Mother’s Day Special: जीवन पर हावी तो नहीं बांझपन

कुछ महिलाओं में अचानक प्रैगनैंसी जैसे लक्षण नजर आने लगते हैं जैसे माहवारी चक्र का बाधित होना, स्तनों में दूध बनना, कामेच्छा कम होना आदि. असल में इस का संबंध एक ऐसी स्थिति से होता है, जिसे हाइपरप्रोलैक्टिनेमिया कहा जाता है. इस में खून में प्रोलैक्टिन हारमोन का स्तर सामान्य से अधिक हो जाता है. ऐस्ट्रोजन के प्रोडक्शन में बड़े स्तर पर हस्तक्षेप होने से माहवारी चक्र में बदलाव आने लगता है.

प्रोलैक्टिन का मुख्य काम गर्भावस्था के दौरान स्तनों को और विकसित करने, दूध पिलाने के लिए उन्हें उभारने और दूध बनाने का होता है. वैसे किसी महिला के प्रैगनैंट न होने के दौरान भी यह हारमोन कम मात्रा में खून में घुला रहता है. लेकिन प्रैगनैंसी खासतौर से बच्चे के जन्म के बाद इस का स्तर काफी बढ़ जाता है. इस स्थिति में 75% से ज्यादा महिलाएं प्रैगनैंट न होने के बावजूद दूध उत्पन्न करने लगती हैं.

पुरुषों में भी प्रोलैक्टिन का स्तर बढ़ने से कामवासना में कमी, नपुंसकता, लिंग में पर्याप्त तनाव न आना और स्तनों का आकार बढ़ना जैसी समस्याएं सामने आने लगती हैं. टेस्टोस्टेरौन का स्तर कम होना भी इसी स्थिति के बाद का एक परिणाम है. अगर ऐसी स्थिति में इलाज न कराया जाए, तो शुक्राणुओं की गुणवत्ता घटने लगती है और वे ज्यादा देर जीवित भी नहीं रह पाते हैं. इस के चलते उन के निर्माण में गड़बड़ी भी आने लगती है.

प्रसव या गर्भधारण करने की उम्र में महिलाओं में यह ज्यादा प्रचलित है. हालांकि इस में महिलाओं की प्रासंगिक स्थिति सामान्य ही बनी रहती है. ऐसी महिलाएं, जिन का ओवेरियन रिजर्व अच्छा हो, उन्हें भी माहवारी में अनियमितता का सामना करना पड़ सकता है और यह एक तरह से इस डिसऔर्डर के आगमन का संकेत होता है.

बांझपन का कारण

खून में प्रोलैक्टिन का स्तर बढ़ने से प्रजनन क्षमता पर असर पड़ता है. इस में या तो पिट्यूटरी स्टाक कंप्रैस हो जाती है या फिर डोपामाइन का स्तर घट जाता है अथवा प्रोलैक्टिनोमा (पिट्यूटरी ऐडीनोमा का एक प्रकार) का जरूरत से ज्यादा प्रोडक्शन होने लगता है, जो हाइपोथैलेमस से गोनाडोट्रोपिन को रिलीज करने वाले हरमोरन (जीएनआरएच) के स्राव को रोकता है.

गोनाडोट्रोपिन को रिलीज करने वाले हरमोन (जीएनआरएच) के स्तर में कमी आने की वजह से ल्यूटीनाइजिंग हारमोन (एलएच) और फौलिकल स्टिम्युलेटिंग हारमोन (एफएसएच) के स्राव में भी कमी आने लगती है. परिणामस्वरूप बां झपन का सामना करना पड़ता है.

बांझपन की स्थिति

एक बार जब प्रोलैक्टिन का स्तर बढ़ जाता है, तो महिलाओं में माहवारी कम होने लगती है और खून में ऐस्ट्रोजन का स्तर घटने से अनियमितता के साथसाथ बां झपन की स्थिति भी पैदा होने लगती है. कुछ मामलों में माहवारी के प्रवाह में बदलाव इमेनोरिया के रूप में भी देखने को मिलता है, जिस में प्रजनन क्षमता वाली उम्र में भी माहवारी कम होने लगती है. कई बार तो प्रैगनैंट न होने या किसी मैडिकल हिस्ट्री की वजह से भी स्तनों में दूध बनाने लगता है और उन में दर्द भी महसूस होता है क्योंकि प्रोलैक्टिन का स्तर बढ़ने और कामेच्छा की कमी होने के साथ ही योनी में सूखापन आने से स्तनों के टिशू भी चेंज होने लगते हैं.

महिलाओं के उलट पुरुषों में माहवारी जैसा कोई भरोसेमंद लक्षण नजर नहीं आने की वजह से इस के वास्तविक कारण का पता लगाना बेहद मुश्किल होता है. उन में धीरेधीरे कामेच्छा की कमी आने, लिंग में पर्याप्त तनाव न आने, प्रजनन क्षमता में कमी आने और स्तनों का आकार बढ़ने जैसे लक्षण जरूर नजर आ सकते हैं. मगर कई बार ये कारक भी आसानी से नजर नहीं आते और उस की वजह से वास्तविक कारणों की पहचान नहीं हो पाती है.

महिलाओं में इस के संबंधित परिणाम

इस स्थिति में जैसे ही अंडाशय से ऐस्ट्रोजन का प्रोडक्शन प्रभावित होता है, बां झपन की संभावना बढ़ने के साथ ही ऐस्ट्रोजन की कमी के कारण बोन मिनरल डैंसिटी बीएमडी भी घटने लगती है और ओस्टियोपोरोसिस होने का खतरा भी बढ़ जाता है. ऐस्ट्रोजन हार्ट को बीमारियों से बचाने में भी बेहद महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, इसलिए इस के स्तर में असंतुलन पैदा होने से आगे चल कर हार्ट से जुड़ी बीमारियां होने का खतरा भी पैदा हो जाता है. पिट्यूटरी ट्यूमर की वजह से प्रोलैक्टिन का जरूरत से ज्यादा प्रोडक्शन होने के कारण सिर में तेज दर्द और नजर कमजोर होने के साथसाथ अन्य हारमोंस के प्रोडक्शन में भी कमी आ जाती है, जिस के चलते हाइपरथायरोडिज्म हो सकता है, जो बां झपन के एक और कारण के रूप में सामने आता है.

कैसे करें डायग्नोज

इस कंडीशन को डाइग्नोज करने के लिए सब से पहले तो मरीज की मैडिकल हिस्ट्री देख कर यह पता लगाया जाता है कि कहीं उसे पहले से ही अस्पष्ट कारणों के चलते स्तनों से दूध का स्राव होने या स्तनों का आकार बढ़ने की समस्या तो नहीं रही है या फिर अनियमित माहवारी अथवा बां झपन की समस्या पहले से तो नहीं रहती है.

पुरुषों में यह पता लगाना जरूरी होता है कि उन की सैक्सुअल फंक्शनिंग कहीं पहले से तो खराब नहीं रही है और स्तनों से दूध का स्राव होने की समस्या कहीं पहले से तो नहीं है. अगर मैडिकल हिस्ट्री से हाइपरप्रोलैक्टिनेमिया के होने का पता चलता है, तो सब से पहले ब्लड टैस्ट के जरीए यह पता लगाया जाता है कि सीरम प्रोलैक्टिन का स्तर कितना है. इस में खाली पेट खून की जांच कराने को प्राथमिकता दी जाती है. अगर सीरम प्रोलैक्टिन का स्तर ज्यादा है, तो फिर आगे अन्य जरूरी टैस्ट करवाए जाते हैं.

आमतौर पर माहवारी न होने की स्थिति में सब से पहले प्रैगनैंसी टैस्ट कराया जाता है. इस के अलावा थायराइड हारमोन के स्तर का पता लगाने के लिए थायराइड के टैस्ट करवाए जाते हैं ताकि यह साफ हो जाए कि मरीज को हाइपरथायरोडिज्म तो नहीं है. अगर प्रोलैक्टिन का स्तर बहुत ज्यादा है, तो उस की वजह से ट्यूमर होने की आशंका भी पैदा हो जाती है. ऐसे में ब्रेन और पीयूष ग्रंथियों का एमआरआई कराने की सलाह भी दी जाती है, जिस में हाई फ्रीक्वैंसी रेडियो तरंगों के जरीए टिशू की इमेज ली जाती है और ट्यूमर के आकार का पता लगाया जाता है.

क्या इलाज संभव है

इलाज का पहला कदम उन प्रमुख कारणों का पता लगाना है, जिन के चलते यह स्थिति पैदा हुई. ये कारण शारीरिक भी हो सकते हैं. कुछ विशेष प्रकार की दवा लेने की वजह से भी ऐसा हो सकता है. इस के अलावा थायराइड या हाइपोथैलिमिक डिसऔर्डर या पिट्यूटरी ट्यूमर या फिर किसी सिस्टेमिक डिजीज की वजह से भी ऐसा हो सकता है.

एक बार जब बीमारी की वास्तविक वजह का पता चल जाता है और किसी ट्यूमर के होने की संभावना खत्म हो जाती है, तो ऐसी दवा के जरीए उपचार शुरू किया जाता है, जो शरीर में प्रोलैक्टिन के स्तर में कमी लाती है. इस से एफएसएच, एलएच और ऐस्ट्रोजन का स्तर फिर से सामान्य होने लगता है. नतीजतन प्रजनन क्षमता फिर से पहले की तरह कायम हो जाती है और माहवारी भी नियमित रूप से होने लगती है.

   -डा. तनु बत्रा

आईवीएफ ऐक्सपर्ट, इंदिरा आईवीएफ हौस्पिटल, जयपुर. 

मनोवैज्ञानिक सेहत पर इनफर्टिलिटी का प्रभाव

इनफर्टिलिटी या बांझपन का इलाज करा रहे दंपतियों की संख्या तेजी से बढ़ी है. इसके कई कारण है, जिसमें अनुवांशिकता, जीवनशैली का तरीका और सवाईकल म्युकस जैसी समस्याएं, फाइब्रॉयड, एंडोमेट्रियोसिस, पेल्विक इंफ्लेमेटरी जैसी परेशानियां शामिल हैं. प्रजनन का चक्र किशोरावस्था के बाद और बीसवें साल शुरू होता है. 30 की उम्र के बाद, प्रजनन क्षमता कम होने लगती है  और अंडों की संख्या कम होने के साथ-साथ अंडों की गुणवत्ता भी कम होने लगती है. इस तरह की परेशानियां, तनाव और चिंता को बढ़ाती है. इसका हानिकारक प्रभाव रिश्तों और व्यक्तिगत विकास पर पड़ता है. इस बारे में बता रही हैं डायना क्रस्टा, चीफ साइकोलॉजिस्ट, नोवा आईवीएफ फर्टिलिटी.

बांझपन एक चिकित्सा स्थिति है जोकि आपके जीवन के कई पहलुओं को प्रभावित करता है. यह दूसरों के साथ आपके रिश्तों को, जिंदगी को लेकर आपके नजरिये और खुद के लिये आपकी सोच को प्रभावित कर सकता है. आप इन भावनाओं का सामना किस तरह करेंगे, वह आपके व्यक्तित्व और जीवन के अनुभवों पर निर्भर करता है. ज्यादातर लोग परिवार, दोस्तों, चिकित्सा देखभाल करने वालों और मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों के समर्थन से लाभ उठा सकते हैं. शुक्राणु, अंडा, या भ्रूण दान या गर्भकालीन वाहक जैसे बांझपन उपचार विकल्पों पर विचार करते समय, प्रजनन परामर्शदाता की सहायता प्राप्त करना विशेष रूप से सहायक हो सकता है. निम्नलिखित जानकारियां आपको यह फैसला लेने में मदद कर सकती हैं कि फर्टिलिटी संबंधी तनाव के इलाज के लिये या आपके उपचार के विकल्पों का चुनाव करने के लिये आपको प्रोफेशनल मदद की जरूरत है या नहीं.

कब दिखाएं इनफर्टिलिटी काउंसलर को?

पूरी दुनिया में बांझपन और उसके इलाज से भावनात्मक तनाव से गुजरने की वजह से, बांझपन से जूझ रहे दंपतियों को मनोवैज्ञानिक मदद प्रदान करने की सिफारिश की गई. इसके अलावा, कई सारे दंपतियों ने स्वयं भी मनोवैज्ञानिक मदद लेने की इच्छा जाहिर की है. बांझपन को जीवन में होने वाले प्रमुख तनावों में से  सबसे मुख्य कारणों में से एक माना गया है. इसे अक्सर आत्मविश्वास की कमी, वयस्क होने की तरफ कदम बढ़ाने की धारणा में व्यवधान, भविष्य के लिये योजना बनाने में असमर्थता, पहचान और दुनिया को लेकर राय में बदलाव के रूप में परिभाषित किया जाता है. साथ ही व्यक्तिगत, आपसी और सामाजिक रिश्तों में भी बदलाव के रूप में माना जाता है. बांझपन और इसके उपचार से जूझ रहे दंपतियों में तनाव और चिंता का स्तर काफी ज्यादा होता है. वैसे तो तनावपूर्ण स्थितियों में चिंता होना एक सामान्य प्रतिक्रिया है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय शोध में यह बात सामने आई कि आम आबादी की तुलना में बांझ दंपतियों में चिंता का स्तर कहीं ज्यादा होता है. प्रजनन समाधान जैसे एआरटी उपचार-संबंधी अनुभव के परिणाम अक्सर नकारात्मक भाव के रूप में आते हैं. दरअसल, गर्भधारण की अनिश्चितता के साथ-साथ उपचार की विफलताओं को लेकर निराशा की वजह से ऐसा होता है. इसके साथ ही, क्रॉनिक और गंभीर तनाव और मनोवैज्ञानिक बीमारियां, एआरटी उपचार की सफलता को काफी ज्यादा प्रभावित करती है, जिसमें फॉलो-अप संभवत: एक दुष्चक्र बना रही है.

विशिष्ट बांझपन-

तनाव के आयामों में सामाजिक चुनौतियां शामिल हैं (जैसे, अकेलापन; अलगाव महसूस होना; परिवार और दोस्तों के साथ वक्त बिताने में असहजता और तनाव महसूस होना; टिप्पणियों को लेकर संवेदनशीलता और बांझपन के रिमांडर्स), वयस्क के रूप में विकसित होने संबंधी चिंताएं (जैसे, अपनी पहचान पाने के लिये पितृत्व एक जरूरी पड़ाव और जीवन का मुख्य लक्ष्य), भावनात्मक निकटता और यौन सुख में कमी; आत्मविश्वास का कम होना. इसलिये, बांझपन से जूझ रहे दंपतियों के लिये विशेष सहायता समूहों  की जरूरत को काफी महत्व मिला है, खासकर आज के कोविड के समय में.

सहायता समूह किस तरह सहायता करने के तंत्र में मदद कर रहे हैं?

कई बार रोगियों और दंपतियों को उपचार के दौरान एक मनोवैज्ञानिक या थैरेपिस्ट के पास जाने के बारे में पूछा जाता है. हालांकि, बांझपन से जूझ रहे कई दंपति इच्छाओं को पूरा करने के क्रम में, अपनी भावनाएं प्रभावित दंपतियों से साझा करने के लिये आगे आए हैं. ऐसे में सहायता करने वाले कम्युनिटी ग्रुप एकजुट होते हैं और बांझपन के कलंक से बाहर आने में मदद कर सकते हैं. साथ ही इस ग्रुप ने अन्य दंपतियों के साथ समान अनुभवों को जानने का मौका दिया. इससे दंपतियों को यह समझने में मदद मिल सकती है कि बांझपन की समस्या से गुजरने वाले वे अकेले नहीं हैं, साथ ही यह एहसास दिलाया कि उनकी प्रतिक्रियाएं, भावनाएं और संघर्ष सामान्य हैं और इस तरह उनके अकेलेपन को कम किया.

सहायता करने के कई सारे मॉडल्स के साथ, विशेष सपोर्ट ग्रुप, तनाव के उनके कारकों से लड़ने में उनकी मदद करते हैं. सहायक मॉडल, इनफर्टिलिटी संबंधी तनाव के विभिन्न आयामों का प्रबंधन करने के साथ-साथ परेशानी के अनुरूप मदद विकसित करने में अहम भूमिका निभाता है. हालांकि, सपोर्ट ग्रुप भी गहराई में जाकर, आत्मनिरीक्षण, मूल्यांकन कर समस्या के मूल कारण का पता लगाते हैं और फिर मन को शांति मिलती है. रोगी के अनुरूप काउंसलिंग सेंटर्स, विभिन्न रोचक थैरेपीज जैसे फोकस ग्रुप चर्चा, व्यक्तिगत मूल्यांकन के जरिए उन्हें अपने डर, चिंताओं और घबराहट को बाहर निकालने में मदद करते हैं और संतुलित आहार, सोने के सेहतमंद रूटीन के साथ दंपतियों को सेहतमंद दिनचर्या बनाए रखने में मदद करते हैं. साथ ही उनकी मानसिक और शारीरिक समस्याओं को कम करते हैं.

लंबे समय तक इनफर्टिलिटी होने से दोनों ही पार्टनर में अकेलापन और टूट जाने का गंभीर अनुभव हो सकता है. बांझपन जीवन की सबसे निराशानजक समस्या है, जिसका सामना दंपति करते हैं. सेहत से जुड़ी ढेर सारी चर्चाओं और अनिश्चितताओं के साथ, यह बांझपन अधिकांश दंपतियों में भावनात्मक उथल-पुथल पैदा कर सकती है. संयोग से, बांझपन उपचार के लिये नई और ज्यादा प्रभावी तकनीकें और सहयोगी तंत्र, लगातार विकसित हो रहे हैं.

बांझपन का इलाज है न, पढ़ें खबर

जब गर्भनिरोधक के बिना 1 वर्ष तक कोशिश करने के बाद भी स्वाभाविक रूप से कोई विवाहित जोड़ा गर्भधारण करने में अक्षम रहता है तो उसे बां झपन कहा जाता है. भारत में 10 से 15% जोड़े बां झपन से पीडि़त हैं. यह कई कारणों से हो सकता है जैसे मधुमेह, उच्च रक्तचाप, थायराइड, मोटापा, हारमोनल समस्याएं और पौलिसिस्टिक  अंडाशय सिंड्रोम पीसीओएस.

इस के अलावा गलत लाइफस्टाइल की आदतें जैसे तंबाकू, शराब और खराब भोजन का सेवन और बिना शारीरिक मेहनत के जीवन जीने के परिणामस्वरूप होता है. यहां यह ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि बां झपन के कुल मामलों में एकतिहाई मामलों को महिला साथी, एकतिहाई मामलों में पुरुष साथी और बाकी मामलों में दोनों साथी इस में बराबर के भागीदार होते हैं. इसलिए यह सम झना आवश्यक है कि बां झपन सिर्फ एक महिला से जुड़ा मुद्दा नहीं है जैसाकि समाज अभी भी सोचता है.

अकसर देखा गया है कि पुरुष साथी में कई समस्याएं जैसे इरैक्टाइल डिस्फंक्शन यानी नपुंसकता और एजोस्पर्मिया यानी शुक्राणुओं की अनुपस्थिति होती है जिस से बां झपन की स्थिति आ जाती है. कुछ जोड़े समस्या की गहराई में पहुंचे बिना बच्चे पैदा करने की कोशिश करते रहते हैं. उन में से कई बाबाओं से भी संपर्क करते हैं और उन के समाधान के लिए  झाड़फूंक का सहारा लेते हैं.

सर्वोत्तम समाधान का विकल्प

बां झपन एक मैडिकल समस्या है और इसे दूर करने के लिए चिकित्सकीय समाधान की आवश्यकता होती है. दुनिया में 25 जुलाई, 1978 को पहला ‘टैस्ट ट्यूब बेबी,’ लुईस ब्राउन, पैदा हुई थी. लुईस का जन्म इनविट्रो फर्टिलाइजेशन या आईवीएफ प्रक्रिया से हुआ था. ‘इनविट्रो’ शब्द का अर्थ ‘किसी के शरीर के बाहर’ है और फर्टिलाइजेशन या निषेचन वह प्रक्रिया है जहां मादा का अंडा और पुरुष के शुक्राणु को जीवन बनाने के लिए एकसाथ फ्यूज किया जाता है. इस प्रकार अंडा और शुक्राणु शरीर के बाहर महिला के गर्भाशय के बजाय एक लैब में मिलते हैं और इसे बाद में गर्भाशय में डाल दिया जाता है.

यहीं से असिस्टेड रिप्रोडक्टिव टैक्नोलौजी यानी एआरटी का भी जन्म हुआ. आईवीएफ, एआरटी की कई विधियों में से सिर्फ एक प्रक्रिया है. पिछले 44 वर्षों में दुनिया तकनीकी रूप से काफी आगे निकल चुकी है जिस से कई और एआरटी विकल्प उपलब्ध हुए हैं जिन में इंट्रासाइटोप्लाज्मिक स्पर्म इंजैक्शन (आईसीएसआई) और इंट्रायुटराइन इनसेमिनेशन (आईयूआई) शामिल हैं.

आइए इन चिकित्सा समाधानों को सम झते हैं ताकि विवाहित लोग अपनी बां झपन की समस्याओं के सर्वोत्तम समाधान का विकल्प चुन सकें.

जब एक दंपती 1 वर्ष से अधिक समय से स्वाभाविक रूप से बच्चा पैदा करने में असमर्थ रहें तो सर्वप्रथम उन्हें एक बां झपन विशेषज्ञ से परामर्श करना चाहिए. हालांकि यहां यह ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि कुछ जोड़े अपने जीवन में अपनी इच्छा से बाद में गर्भधारण करना चाहते हैं, इसलिए 1 वर्ष की अवधि सभी जोड़ों के लिए लागू नहीं होती है. इस काउंसलिंग के दौरान दंपती से मैडिकल इतिहास पर चर्चा की जाती है. यहां यह जानना भी महत्त्वपूर्ण है कि बां झपन उपचार 100% सफलता की गारंटी नहीं देता है, इसलिए जोड़ों को इस प्रक्रिया के किसी भी जोखिम और दुष्प्रभावों को पहले ही जानना चाहिए.

ब्लड टैस्ट अल्ट्रासाउंड

इस के बाद विवाहित दंपती की समस्या की जड़ को सम झने के लिए रक्त परीक्षण (ब्लड टैस्ट) और स्कैन किए जाते हैं ताकि मधुमेह, उच्च रक्तचाप या थायराइड जैसी किसी भी पूर्व मौजूदा स्थिति को सम झा जा सके. हारमोन के स्तर और अल्ट्रासाउंड की जांच के लिए ब्लड टैस्ट भी किया जाता है ताकि यह जांचा जा सके कि महिला के गर्भाशय और अंडाशय में पीसीओएस, फाइब्रौएड्स या ऐंडोमिट्रिओसिस जैसी कोई वृद्धि है या नहीं. इस से यह पता लगाने में भी मदद मिलती है कि क्या महिला के अंडाशय में अंडे हैं जिन का उपयोग इलाज के लिए किया जा सकता है?

वीर्य विश्लेषण

वीर्य तरल पदार्थ है जिस में शुक्राणु होते हैं. शुक्राणुओं की संख्या, उन के आकार और उन की गति की जांच के लिए पुरुष साथी के वीर्य का विश्लेषण किया जाता है क्योंकि ये तीनों एक जोड़े की प्रजनन क्षमता के लिए आवश्यक हैं.

फौलोअप कंसल्टेशन

इन परीक्षणों के परिणाम घोषित होने के बाद विशेषज्ञ के साथ एक फौलोअप कंसल्टेशन फिक्स की जाती है. इस में निष्कर्षों पर चर्चा की जाती है जिस के बाद उपचार पर चर्चा होती है. इस में एक सामान्य चिकित्सक या ऐंडोक्राइनोलौजिस्ट के साथ फौलोअप शामिल हो सकती है जिस में किसी भी मौजूदा बीमारी के लिए दवा शुरू करने के लिए जो प्रजनन में बाधा उत्पन्न कर रही है पर चर्चा की जाती है.

ऐसा इसलिए है क्योंकि कई मामलों में अन्य बीमारियों के ठीक होने से दंपती जोड़े स्वाभाविक रूप से ही गर्भधारण कर लेते हैं. अन्यथा रोगियों के साथ एआरटी उपचार योजना पर चर्चा की जाती है, उन की सहमति ली जाती है और फिर उपचार शुरू होता है. कुछ मामलों में रोगियों को अधिक परीक्षण कराने के लिए भी कहा जा सकता है.

अंडाशय औषधि प्रयोग

इलाज के अंतर्गत महिला साथी को हारमोनल इंजैक्शन लेने की आवश्यकता होती है. एक सामान्य मासिकधर्म चक्र में हर महीने एक निश्चित संख्या में अंडा निकलता है. चूंकि एआरटी प्रक्रिया के लिए अधिक अंडों की उपलब्धता की आवश्यकता होती है, इसलिए हारमोनल इंजैक्शन द्वारा औषधि का प्रयोग यह सुनिश्चित करता है कि कई अंडे विकसित हों. महिला साथी को नियमित रूप से रक्त परीक्षण और अल्ट्रासाउंड की मदद से देखा जाता है कि दवाओं ने उसे कैसे प्रभावित किया है. फिर एक ट्रिगर इंजैक्शन दिया जाता है ताकि अंडे परिपक्व हो जाएं.

अंडा संग्रह/डिंब पिक और वीर्य संग्रह

अंडा संग्रह के दौरान मादा को ऐनेस्थीसिया के तहत रखा जाता है. अंडे की कल्पना करने के लिए योनि के माध्यम से एक अल्ट्रासाउंड छड़ी डाली जाती है जिस के बाद उन्हें सूई के साथ एकत्र किया जाता है. उसी दिन पुरुष साथी अपने वीर्य का नमूना प्रदान करता है. इस के बाद उन की गुणवत्ता की जांच की जाती है और अगले चरण के लिए केवल सर्वश्रेष्ठ वीर्य का ही उपयोग होता है.

फर्टिलाइजेशन और भू्रण स्थानांतरण

आईवीएफ और आईसीएसआई में फर्टिलाइजेशन की प्रक्रिया अलगअलग होती है. आईवीएफ में कई अंडों और शुक्राणुओं को फर्टिलाइजेशन के लिए एक इनक्यूबेटर में रखा जाता है.

आईसीएसआई में एक अच्छे शुक्राणु को अंडे में डाला जाता है. किसी भी प्रक्रिया में इस प्रकार बनने वाले भू्रण को 5-6 दिन यानी तब तक विकसित होने दिया जाता है जब तक कि वे ब्लास्टोसिस्ट नामक चरण तक नहीं पहुंच जाते. इन ब्लास्टोसिस्ट्स को प्रीइंप्लांटेशन जेनेटिक टैस्टिंग (पीजीटी) का उपयोग कर के उन के आनुवंशिक मेकअप के लिए जांचा जाता है जो किसी भी आनुवंशिक रूप से असामान्य ब्लास्टोसिस्ट को हटाने में मदद करता है.

ऐसा ही एक ब्लास्टोसिस्ट भू्रण स्थानांतरण नामक प्रक्रिया की मदद से गर्भाशय में स्थानांतरित किया जाता है. यह प्रक्रिया सुनिश्चित करती है कि एकसाथ कई भू्रण स्थानांतरित न हों वरना वे गर्भावस्था की जटिलताओं का कारण बन सकते हैं.

गर्भावस्था परीक्षण

स्थानांतरण के 12 दिनों के बाद गर्भावस्था परीक्षण किया जाता है ताकि यह देखा जा सके कि इस के परिणामस्वरूप गर्भावस्था हुई है या नहीं.

इंट्रायूटराइन इनसेमिनेशन (आईयूआई) आईवीएफ और आईसीएसआई के लिए आईयूआई चरण सही है. हालांकि आईयूआई के लिए प्रक्रिया थोड़ी अलग है. अंतर्गर्भाशयी गर्भाधान वह प्रक्रिया है जिस में अंडे को निषेचित करने के लिए सर्वोत्तम गुणवत्ता वाले शुक्राणुओं को गर्भाशय में इंजैक्ट किया जाता है. यहां उद्देश्य शुक्राणुओं को जितना हो सके अंडे के करीब लाना है. यह आईवीएफ और आईसीएसआई से अलग है क्योंकि अंडाणु और शुक्राणु दोनों को बाहरी वातावरण में संभाला जाता है.

आईयूआई आमतौर पर तब किया जाता है जब महिला साथी को ऐंडोमिट्रिओसिस, ग्रीवा संबंधी समस्याएं होती हैं, पुरुष बां झपन का अनुभव करता है या युगल अस्पष्टीकृत बां झपन का अनुभव करता है. यहां वीर्य का नमूना लिया जाता है जिसे सर्वोत्तम गुणवत्ता वाले शुक्राणुओं का चयन करने और मलबे और वीर्य द्रव को हटाने के लिए धोया जाता है.

ओव्यूलेशन का समय (जब हर महीने महिला के अंडाशय से अंडा निकलता है) अल्ट्रासाउंड और रक्त परीक्षण की मदद से महिला साथी की बारीकी से निगरानी की जाती है. कुछ मामलों में रोगी प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने के लिए प्रजनन क्षमता की दवा भी ले सकता है. स्थानांतरण के 12 दिनों के बाद एक गर्भावस्था परीक्षण लिया जाता है ताकि यह देखा जा सके कि इस के परिणामस्वरूप गर्भावस्था हुई है या नहीं.

सैल्फ साइकिल एवं डोनर साइकिल

जब एआरटी प्रक्रिया महिला और पुरुष भागीदारों के अंडों और शुक्राणुओं की मदद से की जाती है तो इसे सैल्फ साइकिल कहा जाता है. कुछ जोड़ों में या तो एक या दोनों फिर साथी पर्याप्त शुक्राणु या अंडे का उत्पादन नहीं कर सकते हैं. ऐसे मामलों में डोनर की आवश्यकता होती है.

यहां या तो अंडे या शुक्राणु या फिर दोनों ही डोनर से लिए जाते हैं, जैसा भी मामला हो, उस के अनुसार प्रक्रिया की जाती है. यह एक डोनर साइकिल है. इन विकल्पों पर बां झपन विशेषज्ञ द्वारा चर्चा की जाती है और इलाज शुरू करने से पहले रोगियों की सहमति ली जाती है.

-डा. क्षितिज मुर्डिया

सीईओ और सह संस्थापक, इंदिरा आईवीएफ.

कैसे बांझपन का कारण बन सकता है गर्भाशय फाइब्रॉयड

अगर गर्भाशय में किसी भी तरह का  सिस्ट या फाइब्रॉएड है तो ऐसी स्थिति में माँ बनना सम्भव नहीं हो पाता . इसके अलावा ओवरी सिंड्रोम, खून की कमी आदि कई ऐसी बीमारियां है जो हमे देखने मे तो छोटी लगती है पर बच्चा पैदा करने के लिए यही सब समस्याएं बहुत बड़ी बन जाती है.

गर्भाशय में विकसित होने वाले गैर-कैंसरकारी (बिनाइन) गर्भाशय फाइब्रॉयड, महिलाओं के बांझपन के सबसे प्रमुख कारणों में से एक हैं. इस बारे में बता रही हैं डॉ रत्‍ना सक्‍सेना, फर्टिलिटी एक्‍सपर्ट, नोवा साउथेंड आईवीएफ एंड फर्टिलिटी, बिजवासन.

गर्भाशय फाइब्रॉयड, फैलोपियन ट्यूब को बाधित करके या निषेचित अंडे को गर्भाशय में प्रत्यारोपित करने से रोककर प्रजनन क्षमता को बिगाड़ सकता है. गर्भाशय में जगह कम होने के कारण, बड़े फाइब्रॉयड भ्रूण को पूरी तरह से विकसित होने से रोक सकते हैं. फाइब्रॉयड प्लेसेंटा के फटने के जोखिम को बढ़ा सकता है क्योंकि प्लेसेंटा फाइब्रॉयड द्वारा अवरुद्ध हो जाता है और गर्भाशय की दीवार से अलग हो जाता है, जिसकी वजह से भ्रूण को ऑक्सीजन और पोषक तत्व कम मात्रा में मिलते हैं. इससे, समय से पहले जन्म या गर्भपात की संभावना काफी बढ़ जाती है.

गर्भाशय फाइब्रॉयड, गर्भाशय की मांसपेशियों के ऊतकों के बिनाइन (गैर-कैंसरकारी) ट्यूमर हैं. उन्हें मायोमा या लेयोमायोमा के रूप में भी जाना जाता है. फाइब्रॉयड तब बनते हैं जब गर्भाशय की दीवार में एकल पेशी कोशिका कई गुना बढ़ जाती है और एक गैर-कैंसरयुक्त ट्यूमर में बदल जाती है.

फाइब्रॉयड छोटे दाने के आकार से लेकर बड़े आकार के हो सकते हैं, जो गर्भाशय को विकृत और बड़ा करते हैं. फाइब्रॉयड का स्थान, आकार और संख्या निर्धारित करती है कि क्या वे लक्षण पैदा करेंगे या इलाज कराने की जरूरत है.

गर्भाशय फाइब्रायॅड, उनके स्थान के आधार पर वर्गीकृत किये जाते हैं. फाइब्रॉयड को तीन बड़ी श्रेणियों में विभाजित गया है:

1-सबसेरोसल फाइब्रॉयड:

यह गर्भाशय की दीवार के बाहरी हिस्से में विकसित होता है. इस तरह के फाइब्रॉयड ट्यूमर बाहरी हिस्से में विकसित हो सकते हैं और आकार में बढ़ सकते हैं. सबसेरोसल फाइब्रॉयड, ट्यूमर आस-पास के अंगों पर दबाव बढ़ाने लगता है, जिसकी वजह से पेडू (पेल्विक) का दर्द शुरूआती लक्षण के रूप में सामने आता है.

2-इंट्राम्यूरल फाइब्रॉयड:

इंट्राम्यूरल फाइब्रॉयड गर्भाशय की दीवार के अंदर विकसित होता है और वहां बढ़ता है. जब इंट्राम्यूरल फाइब्रॉयड का आकार बढ़ता है तो उसकी वजह से गर्भाशय का आकार सामान्य से ज्यादा हो जाता है. जैसे-जैसे इन फाइब्रॉयड्स का आकार बढ़ता है, उसकी वजह से माहवारी में रक्तस्राव ज्यादा होता है, पेडू (पेल्विक) में दर्द और बार-बार पेशाब जाने की समस्या हो जाती है.

3-सबम्यूकोसल फाइब्रॉयड:

ये फाइब्रॉयड गर्भाशय गुहा की परत के ठीक नीचे बनते हैं. बड़े आकार के सबम्यूकोसल फाइब्रॉयड, गर्भाशय गुहा के आकार को बढ़ा सकता है और फेलोपियन ट्यूब को अवरुद्ध कर सकता है, जिसकी वजह से प्रजनन में समस्याएं होने लगती हैं. इससे जुड़े लक्षणों में शामिल है, माहवारी में अत्यधिक मात्रा में रक्तस्राव और लंबे समय तक माहवारी आना.

कैसे पहचान करें-

पेडू की जांच, लैब टेस्ट और इमेजिंग टेस्ट के जरिये गर्भाशय फाइब्रॉयड का पता लगाया जाता है. इमेजिंग टेस्ट का इस्तेमाल, गर्भाशय की असामान्यताओं का पता लगाने के लिये किया जाता है. इसमें पेट का अल्ट्रासाउंड, योनि का अल्ट्रासाउंड और हिस्टेरोस्कोपी शामिल होती है. हिस्टेरोस्कोपी के दौरान हिस्टेरोस्कोप नाम की एक छोटी, हल्की दूरबीन को सर्विक्स के जरिये गर्भाशय में डाला जाता है. स्लाइन इंजेक्शन के बाद, गर्भाशय गुहा फैल जाएगी, जिससे स्त्रीरोग विशेषज्ञ गर्भाशय की दीवारों और फेलोपियन ट्यूब के मुख की जांच कर पाती हैं. कुछ मामलों में एमआरआई जैसे इमेजिंग टूल्स की जरूरत पड़ सकती है.

उपचार

गर्भाशय फाइब्रॉयड की दवाएं,उन हॉर्मोन्स को लक्षित करती हैं जोकि मासिक चक्र को नियंत्रित करता है, ताकि माहवारी के अत्यधिक रक्तस्राव जैसे लक्षण का उपचार किया जा सके. वैसे तो दवाएं, फाइब्रॉयड को हटा नहीं पातीं, लेकिन उन्हें छोटा कर देती हैं. फाइब्रॉयड्स को हटाने की सर्जरी में पारंपरिक सर्जरी की प्रक्रिया और कम से कम चीर-फाड़ वाली सर्जरी शामिल होती है. “लेप्रोस्कोपिक गाइनकोलॉजिक सर्जरी” जैसी सर्जरी न्यूनतम चीर-फाड़ वाली प्रक्रियाएं होती हैं, जिन्हें बिना ओपन कट किए, गर्भाशय फाइब्रॉयड को सावधानीपूर्वक निकालने के लिये किया जाता है. कैमरे के साथ एक छोटी-सी ट्यूब वाले लेप्रोस्कोप जैसे सर्जरी के उपकरणों को डालने के लिये एक छोटा-सा चीरा लगाया जाता है. इससे स्त्रीरोग विशेषज्ञ को मॉनिटरिंग स्क्रीन पर गाइनेकोलॉजिक अंगों को हर तरफ से देखने में मदद मिलती है. छोटा-सा चीरा लगाकर लेप्रोस्कोपिक सर्जरी करने से दर्द कम होता है और सुरक्षा बढ़ती है, साथ ही साथ ऑपरेशन के बाद की समस्याएं जैसे संक्रमण का दर कम होता है, खून कम बहता है और कम से कम फाइब्रोसिस का निर्माण होता है. सर्जरी के बाद, रोगियों को गर्भधारण के बारे में सोचने से पहले कम से कम एक महीने तक गर्भनिरोधक गोलियां लेने की सलाह दी जाती है.

गर्भाशय फाइब्रॉयड, उच्च एस्ट्रोजन स्तर, गर्भाशय संकुचन, और ओव्यूलेशन डिसफंक्शन जैसी असामान्यताओं का कारण बनता है. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि फाइब्रॉयड फैलोपियन ट्यूब को अवरुद्ध करके और निषेचित अंडे को गर्भाशय में प्रत्यारोपित करने से रोककर प्रजनन क्षमता को बिगाड़ सकता है. इसलिये, फाइब्रॉयड को खत्म करने के लिये उचित और समय पर उपचार महत्वपूर्ण है.

अब जुड़वां बच्चे पाना हुआ आसान

कोलकाता की रहने वाली 32 साल की रिया की शादी हुए 7 साल बीत चुके थे,लेकिन बच्चा नहीं हुआ, सबकी ताने से अधिक, उसे ही अपने बच्चे की चाहत थी. उन्होंने हर जगह लेडी डॉक्टर से जांच करवाई, पर वजह कोई भी नहीं बता पाया, क्योंकि सबकुछ नार्मल था. उसकी इस हालत को देख, पति राजीव ने रिया से अनाथ आश्रम से किसी अनाथ बच्चे को गोद लेने की सलाह दी. इससे उसका ये तनाव दूर हो सकेगा, लेकिन रिया अपना बच्चा चाहती थी, ऐसे में रिया की सहेली ने आईवीऍफ़ यानि इन विट्रो फ़र्टिलाईजेशन से उन्हें अपना बच्चा पाने की सलाह दी. रिया ने अपने पति से इस बारें में चर्चा की और अगले एक साल में ही रिया और राजीव, जुड़वाँ बच्चे, एक बेटी और एक बेटे के पेरेंट्स बने. दोनों को अब ख़ुशी का ठिकाना न रहा.

सही उम्र में शादी न कर पाना

दरअसल आज की भागदौड़ की जिंदगी में खुद को स्टाब्लिश करने की कोशिश में लड़के और लड़कियां सभी की शादी की उम्र अधिक हो जाती है, ऐसे में शादी के बाद वे नार्मल तरीके से बच्चा पैदा करने में असमर्थ होते है. बच्चा न हो, तो भी जिंदगी वीरान लगने लगती है, पति-पत्नी दोनों सहजता महसूस नहीं करते,आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता रहता है,दोनों तनावग्रस्त होते है,इससे गर्भधारण में समस्या आने लगती है, बात काउंसलर तक पहुँचने के बाद उन्हें पता चलता है कि उनके बीच में एक बच्चे की कमी है, जिसे एडॉप्शन,असिस्टेड कन्सेप्शन या आईवीऍफ़ के द्वारा ही पूरा किया जा सकता है. इसके अलावा आईवीऍफ़ बेहद खर्चीला प्रोसेस है, इसलिए एक बार में ही दो बच्चे पा लेने को पेरेंट्स बेहतर मानते है और इसके लिए ही वे डॉक्टर के पास आते है. साथ ही देर से बच्चे होने की वजह से दोनों बच्चे एक ही समय में पल जाते है, जो पेरेंट्स के लिए भी आसान होती है.

एक इंटरव्यू में निर्माता, निर्देशक और एक्ट्रेस फरहा खान ने कहा था कि मेरी शादी 32 साल की उम्र में हुई है, जबकि शिरीष कुंदर 25 साल के थे. मैंने सोच लिया था कि मेरा प्राकृतिक रूप से इस उम्र में गर्भधारण करना आसान नहीं, इसलिए मैंने आइवीऍफ़ का सहारा लिया और शादी के 4 साल बाद तीन बच्चों, एक बेटा और दो बेटी की माँ बनी. मैंने और शिरीष ने उस पल को बहुत एन्जॉय किया था, जब हमें एक नहीं बल्कि तीन बच्चों के पेरेंट्स बनने का मौका मिला.

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मल्टीपल प्रेगनेंसी

इस बारें में मुंबई की कोकिलाबेन धीरूबाई अंबानी हॉस्पिटल की आईवीऍफ़ कंसल्टेंट डॉ. पल्लवी प्रियदर्शिनी कहती है कि आईवीऍफ़ या असिस्टेड कन्सेप्शन, गर्भधारण का ऐसा तरीका है, जिसमें प्रकृति की मदद की जाती है. कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि प्राकृतिक रूप से गर्भधारण से जुड़वा बच्चें कम पैदा होतेहै,जबकि आईवीएफ में मल्टिपल प्रेगनेंसी होने की संभावना अधिक होती है, लेकिन सिंगल एम्ब्रायो ट्रांसफर को विकास कर सिर्फ एक रेसल्टिंग एम्ब्रायो को स्थानांतरित करने की कोशिश की जा रही है,जिससे एक बच्चा पाना आसान हो सकेगा. इसके अलावा एक बार किसी को जुड़वाँ बच्चे होने पर, प्राकृतिक रूप से भी अगली जेनरेशन में जुड़वां बच्चे होने की संभावना अधिक होती है.साथ ही किसी परिवार में बिना आईवीऍफ़ के भी जुड़वां बच्चें होने की प्रवृत्ति होती है,तो प्राकृतिक रूप से भी जुड़वां गर्भधारण करने की संभावना थोड़ी बढ़ जाती है.

सही उम्र है जरुरी

इसके आगे डॉ. पल्लवी कहती है कि अधिकतर महिलाएं आईवीऍफ़ की सही उम्र के बारें में पूछती है. मेरे हिसाब से आईवीऍफ़ हर किसी के लिए नहीं होता,इसके लिए उम्र बहुत महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि एक महिला में खासतौर से 35 वर्ष की आयु के बाद, ओवेरियन रिज़र्व कम हो जाता है. साथ ही सफल प्रत्यारोपण की संभावना भी उम्र के साथ कम हो जाती है. 35 वर्ष से कम उम्र की महिला में सिंगलटन प्रेगनेंसी (एक गर्भधारण में एक बच्चा पैदा होना) की संभावना 38 से 40 प्रतिशत अधिक हो सकती है, लेकिन 40 वर्ष से अधिक उम्र की महिला में गर्भधारण की संभावना 11प्रतिशत से भी कम हो सकती है.

है कुछ भ्रांतियां

आईवीएफ के बारे में कई गलतफहमियां हैऔर कुछ दम्पतियों को काफी चिंता भी रहती है. इस बारें में डॉक्टर कहती है कि कुछ पति-पत्नी को आईवीऍफ़ नैचुरल प्रोसेस न होने की वजह से वे इसे करने से डरती है, उन्हें लगता है कि इससे उनके बच्चे में कुछ न कुछ समस्या अवश्य आएगी. मैं इनमें से कुछ शंकाओं को दूर करने का प्रयास करूंगी, ताकि जरूरतमंद दंपतियों को आईवीऍफ़ के बारे में अपना निर्णय सही समय पर सही तरीके से ले सकें, उनके मन में किसी प्रकार की दुविधा न हो.

  • आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि आईवीएफ से होने वाला गर्भधारण और उससे होने वाला बच्चा मानसिक रूप से असामान्य होने की संभावना बढ़ सकती है,लेकिन सबूतों से पता चलता है कि आईवीएफ या आईसीएसआई के ज़रिए पैदा हुए बच्चों को बचपन मेंसाइकोसोशल बीमारी का कोई बड़ा खतरा नहीं होता. कुछ न्यूरोडेवलपमेंटल में देर हो सकती है, लेकिन इसका कारण आईवीएफ या आईसीएसआई की प्रक्रिया नहीं, बल्कि समय से पहले प्रसव (प्रीमैच्यूअर डिलीवरी) हो सकता है.

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करें डॉक्टर से संपर्क 

डॉ. पल्लवी आगे कहती है कि अगर किसी दंपति ने एक वर्ष से अधिक समय तक प्राकृतिक रूप से गर्भधारण करने की कोशिश की है, यदि महिला की उम्र 35 से कम है या 6 महीने के बाद उसकी उम्र 35 से ज़्यादा होने वाली है, तो उन्हें फर्टिलिटी स्पेशलिस्ट से सलाह लेनी चाहिए, ताकि उनके अनुसार हर दंपति की व्यक्तिगत इलाज की जा सकें. अधिक देर होने पर आईवीऍफ़ भी अपनी पूरी क्षमता से मदद नहीं कर सकता.

बच्चा न होना बदनसीबी नहीं

मातृत्व एक ऐसा सुख है जिस की चाह हर औरत को होती है? शादी के बाद से ही औरत इस ख्वाब को देखने लगती है. लेकिन कहते हैं न कि ख्वाब अकसर टूट जाते हैं. हां कई बार कुछ कारणों से या किसी समस्या की वजह से अगर कोई औरत मां बनाने के सुख से वंचित रह जाती है तो उस से बड़ा सदमा और दुख उस के जीवन में कुछ और नहीं होता. दुनिया मानो जैसे उस के लिए खत्म सी हो जाती है.

उस पर अगर उसे बांझ, अपशकुनी, मनहूस और न जाने कैसेकैसे ताने सुनाने को मिलें तो उस के लिए कोई रास्ता नहीं बचता. ताने देने वालों में बहार वाले ही नहीं बल्कि उस के अपने ही घर के लोग शामिल होते हैं.

जैसे ही एक नवयुवती को विवाह के कुछ साल बाद पता चलता है कि वह मां नहीं बन सकती तो आधी तो वह वैसे ही मर जाती है बाकी रोजरोज के अपनों के ताने मार देते हैं. टीवी पर दिखाए गए एक सीरियल ‘गोदभराई’ में घर की बहू खुद बांझ न होने के बावजूद अपने पति की कमी की वजह से मां नहीं बन पाती. इसी कारण उसे पासपड़ोसियों के ताने सुनने पड़ते हैं जिस वजह से वह दुखी होती है. उस के अपने ही उसे नीचा दिखने का कोई मौका नहीं छोड़ते. गलती किसी की भी हो ताने हमेशा उसे ही सुनने पड़ते हैं.

औरतों के खिलाफ प्रचार

टीवी पर दिखाए जाने वाले सोप ओपेरा तो उन औरतों के खिलाफ प्रचार करते हैं जो मां नहीं बन पातीं और लोग इसे बड़े चाव से देखते हैं. यह मनोरंजन के लिए कहानी ही नहीं है बल्कि इस में कहीं न कहीं समाज की सचाई छिपी हुई है. वह दर्द है जिसे बहुत सारी महिलाओं को सहना पड़ता है.

अब सुनीता का ही उदाहरण ले लीजिए. इन की शादी को 4 साल हो गए और शादी के 6 महीने बाद से ही सास को अपने पोतेपोतियों को खिलने की इच्छा होने लगी और फिर देखते ही देखते 4 साल बीत गए. बीच में सुनीता ने कई टैस्ट भी करवाए जिन का नतीजा सिर्फ यह बयां करता है कि वह मां नहीं बन सकती और बस फिर शुरू हो गया आईवीएफ सैंटरों के चक्कर लगाने का. उस के गर्भाशय में ही कमजोरी है जिस से वह मां नहीं बन सकती. तानों इस सिलसिले में सिर्फ सास ही नहीं बल्कि सुनीता की ननद, देवरानी और पति भी इस में शामिल हैं.

असल में दोस्तों और सहेलियों के बीच भी ऐसी औरतें कटीकटी सी रहती हैं, क्योंकि उन की बातें तो बच्चों के बारे में ही होती हैं. परिवार और दूसरों के ताने तो फिर भी वे सह लेतीं पर पति के भी साथ न देने पर जैसे उन पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा हो.

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मां न बन पाने का गम तो उन्हें पहले ही था पर पति की बेरुखी ने और तोड़ कर रख दिया. बुरे समय में आखिर दोनों एकदूसरे के सुखदुख के साथी होते हैं पर किसी एक के बुरे समय में दूसरे का साथ न होना तोड़ कर रख देता है.

अनचाहा दर्द

सुनीता अपना दर्द बयां करते हुए कहती हैं कि शुरुआत में तो वे अपनी ससुराल वालों के तानों से परेशान हो कर कई ओझओं और तांत्रिकों के पास गईं जिन्होंने उन्हें कई पूजापाठ और दान करने को कहा. उन्होंने सब किया पर फिर भी उस का कोई नतीजा नहीं निकला इन सब के नाम पर उन ओझओं और तांत्रिकों ने उन के परिवार वालों से हजारों रुपए वसूले पर उस का फायदा कुछ नहीं हुआ.

फिर उन लोगों ने उन्हें श्रापित बताया और कहा कि भगवान ही नहीं चाहते कि उन्हें कोई औलाद हो. आईवीएफ सैंटरों में जो पैसा खर्च हुआ वह अलग.

फिर क्या था इन सब के बाद तो परिवार वाले उन्हें और ज्यादा ताने देने लगे और नफरत करने लगे. सास तो पति की दूसरी शादी तक करवाना चाहती थीं पर उन्हें जब पता चला कि तलाक आसान नहीं है और कहीं वे पुलिस में चली गईं तो चुप हो कर रह गईं. सब लोग उन से दूरी बनाने लगे और हर शुभ काम से भी दूरी रखी जाने लगी. फिर धीरेधीरे वे भी खुद को ही दोष देने लगीं. उन्हें लगने लगा कि वे मनहूस हैं. कई बार मन में खयाल आने लगा कि कहीं जा कर आत्महत्या कर लें.

मगर एक दिन सुनीता की मुलाकात अपनी सहेली से हुई जिस के समझने पर सुनीता का खोया आत्मविश्वास लौटने लगा. सुनीता की सहेली ने समझया कि वह खुद को मनहूस न मान कर हालात का सामना करे. अगर वह खुद को ही मनहूस समझने लगेगी तो बाहर वाले तो उसे ताने देंगे ही.

उस की सहेली ने समझया कि खुद को मनहूस समझने से कुछ नहीं होगा उलटा खुद का आत्मविश्वास कम होगा. बच्चे होने और न होने से कोई मनहूस नहीं हो जाता. तांत्रिकों को यह कैसे पता हो सकता है कि तुम श्रापित हो.

अंधविश्वास भरी बातें

बस फिर क्या था सुनीता को इस बात का एहसास हुआ की वाकई में इस में उन की कोई गलती नहीं है और न ही वे मनहूस है और न ही अपशकुनी. पहले सुनीता को इस बात का एहसास हुआ और फिर उन्होंने सोचा कि अब इस बात का एहसास वे अब अपने पति को भी करवाएंगी और फिर अपने ससुराल वालों को.

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सुनीता को तो इस का मौका मिला और उन्हें उन की सहेली का सहारा भी जो उन की जिंदगी में एक उम्मीद की किरण ले कर आया वरना शायद उन्होंने खुदकुशी कर ली होती या पूरी जिंदगी खुद को कोसतेकोसते बितातीं लेकिन आज भी कई महिलाएं ऐसी हैं जो पूरे परिवार के ताने सुनसुन कर जी रही हैं. न ससुराल और समाज में उन्हें इज्जत मिलती है और न ही पति का प्यार. फिर भी वे अपने रिश्ते निभाती हैं और उफ तक नहीं करतीं.

जरा सोचिए क्या खुद को मनहूस समझना या खुद को दोष देना वह भी उस बात के लिए जिस में आप का कोई कुसूर नहीं है और न ही कोई दोष ठीक है? तांत्रिक लोग सिर्फ आप की भावनाओं का फायदा उठा कर पैसा ऐंठने के लिए श्राप या पाप जैसी अंधविश्वास भरी बातें आप के दिमाग में डालते हैं. विडंबना तो यह है कि पढ़ेलिखे लोग भी आजकल इन सब बातों में यकीन रखते हैं और घर की बहुओं को ताने देते हैं, जबकि आजकल विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कि हर चीज का इलाज संभव है. तांत्रिकों और बाबाओं की बातों में आने के बाद के बजाय महिलाओं को अकेला बिना बच्चों के जीना सीखना होगा. फिर यह न भूलें कि वृद्धावस्था में बच्चों का भी भरोसा नहीं रहता कि वे साथ रहेंगे.

बढ़ती उम्र बांझपन का कारण तो नहीं बन जाएगी?

सवाल-

मेरी उम्र 34 साल है. अगले 5 सालों तक मैं और मेरे पति दोनों कैरियर पर फोकस करना चाहते हैं. कहीं बढ़ती उम्र बांझपन का कारण तो नहीं बन जाएगी और हम अपनी प्रजनन क्षमता कैसे सुरक्षित रख सकते हैं?

जवाब- 

34 साल महिलाओं के लिए प्रजनन क्षमता के हिसाब से एक महत्त्वपूर्ण उम्र है, क्योंकि हर महिला एक निश्चित संख्या में अंडों के साथ जन्म लेती है, जिसे ओवेरियन रिजर्व कहते हैं. उम्र के साथ यह रिजर्व घटता जाता है और 35 के बाद ये ओवेरियन रिजर्व तेजी से कम होने लगते हैं. इसलिए

35 के पहले ही फैमिली प्लानिंग कर लेनी चाहिए. बहुत देर नहीं करनी चाहिए. लेकिन आज कई लोग बहुत सारे कारणों से 35 के बाद फैमिली प्लानिंग करते हैं.

ऐसी स्थिति में हमारे पास कई विकल्प उपलब्ध हैं, जैसे एग फ्रीजिंग और ऐंब्रयो फ्रीजिंग आदि. अगर आप यह विकल्प नहीं चुनना चाहती हैं, तो एएमएच ब्लड टैस्ट करा लें, जिस से आप को पता चल जाएगा कि आप की प्रजनन क्षमता कैसी है और आप कितना डिले कर सकती हैं. इस के अलावा आप अपने खानपान पर ध्यान दें. अपनी डाइट में फल, सब्जियां, सूखे मेवे, खजूर आदि शामिल करें. ये सेहत के लिए जरूरी हैं और अंडाशय और गर्भाशय की सेहत के लिए भी महत्त्वपूर्ण हैं. अपनी प्रजनन क्षमता को बेहतर बनाए रखने के लिए शराब और धूम्रपान से दूर रहें, क्योंकि इन का सीधा प्रभाव अंडों और गर्भाशय पर पड़ता है.

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महिलाओं के जीवन में मां बनना सबसे बड़ा सुख माना जाता है लेकिन आजकल की आधुनिक जीवनशैली और अन्‍य कारणों की वजह से अब महिलाओं में बांझपन यानि इनफर्टिलिटी की समस्‍या बढ़ रही है. अगर आप भी बांझपन का शिकार हैं या इससे बचना चाहती हैं तो आइए जानते हैं औनलाइन हेल्थकेयर कंपनी myUpchar से इसके कारण, लक्षण और इलाज के बारे में.

पूरी खबर पढ़ने के लिए- आधुनिक महिलाओं में बांझपन की बीमारी का कारण और निदान

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz
 
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सही समय पर हो इलाज तो दूर होगी इन्फर्टिलिटी

शादी के बाद कपल्स सारी कोशिश करके भी मां-बाप नहीं बन पाते हैं तो इसकी वजह इन्फर्टिलिटी यानी बांझपन को माना जाता है. इसमें बच्चा पैदा करने की क्षमता कम हो जाती है या फिर पूरी तरह खत्म हो जाती है.

आमतौर पर शादी के एक से डेढ़ साल बाद अगर बिना किसी प्रोटेक्शन के कपल्स रिलेशनशिप बनाने के बाद भी मां-बाप नहीं बन पाते हैं तो मेडिकली इन्हें इन्फर्टिलिटी का शिकार माना जाता है. इसमें समस्या महिला और पुरुष दोनों में हो सकती है.

गाइनोकोलॉजिस्ट का कहना है कि इन्फर्टिलिटी की कई वजहें हैं. इसमें सबसे बड़ी वजह देरी से शादी है. डॉक्टर का कहना है कि 20 से 35 साल तक महिलाओं की उम्र रीप्रोडक्टिव मानी जाती है. डॉक्टर का कहना है कि उम्र की वजह से महिलाओं में प्रेग्नेंसी के लिए जरूरी अंडे की भी कमी हो जाती है. 35 साल के बाद अंडे कम होना आम बात है.

लाइफस्टाइल भी है एक कारण

एक्सपर्ट्स का कहना है कि लाइफस्टाइल भी एक वजह बन रही है. देर रात तक जागना, स्मोकिंग, अल्कोहल लेना, डायबिटीज, स्ट्रेस की वजह से बांझपन की समस्या हो सकती है. इसमें से एक पॉलीसिस्टिक ओवरियन डिजीज भी है, जिसकी वजह से महिलाओं मे बहुत-सी बीमारियां आम हो गई हैं.

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60 से 70 प्रतिशत महिलाओं में ओवुलेशन की क्रिया ही नहीं होती. वजन बढ़ना और एक्सरसाइज न करने से भी सही मात्रा में हार्मोन नहीं बन पाते. इसके अलावा, इंडोक्राइन डिसऑर्डर जिसकी वजह से थायराइड जैसी समस्या हो जाती है. इसे कंट्रोल किए बिना बच्चा पैदा नहीं किया जा सकता है. डॉक्टर का कहना है कि बांझपन के अधिकांश कारण का इलाज है. सही समय पर डॉक्टर के पास जाएं.

ट्यूब ब्लॉक होना

कई बार इन्फेक्शन की वजह ट्यूब ब्लॉक हो जाना भी इसकी बड़ी वजह है. पेलिवक इन्फेक्शन और टीबी की वजह से यह ट्यूब ब्लॉक हो जाता है.

फाइब्रायड बनना भी वजह

आजकल महिलाओं में फाइब्रायड बनने की भी वजह से बांझपन देखा जा रहा है. पिछले कुछ सालों में फाइब्रायड बनने के मामले में काफी तेजी देखा जा रहा है. इसके अलावा इंडोमेट्रोसियोसिस की समस्या भी है.

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सेल्फ-साइकल IVF: किसे इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है?

जब कोई भी जोड़ा (कपल) इनफर्टिलिटी (बांझपन) की वजह से बच्चा नहीं पैदा कर पाता है तो उनके लिए यह बहुत ही दुःख की बात होती है. बच्चा न पैदा कर पाने की वजह से जोड़ों को कई सारी भावनाओं और बांझपन के कलंक को झेलना पड़ता है. इससे सबसे ज्यादा महिलाएं प्रभावित होती हैं.

इनफर्टिलिटी का डायग्नोसिस और ट्रीटमेंट मानसिक और शारीरिक दोनों रूप से चुनौतीपूर्ण होता है.  इनफर्टिलिटी ट्रीटमेंट के सफल होने का दर कई सारे कारणों पर निर्भर करता है. जिसमे प्रभावित जोड़ों की उम्र, इनफर्टिलिटी होने का कारण के साथ-साथ इसके लिए किस तरह का इलाज किया जा सकता है, यह सभी कारण भी शामिल होते है.

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डोनर साइकल आईवीएफ या सेल्फसाइकल को समझना

समय के साथ.साथ इनफर्टिलिटी के ट्रीटमेंट में भी उन्नति हुई है.जिसकी वजह से इसके सफल होने की दर में सुधार हुआ है. ट्रीटिंग फिजिसियन होने के नाते हमारे पास व्यक्तिगत (इंडीविजुअल) जोड़ों के लिए इनफर्टिलिटी के ट्रीटमेंट को पर्सनलाइज्ड करने के लिए कई विकल्प मौजूद हैं. तकनीक में कई सारी उन्नति हुई है और रोग के प्रति हमारी समझ भी बढ़ी है. इन विट्रो फर्टिलाइज़ेशन (आईवीएफ) सबसे विकसित ट्रीटमेंट विकल्पों में से एक माना जाता है. आईवीएफ को “सेल्फ-साइकल आईवीएफ” या “डोनर साइकल आईवीएफ” के रूप में जोड़ों की यूनीक स्थिति के आधार पर उनका इलाज किया जाता है.

अगर हम साधारण शब्दों में कहें तो सेल्फ-साइकल आईवीएफ में जोड़ों के खुद के गैमेट्स (स्पर्म या अण्डों) का इस्तेमाल किया जाता है. जबकि डोनर साइकल आईवीएफ में डोनर स्पर्म या डोनर अंडा का इस्तेमाल किया जाता है. इसलिए इसे डोनर साइकल आईवीएफ कहा जाता है. डोनर साइकल आईवीएफ के सफल होने की दर सेल्फ-साइकल आईवीएफ की तुलना में ज्यादा होती है. लेकिन इस प्रक्रिया से जो बच्चा पैदा होता है उसमे बायोलोजिकल माता-पिता का जन्मजात डीएनए नहीं होता है. इसलिए सेल्फ-साइकल आईवीएफ, जिसमे बच्चा बायोलोजिकल माता-पिता के डीएनए से पैदा होता है, लोग वह ज्यादा कराना पसंद करते हैं. जब यह किसी क्लिनिकल दिक्कत की वजह से सफल नहीं होता है तो वह डोनर साइकल आईवीएफ ट्रीटमेंट को चुनते है. इलसिए यह जरूरी है कि प्रभावित जोड़ा इसके बारें में जागरूक हो और इन दोनों आईवीएफ विकल्पों को चुनने से पहले उन्हें इसके लाभ और हानि के बारे में विधिवत जानकारी होनी चाहिए.

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जोड़ों के लिए किसी एक विकल्प पर मौहर लगाना आसान नहीं होता है. इसके लिए उन्हें किसी अनुभवी इनफर्टिलिटी एक्सपर्ट से सलाह लेनी चाहिए और उनके लिए कौन सा विकाल्प ज्यादा बेहतर होगा इसको समझना चाहिए ताकि ट्रीटमेंट के सफल होने संभावना ज्यादा हो सके.

सेल्फसाइकल से किसको सबसे ज्यादा फायदा होता है?

ज्यादातर जोड़ों के लिए पहली बार अपना ट्रीटमेंट शुरू कराने के लिए उनके लिए सेल्फ-साइकल ट्रीटमेंट सबसे बेहतर विकल्प होता है. हालांकि कोई भी जोड़ा सेल्फ-साइकल आईवीएफ से लाभान्वित नहीं हो सकता है अगर उसमे नीचे बताई गई बाते लागू होती हैं-

  1. जब महिला की उम्र 42 से ज्यादा होती है तो उसके अंडे की क्वालिटी और क्वांटिटी उम्र की वजह से कम होने लगती है. सेल्फ-साइकल आईवीएफ जवान महिलाओं में ज्यादा सफल होता है. जब महिला की उम्र 35 के पार होती है तो इसके सफल होने की दर घटती जाती है.
  2. जब पुरुष में स्पर्म काउंट जीरो होता है खासकर उन पुरुषों में जिनमे – एक्सट्रैक्टिंग स्पर्म्स (एक्स-टेस्टिकुलर बायोप्सी) सर्जिकल ट्रीटमेंट असफल हो चुका होता है उनमे स्वस्थ स्पर्म नहीं होते हैं ऐसे पुरषों में सेल्फ-साइकल आईवीएफ सफल नहीं होता है.
  3. उन जोड़ों में जिनमे पिछले ट्रीटमेंट के रिकार्ड्स से स्पर्म और अण्डों की क्वालिटी ख़राब सत्यापित हो चुकी होती है उनमे सेल्फ-साइकल आईवीएफ सफल नहीं होता है.

इस प्रकार, यह बहुत जरूरी है कि प्रभावित जोड़ें खुद से इसके बारें में जाने और जब भी बात सेल्फ-साइकल आईवीएफ और डोनर साइकल आईवीएफ चुनने की आये तो किसी भी ट्रीटमेंट के फैसले पर पहुँचने से पहले किसी अनुभवी इनफर्टिलिटी एक्सपर्ट से सलाह लें.

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नोवा आईवीएफ के फर्टिलिटी कंसल्टेंट डॉ पारुल कटियार से बातचीत पर आधारित.

World Ivf Day 2020: जानें क्या है इनफर्टिलिटी के कारण

मां बनने का एहसास हर महिला के लिए सुखद होता है. लेकिन यदि किसी कारण से एक महिला मां के सुख से वंचित रह जाए तो उसके लिए उसे ही जिम्मेदार ठहराया जाता है. हालांकि, कंसीव न कर पाने के कई कारण होते हैं लेकिन यह एक महिला के जीवन को बेहद मुश्किल और दुखद बना देता है. दरअसल, हमारे देश में आज भी बांझपन को एक सामाजिक कलंक के रूप में देखा जाता है. इसका प्रकोप सबसे ज्यादा महिलाओं को झेलना पड़ता है. जब भी कोई महिला बच्चे को जन्म नहीं दे पाती है तो समाज उसे हीन भावना से देखने लगता है. इस कारण से एक महिला को लोगों की खरी-खोटी सुननी पड़ती है जिसका उसके मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ता है. ऐसी महिलाएं उम्मीद करती हैं कि लोग उनकी स्थित और भावनाओं को समझेंगे. परिवार और दोस्तों से बात करके उन्हें कुछ हद तक अच्छा महसूस होता है इसलिए ऐसे समय में बाहरी लोगों से मिलने-जुलने से बचें क्योंकि गर्भवती महिला या बच्चों को देखकर आप डिप्रेशन का शिकार हो सकती हैं.

विश्व  आई  वी एफ दिवस  के अवसर पर, हम महिलाओं की इनफर्टिलिटी से संबंधित गलत धारणाओं को खत्म करने का उद्देश्य रखते हैं. असिस्टेड रिप्रोडक्टिव तकनीक (एआरटी) के क्षेत्र में हुई प्रगति के साथ, इनफर्टिलिटी से संबंधित कई समस्याओं का इलाज संभव है. इस प्रकार इलाज की मदद से अब कई महिलाएं संतान सुख प्राप्त कर सकती हैं.

महिलाओं में इनफर्टिलिटी के कारण

  • पेल्विक पैथलॉजी (ओवरियन, ट्यूबल, गर्भाशय), यूट्रीन फाइब्रॉयड, एडिनोमायोसिस, कंजेनिटल यूट्रीन एनमेलीज़, यूट्रीन अढ़ेशन, यूट्रीन पॉलिप्स, क्रोनिक एंडोमेट्रैटिस, ट्यूबल ब्लॉकेज, ओव्युलेट्री डिस्फंक्शन, पीसीओएस आदि बीमारयां.
  • अधिक उम्र होने पर महिलाओं के अंडों की गुणवत्ता खराब होने लगती है.
  • कामकाजी महिलाएं गर्भधारण को टालती रहती हैं लेकिन लोग उसे बांझ समझने लगते हैं.
  • जीवनशैली बदलाव जैसे कि धूम्रपान, शराब, तंबाकू का सेवन, शारीरिक गतिविधियों में कमी, नींद की कमी, खराब डाइट, मोटापा और तनाव आदि इनफर्टिलिटी को बढ़ावा देते हैं.
  • प्रदूषण और व्यावसायिक खतरा
  • आनुवांशिक विकार- क्रोमोसोमल असामान्यताएं, अपरिचित इनफर्टिलिटी, पुरुषों में समस्या, इनफर्टिलिटी का पारिवारिक इतिहास, असामान्य समस्याएं आदि.

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एआरटी- इनफर्टिलिटी वाली कई महिलाओं के लिए वरदान

एआरटी तकनीक आईवीएफ यानी इन विटरो फर्टिलाइजेशन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें अण्डों व शुक्राणुओं को लैब में फर्टिलाइज किया जाता है. लैब में महिला के स्वस्थ्य अंडे को उसके पति के स्पर्म के साथ मिलाकर भ्रूण तैयार किया जाता है, जिसे तैयार होने में कम से कम 3-4 दिनों का समय लगता है. भ्रूण तैयार होने के बाद उसे महिला के गर्भ में इंप्लान्ट कर दिया जाता है. कुछ ही दिनों में महिला प्रेग्नेंट हो जाती है. इस तकनीक को आईसीएसआई (इंट्रा साइटोप्लास्मिक स्पर्म इंजेक्शन), ब्लास्टोसिस्ट कल्चर, लेज़र असिस्टेड हैचिंग, टीईएसई (टेस्टीकुलर स्पर्म एक्सट्रेक्शन) आदि के साथ पूरा किया जाता है.

आईवीएफ बंद ट्यूब को खोलने तक ही सीमित नहीं है बल्कि इससे कमज़ोर ओवरी, पीसीओसी, पीओआई, एंडोमेट्रियोसिस, यूट्रीन फाइब्रॉयड्स, एडीनोमायोसिस, खराब सीमेन, प्रार्थमिक या माध्यमिक इनफर्टिलिटी, अपरिचित फर्टिलिटी आदि वाले लोगों को भी फायदा मिलता है.

इनफर्टिलिटी के लिए केवल महिला जिम्मेदार नहीं होती

लोगों में एक धारणा बनी हुई है कि यदि कोई कपल कंसीव नहीं कर पा रहा है तो समस्या महिला में है. जबकि असल में देखा जाए तो 40-50% मामलों में कंसीव न करने पाने का जिम्मेदार पुरुष पार्टनर होता है. अक्सर इस बात का पता तब चलता है जब जांच के बाद महिला में कोई कमी नहीं दिखती है. जब डॉक्टर पुरुष पार्टनर को टेस्ट करवाने की सलाह देते हैं तो समस्या पुरुष पार्टनर में निकलती है.

जब कोई महिला पहली बार जांच के लिए जाती है तो या तो वह अकेली होती है या उसके साथ परिवार का कोई अन्य सदस्य होता है. दुर्भाग्य से पुरुष पार्टनर जांच के लिए उसके साथ नहीं जाता है. वहीं यह भी देखा गया है कि पुरुष अपने सीमेन का सैंपल चुपचाप अकेले में देने जाता है जिससे वह इस बात को अन्य लोगों से छिपा सके.

कपल को यह समझना चाहिए कि जांच के लिए उन दोनों का मौजूद होना जरूरी है विशेषकर आइवीएफ ट्रीटमेंट के दौरान. आईवीएफ केवल जरूरी जांचों को महत्व देता है जिससे यह तकनीक लोगों को मंहगी न लगे और वे आसानी से इसका लाभ उठा सकें.

आवीएफ में की गई जांचे इनफर्टिलिटी के कारण की पहचान करती हैं जिसकी मदद से डॉक्टर एक उचित इलाज का चयन कर पाता है. इसके लिए ब्लड टेस्ट और अल्ट्रासाउंड की मदद से ओवरी की जांच की जाती है, यूट्रीन की जांच अल्ट्रासाउंड और हिस्टीरोस्कोपी से की जाती है और सीमेन की जांच की जाती है.

इंदिरा आईवीएफ हास्पिटल के आईवीएफ एक्सपर्ट डॉ.सागरिका अग्रवाल.

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