एक रात का सफर- क्या हुआ अक्षरा के साथ?

लेखिका- सोनी किशोर सिंह

बस के हौर्न देते ही सभी यात्री जल्दीजल्दी अपनीअपनी सीटों पर बैठने लगे. अक्षरा ने बंद खिड़की से ही हाथ हिला कर चाचाचाची को बाय किया. उधर से चाचाजी भी हाथ हिलाते हुए जोर से बोले, ‘‘मैं ने कंडक्टर को कह दिया है कि बगल वाली सीट पर किसी महिला को ही बैठाए और पहुंचते ही फोन कर देना.’’

बस चल दी. अक्षरा खिड़की का शीशा खोलने की कोशिश करने लगी ताकि ठंडी हवा के झोंकों से उसे उलटी का एहसास न हो, मगर शीशा टस से मस नहीं हुआ तो उस ने कंडक्टर से शीशा खोल देने को कहा. कंडक्टर ने पूरा शीशा खोल दिया.

अक्षरा की बगल वाली सीट अभी भी खाली थी. उधर कंडक्टर एक दंपती से कह रहा था, ‘‘भाई साहब, प्लीज आप आगे वाली सीट पर बैठ जाएं तो आप की मैडम के साथ एक लड़की को बैठा दूं, देखिए न रातभर का सफर है, कैसे बेचारी पुरुष के साथ बैठेगी?’’

अक्षरा ने मुड़ कर देखा, कंडक्टर पीछे वाली सीट पर बैठे युवा जोड़े से कह रहा था. आदमी तो आगे आने के लिए मान गया पर औरत की खीज को भांप अक्षरा बोली, ‘‘मुझे उलटी होती है, उन से कहिए न मुझे खिड़की की तरफ वाली सीट दे दें.’’

‘‘वह सब आप खुद देख लीजिए,’’ कंडक्टर ने दो टूक लहजे में कहा तो अक्षरा झल्ला कर बोली, ‘‘तो फिर मुझे नहीं जाना, मैं अपनी सीट पर ही ठीक हूं.’’

कंडक्टर भी अव्वल दर्जे का जिद्दी था. वह तुनक कर बोला, ‘‘अब आप की बगल में कोई पुरुष आ कर बैठेगा तो मुझे कुछ मत बोलिएगा, आप के पेरैंट्स ने कहा था इसलिए मैं ने आप के लिए महिला के साथ की सीट अरेंज की.’’

तभी झटके से बस रुकी और एक दादानुमा लड़का बस में चढ़ा और लपक कर ड्राइवर का कौलर पकड़ कर बोला, ‘‘क्यों बे, मुझे छोड़ कर भागा जा रहा था, मेरे पहुंचे बिना बस कैसे चला दी तू ने?’’

ड्राइवर डर गया. मौका   देख कर कंडक्टर ने हाथ जोड़ते हुए बात खत्म करनी चाही, ‘‘आइए बैठिए, देखिए न बारिश का मौसम है इसीलिए, नहीं तो आप के बगैर….’’ उस ने लड़के को अक्षरा की बगल वाली सीट पर ही बैठा दिया.

अक्षरा समझ गई कि कंडक्टर बात न मानने का बदला ले रहा था. उस ने खिड़की की तरफ मुंह कर लिया.

बारिश शुरू हो चुकी थी और बस अपनी रफ्तार पकड़ने लगी थी. टेढ़ेमेढ़े घुमावदार पहाड़ी रास्तों पर अपने गंतव्य की ओर बढ़ती बस के शीशों से बारिश का पानी रिसरिस कर अंदर आने लगा. सभी अपनीअपनी खिड़कियां बंद किए हुए थे. अक्षरा ने भी अपनी खिड़की बंद करनी चाही, लेकिन शीशा अपनी जगह से टस से मस नहीं हुआ. उस ने इधरउधर देखा, कंडक्टर आगे जा कर बैठ गया था. पानी रिसते हुए अक्षरा को भिगा रहा था.

तभी बगल वाले लड़के ने पूछा, ‘‘खिड़की बंद करनी है तो मैं कर देता हूं.’’

अक्षरा ने कोई उत्तर नहीं दिया. फिर भी उस ने उठ कर पूरी ताकत लगा कर खिड़की बंद कर दी. पानी का रिसना बंद हो गया, बाहर बारिश भी तेज हो गई थी.

अक्षरा खिड़की बंद होते ही अकुलाने लगी. उमस और बस के धुएं की गंध से उस का जी मिचलाने लगा था. बाहर बारिश काफी तेज थी लेकिन उस की परवाह न करते हुए उस ने शीशे को सरकाना चाहा तो लड़के ने उठ कर फुरती से खिड़की खोल दी.

अक्षरा उलटी करने लगी. थोड़ी देर तक उलटी करने के बाद वह शांत हुई मगर तब तक उस के बाल और कपड़े काफी भीग चुके थे.

बगल में बैठे लड़के ने आत्मीयता से पूछा, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है, मैं पानी दूं, कुल्ला कर लीजिए.’’

अक्षरा अनमने भाव से बोली, ‘‘मेरे पास पानी है.’’

वह फिर बोला, ‘‘आप अकेली ही जा रही हैं, आप के साथ और कोई नहीं है?’’

अक्षरा इस सवाल से असहज हो

उठी, ‘‘क्यों मेरे अकेले जाने से आप को क्या लेना?’’

‘‘जी, मैं तो यों ही पूछ रहा था,’’ लड़के को भी लगा कि शायद वह गलत सवाल पूछ बैठा है, लिहाजा वह दूसरी तरफ देखने लगा.

थोड़ी देर तक बस में शांति छाई रही. बस के अंदर की बत्ती भी बंद हो चुकी थी. तभी ड्राइवर ने टेपरिकौर्डर चला दिया. कोई अंगरेजी गाना था, बोल तो स्पष्ट नहीं थे पर कानफोड़ू संगीत गूंज उठा.

तभी पीछे से कोई चिल्लाया, ‘‘अरे, ओ ड्राइवरजी, बंद कीजिए इसे. अंगरेजी समझ में नहीं आती हमें. कुछ हिंदी में बजाइए.’’

कुछ देर बाद एक पुरानी हिंदी फिल्म का गाना बजने लगा.

रात काफी बीत चुकी थी, बारिश कभी कम तो कभी तेज हो रही थी. बस पहाड़ी रास्ते की सर्पीली ढलान पर आगे बढ़ रही थी. सड़क के दोनों तरफ उगी जंगली झाडि़यां अंधेरे में तरहतरह की आकृतियों का आभास करवा रही थीं. बारिश फिर तेज हो उठी. अक्षरा ने बगल वाले लड़के को देखा, वह शायद सो चुका था. वह चुपचाप बैठी रही.

पानी का तेज झोंका जब अक्षरा को भिगोते हुए आगे बढ़ कर लड़के को भी गिरफ्त में लेने लगा तो वह जाग गया, ‘‘अरे, इतनी तेज बारिश है आप ने उठाया भी नहीं,‘‘ कहते हुए उस ने खिड़की बंद कर दी.

थोड़ी देर बाद बारिश थमी तो खुद ही उठ कर खिड़की खोल भी दी और बोला, ‘‘फिर बंद करनी हो तो बोलिएगा,’’ और आंखें बंद कर लीं.

अक्षरा ने घड़ी पर नजर डाली, सुबह के 3 बज रहे थे, नींद से उस की आंखें बोझिल हो रही थीं. उस ने खिड़की पर सिर टेक कर सोना चाहा, तभी उसे लगा कि लड़के का पैर उस के सामने की जगह पर फैला हुआ है. उस ने डांटने के लिए जैसे ही लड़के की तरफ सिर घुमाया तो देखा कि उस ने अपना सिर दूसरी तरफ झुका रखा था और नींद की वजह से तिरछा हो गया था और उस का पैर अपनी सीट के बजाय अक्षरा की सीट के सामने फैल गया था. अक्षरा उस की शराफत पर पहली बार मुसकराई.

सुबह के 6 बजे बस गंतव्य पर पहुंची. वह लड़का उठा और धड़धड़ाते हुए कंडक्टर के पास पहुंचा, ‘‘उस लड़की का सामान उतार दे और जिधर जाना हो उधर के आटो पर बैठा देना. एक बात और सुन ले जानबूझ कर तू ने मुझे वहां बैठाया था, आगे से किसी भी लड़की के साथ मेरे जैसों को बैठाया तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा. फिर वह उतर कर तेज कदमों से चला गया.’’

अक्षरा के मस्तिष्क में कई सवाल एकसाथ कौंध गए. उसे जहां उस लड़के की सहायता के बदले धन्यवाद न कहने का मलाल था, वहीं इस जमाने में भी इंसानियत और भलाई की मौजूदगी का एहसास.

दिल के पुल: क्यों समीक्षा की शादी के खिलाफ था उसका परिवार?

आज अल्लसुबह इतना कुहरा न था जितना अब दिन चढ़ते छाया जा रहा था. मौसम को भी अनुमान हो चला था कि आज साफगोई की आवश्यकता नहीं है. दिल की उदासी मौसम पर छाई थी और मौसम की उदासी दिल पर. समीक्षा खामोशी से तैयार होती जा रही थी. न मन में कोई उमंग, न कोईर् स्वप्न. आज फिर उसे नुमाइश करनी थी, अपनी. 33 श्रावण पार कर चुकी समीक्षा अब थक चुकी थी इस परेड से. पर क्या करे, न चाहते हुए भी परिवार वालों की जागती उम्मीद हेतु वह हर बार तैयार हो जाती. शुरूशुरू में अच्छी नौकरी के कारण उस ने कई रिश्ते टाले, फिर स्वयं उच्च पदासीन होने के कारण कई रिश्ते निम्न श्रेणी कह कर ठुकराए. 30 पार करतेकरते रिश्ते आने कम होने लगे. अब हर 6 माह बीतने बाद रिश्तों के परिमाण के साथ उन की गुणवत्ता में भी भारी कमी दिखने लगी थी.

समीक्षा ने प्रोफैशनल जगत में बहुत नाम कमाया. आज वह अपनी कंपनी की वाइस प्रैसीडैंट है. बड़ा कैबिन है, कई मातहत हैं, विदेश आनाजाना लगा रहता है. सभी वरिष्ठ अधिकारियों की चहेती है. पर यह कैसी विडंबना है कि जहां एक तरफ उस की कैरियर संबंधी उपलब्धी को इतनी छोटी आयु की श्रेणी में रख सराहा जाता है, वहीं दूसरी तरफ शादी के लिए उस की उम्र निकल चुकी है. यही विडंबना है लड़कियों की. कैरियर में आगे बढ़ना चाहती हैं तो शादी पीछे रखनी पड़ती है और यदि समय रहते शादी कर लें तो पति, गृहस्थी, बालबच्चों के चक्कर में अपनी जिम्मेदारियां निभाते हुए कैरियर होम करना पड़ता है. क्या हर वह स्त्री जो नौकरी में आगे बढ़ना चाहती है और गृहस्थी का स्वप्न भी संजोती है, उसे सुपर वूमन बनना होगा?

‘‘समीक्षा तैयार हो गई? लड़के वाले आते होंगे,’’ मां की पुरजोर पुकार से उस के विचारों की तंद्रा भंग हुई. वर्तमान में लौट कर वह पुन: आईने में स्वयं को देख कमरे से बाहर चली गई.

‘‘हमारी बेटी ने बहुत जल्दी बहुत ऊंचा पद हासिल किया है जनाब,’’ महेशजी ने कहा.

यह सुनते ही लड़के की मां ने बिना देर किए प्रश्न दागा, ‘‘घर के कामकाज भी आते हैं या सिर्फ दफ्तरी आती है?’’

‘हम सोच कर बताएंगे,’ वही पुराना राग अलाप कर लड़के वाले चले गए. समय बीतने के साथ रिश्ता पाने की लालसा में समीक्षा के घर वाले उस से कम तनख्वाह वाले लड़कों को भी हामी भर रहे थे. लेकिन अब बात उलट चुकी थी. अकसर सुनने में आता कि लड़के वाले इतनी ऊंची पदासीन लड़की का रिश्ता लेने में सहज नहीं हैं. कहते हैं घर में भी मैनेजरी करेगी.

शाम ढलने तक बिचौलिए के द्वारा पता चल गया कि अन्य रिश्तों की भांति यह रिश्ता भी आगे नहीं बढ़ पाएगा. एक और कुठाराघात. कड़ाके की ठंड में भी उस के माथे पर पसीना उग गया. सोफे पर बैठेबैठे ही उस के पैर कंपकंपा उठे तो उस ने शाल से ढक लिए. ऐसा लग रहा था कि उस के मन की कमजोरी उस के तन पर भी उतर आई है. पता नहीं उठ कर चल पाएगी या नहीं. उस का मन काफी कुछ ठंडा हो चला था, किंतु आंखों का रोष अब भी बरकरार था.

‘‘पापा, प्लीज अब रहने दीजिए न,’’ पता नहीं समीक्षा की आवाज में कंपन मौसम के कारण था या मनोस्थिति के कारण. इस बेवजह के तिरस्कार से वह थक चुकी थी, ‘‘जो भी आता है मेरी खूबियों को कसौटी पर कसने की फिराक में नजर आता है. हमेशा शीर्ष पर रहने के बाद हाशिए पर सरकाए जाने की पीड़ा असहनीय लगने लगी है मुझे,’’ उस ने भावुक बातों से पिता को सोच में डाल दिया.

समय का चक्र चलता रहा. समीक्षा के जिद करने पर उस के भाई की शादी करवा दी गई. उस ने शादी का विचार त्याग दिया था. सब कुछ समय पर छोड़ नौकरी के साथसाथ सामाजिक कार्य करती संस्था से भी जुड़ गई. मजदूर वर्ग के बच्चों को शिक्षा देने में उसे सच्चे संतोष की प्राप्ति होती. वहीं उस की मुलाकात दीपक से हुई. दीपक भी अपने दफ्तर के बाद सामाजिक कार्य करने हेतु इस संस्था से जुड़ा था. उस की उम्र करीब 45 साल होगी. ऐसा बालों में सफेदी और बातचीत में परिपक्वता से प्रतीत होता था. दोनों की उम्र में इतना फासला होने के कारण समीक्षा बेझिझक उस से घुलनेमिलने लगी. उस की बातों, अनुभव से वह कुछ न कुछ सीखती रहती.

एक दिन दोनों काम के बाद कौफी पी रहे थे. तभी अचानक दीपक ने पूछा, ‘‘बुरा न मानो तो एक बात पूछूं? अभी तक शादी क्यों नहीं की समीक्षा?’’

‘‘रिश्ते तो आते रहे, किंतु कोई मुझे पसंद नहीं आया तो किसी को मैं. अब मैं ने यह फैसला समय पर छोड़ दिया है. मैं ने सुना है आप ने शादी की थी, लेकिन आप की पत्नी…’’ कहते हुए समीक्षा बीच में ही रुक गई.

‘‘उफ, तो कहानी सुन चुकी हो तुम? सब के हिस्से यह नहीं होता कि उन का जीवनसाथी आजीवन उन का साथ निभाए,’’ फिर कुछ पल की खामोशी के बाद दीपक बोले, ‘‘मैं ने सब से झूठ कह रखा है कि मेरी पत्नी की मृत्यु हो गई. दरअसल, वह मुझे छोड़ कर चली गई. उसे जिन सुखसुविधाओं की तलाश थी, वे मैं उसे 30 वर्ष की आयु में नहीं दे सकता था…

‘‘एक दिन मैं दूसरी कंपनी में प्रैजेंटेशन दे कर जल्दी फ्री हो गया और सीधा अपने घर आ गया. अचानक घर लौटने पर मैं अपने एहाते में अपने बौस की कार को खड़ा पाया. मैं अचरज में आ गया कि बौस मेरे घर क्यों आए होंगे. फटाफट घंटी बजा कर मैं पत्नी की प्रतीक्षा करने लगा. दरवाजा खोलने में उसे काफी समय लगा. 3 बार घंटी बजाने पर वह आई. मुझे देखते ही वह अचकचा गई और उलटे पांव कमरे में दौड़ी. इस अप्रत्याशित व्यवहार के कारण मैं भी उस के पीछेपीछे कमरे में गया तो पाया कि मेरा बौस मेरे बिस्तर पर शर्ट पहने…’’

दीपक का गला भर्रा गया. कुछ क्षण वह चुप नीचे सिर किए बैठा रहा. फिर आगे बोला, ‘‘पिछले 4 महीनों से मेरी पत्नी और मेरे बौस का अफेयर चल रहा था… मुझ से तलाक लेने के बाद उस ने मेरे बौस से शादी  कर ली.’’

समीक्षा ने दीपक के कंधे पर हाथ रख सांत्वना दी, ‘‘एक बात पूछूं? आप ने मुझे ये सब बातें क्यों बताईं?’’

कुछ न बोल दीपक चुपचाप समीक्षा को देखता रहा. आज उस की नजरों में एक अजीब सा आकर्षण था, एक खिंचाव था जिस ने समीक्षा को अपनी नजरें झुकाने पर विवश कर दिया. फिर बात को सहज बनाने हेतु वह बोली, ‘‘दीपकजी, इतने सालों में आप ने पुन: विवाह क्यों नहीं किया?’’

‘‘तुम्हारे जैसी कोई मिली ही नहीं.’’

यह सुनते ही समीक्षा अचकचा कर खड़ी हो गई. ऐसा नहीं था कि उसे दीपक के प्रति कोई आकर्षण नहीं था. ऐसी बात शायद उस का मन दीपक से सुनना भी चाहता था पर यों अचानक दीपक के मुंह से ऐसी बात सुनने की अपेक्षा नहीं थी. खैर, मन की बात कब तक छिप सकती है भला. दोनों की नजरों ने एकदूसरे को न्योता दे  दिया था.

समीक्षा की रजामंदी मिलने के बाद दीपक ने कहा, ‘‘समीक्षा, मुझे तुम से कुछ कहना है, जो मेरे लिए इतना मूल्यवान नहीं है, लेकिन हो सकता है कि तुम्हारे लिए वह महत्त्वपूर्ण हो. मैं धर्म से ईसाई हूं. किंतु मेरे लिए धर्म बाद में आता है और कर्म पहले. हम इस जीवन में क्या करते हैं, किसे अपनाते हैं, किस से सीखते हैं, इन सब बातों में धर्म का कोई स्थान नहीं है. हमारे गुरु, हमारे मित्र, हमारे अनुभव, हमारे सहकर्मी जब सभी अलगअलग धर्म का पालन करने वाले हो सकते हैं, तो हमारा जीवनसाथी क्यों नहीं? मैं तुम्हारे गुण, व्यक्तित्व के कारण आकर्षित हुआ हूं और धर्म के कारण मैं एक अच्छी संगिनी को खोना नहीं चाहता. आगे तुम्हारी इच्छा.’’

हालांकि समीक्षा भी दीपक के व्यक्तित्व, उस के आचारविचार से बहुत प्रभावित थी, किंतु धर्म एक बड़ा प्रश्न था. वह दीपक को खोना नहीं चाहती थी, खासकर यह जानने के बाद कि वह भी उसे पसंद करता है मगर इतना अहम फैसला वह अकेली नहीं ले सकती थी. लड़कियों को शुरू से ही ऐसे संस्कार दिए जाते हैं, जो उन की शक्ति कम और बेडि़यां अधिक बनते हैं. आत्मनिर्भर सोच रखने वाली लड़की भी कठोर कदम उठाने से पहले परिवार तथा समाज की प्रतिक्रिया सोचने पर विवश हो उठती है. एक ओर जहां पुरुष पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी राय देता है, पूरी बेबाकी से आगे कदम बढ़ाने की हिम्मत रखता है, वहीं दूसरी ओर एक स्त्री छोटे से छोटे कार्य से पहले भी अपने परिवार की मंजूरी चाहती है, क्योंकि इसी का समाज संस्कार का नाम देता है. आज रात खाने में क्या बनाऊं से ले कर नौकरी करूं या गृहस्थी संभालू तक मानो संस्कारों को जीवित रखने का सारा बोझ स्त्री के कंधों पर ही है.

समीक्षा ने यह बात अपनी मां के साथ बांटी, ‘‘आप क्या सोचती हैं इस विषय पर मां?’’

मां ने प्रतिउत्तर प्रश्न किया, ‘‘क्या तुम दीपक से प्यार करती हो?’’

समीक्षा की चुप्पी ने मां को उत्तर दे दिया. वे बोलीं, ‘‘देखो समीक्षा, तुम्हारी उम्र मुझे भी पता है और तुम्हें भी. मैं चाहती हूं कि तुम्हारा घर बसे, तुम्हारा जीवन प्रेम से सराबोर हो, तुम भी अपनी गृहस्थी का सुख भोगो. मगर अब तुम्हें यह सोचना है कि क्या तुम दूसरे धर्म के परिवार में तालमेल बैठा पाओगी… यह निर्णय तुम्हें ही लेना है.’’

समीक्षा की मां से हामी मिलने पर दीपक उसे अपने घर अपने परिवार वालों से मिलाने ले गया. दीपक  के पिता का देहांत हो चुका था. घर में मां व छोटा भाई थे. समीक्षा को दीपक की मां पसंद आई. मां की परिभाषा पर सटीक उतरतीं सीधी, सरल औरत.

‘‘विवाहोपरांत कौन क्या करेगा, अभी इस का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है. दीपक की पहली शादी हम ने अपनी बिरादरी में की थी, लेकिन… अब इतने वर्षों के बाद यह किसी को पसंद कर रहा है तो जरूर उस में कुछ खास होगा,’’ मां खुश थीं.

लेकिन समीक्षा हिंदू है यह जान कर दीपक के भाई का मुंह बन गया.  कुछ ही देर में दीपक की बड़ी विवाहित बहन आ पहुंची. उसे दीपक के छोटे भाई ने फोन कर बुलाया था. बहन ने आ कर काफी हंगामा किया, ‘‘तेरे को शादी करनी है तो मुझ से बोल. मैं लाऊंगी तेरे लिए एक से एक बढि़या लड़की… यह तो सोच कि एक हिंदू लड़की, एक तलाकशुदा ईसाई लड़के से, जो उस से उम्र में भी बड़ी है, शादी क्यों करना चाहती है. तूने अपना पास्ट इसे बता दिया, पर कभी सोचा कि जरूर इस का भी कोई लफड़ा रहा होगा? इस ने तुझे कुछ बताया? क्या तू हम से छिपा रहा है?’’

लेकिन दीपक अडिग था. उस ने सोच लिया था कि जब दिल ने पुल बना लिया है तो वह उस पर चल कर अपने प्यार की मंजिल तक पहुंचेगा.  समीक्षा प्रसन्न थी कि दीपक व उस की मां को यह रिश्ता मंजूर है, साथ ही थोड़ी खिन्नता भी मन में थी कि उस के भाई व बहन को इस रिश्ते पर ऐतराज है. अब समीक्षा ने अपने घर में पिता और भाई को इस रिश्ते के बारे में बताने का निश्चय किया और फिर वही हुआ जिस की आशा भी थी और आशंका भी.

‘‘डायन भी 7 घर छोड़ देती है पर तुम ने अपने ही घर वालों को नहीं बख्शा, शर्म नहीं आई अपनी ही शादी की बात करते और वह भी एक अधर्मी से?’’ उस का छोटा भाई गरज रहा था. वह भाई जिस की शादी की चिंता समीक्षा ने अपनी शादी से पहले की थी.

‘‘मैं क्या मुंह दिखाऊंगी अपने समाज में? मेरे मायके में मेरी छोटी बहन कुंआरी है अभी, उस की शादी कैसे होगी यह बात खुलने पर?’’ उस की पत्नी भी कहां पीछे थी.

‘‘सौ बात की एक बात समीक्षा, यह शादी होगी तो मेरी लाश के ऊपर से होगी.  अब तेरी इच्छा है अपनी डोली चाहती है या अपनी मां की मांग का सिंदूर,’’ पिता की दोटूक बात पर समीक्षा सिर झुकाए, रोती रही.  वह रात बहुत भारी बीती. बेटी की इस स्थिति पर मां अपने बिस्तर पर रो रही थीं और समीक्षा अपने बिस्तर पर. आगे क्या होगा, इस से दोनों अनजान डर पाले थीं.

अगले दिन पिता ने बूआ का बुला लिया. समीक्षा अपनी बूआ से हिलीमिली थी. अत: पिता ने बूआ को मुहरा बनाया उसे समझा कर शादी से हटाने हेतु. बूआ ने हर तरह के तर्कवितर्क दिए, उसे इमोशनल ब्लैकमेल किया.

उन की बातें जब पूरी हो गईं तो समीक्षा ने बस एक ही वाक्य कहा, ‘‘बूआ, मैं बस इतना कहूंगी कि यदि मैं दीपक से शादी नहीं करूंगी तो किसी से भी नहीं करूंगी.’’

किंतु अपेक्षा के विपरीत समीक्षा का शादी न करने का निर्णय उस के पिता व भाई को स्वीकार्य था. लेकिन दूसरे धर्म के नेक, प्यार करने वाले लड़के से शादी नहीं.  अगली सुबह नाश्ते की टेबल पर पिता बोले, ‘‘समीक्षा की शादी के लिए मैं ने एक लड़का देखा है. हमारे गोपीजी का भतीजा. देखाभाला परिवार है. उन्हें भी शादी की जल्दी और हमें भी,’’ उन्होंने घृणाभरी दृष्टि समीक्षा पर डाली.

समीक्षा का मन हुआ कि वह इसी क्षण वहां से कहीं लुप्त हो जाए. उसी शाम से हिंदुत्व प्रचारक सोना के प्रमुख गोपीजी के भतीजे के गुंडे समीक्षा के पीछे लग गए. उस के दफ्तर के बाहर खड़े रहते. रास्ते भर उस का पीछा करते ताकि वह दीपक से न मिल सके. 3 दिनों की लुकाछिपी से समीक्षा काफी परेशान हो गई.  क्या हम इसीलिए अपनी बेटियों को शिक्षित करते हैं, उन्हें आगे बढ़ने, प्रगति करने की प्रेरणा देते हैं कि यदि उन के एक फैसले से हम असहमत हों तो उन का जीना दूभर कर दें? यह संकुचित सोच उस की मां को कुंठित कर गई. उन के मन में फांस सी उठी. क्या लड़की समाज के लिए अपनी खुशियों का, अपने जीवन का बलिदान दे दे तो महान तथा संस्कारी और यदि अपनी खुशी के लिए अपने ही परिवार से कुछ मांगे तो निर्लज्ज… परिवार का अर्थ ही क्या रह गया यदि वह अपने बच्चों की तकलीफ, उन का भला न देख सके…

रात के भोजन पर समीक्षा के मन पर छाए चिंताओं के बादल से या तो वह स्वयं परिचित थी या उस की मां. अन्य सदस्य बेखबर थे. वे तो समस्या का हल खोज लेने पर भोजन का रोज की भांति स्वाद उठा रहे थे, हंसीमजाक से माहौल हलका बनाए हुए थे.

अचानक मां ने अपना निर्णय सुना दिया, ‘‘समीक्षा, तुम मन में कोई  चिंता न रख. तुम आज तक बहुत अच्छी बेटी, बहुत अच्छी बहन बन कर रहो. अब हमारी बारी है. आज यदि तुम्हें कोई ऐसा मिला है जिस से तुम्हारा मन मिला है तो हम तुम्हारी खुशी में रोड़े नहीं अटकाएंगे.’’  इस से पहले कि पिता टोकते वे उन्हें रोकती हुई आगे बोलीं, ‘‘कर्तव्य केवल बेटियों के  नहीं होते, परिवारों के भी होते हैं. दीपक के परिवार से मैं मिलूंगी और शादी की बात  आगे बढ़ाऊंगी.’’

मां के अडिगअटल निर्णय के आगे सब  चुप थे. शादी के दौरान भी तनाव कुछ कम नहीं हुआ. दोनों परिवारों में शादी को ले कर न तो रौनक थी और न ही उल्लास. समीक्षा के पिता और भाई ने शादी का कार्ड इसलिए नहीं अपनाया था, क्योंकि उस पर बाइबिल की पंक्तियां लिखी जाती थीं. और दीपक के रिश्तेदारों को उस पर गणेश की तसवीर से आपत्ति थी. केवल दोनों की मांओं ने ही आगे बढ़चढ़ कर शादी की तैयारी की थी. बेचारे दूल्हादुलहन दोनों डरे थे कि शादी में कोई विघ्न न आ जाए.

शादी हो गई तब भी समीक्षा थोड़ी दुखी थी. बोली, ‘‘कितना अच्छा होता यदि हमारे परिवार वाले भी सहर्ष हमें आशीर्वाद देते.’’  मगर दीपक की बात ने उस की सारी

शंका दूर कर दी. बोलीं, ‘‘कई बार हमें चुनना होता है कि हम किसे प्यार करते हैं. हम दोनों ने जिसे प्यार किया, उसे चुन लिया. यदि वे हम से प्यार करते होंगे, हमारी खुशी में खुश होंगे तो हमें चुन लेंगे.’’  अब मन में बिना कोई दुविधा लिए दोनों की आंखों में सुनहरे भविष्य के उज्जवल सपने थे.

Top 7 Best Love Stories In Hindi: टॉप 7 प्यार की कहानियां हिंदी में

Love Stories in Hindi: इस आर्टिकल में हम आपके लिए लेकर आए हैं गृहशोभा की 7 Best Love Stories in Hindi 2023. इन कहानियों में प्यार और रिश्तों से जुड़ी कई दिलचस्प कहानियां हैं जो आपके दिल को छू लेगी और जिससे आपको प्यार का नया मतलब जानने को मिलेगा. इन Love  Stories से आप कई अहम बाते भी जान सकते हैं कि प्यार की जिंदगी में क्या अहमियत है और क्या कभी किसी को मिल सकता है सच्चा प्यार. तो अगर आपको भी है संजीदा कहानियां पढ़ने का शौक तो यहां पढ़िए गृहशोभा की Best Love Stories in Hindi.

1- प्यार पर पूर्णविराम: जब लौटा पूर्णिमा का अतीत

‘‘कैसीहो पुन्नू?’’ मोबाइल पर आए एसएमएस को पढ़ कर पूर्णिमा के माथे पर सोच की लकीरें खिंच गईं. ‘मुझे इस नाम से संबोधित करने वाला यह कौन हो सकता है? कहीं अजय तो नहीं? मगर उस के पास मेरा यह नंबर कैसे हो सकता है और फिर यों 10 साल के लंबे अंतराल के बाद उसे अचानक क्या जरूरत पड़ गई मुझे याद करने की? हमारे बीच तो सबकुछ खत्म हो चुका है,’ मन में उठती आशंकाओं को नकारती पूर्णिमा ने वह अनजान नंबर ट्रू कौलर पर सर्च किया तो उस का शक यकीन में बदल गया. यह अजय ही था. पूर्णिमा ने एसएमएस का कोई जवाब नहीं दिया और डिलीट कर दिया.

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2- अब हां कह दो: क्या हुआ था नेहा के साथ

ab ha keh do

लंचके समय समीर ने नेहा के पास आ कर उसे छेड़ा, ‘‘क्या मुझ जैसे स्मार्ट बंदे को आज डिनर अकेले खाना पड़ेगा?’’ ‘‘मुझे क्या पता,’’ नेहा ने लापरवाही से जवाब दिया. ‘‘मैं ने एक बढि़या रेस्तरां का पता मालूम किया है.’’ ‘‘यह मुझे क्यों बता रहे हो?’’ ‘‘वहां का साउथ इंडियन खाना बहुत मशहूर है.’’ ‘‘तो?’’ ‘‘तो आज रात मेरे साथ वहां चलने को ‘हां’ कह दो, यार.’’ ‘‘सौरी, समीर मुझे कहीं…’’ ‘‘आनाजाना पसंद नहीं है, यह डायलौग मैं तुम्हारे मुंह से रोज सुनता हूं. इस बार सुर बदल कर ‘हां’ कह दो.’’ ‘‘नहीं, और अब मेरा सिर खाना बंद करो,’’ नेहा ने मुसकराते हुए उसे डपट दिया. नेहा के सामने रखी कुरसी पर बैठते हुए समीर ने आहत स्वर में पूछा, ‘‘क्या हम अच्छे दोस्त नहीं हैं?’’‘‘वे तो हैं.’’‘‘तब तुम मेरे साथ डिनर पर क्यों नहीं चल सकती हो?’’‘‘वह इसलिए क्योंकि तुम दोस्ती की सीमा लांघ कर मुझे फंसाने के चक्कर में हो.’’

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3- हमसफर भी तुम ही हो

humsafar bhi tum hi ho

अविनाश सुबह समय पर उठा नहीं तो संस्कृति को चिंता हुई. उस ने अविनाश को उठाते हुए उस के माथे पर हाथ रखा. माथा तप रहा था. संस्कृति घबरा उठी. अविनाश को तेज बुखार था. 2 दिन से वह खांस भी रहा था.संस्कृति ने कल इसी वजह से उसे औफिस जाने से मना कर दिया था. मगर आज तेज बुखार भी था. उस ने जल्दी से अविनाश को दवा खिला कर माथे पर ठंडे पानी की पट्टी रखी.संस्कृति और अविनाश की शादी को अभी ज्यादा वक्त नहीं गुजरा था. 2 साल ही हुए थे. पिछले साल तक सासससुर साथ में रहते थे. मगर कोरोना में संस्कृति की जेठानी की मौत हो गई तो सासससुर बड़े बेटे के पास रहने चले गए. उस के बाद करोना का प्रकोप बढ़ता ही गया.

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4- बातों बातों में: सूरज ने अवनी को कैसे बचाया

bato bato me

उस गहरी घाटी के एकदम किनारे पहुंच कर अवनी पलभर के लिए ठिठकी, पर अब आगेपीछे सोचना व्यर्थ था. मन कड़ा कर के वह छलांग लगाने ही जा रही थी कि किसी ने पीछे से उस का हाथ पकड़ लिया. देखा वह एक युवक था.युवक की इस हरकत पर अवनी को गुस्सा आ गया. उस ने नाराजगी से कहा, ‘‘कौन हो तुम, मेरा हाथ क्यों पकड़ा? छोड़ो मेरा हाथ. मुझे बचाने की कोशिश करने की कोई जरूरत नहीं है. यह मेरी जिंदगी है, इस का जो भी करना होगा, मैं करूंगी. हां प्लीज, किसी भी तरह का कोई उपदेश देने की जरूरत नहीं है.’’जवाब देने के बजाय युवक जोर से हंसा. उस की इस ढिठाई पर अवनी तिलमिला उठी. उस ने गुस्से में कहा, ‘‘न तो मैं ने इस समय हंसने वाली कोई बात कही, न ही मैं ने कोई जोक सुनाया, फिर तुम हंसे क्यों? और हां, तुम अपना नाम तो बता दो कि कौन हो तुम?’’

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5- पैबंद: क्या रमा ने पति को छोड़ दिया

paiband

घंटी बजी तो दौड़ कर उस ने दरवाजा खोला. सामने लगभग 20 साल का एक नवयुवक खड़ा था.उस ने वहीं खड़ेखडे़ दरवाजे के बाहर से ही अपना परिचय दिया,”जी मैं मदन हूं, पवनजी का बेटा. पापा ने आप को संदेश भेजा होगा…””आओ भीतर आओ,” कह कर उस ने दरवाजे पर जगह बना दी.मदन संकोच करता हुआ भीतर आ गया,”जी मैं आज ही यहां आया हूं. आप को तकरीबन 10 साल पहले देखा था, तब मैं स्कूल में पढ़ रहा था.”आप की शादी का कार्ड हमारे घर आया था, तब मेरे हाईस्कूल के  ऐग्जाम थे इसलिए आप के विवाह में शामिल नहीं हो सका था. मैं यहां कालेज की पढ़ाई के लिए आया हूं और यह लीजिए, पापा ने यह सामान आप के लिए भेजा है,”कह कर उस ने एक बैग दे दिया. बैग में बगीचे के  ताजा फल, सब्जियां, अचार वगैरह थे.

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6- खरीदी हुई दुल्हन: क्या मंजू को मिल पाया अनिल का प्यार

khareedi hui dulhan

38 साल के अनिल का दिल अपने कमरे में जाते समय 25 साल के युवा सा धड़क रहा था. आने वाले लमहों की कल्पना ही उस की सांसों को बेकाबू किए दे रही थी, शरीर में झुरझुरी सी पैदा कर रही थी. आज उस की सुहागरात है. इस रात को उस ने सपनों में इतनी बार जिया है कि इस के हकीकत में बदलने को ले कर उसे विश्वास ही नहीं हो रहा. बेशक वह मंजू को पैसे दे कर ब्याह कर लाया है, तो क्या हुआ? है तो उस की पत्नी ही. और फिर दुनिया में ऐसी कौन सी शादी होती होगी जिस में पैसे नहीं लगते. किसी में कम तो किसी में थोड़े ज्यादा. 10 साल पहले जब छोटी बहन वंदना की शादी हुई थी तब पिताजी ने उस की ससुराल वालों को दहेज में क्या कुछ नहीं दिया था. नकदी, गहने, गाड़ी सभी कुछ तो था.

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7- जी शुक्रिया: रंजीता से क्या चाहता था रघु

ji shukriya

रंजीता यों तो 30 साल की होने वाली थी, पर आज भी किसी हूर से कम नहीं लगती थी. खूबसूरत चेहरा, तीखे नैननक्श, गोलमटोल आंखें, पतलेपतले होंठ, सुराही सी गरदन, गठीला बदन और ऊपर से खनकती आवाज उस के हुस्न में चार चांद लगा देती थी. वह खुद को सजानेसंवारने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ती थी.रामेसर ने जब रंजीता को पहली बार सुहागरात पर देखा था, तो उस की आंखें फटी की फटी रह गई थीं. जब 22 साल की उम्र में रंजीता बहू बन कर ससुराल आई थी, तब टोेले क्या गांवभर में उस की खूबसूरती की चर्चा हुई थी.

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पवित्र प्रेम: क्या था रूपा की खुद से नफरत का कारण?

‘‘रूपा मैडम, आप कितनी प्यारी हैं. आप का मन कितना सुंदर है. काश, आप की जैसी हिम्मत हम सब में भी होती,’’ रूपा की मेड नीना ने बड़े आदर से कहा और फिर कौफी का कप दे कर अपने घर चली गई.

रूपा मुसकराने लगी. वह पिछले 2 वर्षों से पर्सनैलिटी डैवलपमैंट की क्लासेज ले रही थी. इस क्षेत्र में उसे अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई थी. उस के सैंटर की ख्याति दूरदूर तक फैली हुई थी. 2 वर्षों में ही उस ने अपने व्यवहार, मेहनत, कौशल, आत्मविश्वास एवं आत्मीयता से समाज में सम्मान अर्जित कर लिया था. उस के गुणों

और आत्मिक सौंदर्य के आगे उस की कुरूपता एकदम बौनी हो गई थी. अनेक विषम परिस्थितियों में तप कर उस ने अपने सोने जैसे व्यक्तित्व को संवारा था. प्रेम की अपार शक्ति जो थी उस के साथ.

उस दिन नीना के जाने के बाद रूपा घर में बिलकुल अकेली हो गई थी. उस के पति विशाल और ससुर ऐडवोकेट प्रमोद केस की सुनवाई के लिए गए हुए थे. कौफी का कप हाथ में लिए सोफे पर बैठी रूपा अपने जीवन की गहराइयों में खो गई. उस की जिंदगी का 1-1 पल उस की आंखों में उतरने लगा.

रूपा की यादों में युवावस्था का वह चित्र जीवंत हो उठा, जब एक दिन अचानक एक सुनसान गली में आवारा रोहित उस का रास्ता रोक अश्लील फबतियां कसते हुए बोला, ‘‘मेरी जान, तुम किसी और की नहीं हो सकती, तुम बस मेरी हो.’’

रोहित की बदनीयत देख कर रूपा डर से कांपने लगी. उस दिन वह जैसेतैसे भाग कर अपने घर पहुंची थी. उस की सांसें बहुत तेज चल रही थीं. उस की मां गीता ने उसे सीने से लगा लिया. जब रूपा कुछ शांत हुई तब मां ने पूछा, ‘‘क्या हुआ बेटा?’’

रूपा ने रोहित के विषय में सबकुछ बता दिया. रोहित के व्यवहार से वह इतनी डर गई थी कि अब कालेज भी नहीं जाना चाहती थी. जब कभी वह अकेली बैठती, रोहित की घूरती आंखें और अश्लील हरकतें उसे डराती रहती.

कुछ दिन बाद रूपा ने बड़ी मुश्किल से कालेज जाना शुरू किया, परंतु रोहित उसे रोज कुछ न कुछ कह कर सताता रहता था. एक दिन जब रूपा ने उसे पुलिस की धमकी दी तो उस

ने कहा, ‘‘पुलिस मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी. मुझ से शादी नहीं करोगी, तो मैं तुम्हें जीने भी नहीं दूंगा.’’

रूपा ने अपनी प्रिंसिपल को भी रोहित के विषय में सब बताया, परंतु कालेज के बाहर का मामला होने के कारण उन्होंने भी कोई खास ध्यान नहीं दिया. रूपा को अपने पापा की बहुत याद आती थी. वह सोचती थी कि काश पापा जीवित होते तो कोई उसे इस तरह तंग नहीं कर पाता.

रूपा और उस की मां का चैन से जीना दूभर होता जा रहा था. रूपा ने बड़ी मुश्किलों का सामना कर एमए (मनोविज्ञान) फाइनल की परीक्षा दी थी.

एक दिन उस की मां गीता ने उसे विवाह के लिए मनाते हुए कहा, ‘‘रूपा, चंडीगढ़ में मेरी सहेली का बेटा विशाल है. वह इंजीनियर है. बहुत ही समझदार है. क्या मैं उस से तुम्हारी शादी की बात चलाऊं?’’

रूपा तुरंत मान गई. वह भी उस गुंडे रोहित से अपना पीछा छुड़ाना चाहती थी. शादी की बात चली और रिश्ता तय हो गया.

विवाह के मधुर पलों की याद आते ही रूपा की आंखों में एक चमक सी आ गई. उस ने कौफी का कप एक ओर रख दिया और सोफे पर ही लेट गई. उस के विचारों की पतंग उड़े जा रही थी.

रूपा और विशाल का विवाह चंडीगढ़ में बड़ी धूमधाम से संपन्न हो गया. विशाल जैसे होशियार, रूपवान, समझदार और प्यार करने वाले युवक का साथ पा कर रूपा बहुत खुश थी. उसे जीवन की सारी खुशियां मिल गई थीं.

रूपा धीरेधीरे अपनी नई प्यारभरी जिंदगी में रचबस गई. वह अपने सासससुर की भी बहुत लाडली थी. उस ने घर की सभी जिम्मेदारियां संभाल ली थीं. सभी उस के रूप और गुणों के प्रशंसक बन गए थे.

रूपा ने रोहित के विषय में विशाल को भी सबकुछ बता दिया था. विशाल ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘‘डरना छोड़ो रूपा. होते हैं कुछ ऐसे सिरफिरे. तुम उसे भूल जाओ. अब मैं हूं न तुम्हारे साथ.’’

विवाह के 3 वर्ष बीत चुके थे. इस बीच कई बार रूपा और विशाल

चंडीगढ़ से लखनऊ गए, पर वह आवारा रोहित कभी उन के सामने नहीं आया. रूपा धीरेधीरे उसे भूल गई. उसे अपनी जिंदगी पर नाज होने लगा था.

एक दिन रूपा लखनऊ में अपने पति विशाल के साथ बाजार से लौट रही थी. तभी अचानक उस मनचले गुंडे रोहित ने रूपा के सुंदर चेहरे पर तेजाब फेंकते हुए कहा, ‘‘ले अब दिखा, अपना यह रूप विशाल को.’’

रूपा का सुंदर चेहरा पलभर में जल कर बदसूरत हो गया. वह रूपा से कुरूपा हो गई. मगर सुंदर चेहरे पर तेजाब डालने वाला रोहित अपनी जीत पर मुसकरा रहा था.

विशाल तो ये सब देख कर स्तब्ध सा रह गया. फिर तुरंत पुलिस को फोन किया और सहायता के लिए चिल्लाने लगा. कुछ ही देर में बहुत लोग एकत्रित हो गए. रोहित के हाथ में ऐसिड की बोतल थी. अत: कोई भी डर के मारे उस के पास नहीं जा रहा था. तभी पुलिस ने आ कर उसे पकड़ लिया.

विशाल रूपा को ऐंबुलैंस में अस्पताल ले गया.

औपचारिकताएं पूरी होने के बाद रूपा का इलाज शुरू हुआ. उस की दोनों आंखों की पुतलियां दिखाई ही नहीं दे रही थीं. उस का चेहरा इतना बिगड़ चुका था कि डाक्टर ने विशाल को भी उसे देखने की इजाजत नहीं दी. रूपा को इंटैंसिव केयर में रखा गया. 2 दिन बाद जब रूपा की मां गीता और विशाल को रूपा से मिलाया गया तब मां की चीख निकल गई. ऐसिड फेंकने का घिनौना अपराध करने वाले रोहित के प्रति उन का मन विद्रोह की आग से भर उठा.

लगभग ढाई महीने बाद रूपा को अस्पताल से छुट्टी मिली, परंतु

इलाज का यह अंत नहीं था. इस बीच न तो उसे दृष्टि मिली थी और न ही रूप. उस के और कई औपरेशन होने बाकी थे.

विशाल रूपा को वापस चंडीगढ़ ले गया. उस की आंखों और चेहरे के कई औपरेशन हुए.

धीरेधीरे आंखों की रोशनी वापस आ गई. जब रूपा ने इस घटना के बाद पहली बार दुनिया देखी तब उस की खुशी का ठिकाना नहीं रहा, अपना चेहरा देखा तो चीख पड़ी. उसे शीशे में अपना ही भूत नजर आया. वह विशाल के सीने से लग कर जोरजोर से रोते हुए बोली, ‘‘विशाल, इस कुरूप चेहरे को ले कर मैं तुम्हारी जिंदगी नहीं बिगाड़ सकती. मैं जीवित नहीं रहना चाहती. मुझ से इतना प्यार मत करो.’’

विशाल की आंखें छलकने को थीं, पर उस ने अपने आंसुओं को किसी तरह पी लिया. उस ने रूपा को प्यार से गले लगाते हुए कहा, ‘‘रूपा, तुम मेरी बहादुर पत्नी हो. तुम ही तो मेरी जान हो. तुम्हारे बिना मेरा कोई वजूद नहीं है. मैं मात्र तुम्हारी सूरत से नहीं, अपितु तुम से प्यार करता हूं. तुम ऐसे हार मान जाओगी तो मेरा क्या होगा?’’

रूपा अपने कुरूप चेहरे पर विशाल के होंठों का स्पर्श पा कर फफकफफक कर रोने लगी. उस की हिचकियां रुकने का नाम नहीं ले रही थीं. वह विशाल के नि:स्वार्थ प्यार की गहराइयों में डूब कर अपनी कुरूपता को दोषी मान रही थी. उसे लग रहा था जैसे उस का चेहरा ही नहीं, बल्कि विशाल की खुशियां भी तेजाब से जल कर खाक हो गई हैं.

अपने डरावने चेहरे को देख कर रूपा की निराशा दिनप्रतिदिन बढ़ती जा रही थी. ऐसी विदू्रपता, विकृति को देख उस के मन को गहरी चोट पहुंची थी. जब वह लोगों को स्वयं को घूरते देखती तो ऐसा लगता मानों सब उस की कुरूपता को देख कर सहम गए हैं. हर नजर उस के मन को छेद देती थी.

रूपा एक दिन परेशान हो कर विशाल से बोली, ‘‘विशाल, मेरी जैसी कुरूप लड़की के साथ तुम क्यों अपना जीवन व्यर्थ करना चाहते हो? तुम क्यों दूसरी शादी नहीं कर लेते हो? अपनी खुशियां मेरी इस कुरूपता पर मत लुटाओ. तुम मुझे तलाक दे दो.’’

विशाल ने बड़े प्यार से कहा, ‘‘रूपा, मैं ने विवाह का प्यारा बंधन तोड़ने के लिए नहीं जोड़ा. पतिपत्नी का मिलन 2 दिलों का मिलन होता है. क्या मात्र एक

दुर्घटना हमें जुदा कर सकती है? यदि मेरे साथ ऐसी दुर्घटना हो जाती तो क्या तुम मुझे तलाक दे देतीं?’’

रूपा ने विशाल के मुंह पर हाथ रख दिया. उस की आंखों से प्रेम के आंसुओं के झरने बहने लगे. उस का मन विशाल के त्याग और प्रेम को पा कर धन्य हो उठा.

चंडीगढ़ में रूपा का इलाज चलता रहा. तेजाब से जली त्वचा का महंगा

और लंबा इलाज विशाल की माली हालत तथा उस के काम पर भी दुष्प्रभाव डाल रहा था, किंतु उस ने रूपा को कभी ऐसा महसूस नहीं होने दिया. वह एक जिम्मेदार पति की तरह अपने कर्तव्यों को बखूबी निभा रहा था.

विशाल के पिता ऐडवोकेट प्रमोद नामी वकील थे. वे रूपा की न्यायिक प्रक्रिया के कार्यों में दिनरात लगे थे. उन्होंने उस जघन्य अपराधी को सजा दिलवाने की ठान ली थी. इस के अतिरिक्त इलाज आदि के लिए जो सरकार से मदद का प्रावधान था, उसे प्राप्त करने के लिए भी वे प्रयत्नशील थे.

अचानक रूपा की स्मृतियों में अपने रिश्तेदार की बातें कांटे की तरह चुभने लगीं. एक दिन रूपा को देखने रिश्तेदार आए थे. वे रूपा से मिले और चलतेचलते विशाल से बोले, ‘‘भैया, तुम्हारी ही हिम्मत है जो तुम इस की सेवा कर रहे हो. आजकल की लड़कियां तो प्रेम किसी से करती हैं और शादी किसी से. परिणाम तुम जैसे पतियों को भुगतना पड़ता है. पहले ही जन्मपत्री मिला कर शादी की होती तो ऐसी दुर्घटना से बच जाते. मेरी सलाह मानो तो दूसरी शादी कर लो. कब तक ढोओगे इस की बदसूरती को.’’

विशाल के पिता प्रमोद ये सब सुन रहे थे. वे तपाक से बोले, ‘‘भाई साहब, आप ने तो अपने बेटे की शादी खूब जन्मपत्री मिला कर की थी न, फिर क्या हुआ था? याद है न, आप की बहूरानी तो शादी के दूसरे दिन ही आप सब को छोड़ कर मायके चली गई थी. जन्मपत्री मिला कर आप ने कौन से फूल खिला लिए थे? हमारी निर्दोष बहू पर लांछन लगाने से पहले अपने गरीबान में तो झांक कर देख लिया होता.’’

उस दिन रिश्तेदार की बात सुन कर रूपा को ऐसा लगा था जैसे एक बार फिर किसी ने कटुता का ऐसिड उस पर डाल दिया हो. उस का मन छलनी हो गया था. वह मर जाना चाहती थी. अपना मुंह छिपा कर रोने लगी.

विशाल दिल पर पत्थर रख कर उस का हाथ अपने हाथ में ले कर बोला, ‘‘तुम चिंता मत करो रूपा. मैं तुम्हारा पति हूं और मैं तुम्हारे साथ हूं. जब कोई ऐसी बेतुकी बात करता है, तो मन करता है उस का मुंह नोच लूं. पर यह भी इस का समाधान नहीं… समाज में स्त्रियों को जब तक मानसम्मान नहीं मिलेगा तब तक यही स्थिति रहेगी. हमें ऐसे दकियानूसी और पाखंडी लोगों की सोच बदलनी होगी.’’

रूपा विशाल की गोदी में सिर रख कर रोए जा रही थी.

विशाल ने उस के बालों को सहलाते हुए कहा, ‘‘मैं चाहता हूं कि मेरी रूपा फिर से हंसना सीख ले. अपने को बारबार कुरूप कहना छोड़ दे. रूपा, मेरे लिए तुम आज भी उतनी ही सुंदर हो जितनी पहले थी. मैं जानता हूं कि तुम्हारा मन कितना सुंदर और पवित्र है.’’ और फिर विशाल ने रूपा को जूस पिला कर सुला दिया.

हर दिन एक नया दिन होता था. कुछ घाव सूखते थे तो कुछ वाणी के घाव नए बन जाते थे. विशाल ने रूपा का मन धीरेधीरे प्राणायाम की ओर आकर्षित किया. वह हमेशा उस से कहता कि अपने मन को महसूस करो, जो बहुत सुंदर है. रूपा तुम्हें ऐसे अपराधियों के विरुद्ध लड़ना है. तुम्हें हिम्मत बढ़ानी है. तुम सुंदर हो. शक्तिशाली हो, मनोविज्ञान की ज्ञाता हो. तुम्हारे अंदर असीम शक्तियां छिपी हैं. तुम ऐसे हार नहीं मान सकतीं. मन में आशा और विश्वास भर कर तुम्हें समाज की बुराइयों को दूर करना है.

रूपा पर विशाल की बातों का असर होने लगा था. वह मरमर कर भी जीना सीख रही थी. उस ने मन में विश्वास भर कर पर्सनैलिटी डैवलपमैंट की पुस्तकें पढ़नी शुरू कर दीं. उस के भीतर अपनी नई पहचान बनाने की लौ जाग उठी थी.

दूसरी ओर न्यायिक प्रक्रिया भी चल रही थी. विशाल और उस के पिता तारीख पड़ने पर कोर्ट जाते थे. 1 वर्ष बाद की तारीख में विशाल अपने मातापिता और रूपा को भी कोर्ट में ले कर पहुंचा था. अपराधी रोहित पहले से वहां था. विशाल रूपा को सहारा दे कर बड़े प्यार और सम्मान से जब कोर्ट में दाखिल हुआ तो उस नजारे को देख कर अपराधी रोहित की उम्मीदों पर तो जैसे पानी ही फिर गया. उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसी बदसूरत लड़की को भी कोई पति प्यार करेगा.

विशाल ने रूपा की खुशियां छीनने वाले अपराधी रोहित को नफरतभरी नजर से देखते हुए कहा, ‘‘तुम ने जो हमारे संग किया है, उस का दंड तुम्हें बहुत जल्दी मिलेगा. मेरे हिसाब से तुम दुनिया के सब से कुरूप व्यक्ति हो… दुनिया में तुम्हें कोई पसंद नहीं करेगा, जबकि रूपा को इस हालत में भी सब चाहते हैं. वह हमेशा सुंदर थी और सुंदर रहेगी.’’

उस दिन रूपा भी रणचंडी बनी हुई थी. उस की आंखों में उस अपराधी के लिए घृणा के साथसाथ क्रोध की भी ज्वाला धधक रही थी. वह किसी तरह अपना गुस्सा पी रही थी.

रूपा अपने विचारों के सागर में डूबी हुई थी कि अचानक घड़ी के 5 घंटे सुनाई दिए तो सकपका कर उठ खड़ी हुई और फिर अपने काम में लग गई.

कुछ ही देर में विशाल और प्रमोद कोर्ट से घर लौट आए. वे बहुत खुश थे, क्योंकि रूपा की जीत हुई थी. उस अपराधी को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी.

रिश्ते: क्यूं हर बार टूट जाती थी स्नेहा की शादी

जुर्माना: क्या थी वजह

रविवारकी सुबह मेरी नींद मां व अंजु के ?ागड़ने की आवाजें सुन कर टूटी. मेरे छोटे भाई संजय की पत्नी से मां का अब लगभग पूरा दिन ?ागड़ा होता है. सिर्फ 1 साल के अंदर इन दोनों के संबंध बहुत खराब हो गए हैं. कुछ देर बाद मु?ो चाय का कप देते हुए मां ने रोआंसी आवाज में कहा, ‘‘समीर, मैं अंजु के साथ नहीं रह सकती हूं. तू शादी क्यों नहीं कर लेता. मैं तेरे घर में नौकरानी बन कर भी रहूंगी तो मु?ो यहां से ज्यादा इज्जत मिलेगी.’’ ‘तुम चुप रहोगी तो क्लेश नहीं होगा. तुम फालतू की बहस में उस के साथ क्यों उल?ाती हो?’’ उन के आंसुओं ने मु?ो दुखी किया तो मेरी आवाज में चिड़चिड़ाहट पैदा हो गई. ‘‘देख, सीमा अच्छी लड़की है. तू इस रिश्ते के लिए ‘हां’ कह दे,’’ मां ने आंखों में आंसू ला कर वार्त्तालाप को इच्छित दिशा में मोड़ दिया. ‘‘यों आंसू वहां कर मु?ा से जबरदस्ती हां कहलाने की कोशिश मत करो,’’ मैं चाय का कप लिए ही उठ कर बाथरूम में घुस गया.

जिस सीमा का रिश्ता मेरे लिए आया है, उस से मैं पिछले रविवार को अपनी बूआ के घर मिला था. वह अपने मम्मीपापा के साथ वहां आई थी. बूआ ने अगर मु?ो पहले बता दिया होता तो मैं शायद उन के यहां जाना ही टाल देता क्योंकि किसी लड़की से मैं उसे धोखे में रख शादी नहीं कर सकता था. बूआ की जिद के सामने मजबूर हो कर मैं ने सीमा से कुछ इधरउधर की बातें करने के बाद पूछा, ‘‘तुम ने अब तक शादी क्यों नहीं करी है?’’ मेरे इस सवाल को सुन उस ने गंभीर स्वर में मु?ो जानकारी दी, ‘‘मेरे बड़े भाई और मंगेतर की अब से 5 साल पहले सड़क हादसे में एकसाथ मौत हो गई थी. अब मेरे अलावा मम्मीपापा की देखभाल करने वाला और कोई नहीं है. मां का सूजा हुआ बांया घुटना तो अब बहुत तकलीफ देने लगा है.

‘‘अभी तक मैं ने शादी इसलिए नहीं करी है क्योंकि अपने मंगेतर से जुड़ी यादों के धूमिल होने में काफी वक्त लगा है. दूसरी बात यह कि अभी तक ऐसा कोई युवक नहीं मिला जो मेरे मातापिता की आजीवन देखभाल करने में मेरा हाथ बंटाने को खुशीखुशी राजी हो.’’

‘‘कोई न कोई ऐसा सम?ादार और संवेदनशील इंसान तुम्हें जरूर मिल जाएगा,’’ मैं ने उस का हौसला बढ़ाने को जवाब दिया.

‘‘मै ने भी उम्मीद नहीं छोड़ी है,’’ उस की मुसकराती आंखों में मु?ो जिंदगी के प्रति किसी तरह की कड़वाहट या शिकायत नजर नहीं आई.

‘‘तुम चाहो तो अपनी मम्मी को मेरे दोस्त रवि के पिताजी को दिखा सकती हो. वह बहुत अच्छे और जानेमाने और्थोपैडिक सर्जन हैं.’’ ‘क्या तुम उन के साथ हमारी मुलाकात का समय तय करा दोगे?’’

‘‘श्योर. मैं रवि से बात करने के बाद तुम्हें फोन करता हूं.’’

मेरी बात सुन कर वह धन्यवाद देने वाले अंदाज में मुसकराई और फिर उस ने अपना मोबाइल नंबर मु?ो नोट करा दिया.

मु?ो सीमा सम?ादार और आत्मविश्वास से भरी लड़की लगी. उस की इस बात ने मु?ो प्रभावित किया कि वह अपने मातापिता की देखभाल के सवाल को अनदेखा कर अपना घर नहीं बसाना चाहती. अब बूआ और मां इस रिश्ते के लिए हां कहने को मु?ा पर बहुत जोर डाल रहे थे. मु?ो शादी करनी नहीं थी पर फिर भी मैं इन दोनों को न नहीं कर पा रहा था. ‘‘मैं सोच कर जवाब देता हूं,’’ बारबार ऐसा बहाना बना कर मैं फिलहाल अपनी जान बचा रहा था. मैं तैयार हो कर घर से निकला तब सुबह के 10 बज रहे थे. कार से मैं सीधा महक से मिलने उस के घर पहुंचा. महक मेरे बचपन के दोस्त नीरज की पत्नी है. हम तीनों साथसाथ कालेज में पढ़ा करते थे. मैं ने जो अभी तक शादी नहीं करी है, उस का कारण महक है. मैं उस से प्रेम करता हूं और इसी कारण अब तक किसी अन्य लड़की को अपनी जीवनसंगिनी बनाने का कदम नहीं उठाया है. नीरज मु?ा से हाथ मिलाने के बाद नहाने के लिए बाथरूम में घुस गया. उन का बेटा मयंक टीवी पर कार्टून चैनल देख रहा था. मौके का फायदा उठा कर मैं ने रसोई में काम कर रही महक को अपनी बांहों में भर कर कहा, ‘‘बहुत दिन हो गए हैं तुम्हें जी भर कर प्यार किए हुए और कितने दिनों तक मु?ो प्यासा रखोगी, मेरी जान?’’

‘‘ज्यादा दिन नहीं,’’ उस ने बड़ी अदा से मेरे होंठों पर छोटा सा चुंबन अंकित कर खुद को मेरी बाहों के घेरे से आजाद कर लिया. ‘‘सच कह रही हो?’’

‘‘हां, नीरज 2 दिनों के लिए अपने चचेरे भाई की शादी में शामिल होने कानपुर जा रहे हैं.’’

‘‘कब?’’ ‘‘कल रात को.’’ ‘‘मैं 2 दिन की छुट्टी ले कर सारा समय तुम्हारे साथ यहीं गुजारूंगा,’’ खुशी के मारे मेरा मन नाच उठा. ‘ओके, पर फिलहाल ड्राइंगरूम में जा कर बैठो. नीरज को हमारे ऊपर कभी शक नहीं होना चाहिए,’’ उस ने मु?ो धकेल कर रसोई से बाहर कर दिया. कुछ देर बाद चाय पीते हुए उस ने ?ि?ाकते स्वर में मु?ा से कहा, ‘‘समीर, अगले सोमवार तक हमें 50 हजार रुपए चाहिए होंगे.’’ ‘‘वह किसलिए?’’ मैं ने चैंक कर पूछा. ‘‘मयंक का नए स्कूल में ऐडमिशन होना है. वे लोग डोनेशन मांग रहे हैं.’’ मैं जवाब देने में कुछ ?ि?ाका तो उस ने भावुक हो कर कहा, ‘‘तुम से रुपए मांगने में हमें शर्म आ रही है क्योंकि अभी तक हम ने पिछले 50 हजार ही नहीं लौटाए हैं.’’ नीरज ने मेरे कुछ कहने से पहले ही परेशान लहजे में कहा, ‘‘हम दोनों कमाते हैं पर फिर भी कुछ जुटा नहीं पाते है. छोटी बहन की शादी में लिया कर्जा उतरा नहीं था कि पिताजी के दिल का औपरेशन कराना पड़ा. तुम से 50 हजार रुपए न मिलते तो किसी और के सामने हाथ फैलाना पड़ता. अब मैं इसे कहता हूं कि किसी सस्ते स्कूल में मयंक का दाखिला करा दो, पर यह मानती नहीं है.’’ ‘‘अगर 50 हजार का इंतजाम नहीं हुआ तो करा देंगे उस का एडमिशन किसी घटिया स्कूल में,’’ महक रोआंसी सी हो उठ थी. ‘‘मैं कर देता हूं 50 हजार का इंतजाम. तुम दिल छोटा न करो, महक,’’ मेरी बात सुन कर उन दोनों के चेहरे खुशी से खिल उठे थे. ‘‘तुम्हारे ये सारे एहसान हम जिंदगीभर नहीं भूलेंगे,’’ नीरज बहुत भावुक हो उठा. ‘‘दोस्त हो कर ऐसी घटिया बात मुंह से मत निकालो,’’ मेरा यह उलाहना सुन नीरज ने उठ कर मु?ो अपने गले लगा लिया. महक की आंखों में अपने लिए प्यार के गहरे भाव देख कर मेरा दिल खुश हो गया. उस के दिल में अपने प्रति प्यार की जड़ें मजबूत रखने के लिए मु?ो फिर से उन्हें 50 हजार रुपए देना जरा भी नहीं खल रहा था.

रात मैं उत्तेजना के मारे ढंग से सो नहीं सका. कुछ समय बाद महक को मैं जीभर कर प्यार कर सकूंगा, इस विचार ने मेरी नींद को अनगिनत रंगीन व मादक सपनों से भर दिया. इंसान सोचता कुछ है और होता कुछ और है. महक ने अगले दिन शाम को मु?ो फोन पर जो खबर दी, उसे सुन कर मेरा दिमाग बुरी तरह से भन्ना गया.

‘‘नीरज जिद कर के मु?ो भी अपने साथ शादी में शामिल होने को ले जा रहे हैं. आई एम सौरी,’’ उस की आवाज में अफसोस के भाव साफ ?ालक रहे थे.

‘‘ऐसा मत करो, यार. तुम किसी भी तरह से अपना जाना टालो,’’ अपने रंगीन सपनों की दुनिया को उजड़ते देख मु?ो गुस्सा आ गया था.

‘‘मैं उन की जिद के सामने मजबूर हूं समीर, पर यह पक्का वादा करती हूं कि मैं वापस आते ही तुम से अकेले में मिलने की कोई न कोई तरकीब जरूर निकालूंगी.’’

‘‘मु?ो बहुत जोर से गुस्सा आ रहा है.’’

‘‘गुस्सा मत करो, स्वीटहार्ट. वापस आ कर मैं तुम्हें इतना प्यार करूंगी कि तुम्हारा दिल खुश हो जाएगा.’’

‘‘पक्की बात?’’

‘‘बिलकुल पक्की.’’

उस के इस आश्वासन ने मु?ो जरा सी भी खुशी नहीं दी थी. फोन रखने के बाद मेरा मन बहुत चिड़चिड़ा और अकेला सा हो गया. गुस्से में आ कर मैं ने उसे मन ही मन काफी भलाबुरा कहा.

मैं सारी रात ढंग से सो नहीं पाया. बारबार मन महक के खूबसूरत बदन की महक व स्पर्शसुख की मांग उठाता रहा. उस ने मेरी भावनाओं को आंदोलित करने के बाद मु?ो प्यासा छोड़ कर बिलकुल अच्छा नहीं किया. सुबह औफिस न जा कर मैं सिटी अस्पताल पहुंच गया. मु?ो यह याद था कि सीमा अपनी मम्मी का रवि के चाचाजी से चैकअप कराने के लिए मंगलवार की सुबह वहां आने वाली है. इस मुलाकात का समय मैं ने ही तय कराया था. मु?ो अचानक सामने देख कर सीमा और उस के मातापिता चौंक पड़े. मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘सीमा, तुम्हें अब रुकने की जरूरत नहीं है. मैं यहां सब संभाल लूंगा. तुम्हारा क्लोजिंग टाइम चल रहा है, इसलिए तुम औफिस चली जाओ. कुछ नानुकुर करने के बाद सीमा औफिस चली गई. विदा लेते समय उस की आंखों में मेरे व्यवहार से उपजे अजीब सी उल?ान के भावों को पढ़ कर मैं मन ही मन हंस पड़ा रवि के चाचाजी ने सीमा की मम्मी को अच्छी तरह से देख कर कुछ दवाइयां लिख दीं. उन के मुंह से यह सुन कर कि घुटने के औपरेशन की जरूरत नहीं है, सीमा की मम्मी ने बहुत राहत महसूस करी. मैं ने उन दोनों को अपनी कार से उन के घर छोड़ा. मेरा धन्यवाद करते हुए उन की जबान थक नहीं रही थी. मैं घर लौटा तो पाया कि मां और अंजु के बीच तकरार चल रही है. मां ने मु?ा से अंजु की शिकायत करनी शुरू करी पर मैं उन के पास रुका नहीं.

‘‘सब जल्दी ही ठीक हो जाएगा,’’ बस इतना कह कर मैं अपने कमरे में जाने को सीढि़यां चढ़ने लगा. पलंग पर आराम करते हुए शाम तक मैं ने अपना घर बसाने का महत्त्वपूर्ण फैसला कर लिया. यह बात मु?ो सम?ा में आ गई थी कि अपनी जिंदगी में खुशियां भरने का सब से ज्यादा बड़ा उत्तरदायित्व खुद मेरा ही है. मैं अब ऐसा जीवनसाथी चाहता था जिस की जिंदगी में मैं सब से प्रमुख स्थान रखता हूं, जो मेरे सुख और खुशियों को सर्वोपरि माने और मेरे सुखदुख बांटने को हमेशा मेरे पास रहे. मैं समाज में उस के साथ सिर ऊंचा कर के जीना चाहता था.

‘शादीशुदा महक के प्यार में पागल हो कर मैं अपने भविष्य की खुशियां और सुरक्षा कभी सुनिश्चित नहीं कर सकता हूं. उस की जिंदगी में मैं नीरज के पीछे हमेशा नंबर 2 पर आऊंगा. उस का दिल दुखाने के ऐवज में मैं 50 हजार का जुरमाना भर दूंगा. उस के साथ जुड़े रह कर मु?ो अपना भविष्य बरबाद नहीं करना है,’ ऐसा फैसला करने के साथ ही मेरे मन का सारा बो?ा व कड़वाहट समाप्त हो गई. मैं शाम को सीमा से मिलने उस के औफिस के बाहर पहुंच गया. यह देख कर मु?ो खुशी हुई कि वह मु?ो देख कर खुश हुई. हम दोनों कौफी पीने के लिए एक रेस्तोरां में आ बैठे. ‘‘मैं तुम्हें एक खास बात बताने के लिए आया हूं,’’ मैं ने गंभीर लहजे में वार्त्तालाप शुरू किया. जवाब में उस ने मुंह से कुछ कहने के बजाय अपना पूरा ध्यान मेरे ऊपर केंद्रित कर लिया था. ‘‘मैं तुम्हारे मातापिता की देखभाल की जिम्मेदारी उठाने में तुम्हारा हाथ बंटाने को तैयार हूं,’’ मैं ने उसे अपना जीवनसाथी बनाने की इच्छा इन शब्दों में जाहिर कर दी.

‘‘क्या तुम मु?ा से शादी करने के इच्छुक हो?’’ उस ने चौंक कर पूछा. ‘हां, मैं यही इरादा मन में ले कर तुम से मिलने आया हूं.’’ ‘‘तुम्हारी बात सुन कर मु?ो हैरानी हुई है,’’ उस की आवाज में अचानक बेचैनी के भाव उभरे.

‘‘क्यों?’’ ‘‘मेरे सुनने में आया है कि महक और तुम्हारे बीच कुछ चक्कर…’’ उस ने अपना वाक्य शायद जानबू?ा कर अधूरा छोड़ दिया. ‘‘हमारे बीच ऐसा चक्कर था, पर अब नहीं है. मैं ने उस की जिंदगी से हमेशा के लिए निकल जाने का फैसला कर लिया है,’’ मैं ने उसे सच्चाई बता दी. ‘‘कब किया है तुम ने यह फैसला.’’

‘‘आज ही किया है.’’ ‘‘और तुम्हारा यह फैसला कितना मजबूत है, समीर.’’ ‘‘मैं तुम से वादा करता हूं कि  उस रास्ते पर जिंदगी भर नहीं लौटूंगा.’’ ‘‘तब मु?ो तुम्हारे इस अतीत से कुछ लेनादेना नहीं है. मेरा दिल कहता है कि तुम बहुत अच्छे दिल वाले इंसान हो और मेरे मन में तुम्हारे लिए बहुत इज्जत है. एकदूसरे को सम?ा लेने के बाद अगर हम शादी करने का फैसला करते हैं तो मु?ो बहुत खुशी होगी.’’

‘‘मु?ो बस एक बात और कहनी है. मां हमेशा हमारे साथ रहेंगी. उन की मेरे छोटे भाई की पत्नी से बिलकुल नहीं पटती है.’’

‘‘नो प्रौब्लम.’’

‘‘थैंक यू. अब बताओ कि क्या खाओगी?’’

‘‘हम जीवनसाथी बनना चाहते हैं और यह खुशी की बात है, इसलिए मुंह मीठा कर लेते हैं. अगर तुम्हें ऐतराज न हो तो कौफी पीने के बजाय आइसक्रीम खा लें?’’

‘श्योर,’’ मैं उठ कर खड़ा हुआ और अपना हाथ सीमा की तरफ बढ़ा दिया. सीमा शरमाई सी कुछ पलों तक ?ि?ाकी पर फिर उस ने मेरा हाथ थाम लिया. उस के हाथ का स्पर्श मेरे मन को अंदर तक गुदगुदा गया. इस स्पर्श में महक के स्पर्श से पैदा होने वाली उत्तेजना के नहीं बल्कि दिल को भाने वाली गर्लफ्रैंड के स्पर्श से मिलने वाले रोमांस के भाव मौजूद थे.

मैं जलती हूं तुम से : विपिन का कौन सा राज जानना चाहती थी नीरा?

विपिन और मैं डाइनिंगटेबल पर नाश्ता कर रहे थे. अचानक मेरा मोबाइल बजा. हमारी बाई लता का फोन था.

‘‘मैडम, आज नहीं आऊंगी. कुछ काम है.’’

मैं ने कहा, ‘‘ठीक है,’’ पर मेरा मूड खराब हो गया. विपिन ने अंदाजा लगा लिया.

‘‘क्या हुआ? आज छुट्टी पर है?’’

मैं ने कहा, ‘‘हां.’’

‘‘कोई बात नहीं नीरा, टेक इट ईजी.’’

मैं ने ठंडी सांस लेते हुए कहा, ‘‘बड़ी परेशानी होती है… हर हफ्ते 1-2 छुट्टियां कर लेती है. 8 साल पुरानी मेड है… कुछ कहने का मन भी नहीं करता.’’

‘‘हां, तो ठीक है न परेशान मत हो. कुछ मत करना तुम.’’

‘‘अच्छा? तो कैसे काम चलेगा? बिना सफाई किए, बिना बरतन धोए काम चलेगा क्या?’’

‘‘क्यों नहीं चलेगा? तुम सचमुच कुछ मत करना नहीं तो तुम्हारा बैकपेन बढ़ जाएगा… जरूरत ही नहीं है कुछ करने की… लता कल आएगी तो सब साफ कर लेगी.’’

‘‘कैसे हो तुम? इतना आसान होता है क्या सब काम कल के लिए छोड़ कर बैठ जाना?’’

‘‘अरे, बहुत आसान होता है. देखो खाना बन चुका है. शैली कालेज जा चुकी है, मैं भी औफिस जा रहा हूं. शैली और मैं अब शाम को ही आएंगे. तुम अकेली ही हो पूरा दिन. घर साफ ही है. कोई छोटा बच्चा तो है नहीं घर में जो घर गंदा करेगा. बरतन की जरूरत हो तो और निकाल लेना. बस, आराम करो, खुश रहो, यह तो बहुत छोटी सी बात है. इस के लिए क्या सुबहसुबह मूड खराब करना.’’

मैं विपिन का शांत, सौम्य चेहरा देखती रह गई. 25 सालों का साथ है हमारा. आज भी मुझे उन पर, उन की सोच पर प्यार पहले दिन की ही तरह आ जाता है.

मैं उन्हें जिस तरह से देख रही थी, यह देख वे हंस पड़े. बोले, ‘‘क्या सोचने लगी?’’

मेरे मुंह से न जाने क्यों यही निकला, ‘‘तुम्हें पता है, मैं जलती हूं तुम से?’’

जोर का ठहाका लगा कर हंस पड़े विपिन, ‘‘सच? पर क्यों?’’

मैं भी हंस दी. वे बोले, ‘‘बताओ तो?’’

मैं ने न में सिर हिला दिया.

फिर उन्होंने घड़ी देखते हुए कहा, ‘‘अब चलता हूं, आज औफिस में भी इस बात पर हंसी आएगी कि मेरी पत्नी ही जलती है मुझ से. भई, वाह क्या बात कही. शाम को आऊंगा तो बताना.’’

विपिन औफिस चले गए. मैं ने घर में इधर, उधर घूम कर देखा. हां, ठीक ही तो कह रहे थे विपिन. घर साफ ही है पर मैं भी आदत से मजबूर हूं. किचन में सारा दिन जूठे बरतन तो नहीं देख सकती न. सोचा बरतन धो लेती हूं. बस फिर झाड़ू लगा लूंगी, पोंछा छोड़ दूंगी. काम करतेकरते अपनी ही कही बात मेरे जेहन में बारबार गूंज रही थी.

हां, यह सच है कभीकभी विपिन के सौम्य, केयरफ्री, मस्तमौला स्वभाव से जलन सी होने लगती है. वे हैं ही ऐसे. कई बार उन्हें कह चुकी हूं कि विपिन, तुम्हारे अंदर किसी संत का दिल

है क्या वरना तो क्या यह संभव है कि इंसान किसी भी विपरीत परिस्थिति में विचलित न हो? ऐसा भी नहीं कि कभी उन्होंने कोईर् परेशानी या दुख नहीं देखा. बहुत कुछ सहा है पर हर विपरीत परिस्थिति से यों निकल आते हैं जैसे बस कोई धूल भरा कपड़ा धो कर झटक कर तार पर डाल कर हाथ धो लिए हों. जब भी कभी मूड खराब होता है बस कुछ पल चुपचाप बैठते हैं और फिर स्वयं को सामान्य कर वही हलकीफुलकी बातें. कई बार उन्हें छेड़ चुकी हूं कि कोई गुरुमंत्र पढ़ लेते हो क्या मन में?

रात में सोने के समय अगर हम दोनों को कोई बात परेशान कर रही हो तो जहां मैं रात भर करवटें बदलती रहती हूं, वहीं वे लेटते ही चैन की नींद सो जाते हैं.

विपिन की सोने की आदत से कभीकभी मन में आता है कि काश, मैं भी विपिन की तरह होती तो कितनी आसान सी जिंदगी जी लेती पर नहीं, मुझे तो अगर एक बार परेशान कर रही है तो सुखचैन खत्म हो जाता है मेरा, जब तक कि उस का हल न निकल आए पर विपिन फिर सुबह चुस्तदुरुस्त सुबह की सैर पर जाने के लिए तैयार.

विदेश में पढ़ रहा हमारा बेटा पर्व. अगर सुबह से रात तक फोन न कर पाए तो मेरा तो मुंह लटक जाता है पर विपिन कहेंगे ‘‘अरे, बिजी होगा. वहां सब उसे अपनेआप मैनेज करना पड़ता है. जैसे ही फुरसत होगी कर लेगा फोन वरना तुम ही कर लेना. परेशान होने की क्या बात है? इतना मत सोचा करो.’’

मैं घूरती हूं तो हंस पड़ते हैं, ‘‘हां, अब यही कहोगी न कि तुम मां हो, मां का दिल वगैरहवगैरह. पर डियर, मैं भी तो उस का पिता हूं, पर परेशान होने से बात बनती नहीं, बिगड़ जाती है.’’

मैं चिढ़ कर कहती हूं, ‘‘अच्छा, गुरुदेव.’’ जब खाने की बात हो, मेरी हर दोस्त, मेरी मां, बच्चे सब हैरान रह जाते हैं कि खाने के मामले में विपिन जैसा सादा इंसान शायद ही कोई दूसरा हो.

कई सहेलियां तो अकसर कहती हैं, ‘‘नीरा, जलन होती है तुम से… कितना अच्छा पति मिला है तुम्हें… कोई नखरा नहीं.’’

हां, तो आज मैं यही तो सोच रही हूं कि जलन होती है विपिन से, जो खाना प्लेट में हो, इतने शौक से खाएंगे कि क्या कहा जाए. सिर्फ दालचावल भी इतना रस ले कर खाएंगे कि मैं उन का मुंह देखती रह जाती हूं कि क्या सचमुच उन्हें इतना मजा आ रहा होगा खाने में.

हम तीनों अगर कोई मूवी देखने जाएं और अगर मूवी खराब हुई तो शैली और मैं कार में मूवी की आलोचना करेंगे. अगर विपिन से पूछेंगे कि कैसी लगी तो कहेंगे कि अच्छी तो नहीं थी पर अब क्या मूड खराब करना. टाइमपास करने गए थे न, कर आए. हंसी आ जाती है इस फिलौसफी पर.

हद तो तब थी जब हमारे एक घनिष्ठ रिश्तेदार ने निरर्थक बात पर हमारे साथ दुर्व्यवहार किया. हमारे संबंध हमेशा के लिए खराब हो गए. जहां मैं कई दिनों तक दुख में डूबी रही, वहीं थोड़ी देर चुप बैठने के बाद उन्होंने मुझे प्यार भरे गंभीर स्वर में कुछ यों समझाया, ‘‘नीरा, बस भूल जाओ उन्हें. यही संतोष है कि हम ने तो कुछ बुरा नहीं कहा उन्हें और अगर किसी अपने से इतना दिल दुखे तो वह फिर अपना कहां हुआ. अपने से तो प्यार, सहयोग मिलना चाहिए न… जो इतने सालों से मानसिक कष्ट दे रहे थे, उन से दूर होने पर खुश होना चाहिए कि व्यर्थ के झूठे रिश्तों से मुक्ति मिली, ऐसे अपने किस काम के जो मन को अकारण आहत करते रहें.’’

विपिन के बारे में ही सोचतेसोचते मैं ने अपने सारे काम निबटा लिए थे. आज अपनी ही कही बात में मेरा ध्यान था. ऐसे अनगिनत उदाहरण

हैं जब मुझे लगता है काश, मैं विपिन की तरह होती. हर बात को उन की तरह सोच लेती. हां, उन के जीने के अंदाज से जलन होती है मुझे, पर इस जलन में असीमित प्रेम है मेरा, सम्मान है, गर्व है, खुशी है. उन की सोच ने मुझे जीवन में कई बार मेरे भावुक मन को निराशाओं से उबारा है.

शाम को विपिन जब औफिस से लौटे तो सामान्य बातचीत के बाद उन्होंने किचन में झांका, तो हंस पड़े, ‘‘मैं जानता था तुम मानोगी नहीं. सारे काम कर लोगी… क्यों किया ये सब?’’

‘‘जब जानते हो मानूंगी नहीं तो यह भी पता होगा कि पूरा दिन गंदा घर मुझे अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘अच्छा, ठीक है तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां,’’ वे जब तक फ्रैश हो कर आए, मैं ने चाय बना ली थी.

चाय पीतेपीते मुसकराए, ‘‘चलो, बताओ क्यों जलती हो मुझ से? सोचा था, औफिस से फोन पर पूछूंगा, पर काम बहुत था. अब बताओ.’’

‘‘यह जो हर स्थिति में तालमेल स्थापित कर लेते हो न तुम, इस से जलती हूं मैं. बहुत हो गया, आज गुरुमंत्र दे ही दो नहीं तो तुम्हारे जीने के अंदाज पर रोज ऐसे ही जलती रहूंगी मैं,’’ कह कर मैं हसी पड़ी.

विपिन ने मुझे गहरी नजरों देखते हुए कहा, ‘‘जीवन में जो हमारी इच्छानुसार न हो, उसे चुपचाप स्वीकार कर लो. जीवन जीने का यही एकमात्र उपाय है, ‘टेक लाइफ एज इट कम्स’.’’

मैं उन्हें अपलक देख रही थी. सादे से शब्द कितने गहरे थे. मैं तनमन से उन शब्दों को आत्मसात कर रही थी. अचानक उन्होंने शरारत भरे स्वर में पूछा, ‘‘अब भी मुझ से जलन होगी?’’ मैं जोर से हंस पड़ी.

कारा: रमन के लिए किस हद तक गई आभा

प्यार पर पूर्णविराम: जब लौटा पूर्णिमा का अतीत

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कारा: रमन के लिए किस हद तक गई आभा- भाग 3

“तुम्हें दोस्त की बेटी की शादी में जाना अधिक आसान लगा बनिस्पत एक बीमार को मिलने के. अपनीअपनी प्राथमिकताएं हैं. तुम ने प्रतिष्ठा को चुना और मैं होती तो शायद प्रेम को चुनती. मैं तुम्हें मिलने के लिए मजबूर नहीं कर सकती लेकिन खुद को तो रोक सकती हूं न… यह मेरी आखिरी सदा है. इस के बाद कभी तुम्हें आवाज नहीं दूंगी,” लिख कर आभा ने रमन को व्हाट्सऐप पर मैसेज कर दिया और रमन की प्रतीक्षा करने लगी लेकिन प्रतिष्ठा भी तो एक कारा ही है न? इस की मोटी सलाखों को तोड़ पाना किसी साधारण व्यक्ति के लिए आसान नहीं. शायद प्रेम करने वाले असाधारण ही होते होंगे. रमन की चुप्पी आभा को निराश करने लगी. प्रेम के अस्तित्व से भरोसा उठने लगा. यह विचार पुष्ट होने लगा कि शायद प्रेम का दैहिक रूप ही अधिक प्रचलन में है.

कई दिन बीत गए. आभा की शरीरिक अस्वस्थता ठीक हो गई लेकिन उस की मानसिक व्याधि दूर नहीं हुई. दिमागी मंथन अब भी जारी है.

“क्या प्रेम जबरदस्ती करवाया जा सकता है? किसी को भी पकड़ कर आप के साथ बांध दिया जाए और यह आदेश दिया जाए कि बस, आज से आप को इसी से प्रेम करना है क्या यह संभव है?” आभा सोचती तो उसे अपने मांबाबूजी याद आ जाते. हर रोज झगड़ते, एकदूसरे पर कटाक्ष करते, ताने मारते और बातबात में नीचा दिखाने की कोशिश करते. मांबाबूजी को देख कर उसे कभी नहीं लगा कि यह भी प्यार का कोई रूप है क्या. बावजूद इस के वे दोनों 4 संतानों के मातापिता बने.

दूर की एक चाची को घर आई देख कर अवश्य ही बाबूजी जरा नरम पड़ते दिखते थे. बाबूजी चाची के बच्चों को भी बहुत प्यार करते थे लेकिन लोकलाज के कारण उस ने कभी चाची को बाबूजी से बात करते नहीं देखा था. हां, उन की मुसकान वह अवश्य महसूस करती थी. इस बीच रमन के फोन आते रहे और आभा प्रेम को ले कर किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी थी. शायद पहुंच भी नहीं सकती थी क्योंकि इतना तो वह जान ही गई थी कि प्रेम की परिभाषा हरेक के लिए अलग होती है और शायद निजी भी. रमन के लिए जो प्रेम की धारणा है वह उस की धारणा से पृथक है.

“हैलो…आभा? क्या हुआ? तुम सुन रही हो न?” अचानक रमन की आवाज उसे वर्तमान में ले कर आई. आभा अब तक कुछ सामान्य हो चुकी थी.

“तुम्हारे लिए प्रेम क्या है रमन? क्या तुम इसे परिभाषित कर सकते हो?” आभा ने पूछा.

“लगता है, आज मेरी क्लास ली जा रही है,” रमन ने माहौल को सहज करने की कोशिश की.

“तुम तो साहित्यकार हो न, बताओ? क्या है प्रेम?” आभा ने उसे अनसुना करते हुए फिर से पूछा.

“हमारेतुम्हारे मामले में तो प्रेम अकेले में सौ प्रतिशत और सब के सामने शून्य है आभा. परिस्थितियां तुम भी जानती हो और मैं भी. बस, तुम उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहती. हम जिन सामाजिक सीमाओं में बंधे हैं उन्हें तोड़ नहीं सकते. तुम्हें वह गीत याद है, ‘प्यार से भी जरूरी कई काम हैं… प्यार सब कुछ नहीं जिंदगी के लिए…'” रमन ने हारे हुए शब्दों में अपनी विवशता स्वीकार की. फोन पर फिर से चुप्पी की चादर फैल गई.

“प्रेम शब्द की जितनी भी व्याख्या की जाए या फिर उसे जितना भी परिभाषित किया जाए, हमेशा समझ से बाहर का विषय ही रहा है. समाज और संसार की नजरों में भी प्रेम सदैव अबूझ पहेली सा ही रहा होगा, तभी तो जहां पशुपक्षियों, जीवजंतुओं और असहायउपेक्षितों से प्रेम करने वाले को महान करार दिया जाता है, वहीं किसी विपरीत लिंगी से प्रेम करने को हिकारत की दृष्टि से देखा जाता है फिर चाहे वह प्रेम कितना भी निश्छल या वासना रहित क्यों न हो,” आभा प्रेम पहेली में उलझ कर कसमसा रही थी.

“समाज की तो क्या ही कहें, ऐसे प्रेम को तो स्वयं प्रेमी भी सहजता से स्वीकार नहीं कर पाता. उसे भी अपने मीत से मिलने के लिए न जाने कितने झूठ बोलने पड़ते हैं, कितने बहाने रचने पड़ते हैं. और मजे की बात तो यह है कि ये सारे प्रपंच व्यक्ति स्वयं अपनेआप से करता है. शायद समाज में अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए. रमन भी तो यही कर रहा है,” आभा के विचारों ने और गति पकड़ी.

“क्या मैं रमन को प्रेम करने के लिए बाध्य कर सकती हूं? नहीं न? तो क्या करूं? क्या रमन को भूल जाऊं? क्या यह प्रेम की हार नहीं होगी? आभा अपने प्रश्नजाल से बाहर निकल ही नहीं पा रही थी. तभी मानो रौशनी की 1-1 क्षीण सी रेखा दूर कहीं अंधियारे में कौंधी. आभा साफसाफ देख पा रही थी कि उस रौशनी में प्रेम को परिभाषित होते हुए.

“आभा, अरे यार… कुछ बोलो न? प्लीज, जो सहजता से चल रहा है उसे चलने दो न. क्यों शांत जिंदगी में लहरें लाने की जिद पर अड़ी हुई हो?”रमन ने आभा से अनुनय की लेकिन आभा तो अपना निर्णय ले चुकी थी.

“मैं क्यों इतनी स्वार्थी हुई जा रही हूं. यदि रमन के लिए उस की गढ़ी हुई प्रेम की परिभाषा सही हो सकती है तो मैं भी तो अपनी निजी परिभाषा गढ़ने के लिए स्वतंत्र हूं. उस की वह जाने लेकिन मैं भी तो जिद्दी हुई जा रही हूं न प्रेम को पाने के लिए. शायद यह जिद प्रेम को पाने की नहीं बल्कि रमन को पाने की है. क्या मैं उसे भौतिक रूप से पाए बिना अपने प्रेम को निभा नहीं सकती? यदि नहीं तो फिर मेरा प्रेम स्वार्थ ही हुआ न? अब मैं सबकुछ समय पर छोड़ कर निश्चिंत हो अपना प्रेम निभाउंगी. बिना किसी जिद और स्वार्थ के. बिना किसी शिकायत के. हां, मैं प्रेम की प्रायोजित कारा से आजाद हो कर स्वतंत्र प्रेम करूंगी,” आभा ने तय कर लिया था और ऐसा निश्चय करते ही उसे लगा मानो उस का मष्तिष्क सचमुच किसी भारी बोझे से आजाद हो गया. अब उसे रमन पर गुस्सा नहीं बल्कि प्रेम आ रहा था. वह भी पहले से कई गुणा अधिक.

“तुम सही कहते हो रमन. तुम्हें पाने की मेरी जिद ही मेरी पीड़ा का कारण है. मैं तुम से हमेशा प्यार करूंगी लेकिन अपने प्यार को अपनी जिद नहीं बनने दूंगी. जिस दिन तुम सब के सामने मुझे अपनी जिंदगी का हिस्सा स्वीकार करोगे उस दिन मेरी दुनिया में तुम्हारा स्वागत है. मुझे देह नहीं नेह चाहिए,” कहते हुए आभा ने फोन काट दिया. मानो नेह को देह की कारा से मुक्त कर दिया हो.

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