फर्क

भाग-1

कहानी- दिनेश पालीवाल

इरा को स्कूल से लौटते हुए देर हो गई थी. बस स्टाप पर इस वक्त तक भीड़ बहुत बढ़ गई थी. पता नहीं बस में चढ़ भी पाएगी या नहीं… कंधे पर भारी बैग लटकाए, पसीना पोंछती स्कूल के फाटक से निकल वह तेजी से बस स्टाप की ओर चल दी. यह बस छूट गई तो पूरे 1 घंटे की देर हो जाएगी… और 1 घंटे की देर का मतलब, पूरे घर की डांटफटकार सुननी पड़ेगी.

नौकरी के वक्त इरा ने जो प्रमाणपत्र लगाए थे उन में अनेक नाटकों में भाग लेने के प्रमाणपत्र भी थे और देश के नामीगिरामी नाटक निर्देशकों के प्रसिद्ध नाटकों में काम करने का अनुभव भी… प्रधानाचार्या ने उसी समय कह दिया था, ‘हम आप को रखने जा रहे हैं पर आप को यहां अंगरेजी पढ़ाने के अलावा बच्चों को नाटक भी कराने पड़ेंगे और इस के लिए अकसर स्कूल समय के बाद आप को घंटे दो घंटे रुकना पड़ेगा. अगर मंजूर हो तो हम अभी नियुक्तिपत्र दिए देते हैं.’

‘नाटक करना और नाटक कराना मेरी रुचि का काम है, मैडम…मैं तो खुद आप से कह कर यह काम करने की अनुमति लेती,’ बहुत प्रसन्न हुई थी इरा.

इंटरव्यू दिलवाने पति पवन संग आए थे, ‘जवाब ठीक से देना. तुम तो जानती हो, हमारे लिए तुम्हारी यह नौकरी कितनी जरूरी है.’

इरा को वह दिन अनायास याद आ गया था जब पवन अपने मातापिता के साथ उसे देखने आए थे. मां ने साफ कह दिया था, ‘लड़की सुंदर है, यह तो ठीक है पर अंगरेजी में प्रथम श्रेणी में एम.ए. है, हम इसलिए आप की बेटी को पसंद कर सकते हैं…लड़की को कहीं नौकरी करनी पड़ेगी. इस में तो आप लोगों को एतराज न होगा?’

कहा तो मां ने था पर बात शायद पवन की थी, जो वे लोग घर से ही तय कर के आए होंगे. शादीब्याह अब एक सौदे के ही तहत तो किए जाते हैं. इरा के मांबाप ने हर लड़की के मांबाप की तरह खीसें निपोर दी थीं, ‘शादी से पहले लड़की पर मांबाप का हक होता है, उसे उन की इच्छानुसार चलना पड़ता है. पर शादी के बाद तो सासससुर ही उस के मातापिता होते हैं. उन्हीं की इच्छा सर्वोपरि होती है. आप लोग और पवन बाबू जो चाहेंगे, इरा वह हंसीखुशी करेगी. उसे करना चाहिए. हर बहू का यही धर्म होता है. इरा जरूर अपना धर्म निबाहेगी.’

बहू का धर्म, बहू के कर्तव्य, बहू के काम, बहू की मर्यादाएं, बहू के चारों ओर ख्ंिची हुई लक्ष्मण रेखाएं, बहू की अग्निपरीक्षाएं, बहू का सतीत्व, पवित्रता, चरित्र, घरपरिवार चलाने की जिम्मेदारियां… न जाने कितनी अपेक्षाएं बहुओं से की जाती हैं.

इंटरव्यू के बाद इरा को कुछ समय एक ओर कमरे में बैठने को कह दिया गया था. इस बीच किसी क्लर्क को बुलाया गया था. स्कूल के पैड पर जल्दी एक पत्र टाइप कर के मंगवाया गया था. प्रधानाचार्या ने वहीं हस्ताक्षर कर दिए थे और उसे बुला कर नियुक्तिपत्र थमा दिया था, ‘बधाई, आप चाहें तो कल से ही आ जाएं काम पर…’

धन्यवाद दे कर वह खुशी मन से बाहर आई तो पवन बड़ी बेचैनी से उस की प्रतीक्षा कर रहे थे. पूछा, ‘कैसा रहा इंटरव्यू?’

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जवाब में इरा ने नियुक्तिपत्र पवन को थमा दिया. एक सांस में पढ़ गए उसे पवन और एकदम खिल गए, ‘अरे, यानी 10 हजार की यह नौकरी तुम्हें मिल गई?’

‘इस पत्र से तो यही जाहिर हो रहा है,’ इरा इठला कर बोली थी, ‘पर जानते हो, अंगरेजी विषय की प्रथम श्रेणी उतनी काम नहीं आई जितने काम मेरे नाटक आए… नाटकों का अनुभव ज्यादा महत्त्व का रहा.’

सुन कर चेहरा मुरझा सा गया पवन का.

इरा को याद हो आया…शादी के बाद जब वह ससुराल आई थी और उस ने अपनी शैक्षणिक योग्यता के सारे प्रथम श्रेणी के प्रमाणपत्र पवन को दिखाए तो साथ में नाटकों के लिए मिले श्रेष्ठता के पुरस्कार और प्रमाणपत्र भी दिखाए थे. उन्हें बड़ी अनिच्छा से पवन ने एक ओर सरका दिया था, ‘अब यह नाटकसाटक सब भूल जाओ. ंिंजदगी नाटक नहीं है, इरा, एक ठोस हकीकत है. शादी के बाद जिंदगी की कठोर सचाइयों को जितनी जल्दी तुम समझ लोगी उतना ही अच्छा रहेगा तुम्हारे लिए… पापा रिटायर होने वाले हैं. मेरी अकेली तनख्वाह घर का यह भारी खर्च नहीं चला सकती. बहनों की शादी, भाइयों की पढ़ाईलिखाई… बहुत सी जिम्मेदारियां हैं हमारे सामने… तुम्हें जल्दी से जल्दी अपनी अंगरेजी की एम.ए. की डिगरी के सहारे कोई अच्छी नौकरी पकड़नी होगी…अगर तुम हिंदीसिंदी में एम.ए. होतीं तो मैं हरगिज तुम से शादी नहीं करता, भले ही तुम मुझे पसंद आ गईं होतीं तो भी… असल में मुझे ऐसे ही कैरियर वाली बीवी चाहिए थी जो मुझ पर बोझ न बने, बल्कि मेरे बोझ को बंटाए, कम करे…’

बस स्टाप की भीड़ बढ़ती जा रही थी. नाटक का पूर्वाभ्यास कराने में उस की चार्टर्र्ड बस निकल गई थी. अब तो सामान्य बस में ही घर जाना पड़ेगा.

घर के नाम पर ही उस के पूरे शरीर में एक फुरफुरी सी दौड़ गई. पवन अब तक लौट आए होंगे. चाय के लिए उस की प्रतीक्षा कर रहे होंगे. देवर हाकी के मैदान से लस्तपस्त लौटा होगा, उसे दूध गरम कर के देना भी इरा की ही जिम्मेदारी है. बड़ी ननद ब्यूटी पार्लर का काम सीख रही है, वहां से लौटी होगी. वह भी इरा का इंतजार कर रही होगी. बेटे का आज गणित का पेपर था. वह भी इंतजार कर रहा होगा.

सहसा इरा को याद आया कि आज तो बेटे सुदेश का जन्मदिन है. उसे हर हाल में जल्दी घर पर पहुंचना चाहिए था पर प्रधानाचार्या ने एक व्यंग्य नाटक के सिलसिले में उसे रोक लिया था. इरा ने बहुत सोचसमझ कर हरिशंकर परसाई की एक व्यंग्य रचना ‘मातादीन इंस्पेक्टर चांद पर’ कहानी का नाट्यरूपांतर किया और बच्चों को तैयार कराना शुरू कर दिया. चांद के लोग सीधेसादे हैं. वहां भ्रष्टाचार नहीं है. पृथ्वी के बारे में चांद के निवासियों को पता चलता है कि वहां पुलिस सब से आवश्यक है. चांद के निवासी पृथ्वी से एक इंस्पेक्टर मातादीन को चांद पर लिवा ले जाते हैं. वे चाहते हैं कि चांद पर भी पृथ्वी की तरह एक पुलिस विभाग बनाया जाए जिस से भविष्य में अगर कोई अपराध हो तो उसे काबू किया जा सके.

इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर भ्रष्टाचार की ऐसी गंगा बहाते हैं कि दर्शक लोटपोट हो जाते हैं. बहुएं दहेज के कारण जलाई जाने लगीं. जेबकतरी, चोरी, हत्या, डकैती, राहजनी, लूटमार, आतंकवाद, अपहरण, वेश्याबाजार आदि इंस्पेक्टर मातादीन की कृपा से चांद पर होने लगे और चारों ओर त्राहित्राहि मच गई.

प्रधानाचार्या को जब यह कहानी इरा ने सुनाई तो वह बहुत खुश हुईं, ‘अच्छी कहानी है, इसे जरूर करो.’

इंस्पेक्टर मातादीन के लिए उन्होंने कक्षा 10 के एक विद्यार्थी मुकुल का नाम सुझा दिया.

‘मुकुल क्यों, मैम…?’ इरा ने यों ही पूछ लिया. इरा के दिमाग में कक्षा 11 का एक लड़का था.

‘उस के पिता यहां के बड़े उद्योगपति हैं और उन से हमें स्कूल के लिए बड़ा अनुदान चाहिए. उन के लड़के के सहारे हम उन्हें खुश कर सकेंगे और अनुदान में खासी रकम पा लेंगे.’

मुकुल में प्रतिभा भी थी. इंस्पेक्टर मातादीन का अभिनय वह बहुत कुशलता से करने लगा था. अपना पार्र्ट उस ने 2 दिन में रट कर तैयार कर लिया था. उसी के पूर्वाभ्यास में इरा को आज देर हो गई थी.

मन ही मन झल्लाती, कुढ़ती, परेशान, थकीऊबी इरा, बस की प्रतीक्षा करती बस स्टाप पर खड़ी थी.

‘‘गुड ईवनिंग, मैम…’’ सहसा उस के निकट एक महंगी कार आ कर रुकी और उस में से इंस्पेक्टर मातादीन का किरदार निभाने वाला लड़का मुकुल बाहर निकला, ‘‘गाड़ी में पापा हैं, मैम… प्लीज, हमारे साथ चलें आप… पीछे, पापा बता रहे हैं कहीं एक्सीडेंट हो गया है, वहां लोगों ने जाम लगा दिया है. गाडि़यां नहीं आ रहीं. आप को बस नहीं मिलेगी. हम पहुंचा देंगे आप को.’’

एक पल को हिचकती हुई सोचती रही इरा, जाए या न जाए? तभी गाड़ी से मुकुल के पिता बाहर निकल आए. उन्हें बाहर देखते ही पहचान गई इरा, ‘‘अरे आप…मुकुल, आप का बेटा है…?’’ एकदम चहक सी उठी इरा. अरसे बाद अपने सामने शरदजी को देख कर उसे जैसे आंखों पर विश्वास ही न हुआ हो.

‘‘बेटे ने जब आप का नाम बताया और कहा कि हरिशंकर परसाई की व्यंग्य कथा ‘इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’ को नाटक के रूप में प्रस्तुत कर रही हैं तो विश्वास हो गया कि हो न हो, यह इरा मैम आप ही होंगी जिन्हें हम ने कभी अपने नाटक में नायिका के रूप में प्रस्तुत किया था… अपने-

आप को रोक नहीं पाया. बेटे को    लेने के बहाने मैं स्वयं आया, शरदजी बहुत खुश थे. आगे बोले, ‘‘प्लीज, इराजी… आप संकोच छोड़ें और हमारे साथ चलें… हम आप को घर छोड़ देंगे…’’

इरा दुविधा में फंसी पिछली सीट पर बैठी रही. बेटे के लिए कहीं से कोई उपहार खरीदे या नहीं? गाड़ी रुकवाना उचित लगेगा या नहीं? कहीं से केक लिया जा सकता है?… उस ने अपने पर्स में रखे नोट गिने… कुछ कम लगे. सकुचा कर बैठी रही.

मुकुल अपने पापा की बगल में आगे की सीट पर बैठा था. सहसा इरा ने उस से कहा, ‘‘मुकुल, जरा पापा से कहो, कहीं गाड़ी रोकें… मेरे बेटे का जन्मदिन है आज… उस के लिए कहीं से कोई चीज ले लूं और मिल जाए तो केक भी…’’

शरदजी ने गाड़ी रोकते हुए कहा, ‘‘अरे, आप भी कैसी मां हैं, इराजी? इतनी देर से आप साथ चल रही हैं और यह जरूरी बात बताई ही नहीं.’’

उन्होंने गाड़ी एक आलीशान शापिंग कांप्लेक्स की पार्किंग में पार्क की और इरा को ले कर चले तो सहम सी गई इरा. बोली, ‘‘यहां तो चीजें बहुत महंगी होंगी.’’

‘‘उस सब की आप फिक्र मत करिए. आप तो सिर्फ यह बताइए कि आप के बेटे को पसंद क्या आएगा?’’ हंसते हुए साथ चल रहे थे शरदजी.

कंप्यूटर गेम का सेट दिलवाने पर उतारू हो गए वे, ‘‘अरे भाई यह सब हमारा क्षेत्र है… हम यही सब डील करते हैं… आप का बेटा आज से कंप्यूटर गेम्स का आनंद लेगा…’’

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इरा की बेचैनी बढ़ गई, उस के पर्स में तो इतने रुपए भी नहीं थे.

सोशल मीडिया की दोस्ती

लेखक- प्रफुल्लचंद्र सिंह 

मीनू जैन अपने पति रिटायर्ड विंग कमांडर वी.के. जैन के साथ दिल्ली में द्वारका के सेक्टर-7 स्थित एयरफोर्स ऐंड नेवल औफिसर्स अपार्टमेंट में रहती

थीं. उन के परिवार में पति के अलावा एक बेटा आलोक और बेटी नेहा है. आलोक नोएडा स्थित एक मल्टीनैशनल कंपनी में काम करता है, जबकि शादीशुदा नेहा गोवा में डाक्टर है. विंग कमांडर वी.के. जैन एयरफोर्स से रिटायर होने के बाद इन दिनों इंडिगो एयरलाइंस में कमर्शियल पायलट हैं.

25 अप्रैल, 2019 को वी.के. जैन अपनी ड्यूटी पर थे. फ्लैट में मीनू जैन अकेली थीं. शाम को मीनू जैन को उन के पिता एच.पी. गर्ग ने फोन किया तो बातचीत के दौरान मीनू ने उन्हें बताया कि आज उस की तबीयत कुछ ठीक नहीं है, इसलिए वह आराम कर रही है. दरअसल उन के पिता उन से मिलने आना चाहते थे. लेकिन जब मीनू ने उन से आराम करने की बात कही तो उन्होंने वहां से जाने का इरादा स्थगित कर दिया.

अब और मजबूत होंगी जाति की बेड़ियां

अगले दिन सुबह एच.पी. गर्ग ने बेटी की खैरियत जानने के लिए उस के मोबाइल पर फोन किया. काफी देर तक घंटी बजने के बाद भी जब मीनू ने उन का फोन रिसीव नहीं किया तो वे परेशान हो गए. कुछ देर बाद वह अपने बेटे अजीत के साथ बेटी के फ्लैट की ओर रवाना हो गए.

मीनू का फ्लैट तीसरे फ्लोर पर था. उन्होंने वहां पहुंच कर देखा तो दरवाजा अंदर से बंद था. कई बार डोरबेल बजाने के बाद भी जब फ्लैट के अंदर से मीनू ने कोई जवाब नहीं दिया तो वह परेशान हो गए. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि मीनू को ऐसा क्या हो गया,जो दरवाजा नहीं खोल रही.

इस के बाद एच.पी. गर्ग ने पड़ोसी योगेश के फ्लैट की घंटी बजाई. योगेश ने दरवाजा खोला तो एच.पी. गर्ग ने उन्हें पूरी बात बताई. स्थिति गंभीर थी, इसलिए उन्होंने अजीत और उस के पिता को अपने फ्लैट में बुला लिया. इस के बाद योगेश की बालकनी में पहुंच कर अजीत अपनी बहन मीनू के फ्लैट की खिड़की के रास्ते अंदर पहुंच गया.

जब वह बैडरूम में पहुंचा तो वहां बैड के नीचे मीनू अचेतावस्था में पड़ी थी. पास में एक तकिया पड़ा था, जिस पर खून लगा हुआ था. यह मंजर देख कर वह घबरा गया. उस ने अंदर से फ्लैट का दरवाजा खोल कर यह जानकारी अपने पिता को दी.

एच.पी. गर्ग और योगेश ने फ्लैट में जा कर मीनू को देखा तो वह भी चौंक गए कि मीनू को यह क्या हो गया. चूंकि वह क्षेत्र थाना द्वारका (दक्षिण) के अंतर्गत आता है, इसलिए पीसीआर की सूचना पर थानाप्रभारी रामनिवास इंसपेक्टर सी.एल. मीणा के साथ मौके पर पहुंच गए.

मौके पर उन्होंने क्राइम इनवैस्टीगेशन टीम को बुलाने के बाद उच्चाधिकारियों को भी सूचना दे दी. डीसीपी एंटो अलफोंस भी घटनास्थल पर पहुंच गए. चूंकि मामला एयरफोर्स के रिटायर्ड अधिकारी के परिवार का था, इसलिए उन्होंने स्पैशल स्टाफ की टीम को भी बुला लिया.

क्राइम इनवैस्टीगेशन टीम का काम निपट जाने के बाद थानाप्रभारी रामनिवास और स्पैशल स्टाफ के इंसपेक्टर नवीन कुमार की टीम ने घटनास्थल का बारीकी से मुआयना किया. मीनू की हालत और तकिए पर लगे खून को देख कर लग रहा था कि मीनू की हत्या तकिए से सांस रोक कर की गई है.

मीनू का मोबाइल फोन और उस की कीमती अंगूठी गायब थी. इस के बाद जब फ्लैट की तलाशी ली गई तो रोशनदान का शीशा टूटा हुआ मिला. फ्लैट के बाकी कमरों का सारा सामान अस्तव्यस्त था. कुछ अलमारियां खुली हुई थीं और उन में रखे सामान बिखरे हुए थे. किचन के वाश बेसिन में चाय के कुछ कप रखे थे. एक कप में थोड़ी चाय बची हुई थी.

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यह सब देख कर पुलिस इस नतीजे पर पहुंची कि हत्यारे जो कोई भी हैं, मीनू जैन उन से न केवल अच्छी तरह परिचित थीं, बल्कि हत्यारों के साथ उन के आत्मीय संबंध भी रहे होंगे. क्योंकि किचन में रखे चाय के कप इस ओर इशारा कर रहे थे. थाना पुलिस ने मौके की जरूरी काररवाई करने के बाद लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज दी. फिर एच.पी. गर्ग की शिकायत पर हत्या तथा लूटपाट का मामला दर्ज कर लिया गया.

द्वारका जिले के डीसीपी एंटो अलफोंस ने इस सनसनीखेज हाईप्रोफाइल मामले की तफ्तीश के लिए एसीपी राजेंद्र सिंह के नेतृत्व में एक पुलिस टीम गठित की. इस टीम में इंसपेक्टर नवीन कुमार, इंसपेक्टर रामनिवास तथा इंसपेक्टर सी.एल. मीणा, एसआई अरविंद कुमार आदि को शामिल किया गया.

अगले दिन मृतका मीनू के पति वी.के. जैन ड्यूटी से वापस लौटे तो पत्नी की हत्या की बात सुन कर आश्चर्यचकित रह गए. उन्होंने फ्लैट में रखी सेफ आदि का मुआयना किया तो उस में रखी ज्वैलरी और कैश गायब था. उन्होंने पुलिस को बताया कि उन के फ्लैट से करीब 35 लाख रुपए के कीमती जेवर और कुछ कैश गायब है. इस के अलावा मीनू के दोनों मोबाइल फोन भी गायब थे.

स्पैशल स्टाफ के इंसपेक्टर नवीन कुमार ने एसीपी राजेंद्र सिंह के निर्देशन में काम करना शुरू कर दिया. उन्होंने मीनू के दोनों मोबाइल नंबरों की काल डिटेल्स निकलवाई. इस के अलावा एयरफोर्स ऐंड नेवल औफिसर्स अपार्टमेंट सोसायटी के गेट पर लगे सीसीटीवी कैमरों की फुटेज भी खंगाली.

सीसीटीवी फुटेज में 2 कारें संदिग्ध नजर आईं, जिन में एक स्विफ्ट डिजायर थी. दोनों कारों की जांच की गई तो पता चला स्विफ्ट डिजायर कार का नंबर फरजी है. टीम को इसी कार पर शक हो गया.

जब गेट पर मौजूद गार्ड से स्विफ्ट डिजायर कार के बारे में पूछताछ की गई तो उस ने बताया कि 25 अप्रैल, 2019 की दोपहर को करीब 2 बजे एक अधेड़ आदमी मीनू जैन से मिलने आया था. जब उस से रजिस्टर में एंट्री करने के लिए कहा गया तो उस ने तुरंत मीनू जैन को फोन मिला दिया. मीनू ने बिना एंट्री किए उसे अंदर भेजने को कहा.

इस पर गार्ड ने उस व्यक्ति को मीनू के फ्लैट का पता बता कर उन के पास भेज दिया. शाम को दोनों घूमने के लिए सोसायटी से बाहर भी गए थे. यह सुन कर उन्होंने अनुमान लगाया कि मीनू जैन की हत्या में इसी आदमी का हाथ रहा होगा.

फोन की लोकेशन जयपुर की आ रही थी

मीनू जैन के दोनों मोबाइल फोन की काल डिटेल्स से पता चला कि उन का एक फोन घटना वाली रात की सुबह तक चालू था, उस के बाद उसे स्विच्ड औफ कर दिया गया था. जबकि दूसरा फोन चालू था, जिस की लोकेशन जयपुर की आ रही थी.

पुलिस के लिए यह अच्छी बात थी. पुलिस टीम गूगल मैप की मदद से 29 अप्रैल को जयपुर पहुंच गई. फिर दिल्ली पुलिस ने स्थानीय पुलिस की मदद से जयपुर के मुरलीपुरा इलाके में स्थित स्काइवे अपार्टमेंट में छापा मारा. वहां से दिनेश दीक्षित नाम के एक शख्स को हिरासत में ले लिया. उस के पास से सफेद रंग की वह स्विफ्ट डिजायर कार भी बरामद हो गई जो उस अपार्टमेंट के बाहर खड़ी थी.

जब उस से सख्ती से पूछताछ की गई तो उस ने 25 अप्रैल, 2019 की देर रात दिल्ली में मीनू जैन की हत्या और उस के फ्लैट में लूटपाट करने की बात स्वीकार कर ली.

पुलिस की तहकीकात और आरोपी दिनेश दीक्षित के बयान के अनुसार, मीनू जैन की हत्या के पीछे जो कहानी सामने आई, वह इस प्रकार थी—

52 वर्षीय मीनू जैन के पति वी.के. जैन एयरफोर्स में विंग कमांडर पद से रिटायर होने के बाद इंडिगो एयरलाइंस में बतौर पायलट तैनात थे. वह कामकाज के सिलसिले में ज्यादातर बाहर ही रहते थे. उन के दोनों बच्चे बड़े हो चुके थे.

बेटा नोएडा में एक मल्टीनैशनल कंपनी में जौब करता था, जो वीकेंड में अपने मम्मीपापा से मिलने द्वारका आ जाता था. बेटी मोना (काल्पनिक नाम) डाक्टर थी, जो गोवा में रहती थी. ऐसे में मीनू जैन घर पर अकेली रहती थीं. वह अपना समय बिताने के लिए सोशल मीडिया पर बहुत एक्टिव रहती थीं.

सोशल मीडिया में बने प्रोफाइल पसंद आने पर बड़ी आसानी से नए दोस्त बन जाते हैं. बाद में दोस्ती बढ़ जाने के बाद आप उन से अपने विचार शेयर कर सकते हैं. अगर बात बन जाती है तो चैटिंग करने वाले आपस में अपने पर्सनल मोबाइल नंबर का आदानप्रदान भी कर लेते हैं. इस प्रकार दोस्ती का सिलसिला आगे बढ़ जाता है. मीनू जैन और दिनेश दीक्षित के मामले में भी ऐसा ही हुआ.

खिलाड़ी था दिनेश दीक्षित

जयपुर निवासी 56 वर्षीय दिनेश दीक्षित बेहद रंगीनमिजाज व्यक्ति था. उस ने 2 शादियां कर रखी थीं. उस की एक बीवी अपने 2 बेटों के साथ गांव में रहती थी, जबकि दूसरी बीवी के साथ वह जयपुर में किराए के एक फ्लैट में रहता था. बताया जाता है कि सन 2015 में ठगी के एक मामले में वह जेल भी जा चुका है. 2 साल जेल में रहने के बाद वह सन 2017 में जेल से बाहर आया था. इस के बाद वह अच्छी नस्ल के कुत्ते बेचने का बिजनैस करने लगा था.

इसी दौरान उस की मुलाकात दिल्ली के एक सट्टेबाज से हुई, जिस की बातों से प्रभावित हो कर वह क्रिकेट के आईपीएल मैचों में सट्टा लगाने लगा. इस धंधे की शुरुआत में उसे कुछ फायदा तो हुआ लेकिन बाद में उसे काफी नुकसान हुआ. वह कई लोगों का कर्जदार हो गया. इस कर्ज से उबरने के लिए उस ने अमीर औरतों को अपने जाल में फंसा कर उन से रुपए ऐंठने की योजना बनाई.

इस के बाद उस ने एक सोशल साइट के माध्यम से खूबसूरत और मालदार शादीशुदा औरतों से दोस्ती करनी शुरू कर दी. जल्द ही उस की दोस्ती कई ऐसी औरतों से हो गई, जो खाली समय में सोशल साइट पर दोस्तों के साथ अपना टाइमपास किया करती थीं.

करीब 5 महीने पहले सोशल साइट पर दिनेश दीक्षित और मीनू जैन दोस्त बन गए. अब जब भी खाली वक्त मिलता, दोनों सोशल साइट पर चैटिंग करते रहते थे. इस से उन का मन बहल जाता था और बोरियत महसूस नहीं होती थी. शीघ्र ही उन की दोस्ती गहरी हो गई.

मीनू जैन के पति चूंकि इंडिगो एयरलाइंस में पायलट थे, इसलिए वह घर से अकसर बाहर ही रहते थे. इस बात का फायदा उठा कर मीनू जैन ने पति की अनुपस्थिति में दिनेश दीक्षित को अपने फ्लैट में बुलाना शुरू कर दिया.

भोलीभाली मीनू जैन फंस गईं दिनेश दीक्षित के जाल में

दिनेश ने देखा कि मीनू जैन साफ दिल की भोलीभाली औरत हैं तो वह मन ही मन उन्हें लूटने की योजना बनाने लगा. करीब 5 महीने की दोस्ती के दौरान मीनू जैन को दिनेश दीक्षित पर इस कदर विश्वास हो गया कि जब भी उन के पति और बच्चे घर पर नहीं रहते, वह उसे मैसेज कर के अपने पास बुला लेतीं और फिर दोनों अपने दिल की तमाम हसरतें पूरी कर लिया करते थे.

25 अप्रैल, 2019 को भी वी.के. जैन अपने फ्लैट पर नहीं थे. पति की अनुपस्थिति का फायदा उठाते हुए मीनू जैन ने दिनेश दीक्षित को फ्लैट पर आने का मैसेज भेजा तो वह अपनी सफेद रंग की स्विफ्ट डिजायर कार से दोपहर के वक्त सोसायटी के गेट पर पहुंच गया.

जब सोसायटी के गेट पर मौजूद गार्ड ने उस का पता पूछा तो उस ने मीनू जैन को फोन कर गार्ड से उन की बात करा दी. मीनू जैन के कहने पर गार्ड ने उस की कार का नंबर रजिस्टर में नोट करने के बाद उसे अंदर जाने को कह दिया.

दिनेश दीक्षित मीनू जैन के फ्लैट में पहुंचा तो उसे सामने देख कर वह बहुत खुश हुईं. चाय और नमकीन लेने के बाद दोनों ही बातों में मशगूल हो गए. लगभग पौने 9 बजे मीनू और दिनेश दोनों डिनर के लिए कार से सोसायटी के बाहर निकले.

करीब आधे घंटे के बाद लौटते समय दिनेश ने मूड बनाने के लिए वोदका की एक बोतल और कुछ स्नैक्स खरीद लिए. सोसायटी में पहुंच कर दोनों ने ड्रिंक करनी शुरू कर दी. अपनी योजना को अंजाम देने के लिए दिनेश दीक्षित ने मीनू जैन को अधिक मात्रा में वोदका पिलाई और खुद कम पी.

रात करीब 2 बजे मीनू जैन शराब के नशे में धुत हो कर शिथिल पड़ गईं तो दिनेश दीक्षित ने मौका देख कर तकिए से उन का मुंह दबा दिया. जब मीनू ने छटपटा कर दम तोड़ दिया तो उस ने बड़े इत्मीनान से उन की सेफ में रखे करीब 50 लाख रुपए के आभूषण और नकदी निकाल ली.

मीनू जैन की अंगुली में एक बेशकीमती अंगूठी थी. उस ने वह अंगूठी भी उतार कर अपने पास रख ली. इस के अलावा उन के दोनों मोबाइल फोन भी उठा लिए. रात भर वह मीनू की लाश के पास बैठ कर शराब पीता रहा और तड़के 5 बजे फ्लैट से सारा लूट का सामान ले कर रोशनदान से बाहर निकल गया. फिर अपनी स्विफ्ट कार से जयपुर के लिए रवाना हो गया.

गुड़गांव के टोल टैक्स से आगे निकलने के बाद उस ने मीनू जैन के एक मोबाइल फोन को स्विच्ड औफ कर दिया. जबकि दूसरे फोन को वह स्विच्ड औफ करना भूल गया. जयपुर पहुंचने के बाद वह पूरी तरह निश्चिंत था कि पुलिस उस तक नहीं पहुंच सकेगी. लेकिन 29 अप्रैल, 2019 को इंसपेक्टर नवीन कुमार की टीम ने उसे गिरफ्तार कर लिया. उस के पास से मीनू जैन के यहां से लूटा गया सारा सामान बरामद कर लिया गया.

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दिनेश दीक्षित से पूछताछ के बाद पुलिस ने उसे द्वारका (साउथ) थाने के थानाप्रभारी रामनिवास को सौंप दिया. थाना पुलिस ने दिनेश दीक्षित से पूछताछ के बाद उसे द्वारका कोर्ट में पेश कर 2 दिन के रिमांड पर ले लिया.

रिमांड अवधि पूरी होने के बाद उसे फिर से द्वारका कोर्ट में पेश कर 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. कथा लिखने तक दिनेश दीक्षित जेल में बंद था. केस की विवेचना थानाप्रभारी रामनिवास कर रहे थे.

—घटना में शामिल कुछ पात्रों के नाम बदल दिए गए हैं.

(कहानी सौजन्य- मनोहर कहानियां) 

भटकाव के बाद

कहानी- डौ. शीतांशु भारद्वाज

राज्य में पंचायत समितियों के चुनाव की सुगबुगाहट होते ही राजनीतिबाज सक्रिय होने लगे. सरपंच की नेमप्लेट वाली जीप ले कर कमलेश भी अपने इलाके के दौरे पर घर से निकल पड़ी. जीप चलाती हुई कमलेश मन ही मन पिछले 4 सालों के अपने काम का हिसाब लगाने लगी. उसे लगा जैसे इन 4 सालों में उस ने खोया अधिक है, पाया कुछ भी नहीं. ऐसा जीवन जिस में कुछ हासिल ही न हुआ हो, किस काम का.

जीप चलाती हुई कमलेश दूरदूर तक छितराए खेतों को देखने लगी. किसान अपने खेतों को साफ कर रहे थे. एक स्थान पर सड़क के किनारे उस ने जीप खड़ी की, धूप से बचने के लिए आंखों पर चश्मा लगाया और जीप से उतर कर खेतों की ओर चल दी.

सामने वाले खेत में झाड़झंखाड़ साफ करती हुई बिरमो ने सड़क के किनारे खड़ी जीप को देखा और बेटे से पूछा, ‘‘अरे, महावीर, देख तो किस की जीप है.’’

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‘‘चुनाव आ रहे हैं न, अम्मां. कोई पार्टी वाला होगा,’’ इतना कह कर वह अपना काम करने लगा.

बिरमो भी उसी प्रकार काम करती रही.

कमलेश उसी खेत की ओर चली आई और वहां काम कर रही बिरमो को नमस्कार कर बोली, ‘‘इस बार की फसल कैसी हुई ताई?’’

‘‘अब की तो पौ बारह हो आई है बाई सा,’’ बिरमो का हाथ ऊपर की ओर उठ गया.

‘‘चलो,’’ कमलेश ने संतोष प्रकट किया, ‘‘बरसों से यह इलाका सूखे की मार झेल रहा था पर इस बार कुदरत मेहरबान है.’’

कमलेश को देख कर बिरमो को 4 साल पहले की याद आने लगी. पंचायती चुनाव में सारे इलाके में चहलपहल थी. अलगअलग पार्टियों के उम्मीदवार हवा में नारे उछालने लगे थे. यह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित थी इसलिए इस चुनावी दंगल में 8 महिलाएं आमनेसामने थीं. दूसरे उम्मीदवारों की ही तरह कमलेश भी एक उम्मीदवार थी और गांवगांव में जा कर वह भी वोटों की भीख मांग रही थी. जल्द ही कमलेश महिलाओं के बीच लोकप्रिय होने लगी और उस चुनाव में वह भारी मतों से जीती थी.

‘‘क्यों बाई सा, आज इधर कैसे आना हुआ?’’ बिरमो ने पूछा.

‘‘अरे, मां, बाई सा वोटों की भीख मांगने आई होंगी,’’ महावीर बोल पड़ा.

महावीर का यह व्यंग्य कमलेश के कलेजे पर तीर की तरह चुभ गया. फिर भी समय की नजाकत को देख कर वह मुसकरा दी और बोली, ‘‘यह ठीक कह रहा है, ताई. हम नेताओं का भीख मांगने का समय फिर आ गया है. पंचायती चुनाव जो आ रहे हैं.’’

‘‘ठीक है बाई सा,’’ बिरमो बोली, ‘‘इस बार तो तगड़ा ही मुकाबला होगा.’’

कमलेश जीप के पास चली आई. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह किधर जाए. फिर भी जाना तो था ही, सो जीप स्टार्ट कर चल दी. दिमाग में आज की राजनीति को ले कर उधेड़बुन मची थी कि अतीत में दादाजी के कहे शब्द याद आने लगे. दरअसल, राजनीति से दादाजी को बेहद घृणा थी, ग्राम पंचायत की बैठकों में वह भाग नहीं लेते थे.

एक दिन कमलेश ने उन से पूछा था, ‘दादाजी, आप पंचायती बैठकों में भाग क्यों नहीं लिया करते?’

‘इसलिए कि वहां टुच्ची राजनीति चला करती है,’ वह बोले थे.

‘तो राजनीति में नहीं आना चाहिए?’ उस ने जानना चाहा था.

‘देख बेटी, कभी कहा जाता था कि भीख मांगना सब से निकृष्ट काम है और आज राजनीति उस से भी निकृष्ट हो चली है, क्योंकि नेता वोटों की भीख मांगने के लिए जाने कितनी तरह का झूठ बोलते हैं.’

उस ने भी तो 4 साल पहले अपनी जनता से कितने ही वादे किए थे लेकिन उन सभी को आज तक वह कहां पूरा कर सकी है.

गहरी सांस खींच कर कमलेश ने जीप एक कच्चे रास्ते पर मोड़ दी. धूल के गुबार छोड़ती हुई जीप एक गांव के बीचोंबीच आ कर रुकी. उस ने आंखों पर चश्मा लगाया और जीप से उतर गई.

देखते ही देखते कमलेश को गांव वालों ने घेर लिया. एक बुजुर्ग बच्चों को हटाते हुए बोले, ‘‘हटो पीछे, प्रधानजी को बैठ तो लेने दो.’’

एक आदमी कुरसी ले आया और कमलेश से उस पर बैठने के लिए अनुरोध किया.

कमलेश कुरसी पर बैठ गई. बुजुर्ग ने मुसकरा कर कहा, ‘‘प्रधानजी, चुनाव फिर आने वाला है. हमारे गांव का कुछ भी तो विकास नहीं हो पाया.

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‘‘हम तो सोच रहे थे कि आप की सरपंची में औरतों का शोषण रुक जाएगा, क्योंकि आप एक पढ़ीलिखी महिला हो और हमारी समस्याओं से वाकिफ हो, लेकिन इन पिछले 4 सालों में हमारे इलाके में बलात्कार और दहेज हत्याओं में बढ़ोतरी ही हुई है.’’

किसी दूसरी महिला ने शिकायत की, ‘‘इस गांव में तो बिजलीपानी का रोना ही रोना है.’’

‘‘यही बात शिक्षा की भी है,’’ एक युवक बोला, ‘‘दोपहर के भोजन के नाम पर बच्चों की पढ़ाई चौपट हो आई है. कहीं शिक्षक नदारद हैं तो कहीं बच्चे इधरउधर घूम रहे होते हैं.’’

कमलेश उन तानेउलाहनों से बेहद दुखी हो गई. जहां भी जाती लोग उस से प्रश्नों की झड़ी ही लगा देते थे. एक गांव में कमलेश ने झुंझला कर कहा, ‘‘अरे, अपनी ही गाए जाओगे या मेरी भी सुनोगे.’’

‘‘बोलो जी,’’ एक महिला बोली.

‘‘सच तो यह है कि इन दिनों अपने देश में भ्रष्टाचार का नंगा नाच चल रहा है. नीचे से ले कर ऊपर तक सभी तो इस में डुबकियां लगा रहे हैं. इसी के चलते इस गांव का ही नहीं पूरे देश का विकास कार्य बाधित हुआ है. ऐसे में कोई जन प्रतिनिधि करे भी तो क्या करे?’’

‘‘सरपंचजी,’’ एक बुजुर्ग बोले, ‘‘पांचों उंगलियां बराबर तो नहीं होती न.’’

‘‘लेकिन ताऊ,’’ कमलेश बोली, ‘‘यह तो आप भी जानते हैं कि गेहूं के साथ घुन भी पिसा करता है. साफसुथरी छवि वाले अपनी मौत आप ही मरा करते हैं. उन को कोई भी तो नहीं पूछता.’’

एक दूसरे बुजुर्ग उसे सुझाव देने लगे, ‘‘ऐसा है, अगर आप अपने इलाके के विकास का दमखम नहीं रखती हैं तो इस चुनावी दंगल से अपनेआप को अलग कर लें.’’

‘‘ठीक है, मैं आप के इस सुझाव पर गहराई से विचार करूंगी,’’ यह कहते हुए कमलेश वहां से उठी और जीप स्टार्ट कर सड़क की ओर चल दी. गांव वालों के सवाल, ताने, उलाहने उस के दिमाग पर हथौड़े की तरह चोट कर रहे थे. ऐसे में उसे अपना अतीत याद आने लगा.

कमलेश एक पब्लिक स्कूल में अच्छीभली अध्यापकी करती थी. उस के विषय में बोर्ड की परीक्षा में बच्चों का परिणाम शत- प्रतिशत रहता था. प्रबंध समिति उस के कार्य से बेहद खुश थी. तभी एक दिन उस के पास चौधरी दुर्जन स्ंिह आए और उसे राजनीति के लिए उकसाने लगे.

‘नहीं, चौधरी साहब, मैं राजनीति नहीं कर पाऊंगी. मुझ में ऐसा माद्दा नहीं है.’

‘पगली,’ चौधरी मुसकरा दिए थे, ‘तू पढ़ीलिखी है. हमारे इलाके से महिला के लिए सीट आरक्षित है. तू तो बस, अपना नामांकनपत्र भर दे, बाकी मैं तुझे सरपंच बनवा दूंगा.’

कमलेश ने घर आ कर पति से विचारविमर्श किया था. उस के अध्यापक पति ने कहा था, ‘आज की राजनीति आदमी के लिए बैसाखी का काम करती है. बाकी मैं चौधरी साहब से बात कर लूंगा.’

‘लेकिन मैं तो राजनीति के बारे में कखग भी नहीं जानती,’ कमलेश ने चिंता जतलाई थी.

‘अरे वाह,’ पति ने ठहाका लगाया था, ‘सुना नहीं कि करतकरत अभ्यास के जड़मति होत सुजान. तुम्हें चौधरी साहब समयसमय पर दिशानिर्देश देते रहेंगे.’

कमलेश के पति ने चौधरी दुर्जन सिंह से संपर्क किया था. उन्होंने उस की जीत का पूरा भरोसा दिलाया था. 2 दिन बाद कमलेश ने विद्यालय से त्यागपत्र दे दिया था.

प्रधानाचार्य ने चौंक कर कमलेश से पूछा था, ‘हमारे विद्यालय का क्या होगा?’

‘सर, मेरे राजनीतिक कैरियर का प्रश्न है,’ कमलेश ने विनम्रता से कहा था, ‘मुझे राजनीति में जाने का अवसर मिला है. अब ऐसे में…’

प्रधानाचार्य ने सर्द आह भर कर कहा था, ‘ठीक है, आप का यह त्यागपत्र मैं चेयरमैन साहब के आगे रख दूंगा.’

इस प्रकार कमलेश शिक्षा के क्षेत्र से राजनीति के मैदान में आ कूदी थी. चौधरी दुर्जन सिंह उसे राजनीति की सारी बारीकियां समझाते रहते. उस पंचायत समिति के चुनाव में वह सर्वसम्मति से प्रधान चुनी गई थी.

अब कमलेश मन से समाजसेवा में जुट गई. सुबह से ले कर शाम तक वह क्षेत्र में घूमती रहती. बिजली, पानी, राहत कार्यों की देखरेख के लिए उस ने अपने क्षेत्रवासियों के लिए कोई कमी नहीं छोड़ी थी. शिक्षा व स्वास्थ्य विभाग से भी संपर्क कर उस ने जनता को बेहतर सेवाएं उपलब्ध करवाई थीं.

‘ऐसा है, प्रधानजी,’ एक दिन विकास अधिकारी रहस्यमय ढंग से मुसकरा दिए थे, ‘आप का इलाका सूखे की चपेट में है. ऊपर से जो डेढ़ लाख की सहायता राशि आई है, क्यों न उसे हम कागजों पर दिखा दें और उस पैसे को…’

कमलेश ताव खा गई और विकास अधिकारी की बात को बीच में काट कर बोली, ‘बीडीओ साहब, आप अपना बोरियाबिस्तर बांध लें. मुझे आप जैसा भ्रष्ट अधिकारी इस विकास खंड में नहीं चाहिए.’

उसी दिन कमलेश ने कलक्टर से मिल कर उस विकास अधिकारी की वहां से बदली करवा दी थी. तीसरे दिन चौधरी साहब का उस के नाम फोन आया था.

‘कमलेश, सरकारी अधिकारियों के साथ तालमेल बिठा कर रखा कर.’

‘नहीं, चौधरी साहब,’ वह बोली थी, ‘मुझे ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों की जरूरत नहीं है.’

आज कमलेश का 6 गांवों का दौरा करने का कार्यक्रम था. वह अपने प्रति लोगों का दिल टटोलना चाहती थी लेकिन 2-3 गांव के दौरे कर लेने के बाद ही उस का खुद का दिल टूट चला था. उधर से वह सीधी घर चली आई और घर में घुसते ही पति से बोली, ‘‘मैं अब राजनीति से तौबा करने जा रही हूं.’’

पति ने पूछा, ‘‘अरे, यह तुम कह रही हो? ऐसी क्या बात हो गई?’’

‘‘आज की राजनीति भ्रष्टाचार का पर्याय बन कर रह गई है. मैं जहांजहां भी गई मुझे लोगों के तानेउलाहने सुनने को मिले. ईमानदारी के साथ काम करती हूं और लोग मुझे ही भ्र्रष्ट समझते हैं. इसलिए मैं इस से संन्यास लेने जा रही हूं.’’

रात में जब पूरा घर गहरी नींद में सो रहा था तब कमलेश की आंखों से नींद कोसों दूर थी. बिस्तर पर करवटें बदलती हुई वह वैचारिक बवंडर में उड़ती रही.

सुबह उठी तो उस का मन बहुत हलका था. चायनाश्ता लेने के बाद पति ने उस से पूछा, ‘‘आज तुम्हारा क्या कार्यक्रम है?’’

‘‘आज मैं उसी पब्लिक स्कूल में जा रही हूं जहां पहले पढ़ाती थी,’’ कमलेश मुसकरा दी, ‘‘कौन जाने वे लोग मुझे फिर से रख लें.’’

‘‘देख लो,’’ पति भी अपने विद्यालय जाने की तैयारी करने लगे.

कमलेश सीधे प्रधानाचार्य की चौखट पर जा खड़ी हुई. उस ने अंदर आने की अनुमति चाही तो प्रधानाचार्य ने मुसकरा कर उस का स्वागत किया.

कमलेश एक कुरसी पर बैठ गई. प्रधानाचार्य उस की ओर घूम गए और बोले, ‘‘मैडम, इस बार भी चुनावी दंगल में उतर रही हैं क्या?’’

‘‘नहीं सर,’’ कमलेश मुसकरा दी, ‘‘मैं राजनीति से नाता तोड़ रही हूं.’’

‘‘क्यों भला?’’ प्रधानाचार्य ने पूछा.

‘‘उस गंदगी में मेरा सांस लेना दूभर हो गया है.’’

‘‘अब क्या इरादा है?’’

‘‘सर, यदि संभव हो तो मेरी सेवाएं फिर से ले लें,’’ कमलेश ने निवेदन किया.

‘‘संभव क्यों नहीं है,’’ प्रधानाचार्य ने कंधे उचका कर कहा, ‘‘आप जैसी प्रतिभाशाली अध्यापिका से हमारे स्कूल का गौरव बढ़ेगा.’’

‘‘तो मैं कल से आ जाऊं, सर?’’ कमलेश ने पूछा.

‘‘कल क्यों? आज से ही क्यों नहीं?’’ प्रधानाचार्य मुसकरा दिए और बोले, ‘‘फिलहाल तो आज आप 12वीं कक्षा के छात्रों का पीरियड ले लें. कल से आप को आप का टाइम टेबल दे दिया जाएगा.’’

‘‘धन्यवाद, सर,’’ कमलेश ने उन का दिल से आभार प्रकट किया.

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कक्षा में पहुंच कर कमलेश बच्चों को अपना विषय पढ़ाने लगी. सभी छात्र उसे ध्यान से सुनने लगे. आज वह वर्षों बाद अपने अंतर में अपार शांति महसूस कर रही थी. बहुत भटकाव के बाद ही वह मानसिक शांति का अनुभव कर रही थी.

कथा की अंतर्कथा

व्यंग्य- रमेश चंद्र शर्मा

मानस कथा के आयोजन पर आयोजकों ने उभरते हुए संत भवानंद को आमंत्रित करने की सोची. लेकिन कथा प्रारंभ होने से पहले आयोजकों और भवानंद के बीच धर्म के नाम पर जन कल्याण के लिए चढ़ावे की रकम तय हो गई थी. होती भी क्यों न, धर्म के नाम पर चांदी काटने वालों की कमी थोड़े ही है.

कलयुग केवल नाम अधारा, यानी कलयुग में केवल ईश्वर का नाम भर लेने से व्यक्ति भवसागर पार कर जाता है. कितना शार्टकट. मगर कलयुगी इनसान मोहमाया के चक्कर में इस तरह उलझा है कि उसे ईश्वर का नाम लेने की भी फुर्सत नहीं है. लिहाजा, कुछ भले इनसानों ने तय किया कि भई, नाम ले नहीं सकता, तो सुन ही ले.

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इसी भले काम के लिए इन लोगों ने जनकल्याण सत्संग समिति बनाई है. समिति हर साल मानसकथा का आयोजन करती है. आयोजन यों ही नहीं हो जाता है, समिति के सारे पदाधिकारी, सदस्यगण रातदिन पसीना बहाते हैं. कामधंधा खोटी करते हैं, तब जा कर आयोजन हो पाता है. भले काम के लिए भागदौड़ तो करनी ही पड़ती है. परोपकार के लिए लोगों ने अपने प्राण तक गंवा दिए हैं. धर्मशास्त्र इस का गवाह है.

बहरहाल, इस साल भी मानसकथा का आयोजन करना है और इस के लिए अध्यक्ष ने समिति की मीटिंग बुलाई है. मीटिंग में गंभीर विचारविमर्श चल रहा है.

‘‘इस वर्ष भी मानसजी की कथा करनी है,’’ समिति के अध्यक्ष संजयजी ने गंभीरतापूर्वक कहा, ‘‘कार्यक्रम पिछले सालों के अनुसार ही रहेंगे, पहले दिन कलश यात्रा और अंतिम दिन शोभा यात्रा. मगर एक बात है…’’

‘‘वह क्या?’’ सचिव मनोहरजी ने पूछा.

‘‘सालभर में महंगाई बहुत बढ़ गई है,’’ अध्यक्ष संजयजी बोले, ‘‘सहयोग करने वाले नए लोग जोड़ने होंगे. वैसे पुराने सभी लोग हैं ही, विधायक माणकजी, तेलमिल वाले अग्रवालजी, दालमिल वाले माहेश्वरीजी, ठेकेदार बत्राजी…अब नया जुड़े तो कौन जुड़े…बोलो?’’

‘‘संजयजी, मेरी मानो तो एक काम करें,’’ वयोवृद्ध सोनीजी बोले, ‘‘मेरी जुआसट्टा किंग मानेजी से अच्छी बातचीत है…आप कहो तो बात करूं…आदमी दरियादिल है…धरम के काम में पीछे नहीं हटता है.’’

‘‘वह तो है…मगर,’’ संजयजी के चेहरे पर उलझन के भाव आए, ‘‘आप जानो…दो नंबर का पैसा…फिर भगवान का काम…’’

‘‘आप भी संजयजी…भली कही,’’ सोनीजी ने मच्छर भगाने की अदा में हाथ हिला कर संजयजी की दुविधा भगाते हुए कहा, ‘‘क्या एक नंबर का…और क्या दो नंबर का. राम के काम में लगाने के लिए आया पैसा राम के दरबार में पाक हो जाता है.’’

‘‘आप ठीक कहते हैं,’’ संजयजी ने स्वीकृति देते हुए कहा, ‘‘इस साल कथा के लिए किसे बुलाएं…मेरा विचार है कि जमेजमाए को बुलाएंगे तो भाव खाएगा. इन दिनों संत भवानंदजी का नाम उभर रहा है. नएनए हैं, ठीकठाक जम जाएगा. इन के एक आदमी से मेरी थोड़ीबहुत बातचीत भी है.’’

‘‘तो फिर ठीक है, इन्हें ही बुला लो,’’ मनोहरजी ने हामी भरी.

समिति की बैठक संपन्न हुई. संदेशवाहक संदेश ले कर चला गया.

संत भवानंदजी का कमरा. तख्त पर बिछे गद्दे पर बैठे भवानंदजी. लगभग 30-32 वर्षीय दिव्य पुरुष. चेहरा आध्यात्मिक तेज से चमकता हुआ. मस्तक पर त्रिपुंड. भरी हुई दाढ़ीमूंछें. कंधे पर लहराते बाल. भगवा परिधान. गले में अनेक मालाएं. हाथों की उंगलियों में अलगअलग रत्नों की अंगूठियां.

‘‘राधेश्यामजी, जनकल्याण समिति वालों का प्रस्ताव आया है मानसकथा के लिए,’’ भवानंदजी ने अपने सामने बैठे एक सज्जन से कहा.

‘‘कथा कब से है?’’ राधेश्यामजी ने पूछा.

‘‘7 अप्रैल से है. 17 को पूर्णाहुति होगी. उसी दिन शोभायात्रा भी होगी,’’ भवानंदजी ने बताया.

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‘‘गुरुजी,’’ कमलेशजी बोले, ‘‘बात पहले साफ करनी होगी. आजकल आयोजकों का ठिकाना नहीं है. कहते क्या हैं, करते क्या हैं. पहले लोग भले हुआ करते थे. अब कथाभागवत में भी धंधेबाज भर गए हैं.’’

‘‘बात तो आप की सही है,’’ भवानंदजी ने सहमति जाहिर करते हुए कहा, ‘‘पहले तो कुछ एडवांस ले लेते हैं. साथ ही दानदक्षिणा, यात्राव्यय, आवास, भोजन, चढ़ावा, साउंड, कलाकारों के पैसे, स्टाल सब नक्कीपक्की कर लेते हैं… अच्छा राधेश्यामजी, ऐसा करो, समिति वालों से परसों मीटिंग तय कर लो.’’

राधेश्यामजी का निवास स्थान. समिति के पदाधिकारियों और भवानंद में चर्चा चल रही है.

‘‘और संजयजी, कैसे हैं आप… कुशलमंगल तो हैं न,’’ भवानंद ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘आप का प्रस्ताव मुझे मिला. आप तो भई, जनकल्याण में लगे हैं. आजकल धरम के काम करने वाले हैं ही कहां? आप जैसे धार्मिक, समाजसेवी ही तन, मन, धन से लगे हैं.’’

‘‘सब आप का आशीर्वाद है, गुरुजी,’’ संजयजी दोनों हाथ जोड़ कर विनम्रतापूर्वक कहते हैं, ‘‘हम सब तो निमित्त हैं. करवाने वाले तो रामजी हैं. उन की कृपा से चार जने आप जैसे संतों की अमृतवाणी सुन लेते हैं.’’

‘‘चलो, अच्छा है, जैसी प्रभु इच्छा, सबहि नचावत राम गुसाईं,’’ और दोनों हाथ उठाते हुए पूछा, ‘‘कैसे, क्या तय किया है आप ने?’’

‘‘गुरुजी, कथा के पहले कलश यात्रा निकलेगी. कथा के 9 दिनों में पोथी पूजा आरती में मंत्रीजी, विधायकजी और दूसरे कई वी.आई.पी. आरती करेंगे. आखिरी दिन पूर्णाहुति के बाद शोभा यात्रा निकलेगी.’’

‘‘और बाकी व्यवस्थाएं जैसे प्रचारप्रसार आदि?’’ भवानंद बोले.

‘‘गुरुजी, प्रचारप्रसार तो आप की तरफ से ही होगा,’’ मनोहरजी ने कहा.

‘‘प्रचारप्रसार तो आयोजक ही करते हैं,’’ राधेश्यामजी बोले.

‘‘संजयजी,’’ भवानंद ने कहा, ‘‘हमारे साथ 5 कलाकार होंगे. वैसे तो कलाकार 500 रुपए रोज मांगते हैं. मगर मैं उन्हें 350 रुपए में राजी कर लूंगा. साउंड वाला भी 15 हजार मांगता है, मगर 12 हजार में मान जाएगा. 2 से कम में पंडित नहीं मानेगा. आगे दक्षिणा जो आप चाहो… मैं तो कुछ मांगता ही नहीं, जो श्रद्धा में आप दे दें.’’

‘‘गुरुजी,’’ राधेश्यामजी ने हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘‘हम तो समाजसेवा करते हैं. हमारे पास क्या है. हम ने तो पिछले साल हर्षाजी को भी कुछ नहीं दिया था.’’

‘‘चलो, एक काम करना. पूर्णाहुति वाले दिन मंच पर दक्षिणा के नाम पर खाली लिफाफा ही दे देना… हमारा सम्मान हो जाएगा.’’

‘‘नहीं…नहीं…गुरुजी, ऐसी बात नहीं,’’ संजयजी ने विनम्रतापूर्वक कहा, ‘‘जो भी बन पड़ेगा, आप के श्रीचरणों में भेंट करेंगे.’’

‘‘अब चढ़ावे की बात कर लें,’’ भवानंद बोले, ‘‘दानपेटी, आरती और पोथी की आवक का कैसा क्या…’’

‘‘वह आवक तो आयोजकों की होती है,’’ संजयजी बोले.

‘‘दानपेटी और पोथी की आवक आप की,’’ संत भवानंद ने कहा, ‘‘मगर आरती के थाल की आवक हमारी होगी, ठीक है?’’

‘‘जी, गुरुजी.’’

‘‘संजयजी,’’ भवानंद ने चर्चा आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘पंडाल के बाहर प्रांगण में हमारे कैसेट, सीडी, तसवीरें, किताबों और मालाओं आदि का स्टाल लगेगा, आप को कोई आपत्ति तो नहीं?’’

‘‘नहीं गुरुजी, उस में क्या आपत्ति,’’ संजयजी ने कहा.

‘‘हम 8 लोग आएंगे. यात्रा व्यय, आवास व्यवस्था के अलावा 800 रुपए भोजन खर्चा लगेगा,’’ भवानंद ने कहा.

‘‘गुरुजी,’’ मनोहर ने कहा, ‘‘भोजन सामग्री आप को आवास पर ही मिल जाएगी. एक गाड़ी भी लगा देंगे.’’

‘‘चलो, अच्छा है,’’ भवानंद ने कहा और चर्चा समाप्त हुई.

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रामकथा शुरू होने के पहले आयोजकों की फोन पर होने वाली चर्चाओं के अंश कुछ इस प्रकार होते हैं :

‘‘हां, भाई साहब…संजय बोल रहा हूं…अब क्या बताएं…धर्म का काम है, संकल्प लिया है तो करना ही है. पलभर की भी फुर्सत नहीं है. 1 माह हो गया है… दुकान की तरफ तो झांका भी नहीं है.’’

‘‘जी…भाई साहब…खर्चा तो बहुत है, प्रचार, टेंट, अतिथियों का स्वागत, साउंड, कलश यात्रा, शोभा यात्रा सबकुछ जन सहयोग से…हां भाई साहब, जेब से भरना पड़ेगा…आप कुछ सहयोग करें… धन्यवाद. भाई साहब, पुण्य की जड़ पाताल तक…यह धरती आप जैसे दानवीरों, धर्मात्माओं के दम पर ही टिकी हुई है.’’

उधर भवानंद अपनों से इस तरह बात करते हैं, ‘‘अब क्या करें…आयोजकों का प्रबल आग्रह था…स्वीकृति देनी पड़ी…क्या बताएं मलकानीजी, देहली की कथा छोड़नी पड़ी…अब मिलनामिलाना क्या…5-10 हजार अपनी गांठ से ही लगाना है. खैर, कोई बात नहीं है, रामजी का नाम ही लेंगे…’’

‘‘गुरुजी, विजय का फोन है,’’ राधेश्याम चोगा भवानंद को थमाते हैं.

‘‘हां विजय, कथा 7 से है,’’ भवानंद बोलते हैं, ‘‘क्या कहा, 350 रुपए…कलाकारों के इतने भाव कब से हो गए? एक बात 100 रुपए…अच्छा चल, आखिरी बात 150 रुपए…आना हो तो आ…नहीं तो फिर दूसरे से बात करूं… ठीक है… 7 को आ जाना.’’

‘‘राधेश्यामजी, पंडित को फोन लगाना,’’ भवानंद कहते हैं.

राधेश्याम नंबर डायल कर फोन का चोगा थमा देते हैं.

‘‘शास्त्रीजी को प्रणाम,’’ भवानंद पंडितजी से बतियाते हैं, ‘‘हां, 7 तारीख से है. क्या बोले शास्त्रीजी… 200 रुपए… करना क्या है… 4 मंत्र ही तो बोलने हैं. किसी और से बात कर लेते हैं. चलो, 100 रुपए मंजूर है… ठीक है.’’

कथा शुरू होने के पहले आयोजित पत्रकारवार्त्ता. संबोधन के लिए संजय और भवानंद बैठे हैं. सामने बैठे पत्रकारों के बीच प्रिंटेड प्रेसनोट के साथ 5 रुपए वाले बालपेन और 3 रुपए वाले नोटिंगपेड बांटे जाते हैं. संजय की संक्षिप्त भूमिका के बाद पत्रकारवार्त्ता शुरू :

‘‘संजयजी, इस आयोजन के पीछे समिति का उद्देश्य?’’

‘‘जनकल्याण और भगवान राम का नाम जनजन तक पहुंचाना.’’

‘‘स्वामीजी, आप कथा कब से कर रहे हैं?’’

‘‘6 साल की उम्र से,’’ भवानंद ने उत्तर दिया.

‘‘आध्यात्मिक जगत भी भौतिक चकाचौंध के प्रभाव में है, क्या यह ठीक है?’’ एक पत्रकार ने पूछा.

‘‘अनुचित है. संतों को सादगी से रहना चाहिए,’’ भवानंद ने कहा.

‘‘वैसे तो आप ने ब्रह्मचर्य व्रत को आजीवन धारण किया है,’’ एक दुस्साहसी पत्रकार पूछता है, ‘‘मगर सुना है कि आप का भी कोई प्रेम प्रसंग था?’’

‘‘सुनने को तो आप कुछ भी सुन सकते हैं,’’ भवानंद थोड़ा असहज हो कर कहते हैं, ‘‘आप ने जो कुछ सुना है गलत है.’’

‘‘गुरुजी,’’ अगला सवाल, ‘‘आप राजनीति में जाएंगे?’’

‘‘इस का फैसला तो रामजी करेंगे,’’ भवानंद उत्तर देते हैं.

‘‘जनसामान्य के लिए आप का संदेश?’’

‘‘सादगी से रहें. कामनाएं न पालें. छलप्रपंच न करें. मोहमाया से दूर रहें. कथनीकरनी में भेद न हो,’’ भवानंदजी ने ठेठ आध्यात्मिक शैली में कहा, ‘‘जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए.’’

मानसकथा के 9 दिनों के दौरान, तैरते हुए कुछ वाक्य इस तरह रहे :

भवानंदजी कुछ गुस्साए से कहते हैं, ‘‘राधेश्यामजी, इन कलाकारों को अक्ल कब आएगी. इन से साफसाफ कह दो कि जब मैं मंच पर पहुंचता हूं तो ये मेरे चरण स्पर्श करें. अरे, जब अपने ही लोग मेरा सम्मान नहीं करेंगे तो दूसरे क्यों करेंगे?’’

‘‘जी, गुरुजी.’’

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‘‘और सुनो,’’ भवानंद ने कहा, ‘‘कथा के दौरान झूम कर नाचने वाले स्त्रीपुरुषों का क्या हुआ…उन्हें 20-25 रुपए से ज्यादा नहीं देना.’’

राधेश्याम आयोजकों से संपर्क करते हैं, ‘‘मनोहरजी, भोजन सामग्री समाप्त हो गई है. गुरुजी को खंडेलवालजी के यहां जाना है, गाड़ी पहुंचा दें.’’

उधर से मनोहरजी जवाब देते हैं, ‘‘भोजन सामग्री लाने वाला आज तो कोई नहीं है. गाड़ी इंदौर गई है, कल आएगी.’’

भवानंदजी अपने भाई पर झल्लाते हैं, ‘‘भाई साहब, जरा आरती की थाली पर ध्यान दो. दूसरों को मत थमाओ. खुद ही थाली ले कर पूरे पंडाल में चक्कर लगाओ…आवक कम हो रही है.’’

कथा के अंतिम दिन…भवानंदजी, राधेश्यामजी से कहते हैं, ‘‘राधेश्यामजी, बातें तो बड़ीबड़ी की थीं कि आरती में मंत्रीजी आएंगे, विधायक आएंगे…2 पार्षदों को छोड़ कर कोई नहीं आया. आज आखिरी दिन है…पूछो, आज कौन आएगा और हमारा सम्मान होने वाला था, क्या हुआ?’’

राधेश्यामजी फोन पर संजयजी से बात करते हैं, वह बताते हैं, ‘‘मंत्रीजी तो भोपाल गए हैं. विधायक आरती भी करेंगे और गुरुजी का सम्मान भी.’’

कथा समापन के बाद विदाई की बेला में. भवानंदजी कमरे में दक्षिणा का लिफाफा खोल कर देखने के बाद कहते हैं, ‘‘500 रुपए… इस से तो कचनारिया वालों ने अच्छे दिए थे. 2,100 रुपए. इस समिति का आयोजक संजय तो एक नंबर का काइयां निकला. लगता है मीठामीठा बोल कर सबकुछ दबा कर रख लेना चाहता है. पर मैं ऐसे नहीं चलने दूंगा. राधेश्यामजी, तुम संजय से बात कर लेना कि विदाई में मुझे कम से कम 2,100 रुपए चाहिए ही चाहिए.

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सैलाब से पहले

भाग-1

कमरे में धीमी रोशनी देख इंदु ने सोचा शायद विनय सो चुके हैं. वह दूध का गिलास लिए कमरे में आई तो देखा विनय आरामकुरसी पर आंखें मूंदे बैठे हुए हैं. उन्हें माथे पर लगातार हथेली मलते देख इंदु ने प्यार से पूछा, ‘‘सिर में दर्द है क्या? लो, दूध पी लो और लेट जाओ, मैं बाम मल देती हूं,’’ और इसी के साथ इंदु ने दूध का गिलास आगे बढ़ाया.

‘‘मेज पर रख दो, थोड़ी देर बाद पी लूंगा,’’ आंखें खोलते हुए विनय ने कहा, ‘‘पुरू, क्या कर रही है…सो गई क्या?’’

‘‘नहीं, लेटी है. नींद तो जैसे उस की आंखों से उड़ ही गई है,’’ पुरू के बारे में बात करते ही इंदु का स्वर भर्रा जाता था, ‘‘क्या सोचा था और क्या हो गया. सच ही है, आदमी के चेहरे पर कुछ नहीं लिखा होता. अब दीनानाथजी और सुभद्रा को देख कर क्या कोई अंदाज लगा सकता है कि अंदर से कितने विद्रूप हैं ये लोग…कितने कू्रर…असुर. कुदरत ने दोनों बेटे ही दिए हैं न. एक बेटी होती तो जानते कि बेटी का दर्द क्या होता है. इन्हें हमारी फूल सी बेटी नहीं बस, पैसा नजर आ रहा था और वही चाहिए था,’’ इंदु सिसक पड़ी.

‘‘अब बस करो, इंदु…क्यों बारबार एक ही बात ले कर बैठ जाती हो,’’ विनय ने चुप कराते हुए कहा.

‘‘तुम कहते हो बस करो…मैं तो सहन कर लूंगी  पर जानती हूं कि तुम्हारे जी में जो आग लगी है वह अब कभी ठंडी नहीं पड़ेगी. बचपन से पुरू का पक्ष ले कर बोलते रहे हो…पुरू में तो जैसे तुम्हारे प्राण बसे हैं, क्या मैं यह जानती नहीं हूं? जब से पुरू ससुराल से इस तरह लौटी है, तुम्हारे दिल पर क्या बीत रही है, अच्छी तरह समझ रही हूं मैं. अपने दुखों को अंदर ही अंदर समेट लेने की तुम्हारी पुरानी आदत है.’’

इंदु लगातार बोले जा रही थी पर विनय आरामकुरसी पर अधलेटे, शून्य में टकटकी बांधे सोच में डूबे हुए थे…फिर अचानक बोल पड़े, ‘‘इंदु, सुबह जल्दी उठ जाना और हां, पुरू को भी जल्दी नहाधो कर तैयार होने के लिए कह देना… पुलिस स्टेशन चलना है. कुछ आवश्यक काररवाई बाकी है.’’

‘‘उन लोगों की जमानत तो नहीं हो गई? 4 दिन लाकअप में बंद रह कर होश ठिकाने आ गए होंगे दीनानाथजी और सुभद्रा के…और अरविंद, उसे तो कड़ी सजा मिलनी चाहिए. पराई बेटी पर अत्याचार करते इन लोगों को शर्म नहीं आई. पर विनय, इन लोगों को यों ही नहीं छोड़ना है…कड़ी से कड़ी सजा दिलवाना ताकि फिर किसी लड़की को ये लोग दहेज के लिए सताने की हिम्मत न कर सकें,’’ बोलतेबोलते इंदु की सांसों की गति तेज हो गई और वह लगभग हांफने सी लगी.

सच है, खुद कष्ट उठाना उतना कठिन नहीं होता जितना अपने प्रिय को कष्ट झेलते हुए देखना और बच्चे तो मांबाप के कलेजे के टुकड़े होते हैं…वे कष्ट में हों तो मांबाप चैन की सांस कैसे ले सकते हैं भला.

‘‘हां, इंदु, सजा जरूर मिलेगी…और मिलनी ही चाहिए… दोषी को सजा मिलनी ही चाहिए…’’ विनय ने दृढ़ता से कहा, ‘‘चलो, सो जाओ, सुबह जल्दी उठना है तुम्हें.’’

विनय के स्वर की दृढ़ता से आश्वस्त हो कर इंदु अपने पल्लू के छोर से आंसू पोंछती हुई कमरे से बाहर निकल गई. पिछले हफ्ते जब से पुरुष्णी ससुराल से दहेज के लिए प्रताडि़त हो कर बच कर भाग आई, इंदु ने एक पल को भी उसे अकेला नहीं छोड़ा था. रात में भी वह पुरू के पास ही लेटती थी और रातरात भर जाग कर कभी उस के माथे को तो कभी बालों को सहलाती रहती…मानो पुरू नन्ही बच्ची हो.

विनय की आंखों से नींद कोसों दूर थी. इंदु के जाते ही उन्होंने मेज पर नजर डाली…पीने के लिए दूध से भरा गिलास उठाया…दो घूंट जैसेतैसे गटके फिर मन नहीं हुआ, सो गिलास वापस मेज पर रख दिया. मन की बेचैनी को कम करने के लिए वह दोनों हाथों को कमर के पीछे बांधे कमरे में ही चहलकदमी करने लगे.

कभीकभी लगता है मानो समय रुक सा गया है पर समय कहां रुकता है…वह तो घड़ी की टिकटिक के साथ हमेशा गतिमान रहता है. हम ही आगेपीछे हो जाते हैं. जब पुरुष्णी छोटी थी तो विनय उस के लिए कितने आगे तक की सोच लेते थे और आज न चाहते हुए भी बारबार वह पीछे की ओर…अतीत में ख्ंिचे चले जा रहे थे. जिस गति से घड़ी की सुइयां निरंतर आगे की ओर बढ़ रही थीं उसी तीव्रता से विनय का विचारचक्र विपरीत दिशा में घूमने लगा था.

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विवाह के दिन कितनी प्यारी लग रही थी उन की पुरू. पुरू ही क्यों अरविंद भी. दोनों की जोड़ी देख मेहमान तारीफ किए बिना नहीं रह पा रहे थे. सुयोग्य वर और घर दोनों ही लड़की के सौभाग्य से प्राप्त होते हैं…ऐसा ही कुछ उस दिन विनय ने सोचा था. गर्व से सीना ताने अपने बेटे वरुण के साथ दौड़दौड़ कर व्यवस्था देखने में जुटे हुए थे. अपने दोस्त केदार पर भी उन्हें उस दिन नाज हो रहा था…वाह, क्या दोस्ती निभाई है दोस्त ने.

केदार ने ही तो यह इतना सुंदर रिश्ता सुझाया था. अरविंद कंप्यूटर इंजीनियर था और यहीं दिल्ली में ही कार्यरत था. पिता दीनानाथ महाविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष और मां सुभद्रा सीधीसादी घरेलू धार्मिक महिला थीं. छोटा भाई मिलिंद अभी कालिज में पढ़ रहा था. छोटा सा सुसंस्कृत परिवार. यदि चिराग ले कर ढूंढ़ते तो भी इस जन्म में ऐसा घरवर नहीं ढूंढ़ पाते, यह सोच कर केदार के प्रति विनय कृतज्ञ हो गए थे.

‘रिश्ता तो अच्छा है पर थोड़ी तहकीकात तो करवा लेते,’ इंदु ने कहा तो विनय तुरंत बोल पड़े, ‘अरे, केदार ने रिश्ता सुझाया है… अविश्वास का तो प्रश्न ही नहीं उठता, तहकीकात भला क्या करवानी है. भई, मुझे तो दीनानाथजी से बात कर के ही तसल्ली हो गई. ऐसे घर में पुरू को दे कर तो मैं निश्ंिचत हो जाऊंगा.’

इतना कहने के बाद विनय ने शरारत से मुसकरा कर इंदु की ओर देखा और बोले, ‘और एक बात इंदु, तुम्हारे मुकाबले तो सुभद्राजी 10 प्रतिशत भी नहीं हैं.’

‘किस बात में?’ इंदु ने इठला कर आतुरता से पूछा.

‘अरे भई, तेजतर्रारी में और किस में,’ विनय ने जोरदार ठहाका लगाया तो इंदु ने भी बनावटी गुस्से में आंखें तरेरीं. इतना उन्मुक्त हास्य आज पहली बार ही विनय के चेहरे पर देखा था. बेटी के भविष्य को ले कर आज कितने निश्ंिचत हो गए हैं विनय. यही सोच कर इंदु का मन तृप्ति से भर गया था.

पर यह सुखद स्वप्न चार दिन की चांदनी बन कर ही रह गया. पहली बार जब पुरू मायके आई तो इंदु की अनुभवी आंखों ने उस के चेहरे पर चढ़ी उदासी की परत को तुरंत ही ताड़ लिया था. खूब कुरेदकुरेद कर इंदु ने पूछताछ की फिर भी पुरू की उदासी का कारण जानने में असमर्थ ही रही. हर बार पुरू का एक ही उत्तर होता, ‘कहां मां…कुछ तो नहीं है… आप का वहम है यह…खुश तो हूं मैं.’

पुरू ससुराल लौट गई पर भ्रम के कांटे इंदु की मनोधरा पर जहांतहां बिखेर गई थी. पुरू के व्यवहार में कई अनपेक्षित बातें अवभासित हुई थीं इंदु को, जो समझ से परे थीं. बचपन से हर बात मां को बताने वाली पुरू अचानक इतनी चुपचुप सी क्यों हो गई…कहीं कोई कष्ट तो नहीं है ससुराल में…नाना प्रकार की अटकलों के बीच मन घूमता रहता.

और एक दिन चिंताओंदुश्ंिचताओं के बीच पुरू का वह पत्र, ‘आप नानानानी बनने वाले हैं…वरुण मामा बनेगा…’ ऐसा पुलकित कर गया था कि आनंदातिरेक में खुशी के आंसू बह निकले. अचानक ही सारे भ्रम, शंकाएंकुशंकाएं इस बहाव में जाने कहां तिरोहित हो गईं. मन पुन: स्वच्छ आकाश सा साफ हो गया.

विनय और वरुण तो खुशी के मारे फूले नहीं समा रहे थे. जहांजहां, जोजो ध्यान आया हरेक को फोन, ई-मेल, पत्र लिख कर यह शुभसमाचार दे रहे थे. इंदु तो भविष्य में आने वाले नन्हे मेहमान की क्याक्या तैयारी करनी होगी इसी सोच में रम गई थी.

इंदु ने गणित लगाया कि तीसरा महीना लगभग पूरा होने को है पुरू का. बस, केवल 6 माह की ही तो प्रतीक्षा है. पर ये 6 माह भी इंदु को 6 युग की तरह लंबे लग रहे थे. फिर भी समय निर्बाध गति से सरकता जा रहा था…सुख भरे दिन यों भी समय की लंबाई का एहसास नहीं कराते.

2 माह ही तो हुए थे इन सुखों की सौगात भरे एहसासों को चुनचुन कर समेटते हुए कि अचानक एक दिन सूटकेस ले कर दरवाजे पर पुरू को खड़ी पाया तो सब के सब खुशी से झूम उठे थे, ‘अरे बेटी, अचानक कैसे आना हुआ…फोन भी नहीं किया,’ खुशी से पुरू को गले लगाते हुए इंदु ने पूछा, ‘अरविंद कहां है?’ अरविंद को साथ न देख कर पुरू के पीछे आजूबाजू उत्सुकतावश इंदु झांकने लगी.

‘मैं अकेली आई हूं, मां. हमेशाहमेशा के लिए वह घर छोड़ कर,’ पुरू, इंदु से लिपट कर बिलख पड़ी और क्षण भर में ही वे सारे  सपने, जो विनय, वरुण और इंदु ने बड़े जतन से बुने थे, जल कर भस्म हो गए.

पुरू की बातों ने सब को स्तब्ध कर दिया था. विनय का तो इस बात पर रत्ती भर भी विश्वास नहीं जम रहा था कि सुभद्रा जैसी सीधीसादी महिला ने उन की पुरू को दहेज के लिए प्रताडि़त किया होगा. और दीनानाथ? दीनानाथजी पर तो उन्हें स्वयं से अधिक विश्वास था. एक बार वह स्वयं पुरू के साथ डांटफटकार कर सकते थे परंतु दीनानाथजी तो वात्सल्य की साक्षात मूर्ति थे.

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‘रहने दीजिए अपने तर्क…ये सब दुनिया को दिखाने के लिए पहने हुए मुखौटे हैं. ये तो अच्छा हुआ कि पुरू उन के चंगुल से बच कर निकल आई वरना कल को न जाने क्या सलूक करते वे लोग,’ इंदु क्रोधावेश से तप्त हो रही थी.

‘पर इंदु, यदि पुरू जो कह रही है वह सच भी हो तो क्या अरविंद ने उन्हें रोका नहीं होगा. अरविंद पर तो तुम्हें भरोसा है न. हमारे बेटे जैसा है वह. मुझे एक बार फोन कर के बात कर लेने दो उन लोगों से, वैसे भी पुरू के अचानक बिना बताए आ जाने से परेशान होंगे वे लोग,’ विनय अब भी वस्तुस्थिति पर भरोसा नहीं कर पा रहे थे.

‘पापा, आप भी न बस,’ वरुण झल्ला पड़ा, ‘अब भी उन्हीं लोगों की भलाई के बारे में सोच रहे हैं आप. वे परेशान हो रहे होंगे तो होने दीजिए. परेशान वे पुरू दीदी के लिए नहीं अपनी इज्जत के लिए हो रहे होंगे, जो अब हमारे हाथ में है. पुरू दीदी ठीक ही कह रही हैं कि उन सब के खिलाफ हमें पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा देनी चाहिए,’ वरुण का नया खून अपनी पुरुष्णी दीदी को कष्ट में रोतेसिसकते देख पूरे उबाल पर आ गया था.

तत्क्षण विनय ने विरोध करते हुए कहा, ‘चलो, मान लेते हैं कि उन लोगों ने पुरू के साथ ज्यादती की है पर उन से मिले बिना…पूरी बात जाने बिना सीधे पुलिस काररवाई करना मुझे तो कुछ ठीक नहीं लगता,’ विनय कुछ सोचते हुए फिर बोले, ‘वरुण, एक काम करो. केदार को फोन मिलाओ, पहले उस से बात कर लूं फिर दीनानाथजी से मैं खुद जा कर मिल लूंगा.’

चिंताग्रस्त होने के बावजूद विनय अपने विवेक और विचारशीलता का धैर्यपूर्वक उपयोग करना अच्छी तरह जानते थे. हालांकि बेटी के कष्ट ने उन्हें अंदर तक हिला कर रख दिया था, फिर भी उन्हें यह एहसास था कि बेटी अब केवल उन की ही नहीं दीनानाथजी के घर की भी इज्जत है और फिर इस वक्त यह गर्भवती भी है. सारी स्थितियां रिश्तों के नाजुक धागों से गुंथी हुई थीं. विनय नहीं चाहते थे कि किसी भी झटके से एक भी धागा खिंच कर टूट जाए.

‘देखो, इंदु, पुरू तो अभी नादान है. भावावेश में यह जो कदम उठा बैठी है उस का नतीजा कभी सोचा है इस ने? जिस स्थिति में यह है…तुम तो अच्छी तरह समझती हो इंदु, फिर भी इस की बातों को शह दे रही हो. अरे, इतने करीबी रिश्ते क्या इतने कमजोर होते हैं, जो जरा सी विषमता से टूट जाएं. पुरू के साथ उस नन्ही जान के भविय के बारे में भी हमें सोचना होगा, जो इस वक्त उस के गर्भ में पल रही है,’ विनय धैर्य से स्थिति संभालने का पुरजोर प्रयास कर रहे थे.

पर बेटी के दुख से विचलित इंदु लगातार विनय पर जोर डाल रही थी कि अब दोबारा उस नरक में पुरू को नहीं भेजना है.

‘पानी सिर से गुजरने तक इंतजार करना तो मूर्खता होगी. उन लोगों ने लगातार पुरू पर दबाव डाला है कि मायके से 4-5 लाख की व्यवस्था कर दे. बहाना यह कि अरविंद को खुद का बिजनेस शुरू करवाना है. वह तो पुरू थी जो अड़ी रही कि मैं अपने मांबाप को क्यों परेशानी में डालूं…और नतीजा देखा? जान से मारने की धमकी दे डाली सुभद्रा ने तो.’

‘यदि यह बात थी तो पुरू ने हमें पहले कभी क्यों नहीं बताया…बोलो, पुरू,’ विनय ने पुरू का कंधा पकड़ कर झकझोरते हुए पूछा.

‘पापा, मैं आप को परेशान नहीं करना चाहती थी,’ पुरू की सिसकियां हिचकियों में बदलने लगीं.

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‘कुछ भी हो, पहले हमें दीनानाथ और सुभद्रा से मिल कर इस मामले को स्पष्ट तो कर लेना चाहिए कि वास्तविकता क्या है?’ विनय ने कहा.

पुरू फिर बिलख पड़ी, ‘मैं झूठ बोलूंगी, ऐसा लगता है क्या पापा आप को?’ इंदु की गोद में सिर छिपा कर पुरू लगातार रोए जा रही थी,

शायद यही सच है

भाग-1

बैंक से निकलते हुए भारती ने घड़ी पर निगाह डाली तो 6 बजे से अधिक का समय हो चुका था. यद्यपि उस के तमाम सहयोगी कर्मचारी 5 बजे से ही घर जाने की तैयारी में जुट जाते हैं, पर भारती को घर जाने की कोई जल्दी नहीं रहती. उस अकेले के लिए तो जैसे बैंक वैसे घर. एक अकेली जीव है तो किस के लिए भाग कर घर जाए. बैंक में तो फिर भी मन काम में लगा रहता है लेकिन तनहा घर में सोने व दीवारों को देखने के अलावा वह और क्या करेगी.

पार्किंग से भारती ने अपनी कार बाहर निकाली और घर की ओर चल दी. वही रास्ते, वही सड़कें, वही पेड़, कहीं कोई बदलाव नहीं, कोई रोमांच नहीं. एक बंधे बंधाए ढर्रे पर जीवन की गाड़ी जैसे रेंग रही है. सुस्त चाल से घर पहुंच कर वह सोफे पर निढाल सी जा पड़ी. अकसर ऐसा ही होता है, खाली घर जैसे उसे खाने को दौड़ता है. एक टीस सी उठती है, काश, कोई तो होता जो घर लौटने पर उस से बतियाता, उस के सुखदुख का भागीदार होता.

यद्यपि भारती अतीत की गलियों में भटकना नहीं चाहती, मन पर कठोरता से अंकुश लगाने की कोशिश करती रहती है लेकिन कभीकभी मन चंचल बच्चे सा मचल उठता है. आज भी भारती ने सोफे पर पड़ेपड़े आंखें बंद कीं तो उस का मन नियंत्रण में नहीं रहा. पलों में ही लंबीलंबी छलांगें लगा कर मन ने उस के अतीत को सामने ला खड़ा किया.

उन दिनों वह बी. काम. अंतिम वर्ष की छात्रा थी. कुदरत ने उसे आकर्षक व्यक्तित्व प्रदान किया था. ऊंची कद- काठी, गोरे रंग पर तीखे नाकनक्श, लंबे घने काले बाल जिन्हें चोटी के रूप में गूंध देती तो वह नागिन का रूप ले लेती.

उसे बनसंवर कर रहने का भी बेहद शौक था. जब भी वह परिधान के साथ मेल खाते टौप्स, चूडि़यां पहन पर्स लटकाए कालिज आती तो उस की सहेलियां उसे छेड़ते हुए कहतीं, ‘वाह, आज तो गजब ढा रही हो. रास्ते में कितनों को घायल कर के आई हो?’

वह भी बड़ी शोख अदा के साथ कहती, ‘तुम ने देखा नहीं, अभीअभी बेहोश लड़कों से भरी एम्बुलेंस यहां से गुजर कर अस्पताल की ओर गई है. वे सभी मुझे देख कर ही तो बेहोश हुए थे.’ फिर जोरदार ठहाके लगते.

पढ़ाई में भी वह अव्वल थी. उस की दिली इच्छा थी कि पढ़लिख कर वह बड़ा अफसर बने. इस के लिए प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी भी उस ने शुरू कर दी, लेकिन मांबाप उस की शादी कर के जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते थे. जब उस ने आगे पढ़ने की बहुत जिद की तो वे इस शर्त पर तैयार हुए कि जब तक कोई अच्छा मनपसंद लड़का नहीं मिल जाता वह पढ़ाई करेगी, लेकिन जैसे ही उपयुक्त वर मिल गया उसे पढ़ाई छोड़नी पड़ेगी.

एम. काम. का पहला सत्र शुरू हो गया था. वह पढ़ाई में व्यस्त हो गई थी और मांबाप उस के लिए लड़का ढूंढ़ने में. 2 भाइयों के बीच इकलौती बहन होने के कारण भारती मांबाप की लाड़ली भी थी और भाइयों की दुलारी भी. अपनी सुंदरता का गुमान तो उसे था ही, इसलिए जब पहली बार मांबाप ने उस के लिए लड़का देखा और बात चलाई तो उस का फोटो देखते ही वह बिदक कर बोली, ‘इसे आप लोगों ने पसंद किया है? इस की लटकी सूरत देख कर तो लगता है कहीं से दोचार जूते खा कर आया हो. मुझे नहीं करनी इस से शादी.’

मांबाप ने बहुतेरा समझाया कि लड़का पढ़ालिखा अफसर है, लेकिन भारती ने साफ मना कर दिया.

अगली बार उन्होंने भारती को न तो लड़के की फोटो दिखाई और न परिचय- पत्र. सीधेसीधे लड़के व उस के मातापिता को होटल में मुलाकात का समय दे दिया. इस बार भारती और चिढ़ गई, ‘जिस के बारे में मुझे कुछ जानकारी नहीं है, न उस की फोटो देखी है, उस के सामने अपनी प्रदर्शनी करने चली जाऊं?’

मांबाप ने समझाया, ‘देखो बेटी, हमें इन के बारे में संतोषप्रद जानकारी प्राप्त हुई है. तुम जो भी पूछना चाहो पूछ सकती हो. आखिर शादी तो तुम्हें ही करनी है. तुम्हारी तसल्ली के बाद ही बात आगे बढ़ेगी. तुम बेकार तनाव क्यों ले रही हो, कोई जबरदस्ती तो है नहीं,’ तब जा कर वह कुछ सामान्य हुई.

बातचीत केदौरान भारती ने लड़के के घर वालों से स्पष्ट कह दिया कि वह शादी के बाद घर बैठने वाली लड़कियों में से नहीं है. उस का कैरियर माने रखता है. वह महत्त्वाकांक्षी है और शादी के बाद भी वह नौकरी करेगी.

लड़के की मां ने साफ कह दिया, ‘बेटा, हमें तो घर संभालने वाली पढ़ीलिखी बहू चाहिए. अगर तुम 8-10 घंटे की नौकरी करोगी, सारा दिन घर के बाहर रहोगी तो हमें ऐसी बहू का क्या फायदा?’

बात खत्म हो गई पर घर आ कर मां ने भारती को फटकारा, ‘यह सब अभी से कहने की क्या जरूरत थी? शादी के बाद भी तो ये बातें की जा सकती थीं.’

इस पर तुनक कर भारती बोली थी, ‘अच्छा हुआ, अभी खुली बात हो गई. देखा नहीं आप ने, लड़के की मां को घर संभालने वाली, घर का काम करने वाली बहू नहीं नौकरानी चाहिए. इतना पढ़लिख कर भी रोटीदाल बनाओ, बच्चे पैदा करो, उन के पोतड़े धोओ और घर के कामों में जिंदगी बरबाद कर दो.’

कुछ समय गुजरने के बाद एक दिन मां ने भारती को विश्वास में लेते हुए कहा, ‘बेटा, हम देख रहे हैं कि हमारे पसंद किए लड़के तुम्हारी कसौटी पर खरे नहीं उतर रहे. अगर तुम ने अपनी तरफ से किसी को पसंद कर के रखा है तो हमें बता दो. तुम्हारी खुशी में ही हम सब की खुशी है.’

‘मम्मी, ऐसी कोई बात नहीं है,’ भारती बोली थी, ‘अगर होगी तो आप को जरूर बताऊंगी.’

लेकिन असलियत यह थी कि पिछले कुछ समय से अपने सहपाठी हिमेश के साथ भारती का प्रेमप्रसंग चल रहा था. भारती उसे अच्छी तरह से परख कर ही कोई फैसला लेना चाहती थी. वह जानती थी कि प्रेमी और पति में काफी फर्क होता है. उस ने सोच रखा था, हिमेश अगर उस की कसौटी पर खरा उतरेगा तभी वह अंतिम निर्णय लेगी और मां को इस बारे में बताएगी. 2 बहनों के बीच अकेला भाई होने के कारण हिमेश के मांबाप की सभी आशाएं उसी पर टिकी थीं.

छुट्टी का दिन था. भारती तथा हिमेश ने आज घूमने तथा किसी अच्छे से होटल में खाना खाने का प्रोग्राम बनाया. सिद्धार्थ पार्क के एक कोने में प्रेमालाप करते हुए हिमेश व भारती अपने भविष्य के रंगीन सपने बुनते रहे. तभी भारती ने कहा, ‘हिमेश, मैं बैंक की प्रतियोगिता परीक्षा में बैठ रही हूं. तैयारी शुरू कर दी है. तुम्हारी क्या योजना है भविष्य की?’

‘डैडी का अपना कारोबार है, जो दूसरे शहरों तक फैला हुआ है. मुझे तो वही संभालना है. बस, इस वर्ष की अंतिम परीक्षा के बाद मेरा सारा ध्यान अपने व्यवसाय में ही होगा.’

‘यह भी ठीक है. तुम अपने व्यवसाय में व्यस्त रहोगे और मैं अपनी बैंक की नौकरी में व्यस्त रहूंगी. वरना दिन भर घर में अकेली कितना बोर हो जाऊंगी,’ भारती ने कहा तो हिमेश हैरानी से बोला, ‘तुम अकेली कहां होेगी, मेरी बहनें और मां भी तो रहेंगी तुम्हारे साथ.’

‘हिमेश, एक बात अभी से स्पष्ट कर देना चाहती हूं, मैं संयुक्त परिवार में तालमेल नहीं बैठा पाऊंगी. छोटीछोटी बातों पर रोकटोक वहां आम बात होती है, जो मुझ से सहन नहीं होगी. फिर मैं शादी के बाद भी नौकरी पर जाती रहूंगी. तुम्हारी बहनों की पटरी भी मेरे साथ जम पाएगी, इस में मुझे शक है, इसलिए तुम्हें अपने परिवार से अलग रहने की मानसिकता अभी से बना लेनी चाहिए.’

भारती की बातें सुन कर हिमेश स्तब्ध रह गया. फिर भी अपनी ओर से उसे समझाते हुए बोला, ‘भारती, हर मांबाप की चाह होती है कि उन की बहू संस्कारी हो और घर के सदस्यों के साथ हिलमिल कर रहे, बड़ों को मानसम्मान दे. मेरे मातापिता की भी तो यही ख्वाहिश होगी, आखिर मैं उन का इकलौता बेटा हूं. उन की मुझ से कुछ उम्मीदें भी होंगी. मैं उन्हें छोड़ अलग कैसे रह सकता हूं?’

‘तो फिर मेरे और तुम्हारे रास्ते आज से अलगअलग हैं. मैं तो अपनी इच्छा से जीवन जीने वाली लड़की हूं. कल को मेरे उठनेबैठने और नौकरी करने पर तुम्हारे मम्मीडैडी किसी तरह का एतराज करें, यह मैं सहन नहीं कर सकती. इस से अच्छा है हम इस रिश्ते को यहीं समाप्त कर दें.’

‘भारती, तुम्हारी बातों से स्वार्थ की बू आ रही है,’ हिमेश बोला, ‘जिंदगी में केवल अपनी ही सुखसुविधाओं का ध्यान नहीं रखा जाता बल्कि दूसरों के लिए भी सोचना पड़ता है. केवल अपने लिए सोचने वाले स्वार्थी लोग अंदर से कभी खुश नहीं रह पाते…’

हिमेश की बात को बीच में काटते हुए भारती बोली, ‘अपनी दार्शनिकता अपने पास ही रहने दो. मुझे इन में कोई दिलचस्पी नहीं है और अब इस रिश्ते का कोई अर्थ नहीं रह जाता,’ वह उठ कर चल दी. हिमेश उसे पुकारता रहा लेकिन वह नहीं रुकी.

बैंक की प्रतियोगी परीक्षा में सफल हो कर भारती अधिकारी के पद पर नियुक्त हो गई. अब उस में बड़प्पन व अहम की भावना और बढ़ने लगी. इस बीच मांबाप द्वारा पसंद किए 2-3 और रिश्तों को उस ने ठुकरा दिया. कहीं लड़का स्मार्ट नहीं, कहीं उस की आय कम लगी तो कहीं परिवार बड़ा. उस के भाई की उम्र भी शादी के लायक हो गई थी. बेटी की कहीं बात बनती न देख कर मांबाप ने भारती के भाई की शादी कर दी. 2-3 साल और सरक गए. दोचार रिश्ते भारती के लिए आए तो कहीं लड़का अच्छी नौकरी न करता, कहीं लड़के की उम्र उस से कम होती. एक परिवार ने तो दबे स्वर में कह भी दिया कि लड़की इतनी नकचढ़ी है, खुद को आधुनिक मानती है, कैसे विवाह के बंधन को निभा पाएगी.

अब भारती की छवि नातेरिश्तेदारों में एक बिगडै़ल, क्रोधी, नकचढ़ी, बदमिजाज लड़की के रूप में स्थापित हो गई थी. इस बीच दूसरे बेटे के लिए रिश्ते आने लगे तो मांबाप ने अपनी जिम्मेदारी मान कर उस की भी शादी कर दी. भारती अब 30 वर्ष की उम्र पार कर चुकी थी. अब चेहरे का वह लावण्य कम होने लगा था, जिस पर उसे नाज था.

एक दिन पिता सोए तो सवेरे उठे ही नहीं. उन्हें जबरदस्त दिल का दौरा पड़ा था. घर भर में कोहराम मच गया. मां तो बारबार बेहोश हो जाती थीं. जब होश आता तो विलाप करतीं, ‘हमें किस के भरोसे छोड़े जा रहे हो…भारती के हाथ तो पीले करवा जाते. अब कौन करेगा.’

पिता की मृत्यु के बाद घर में उदासी पसर गई. दोनों बेटेबहुओं का व्यवहार भी बदलने लगा. छोटीछोटी बातों पर उलझाव, तनाव, कहासुनी होने लगी. इन सब के केंद्र में अधिकतर भारती ही होती. सालभर में ही दोनों बेटे अपनेअपने परिवारों को ले कर अलग हो गए. इस से मां को गहरा सदमा पहुंचा. एक दिन अपने गिरते स्वास्थ्य की दुहाई देते हुए वह बोलीं, ‘भारती बेटा, अगर मेरे जीतेजी तेरी शादी हो जाए तो मैं चैन से मर सकूंगी. मुझे दिनरात तेरी ही चिंता रहती है. मेरे बाद तू एकदम अकेली हो जाएगी. मेरी मान, मेरे दूर के रिश्ते में एक पढ़ालिखा इंजीनियर लड़का है, घर खानदान सब अच्छा है, एक बार तू देख लेगी तो जरूर पसंद आ जाएगा.’

‘मम्मी, तुम मेरी शादी को ले कर इतनी परेशान क्यों होती हो? अगर शादी नहीं हुई तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा? क्या जीवन की सार्थकता केवल शादी में है? आज मैं प्रथम श्रेणी की अफसर हूं. अच्छा कमाती हूं, क्या यह उपलब्धियां कम हैं?’

‘बेटा, औरत आखिर औरत होती है. अभी इस उम्र में ऊर्जा, सामर्थ्य होने के कारण तू ऐसी बातें कर रही है लेकिन उम्र ठहरती तो नहीं. एक दिन ऐसी स्थिति भी आती है जब व्यक्ति थक जाता है. तब वह अपनों का प्यार, संबल और आराम चाहता है. उम्र के उस पड़ाव पर जीवनसाथी का संग ही सब से बड़ा संबल बन जाता है. तुम खुद इतनी पढ़ीलिखी हो कर भी इन बातों को क्यों नहीं समझतीं? एक औरत की पूर्णता उस के पत्नी, मां बनने पर ही होती है. बेटी, अभी भी वक्त है, मेरी बातों पर गौर कर के इस रिश्ते को स्वीकार कर लो.’

मां की इन बातों का इतना असर हुआ कि भारती राजी हो गई. मोहित को देखने के बाद उस ने अपनी स्वीकृति दे दी. मोहित उम्र में परिपक्व था. 35 पार कर चुका था. उस ने भी भारती को पसंद कर लिया. मां उन की शादी जल्द से जल्द करना चाहती थीं ताकि कहीं कोई अड़चन न आ जाए. उन्हें आशंका थी, अत: शादी की तारीख भी एक महीने बाद की तय कर दी गई.   -क्रमश:

दंश

सोना भाभी वैसे तो कविता की भाभी थीं. कविता, जो स्कूल में मेरी सहपाठिनी थी और हमारे घर भी एक ही गली में थे. कविता के साथ मेरा दिनरात का उठनाबैठना ही नहीं उस घर से मेरा पारिवारिक संबंध भी रहा था. शिवेन भैया दोनों परिवारों में हम सब भाईबहनों में बड़े थे. जब सोना भाभी ब्याह कर आईं तो मुझे लगा ही नहीं कि वह मेरी अपनी सगी भाभी नहीं थीं.

सोना भाभी का नाम उषा था. उन का पुकारने का नाम भी सोना नहीं था, न हमारे घर बहू का नाम बदलने की कोई प्रथा ही थी पर चूंकि भाभी का रंग सोने जैसा था अत: हम सभी भाईबहन यों ही उन्हें सोना भाभी बुलाने लगे थे. बस, वह हमारे लिए उषा नहीं सोना भाभी ही बनी रहीं. सुंदर नाकनक्श, बड़ीबड़ी भावपूर्ण आंखें, मधुर गायन और सब से बढ़ कर उन का अपनत्व से भरा व्यवहार था. उन के हाथ का बना भोजन स्वाद से भरा होता था और उसे खिलाने की जो चिंता उन के चेहरे पर झलकती थी उसे देख कर हम उन की ओर बेहद आकृष्ट होते थे.

शिवेन भैया अभी इंजीनियरिंग पढ़ रहे थे कि उन्हें मातापिता ही नहीं दादादादी के अनुरोध से विवाह बंधन में बंधना पड़ा. पढ़ाई पूरी कर के वह दिल्ली चले गए फिर वहीं रहे. हम लोग भी अपनेअपने विवाह के बाद अलगअलग शहरों में रहने लगे. कभी किसी खास आयोजन पर मिलते तो सोना भाभी का प्यार हमें स्नेह से सराबोर कर देता. उन का स्नेहिक आतिथ्य हमेें भावविभोर कर देता.

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आखिरी बार जब सोना भाभी से मिलना हुआ उस समय उन्होंने सलवार सूट पहना हुआ था. वह मेरे सामने आने में झिझकीं. मैं ड्राइंगरूम में बैठने वाली तो थी नहीं, भाग कर दूसरे कमरे में पहुंची तो वह साड़ी पहनने जा रही थीं.

मैं ने छूटते ही कहा, ‘‘यह क्या भाभी, आज तो आप बड़ी सुंदर लग रही हो, खासकर इस सलवार सूट में.’’

‘‘नहीं,’’ उन्होंने जोर देते हुए कहा.

मैं ने उन्हें शह दी, ‘‘भाभी आप की कमसिन छरहरी काया पर यह सलवार सूट तो खूब फब रहा है.’’

‘‘नहीं, माया, मुझे संकोच लगता है. बस, 2 मिनट में.’’

‘‘पर क्यों? आजकल तो हर किसी ने सलवार सूट अपने पहनावे में शामिल कर लिया है. यहां तक कि उन बूढ़ी औरतों ने भी जिन्होंने पहले कभी सलवार सूट पहनने के बारे में सोचा तक नहीं था… सुविधाजनक होता है न भाभी, फिर रखरखाव में भी साड़ी से आसान है.’’

‘‘यह बात नहीं है, माया. मुझे कमर में दर्द रहता है तो सब ने कहा कि सलवार सूट पहना करूं ताकि उस से कमर अच्छी तरह ढंकी रहेगी तो वह हिस्सा गरम रहेगा.’’

‘‘हां, भाभी, सो तो है,’’ मैं ने हामी भरी पर मन में सोचा कि सब की देखादेखी उन्हें भी शौक हुआ होगा तो कमर दर्द का एक बहाना गढ़ लिया है…

सोना भाभी ने इस हंसीमजाक के  बीच अपनी जादुई उंगलियों से खूब स्वादिष्ठ भोजन बनाया. इस बीच कई बार मोबाइल फोन की घंटी बजी और भाभी मोबाइल से बात करती रहीं. कोई खास बात न थी. हां, शिवेन भैया आ गए थे. उन्होंने हंसीहंसी में कहा कि तुम्हारी भाभी को उठने में देर लगती थी, फोन बजता रहता था और कई बार तो बजतेबजते कट भी जाता था, इसी से इन के लिए मोबाइल लेना पड़ा.

साल भर बाद ही सुना कि सोना भाभी नहीं रहीं. उन्हें कैंसर हो गया था. सोना भाभी के साथ जीवन की कई मधुर स्मृतियां जुड़ी हुई थीं इसलिए दुख भी बहुत हुआ. लगभग 5 सालों के बाद कविता से मिली तब भी हम दोनों की बातों में सोना भाभी ही केंद्रित थीं. बातों के बीच अचानक मुझे लगा कि कविता कुछ कहतेकहते चुप हो गई थी. मैं ने कविता से पूछ ही लिया, ‘‘कविता, मुझे ऐसा लगता है कि तुम कुछ कहतेकहते चुप हो जाती हो…क्या बात है?’’

‘‘हां, माया, मैं अपने मन की बात तुम्हें बताना चाहती हूं पर कुछ सोच कर झिझकती भी हूं. बात यह है…

‘‘एक दिन सोना भाभी से बातोंबातों में पता लगा कि उन्हें प्राय: रक्तस्राव होता रहता है. भाभी बताने लगीं कि पता नहीं मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है. 50 से 5 साल ऊपर की हो रही हूं्…

‘‘भाभी पहले से भी सुंदर, कोमल लग रही थीं. बालों में एक भी रजत तार नहीं था. वह भी बिना किसी डाई के. वह इतनी अच्छी लग रही थीं कि मेरे मुंह से निकल गया, ‘भाभी, आप चिरयौवना हैं न इसीलिए. देखिए, आप का रंग पहले के मुकाबले और भी निखरानिखरा लग रहा है और चेहरा पहले से भी कोमल, सुंदर. आप बेकार में चिंता क्यों कर रही हैं.

‘‘यही कथन, यही सोच मेरे मन में आज भी कांटा सा चुभता रहता है. क्यों नहीं उस समय उन पर जोर दिया था कि आप के साथ जो कुछ हो रहा है वह ठीक नहीं है. आप डाक्टर से परामर्श लें. क्यों झूठा परिहास कर बैठी थी?’’

मुझे भी उन के कमर दर्द की शिकायत याद आई. मैं ने भी तो उन की बातों को गंभीरता से नहीं लिया था. मन में सोच कर मैं खामोश हो गई.

भाभी और भैया दोनों ही अस्पताल जाने से बहुत डरते थे या यों कहें कि कतराते थे. शायद कुछ कटु अनुभव हों. वहां बातबात में लाइन लगा कर खड़े रहना, नर्सो की डांटडपट, बेरहमी से सूई घुसेड़ना, अटेंडेंट की तीखी उपहास करती सी नजर, डाक्टरों का शुष्क व्यवहार आदि से बचना चाहते थे.

भाभी को सब से बढ़ कर डर था कि कैंसर बता दिया तो उस के कष्टदायक उपचार की पीड़ा को झेलना पड़ेगा. उन्हें मीठी गोली में बहुत विश्वास था. वह होम्योपैथिक दवा ले रही थीं.

‘‘माया, बहुत सी महिलाएं अपने दर्द का बखान करने लगती हैं तो उन की बातों की लड़ी टूटने में ही नहीं आती,’’ कविता बोली, ‘‘उन के बयान के आगे तो अपने को हो रहा भीषण दर्द भी बौना लगने लगता है. सोना भाभी को भी मैं ने ऐसा ही समझ लिया. उन से हंसी में कही बात आज भी मेरे मन को सालती है कि कहीं उन्होंने मेरे मुंह से अपनी काया को स्वस्थ कहे जाने को सच ही तो नहीं मान लिया था और गर्भाशय के अपने कैंसर के निदान में देर कर दी हो.

‘‘माया, लगता यही है कि उन्होंने इसीलिए अपने पर ध्यान नहीं दिया और इसे ही सच मान लिया कि रक्तस्राव होते रहना कोई अनहोनी बात नहीं है. सुनते हैं कि हारमोन वगैरह के इंजेक्शन से यौवन लौटाया जा रहा है पर भाभी के साथ ऐसा क्यों हुआ? मैं यहीं पर अपने को अपराधी मानती हूं, यह मैं किसी से बता न सकी पर तुम से बता रही हूं. भाभी मेरी बातों पर आंख मूंद कर विश्वास करती थीं. 3-4 महीने भी नहीं बीते थे जब रोग पूरे शरीर में फैल गया. सोने सी काया स्याह होने लगी. अस्पताल के चक्कर लगने लगे, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी.’’

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मुझे भी याद आने लगा जब मैं अंतिम बार उन से मिली थी. मैं ने भी उन्हें कहां गंभीरता से लिया था.

‘‘माया, तुम कहानियां लिखती हो न,’’ कविता बोली, ‘‘मैं चाहती हूं कि सोना भाभी के कष्ट की, हमारे दुख की, मेरे अपने मन की पीड़ा तुम लिख दो ताकि जो भी महिला कहानी पढ़े, वह अपने पर ध्यान दे और ऐसा कुछ हो तो शीघ्र ही निदान करा ले.’’

कविता बिलख रही थी. मेरी आंखें भी बरस रही थीं. उसे सांत्वना देने वाले शब्द मेरे पास नहीं थे. वह मेरी भी तो बहुत अपनी थी. कविता का अनुरोध नहीं टाल सकी हूं सो उस की व्यथाकथा लिख रही हूं.

अपनी धरती अपना देश

‘‘कसम ऊपर वाले की, जो दोबारा कभी यूरोप गया. न तो वहां किसी में सिविक सेंस है और न ही नागरिक अधिकारों के बारे में कोई जागरुकता,’’ वह आज ही यूरोप की यात्रा से लौटे थे और पानी पीपी कर यूरोप को कोसे जा रहे थे.

‘‘लेकिन इन मामलों में तो अंगरेज अग्रदूत माने जाते हैं,’’ मैं ने टोका.

‘‘क्या खाक माने जाते हैं,’’ वह गरम तवे पर पानी की बूंद की तरह छनछना उठे, ‘‘यह बताइए कि सांस लेना और खानापीना मनुष्य का मौलिक अधिकार है या नहीं?’’

‘‘है,’’ मैं ने सिर हिलाया.

‘‘तो फिर उगलना और विसर्जन करना भी मौलिक अधिकार हुआ,’’ उन्होंने विजयी मुद्रा में घोषणा की फिर बोले, ‘‘एक अपना देश है जहां चाहो विसर्जन कर लो. आबादी हो या निर्जन, कहीं कोई प्रतिबंध नहीं, लेकिन वहां पेट भले फट जाए पर मकान व दुकान के सामने तो छोड़ो सड़क किनारे भी विसर्जन नहीं कर सकते.’’

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‘‘लेकिन वहां सरकार ने जगहजगह साफसुथरे टायलेट बनवा रखे हैं, उन में जाइए,’’ मैं ने समझाया.

‘‘बनवा तो रखे हैं लेकिन अगर हाजत आप को चांदनी चौक में लगी हो और फारिग होने कनाट प्लेस जाना पड़े तो क्या बीतेगी?’’ उन्होंने आंखें तरेरीं फिर तमकते हुए बोले, ‘‘आप को कुछ पता तो है नहीं. घर से बाहर निकलिए, दुनिया देखिए तब अच्छेबुरे में फर्क करने की तमीज पैदा हो पाएगी. तब तक के लिए फुजूल में टांग घुसेड़ने की आदत छोड़ दीजिए.’’

मुझे डपटने के बाद शायद उन्हें कुछ रहम आया. अत: थोड़ा मधुर कंठ से बोले, ‘‘यह बताइए कि आप को जुकाम हो और नाक गंदे नाले की तरह बह रही हो तो क्या करेंगे?’’

‘‘जुकाम की दवा खाएंगे,’’ मैं ने तड़ से बताया.

वह पल भर के लिए हड़बड़ाए. शायद मनमाफिक उत्तर नहीं मिला था. अत: अपने प्रश्न को थोड़ा और संशोधित करते हुए बोले, ‘‘डाक्टर की दुकान में घुसने से पहले क्या करेंगे आप?’’

‘‘जेब टटोल कर देखेंगे कि बटुआ है कि नहीं,’’ मैं ने फिर तड़ से उत्तर दिया.

इस बार उन के सब्र का पैमाना छलक गया. वह हत्थे से उखड़ते हुए बोले, ‘‘क्या बेहूदों की तरह नाक बहाते भीतर घुस जाएंगे और सुपड़सुपड़ कर सब के सामने नाक सुड़किएगा?’’

‘‘जी, नहीं, पहले नाक छिनक कर साफ करूंगा फिर भीतर जाऊंगा,’’ मैं ने कबूला. उन का प्रश्न वाजिब था. पर मेरी ही समझ में कुछ विलंब से आया.

‘‘तो गोया कि आप पहले घर जाएंगे और राजा बेटा की तरह नाक साफ करेंगे फिर वापस आ कर डाक्टर की दुकान में जाएंगे,’’ वह रहस्यमय ढंग से मुसकराए.

‘‘खामखां मैं घर क्यों जाऊंगा? वहीं नाक साफ करूंगा फिर डाक्टर से दवा ले कर घर लौटूंगा,’’ इस बार उखड़ने की बारी मेरी थी.

‘‘यही तो…यही तो…मैं सुनना चाहता था आप की जबान से,’’ वह यों उछले जैसे बहुत बड़ा मैदान मार लिया हो. फिर मेरे कंधों पर हाथ रख भावुक हो उठे, ‘‘वहां जुकाम हो तो सड़क पर नाक नहीं छिनक सकते. कहते हैं रूमाल में पोंछ कर जेब में रख लो. छि…छि…सोच कर भी घिन आती है. उसी रूमाल से मुंह पोंछो, उसी से नाक. दोनों हैं अगलबगल में पर कुदरत ने कुछ सोच कर ही दोनों के छेद अलगअलग बनाए हैं. वह फर्क तो बरकरार रखना चाहिए.’’

‘‘तो 2 रूमाल रख लीजिए,’’ मैं ने उन की भीषण समस्या का आसान सा हल सुझाया फिर समझाने लगा, ‘‘सड़क पर एक इनसान गंदगी करता है तो दूसरे को उस की गंदगी साफ करनी पड़ती है. कितनी गलत बात है यह.’’

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‘‘बात गलत नहीं, बल्कि सोच गलत है तुम्हारी,’’ वह शोले से भड़के. फिर मेरी अज्ञानता पर तरस खा शांत स्वर में बोले, ‘‘वैसे देखा जाए तो गलती तुम्हारी नहीं है. गलती तुम्हारी उस शिक्षा की है जो अंगरेजों की देन है.’’

इतना कह कर वह पल भर के लिए ठहरे फिर सांस भरते हुए बोले, ‘‘हम भारतवासी सदा से दयालु रहे हैं. जितना खाते हैं उतना गिराते भी हैं ताकि कीड़ेमकोड़ों और पशुपक्षियों का भी पेट भर सके. लेकिन ये जालिम अंगरेज तो इनसानों का भी भला नहीं सोचते.’’

‘‘मैं कुछ समझा नहीं.’’

उन्होंने मुझ पर तरस खाती दृष्टि डाली फिर समझाने की मुद्रा में बोले, ‘‘बरखुरदार, अपने देश में हम लोग परंपरापूर्वक मूंगफली और केला खा कर प्लेटफार्म पर फेंकते हैं, पूर्ण आस्था के साथ पान खा कर आफिस में थूकते हैं. श्रद्धापूर्वक बचाखुचा सामान पार्क में छोड़ देते हैं. इस से समाज का बहुत भला होता है.’’

‘‘समाज का भला?’’

‘‘हां, बहुत बड़ा भला,’’ वह अत्यंत शांत मुद्रा में मुसकराए फिर पूर्ण दार्शनिक भाव से बोले, ‘‘गंदगी मचाने से रोजगार का सृजन होता है क्योंकि अगर गंदगी न हो तो सफाई कर्मचारियों को काम नहीं मिलेगा. बेचारों के परिवार भूखे नहीं मर जाएंगे? लेकिन अंगरेजों को इस से क्या? वे तो हमेशा से मजदूरों के दुश्मन रहे हैं. इतिहास गवाह है कि जब भी किसी इनसान ने अधिकारों की मांग की है, अंगरेजों ने उसे बूटों तले कुचल डाला है. अब दूसरे मुल्कों में उन की हुकूमत तो रही नहीं, इसलिए अपने ही नागरिकों को गुलाम बना लिया. बेचारे अपने ही घर के सामने कूड़ा नहीं फेंक सकते, अपने ही महल्ले में सड़क घेर कर भजनकीर्तन नहीं कर सकते, सुविधानुसार गाड़ी पार्क नहीं कर सकते, अपने ही आफिस में पीक उगलने का आनंद नहीं ले सकते. जरूरत पड़ने पर इच्छानुसार विसर्जन नहीं कर सकते. काहे का लोकतंत्र जहां हर पसंदीदा चीज पर प्रतिबंध हो? सच्चा लोकतंत्र तो अपने यहां है. अपना देश, अपनी धरती. जहां चाहो थूको, जहां चाहो फेंको, जहां चाहो विसर्जन करो, कोई रोकटोक नहीं. इसीलिए तो कहते हैं, मेरा देश महान…’’

वह बोले जा रहे थे और मैं टकटकी बांधे देखे जा रहा था. लग रहा था कि शायद वह सही हैं.

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चौथा चक्कर

रामजी एक सरकारी दफ्तर में बड़े साहब थे. सुबह टहलने जाते तो पूरी तरह तैयार हो कर जाते थे. पांव में चमकते स्पोर्ट्स शूज, सफेद पैंट, सफेद कमीज, हलकी सर्दी में जैकेट, सिर पर कैप, कभीकभी हाथ में छड़ी. पार्क में टहलने का शौक था, अत: घर से खुद कार चला कर पार्क में आते थे. वहां पर न जाने क्यों 3 चक्कर के बाद वह बैठ जाते. शायद ही कभी उन्होंने चौथा चक्कर लगाया हो.

उस दिन पार्क में बहस छिड़ गई थी.

कयास लगाने वालों में एक ने चुटकी लेते हुए कहा, ‘‘अरे, बामन ने 3 पग में पृथ्वी नाप दी थी तो रामजी साहब 3 चक्कर में पार्क को नाप देते हैं.’’

कुछ दिन पहले पार्क के दक्षिण में हरी घास के मैदान पर सत्संगियों ने कब्जा कर लिया. वे अपने किसी गुरु को ले आए थे. छोटा वाला माइक और स्पीकर भी लगा लिया था. गुरुजी के लिए एक फोल्ंिडग कुरसी कोई शिष्य, जिस का मकान पार्क के पास था, ले आता था.

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इस बीच घूमने वाले, अपने घूमने का समय कम कर वहां बैठ जाते थे और गुरुजी मोक्ष की चर्चा में सब को खींचने का प्रयास करते थे. वह बता रहे थे कि थोड़े से अभ्यास से ही तीसरी आंख खुल जाती है और वही सारी शक्तियों का घर है. हमारे गुरु पवित्र बाबा के आश्रम पर आप आइए, मात्र 7 दिन का सत्संग है.

पता नहीं क्यों, गुरुजी को रामजी साहब की सुंदर शख्सियत भा गई. उन के भीतर का विवेकानंद जग गया. अगर यह सुदर्शन मेरे सत्संग में आ जाए, तो फिर शायद पूरे पार्क के लोग आ जाएं. उन्होंने सावधानी से रामजी साहब की परिक्रमा के समय…जीवन की क्षणभंगुरता, नश्वर शरीर को ले कर, कबीर के 4 दोहे सुना दिए, पर रामजी का ध्यान उधर था ही नहीं.

‘‘खाली घूमने से कुछ नहीं होगा. प्राण शक्ति का जागरण ही योग है,’’ गुरु समझा रहे थे.

रामजी साहब ने अनसुना करते हुए भी सुन लिया…

उन के दूसरे चक्कर के समय, एक शिष्य उन के नजदीक आया और बोला, ‘‘गुरुजी, आप से कुछ बात करना चाहते हैं.’’

‘‘क्यों? मुझे तो फुरसत नहीं है.’’

‘‘फिर भी, आप मिल लें. वह सामने बैठे हैं.’’

‘‘पर वहां तो एक ही कुरसी है.’’

‘‘आप उधर बैंच पर आ जाएं, मैं उधर चलता हूं.’’

शिष्य को यह सब बुरा लगा. फिर भी वह अपने गुरुजी के पास यह संदेश ले गया.

गुरुजी मुसकराते हुए उठे, ‘‘नारायण, नारायण…’’

रामजी साहब ने गुरुजी को नमस्कार किया तो उन का हाथ, आशीर्वाद की मुद्रा में उठा और बोले, ‘‘वत्स, आप का स्वास्थ्य कैसा है?’’

‘‘बहुत बढि़या.’’

‘‘आप रोजाना इस पार्क में टहलने आते हैं?’’

‘‘हां.’’

‘‘पर मैं देखता हूं कि आप 3 ही चक्कर लगाते हैं, क्यों?’’

रामजी साहब हंसे, जैसे लाफिंग क्लब के सदस्य हंसते हैं. गुरुजी और शिष्य उन्हें इस तरह बेबाक हंसता देख अवाक् रह गए.

‘‘तो क्या आप मेरे चक्कर गिना करते हैं?’’ रामजी साहब ने पूछा.

‘‘नहीं, नहीं, ये भक्तगण इस बात की चर्चा करते हैं.’’

‘‘हां, पर आप ने तो सीधा ही चौथा चक्कर लगा लिया, क्या?’’

गुरुजी समझ नहीं पाए. वह अवाक् से रामजी साहब को देखते रह गए.

अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए रामजी साहब बोले, ‘‘महाराज, आप को इस कम उम्र में संन्यास की क्या आवश्यकता पड़ गई?’’

‘‘मेरी बचपन से रुचि थी, संसार के प्रति आकर्षण नहीं था.’’

‘‘तो अब भी बचपन की रुचि उतनी ही है या बढ़ गई?’’ रामजी ने पूछ लिया. सवाल तीखा और तीर की तरह चुभने वाला था.

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‘‘महाराज एक जातिगत आरक्षण होता है,’’ गुरुजी के चेहरे के भावों को पढ़ते हुए रामजी आगे बोले, ‘‘उस में कम योग्य भी अच्छा पद पा सकता है, क्योंकि पद आरक्षित है और उस पर बैठने वाले भी कम ही हैं. एक यह ‘धार्मिक’ आरक्षण है, यहां कोई बैठ जाए, उस का छोटामोटा पद सुरक्षित हो जाता है. आप शनि का मंदिर खोल लें. वहां लोग अपनेआप खिंचे चले आएंगे. टीवी पर देखें, सुकुमार संतसाध्वियों की फौज चली आई. फिर आप को इस आरक्षण की क्यों जरूरत हो गई? पार्क में मार्केटिंग की अब क्या जरूरत है?’’

‘‘नहीं, यह बात नहीं है, महाराज तो इंजीनियरिंग गे्रजुएट हैं, वैराग्य ही आप को इधर ले आया,’’ एक भावुक शिष्य बोला.

‘‘महाराज, वही तो मैं कह रहा हूं कि बिना 3 चक्कर चले आप चौथे पर कैसे पहुंच गए?’’

‘‘नहीं, नहीं, मैं ने विद्याध्ययन किया है, स्वाध्याय किया है, गुरु आश्रम में दीक्षा ली है,’’ महाराज बोले.

‘‘पहला चक्कर तो पूरा ही नहीं हुआ और पहले से चौथे पर छलांग और महाराज, जो आप कह रहे थे कि चौथे चक्कर की जरूरत है, तो क्यों? अभी तो नौकरी की लाइन में लगना था?

‘‘बुद्ध के जमाने में दुख था, होगा. हमारे बादशाहों के महल में एक भी वातानुकूलित कमरा नहीं था. आज तो आम आदमी के पास भी अच्छा जीवन जीने का आधार है. घर में गैस है, फ्रिज है, गाड़ी है, घूमने के लिए स्कूटर है. उस की सुरक्षा है. उस के बच्चे स्कूल जाते हैं. घर है. महाराज, आज जीवन जीने लायक हो गया है. बताएं, सब छोड़ कर किस मुक्ति के लिए अब जंगल जाया जाए?’’

गुरुजी चुप रह गए थे.

‘‘सात प्राणायाम, आंख मींचने की कला, गीता पर व्याख्यान, इस से ही काम चल जाए फिर कामधाम की क्या जरूरत है?’’

रामजी साहब की बात सुन कर शिष्यगण सोच रहे थे, उन्हें क्यों पकड़ लाए.

‘‘फिर भी मानव जीवन का एक उद्देश्य है कि वह इस जीवन में शांति, प्रेम, आनंद को पाए. भारतीय संस्कृति जीवन जीने की कला सौंपती है, उस का भी तो प्रचार करना है,’’ महाराज बोले.

‘‘महाराज, उस के लिए घर छोड़ कर, आश्रम की क्या जरूरत है. आश्रम भी ईंटपत्थर का, यहां घर भी ईंटपत्थर का, भोजन की तो वहां भी जरूरत होती है, रहा सवाल ग्रंथ और पाठ का, तो वह घर पर भी कर सकते थे. आंख मींचना ही ध्यान है, तो आप कहीं भी ध्यान लगा सकते हैं, यह बात दूसरी है जब बेपढ़ेलिखे इस उद्योग में अच्छा कमा रहे हैं, तब पढ़ेलिखे तो बिजनेस चला ही लेंगे? आप ने मुझ से पूछा है, इसीलिए मैं ने भी आप से पूछ लिया, वरना इस चौथे चक्कर के पीछे मैं कभी नहीं पड़ता.’’

‘‘महाराज के गुरुजी के आश्रम तो दुनिया भर में हैं. आज शांति की जरूरत सब को है, जिसे आज पूरा विश्व चाहता है,’’ एक शिष्य बोला.

‘‘हां,’’ महाराज चहके, ‘‘यहां के लोगों में अज्ञान है, यहां विदेशों से लोग आते हैं और ज्ञान लेने में रुचि ले रहे हैं.’’

‘‘आप विदेश हो आए क्या?’’

‘‘अभी नहीं, महाराज का कार्यक्रम बन गया है. अगले माह जा रहे हैं,’’ दूसरा शिष्य चहका.

‘‘वहां क्यों? काम तो यहां अपने देश में बहुत है. गरीबी है, अज्ञान है, अशिक्षा है. महाराज, मुफ्त में विदेश यात्राएं, वहां की सुविधाएं, डालर की भेंट तो यहां नहीं है. पर महाराज यहां भी बाजार मंदा नहीं है.’’

शिष्यगण नाराज हो चले थे. सुबहसुबह जो पार्क में टहलने आए थे वे भी यह संवाद सुन कर रुक गए थे.

‘‘लगता है आप बहुत अशांत हैं,’’ महाराज बोले, ‘‘कसूर आप का नहीं है, कुछ तत्त्व हैं, वे हमेशा धर्म के खिलाफ ही जनभावना बनाते रहते हैं. पर उस से क्या फर्क पड़ा? दोचार पत्रपत्रिकाएं क्या प्रभाव डालेंगी? आज करोड़ों मनुष्य सुबह उठते ही धर्म से जुड़ना चाहते हैं. सारे चैनल हमारी बात कह रहे हैं. कहां क्या गलत है?’’

महाराज ने गर्व के साथ श्रोताओं की ओर देखा. शिष्यों ने तालियां बजा दी थीं.

‘‘आप सही कह रहे हैं, आजादी के समय न इतने बाबा थे, न इतना पाप बढ़ा था. जब आप कर्मफल को मानते हैं तब इन कर्मकांडी व्यापारों की क्या जरूरत है. क्या 10 मिनट को आंख मींचने से, मंदिर की घंटियां बजाने से, यज्ञ करने से, तीर्थयात्रा से कर्मफल कट सकता है? महाराज, शांति तो भांग पी कर भी आ जाती है. मुख्य बात मन का शांत होना होता है और वह होता है, अपनी जिम्मेदारियां पूरी करने से, पलायन से नहीं.’’

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युवा संन्यासी का चेहरा उतर गया था.

उस ने उठने का संकेत किया.

‘‘महाराज, पहला चक्कर धर्म का था, वह तो पैदा होते ही मिल गया. शिक्षा ग्रहण की, बड़े हुए तो देश का कानून मिल गया, समाज का विधान मिल गया. धन का दूसरा चक्कर लगाया, 30 साल नौकरी की. तीसरा चक्कर गृहस्थी का अभी चल रहा है, चलेगा. इन तीनों चक्करों में महाराज खूब सुख मिला है, मिल रहा है, शांति है.

‘‘महाराज, यह चौथा चक्कर तो नीरस होता है. जब इतना सुख मिल रहा है तो मोक्ष पाने को चौथा चक्कर क्यों लगाएं.

‘‘मृत्यु के बाद आनंद कैसा, आज तक तो कोई बताने आया नहीं. सुख तो देह भोगती है, शांति मन भोगता है, पर महाराज, जब तन और मन दोनों ही नहीं होंगे, तब कौन भोगेगा और कौन बताएगा? जैसे साधारण आदमी की मौत होती है वैसे ही महात्मा रोगशोक से लड़ते हुए मरते हैं.

‘‘महाराज मान लें, इसी जीवन में मोक्ष मिल जाएगा तो महाराज उस की शर्त तो ‘कष्टवत’ हो जाना है, और बाद मरने के मोक्ष मिला तो. महाराज, कल आप कह रहे थे, बूंद समुद्र में मिल जाएगी तो समुद्र का पानी खारा होता है, पीने लायक ही नहीं, उस नीरस जीवन से तो यह सरस जीवन श्रेष्ठ है. हां, धंधे के लिहाज से ठीक है, आप इंजीनियर हैं, कंप्यूटर जानते हैं, इंटरनेट जानते हैं, अच्छी अंगरेजी आती है. कमाएं, पर मुझे बख्शें. हां, यह बात दूसरी है, आज जैसे बालाएं विज्ञापन में बिक रही हैं, बाबा भी बिक रहे हैं, उन का काम धन कमाना है. कोई सुने या न सुने अपनी बात कहने का हक तो है न.

‘‘आप लोग विचारें, मैं तो अपने इन 3 चक्करों में ही संतुष्ट हूं. क्यों अनावश्यक उस चौथे चक्कर के प्रपंच में पड़ कर अपने 3 चक्करों के सुख को खोऊं. सुख तो आप लोग खो रहे हो,’’ रामजी साहब ने भक्तों की ओर देखते हुए कहा.

भक्त लोग अवाक् थे, सोच रहे थे, क्या रामजी ने कुछ गलत कहा है, सोच तो वह भी यही रहे थे, पर कह नहीं पा रहे थे, क्यों?

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धुंध

घर के अंदर पैर रखते ही अर्चना समझ गई थी कि आज फिर कुछ हंगामा हुआ है. घर में कुछ न कुछ होता ही रहता था, इसलिए वह विचलित नहीं हुई. शांत भाव से उस ने दुपट्टे से मुंह पोंछा और कमरे में आई.

नित्य की भांति मां आंखें बंद कर के लेटी थीं. 15 वर्षीय आशा मुरझाए मुख को ले कर उस के सिरहाने खड़ी थी. छत पर पंखा घूम रहा था, फिर भी बरसात का मौसम होने के कारण उमसभरी गरमी थी. उस पर कमरे की एकमात्र खिड़की बंद होने से अर्चना को घुटन होने लगी. उस ने आशा से पूछा, ‘‘यह खिड़की बंद क्यों है? खोल दे.’’

आशा ने खिड़की खोल दी.

अर्चना मां के पलंग पर बैठ गई, ‘‘कैसी हो, मां?’’

मां की आंखों में आंसू डबडबा आए. वह भरे गले से बोलीं, ‘‘मौत क्या मेरे घर का रास्ता नहीं पहचानती?’’

‘‘मां, हमेशा ऐसी बातें क्यों करती रहती हो,’’ अर्चना ने मां के माथे पर हाथ रख दिया.

‘‘तुम्हारे लिए बोझ ही तो हूं,’’ मां के आंसू गालों पर ढुलक आए.

‘‘मां, ऐसा क्यों सोचती हो. तुम तो हम दोनों के लिए सुरक्षा हो.’’

‘‘पर बेटी, अब और नहीं सहन होता.’’

‘‘क्या आज भी कुछ हुआ है?’’

‘‘वही पुरानी बात. महीने का आखिर है…जब तक तनख्वाह न मिले, कुछ न कुछ तो होता ही रहता है.’’

‘‘आज क्या हुआ?’’ अर्चना ने भयमिश्रित उत्सुकता से पूछा.

‘‘आराम कर तू, थक कर आई है.’’

अर्चना का मन करता था कि यहां से भाग जाए, पर साहस नहीं होता था. उस के वेतन में परिवार का भरणपोषण संभव नहीं था. ऊपर से मां की दवा इत्यादि में काफी खर्चा हो जाता था.

आशा के हाथ से चाय का प्याला ले कर अर्चना ने पूछा, ‘‘मां की दवा ले आई है न?’’

आशा ने इनकार में सिर हिलाया.

अर्चना के माथे पर बल पड़ गए, ‘‘क्यों?’’

आशा ने अपना माथा दिखाया, जिस पर गूमड़ निकल आया था. फिर धीरे से बोली, ‘‘पिताजी ने पैसे छीन लिए.’’

‘‘तो आज यह बात हुई है?’’

‘‘अब तो सहन नहीं होता. इस सत्यानासी शराब ने मेरे हंसतेखेलते परिवार को आग की भट्ठी में झोंक दिया है.’’

‘‘तुम्हारे दवा के पैसे शराब पीने के लिए छीन ले गए.’’

‘‘आशा ने पैसे नहीं दिए तो वह चीखचीख कर गंदी गालियां देने लगे. फिर बेचारी का सिर दीवार में दे मारा.’’

क्रोध से अर्चना की आंखें जलने लगीं, ‘‘हालात सीमा से बाहर होते जा रहे हैं. अब तो कुछ करना ही पड़ेगा.’’

‘‘कुछ नहीं हो सकता, बेटी,’’ मां ने भरे गले से कहा, ‘‘थकी होगी, चाय पी ले.’’

अर्चना ने प्याला उठाया.

मां कुछ क्षण उस की ओर देखने के बाद बोलीं, ‘‘मैं एक बात सोच रही थी… अगर तू माने तो…’’

‘‘कैसी बात, मां?’’

‘‘देख, मैं तो ठीक होने वाली नहीं हूं. आज नहीं तो कल दम तोड़ना ही है. तू आशा को ले कर कामकाजी महिलावास में चली जा.’’

‘‘और तुम? मां, तुम तो पागल हो गई हो. तुम्हें इस अवस्था में यहां छोड़ कर हम कामकाजी महिलावास में चली जाएं. ऐसा सोचना भी नहीं.’’

रात को दोनों बहनें मां के कमरे में ही सोती थीं. कोने वाला कमरा पिता का था. पिता आधी रात को लौटते. कभी खाते, कभी नहीं खाते.

9 बजे सारा काम निबटा कर दोनों बहनें लेट गईं.

‘‘मां, आज बुखार नहीं आया. लगता है, दवा ने काम किया है.’’

‘‘अब और जीने की इच्छा नहीं है, बेटी. तुम दोनों के लिए मैं कुछ भी नहीं कर पाई.’’

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो, मां. तुम्हारे प्यार से कितनी शांति मिलती है हम दोनों को.’’

‘‘बेटी, विवाह करने से पहले बस, यही देखना कि लड़का शराब न पीता हो.’’

‘‘मां, पिताजी भी तो पहले नहीं पीते थे.’’

‘‘वे दिन याद करती हूं तो आंसू नहीं रोक पाती,’’ मां ने गहरी सांस ली, ‘‘कितनी शांति थी तब घर में. आशा तो तेरे 8 वर्ष बाद हुई है. उस को होश आतेआते तो सुख के दिन खो ही गए. पर तुझे तो सब याद होगा?’’

मां के साथसाथ अर्चना भी अतीत में डूब गई. हां, उसे तो सब याद है. 12 वर्ष की आयु तक घर में कितनी संपन्नता थी. सुखी, स्वस्थ मां का चेहरा हर समय ममता से सराबोर रहता था. पिताजी समय पर दफ्तर से लौटते हुए हर रोज फल, मिठाई वगैरह जरूर लाते थे. रात खाने की मेज पर उन के कहकहे गूंजते रहते थे…

अर्चना को याद है, उस दिन पिता अपने कई सहकर्मियों से घिरे घर लौटे थे.

‘भाभी, मुंह मीठा कराइए, नरेशजी अफसर बन गए हैं,’ एकसाथ कई स्वर गूंजे थे.

मानो सारा संसार नाच उठा था. मां का मुख गर्व और खुशी की लालिमा से दमकने लगा था.

मुंह मीठा क्या, मां ने सब को भरपेट नाश्ता कराया था. महल्लेभर में मिठाई बंटवाई और खास लोगों की दावत की. रात को होटल में पिताजी ने अपने सहकर्मियों को खाना खिलाया था. उस दिन ही पहली बार शराब उन के होंठों से लगी थी.

अर्चना ने गहरी सांस ली. कितनी अजीब बात है कि मानवता और नैतिकता को निगल जाने वाली यह सत्यानासी शराब अब समाज के हर वर्ग में एक रिवाज सा बन गई है. फलतेफूलते परिवार देखतेदेखते ही कंगाल हो जाते हैं.

एक दिन महल्ले में प्रवेश करते ही रामप्रसाद ने अर्चना से कहा, ‘‘बेटी, तुम से कुछ कहना है.’’

अर्चना रुक गई, ‘‘कहिए, ताऊजी.’’

‘‘दफ्तर से थकीहारी लौट रही हो, घर जा कर थोड़ा सुस्ता लो. मैं आता हूं.’’

अर्चना के दिलोदिमाग में आशंका के बादल मंडराने लगे. रामप्रसाद बुजुर्ग व्यक्ति थे. हर कोई उन का सम्मान करता था.

चिंता में डूबी वह घर आई. आशा पालक काट रही थी. मां चुपचाप लेटी थीं.

‘‘चाय के साथ परांठे खाओगी, दीदी?’’

‘‘नहीं, बस चाय,’’ अर्चना मां के पास आई, ‘‘कैसी हो, मां?’’

‘‘आज तू इतनी उदास क्यों लग रही है?’’ मां ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘‘गली के मोड़ पर ताऊजी मिले थे, कह रहे थे, कुछ बात करने घर आ रहे हैं.’’

मां एकाएक भय से कांप उठीं, ‘‘क्या कहना है?’’

‘‘कुछ समझ में नहीं आ रहा.’’

आशा चाय ले आई. तीनों ने चुपचाप चाय पी ली. फिर अर्चना लेट गई. झपकी आ गई.

आशा ने उसे जगाया, ‘‘दीदी, ताऊजी आए हैं.’’

मां कठिनाई से दीवार का सहारा लिए फर्श पर बैठी थीं. ताऊजी चारपाई पर बैठे हुए थे.

अर्चना को देखते ही बोले, ‘‘आओ बेटी, बैठो.’’

अर्चना उन के पास ही बैठ गई और बोली, ‘‘ताऊजी, क्या पिताजी के बारे में कुछ कहने आए हैं?’’

‘‘उस के बारे में क्या कहूं, बेटी. नरेश कभी हमारे महल्ले का हीरा था. आज वह क्या से क्या हो गया है. महल्ले वाले उस की चीखपुकार और गालियों से परेशान हो गए हैं. किसी दिन मारमार कर उस की हड्डीपसली तोड़ देंगे. किसी तरह मैं ने लोगों को रोक रखा है. बात यही नहीं है, बेटी, इस से भी गंभीर है. नरेश ने घर किशोरी महाजन के पास गिरवी रख दिया है,’’ रामप्रसाद उदास स्वर में बोले.

‘‘क्या?’’ अर्चना एकाएक चीख उठी.

मां सूखे पत्ते के समान कांपने लगीं.

‘‘ताऊजी, फिर तो हम कहीं के न रह जाएंगे,’’ अर्चना ने उन की ओर देखा.

‘‘मैं भी बहुत चिंता में हूं. वैसे किशोरी महाजन आदमी बुरा नहीं है. आज मेरे घर आ कर उस ने सारी बात बताई है. कह रहा था कि वह सूद छोड़ देगा. मूल के 25 हजार उसे मिल जाएं तो मकान के कागज वह तुम्हें सौंप देगा.’’

अर्चना की आंखें हैरत से फैल गईं, ‘‘25 हजार?’’

‘‘बहू को तो तुम्हारे दादा ने दिल खोल कर जेवर चढ़ाया था. संकट के समय उन को बचा कर क्या करोगी?’’ ताऊजी ने धीरे से कहा. दुख में भी मनुष्य को कभीकभी हंसी आ जाती है. अर्चना भी हंस पड़ी, ‘‘आप क्या समझते हैं, जेवर अभी तक बचे हुए हैं. शराब की भेंट सब से पहले जेवर ही चढ़े थे, ताऊजी.’’

‘‘तब कुछ…और?’’

‘‘हमारे घर की सही दशा आप को नहीं मालूम. सबकुछ शराब की अग्नि में भस्म हो चुका है. घर में कुछ भी नहीं बचा है,’’ अर्चना दुखी स्वर में बोली, ‘‘लेकिन ताऊजी, एकसाथ इतनी रकम की जरूरत पिताजी को क्यों आ पड़ी?’’

‘‘शराब के साथसाथ नरेश जुआ भी खेलता है. और मैं क्या बताऊं. देखो, कोशिश करता हूं…शायद कुछ…’’ रामप्रसाद उठ खड़े हुए.

‘‘मुझे मौत क्यों नहीं आती?’’ मां हिचकियां लेले कर रोने लगीं.

‘‘उस से क्या समस्या सुलझ जाएगी?’’

‘‘अब क्या होगा? कहां जाएंगे हम?’’

‘‘कुछ न कुछ तो होगा ही, तुम चिंता न करो,’’ अर्चना ने मां को सांत्वना देते हुए कहा.

कार्यालय में अचानक सरला दीदी अर्चना के पास आ खड़ी हुईं.

‘‘क्या सोच रही हो?’’ वह अर्चना से बहुत स्नेह करती थीं. अकेली थीं और कामकाजी महिलावास में ही रहती थीं.

‘‘मैं बहुत परेशान हूं, दीदी. कैंटीन में चलोगी?’’

‘‘चलो.’’

‘‘आप के कामकाजी महिलावास में जगह मिल जाएगी?’’ अर्चना ने चाय का घूंट भरते हुए पूछा.

‘‘तुम रहोगी?’’

‘‘आशा भी रहेगी मेरे साथ.’’

‘‘फिर तुम्हारी मां का क्या होगा?’’

‘‘मां नानी के पास आश्रम में जा कर रहना चाहती हैं.’’

‘‘फिर…घर?’’

‘‘घर अब है कहां? पिताजी ने 25 हजार में गिरवी रख दिया है. जल्दी ही छोड़ना पड़ेगा.’’

‘‘शराब की बुराई को सब देख रहे हैं. फिर भी लोगों की इस के प्रति आसक्ति बढ़ती जा रही है,’’ सरला दीदी की आंखें भर आई थीं, ‘‘अर्चना, तुम को आज तक नहीं बताया, लेकिन आज बता रही हूं. मेरा भी एक घर था. एक फूल सी बच्ची थी…’’

‘‘फिर?’’

‘‘इसी शराब की लत लग गई थी मेरे पति को. नशे में धुत एक दिन उस ने बच्ची को पटक कर मार डाला. शराब ने उसे पशु से भी बदतर बना दिया था.’’

‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘मैं सीधे पुलिस चौकी गई. पति को गिरफ्तार करवाया, सजा दिलवाई और नौकरी करने यहां चली आई.’’

‘‘हमारा भी घर टूट गया है, दीदी. अब कभी नहीं जुड़ेगा,’’ अर्चना की रुलाई फूट पड़ी.

‘‘समस्या का सामना तो करना ही पड़ेगा. अब यह बताओ कि प्रशांत से और कितने दिन प्रतीक्षा करवाओगी?’’

अर्चना ने सिर झुका लिया, ‘‘अब आप ही सोचिए, इस दशा में मैं…जब तक आशा की कहीं व्यवस्था न कर लूं…’’

‘‘तुम्हारा मतलब है, कोई अच्छी नौकरी या विवाह?’’

‘‘हां, मैं यही सोच रही हूं.’’

ऐसा होगा, यह अर्चना ने नहीं सोचा था. शीघ्र ही बहुत बड़ा परिवर्तन हो गया था उस के घर में. मां की मृत्यु हो गई थी. वह आशा को ले कर सरला दीदी के कामकाजी महिलावास में चली गई थी. अब समस्या यह थी कि वह क्या करे? आशा का भार उस पर था. उधर प्रशांत को विवाह की जल्दी थी.

एक दिन सरला दीदी समझाने लगीं, ‘‘तुम विवाह कर लो, अर्चना. देखो, कहीं ऐसा न हो कि प्रशांत तुम्हें गलत समझ बैठे.’’

‘‘पर दीदी, आप ही बताइए कि मैं कैसे…’’

‘‘देखो, प्रशांत बड़े उदार विचारों वाला है. तुम खुल कर उस से अपनी समस्या पर बात करो. अगर आशा को वह बोझ समझे तो फिर मैं तो हूं ही. तुम अपना घर बसा लो, आशा की जिम्मेदारी मैं ले लूंगी. मेरा अपना घर उजड़ गया, अब किसी का घर बसते देखती हूं तो बड़ा अच्छा लगता है,’’ सरला दीदी ने ठंडी सांस भरी.

‘‘कितनी देर से खड़ा हूं,’’ हंसते हुए प्रशांत ने कहा.

‘‘आशा को कामकाजी महिलावास पहुंचा कर आई हूं,’’ अर्चना ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘चलो, चाय पीते हैं.’’

‘‘आशा तो सरला दीदी की देखरेख में ठीक से है. अब तुम मेरे बारे में भी कुछ सोचो.’’

अर्चना झिझकते हुए बोली, ‘‘प्रशांत, मैं कह रही थी कि…तुम थोड़ी प्रतीक्षा और…’’

लेकिन प्रशांत ने बीच में ही टोक दिया, ‘‘नहीं भई, अब और प्रतीक्षा मैं नहीं कर सकता. आओ, पार्क में बैठें.’’

‘‘बात यह है कि मेरे वेतन का आधा हिस्सा तो आशा को चला जाएगा.’’

‘‘यह तुम क्या कह रही हो, क्या मुझे इतना लोभी समझ रखा है,’’ प्रशांत ने रोष भरे स्वर में कहा.

‘‘नहींनहीं, मैं ऐसा नहीं सोचती. पर विवाह से पहले सबकुछ स्पष्ट कर लेना उचित है, जिस से आगे चल कर ये छोटीछोटी बातें दांपत्य जीवन में कटुता न घोल दें,’’ अर्चना ने प्रशांत की आंखों में झांका.

‘‘तुम्हारे अंदर छिपा यह बचपना मुझे बहुत अच्छा लगता है. देखो, आशा के लिए चिंता न करो, वह मेरी भी बहन है. चाहो तो उसे अपने साथ भी रख सकती हो.’’

सुनते ही अर्चना का मन हलका हो गया. वह कृतज्ञताभरी नजरों से प्रशांत को निहारने लगी.

प्रशांत के मातापिता दूर रहते थे, इसलिए कचहरी में विवाह होना तय हुआ. प्रशांत का विचार था कि दोनों बाद में मातापिता से आशीर्वाद ले आएंगे.

रविवार को खरीदारी करने के बाद दोनों एक होटल में जा बैठे.

‘‘तुम बैठो, मैं आर्डर दे कर अभी आया.’’

अर्चना यथास्थान बैठी होटल में आनेजाने वालों को निहारे जा रही थी.

‘‘मैं अपने मनपसंद खाने का आर्डर दे आया हूं. एकदम शाही खाना.’’

‘‘अब थोड़ा हाथ रोक कर खर्च करना सीखो,’’ अर्चना ने मुसकराते हुए डांटा.

‘‘अच्छाअच्छा, बड़ी बी.’’

बैरे ने ट्रे रखी तो देखते ही अर्चना एकाएक प्रस्तर प्रतिमा बन गई. उस की सांस जैसे गले में अटक गई थी, ‘‘तुम… शराब पीते हो?’’

प्रशांत खुल कर हंसा, ‘‘रोज नहीं भई, कभीकभी. आज बहुत थक गया हूं, इसलिए…’’

अर्चना झटके से उठ खड़ी हुई.

‘‘अर्चना, तुम्हें क्या हो गया है? बैठो तो सही,’’ प्रशांत ने उसे कंधे से पकड़ कर झिंझोड़ा.

परंतु अर्चना बैठती कैसे. एक भयानक काली परछाईं उस की ओर अपने पंजे बढ़ाए चली आ रही थी. उस की आंखों के समक्ष सबकुछ धुंधला सा होने लगा था. कुछ स्मृति चित्र तेजी से उस की नजरों के सामने से गुजर रहे थे- ‘मां पिट रही है. दोनों बहनें पिट रही हैं. घर के बरतन टूट रहे हैं. घर भर में शराब की उलटी की दुर्गंध फैली हुई है. गालियां और चीखपुकार सुन कर पड़ोसी झांक कर तमाशा देख रहे हैं. भय, आतंक और भूख से दोनों बहनें थरथर कांप रही हैं.’

अर्चना अपने जीवन में वह नाटक फिर नहीं देखना चाहती थी, कभी नहीं.

जिंदगी के शेष उजाले को आंचल में समेट कर अर्चना ने दौड़ना आरंभ किया. मेज पर रखा सामान बिखर गया. होटल के लोग अवाक् से उसे देखने लगे. परंतु वह उस भयानक छाया से बहुत दूर भाग जाना चाहती थी, जो उस के पीछेपीछे चीखते हुए दौड़ी आ रही थी.

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