बकरा: भाग 2- क्या हुआ था डिंपल और कांता के साथ

लेखक- कृष्ण चंद्र महादेविया

चेला छांगू भी कहीं से टपक कर चोरीछिपे उन की बातें सुनने लगा था. डिंपल पर उस की बुरी नजर से कांता पूरी तरह परिचित थी और वह उसे देख भी चुकी थी.

उस ने चेले को बड़ी मीठी आवाज में पुकारा, ‘‘चेलाजी, चुपकेचुपके क्या सुनते हो… पास आ कर सुनो न.’’ छांगू था पूरा चिकना घड़ा. वह ‘हेंहेंहें’ करता हुआ उन के पास आ कर खड़ा हो गया.

‘‘दोनों क्या बातें कर रही हो, जरा मैं भी सुनूं?’’ उस ने कहा.

‘‘चेलाजी, हमारी बातों से आप को क्या लेनादेना. आप मेले में जाइए और मौज मनाइए,’’ डिंपल ने सपाट लहजे में कहा. उसे चेले का वहां खड़े होना अच्छा नहीं लगा था.

‘‘हाय डिंपल, तुम्हारी इसी अदा पर तो मैं मरता हूं,’’ छांगू चेले की ‘हाय’ कहने के साथ ही शराब पीए होने की गंध से एक पल के लिए तो उन दोनों के नथुने फट से गए थे, फिर भी कांता ने बड़े प्यार से कहा, ‘‘चेला भाई, आप की उम्र कितनी हो गई होगी?’’

‘‘अजी कांता रानी, अभी तो मैं 40-45 साल का ही हूं. तू अपनी सहेली डिंपल को समझा दे कि एक बार वह मुझ से दोस्ती कर ले, तो फायदे में रहेगी. देवता का चेला हूं, मालामाल कर दूंगा.’’

‘‘क्या आप की बीवी और खसम करेगी?’’

‘‘चुप कर कांता, ये लोहारियां हम खशकैनेतों के लिए ही हैं. जब चाहे इन्हें उठा लें… पर प्यार से मान जाए तो बात कुछ और है. तू इसे समझा दे, मैं देवता का चेला हूं. पूरे तंत्रमंत्र जानता हूं.’’

डिंपल के पूरे बदन में बिजली सी रेंग गई. उस के दिल में एक बार तो आया कि अभी जूते से मार दे, पर बखेड़ा होने से वह मुफ्त में परेशानी मोल नहीं लेना चाहती थी, तो उस ने सब्र का घूंट पी लिया.

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‘‘पर तुम्हारी मोटी भैंस का क्या होगा? वह और खसम करेगी या किसी लोहार के साथ भाग जाएगी,’’ कांता ने ताना कसते हुए कहा, तो छांगू चेला भड़क गया.

‘‘चुप कर कांता, लोहारों की इतनी हिम्मत कि वे हमारी औरतों को छू भी सकें. पर तू इसे मना ले. इसे देखते ही मेरा पूरा तन पिघल जाता है. इस लोहारी में बात ही कुछ और है. पर याद रख कांता, मैं देवता का चेला हूं, जरा संभल कर बात करना… हां.’’

तभी डिंपल ने उस के चेहरे पर एक जोर का तमाचा जड़ दिया. दूसरा थप्पड़ कांता ने मारा. छांगू चेले का सारा नशा हिरन हो गया. उस की सारी गरमी पल में उतर गई. हैरानपरेशान सा गाल मलते हुए वह कभी डिंपल, तो कभी कांता को देखने लगा. ‘‘खबरदार, अगर डिंपल की तरफ नजर उठाई, तो काट के रख दूंगी. लोहारों की क्या इज्जत नहीं होती? लोहारों की औरतें औरतें नहीं होतीं? देवता के नाम पर तुम्हारे तमाशों को हम अच्छी तरह जानती हैं. चुपचाप रास्ता नाप ले, नहीं तो गरदन उड़ा दूंगी,’’ कमर से दरांती निकाल कर कांता ने कहा, तो छांगू चेला थरथर कांपने लगा. वह गाल मलता हुआ दुम दबा कर खिसक लिया.

डिंपल और कांता खूब हंसी थीं. फिर काफी देर तक वे गांव के रिवाजों और प्रथाओं पर चर्चा करते रहने के बाद अपनेअपने घरों को लौटी थीं. सुबह ही एक खबर जंगल की आग की तरह पूरे चानणा गांव में फैल गई कि माधो लोहार शराब के नशे में खशों के रास्ते चल कर उसे अपवित्र कर गया. उस की बेटी डिंपल ने लटूरी देवता के मंदिर को छू कर अनर्थ कर दिया. खश तो आग उगलने लग गए. वहीं माधो से खार खाए लोहार भी बापबेटी को बुराभला कहने लगे. गुर खालटू ने कारदारों के जरीए पूरे गांव को मंदिर के मैदान में पहुंचने का आदेश भिजवा दिया. वह खुद छांगू, भागू और 3-4 कारदारों के साथ माधो के घर जा पहुंचा.

आंगन में खड़े हो कर गुर खालटू ने रोब से पुकारा, ‘‘माधो, ओ माधो… बाहर निकल.’’

माधो की डरीसहमी पत्नी ने आंगन में चटाई बिछाई, लेकिन उस पर कोई न बैठा. इतने में माधो बाहर निकल आया और हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया. डिंपल भी अपनी मां के पास खड़ी हो गई. उस ने किसी को भी नमस्ते नहीं किया. उसे देख कर छांगू चेले ने गरदन हिलाई कि अब देखता हूं तुझे. ‘‘माधो, तू ने रात खशों के रास्ते पर चल कर बहुत बड़ा गुनाह कर दिया है. तू जानता है कि तुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था. तेरी बेटी ने भी मंदिर को छू कर अपवित्र कर दिया है. अब देवता नाराज हो उठेंगे,’’ गंभीर चेहरा किए गुर खालटू ने जहर उगला.

‘‘गुरजी, यह सब सही नहीं है. न मैं खशों के रास्ते चला हूं और न ही मेरी बेटी ने मंदिर को छुआ है.’’

‘‘हां, मैं तो मंदिर की तरफ गई भी नहीं,’’ डिंपल ने निडरता से कहा, तो गुर थोड़ा चौंका. दूसरे लोग भी हैरान हुए, क्योंकि गुर और कारदारों के सामने बिना इजाजत कोई औरत या लड़की एक शब्द भी नहीं बोल सकती थी. डिंपल देवता के नाम पर होने वाले पाखंड और कानून के खिलाफ हो रहे भेदभाव पर बहुतकुछ कहना चाहती थी, पर अपनी योजना के तहत वह चुप रही.

‘‘तू चुप कर डिंपल, मैं ने तुझे मंदिर को हाथ लगाते देखा है,’’ छांगू चेले ने जोर से कहा.

‘‘हांहां, बिना हवा के पेड़ नहीं हिलता. तुम बापबेटी ने बहुत बड़ा गुनाह किया है, अब तो पूरे गांव को तुम्हारी करनी भुगतनी पड़ेगी. बीमारी, आग, तूफान, बारिश वगैरह गांव को तबाह कर सकती है. तुम लोगों को पूरे गांव की जिम्मेदारी लेनी होगी,’’ मौहता भागू गुस्से से बोला.

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‘‘तुम दोनों चुपचाप अपना गुनाह कबूल करो. हां, देवता महाराज को बलि दे कर और माफी मांग कर खुश कर लो,’’ एक मोटातगड़ा कारदार बोला.

‘‘जब हम ने गुनाह किया ही नहीं, तो बलि और माफी किस बात की?’’ डिंपल ने गुस्से में कहा, पर माधो की बोलती बंद थी.

‘‘माधो, इस से पहले कि देवता गुस्सा हो जाएं, तू अपने बकरे की बलि और धाम दे कर लटूरी देवता को खुश कर ले. इस से पूरा गांव प्रकोप से बच जाएगा. तुम्हारा परिवार भी देवता की नाराजगी से बच जाएगा. देख, तुझे देव गुर कह रहा है.’’

‘‘हांहां, बकरे की बलि दे कर ही रास्ते और मंदिर की शुद्धि होगी. लटूरी देवता खुश हो जाएंगे और गांव पर कोई मुसीबत नहीं आएगी,’’ छांगू चेले ने आंगन में बंधे बकरे और डिंपल को देख कर मुंह में आई लार को गटकते हुए कहा. उसे डिंपल और कांता के थप्पड़ भूले नहीं थे.

‘‘हां, धाम न लेने के लिए मैं देवता को राजी कर दूंगा, पर बकरे की बलि तो तय है माधो,’’ गुर ने फिर कड़कती आवाज में कहा. डिंपल और उस की मां ने बकरा देने की बहुत मनाही की, पर गुर खालटू और देव कारकुनों के डराने पर माधो को मानना पड़ा. उस ने एक बार फिर सभी को बताया कि वह अपने रास्ते चल कर ही घर आया था और उस की बेटी ने मंदिर छुआ ही नहीं, पर उस की बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया. मौहता भागू ने झट बकरा खोला और मंदिर की ओर ले चला. फिर सभी मंदिर की ओर शान से चल दिए. चलतेचलते गुर खालटू ने माधो को बेटी समेत लटूरी देवता के मैदान में पहुंचने का आदेश दिया.

लटूरी देवता के मैदान में पूरे गांव वाले इकट्ठा हो गए. देवता के गुर खालटू ने धूपदान में रखी गूगल धूप को जला कर एक हाथ में चंबर लिए मंदिर की 3 बार बड़बड़ाते हुए परिक्रमा की. देवता की पिंडी बाहर निकाल कर पालकी में रख दी गई.

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येलो और्किड: भाग 2- मधु के जीवन में सुरेंदर ने कैसे भरी खुशियां

उन की बातें दुनिया के झमेले से शुरू हो कर अकसर कालेज की कभी न लौटने वाली सुनहरी यादों पर खत्म हो जाती थीं. मेहंदी के रंग की तरह वक्त के साथ और भी गहरी हो चली थी उन की दोस्ती. हर सुखदुख दोनों साझा करती थीं.

अपने रिटायर्ड कर्नल पति के साथ पम्मी जिंदगी को जिंदादिली से जीने में यकीन रखती थी. इस उम्र में भी जवान दिखने की हसरत बरकरार थी उस की. बच्चों की जिम्मेदारियों से फारिग हो चुके थे वे लोेग. कर्नल साहब और पम्मी मौके तलाशते थे लोगों से मिलनेमिलाने के.

अगले ही रविवार की शाम एक पार्टी रखी थी दोनों ने अपने घर पर अपनी शादी की एक और शानदार सालगिरह का जश्न मनाने के लिए. कर्नल साहब के फौजी मित्र और पम्मी की कुछ खास सहेलियां, सब वही लोग थे जो ढलती उम्र में हमजोलियों के साथ हंसीमजाक के पल बिता कर अकेलेपन का बोझ कुछ कम कर लेना चाहते थे.

कालेज की लाइब्रेरी से मोटीमोटी किताबें ला कर मधु सप्ताहांत की छुट्टियां बिता लेती थी. कोई खास जानपहचान वाला था नहीं जहां उठानाबैठना होता. पति के जाने के बाद मधु की दुनिया बहुत छोटी हो चली थी.

जिन बच्चों की परवरिश में जवानी गुजर गई, वे अब बुढ़ापे के अकेलेपन में साथ नहीं थे. इस में उन का ही क्या दोष था, यह तो जमाने का चलन है.

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विकास के विदेश में नौकरी का सपना अकेले विकास का ही नहीं, मधु का भी था. बेटे की कामयाबी मधु के माथे का गौरव बनी थी. अपने दोनों बच्चों का भविष्य संवारने में मधु ने क्याक्या त्याग नहीं किए थे. अकेली विधवा औरत समाज में दामन बचाती चली, कभी दोनों को पिता की कमी महसूस नहीं होने दी.

बावजूद इस सब के, उस के मन का एक कोना कहीं रीता ही रह गया था. वह एक मां थी, लेकिन एक औरत भी तो थी उस से पहले. विकास और सुरभि जब छोटे थे, उन की दुनिया, बस, मां के चारों ओर घूमती थी. घर में रहते तो मधु को एक पल की फुरसत नहीं मिलती थी उन की फरमाइशों से. कालेज से आते ही दोनों घेर लिया करते थे उसे.

उन पुराने दिनों को याद कर के एक गहरी टीस सी हुई सीने में. पम्मी ने फोन कर के उसे फिर से याद दिलाया कि पार्टी में वक्त से पहुंच जाए. न चाहते हुए भी पम्मी के बुलावे में जाना जरूरी था उस के लिए, खास दोस्त को नाराज नहीं कर सकती थी.

अपनी अलमारी में करीने से टंगी एक से एक खूबसूरत साडि़यों में से साड़ी छांटते हुए एक हलके फिरोजी रंग की शिफोन साड़ी पर उस की नजर पड़ी. साड़ी को बड़ी नफासत से पहन कर जब वह तैयार हो कर शीशे के सामने खड़ी हुई तो दिल में एक हूक सी उठी. गले में सफेद मोतियों की लड़ी और उस से मेलखाते बुंदों ने चेहरे के नूर में चारचांद लगा दिए थे. यह रंग उस पर कितना फबता था. सहसा उस की नजर उन सफेद तारों पर पड़ी जो काले बालों के बीच में से झांक रहे थे. उम्र भी तो हो चली थी. आखिर कब तक छिपा सकता है कोईर् वक्त के निशानों को. मधु अपवाद नहीं थी. शीशे में खुद को निहारते हुए उस ने एक बार फिर से अपना पल्लू ठीक किया.

हाथ में बुके लिए वह टैक्सी से उतर कर आलीशान बंगले के लौन की तरफ बढ़ चली जहां पार्टी का आयोजन किया गया था. जगमगाती रोशनी की लडि़यों से सजा लौन मेहमानों के स्वागत को तैयार था.

कर्नल साहब दोस्तों के साथ चुहलबाजी कर रहे थे. उन की जिंदादिल हंसी से महफिल गूंज रही थी. वहां आए हुए अधिकांश मेहमान दंपती थे. सब दावत की रौनक में डूबे हुए युवाजोश के साथ मिलमिला रहे थे. लौन के एक कोने में फूलों की सुंदर सजावट की गई थी. हरी घास पर येलो और्किड के फूल बरबस ही ध्यान खींच रहे थे. और्किड के फूल हमेशा से उसे खासतौर पर पसंद थे. जिस ने भी उन की सुंदर सजावट की थी, वह सराहना का पात्र था.

‘‘हैलो, आप से दोबारा मिल कर अच्छा लगा. कैसी हैं आप?’’ अपने पीछे एक आवाज सुन कर उस ने पलट कर देखा.

वही अजनबी जो उस दिन बिना नाम बता निस्वार्थ मदद कर के चला गया था.

‘‘अरे आप? इस तरह फिर से अचानक मुलाकात हो जाएगी, सोचा नहीं था,’’ मधु ने कहा.

‘‘आई एम सुरेंदर, कर्नल मेरा पुराना यार है.’’

‘‘और मैं मधु शर्मा, पम्मी की सहेली.’’

‘‘आइए, बैठते हैं’’, पास ही एक टेबल के पास उन्होंने मधु के लिए कुरसी खींच दी.

‘‘देखिए न, उस दिन आप ने इतनी मदद की और मैं आप को चायपानी तक नहीं पूछ पाई. इस बात का अफसोस है मुझे.’’

‘‘छोडि़ए अफसोस करना, अब दोबारा मुलाकात हुईर् है तो फिर किसी दिन आप बदला चुका देना,’’ जोर का ठहाका लगा कर सुरेंदर बोले.

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हवा के ठंडे झोंकों से मौसम खुशगवार हो चला था. एक खूबसूरत गजल पार्श्व में बज रही थी. मधु को सुरेंदर बहुत हंसमुख और सलीकेदार इंसान लगे. उस शाम बहुत देर तक दोनों बातें करते रहे और यह मुलाकात उन के बीच एक मधुर दोस्ती की नींव डाल गई.

उस दिन के एहसान की भरपाई मधु ने सुरेंद्र के साथ एक रैस्टोरैंट में कौफी पीते हुए की. मुलाकातों का सिलसिला चल निकला. कभी दोनों मिलते तो कभी पम्मी की चाय पार्टी में मुलाकात हो जाती. अविवाहित सुरेंदर सेवानिवृत्त होने के बाद कईर् एकड़ जमीन पर बनी नर्सरी और हौर्टिकल्चर बिजनैस चलाते थे. मधु जब भी उन की नर्सरी जाती, सुरेंदर फूलों से खिले गमले उसे सौगात में देते. अब तक वे जान चुके थे मधु को फूलों और बागबानी से बेहद प्यार था. उस के घर की बालकनी किस्मकिस्म के फूल वाले पौधों से सजी गुलिस्तान बन गई थी.

सुरेंदर अविवाहित थे जबकि मधु परिवार होते हुए भी अकेली. दोनों अपनी जिंदगियों का खालीपन भरने के लिए खाली वक्त साथ गुजारने लगे जिस के लिए कभी बाहर खाने का मंसूबा बनता तो कभी सुरेंदर की गाड़ी में दोनों लौंग ड्राइव के लिए निकल जाते. एक निर्दोष रिश्ते में बंधते वे सुखदुख बांटने लगे थे.

एक दिन रैस्टोरैंट में बैठ कर कौफी पीते हुए मधु ने पूछा, ‘‘आप ने शादी क्यों नहीं की?’’

आंखों पर धूप का चौड़ा चश्मा चढ़ाए, अपनी उम्र से कम नजर आते सुरेंदर आकर्षक व्यक्तित्व के इंसान थे. उस पर लंबे कद और मजबूत कदकाठी के चलते उन का समूचा व्यक्तित्व प्रभावशाली लगता था. ऐसे सुकुमार व्यक्ति को किसी सुंदरी से प्रेम न हुआ हो, कैसा आश्चर्य था.

‘‘कुछ जिम्मेदारियां ऐसी थीं जिन का निर्वाह बहुत जरूरी था मेरे लिए. पिताजी के न रहने पर भाईबहनों की पढ़ाई और शादी की जिम्मेदारी मेरे कंधों पर थी. दोनों भाइयों का घर बस गया तो उन्होंने मां को वृद्धाश्रम में रखने की बात की क्योंकि कोई मां को रखना नहीं चाहता था.

‘‘मधुजी, मैं ने भारत मां की सेवा की कसम खाईर् थी मगर मेरी मां को भी मेरी जरूरत थी. बहुत साल नौकरी करने के बाद मैं ने स्वैच्छिक रिटायरमैंट ले लिया. जब तक मां थीं, उन की सेवा की. कुछेक रिश्ते तो आए पर कहीं संयोग नहीं बना. बिना किसी मलाल के जी रहा हूं, खुश रहता हूं. बस, दोस्तों का स्नेह चाहिए.’’ और हमेशा की तरह एक उन्मुक्त ठहाका लगा कर सुरेंदर हंस दिए.

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मधु के दिल में सुरेंदर के लिए सम्मान कुछ और बढ़ गया. जो खुद से ज्यादा अपनों की खुशी का खयाल रखे, ऐसे इंसान विरले ही होते हैं.

‘‘सुना है सुरेंदर के साथ आजकल खूब छन रही है,’’ पम्मी ने एक दिन मधु को छेड़ा.

यह सुन कर मधु के गाल सुर्ख हो गए. पम्मी फिर बोली, ‘‘मुझे अच्छा लग रहा है. आखिरकार, तू कुछ अपनी खुशी के लिए भी कर रही है.’’

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येलो और्किड: भाग 3- मधु के जीवन में सुरेंदर ने कैसे भरी खुशियां

दोनों बालकनी में बैठ कर शाम की चाय पी रही थीं. पम्मी ऐसी दोस्त थी जो मधु को जिंदगी खुल कर जीने के लिए प्रेरित करती थी.

‘‘सच कहूं, मुझे यकीन नहीं होता कि किसी से खुल कर बातें करने से दिमागी तौर पर इतना सुकून मिलता है. एक तू है जो समझती थी और अब सुरेंदर भी मुझे समझने लगे हैं.’’

मधु खुश थी और पम्मी यह देख कर खुश थी.

उसी शाम बेटे विकास ने फोन कर के बताया कि वह कुछ दिनों के लिए सपरिवार इंडिया आ रहा है. पिछले 3 सालों से हर बार वह मधु को अपने आने की सूचना देता, मगर कभी अपने काम या किसी और वजह से आना नहीं हो पा रहा था. बेटेबहू और दोनों नातिनों को देखने के लिए मधु का दिल कब से तरस रहा था, वह बेसब्री से दिन गिनने लगी.

बेटे के परिवार के आने से 2 दिनों पहले मधु का जन्मदिन आया. वह अपना जन्मदिन कभी नहीं मनाती थी. मगर उस के लाख मना करने के बावजूद डिनर का प्रोग्राम बन गया और सुरेंदर ने 2 लोगों के लिए टेबल बुक करा दी रैस्तरां में. दोनों जब शाम को मिले तो सुरेंदर बत्रा मधु को देखते ही रह गए. गुलाबी लहरिया साड़ी में मेकअप के साथ मधु का रूप आज कुछ अलग था. उस ने जब उन्हें इस तरह निहारते देखा तो शर्म की लाली उस के गालों पर दौड़ गई.

उस के चहेते येलो और्किड का गुलदस्ता उसे थमाते सुरेंदर मधु पर दिल हार बैठे थे. मधु कोई दूध पीती बच्ची नहीं थी जो उन आंखों में अपने लिए आकर्षण को न समझ पाती.

‘‘बहुत सुंदर फूल हैं,’’ मधु ने कहा.

‘‘बिलकुल आप की आंखों की तरह,’’ सुरेंदर अनायास ही बोल उठे और फिर अपने कहे पर खुद ही झेंप गए. यह सच था कि मधु उन के जीवन में आई वह पहली औरत थी जिस के लिए उन के मन में प्रीत की कोमल भावनाएं जागी थीं. सेना की नीरस जिंदगी और परिवार के प्रति उत्तरदायित्व के चलते उन के मन का वह कोना रीता ही रह गया था जहां प्रेम का रस बहता है.

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दोनों ने प्रेमपूर्वक कैंडल लाइट डिनर का आनंद लिया. हलकी फुहार सी पड़ने लगी तो ठंडी बयार तन सिहराने लगी. कुछ मौसम का खुमार था, कुछ दिल में उमड़ते जज्बात. बहुत दिनों में सुरेंदर जिस बात को दिल में दबाए हुए थे वह आज इस एकांत में मधु के समक्ष रखना चाहते थे.

शाम बहुत यादगार गुजरी. मधु को याद नहीं आया पिछली बार उस ने अपना जन्मदिन इस तरह कब मनाया था. घर के पास पहुंच कर मधु जब गाड़ी से उतर रही थी, तो सुरेंदर ने गाड़ी की पिछली सीट पर रखा खूबसूरत गिफ्ट पैक में लिपटा हुआ एक चौकोर डब्बा उसे भेंट किया.

यह उन की तरफ से जन्मदिन का तोहफा था मधु के लिए. घर पहुंच कर मधु ने उपहार खोला. सफेद मोतियों की नाजुक सी माला डब्बे में थी और साथ ही, एक खत भी. सुरेंदर जैसे मुखर व्यक्ति को दिल का हाल बताने के लिए खत की जरूरत क्यों पड़ी, उत्सुकतावश उस ने खत पढ़ना शुरू किया.

खत में उसे संबोधित करते हुए सुरेंदर ने अपने दिल की वे सारी भावनाएं बयान की थीं जो वे मधु के लिए महसूस करते थे. मधु खत पढ़ कर दुविधा में पड़ गई. कम उम्र में ही विधवा हो गई थी वह. पर उस ने आज तक किसी भी परपुरुष के बारे में नहीं सोचा था.

इतने सालों बाद किसी ने उसे प्रेमपाती भेज कर विवाह का प्रस्ताव भेजा था. उसे समझ नहीं आया इस बात की प्रतिक्रिया वह कैसे दे. सुरेंदर जैसे सज्जन इंसान का साथ भी उसे पसंद था पर शादी जैसी बात उस के मन में नहीं थी. इस उम्र में तन से ज्यादा मन की कुछ जरूरतें होती हैं. रिश्ते स्वार्थ की बुनियाद पर चलते हैं, लेकिन दोस्ती में कोई स्वार्थ निहित नहीं होता.

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अकेलेपन में घुटघुट कर जीना भी तो जिंदगी नहीं है, उस ने खुद से ही तर्क किया. किस से पूछे वह कि क्या सही है क्या गलत. जीवन की ढलती शाम किसी साथी की तलबगार थी, मगर समाज क्या कहेगा, परिवार क्या सोचेगा जैसे तमाम प्रश्न मुंहबाए खड़े थे. उस ने खत सहेज कर अपनी अलमारी में रख दिया. कुछ वक्त चाहिए था उसे इस बारे में सोचने के लिए. उस ने चिट्ठी का न जवाब दिया, न ही सुरेंदर को फोन किया.

विकास और बहू मोनिका आ चुके थे. बेटी सुरभि भी कुछ दिनों के लिए मायके आईर् थी. घर पर चहलपहल का माहौल बन गया था. मधु ने बच्चों के साथ अधिक वक्त गुजारने के लिए कुछ दिनों के लिए अवकाश ले लिया. रोज ही सब मिल कर कोई प्रोग्राम बनाते, कहीं फिल्म देख आते या कहीं घूमने चले जाते.

एक दिन सुरेंदर का फोन आया. मधु की तरफ से कोई जवाब न पा कर उन्हें लगा शायद वह नाराज है. दोनों की इस बीच बात नहीं हो पाई थी. मधु को अपने व्यवहार और स्वार्थीपन पर शर्मिंदगी हुई. वह अपने परिवार के आते ही उस दोस्ती की अहमियत भूल गई थी जो तनहाई में उस का संबल बनी थी.

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प्यार का विसर्जन : भाग 2- क्यों दीपक से रिश्ता तोड़ना चाहती थी स्वाति

इस मौसम में प्रकृति भी सौंदर्य बिखेरने लगती है. आम की मजरिया, अशोक के फल, लाल कमल, नव मल्लिका और नीलकमल खिल उठते हैं. प्रेम का उत्सव चरम पर होता है. कुछ ही दिनों में वैलेंटाइन डे आने वाला था और मैं ने सोच लिया था कि दीपक को इस दिन सब से अच्छा तोहफा दूंगी. इस दोस्ती को प्यार में बदलने के लिए इस से अच्छा कोई और दिन नहीं हो सकता.

आखिर वह दिन भी आ गया जब प्रकृति की फिजाओं के रोमरोम से प्यार बरस रहा था और हम दोनों ने भी प्यार का इजहार कर दिया. उस दिन दीपक ने मुझसे कहा कि आज ही के दिन मैं तुम से सगाई भी करना चाहता था. मेरे प्यार को इतनी जल्दी यह मुकाम भी मिल जाएगा, सोचा न था.

दीपक ने मेरे मांबाप को भी राजी कर लिया. न जैसा कहने को कुछ भी न था. दीपक एक अमीर, सुंदर और नौजवान था जो दिनरात तरक्की कर रहा था. आखिर अगले ही महीने हम दोनों की शादी भी हो गई. अपनी शादीशुदा जिंदगी से मैं बहुत खुश थी.

तभी 4 वर्षों के लिए आर्ट में पीएचडी के लिए लंदन से दीपक को स्कौलरशिप मिल गई. परिवार में सभी इस का विरोध कर रहे थे, मगर मैं ने किसी तरह सब को राजी कर लिया. दिल में एक डर भी था कि कहीं दीपक अपनी शोहरत और पैसे में मुझे भूल न जाए. पर वहां जाने में दीपक का भला था.

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पूरे इंडिया में केवल 4 लड़के ही सलैक्ट हुए थे. सो, अपने दिल पर पत्थर रख कर दीपक  को भी राजी कर लिया. बेचारा बहुत दुखी था. मुझे छोड़ कर जाने का उस का बिलकुल ही मन नहीं था. पर ऐसा मौका भी तो बहुत कम लोगों को मिलता है. भीगी आंखों से उसे एयरपोर्ट तक छोड़ने गई. दीपक की आंखों में भी आंसू दिख रहे थे, वह बारबार कहता, ‘स्वाति, प्लीज एक बार मना कर दो, मैं खुशीखुशी मान जाऊंगा. पता नहीं तुम्हारे बिना कैसे कटेंगे ये 4 साल. मैं ने अगले वैलेंटाइन डे पर कितना कुछ सोच रखा था. अब तो फरवरी में आ भी नहीं सकूंगा.’मैं उसे बारबार समझती कि पता नहीं हम लोग कितने वैलेंटाइन डे साथसाथ मनाएंगे. अगर एक बार नहीं मिल सके तो क्या हुआ. खैर, जब तक दीपक आंखों से ओझल नहीं हो गया, मैं वहीं खड़ी रही.

अब असली परीक्षा की घड़ी थी. दीपक के बिना न रात कटती न दिन. दिन में उस से 4-5 बार फोन पर बात हो जाती. पर जैसे महीने बीतते गए, फोन में कमी आने लगी. जब भी फोन करो, हमेशा बिजी ही मिलता. अब तो बात करने तक की फुरसत नहीं थी उस के पास.

कभी भूलेभटके फोन आ भी जाता तो कहता कि तुम लोग क्यों परेशान करते हो. यहां बहुत काम है. सिर उठाने तक की फुरसत नहीं है. घर में सभी समझते कि उस के पास काम का बोझ ज्यादा है. पर मेरा दिल कहीं न कहीं आशंकाओं से घिर जाता.

बहरहाल, महीने बीतते गए. अगले महीने वैलेंटाइन डे था. मैं ने सोचा, लंदन पहुंच कर दीपक को सरप्राइज दूं. पापा ने मेरे जाने का इंतजाम भी कर दिया. मैं ने पापा से कहा कि कोईर् भी दीपक को कुछ न बताए. जब मैं लंदन पहुंची तो दीपक को इस बारे में कुछ भी पता नहीं था. मैं पापा (ससुर) के दोस्त के घर पर रुकी थी. वहां मु?ो कोई परेशानी न हो, इसलिए अंकलआंटी मेरा बहुत ही ध्यान रखते थे.

वैसे भी उन की कोई संतान नहीं थी. शायद इसलिए भी उन्हें मेरा रुकना अच्छा लगा. उन का मकान लंदन में एक सामान्य इलाके में था. ऊपर एक कमरे में बैठी मैं सोच रही थी कि अभी मैं दीपक को दूर से ही देख कर आ जाऊंगी और वैलेंटाइन डे पर सजधज कर उस के सामने अचानक खड़ी हो जाऊंगी. उस समय दीपक कैसे रिऐक्ट करेगा, यह सोच कर शर्म से गाल गुलाबी हो गए और सामने लगे शीशे में अपना चेहरा देख कर मैं मन ही मन मुसकरा दी.

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किसी तरह रात काटी और सुबहसुबह तैयार हो कर दीपक को देखने पहुंची. दीपक का घर यहां से पास में ही था. सो, मुझे ज्यादा परेशानी नहीं उठानी पड़ी.

सामने से दीपक को मैं ने देखा कि वह बड़ी सी बिल्ंडिंग से बाहर निकला और अपनी छोटी सी गाड़ी में बैठ कर चला गया. उस समय मेरा मन कितना व्याकुल था, एक बार तो जी में आया कि दौड़ कर गले लग जाऊं और पूछूं कि दीपक, तुम इतना क्यों बदल गए. आते समय किए बड़ेबड़े वादे चंद महीनों में भुला दिए. पर बड़ी मुश्किल से अपने को रोका.

तब से मुझ पर मानो नशा सा छा गया. पूरा दिन बेचैनी से कटा. शाम को मैं फिर दीपक के लौटने के समय, उसी जगह पहुंच गई. मेरी आंखें हर रुकने वाली गाड़ी में दीपक को ढूं़ढ़तीं. सहसा दीपक की कार पार्किंग में आ कर रुकी तो मैं भौचक्की सी दीपक को देखने लगी. तभी दूसरी तरफ से एक लड़की उतरी. वे दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़े मंदमंद मुसकराते, एकदूसरे से बातें करते चले जा रहे थे. मैं तेजी से दीपक की तरफ भागी कि आखिर यह लड़की कौन है. देखने में तो इंडियन ही है. पांव इतनी तेजी से उठ रहे थे कि लगा मैं दौड़ रही हूं. मगर जब तक वहां पहुंची, वे दोनों आंखों से ओल हो गए थे.

अगले भाग में पढ़ें- मगर उस ने ऐसा कुछ नहीं किया. मगर क्यों…?

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वक्त की अदालत में: भाग 2- मेहर ने शौहर मुकीम के खिलाफ क्या फैसला लिया

आप फिक्र न कीजिए, मेहरून बेटी. मैं प्लौट बेच कर आप के बीएड का खर्च पूरा करूंगा.’ अब्बू का खत आया था. इस से तो अच्छा होता मैं बीएड कर के नौकरी करती, फिर शादी करती. पर समाज के तानों ने अम्मी और अब्बू का जीना मुहाल कर दिया था. बीएड के ऐंट्रैंस एग्जाम में मैं पास हो गई थी. मेरी क्लासेस शुरू हो गईं. चारदीवारी की घुटन से निकल कर खुली हवा सांसों में भरने लगी. लेकिन घर से महल्ले की सरहद तक हिजाब कर के बसस्टौप तक बड़ी मुश्किल से पहुंचती थी.

‘यार, तुम कैसे बुरका मैनेज करती हो? तुम्हें घुटन नहीं होती? सांस कैसे लेती हो? मैं होती तो सचमुच नोंच कर फेंक देती और हिजाब करवाने वालों का भी मुंह नोंच लेती. चले हैं नौकरी करवाने काला लबादा पहना कर. शर्म नहीं आती लालची लोगों को,’ पौश कालोनी की सहपाठिन मेहनाज बोली थी.

‘मेहर में इतनी हिम्मत कहां कि वह ससुराल वालों का विरोध कर सके. यह तो गाय जैसी है. उठ कहा, तो उठ गई. बैठ कहा, तो बैठ गई. पढ़ीलिखी बेवकूफ और डरपोक है,’ शेरी मैडम के तंज का तीर असमर्थता के सीने पर धंसा. खचाक, मजबूरियों के खून का फौआरा छूटता, दर्दीली चीख उठती, आंखों में खून उतर आता, दुपट्टे का एक कोना खारे पानी के धब्बों से भर जाता.

‘तुम्हें वजीफा मिला है मेहर, नोटिस बोर्ड पर लिस्ट लगी है,’ मेहनाज ने चहकते हुए मु झे खबर दी थी.

‘सचमुच,’ खुश हो गई थी मैं.

‘हां, सचमुच, देख इन पैसों से कुछ अच्छे कपड़े और एग्जाम के लिए गाइड खरीद लेना. सम झी, मेरी भोली मालन,’ मेहनाज ने राय दी थी. ‘ठीक है,’ कह कर मैं घर की तरफ जाने वाली बस में चढ़ गई थी.

दूसरे दिन मुकीम कालेज मेरे साथ ही आ गया था. क्लर्क से वजीफे की कैश रकम ले कर जब अपनी जेब के हवाले करने लगा, तो मैं तड़प गई, ‘मुझे इम्तहान के लिए गाइड्स और टीचिंग एड बनाने के लिए कुछ सामान खरीदना है. कुछ पैसे मुझे चाहिए.’

मुकीम ने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे कुत्ता लाश का गोश्त नोंचने वाले गिद्ध की तरफ देखता है, बोला, ‘पुरानी किताबों की दुकान से सैकंडहैंड गाइड्स ला दूंगा. टीचिंग एड्स रोलअप बोर्ड पर बनाना. मु झे कर्जदारों का पैसा अदा करना है.’

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बीएड एग्जाम के बाद 2 साल में 2 बच्चे, शिथिल शरीर और आर्थिक अभावों ने आत्मनिर्भरता की दूरियों को और बढ़ा दिया. बड़ी हिम्मत कर के महल्ले के आसपास के प्राइवेट स्कूलों में अपना रिज्यूमे दे आई थी. आज से 30 साल पहले 50 रुपए से नौकरी शुरू की थी. उन दिनों क्रेच का कोई अस्तित्व ही नहीं था क्योंकि 99वें प्रतिशत औरतें घरेलू होती थीं.

बड़ी मुश्किल से एक विधवा वृद्धा के पास दोनों बच्चों को छोड़ कर मुंहअंधेरे ही घर का पूरा कामकाज निबटा कर स्कूल जाने लगी. मेरी कर्मठता और पाबंदी ने अगले माह ही इन्सैंटिव के रूप में 50 रुपए की तनख्वाह में चारगुना वृद्धि कर दी.

इस बीच, सरकारी स्कूल में वकैंसी निकली. लिखित परीक्षा में सफलता और 3 महीने बाद इंटरव्यू में सलैक्शन. ‘अब तो इस बेहया के और पैर निकल आएंगे,’ सास को अपना सिंहासन डोलता नजर आने लगा. ‘अरे अम्मी, यह क्यों नहीं सोचतीं कि भाभी की तनख्वाह बच्चों के बहाने से हम अपनी जरूरत के लिए ले सकते हैं,’ मक्कार और कपटी ननद ने मां के कान भरे.

‘अरे हां बाजी, अब आप अपना घर बनने तक भाईजान के पोर्शन में रह सकती हैं. भाईजान को महल्ले में ही किराए का घर ले कर रहने के लिए अम्मी जिद कर सकती हैं. अब पैसों की तंगी का बहाना नहीं कर सकेंगे भाईजान,’ देवरानी ने ननद के लालच के तपते लोहे पर चोट की. दरअसल, वह सास की वजह से मायके नहीं जा सकती थी. ननद पास में रहेगी, तो सास को उस के भरोसे छोड़ कर कई दिनों तक मायके में रहने, घूमनेफिरने का आनंद उठा सकती थी.

स्वार्थी और निपट गंवार सास ने आएदिन मुकीम को टेंचना शुरू किया. ‘तेरी औरत से कोई आराम तो मिला नहीं. उलटे, हमेशा डर बना रहता है कि मेरे बाजार और कहीं जाने पर यह छोटी बहू को भी अपने रंग में रंग कर घर के 3 टुकड़े न कर डाले. अब तू किराए का मकान ले ले. मेरी बेटी का मकान बनने तक वह यहीं रहेगी मेरे पास. और मेरी खिदमत भी करेगी.’

नागपुर से 10 किलोमीटर दूर कामठी में पोस्ंिटग पर मैं आ गई. ‘तुम स्कूल से कहां बारबार बैंक जाती रहोगी पैसे निकलवाने के लिए,’ कह कर मुकीम ने चालाकी से मेरे साथ जौइंट अकाउंट खोल लिया.

अम्मी ने देर रात तक कपड़े सिल कर, क्रोशिए से दस्तरख्वान, चादरें बुनबुन कर मेरी कालेज की फीस दी थी. पहली तनख्वाह मिली, तो मैं ने 25 रुपए का मनीऔर्डर कर उन के एहसानों का शुक्रिया अदा करते हुए उन के पते पर भेजा. पहली बार मेरा चेहरा खुशी और आत्मविश्वास से कुमुदनी की तरह खिल गया था.

एक हफ्ते बाद मुकीम के हाथ का कस के पड़ा तमाचा मेरे गुलाबी गाल पर पांचों उंगलियों के निशान छोड़ गया, ‘मायके से पैसे मंगवाने के बजाय मां को मनीऔर्डर भेज रही है. शर्म नहीं आती. बदजात औरत. आईंदा मु झ से पूछे बगैर एक पाई भी यहांवहां खर्च की, तो चीर के रख दूंगा, सम झी.’ उस दिन पहली बार लगा कि मैं ससुराल में सिर्फ पैसा कमाने वाली और बच्चा पैदा करने वाली मशीन बन गई हूं. मैं सिसकती हुई भूखी ही सो गई.

बचपन से ही सीधीसादी, छलकपट से कोसों दूर रहने वाली मैं मुकीम की क्रूरता को सालों तक चुपचाप सहती रही.

मुकीम के परिवार के लोगों का छोटीछोटी बातों को ले कर ऊंचीऊंची आवाज से लड़ना,  झगड़ना, गालीगलौज करना सहज स्वाभाविक दस्तूर की तरह रोज ही घटता रहता. यह अमानवीय और क्रूर दृश्य देख कर मेरे पैर थरथराने लगते, पेट में ऐंठन होने लगती और पसीने से लथपथ हो जाती.

उस दिन बड़े बेटे की तबीयत अचानक स्कूल में खराब हो गई. एमआई रूम के डाक्टर ने चैकअप कर के मिलिट्री हौस्पिटल के लिए रैफर कर दिया. दोपहर तक टैस्ट होते रहे. पर्स में सिर्फ 30 रुपए थे जो घर से निकलते वक्त मुकीम भिखारियों की तरह मेरे हाथ पर रख देता था. इलाज के लिए पैसों की जरूरत पड़ेगी, सोच कर शौर्टलीव ले कर बैंक पहुंची. विदड्रौल स्लिप पर लिखी रकम देख कर कैशियर व्यंग्य से मुसकराया, ‘मैडम, आप के अकाउंट में सिर्फ सिक्युरिटी की रकम बाकी है.’ यह सुन कर पैरोंतले जमीन खिसक गई.

बेइज्जती का दंश सहती बीमार बच्चे को ले कर घर पहुंची तो बच्चे के इलाज के खर्च के लिए मुकीम को आनाकानी करते देख कर मैं अपना आपा खो बैठी, ‘इसीलिए आप ने जौइंट अकाउंट खुलवाया था कि महीना शुरू होते ही मेरी पूरी तनख्वाह निकाल कर शराब और जुए में उड़ा दें और अपनी तनख्वाह अपनी बहन के परिवार और मां पर खर्च कर दें. आप ने अपने ऐश के लिए मु झे नौकरी करने की इजाजत दी है, बच्चे के इलाज के लिए धेला तक खर्च नहीं करना चाहते. वाह, क्या खूब शौहर और बाप की जिम्मेदारी निभा रहे हैं.’

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‘हां, हां, मेरा बेटा तो निकम्मा है. तेरी कमाई से ही तो घर चल रहा है,’ कब से दीवार पर कान लगा कर सुन रही सास ने दिल की भड़ास निकाली.

‘आप हमारे बीच में मत बोलिए. मेरे घर को जलाने के लिए पलीता आप ही ने सुलगाया है हरदम,’ बेटे की कराह सुन कर मु झ में जाने कहां से विपरीत दिशा से आती तूफानी हवाओं को घर में धंसने से रोकने की ताकत भर गई.

‘देखदेख, मुकीम, यह नौकरी कर रही है, तो कितना ठसक दिखा रही है. मार इस को, हाथपैर तोड़ कर डाल दे,’ मां की आवाज सुनते ही मुकीम ने बरतनों के टोकरे से चिमटा खींच कर दे मारा मेरे सिर पर. खून की धार मेरे काले घने बालों से हो कर माथे पर बहने लगी. सिर चकरा गया और मैं धड़ाम से मिट्टी के फर्श पर बिखर गई. दोनों बच्चे यह वहशियाना नजारा देख कर चीख कर रोने लगे. मुकीम अपने भीतर के शैतान पर काबू नहीं कर पाया और मु झ बेहोश बीवी को गालियां बकते हुए लातोंघूंसों से मारने लगा. आवाजें सुन कर आसपास के घरों के लोग अपनी छतों से उचक कर मेरे घर का तमाशा देखने व सुनने की कोशिश करने लगे. खून देख कर सास धीरे से नीचे खिसक आई.

आधी रात को मुझे होश आया तो दोनों बच्चों को नंगे फर्श पर अपने से चिपक कर सोता हुआ पाया. हंसने, किलकने और बेफिक्र मासूम बचपन के हकदार बच्चे पिता का रौद्र रूप देख कर नींद में भी सिसक उठते थे.

मैं जिस्म की टूटन और सिर के जख्म की वजह से 3 दिनों तक स्कूल नहीं जा सकी. मगर पेट को तो भरना ही था न. मुकीम को तो मौका मिल गया घर में दंगाफसाद कर के होटल का मनपसंद खाना और शराब में धुत आधी रात को घर लौटने का.

अप्रैल में स्कूल में ऐनुअल फंक्शन था. उर्दू, हिंदी, इंग्लिश तीनों पर बेहतरीन कमांड होने के कारण प्राचार्य ने अनाउंसमैंट की मेरी ड्यूटी लगा दी थी. बच्चों के साथ खुद भी तैयार हो कर घर से बाहर निकल ही रही थी कि पीछे से किसी ने बड़े एहतियात से बनाया गया जूड़ा पकड़ कर खींच दिया. दर्द से बिलबिला गई.

अगले भाग में पढ़ें- ‘सहर, देख तो अब्बू को क्या हो गया. 

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दिल से दिल तक: भाग 1- शादीशुदा आभा के प्यार का क्या था अंजाम

‘‘हर्ष,अब क्या होगा?’’ आभा ने कराहते हुए पूछा. उस की आंखों में भय साफसाफ देखा जा सकता था. उसे अपनी चोट से ज्यादा आने वाली परिस्थिति को ले कर घबराहट हो रही थी.

‘‘कुछ नहीं होगा… मैं हूं न, तुम फिक्र मत करो…’’ हर्ष ने उस के गाल थपथपाते हुए कहा.

मगर आभा चाह कर भी मुसकरा नहीं सकी. हर्ष ने उसे दवा खिला कर आराम करने को कहा और खुद भी उसी बैड के एक किनारे अधलेटा सा हो गया. आभा शायद दवा के असर से नींद के आगोश में चली गई, मगर हर्र्ष के दिमाग में कई उल झनें एकसाथ चहलकदमी कर रही थी…

कितने खुश थे दोनों जब सुबह रेलवे स्टेशन पर मिले थे. उस की ट्रेन सुबह 8 बजे ही स्टेशन पर लग चुकी थी. आभा की ट्रेन आने में अभी

1 घंटा बाकी था. चाय की चुसकियों के साथसाथ वह आभा की चैट का भी घूंटघूंट कर स्वाद ले रहा था. जैसे ही आभा की ट्रेन के प्लेटफौर्म पर आने की घोषणा हुई, वह लपक कर उस के कोच की तरफ बढ़ा. आभा ने उसे देखते ही जोरजोर से हाथ हिलाया. स्टेशन की भीड़ से बेपरवाह दोनों वहीं कस कर गले मिले और फिर अपनाअपना बैग ले कर स्टेशन से बाहर निकल आए.

पोलो विक्ट्री पर एक स्टोर होटल में कमरा ले कर दोनों ने चैक इन किया. अटैंडैंट के सामान रख कर जाते ही दोनों फिर एकदूसरे से लिपट गए. थोड़ी देर तक एकदूसरे को महसूस करने के बाद वे नहाधो कर नाश्ता करने बाहर निकले. हालांकि आभा का मन नहीं था कहीं बाहर जाने का, वह तो हर्ष के साथ पूरा दिन कमरे में ही बंद रहना चाहती थी, मगर हर्ष ने ही मनुहार की थी बाहर जा कर उसे जयपुर की स्पैशल प्याज की कचौरी खिलाने की जिसे वह टाल नहीं सकी थी. हर्ष को अब अपने उस फैसले पर अफसोस हो रहा था. न वह बाहर जाने की जिद करता और न यह हादसा होता…

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होटल से निकल कर जैसे ही वे मुख्य सड़क पर आए, पीछे से आई एक अनियंत्रित कार ने आभा को टक्कर मार दी. वह सड़क पर गिर पड़ी. कोशिश करने के बाद भी जब वह उठ नहीं सकी तो हर्ष ऐबुलैंस की मदद से उसे सिटी हौस्पिटल ले कर आया. ऐक्सरे जांच में आभा के पांव की हड्डी टूटी हुई पाई गई. डाक्टर ने दवाओं की हिदायत देने के साथसाथ 6 सप्ताह का प्लास्टर बांध दिया. थोड़ी देर में दर्द कम होते ही उसे हौस्पिटल से डिस्चार्ज कर दिया गया.

मोबाइल की आवाज से आभा की नींद टूटी. उस के मोबाइल में ‘रिमाइंडर मैसेज’ बजा. लिखा था, ‘से हैप्पी ऐनिवर्सरी टू हर्ष.’ आभ दर्द में भी मुसकरा दी. उस ने हर्ष को विश करने के लिए यह रिमाइंडर अपने मोबाइल में डाला था.

पिछले साल इसी दिन यानी 4 मार्च को दोपहर 12 बजे जैसे ही इस ‘रिमाइंडर मैसेज’ ने उसे विश करना याद दिलाया था उस ने हर्ष को किस कर के अपने पुनर्मिलन की सालगिरह विश की थी और उसी वक्त इस में आज की तारीख सैट कर दी थी. मगर आज वह चाह कर भी हर्ष को गले लगा कर विश नहीं कर पाई क्योंकि वह तो जख्मी हालत में बैड पर है. उस ने एक नजर हर्ष पर डाली और रिमाइंडर में अगले साल की डेट सैट कर दी. हर्ष अभी आंखें मूंदे लेटा था. पता नहीं सो रहा था या कुछ सोच रहा था. आभा ने दर्द को सहन करते हुए एक बार फिर से अपनी आंखें बंद कर लीं.

‘पता नहीं क्याक्या लिखा है विधि ने मेरे हिस्से में,’ सोचते हुए अब आभा का दिमाग भी चेतन हो कर यादों की बीती गलियों में घूमने लगा…

लगभग सालभर पहले की बात है. उसे अच्छी तरह याद है 4 मार्च की वह शाम. वह अपने कालेज की तरफ से 2 दिन का एक सेमिनार अटैंड करने जयपुर आई थी. शाम के समय टाइम पास करने के लिए जीटी पर घूमतेघूमते अचानक उसे हर्ष जैसा एक व्यक्ति दिखाई दिया. वह चौंक गई.

‘हर्ष यहां कैसे हो सकता है?’ सोचतेसोचते वह उस व्यक्ति के पीछे हो ली. एक  शौप पर आखिर वह उस के सामने आ ही गई. उस व्यक्ति की आंखों में भी पहचान की परछाईं सी उभरी. दोनों सकपकाए और फिर मुसकरा दिए. हां, यह हर्ष ही था… उस का कालेज का साथी… उस का खास दोस्त… जो न जाने उसे किस अपराध की सजा दे कर अचानक उस से दूर चला गया था…

कालेज के आखिरी दिनों में ही हर्ष उस से कुछ खिंचाखिंचा सा रहने लगा था और फिर फाइनल ऐग्जाम खत्म होतेहोते बिना कुछ कहेसुने हर्ष उस की जिंदगी से चला गया. कितना ढूंढ़ा था उस ने हर्ष को, मगर किसी से भी उसे हर्ष की कोई खबर नहीं मिली. आभा आज तक हर्ष के उस बदले हुए व्यवहार का कारण नहीं सम झ पाई थी.

धीरेधीरे वक्त अपने रंग बदलता रहा. डौक्टरेट करने के बाद आभा  स्थानीय गर्ल्स कालेज में लैक्चरर हो गई और अपने विगत से लड़ कर आगे बढ़ने की कोशिश करने लगी. इस बीच आभा ने अपने पापा की पसंद के लड़के राहुल से शादी भी कर ली. बच्चों की मां बनने के बाद भी आभा को राहुल के लिए अपने दिल में कभी प्यार वाली तड़प महसूस नहीं हुई. दिल आज भी हर्ष के लिए धड़क उठता था.

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शादी कर के जैसे उस ने अपनी जिंदगी से एक सम झौता किया था. हालांकि समय के साथसाथ हर्ष की स्मृतियां पर जमती धूल की परत भी मोटी होती चली गई थी, मगर कहीं न कहीं उस के अवचेतन मन में हर्ष आज भी मौजूद था. शायद इसलिए भी वह राहुल को कभी दिल से प्यार नहीं कर पाई थी. राहुल सिर्फ उस के तन को ही छू पाया था, मन के दरवाजे पर न तो कभी राहुल ने दस्तक दी और न ही कभी आभा ने उस के लिए खोलने की कोशिश की.

जीटी में हर्ष को अचानक यों अपने सामने पा कर आभा को यकीन ही नहीं हुआ. हर्ष का भी लगभग यही हाल था.

‘‘कैसी हो आभा?’’ आखिर हर्ष ने ही चुप्पी तोड़ी.

‘तुम कौन होते हो यह पूछने वाले?’ आभा मन ही मन गुस्साई. फिर बोली, ‘‘अच्छी हूं… आप सुनाइए… अकेले हैं या आप की मैडम भी साथ हैं?’’ वह प्रत्यक्ष में बोली.

‘अभी तो अकेला ही हूं,’’ हर्ष ने अपने चिरपरिचित अंदाज में मुसकराते हुए कहा और आभा को कौफी पीने का औफर दिया. उस की मुसकान देख कर आभा का दिल जैसे  उछल कर बाहर आ गया.

‘कमबख्त यह मुसकान आज भी वैसी ही कातिल है,’ दिल ने कहा. लेकिन दिमाग ने सहज हो कर हर्ष का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. पूरी शाम दोनों ने साथ बिताई.

थोड़ी देर तो दोनों में औपचारिक बातें हुईं. फिर एकएक कर के संकोच की दीवारें टूटने लगीं और देर रात तक गिलेशिकवे होते रहे. कभी हर्ष ने अपनी पलकें नम कीं तो कभी आभा ने. हर्ष ने अपनेआप को आभा का गुनहगार मानते हुए अपनी मजबूरियां बताईं… अपनी कायरता भी स्वीकार की… और यों बिना कहेसुने चले जाने के लिए उस से माफी भी मांगी…

आभा ने भी ‘‘जो हुआ… सो हुआ…’’ कहते हुए उसे माफ कर दिया. फिर डिनर के बाद विदा लेते हुए दोनों ने एकदूसरे को गले लगाया और अगले दिन शाम को फिर यहीं मिलने का वादा कर के दोनों अपनेअपने होटल की तरफ चल दिए.

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अगले दिन बातचीत के दौरान हर्ष ने उसे बताया कि वह एक कंस्ट्रक्शन  कंपनी में साइट इंजीनियर है और इस सिलसिले में उसे महीने में लगभग 15-20 दिन घर से बाहर रहना पड़ता है और यह भी कि उस के 2 बच्चे हैं और वह अपनी शादीशुदा जिंदगी से काफी संतुष्ट है.

‘‘तुम अपनी लाइफ से संतुष्ट हो या खुश भी हो?’’ एकाएक आभा ने उस की आंखों में  झांका.

‘‘दोनों में क्या फर्क है?’’ हर्ष ने पूछा.

‘‘वक्त आने पर बताऊंगी,’’ आभा ने टाल दिया.

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अपराधिनी: भाग 2- क्या था उसका शैली के लिए उसका अपराध

लेखिका-  रेणु खत्री

मेरे लिए कार कंपनी के मालिक, बेहद आकर्षक रोहित का रिश्ता आया. वे मुझे देखने आ रहे थे. मेरी मां, दादी और चाची तो थीं ही मेहमानों की खातिरदारी हेतु, परंतु मैं ने शैली और उस की मां को भी बुलवा लिया. सभी ने मिल कर बहुत अच्छी रसोई बनाई. देखनेदिखाने की रस्म, खानापीना सब अच्छे से संपन्न हो गया. अगले सप्ताह तक जवाब देने को कह कर लड़के वाले विदा ले चले गए.

मधुर पवन की बयार, बादलों की लुकाछिपी, वर्षा की बूंदें, प्रकृति की छुअन के हर नजारे में मुझे अपने साकार होते स्वप्नों की राहत का एहसास होता. लेकिन उस दिन मानो मुझ पर वज्रपात हो गया जब रोहित ने मेरे स्थान पर शैली को पसंद कर लिया. वादे के अनुसार, एक सप्ताह बाद रोहित के मामा ने हमारे यहां आ कर शैली का रिश्ता मांग लिया.

एक बार तो हम सभी हैरान रह गए और परेशान भी हुए. बस, एक मेरी अनुभवी दादी ने सब भांप लिया कि यहां बीच राह में समय खड़ा है. मेरी मां का तो यह हाल था कि वे मुझे ही डांटने लगीं कि तुम ने ही शैली को बुलाया था न, अब भुगतो. पर मेरी दादी रोहित के मामाजी को शैली के घर ले कर गईं. उन्हें समझाया. दादी शैली की शादी से भी खुश थीं.

तनाव दोनों घरों में था. मेरे तो सपने टूट गए. इतना अच्छा रिश्ता शैली की झोली में जाने से मेरी मां का स्वार्थ जाग उठा. वे शैली व उस की मां को भलाबुरा कहने लगीं और मैं ने अपनेआप को एकांत के हवाले कर दिया.

इस घटना से मेरे अंदर न जाने क्या दरक गया कि मेरे जीवन का सुकून खो गया और मेरी मित्रता मेरे अविश्वास की रेत बन कर मेरे हाथों से यों ढह गई मानो हमारी दोस्ती एक छलावा मात्र हो जिसे किसी स्वार्थ के लिए ही ओढ़ा हो.

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उधर, शैली नहीं चाहती थी कि हमारी दोस्ती इस रिश्ते की वजह से समाप्त हो. मेरी दादी ने इस बीच पुल का काम किया. उन्होंने पापा को समझाया, ‘शैली भी हमारी ही बेटी है. बचपन से हमारे यहां आतीजाती रही है. हम उसे अच्छी तरह जानतेसमझते हैं. फिर क्यों नहीं सोचते कि वह स्वार्थी नहीं है. वह हमारी प्रिया के मुकाबले ज्यादा सूबसूरत है, गुणी भी है. क्या हुआ जो रोहित ने उसे पसंद कर लिया. अरे, अपनी प्रिया के लिए रिश्तों की कमी थोड़े ही है.’

पापा दादी की बात से सहमत हो गए. मैं दादी की वजह से इस शादी में बेमन से शरीक हुई थी. विदाई के समय शैली मेरे गले लग कर इस कदर रोई मानो वह मुझ से आखिरी विदाई ले रही हो.

शैली की शादी के बाद उस की मां से मैं ने बोलना छोड़ दिया. लगभग 2 महीने बाद शैली मायके आई. वह मुझ से मिलने आई. मेरी दादी ने उसे बहुत लाड़ किया. पर मैं ने और मेरी मां ने उस के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया. मेरी मां तो उसे अनदेखा कर बाजार चली गईं और मैं ने उस का हालचाल पूछने के बजाय उस से गुस्से में कह दिया, ‘अब तो खुश हो न मुझे रुला कर. मेरे हिस्से की खुशियां छीनी हैं तुम ने. तुम कभी सुख से नहीं रह पाओगी.’

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वह रोती हुई बाहर निकल गई और उस के बाद मुझ से कभी नहीं मिली. इस तरह की भाषा बोलना हमारे संस्कारों में नहीं था. और फिर, वह तो मेरी जान थी. फिर भी, पता नहीं कैसे मैं उस के साथ ऐसा व्यवहार कर गई जिस का मुझे उस वक्त कोई पछतावा नहीं था.

दादी को मेरा इस तरह बोलना बहुत बुरा लगा. उन्होंने मुझे बहुत डांटा और उसे मनाने के लिए कहा. पर मैं अपनी जिद पर अड़ी थी. मुझे अपने किए का पछतावा तब हुआ जब शैली का परिवार दिल्ली को ही अलविदा कह कर न जाने कहां बस गया.

वक्त बहुत बड़ा मरहम भी होता है और सबक भी सिखाता है. वह तो निर्बाध गति से चलता रहता है और हर किसी को अपने हिसाब से तोहफे बांटता रहता है. मुझे भी शशांक के रूप में वक्त ने ऐसा तोहफा दिया जो मेरे हर वजूद पर खरा उतरा. इन 19 वर्षों में उन्होंने मुझे शिकायत का कोई अवसर नहीं दिया. मोटर पार्ट्स की कंपनी में मैनेजर के पद पर विराजित शशांक ने बच्चों को भी अच्छी शिक्षा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. अच्छे से अच्छे विद्यालय में पढ़ाना और घर पर भी हम सभी को हमेशा भरपूर समय दिया है उन्होंने.

वक्त के साथ मैं बहुतकुछ भूल चुकी थी. पर आज शैली के साथसाथ दादी भी बहुत याद आने लगीं. सही कहती थीं दादी, ‘बेटा, कभी ऐसा कोई काम मत करो कि तुम अपनी ही नजरों में गिर जाओ.’ आज मेरा मन बहुत बेचैन था. मैं शैली से मिल अर अपने किए की माफी मांगना चाहती थी. मेरे व्यवहार ने उसे उस समय कितना आहत किया होगा, इसे मैं अब समझ रही थी. यादों के समंदर में गोते खाते वह समय भी नजदीक आ गया जब हमें उस से मिलने जाना था.

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हैदराबाद की राहों पर कदम रखते ही मेरे दिल की धड़कनें तेज हो गईं. अपनेआप में शर्मिंदगी का भाव लिए बस यही सोचती रही कि कैसे उस का सामना कर पाऊंगी. हमारी आपसी कहानी से शशांक अनभिज्ञ थे. एक बार तो मैं शैली से अकेले ही मिलना चाहती थी. सो, मैं ने शशांक से कहा, ‘‘आप अपने औफिस की मीटिंग में चले जाइए, मैं टैक्सी ले लूंगी, शैली से मिल आऊंगी.’’ उन्हें मेरा सुझाव ठीक लगा.uyj7

अब मैं बिना किसी पूर्व सूचना के शैली के बताए पते पर पहुंच गई. उसी ने दरवाजा खोला. उस का शृंगारविहीन सूना चेहरा देख कर मेरा दिल बैठने लगा. हम दोनों ही गले लग कर जीभर रोए मानो आंसुओं से मैं अपने किए का पश्चात्ताप कर रही थी और वह उस पीड़ा को नयनों से बाहर कर रही थी जिस से मैं अब तक अनजान थी. मैं उस के घर में इधरउधर झांकने लगी कि बच्चे वगैरह हैं या नहीं, मैं पूछ ही बैठी, ‘‘रोहितजी कहां हैं? कैसे हैं? और बच्चे…?’’

मेरा कहना भर था कि उस की आंखें फिर भीग गईं. अब शैली ने बीते 20 वर्षों से, दामन में समाए धूपछांव के टुकड़ों को शब्दों में कुछ यों बयां किया, ‘‘रोहित से मेरा विवाह होने के 4 माह बाद ही एक सड़क दुर्घटना में वे हमें रोता छोड़ कर हमेशा के लिए हम से बिछुड़ गए. सुसराल वालों ने इस का दोष मेरे सिर पर मढ़ा.

अगले भाग में पढ़ें- अब लगता है शायद नियति ने ही ऐसा तय कर रखा था.

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मोहमोह के धागे: भाग 2- मानसिक यंत्रणा झेल रही रेवती की कहानी

अब रेवती का उत्साह बढ़ गया. अगले दिन उतावली हो समय से पहले ही मंदिर में जा बैठी. साधुमहाराज पुजारी के साथ जब प्रवचन हौल में पधारे तो उन की नजर गद्दी के ठीक सामने अकेली बैठी रेवती पर पड़ी.श्वेत वस्त्र, सूनी मांग, सूनी कलाइयां देख उन्हें सम झते देर न लगी कि कोई विधवा है. वे धीमे स्वर में पुजारी से रेवती का सारा परिचय पता कर आंखें बंद कर गद्दी पर विराजमान हो गए. देखतेदेखते हौल खचाखच भर गया.

प्रवचन के बीच आज उन्होंने एक ऐसा भजन गाने के लिए चुना जब कृष्ण गोपियों से दूर चले जाते हैं. गोपियां उन के विरह में रोती हुई गाती हैं- ‘आन मिलो आन मिलो श्याम सांवरे, वन में अकेली राधा खोईखाई फिरे…’ लोग स्वर से स्वर मिलाने लगे. रेवती की आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे. अंत में प्रसाद वितरण के बाद लोग चले गए तो रेवती भी उठ खड़ी हुई. अचानक उस ने देखा साधुमहाराज उसे रुकने का संकेत कर रहे हैं. वह असमंजम में इधरउधर देख खड़ी हो गई.

साधुमहाराज ने उसे अपनी गद्दी के पास बुला कर बैठने को कहा. डरती, सकुचाती रेवती बैठ गई तो उन्होंने रेवती के बारे में जो पुजारी से जानकारी हासिल की थी, सब अपने ज्योतिष ज्ञान के आधार पर रेवती को कह डाली. भोली रेवती हैरान हो उठी. उन के कदमों पर लोट गई, बोली, ‘‘यह सब सत्य है.’’

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साधु महाराजजी ने कहा, ‘‘जब मैं पूजा के समय गहरे ध्यान में था तो एक फौजी मु झे ध्यानावस्था में दिखाई देता है. मानो कुछ कहना चाहता हो. अब सम झ में आया वह तुम्हारा शहीद पति ही है जो मेरे ध्यान ज्ञान के जरिए कोई संदेश देना चाहता है. कल जब मैं ध्यान में बैठूंगा तो उस से पूछूंगा.’’

भोलीभाली रेवती उस के शब्दजाल में फंसती गई. रेवती ने साधु के पैर पकड़ लिए, बोली, ‘‘महाराज, मेरा कल्याण करो.’’

साधु महाराज ने उसे हिदायत दी, ‘‘देवी, ध्यान रखना यह बात हमेशा गुप्त रखना वरना मेरी ज्ञानध्यानशक्ति कमजोर पड़ जाएगी. मैं फिर तुम्हारे लिए कुछ न कर पाऊंगा. जाओ, अब घर जाओ.’’

प्रसाद ले कर रेवती घर पहुंची. उस ने सासससुर को बड़े आदर से खाना परोसा. रणवीर की शहादत के बाद वह अवसाद की ओर चली गई थी. अब खुद ही उस से निकलने लगी है. इस का कारण मंदिर जाना, पूजापाठ में मन लगाना ही सम झा गया. दिन बीतते जा रहे थे. एक दिन प्रवचन के बाद साधुमहाराज ने एकांत में रेवती को बुलाया और कहा, ‘‘मु झे साधना के दौरान तुम्हारे पति ने दर्शन दिए. उस ने कहा, ‘मैं रेवती को इस तरह अकेला असहाय अवस्था में छोड़ आया था. अब मैं फिर उसी घर में जन्म ले कर रेवती का दुख दूर करूंगा.’’’

परममूर्खा और भावुक रेवती पांखडी साधुमहाराज की बातें सुन कर आंसुओं में डूब गई.

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साधुमहाराज ने आगे कहा, ‘‘पर उसे दोबारा उसी घर में जन्म लेने से बुरी शक्तियां रोक रही हैं. उस के लिए मु झे बड़ी पूजा, यज्ञ, साधना करनी पड़ेगी. इस सब के लिए बहुत धन की जरूरत है जो तुम जानती हो हम साधुयोगियों के पास नहीं होता. अगर तुम कुछ मदद करो तो तुम्हारे पति का पुनर्जन्म लेना संभव हो सकता है.’’

यह सुन रेवती गहरी सोच में डूब गई. रेवती को इस तरह चुप देख साधु बोले, ‘‘नहींनहीं, इतना सोचने की जरूरत नहीं है. अगर नहीं है, तो रहने दो. मैं तो तुम्हारे पति की भटकती आत्मा की शांति के बारे में सोच रहा था.’’

रेवती को पता था 4-5 हजार रुपए उस की अलमारी में रखे हैं या फिर खानदानी गहने जो देवर की शादी के समय निकाले गए थे. कुछ व्यस्तता और बाद में रणवीर की मृत्यु के बाद किसी को बैंक में रखवाने की सुधबुध न रही. रेवती ने सोचा पति ही नहीं, तो गहने किस काम के. यह सोच कर बोली, ‘‘महाराज, रुपए तो नहीं, पर कुछ गहने हैं? वह ला सकती हूं क्या?’’

मक्कार संन्यासी बोला, ‘‘अरे, जेवर से तो बहुत दिक्कत हो जाएगी, पर क्या करूं बेटी, तुम्हें असहाय भी नहीं छोड़ना चाहता. चलो, कल सवेरे 8 बजे मैं यहां से प्रस्थान करूंगा, तुम जो देना चाहती हो, चुपचाप यहीं दे जाना.’’

रेवती पूरी रात करवट बदलती रही. उसे सवेरे का इंतजार था. उस ने रात को ही एक गुत्थीनुमा थैली में सारे गहने और 4 हजार रुपए रख लिए थे. वह पाखंडी साधुमहाराज से इतनी प्रभावित थी कि इस सब का परिणाम क्या होगा, एक बार भी नहीं सोचा. सवेरे उठ जल्दी से काम पूरा कर साधु को विदा देने मंदिर पहुंच गई. साधुमहाराज जीप में बैठ चुके थे. रेवती घबरा गई. वह बिना सोचेसम झे भीड़ को चीरती हुई जीप के पास पहुंच गई और पैरों में पोटली रख, पैर छू बाहर निकल आई.

रेवती भी भीड़ में धक्के खाती अंदर जा श्रद्धालुओं के साथ साधुमहाराज के सामने नीचे बिछी दरी पर जा बैठी. एक लोटा ताजा जूस पी कर साधुमहाराज ने अपना प्रवचन देना आरंभ कर दिया. बीचबीच में वे भजन भी गाते जिस में जनता उन का अनुकरण करती. रेवती तो साधुमहाराज के बिलकुल सामने बैठी थी. वह तो ऐसी मंत्रमुग्ध हुई कि आंखों से अविरल आंसू बह निकले. प्रसाद ले अभिभूत सी घर पहुंची.

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बहुत दिनों बाद आज न जाने कैसे वह सासससुर से बोली, ‘‘आप दोनों का खाना लगा दूं?’’ दोनों ने हैरानी से हामी भर दी. रणवीर की मृत्यु के बाद रेवती एकदम चुप हो गई थी. घर में किसी से बात न करती. बेमन से खाना बना अपने कमरे में चली जाती. देवरदेवरानी अपने काम पर चले जाते. दोपहर को ससुर कांपते हाथों से खाना गरम कर पत्नी को देते और खुद भी खा लेते. रेवती बहुत कम खाना खाती. कभी कोई फल, कभी दही या छाछ पी लेती. उस की भूख मानो खत्म सी हो गई थी. उस ने जल्दी से खाना गरम किया और दोनों की थालियां लगा लाई. यही नहीं, पास बैठ कर मंदिर में सुने प्रवचन के बारे में भी बताने लगी.

सासससुर दोनों ने सांत्वना की सांस ली, चलो, अच्छा हुआ बहू का किसी ओर ध्यान तो लगा. वे इतने नए एवं उच्च विचारों के नहीं थे कि बहू की दूसरी शादी के बारे में सोचते अथवा आगे पढ़ाई करवाने की सोचते. राजस्थान के परंपरागत रूढि़वादी परिवार के थे जो इतना जानते थे कि पति की मृत्यु के साथ उस की पत्नी का जीवन भी खत्म हो गया. पति की आत्मा की शांति हेतु आएदिन व्रतअनुष्ठान चलते रहे. बहू का पूजापाठ में रु झान देख कर दोनों ने उस की प्रशंसा करते हुए रोज समय पर मंदिर जाने की सलाह दी.

अगले भाग में पढ़ें- वह दिल की गहराइयों से बच्ची को प्यार करने लगी थी.

येलो और्किड: भाग 1- मधु के जीवन में सुरेंदर ने कैसे भरी खुशियां

तपा देने वाली गरमी में शौपिंग बैग संभाले एकएक पग रखना दूभर हो गया मधु के लिए. गलती कर बैठी जो घर से छाता साथ नहीं लिया. पल्लू से उस ने माथे का पसीना पोंछा. शौपिंग बैग का वजन ज्यादा नहीं था, मगर जून की चिलचिलाती धूप कहर ढा रही थी. औटो स्टैंड थोड़ी दूर ही था. वहां से औटो मिलने की आस में उस ने दोचार कदम आगे बढ़ाए ही थे कि सिर तेजी से घूमने लगा. अब गिरी तब गिरी की हालत में उस का हाथ बिजली के खंबे से जा टकराया और उस का सहारा लेने की कोशिश में संतुलन बिगड़ा और वह सड़क पर गिर पड़ी. शौपिंग बैग हाथ से छूट कर एक तरफ लुढ़क गया.

कुछ लोगों की भीड़ ने उसे घेर लिया.

‘‘पता नहीं कैसे गिर गई? शायद चक्कर आ गया हो.’’

‘‘इन को अस्पताल ले कर चलो, बेहोश है बेचारी.’’

‘‘अरे, कोई जानता है क्या, कहां रहती हैं.’’

अर्धमूर्च्छित हालत में पड़ी मधु को देख कर लोग अटकलें लगाए जा रहे थे. मगर अस्पताल या घर तक पहुंचाने की जिम्मेदारी कोई लेना नहीं चाहता था. तभी वहां से गुजरती एक सफेद गाड़ी सड़क के किनारे आ कर रुक गई. एक लंबाचौड़ा आदमी उस गाड़ी से उतरा और लोगों का मजमा लगा देख भीड़ को चीरता आगे आया. मधु की हालत देख कर उस ने तुरंत गाड़ी के ड्राइवर की मदद से उसे उठा कर गाड़ी में बिठा लिया.

‘‘यहां पास में कोई हौस्पिटल है क्या?’’ उस आदमी ने भीड़ की तरफ मुखातिब हो कर पूछा.

‘‘जी सर, यहीं, अगले चौक से दाहिने मुड़ कर एक नर्सिंगहोम है.’’

और गाड़ी उसी दिशा में आगे बढ़ गई जहां नर्सिंग होम का रास्ता जाता था.

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हौस्पिटल के बैड पर लेटी मधु की बांह में ग्लूकोस की नली लगी हुई थी. कमजोरी का एहसास तो हो रहा था पर हालत में कुछ सुधार था. नर्स से उसे मालूम हुआ कि उसे गाड़ी में किसी ने यहां तक पहुंचा दिया था. वह उस सज्जन का शुक्रिया अदा करना चाहती थी जिस ने उसे बीच सड़क से उठा कर अस्पताल तक पहुंचाया था. वरना कौन मदद करता है भला किसी अनजान की.

तभी दरवाजा खोल कर एक आदमी वार्ड में आया. ‘‘कैसी तबीयत है आप की अब? वैसे डाक्टर ने कहा है कि खतरे की कोई बात नहीं है, आप को कुछ देर में डिस्चार्ज कर दिया जाएगा.’’ रोबदार चेहरे पर सजती हुई मूंछों वाला वह आदमी बड़ी शालीनता से मधु के सामने खड़ा था. मधु कुछ सकुचाहट और एहसान से भर उठी.

‘‘आप ने बड़ी मदद की, आप का धन्यवाद कैसे करूं समझ नहीं आ रहा,’’ वह कुछ और भी जोड़ना चाह रही थी कि उस आदमी ने उसे टोक दिया.

‘‘इस सब की चिंता मत कीजिए, इंसानियत भी एक चीज है. लेकिन हां, आप को एक बात जरूर कहना चाहूंगा, जब आप को शुगर की गंभीर समस्या है तो आप को अपनी सेहत का खास ध्यान रखना चाहिए. यह आप के लिए बड़ा खतरनाक हो सकता है.’’

मधु से कुछ कहते न बना, गलती उस की ही थी. सुबह शुगर की दवा खाना भूल गई थी. उस पर से धूप में इतना पैदल चली. शुगर लैवल बिलकुल कम होने से वह चक्कर खा कर गिर पड़ी थी. उस की खुद की लापरवाही का नतीजा उसे भुगतना पड़ा था. किसी अजनबी का एहसान लेना पड़ गया.

मगर वह अजनबी उस पर एहसान पर एहसान किए जा रहा था. अस्पताल से डिस्चार्ज हो कर मधु को उस ने घर तक अपनी गाड़ी में छोड़ा और मधु उस का नाम तक नहीं जान पाई. वह पछताती रह गई कि मेहमान को एक कप चाय के लिए भी नहीं पूछ पाई.

थोड़ा फारिग होते ही उस ने अपनी बेटी को फोन लगाया. मोबाइल पर उस की कई मिसकौल्स थीं. फोन पर्स के अंदर ही था. अब घर आ कर वह देख पाई थी.

सुरभि ने उस का फोन रिसीव करते

ही प्रश्नों की झड़ी लगा दी. मधु

के फोन न उठाने की वजह से वह बेहद चिंतित हो रही थी. उस ने बताया कि वह अभी विकास को फोन कर के बताने ही वाली थी.

‘‘अच्छा हुआ जो तू ने विकास को फोन नहीं किया, नाहक ही परेशान होता, बेचारा इतनी दूर बैठा है.’’

‘‘मां, आप को सिर्फ भैया की फिक्र है और मेरा क्या, जो मैं इतनी देर से परेशान हो रही थी आप के लिए. जानती हो, अभी सुमित से कह कर गाड़ी ले के आ जाती आप के पास.’’

मधु ने सुरभि को पूरा किस्सा बताया और यह भी कि कैसे एक अनजान शख्स ने उस की सहायता की. पूरी बात सुन कर सुरभि की जान में जान आई. मुंबई से पूना कोई इतना पास भी नहीं था, अगर चाहती भी तो इतनी जल्दी नहीं पहुंच सकती थी मधु के पास.

‘‘मां, तुम ठीक हो, यही खुशी की बात है. मगर आइंदा इस तरह लापरवाही की, तो मैं भैया को सच में बता दूंगी कि तुम अपना ध्यान नहीं रखती हो.’’

मधु उसे आश्वस्त करती जा रही थी कि वह अब पूरी तरह ठीक है.

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एकलौता बेटा बीवीबच्चों के साथ सात समंदर पार जा कर बस गया था और बेटी अपने भरेपूरे ससुराल में खुश थी. मधु अकेली रहते हुए भी बच्चों की यादों से घिरी रहती थी हमेशा. विकास जब नयानया विदेश गया तो हर दूसरे दिन मां से फोन पर बातें कर लेता था, मगर अब महीने में एक बार फोन आता था तो भी मधु इसे गनीमत समझती थी. खुद को ही तसल्ली दे देती कि बच्चे मसरूफ हैं अपनी जिंदगी में.

दिल की बीमारी से उस के पति की जब असमय ही मौत हो गई थी तो कालेज में लाईब्रेरियन की नौकरी उस का सहारा बनी थी. नौकरी के साथ घर और बच्चों को संभालने में ही कब उम्र गुजर गई, वह जान ही न पाई. अब जब बेटेबेटी का संसार बस गया, तो मधु के पास अकेलापन और ढेर सारा वक्त था जो काटे नहीं कटता था. स्टाफ में सब लोग मिलनसार और मददगार थे, सारा दिन किसी तरह किताबों के बीच गुजर जाता था मगर शाम घिरते ही उसे उदासी घेर लेती. कभी उस अकेलेपन से वह घबरा उठती तो फैमिली अलबम के पन्ने टटोल कर उन पुरानी यादों में खो जाती जब पति और बच्चे साथ थे.

बेटा विकास और बहू मोनिका कनाडा में बस गए थे. उस की 2 बेटियां भी विदेशी परिवेश में पल रही थीं. 2 बार मधु भी उन के पास जा कर रह आई थी. मोनिका और विकास दोनों नौकरी करते थे. दोनों पोतियां विदेशी संस्कृति के रंग में रंगी तेजरफ्तार जिंदगी जीने की शौकीन थीं. उन की अजीबोगरीब पोशाक और रहनसहन देख कर मधु को चिंता होने लगती. आखिर कुछ तो अपने देश के संस्कार सीखें बच्चे, यही सोच कर मधु कुछ समझाने और सिखाने की कोशिश करती, तो दोनों पोतियां उसे ओल्ड फैशन बोल कर तिरस्कार करने लगतीं. उस ने जब बहू और बेटे से शिकायत की तो वे उलटा मधु को ही समझाने लग गए.

‘मां, यह इंडिया नहीं है, यहां तो यही सब चलता है.’

मधु चुप हो गई. घर में बड़ों का फर्ज छोटों को समझाना, उन्हें सहीगलत का भेद बताना होता है, लेकिन, उस की बातों का उपहास उड़ाया जाता था.

बेटाबहू छुट्टी वाले दिन अपने दोस्तों के साथ क्लब या पार्टी में चले जाते. किसी के पास मधु से दो बातें करने की फुरसत नहीं थी.

ठंडे देश के लोग भी ठंडे थे. बाहर गिरती बर्फ को खिड़की से देखती मधु और भी उदास हो जाती. अपने देश की तरह यहां पासपड़ोस का भी सहारा नहीं था, सब साथ रहते हुए भी अकेले थे. उस मशीनी दिनचर्या में मधु का मन न रम पाया और कुछ ही दिनों के भीतर वह अपने देश लौटने को तड़प उठी.

विकास ने उस के बाद कई बार उसे अपने पास बुलाया, मगर मधु जाने को राजी न हुई.

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‘न भाई, ऐसी भागदौड़भरी जिंदगी तुम्हें ही मुबारक हो. तुम लोग तो बिजी रहते हो, अपने काम में. मैं क्या करूंगी सारा दिन अकेले. इस से भली मेरी नौकरी है, कम से कम सारा दिन लोगों से बतियाते मन तो बहल जाता है.’

ठीक ही कहती थी उस की सहेली पम्मी कि दूर के ढोल हमेशा सुहाने लगते हैं.

‘कुछ नहीं रखा है, पम्मी, वहां की जिंदगी में हम जैसे बूढ़ों के लिए.’

‘सही गल है मधु, पर तू बड़ा किसनू दस रई है? खुद को कह रही है तो ठीक है, मैं तो अभी जवान ही हूं,’ और दोनों सहेलियां चुहल कर के ठहाके मार कर हंस पड़तीं.

आगे पढ़ें- न चाहते हुए भी पम्मी के बुलावे में जाना जरूरी था उस के लिए

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