हिल स्टेशन पर तबादला

भगत राम का तबादला एक सुंदर से हिल स्टेशन पर हुआ तो वे खुश हो गए, वे प्रकृति और शांत वातावरण के प्रेमी थे, सो, सोचने लगे, जीवन में कम से कम 4-5 साल तो शहरी भागमभाग, धुएं, घुटन से दूर सुखचैन से बीतेंगे. पहाड़ों की सुंदरता उन्हें इतनी पसंद थी कि हर साल गरमी में 1-2 हफ्ते की छुट्टी ले कर परिवार सहित घूमने के लिए किसी न किसी हिल स्टेशन पर अवश्य ही जाते थे और फिर वर्षभर उस की ताजगी मन में बसाए रखते थे.

तबादला 4-5 वर्षों के लिए होता था. सो, लौटने के बाद ताजगी की जीवनभर ही मन में बसे रहने की उम्मीद थी. दूसरी खुशी यह थी कि उन्हें पदोन्नति दे कर हिल स्टेशन पर भेजा जा रहा था. साहब ने तबादले का आदेश देते हुए बधाई दे कर कहा था, ‘‘अब तो 4 वर्षों तक आनंद ही आनंद लूटोगे. हर साल छुट्टियां और रुपए बरबाद करने की जरूरत भी नहीं रह जाएगी. कभी हमारी भी घूमनेफिरने की इच्छा हुई तो कम से कम एक ठिकाना तो वहां पर रहेगा.’’

‘‘जी हां, आप की जब इच्छा हो, तब चले आइएगा,’’ भगत राम ने आदर के साथ कहा और बाहर आ गए. बाहर साथी भी उन्हें बधाई देने लगे. एक सहकर्मी ने कहा, ‘‘ऐसा सुअवसर तो विरलों को ही मिलता है. लोग तो ऐसी जगह पर एक घंटा बिताने के लिए तरसते हैं, हजारों रुपए खर्च कर डालते हैं. तुम्हें तो यह सुअवसर एक तरह से सरकारी खर्चे पर मिल रहा है, वह भी पूरे 4 वर्षों के लिए.’’

‘‘वहां जा कर हम लोगों को भूल मत जाना. जब सीजन अच्छा हो तो पत्र लिख देना. तुम्हारी कृपा से 1-2 दिनों के लिए हिल स्टेशन का आनंद हम भी लूट लेंगे,’’ दूसरे मित्र ने कहा. ‘‘जरूरजरूर, भला यह भी कोई कहने की बात है,’’ वे सब से यही कहते रहे.

घर लौट कर तबादले की खबर सुनाई तो दोनों बच्चे खुश हो गए. ‘‘बड़ा मजा आएगा. हम ने बर्फ गिरते हुए कभी भी नहीं देखी. आप तो घुमाने केवल गरमी में ले जाते थे. जाड़ों में तो हम कभी गए ही नहीं,’’ बड़ा बेटा खुश होता हुआ बोला.

‘‘जब फिल्मों में बर्फीले पहाड़ दिखाते हैं तो कितना मजा आता है. अब हम वह सब सचमुच में देख सकेंगे,’’ छोटे ने भी ताली बजाई. मगर पत्नी सुजाता कुछ गंभीर सी हो गई. भगत राम को लगा कि उसे शायद तबादले वाली बात रास नहीं आई है. उन्होंने पूछा, ‘‘क्या बात है, गुमसुम क्यों हो गई हो?’’

‘‘तबादला ही कराना था तो आसपास के किसी शहर में करा लेते. सुबह जा कर शाम को आराम से घर लौट आते, जैसे दूसरे कई लोग करते हैं. अब पूरा सामान समेट कर दोबारा से वहां गृहस्थी जमानी पड़ेगी. पता नहीं, वहां का वातावरण हमें रास आएगा भी या नहीं,’’ सुजाता ने अपनी शंका जताई. ‘‘सब ठीक हो जाएगा. मकान तो सरकारी मिलेगा, इसलिए कोई दिक्कत नहीं होगी. और फिर, पहाड़ों में भी लोग रहते हैं. जैसे वे सब रहते हैं वैसे ही हम भी रह लेंगे.’’

‘‘लेकिन सुना है, पहाड़ी शहरों में बहुत सारी परेशानियां होती हैं-स्कूल की, अस्पताल की, यातायात की और बाजारों में शहरों की तरह हर चीज नहीं मिल पाती,’’ सुजाता बोली.

भगत राम हंस पड़े, ‘‘किस युग की बातें कर रही हो. आज के पहाड़ी शहर मैदानी शहरों से किसी भी तरह से कम नहीं हैं. दूरदराज के इलाकों में वह बात हो सकती है, लेकिन मेरा तबादला एक अच्छे शहर में हुआ है. वहां स्कूल, अस्पताल जैसी सारी सुविधाएं हैं. आजकल तो बड़ेबड़े करोड़पति लाखों रुपए खर्च कर के अपनी संतानों को मसूरी और शिमला के स्कूलों में पढ़ाते हैं. कारण, वहां का वातावरण बड़ा ही शांत है. हमें तो यह मौका एक तरह से मुफ्त ही मिल रहा है.’’ ‘‘उन्नति होने पर तबादला तो होता ही है. अगर तबादला रुकवाने की कोशिश करूंगा तो कई पापड़ बेलने पड़ेंगे. हो सकता है 10-20 हजार रुपए की भेंटपूजा भी करनी पड़ जाए और उस पर भी आसपास की कोई सड़ीगली जगह ही मिल पाए. इस से तो अच्छा है, हिल स्टेशन का ही आनंद उठाया जाए.’’

यह सुन कर सुजाता ने फिर कुछ न कहा. दफ्तर से विदाई ले कर भगत राम पहले एक चक्कर अकेले ही अपने नियुक्तिस्थल का लगा आए और

15 दिनों बाद उन का पूरा परिवार वहां पहुंच गया. बच्चे काफी खुश थे. शुरूशुरू की छोटीमोटी परेशानी के बाद जीवन पटरी पर आ ही गया. अगस्त के महीने में ही वहां पर अच्छीखासी ठंड हो गई थी. अभी से धूप में गरमी न रही थी. जाड़ों की ठंड कैसी होगी, इसी प्रतीक्षा में दिन बीतने लगे थे.

फरवरी तक के दिन रजाई और अंगीठी के सहारे ही बीते, फिर भी सबकुछ अच्छा था. सब के गालों पर लाली आ गई थी. बच्चों का स्नोफौल देखने का सपना भी पूरा हो गया. मार्च में मौसम सुहावना हो गया था. अगले 4 महीने के मनभावन मौसम की कल्पना से भगत राम का मन असीम उत्साह से भर गया था. उसी उत्साह में वे एक सुबह दफ्तर पहुंचे तो प्रधान कार्यालय का ‘अत्यंत आवश्यक’ मुहर वाला पत्र मेज पर पड़ा था.

उन्होंने पत्र पढ़ा, जिस में पूछा गया था कि ‘सीजन कब आरंभ हो रहा है, लौटती डाक से सूचित करें. विभाग के निदेशक महोदय सपरिवार आप के पास घूमने आना चाहते हैं.’ सीजन की घोषणा प्रशासन द्वारा अप्रैल मध्य में की जाती थी, सो, भगत राम ने वही सूचना भिजवा दी, जिस के उत्तर में एक सप्ताह में ही तार आ गया कि निदेशक महोदय 15 तारीख को पहुंच रहे हैं. उन के रहने आदि की व्यवस्था हो जानी चाहिए.

निदेशक के आने की बात सुन कर सारे दफ्तर में हड़कंप सा मच गया. ‘‘यही तो मुसीबत है इस हिल स्टेशन की, सीजन शुरू हुआ नहीं, कि अधिकारियों का तांता लग जाता है. अब पूरे 4 महीने इसी तरह से नाक में दम बना रहेगा,’’ एक पुराना चपरासी बोल पड़ा.

भगत राम वहां के प्रभारी थे. सारा प्रबंध करने का उत्तरदायित्व एक प्रकार से उन्हीं का था. उन का पहला अनुभव था, इसलिए समझ नहीं पा रहे थे कि कैसे और क्या किया जाए.

सारे स्टाफ की एक बैठक बुला कर उन्होंने विचारविमर्श किया. जो पुराने थे, उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर राय भी दे डालीं. ‘‘सब से पहले तो गैस्टहाउस बुक करा लीजिए. यहां केवल 2 गैस्टहाउस हैं. अगर किसी और ने बुक करवा लिए तो होटल की शरण लेनी पड़ेगी. बाद में निदेशक साहब जहांजहां भी घूमना चाहेंगे, आप बारीबारी से हमारी ड्यूटी लगा दीजिएगा. आप को तो सुबह 7 बजे से रात 10 बजे तक उन के साथ ही रहना पड़ेगा,’’ एक कर्मचारी ने कहा तो भगत राम ने तुरंत गैस्टहाउस की ओर दौड़ लगा दी.

जो गैस्टहाउस नगर के बीचोंबीच था, वहां काम बन नहीं पाया. दूसरा गैस्टहाउस नगर से बाहर 2 किलोमीटर की दूरी पर जंगल में बना हुआ था. वहां के प्रबंधक ने कहा, ‘‘बुक तो हो जाएगा साहब, लेकिन अगर इस बीच कोई मंत्रीवंत्री आ गया तो खाली करना पड़ सकता है. वैसे तो मंत्री लोग यहां जंगल में आ कर रहना पसंद नहीं करते, लेकिन किसी के मूड का क्या भरोसा. यहां अभी सिर्फ 4 कमरे हैं, आप को कितने चाहिए?’’ भगत राम समझ नहीं पाए कि कितने कमरे लेने चाहिए. साथ गए चपरासी ने उन्हें चुप देख कर तुरंत राय दी, ‘‘कमरे तो चारों लेने पड़ेंगे, क्या पता साहब के साथ कितने लोग आ जाएं, सपरिवार आने के लिए लिखा है न?’’

भगत राम को भी यही ठीक लगा. सो, उन्होंने पूरा गैस्टहाउस बुक कर दिया. ठीक 15 अप्रैल को निदेशक महोदय का काफिला वहां पहुंच गया. परिवार के नाम पर अच्छीखासी फौज उन के साथ थी. बेटा, बेटी, दामाद और साले साहब भी अपने बच्चों सहित पधारे थे. साथ में 2 छोटे अधिकारी और एक अरदली भी था.

सुबह 11 बजे उन की रेल 60 किलोमीटर की दूरी वाले शहर में पहुंची थी. भगत राम उन का स्वागत करने टैक्सी ले कर वहीं पहुंच गए थे. मेहमानों की संख्या ज्यादा देखी तो वहीं खड़ेखड़े एक मैटाडोर और बुक करवा ली. शाम 4 बजे वे सब गैस्टहाउस पहुंचे. निदेशक साहब की इच्छा आराम करने की थी, लेकिन भगत राम का आराम उसी क्षण से हराम हो गया था.

‘‘रहने के लिए बाजार में कोई ढंग की जगह नहीं थी क्या? लेकिन चलो, हमें कौन सा यहां स्थायी रूप से रहना है. खाने का प्रबंध ठीक हो जाना चाहिए,’’ निदेशक महोदय की पत्नी ने गैस्टहाउस पहुंचते ही मुंह बना कर कहा. उन की यह बात कुछ ही क्षणों में आदेश बन कर भगत राम के कानों में पहुंच गई थी. खाने की सूची में सभी की पसंद और नापंसद का ध्यान रखा गया था. भगत राम अपनी देखरेख में सारा प्रबंध करवाने में जुट गए थे. रहीसही कसर अरदली ने पूरी कर दी थी. वह बिना किसी संकोच के भगत राम के पास आ कर बोला, ‘‘व्हिस्की अगर अच्छी हो तो खाना कैसा भी हो, चल जाता है. साहब अपने साले के साथ और उन का बेटा अपने बहनोई के साथ 2-2 पेग तो लेंगे ही. बहती गंगा में साथ आए साहब लोग भी हाथ धो लेंगे. रही बात मेरी, तो मैं तो देसी से भी काम चला लूंगा.’’

भगत राम कभी शराब के आसपास भी नहीं फटके थे, लेकिन उस दिन उन्हें अच्छी और खराब व्हिस्कियों के नाम व भाव, दोनों पता चल गए थे.

गैस्टहाउस से घर जाने की फुरसत भगत राम को रात 10 बजे ही मिल पाई, वह भी सुबह 7 बजे फिर से हाजिर हो जाने की शर्त पर. निदेशक साहब ने 10 दिनों तक सैरसपाटा किया और हर दिन यही सिलसिला चलता रहा. भगत राम की हैसियत निदेशक साहब के अरदली के अरदली जैसी हो कर रह गई.

निदेशक साहब गए तो उन्होंने राहत की सांस ली. मगर जो खर्च हुआ था, उस की भरपाई कहां से होगी, यह समझ नहीं पा रहे थे. दफ्तर में दूसरे कर्मचारियों से बात की तो तुरंत ही परंपरा का पता चल गया.

‘‘खर्च तो दफ्तर ही देगा, साहब, मरम्मत और पुताईरंगाई जैसे खर्चों के बिल बनाने पड़ेंगे. हर साल यही होता है,’’ एक कर्मचारी ने बताया. दफ्तर की हालत तो ऐसी थी जैसी किसी कबाड़ी की दुकान की होती है, लेकिन साफसफाई के बिलों का भुगतान वास्तव में ही नियमितरूप से हो रहा था. भगत राम ने भी वही किया, फिर भी अनुभव की कमी के कारण 2 हजार रुपए का गच्चा खा ही गए.

निदेशक का दौरा सकुशल निबट जाने का संतोष लिए वे घर लौटे तो पाया कि साले साहब सपरिवार पधारे हुए हैं. ‘‘जिस दिन आप के ट्रांसफर की बात सुनी, उसी दिन सोच लिया था कि इस बार गरमी में इधर ही आएंगे. एक हफ्ते की छुट्टी मिल ही गई है,’’ साले साहब खुशी के साथ बोले.

भगत राम की इच्छा आराम करने की थी, मगर कह नहीं सके. जीजा, साले का रिश्ता वैसे भी बड़ा नाजुक होता है. ‘‘अच्छा किया, साले साहब आप ने. मिलनेजुलने तो वैसे भी कभीकभी आते रहना चाहिए,’’ भगत राम ने केवल इतना ही कहा.

साले साहब के अनुरोध पर उन्हें दफ्तर से 3 दिनों की छुट्टी लेनी पड़ी और गाइड बन कर उन्हें घुमाना भी पड़ा. छुट्टियां तो शायद और भी लेनी पड़ जातीं, मगर बीच में ही बदहवासी की हालत में दौड़ता हुआ दफ्तर का चपरासी आ गया. उस ने बताया कि दफ्तर में औडिट पार्टी आ गई है, अब उन के लिए सारा प्रबंध करना है.

सुनते ही भगत राम तुरंत दफ्तर पहुंच गए और औडिट पार्टी की सेवाटहल में जुट गए. साले साहब 3 दिनों बाद ‘सारी खुदाई एक तरफ…’ वाली कहावत को चरितार्थ कर के चले गए, मगर औडिट पार्टी के सदस्यों का व्यवहार भी सगे सालों से कुछ कम न था. दफ्तर का औडिट तो एक दिनों में ही खत्म हो गया था लेकिन पूरे हिल स्टेशन का औडिट करने में एक सप्ताह से भी अधिक का समय लग गया.

औडिट चल ही रहा था कि दूर की मौसी का लड़का अपनी गर्लफ्रैंड सहित घर पर आ धमका. जब तक भगत राम मैदानी क्षेत्र के दफ्तर में नियुक्त थे, उस के दर्शन नहीं होते थे, लेकिन अचानक ही वह सब से सगा लगने लगा था. एक हफ्ते तक वह भी बड़े अधिकारपूर्वक घर में डेरा जमाए रहा. औडिट पार्टी भगत राम को निचोड़ कर गई तो किसी दूसरे वरिष्ठ अधिकारी के पधारने की सूचना आ गई.

‘‘समझ में नहीं आता कि यह सिलसिला कब तक चलेगा?’’ भगत राम बड़बड़ाए. ‘‘जब तक सीजन चलेगा,’’ एक कर्मचारी ने बता दिया.

भगत राम ने अपना सिर दोनों हाथों से थाम लिया. घर पर जा कर भी सिर हाथों से हट न पाया क्योंकि वहां फूफाजी आए हुए थे. बाद में दूसरे अवसर पर तो बेचारे चाह कर भी ठीक से मुसकरा तक नहीं पाए थे, जब घर में दूर के एक रिश्तेदार का बेटा हनीमून मनाने चला आया था.

उसी समय सुजाता की एक रिश्तेदार महिला भी पति व बच्चों सहित आ गई थी. और अचानक उन के दफ्तर के एक पुराने साथी को भी प्रकृतिप्रेम उमड़ आया था. भगत राम को रजाईगद्दे किराए पर मंगाने पड़ गए थे. वे खुद तो गाइड की नौकरी कर ही रहे थे, पत्नी को भी आया की नौकरी करनी पड़ गई थी. सुजाता की रिश्तेदार अपने पति के साथ प्रकृति का नजारा लेने के लिए अपने छोटेछोटे बच्चों को घर पर ही छोड़ जाया करती थी.

उधर, दफ्तर में भी यही हाल था. एक अधिकारी से निबटते ही दूसरे अधिकारी के दौरे की सूचना आ जाती थी. शांति की तलाश में भगत राम दफ्तर में आ जाते थे और फिर दफ्तर से घर में. लेकिन मानसिक शांति के साथसाथ आर्थिक शांति भी छिन्नभिन्न हो गई थी. 4 महीने कब गुजर गए, कुछ पता ही न चला. हां, 2 बातों का ज्ञान भगत राम को अवश्य हो गया था. एक तो यह कि दफ्तर के कुल कितने बड़ेबड़े अधिकारी हैं और दूसरी यह कि दुनिया में उन के रिश्तेदार और अभिन्न मित्रों की कोई कमी नहीं है.

‘‘सच पूछिए तो यहां रहने का मजा ही आ गया…जाने की इच्छा ही नहीं हो रही है, लेकिन छुट्टियां इतनी ही थीं, इसलिए जाना ही पड़ेगा. अगले साल जरूर फुरसत से आएंगे.’’ रिश्तेदार और मित्र यही कह कर विदा ले रहे थे. उन की फिर आने की धमकी से भगत राम बुरी तरह से विचलित होते जा रहे थे. ‘‘क्योंजी, अगले साल भी यही सब होगा क्या?’’ सुजाता ने पूछा. शायद वह भी विचलित थी.

‘‘बिलकुल नहीं,’’ भगत राम निर्णायक स्वर में चीख से पड़े, ‘‘मैं आज ही तबादले का आवदेन भिजवाए देता हूं. यहां से तबादला करवा कर ही रहूंगा, चाहे 10-20 हजार रुपए खर्च ही क्यों न करने पड़ें.’’ ?सुजाता ने कुछ न कहा. भगत राम तबादले का आवेदनपत्र भेजने के लिए दफ्तर की ओर चल पड़े.

मुक्ति : मां के मनोभावों से अनभिज्ञ नहीं था सुनील

टनटनटन मोबाइल की घंटी बजी और सुनील के फोन उठाने के पहले ही बंद भी हो गई. लगता है यह फोन भारत से आया होगा. भारत क्या, रांची से, शिवानी का. शिवानी, वह मुंहबोली भांजी, जिस के यहां वह अपनी मां को अमेरिका से ले जा कर छोड़ आया था. वहां से आए फोन के साथ ऐसा ही होता रहता है. घंटी बजती है और बंद हो जाती है, थोड़ी देर बाद फिर घंटी बज उठती है.

सुनील मोबाइल पर घंटी के फिर से बजने की प्रतीक्षा करने लगा है. इस के साथ ही उस के मन में एक दहशत सी पैदा हो जाती है. न जाने क्या खबर होगी? फोन तो रांची से ही आया होगा. बात यह थी कि उस की 90 वर्षीया मां गिर गई थीं और उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया था. सुनील को पता था कि मां इस चोट से उबर नहीं पाएंगी, इलाज पर चाहे कितना भी खर्च क्यों न किया जाए और पैसा वसूलने के लिए हड्डी वाले डाक्टर कितनी भी दिलासा क्यों न दिलाएं. मां के सुकून के लिए और खासकर दुनिया व समाज को दिखाने के लिए भी इलाज तो कराना ही था, वह भी विदेश में काम कर के डौलर कमाने वाले इकलौते पुत्र की हैसियत के मुताबिक.

वैसे उस की पत्नी चेतावनी दे चुकी थी कि इस तरह हम अपने पैसे बरबाद ही कर रहे हैं. मां की बीमारी के नाम पर जितने भी पैसे वहां भेजे जा रहे हैं उन सब का क्या हो रहा है, इस का लेखाजोखा तो है नहीं? शिवानी का घर जरूर भर रहा है. आएदिन पैसे की मांग रखी जाती है. हालांकि यह सब को पता था कि इस उम्र में गिर कर कमर तोड़ लेना और बिस्तर पकड़ लेना मौत को बुलावा ही देना था.

शिवानी ने सुनील की मां की देखभाल के नाम पर दिनरात के लिए एक नर्स रख ली थी और उन्हीं के नाम पर घर में काफी सुविधाएं भी इकट्ठी कर ली थीं, फर्नीचर से ले कर फ्रिज, टीवी और एयरकंडीशनर तक. डाक्टर, दवा, फिजियोथेरैपिस्ट और बारबार टैक्सी पर अस्पताल का चक्कर लगाना तो जायज बात थी.

सुनील की पत्नी को इन सब दिखावे से चिढ़ थी. वह कहती  थी कि एक गाड़ी की मांग रह गई है, वह भी शिवानी मां के जिंदा रहते पूरा कर ही लेगी. कमर टूटने के बाद हवाखोरी के लिए मां के नाम पर गाड़ी तो चाहिए ही थी. सुनील चुप रह जाता. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता था कि शिवानी की मांगें बढ़ी हुई लगती थीं किंतु उन्हें नाजायज नहीं कहा जा सकता था.

शिवानी अपनी हैसियत के मुताबिक जो भी करती वह उस की मां के लिए काफी नहीं होता. मां के लिए गांवों में चलने वाली खाटें तो नहीं चल सकती थीं, घर में सीमित रहने पर मन बहलाने के लिए टीवी रखना जरूरी था, फिर वहां की गरमी से बचनेबचाने को एक एनआरआई की मां के लिए फ्रिज और एसी को फुजूलखर्ची नहीं कहा जा सकता था.

अब यह कहां तक संभव या उचित था कि जब ये चीजें मां के नाम पर आई हों तो घर का दूसरा व्यक्ति उन का उपयोग ही न करे? पैसा बचा कर अगर शिवानी ने एक के बदले 2 एसी खरीद लिए तो इस के लिए उसे कुसूरवार क्यों ठहराया जाए? फ्रिज भी बड़ा लिया गया तो क्या हुआ, क्या मां भर का खाना रखने के लिए ही फ्रिज लेना चाहिए था?

आखिर मां की जो सेवा करता है उसे भी इतनी सुविधा तो मिलनी ही चाहिए थी. पर उस की पत्नी को यह सब गलत लगता था. सामान तो आ ही गया था, अब यह बात थोड़े थी कि मां के मरने के बाद कोई उन सब को उस से वापस मांगने जाता?

सुनील के मन के किसी कोने में यह भाव चोर की तरह छिपा था कि यह फोन शिवानी का न हो तो अच्छा है, क्योंकि वहां से फोन आने का मतलब था किसी न किसी नई समस्या का उठ खड़ा होना. साथ ही, हर बार शिवानी से बात कर के उसे अपने में एक छोटापन महसूस हुआ करता था.

अपनी बात के लहजे से वह उसे बराबर महसूस कराती रहती थी कि वह अपनी मां के प्रति अपने कर्तव्य का ठीक से पालन नहीं कर रहा. केवल पैसा भेज देने से ही वह अपने दायित्व से मुक्त नहीं हो सकता था, भारतीय संस्कृति में पैसा ही सबकुछ नहीं होता, उस की उपस्थिति ही अधिक कारगर हो सकती थी. और यहीं पर सुनील का अपराधबोध हृदय के अंतराल में एक और गांठ की परत बना देता. इस से वह बचना चाहता था और शायद यही वह मर्मस्थल भी था जिसे शिवानी बारबार कुरेदती रहती थी.

शिवानी का कहना था कि उसे तथा उस के पति को डाक्टर डांट कर भगा देते थे, जबकि सुनील की बात वे सुनते थे. सुनील का नाम तथा उस का पता जान कर ही लोग ज्यादा प्रभावित होते थे, न कि मात्र पैसा देने से. आजकल भारत में भी पैसे देने वाले कितने हैं, पर क्या अस्पताल के अधिकारी उन लोगों की बात सुनते भी हैं? सुनील फोन पर ही उन लोगों से जितनी बात कर लेता था वही वहां के अधिकारियों पर बहुत प्रभाव डाल देती थी.

इस के अतिरिक्त उस का खुद का भारत आना अधिक माने रखता था, मां की तसल्ली के लिए ही सही. थोड़ी हरारत भी आने पर मां सुनील का ही नाम जपना शुरू कर देती थीं.

शिवानी को लगता कि वह अपना शरीर खटा कर दिनरात उन की सेवा करती रहती है, जबकि उसे पैसे के लालच में काम करने वाली में शुमार कर के मां ही नहीं, परोक्ष रूप से सुनील भी उस के प्रति बहुत बड़ा अन्याय कर रहे हैं. यह खीझ शिवानी मां पर ही नहीं, बल्कि किसी न किसी तरह सुनील पर भी उतार लेती थी.

कुछ ही महीने पहले की बात थी. जिस दिन मां की कमर की हड्डी टूटी थी, अस्पताल में जब तक इमरजैंसी में मां को छोड़ कर शिवानी और उस के पति डाक्टर के लिए इधरउधर भागदौड़ कर रहे थे कि फोन पर इस दुर्घटना की खबर मिलने पर सुनील ने अमेरिका में बैठेबैठे न जाने किसकिस डाक्टर के फोन नंबर का ही पता नहीं लगा लिया बल्कि डाक्टर को तुरंत मां के पास भेज भी दिया. ऐसा क्या वहां किसी अन्य के किए पर हो सकता था?

और उस के बाद तो अनेक परेशानियों का सिलसिला शुरू हो गया था. उधर, सुनील फोन पर लगातार हिदायतों पर हिदायतें देता जा रहा था और इधर शिवानी पर शामत आ रही थी. अपने पति पर घर छोड़ कर और एंबुलैंस पर मां को अकेले अपने दम पर पटना ले जाना, किसी विशेषज्ञ जिस का नाम सुनील ने ही बताया था उस से संपर्क करना और प्राइवेट वार्ड में रख कर मां का औपरेशन करवाना, नर्स के रहते भी दिनरात उन की सेवा करते रहना इत्यादि कितनी ही जहमतों का काम वह 3 हफ्तों तक करती रही थी. इस का एकमात्र पुरस्कार शिवानी को यह मिला था कि मां का प्यार उस के प्रति बढ़ गया था और अब वे उसी का नाम जपने लगी थीं.

सुनील के न चाहने पर भी मोबाइल की घंटी फिर बज उठी. एक झिझक के साथ सुनील ने मोबाइल उठाया. उधर शिवानी ही थी, जोर से बोल उठी, ‘‘अंकल, मैं शिवानी बोल रही हूं.’’

शिवानी के मुंह से अंकल शब्द सुन कर सुनील को ऐसा लगता था जैसे वह उस के कानों पर पत्थर मार रही हो. लाख याद दिलाने पर भी कि वह उस का मामा है, शिवानी उसे अंकल ही कहती थी. स्पष्ट था कि यह संबोधन उसे एक व्यावसायिक संबंध की ही याद दिलाता था, रिश्ते की नहीं.

‘‘हां, हां, मैं समझ गया, बोलो.’’

‘‘प्रणाम अंकल.’’

‘‘खुश रहो, बोलो, क्या बात है?’’

‘‘आप लोग कैसे हैं, अंकल?’’

सुनील जल्दी में था, इसलिए खीझ गया पर शांत स्वर में ही बोला, ‘‘हम लोग सब ठीक हैं, पर तुम बताओ मां कैसी हैं?’’

‘‘नानीजी ने तो खानापीना सब छोड़ रखा है,’’ सुनील को लगा जैसे उस की छाती पर किसी ने हथौड़ा चला दिया हो. उसे चिंता हुई, ‘‘कब से?’’

‘‘कल रात से. कल रात कुछ नहीं खाया, आज भी न नाश्ता लिया और न दोपहर का खाना ही खाया.’’

‘‘अब रात का खाना उन्हें अवश्य खिलाओ. जो उन को पसंद आए वही बना कर दो. खाना थोड़ा गला कर देना ताकि उसे वे आसानी से निगल सकें. निगलने में दिक्कत होने से भी वे नहीं खाती होंगी.’’

‘‘हम ने तो कल खिचड़ी दी थी.’’

‘‘उसे भी जरा पतला कर के दो और घी वगैरह मिला दिया करो. मां को खिचड़ी अच्छी लगती है.’’

‘‘इसीलिए तो अंकल, लेकिन कहती हैं कि भूख नहीं है.’’

‘‘डाक्टर से पूछ कर देखो. भूख न लगने का भी इलाज हो सकता है.’’

‘‘वे कहती हैं, खाने की रुचि ही खत्म हो गई है. इस का क्या इलाज है? शायद मेरे हाथ से खाना ही नहीं चाहतीं.’’

उस लड़की की बात में सुनील को साफ व्यंग्य झलकता दिखाई पड़ा. ‘‘फिर भी, तुम डाक्टर से पूछो,’’ वह शांत स्वर में ही बोला.

‘‘जी अच्छा, अंकल.’’

‘‘फिर जैसा हो बताना. तुम चाहो तो व्हाट्सऐप कौल कर सकती हो.’’

‘‘नहीं अंकल, अब तो अमेरिका फोन करना सस्ता हो गया है. कोई बात नहीं. रात में फिर से कोशिश कर के देखती हूं.’’ वास्तव में शिवानी के पास पैसे की कोई कमी तो थी नहीं, फिर भी, उस की उदारता की उस ने जिस तरह उपेक्षा कर दी वह उसे अच्छा नहीं लगा.

‘‘जरूर.’’

‘‘अंकल, वहां अभी क्या समय हो रहा है?’’

‘‘यहां सुबह के 7 बज रहे हैं.’’

‘‘अच्छा, प्रणाम अंकल.’’

‘‘खुश रहो.’’

शिवानी सुनील के दूर के रिश्ते की बहन की बेटी थी. उस का घर तो भरापूरा था, उस का पति, 3 बेटे और 2 बेटियां. पर आय सीमित थी. हाईस्कूल कर के उस का पति किसी तरह कोई सिफारिश पहुंचा कर रांची के एंप्लौयमैंट एक्सचेंज औफिस में लोअर डिवीजन क्लर्क बन गया था.

सुनील जब किसी तरह मां को  अपने साथ अमेरिका में नहीं रख  सका तो वह भारत में एक ऐसा परिवार ढूंढ़ने लगा जो मां को अपने साथ रखे तथा उन की देखभाल करे, खर्च चाहे जो लगे. पर उसे ऐसा कोई परिवार जल्दी नहीं मिला. कोई इस तरह की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होता था. नजदीकी रिश्तेदारी में तो कोई मिला ही नहीं. किसी तरह उसे शिवानी का पता चला.

शिवानी को उस ने पहले देखा भी नहीं था, पर इस पारस्परिक रिश्ते को वे दोनों जानते थे. इस में संदेह नहीं था कि शिवानी को लगा कि सुनील की मां, जिसे वह नानी कहती थी, को रखने से उस की आर्थिक स्थिति में सुधार आ जाएगा. सुनील ने शुरू में ही उसे सबकुछ समझा दिया था. हफ्तों खोज करने के बाद उसे यह परिवार मिला था. सो वह उन पर ज्यादा ही निर्भर हो गया था. शिवानी को उस की मां को केवल पनाह देनी थी. काम करने के लिए उस ने अलग से एक नर्स रखने की अनुमति दे रखी थी. खर्च के लिए पैसे देने में उस ने कंजूसी नहीं की. मां को समझा दिया कि शिवानी के यहां उन्हें कोई तकलीफ नहीं होगी.

चलते समय मां की आंखें उसे वैसी ही लगीं जैसा बचपन में वह अपनी गाय को बछड़े से बिछुड़ते हुए देखा करता था. दुखभरी आवाज में मां ने पूछा, ‘आते तो रहोगे न, बेटा?’

सुनील ने तपाक से उत्तर दिया था, ‘जरूर मां, कुछ ही महीनों में यहां फिर आना है. और फिर मोबाइल तो है ही, मोबाइल पर जब कभी भी बात हो जाया करेगी.’

‘बेटा, मैं तो बहरी हो गई हूं, फोन पर क्या बात कर सकूंगी?’

‘मां, तुम नहीं, शिवानी तुम्हारा समाचार देती रहेगी. यह भी तो नतिनी ही हुई तुम्हारी. तुम्हें यह बहुत अच्छी तरह रखेगी.’

‘यह क्या रखेगी, तुम्हारा पैसा रखाएगा,’ मां ने धीरे से कहा.

बेटे ने चलते समय मां के पैर छुए, तो मां ने कहा, ‘जुगजुग जियो. अब हमारे लिए एक तुम्हीं रह गए हो, बेटा.’

सुनील अपनी सफाई में किसी तरह यही बोल पाया, ‘मां, अगर मैं तुम्हें अमेरिका में रख पाता तो जरूर रखता. तुम्हें कई बार बता चुका हूं. मैं तो वहां तुम्हारा इलाज भी नहीं करा सकता.’

‘तुम ने तो कहा था कि साल दो साल में तुम रिटायरमैंट ले लोगे और फिर भारत वापस आ जाओगे.’

सुनील की जैसे चोरी पकड़ी गई. इस बात की तसल्ली उस ने मां को बारबार दी थी कि वह उन्हें शिवानी के पास अधिक से अधिक 2 साल के लिए रख रहा था, जैसे ही वह रिटायर होगा, भारत आ जाएगा और उन्हें साथ रखेगा. उस घटना को 5 साल बीत गए थे. पर सुनील नहीं जा पाया था मां से मिलने.

वैसे वह रिटायर हो चुका था. यह नहीं कि इस बीच वह भारत गया ही नहीं. हर वर्ष वह भारत जाता रहा था किंतु कभी ऐसा जुगाड़ नहीं बन पाया कि वह मां से मिलने जाने की जहमत उठाता. कभी अपने काम से तो कभी पत्नी को भारतभ्रमण कराने के चलते. किंतु रांची जाने में जितनी तकलीफ उठानी पड़ती थी, उस के लिए वह समय ही नहीं निकाल पाता था. मां को या शिवानी को पता भी नहीं चल पाता कि वह इस बीच कभी भारत आया भी है.

अमेरिका से फोन करकर वह यह बताता रहता कि अभी वह बहुत व्यस्त है, छुट्टी मिलते ही मां से मिलने जरूर आएगा. और मन को हलका करने के लिए वह कुछ अधिक डौलर भेज देता केवल मां के ही लिए नहीं, शिवानी के बच्चों के लिए या खुद शिवानी और उस के पति के लिए भी. तब शिवानी संक्षेप में अपना आभार प्रकट करते हुए फोन पर कह देती कि वह उस की व्यस्तता को समझ सकती है. पता नहीं शिवानी के उस कथन में उसे क्या मिलता कि वह उस में आभार कम और व्यंग्य अधिक पाता था.

सुनील के अमेरिका जाने के बाद से उस की मां उस की बहन यानी अपनी बेटी सुषमा के पास वर्षों रहीं. सुनील के पिता पहले ही मर चुके थे. इस बीच सुनील अमेरिका में खुद को व्यवस्थित करने में लगा रहा. संघर्ष का समय खत्म हो जाने के बाद उस ने मां को अमेरिका नहीं बुलाया.

बहन तथा बहनोई ने बारबार लिखा कि आप मां को अपने साथ ले जाइए पर सुनील इस के लिए कभी तैयार नहीं हुआ. उस के सामने 2 मुख्य बहाने थे, एक तो यह कि मां का वहां के समाज में मन नहीं लगेगा जैसा कि वहां अन्य बुजुर्ग व रिटायर्ड लोगों के साथ होता है और दूसरे, वहां इन की दवा या इलाज के लिए कोई मदद नहीं मिल सकती. हालांकि वह इस बात को दबा गया कि इस बीच वह उन के भारत रहतेरहते भी उन्हें ग्रीनकार्ड दिला सकता था और अमेरिका पहुंचने पर उन्हें सरकारी मदद भी मिल सकती थी.

एक बार जब वह सुषमा की बीमारी पर भारत आया तो बहन ने ही रोरो कर बताया कि मां के व्यवहार से उन के पति ही नहीं, उस के बच्चे भी तंग रहते हैं. अपनी बात यदि वह बेटी होने के कारण छोड़ भी दे तो भी वह उन लोगों की खातिर मां को अपने साथ नहीं रख सकती. दूसरी ओर मां का यह दृढ़ निश्चय था कि जब तक सुषमा ठीक नहीं  हो जाती तब तक वे उसे छोड़ नहीं सकतीं.

सुनील ने अपने स्वार्थवश मां की हां में हां मिलाई. सुषमा कैंसर से पीडि़त थी. कभी भी उस का बुलावा आ सकता था. सुनील को उस स्थिति के लिए अपने को तैयार करना था.

सुषमा की मृत्यु पर सुनील भारत नहीं आ सका पर उस ने मां को जरूर अमेरिका बुलवा लिया अपने किसी संबंधी के साथ. अमेरिका में मां को सबकुछ बहुत बदलाबदला सा लगा. उन की निर्भरता बहुत बढ़ गई. बिना गाड़ी के कहीं जाया नहीं जा सकता था और गाड़ी उन का बेटा यानी सुनील चलाता था या बहू. घर में बंद, कोई सामाजिक प्राणी नहीं. बेटे को अपने काम के अलावा इधरउधर आनेजाने व काम करने की व्यस्तता लगी रहती थी. बहू पर घर के काम की जिम्मेदारी अधिक थी. यहां कोई कामवाली तो आती नहीं थी, घर की सफाई से ले कर बाहर के भी काम बहू संभालती थी.

मां के लिए परेशानी की बात यह थी कि सुनील को कभीकभी घर के काम में अपनी पत्नी की सहायता करनी पड़ती थी. घर का मर्द घर में इस तरह काम करे, घर की सफाई करे, बरतन मांजे, कपड़े धोए, यह सब देख कर मां के जन्मजन्मांतर के संस्कार को चोट पहुंचती थी. सुनील के बारबार यह समझाने पर भी कि यहां अमेरिका में दाईनौकर की प्रथा नहीं है, और यहां सभी घरों में पतिपत्नी मिल कर घर के काम करते हैं, मां संतुष्ट नहीं होतीं.

मां को यही लगता कि उन की बहू ही उन के बेटे से रोज काम लिया करती है. सभी कामों में वे खुद हाथ बंटाना चाहतीं ताकि बेटे को वह सब नहीं करना पड़े, पर 85 साल की उम्र में उन पर कुछ छोड़ा नहीं जा सकता था. कहीं भूल से उन्हें चोट न लग जाए, घर में आग न लग जाए, वे गिर न पड़ें, इन आशंकाओं के मारे कोई उन्हें घर का काम नहीं करने देता था.

सुनील अपनी मां का इलाज  करवाने में समर्थ नहीं था.

अमेरिका में कितने लोग सारा का सारा पैसा अपनी गांठ से लगा कर इलाज करवा सकते थे? मां ऐसी बातें सुन कर इस तरह चुप्पी साध लेती थीं जैसे उन्हें ये बातें तर्क या बहाना मात्र लगती हों. उन की आंखों में अविश्वास इस तरह तीखा हो कर छलक उठता था जिसे झेल न सकने के कारण, अपनी बात सही होने के बावजूद सुनील दूसरी तरफ देखने लग जाता था. उन की आंखें जैसे बोल पड़तीं कि क्या ऐसा कभी हो सकता है कि कोई सरकार अपने ही नागरिक की बूढ़ी मां के लिए कोई प्रबंध न करे. भारत जैसे गरीब देश में तो ऐसा होता ही नहीं, फिर अमेरिका जैसे संपन्न देश में ऐसा कैसे हो सकता था?

सुनील के मन में वर्षों तक मां के लिए जो उपेक्षा भाव बना रहा था या उन्हें वह जो अपने पास अमेरिका बुलाने से कतराता रहा था शायद इस कारण ही उस में एक ऐसा अपराधबोध समा गया था कि वह अपनी सही बात भी उन से नहीं मनवा सकता था. कभीकभी वे रोंआसी हो कर यहां तक कह बैठती थीं कि दूसरे बच्चों का पेट काटकाट कर भी उन्होंने उसे डबल एमए कराया था और सुनील यह बिना कहे ही समझ जाता था कि वास्तव में वे कह रही हैं कि उस का बदला वह अब तक उन की उपेक्षा कर के देता रहा है जबकि उस की पाईपाई पर उन का हक पहले है और सब से ज्यादा है.

सुनील के सामने उन दिनों के वे दृश्य उभर आते जब वह कालेज की छुट्टियों में घर लौटता था और अपने मातापिता के साथ भाईबहनों को भी वह रूखासूखा खाना बिना किसी सब्जीतरकारी के खाते देखता था.

मां को सब से अधिक परेशानी इस बात की थी कि परदेश में उन्हें हंसनेबोलने के लिए कोई संगीसाथी नहीं मिल पाता था, और अकेले कहीं जा कर किसी से अपना परिचय भी नहीं बढ़ा सकती थीं. शिकागो जैसे बड़े शहर में भारतीयों की कोई कमी तो नहीं थी, पर सुनील दंपती लोगों से कम ही मिलाजुला करते थे.

कभीकभी मां को वे मंदिर ले जाते थे. उन्हें वहां पूरा माहौल भारत का सा मिलता था. उस परिसर में घूमती हुई किसी भी बुजुर्ग स्त्री को देखते ही वे देर तक उन से बातें करने के लिए आतुर हो जातीं. वे चाहती थीं कि वे वहां बराबर जाया करें, पर यह  भी कर सकना सुनील या उस की पत्नी के लिए संभव नहीं था. अपनी व्यस्तता के बीच तथा अपनी रुचि के प्रतिकूल सुनील के लिए सप्ताहदोसप्ताह में एक बार से अधिक मंदिर जाना संभव नहीं था और वह भी थोड़े समय के लिए.

कुछ ही समय में सुनील की मां को लगा कि अमेरिका में रहना भारी पड़ रहा है. उन्हें अपने उस घर की याद बहुत तेजी से व्यथित कर जाती जो कभी उन का एकदम अपना था, अपने पति का बनवाया हुआ. वे भूलती नहीं थीं कि अपने घर को बनवाने में उन्होंने खुद भी कितना परिश्रम किया था, निगरानी की थी और दुख झेले थे. और यह भी कि जब वह दोमंजिला मकान बन कर तैयार हो गया था तो उन्हें कितना अधिक गर्व हुआ था.

आज यदि उन के पति जीवित होते तो कहीं और किसी के साथ रहने या अमेरिका आने के चक्कर में उन्हें अपने उस घर को बेचना नहीं पड़ता. उन के हाथों से उन का एकमात्र जीवनाधार जाता रहा था. उन के मन में जबतब अपने उस घर को फिर से देखने और अपनी पुरानी यादों को फिर से जीने की लालसा तेज हो जाती.

पर अमेरिका आने के बाद तो फिर से भारत जाने और अपने घर को देखने का कोई अवसर ही आता नहीं दिखता था. न तो सुनील को और न ही उस की पत्नी को भारत से कोई लगाव रह गया था या भारत में टूटते अपने सामाजिक संबंधों को फिर से जोड़ने की लालसा. तब सुनील की मां को लगता कि भारत ही नहीं छूटा, उन का सारा अतीत पीछे छूट गया था, सारा जीवन बिछुड़ गया था. यह बेचैनी उन को जबतब हृदय में शूल की तरह चुभा करती. उन्हें लगता कि वे अपनी छायामात्र बन कर रह गई हैं और जीतेजी किसी कुएं में ढकेल दी गई हैं. ऐसी हालत में उन का अमेरिका में रहना जेल में रहने से कम न था.

मां के मन में अतीत के प्रति यह लगाव सुनील को जबतब चिंतित करता. वह जानता था कि उन का यह भाव अतीत के प्रति नहीं, अपने अधिकार के न रहने के प्रति है. मकान को बेच कर जो भी पैसा आया था, जिस का मूल्य अमेरिकी डौलर में बहुत ही कम था, फिर भी उसे वे अपने पुराने चमड़े के बौक्स में इस तरह रखती थीं जैसे वह बहुत बड़ी पूंजी हो और जिसे वे अपने किसी भी बड़े काम के लिए निकाल सकती थीं. कम से कम भारत जाने के लिए वे कई बार कह चुकी थीं कि उन के पास अपना पैसा है, उन्हें बस किसी का साथ चाहिए था.

सुनील देखता था कि वे किस प्रकार घर का काम करने, विशेषकर खाना बनाने के लिए आगे बढ़ा करती थीं पर सुनील की पत्नी उन्हें ऐसा नहीं करने दे सकती थी. कहीं कुछ दुर्घटना घट जाती तो लेने के देने पड़ जाते. बिना इंश्योरैंस के सैकड़ों डौलर बैठेबिठाए फुंक जाते. तब भी, जबतब मां की अपनी विशेषज्ञता जोर पकड़ लेती और वे बहू से कह बैठतीं, यह ऐसे थोड़े बनता है, यह तो इस तरह बनता है. साफ था कि उस की पत्नी को उन से सीख लेने की कोई जरूरत नहीं रह गई थी.

सुनील की मां के लिए अमेरिका छोड़ना हर प्रकार सुखकर हो, ऐसी भी बात नहीं थी. अपने बेटे की नजदीकी ही नहीं, बल्कि सारी मुसीबतों के बावजूद उस की आंखों में चमकता अपनी मां के प्रति प्यार आंखों के बूढ़ी होने के बाद भी उन्हें साफ दिख जाता था. दूसरी ओर अमेरिका में रहने का दुख भी कम नहीं था. उन का जीवन अपने ही पर भार बन कर रह गया था.

अब जहां वे जा रही थीं वहां से पारिवारिक संबंध या स्नेह संबंध तो नाममात्र का था, यह तो एक व्यापारिक संबंध स्थापित होने जा रहा था. ऐसी स्थिति में शिवानी से महीनों तक उन का किसी प्रकार का स्नेहसंबंध नहीं हो पाया. जो केवल पैसे के लिए उन्हें रख रही हो उस से स्नेहसंबंध क्या?

उन का यह बरताव उन की अपनी और अपने बेटे की गौरवगाथा में ही नहीं, बल्कि दिनप्रतिदिन की सामान्य बातचीत में भी जाहिर हो जाता था. उस में मेरातेरा का भाव भरा होता था. यह एसी मेरे बेटे का है, यह फ्रिज मेरा है, यह आया मेरे बेटे के पैसे से रखी गई है, इसलिए मेरा काम पहले करेगी, इत्यादि.

शिवानी को यह सब सिर झुका कर स्वीकार करना पड़ता, कुछ नानी की उम्र का लिहाज कर के, कुछ अपनी दयनीय स्थिति को याद कर के और कुछ इस भार को स्वीकार करने की गलती का एहसास कर के.

मोबाइल की घंटी रात के 2 बजे फिर बज उठी. यह भी समय है फोन करने का? लेकिन होश आया, फोन जरूर मां की बीमारी की गंभीरता के कारण किया गया होगा. सुनील को डर लगा. फोन उठाना ही पड़ा. उधर से आवाज आई, ‘‘अंकल, नानी तो अपना होश खो बैठी हैं.’’

‘‘क्या मतलब, होश खो बैठी हैं? डाक्टर को बुलाया’’ सुनील ने चिंता जताई.

‘‘डाक्टर ने कहा कि आखिरी वक्त आ गया है, अब कुछ नहीं होगा.’’

सुनील को लगा कि शिवानी अब उसे रांची आने को कहेगी, ‘‘शिवानी, तुम्हीं कुछ उपाय करो वहां. हमारा आना तो नहीं हो सकता. इतनी जल्दी वीजा मिलना, फिर हवाईजहाज का टिकट मिलना दोनों मुश्किल होगा.’’

‘‘हां अंकल, मैं समझती हूं. आप कैसे आ सकते हैं?’’ सुनील को लगा जैसे व्यंग्य का एक करारा तमाचा उस के मुंह पर पड़ा हो.

‘‘किसी दूसरे डाक्टर को भी बुला लो.’’

‘‘अंकल, अब कोई भी डाक्टर क्या करेगा?’’

‘‘पैसे हैं न काफी?’’

‘‘आप ने अभी तो पैसे भेजे थे. उस में सब हो जाएगा.’’

शिवानी की आवाज कांप रही थी, शायद वह रो रही थी. दोनों ओर से सांकेतिक भाषा का ही प्रयोग हो रहा था. कोई भी उस भयंकर शब्द को मुंह में लाना नहीं चाहता था. मोबाइल अचानक बंद हो गया. शायद कट गया था.

3 घंटे के बाद मोबाइल की घंटी बजी. सुनील बारबार के आघातों से बच कर एकबारगी ही अंतिम परिणाम सुनना चाहता था.

शिवानी थी, ‘‘अंकल, जान निकल नहीं रही है. शायद वे किसी को याद कर रही हैं या किसी को अंतिम क्षण में देखना चाहती हैं.’’

सुनील को जैसे पसीना आ गया, ‘‘शिवानी, पानी के घूंट डालो उन के मुंह में.’’

‘‘अंकल, मुंह में पानी नहीं जा रहा.’’ और वह सुबकती रही. फोन बंद हो गया.

सुबह होने से पहले घंटी फिर बजी. सुनील बेफिक्र हो गया कि इस बार वह जिस समाचार की प्रतीक्षा कर रहा था वही मिलेगा. अब किसी और अपराधबोध का सामना करने की चिंता उसे नहीं थी. उस ने बेफिक्री की सांस लेते हुए फोन उठाया और दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘अंकल, नानीजी को मुक्ति मिल गई.’’ सुनील के कानों में शब्द गूंजने लगे, बोलना चाहता था लेकिन होंठ जैसे सिल गए थे.

तलाक की खबरों के बीच Abhishek Bachchan ने खरीदा आलीशान घर, क्या इस अपार्टमेंट में रहेंगी ऐश्वर्या

ऐश्वर्या राय (Aishwarya Rai) इन दिनों सुर्खियों में छायी हुई हैं. हाल ही में ऐक्ट्रैस अपनी बेटी आराध्या बच्चन के साथ किसी अवार्ड फंक्शन में शिरकत की थी. जहां दोनों मां बेटी की बौन्डिंग देखते बन रही थी. कुछ महीनों पहले खबर आई थी कि ऐश्वर्या राय और अभिषेक बच्चन (Abhishek Bachchan)  का तलाक होने वाला है. हालांकि बाद में यह अफवाह भी बताया गया था, लेकिन कुछ महीनों पहले अभिषेक ने डिवोर्स पोस्ट लाइक किया था जिसके बाद कहा जाने लगा कि ऐश और अभिषेक का तलाक कन्फर्म है.

अभिषेक बच्चने के फ्लौन्ट किया अपना वेडिंग रिंग

लेकिन एक इंटरव्यू के अनुसार, अभिषेक बच्चन ने अपनी वेडिंग रिंग फ्लौन्ट करके अफवाहों का खंडन किया था. तो वहीं दूसरी तरफ ऐश्वर्या राय को दुबई एयरपोर्ट पर पैपराजी ने स्पौट किया. यूजर्स ने गौर किया कि ऐश ने वेडिंग रिंग नहीं पहना था. जिसके बाद फिर से कपल के तलाक की खबरे आने लगी.

पिता अमिताभ के बंगले के करीब अभिषेक बच्चन ने खरीदा नया अपार्टमेंट

अब बताया जा रहा है कि अभिषेक बच्चन ने एक नई प्रौपर्टी खरीदी है. रिपोर्ट के मुताबिक अभिषेक बच्चन का नया अपार्टमेंट अपने पिता के बंगले ‘जलसा’ के नजदीक है. रिपोर्ट के अनुसार बच्चन परिवार के पास एक ही क्षेत्र में कई संपत्तियां हैं और यह उनके कलेक्शन में एक नया प्रौपर्टी जुड़ गया है.

रिपोर्ट्स के मुताबिक, एक ऊंची बिल्डिंग की 57वीं मंजिल पर स्थित इन 6 अपार्टमेंटों में दस कार पार्किंग की जगह है. अभिषेक ने अभी तक इन खबरों पर कोई रिएक्शन नहीं दिया है. कहा जाता है कि ऐश्वर्या अपनी मां वृंदा राय के साथ रहती हैं. लेकिन अभिषेक के नए अपार्टमेंट खरीदने के बाद अटकले लगाई जा रही है कि ऐश्वर्या, अभिषेक और आराध्या इसी घर में रहेंगे.

क्या नए घर में ऐश्वर्या-अभिषेक एकसाथ रहेंगे?

सोशल मीडिया पर यूजर्स अभिषेक बच्चन के नए घर को लेकर कई कमेंट्स भी कर रहे हैं. कुछ यूजर्स का कहना है कि ऐश-अभिषेक तलाक न लें और दोनों नए घर में साथ रहे. तो वहीं कई यूजर्स जया बच्चन को भी ट्रोल किया है, उनके कारण अभिषेक-ऐश्वर्या का घर टूट रहा है.

ऐश्वर्या अपनी ननद श्वेता बच्चन से क्यों रहती हैं नाराज

आपको बता दें कि ये भी खबर आई थी कि ऐश्वर्या राय और  उनकी ननद श्वेता बच्चन के बीच रिश्ता कुछ अच्छा नहीं रहा.  अमिताभ बच्चन और पत्नी जया बच्चन ने बेटी श्वेता को एक बंगला गिफ्ट किया था. इस खबर के बाद कई मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया गया था कि इस फैसले से ऐश्वर्या राय नाराज है.

अंबानी परिवार के फंक्शन में ऐश्वर्या राय बच्चन परिवार के साथ नहीं दिखीं

हाल ही में राधिका मर्चेंट और अनंत अंबानी की शादी में पूरा बच्चन परिवार चर्चे में रहा. ऐश्वर्या राय और बेटी आराध्या बच्चन अलग नजर आ रही थी. पूरी फैमिली एक तरफ और ऐश-आराध्या एक तरफ.  हालांकि, फंक्शन की इनसाइड तस्वीरों में  अभिषेक बच्चन अपनी पत्नी और बेटी के साथ दिखे थे.

Jhanak : जिंदगी और मौत के बीच जूझ रही है झनक, अर्शी को ठुकरा कर हौस्पिटल पहुंंचा अनिरुद्ध

Jhanak Episode update : स्टार प्लस के शो झनक की कहानी दर्शकों का दिल जीत रहा है. शो में अब तक आपने देखा कि अनिरुद्ध अर्शी और पूरे परिवार से लड़कर मुंबई झनक के पास पहुंचता है. बोस परिवार में इस बात को लेकर तीखी बहस होती है. तो दूसरी तरफ अनिरुद्ध हौस्पिटल में जाकर झनक से मिलने के लिए रिस्पेसनिस्ट से रिक्वेस्ट करता है.

आदित्य और अनिरुद्ध में होगी बहस

लेकिन आदित्य बीच में उसे रोकता है ऐसे में अनिरुद्ध का पारा चढ़ जाता है और वह कहता है कि किस हक से वह उसे रोक रहा है, ऐसे में आदित्य कहता है कि वह झनक का दोस्त है. आदित्य अनिरुद्ध को झनक के लिए बांड पेपर पर सिग्नेचर करने के बारे में भी बताता है, लेकिन अनिरुद्ध उस पर सिग्नेचर करता है. वह नर्स से भी पूछता है कि अस्पताल की फीस कितनी है. डौक्टर उसे बताते हैं कि आदित्य पहले ही पैसे दे चुके हैं. झनक के साथ बुरा व्यवहार करने और उसका सम्मान न करने के लिए आदित्य अनिरुद्ध का मजाक उड़ाता है.

झनक से अनिरुद्ध कहता है अपने दिल की बात

दूसरी तरफ झनक अनिरुद्ध को देखकर चौंक जाती है. झनक पूछती है कि वह क्यों आया है, और अनिरुद्ध कहता है कि जब उसने उसके स्वास्थ्य के बारे में सुना, तो वह दूर नहीं रह सका. फिर झनक उससे पूछती है कि अगर उसकी डिलिवरी होती तो क्या वह आता?

आज के एपिसोड में आप देखेंगे कि अनिरुद्ध बात ही बातों से झनक से कहने की कोशिश करता है कि वह उसके लिए बहुत इम्पोर्टेन्ट है और वह उससे पत्नी मानता है. झनक से अनि ये भी कहता है कि औपरेशन के बाद झनक सबसे पहले उसका चेहरा देखेगी. शो में आप ये भी देखेंगे कि बोस हाउस में अर्शी और उसकी मां ने बखेड़ा खड़ा किया है. दूसरी तरफ अनि की भाभी उन दोनों को भड़काते नजर आ रही है. शो में आप ये भी देखेंगे कि झनक का औपरेशन होगा. वह जिंदगी और मौत के बीच जूझेगी. दूसरी तरफ आदित्य और अनिरुद्ध घबरा जाएंगे. झनक की हालत खराब होती जाएगी.

क्या आदित्य से शादी करेगी झनक

शो के बिते एपिसोड में आपने देखा कि आदित्य कपूर झनक को शादी के लिए प्रपोज करता है. लेकिन झनक इनकार कर देती है, कहती है कि प्यार एक बार होता है और वह अनिरुद्ध से करती है. झनक आदित्य से ये भी कहती है कि वह उसका दोस्त है और हमेशा रहेगा. उसने उसका बहुत साथ दिया है. रिपोर्ट्स के मुताबिक शो में ट्विस्ट आएगा और दिखाया जाएगा कि झनक आदित्य से शादी कर के अपनी जिंदगी में आगे बढ़ जाएगी.

उन्मुक्त : कैसा था प्रौफेसर सोहनलाल का बुढ़ापे का जीवन

लेखक- श्रीप्रकाश

फिर प्रोफैसर ने नाश्ता और चाय लिया. रीमा बगल में ही बैठी थी पहले की तरह और आदतन टेबल पर पोर्टेबल टूइनवन में गाना भी बज रहा था. रीमा बोली, ‘‘आजकल आप कुछ ज्यादा ही रोमांटिक गाने सुनने लगे हैं. कमला मैडम के समय ऐसे नहीं थे.’’

उन्होंने उस के गालों को चूमते हुए कहा, ‘‘अभी तुम ने मेरा रोमांस देखा कहां है?’’

रीमा बोली, ‘‘वह भी देख लूंगी, समय आने पर. फिलहाल कुछ पैसे दीजिए राशन पानी वगैरह के लिए.’’

प्रोफैसर ने 500 के 2 नोट उसे देते हुए कहा, ‘‘इसे रखो. खत्म होने के पहले ही और मांग लेना. हां, कोई और भी जरूरत हो, तो निसंकोच बताना.’’

रीमा बोली, ‘‘जानकी बेटी के लिए कुछ किताबें और कपड़े चाहिए थे.’’ उन्होंने 2 हजार रुपए का नोट उस को देते हुए कहा, ‘‘जानकी की पढ़ाई का खर्चा मैं दूंगा. आगे उस की चिंता मत करना.’’

कुछ देर बाद रीमा बोली, ‘‘मैं आप का खानापीना दोनों टाइम का रख कर जरा जल्दी जा रही हूं. बेटी के लिए खरीदारी करनी है.’’

प्रोफैसर ने कहा, ‘‘जाओ, पर एक बार गले तो मिल लो, और हां, मैडम की अलमारी से एकदो अपनी पसंद की साडि़यां ले लो. अब तो यहां इस को पहनने वाला कोई नहीं है.’’

रीमा ने अलमारी से 2 अच्छी साडि़यां और मैचिंग पेटीकोट निकाले. फिर उन से गले मिल कर चली गई.

अगले दिन रीमा कमला के कपड़े पहन कर आई थी. सुबह का नाश्तापानी हुआ. पहले की तरह फिर उस ने लंच भी बना कर रख दिया और अब फ्री थी. प्रोफैसर बैडरूम में लेटेलेटे अपने पसंदीदा गाने सुन रहे थे. उन्होंने रीमा से 2 कौफी ले कर बैडरूम में आने को कहा. दोनों ने साथ ही बैड पर बैठेबैठे कौफी पी थी. इस के बाद प्रोफैसर ने उसे बांहों में जकड़ कर पहली बार किस किया और कुछ देर दोनों आलिंगनबद्ध थे. उन के रेगिस्तान जैसे तपते होंठ एकदूसरे की प्यास बु झा रहे थे. दोनों के उन्माद चरमसीमा लांघने को तत्पर थे. रीमा ने भी कोई विरोध नहीं किया, उसे भी वर्षों बाद मर्द का इतना सामीप्य मिला था.

अब रीमा घर में गृहिणी की तरह रहने लगी थी. कमला के जो भी कपड़े चाहिए थे, उसे इस्तेमाल करने की छूट थी. डै्रसिंग टेबल से पाउडर क्रीम जो भी चाहिए वह लेने के लिए स्वतंत्र थी.

कुछ दिनों बाद नवल बेटे का स्काइप पर वीडियो कौल आया. रीमा घर में कमला की साड़ी पहने थी. प्रोफैसर की बहू रेखा ने भी एक ही  झलक में सास की साड़ी पहचान ली थी. औरतों की नजर इन सब चीजों में पैनी होती है. रीमा ने उसे नमस्ते भी किया था. रेखा ने देखा कि रीमा और उस के ससुर दोनों पहले की अपेक्षा ज्यादा खुश और तरोताजा लग रहे थे.

बात खत्म होने के बाद रेखा ने अपने पति नवल से कहा, ‘‘तुम ने गौर किया, रीमा ने मम्मी की साड़ी पहनी थी और पहले की तुलना में ज्यादा खुशमिजाज व सजीसंवरी लग रही थी. मु झे तो कुछ ठीक नहीं लग रहा है.’’

नवल बोला, ‘‘तुम औरतों का स्वभाव ही शक करने का होता है. पापा ने मम्मी की पुरानी साड़ी उसे दे दी तो इस में क्या गलत है? और पापा खुश हैं तो हमारे लिए अच्छी बात है न?’’

‘‘इतना ही नहीं, शायद तुम ने ध्यान नहीं दिया. घर में पापा लैपटौप ले कर जहांजहां जा रहे थे, रीमा उन के साथ थी. मैं ने मम्मी की ड्रैसिंग टेबल भी सजी हुई देखी है,’’ रेखा बोली.

नवल बोला, ‘‘पिछले 2-3 सालों से पापामम्मी की बीमारी से और फिर उन की मौत से परेशान थे, अब थोड़ा सुकून मिला है, तो उन्हें भी जिंदगी जीने दो.’’

प्रोफैसर और रीमा का रोमांस अब बेरोकटोक की दिनचर्या हो गई थी. अब बेटेबहू का फोन या स्काइप कौल

आता तो वे उन से बातचीत में ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेते थे और जल्दी ही कौल समाप्त कर देना चाहते थे. इस बात को नवल और रेखा दोनों ने महसूस किया था.

कुछ दिनों बाद बेटे ने पापा को फोन कर स्काइप पर वीडियो पर आने को कहा, और फिर बोला, ‘‘पापा, थोड़ा पूरा घर दिखाइए. देखें तो मम्मी के जाने के बाद अब घर ठीकठाक है कि नहीं?’’

प्रोफैसर ने पूरा घर घूम कर दिखाया और कहा, ‘‘देखो, घर बिलकुल ठीकठाक है. रीमा सब चीजों का खयाल ठीक से रखती है.’’

नवल बोला, ‘‘हां पापा, वह तो देख रहे हैं. अच्छी बात है. मम्मी के जाने के बाद अब आप का दिल लग गया घर में.’’

जब प्रोफैसर कैमरे से पूरा घर दिखा रहे थे तब बहू, बेटे दोनों ने रीमा को मम्मी की दूसरी साड़ी में देखा था. इतना ही नहीं, बैड पर भी मम्मी की एक साड़ी बिखरी पड़ी थी. तब रेखा ने नवल से पूछा, ‘‘तुम्हें सबकुछ ठीक लग रहा है, मु झे तो दाल में काला नजर आ रहा है.’’

नवल बोला, ‘‘हां, अब तो मु झे भी कुछ शक होने लगा है. खुद जा कर देखना होगा, तभी तसल्ली मिलेगी.’’

इधर कुछ दिनों के लिए रीमा की बेटी किसी रिश्तेदार के साथ अपने ननिहाल गई हुई थी. तब दोनों ने इस का भरपूर लाभ उठाया था. पहले तो रीमा डिनर टेबल पर सजा कर शाम के पहले ही घर चली जाती थी. प्रोफैसर ने कहा, ‘‘जानकी जब तक ननिहाल से लौट कर नहीं आती है, तुम रात को भी यहीं साथ में खाना खा कर चली जाना.’’

आज रात 8 बजे की गाड़ी से जानकी लौटने वाली थी. रीमा ने उसे प्रोफैसर साहब के घर ही आने को कहा था क्योंकि चाबी उसी के पास थी. इधर नवल ने भी अचानक घर आ कर सरप्राइज चैकिंग करने का प्रोग्राम बनाया था. उस की गाड़ी भी आज शाम को पहुंच रही थी.

अभी 8 बजने में कुछ देर थी. प्रोफैसर और रीमा दोनों घर में अपना रोमांस कर रहे थे. तभी दरवाजे की घंटी बजी तो उन्होंने कहा, ‘‘रुको, मैं देखता हूं. शायद जानकी होगी.’’ और उन्होंने लुंगी की गांठ बांधते हुए दरवाजा खोला तो सामने बेटे को खड़ा देखा. कुछ पलों के लिए दोनों आश्चर्य से एकदूसरे को देखते रहे थे, फिर उन्होंने नवल को अंदर आने को कहा. तब तक रीमा भी साड़ी ठीक करते हुए बैडरूम से निकली जिसे नवल ने देख लिया था.

रीमा बोली, ‘‘आज दिन में नहीं आ सकी थी तो शाम को खाना बनाने आई हूं. थोड़ी देर हो गई है, आप दोनों चल कर खाना खा लें.’’

खैर, बापबेटे दोनों ने खाना खाया. तब तक जानकी भी आ गई थी. रीमा अपनी बेटी के साथ लौट गई थी. रातभर नवल को चिंता के कारण नींद नहीं आ रही थी. अब उस को भी पत्नी की बातों पर विश्वास हो गया था. अगले दिन सुबह जब प्रोफैसर साहब मौर्निंग वौक पर गए थे, नवल ने उन के बैडरूम का मुआयना किया. उन के बाथरूम में गया तो देखा कि बाथटब में एक ब्रा पड़ी थी और मम्मी की एक साड़ी भी वहां हैंगर पर लटक रही थी. उस का खून गुस्से से खौलने लगा था. उस ने सोचा, यह तो घोर अनैतिकता हुई और मम्मी की आत्मा से छल हुआ. उस ने निश्चय किया कि वह अब चुप नहीं रहेगा, पापा से खरीखरी बात करेगा.

रीमा तो सुबह बेटी को स्कूल भेज कर 8 बजे के बाद ही आती थी. उस के पहले जब प्रोफैसर साहब वौक से लौट कर आए तो नवल ने कहा, ‘‘पापा, आप मेरे साथ इधर बैठिए. आप से जरूरी बात करनी है.’’

वे बैठ गए और बोले, ‘‘हां, बोलो बेटा.’’

नवल बोला, ‘‘रीमा इस घर में किस हैसियत से रह रही है? आप के बाथरूम में ब्रा कहां से आई और मम्मी की साड़ी वहां क्यों है? मम्मी की साडि़यों में मैं ने और रेखा दोनों ने रीमा को बारबार स्काइप पर देखा है. मम्मी की डै्रसिंग टेबल पर मेकअप के सामान क्यों पड़े हैं? इन सब का क्या मतलब है?’’

प्रोफैसर साहब को बेटे से इतने सारे सवालों की उम्मीद न थी. वे कुछ बोल नहीं पा रहे थे. तब नवल ने गरजते हुए कहा, ‘‘पापा बोलिए, मैं आप से ही पूछ रहा हूं. मु झे तो लग रहा है कि रीमा सिर्फ कामवाली ही नहीं है, वह मेरी मम्मी की जगह लेने जा रही है.’’

प्रोफैसर साहब तैश में आ चुके थे. उन्होंने जोरदार शब्दों में कहा, ‘‘तुम्हारी मम्मी की जगह कोई नहीं ले सकता है. पर क्या मु झे खुश रहने का अधिकार नहीं है?’’

नवल बोला, ‘‘यह तो हम भी चाहते हैं कि आप खुश रहें. आप हमारे यहां आ कर मन लगाएं. पोतापोती और बहू हम सब आप को खुश रखने में कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे.’’

‘‘भूखा रह कर कोईर् खुश नहीं रह सकता है,’’ वे बोले.

नवल बोला, ‘‘आप को भूखा रहने का सवाल कहां है?’’

प्रोफैसर साहब बोले, ‘‘खुश रहने के लिए पेट की भूख मिटाना ही काफी नहीं है. मैं कोई संन्यासी नहीं हूं. मैं भी मर्द हूं. तुम्हारी मां लगभग पिछले 3 सालों से बीमार चल रही थीं. मैं अपनी इच्छाओं का दमन करता रहा हूं. अब उन्हें मुक्त करना चाहता हूं. मु झे व्यक्तिगत मामलों में दखलअंदाजी नहीं चाहिए. और मैं ने किसी से जोरजबरदस्ती नहीं की है. जो हुआ, दोनों की सहमति से हुआ.’’ एक ही सांस में इतना कुछ बोल गए वे.

नवल बोला, ‘‘इस का मतलब मैं जो सम झ रहा था वह सही है. पर 70 साल की उम्र में यह सब शोभा नहीं देता.’’

प्रोफैसर साहब बोले, ‘‘तुम्हें जो भी लगे. जहां तक बुढ़ापे का सवाल है, मैं अभी अपने को बूढ़ा नहीं महसूस करता हूं. मैं अभी भी बाकी जीवन उन्मुक्त हो कर जीना चाहता हूं.’’

नवल बोला, ‘‘ठीक है, आप हम लोगों की तरफ से मुक्त हैं. आज के बाद हम से आप का कोई रिश्ता नहीं रहेगा.’’ और नवल ने अपना बैग उठाया, वापस चल पड़ा. तभी दरवाजे की घंटी बजी थी. नवल दरवाजा खोल कर घर से बाहर निकल पड़ा था. रीमा आई थी. वह कुछ पलों तक बाहर खड़ेखड़े नवल को जाते देखते रही थी.

तब प्रोफैसर साहब ने हाथ पकड़ कर उसे घर के अंदर खींच लिया और दरवाजा बंद कर दिया था. फिर उसे बांहों में कस कर जकड़ लिया और कहा, ‘‘आज मैं आजाद हूं.”

मुहब्बत पर फतवा : रजिया की कहानी

लेखक- अब्बास खान ‘संगदिल’

रजिया को छोड़ कर उस के वालिद ने दुनिया को अलविदा कह दिया. उस समय रजिया की उम्र तकरीबन 2 साल की रही होगी. रजिया को पालने, बेहतर तालीम दिलाने का जिम्मा उस की मां नुसरत बानो पर आ पड़ा. खानदान में सिर्फ रजिया के चाचा, चाची और एक लड़का नफीस था. माली हालत बेहतर थी. घर में 2 बच्चों की परवरिश बेहतर ढंग से हो सके, इस का माकूल इंतजाम था. अपने शौहर की बात को गांठ बांध कर नुसरत बानो ने दूसरे निकाह का ख्वाब पाला ही नहीं. वे रजिया को खूब पढ़ालिखा कर डाक्टर बनाने का सपना देखने लगीं. ‘‘देखो बेटी, तुम्हारी प्राइमरी की पढ़ाई यहां हो चुकी है. तुम्हें आगे पढ़ना है, तो शहर जा कर पढ़ाई करनी पड़ेगी. शहर भी पास में ही है. तुम्हारे रहनेपढ़ाने का इंतजाम हम करा देंगे, पर मन लगा कर पढ़ना होगा… समझी?’’ यह बात रजिया के चाचा रहमत ने कही थी.

दोनों बच्चों ने उन की बात पर अपनी रजामंदी जताई. अब रजिया और उस के चाचा का लड़का नफीस साथसाथ आटोरिकशे से शहर पढ़ने जाने लगे. दोनों बच्चे धीरेधीरे आपस में काफी घुलमिल गए थे. स्कूल से आ कर वे दोनों अकसर साथसाथ रहते थे. चानक एक दिन बादल छाए, गरज के साथ पानी बरसने लगा. रजिया ने आटोरिकशे वाले से जल्दी घर चलने को कहा. इस पर आटोरिकशा वाले ने कुछ देर बरसात के थमने का इंतजार करने को कहा, पर रजिया नहीं मानी और जल्दी घर चलने की जिद करने लगी. भारी बारिश के बीच तेज रफ्तार से चल रहा आटोरिकशा अचानक एक मोड़ पर आ कर पलट गया. ड्राइवर आटोरिकशा वहीं छोड़ कर भाग गया.

रजिया आटोरिकशा के बीच फंस गई, जबकि नफीस यह हादसा होते ही उछल कर दूर जा गिरा. उस ने बहादुरी से पीछे आ रहे अनजान मोटरसाइकिल वाले की मदद से आटोरिकशे में फंसी रजिया को बाहर निकाला.

‘‘मामूली चोट है. उसे 2-3 दिन अस्पताल में रहना होगा,’’ डाक्टर ने कहा.

‘‘ठीक है. आप भरती कर लें डाक्टर साहब,’’ रजिया के चाचा रहमत ने कहा. नफीस अपने परिवार वालों के साथ रजिया की तीमारदारी में लग गया. परिवार वाले दोनों के प्यार को देख कर खुश होते.

‘‘नफीस, अब तुम सो जाओ. रात ज्यादा हो गई है. मुझे जब नींद आ जाएगी, तो मैं भी सो जाऊंगी,’’  रजिया ने कहा.

‘‘नहीं, जब तक तुम्हें नींद नहीं आएगी, तब तक मैं भी जागूंगा,’’ नफीस बोला. नफीस ने रजिया की देखरेख में कोई कसर नहीं छोड़ी. उस की इस खिदमत से रजिया उसे अब और ज्यादा चाहने लगी थी.

‘‘अम्मी देखो, मैं और नफीस मैरिट में पास हो गए हैं.’’

अम्मी यह सुन कर खुश हो गईं. थोड़ी देर के बाद वे बोलीं, ‘‘अब तुम दोनों अलगअलग कालेज में पढ़ोगे.’’

‘‘पर, क्यों अम्मी?’’ रजिया ने पूछा.

‘‘तुम डाक्टर की पढ़ाई करोगी और नफीस इंजीनियरिंग की. दोनों के अलगअलग कालेज हैं. अब तुम दोनों एकसाथ थोड़े ही पढ़ पाओगे. नफीस के अब्बू उसे इंजीनियर बनाना चाहते हैं. हां, पर रहोगे एक ही शहर में,’’ अम्मी ने रजिया को प्यार से समझाया.

‘‘ठीक है अम्मी,’’ रजिया ने छोटा सा जवाब दिया. उन दोनों का अलगअलग कालेज में दाखिला हो गया. दाखिला मिलते ही वे दोनों अलगअलग होस्टल में रहने लगे. एक रात अचानक 11 बजे नफीस के मोबाइल फोन की घंटी बजी.

‘‘नफीस, सो गए क्या?’’ रजिया ने पूछा.

‘‘नहीं रजिया, तुम्हारी याद मुझे बेचैन कर रही है. साथ ही, अम्मीअब्बू और बड़ी अम्मी की याद भी आ रही है,’’ कह कर नफीस सिसक उठा.

‘‘जो हाल तुम्हारा है, वही हाल मेरा भी है. कैसे बताऊं कि दिनरात तुम्हारे बिना कैसे गुजर रहे हैं,’’ रजिया बोली.

वे दोनों बहुत देर तक बातें करते रहे और फिर ‘शब्बाखैर’ कह कर सो गए.

‘‘मैडम, यह मेरे देवर का लड़का नफीस है. अब तक इन दोनों बच्चों ने साथसाथ खेलकूद कर पढ़ाई की है. अब ये परिवार से दूर अलगअलग रहेंगे. अगर नफीस अपनी बहन से मिलने आता है, तो इसे आप मिलने की इजाजत दे दें. इस बाबत आप वार्डन को भी बता दें, तो आप की मेहरबानी होगी,’’ रजिया की अम्मी ने कालेज की प्रिंसिपल से कहा.

‘‘ठीक है, पर हफ्ते में सिर्फ छुट्टी के दिन रविवार को ही मिल सकते हैं,’’ प्रिंसिपल ने कहा.

‘‘जी ठीक है, हमें मंजूर है.’’

रविवार का इंतजार करना नफीस को भारी पड़ता था. रविवार आते ही वह रजिया से मिलने उस के होस्टल मोटरसाइकिल से पहुंच जाता था. वे दोनों घंटों बैठ कर बातें करते थे. जातेजाते नफीस होस्टल के गेटकीपर को इनाम देना नहीं भूलता था. वह वार्डन को भी तोहफे देता था. एक बार नफीस अपने दोस्त के साथ रजिया से मिलने पहुंचा और बोला, ‘‘रजिया, यह मेरा दोस्त अमान है. हम दोनों एक ही कमरे में रहते हैं.’’

‘‘अच्छा, आप कहां के रहने वाले हैं?’’ रजिया ने अमान से पूछा.

‘‘जी, आप के गांव के पास का.’’

इस तरह नफीस ने अमान का परिचय करा कर उस की खूब तारीफ की. अब तो अमान भी रजिया से मिलने नफीस के साथ आ जाता था. वे एकदूसरे से इतने घुलमिल गए, जैसे बरसों की पहचान हो.

‘‘रजिया, क्या तुम नफीस को चाहती हो?’’ अमान ने अकेले में रजिया से पूछा.

‘‘हां, कोई शक?’’ रजिया बोली.

‘‘नहीं,’’ अमान ने कहा.

अमान इस फैसले पर नहीं पहुंच पा रहा था कि उन का प्यार दोनों भाईबहन जैसा था या प्रेमीप्रेमिका जैसा. समय का पहिया घूमा. रजिया के एकतरफा प्यार में डूबा अमान उसे पा लेने के सपने संजोने लगा. इम्तिहान खत्म हो गए थे. बुलावे पर रजिया की मां उसे घर में अपने देवर के भरोसे छोड़ कर मायके चली गई थीं. टैलीविजन देखने के बहाने नफीस देर रात तक रजिया के कमरे में रहा. ज्यादा रात होने पर रजिया ने कहा, ‘‘तुम यहीं बाहर बरामदे में सो जाओ. मुझे अकेले में डर लगता है.’’ नफीस बरामदे में अपना बिस्तर डाल कर सोने की कोशिश करने लगा, पर आंखों में नींद कहां. वह तो रजिया के प्यार के सपने बुनने लगा था. रात बीतती जा रही थी. नफीस को अचानक अंदर से रजिया के कराहने की आवाज आई. वह बिस्तर से उठ बैठा. दरवाजे के पास जा कर जोर से दरवाजा खटखटाया. दरवाजा पहले से खुला था. वह अंदर गया.

नफीस ने घबरा कर पूछा, ‘‘क्या हुआ रजिया?’’

‘‘पेट में दर्द हो रहा है,’’ रजिया ने कराहते हुए कहा.

‘‘मैं अम्मी को बुला कर लाता हूं,’’ सुन कर नफीस ने कहा.

‘‘नहीं, अम्मी को बुला कर मत लाओ. मैं ने दवा खा ली है. ठीक हो जाऊंगी. किसी को भी परेशान करने की जरूरत नहीं है… तुम मेरे पास आ कर बैठो. जरा मेरे पेट को सहलाओ. इस से शायद मुझे राहत मिले.’’

नफीस उस के पेट को सहलाने लगा. नफीस के हाथ की छुअन पाते ही रजिया के मन में सैक्स उभरने लगा. इधर नफीस भी आंखें बंद कर के पेट सहलाता जा रहा था, तभी रजिया ने नफीस का हाथ पकड़ कर अपने उभारों पर रख दिया. नफीस के हाथ रखते ही वह गुलाब की तरह खिल उठी.

‘‘जरा जोर से सहलाओ,’’ रजिया अब पूरी तरह बहक चुकी थी. उस ने एक झटके से नफीस को खींच कर अपने बगल में लिटा लिया और ऊपर से रजाई ढक ली. और वह सबकुछ हो गया, जिस की उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी. उधर अमान को भी रजिया की जुदाई तड़पा रही थी. जब उस से रहा नहीं गया, तो वह नफीस से मिलने के बहाने उस के गांव जा पहुंचा. नफीस ने उस की खूब खातिरदारी की. वह रजिया से भी मिला. अमान ने रजिया से उस का मोबाइल नंबर मांगा, पर रजिया ने बहाना बना कर नहीं दिया, न ही फोन पर बात करने को कहा. अमान भारी मन से लौट गया.

पढ़ाई का यह आखिरी साल था. नफीस की उम्र 21 साल की होने जा रही थी, वहीं रजिया 18वां वसंत पार कर 19वें की ओर बढ़ रही थी. उस की बोलचाल किसी को भी अपना बनाने के लिए दावत देती थी. बादलों के बीच चमकती बिजली सी जब वह घर से बाहर निकलती, तो कई उस के दीवाने हो जाते.कालेज खुल चुके थे. वे दोनों अपनेअपने होस्टल में पहुंच चुके थे.

एक दिन रजिया ने अपनी प्रिंसिपल से कहा, ‘‘मैडम, हमें बाहर खाना खाने के लिए 2 घंटे का समय मिलना चाहिए, क्योंकि होस्टल में शाकाहारी खाना मिलता है और हम…’’

‘‘ठीक है, रविवार को चली जाया करो,’’ प्रिंसिपल ने अपनी रजामंदी दे दी.

इस के बाद नफीस और रजिया मोटरसाइकिल पर सवार हो कर एक होटल पहुंच गए. नफीस ने पहले ही वहां एक कमरा बुक करा रखा था. अब तो सिलसिला चल पड़ा और वे दोनों अपने तन की प्यास बुझाने होटल आ जाते थे. एक दिन अमान भी होटल में नफीस और रजिया को देख कर पहुंच गया.

‘‘मैनेजर, अभीअभी एक लड़का और एक लड़की आप के होटल में आए हैं. वे किस कमरे में ठहरे हैं?’’ अमान ने पूछा.

‘‘मुझे पता नहीं. कई लोग आतेजाते हैं. आप खुद देख लो,’’ मैनेजर ने कहा.

अमान ने सारा होटल देख डाला, पर उसे वे दोनों नहीं मिले. अब अमान की जिज्ञासा और बढ़ गई.

अगले दिन अमान ने नफीस से पूछा, ‘‘कल मैं ने तुम्हें और रजिया को एक होटल में जाते हुए देखा था, पर तुम वहां अंदर कहीं नहीं दिखे.’’

नफीस चुपचाप सबकुछ सुनता रहा, पर बोला कुछ नहीं. अमान के जाने के बाद नफीस रजिया से मिला और बोला, ‘‘रजिया, ऐसा लगता है, जैसे अमान हमारी जासूसी कर रहा है. वह हमें ढूंढ़तेढूंढ़ते होटल में जा पहुंचा था.’’

‘‘हमें अब दूरी कम करनी होगी, नहीं तो बवाल खड़ा हो जाएगा,’’ रजिया डरते हुए बोली.

समय तेजी से आगे बढ़ता जा रहा था. कैसे एक साल बीत गया, पता नहीं चला. अमान ने सोचा कि अगर रजिया को पाना है, तो नफीस से दोस्ती बना कर रखनी होगी. इम्तिहान शुरू हो गए थे. आज रजिया का आखिरी पेपर था. दूसरे दिन घर वापस आना था. अमान का रजिया से मिलने का सपना टूटने लगा. प्यार से बेखबर रजिया के पेट में नफीस का 4 महीने का बच्चा पल रहा था. कहा गया है कि आदमी जोश में होश खो बैठता है. डाक्टरी की पढ़ाई करने के बाद भी रजिया अपना बचाव नहीं कर पाई.

‘‘मेरी बात ध्यान से सुनिए. अगर आप ने पेट गिराने की कोशिश की, तो लड़की की जान जा सकती है. आगे आप जानें. आप मरीज को घर ले जाइए,’’ डाक्टर ने रजिया का मुआयना कर के कहा.

डाक्टर की बात सुन कर रजिया की अम्मी, चाचाचाची सकते में आ गए. रजिया को घर ले आए. सभी ने रजिया से पूछा कि किस का पाप पेट में पल रहा है, पर वह खामोश रही. आंसू बहाती रही. नफीस पर कोई शक नहीं कर रहा था. बात धीरेधीरे गांव में फैल गई. हर किसी की जबान पर रजिया का नाम था. अगर उसे शहर में पढ़ने को नहीं भेजते, तो ऐसा नहीं होता. अमान पर शक की सूई घूमी, उस से ही निकाह कर दिया जाए. एक रिश्तेदार कासिद को उस के घर भेजा गया, पर वह पैगाम ले कर खाली हाथ लौटा. गांव की जमात इकट्ठा हुई. पंचायत बैठी. मौलाना ने सब के सामने खत पढ़ कर सुनाने को कहा. लिखा था:

‘आप की जमात का पैगाम मिला, पर हम एक बेहया और बदचलन लड़की से अपने लड़के का निकाह कर के खानदान पर दाग नहीं लगाना चाहते. न जाने किस कौम की नाजायज औलाद पाल रखी है उस ने.’ मौलाना कुछ देर खामोश बैठे रहे. कुछ सोचने के बाद मौलाना ने अपना फैसला सुनाया, ‘‘बात सही लिखी है. जमात आज से इन का हुक्कापानी बंद करती है. जमात का कोई भी शख्स इन से कोई ताल्लुक नहीं रखेगा.

‘‘लड़की को फौरन गांव से बाहर कर दिया जाए. मुहब्बत करने चली थी, मजहब के उसूलों का जरा भी खयाल नहीं आया उसे. यही मुहब्बत करने वालों की सजा है.’’ मौलाना का मुहब्बत पर फतवा सुन कर रजिया का खानदान सहम गया. जमात उठ गई. रजिया के घर मायूसी पसरी थी. रात में सभी फिक्र में डूबे थे. जब सुबह आंख खुली, तो रजिया को न पा कर सब उस की खोजखबर लेने लगे. नफीस और रजिया मौलाना के फतवे को ठोकर मारते हुए दूर निकल गए थे, अपनी जिंदगी की नई शुरुआत करने के लिए.

सांवली सूरत खूबसूरती का वरदान मगर रंगभेद का जाल क्यों ?

‘‘आज समाज में यह धारणा बहुत गहरे पैठ जमाए है कि सांवली, काली या यों कहें कि गहरे रंग की त्वचा सुंदर नहीं होती. इसी धारणा के कारण लड़कियों को समाज में भेदभाव, दबाव का सामना करना पड़ता है. वैवाहिक विज्ञापनों में भी सांवले रंग को स्वीकार नहीं किया जाता. आज हमारे यहां हजारों मैट्रिमोनियल साइट्स हैं. अखबारों में विज्ञापन छपते हैं. इन सब में अगर आप वैवाहिक विज्ञापन के स्टाइल पर गौर करेंगे तो सब से जरूरी बात जो निकलती है वह है लड़की का गोरा, पतला और लंबा होना…’’

प्रकृति ने हर किसी को एक अलग रंगरूप से नवाजा है. हर किसी के अंदर कुछ खूबियां हैं तो कुछ कमियां. किसी का रंग  सांवला है तो किसी का गोरा. दुनिया की कोई क्रीम किसी को गोरा या काला नहीं कर सकती है. यह सब जन्म से होता है. तो फिर उसे ले कर हीनभावना या घमंड क्यों?

दरअसल, हीनभावना या घमंड की वजह हमारा सामाजिक परिवेश है जो सांवले को कमतर और गोरे को श्रेष्ठ और बेहतर मानता है. ऐसा नहीं है कि गोरेपन की सोच केवल भारत में ही है बल्कि पूरी दुनिया में इस की जड़ें गहरी हैं. गोरे होने का मतलब यह नहीं कि आप खूबसूरत ही हैं जबकि बहुत सी सांवली लड़कियां भी बेहद खूबसूरत होती हैं.

गोरेकाले का भेद

दुनिया की अलगअलग जगहों में अलग रंग, प्रजाति और भाषाओं के लोग मौजूद हैं. सैकड़ों साल पहले भारत के मूल निवासी द्रविड़ प्रजाति के लोग थे. उन की त्वचा का रंग सांवला और काला था. जब गोरे अंगरेज हमारे देश में आए तो वे हमारे राजा बन बैठे और हम उन की प्रजा बनने को मजबूर हो गए. अंगरेजों की त्वचा गोरी थी और हम भारतीय सांवले या काले थे. ऐसे में उसी समय से हम भारतीयों के मन में यह बात बैठ गई कि जो गोरा है वह शासक है और जो काला है वह उस का सेवक है.

भारत में जाति व्यवस्था भी हजारों सालों से चली आ रही है. इस के आधार पर ब्राह्मण सब से ऊपर आते थे और शूद्र इस व्यवस्था के अंत में. ब्राह्मण मंदिरों और घरों में बैठ कर ही पूजापाठ करते थे इसलिए उन का रंग अन्य लोगों की तुलना में साफ होता था. वहीं मजदूर वर्ग के लोग कड़ी धूप में भी काम करने को मजबूर थे इसलिए उन की त्वचा धूप में और काली हो जाती थी. इस तरह हमारे देश में जाति और कर्म के आधार पर भी रंग का भेदभाव शुरू हुआ और आज तक चल रहा है.

पूरी दुनिया में रंगभेद का जाल

आज दुनियाभर में रंगभेद मौजूद है और इस के खिलाफ आवाज भी लगातार मुखर हो रही है. आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, अमेरिका में रंगभेदी हमलों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. जापान के ईदो काल में महिलाओं द्वारा अपने चेहरे को चावल के पाउडर से सफेद करने का चलन ‘नैतिक कर्तव्य’ के रूप में शुरू हुआ. हौंगकौंग, मलयेशिया, फिलिपींस और दक्षिण कोरिया में सर्वेक्षण में शामिल 10 में से 4 महिलाएं त्वचा को गोरा करने वाली क्रीम का उपयोग करती हैं. कई एशियाई संस्कृतियों में बच्चों को परियों की कहानियों के रूप में रंगवाद सिखाया जाता है. परियों की कहानियों में परियां या राजकुमारियां हमेशा गोरी होती हैं.

अफ्रीका के कुछ हिस्सों में हलकी त्वचा वाली महिलाओं को अधिक सुंदर माना जाता है और गहरे रंग की त्वचा वाली महिलाओं की तुलना में उन्हें अधिक सफलता मिलने की संभावना होती है. अकसर यह धारणा गहरी त्वचा वाली महिलाओं को त्वचा को गोरा करने वाले उपचारों की ओर ले जाती है जिन में से कई शरीर के लिए हानिकारक होते हैं.

श्वेतों और अश्वेतों का झगड़ा

दक्षिण अफ्रीका में नैशनल पार्टी की सरकार द्वारा 1948 में विधान बना कर काले और गोरे लोगों को अलग निवास करने की प्रणाली लागू की गई थी. इसे ही रंगभेद नीति या अपार्थीड कहते हैं. अफ्रीका की भाषा में अपार्थीड का शाब्दिक अर्थ है अलगाव या पृथकता. यह नीति 1994 में समाप्त कर दी गई. इस के विरुद्ध नैल्सन मंडेला ने बहुत संघर्ष किया जिस के लिए उन्हें लंबे समय तक जेल में रखा गया.

अमेरिका में भी श्वेतों और अश्वेतों का  झगड़ा पुराना है. श्वेत खुद को अश्वेतों से बेहतर मानते हैं जबकि अश्वेत खुद के लिए बराबरी का हक मांग रहे हैं. संविधान बराबरी की इजाजत देता भी है लेकिन अब भी लोगों की मानसिकता नहीं बदल पाई है. कुछ समय पहले अमेरिका में अश्वेत जौर्ज फ्लाइड की पुलिस के हाथों बर्बर हत्या के बाद ब्लैक लाइव्स मैटर मूवमैंट तेज हुआ. इस के बाद भी वहां ऐसी हत्याएं होती रही हैं.

दरअसल, अमेरिका के राज्य वर्जीनिया से अमेरिका में दास प्रथा की शुरुआत हुई थी. इसी राज्य ने 1662 में एक कानून बनाया. यह कानून कहता था कि देश में पैदा हुए बच्चों का स्टेटस उन की मां के स्टेटस से तय होगा. इस का मतलब यह था कि अगर मां गुलाम है तो बच्चा भी गुलाम होगा और अगर मां आजाद है तो बच्चा भी आजाद होगा. लेकिन वर्जीनिया में आजाद कौन था? सिर्फ श्वेत. जितने भी अश्वेत थे सब गुलाम थे. उन की आने वाली पीढि़यां भी गुलाम ही पैदा होने वाली थीं.

इस कानून को बने फिलहाल 350 साल से ज्यादा का वक्त बीत चुका था. अब यह कानून खत्म हो चुका है. अमेरिका में नया संविधान लागू है जो सब को बराबरी का अधिकार देता है. इसी संविधान की बदौलत अमेरिका में अश्वेत जज, अश्वेत गवर्नर और अश्वेत राष्ट्रपति तक बन चुके हैं. मगर अब भी अश्वेत श्वेतों के मुकाबले बराबरी में नहीं हैं.

एक आम धारणा

वाशिंगटन पोस्ट की 2018 की एक रिपोर्ट बताती है कि श्वेतों की तुलना में दोगुने अश्वेत पुलिस की प्रताड़ना का शिकार बनते हैं. अगर अमेरिका में श्वेत और अश्वेत की हत्या होती है तो श्वेत लोगों की हत्याओं का केस सुल झने की दर ज्यादा है. अगर किसी अश्वेत ने श्वेत की हत्या कर दी है तो अश्वेत को फांसी होने के चांसेज 80 फीसदी से ज्यादा हैं.

इस के अलावा शायद ही कभी ऐसा मौका हो जब अपराध में अश्वेत शामिल हो और उस की गिरफ्तारी न हुई हो. अगर किसी श्वेत और अश्वेत को एक ही अपराध के लिए सजा हो रही हो तो अश्वेत की सजा श्वेतों की तुलना में 20 फीसदी ज्यादा होगी.

अमेरिका के श्वेतों में यह धारणा आम है कि वे अश्वेतों से बेहतर हैं, उन की नस्ल बेहतर है और अश्वेत उन के हमेशा से गुलाम रहे हैं. यही वजह है कि अमेरिका में हर साल 10 हजार से ज्यादा नस्लभेदी मामले दर्ज किए जाते हैं और इन के शिकार सिर्फ और सिर्फ अश्वेत होते हैं.

विज्ञापनों और फिल्मों में भी कालेगोरों का भेद

गोरी करने वाली क्रीमों का बाजार इतनी मजबूती से हमारे देश के बाजार पर कब्जा कर चुका है कि हर औरत चाहे उस का रंग कैसा भी हो, इन के चंगुल से बची नहीं है. गोरेपन को खूबसूरती और सफलता का पर्याय बना कर बाजार ने हमारी कमजोरियों से अपनी खूब जेबें भरी हैं.

गोरेपन की क्रीम वाले ऐड लगभग एकजैसे ही होते हैं. इन में एक लड़की होती है जो बहुत पढ़ीलिखी है लेकिन उसे कहीं नौकरी नहीं मिल रही. वजह है उस का सांवला रंग. हर जगह से उसे सिर्फ रिजैक्शन ही रिजैक्शन मिलता है. लेकिन फिर उसे मिलती है सांवलापन घटाने वाली फेयरनैस क्रीम.

बस, क्रीम लगाते ही उस की जिंदगी बदल जाती है. उसे नौकरी मिलती है, प्यार मिलता है. मांबाप भी अब अपनी गोरी हो चुकी बेटी पर दुलार लुटाते हैं. मतलब यह हुआ कि सिर्फ त्वचा का रंग बदलने से एक इंसान की पूरी शख्सियत ही लोगों की नजरों में बदल जाती है.

फिल्मों ने भी हमेशा गोरे चेहरों को वरीयता दी. जो सांवले थे उन्हें मेकअप पोत कर गोरा बना दिया गया. बौलीवुड में जहां आप काले या ब्राउन हैं तो आप को गांव और गरीब परिवार की लड़की दिखाया जाएगा लेकिन अमीर, शहरी और प्रभावशाली लड़की फिल्म में गोरी ही होनी चाहिए. कितनी ऐसी हीरोइनें हैं जिन की पुरानी फिल्मों में आप उन्हें सांवला देखेंगे लेकिन सर्जरी और दूसरे ट्रीटमैंट्स के जरीए उन्होंने खुद को 5 शेड गोरा बना लिया.

चाहे रेखा हो, शिल्पा शेट्टी हो, काजोल हो, रानी मुखर्जी हो या प्रियंका चोपड़ा, हरकोई इसी भेड़चाल का हिस्सा बनी और हम आम लड़कियों को भी अपने सांवले रंग से नफरत करना सिखाया.

आज समाज में यह धारणा बहुत गहरे पैठ जमाए है कि सांवली, काली या यों कहें कि गहरे रंग की त्वचा सुंदर नहीं होती. इसी धारणा के कारण लड़कियों को समाज में भेदभाव, दबाव का सामना करना पड़ता है. वैवाहिक विज्ञापनों में भी सांवले रंग को स्वीकार नहीं किया जाता. आज हमारे यहां हजारों मैट्रिमोनियल साइट्स हैं. अखबारों में विज्ञापन छपते हैं. इन सब में अगर आप वैवाहिक विज्ञापन के स्टाइल पर गौर करेंगे तो सब से जरूरी बात जो निकलती है वह है लड़की का गोरा, पतला और लंबा होना.

ऐसे में सांवली लड़कियां अकसर आत्मसम्मान में कमी की भावना, निराशा, अवसाद और पारिवारिक दबाव का शिकार होती हैं. यह स्थिति लड़कियों की ही नहीं बल्कि बाजार ने गहरे रंग वाले लड़कों को भी अपने तथाकथित गोरेपन की श्रेष्ठता के जाल में फंसा लिया है, जिन्हें हैंडसम बनाने के लिए फेयरनैस क्रीम बेची जा रही है. फिल्में हों या उद्योग, सभी ने इस धारणा को बेचा है, पैसे कमाए हैं.

सुंदरता का त्वचा के रंग से कोई लेनादेना नहीं है यह बात सभी को सम झनी होगी और सब को समान इंसान सम झना होगा. स्त्री हो या पुरुष उन की पहचान उन की खूबियों से होनी चाहिए न कि त्वचा के रंग से.

कैंपेन की शुरुआत

भारत में रंगभेद के खिलाफ 2009 से ‘डार्क इज ब्यूटीफुल’ नाम से एक कैंपेन शुरू हुआ था. फिल्म अभिनेत्री नंदिता दास इस अभियान का चेहरा बनीं. देश में इस अभियान से गोरेपन की चाहत की मानसिकता के खिलाफ फिर बहस शुरू हुई थी लेकिन इसे लोकप्रियता उस समय मिली जब बौलीवुड के सुपर स्टार शाहरुख खान सांवले रंग के व्यक्ति को गोरेपन की क्रीम का डब्बा थमाते नजर आए थे. इस विज्ञापन के खिलाफ कई समाजसेवियों, सिने और उद्योग जगत की सैलिब्रिटीज ने आवाज उठाते हुए इसे वापस लेने की मांग उठाई थी. कंगना रनौत और अभय देओल ने भी गोरेपन के विज्ञापन करने वालों को निशाने पर लिया था.

25 जून, 2020 को लिए गए एक क्रांतिकारी निर्णय में हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड ने घोषणा की कि वह अपने पुराने उत्पाद फेयर ऐंड लवली का नाम बदल कर ग्लो एंड लवली कर देगी. पुरुषों की रेंज के इस उत्पाद का नाम बदल कर ग्लो एंड हैंडसम कर दिया गया है. पहली बार ऐसी पहल हुई जब एक क्रीम से गोरेपन और उस के जरीए सफलता के सपने को बेच कर लोगों को बेवकूफ बना रही और करोड़ोंअरबों कमा रही एक कंपनी ने  झुकना स्वीकार किया.

गोरे रंग से मापी जाती है काबिलीयत

आज बात चाहे किसी लड़की की शादी की हो या फिर किसी मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छी नौकरी के चुनाव की प्राथमिकता गोरा रंग ही होता है. भारतीय समाज में लड़की का गोरा होना जरूरी माना जाता है वरना उसे ज्यादातर मामलों में नाकामी ही हासिल होती है. एक गहरी रंगत वाली लड़की को अकसर भेदभाव का शिकार होना पड़ता है.

यदि कोई लड़की मौडल, ऐंकर या अभिनेत्री बनना चाहती है तो इन कैरियर क्षेत्र को चुनने की पहली शर्त लड़की का गोरा होना होता है. इसी तरह शादी की मार्केट में भी गोरी रंगत वाली लड़कियों की ही पूछ होती है.

आखिर एक लड़की की त्वचा का रंग काला या गोरा होना समाज के लोगों के लिए इतने माने क्यों रखता है?

दरअसल, भारतीय समाज हमेशा से पुरुषप्रधान रहा है. स्त्रियों को हमेशा से घर के काम करने, बच्चे पालने या फिर सजाधजा कर घर में रखने की वस्तु के रूप में देखा जाता है. भारतीय मानसिकता के अनुसार घर में रखी जाने वाली कोई भी चीज सुंदर होनी चाहिए. जब स्त्री को भोगविलास की वस्तु के रूप में देखा जाता है तो अपेक्षा की जाती है कि घर की स्त्री भी गोरी और सुंदर हो. वहीं अधिकतर पुरुषों की मानसिकता होती है कि वे शिक्षित, कम सुंदर लड़की को गर्लफ्रैंड तो बना सकते हैं लेकिन उन्हें पत्नी सुंदर और गोरीचिट्टी ही चाहिए.

पुरुष चाहता है कि अगर कभी वह पत्नी के साथ बाहर निकले तो उस के साथ गोरी खूबसूरत बीवी हो तभी दूसरों के सामने वह रोब दिखा सकता है क्योंकि गोरी बीवी को वे और उस के घर वाले एक उपलब्धि के तौर पर मानते हैं. इसी तरह गोरी स्त्री से पैदा होने वाली संतान गोरी होगी ऐसी अपेक्षा करते हैं. इसलिए सांवली रंगत वाली लड़की की खूबियों को भी नकार दिया जाता है.

टीवी पर दिखाए जाने वाले कई विज्ञापनों में भी दिखाया जाता है कि सांवली रंगत वाली लड़की को छोड़ कर गोरी रंगत वाली लड़की को नौकरी पर रख लिया जाता है. इसी तरह सांवली लड़की से कोई प्यार नहीं करता मगर गोरी लड़की देखते ही लड़के पागल हो उठते हैं. यह सब देख कर लोगों के मन में यह भावना बैठ जाती है कि लोगों का प्यार और जीवन में सफलता हासिल करने के लिए काबिलीयत के साथसाथ गोरी रंगत होना भी जरूरी है.

यहां तक कि पुराने साहित्य में भी हमेशा गोरी रंगत की ही महिमा गाई गई है. हमारे देश में रचनाकारों व कवियों द्वारा रचे गए साहित्य व कविताओं में सुंदर नारी की छवि जहां भी प्रस्तुत की है उस में गोरे रंग को सुंदरता का प्रतीक दर्शाया गया है.

गोरा रंग कोई सफलता का पैमाना तो नहीं

इतिहास पर नजर डालें तो हमें कितने नाम ऐसे मिलेंगे जो गोरे नहीं थे लेकिन विश्व में अपनी सफलता के  झंडे गाड़े. जिन अंगरेजों ने महात्मा गांधी को अश्वेत कह कर ट्रेन से उतार दिया था उन्हीं गांधीजी ने अंगरेजों की गुलामी से भारत को आजादी दिलाई और देश से बाहर निकाल फेंका. द. अफ्रीका में रंगभेद की लड़ाई जीतने वाले नैल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग अश्वेत ही तो थे. अश्वेत बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति बने. एगबानी डेरेगो पहली अश्वेत मिस वर्ल्ड बनीं.

हमारे देश के महान खिलाड़ी क्रिकेटर, कपिल देव, महेंद्र सिंह धोनी, मिताली राज, ओलिंपिक खेलों में भारत की विजयपताका फहराने वाली वेटलिफ्टर कर्णम मल्लेश्वरी, बैडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधु, कुश्ती में अपने दांवपेचों से पटखनी देने वाली साक्षी मलिक इन में से कोई गोरा नहीं है.

इसी तरह लेखन की धनी महादेवी वर्मा, स्वर कोकिला लता मंगेशकर ये सभी वे शख्सियतें हैं जिन्होंने अपनी प्रतिभा, काम, समर्पण और मेहनत से सफलता का परचम फहराया है. इन की सफलता में इन के रंग की कोई भूमिका नहीं थी.

कैसे दूर करें इस समस्या को

त्वचा गोरी हो या काली इस से कोई फर्क नहीं पड़ता. व्यक्ति में आत्मविश्वास होना चाहिए. किसी को इतना हक नहीं दें कि वह आप की रंगत को ले कर ताना दे सके क्योंकि कुछ बनना या बनाना आप के हाथ में होता है. जागरूक बनें और चीजों को देखने का अपना अलग नजरिया विकसित करें. परिवार के लोगों को सम झाएं. रंगों के आधार पर किसी के गुणों का पता लगाना सही मानसिकता नहीं है.

वर्षों से चली आ रही इस सोच को एकदम से बदलना संभव नहीं मगर धीरेधीरे सब बेहतर हो सकता है और सांवली लड़कियां भी अपनी काबिलीयत और फिटनैस के जलवे दिखा कर वही रुतबा हासिल कर सकती हैं.

अपनी फिटनैस पर काम करें. अगर आप गोरी नहीं मगर आप की फिगर मैंटेन है तो आप किसी भी गोरी लड़की से सुंदर दिखेंगी. अपनी फिगर को आकर्षक बनाएं. इस के लिए डांस, ऐक्सरसाइज, सही खानपान  जो भी हो सके वह करें. फिट और स्मार्ट बनें.

कपड़ों का चुनाव

अपने कपड़ों का चुनाव सावधानी से करें. वैसे ही कपड़े पहनें जो रंग और डिजाइन आप पर फबे. हमेशा कौस्टली कपड़े ही अच्छे लगें यह जरूरी नहीं. कई दफा कोई खास रंग या डिजाइन आप के लुक को आकर्षक बना सकती है. उसे सम झें और वैसा ही पहनें. दरअसल, स्किनटोन कभी माने नहीं रखती. इस के बजाय यह माने रखता है कि आप अपनेआप को कैसे कैरी करते हैं, आप कौन से रंग पहनते हैं और आप कैसे दिखना पसंद करते हैं. जैसे आइवरी या पिंक हर स्किनटोन खासकर डार्क कौंप्लैक्शन के लिए एक सदाबहार शेड रहा है.

सांवली रंगत वाली लड़कियों के ये खास रंग ज्यादा अच्छे लगते हैं:

गहरे रंग जैसे नीला, हरा, पर्पल, मैरून ये सभी सांवली रंगत वाली लड़कियों पर बहुत अच्छे लगते हैं.

सुनहरे रंग जैसे सुनहरा और पीला ये दोनों भी सांवली रंगत वाली लड़कियों को आकर्षक लुक देते हैं.

उजले रंग जैसे औफव्हाइट, क्रीम या पेस्टल रंगों का चयन कर सकती हैं.

Skin Care Tips : किन कारणों से स्किन पर होते हैं ओपनपोर्स, जानें इसे कम करने के उपाय

एक गांव था जहां सभी लोग अपनी त्वचा (Skin Care Tips) को ले कर बहुत सजग रहते थे. उस गांव में एक प्यारी सी लड़की रहती थी जिस का नाम राधा था. राधा की त्वचा स्वाभाविक रूप से मुलायम और चमकदार थी. लोग उस की सुंदरता की तारीफ करते नहीं थकते थे. एक दिन राधा ने देखा कि उस के चेहरे पर कुछ छोटेछोटे छिद्र दिखाई दे रहे हैं. पहले तो उस ने इसे नजरअंदाज किया, लेकिन समय के साथ ये छिद्र और अधिक बड़े और गहरे होते चले गए. ये खुले छिद्र(ओपन पोर्स) उस के चेहरे की सुंदरता को प्रभावित करने लगे. राधा इस से बहुत परेशान हो गई और सोचने लगी कि यह क्यों हो रहा है?

वह अपनी मां के पास गई और उन से पूछा, “मां, ये मेरे चेहरे पर छोटेछोटे छिद्र क्यों दिखाई देने लगे हैं?”

राधा की मां समझदार और अनुभवी थीं. उन्होंने कहा, “बेटी, यह छिद्र हमारी त्वचा का एक सामान्य हिस्सा होते हैं और जब हमारी त्वचा की देखभाल नहीं की जाती है, तो ये खुले और बड़े हो जाते हैं. यह तब होता है जब हमारी त्वचा में ज्यादा तेल, धूलमिट्टी, और मृत त्वचा समा जाती है.”

राधा ने मां से पूछा, “तो इस का क्या इलाज है, मां? मैं क्या कर सकती हूं?”

मां ने मुसकराते हुए कहा, “तुम्हें बस अपनी त्वचा की देखभाल के लिए नियमित रूप से कुछ आदतें अपनानी होंगी. रोजाना चेहरे को अच्छी तरह धोया करो, ताकि त्वचा पर जमी धूलमिट्टी साफ हो सके. हफ्ते में 2 बार त्वचा की ऐक्सफोलिएशन करो, ताकि मृत त्वचा निकल जाए और छिद्र बंद न हों और याद रखना, त्वचा को मौइस्चराइज करना भी बहुत जरूरी है, ताकि वह स्वस्थ और संतुलित रहे.”

राधा ने मां की बातें ध्यान से सुनीं और उन की सलाह के अनुसार अपने चेहरे की देखभाल शुरू कर दी. धीरेधीरे उस ने देखा कि उस के छिद्र छोटे होने लगे और उस की त्वचा फिर से साफ और चमकदार हो गई.

खुले छिद्र (ओपन पोर्स) त्वचा की एक सामान्य समस्या है, विशेषकर तैलीय और मिश्रित त्वचा वाले लोगों में. ये छोटेछोटे छिद्र, जो हमारी त्वचा पर प्राकृतिक रूप से होते हैं, त्वचा की सुंदरता को प्रभावित कर सकते हैं. समय के साथ अगर इन की देखभाल सही से न हो, तो ये छिद्र बड़े दिखने लगते हैं और त्वचा अस्वच्छ और असमान दिखाई देती है.

आइए जानते हैं कि खुले छिद्र क्यों होते हैं और उन्हें कैसे कम किया जा सकता है :

खुले छिद्र क्या होते हैं

हमारी त्वचा पर मौजूद छिद्र तैलीय और पसीने की ग्रंथियों से जुड़े होते हैं. इन छिद्रों से सेबम (तेल) और पसीना त्वचा की सतह पर निकलता है. ये छिद्र नौर्मल रूप से दिखाई नहीं देते, लेकिन जब छिद्रों में तेल, गंदगी और मृत त्वचा के कण जमा हो जाते हैं, तो ये बढ़ कर बड़े और अधिक दिखाई देने लगते हैं. ये खुले छिद्र चेहरे की चिकनाई और सुगठित त्वचा को प्रभावित करते हैं.

खुले छिद्रों के कारण

  1. तैलीय त्वचा : तैलीय त्वचा वाले व्यक्तियों में सीबम (तेल) का स्राव अधिक होता है, जिस से छिद्र जल्दी बंद हो जाते हैं और बड़े दिखाई देने लगते हैं.

2. उम्र बढ़ना : उम्र बढ़ने के साथ त्वचा की लोच (इलास्टिसिटी) कम हो जाती है, जिस से छिद्रों का आकार बढ़ने लगता है.

3. अनुचित स्किन केयर : त्वचा की सफाई और देखभाल न करने से छिद्रों में गंदगी, मृत त्वचा और तेल जमा हो जाते हैं, जिस से वे बड़े हो जाते हैं.

4. अधिक सूरज का संपर्क : सूर्य की किरणें त्वचा के कोलेजन को नुकसान पहुंचाती हैं, जिस से त्वचा ढीली पड़ जाती है और छिद्र अधिक खुले हुए नजर आते हैं.

खुले छिद्रों को रोकने और कम करने के उपाय

  1. रोजाना सफाई : अपनी त्वचा को रोजाना 2 बार साफ करें. इस से त्वचा से अतिरिक्त तेल और गंदगी निकल जाएगी और छिद्र साफ रहेंगे. तैलीय त्वचा के लिए हलके क्लींजर का इस्तेमाल करें.

2. टोनर का इस्तेमाल : छिद्रों को सिकोड़ने के लिए टोनर का प्रयोग करें. टोनर त्वचा को ताजगी प्रदान करता है और छिद्रों को कम करने में मदद करता है. विलो बर्क या विच हेज़ल युक्त टोनर इस काम के लिए बहुत अच्छे माने जाते हैं.

3. सप्ताह में एक बार ऐक्सफोलिएशन : मृत त्वचा और गंदगी को हटाने के लिए हफ्ते में 1 या 2 बार स्क्रब करें. इस से छिद्रों में जमा अशुद्धियां साफ हो जाती हैं और छिद्र खुलने की समस्या कम होती है.

4. सनस्क्रीन का इस्तेमाल : सूरज की किरणों से बचाव के लिए हमेशा सनस्क्रीन का उपयोग करें. एसपीएफ युक्त सनस्क्रीन त्वचा को सुरक्षित रखता है और छिद्रों को बढ़ने से रोकता है.

5. फेस मास्क का उपयोग : सप्ताह में एक बार मिट्टी का मास्क (क्ले मास्क) या चारकोल मास्क का प्रयोग करें. ये मास्क त्वचा से अतिरिक्त तेल और गंदगी को निकालते हैं और छिद्रों को सिकोड़ने में मदद करते हैं.

6. मौइस्चराइजिंग : हाइड्रेटेड त्वचा हमेशा स्वस्थ रहती है. सही मौइस्चराइजर का इस्तेमाल कर के त्वचा को नमी प्रदान करें ताकि त्वचा संतुलित रहे और छिद्र बड़े न दिखें.

घरेलू उपाय

  1. बर्फ के टुकड़े : चेहरे पर बर्फ के टुकड़े लगाने से छिद्र सिकुड़ते हैं और त्वचा टाइट होती है. यह त्वरित परिणाम के लिए बहुत अच्छा उपाय है.

2. शहद और नीबू का मास्क : शहद और नीबू का मिश्रण त्वचा के छिद्रों को साफ और टाइट करने में मदद करता है. इसे हफ्ते में 1 बार लगाएं.

रिश्ते को बनाना चाहते हैं मजबूत, तो इन बातों का रखें ध्यान

आजकल हम अपने स्वास्थ्य को ले कर काफी जागरूक रहते हैं. इस के लिए हम अपने खानपान, पोषण, फिटनैस, जैविक उत्पादों और पर्यावरण अनुकूल प्रथाओं पर अधिक ध्यान देते हैं. मगर क्या हम ने कभी अस्वस्थ रिश्तों के बारे में सोचा है? खराब या अस्वस्थ रिश्ते भी हमारे स्वास्थ्य के लिए फास्ट फूड और प्रदूषण की तरह ही हानिकारक हो सकते हैं अस्वस्थ रिश्ते हमें असहज, उदास, डरा हुआ महसूस करा सकते हैं, साथ ही मानसिक रूप से बीमार और कमजोर भी बना सकते हैं.

रिश्ते हमारे जन्म से ले कर मरने तक हमारे बीच बने रहते हैं. रिश्ते हमारे मातापिता, परिवार, सहपाठियों, दोस्तों आदि से शुरू होते हैं. इन में से हर रिश्ता हमारी मदद कर सकता है और हमें एक समृद्ध और बेहतर इंसान बना सकता है, साथ ही हमें खुशी भी दे सकता है. अस्वस्थ रिश्ते कभी इन में से किसी भी भावना को बढ़ावा नहीं दे सकते हैं.

हम सभी की जिम्मेदारी है कि हम अपनी भावनात्मक और मानसिक सेहत को उसी तरह सुरक्षित रखें जिस तरह हम अपने शारीरिक स्वास्थ्य को सुरक्षित रखते हैं.

वास्तव में स्वस्थ और अस्वस्थ रिश्ते हमारे व्यक्तित्व का आईना भी होते हैं, कुछ रिश्ते तो हमें जन्म लेते ही मिल जाते हैं जैसे मातापिता, भाईबहन, मौसी या बूआ आदि जिन्हें हमें स्वीकारना ही पड़ता है लेकिन कुछ रिश्ते जैसे पतिपत्नी, दोस्ती, पड़ोसियों, औफिस आदि में जो बनते हैं उन्हें हम अपनी मरजी या पसंद से बनाते हैं. हां एक बात याद रखने योग्य है कि रिश्ते बनाना भले आसान हो पर उन्हें बचाना या निभाना एक कला है. इसे कोई भी व्यक्ति साथ ले कर जन्म नहीं लेता बल्कि इसे समय के साथ सीखा जा सकता है.

किसी भी व्यक्तिकी सफलता सिर्फ उस की आर्थिक स्थिति या कैरियर से ही तय नहीं होती बल्कि यह भी देखा जाता है कि उस के दोस्तों, रिश्तेदारों से संबंध कैसे हैं. यदि रिश्ते स्वस्थ हैं तो उसे एक अच्छा सफल इंसान माना जाता है और यदि वह अस्वस्थ रिश्तों के साथ रहता है तो उस की गिनती एक असफल और बुरे इंसान के रूप में की जाती है इसलिए स्वस्थ और अस्वस्थ रिश्ते हमारे व्यक्तित्व का आईना भी होते हैं.

स्वस्थ रिश्तों के लिए कुछ बातें मददगार हो सकती हैं:

बनें अच्छे श्रोता

रिश्ते लंबे समय तक बेहतर बनाए रखने के लिए जरूरी है कि आप एक श्रोता हों यानी दूसरे की बात भी सुनें अपनी ही न चलाएं. प्राय: यह देखा जाता है कि जिन लोगों को सिर्फ अपनी ही बात रखते रहने की आदत होती है लोग उन से कटने लगते हैं, जबकि जो लोग धैर्यपूर्वक औरों की भी बात सुनते हैं, उन्हें सभी प्यार करते हैं और लंबे समय तक उन से जुड़े रहना चाहते हैं.

अपेक्षाएं कम से कम हों

रिश्ते तभी स्वस्थ बने रह सकते हैं जब अपेक्षाएं कम से कम हों अधिकांश रिश्ते इसलिए टूटते हैं कि हम उन से जरूरत से ज्यादा अपेक्षा रखने लगते हैं और बातबात पर अपनी शिकायतों का पिटारा खोल कर बैठ जाते हैं तथा यह भी भूल जाते हैं कि हम ने उन्हें क्या दिया? कैसा व्यवहार रखा? आदि. स्वस्थ रिश्तों में हमेशा देने की आदत डालें. चाहने की आदत जितनी कम होगी रिश्तात उतना ज्यादा खूबसूरत और लंबे समय तक रहेगा.

रिश्ते की अच्छी बौंडिंग के लिए निकालें समय

आज के भागमभाग वाले लाइफस्टाइल या जीवनशैली में रिश्तों के लिए समय निकलाना थोड़ा मुश्किल होता जा रहा है. रिश्ता कोई भी हो अच्छी बौंडिंग के लिए समय देना आवश्यक होता है ताकि एकदूसरे को सम झना आसान हो वरना बहस और मनमुटाव की आशंका बनी रहती है क्योंकि अकसर किसी भी रिश्ते में यह सुना जा सकता है कि देखो अब जरूरत पड़ी तो फोन लगा लिया या आ गए, अब मिलने की फुरसत मिल गई या अब याद आ गई न हमारी वगैरहवगैरह. तो इन सब से बचने के लिए और एक स्वस्थ रिश्ते के लिए अपनी व्यस्त लाइफ में से कुछ समय अवश्य निकालें.

यूज ऐंड थ्रो से बचें

किसी भी स्वस्थ रिश्ते के लिए जरूरी है कि सिर्फ काम के लिए ही नहीं बल्कि हमेशा हर समय अपने प्रियजनों के संपर्क में रहें. अगर आप अपने दोस्तोंरिश्तेदारों को सिर्फ काम के समय याद करते हैं तो मान कर चलिए कि आप के रिश्ते बहुत समय तक चलने वाले नहीं हैं. इस से लोगों को लगने लगता है कि आप स्वार्थी हैं और केवल काम के समय औरों को याद करते हैं. रिश्ते यूज ऐंड थ्रो की श्रेणी में नहीं आते. इसलिए सिर्फ काम के लिए नहीं बल्कि हमेशा अपने प्रियजनों के संपर्क में रहें. इस के लिए विशेष अवसर जैसे त्योहार, नया साल, बर्थडे, ऐनिवर्सरी  आदि पर कुछ समय निकाल कर यदि संभव हो तो मिलेंजुलें नहीं तो फोन जरूर लगाएं और उन्हें शुभकामनाएं, बधाई अवश्य दें ताकि रिश्तों में मधुरता बनी रहे.

प्रशंसा करें

प्रशंसा सभी को पसंद आती है इसलिए प्रशंसा करने में कंजूसी न करें. यह उन के लिए मानसिक खुराक हो सकती है. जब भी आप के लिए कोई कुछ अच्छा करे, अपने निजी, पारिवारिक या व्यावसायिक जीवन में सफलता हासिल करे तो उस की प्रशंसा जरूर करें. हर किसी को स्पैशल फील होना अच्छा लगता है इसलिए कभीकभी यह मौका देते रहें. ऐसा करना रिश्ते को तनाव से दूर रखता है.

ईगो को रखें दूर

यदि किसी कारण से रिश्तों में कड़वाहट या दूरियां आ जाएं या मनमुटाव हो जाए तो अपने ईगो को आड़े न आने दें और रिश्तों को दोबारा बनाने या जोड़ने, मनमुटाव को दूर करने में देरी न करें पहले आप पहले आप के चक्कर में न पड़ें. पहले पहल कर अपनी सम झदारी का परिचय दें और रिश्ते को स्वस्थ बनाएं.

तुलना से बचें

अकसर हर रिश्ते में प्राय: देखा जाता है कि हम हर समय तुलना करते रहते हैं. हम या मैं क्यों ऐसा करूं, हम क्यों वैसा करें, उन्होंने भी ऐसा नहीं किया तो हम ही क्यों करें. उन्होंने हमें नहीं बुलाया तो हम क्यों बुलाए वैगरहवैगरह कुछ ऐसे ही सवाल हमें बेवजह परेशान करते हैं इसलिए किसी रिश्ते को स्वस्थ रखने के लिए तुलना न करें. आप वही करें जो आप करना चाहते हैं सामने वाले के व्यवहार या देनेलेने से तुलना न करें. तभी आप अपने रिश्तों को स्वस्थ रख पाएंगे.

लें तकनीक की मदद

आज के डिजिटल युग में टैक्नोलौजी हमारी रोजमर्रा की लाइफ का एक अहम हिस्सा बन चुकी है. यहां तक कि हम हमारे स्मार्टफोन से सोशल मीडिया और वीडियो कौल तक अपने करीबियों से जुड़े रहने पर काफी भरोसा करने लगे हैं. एडवांस टैक्नोलौजी ने हमारे करीबियों के साथ जुड़ना पहले से कहीं ज्यादा आसान बना दिया है इसलिए यदि विशेष मौकसें जैसे बर्थडे, ऐनिवर्सरी या किसी और अवसर पर अपने दोस्तों, परिवारजनों से कनैक्ट या जुड़े रहने के लिए टैक्नोलौजी की मदद लें. आजकल की व्यस्तता भरी लाइफ में यह आप के रिश्ते को स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक है.

ईर्ष्या की भावना से बचें

रिश्ता कोई भी हो यदि आप उसे ईर्ष्या की भावना से दूर रखेंगे तो यकीनन वह रिश्ता बेहद खुशियों से भरा, तनाव रहित और खूबसूरत होगा क्योंकि अकसर यह देखा जाता है जब भी हमारे किसी परिचित या रिश्तेदार या किसी दोस्त अथवा भाईबहन के यहां कुछ भी अच्छा होता है जैसे उन के यहां नई कार आ जाए, नया मकान खरीद लें, अच्छी नौकरी लग जाए या उन का बच्चा पढ़ने में अच्छा हो आदि तो हमें जलन या ईर्ष्या होने लगती है कि इस के यहां क्यों कुछ अच्छा हो गया जिस के कारण हम बेवजह परेशान बने रहते हैं या होते हैं. फिर मजबूरी में हम उन्हें बधाई भी देते हैं और  झूठी प्रसंशा भी करते हैं लेकिन बहुत ही दुखी मन से और यह भावना हमें मानसिक रूप से बीमार भी बना सकती है.

पितृदोष : डर के आगे पंडों की मौज

सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त भोपाल के 71 वर्षीय श्रीराम को एक दिन उन के परिजन धोखे से एक वृद्धाश्रम में छोड़ गए. परिजनों द्वारा प्रताड़ित श्रीराम ने क्षुब्ध हो कर अपनी वसीयत वृद्धाश्रम के नाम कर कहा कि मृत्यु के बाद उन की देह को रिसर्च के लिए हौस्पिटल को दान कर दिया जाए.

3 साल पहले जब उन की मृत्यु हुई तो उन की देह हौस्पिटल को दान कर दी गई. बारबार सूचना देने के बाद भी उन के परिजन अंतिम संस्कार में नहीं आए. श्री हरि वृद्धाश्रम के संचालक के अनुसार, अब 3 साल बाद उन के बच्चे अपने पिता की कोई निशानी लेने आ रहे हैं ताकि अपने पिता का तर्पण कर सकें और अपने जीवन में आ रही तमाम परेशानियों से मुक्ति पा सकें.

भोपाल में ही आसरा वृद्धाश्रम की संचालिका राधा चौबे के अनुसार, कई बार परिजन सूचना देने के बाद भी मुखाग्नि देने तक नहीं आते. बाद में उन की चप्पलें, जूते, छड़ी, चश्मा, कपड़े जैसी निशानियां लेने आते हैं ताकि उन वस्तुओं को प्रतीक मान कर अपने पितरों का अंतिम संस्कार और तर्पण कर सकें.

डर है मुख्य कारण

वरिष्ठ काउंसलर निधि तिवारी कहतीं हैं, “दरअसल, अपने परिजन की मृत्यु के बाद उन का सामान लेने आने के पीछे मुख्य वजह डर है. अपने मातापिता के साथ किए गए दुर्व्यवहार के कारण कहीं न कहीं बच्चों के मन में अपराधबोध रहता है कि कहीं मर कर आत्मा उन्हें परेशान न करने लगे.”

वे आगे कहतीं हैं, ”आश्चर्य होता है कि जो बच्चे जीतेजी अपने मातापिता को एक गिलास पानी तक को नहीं पूछते वे बच्चे उन के जाने के बाद उन की निशानियां खोजते नजर आते हैं, इस की अपेक्षा यदि जीतेजी उन्हें थोड़ा प्यार और इज्जत दे कर दो मीठे बोल लें तो वे भी शांति से इस संसार से जा पाएंगे और बाद में इन्हें भी डर नहीं सताएगा.”

अपना घर नामक वृद्धाश्रम की संचालिका माधुरी मिश्रा कहतीं हैं, “मातापिता की निशानी लेने आने वालों का कहना होता है कि उन के जीतेजी तो कभी डर नहीं लगा पर अब उन के जाने के बाद हर दिन डर लगता है कि उन की आत्मा परेशान न करे.”

वे आगे कहतीं हैं,”लोग अपने परिजन की मृत्यु पर आना तो भूल जाते हैं पर मरने के बाद उन का सामान और मृत्यु प्रमाणपत्र ले जाना नहीं भूलते.”

इस से यह जाहिर होता है कि श्राद्ध पक्ष में पितरों का तर्पण केवल अपनी आत्मा और मन की शांति के लिए किया जाता है, इस पक्ष में उन्हें तृप्त करने का उद्देश्य भी यही है कि वे ऊपर जा कर भी खुश रहें और जमीन पर रह रहे अपने बच्चों को किसी प्रकार का कोई श्राप आदि न दें.

अस्मित ने अपने नए घर में प्रवेश किया. अगले दिन ही फर्श पर पानी पड़े होने के कारण उस की पत्नी वर्षा का पैर फिसल गया जिस से पैर में फ्रैक्चर हो गया. 2 दिन बाद ही गांव से उस के चाचाजी की मौत की सूचना आ गई. जब तक वह इन सब से निबट पाता तभी उस के बेटे का ऐक्सीडैंट हो गया. एक के बाद एक आई परेशानियों से घबरा कर एक पंडितजी के पास पहुंच कर उस ने सारी व्यथा बताई तो पंडितजी ने पितृदोष बताया और इस के निराकरण के लिए पूजा कराने के लिए कहा. पंडितजी के पास आने के बाद अस्मित को अपने पिता की बहुत याद तो आने ही लगी साथ ही उन के साथ किया गया अपना व्यवहार भी उसे परेशान करने लगा.

दिनरात वह यही सोचता रहा कि काश, उस ने अपने पिता को वृद्धाश्रम में न छोड़ा होता. दिनरात यही सोचने से उसे सपने में भी पिताजी आने लगे और भयभीत हो कर जब उस ने पितृदोष की पूजा करवाई तब जा कर कहीं उस के मन को शांति मिली.

पंडों और पुजारियों का फैलाया जाल

अस्मित की ही तरह जब भी आम आदमी अपने जीवन में आने वाली परेशानियों से मुक्ति के लिए पंडित के पास जाते हैं तो पंडित परेशानियों का कारण पितृदोष बताते हैं और इस के लिए एक विशेष पूजा करवाते हैं जिसे पितृदोष से मुक्त करने वाली पूजा माना जाता है.

पंडितों के अनुसार, इस पूजा को करवाने के बाद पितृदोष समाप्त हो जाता है और जीवन की परेशानियों से मुक्ति मिल जाती है.

उज्जैन के एक पंडित के अनुसार, “यों तो सालभर ही पितृदोष की पूजा करवाई जा सकती है पर पितृपक्ष में इस पूजा को करवाने का विशेष महत्त्व होता है. एक दिन की पूजा का ₹5,100 और 3 दिन की पूजा का ₹21 से 25 हजार तक का खर्च आता है. पूजा की समस्त सामग्री हमारी ही होती है, यजमान को सिर्फ तैयार हो कर आना होता है.”

यही कारण है कि इन दिनों वाराणसी, उज्जैन जैसे तीर्थस्थलों पर पितृपक्ष में विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है और पंडितों को मोटी राशि दक्षिणा के रूप में दी जाती है.

यही नहीं, बिहार के गया को तर्पण के लिए विशेष स्थान माना गया है। पंडितों के अनुसार यहां तर्पण करने से पितरों को मोक्ष मिलता है.

हाल ही में एक समाचारपत्र में छपी खबर के अनुसार, इन दिनों गया के सभी होटल और धर्मशालाएं महंगे रेट होने के बाद भी पूरी तरह फुल हैं. देश ही नहीं विदेशों से भी लोग इन दिनों अपने पितरों के तर्पण के लिए आते हैं.

समाचारपत्र के अनुसार, इन दिनों यहां के पंडित इस कदर व्यस्त होते हैं कि वे अपनी मदद के लिए विदेशों में महंगे कोर्स कर रहे या फिर नौकरी कर रहे अपने बच्चों को भी 15 दिनों के लिए अपने पास बुला लेते हैं। इस से उन की मोटी कमाई का अंदाजा लगाया जा सकता है.

इस तरह की पूजाओं में पंडितों की जमकर चांदी होती है. इन पूजाओं में प्रयोग किए जाने वाले चांदी, तांबा और पीतल के बर्तनों और विविध प्रकार की दालों आदि को एक बार खरीदने के बाद बारबार प्रयोग किया जाता है। पूजा के बाद बर्तनों और समस्त सूखी सामग्री को अलगअलग थैलियों में भर लिया जाता है जिस से उन का दोबारा आराम से प्रयोग हो सकें और इस तरह पूजा के लिए बारबार ली गई पूरी की पूरी धनराशि बच जाती है और यही उन की असली कमाई होती है.

वर्तमान को सुखद बनाने की जरूरत

जन्म और मृत्यु एक शाश्वत सत्य है, यानि जिस ने इस धरती पर जन्म लिया है उस की मृत्यु निश्चित है. माता पिता बच्चे के जन्म होने के बाद से ही अपना पूरा जीवन अपने बच्चों की खुशी में ही समर्पित कर देते हैं। ऐसे में बड़े होने के बाद बच्चों के द्वारा अपनी उपेक्षा वे सहन नहीं कर पाते और हरदम अपनी परवरिश को ही कोसना प्रारंभ कर देते हैं. यहां तक कि इसी उधेड़बुन में जीतेजीते वे बीमार रहने लगते हैं और एक दिन इस दुनिया से कूच कर जाते हैं.

मातापिता के जीतेजी तो बच्चों को उन की अहमियत समझ नहीं आती पर जब वे इस संसार से चले जाते हैं तो उन्हें उन के प्रति किया गया अपना व्यवहार अंदर ही अंदर कचोटने लगता है. यही डर उन्हें अपने पितरों को संतुष्ट करने के लिए तर्पण करने को विवश करने लगता है.

आज जरूरत इस बात की है कि अपने परिजनों के जीतेजी ही उन की भलीभांति देखभाल की जाए, उन्हें भरपूर प्यार और सम्मान दिया जाए, उन की छोटीछोटी जरूरतों को समझ कर उन्हें पूरा करने का प्रयास किया जाए ताकि वे जब तक जिएं, खुश हो कर जिएं और संतुष्ट हो कर इस संसार से जाएं.

यह सब करने के लिए किसी पंडे या पुजारी की नहीं बल्कि हमारी तार्किक और सकारात्मक सोच की आवश्यकता होगी.

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