आग और धुआं- भाग 1: क्या दूर हो पाई प्रिया की गलतफहमी

करीब 2 साल तक अमित और मेरा रोमांस चला और फिर हम ने शादी कर ली. सुखद वैवाहिक जीवन के लिए दोनों तरफ के परिवारजनों ने अपने आशीर्वाद हमें खुश हो कर दिए.

जिंदगी में रोमांस करने का अपना मजा है. बहुत खूबसूरत थे वे दिन जब हम घंटों घूम कर ढेर सारी बातें करते. भविष्य के रंगीन सपने तब हमारे मन को रातदिन गुदगुदाते थे.

‘‘मैं तुम्हें बहुत खुश और सुखी रखूंगा, प्रिया. कितनी प्यारी, कितनी सुंदर और समझदार हो तुम,’’ अमित की ऐसी बातें सुन कर मैं हवा में उड़ने लगती.

‘‘जिंदगी के सफर में तुम हर कदम पर मेरे साथ बने रहोगे, तो मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए,’’ दिल की गहराइयों से ऐसे शब्द मेरे होंठों तक आते.

शादी के बाद मैं ने रंगीन सपनों को सचाई बनते देखा. अमित की मजबूत बांहों के घेरे में मैं ने आनंद और मस्ती की असीम ऊंचाइयों को छुआ. मेरे रात और दिन महक उठे. मैं उन के साथ चलती तो प्रतीत होता मानो नाच रही हूं. उन्हें छू कर, निहार कर भी दिल नहीं भरता.

‘‘शादी से पहले मुझे कभी अंदाजा तक नहीं हुआ कि तुम जादूगर भी हो,

अमित. मुझे पूरी तरह से वश में कर के दिल जीत लिया है तुम ने,’’ मैं ने अपने दिल की यह बात मनाली में बिताए 10 दिनों के हनीमून के दौरान शायद 100 से ज्यादा बार अमित से कही होगी.

शादी के करीब 2 महीने बाद ससुराल छोड़ कर दिल्ली से हम नोएडा के छोटे से किराए के फ्लैट में रहने चले आए. ट्रैफिक जाम के कारण अमित को घर से आफिस तक आनेजाने में बहुत ज्यादा वक्त लगता था. उन्हें थकावट और चिड़चिड़ेपन से बचाने के लिए सब बड़ों की सलाह पर हम ने यह कदम उठाया था.

नोएडा में बिताए पहले 2 महीनों में मेरी वैवाहिक जिंदगी के सारे सुख और खुशियां धीरेधीरे तबाह होती चली गईं. मेरी जिंदगी में तबाही मचाने वाला यह तूफान निशा के रूप में आया.

निशा अमित के साथ काम करती थी. हमारे फ्लैट में अकसर अमित के सहयोगी दोस्त छुट्टी वाले दिन इकट्ठे हो कर मौजमस्ती करते थे. निशा ऐसे मौकों पर हमेशा उपस्थित रहती. निशा के मातापिता सहारनपुर में रहते थे. नौकरी के लिए उसे नोएडा आना पड़ा तो आरंभ में वह अपने एक रिश्तेदार के घर में रही.

कुछ दिनों में आपसी अनबन के कारण उसे वह जगह छोड़नी पड़ी. अब वह अपनी एक सहेली के साथ आफिस के पास ही हमारे जैसा फ्लैट किराए पर ले कर रह रही थी. घर  पासपास होने की वजह से वह अकसर मार्केट जाते समय फ्लैट के सामने से गुजरती तो बस हाय, हैलो ही हो पाती.

मुझे उस का व्यक्तित्व से बड़ा दिलचस्प लगता. उस का कद लंबा और फिगर बड़ी जानदार थी. मैं ने उसे हमेशा टाइट जींस और टीशर्ट पहने देखा. साधारण नैननक्श होने के बावजूद वह खूब खुल कर सब से हंसनेबोलने वाले दोस्ताना स्वभाव के कारण काफी आकर्षक नजर आती.

विवाह के तोहफे के रूप में उस ने हमें सैल से चलने वाला एक सुंदर शोपीस दिया. उस में एक प्रेमीप्रेमिका बालरूम डांस की मुद्रा में सट कर खड़े थे. ‘औन’ करने पर वे गोलगोल घूमने लगते और हलके कर्णप्रिय संगीत की लहरें हर तरफ बिखर जातीं.

‘‘प्रिया, तुम कितनी सुंदर हो. काश, मैं भी तुम जैसी होती तो कोई अमित मुझे भी अपने दिल की रानी बना लेता,’’ मेरी यों प्रशंसा कर के निशा ने पहली मुलाकात में ही मेरा दिल जीत लिया.

उस के पास वक्त की कमी नहीं थी. कार्य दिवसों मेें भी वह शाम को घूमते हुए हमारे घर पर दूसरेतीसरे दिन चली आती. कुछ दिनों में हम अच्छी सहेलियां बन गईं. किसी भी विषय पर अगर अमित और मेरे नजरिए में अंतर होता तो वह हमेशा मेरा पक्ष लेती. हम दोनों मिल कर अमित की खूब टांग खींचते.

हमारे बीच दोस्ती की जडें मजबूत हो जातीं, उस से पहले ही मुझे उस के असली रूप व मकसद की जानकारी मिल गई.

अमित के एक सहयोगी ने अपने प्रमोशन की पार्टी बैंक्वेट हाल में दी. इसी पार्टी के दौरान कविता और शिखा ने मुझे निशा के प्रति खबरदार किया. ये दोनों अमित के आफिस में ही काम करती थीं और हम पहले भी कई बार मिल चुके थे.

‘‘मैं ने सुना है कि निशा तुम्हारे घर खूब आतीजाती है,’’ कविता ने जब यह चर्चा की तब हमारे आसपास ऐसा कोई न था जो हमारी बातें सुन सके.

‘‘उस के साथ हमारा समय अच्छा गुजर जाता है,’’ मैं ने मुसकराते हुए जवाब दिया.

‘‘प्रिया, जो तुम्हारे वैवाहिक जीवन की खुशियों को उजाड़ने पर तुली है, उस लड़की को तुम्हें अपने घर में कदम नहीं रखने देना चाहिए,’’ शिखा की आंखों में चिंता व गुस्से के मिलेजुले भावों को पढ़ कर मैं बेचैन हो उठी.

‘‘ऐसा क्यों कह रही हैं आप?’’ मैं ने परेशान लहजे में पूछा.

‘‘सारा आफिस जानता है कि अमित उस के चक्कर में फंसा हुआ है. उस का

तो शौक है दूसरों के पतियों पर डोरे डालने का. तुम बहुत भोली हो और तभी हम ने आज तुम्हें आगाह करने का फैसला किया.’’

‘‘मैं ने तो आज तक अमित के साथ उसे कुछ गलत ढंग से व्यवहार करते कभी नहीं देखा,’’ मैं ने अपने पति व निशा का पक्ष लिया.

‘‘तुम्हारे सामने उन्हें कुछ करने की जरूरत ही क्या है, यार. अरे, निशा का फ्लैट है न और तुम्हारा अमित शादी के बाद भी उस से मिलने वहां जाता रहता है, प्रिया.’’

‘‘मुझे अमित ने बताया है कि कभीकभी आफिस समाप्त होने के बाद वह उस के फ्लैट पर चाय पीने निशा के साथ चले जाते हैं, लेकिन ऐसा करने में बुराई क्या है?’’

मेरे इस सवाल के जवाब में वे दोनों कुछ ऐसे अंदाज में हंसी कि अमित पर मेरा विश्वास एकदम डगमगा गया. अचानक ही मेरे मन में असुरक्षा और डर के भाव पैदा हो गए.

‘‘प्रिया, इस निशा ने जो सुंदर गोल्ड के टौप्स पहन रखे हैं, ये कुछ महीने पहले अमित ने उसे उस के जन्मदिन पर दिए थे. अब तुम ही बताओ कि कोई युवक क्या अपनी सहयोगी युवती को सोने के टौप्स उपहार में देता है?’’

‘‘निशा ने जो शोपीस तुम्हें दिया है, उस में जो लड़का है, वह अमित है, पर लड़की तुम नहीं हो. निशा सब को बताती फिरती है कि वह खुद ही वह लड़की है, क्योंकि तुम्हारा कद उस शोपीस वाली लड़की की तरह लंबा नहीं है. अमित उस शोपीस को देख कर उसे याद करता रहे, इसलिए दिया है उस ने वह उपहार.’’

कविता और शिखा की इन बातों को सुन कर मेरे मन की सुखशांति उसी वक्त खो गई. उन के जाने के बाद मैं ने अमित को ढूंढ़ने के लिए अपनी दृष्टि हाल में चारों तरफ घुमाई. अमित जिस समूह में खड़ा हो कर बातें कर रहा था, उस में निशा भी उपस्थित थी. मेरे देखते वे सब लोग अचानक किसी बात पर हंस पड़े. शायद निशा की टांग खींची थी अमित ने, क्योंकि मैं ने उसे अपने पति की पीठ पर नकली नाराजगी के साथ हलकी ताकत से घूंसे मारते देखा. उस की इस हरकत पर एक और सामूहिक ठहाका सब ने लगाया.

जिंदगी ब्लैक ऐंड व्हाइट नहीं होती- भाग 3: आशिक मिजाज बॉस की कहानी

तनहा रूपेश क्या करे? कौन उस का सहारा बन सकता है? क्या रमला खुद…

नहीं, कहीं ऐसा न हो कि उस की रूपेश के प्रति सहानुभूति उलटी उसी के पति को गलतफहमी का निशाना बना दे… नहीं कुछ और सोचना पड़ेगा. जब से वह रूपेश से मिली है, उस का उदास चेहरा आंखों के आगे से हटता ही नहीं है.

हफ्ता गुजर गया. एक शाम मिहिर झूमतागाता घर में घुसा. उस के हाथ में एक कागज था. रमला के पास जा कर प्यार से बोला, ‘‘रोमी जान एक खुशखबरी…’’

‘‘क्या?’’

‘‘मेरी प्रमोशन…’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘प्रमोशन और एक ऐक्स्ट्रा इंक्रीमैंट भी मिला है. देखो, मैं ने कहा था न… तुम उसे तरीके से संभालना जानती हो.’’

मिहिर की आखिरी बात उसे छू गई. परंतु उस दिन की कोई बात बता कर मिहिर की खुशी को कम करना नहीं चाहती थी. ठीक है अभी नहीं फिर कभी बताना तो पड़ेगा ही.

आखिर एक दिन मौका देख कर रमला ने उस दिन हुई बातचीत को ज्यों का त्यों मिहिर के सामने रख दिया.

‘‘अच्छा ऐसा है… पर बौस

ने कभी किसी भी औफिस कर्मचारी को नहीं बताया कि उन के साथ इतनी भयानक दुर्घटना घटी है.

वैसे मुझे तो सुन कर भी विश्वास नहीं होता.’’

‘‘यही सच है. तभी तो लड़कियों से नफरत करता है, क्योंकि हर लड़की में उसे भावना नजर आती है.’’

मिहिर भी सोच में पड़ गया कि तभी वह औरतों के साथ कोई गलत काम नहीं करता. सिर्फ शराब पीता है, उन के साथ हंसीमजाक करता है और फिर गिफ्ट दे कर खुश होता है… हम सब मजाक उड़ाते थे. मिहिर सब सुन कर दुखी व परेशान था.

कुछ देर बाद रमला ने मुंह खोला, ‘‘एक बात कहूं?’’

‘‘हां, बोलो,’’ मिहिर पत्नी का चेहरा देख रहा था.

‘‘यदि तुम मुझे इजाजत दो तो मैं रूपेश से कुछ बातें करूं? कहीं तुम्हें बुरा तो नहीं लगेगा?’’

‘‘देखो रमला तुम मेरी पत्नी हो. हमारे बीच विश्वास और प्यार का रिश्ता है. मैं जानता हूं कि रूपेश जिसे तुम बचपन से जानती हो उसे इस हालत में देख कर कितना धक्का लगा होगा. अगर तुम्हारे प्रयास से मेरे बौस के जीवन में बदलाव आ जाए तो मुझ से ज्यादा कोई खुश नहीं होगा. यह बताओ मैं तुम्हारी कोई मदद कर सकता हूं?’’

‘‘हां, रूपेश से कहो कि हम लोग एक दिन उस के घर आना चाहते हैं.’’

‘‘ठीक है.’’

रूपेश समझ गया कि रमला उस के घर पर उस से मिल कर तय करना चाहती है कि क्या करना है.

एक रोज मिहिर और रमला दोनों रूपेश के घर पहुंचे. उस दिन इतवार था. दरवाजे पर दोनों को खड़ा देख रूपेश चौंका. शायद वह भूल गया था कि मिहिर व रमला ने आना है. अस्तव्यस्त घर, टूटी शराब की बोतलों का ढेर, फटे हुए कागज… घर नहीं, कबाड़ी की दुकान थी. रूपेश ने सोफा खाली कर के दोनों को बैठाया.

झेंप मिटाने के लिए मिहिर यह बहाना कर खिसक लिया कि शायद मैं गाड़ी को लौक करना भूल गया हूं. अभी आता हूं.

‘‘देखो, रूपेश मैं तुम्हें बचपन से जानती हूं. यह भी जानती हूं कि तुम जैसे संजीदा, सीधेसच्चे ईमानदार व्यक्ति का मन एक बार टूट जाए तो उसे समेटना आसान नहीं होता है. आज तुम वे रूपेश नहीं रहे जो 10 साल पहले थे.

‘‘तुम्हारे साथ भावना ने विश्वासघात किया. क्यों किया नहीं जानना चाहती. वह अब कहां

है, कैसी है यह भी मैं जानना नहीं चाहती पर तुम ने गहरी चोट खाई है. तुम अभी तक उसे भूले नहीं हो.

‘‘जीवन एक युद्ध है. कितनी बार हम चोट खाते हैं, हारते हैं, जीतते हैं पर यह युद्ध कभी खत्म नहीं होता. हारे हैं तो जीत भी तो उस के बाद ही है… तुम इस में अपने को दोषी क्यों मानते हो? दुखी तो भावना को होना चाहिए. गलती तो उस की है जो उस ने उच्च आदर्शों वाले रूपेश को समझने की कोशिश ही नहीं की. यहां गलती उस की है. उसे तो जरा भी पछतावा नहीं हुआ यानी वह स्वार्थी है. अच्छा ही हुआ, पीछा छूटा.

‘‘अब अतीत को भूल जाओ और खुद को संभालो. नए सिरे से जीवन को नया मोड़ दो… नए दोस्त बनाओ और खुश रहो… ‘बी क्रिएटिव.’’

रूपेश हैरान सा रमला का चेहरा देख रहा था.

‘‘वह पेंटिंग्स बनाने का तुम्हारा पैशन कहां गया? अभी भी चल रहा है न…? डूब जाओ

उस में…’’

‘‘नहीं अब मन नहीं करता,’’ रूपेश ने डूबी आवाज में कहा.

‘‘अरे, तुम्हारी व्यथा को कैनवस, ब्रश और रंगों से अधिक कौन समझेगा.

मनोस्थिति, दुख को उस पर उकेरो… कर के तो देखो रूपेश… तुम्हीं ने एक बार कहा था कि जिंदगी ब्लैक ऐंड व्हाइट नहीं होती. इस में सैकड़ों रंग हैं. कैनवस पर वे सैकड़ों रंग बिखेरेंगे तो अवसाद का काला रंग कहीं खो जाएगा.’’

रूपेश उस की बातों को बड़े ध्यान से सुन रहा था. रमला की हर बात उसे छू रही थी.

‘‘मैं अगले संडे आती हूं. हम तीनों एक पेंटिंग ऐग्जिबिशन में चलेंगे. यह प्रदर्शनी मशहूर शुचि खन्ना ने लगाई है.’’

रमला के जाने के बाद रूपेश को याद आया कि पिछली बार वह भावना के साथ एक प्रदर्शनी में गया था. भावना बोर हो रही थी, दोनों बीच से ही वापस आ गए थे. उसे बहुत बुरा लगा था पर आज नहीं…

प्रदर्शनी देख कर रूपेश पुरानी फौर्म में आ गया. आज उस में जोश था, खुशी थी. रमला व मिहिर के साथ रहते हुए अपनेआप को ऐनर्जेटिक महसूस करता था.

यों ही हंसीखुशी महीना गुजर गया. एक दिन मिहिर ने बताया, ‘‘रूपेश सर का लखनऊ ट्रांसफर हो गया है.’’

रूपेश के जाने के बाद मिहिर व रमला अकसर उस की बातें करते.

2 साल बीत गए. एक दिन उन के हाथ में खूबसूरत सा कार्ड था.

‘‘मिहिर व रमला, मैं ने रिचा नाम की एक आर्टिस्ट से विवाह कर लिया है. हमारी शैली नाम की छोटी सी बिटिया है. अगले महीने की 10 तारीख को हम दोनों को एक छोटी सी प्रदर्शनी लगानी है. इस पेंटिंग प्रदर्शनी का उद्घाटन करने तुम दोनों को आना है. आज मैं

जो भी हूं तुम लोगों की प्रेरणा से हूं. आ कर

देखो जीवन में सैकड़ों रंग बिखर गए हैं. सच जिंदगी ब्लैक ऐंड व्हाइट नहीं होती.

-रूपेश, रिचा’’

पत्र पा कर रमला खुश थी कि उस ने जीवन में किसी की जिंदगी में बदलाव लाया है. वाकई जिंदगी रंगों से भर गई है रूपेश की.

रूपेश ने कहा ही नहीं सिद्ध भी कर दिया कि जिंदगी ब्लैक ऐंड व्हाइट नहीं होती, रंगों को सिर्फ छिटकाना आना चाहिए.

दुविधा – भाग 2 : किस कशमकश में थी वह?

मेरे इतना कहते ही उस के चेहरे पर दुख की ऐसी काली छाया दिखाई दी मानो हवा के तेज झोंके से बदली ने सूरज को ढक लिया हो. उस की आंखें मेरे चेहरे पर ऐसे टिक गईं मानो जानना चाहती हों, कहीं मैं मजाक तो नहीं कर रही.

लेकिन यह सच था. एक पल के लिए मुझे भी लगा कि भले ही यह सच था लेकिन मुझे उसे ऐसे सपाट शब्दों में नहीं बताना चाहिए था. वह प्लेट ले कर डाइनिंग टेबल के दूसरे छोर की कुरसी पर जा बैठा. वह लगातार मुझे देख रहा था. वह बहुत उदास था. शायद उस की आंखें भी नम थीं. मैं ने खाना खाते हुए उसे कई बार बहाने से देखा था. वह सिर्फ बैठा था, उस ने खाना छुआ भी नहीं था. मुझे यह सब अच्छा नहीं लग रहा था लेकिन मैं क्या करती? ऐसे में उस से क्या कहती?

शादी में औफिस से बहुत से लोग आए लेकिन सुबोध नहीं आया. हां, औफिस वालों के हाथ उस ने बहुत ही खूबसूरत तोहफा जरूर भिजवाया था. क्रिस्टल का बड़ा सा फूलदान था, जिस ने भी देखा तारीफ किए बिना न रह सका.

विवाह होते ही मैं और प्रखर अपनी नई दुनिया में खो गए. हम ने वर्षों इस सब के लिए इंतजार किया था. हमें लग रहा था, हम बने ही एकदूसरे के लिए हैं. शादी के बाद हम विदेश घूमने चले गए.

महीनेभर की छुट्टियां कब खत्म हो गईं पता ही नहीं चला. मैं औफिस आई तो सहकर्मियों ने सवालों की झड़ी लगा दी. कोई ‘छुट्टियां कैसी रहीं’ पूछ रहा था,  कोई नई ससुराल के बारे में जानना चाह रहा था, कोई प्रखर के बारे में पूछ कर चुटकी ले रहा था. वहीं, कोई शादी के अरेंजमेंट की तारीफ कर रहा था तो कोईकोई शादी में न आ पाने के लिए माफी भी मांग रहा था.

सब से फुरसत पा कर जब सामने वाले केबिन पर मेरी नजर पड़ी तो वहां सुबोध की जगह कोई अधेड़ उम्र का व्यक्ति चश्मा पहने बैठा था. मेरी नजरें पूरे हौल में एक कोने से दूसरे कोने तक सुबोध को तलाशने लगीं. वह कहीं नजर नहीं आया. मैं उसे क्यों तलाश रही थी, मेरे पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था. पता नहीं मुझे उस से हमदर्दी थी या मुझे उस को देखने की आदत सी हो गई थी. खैर, जो भी था मुझे उस की कमी खल रही थी.

कुछ दिनों बाद मुझे पता लगा था कि सुबोध ने ही अपना तबादला दूसरे डिवीजन में करवा लिया था जो थोड़ी दूर, दूसरी बिल्ंिडग में है. सुबोध यहां से चला तो गया था लेकिन कुछ यहां ऐसा छोड़ गया था जो औफिस में यदाकदा उस की याद दिलाता रहता था. विशेष रूप से जब काम करतेकरते कभी अपनी नजर ऊपर उठाती तो सुबोध को वहां न पा कर कुछ अच्छा नहीं लगता था.

समय बीत रहा था. घर पहुंचते ही एक दूसरी दुनिया मेरा इंतजार कर रही होती थी, जिस में मेरे और प्रखर के अलावा किसी तीसरे के लिए कोई जगह नहीं थी. दिनरात जैसे पंख लगा कर उड़े चले जा रहे थे. घूमनाफिरना, दावतें, मिलना- मिलाना आदि यानी हमारे जीवन का एक दूसरा ही अध्याय शुरू हो गया था.

6 महीने कैसे बीत गए, कुछ पता ही नहीं लगा. एक सुबह मैं अपनी सीट पर जा कर बैठी तो यों ही नजर सामने वाले कैबिन पर पड़ी तो सुबोध को वहां बैठे पाया. पलभर को तो अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं हुआ लेकिन यह सच था. सुबोध वापस लौट आया था, पता नहीं यह औफिस की जरूरत थी या सुबोध की. किस से पूछती, कौन बताता?

इस बात को कई सप्ताह बीत गए लेकिन हमारे बीच कभी कोई बात नहीं हुई. इस के लिए न कभी सुबोध ने कोई कोशिश की न ही मैं ने. मैं ने न तो उस से शादी में न आने का कारण पूछा और न उस खूबसूरत तोहफे के लिए धन्यवाद ही दिया. हमारे बीच ज्यादा बातचीत का सिलसिला तो पहले भी नहीं था लेकिन अब एक अबोला सा छा गया था.

अब जब भी हमारी नजरें आपस में यों ही टकरा भी जातीं तो न वह पहले की भांति मुसकराता और न ही मैं मुसकरा पाती. वैसे उस की नजरों को मैं ने अकसर अपने आसपास ही महसूस किया है. एक सुरक्षा कवच की भांति उस की नजरें मेरा पीछा करती रहती हैं. मैं समझ नहीं पाती कि क्या नाम दूं उस की इस मूक चाहत को?

समय इस सब से बेखबर आगे बढ़ रहा था. हमारा एक बेटा हो गया. अब मेरी जिम्मेदारियां बहुत बढ़ गई थीं. ऐसे में समय अपने लिए ही कम पड़ने लगा था और कुछ सोचने का समय ही कहां था? मेरा जीवन घर, बेटे और औफिस में ही उलझ कर रह गया था. वैसे भी मैं उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच गई थी जहां अपनी घरगृहस्थी के आगे औरत को कुछ सूझता ही नहीं.

हां, प्रखर जरूर घर से बाहर दोस्तों के साथ ज्यादा रहने लगा था क्योंकि औफिस के बाद क्लब और पार्टियों में जाने की न तो मेरा थकाहारा शरीर आज्ञा देता, न मेरा मन ही इस के लिए राजी होता था. लेकिन प्रखर को रोकना मुश्किल था. बड़ी तनख्वाह, बड़ी गाड़ी, महंगा सैलफोन, कीमती लैपटौप, पौश कौलोनी में बढि़या तथा जरूरत से बड़ा फ्लैट वगैरह सब कुछ हो तो व्यक्ति क्लब, दोस्तों और पार्टियों पर ही तो खर्च करेगा? पहले दोस्तों के बीच कभीकभी पीने वाला प्रखर अब लगभग हर रात पीने लगा था. यह बात अलग है कि वह पीता लिमिट में ही था.

एक रात प्रखर क्लब से लौटा तो मैं बेटे को सुला रही थी. मेरे पास बैठते हुए बोला, ‘‘तुम्हारे औफिस में कोई सुबोध शर्मा है?’’

मैं इस सवाल के लिए बिलकुल तैयार नहीं थी. प्रखर सुबोध के बारे में क्यों पूछ रहा है? वह सुबोध के बारे में क्या जानता है? उसे सुबोध के बारे में किस ने क्या बताया है? एकसाथ न जाने कितने ही सवाल मेरे दिमाग में उठ खड़े हुए.

‘‘क्यों?’’ न चाहते हुए भी मेरे मुंह से निकल गया.

‘‘बस, यों ही, आज बातोंबातों में रवि बता रहा था. सुबोध, रवि का साला है. उसे घर वाले लड़कियां दिखादिखा कर परेशान हो गए हैं, वह शादी के लिए राजी ही नहीं होता. बूढ़ी मां बेटे के गम में बीमार रहने लगी है. वह तो रवि ने तुम्हारे औफिस का नाम लिया तो सोचा तुम जानती होगी. पता तो लगे आखिर सुबोध क्या चीज है जो कोई लड़की उसे पसंद ही नहीं आती.’’

प्रखर बोले जा रहा था और मेरी परेशानी बढ़ती जा रही थी. मैं खीज उठी, ‘‘इतना बड़ा औफिस है, इतने डिवीजन हैं. क्या पता कौन सुबोध है जो तुम्हारे दोस्त रवि का साला है. नहीं करता शादी तो न करे, इस से तुम्हारी सेहत पर क्या फर्क पड़ता है?’’

कुछ तो प्रखर नशे में था उस पर मेरी दिनभर की थकान का खयाल कर वह इस बेवक्त के राग से स्वयं ही शर्मिंदा हो उठा.

‘‘तुम ठीक कहती हो, अब नहीं करता शादी तो न करे. रवि जाने या उस की बीवी, अब आधी रात को इस से हमें क्या लेनादेना है,’’ कह कर प्रखर तो कपड़े बदल कर सो गया लेकिन मैं रातभर सो न सकी. कितनी शंकाएं, कितने प्रश्न, कितने भय मुझे रातभर घेरे रहे.

अगले ही दिन जब ज्यादातर स्टाफ लंच के लिए जा चुका था, मैं सुबोध के केबिन में गई. मुझे अचानक आया देख कर वह हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ. मैं ने घबराई सी नजर अपने आसपास के स्टाफ पर डाली और उसे बैठने का इशारा करते हुए पूछा, ‘‘आप शादी क्यों नहीं कर रहे? आप के परिवार वाले कितने परेशान हैं?’’

एकाएक मेरे इस प्रश्न से वह चौंक उठा. शायद उसे कुछ ठीक से समझ भी नहीं आया होगा.

जिंदगी ब्लैक ऐंड व्हाइट नहीं होती- भाग 1: आशिक मिजाज बॉस की कहानी

रमलाने दीवार घड़ी में समय देखा. रात के 12 बजे थे. पति मिहिर अभी तक घर नहीं पहुंचा था. कुछ देर पहले उस ने मिहिर को फोन किया तो जवाब मिला कि दिस नंबर इज नौट रीचेबल. मन घबरा गया. मिहिर को इतनी देर कभी नहीं होती थी फिर आज क्यों? कहीं कोई दुर्घटना तो नहीं हो गई? यह नौट रीचेबल क्यों आ रहा है?

रमला के मन में बुरेबुरे खयाल आ रहे थे. सोचने लगी कि यह शहर मेरे लिए बिलकुल नया है. आसपास किसी से परिचय नहीं है. किसे जगाएगी… आधी रात हो गई है. अपने शहर आगरा में पूरी गली में अपनी पहचान वाले थे. वहां तो आधी रात को भी किसी का भी दरवाजा खटका देती थी.

मिहिर पिछले 5 सालों से दिल्ली में रह रहा है. उस के यारदोस्तों की लिस्ट भी लंबी है. औफिस के दोस्तों के साथ अकसर पिक्चर चला जाता, पर देर होने पर फोन अवश्य करता है.

अकसर बौस के साथ औफिस में रुक कर फाइलें निबटाता है तब भी देर हो जाती है.

देखना, आते ही बोलना शुरू हो जाएगा कि बौस के मेन औफिस में कल मीटिंग है. उस के ही पेपर तैयार कर रहा था. बस, देर हो गई. मिहिर बौस के बारे में कई बार बता चुका है. उसे मेहनती और ईमानदार लोगों में खास दिलचस्पी है. नालायक लोगों से नफरत है. वैसे आदमी दिलचस्प है, मेहनती है. लोगों से काम कराना भी आता है, पर पक्का छोकरीबाज है. हर शाम उस के साथ एक लड़की अवश्य होती है. खूब शौपिंग कराता है, गिफ्ट भी खूब देता है. लड़कियां उस के साथ खुश रहती हैं.

यों वह मिहिर पर भी मेहरबान है. मगर रमला उस के नाम से चिढ़ती है, क्योंकि उस ने मिहिर की प्रमोशन फाइल दबा रखी है.

‘‘तुम्हारे साथ के कितने साथी प्रमोट हो कर आगे बढ़ गए, तुम 2 साल से वहीं हो,’’ एक दिन इसी बात को ले कर रमला बहुत बिगड़ी. तब मिहिर ने कहा, ‘‘तुम से मैं इशारोंइशारों में कई बार कह चुका हूं कि बौस को शौपिंग करनी है तुम उस की हैल्प कर दो… मेरे सारे दोस्तों की पत्नियों के साथ वह शौपिंग कर चुका है. वह सिर्फ तुम से मिलना चाहता है. औफिस की सभी लड़कियां उस के साथ जा कर खुश होती हैं. औफिस गर्ल्स के साथ छिछोरापन नहीं करता है.’’

‘‘छोड़ो. तुम्हें कैसे पता ये सब… यह भी कोई प्रमोशन की शर्त है?’’

‘‘देखो मुझ से ज्यादा छानबीन मत करो. नहीं जाना तो मत जाओ,’’ मिहिर भी उस की बात पर ताव खा गया. फिर रमला को छोड़ ड्राइंगरूम में चला गया.

इस बात को काफी दिन हो गए. बात वहीं अटकी है.

तभी स्कूटर की आवाज से रमला की सोच टूटी. वह जान गई कि पति आ गए हैं. जानती है घर में घुसते ही बौसपुराण शुरू हो जाएगा. सो डोरबैल बजने से पहले ही दरवाजा खोल कर रसोई में खाना गरम करने चली गई.

खाने की मेज पर दोनों चुप थे. खाना खत्म हो गया तो मिहिर ने धीरे से कहा, ‘‘कल औफिस में बाहर से कुछ लोग आ रहे हैं. वे यहां से शौपिंग करना चाहते हैं. तुम उन की हैल्प करोगी? देखो, गुस्सा मत होना. पहले पूरी बात सुन लो. दरअसल, बौस को अपनी पत्नी के लिए बनारसी साड़ी खरीदनी है. सो तुम साथ होगी तो शौपिंग ईजी होगी. सब से बड़ी बात मैं भी उन के साथ रहूंगा.’’

रमला बड़ी देर तक सोचती रही कि वैसे साथ जाने में हरज ही क्या है. साथ

में इतने सारे लोगों… पति की इतनी सी बात तो मान ही सकती है. फिर मर्दों को औरतों के कपड़ों की पहचान कहां होती है? फिर बोली, ‘‘ठीक है चलूंगी.’’

‘‘ठीक है मैं चलने से पहले तुम्हें बता दूंगा.’’

ठीक 5 बजे शाम को मिहिर का फोन आया, ‘‘रमला जल्दी से तैयार हो जाओ. हम आधे घंटे में घर पहुंच रहे हैं.’’

रमला साड़ी बदलने अंदर गई और कुछ देर बाद दरवाजा धकेलने की आवाज से समझ गई कि दोनों आ गए हैं.

वह तैयार हो कर आई तो मिहिर को कोक सर्व करते देखा.

‘‘नमस्ते सर,’’ रमला की आंखें बौस के चेहरे पर जमीं. बौस का चेहरा कुछ जानापहचाना सा लगा.

नमस्ते के जवाब के साथ बौस का स्वर उभरा, ‘‘तुम… तुम रमला हो?’’

‘‘जी, सर. आप रूपेश, सर?’’

‘‘ओह, तो मिहिर यह तुम्हारी पत्नी रमला है,’’ वह कुछ झिझका, ‘‘वह क्या है मिहिर हम एकदूसरे को पहले से जानते हैं.’’

‘‘ओह गुड सर,’’ मिहिर इस मुलाकात से खुश था.

‘‘याद है रमला तुम अकसर पापा की दुकान पर आती थीं.’’

रमला ने हां में सिर हिला दिया.

‘‘हां, फिर सुना तुम्हारे पापा बीमार हो गए थे. शायद तुम्हारी मां और मेरे पापा एक ही हौस्पिटल में थे. बाद में मेरे पापा का इंतकाल हो गया.’’

‘‘हां, याद आया.’’

रमला और मिहिर दोनों एक ही शहर से हैं और साथ पढ़े भी हैं यह जान कर मिहिर ने मन ही मन कहा कि अब तो प्रमोशन की दबी फाइल झट से बौस की टेबल पर आ जाएगी.

बातों का सिलसिला जारी रहा. तीनों गाड़ी में आ बैठे. कुछ देर में रूपेश गाड़ी ड्राइव करने लगा. मिहिर बगल में बैठा था और रमला पीछे.

3 लोग 3 दिशाओं में सोच रहे थे… रूपेश सोच रहा था कि वह कभी रमला के प्रति आकर्षित था. तब वह 10वीं कक्षा में था. घर में कड़ा अनुशासन था. सो रमला से बात करने की हिम्मत ही नहीं होती थी.

गरमी की छुट्टियां थीं. रमला ने पेंटिंग क्लासेज जौइन कर ली थीं. एक रोज उस ने रूपेश को भी वहां देखा. दोनों का मेलजोल बढ़ा. दोनों को एकदूसरे की दोस्ती भा गई. पेंटिंग रूपेश का पैशन था. उस का मन करता रमला पास बैठी रहे और वह पेंटिंग करता रहे, पर उस के हिस्से में कुछ और ही लिखा था.

पिता को अचानक हौस्पिटल ले जाना पड़ा तो पेंटिंग क्लासेज छूट गईं. पर पैशन बरकरार रहा. एक दिन रमला उसे हौस्पिटल में मिली. मिहिर के पिता को कैंसर है जान कर बड़ा दुख हुआ.

कैसे थे वे दिन. तब रमला उसे मिली और फिर पता ही न चला कहां चली गई.

आज अचानक यहां देख कर बड़ी खुशी हुई. वैसे उस ने कभी सोचा भी न था कि रमला से यों मुलाकात होगी.

ओट 2 हाथों की- भाग 1: जब रिया की जिंदगी में नकुल ने भरे रंग

‘‘मेरे मन में इस बच्चे के लिए प्यार उमड़ता ही नहीं’’, कहा था उस ने. पर यह बात तो शुरू के दिनों की है. बाद में असहाय वेदना, बढ़ता रक्तचाप तथा अत्यधिक तनाव के बीच भी उस ने अपने गर्भस्थ शिशु के लिए कोमल भावनाएं जरूर पाली होंगी. उस के आने से सभी विपदाएं दूर हो जाएंगी, यह कामना भी की होगी. 8 वर्षीय बेटी से प्रसव के कारण 2-3 महीने दूर रहने की कल्पना ने उसे और भी दुखी किया होगा. बच्ची तो छोटा भाई या बहन मिलने के बहलावे से बहल भी गई होगी, मगर वह खुद बेटी से दूर रह कर एक दिन भी शांति से नहीं रह पाई होगी.

फिर वही हुआ जिस का अंदेशा कमोबेश सभी को था. समय से पहले मरे हुए बच्चे का जन्म, गला हुआ माथा, मुड़े हाथपांव… और अविकसित भू्रण… 8 महीने से जगी संभावना का अंत.

मैं आजकल बड़ी ढीठ हो गई हूं. जानती हैं दीदी, कल सास ने तनु से पुछवाया, ‘‘मम्मी से पूछ भुट्टा खाएगी क्या?’’

भूख से कुलबुलाते मैं ने कहा, ‘‘हां.’’

तो वह बोलीं, ‘‘बोल, जा कर ले आए.’’

अंदर सोई थी मैं, बाहर दादीपोती की आवाजें आ रही थीं. मैं ने तनु से कहा, ‘‘मेरी कमर में बहुत दर्द है. मैं अभी नहीं ला सकती.’’

सास बोलीं, ‘‘ला नहीं सकती तो खाएगी क्या?’’ तनु अंदरबाहर आ जा कर बातचीत जारी रखे थी. फिर भुट्टे आए भी और मैं ने बेशर्मी से खाए भी. आप सोच सकती हैं, दीदी. मैं कभी ऐसी हो जाऊंगी?

3-4 दिन तक मेरे जेहन में उस की ही बातें घूमती रहीं. उस से जब भी फोन पर बात होती, वह अपने अंदर का भरा सारा गुबार उड़ेल देती. कई बातें ऐसी भी होतीं, जो आमनेसामने उसे कहने

और मुझे सुनने में संकोच हो सकता था. आखिर वह मुझ से काफी छोटी है. फोन पर न मैं उस का शर्मसार चेहरा देख सकती थी न वह मेरा.

रिया रीना की छोटी बहन है और रीना मेरे बचपन की सहेली. रिया मेरे सामने बड़ी हुई. बहनों में सब से छोटी. उस के जन्म के बाद भाई के जन्म के कारण परिवार की वह लाडली बन गई.

रूप, गुण, आभिजात्य, संस्कार, शिक्षा, खानदान व पैसा ये 7 गुण ही तो देखते हैं लड़की में और रिया इन सातों गुणों में श्रेष्ठ नहीं सर्वश्रेष्ठ कही जा सकती है. लड़कों में तो गुण देखने का चलन ही नहीं है. अगर होता तो अजय के सातों खाने खाली.

लड़की सुंदर हो फिर सामान्य से भी कम दिखने वाला पति मिले तो समस्या खड़ी हो सकती है. शायद यह किसी ने नहीं सोचा. फिर न उस का काम के प्रति कोई लगाव, न महत्त्वाकांक्षा और स्वभाव, संस्कार, शिक्षा की तो बात करना ही बेमानी. उस का क्रोध ऐसा कि तीसों दिन घर में आंतक छाया रहता. कभी मम्मीपापा के साथ तो कभी बहनों के साथ तो कभी नौकरों या पड़ोसियों के साथ. रिया के आने के बाद सारा कहर उस पर बरसने लगा.

मैं अकसर सोचती रिया के घर वालों को अजय में क्या खूबी दिखी? संपन्न घर का इकलौता बेटा, घर, गाड़ी अर्थात भविष्य सुरक्षित. मगर रिया जैसी लड़की को क्या इन सब की कभी कमी हो सकती थी?

अजय के स्वभाव से परेशान उस के मम्मीपापा ने सोचा था कि समझदार, सुंदर लड़की आ कर उसे सही रास्ते पर ले आएगी, परंतु शादी के बाद स्थिति इतनी विकट हो जाएगी, इस का अनुमान तक वे नहीं लगा सके थे. अब अजय के जुल्मोसितम का निशाना थी वह पराई लड़की, जो शादी के इतने वर्षों बाद भी किसी की भी अपनी नहीं हो सकी थी. हां, विगत 8-9 वर्षों के वैवाहिक जीवन में उस के खाते में छोटी उम्र में उच्च रक्तचाप जैसा रोग और 8 वर्ष की प्यारी सी बेटी ‘तनु’ ये 2 ही जुड़ पाए थे.

इतने वर्षों बाद अनचाहे ही सही, फिर गर्भ का अंदेशा हुआ तो घबरा गई थी रिया. खुद को सामान्य करने में उसे बहुत वक्त लगा था. बड़ी मुश्किल से बीते थे वे 8 महीने… और उस का अंत भी क्या कम जानलेवा था? प्रसव के लिए दिल्ली अपने मायके चली गई थी.

डाक्टर मम्मीपापा पर बरस पड़ी थीं, ‘‘इस बार लड़की बच गई है. चाहते हैं कि वह स्वस्थ हो सके, तो कृपया उस की समस्याएं सुलझाएं, नहीं तो मर जाएगी वह.’’

इतना हाई ब्लडप्रैशर छोटी उम्र में, कभी भी कुछ भी हो सकता है. उस के मम्मीपापा कांप उठे थे.

रिया ससुराल से दिल्ली आती तब उस का उदास चेहरा सूनी आंखें व अजय के फोन आते ही कांप उठना. पर उस से इतना भर जाना कि अजय क्रोधी स्वभाव का है और मानसिक रोगी भी है. कई कुंठाएं पाल रखी हैं उस ने.

डाक्टर कहती हैं कि उस की समस्या सुलझाएं. रिया की तकलीफों का निवारण अलगाव से हो सकता है. अजय से अलगाव का अर्थ है रिया व नन्ही तनु का भविष्य, अकेलापन, लोगों की उठती उंगलियां, उस से उपजा नया तनाव.

रिया के मम्मीपापा अपनी बेटी के दुख में घुलते जा रहे थे. उस की पूरी त्रासदी के लिए स्वयं को दोषी ठहरा रहे थे. परंतु कोई आरपार का कदम उठा लेने जैसा निर्णय नहीं कर पाते थे. मेरी रीना से इस बारे में अकसर बहस होती.

उस के पापा का अपने परिवार तथा व्यवसाय क्षेत्र में बहुत नाम था पर रिया का प्रकरण न सुलझा पाने के पीछे यह बात भी रही हो कि उन के बेदाग घराने पर एक दाग लग जाएगा कि एक बेटी वापस आ गई ससुराल से… कमोबेश ऐसे ही आदर्शवादी और परंपरावादी संस्कारों के परिवेश में रिया पली थी. तभी वह सह रही थी. शुरू में उस ने अजय को समझाने की, वश में करने की बड़ी कोशिशें कीं. मगर नाकाम रही और फिर हताश हो गई.

पिछली बार मैं दिल्ली गई तो उस के पापा ने मुझे फोन कर के बुलाया था. वे रिया के बारे में मुझ से बात करना चाहते थे. मैं रीना से मिलने कई बार उस के घर गई थी पर अंकलआंटी से बस औपचारिक नमस्ते ही होता था.

रिया के जीवन से परिचित होने पर मुझे भी उन पर एक खिज सी थी, अंदर ही अंदर अच्छीभली लड़की को डुबा देने की बात कौंधती थी.

‘‘अनिता, तुम्हारी रिया से अकसर बात होती है. आखिर अजय चाहता क्या है? क्यों नहीं पटती दोनों में, तुम्हें क्या लगता है?’’ अंकल ने पूछा.

‘‘अंकल, यह सवाल ही गलत है कि अजय चाहता क्या है. एक बिगड़ा बच्चा जो चाहे उसे देते चले जाना कि बवाल न मचाए क्या ठीक है? अजय चाहता क्या है यह तो स्वयं अजय को खुद नहीं पता. न उस के मातापिता को. जहां तक रिया से न पटने की बात है, तो इस के कई मनोवैज्ञानिक कारण हैं. मुझे कहने में संकोच होता है.’’

‘‘नहीं तुम खुल कर कहो बेटी?’’

ओट 2 हाथों की- भाग 2: जब रिया की जिंदगी में नकुल ने भरे रंग

‘‘अंकल, जब रिया शादी के बाद पहली बार मुंबई गई तो दोनों के रूपरंग के अंतर को देख हर व्यक्ति चौंकता था कि ऐसे लंगूर के हाथ हूर कैसे लग गई? अजय को लगा कि लोग उस का अपमान कर रहे हैं फिर हीनता का बोध होते ही वह जबतब अन्य लोगों के सामने बेवजह रिया को फटकारने का कोई मौका नहीं चूकता. वह उसे पांव की नोक पर रखता. रिया उस की एक धमक से थरथर कांप जाती. अपने पुरुष अहम को तृप्त करने के लिए चीखतेचिल्लाते हुए यह भूल ही जाता है कि पतिपत्नी के रिश्ते की सारी आर्द्रता वह सोखता जा रहा है. 2 मिनट उस से बात करते ही, उस की मानसिक अस्थिरता का जायजा मिल जाता है. न जाने आप को कैसे… माफ कीजिएगा मुझे यह नहीं कहना चाहिए.’’

‘‘नहीं बेटी, तुम ठीक कह रही हो. उस वक्त सोचा हम ने भी था कि वह रूपरंग, व्यक्तित्व में रिया की जोड़ी का नहीं है. परंतु स्वभाव ऐसा होगा. यह कैसे मालूम होता.’’

‘‘नहीं अंकल. कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन के चेहरे पर ही लिखा होता है कि वे क्या हैं. अजय उन में से एक है. आप उसे किस तरह नहीं समझ पाए? यह ठीक है कि रूपरंग विशेष अर्थ नहीं रखते. मगर वह एक मानसिक रोगी है. उसे किसी अच्छे मनोचिकित्सक की जरूरत है. हो सकता है

कि वह ठीक भी हो जाए, परंतु इस के लिए जरूरी है कि पहले वह खुद और उस के मातापिता यह जानें कि तकलीफ क्या है और कहां है?’’

‘‘हम ने तो रिया को हमेशा शांत रहने व समझौता करने की ही सीख दी है, अनिता. ताकि बात ज्यादा न बढ़े.’’

‘‘यही गलत कर रहे हैं आप. समझौता और सहने की घुट्टी पिलापिला कर लोग लड़कियों को नकारा बना डालते हैं. उन्हें स्वयं अपनी काबिलीयत पर भरोसा नहीं

रहता. प्रत्येक जायजनाजायज बात पर शांत रहने व समझौता करते जाने के नतीजे देखे आप ने? अजय और उग्र होता गया और रिया बीमार…

‘‘दरअसल, रिया मुझे छोटी बहन जैसी है इसलिए जानती हूं, क्षमा करें मुझे न चाहते हुए भी अप्रिय कहना पड़ा.’’

‘‘नहीं, अनिता. ऐसा मत सोचो. हम ने खुद तुम से सलाह मांगी है. समस्या सुलझाने

के लिए क्या किया जा सकता है, इस पर तुम क्या सोचती हो, क्या खुल कर कह सकती हो.

भूल तो हम से ही हुई है. इतना तो हम भी जानते हैं, बेटी.’’

‘‘अंकल रिया की समस्या बड़ी बारीकी से मैं ने समझा है. उस के कई कारण हो सकते हैं. किंतु समाधान सिर्फ 2 हैं. पहला अजय का इलाज करवाना जिस की संभावना कम से कम मुझे तो दूरदूर तक नजर नहीं आती. दूसरा है रिया के जीवन के बारे में कोई ठोस कदम उठाना.

‘‘पहला उपाय अजय और उस के मातापिता के पास है. दूसरा आप के पास. वे अपने बेटेबहू का सुखी दांपत्य चाहते होते,

तो यह काम बहुत पहले हो चुका होता. परोक्ष रूप से ही सही उन्होंने स्थिति को सुलझाने की जगह उसे और जटिल बनाया है. दूसरा उपाय करने के लिए बहुत सा साहस और दृढ़ निश्चय चाहिए.’’

‘‘अनिता, तुम अपनी सी न लगती तो क्या हम तुम से सलाह करते? हां परसों रीना बेंगलूरु से आ रही है. तब जरूर आना बेटी.’’

‘‘रीना के आते ही आप फोन कर दीजिएगा.’’

रीना आते ही मुझ से मिलने आ पहुंची. वहां उस ने अपना अधूरा फैशन डिजाइनिंग का कोर्स पूरा कर के एक छोटा सा बुटिक खोल लिया था, जो खूब चलने लगा था. सफलता का नूर उस के चेहरे को दमका रहा था.

‘‘अनि, कैसी हो भई. अच्छा हुआ, जो दिल्ली में मिल गई वरना तुम से मिलने मुंबई आना पड़ता.’’

‘‘कितनी बार आई मुंबई? बता तो जरा.’’

‘‘सच, इस बार मन बना लिया था कि जाना ही है. खैर, सुना हमारी रिया के क्या हाल हैं? इस हादसे के बाद अजय साहब का फुफकारना कम हुआ या नहीं. कुछ सबक लिया या वैसे ही हैं. खुद को कुसूरवार मान कर कुछ तो पछता रहे होंगे.’’

‘‘तुम भी, रीना. आशावादी होना ठीक है, मगर किसी चमत्कार की आशा लगा लेना मूर्खता है. मैं ने तो पिछली बार ही बताया था कि वहां स्थिति के बदलाव की गुंजाइश नहीं है. फिर भी तुम लोग किस भ्रम में हो अब तक?’’

ओह, चहकती रीना बुझ सी गई. अभी 3 महीने पहले ही तो रिया ने मृत बच्चे को जन्म दिया था.

‘‘रीना, यहां आने से 2 दिन पहले ही मेरी रिया से बात हुई थी.

उसे मैं ने नहीं बताया कि मैं दिल्ली जा रही हूं. तो शायद ही वह मुझ से कुछ बताती. वह भी कहां चाहती है कि उस की तपिश की आंच यहां तक पहुंचे.’’

‘‘क्या कह रही थी?’’ रीना की आंखें डबडबा गईं.

‘‘कह रही थी, दीदी, जिस आदमी से लेशमात्र भी प्यार न हो उस के साथ पूरा जीवन काटना कितनी बड़ी सजा है.’’

‘‘मैं ने भी उस से यही पूछा कि बच्चे की मौत से अजय को कुछ धक्का लगा क्या? तो बोली कि पता नहीं पर रंगढंग वही के वही हैं. घर में पैर रखते ही मेरे तो हाथपैर फूल जाते हैं. धड़कनें तेज हो जाती हैं. कभी हाथ से कुछ गिरता है कभी कुछ. दीदी, क्या करूं औरतें शाम को पति के आने का इंतजार करती हैं और सच कहूं तो मैं सुबह उस के जाने का. जब तक वह घर में रहता है मुझ पर दहशत छाई रहती है. कोई काम ढंग से नहीं कर पाती.’’

रीना के कपोलों पर भी आंसू बह चले. वह फिर बोली, ‘‘तनु के क्या हालचाल हैं, अनि?’’

‘‘रिया ही कह रही थी कि तनु सब समझने लगी है. पापा से थरथर कांपती है. बहुत अंतर्मुखी होती जा रही है. पिछले दिनों अजय दहाड़ते हुए रिया पर हाथ उठाने को आगे बढ़ा, तो वह एकदम सिटपिटा गई. बाद में पूछा था कि ममा. हसबैंड लोग ऐसे होते हैं क्या? अनजाने ही मासूम बच्ची अपनी मां के हिस्से की पीड़ा भुगत रही हैं कच्ची उम्र में.’’

‘‘अनि, बहुत पहले हम सभी भाईबहनों की जन्मकुंडलियां पापा ने किसी पंडित को दिखाई थी. जानती हो, रिया के लिए वह क्या बोला था कि यह लड़की कभी जमीन पर पांव नहीं रखेगी. रानी बन कर राज करेगी. फिर अजय की कुंडली के साथ रिया की कुंडली उसी से मिलाते वक्त कहा था कि ऐसा संयोग कम देखने को मिलता है. तभी मम्मीपापा का इस रिश्ते को करने का पूरा मन बन गया था जबकि पहले अजय कम ही अच्छा लगा था.’’

‘‘अच्छा तो यह बात थी. चौंकने की बारी अब मेरी थी, तभी आज तक मैं यह गुत्थी नहीं सुलझा पा रही थी कि यह रिश्ता हुआ कैसे… क्यों हुआ? अच्छी राजरानी बना के रखा है, उस ने रिया को और राजपाट भी कैसा कि एक पैसा कभी मन से खर्च नहीं किया होगा. बोलने तक की तो इजाजत है नहीं.

‘‘पंडित हाथ की रेखा को ठीक से पढ़ना नहीं जानता था, न मिलाना जानता था, जन्मकुंडलियों के ग्रह गोचरों को. पर चेहरे पढ़ना जरूर जानता होगा तभी रिया के रूप और उस के पापा के आभिजात्य को देख राजरानी बनने की भविष्यवाणी कर दी थी. संभावना भी वही थी. कोई भी सामान्य ज्ञान रखने वाला पाखंडी पंडित वही कहता. उस में अनहोनी क्या थी? अनहोनी तो यह थी, जो घट रही है.

‘‘अजय को उस के रूपरंग, कामधंधे, स्वभाव, संस्कार की कसौटी पर परखा जाता, तो वह धुंध साफ हो सकती थी, मगर पंडित के दिखाए भविष्य के सतरंगे सपने ने ऐसा भ्रमित किया कि जो बेनूर बदरंग रंग सामने थे वे भी नजर नहीं आए.’’

ओट 2 हाथों की- भाग 3: जब रिया की जिंदगी में नकुल ने भरे रंग

ल्ली में रीना से इस मुलाकात के बाद मैं 3 साल से अधिक हुए उस से नहीं मिल पाई. मुंबई पहुंचते ही राकेश की फर्म ने मुझे आस्ट्रेलिया भेज दिया. हम उधर चले गए. रिया से जाते वक्त फोन पर बात की, तो उसे बड़ी हताशा हुई. इस शहर में एक मैं ही थी, जिस के आगे कभीकभार वह अपने भारी मन को कहसुन कर हलका कर लिया करती थी. मैं जब दिल्ली लौटी तो पता चला कि रीना और रिया यही हैं. भाई की शादी पर आई हुई हैं. तो नकुल इतना बड़ा हो गया… शादी हो रही है उस की.

दोपहर को रीना और रिया मुझे लेने आ पहुंचीं. यह रिया थी. कायाकल्प हो गया था उस का. चहक रही थी. आवाज में भरपूर आत्मविश्वास उस की सुंदरता को बढ़ा रहा था. पर आंखों के कोनों में पसरा हलका सूनापन मुझ से छिपा नहीं रहा. इस पर भी उस का पूरा व्यक्तित्व बदला सा था, स्वस्थ, स्मार्ट. मैं हैरत से उसे ही देखे जा रही थी, बिना कुछ बोले. आगे बढ़ कर मेरा हाथ दबाते वही बोली, ‘‘दीदी, रिया के इस रूप को देख कर चौंक गई न. मैं ने अपना दुखड़ा आप के सामने खूब रोया. क्या अब बाकी की कहानी नहीं सुनना चाहेंगी?’’

‘‘ओह रिया, जरूर सुनूंगी बल्कि सच कहूं तो तुम्हें देख कर आश्चर्य तो हो रहा है साथ ही इतनी खुशी हो रही है, जिसे मैं बयान नहीं कर सकती.’’

‘‘मैं समझ सकती हूं, दीदी. आप ने उन दिनों मुझे कितना सहारा दिया. मैं इसे क्या भूल सकती हूं?’’

‘‘हट पगली. दीदी भी कहती है और…’’

‘‘तो चल, अनि, आज जी भर कर बातें करेंगे. कल से शादी की गहमागहमी में, रिश्तेदारों की भीड़ में एकांत नहीं मिल पाएगा,’’ रीना बोली.

जो रिया ने बताया सच में वह किसी नाटक जैसा था.

दीदी नकुल मुंबई आया था अपने किसी काम से. फोन खराब होने के कारण उस के आने की सूचना नहीं मिली थी. अचानक पहुंचा… घर का दरवाजा भी अंदर से बंद नहीं था. अंदर कदम रखते ही उस के मुंह पर अजय द्वारा फेंका गया तनु का ड्रैस पड़ा और कानों में पड़ी उस की फुफकार…

इस तरह की खुली स्लीवलैस डै्रस तनु को पहनाओगी. पूरे कंधे, पीठ खुली… समझती क्या हो अपनेआप को… कुछ शऊर है…कहा किस ने था उस के कपड़े लाने को… इतने तो पड़े हैं.

एक ही बात को लगभग दहाड़ते हुए दोहरा रहा था. चेहरा गुस्से में लाल पड़ गया था. सामने रिया मूर्ति बनी भावहीन खड़ी थी. तनु कांप रही थी. धृतराष्ट्र और गांधारी बने सासससुर घर को कुरुक्षेत्र बना देख, अनदेखा करते अपने कमरे में बैठे थे. उन के लिए यह हमेशा का जानापहचाना दृश्य था.

नकुल को देख एक बारगी अजय सकते में आ गया, ‘‘क्या हुआ?’’ उस का इतना पूछना भर था कि अजय दोगुने वेग से गरजने लगा.

अपनी इस बेवकूफ बहन से पूछो. कोई काम ढंग से नहीं करती. इस को मना किया हुआ है फिर भी ऐसा बेहुदा डै्रस लाई है. कहने को उस के पास क्या था. तिल को ताड़ बना देने की आदत के पीछे चोट उस के अहमग्रस्त वजूद पर इतनी सी बात से लग गई कि रिया अपने मन से एक कपड़ा भी बेटी के लिए क्यों ले आई. 8 साल की बच्ची के लिए स्लीवलैस कपड़े में उसे क्या बुराई नजर आ गई. तनु के हाथ से झपट कर डै्रस को रिया के मुंह पर मारा था, बीच में आ गया नकुल. सालेसाहब का इस तरह स्वागतसत्कार हुआ.

युवा नकुल का इस से खून गरम होना लाजमी था. अपनी प्यारी बहन को बेवकूफ और न जाने किनकिन शब्दों से नवाजा जाना सहन नहीं कर पाया. उस समय वह ज्यादा कुछ नहीं बोला. पर नीचे जा कर अपने पापा को फोन किया, ‘‘पापा मैं रिया दीदी को अपने साथ ला रहा हूं.’’

‘‘क्या बात हो गई. वह ठीक तो है न?’’

‘‘वह सब बातें वहीं आ कर होंगी पापा.’’

‘‘बेटा, आखिर कुछ कहो भी. हुआ क्या आखिर?’’

‘‘क्या कहूं. जीजाजी का जो रंग मैं ने यहां देखा… बस, कैसे बताऊं…’’

‘‘सुनो नकुल, मैं रात की फ्लाइट से आ रहा हूं. तब तक कुछ मत कहना.’’

वापस ऊपर बहन के पास आया तब तक अजय जा चुका था. रिया के ससुर नकुल के पास बैठे सामान्य दिखने की कोशिश कर रहे थे. शर्मिंदगी का स्याह रंग पुता था उन

के चेहरे पर. संभ्रांत परदे के पीछे छिपा बदरंग रूप सामने आ चुका था. इतना होने

पर भी रिया ने भाई की पसंद का खाना बनाया. पास बैठ कर मनुहार कर खिलाया. यह वही रिया थी, जिस से कोई ऊंची आवाज में कोई कुछ कह देता, तो रूठ जाती. खाना नहीं खाती थी. सहतेसहते शायद… संवेदना शून्य हो गई थी.

पापा शाम को आ कर होटल में रुके और फोन कर नकुल को बुलाया. उस ने जो कुछ हुआ सब बताया.

‘‘पापा, सुनने में मामूली बात लगेगी किंतु उस वक्त जीजाजी का जो रूप मैं ने देखा. मैं तो डर गया दीदी कैसे सहती होगी,’’ अनायास ही हाथ सूजे चेहरे पर चला गया. पापा ने भी देखा, सहलाया, फिर गंभीर हो गए.

दूसरे दिन नकुल रिया को घुमाने के बहाने होटल में ले आया. पापा को देख कर चौंकी थी रिया. पापा का उदास खिला चेहरा देख ग्लानि से भर उठी. उफ, उस दिन दरवाजा बंद होता, तो कम से कम यह सब न होता. किसी को कुछ पता नहीं चलता.

फिर नकुल की जिद के कारण पापा रिया के ससुर से और अजय से मिलने पहुंचे. इतने वर्षों में कभी किसी तरह का उलाहना न देने वाले और हमेशा बेहद विनम्रता व शालीनता से पेश आने वाले समधी ने जब नकुल के साथ औफिस में प्रवेश किया, तो दोनों बापबेटे सिटपिटा गए.

गंभीर व दृढ़ शब्दों में रिया के पापा ने 2 बातें सामने रखीं कि या तो रिया को यहां किसी काम में लगा कर व्यस्त रखा जाए या फिर वे उसे साथ दिल्ली ले जा कर कुछ करवाएंगे. वे नहीं चाहते कि लगातार के तनाव से उन की बेटी बिस्तर पकड़ ले.

न अजय का कोई दोष बताया न समधी को कोई उलाहना दिया. उन के ठहरे हुए शब्दों की गूंज ऐसी थी कि दोनों बापबेटे के पास एक विकल्प चुनने के अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं बचा था.

तब स्नातक के बाद की गई रिया की मौंटेसरी टै्रनिंग की ए.एम.आई. की डिगरी काम आई. नकुल और पापा ने जगह लेने से ले कर उसे व्यवस्थित करने, रजिस्टे्रशन करवाने, विज्ञापन देने, फर्नीचर बनवाने और अनेक छोटेबड़े काम वहीं रह कर अपनी देखरेख में पूरे करवाए. दोनों ने तय कर लिया था कि चाहे कितना भी समय लगे, रिया का स्कूल शुरू करवा कर ही जाएंगे.

‘‘दीदी, जानती हैं स्कूल का सारा खर्च मेरे ससुर ने दिया. अभी मेरे पास 150 बच्चे

हैं. सुबह 10 से 2 बजे तक मैं स्कूल में रहती हूं. घर की पूरी जिम्मेदारी निभाते हुए, मजे से स्कूल चला रही हूं. बच्चों के भोले चेहरे देख कर, उन की प्यारी बातें सुन कर मेरा सारा तनाव दूर हो जाता है.’’

‘‘अजय भी अब पहले की तरह नहीं चीखतेचिल्लाते. मेरे किसी काम में अब दखलंदाजी भी नहीं करते. एक मूक समझौता हो गया है. बस, ठहराव आ गया है, दीदी.’’

यानी कि आपसी प्रेम के बिना भी व्यस्तता व अपने होने की सार्थकता ने रिया को संयत कर दिया था. अलगाव या दूसरे रास्ते नए तरह का तनाव पैदा कर सकते थे. वैसे सभी के हिस्से में सारे सुख कहां होते हैं. जो नहीं बदल सकता था नहीं बदला.

मन पर लगे घाव बारबार चोट खा कर नासूर बन रहे थे. उन पर खूरंट आ गए थे. निशान तो थे ही, जो बीत गया वह लौट नहीं सकता था. बस, जो समय बचा था

उसे संवारा था उस ने, पर यह भी तब हुआ था, जब कांपती लौ को 2 हाथों की ओट

मिली थी. वरना झंझावतों के थपेड़ों से लौ बुझ ही जाती.

ये भी पढ़ें- तौबा- सुमित ने इश्क लड़ाने की आदत से कैसे की तौबा?

दुविधा – भाग 1 : किस कशमकश में थी वह?

एमबीए करते ही एक बहुत बड़ी कंपनी में मेरी नौकरी लग गई. हालांकि यह मेरी वर्षों की कड़ी मेहनत का ही परिणाम था फिर भी मेरी आशा से कुछ ज्यादा ही था. हाईटैक सिटी की सब से ऊंची इमारत की 15वीं मंजिल पर, जहां से पूरा शहर दिखाई देता है, मेरा औफिस है. एक बड़े एयरकंडीशंड हौल में शीशे के पार्टीशन कर के सब के लिए अलगअलग केबिन बने हुए हैं. आधुनिक सुविधाओं तथा तकनीकी उपकरणों से लैस है मेरा औफिस.

मेरे केबिन के ठीक सामने अकाउंट्स विभाग का स्टाफ बैठता है. उन से हमारा काम का तो कोई वास्ता नहीं है लेकिन हमारी तनख्वाह, भत्ते, अन्य बिल वही बनाते तथा पास करते हैं. कंपनी में पहले ही दिन अपनी टीम के लोगों से विधिवत परिचय हुआ लेकिन शेष सब से परिचय संभव नहीं था. सैकड़ों का स्टाफ है, कई डिवीजन हैं. उस पर ज्यादातर स्टाफ दिनभर फील्ड ड्यूटी पर रहता है.

मेरे सामने बैठने वाले अकाउंट्स विभाग के ज्यादातर कर्मचारी अधेड़ उम्र के हैं. बस, ठीक मेरे सामने वाले केबिन में बैठने वाला अकाउंटैंट मेरा हमउम्र था. वैसे उस से कोई परिचय तो नहीं हुआ था, बस, एक दिन लिफ्ट में मिला तो अपना परिचय स्वयं देते हुए बोला, ‘‘मैं सुबोध, अकाउंटैंट हूं. कभी भी अकाउंट्स से जुड़ी कोई समस्या हो तो आप बेझिझक मुझ से कह सकती हैं,’’ बदले में मैं ने भी उसे अपना नाम बताया और उस का धन्यवाद किया था जबकि वह मेरे बारे में सब पहले से जानता ही था क्योंकि अकाउंट्स विभाग से कुछ छिपा नहीं होता है. उस के पास तो पूरे स्टाफ की औफिशियल कुंडली मौजूद होती है.

इस संक्षिप्त से परिचय के बाद वह जब कभी लिफ्ट में, सीढि़यों में, डाइनिंग हौल में या रास्ते में टकरा जाता तो कोई न कोई हलकाफुलका सवाल मेरी तरफ उछाल ही देता. ‘औफिस में कैसा लग रहा है?’, ‘आप का कोई बिल तो पैंडिंग नहीं है न?’, ‘आप अखबार और पत्रिका का बिल क्यों नहीं देती?’, ‘आप ने अपनी नई मैडिकल पौलिसी के नियम देख लिए हैं न?’ वगैरहवैगरह. बस, मैं उस के सवाल का संक्षिप्त सा उत्तर भर दे पाती, हर मुलाकात में इतना ही अवसर होता.

मुझे यहां काम करते 2-3 महीने बीत चुके थे. अभी भी अपनी टीम के अलावा शेष स्टाफ से जानपहचान नहीं के बराबर थी. वैसे भी दिनभर सब काम में इतना व्यस्त रहते हैं कि इधरउधर की बात करने का कोई  मौका ही नहीं मिल पाता. हां, काम करतेकरते जब कभी नजरें उठतीं तो सामने बैठे सुबोध से जा टकराती थीं. ऐसे में कभीकभी वह मुसकरा देता तो जवाब में मैं भी मुसकरा कर फिर अपने काम में लग जाती. लेकिन जैसेजैसे दिन बीत रहे थे, मैं ने एक बात नोटिस की कि जब कभी भी मैं अपनी गरदन उठाती तो सुबोध को अपनी तरफ ही देखते हुए पाती. अब वह पहले की तरह मुसकराता नहीं था बल्कि अचकचा कर नीचे देखने लगता था या न देखने का बहाना करने लगता था.

खैर, मेरे पास यह सब सोचने का समय ही कहां था? मेरे सपनों के साकार होने का समय पलपल करीब आने लगा था. घर में मेरे और प्रखर के विवाह की तैयारियां शुरू हो चुकी थीं. प्रखर और मैं कालेज में साथसाथ पढ़ते थे. वहीं हमारी दोस्ती हुई फिर पता ही नहीं लगा कब हमारी दोस्ती इतनी आगे बढ़ गई कि हम दोनों ने जीवनसाथी बनना तय कर लिया.

घर वालों से बात की तो उन्होंने भी इस रिश्ते के लिए हां कर दी लेकिन शर्त यही थी कि पहले हम दोनों अपनीअपनी पढ़ाई पूरी करेंगे, अपना भविष्य बनाएंगे. फिर शादी की सोचेंगे. पढ़ाई पूरी होते ही प्रखर को भी एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छी नौकरी मिल गई थी.

एक दिन सुबह सुबोध लिफ्ट में फिर मिल गया. लिफ्ट में हम दोनों ही थे. बिना एक पल भी गंवाए उस ने और दिनों से हट कर सवाल पूछा था, ‘‘आप के घर में कौनकौन है?’’

मुझे उस से ऐसे सवाल की आशा नहीं थी. पूछा, ‘‘क्यों, क्या करेंगे जान कर?’’ मेरा उत्तर भी उस के अनुरूप नहीं था.

‘‘यों ही. सोचा, मां को आप के बारे में क्या बताऊंगा, जब मुझे ही आप के बारे में कुछ पता नहीं है?’’

‘‘क्यों, सब कुछ तो है आप के पास औफिस रिकौर्ड में नाम, पता, ठिकाना, शिक्षा वगैरह,’’ कहते हुए मैं हंस दी थी और वह मुझे देखता ही रह गया.

लिफ्ट हमारी मंजिल पर पहुंच चुकी थी. हम दोनों उतरे और अपनेअपने केबिन की ओर बढ़ गए.

अपनी सीट पर आ कर बैठी तो एहसास हुआ कि सुबोध क्या पूछ रहा था और नादानी में मैं ने उसे क्या उत्तर दे दिया. सब सोच कर इतनी झेंप हुई कि दिनभर गरदन उठा कर सामने बैठे हुए सुबोध को देखने का साहस ही नहीं हुआ. हालांकि उस की नजरों की चुभन को मैं ने दिनभर अपने चेहरे पर महसूस किया था. पता नहीं वह क्या सोच रहा था.

अगले दिन मैं जानबूझ कर लंच के लिए देर से गई ताकि मेरा सुबोध से सामना न हो जाए. उस समय तक डाइनिंग हौल लगभग खाली ही था. मैं ने जैसे ही प्लेट उठाई, अपने पीछे सुबोध को खड़ा पाया. उसी चिरपरिचित मुसकान के साथ, खाना प्लेट में डालते हुए वह धीमे से बोला, ‘‘कल आप ने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया?’’

‘‘मम्मी को बताना क्या है, अगले महीने की 20 तारीख को मेरी शादी है. उन्हें साथ ले आइएगा, मिलवा ही दीजिएगा.’’

आग और धुआं- भाग 2: क्या दूर हो पाई प्रिया की गलतफहमी

उस पल मुझे निशा को अपने पति को छूना अच्छा नहीं लगा. सच तो यह है कि मुझे निशा ही अच्छी लगना बंद हो गई. पार्टी में मेरा उस से कई बार आमनासामना हुआ, पर मैं उस से सहज और सामान्य हो कर बातें नहीं कर पाई.

निशा को ले कर मेरे मन में पैदा हुआ मैल अमित की नजरों से ज्यादा दिन नहीं छिपा रहा. इस विषय पर एक शाम उन्होंने चर्चा छेड़ी, तो मैं ने कई दिनों से अपने मन में इकट्ठा हो रहे गुस्से व शिकायतों का जहर उगल दिया.

‘‘शादी हो जाने के बाद समझदार इनसान अपनी पुरानी सहेलियों से किनारा कर लेते हैं. अब आफिस में अलग से इश्क लड़ाने का चक्कर तुम खत्म करो, नहीं तो ठीक नहीं होगा,’’ मुझे बहुत गुस्सा आ गया था.

‘‘तुम मुझ पर शक कर रही हो,’’ अमित ने जबरदस्त सदमा लगने का नाटक किया.

‘‘मैं ही नहीं, इस बात का सच तुम्हारा पूरा आफिस जानता है.’’

‘‘प्रिया, तुम लोगों की बकवास पर ध्यान दे कर अपना और मेरा दिमाग खराब मत करो.’’

‘‘मेरे मन की सुखशांति के लिए तुम्हें निशा से किसी भी तरह का संबंध नहीं

रखना होगा.’’

‘‘तुम्हारे आधारहीन शक के कारण मैं अपने ढंग से जीने की अपनी स्वतंत्रता को खोने के लिए तैयार नहीं हूं.’’

‘‘निशा का आज से मेरे घर में घुसना बंद है और अगर तुम ने कभी उस के फ्लैट में कदम रखा, तो मैं यहां नहीं रहूंगी.’’

‘‘मुझे बेकार की धमकी मत दो, प्रिया. अगर तुम ने निशा के साथ कभी भी जरा सी बदतमीजी की तो मुझ से बुरा कोई न होगा.’’

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि तुम्हें निशा की ज्यादा और मेरी भावनाओं की चिंता कम है.’’

‘‘तुम यों आंसू बहा कर मुझे ब्लैकमेल नहीं कर सकती हो. इस विषय पर और आगे बहस नहीं होगी हमारे बीच. मैं तुम्हारा और सिर्फ तुम्हारा हूं.’’

‘‘मुझे अपने दिल की रानी मानते हो तो निशा से संबध तोड़ लो.’’

‘‘तुम्हारे जैसी बेवकूफ औरत से कौन मगज मारे,’’ गुस्से से आगबबूला हो कर अमित घर से बाहर चले गए.

मेरी इच्छा व भावना की कद्र करते हुए मेरे एक बार कहने पर अमित फौरन निशा से दूर हो जाएंगे, मेरी इस सोच को उन्होंने उस दिन गलत साबित किया. उन की जिंदगी में कोई दूसरी लड़की हो, यह बात मेरे लिए असहनीय थी. उन के दिल पर सिर्फ मेरा हक था. निशा के साथ संबंध समाप्त करने से इनकार कर के उन्होंने मुझे जबरदस्त झटका दिया था.

निशा का हमारे घर आना जारी रहा. मैं उस की उपस्थिति में नाराजगी भरा मौन साध लेती. उन का आपस में हंसनाबोलना असहनीय हो जाता तो सिरदर्द का बहना बना कर अपने शयनकक्ष में जा लेटती.

निशा का मेरे घर में अब स्वागत नहीं है, यह बात अपने हावभाव से स्पष्ट करने में मैं ने कोई कसर नहीं छोड़ी.

निशा पर तो मेरे इस मौन विरोध का खास प्रभाव नहीं पड़ा, पर अमित बुरी तरह से तिलमिला गए. निशा को ले कर हमारे बीच रोज लड़ाईझगड़ा होने लगा.

मुझे इस बात का सख्त अफसोस था कि इन झगड़ों से या मेरे आंसू बहा कर रोने से अमित अप्रभावित रहे. उन का अडि़यल रुख मेरी दृष्टि में उन के मन में चोर होने का सुबूत था. क्रोध और ईर्ष्या की आग में सुलगते हुए मैं रातदिन अपना खून जलाने लगी.

हमारे बीच जबरदस्त टकराव का यह खराब दौर करीब 2 महीनों तक चला. फिर अचानक मेरे मन को उदासी और निराशा के कोहरे ने घेर लिया.

मैं अपनेआप में सिमट कर जीने लगी. मशीनी अंदाज में घर का काम करती. अमित कुछ समझाने की कोशिश करते, तो मेरी समझ में कुछ न आता. तब या तो मैं थकेहारे से अंदाज में उठ कर घर के किसी अन्य हिस्से में चली जाती या मेरी आंखों से टपटप आंसू गिरने लगते. वे कभीकभी मुझे डांटते भी, पर मैं किसी भी तरह की प्रतिक्रिया दर्शाने की शक्ति अपने अंदर महसूस नहीं करती. सच तो यह है कि अमित का सान्निध्य ही मुझे अच्छा नहीं लगता.

मेरा स्वास्थ्य निरंतर गिरता देख मेरे मायके व ससुराल वाले बहुत चिंतित हो उठे. हमारे दांपत्य संबंध किसी निशा नाम की लड़की के कारण बिगड़े हुए हैं, इस तथ्य से वे पहले ही परिचित थे.

जब अमित को वे सब निशा से बिलकुल कट जाने की बात डांटफटकार के साथ समझाते तो मुझे बड़ा सुकून व सहारा मिलता.

मेरे ‘डिप्रैशन’ ने सब को हिला कर रख दिया. अमित पर निशा से दूर हो जाने के लिए जबदस्त दबाव बना. पहले की तरह वे किसी से बहस या झगड़े में तो नहीं उलझे, पर उन्होंने अपने को बेकुसूर कहना जारी रखा. निशा से वे सब संबंध समाप्त कर लेंगे, ऐसा आश्वासन भी कोई उन के मुंह से नहीं निकाल सका. उदासी के कोहरे को चीर कर यह तथ्य मेरे दिलोदिमाग में कांटे की तरह अकसर चुभता.

‘‘प्रिया को कुछ दिन के लिए हम घर ले जा रहे हैं,’’ मेरे मातापिता के इस प्रस्ताव का अमित ने एक बार भी विरोध नहीं किया.

‘‘मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसा खराब वक्त कभी हमारे वैवाहिक जीवन में आएगा, प्रिया. तुम वह लड़की नहीं रहीं जिसे मैं ने हमेशा दिलोजान से ज्यादा चाहा. अपने मन में बैठे शक के बीज को जब तुम सदा के लिए जला कर राख करने को तैयार हो जाओ, तब मैं तुम्हें लेने चला आऊंगा. अपना ध्यान रखना,’’ विदा करते वक्त अमित की आंखों में मैं ने आंसू तो देखे, पर उन्होंने निशा से दूर होने का वादा मुंह से नहीं निकाला.

शादी के सिर्फ 4 महीने बाद मैं निराशा, दुखी और उदास हाल में अमित से दूर मायके रहने आ गई. मेरे घर वालों के साथसाथ जो भी मुझे से मिलने आता अमित को बुरा कहता. उन सब के सहानुभूति भरे शब्द मुझे बारबार रुलाते. यह भी सच है कि मेरी समस्या को हल करने का सार्थक सुझाव किसी के भी पास नहीं था.

अमित फोन पर मेरा हालचाल लगभग रोज ही पूछते. मैं अधिकतर खामोश रह कर उन की बातें सुनती. उन्होंने निशा के मामले में अपने को बेकुसूर कहना जारी रखा. उस से संबंध तोड़ने को वे अभी भी तैयार नहीं थे. ऐसी स्थिति में उन्हें समझाने के सारे प्रयास निरर्थक साबित होने ही थे.

मेरा डिप्रैशन धीरेधीरे दूर होने लगा. भूख खुली और नींद ठीक हुई, तो स्वास्थ्य भी सुधरा. मेरी संवेदनशीलता लौटी तो निशा को ले कर मन फिर से टैंशन का शिकार हो गया.

सफर की हमसफर: प्रिया की कहानी

romantic story in hindi

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें