने की भी मांग की. परदा 6 फुट लंबा था, जो किसी ऊंची खिड़की या दरवाजे पर टंगा हो सकता है.

एपसम में एक कार बूट सेल लगती है. दूरदूर से लोग अपने घरों का पुराना सामान कार के बूट में भर कर ले आते थे और कबाड़ी बाजार में बेच कर लौट जाते हैं. अकसर इस में कुछ पेशेवर कबाड़ी भी होते हैं. ऐसी ही एक कबाड़ी थी मार्था. उस का आदमी बिके हुए सामान खरीद लेता था. उस की एक सहेली थी शीला. शीला भी यही काम करती थी, मगर वह बच्चों के सामान यानी पुरानी गुडि़यां, फर के खिलौने, बच्चों के कपड़े आदि की खरीदारी करती थी.

पुलिस फाइल का प्रोग्राम लगभग सभी स्त्रियां देखती हैं. मार्था 1 हफ्ते की छुट्टी पर ग्रीस चली गई थी. लौट कर आई तो शीला का फोन आया, ‘‘मार्था, तू बड़ी खुश हो रही थी न कि तेरे पुराने परदे 10-10 पाउंड में बिक गए. ले देख, उन का क्या किया किसी खरीदार ने. पुलिस को तलाश है उन की. साथ ही, किसी खोई हुई औरत की भी. मुझे तो लगता है जरूर कोई हत्या का मामला है.’’

‘‘परदों से हत्या का क्या संबंध, अच्छेभले तो थे लेबल तक लगा हुआ था. मैं ने बेचे तो क्या गुनाह किया?’’

‘‘नहीं, वह तो ठीक है, मगर पुलिस क्यों पूछेगी? कुछ गड़बड़ तो है. तुझे फोन कर के उन्हें बताना चाहिए.’’

‘‘मैं ने बेच दिए, बाकी मेरी बला से. खरीदने वाला उन को क्यों खरीद रहा है, मुझे इस से क्या मतलब? चाहे वह उस का गाउन बना कर पहने, चाहे पलंग पर बिछाए, चाहे घर में टांगे उस की मरजी.’’

अगली बार फिर पुलिस फाइल पर अपील की गई. अब मार्था विचलित हो उठी. उस ने फोन उठा कर दिए हुए नंबर पर फोन मिलाया.

बात करने वाला कोई बेहद शालीन मृदुभाषी व्यक्ति था. मार्था ने बताया, ‘‘कुछ महीने पहले उस ने बिलकुल ऐसे ही 6 फुट लंबे परदे बेचे थे. खरीदने वाली कोई औरत थी और दूर से आई थी. उस ने परदे के दामों पर हुज्जत की थी, इसलिए मुझे कुछकुछ याद है.’’

‘‘बता सकती हो वह देखने में कैसी थी?’’

‘‘रंग गोरा था और उस ने सिर पर रूमाल बांधा हुआ था. शायद तुर्की या ईरानी होगी. उस ने यह भी कहा था कि वह दूर से आई थी शायद बेसिंग स्टोक से.’’

‘‘बहुतबहुत शुक्रिया, इतना भी क्लू मिल जाए तो हमारा काम आसान हो जाता है. आप इस बारे में चुप रहें तो अच्छा. कोई भी तहकीकात चुपचाप ही की जाती है.’’

‘‘मैं अब चैन से सो सकूंगी,’’ कह कर मार्था ने फोन रख दिया.

 

क्रिस्टी ने अपनी खोज बेसिंग स्टोक और उस के आसपास के इलाके में सीमित कर ली. परदों के बेचने का समय हत्या के समय से लगभग मिलता था.

फिर भी यह भूसे के ढेर में सूई ढूंढ़ने जैसा ही था. तथ्यों से अभी वह कोसों दूर था. कैनवास अभी गीला ही था. किसी भी रंग की लकीर खींचो वह फैल कर गुम हो रही थी.

फिर से जौन का फोन आ गया. पूछा, ‘‘डेविड क्रिस्टी है क्या?’’

‘‘बोल रहा हूं. कौन है?’’

‘‘मैं जौन, पहचाना?’’

‘‘अरे हां, खूब अच्छी तरह, ठीक हो?’’

‘‘नहीं, अस्पताल में रह कर आया हूं.

मुझे फिर से वही बेचैनी और फोबिया तंग कर रहा था. डाक्टर ने मुझे ट्रैंक्विलाइजर पर रखा कुछ दिन और मेरा सुबह का घूमना बंद करवा दिया. अब मैं करीब 10-11 बजे डोरा के साथ टहलने जाता हूं, वह भी भरे बाजार में. कुत्ते को ले कर डोरा जाती है या चर्च का कोई जानने वाला. नया शहर है यह, तो भी न जाने कैसी दहशत बैठ गई है.’’

‘‘देखो, मैं इसी पर काम कर रहा हूं. तुम बेफिक्र रहो.’’

डेविड क्रिस्टी मार्था की बातें सोचता रहा. अगले पुलिस फाइल के प्रोग्राम में उस ने एक खिड़की का अनुमानित चित्र पेश किया, जिस पर नेट का परदा लगा था और दोनों ओर हूबहू वैसे ही नीले परदे डोरी से बंधे सुंदरता से लटक रहे थे.

इस फोटो के साथ ही उस ने जनता से अपील की कि यदि वह ऐसी किसी खिड़की को देखा हो तो उसे सूचित करें.

इस प्रोग्राम के बाद उसे एक स्त्री का फोन आया. इत्तफाक से वह बेसिंग स्टोक से ही बोल रही थी, ‘‘इंस्पैक्टर क्रिस्टी, मैं आप से मिलना चाहती हूं.’’

बेसिंग स्टोक का नाम सुनते ही क्रिस्टी तुरंत उठ खड़ा हुआ. फौरन अपनी सेक्रेटरी मौयरा को ले कर वह बताए हुए पते पर पहुंच गया.

 

वह एक सुंदर सा मकान था, जो 3 ओर से बगीचे से घिरा हुआ था. चौथी ओर फेंस यानी बांस की चटाईनुमा दीवार थी.

क्रिस्टी ने घंटी बजाई तो किसी ने थोड़ा सा दरवाजा खोला और पूछा, ‘‘कौन है?’’

‘‘मैं इंस्पैक्टर क्रिस्टी और यह है मेरी सहायिका मौयरा. हमें बुलाया गया है,’’

कह कर क्रिस्टी ने अपना पुलिस का बैज दिखाया.

उत्तर में स्त्री ने दरवाजा पूरा खोल दिया और स्वागत की मुद्रा में एक ओर सरक गई, ‘‘प्लीज, कम इन. मैं जैनेट हूं. पेशे से नर्स हूं.’’

क्रिस्टी और मौयरा अंदर दाखिल हुए. जैनेट ने उन्हें बैठाया.

‘‘आप ने मुझे फोन क्यों किया?’’

‘‘इंस्पैक्टर, मैं बिलकुल अकेली रहती हूं. नर्स हूं और फ्रीलांस काम करती हूं, एजेंसी के माध्यम से. अकसर मुझे यूरोप भी जाना पड़ता है. कईकई महीने मुझे बाहर रहना पड़ता है. आप तो देख ही रहे हैं कि मेरा घर 3 तरफ से यह पूरी तरह असुरक्षित है. इसलिए मेरे मित्रों ने सलाह दी कि मैं कोई किराएदार रख लूं ताकि घर की सुरक्षा रहे.’’

‘‘वाजिब बात है. ऐसा तो अनेक लोग करते हैं.’’

‘‘इसलिए मैं ने अखबार में इश्तिहार दे दिया था. जवाब में जो लोग आए उन में एक स्मार्ट सी एशियन लड़की भी थी, जो काफी पढ़ीलिखी थी. वह भी बिलकुल अकेली थी. बातचीत से वह भली लगी, इसलिए मैं ने उसे चुन लिया. उस का नाम फैमी था और वह मोरक्को की रहने वाली थी. यहां वह स्टूडैंट बन कर आई थी, फिर यहीं नौकरी मिल गई और स्थाई रूप से बस गई. पिछले क्रिसमस पर वह अपने देश छुट्टियां मनाने गई, मगर वापस नहीं लौटी.’’

‘‘उस का कोई पत्र आया आप के पास?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘उस ने जाते समय अपने घर का पता दिया था आप को?’’

‘‘नहीं, वह कम बोलने वाली और खुशमिजाज लड़की थी. शायद वह वहीं रह गई हो सदा के लिए.’’

‘‘ऐसा कम ही होता है पर चलो मान लेते हैं. लेकिन आप ने मुझे क्यों बुलाया?’’

‘‘दरअसल, जब वह नहीं लौटी तो मैं ने कमरा खाली कर दिया और उस का सारा सामान इकट्ठा कर के रख दिया. आजकल उस कमरे में एक फ्रैंच स्टूडैंट रहता है.’’

‘‘सब कुछ ठीक है. इस में इतना घबराने और पुलिस को बुलाने की क्या जरूरत पड़ गई?’’

‘‘आप लोगों ने जो खिड़की का फोटो और नीला परदा दिखाया था, उसी को देख कर मैं ने फोन किया. फैमी का जो सामान मैं ने पैक कर के बक्से में रखा, उस में उस का एक चित्र भी है, जिस में वह 2-3 साल के एक बच्चे के साथ वैसी ही खिड़की या दरवाजे के पास बैठी है. आप का चित्र देख कर मैं ने फोन कर दिया.’’

‘‘क्या वह चित्र दिखा सकती हैं मुझे?’’

‘‘हां, मैं ने सामान नीचे उतरवा लिया था.’’

– क्रमश:                             

ऐसे होगी शिशु की बेहतर देखभाल

हाल ही में की गई एक रिसर्च में अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि युवा माताओं में अपने नवजात शिशु की देखभाल और उस के स्वास्थ्य को ले कर चिंता बढ़ती ही जा रही है. कुछ हद तक इस के लिए न्यूक्लियर फैमिली का सिस्टम और कुछ हद तक इंटरनैट पर बेहद सहजता से उपलब्ध तरहतरह की स्वास्थ्य सूचनाएं भी जिम्मेदार हैं.

मोनाश विश्वविद्यालय द्वारा किए गए अनुसंधान में पाया गया कि ज्यादातर मांएं खुद को गैरजिम्मेदार, लापरवाह और खराब मां मान कर अपराधबोध से घिरी रहती हैं. उन्हें ऐसा लगता है कि वे एक अच्छी मां नहीं हैं. इस से उन के मन में शर्म, एंग्जाइटी और स्ट्रैस जैसी भावनाएं घर कर जाती हैं.

अपराधबोध क्यों

सेहत विज्ञानियों ने पाया कि 40 फीसदी नई मांओं में ऐंग्जाइटी का स्तर थोड़ा ही ज्यादा था, जबकि 45 फीसदी में यह काफी अधिक था. कंसल्टैंट साइकिएट्रिस्ट डा. संजय गर्ग कहते हैं कि नई मांओं में अपने नवजात शिशु के प्रति चिंता आजकल एक आम समस्या है. उन का कहना है कि न्यूक्लियर फैमिलीज में अनुभवी सास तो होती नहीं, इसलिए पढ़ीलिखी आधुनिक बहुएं हर सवाल का जवाब इंटरनैट पर ढूंढ़ती हैं. इस में इतनी सारी बातें लिखी होती हैं कि वे कन्फ्यूज हो जाती हैं और काफी हद तक डर भी जाती हैं. उन्हें पलपल यह डर सताने लगता है कि वे तो अपने बच्चे के लिए इन में से बहुत सारी बातों पर अमल कर ही नहीं रहीं.

इस के अलावा नई मांओं में हारमोनल बदलाव भी आते हैं और उन की सामाजिक, पारिवारिक और कैरियर लाइफ में भी उतारचढ़ाव आते हैं. इन सब के साथ अचानक तालमेल बैठा पाना कोई सहज काम नहीं होता है. इसलिए नई मांएं आसानी से ऐंग्जाइटी स्ट्रैस का शिकार हो जाती हैं.

क्या है पोस्टपार्टम ऐंग्जाइटी

किसी भी मां के लिए अपने अबोध शिशु के लिए चिंता करना एक सहज सी बात है, क्योंकि शिशु अपनी बात कह कर नहीं बता सकता और खुद की रक्षा करने में भी अक्षम होता है. लेकिन जब यह चिंता सतत और जरूरत से ज्यादा हो, तो मां की सेहत के लिए नुकसानदायक हो सकती है. इस स्थिति को पोस्टपार्टम ऐंग्जाइटी कहते हैं. इस मनोस्थिति में ये लक्षण नजर आते हैं:

– खुद को अच्छी मां नहीं समझना.

– बच्चे की सेहत, सुरक्षा, नींद आदि के बारे में हर वक्त चिंतित रहना.

– मन में शिशु के जीवन को ले कर बुरे खयाल आना और बुरे सपने देखना.

– शिशु की हर गतिविधि में कुछ कमी नजर आना. बारबार डाक्टर के पास ले कर जाना.

– नींद से चौंक कर उठना और बारबार शिशु की ओर निहारना.

– भूख न लगना.

– मांसपेशियों में दर्द और खिंचाव महसूस होना.

– किसी भी काम में मन न लगना, मन का एकाग्र न हो पाना.

– भुलक्कड़ प्रवृत्ति हावी हो जाना.

– चिड़चिड़ा स्वभाव और बातबात में गुस्सा आना.

– सिरदर्द की शिकायत और रोंआसा स्वभाव होना.

कैसे उबरें इस अपराधबोध से

आप को यह बात समझनी होगी कि आप की ऐंग्जाइटी अच्छी पेरैंटिंग की बड़ी दुश्मन हो सकती है. इसलिए आप को समस्या से उबरने की गंभीर कोशिश करनी होगी. अपराधबोध और अवसाद से उबरने के लिए आप को अपनाने होंगे ये उपाय:

शिशु रोग विशेषज्ञ पर रखें भरोसा: शिशु की सेहत या पालनपोषण से संबंधित कोई भी संदेह या प्रश्न मन में हो तो बच्चों के डाक्टर से खुल कर सलाह लें. आप के दिमाग में जितनी भी शंकाएं उमड़ रही हों उन्हें एक कागज पर नोट कर के ले जाएं और क्रम से सब का समाधान पूछ लें ताकि बाद में कुछ छूट न जाए. इंटरनैट पर शिशु पालन के टिप्स खोजने के बजाय बच्चों के डाक्टर या परिवार की अनुभवी बुजुर्ग महिलाओं की सलाह लें.

भावनाएं शेयर करें: किसी प्रकार की शंका या सवाल मन में हो, तो खुदबखुद उस से जूझने और मन ही मन चिंता करने के बजाय अपने पति, मां, भाभी, बहन से शेयर करें. इस से उन की सलाह मिलेगी और मन हलका होगा.

खुद को सराहें: अपनेआप को सराहें कि एक मां के रूप में आप अपने शिशु के लिए जो कुछ कर रही हैं, वह बैस्ट है. खुद को समझाएं कि आप शिशु को हर संभव सुविधा दे रही हैं, समयसमय पर डाक्टर को दिखा रही हैं, सही ढंग से स्तनपान करा रही हैं और जरूरी टीकाकरण भी करा रही हैं. एक मां इस से ज्यादा और कर भी क्या सकती है.

शिशु की जिम्मेदारी दूसरों को भी दें: दिन भर नवजात शिशु के पीछे लगे रहने और उस की 1-1 गतिविधि को शंका की दृष्टि से देखना शिशु और खुद आप के लिए भी नुकसानदायक होता है. दिन में कुछ वक्त अपनी साजसंभाल और आराम के लिए भी निकालें. उस दौरान शिशु की देखभाल की जिम्मेदारी पति, आया या परिवार के किसी दूसरे सदसय को दें. आप समुचित आराम करेंगी और सही समय पर भोजन करेंगी तभी बच्चे का ठीक से खयाल रख पाएंगी. 

मनोचिकित्सक की मदद लें: अगर आप ऐंग्जाइटी से ज्यादा परेशान हैं और इसे कम करने की आप की कोशिश कामयाब नहीं हो रही है, तो बेहिचक किसी अनुभवी मनोविज्ञानी की सलाह लें. वे आप को कई रिलैक्सेशन टैक्निक्स बताएंगे व आप की काउंसलिंग करेंगे, जिस से आप को सुकून मिलेगा.

शराब करे बरबाद

मध्यवर्गीय शहरी भारतीय महिलाओं के लिए शराब पीना अब वर्जित नहीं रहा. ऐसे में सवाल यह पैदा होता है कि ज्यादातर औरतें शराब क्यों पी रही हैं? अध्ययन करने पर निम्न कारण सामने आते हैं:

– आर्थिक स्वतंत्रता व बदलते सामाजिक वातावरण ने महिलाओं में फैली वर्जनाओं को कम किया है.

– कार्य का दबाव, प्रोफैशनल जिम्मेदारियां और दोस्तों का दबाव हफ्ते में 1 बार ड्रिंक करने के लिए महिलाओं को विवश कर देता है.

– मैट्रो शहरों में हफ्ते में 1 बार लेडीज नाइट ने ड्रिंक की आदत बहुत बढ़ाई है.

– भारतीय उद्योग में स्त्रियों की हर साल 15% बढ़ोतरी हो रही है.

– हर हफ्ते ज्यादातर महिलाएं सामान्य से अधिक मात्रा में शराब पीती हैं.

– पुरुषों के मुकाबले महिलाओं पर शराब ज्यादा बुरा प्रभाव डालती है. इस की आदी होने की संभावना भी पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में अधिक होती है.

30 वर्षीय हर्षिता मेनन का कहना है कि उसे शराब पी कर नाचना बहुत पसंद है. जब वह पीए हुए नहीं होती तब नाचना ऐसा नहीं होता जैसाकि नशे के बाद होता है, क्योंकि नशे के बाद संगीत के प्रति उस की दीवानगी और बढ़ जाती है. शरीर संगीत के अनुसार नाचने लगता है. शराब उसे खुशी प्रदान करती है तथा बातूनी व बेशर्म बनाती है. यह युवा प्रोजैक्ट मैनेजर हफ्ते में औसतन 5 बार शराब पीती है. यह अपने बौयफ्रैंड के साथ रोज शाम को कम से कम 1 बोतल बीयर अवश्य पीती है और यदि सुबह 2 बजे तक मजा न आए तो व्हिस्की पीती है.

मध्यवर्गीय शहरी भारतीय महिलाओं में से सिमरन कौर भी एक है, जो हर हफ्ते कम से कम 2 दिन ‘बार’ अवश्य जाती है, जहां दिन भर के काम के बाद शराब पीती है या फिर 2 रात कौकटेल्स में गुजारती है.

महिलाओं में बढ़ती शराब की लत

आर्थिक रूप से अपनी आजादी व बदलती सामाजिकता के कारण शहरी महिलाएं पहले से ज्यादा शराब पीने लगी हैं. इन आधुनिक महिलाओं की पीने की शुरुआत बीयर से होती है. उस के बाद ये व्हिस्की, वोदका, जिन आदि पीने लगती हैं और फिर यह सिलसिला लगातार जारी रहता है.

20वीं सदी के अंत तक भारतीय महिलाएं लगभग 25 वर्ष की उम्र में पीना शुरू करती थीं, लेकिन वर्तमान समय में यह उम्र घट कर मात्र 11-12 साल रह गई है.

19 साल की लीला का कहना है कि वह 12 साल की उम्र से शराब पी रही है. 22 वर्षीय चेन्नई निवासी संगीता एक ऐड एजेंसी में काम करती है. वह कहती है कि उस ने 15 साल की उम्र तक आतेआते वह सब कर लिया था, जो एक 19 साल का लड़का करता है.

स्टेटस सिंबल है शराब

आधे से ज्यादा पियक्कड़ औरतें पुरुषों जितनी तेजी से ही शराब पीती हैं. ज्यादातर पार्टियों में जहां हर कोई इस बात पर सहमत होता है कि किसी का भी स्तर उस के पीने के स्तर से मापा जाएगा, वहां बहुत बड़े स्तर पर सामाजिक सहमति होती है तथा वहां आप की आधुनिकता को भी चैलेंज होता है, जिस में आप का मेजबान आप से बारबार यह पूछता है कि आप की ड्रिंक कहां है?

23 वर्षीय बैंगलुरु निवासी शोध छात्रा प्रीति ने बताया कि वह अपनी सब से बड़ी कमजोरी शराब न पीना मानती है. उस का कहना कि उस के पब के साथी उस से यही कहते हैं कि जब शराब नहीं पीनी है, तो पब क्यों आई. उसे उन की बातों का जवाब देना बहुत कठिन हो जाता है. उस पर पिछड़ेपन का ठप्पा लग जाता है.

इस तरह की पार्टी या गैटटूगैदर में सोबर लोग फिट नहीं होते हैं. 26 वर्षीय पूजा का कहना है कि जब उस ने ऐडवरटाइजिंग एजेंसी में नौकरी शुरू की तो ड्रिंकिंग केवल सप्ताह के अंत में या फिर किसी के जन्मदिन आदि मौके पर ही होती थी, परंतु अब यह आदत में शुमार हो गई है. अब यह मीटिंग, सामाजिक संबंधों तथा आपसी संपर्क बढ़ाने के लिए एक महत्त्वपूर्ण चीज है. साथ ही, अपना तनाव मिटाने या रात के 2 बजे तक काम करने की हताशा को दूर करने का जरिया भी है.

डा. अतुल कक्कड़ कहते हैं, ‘‘शराब पीने वाली महिलाओं की तादाद दिनप्रतिदिन बढ़ती जा रही है. मैं पिछले 5 सालों में कई ऐसी युवा लड़कियों से मिला, जिन्हें ड्रिंकिंग से होने वाली समस्याएं थीं जैसे पाचनक्रिया में कमी, गैस की समस्या, हैपेटाइटिस, ध्यान की कमी, याददाश्त की समस्या, हलके दौरों की समस्या आदि.’’

अब पहले जैसा माहौल नहीं रहा है, न ही कोई वर्जना महिलाओं, लड़कियों को पीने से रोक पाती है. अब सब कुछ सामान्य है. किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह क्या करता या करती है. आधुनिक लड़कियां एकदूसरे को पिछली गुजरी बरबाद रात के बारे में गले में हाथ डाल कर ऐसे बताती हैं जैसे उन्होंने कोई बहुत बड़ा काम किया हो.

भारतीय शराब उद्योग इस में अधिकतम बढ़ोतरी चाहता है. शराब कंपनियां लगातार अपने हथियारों का प्रयोग कर रही हैं. वे इसी कोशिश में हैं कि औरतें बार से दूर न रहें. इस के लिए विज्ञापनों को और आकर्षक बनाया जा रहा है. फिल्मों के सैटों पर मुक्त शराब बांटी जाती है ताकि फिल्मों में नायकनायिका भी पीते दिखाए जा सकें. अब खलनायक ही नहीं पीते.

भारतीय नाइट क्लबों तथा बड़े लोगों की होने वाली नाइट पार्टियां जो केवल शराब से रंगीन होती हैं, उन की संख्या बढ़ती जा रही है. जिस तरह से औरतों के बीच शराब पीना एक सामाजिकता बनती जा रही है, उस के अनुसार 1-2 पैग पर रुकना बहुत मुश्किल है.

हाल ही के एनआईएमएचएएनएस के अध्ययन के अनुसार ज्यादातर भारतीय महिलाएं 1-2 पैग पर नहीं रुकती हैं. एक बार में सामान्य ड्रिंक की अपेक्षा कम से कम दोगुना तो पीती ही हैं.

सेहत पर भारी पड़ती शराब

यह दुख की बात है कि महिलाएं भी पुरुषों की तरह बिना जमीन पर गिरे इस पेय को घूंटघूंट कर पी रही हैं, इसलिए उन का लिवर भी अब पहले जैसा नहीं रहा है. स्त्रियों के लिवर में डीहाइड्रोजन ऐंजाइम की मात्रा कम होती है, जोकि शराब के टुकड़े करता है. यही कारण है कि तंत्रिका प्रणाली पर शराब का नशीला प्रभाव बढ़ जाता है. चूंकि महिलाओं के शरीर में पानी की मात्रा कम होती है, इसलिए शराब ज्यादा अम्लीय हो जाती है. इस से उन के शरीर में फैट हारमोन व सैक्स हारमोन की अधिकता हो जाती है. लंबे समय तक शराब का सेवन करने से उस का दुष्प्रभाव ज्यादा भयानक होता है, क्योंकि मस्तिष्क व लिवर के ऊतक क्षतिग्रस्त हो जाते हैं.

डा. बेनेगल के अनुसार महिलाओं का एक बड़ा वर्ग अपना दुख, घबराहट, चिंता आदि को मिटाने के लिए भी शराब का सहारा ले रहा है, जबकि पुरुष केवल अच्छा महसूस करने व सामाजिक संबंध बनाने के लिए पीते हैं. अत: आधुनिक व उदारवादी समाज होने व शराब पीने वालों के बीच कोई सीधा संबंध नहीं है, जो औरतें आदतन शराब पीती हैं वे पुरुषों से ज्यादा जल्दी शराब पीने की आदी हो जाती हैं.

शराब पीने की आदत ज्यादातर स्त्रियों की नौकरी व सेहत आदि को प्रभावित करती है. वे चाहें तो अपनी मित्रों के साथ मिल कर शराब पीना छोड़ सकती हैं. 30 वर्षीय रुचिता का कहना है

कि 11 साल पहले जब उस ने स्वयं सहायता समूह जौइन किया था तब मुश्किल से ही कोई महिला उस में शामिल होती थी. लेकिन अब लगभग 45 नियमित मैंबर्स हैं और दर्जनों जुड़ने की कोशिश करती हैं. लेकिन आज भी वे अपनी गुप्त सभाओं को बंद करने को तैयार नहीं हैं. पहले सभी घर में रहते थे परंतु अब सब बाहर रहते हैं. पहले विदेशी महिला, विदेशी व्हिस्की के मुकाबले आराम से मिल जाती थी. समाज को दोनों चीजों की जरूरत थी. आज आप विदेशी बीयर, वाइन, व्हिस्की और वोदका आसानी से पा सकते हैं. विदेशी महिला नहीं. यदि आप शराब से नजरें चुराएंगे तो आप को बहुत पिछड़ा कहा जाएगा. इस तरह से शराब का शिकंजा कसता जाता है.

नूपुर ने अपनी 14 साल की शराब पीने की आदत को हाल ही में छोड़ा है, जो किसी भी शराबी के लिए बहुत बड़ी बात है. उस ने बताया, ‘‘मैं ने पहले धीरेधीरे शराब को बुरा मानना शुरू किया. फिर मैं ने पार्टी में एक अलग ग्रुप बना लिया. जब मैं ने एक दिन होस्ट से कहा कि मुझे शराब नहीं पीनी तो उस ने कहा कि आप की सोच बहुत अच्छी है. फिर कभी मैं ने शराब का सेवन नहीं किया. फिर मेरी हर शाम खुशनुमा बन गई.’’

सीमा ने बताया, जो अब तलाकशुदा का बिल्ला लगाए घूमती है, ‘‘अपने पूर्व पति के साथ 10 दिन की जयपुर यात्रा से लौटने पर मुझे बिना शराब पीए रहना मुश्किल हो गया था, क्योंकि मैं इस की आदी हो गई थी. एक दिन शराब न मिलने पर मेरा शरीर इस के लिए तड़प रहा था. मैं ने दोपहर में वोदका पी, क्योंकि इस से महक नहीं आती और रात में 5-6 पैग व्हिस्की पी और फिर अगले दिन भी शराब पी. मुझे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था कि मैं क्या पी रही हूं. मेरा वैवाहिक जीवन जो ठीक से शुरू भी नहीं हुआ था, खत्म हो गया था यानी पति से संबंधविच्छेद हो गया.’’

कभी कालेज की ब्यूटी क्वीन रही सीमा का चेहरा धब्बेदार, शरीर थुलथुल व बेकार हो गया था. पुराने दोस्त उसे पहचान नहीं पा रहे थे. इस से सब कुछ साफ हो जाता है कि शराब कितनी हानिकारक है. यही नहीं कई शराबी अपराधी भी बन जाते हैं.     

– डा. प्रेमपाल सिंह वाल्यान –

बढ़ते खर्च के लिए माता पिता जिम्मेदार

सीबीएसई यानी सैंट्रल बोर्ड औफ सैकंडरी एजुकेशन ने देश के सारे निजी स्कूलों को अपने आर्थिक मामलों की विस्तृत जानकारी जनसाधारण के लिए नैट पर डालने का आदेश जारी किया है, जिस में अध्यापकों के वेतन, हर मद पर किया खर्च, बिल्डिंग के रखरखाव का खर्च आदि शामिल है. महंगी होती शिक्षा से परेशान पेरैंट्स बहुत हल्ला मचा रहे हैं कि शिक्षा व्यवसाय बन गई है और स्कूलों को व्यापार की तरह चला कर संचालक मालिक बन बैठे हैं.

यह बात सही है कि स्कूल अब धंधा बन गए हैं और इस धंधे में लगे लोगों ने एक माफिया बना लिया है, जिस में स्कूली शिक्षा से जुड़ी नौकरशाही पूरी तरह शामिल हो गई है और इस में राजनीति पूरी तरह घुस गई है. बहुत से नेताओं का व्यवसाय स्कूल ही हैं और वे अपनी राजनीति स्कूलों के दफ्तरों से चलाते हैं.

इन स्कूलों पर लगाम लगाने के लिए लगभग कोई संस्था नहीं है. सीबीएसई का मुख्य काम तो पाठ्यक्रम तय करना व परीक्षाएं करवाना है. स्कूल कैसे चलते हैं, यह देखना उस का काम नहीं है पर चूंकि कोई और रैग्युलेटर नहीं है, यह संस्था ही निर्देश जारी करती रहती है, जिन में से ज्यादातर अव्यावहारिक होते हैं और उन से न शिक्षा का स्तर सुधरा है और न ही मुनाफाखोरी बंद हुई है. कहने को तो शिक्षा देना व्यवसाय नहीं, जन सेवा का काम है और स्कूलों की आय पर कर नहीं लगता पर स्कूल अपना लाभ मालिकों या संचालकों में बांट भी नहीं सकते. स्कूलों को ज्यादातर सोसायटियां चलाती हैं पर हर सोसायटी पर परिवारों का कब्जा होता है और कभीकभार पेरैंट्स के दबाव में या नुकसान होने पर खरीदफरोख्त होती है.

स्कूलों का व्यावसायीकरण तो होना ही है, क्योंकि मातापिता खुद मांग करते हैं कि स्कूल में तरहतरह की सुविधाएं हों. आजकल एयरकंडीशंड कमरों की मांग होने लगी है. इनडोर स्विमिंग पूल मांगे जा रहे हैं. साल में एक विदेशी यात्रा हो. बसों का रखरखाव अच्छा हो. स्कूल लिपापुता हो. स्कूल में कौफीकैफे डे या मैक्डोनाल्ड खुला हो. जब इस तरह की शिक्षा से अलग मांगें की जाएंगी तो पैसे तो कोई देगा ही.

अगर स्कूल फटेहाल लगे तो बच्चे खुद को हीन समझते हैं. वे जोर डालते हैं कि ऐसे स्कूल में भेजा जाए जहां फीस ज्यादा हो. मातापिता सामाजिक प्रतिष्ठा पाने के लिए अपनी हैसीयत से बढ़ कर नाम वाले महंगे स्कूल में भेजते हैं. फिर कैसी खर्चों की जांच? कैसा स्पष्टीकरण? यदि आप फाइवस्टार स्कूल में जाएंगे तो 300 की चाय के प्याले का खर्च कैसे पूछ सकते हैं?

निजी स्कूल महंगे हैं तो मातापिता सरकारी स्कूलों में बच्चों को भेजने के लिए स्वतंत्र हैं जहां अच्छे शिक्षक हैं भले रखरखाव खराब हो. अगर मातापिता मिल कर स्कूलों की सेवा करें तो सरकारी स्कूल भी चमचमा उठें. स्कूलों के बढ़ते खर्च के लिए मातापिता जिम्मेदार हैं, सरकार नहीं. कानूनअदालतों को इस डिमांडसप्लाई से दूर रखें. मूर्ख पेरैंट्स यही डिजर्व करते हैं तो कोई बीच में दखल न दे.

ब्रैंडेड वर वधू

हर लड़की अपने उपलब्ध विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ घरवर देख कर शादी करती है, पर जल्दी ही वह कहने लगती है, तुम से शादी कर के तो मेरी किस्मत ही फूट गई है या तुम ने आज तक मुझे दिया ही क्या है. इसी तरह प्रत्येक पति को अपनी पत्नी ‘सुमुखी’ से जल्द ही ‘सूरजमुखी’ लगने लगती है.

लड़के के घर वालों को तो बरात के लौटतेलौटते ही अपने ठगे जाने का एहसास होने लगता है, जबकि आज के इंटरनैट के युग में पत्रपत्रिकाओं, रिश्तेदारों, इंटरनैट तक में अपने कमाऊ बेटे का पर्याप्त विज्ञापन करने के बाद जो श्रेष्ठतम लड़की, अधिकतम दहेज के साथ मिल रही होती है, वहीं रिश्ता किया जाता है.

यह असंतोष तरहतरह से प्रकट होता है. कहीं बहू जला दी जाती है, तो कहीं आत्महत्या करने को विवश कर दी जाती है. पराकाष्ठा की ये स्थितियां तो उन से कहीं बेहतर ही हैं, जिन में लड़की पर तरहतरह के लांछन लगा कर उसे तिलतिल जलने पर मजबूर किया जाता है.

नवयुगल फिल्मों के हीरोहीरोइन की तरह उच्छृंखल हो पाए, इस से बहुत पहले सास, ननद की ऐंट्री हो जाती है. स्टोरी ट्रैजिक बन जाती है और विवाह, जो बड़े उत्साह से 2 अनजान लोगों के प्रेम का बंधन और 2 परिवारों के मिलन का संस्कार है, एक ट्रैजिडी बन कर रह जाता है. घुटन के साथ एक समझौते के रूप में समाज के दबाव में मृत्युपर्यंत यह ढोया जाता है. ऊपरी तौर पर सुसंपन्न, खुशहाल दिखने वाले ढेरों दंपती अलगअलग अपने दिल पर हाथ रख कर स्वमूल्यांकन करें, तो पाएंगे कि विवाह को ले कर एक टीस कहीं न कहीं हर किसी के दिल में है.

यहां आ कर मेरा व्यंग्य लेख भी व्यंग्य से ज्यादा एक सीरियस निबंध बनता जा रहा है. मेरे व्यंग्यकार मन ने विवाह की इस समस्या का समाधान ढूंढ़ने का यत्न किया. मैं ने पाया कि दामाद को 10वां ग्रह मानने वाले इस समाज में, यदि वरवधू की मार्केटिंग सुधारी जाए, तो स्थिति सुधर सकती है. विवाह से पहले दोनों पक्ष ये सुनिश्चित कर लें कि उन्हें इस से बेहतर और कोई रिश्ता उपलब्ध नहीं है. वरवधू की कुंडली मिलाने के साथसाथ भावी सासूमां से भी मिलवा ली जाए. वर यह तय कर ले कि जिंदगी भर ससुर को चूसने वाला पिस्सू बनने की अपेक्षा पुत्रवत, परिवार का सदस्य बनने में ही दामाद का बड़प्पन है, तो वैवाहिक संबंध मधुर स्वरूप ले सकता है.

अब जब वरवधू के ऐक्सलरेटेड मार्केटिंग की बात आती है, तो मेरा प्रस्ताव है ब्रैंडेड वर, वधू सुलभ कराने का. यों तो शादी डौट कौम जैसी कई अंतर्राष्ट्रीय वेबसाइट सामने आई हैं.

माधुरी दीक्षित ने तो एक चैनल पर बाकायदा एक सीरियल ही शादी करवाने को ले कर चला रखा था. अनेक सामाजिक एवं जातिगत संस्थाएं सामूहिक विवाह जैसे आयोजन कर ही रही हैं. लगभग सभी अखबार, पत्रिकाएं वैवाहिक विज्ञापन दे ही रहे हैं. पर मेरा सुझाव कुछ हट कर है.

यों तो गहने, हीरे, मोती सदियों से हमारे आकर्षण का केंद्र रहे हैं, पर हमारे समय में जब से हीरा है सदा के लिए विज्ञापन का महावाक्य आया है, हमें टिकाऊपन की कीमत समझ आने लगी है. आईएसआई प्रमाणपत्र का जमाना है साहब! खाने की वस्तु खरीदनी हो तो हम चीज नहीं ऐगमार्क देखने के आदी हो गए हैं. पैकेजिंग की डेट और ऐक्सपायरी अवधि, कीमत सब कुछ प्रिंटेड पढ़ कर हम कुछ भी सुंदर पैकेट में खरीद कर खुश होने की क्षमता रखते हैं. अब आईएसआई के भारतीय मार्के से हमारा मन नहीं भरता. हम ग्लोबलाइजेशन के इस युग में आईएसआई प्रमाणपत्र की उपलब्धि देखते हैं. और तो और स्कूलों को भी आईएसआई प्रमाणपत्र मिलता है. यानी सरकारी स्कूल में दो दूनी चार हो, इस की कोई गारंटी नहीं है, पर आईएसआई प्रमाणित स्कूल में यदि दो दूनी छ: पढ़ा दिया गया, तो कम से कम हम कोर्ट केस कर के मुआवजा तो पा ही सकते हैं.

हाल ही में एक समाचार पढ़ा कि अमुक ट्रेन को आईएसआई प्रमाणपत्र मिला है. मुझे उस टे्रन में दिल्ली तक सफर करने का अवसर मिला, पर मेरी कल्पना के विपरीत टे्रन का शौचालय यथावत था, जहां विशेष तरह की चित्रकारी के द्वारा यौन शिक्षा के सारे पाठ पढ़ाए गए थे, मैं सब कुछ समझ गया. खैर, विषयातिरेक न हो, इसलिए पुन: ब्रैंडेड वरवधू पर आते हैं. आशय यह है कि ब्रैंडेड खरीद से हम में एक कौन्फिडैंस रहता है.

शादी एक अहम मसला है. लोग विवाह में करोड़ों रुपए खर्च कर देते हैं. कोई हवा में विवाह रचाता है, तो कोई समुद्र में. हाल ही में भोपाल में एक जोड़े ने ट्रैकिंग करते हुए पहाड़ पर विवाह के फेरे लिए. एक चैनल ने बाकायदा इसे लाइव दिखाया. विवाह आयोजन में लोग जीवन भर की कमाई खर्च कर देते हैं, उधार ले कर भी बड़ी शानोशौकत से बहू लाते हैं.

विवाह के प्रति यह क्रेज देखते हुए मेरा अनुमान है कि ब्रैंडेड वरवधू की अवश्य ही सफलतापूर्वक मार्केटिंग की जा सकेगी. ब्रैंडेड वरवधू को ब्रैंडेड बनाने वाली मल्टीनैशनल कंपनी सफल विवाह की कोचिंग देगी. मैडिकल परीक्षण करेगी. खून की जांच होगी. वधुओं को सासों से निबटने के गुर सिखाएगी. लड़कियों को विवाह से पहले खाना बनाने से ले कर सिलाईकढ़ाईबुनाई आदि ललित कलाओं का प्रशिक्षण देगी. भावी पति को वह कंपनी बच्चे खिलाने से ले कर खाना बनाने तक के तौरतरीके बताएगी, ताकि पत्नी इन गुणों की कमी के आधार पर पति को ब्लैकमेल न कर सके. विवाह का बीमा होगा.

इसी तरह के छोटेबड़े कई प्रयोग हमारे पढ़े लड़के ब्रैंडेड दूल्हेदुलहन पर लेबल लगाने से पहले कर सकते हैं. कहीं ऐसा न हो कि दुलहन के साथ साली फ्री का लुभावना औफर ही कोई व्यावसायिक प्रतियोगी कंपनी प्रस्तुत कर दे. अस्तु, मैं इंतजार में हूं कि सुंदर गिफ्ट पैक में लेवल लगे, आईएसआई प्रमाणित दूल्हेदुलहन मिलने लगेंगे और हम प्रसन्नतापूर्वक उन की खरीदारी करेंगे, विवाह एक सुखमय, चिरस्थाई प्यार का बंधन बना रहेगा. सात जन्म का साथ निभने की कामना के साथ, पत्नी ही नहीं, पति भी हरतालिका व्रत रखेंगे और ऐसे पति का ब्रैंडेड नाम होगा ‘पत्नीव्रता पति’.

यूएन में होगी पिंक की स्पेशल स्क्रीनिंग

बॉलीवुड के मेगास्टार अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘पिंक’ को भारत में दर्शकों द्वारा खूब सराहा गया है. फिल्म में अमिताभ और तापसी पन्नू द्वारा निभाए गए किरदार को काफी पसंद किया गया था. दर्शकों के साथ-साथ क्रिटिक्स को भी फिल्म बहुत पसंद आई थी और लगता है अब इस फिल्म को एक और उपलब्धि मिलने वाली है.

जी हां, हाल ही में अमिताभ ने ट्विटर के जरिए इस बात की जानकारी दी है कि फिल्म ‘पिंक’ की टीम को यूएन के हेडक्वॉटर न्यूयार्क में स्पेशल स्क्रीनिंग के लिए इंवाइट किया गया है. फिल्म की टीम को ये इंविटेशन यूएन के महासचिव सहायक ने दिया है.

बता दें कि फिल्म की कहानी तीन लड़कियों की थी जो दिल्ली में छेड़खानी का शिकार हो जाकी हैं. अमिताभ फिल्म में इन तीनों लड़कियों के वकील हैं.

अनिरुद्ध रॉय चौधरी द्वारा निर्देशित ‘पिंक’ 16 सितंबर को रिलीज हुई थी. फिल्म में अमिताभ और तापसी के साथ कीर्ति कुल्हारी और नवोदित एंड्रिया टैरियांग लीड रोल में थे.

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