निडर हो कर अपने सपने पूरे करें : अदिति गुप्ता

युवा होती हर लड़की को मासिकधर्म के समय एक ऐसी विश्वसनीय जानकारी की जरूरत होती है, जिस पर वह पूर्ण रूप से विश्वास कर सके. ऐसी जानकारी उस के मातापिता ही उसे दे सकते हैं और इस में भी मां की भूमिका ज्यादा महत्त्वपूर्ण होती है. ऐसी स्थिति में युवा होती लड़कियों की इस समस्या को दूर करने का बीड़ा उठाया है, अदिति गुप्ता ने. उन्होंने मैंस्ट्रुपीडिया वैबसाइट लौंच की जिस में मासिकधर्म से जुड़ी जानकारी, स्वास्थ्य और स्वच्छता के बारे में समाज को शिक्षित करने का प्रयास सराहनीय है. वे चाहती थीं कि इस समाज से दकियानूसी बातें व सोच मिटा सकें. झारखंड के एक छोटे से शहर गढ़वा की रहने वाली अदिति गुप्ता की शुरू की पढ़ाई गढ़वा व रांची से हुई. फिर उन्होंने इलैक्ट्रौनिक और इंस्ट्रुमैंटल में इंजीनियरिंग की पढ़ाई आगरा से की. फिर पोस्ट ग्रैजुएशन न्यू मीडिया डिजाइन में द नैशनल इंस्टिट्यूट औफ डिजाइन’ अहमदाबाद से किया. मैंस्ट्रुपीडिया बनाने के पीछे उन का मुख्य लक्ष्य यही था कि सभी लड़कियों और उन के मातापिता को मासिकधर्म के बारे में पूरी जानकारी मिल सके और सभी स्त्रियां मासिकधर्म का समय संतुष्टि से काट सकें. उन का कहना है कि इस वैबसाइट के जरीए हम समाज में जागरूकता फैला रहे हैं ताकि लोग इसे पढ़ कर हम से बातचीत कर सकें और अन्य लोगों को भी इस के बारे में बता सकें.

अदिति कहती हैं, ‘‘अब हर महीने मेरी वैबसाइट को कम से कम 2,00,000 लोग देखते हैं. इस वैबसाइट में 3 प्रमुख सुविधाएं हैं. क्विक गाइड, सवालजवाब और ब्लौग. जहां लोग मासिकधर्म से जुड़ी बातें जान सकते हैं, सवालजवाब कर सकते हैं तथा व्यावहारिक लेख लिख सकते हैं. हम ने 90 पन्नों की एक कौमिक्स भी निकाली है जो हिंदी और अंगरेजी दोनों भाषाओं में उपलब्ध है.’’

प्रेरणा

इस बारे में अदिति बताती हैं, ‘‘मैं ने खुद अपनी जिंदगी में मासिकधर्म से संबंधित समस्याओं का अनुभव किया और उस का समाधान भी किया. पर इस के बारे में जानकारी मिलने के बजाय मुझे इस से संबंधित सभी काल्पनिक कथाओं और प्रतिबंधित सीमाओं के बारे में जानने को मिला. यह सब जान कर मेरे आत्मविश्वास व आत्मसम्मान पर इतना गहरा असर पड़ा कि अपनेआप को इस से उबारने के लिए मुझे कई वर्ष लग गए. तब मुझे एहसास हुआ कि दुनिया में करोड़ों ऐसी महिलाएं होंगी, जिन्हें चुनौती का सामना करना पड़ता होगा. फिर मैं ने इस विषय पर शोध सहयोगी के रूप में फोर्ड फाउंडेशन के साथ काम किया. ‘‘मैं गांधीनगर, अहमदाबाद और मेहसाना, रांची जैसे कुछ शहरों में जब शोध कर रही थी, तो मैं ने कुछ स्कूल की छात्राओं, गैर सरकारी संगठनों और कुछ मातापिता से बात की तो पता चला कि सामाजिक बंदिशों के कारण उन का आत्मविश्वास और विश्वास बहुत कम है और जब लड़की पहली बार माहवारी का अनुभव कर रही हो तभी जानकारी देने का अच्छा समय होता है.’’

सफलता की राह में रोड़ा धर्म

औरतों की आजादी की राह में रुकावट का काम करने वाले धर्म के बारे में अदिति कहती हैं, ‘‘धर्म से जुड़ी बहुत सी मान्यताएं ऐसी हैं जिन का कोई वजूद ही नहीं है पर फिर भी वे हमें जकड़े हुए हैं. जैसे कि मासिकधर्म के समय मां ही अपनी बेटी पर रोकटोक करने लगती है कि यह न छुओ वह न छुओ. यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है, लेकिन जैसे ही किसी एक पीढ़ी की स्त्री ऐसी मान्यताओं को तोड़ देगी, माहवारी के बारे में सारी गलतफहमियां दूर हो जाएंगी.’’

महिलाओं को संदेश

महिलाओं को संदेश देते हुए अदिति का यही कहना है कि अगर आप को कोई व्यक्ति कुछ करने से रोक रहा है तो हो सकता है कि वह आप खुद हों यानी आप की हिचक ही आप को कुछ करने से रोक रही है. ऐसे में खुद पर विश्वास रखें और निडर हो कर अपने सपने पूरे करें.

भूकंप की असल मार औरतों पर

अभी ये आंकड़े नहीं आए हैं कि नेपाल में आए भूकंप से कितनी औरतें विधवा हुईं और कितनी मांएं अपने बच्चों को खो चुकी हैं. पर सच यही है कि नेपाल के भूकंप की असल मार औरतों और लड़कियों पर पड़ेगी. सैकड़ों औरतों को अपना पति खोना पड़ा होगा, सैकड़ों अपाहिज हो गई होंगी, हजारों ने अपने बच्चों को खो दिया होगा और कई हजार, हो सकता है कई लाख औरतों का घरबार सब टूट गया हो, बिखर गया हो. भूकंप इस कदर भयावह रहा कि कच्चे ही नहीं पक्के मकानों को तोड़फोड़ डाला और उस के साथ लाखों परिवारों के अरमान, जीवन भर की कमाई, सुरक्षा, सुख, 2 वक्त का खाना सब समाप्त हो गया. यह ऐसा दुख है जिस की वह कल्पना नहीं कर सकता है, जिसे यह भोगना न पड़ रहा हो. यदाकदा एकाध के साथ दुर्घटना हो तो उसे घर वालों के यहां शरण मिल जाती है पर यहां तो हर दूसरे घर का यही हाल हुआ है. कसबों के कसबे बिखर गए़  बड़े शहरों में भी हर मकान असुरक्षित हो गया. किसी को नहीं मालूम कब मजबूत दीवारों की बांहें नसीब होंगी. अगर घर के सब जने बचे हैं तो उन के साथ मिल कर एक नई जिंदगी शुरू करनी होगी वरना जो गया उन का अभाव वर्षों तक रहेगा.

आमतौर पर भूकंप युद्ध के बाद सब से ज्यादा दुखदायी कहर होता है. मानव ने आज ऐसे हथियार बना लिए हैं जिन से लाखों को एकसाथ मारा जा सकता है. पिछले विश्व युद्ध में लगभग 6 करोड़ लोग मारे गए और उस के बाद दुनिया भर में लाखों और युद्धों में मारे गए. पर युद्ध में मौत भूकंप की तरह अप्रत्याशित और अचानक नहीं होती. उस के लिए लोग पहले से ही तैयार हो जाते हैं. इस भूकंप में जो लाखों घर ढहे और हजारों मरे उस ने कई लाख परिवारों की शांति व सुख को बरसों के लिए छीन लिया है और अब मुख्यतया यह औरत का काम होगा कि वह गृहस्थी किसी तरह से चलाए. पुरुष तो किसी ऊपर वाले या सरकार को दोष दे कर बैठ जाएगा पर सब का खाना बने, दोपहर को पेट में कुछ जाए, यह औरत को ही देखना होगा. इन पीडि़त घरों की हजारों औरतें रातोंरात कई साल ज्यादा बूढ़ी हो जाएंगी. वे ऐसी चिंता में घुलेंगी जिस का उन के  पास सरल उपाय न होगा. घर में सुखशांति से रह रहीं ये औरतें कुछ घंटों में बेघर ही नहीं बेसहारा भी हो गई हैं और इन का हाथ थामने वाले भी ज्यादा नहीं. भूकंप की त्रासदी किसी भी त्रासदी से कई गुना ज्यादा होती है क्योंकि यह बहुत बड़े इलाके में असर डालता है. काठमांडू से आने वाली खबरों में कहा जा रहा है कि लोग सुरक्षित स्थानों पर जाने की कोशिश कर रहे हैं पर सुरक्षित स्थान है कहां? भूकंप का क्षेत्र तो इतना बड़ा निकला है कि उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग आदि को लपेटे में ले लिया. एक औरत के अपने लोग 100-200 किलोमीटर की दूरी पर होते हैं और वे सब के सब उसी कहर के शिकार हैं.

इस हालत में दिक्कत यह है कि समाजसेवी भी भूकंप के इलाकों में जाने में घबराएंगे क्योंकि कब कहां क्या हो जाए यह फिलहाल मालूम नहीं. हिमालय की यह पट्टी भूकंप क्षेत्र है और चाहे सैकड़ों सालों से यहां बस्तियां बसी रही हों, भूकंप के लिए कोई नयापुराना नहीं है. इन महिलाओं के प्रति संवेदना जताना और उन के लिए जो बन पड़े करना हरेक का कर्तव्य है. इन पीडि़त औरतों के घर फिर से चलें इस बारे में जो कर सकें, करें.

आंखें कहती हैं बहुत कुछ

आंखें हमारे शरीर का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग तो हैं ही, चेहरे के सौंदर्य में भी इन की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है. आंखों के साथ ढेर सारी बातें जुड़ी हुई हैं जिन पर एकसाथ गौर कम ही लोग करते हैं. ये हमारे दिल और दिमाग का आईना होती हैं. आंखों के जरिए ईर्ष्या, द्वेष, कुंठा, क्रोध, खुशी, कृतज्ञता, उदारता, क्षमा, छिछलापन, गंभीरता, बहादुरी व कायरता जैसे मनोभाव सहज ही सामने आ जाते हैं. यह अलग बात है कि आंखों को भलीभांति पढ़ लेने वाली आंखें बहुत कम होती हैं. कहा जाता है कि आंखों की अपनी एक भाषा होती है और इस भाषा का जानकार ही उसे पढ़ सकता है. आंखें चूंकि शरीर का प्रमुख अंग हैं, इसलिए बौडी लैंग्वेज में भी आंखों की अपनी अलग भूमिका है. हम कब क्या सोच रहे हैं, कई लोग आंखों के जरिए इस का भी अंदाजा लगा लेते हैं.

किसी युवक या युवती के सौंदर्य का बखान हो रहा हो, तब भी आंखों के जिक्र के बगैर वह बखान अधूरा ही माना जाता है. हिंदी फिल्मों के लोकप्रिय गीतों की बात की जाए तो बहुत से सुरीले गीत ऐसे हैं जिन में आंखों के सौंदर्य का वर्णन है. लोकगीतों में भी आंखें अपनी खास जगह बनाए हुए हैं. आंखों के सौंदर्य और इन की महिमा को ले कर कवियों, लेखकों व साहित्यकारों ने जितना कुछ लिखा है, उतना किसी अन्य अंग के बारे में नहीं लिखा गया है. यह बात अजीब लगती है किंतु हकीकत तो यही है कि आंखें मानव मन और मस्तिष्क का आईना होेती हैं. आंखों के जरिए किसी के दिल में भी उतरा जा सकता है और आंखें जब कभी किसी रुचिकर व्यक्तित्व या वस्तु को देख लेती हैं, तो उस की अमिट तसवीर दिलोदिमाग में बन जाती है.

विशेषज्ञ आंखों के जरिए किसी भी आदमी के मनमस्तिष्क को पढ़ लेते हैं. वे व्यक्ति क्या सोच रहा है, क्या महसूस कर रहा है यानी प्रसन्न है या तनाव में, कुटिल है या सहृदयी, जटिल है या सरल, विद्वान है या पाखंडी आदि अनेक बातों का सही अंदाजा लगा लेते हैं. बहुधा पुलिस भी वारदातों की छानबीन करते समय शिद्दत से आंखें ही पढ़ने की कोशिश करती है और मामले की तह तक जाने में सफल भी हो जाती है. कई बार तो पुलिस वाले संदिग्ध की आंखों में देखते हैं और सामने वाले की प्रतिक्रिया देख कर तय कर लेते हैं कि दाल में कुछ काला है. इस तरह आंखों की भाषा ही पुलिस की प्रथम मददगार होती है. यह अलग बात है कि पुलिस को सुबूत जुटाने होते हैं, जो आंखों के जरिए संभव नहीं होते. पर कोई शातिर अपराधी अपनी आंखों के भाव हर पल बदलते रह कर पुलिस की आंखों में धूल झोंक सकता है. कहा जाता है कि डकैत यह विधा अनुभव से या अपने सरदार से सीख लेते हैं, तो आतंकवादियों को भी इसी तरह का प्रशिक्षण दिया जाता होगा. किंतु कुल मिला कर आंखें मानव का चित्रण किसी आईने की तरह कर सकती हैं. जरूरत होती है तो सिर्फ आंखों को पढ़ने वाले की.

बनावट में भिन्नता

जिस तरह सभी लोगों की उंगलियों के पोर भिन्न होते हैं, उसी तरह प्रत्येक की आंख की बनावट में तो भिन्नता होती ही है, आंख की पुतलियों में भी भिन्नता होती है. किन्हीं 2 लोगों की आंखों की पुतलियां एक जैसी कभी नहीं हो सकतीं, ऐसा विशेषज्ञ कहते हैं. लेकिन पुतलियों की भिन्नता सहज रूप से नहीं पहचानी जा सकती. एनाटौमी विशेषज्ञ या कुछ खास किस्म के लोग यानी कवि, कथाकार, शिल्पी, साइकोलौजिस्ट और सुरक्षा अथवा गुप्तचर एजेंसियों से जुड़े लोग ही आंखों और आंख की पुतलियों की भिन्नता की पहचान कर सकते हैं, क्योंकि वे प्रत्येक आंख और पुतलियों तक बारीकी से देखते हैं. भारत आने वाले सैलानियों को देखने से साफ पता चलता है कि ब्रिटिश, आस्ट्रेलियाई, चीनी, नेपाली, तिब्बती, भूटानी या किसी भी देश के नागरिक की आंखों की बनावट में भिन्नता साफ परिलक्षित होती है.

कहा जाता है कि प्यार किसी को भी हो सकता है. इस में दिल की भूमिका अहम होती है, लेकिन आंखें न केवल इस काम को आसान बना देती हैं, बल्कि मानव के मौन रहने पर भी सभी कुछ अभिव्यक्त कर देती हैं. बस जरूरत होती है आंखों को पढ़ने वाले की. हिंदी, संस्कृत, उर्दू व अन्य भाषाओं में लिखे साहित्य में भी आंखों पर बहुत कुछ लिखा गया है. आंखों को कई प्रकार की उपमाएं तक दी गई हैं और आंखों के सौंदर्य के आधार पर नाम भी रखे जाते हैं, जैसे, नयन, नयनतारा, मृगनयनी, मीना आदि. सुरक्षा या गुप्तचर एजेंसियों में काम करने वाले पुलिसकर्मी आंखों के जरिए ही किसी अपराधी के मनमस्तिष्क को भलीभांति पढ़ लेते हैं फिर उन की गतिविधियों पर गुपचुप तरीके से नजर रखते हैं. हालांकि अपराधी उन से अधिक चालाक और शातिर होते हैं, किंतु प्रशिक्षित नहीं होते जबकि पुलिसकर्मी प्रशिक्षित होते हैं. अपराधी लोग भय, हड़बड़ी अथवा भागमभाग में कहीं न कहीं कोई चूक कर बैठते हैं और इसी चूक से जांच का एक सिरा पुलिस के हाथ लग जाता है. पुलिस को तो अदालत में सुबूत पेश करना होता है, इसलिए बहुधा सुबूत नहीं मिलने तक वह किसी पर आसानी से हाथ नहीं डाल सकती. लेकिन पुलिस की सफलता के पीछे मुखबिर की सूचना और पकड़े जाने के बाद आरोपी की आंखें अधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं.

आंखों की अपनी भाषा होती है, इसलिए कहा जाता है कि आंखें बोलती हैं. अब कैसे और क्या बोलती हैं, यह तो किसी अनुभवी अथवा आंखों की भाषा को समझने वाला ही जान सकता है, लेकिन आंखें भावाभिव्यक्ति तो करती ही हैं. आंखों की बनावट भी उतना ही कुछ कह जाती है. इस में चेहरे और आंखों का तालमेल भी काम करता है. आइए जानें कि इस संदर्भ में विशेषज्ञ क्या कहते हैं.  किसी आदमी की कदकाठी चाहे कैसी हो, लेकिन उन्नत बड़ी आंखें और आंखों के बीच में लगभग 1 सैंटीमीटर की दूरी यह इंगित करती है कि ऐसा व्यक्ति (पुरुष या महिला) बहादुर, सच्चा, स्पष्टवादी और खुली किताब जैसे व्यक्तित्व वाला है. ऐसे लोग दयालु, परोपकारी और  शौकीन मिजाज भी होते हैं, तो कुछ ऐयाश भी.

छोटी पुतलियों वाली आंखें

आंखों की पुतलियां यदि मुरगे के समान छोटी हों और आंखों के बीच कम दूरी हो तो वह यह बताती है कि ऐसा आदमी धूर्त, मक्कार, स्वार्थी, धोखेबाज और छोटी सोच रखने वाला होने के साथ ही कंजूस भी होता है. ऐसे लोग अपने दोष कभी नहीं देख पाते और दूसरों की गलतियों पर नजर रखते हैं. परनिंदा और अपनी तारीफ करना इन का शगल होता है. अपनी छोटी सोच होने के कारण ऐसे लोग अपने आसपास के लोगों को अपने से छोटा ही आंकते हैं और उन के गुणों की ओर ऐसे लोग तनिक भी नहीं देख पाते. इन के लिए परनिंदा का सीधा अर्थ दूसरों को नीचा दिखाने की कोशिश होता है. इस तरह की आंखों वाले लोग बहुधा निंदनीय हरकतें करने में मशगूल देखे जाते हैं. चूकिं ऐसे लोग बहादुर नहीं होते, इसीलिए इन का व्यक्तित्व कुछ ऐसा होता है कि कभी शेर की तरह दहाड़ते हैं, कभी सियार की तरह दुम हिलाते हैं. ऐसे लोग कब कैसा आचरण कर बैठेंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता. इसी कारण समझदार लोग ऐसे लोगों से मित्रता करने से बचते हैं.

कुछ लोगों की आंखें मध्यम आकार की होती हैं किंतु उन की आंखों की पुतलियों में 2-3 या अधिक मटमैले और हलके पीले दाग दिखते हैं. आंखों का रंग भी सफेद के बजाय स्लेटी रंग से मिलताजुलता होता है. माना जाता है कि ऐसे लोग अविश्वसनीय और धोखेबाज होते हैं, साथ ही इन में सोचनेसमझने की शक्ति अपेक्षाकृत कम होती है. घटिया सोच के ऐसे लोग स्वयं को बलशाली और विद्वान मान बैठते हैं, परिणाम स्वरूप दूसरे सक्षम लोग भी इन्हें मूर्ख और असक्षम दिखाई देते हैं. ऐसे लोग भ्रम में ही जीते हैं. संसार की वास्तविकता के करीब तो क्या, शान और अज्ञान के बीच अदृश्य खाई के बीच में ही विचरण करते रहते हैं. इन में एक और खास बात यह  भी होती है कि ये लोग बड़े लोगों की चमचागीरी करते हुए अथवा तलवे चाटते हुए कई बार बड़े पद पर भी जा पहुंचते हैं. ये दूसरे को नीचा दिखाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं. ऐसे लोगों का निजी जीवन दुखों और कष्टों भरा होता है. यह अलग बात है कि ये इस का प्रदर्शन नहीं करते और अपनेआप को ईश्वर का भक्त और पर सुखी जीव साबित करने की भरसक कोशिश करते हैं.

ऐसे लोगों को अपनी पत्नी, बच्चों, भाईबहन व मातापिता से कोई सरोकार नहीं होता. वास्तव में ये किसी के नहीं होते अर्थात हद दरजे के स्वार्थी और मक्कार होते हैं. लेकिन ऐसे लोगों को कुछ चालाक लोग सहज ही भ्रमित कर लेते हैं किंतु इन्हें एक लंबे अंतराल के बाद महसूस होता है कि क्या सही था और क्या गलत और वे कैसे किसी नादान की तरह भ्रम के भंवरजाल में फंसते चले गए. लेकिन तब तक समय निकल चुका होता है और उस के लिए पछताने के अलावा कुछ शेष नहीं रहता. कई बार यह अपवाद भी देखने को मिलता है कि मुरगे के समान छोटी और गोलमटोल आंखों के बावजूद दोनों आंखों की दूरी करीब 1 सैं.मी. के लगभग होती है तो वह व्यक्ति अपेक्षाकृत कम स्वार्थी, कम धनलोलुप और सामान्य होता है. ऐसे लोगों को दूसरों का अच्छा हरगिज नहीं सुहाता. दूसरों का अच्छा देख कर ऐसे लोग ईर्ष्याद्वेष में पड़ कर धीरेधीरे कुंठा के शिकार हो जाते हैं. ऐसे लोग दूसरों को मूर्ख बना कर धन ऐंठते हैं या ऐसा ही कोई धंधा अपना लेते हैं कि लोगों को मूर्ख बनाते रह कर वे स्वयं की दुकान चलाते रह सकें.

सामान्य से बड़ी पुतलियां

आंखों का एक प्रकार यह भी होता है कि कुछ लोगों की आंखों की पुतलियां सामान्य से बड़ी होती हैं और आंखों के बीच की दूरी भी अधिक या सामान्य से अधिक होती है. ऐसे लोग ईमानदार, मेहनती, सच्चे, बहादुर और खुली किताब की तरह जीवन बिताने वाले होते हैं. साफ कहना और सुखी रहना इन का सिद्धांत होता है. इसलिए ऐसे लोग निर्भय भी होते हैं. ऐसे लोग किसी अन्य के काम में हस्तक्षेप करना पसंद नहीं करते और यह भी चाहते हैं कि उन के काम में कोई हस्तक्षेप न करे. ऐसे लोग अपनी मरजी के मालिक होते हैं और जब कभी इन की मरजी के खिलाफ कुछ होने लगता है, तो ये आवेश में आ जाते हैं. किंतु आवेश के बावजूद ये पूरी तरह नियंत्रित होते हैं अथवा आपे से बाहर नहीं आते. जाहिर है ऐसे लोग सद्विचार रखने वाले और अनुशासित होते हैं. ऐसे लोग मुफ्त की चीज को स्वीकार नहीं कर पाते. ये लोग किसी से भी कुछ लेने के बजाय देना अधिक पसंद करने के साथ ही स्वाभिमानी और लालचरहित होते हैं. इन्हें क्रोध कभीकभार ही आता है, लेकिन जब क्रोधित होते हैं तो बहुत देर तक शांत नहीं हो पाते. दूसरों का सम्मान करना, दूसरों की बात को इतमीनान से सुनना और तवज्जो देना इन की आदत में होता है. बहुधा ये किसी की बुराई या निंदा नहीं करते, साथ ही हर किसी का सम्मान करना इन की विशेषता होती है. ऐसे लोग सफलता के शिखर पर पहुंचने के बाद भी सामान्य बने रहते हैं.

पुतलियों का रंग हलका भूरा

आंखों के बीच सामान्य दूरी और पुतलियों का रंग हलका भूरा होने के साथ ही कार्निया में स्लेटी रंग के धब्बे दिखाई देते हैं और पुतलियां सामान्य से छोटी होती हैं. यह स्थिति एक विशिष्ट प्रकार के दुर्लभ व्यक्तित्व की ओर इशारा करती है. ऐसे लोग हर बात में झूठ बोलते हैं और कभी किसी से भी धोखा कर सकते हैं. ये लोग किसी के सगे नहीं होते, न मातापिता के और न पत्नी अथवा बच्चों के. स्वार्थ की पराकाष्ठा ऐसे लोगों में देखी जा सकती है. मजे की बात यह है कि ऐसे लोग स्वभाव से सरल, ललित कलाओं में रुचि रखने वाले और मृदुभाषी होते हैं, लेकिन मिलनसार नहीं होते. अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना, फूट डालो और राज करो की नीति पर चलना, षड्यंत्रकारी होने के साथ ही लगभग सभी लोगों के मुंह पर उन की तारीफ और पीठ पीछे बुराई करना इन का स्वभाव होता है. ऐसी आंखों वाले पुरुषों में स्त्रियोचित गुणों की भरमार होती है. मुंह पर मीठे बने रहना और पीठ पीछे छुरा घोंपना इन की फितरत होती है. कुछ भी पाने या अवसर का लाभ उठाने में किसी मित्र (यह अलग बात है कि ऐसे लोगों के मित्र नहीं होते) या निकटतम रिश्तेदार का बड़े से बड़ा नुकसान भी हो जाए तब भी ये लोग अवसर का लाभ उठाने से नहीं चूकते. इन का स्वयं के अलावा और किसी से कोई सरोकार नहीं होता. ये लोग किसी बात पर अटल नहीं रहते. सीधी लड़ाई नहीं लड़ सकते, इसलिए दिखाऊ सरलता, विनम्रता, हर बात में व्यंग्य करना, कुटिल सोच, औसत बुद्धि का होते हुए भी स्वयं को परम विद्वान समझना इन का स्वभाव होता है और उसे साबित करने की हमेशा नाकाम कोशिश करते देखे जाते हैं, ये कब किस का नुकसान कर बैठें या कब किसी की आलोचना करने लगें, कुछ नहीं कहा जा सकता. ऐसे लोग अपने समकक्ष या स्वयं से बेहतर आसपास बैठे लोगों का चरित्र हनन करने की भरसक कोशिश करते देखे जाते हैं. स्वयं से प्रतिभाशाली व्यक्ति से कतराते रहना इन की आदत में शुमार होता है. ऐसे लोगों से पूरी सतर्कता से व्यवहार करना चाहिए.

दोस्ती या रिश्ता ऐसे लोगों के लिए कोई माने नहीं रखता बल्कि ऐसे लोग दोस्ती या रिश्ते की परिभाषा तक नहीं समझते. ऐसी आंखों वाले लोगों का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा जटिल होता है कि इन्हें समझ पाना हर किसी के बस की बात  नहीं होती. ऐसे लोग एक सीमा से अधिक कुंठित और कुटिल होते हैं जोकि एक प्रकार का मनोरोग है. ऐसे लोग सर्वोच्च किस्म के मौकापरस्त होते हैं. जब कोई आदमी इन के लिए काम  का नहीं रह जाता तो उस से संपर्क तोड़ लेते हैं. ये लोग कब किस रास्ते पर चल पड़ें कुछ कहा नहीं जा सकता. ऐसे लोगों का सामना जब किसी शक्तिशाली या प्रभावशाली व्यक्ति से हो जाता है तो ये तुरंत दुम दबा लेते हैं.

फिश पैडिक्योर : उपयोगी भी प्रभावी भी

आजकल पैडिक्योर की एक नई तकनीक फिश पैडिक्योर चलन में है, जो बेहद प्रभावशाली और उपयोगी साबित हो रही है. सौंदर्य विशेषज्ञों ने नएनए संशोधन कर के अलगअलग प्रकार की बहुत सी सौंदर्य तकनीकें ईजाद की हैं. उन्हीं में से एक है फिश पैडिक्योर. वैसे तो पैडिक्योर कराना प्राचीन काल से चला आ रहा है. रानियों और राजकुमारियों से ले कर पुरानी फिल्म अभिनेत्रियां तक सभी पैडिक्योर कराती आई हैं. लेकिन उस में हर बार कुछ न कुछ नया संशोधन किया गया और अब नया संशोधन फिश पैडिक्योर ही है.

इस की प्रक्रिया

फिश पैडिक्योर के लिए डाक्टर फिश नाम की मछलियां इस्तेमाल में लाई जाती हैं. इन मछलियों को कुनकुने पानी में छोड़ कर उस में पैर डुबोए जाते हैं. इन मछलियों के दांत नहीं होते, लेकिन इन के मसूड़े बहुत सख्त होते हैं, जिस से ये पैरों की मृत और खराब त्वचा को कुतरती हैं. आधे घंटे के इस उपचार में ये मछलियां लगातार पैरों की मृत त्वचा को कुतरकुतर कर खाती रहती हैं. यह प्रक्रिया वेदनारहित और बेहद मजेदार होती है. इस से बहुत कम समय में ही हमारे पैर नर्म और मुलायम दिखने लगते हैं. उस के बाद की प्रक्रिया सामान्य पैडिक्योर जैसी ही होती है, लेकिन यहां पानी में से पैर निकालने के बाद प्यूमिक स्टोन या फुट ब्रश से पैर घिसने की जरूरत नहीं होती, क्योंकि डाक्टर फिश पहले ही पैरों पर स्थित मृत त्वचा निकाल देती है. पानी में से पैर निकालने के बाद आगे की प्रक्रिया में पैरों की मौइश्चराइजर या कोई अच्छी क्वालिटी की क्रीम लगा कर मालिश करते हैं और फिर नाखूनों को शेप देते हैं. यह सारी प्रक्रिया सामान्य पैडिक्योर जैसी ही होती है.

मशरूम : सेहत का जायकेदार नजराना

कई बीमारियों से बचाने वाला मशरूम स्वादिष्ठ व पौष्टिक होता है. इस की सब्जी का लुत्फ तो आमतौर पर लोग उठाते रहते हैं, पर इस से कई तरह की डिशेज भी बनाई जा सकती हैं. बिहार के वैशाली जिला के आदर्श महिला मशरूम उत्पादन समूह संघ की ट्रेनर रेखा सिंह ने बताया कि मशरूम से कई तरह के स्वादिष्ठ पकवान बनाए जा सकते हैं.

मशरूम कोफ्ता: मशरूम को उबाल कर उस में अजवाइन, बेसन, चावल पाउडर, अदरक, हरीमिर्च, लहसुन, टमाटर और चिली सौस मिला कर भून लें. उस के बाद कड़ाही में कटा हुआ प्याज, लहसुन, छोटी और बड़ी इलायची डाल कर भूनें. फिर उस में जरूरत के हिसाब से पानी और नमक डालें.

1 गिलास दूध और थोड़ा काजू डाल कर करीब 20 मिनट तक पकाएं. मशरूम का जायकेदार कोफ्ता बन कर तैयार है.

मशरूम चिली: सब से पहले मशरूम को टुकड़ों में काट लें और उसे उबाल कर अच्छी तरह से छान लें. उस में नमक, खाने वाला रंग, सोयाबीन सौस, अरारोट, चिली सौस मिला कर तेल में अच्छी तरह से फ्राई कर लें. फ्राई मशरूम को कड़ाही से निकाल कर अलग रख लें. उस के बाद शिमलामिर्च, अदरक, लहसुन, कटा प्याज एवं हरीमिर्च मिला कर फ्राई कर लें. फ्राई की गई सभी चीजों को पेपर पर रख कर उन का तेल सोख लें. यह सब करने के बाद कड़ाही को आंच पर चढ़ा कर उस में तेल डालें और उस में जीरा, हरीमिर्च, प्याज का पेस्ट डाल कर भून लें. कड़ाही में पानी और पहले से तैयार किए गए सभी मिक्सचर को डाल कर उबालें. उस के बाद आंच से उतार कर उस में सौस और विनेगर डाल कर मिलाएं. मशरूम का चिली तैयार है.

मशरूम सूप: मशरूम को उबाल कर उसे मिक्सी से अच्छी तरह से पीस लें और उसे घी में हलका भून लें. टमाटरों को अलग से उबाल कर छान लें. उस के बाद मशरूम को कड़ाही में डाल कर उस में टमाटर के रस को डाल कर हलके से चलाएं. उस के खौलने पर उसे बाउल में निकाल लें और कालानमक, कालीमिर्च और धनियापत्ती डाल कर परोसें.

मशरूम फिरनी: मशरूम को छोटेछोटे टुकड़ों में काट कर उसे घी में अच्छी तरह भून लें. उस के बाद 1 लिटर दूध को खौला कर आधा लिटर के करीब कर लें. दूध में भुना हुआ मशरूम डाल कर पकाएं. कुछ देर पकने के बाद उस में काजू, किशमिश, छोटी इलाइची पाउडर मिला दें. जब मशरूम पूरी तरह से पक जाए तो उस में चीनी डाल कर ठीक से मिला दें और खाने के लिए परोसें.

खुद पर भरोसा कर के तो देखें : समाना तेजानी

वर्ष 1963 में 2 करीबी दोस्तों ए.के. तेजानी और एच.जेड. गिलानी ने मिल कर गिट्स फूड प्रोडक्ट्स प्रा.लि. की शुरुआत की थी. इन दोनों दोस्तों के आपसी संबंध इतने प्रगाढ़ थे कि कुछ समय बाद ही रिश्तेदारी में बदल गए. रिश्तों में विश्वास इतना गहरा था कि पीढ़ी दर पीढ़ी इन के वंशज व्यवसाय से जुड़ते गए और गिट्स फूड सफलता के पायदान पर चढ़ता गया. समाना तेजानी घरेलू व्यवसाय की इस कड़ी से तीसरी पीढ़ी में जुड़ीं. समाना अपनी कंपनी के उत्पादन विभाग में निदेशक हैं. अपने परिवार, शिक्षा और व्यवसाय से जुड़ने के बारे में बताते हुए समाना कहती हैं, ‘‘मैं अपने मातापिता और 2 बड़ी बहनों के साथ रहती हूं. मैं पुणे में पैदा हुई और वहीं पलीबढ़ी. मैं ने 10वीं कक्षा तक सैंट मैरी स्कूल, पुणे में पढ़ाई की. उस के बाद 12वीं कक्षा तक मेरी पढ़ाई द इंटरनैशनल स्कूल, बैंगलुरु में हुई. उस के बाद मैं ने पर्ड्यू विश्वविद्यालय अमेरिका से खाद्य विज्ञान में बी.एससी. किया और उद्योग की दुनिया में कदम रखा.’’

मिली किस से प्रेरणा

जिस कार्यकुशलता और मेहनत से समाना ने कम उम्र में ही अपने घरेलू व्यवसाय को और बुलंदियों तक पहुंचाया, वह प्रशंसा के योग्य है. समाना अपने पिता को अपना प्रेरणास्रोत मानती हैं और उन्हीं से प्रेरित हो कर समाना ने व्यवसाय में कदम रखा. इस बारे में समाना कहती हैं, ‘‘मैं ने बचपन से अपने पिता को हर दिन काम पर जाते हुए देखा और मैं उन्हीं की तरह बनना चाहती थी. फिर जब मैं युवा हुई तो यह समझने लगी थी कि हमारी कंपनी एक कर्तव्यनिष्ठ कंपनी है. इस बात ने मुझे उस में काम करने के लिए प्रेरित किया.’’

दोस्ती और विश्वास के जिन सिद्धांतों पर समाना के दादा ए.के. तेजानी और नाना एच.जेड. गिलानी ने कंपनी की नींव रखी थी, समाना भी उन्हीं सिद्धांतों को अपनी पूंजी मानती हैं. उन का मानना है कि व्यवसाय विश्वास के बलबूते ही आगे बढ़ता और फलताफूलता है. व्यवसाय को जमाने का मूलमंत्र बताते हुए समाना कहती हैं कि व्यवसायी को वही उत्पाद ग्राहक को देना चाहिए जिस का इस्तेमाल व खुद सहज रूप से कर सके. फिर चाहे वह खानेपीने की कोई वस्तु हो या कुछ और. समाना इस बात को बखूबी समझती थीं कि कठिन परिश्रम और लगन के बिना अपनी पहचान बनाना नामुमकिन है. गिट्स फूड ने अपने उपभोक्ताओं के बीच जो नाम और विश्वास कायम किया था उसे और आगे ले जाना समाना के लिए चुनौती भी था और जिम्मेदारी भी. अपनी सूझबूझ के जरीए समाना ने न सिर्फ अपनी कंपनी के नाम को आगे बढ़ाया, बल्कि एक सफल व्यवसायी के तौर पर अपनी पहचान भी कायम की. समाना कहती हैं, ‘‘मैं अपना काम पूरी लगन के साथ करती गई. मेरी सब से बड़ी उपलब्धि 2012 में जीवीके एलायंस की तरफ से ‘मोस्ट ऐंटरप्राइजिंग वूमन इन बिजनैस’ पुरस्कार जीतना था.’’

बेकिंग की शौकीन

यह सवाल अकसर हमारे दिमाग में आता है कि सफल लोग बहुत व्यस्त रहते हैं तो ऐसे में वे अपने शौक पूरे कर पाते हैं या नहीं? इस के जवाब में समाना कहती हैं, ‘‘शौक पूरा करने के लिए समय से ज्यादा लगन का होना जरूरी है. यदि कुछ करने की ठान लें तो समय निकल ही आता है. वैसे मैं बहुत बिजी रहती हूं, लेकिन जब समय मिलता है तो खाली समय में मैं बेकिंग करना पसंद करती हूं. मुझे जूलिया चाइल्ड का एक चौकलेट आमंड केक बहुत पसंद है, इसलिए उसे मैं अकसर बेक करती हूं.’’

सफलता का सेहत कनैक्शन

समाना कहती हैं, ‘‘व्यवस्तता चाहे कितनी भी हो, मैं अपनी सेहत से समझौता नहीं करती. अपने स्वास्थ्य के प्रति सदा सजग रहती हूं. मैं सुबह जल्दी उठती हूं और दौड़ लगाने जाती हूं या फिर घर पर ही व्यायाम करती हूं.’

भाईबहन की कैमिस्ट्री

हुमा कुरैशी और उन के अभिनेता भाई साकिब सलीम एकसाथ हौलीवुड फिल्म ‘औकुलस’ के हिंदी संस्करण में नजर आएंगे. साकिब इस के पहले फिल्म ‘मेरे डैड की मारुति’ और ‘हवाहवाई’ फिल्म से दर्शकों के दिलों में जगह बनाने में कामयाब रहे हैं. उन्होंने फिल्म ‘बदलापुर’ में हुमा की भूमिका की तारीफ की लेकिन वे कहते हैं कि यह बौलीवुड फिल्म भी भाईबहन के रिश्तों पर बनी एक हौरर फिल्म है. बौलीवुड में पहली बार रीयल भाईबहन एकसाथ एक ही फिल्म में काम कर रहे हैं. हुमा कहती हैं कि मैं इस फिल्म में काम करने के लिए बहुत उत्साहित हूं, क्योंकि रीयल लाइफ में मेरी और मेरे भाई के बीच रिश्तों की कैमिस्ट्री बहुत सुलझी हुई है. यही जब रील लाइफ में करेंगे तो बड़ा अच्छा ऐक्सपीरियंस रहेगा.

किस करने में लगाए 12 घंटे

कैटरीना के साथ अपने प्यार की घोषणा कर चुके रणबीर कपूर को इस खबर से जरूर आपत्ति हो सकती है, क्योंकि कैटरीना ने किस करने का रिहर्सल रणबीर के साथ नहीं आदित्य रौय कपूर के साथ किया है. कैटरीना अभिषेक कपूर की फिल्म ‘फितूर’ में फिरदौस का किरदार निभा रही हैं. इस फिल्म में एक किस सीन, जो श्रीनगर में फिल्माया गया था जल्दी ही ओके हो गया. पर दूसरे सीन को करने में दोनों को 12 घंटे का समय लग गया. इस एक सीन को ठीक ढंग से शूट करने में दोनों के पसीने छूट गए. यह सीन चार्ल्स डिकेंस के उपन्यास ‘द ग्रेट एक्सपेक्टेशन्स’ से लिया गया है. अभिषेक कपूर के निर्देशन में बन रही यह फिल्म उस उपन्यास पर ही आधारित है. इस में एक चित्रकार नूर (आदित्य रौय कपूर) की प्रेम कहानी है, जो फिरदौस (कैटरीना) से प्यार करता है.

ट्रैंड मैचिंग ज्वैलरी का

महिलाओं में ज्वैलरी शृंगार का प्रतीक होने के साथसाथ फैशन स्टेटमैंट भी बन चुकी है. महिलाएं आज फैशन के साथ खुद को अपडेट रखना चाहती हैं और ज्वैलरी खरीदते समय ट्रैंड के साथसाथ क्वालिटी भी खोजती हैं. पीसी ज्वैलर्स ने फेसबुक और ट्विटर सोशल नैटवर्किंग साइट्स पर पीसीजे दीवा के नाम से अकाउंट खोले हैं, जिन में हर दिन ज्वैलरी और फैशन से जुड़े नए टिप्स मिलेंगे और उन पर आप ज्वैलरी की खूबसूरत रेंज देख सकेंगी. ज्वैलरी का ट्रैंड समय के साथ बदलता रहता है. सुंदर दिखने के लिए इस बदलाव के साथ अपडेट रहना भी जरूरी है.

फैशन ट्रैंड

ज्योमैट्रिक ज्वैलरी वाले गहने सिंपल और सोबर होते हैं. ऐलिगैंट ज्वैलरी पहनने वाले लोगों के लिए ये परफैक्ट होते हैं. ये गहने स्क्वेयर, रैक्टैंगुलर, सर्कल इत्यादि शेप में होते हैं.

पीकौक डिजाइंस ऐवरग्रीन हैं. इन दिनों महिलाओं में पीकौक डिजाइन के इयररिंग्स फैशन में हैं.

इस सीजन में फ्लौवर डिजाइंस भी खास हैं जिस में इयररिंग्स, अंगूठी और कड़े फैशन में हैं.

इन दिनों ओल्ड डिजाइंस फिर से फैशन में हैं, जिस में माथापट्टी, झूमर, वोरला इत्यादि महिलाओं की पहली पसंद हैं.

ऐंटीक लुक में गोल्ड के साथ कुंदन, पोलकी और मीना जड़े हुए गहने चलन में हैं.

ड्रैस के साथ मिक्समैच करें

फौर्मल ड्रैस के साथ सिंपल डिजाइन वाली ज्वैलरी ही पहनें.

रैक्टैंगुलर सिल्वर इयररिंग्स को कभी भी फ्लोरल या लेस वाली ड्रैसेज के साथ न पहनें.

ट्रैंगल शेप वाली इयररिंग्स टीशर्ट के बजाय शर्ट और फौर्मल ड्रैस पर ज्यादा सूट करती हैं.

इंडोवैस्टर्र्न ड्रैस के साथ ज्योमैट्रिकल डिजाइंस की ज्वैलरी पहनें.

कभी भी प्रिंट वाले कपड़ों के साथ मल्टीकलर स्टोन के गहने न पहनें.

ईवनिंग गाउन के साथ बोल्ड रिंग या ब्रैसलेट ट्राई करें. ध्यान रखें कि थोड़ा सा कंट्रास्ट हो.

अगर आप की शर्ट स्लीवलैस है तो आप कोई भी ज्वैलरी न पहनें. अगर आप पहनेंगी तो वह काफी भद्दी लगेगी.

रूबी, टरकाइज और ब्राइट कलर्ड बीड्स वाले गहने ब्लैक आउटफिट के साथ पहनें.

चुनें ज्वैलरी

अगर ज्वैलरी का चुनाव करते समय फेस कट का ध्यान रखा जाए तो पर्सनैलिटी और भी निखर जाती है. अगर आप का चेहरा गोल है तो लौंग इयररिंग्स पहनें. इस से चेहरा लंबा लगेगा और आप सुंदर भी लगेंगी. अगर आप का गोल चेहरा है तो आप को छोटे टौप्स व चौकोर स्टाइल वाले नैकपीस पहनने से बचना चाहिए, क्योंकि ये चेहरे को और भी गोल दिखाते हैं. लंबे चेहरे वाली महिलाओं पर इयरस्टड्स फबते हैं. इन्हें लटकने वाली इयररिंग्स पहनने से बचना चाहिए.

घरेलू कलह का कारण पारिवारिक राजनीति

पारिवारिक संबंधों में अब ज्यादा बिखराव आने लगा है. घरेलू हिंसा और तलाक की घटनाओं में दिन ब दिन इजाफा हो रहा है. आए दिन अखबारों और न्यूज चैनलों में ऐसी खबरें पढ़नेसुनने को मिल जाती हैं. इस संबंध में कुछ लोगों का कहना है कि पारिवारिक बिखराव का मुख्य कारण औरतें हैं, जो अपने अहं के तहत अपने पति और परिवार के अन्य लोगों को महत्त्व नहीं देती हैं. यह तो कहनेसुनने की बात है, इस का वास्तविक कारण क्या है, यह गौर करने वाली बात है. यों तो अब संयुक्त परिवार बहुत कम रह गए हैं, फिर भी परिवार में कलह होता है, जिस की वजह से संबंधों में दरार आने लगती है. सगेसंबंधी परिवार से दूर रहते हुए भी फोन कर के या कभीकभार मिलने के नाम पर अपनी कुटिल चालों से पतिपत्नी के संबंधों में जहर घोलते रहते हैं.

वसुंधरा की शादी 7-8 महीने पहले हुई थी. हालांकि अपने पति परमीत से उस ने इंगेजमैंट के बाद करीब 3 महीने डेटिंग की थी, लेकिन ससुराल का वातावरण उस के लिए एकदम नया था. वसुंधरा की सास बेटे के सामने तो उसे बेटीबेटी कह कर बुलातीं, मगर जब बेटा सामने नहीं होता तो उसे खूब खरीखोटी सुनातीं. वसुंधरा को अपनी सास की चालबाजी समझ नहीं आती थी. वह हैरान रह जाती थी. सास की शिकायत अपने पति से करती, तो वह यह कह कर डांट देता कि तुम बिना बात मेरी मां को बदनाम कर रही हो, वे कितना प्यार करती हैं तुम्हें.

सास के साथसाथ ननद भी भाभी के साथ चाल चलने से बाज नहीं आती थी. वसुंधरा को लगता जैसे वह किसी राजनीति के अखाड़े में आ गई है, जहां हर कोई अपनी सरकार बनाना चाहता है. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह ऐसा क्या करे कि उस की जिंदगी ढर्रे पर आ जाए. हालात दिनपरदिन बिगड़ते जा रहे थे. जब बात बहुत ज्यादा बढ़ गई, तो वह अपने मायके आ गई. मनमुटाव इतना ज्यादा हो गया कि नौबत तलाक तक की आ गई. वह तो गनीमत है कि परमीत की बूआ ने बात संभाल ली और फिर दोनों का रिश्ता सहज हो गया.

प्यार व सौहार्द

वसुंधरा की तरह और न जाने कितनी लड़कियों को ससुराल में सास, ननद और जेठानी की चालों का शिकार होना पड़ता है. यह सच है कि ससुराल में सब के साथ संबंधों को सुचारु रूप से चलाने के लिए पहल बहू को ही करनी पड़ती है, लेकिन एक सच यह भी है कि जब तक उसे ससुराल वालों का पूरा सहयोग नहीं मिलेगा वह अपनी तरफ से कुछ नहीं कर पाएगी. संबंधों की नींव विश्वास और समर्पण के सहारे चलती है. ससुराल जाने के बाद एक लड़की का सामना अलगअलग लोगों और रिश्तों से होता है. जो लड़की अपने मातापिता के साथ लाड लड़ाती और भाईबहनों के साथ लड़तेझगड़ते हुए बड़ी होती है उसे शादी के बाद एक ऐसे परिवेश में जाना पड़ता है, जहां का वातावरण और लोग सब नए होते हैं. रिश्ते कांच की तरह नाजुक होते हैं. जरा सी भी चूक उन में ऐसी दरार डाल देती है, जिसे जोड़ पाना बहुत मुश्किल होता है. जिस तरह एक हाथ से ताली नहीं बजती है, ठीक उसी तरह पारिवारिक संबंधों में प्यार और सौहार्द लाने के लिए सास और बहू दोनों को एकदूसरे को सहयोग देने की जरूरत होती है.

संबंधों में पौलिटिक्स

यों तो सासबहू, ननदभाभी, जेठानीदेवरानी के संबंधों में थोड़ीबहुत नोकझोंक होती रहती है, लेकिन ये रिश्ते राजनीतिक दलों की तरह गुटबंदी कर लें, तो फिर पारिवारिक वातावरण सहज नहीं रह पाता. समय के साथ संबंधों में बदलाव आए हैं. पहले संयुक्त परिवार थे अब एकल परिवारों का चलन आ गया है. लेकिन आज भी एक चीज में कोई बदलाव नहीं आया है और वह है रिश्तों में पौलिटिक्स. खुद को दूसरों से अच्छा दिखाने की जद्दोजेहद पहले भी थी और आज भी है. इस लालसा के तहत परिवार में सामदामदंडभेद सभी रीतियों का पालन किया जाता है. एकल परिवारों के मुकाबले संयुक्त परिवारों में यह पौलिटिक्स ज्यादा होती है, क्योंकि वहां सास, बहू, ननद, जेठानी सभी अपनीअपनी सत्ता बनाना चाहती हैं. जहां उन्हें लगने लगता है कि उन का वर्चस्व कम हो रहा है, वहां वे अपनी तिकड़मों से एकदूसरे को कमतर दिखाने को तत्पर हो जाती हैं. फिर चाहे इस के लिए उन्हें कुछ भी क्यों न करना पड़े, वे हिचकती नहीं.

सासबहू का रिश्ता नोकझोंक से भरा होता ही है, लेकिन उन में एकदूसरे को नुकसान पहुंचाने की भावना जरा कम रहती है. हां, अपनेआप को दूसरे से प्रतिभाशाली दर्शाने की इच्छा जरूर रहती है. छोटीछोटी बातों को ले कर दोनों के बीच मतभेद शुरू होता है. जैसे अगर नई बहू ने सास की मरजी के बिना रसोई में कोई बदलाव कर दिया तो यह बात सास को नागवार गुजरने लगेगी या फिर बेटे ने किसी बात में अपनी पत्नी का साथ दे दिया तो सास को यह लगने लगता है कि बहू ने उन का बेटा छीन लिया. ये सारी बातें धीरेधीरे दोनों के रिश्ते में कड़वाहट घोलने लगती हैं और फिर घर घर न रह कर राजनीति का अखाड़ा बन जाता है, जिस में सासबहू अपनीअपनी चालों से एकदूसरे को शिकस्त देने की कोशिश में जुट जाती हैं.

सत्ता की सनक

घरेलू राजनीति के संबंध में नोएडा के एक काल सैंटर में कार्यरत रजनी शर्मा का कहना है, ‘‘मेरी शादी को 20-22 साल हो चुके हैं. मेरी बेटी की उम्र 19 साल है, लेकिन आज भी आए दिन मेरा घरेलू राजनीति से सामना होता रहता है. मैं जब शादी कर के आई थी तो सास ही घर में अकेली महिला थीं. हर जगह उन की ही चलती थी. मैं नौकरी भी करती थी और घर का पूरा काम भी. ऐसे में अगर कोई रिश्तेदार मेरी तारीफ कर देता, तो यह बात सास को पसंद नहीं आती. उन्हें लगने लगा कि अब उन की पूछ कम हो गई है. फिर उन्होंने ऐसेऐसे दांवपेच खेलने शुरू कर दिए कि मुझे अपने पति के साथ पहने हुए कपड़ों में ही घर छोड़ना पड़ा. आज इतने दिनों के बाद भी उन की तिकड़मबाजी वैसे ही चलती है. अब अगर बच्चे दोचार दिनों के लिए उन के पास चले जाएं, तो उन्हें भी मेरे खिलाफ भड़काती हैं. उन की गलत मांगों को भी पूरा कर के यह बताती हैं कि कोई बात नहीं अगर तेरी मम्मी तेरी बात नहीं मानतीं. मैं हूं न तेरे साथ.’’

इस तरह की बातें घरघर में होती हैं. परिवार में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए दूसरों को नीचा दिखाने के कार्यक्रम चलते रहते हैं. कई घरों में तो सास व ननद बहू को उस के पति के ज्यादा नजदीक तक नहीं होने देना चाहतीं, क्योंकि उन्हें लगता है कि इस से उन का बेटा या भाई उन से दूर हो जाएगा. लेकिन इस तरह की सोच गलत है. सच यही है कि पतिपत्नी का रिश्ता इतना गहरा होता है कि देरसवेर उन के बीच विपरीत हालात में भी प्यार पनपता ही है. इस संबंध में गोरखपुर की मनोरमा का कहना है, ‘‘जब मैं ब्याह कर के आई, तो कुछ ही दिनों बाद मेरे पति दुबई चले गए. वहां से जब उन का फोन आता, तो मेरी सास व ननदें उन के साथ बात नहीं करने देती थीं. खुद उन से बात करतीं और मुझ से कहतीं कि मेरा बेटा तुम्हें छोड़ देगा. मेरा रंग सांवला है इस बात को ले कर हमेशा मुझे प्रताडि़त करतीं. फिर कुछ साल बाद जब मेरे पति छुट्टी पर आए, तो मेरी हालत देख दोबारा दुबई न जाने का फैसला किया. अब हमारी 1 बेटी है. मेरे पति मेरा और बच्ची का पूरा ध्यान रखते हैं. इस से मेरी सास और ननद खुश नहीं रहतीं. हमेशा यही कहती हैं कि मैं ने उन से उन का बेटा, भाई छीन लिया लेकिन इस में जरा सी भी सचाई नहीं है. हम उन के प्रति अपने सभी दायित्वों का निर्वाह करते हैं. लेकिन वे अभी भी हमें साथ रहने नहीं देना चाहतीं.’’

लोग घरेलू कलह का सारा दोष फिल्मों और टीवी पर मढ़ देते हैं, इस में भी सचाई है, लेकिन यह पूरी तरह से सच भी नहीं है. अगर ऐसा होता तो जिन जगहों पर उन की पहुंच नहीं है, वहां इस तरह की घटनाएं क्यों होती हैं? इस का जवाब है कि धार्मिक प्रवचन और धर्मगुरुओं की बातें लोगों को इस के लिए उकसाने में अहम भूमिका निभाती हैं. प्रवचन सुनने जाने वाली औरतों को बांधे रखने के लिए तथाकथित धर्मगुरु सास को कैसे छकाया जाए और बहू को कैसे उस की औकात दिखाई जाए इस के नुसखे बताते हैं. रहीसही कसर आने वाली औरतों की संगति से वहां पूरी हो जाती है.

टीवी की भूमिका भी कुछ कम नहीं

सबंधों में आई इस गिरावट के लिए टीवी सीरियलों और फिल्मों को भी जिम्मेदार माना जाता है. कुछ हद तक यह बात सही भी है. कहीं न कहीं टीवी पर दिखाए जा रहे धारावाहिकों में इसी तरह की हरकतें दिखाई जाती हैं, जो परिवार को राजनीतिक चालें चलना सिखाती हैं. सीरियल ‘ना बोले तुम न मैं ने कुछ कहा’ में मेघा की जेठानी रेणु उसे नीचा दिखाने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती है. इसी तरह से ‘दिया और बाती’ धारावाही में देवरानी मीनाक्षी दिन भर षड्यंत्र रचने को तत्पर रहती है. इस में वह अपनी जेठानी और ननद दोनों को फंसाने में लगी रहती है. यह एक सीरियल की बात नहीं  है. सारे सीरियलों में इसी तरह की बातें दिखाई जाती हैं. सीरियल ही क्यों फिल्में भी इस के प्रभाव से अछूती नहीं हैं. फिल्म ‘बीवी हो तो ऐसी’ में बिंदू की तिकड़मी चालों से पूरा परिवार परेशान रहता है. पूरा परिवार उस की तानाशाही की वजह से तनाव में रहता है, लेकिन कोई भी उस से कुछ नहीं कह पाता. बिंदू को सबक सिखाने के लिए बेटा फारूक शेख अपनी पसंद से रेखा से शादी कर लेता है.

बिंदू को ऐसा लगता है जैसे रेखा ने उस से उस के बेटे को छीन लिया है और उस के एकछत्र साम्राज्य में सेंध लगा दी है. इसलिए वह अपनी बहू रेखा को अपने घर और बेटे के दिल से निकालने के लिए तरहतरह की चालें चलने लगती है. उस पर चोरी का इलजाम लगाने तक से नहीं चूकती. इस के लिए उस की अलमारी में कीमती जेवरात रखवा देती है. अगर आप सोच रहे हों कि बहू को नीचा दिखाने के लिए ऐसी घटनाएं सिनेमा में ही होती हैं, तो ऐसा हरगिज नहीं है, क्योंकि बात चाहे सिनेमा की हो, धारावाहिकों की हो या फिर असल जिंदगी की, हर जगह रिश्तों में इस तरह की राजनीति चलती रहती है.

पुरुष भी कम नहीं

ऐसा नहीं कि सिर्फ घर की महिलाएं ही राजनीति करती हैं. पुरुष भी कम नहीं. वे भी बराबर इस तरह की गतिविधियों में सक्रिय रहते हैं. धारावाहिकों में तो पुरुष औरतों के साथ इस तरह की राजनीतिक चालों में बराबर चलते ही हैं, असल जिंदगी में भी वे कम नहीं. नई बहू को प्रताडि़त करने में बीवी और बेटी के साथ उन की भागीदारी भी कम नहीं रहती है. आए दिन होने वाली दहेज से संबंधित हत्याओं में स्त्रीपुरुष दोनों का बराबर योगदान रहता है. भले ही यह कहा जाए कि उस ने औरत के बहकावे में आ कर ऐसा किया, लेकिन पुरुषों का दिमाग कुचक्र रचने में औरतों से चार कदम आगे ही रहता है.

राजनीति करने के कारण

अब सवाल उठता है कि घर में इस तरह की राजनीति क्यों होती है जिस में एकदूसरे को अपने से कमतर दिखाने की या उसे नुकसान पहुंचाने की भावना निहित रहती है? इस के जवाब में मैक्स के वरिष्ठ मनोचिकित्सक समीर पारिख का कहना है, ‘‘जब सामने वाले को यह लगने लगता है कि उस के वजूद को खतरा पहुंचने वाला है या फिर किसी दूसरे के आने से उस ने परिवार में अब तक अपनी जो जगह बनाई है वह खतरे में पड़ने वाली है तो असुरक्षा की भावना से ग्रस्त होने के कारण उस का दिमाग इस तरह की राजनीति करने लगता है जिस से कि वह दूसरे की छवि को धूमिल कर सके. घरेलू राजनीति में सास, बहू व ननद की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है. जब बहू घर में आती है तो सास और ननद असुरक्षा की भावना से ग्रस्त हो जाती हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि उन के बेटे और भाई पर अब दूसरी औरत का अधिकार उन के मुकाबले ज्यादा होगा. ऐसे में वे बहू के विरुद्ध षड्यंत्र रचने में जुट जाती हैं.

धर्म भी सिखाता राजनीति

अगर यह कहा जाए कि हमारे समाज में व्याप्त धार्मिक संस्थाएं पारिवारिक राजनीति को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाती हैं, तो यह किसी भी तरह गलत नहीं होगा. ऐसा नहीं है कि पारिवारिक राजनीति आधुनिकता की देन है वरन सदियों से पारिवारिक संबंधों पर राजनीति हावी रही है. अगर आप पौराणिक ग्रंथों पर नजर डालें, तो वहां कुचक्री राजनीति देखने को मिल जाएगी. फिर चाहे वह तुलसीदास रचित रामचरित मानस हो या फिर महाभारत. इन दोनों ही ग्रंथों में पारिवारिक राजनीति के ढेरों उदाहरण देखने को मिल जाते हैं. दशरथ की महारानी कैकेयी अपनी दासी मंथरा के साथ मिल कर ऐसा कुचक्र रचती है कि राम को 14 वर्ष का वनवास और उस के बेटे भरत को राजसिंहासन मिल जाता है. रामायण में रावण और विभीषण का प्रकरण हो या फिर बालि और सुग्रीव का प्रसंग, सभी पारिवारिक प्रपंच के उदाहरण हैं. महाभारत में दुर्योधन अपने ही चचेरे भाइयों के खिलाफ साजिश रचता है. उन का राज्य हड़पने के साथसाथ उन्हें मारने की भी कोशिश करता है. धार्मिक ग्रंथों के साथसाथ ऐतिहासिक ग्रंथों में भी पारिवारिक राजनीति के अनेक उदाहरण देखने, पढ़ने को मिल जाते हैं. महाभारत, रामायण जैसे पौराणिक ग्रंथ तो पारिवारिक राजनीति से भरे हुए हैं. इन्हें पढ़ने वला न चाहते हुए भी पारिवारिक राजनीति में उलझने लगता है.

कहने को तो यह कहा जाता है कि औरतों को धर्म का पालन करना चाहिए, प्रवचन सुनने चाहिए इस से सद्बुद्धि आती है, लेकिन सचाई यह है कि जो औरतें घर में रह कर अच्छी किताबें, पत्रपत्रिकाएं पढ़ती हैं या फिर काम पर जाती हैं उन के मुकाबले धार्मिक प्रवचन सुनने वाली महिलाएं ज्यादा प्रपंच रचती हैं.

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