गरीबी बन रही सजा

ऊपर आप ने कंबोडिया के अंगकोरवत्त और किलिंग के बारे में पढ़ा. अब यह भी जान लें कि वहां गरीबी भी है और नौकरानियों के लिए वहां की लड़कियों को स्मगल किया जाता है. इस रैकेट में ताईवानी औरत लिन यू शिन को पकड़ा गया है और उसे नीदरलैंड में 10 साल की सजा सुनाई गई है. रांची की लड़कियों के व्यापार पर क्या किसी को इस तरह की सजा मिली है?

स्वाद के लिए मत मारो मुझे

पैक्ड मछली रू 850 किलोग्राम, पैक्ड बकरे का मांस रू 800 किलोग्राम, पैक्ड आदमी रू 20 किलोग्राम. यह नया सुपर मार्केट फ्रांस में दिखा जहां जानवरों के प्रति हिंसा के विरोधी आंदोलनकारी खुद को पैक कर के मीट खाने वालों को शर्मिंदा करने की कोशिश कर रहे हैं.

यह कैसी शानोशौकत

जानवरों पर अत्याचार अभी भी कम नहीं हो रहे. अमीर लोग दुर्लभ जानवरों की हड्डियों, खालों, दांतों और यहां तक कि खोपडि़यों तक का इस्तेमाल महज सजावट के लिए करने से बाज नहीं आ रहे. आस्ट्रेलिया के कस्टम विभाग ने औरेंगुटन किस्म के बंदर की नक्काशी की हुई खोपडि़यां पकड़ीं. जानवरों को बचाना है तो अमीरों को उन्हें शान की चीज समझना बंद करना होगा.

अब स्मृतियां ही शेष

1975 से 1979 यानी केवल 4-5 वर्ष में कंबोडिया की कट्टर खामेर रूज सरकार ने लाखों को बेघर कर दिया और लाखों को मार डाला. उन की याद में जगहजगह अब स्मृतियां बची हैं जहां लोग अपने प्रियजनों को श्रद्धांजलि देने आते हैं. आश्चर्य की बात तो यह है कि अंगकोरवत्त मंदिरों के लिए प्रसिद्ध यह देश अब साफसुथरा भला सा लगता है, अपने देश जैसा बिखरा, गरीब, गंदा नहीं.

मेहनत का अच्छा नतीजा

यह छोटू कुमामोन कोई देवीदेवता नहीं, जापान के कुमामोटो जिले का एक प्रतीक चिह्न है जिसे अब वहां के एक जौहरी ने 10 किलोग्राम सोने का बनाया है. पर्यटक इस जिले में आएं और जापानी आवभगत का मजा लें, इस के लिए आम व्यापारी भी मेहनत करते रहते हैं.

बड़ा होता फिल्मी बाजार

जापान की जानीमानी अभिनेत्री अयाका कोमात्सु अब हौलीवुड को डरा रही है, क्योंकि जापानी, चीनी फिल्मों का बाजार अमेरिका के बाजार से बड़ा होता जा रहा है.

ताकि गुम न हो जाए इतिहास

गलीमहल्लों में होने वाली लीलाओं में उन्हें बड़ा मजा आता है जिन्हें नाटकों या अभिनय से कोई मतलब नहीं. एक टैंट में अपने को पोतते हुए युवक, युवती व बच्चे की खुशी तो देखिए. हर कालोनी, सोसाइटी और महल्ले को इस तरह के आयोजन करते रहना चाहिए.

कागज के फूल महकते नहीं

यौन संबंधों की आजादी की वकालत करना तो अच्छा लगता है पर यह आजादी भारी भी पड़ती है. जैसे नारायणदत्त तिवारी को अपने आखिरी दिनों में अपने जैविक बालिग बेटे को अपनाना पड़ा तो उस की मां को अपने जीवन में अपनी निजी इच्छा के खिलाफ फिर प्रवेश की इजाजत देनी पड़ी.

कांगे्रसी नेता दिग्विजय सिंह की खूब फजीहत उड़ी जब उन के एक पत्रकार के साथ संबंधों के राज ही नहीं, अंतरंग क्षणों के फोटो भी जगजाहिर हो गए.

दिल्ली में एक पुत्र ने 18 साल पहले हुई अपने पिता की मौत के लिए एक पुलिस वाले और अपनी मां के संबंधों को ले कर अदालत का दरवाजा खटखटाया है. इस मामले में 18 साल पहले उस के पिता की एक सड़क दुर्घटना में मौत हुई बताया गया और उस के बाद एक पुलिस वाले का घर आनाजाना बढ़ गया. अब जब बेटा 25 साल का हो गया तब भी उस पुलिस वाले का घर आना बरकरार रहा. बेटे ने सामाजिक आपत्ति की दुहाई देते हुए उस व्यक्ति को घर आने से रोका तो उसे धमकी दी गई कि जिस तरह उस के बाप को रास्ते से हटा दिया गया था, उसी तरह उसे भी हटा दिया जाएगा. बेटे ने अब मां और उस के मित्र के खिलाफ पिता की हत्या की जांच के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया है.

विवाह या बच्चे दिल पर ताला नहीं लगा सकते. अगर स्त्रीपुरुष में लगाव पैदा होने लगे तो लोग अपने पूरे कैरियर, कामकाज, वर्षों के धंधे और राजपाट तक को दांव पर लगा देते हैं. बालिगों के बीच बनते संबंधों पर आसानी से रोक भी नहीं लगाई जा सकती. विवाहित साथी की तलाक की मांग से भी कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि उस के बाद विवाहित साथी को न सिर्फ आर्थिक कष्ट झेलने पड़ सकते हैं, अकेलापन व सामाजिक अवहेलना भी सहनी पड़ सकती है.

बच्चे भी अकसर बंट कर रह जाते हैं. उन का ध्यान अपने कैरियर से हट कर दूसरी ओर चला जाता है. यदि तलाक की लंबी उबाऊ प्रक्रिया चालू हो जाए तो बच्चों के पालनपोषण के अधिकार को ले कर वे चक्की के 2 पाटों में पिसने लगते हैं.

विवाह बाद के संबंधों में कानूनी रोक असंभव है, क्योंकि इस का अपराधीकरण करना एक नई मुसीबत को सामने लाना होगा. हमारे कानून में पति अपनी पत्नी के दूसरे से संबंधों पर आपराधिक कानूनी कार्यवाही तो कर सकता है पर उसे साबित करना पड़ेगा कि दोनों में यौन संबंध हैं. इस दौरान उस की फजीहत ज्यादा होगी इसलिए यह हक भी कम इस्तेमाल होता है.

विवाह एक सामाजिक समझौता है और दोनों पक्षों को इसे खुशीखुशी मानना चाहिए. यही सुख का आधार है. बाहर सुख ढूंढ़ना चाहोगे तो कंकड़ और कांटे ज्यादा मिलेंगे कहकहे कम. जहां यह होने लगे वहां पतिपत्नी दोनों को इस पर परदा डाल कर रखना चाहिए और बातबेबात हल्ला नहीं मचाना चाहिए. यह सोचना कि मरनेमारने की घुड़की से साथी को हराया जा सकता है, गलत है. परेशान साथी फिर बाहर शांति और सुकून ढूंढ़ता है.

स्त्री शक्ति पर भरोसा

नरेंद्र मोदी ने सुषमा स्वराज को विदेश मंत्रालय दे कर यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि मंत्रिमंडल में महिलाएं केवल दिखावटी, सजावटी चेहरा नहीं होतीं, उन से गंभीर काम भी कराए जा सकते हैं.

विदेश मंत्रालय आजकल एक तौर से गृह मंत्रालय और वित्त मंत्रालय से भी ज्यादा महत्त्व का मंत्रालय बन गया है, क्योंकि सारे देशों की अर्थव्यवस्थाएं अब रेल के डब्बों की तरह एकदूसरे से जुड़ गई हैं और 1 डब्बे की आग दूसरे को खतरा पहुंचा सकती है. सभी देशों के साथ तालमेल बैठाए रखना एक टेढ़ी खीर है.

सुषमा स्वराज पहले आमतौर पर घरेलू राजनीति पर ही ज्यादा बोलती थीं पर आशा है कि वे हिलेरी क्लिंटन की तरह विदेश मंत्रालय को और प्रभावशाली बना सकेंगी.

भारत इस समय ज्वालामुखियों के बीच में है. पाकिस्तान, नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका, चीन सब विदेशी मामलों से जूझ रहे हैं, क्योंकि उन की आतंरिक स्थिति का निर्णय कहीं बाहर हो रहा है.

पाकिस्तान अमेरिका पर निर्भर है, तो चीन को तिब्बत व अपने मुसलिम इलाकों की वजह से विदेशी समर्थन चाहिए. श्रीलंका में तमिल संहार की खून भरी कहानी अभी फीकी नहीं पड़ी है, तो म्यांमार कब फिर फौजियों के हाथों चला जाए पता नहीं, क्योंकि उस के पड़ोस का थाईलैंड अच्छे भले लोकतंत्र से मुड़ कर सैनिक शासन की ओर जा रहा है.

विदेश मंत्री को अफगानिस्तान का मसला न दिल्ली, न काबुल और न इसलामाबाद बल्कि ब्रुसैल्स, लंदन, न्यूयार्क और वाशिंगटन में सुलझाना होगा. भारत के हित अफगानिस्तान से जुड़े हैं और कोई भूलचूक बहुत महंगी पड़ सकती है.

इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी सरकारों को चलाती रही हैं पर विदेश मंत्रालय में जो औपचारिकता निभानी होती है, वह विलक्षण होती है और वहां हलकी सी बात को भी गंभीर रूप से लिया जाता है. सौम्य व्यक्तित्व से वैसे काफी देशों की विदेश मंत्री काम बनाती रही हैं और उम्मीद करिए कि सुषमा स्वराज भी चूल्हे की गैस को उपयोगी बना कर रखेंगी.

धर्म की मारी काशी की विधवाएं

नरेंद्र मोदी की सरकार गंगा का सफाई अभियान तो जोरशोर से चलाने का दावा कर रही है पर काशी पर लगे गहरे दाग व काशी की विधवाओं के बारे में उसे कुछ नहीं कहना. इस बार के लोकसभा चुनावों के दौरान काशी कई महीने चर्चा में रही और वहां की मिठाइयों, सांडों और गलियों की तो खूब चर्चा हुई पर हिंदू समाज की पाखंडता विधवाओं की देन नहीं, इस पर कहीं कोई बात नहीं हुई.

अब चाहे काशी और वृंदावन में छोटी और बड़ीबूढ़ी विधवाएं कम आती हों पर काशी आज भी घर में बेकार पड़ी विधवाओं का ठौर समझा जाता है, जहां ये विधवाएं तिलतिल कर मरती हैं.

महान हिंदू संस्कृति का ढिंढोरा पीटपीट कर हम अपनेआप को चाहे जितना श्रेष्ठ कह लें, ये विधवाएं असल में हमारी कट्टरता और अंधविश्वासों की देन हैं. अब देश में विधवाओं को जलाया तो नहीं जाता पर उन के साथ होने वाले दुर्व्यवहार कम नहीं हुए हैं. आम घरों में साल में कईकई बार धार्मिक प्रयोजन करवाने में पंडों की बरात सफल रहती है पर हर धार्मिक आयोजन में अगर घर में विधवा हो तो उस को कचोटा और दुत्कारा जाता है.

मजेदार बात तो यह है कि उन पंडितों को दोष नहीं दिया जाता जिन्होंने कुंडली मिला कर विवाह कराया और न ही उन देवताओं को जिन का आह्वान कर वरवधू को आशीर्वाद दिलवाया जाता है. इसी बुलावे का ही तो पंडेपुजारी कमीशन लेते हैं.

हिंदू समाज गंदी गंगा के साथ जी सकता है, क्योंकि अब घरों तक पहुंचने वाला पानी पहले शुद्ध कर लिया जाता है. पर वह उन सैकड़ों विधवाओं को कैसे सहन कर ले जो काशी, वृंदावन या घरों में तिरस्कृत जीवन जी रही हैं. जब विधुर शान से सीना फुलाए जी सकते हैं तो विधवाएं क्यों सफेद साड़ी पहनें और चेहरे की हंसी को दबा कर रखें?

यह जिम्मेदारी सरकारों की नहीं पर जब सरकार सामाजिक व धार्मिक मुद्दों के बल पर बनी हो तो वह इस जिम्मेदारी से नहीं भाग सकती.

नदियों की सफाई के साथसाथ नदियों के किनारे पनप रही दूषित संस्कृति को भी समाप्त करना होगा. मगर अफसोस की बात तो यह है कि हमारे समाज के रक्षक अब तक इन विधवाओं की देखभाल करने की जगह इन्हें छिपा कर ही रखना चाहते हैं. इन पर बनाई गई दीपा मेहता की फिल्म ‘वाटर’ की शूटिंग इसीलिए यहां नहीं होने दी गई.

इस सत्य से इनकार करने से काशी का यह धब्बा उस तरह नहीं मिटाया जा सकता जैसे ‘गंगा का पानी अमृत समान है’ कह कर व उस का आचमन कर किसी चीज को शुद्ध और साफ कर लिया जाता है.

अब काशी विदेशियों की नजर में और ज्यादा आएगी, क्योंकि नरेंद्र मोदी यहां से सांसद हैं और विदेशी पत्रकारों की आदत होती है कि वे आंखों पर हिंदुओं की तरह विलक्षण चश्मा चढ़ाए नहीं घूमते कि केवल अच्छा ही अच्छा दिखे. वे गंदा भी देखेंगे, पूछताछ भी करेंगे और बारबार उसे देश की राजधानी व राजनीति से जोड़ेंगे. इन में काशी की विधवाएं आएंगी ही. भारत अगर तानाशाही देश होता तो विधवाओं को शहर निकाला का आदेश दे दिया जाता पर अब तो

नरेंद्र मोदी की पार्टी को इन का शूल सहना होगा.

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