भाग-1
कहानी- दिनेश पालीवाल
इरा को स्कूल से लौटते हुए देर हो गई थी. बस स्टाप पर इस वक्त तक भीड़ बहुत बढ़ गई थी. पता नहीं बस में चढ़ भी पाएगी या नहीं… कंधे पर भारी बैग लटकाए, पसीना पोंछती स्कूल के फाटक से निकल वह तेजी से बस स्टाप की ओर चल दी. यह बस छूट गई तो पूरे 1 घंटे की देर हो जाएगी… और 1 घंटे की देर का मतलब, पूरे घर की डांटफटकार सुननी पड़ेगी.
नौकरी के वक्त इरा ने जो प्रमाणपत्र लगाए थे उन में अनेक नाटकों में भाग लेने के प्रमाणपत्र भी थे और देश के नामीगिरामी नाटक निर्देशकों के प्रसिद्ध नाटकों में काम करने का अनुभव भी… प्रधानाचार्या ने उसी समय कह दिया था, ‘हम आप को रखने जा रहे हैं पर आप को यहां अंगरेजी पढ़ाने के अलावा बच्चों को नाटक भी कराने पड़ेंगे और इस के लिए अकसर स्कूल समय के बाद आप को घंटे दो घंटे रुकना पड़ेगा. अगर मंजूर हो तो हम अभी नियुक्तिपत्र दिए देते हैं.’
‘नाटक करना और नाटक कराना मेरी रुचि का काम है, मैडम…मैं तो खुद आप से कह कर यह काम करने की अनुमति लेती,’ बहुत प्रसन्न हुई थी इरा.
इंटरव्यू दिलवाने पति पवन संग आए थे, ‘जवाब ठीक से देना. तुम तो जानती हो, हमारे लिए तुम्हारी यह नौकरी कितनी जरूरी है.’
इरा को वह दिन अनायास याद आ गया था जब पवन अपने मातापिता के साथ उसे देखने आए थे. मां ने साफ कह दिया था, ‘लड़की सुंदर है, यह तो ठीक है पर अंगरेजी में प्रथम श्रेणी में एम.ए. है, हम इसलिए आप की बेटी को पसंद कर सकते हैं…लड़की को कहीं नौकरी करनी पड़ेगी. इस में तो आप लोगों को एतराज न होगा?’
कहा तो मां ने था पर बात शायद पवन की थी, जो वे लोग घर से ही तय कर के आए होंगे. शादीब्याह अब एक सौदे के ही तहत तो किए जाते हैं. इरा के मांबाप ने हर लड़की के मांबाप की तरह खीसें निपोर दी थीं, ‘शादी से पहले लड़की पर मांबाप का हक होता है, उसे उन की इच्छानुसार चलना पड़ता है. पर शादी के बाद तो सासससुर ही उस के मातापिता होते हैं. उन्हीं की इच्छा सर्वोपरि होती है. आप लोग और पवन बाबू जो चाहेंगे, इरा वह हंसीखुशी करेगी. उसे करना चाहिए. हर बहू का यही धर्म होता है. इरा जरूर अपना धर्म निबाहेगी.’
बहू का धर्म, बहू के कर्तव्य, बहू के काम, बहू की मर्यादाएं, बहू के चारों ओर ख्ंिची हुई लक्ष्मण रेखाएं, बहू की अग्निपरीक्षाएं, बहू का सतीत्व, पवित्रता, चरित्र, घरपरिवार चलाने की जिम्मेदारियां… न जाने कितनी अपेक्षाएं बहुओं से की जाती हैं.
इंटरव्यू के बाद इरा को कुछ समय एक ओर कमरे में बैठने को कह दिया गया था. इस बीच किसी क्लर्क को बुलाया गया था. स्कूल के पैड पर जल्दी एक पत्र टाइप कर के मंगवाया गया था. प्रधानाचार्या ने वहीं हस्ताक्षर कर दिए थे और उसे बुला कर नियुक्तिपत्र थमा दिया था, ‘बधाई, आप चाहें तो कल से ही आ जाएं काम पर…’
धन्यवाद दे कर वह खुशी मन से बाहर आई तो पवन बड़ी बेचैनी से उस की प्रतीक्षा कर रहे थे. पूछा, ‘कैसा रहा इंटरव्यू?’
जवाब में इरा ने नियुक्तिपत्र पवन को थमा दिया. एक सांस में पढ़ गए उसे पवन और एकदम खिल गए, ‘अरे, यानी 10 हजार की यह नौकरी तुम्हें मिल गई?’
‘इस पत्र से तो यही जाहिर हो रहा है,’ इरा इठला कर बोली थी, ‘पर जानते हो, अंगरेजी विषय की प्रथम श्रेणी उतनी काम नहीं आई जितने काम मेरे नाटक आए… नाटकों का अनुभव ज्यादा महत्त्व का रहा.’
सुन कर चेहरा मुरझा सा गया पवन का.
इरा को याद हो आया…शादी के बाद जब वह ससुराल आई थी और उस ने अपनी शैक्षणिक योग्यता के सारे प्रथम श्रेणी के प्रमाणपत्र पवन को दिखाए तो साथ में नाटकों के लिए मिले श्रेष्ठता के पुरस्कार और प्रमाणपत्र भी दिखाए थे. उन्हें बड़ी अनिच्छा से पवन ने एक ओर सरका दिया था, ‘अब यह नाटकसाटक सब भूल जाओ. ंिंजदगी नाटक नहीं है, इरा, एक ठोस हकीकत है. शादी के बाद जिंदगी की कठोर सचाइयों को जितनी जल्दी तुम समझ लोगी उतना ही अच्छा रहेगा तुम्हारे लिए… पापा रिटायर होने वाले हैं. मेरी अकेली तनख्वाह घर का यह भारी खर्च नहीं चला सकती. बहनों की शादी, भाइयों की पढ़ाईलिखाई… बहुत सी जिम्मेदारियां हैं हमारे सामने… तुम्हें जल्दी से जल्दी अपनी अंगरेजी की एम.ए. की डिगरी के सहारे कोई अच्छी नौकरी पकड़नी होगी…अगर तुम हिंदीसिंदी में एम.ए. होतीं तो मैं हरगिज तुम से शादी नहीं करता, भले ही तुम मुझे पसंद आ गईं होतीं तो भी… असल में मुझे ऐसे ही कैरियर वाली बीवी चाहिए थी जो मुझ पर बोझ न बने, बल्कि मेरे बोझ को बंटाए, कम करे…’
बस स्टाप की भीड़ बढ़ती जा रही थी. नाटक का पूर्वाभ्यास कराने में उस की चार्टर्र्ड बस निकल गई थी. अब तो सामान्य बस में ही घर जाना पड़ेगा.
घर के नाम पर ही उस के पूरे शरीर में एक फुरफुरी सी दौड़ गई. पवन अब तक लौट आए होंगे. चाय के लिए उस की प्रतीक्षा कर रहे होंगे. देवर हाकी के मैदान से लस्तपस्त लौटा होगा, उसे दूध गरम कर के देना भी इरा की ही जिम्मेदारी है. बड़ी ननद ब्यूटी पार्लर का काम सीख रही है, वहां से लौटी होगी. वह भी इरा का इंतजार कर रही होगी. बेटे का आज गणित का पेपर था. वह भी इंतजार कर रहा होगा.
सहसा इरा को याद आया कि आज तो बेटे सुदेश का जन्मदिन है. उसे हर हाल में जल्दी घर पर पहुंचना चाहिए था पर प्रधानाचार्या ने एक व्यंग्य नाटक के सिलसिले में उसे रोक लिया था. इरा ने बहुत सोचसमझ कर हरिशंकर परसाई की एक व्यंग्य रचना ‘मातादीन इंस्पेक्टर चांद पर’ कहानी का नाट्यरूपांतर किया और बच्चों को तैयार कराना शुरू कर दिया. चांद के लोग सीधेसादे हैं. वहां भ्रष्टाचार नहीं है. पृथ्वी के बारे में चांद के निवासियों को पता चलता है कि वहां पुलिस सब से आवश्यक है. चांद के निवासी पृथ्वी से एक इंस्पेक्टर मातादीन को चांद पर लिवा ले जाते हैं. वे चाहते हैं कि चांद पर भी पृथ्वी की तरह एक पुलिस विभाग बनाया जाए जिस से भविष्य में अगर कोई अपराध हो तो उसे काबू किया जा सके.
इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर भ्रष्टाचार की ऐसी गंगा बहाते हैं कि दर्शक लोटपोट हो जाते हैं. बहुएं दहेज के कारण जलाई जाने लगीं. जेबकतरी, चोरी, हत्या, डकैती, राहजनी, लूटमार, आतंकवाद, अपहरण, वेश्याबाजार आदि इंस्पेक्टर मातादीन की कृपा से चांद पर होने लगे और चारों ओर त्राहित्राहि मच गई.
प्रधानाचार्या को जब यह कहानी इरा ने सुनाई तो वह बहुत खुश हुईं, ‘अच्छी कहानी है, इसे जरूर करो.’
इंस्पेक्टर मातादीन के लिए उन्होंने कक्षा 10 के एक विद्यार्थी मुकुल का नाम सुझा दिया.
‘मुकुल क्यों, मैम…?’ इरा ने यों ही पूछ लिया. इरा के दिमाग में कक्षा 11 का एक लड़का था.
‘उस के पिता यहां के बड़े उद्योगपति हैं और उन से हमें स्कूल के लिए बड़ा अनुदान चाहिए. उन के लड़के के सहारे हम उन्हें खुश कर सकेंगे और अनुदान में खासी रकम पा लेंगे.’
मुकुल में प्रतिभा भी थी. इंस्पेक्टर मातादीन का अभिनय वह बहुत कुशलता से करने लगा था. अपना पार्र्ट उस ने 2 दिन में रट कर तैयार कर लिया था. उसी के पूर्वाभ्यास में इरा को आज देर हो गई थी.
मन ही मन झल्लाती, कुढ़ती, परेशान, थकीऊबी इरा, बस की प्रतीक्षा करती बस स्टाप पर खड़ी थी.
‘‘गुड ईवनिंग, मैम…’’ सहसा उस के निकट एक महंगी कार आ कर रुकी और उस में से इंस्पेक्टर मातादीन का किरदार निभाने वाला लड़का मुकुल बाहर निकला, ‘‘गाड़ी में पापा हैं, मैम… प्लीज, हमारे साथ चलें आप… पीछे, पापा बता रहे हैं कहीं एक्सीडेंट हो गया है, वहां लोगों ने जाम लगा दिया है. गाडि़यां नहीं आ रहीं. आप को बस नहीं मिलेगी. हम पहुंचा देंगे आप को.’’
एक पल को हिचकती हुई सोचती रही इरा, जाए या न जाए? तभी गाड़ी से मुकुल के पिता बाहर निकल आए. उन्हें बाहर देखते ही पहचान गई इरा, ‘‘अरे आप…मुकुल, आप का बेटा है…?’’ एकदम चहक सी उठी इरा. अरसे बाद अपने सामने शरदजी को देख कर उसे जैसे आंखों पर विश्वास ही न हुआ हो.
‘‘बेटे ने जब आप का नाम बताया और कहा कि हरिशंकर परसाई की व्यंग्य कथा ‘इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’ को नाटक के रूप में प्रस्तुत कर रही हैं तो विश्वास हो गया कि हो न हो, यह इरा मैम आप ही होंगी जिन्हें हम ने कभी अपने नाटक में नायिका के रूप में प्रस्तुत किया था… अपने-
आप को रोक नहीं पाया. बेटे को लेने के बहाने मैं स्वयं आया, शरदजी बहुत खुश थे. आगे बोले, ‘‘प्लीज, इराजी… आप संकोच छोड़ें और हमारे साथ चलें… हम आप को घर छोड़ देंगे…’’
इरा दुविधा में फंसी पिछली सीट पर बैठी रही. बेटे के लिए कहीं से कोई उपहार खरीदे या नहीं? गाड़ी रुकवाना उचित लगेगा या नहीं? कहीं से केक लिया जा सकता है?… उस ने अपने पर्स में रखे नोट गिने… कुछ कम लगे. सकुचा कर बैठी रही.
मुकुल अपने पापा की बगल में आगे की सीट पर बैठा था. सहसा इरा ने उस से कहा, ‘‘मुकुल, जरा पापा से कहो, कहीं गाड़ी रोकें… मेरे बेटे का जन्मदिन है आज… उस के लिए कहीं से कोई चीज ले लूं और मिल जाए तो केक भी…’’
शरदजी ने गाड़ी रोकते हुए कहा, ‘‘अरे, आप भी कैसी मां हैं, इराजी? इतनी देर से आप साथ चल रही हैं और यह जरूरी बात बताई ही नहीं.’’
उन्होंने गाड़ी एक आलीशान शापिंग कांप्लेक्स की पार्किंग में पार्क की और इरा को ले कर चले तो सहम सी गई इरा. बोली, ‘‘यहां तो चीजें बहुत महंगी होंगी.’’
‘‘उस सब की आप फिक्र मत करिए. आप तो सिर्फ यह बताइए कि आप के बेटे को पसंद क्या आएगा?’’ हंसते हुए साथ चल रहे थे शरदजी.
कंप्यूटर गेम का सेट दिलवाने पर उतारू हो गए वे, ‘‘अरे भाई यह सब हमारा क्षेत्र है… हम यही सब डील करते हैं… आप का बेटा आज से कंप्यूटर गेम्स का आनंद लेगा…’’
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इरा की बेचैनी बढ़ गई, उस के पर्स में तो इतने रुपए भी नहीं थे.