मैं टाइमपास के लिए गेम खेलता हूं तो गर्लफ्रैंड मुंह फुला लेती है, क्या करूं?

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक जरूर पढ़ें…

मैं और मेरी गर्लफ्रैंड सिर्फ इंटरनैट से जुड़े हुए हैं. हम दिन में चैटिंग करते हैं और रात में वीडियो कौल पर बात करते हैं. हो यह रहा है कि उस से बातें करतेकरते मैं अब बोर होने लगा हूं. बातें चाहे कितनी ही प्यारभरी हों, सैक्सुअल हों या नौर्मल ही क्यों न हों लेकिन अब सबकुछ उबाऊ लगने लगा है.  पहले कालेज में मिलना होता था तो कुछ न कुछ होता था बात करने को और रोमांटिक बातें करना भी अच्छा लगता था. अब तो किसी चीज में मन नहीं लगता. रोमांस महसूस करने के लिए वीडियो कौल पर एकदूसरे का मन बहलाने की कोशिश करते हैं पर उस से भी मन भर गया. मैं टाइमपास के लिए पबजी खेलता हूं तो गर्लफ्रैंड मुंह फुला लेती है. क्या करूं, समझ नहीं आ रहा?

जरूरी नहीं कि आप एकदूसरे से बातें ही करते रहें या एकदूसरे को वीडियो कौल करें. रिलेशनशिप को थोड़ा स्पेस दीजिए. एकदूसरे को याद करने का थोड़ा मौका दीजिए. दिनभर ज्यादा बात न करने से रात में बात करने का इंतजार रहेगा, जिस में रोमांच भी है और मजा भी.

अच्छी मूवीज देखिए, शोज देखिए, दिनभर में कुछ न कुछ करते रहिए जिस से जब भी आप एकदूसरे से बात करें तो आप के पास बात करने का टौपिक हो. सैक्स के बारे में सोचना सही है लेकिन हर समय सोचना और फिर यह दुख मनाना कि मिल नहीं सकते, गलत है. इस से बेहतर तो आप इन चीजों के बारे में उतनी ही बात करें जितना सहज लगे, अति न करें. रही बात गर्लफ्रैंड के पबजी खेलने को ले कर शिकायत करने की, तो आप उस से बात करते समय पबजी का जिक्र ही मत कीजिए और उस को उस के हिस्से का समय दीजिए, वह गुस्सा नहीं करेगी.

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छत: क्या शकील ने दीबा की वजह से छोड़ा घर

‘‘सुनते हो जी,’’ दीबा ने धीरे से उस के हाथों को छूते हुए पुकारा.

‘‘क्या है,’’ वह इस कदर थक चुका था कि उसे दीबा का उस समय इतने प्रेम से आवाज देना और स्पर्श करना भी बुरा लगा.

उस का मन चाह रहा था कि वह बस यों ही आंखें बंद किए पलंग पर लोटपोट करता रहे और अपने शरीर की थकान दूर करता रहे.

उस दिन स्थानीय रेलगाड़ी में कुछ अधिक ही भीड़ थी और उसे साइन स्टेशन तक खड़ेखड़े आना पड़ा था और वह भी इस बुरी हालत में कि शरीर को धक्के लगते रहे और लगने वाले हर धक्के के साथ उसे अनुभव होता था, जैसे उस के शरीर की हड्डियां भी पिस रही हैं.

उस के बाद पैदल सफर, दफ्तर के काम की थकान, इन सारी बातों से उस का बात करने तक का मन नहीं हो रहा था.

बड़ी मुश्किल से उस ने कपड़े बदल कर मुंह पर पानी के छींटे मार कर स्वयं को तरोताजा करने का प्रयत्न किया था. इस बीच दीबा चाय ले आई थी. उस ने चाय कब और किस तरह पी थी, स्वयं उसे भी याद नहीं था.

पलंग पर लेटते समय वह सोच रहा था कि यदि नींद लग गई तो वह रात का भोजन भी नहीं करेगा और सवेरे तक सोता रहेगा.

‘‘दोपहर को पड़ोस में चाकू चल गया,’’ दीबा की आवाज कांप रही थी.

‘‘क्या?’’ उसे लगा, केवल एक क्षण में ही उस की सारी थकान जैसे कहीं लोप हो गई और उस का स्थान भय ने ले लिया है. उसे अपने हृदय की धड़कनें बढ़ती अनुभव हुईं, ‘‘कैसे?’’

‘‘वह अब्बास भाई हैं न…उन का कोई मित्र था. कभीकभी उन के घर आता था. आज शायद शराब पी कर आया था और उस ने अब्बास भाई की पत्नी पर हाथ डालने का प्रयत्न किया. पत्नी सहायता के लिए चीखी…उसी समय अब्बास भाई भी आ गए. उन्होंने चाकू निकाल कर उसे घोंप दिया…उस के पेट से निकलने वाला वह खून का फुहारा…मैं वह दृश्य कभी नहीं भूल सकती,’’ दीबा का चेहरा भय से पीला हो गया था.

‘‘फिर?’’

‘‘किसी ने पुलिस को सूचना दी. पुलिस आ कर उस घायल को उठा कर ले गई. पता नहीं, वह जिंदा भी है या नहीं. अब्बास भाई फरार हैं. पुलिस उन्हें ढूंढ़ रही है. पुलिस वाले पड़ोसियों से भी पूछने लगे कि सबकुछ कैसे हुआ. मुझ से भी पूछा… परंतु मैं ने साफ कह दिया कि मैं उस समय सोई हुई थी.’’

दीबा की सांसें तेजी से चल रही थीं. उस के चेहरे का रंग पीला पड़ गया था, जैसे वह दृश्य अब भी उस की आंखों के सामने नाच रहा हो. स्वयं उस के माथे पर भी पसीने की बूंदें उभर आई थीं. उस ने जल्दी से उन्हें पोंछा कि कहीं दीबा उस की स्थिति से इस बात का अनुमान न लगा ले कि वह इस बात को सुन कर भयभीत हो उठा है. वह यही कहेगी, ‘आप सुन कर इतने घबरा गए हैं तो सोचिए, मेरे दिल पर क्या गुजर रही होगी. मैं ने तो वह दृश्य अपनी आंखों से देखा है.’

‘‘पड़ोसी कह रहे थे,’’ दीबा आगे बताने लगी, ‘‘अब्बास भाई ने जो किया, अच्छा ही किया था. वह आदमी इसी सजा का हकदार था. शराब पी कर अकसर वह लोगों के घरों में घुस जाता था और घर की औरतों से छेड़खानी करता था. अब्बास भाई का तो वह दोस्त था, परंतु उस ने उन की पत्नी के साथ भी वही व्यवहार किया…’’ उस ने दीबा का अंतिम वाक्य पूरी तरह नहीं सुना क्योंकि उस के मस्तिष्क में एक विचार बिजली की तरह कौंधा था. ‘अब्बास भाई के पड़ोस में ही उस का घर था. दीबा घर में अकेली थी… अगर वह आदमी…’

‘‘आप कहीं और खोली नहीं ले सकते क्या?’’ दीबा की सिसकियों ने उस के विचारों की शृंखला भंग कर दी. वह उस के सीने पर अपना सिर रख कर सिसक रही थी.

‘‘आप सुबह दफ्तर चले जाते हैं और शाम को आते हैं. मुझे दिन भर अकेले रहना पड़ता है. अकेले घर में मुझे बहुत डर लगता है. दिन भर आसपास लड़ाईझगड़े, मारपीट होती रहती है. कभी चाकू निकलते हैं तो कभी लाठियां. पुलिस छापे मार कर कभी शराब, अफीम बरामद करती है तो कभी तस्करी का सामान. कभी कोई गुंडा किसी औरत को छेड़ता है तो कभी किसी खोली में कोई वेश्या पकड़ी जाती है. हम कब तक इस गंदगी से बचते रहेंगे. कभी न कभी तो हमारे दामन पर इस के छींटे पड़ेंगे ही… और कभी इस गंदगी का एक छींटा भी मेरे दामन पर पड़ गया तो मैं दुनिया को अपना मुंह दिखाने के बजाय मौत को गले लगाना बेहतर समझूंगी,’’ उस के सीने पर सिर रख कर दीबा सिसक रही थी.

उस की नजरें छत पर जमीं थीं. मस्तिष्क कहीं और भटक रहा था, उस का एक हाथ दीबा की पीठ पर जमा था और दूसरा हाथ उस के बालों से खेल रहा था.

दीबा ने जो सवाल उस के सामने रखा था, उस ने उसे इतना विवश कर दिया था कि वह चाह कर भी उस का उत्तर नहीं दे सकता था. न वह दीबा से यह कह सकता था कि ‘ठीक है, हम किसी दूसरे घर का प्रबंध करेंगे और न ही यह कह सकता था कि यहां से कहीं और जाना हमारे लिए संभव नहीं है.

इस बात का पता दीबा को भी था कि कितनी मुश्किल से यह घर मिला था.

शकील का एक जानपहचान वाला था जो पहले यहीं रहता था. उस ने अपने वतन जाने का इरादा किया था. उसे पता था कि शकील मकान के लिए बहुत परेशान है. उस ने पूरी सहानुभूति से उस की सहायता करने की कोशिश की थी.

‘‘यह खोली मैं ने 8 हजार रुपए पगड़ी पर ली थी और 100 रुपए महीना किराया देता हूं. फिलहाल कोई भी मुझे इस के 10 से 15 हजार रुपए दे सकता है, परंतु यदि तुम्हें जरूरत हो तो मैं केवल 8 हजार रुपए ही लूंगा. यदि लेना हो तो मुझे 10-12 दिन में उत्तर दे देना.’’

‘8 हजार रुपए’ मित्र की बात सुन कर शकील सोच में पड़ गया था, ‘मेरे पास इतने रुपए कहां से आएंगे… फिलहाल तो मुश्किल से 2 हजार रुपए होंगे मेरे पास. यदि कमरा लेना तय भी किया तो बाकी 6 हजार रुपए का प्रबंध कहां से होगा.’

उस के बाद 2 दिन की छुट्टी ले कर वह घर गया तो दीबा ने उस से पहला प्रश्न यही किया था, ‘‘क्या कमरे का कोई प्रबंध किया?’’

‘‘देखा तो है, परंतु पगड़ी 8 हजार रुपए है. 10-12 दिन में 6 हजार रुपए का प्रबंध संभव भी नहीं है.’’

उस की बात सुन कर दीबा का चेहरा उतर गया था.

बहुत देर सोचने के बाद दीबा ने उस से कहा था, ‘‘क्यों जी, मुझे जो विवाह में अपने मायके से सोने के बुंदे मिले थे, यदि हम उन्हें बेच दें तो 6 हजार रुपए तो आ ही जाएंगे और इस तरह हमारे लिए कमरे का प्रबंध हो जाएगा.’’

‘‘तुम पागल तो नहीं हो गई हो. कमरा लेने के लिए मैं तुम्हारे बुंदे बेचूं… यह मुझ से नहीं हो सकता. फिर तुम्हारे घर वाले मुझ से या तुम से पूछेंगे कि बुंदों का क्या हुआ तो क्या जवाब दोगी?’’

‘‘वह मुझ पर छोड़ दीजिए, मैं उन्हें समझा दूंगी. यदि उन के कारण हमारी कोई समस्या हल हो सकती है तो हमारे लिए इस से बढ़ कर और क्या बात हो सकती है. देखिए, जो परिस्थितियां हैं, उन को देखते हुए हम कभी मुंबई में अपने लिए किराए के एक कमरे का भी प्रबंध नहीं कर पाएंगे. तो क्या आप सारा जीवन अपने मित्रों के साथ एक कमरे में सामूहिक रूप से रह कर गुजार देंगे? जीवन भर होटलों का बदमजा खाना खा कर जीएंगे? जीवन भर आप अकेले मुंबई में रहेंगे? हमारे जीवन में महीने दो महीने में एकदो दिन के लिए मिलना ही लिखा रहेगा?’’ दीबा ने डबडबाई आंखों से पति की ओर देखा.

दीबा की किसी भी बात का वह उत्तर नहीं दे पाया था. सचमुच जो परिस्थितियां थीं, उन से तो ऐसा लगता था कि उन का जीवन इसी तरह से चलता रहेगा. कभीकभी उसे अम्मी और घर वालों पर बहुत क्रोध आता था.

‘‘मैं बारबार कहता था कि जब तक बंबई में एक कमरे का प्रबंध न कर लूं, विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकता, परंतु उन्हें तो मेरे विवाह का बड़ा अरमान था. इस विवाह से उन्हें क्या मिला? उन का केवल एक अरमान पूरा हुआ, परंतु मेरे लिए तो जीवन भर का रोग बन गया.’’

वह डिगरी ले कर बंबई आया था. उस समय भी बंबई में नौकरी मिलना इतना आसान नहीं था. परंतु उसे अपने ही शहर के कुछ मित्र मिल गए, उन्हीं ने उस के लिए प्रयत्न और मार्गदर्शन किया, कुछ उस की योग्यताएं भी काम आईं. उसे एक निजी कंपनी में नौकरी मिल गई. वेतन कम था, परंतु आगे बढ़ने की आशा थी और काम उस की रुचि का था.

उस के बाद उस का जीवन उसी तरह गुजरने लगा, जिस तरह बंबई का हर व्यक्ति जीता है. उस के मित्रों ने कुर्ला में एक छोटा सा कमरा ले रखा था. उस छोटे से कमरे में वे 5 मित्र मिल कर रहते थे. वह छठा उन में शामिल हुआ था.

कमरा थोड़ी देर आराम करने और सोने के ही काम आता था क्योंकि सभी सवेरे से ही अपनेअपने काम पर निकल जाते थे और रात को ही वापस आते थे.

सभी होटल के खाने पर दिन गुजारते थे. कभीकभी मन में आ गया तो छुट्टी के किसी दिन हाथ से खाना पका कर उस का आनंद ले लिया. बहुत कंजूसी करने के बाद वह घर केवल 200 या 300 रुपए भेज पाता था.

जब भी वह घर जाता, घर वाले उस पर विवाह के लिए दबाव डालते. उन के इस दबाव से वह झल्ला उठता था, ‘‘यह सच है कि मेरे विवाह की उम्र हो गई है और आप लोगों को मेरे विवाह का भी बहुत अरमान है. मैं नौकरी भी करने लग गया हूं, परंतु मैं विवाह कर के क्या करूंगा. अभी बंबई में मेरे पास सिर छिपाने का ठिकाना नहीं है. विवाह के बाद पत्नी को कहां रखूंगा? फिर बंबई में इतनी आसानी से मकान नहीं मिलता है, उस पर बंबई के खर्चे इतने अधिक हैं कि विवाह के बाद मुझे जो वेतन मिलता है, उस में मेरा और मेरी पत्नी का गुजारा मुश्किल से होगा. मैं आप लोगों को एक पैसा भी नहीं भेज पाऊंगा.’’

‘‘हमें तुम एक पैसा भी न भेजो तो चलेगा, परंतु तुम विवाह कर लो. दीबा बहुत अच्छी लड़की है. अगर वह हाथ से निकल गई तो फिर ऐसी लड़की मुश्किल से मिलेगी. तुम विवाह तो कर लो…जब तक तुम किसी कमरे का प्रबंध नहीं कर लेते दीबा हमारे पास रहेगी. तुम महीने में एकदो दिन के लिए आ कर उस से मिल जाया करना. जैसे ही कमरे का प्रबंध हो जाए उसे अपने साथ ले जाना.’’

घर वालों के बहुत जोर देने पर भी वह केवल इसलिए विवाह के लिए राजी हुआ था कि दीबा सचमुच बहुत अच्छी लड़की थी और वह उसे पसंद थी. जिस तरह की जीवन संगिनी की वह कल्पना करता था, वह बिलकुल वैसी ही थी.

विवाह के बाद वह कुछ दिनों तक दीबा के साथ रहा, फिर बंबई चला आया. बंबई में वही बंधीटिकी दिनचर्या के सहारे जिंदगी गुजरने लगी, लेकिन उस में एक नयापन शामिल हो गया था और वह था, दीबा की यादें और उस के सहयोग का एहसास.

वह जब भी घर जाता, दीबा को अपने समीप पा कर स्वयं को अत्यंत सुखी अनुभव करता. दीबा भी खुशी से फूली नहीं समाती. घर का प्रत्येक सदस्य दीबा की प्रशंसा करता.

कुछ दिन हंसीखुशी से गुजरते, लेकिन फिर वही वियोग, फिर वही उदासी दोनों के जीवन में आ जाती.

दोनों की मनोदशा घर वाले भी समझते थे. इसलिए वे भी दबे स्वर में उस से कहते रहते थे, ‘‘कोई कमरा तलाश करो और दीबा को ले जाओ. तुम कब तक वहां अकेले रहोगे?’’

वह बंबई आने के बाद पूरे उत्साह से कमरा तलाश करने भी लगता, परंतु जब 20-25 हजार पगड़ी सुनता तो उस का सारा उत्साह ठंडा पड़ जाता. वह सोचता, कमरा किराए पर लेने के लिए वह इतनी रकम कहां से लाएगा? मुश्किल से वह महीने में 300-400 रुपए बचा पाता था. इस बीच जितने पैसे जमा किए थे, सब शादी में खर्च हो गए बल्कि अच्छाखासा कर्ज भी हो गया था. वह और घर वाले मिल कर उस कर्ज को अदा कर रहे थे.

परंतु दीबा के अनुरोध और फिर जिद के सामने उसे हथियार डालने ही पड़े. बुंदे बेचने के बाद जो पैसे आए और उन के पास जो पैसे जमा थे, उन से उन्होंने वह कमरा किराए पर ले लिया.

पहलेपहल कुछ दिन हंसीखुशी से गुजरे. उन्हें इस बात का एहसास भी नहीं हुआ कि वे धारावी की झोंपड़पट्टी के एक कमरे में रहते हैं. उन्हें तो ऐसा अनुभव होता था, जैसे वे किसी होटल के कमरे में रहते हैं.

परंतु धीरेधीरे वास्तविकता प्रकट होने लगी. आसपास का वातावरण, अच्छेबुरे लोग, चारों ओर फैला शराब, अफीम, जुए, तस्करी और वेश्याओं का कारोबार, गुंडे, उन के आपसी झगड़े, बातबात पर चाकूछुरी और लाठियों का निकलना, गोलियों का चलना, खून बहना, पुलिस के छापे, दंगेफसाद, पकड़धकड़ आदि देख कर वे दोनों अत्यंत भयभीत हो गए थे. तब उन्हें महसूस हुआ कि वे एक दलदल पर खड़े हैं और कभी भी, किसी भी क्षण उस में धंस सकते हैं. वह जब भी दफ्तर से आता, दीबा उसे एक नई कहानी सुनाती, जिसे सुन कर वह आतंकित हो उठता था.

कभी मन में आता था कि वह दीबा से कह दे कि वह वापस घर चली जाए क्योंकि उस का यहां रहना खतरे से खाली नहीं है. परंतु दीबा के बिना न उस का मन लगता था और न ही उस के बिना दीबा का.

उस रात वह एक क्षण भी चैन से सो नहीं सका. बारबार उस के मस्तिष्क में एक ही विचार आता था कि उसे यह जगह छोड़ देनी चाहिए तथा कहीं और कमरा लेना चाहिए.

परंतु उसे कमरा कहां मिलेगा? कमरे के लिए पगड़ी के रूप में पैसा कहां से आएगा? क्या दूसरी जगह इस से अच्छा वातावरण होगा?

उस दिन दफ्तर में भी उस का मन नहीं लग रहा था. उसे खोयाखोया देख कर उस का मित्र आदिल पूछ ही बैठा, ‘‘क्या बात है शकील, बहुत परेशान हो?’’

‘‘कोई खास बात नहीं है.’’

‘‘कुछ तो है, जिस की परदादारी है,’’ उसे छेड़ते हुए जब आदिल ने उस पर जोर दिया तो उस ने उसे सारी कहानी कह सुनाई.

उस की कहानी सुन कर आदिल ने एक ठंडी सांस ली और बोला, ‘‘यह सच है कि बंबई में छत का साया मिलना बहुत मुश्किल है. यहां लोगों को रोजीरोटी तो मिल जाती है, परंतु सिर छिपाने के लिए छत नहीं मिल पाती. फिर तुम ने छत ढूंढ़ी भी तो धारावी जैसी खतरनाक जगह पर, जहां कोई शरीफ आदमी रह ही नहीं सकता.

‘‘इस से तो अच्छा था, तुम बंबई से 60-70 किलोमीटर दूर कमरा लेते. वहां तुम्हें आसानी से कमरा भी मिल जाता और इन बातों का सामना भी नहीं करना पड़ता. हां, आनेजाने की तकलीफ अवश्य होती.’’

‘‘मैं हर तरह की तकलीफ सहने को तैयार हूं. परंतु मुझे उस वातावरण से मुक्ति चाहिए और सिर छिपाने के लिए छत भी.’’

‘‘यदि तुम आनेजाने की हर तरह की तकलीफ सहन करने को तैयार हो तो मैं तुम्हें परामर्श दूंगा कि तुम मुंब्रा में कमरा ले लो. मेरे एक मित्र का एक कमरा खाली है. मैं समझता हूं, धारावी का कमरा बेचने से जितने पैसे आएंगे, उन में थोड़े से और पैसे डालने के बाद तुम वह कमरा आसानी से किराए पर ले सकोगे. कष्ट यही रहेगा कि तुम्हें दफ्तर जाने के लिए 2 घंटा पहले घर से निकलना पड़ेगा और 2 घंटा बाद घर पहुंच सकोगे,’’ आदिल ने समझाते हुए कहा.

‘‘मुझे यह स्वीकार है. मैं एक ऐसी छत चाहता हूं जिस के नीचे मैं और मेरी पत्नी सुरक्षित रह सकें. ऐसी छत से क्या लाभ जो आदमी को सुरक्षा भी नहीं दे सके. यदि थोड़े से कष्ट के बदले में सुरक्षा मिल सकती है तो मैं वह कष्ट झेलने को तैयार हूं.’’

‘‘ठीक है,’’ आदिल बोला, ‘‘मैं अपने मित्र से बात करता हूं. तुम अपना धारावी वाला कमरा छोड़ने की तैयारी करो.’’

शकील का पड़ोसी उस कमरे को 12 हजार में लेने को तैयार था. उन्होंने वह कमरा उसे दे दिया. आदिल के दोस्त ने अपने कमरे की कीमत 15 हजार लगाई थी. कमरा अच्छा था.

2 हजार रुपया 2 मास बाद अदा करने की बात पर भी वह राजी हो गया था.

जब वे मुंब्रा के अपने नए घर में पहुंचे तो उन्हें अनुभव हुआ कि अब वे इस घर की छत के नीचे सुरक्षित हैं.

वह नई जगह थी. आसपास क्या हो रहा है, एकदो दिन तक तो पता ही नहीं चल सका. दिन भर दीबा घर का सामान ठीक तरह से लगाने और साफसफाई में लगी रहती.

वह भी दफ्तर से आ कर उस का हाथ बंटाता. इसलिए आसपास के लोगों और वहां के वातावरण को जानने का अवसर ही नहीं मिल सका. वैसे भी बंबई में बरसों पड़ोस में रहने के बाद भी लोग एकदूसरे को नहीं जान पाते.

एक दिन वह दफ्तर से आया तो अपने कमरे से कुछ दूरी पर पुलिस की भीड़ देख कर चौंक पड़ा.

उस ने जल्दी से कमरे में कदम रखा तो दीबा को अपनी राह देखता पाया. वह भयभीत स्वर में बोली, ‘‘सुनते हो जी, हम फिर बुरी तरह फंस गए हैं. पुलिस ने इस जगह छापा मारा है. इस चाल के एक कमरे में वेश्याओं का अड्डा था और एक कमरे में जुआखाना.

‘‘सिपाही हमारे घर भी आए थे. मुझे धमका रहे थे कि हमारा भी संबंध इन लोगों से है. बड़ी मुश्किल से मैं ने उन्हें विश्वास दिलाया कि हम इस बारे में कुछ नहीं जानते क्योंकि नएनए यहां आए हैं. इस पर वे कहने लगे कि हम ने इस बदनाम जगह कमरा क्यों लिया?’’

‘‘क्या?’’ यह सुनते ही उस के मस्तिष्क को झटका लगा. आंखों के सामने तारे से नाचने लगे और वह अपना सिर पकड़ कर बैठ गया.

Raksha Bandhan: ममता- क्या बहन के साथ मातापिता का प्यार बांट पाया अंचल

‘‘मां, मैं किस के साथ खेलूं? मुझे भी आप अस्पताल से छोटा सा बच्चा ला दीजिए न. आप तो अपने काम में लगी रहती हैं और मैं अकेलेअकेले खेलता हूं. कृपया ला दीजिए न. मुझे अकेले खेलना अच्छा नहीं लगता है.’’

अपने 4 वर्षीय पुत्र अंचल की यह फरमाइश सुन कर मैं धीरे से मुसकरा दी थी और अपने हाथ की पत्रिका को एक किनारे रखते हुए उस के गाल पर एक पप्पी ले ली थी. थोड़ी देर बाद मैं ने उसे गोद में बैठा लिया और बोली, ‘‘अच्छा, मेरे राजा बेटे को बच्चा चाहिए अपने साथ खेलने के लिए. हम तुम्हें 7 महीने बाद छोटा सा बच्चा ला कर देंगे, अब तो खुश हो?’’

अंचल ने खुश हो कर मेरे दोनों गालों के तड़ातड़ कई चुंबन ले डाले व संतुष्ट हो कर गोद से उतर कर पुन: अपनी कार से खेलने लगा था. शीघ्र ही उस ने एक नया प्रश्न मेरी ओर उछाल दिया, ‘‘मां, जो बच्चा आप अस्पताल से लाएंगी वह मेरी तरह लड़का होगा या आप की तरह लड़की?’’

मैं ने हंसते हुए जवाब दिया, ‘‘बेटे, यह तो मैं नहीं जानती. जो डाक्टर देंगे, हम ले लेंगे. परंतु तुम से एक बात अवश्य कहनी है कि वह लड़का हो या लड़की, तुम उसे खूब प्यार करोगे. उसे मारोगे तो नहीं न?’’

‘‘नहीं, मां. मैं उसे बहुत प्यार करूंगा,’’ अंचल पूर्ण रूप से संतुष्ट हो कर खेल में जुट गया, पर मेरे मन में विचारों का बवंडर उठने लगा था. वैसे भी उन दिनों दिमाग हर वक्त कुछ न कुछ सोचता ही रहता था. ऊपर से तबीयत भी ठीक नहीं रहती थी.

अंचल आपरेशन से हुआ था, अत: डाक्टर और भी सावधानी बरतने को कह रहे थे. मां को मैं ने पत्र लिख दिया था क्योंकि इंगलैंड में भला मेरी देखभाल करने वाला कौन था? पति के सभी मित्रों की पत्नियां नौकरी और व्यापार में व्यस्त थीं. घबरा कर मैं ने मां को अपनी स्थिति से अवगत करा दिया था. मां का पत्र आया था कि वह 2 माह बाद आ जाएंगी, तब कहीं जा कर मैं संतुष्ट हुई थी.

उस दिन शाम को जब मेरे पति ऐश्वर्य घर आए तो अंचल दौड़ कर उन की गोद में चढ़ गया और बोला, ‘‘पिताजी, पिताजी, मां मेरे लिए एक छोटा सा बच्चा लाएंगी, मजा आएगा न?’’

ऐश्वर्य ने हंसते हुए कहा, ‘‘हांहां, तुम उस से खूब खेलना. पर देखो, लड़ाई मत करना.’’

अंचल सिर हिलाते हुए नीचे उतर गया था.

मैं ने चाय मेज पर लगा दी थी. ऐश्वर्य ने पूछा, ‘‘कैसी तबीयत है, सर्वदा?’’

मैं ने कहा, ‘‘सारा दिन सुस्ती छाई रहती है. कुछ खा भी नहीं पाती हूं ठीक से. उलटी हो जाती है. ऐसा लगता है कि किसी तरह 7 माह बीत जाएं तो मुझे नया जन्म मिले.’’

ऐश्वर्य बोले, ‘‘देखो सर्वदा, तुम 7 माह की चिंता न कर के बस, डाक्टर के बताए निर्देशों का पालन करती जाओ. डाक्टर ने कहा है कि तीसरा माह खत्म होतेहोते उलटियां कम होने लगेंगी, पर कोई दवा वगैरह मत खाना.’’

2 माह के पश्चात भारत से मेरी मां आ गई थीं. उस समय मुझे 5वां माह लगा ही था. मां को देख कर लगा था जैसे मुझे सभी शारीरिक व मानसिक तकलीफों से छुटकारा मिलने जा रहा हो. अंचल ने दौड़ कर नानीजी की उंगली पकड़ ली थी व ऐश्वर्य ने उन के सामान की ट्राली. मैं खूब खुश रहती थी. मां से खूब बतियाती. मेरी उलटियां भी बंद हो चली थीं. मेरे मन की सारी उलझनें मां के  आ जाने मात्र से ही मिट गई थीं.

मैं हर माह जांच हेतु क्लीनिक भी जाती थी. इस प्रकार देखतेदेखते समय व्यतीत होता चला गया. मैं ने इंगलैंड के कुशल डाक्टरों के निर्देशन व सहयोग से एक बच्ची को जन्म दिया और सब से खुशी की बात तो यह थी कि इस बार आपरेशन की आवश्यकता नहीं पड़ी थी. बच्ची का नाम मां ने अभिलाषा रखा. वह बहुत खुश दिखाई दे रही थीं क्योंकि उन की कोई नातिन अभी तक न थी. मेरी बहन के 2 पुत्र थे, अत: मां का उल्लास देखने योग्य था. छोटी सी गुडि़या को नर्स ने सफेद गाउन, मोजे, टोपा व दस्ताने पहना दिए थे.

तभी अंचल ने कहा, ‘‘मां, मैं बच्ची को गोद में ले लूं.’’

मैं ने अंचल को पलंग पर बैठा दिया व बच्ची को उस की गोद में लिटा दिया. अंचल के चेहरे के भाव देखने लायक थे. उसे तो मानो जमानेभर की खुशियां मिल गई थीं. खुशी उस के चेहरे से छलकी जा रही थी. यही हाल ऐश्वर्य का भी था. तभी नर्स ने आ कर बतलाया कि मिलने का समय समाप्त हो चुका है.

उसी नर्स ने अंचल से पूछा, ‘‘क्या मैं तुम्हारा बच्चा ले सकती हूं?’’

अंचल ने हड़बड़ा कर ‘न’ में सिर हिला दिया. हम सब हंसने लगे.

जब सब लोग घर चले गए तो मैं बिस्तर में सोई नन्ही, प्यारी सी अभिलाषा को देखने लगी, जो मेरे व मेरे  परिवार वालों की अभिलाषा को पूर्ण करती हुई इस दुनिया में आ गई थी. परंतु अब देखना यह था कि मेरे साढ़े 4 वर्षीय पुत्र व इस बच्ची में कैसा तालमेल होता है.

5 दिन बाद जब मैं घर आई तो अंचल बड़ा खुश हुआ कि उस की छोटी सी बहन अब सदा के लिए उस के पास आ गई है.

बच्ची 2 माह की हुई तो मां भारत वापस चली गईं. उन के जाने से घर बिलकुल सूना हो गया. इन देशों में बिना नौकरों के इतने काम करने पड़ते हैं कि मैं बच्ची व घर के कार्यों में मशीन की भांति जुटी रहती थी.

देखतेदेखते अभिलाषा 8 माह की हो गई. अब तक तो अंचल उस पर अपना प्यार लुटाता रहा था, पर असली समस्या तब उत्पन्न हुई जब अभिलाषा ने घुटनों के बल रेंगना आरंभ किया. अब वह अंचल के खिलौनों तक आराम से पहुंच जाती थी. अपने रंगीन व आकर्षक खिलौनों व झुनझुनों को छोड़ कर उस ने भैया की एक कार को हाथ से पकड़ा ही था कि अंचल ने झपट कर उस से कार छीन ली, जिस से अभिलाषा के हाथ में खरोंचें आ गईं.

उस समय मैं वहीं बैठी बुनाई कर रही थी. मुझे क्रोध तो बहुत आया पर स्वयं पर किसी तरह नियंत्रण किया. बालमनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए मैं ने अंचल को प्यार से समझाने की चेष्टा की, ‘‘बेटे, अपनी छोटी बहन से इस तरह कोई चीज नहीं छीना करते. देखो, इस के हाथ में चोट लग गई. तुम इस के बड़े भाई हो. यह तुम्हारी चीजों से क्यों नहीं खेल सकती? तुम इसे प्यार करोगे तो यह भी तुम्हें प्यार करेगी.’’

मेरे समझाने का प्रत्यक्ष असर थोड़ा ही दिखाई दिया और ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे सवा 5 वर्षीय यह बालक स्वयं के अधिकार क्षेत्र में किसी और के प्रवेश की बात को हृदय से स्वीकार नहीं कर पा रहा है. मैं चुपचाप रसोई में चली गई. थोड़ी देर बाद जब मैं रसोई से बाहर आई तो देखा कि अंचल अभिलाषा को खा जाने वाली नजरों से घूर रहा था.

शाम को ऐश्वर्य घर आए तो अंचल उन की ओर रोज की भांति दौड़ा. वह उसे उठाना ही चाहते थे कि तभी घुटनों के बल रेंगती अभिलाषा ने अपने हाथ आगे बढ़ा दिए. ऐश्वर्य चाहते हुए भी स्वयं को रोक न सके और अंचल के सिर पर हाथ फेरते हुए अभिलाषा को उन्होंने गोद में उठा लिया.

मैं यह सब देख रही थी, अत: झट अंचल को गोद में उठा कर पप्पी लेते हुए बोली, ‘‘राजा बेटा, मेरी गोद में आ जाएगा, है न बेटे?’’ तब मैं ने अंचल की नजरों में निरीहता की भावना को मिटते हुए अनुभव किया.

तभी भारत से मां व भैया का पत्र आया, जिस में हम दोनों पतिपत्नी को यह विशेष हिदायत दी गई थी कि छोटी बच्ची को प्यार करते समय अंचल की उपेक्षा न होने पाए, वरना बचपन से ही उस के मन में अभिलाषा के प्रति द्वेषभाव पनप सकता है. इस बात को तो मैं पहले ही ध्यान में रखती थी और इस पत्र के पश्चात और भी चौकन्नी हो गई थी.

मेरे सामने तो अंचल का व्यवहार सामान्य रहता था, पर जब मैं किसी काम में लगी होती थी और छिप कर उस के व्यवहार का अवलोकन करती थी. ऐसा करते हुए मैं ने पाया कि हमारे समक्ष तो वह स्वयं को नियंत्रित रखता था, परंतु हमारी अनुपस्थिति में वह अभिलाषा को छेड़ता रहता था और कभीकभी उसे धक्का भी दे देता था.

मैं समयसमय पर अंचल का मार्ग- दर्शन करती रहती थी, परंतु उस का प्रभाव उस के नन्हे से मस्तिष्क पर थोड़ी ही देर के लिए पड़ता था.

बाल मनोविज्ञान की यह धारणा कि विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण न केवल युवावस्था में अपितु बचपन में भी होता है. अर्थात पुत्री पिता को अधिक प्यार करती है व पुत्र माता से अधिक जुड़ा होता है, मेरे घर में वास्तव में सही सिद्ध हो रही थी.

एक दिन कार्यालय से लौटते समय ऐश्वर्य एक सुंदर सी गुडि़या लेते आए. अभिलाषा 10 माह की हो चुकी थी. गुडि़या देख कर वह ऐश्वर्य की ओर लपकी.

मैं ने फुसफुसाते हुए ऐश्वर्य से पूछा, ‘‘अंचल के लिए कुछ नहीं लाए?’’

उन के ‘न’ कहने पर मैं तो चुप हो गई, पर मैं ने अंचल की आंखों में उपजे द्वेषभाव व पिता के प्रति क्रोध की चिनगारी स्पष्ट अनुभव कर ली थी. मैं ने धीरे से उस का हाथ पकड़ा, रसोई की ओर ले जाते हुए उसे बताया, ‘‘बेटे, मैं ने आज तुम्हारे मनपसंद बेसन के लड्डू बनाए हैं, खाओगे न?’’

अंचल बोला, ‘‘नहीं मां, मेरा जरा भी मन नहीं है. पहले एक बात बताइए, आप जब भी हमें बाजार ले जाती हैं तो मेरे व अभिलाषा दोनों के लिए खिलौने खरीदती हैं, पर पिताजी तो आज मेरे लिए कुछ भी नहीं लाए? ऐसा क्यों किया उन्होंने? क्या वह मुझे प्यार नहीं करते?’’

जिस प्रश्न का मुझे डर था, वही मेरे सामने था, मैं ने उसे पुचकारते हुए कहा, ‘‘नहीं बेटे, पिताजी तो तुम्हें बहुत प्यार करते हैं. उन के कार्यालय से आते समय बीच रास्ते में एक ऐसी दुकान पड़ती है जहां केवल गुडि़या ही बिकती हैं. इसीलिए उन्होंने एक गुडि़या खरीद ली. अब तुम्हारे लिए तो गुडि़या खरीदना बेकार था क्योंकि तुम तो कारों से खेलना पसंद करते हो. पिछले सप्ताह उन्होंने तुम्हें एक ‘रोबोट’ भी तो ला कर दिया था. तब अभिलाषा तो नहीं रोई थी. जाओ, पिताजी के पास जा कर उन्हें एक पप्पी दे दो. वह खुश हो जाएंगे.’’

अंचल दौड़ कर अपने पिताजी के पास चला गया. मैं ने उस के मन में उठते हुए ईर्ष्या के अंकुर को कुछ हद तक दबा दिया था. वह अपनी ड्राइंग की कापी में कोई चित्र बनाने में व्यस्त हो गया था.

कुछ दिन पहले ही उस ने नर्सरी स्कूल जाना आरंभ किया था और यह उस के लिए अच्छा ही था. ऐश्वर्य को बाद में मैं ने यह बात बतलाई तो उन्होंने भी अपनी गलती स्वीकार कर ली. इन 2 छोटेछोटे बच्चों की छोटीछोटी लड़ाइयों को सुलझातेसुलझाते कभीकभी मैं स्वयं बड़ी अशांत हो जाती थी क्योंकि हम उन दोनों को प्यार करते समय सदा ही एक संतुलन बनाए रखने की चेष्टा करते थे.

अब तो एक वर्षीय अभिलाषा भी द्वेष भावना से अप्रभावित न रह सकी थी. अंचल को जरा भी प्यार करो कि वह चीखचीख कर रोने लगती थी. अपनी गुडि़या को तो वह अंचल को हाथ भी न लगाने देती थी और इसी प्रकार वह अपने सभी खिलौने पहचानती थी. उसे समझाना अभी संभव भी न था. अत: मैं अंचल को ही प्यार से समझा दिया करती थी.

मैं मारने का अस्त्र प्रयोग में नहीं लाना चाहती थी क्योंकि मेरे विचार से इस अस्त्र का प्रयोग अधिक समय तक के लिए प्रभावी नहीं होता, जबकि प्यार से समझाने का प्रभाव अधिक समय तक रहता है. हम दोनों ही अपने प्यार व ममता की इस तुला को संतुलन की स्थिति में रखते थे.

एक दिन अंचल की आंख में कुछ चुभ गया. वह उसे मसल रहा था और आंख लाल हो चुकी थी. तभी वह मेरे पास आया. उस की दोनों आंखों से आंसू बह रहे थे.

मैं ने एक साफ रूमाल से अंचल की आंख को साफ करते हुए कहा, ‘‘बेटे, तुम्हारी एक आंख में कुछ चुभ रहा था, पर तुम्हारी दूसरी आंख से आंसू क्यों बह रहे हैं?’’

वह मासूमियत से बोला, ‘‘मां, है न अजीब बात. पता नहीं ऐसा क्यों हो रहा है?’’

मैं ने उसे प्यार से समझाते हुए कहा, ‘‘देखो बेटे, जिस तरह तुम्हारी एक आंख को कोई तकलीफ होती है तो दूसरी आंख भी रोने लगती है, ठीक उसी प्रकार तुम और अभिलाषा मेरी व पिताजी की दोनों आंखों की तरह हो. यदि तुम दोनों में से एक को तकलीफ होती हो तो दूसरे को तकलीफ होनी चाहिए. इस का मतलब यह हुआ कि यदि तुम्हारी बहन को कोई तकलीफ हो तो तुम्हें भी उसे अनुभव करना चाहिए. उस की तकलीफ को समझना चाहिए और यदि तुम दोनों को कोई तकलीफ या परेशानी होगी तो मुझे और तुम्हारे पिताजी को भी तकलीफ होगी. इसलिए तुम दोनों मिलजुल कर खेलो, आपस में लड़ो नहीं और अच्छे भाईबहन बनो. जब तुम्हारी बहन बड़ी होगी तो हम उसे भी यही बात समझा देंगे.’’

अंचल ने बात के मर्म व गहराई को समझते हुए ‘हां’ में सिर हिलाया.

तभी से मैं ने अंचल के व्यवहार में कुछ परिवर्तन अनुभव किया. पिता का प्यार अब दोनों को बराबर मात्रा में मिल रहा था और मैं तो पहले से ही संतुलन की स्थिति बनाए रखती थी.

तभी रक्षाबंधन का त्योहार आ गया. मैं एक भारतीय दुकान से राखी खरीद लाई. अभिलाषा ने अंचल को पहली बार राखी बांधनी थी. राखी से एक दिन पूर्व अंचल ने मुझ से पूछा, ‘‘मां, अभिलाषा मुझे राखी क्यों बांधेगी?’’

मैं ने उसे समझाया, ‘‘बेटे, वह तुम्हारी कलाई पर राखी बांध कर यह कहना चाहती है कि तुम उस के अत्यंत प्यारे बड़े भाई हो व सदा उस का ध्यान रखोगे, उस की रक्षा करोगे. यदि उसे कोई तकलीफ या परेशानी होगी तो तुम उसे उस तकलीफ से बचाओगे और हमेशा उस की सहायता करोगे.’’

अंचल आश्चर्य से मेरी बातें सुन रहा था. बोला, ‘‘मां, यदि राखी का यह मतलब है तो मैं आज से वादा करता हूं कि मैं अभिलाषा को कभी नहीं मारूंगा, न ही उसे कभी धक्का दूंगा, अपने खिलौनों से उसे खेलने भी दूंगा. जब वह बड़ी हो कर स्कूल जाएगी और वहां पर उसे कोई बच्चा मारेगा तो मैं उसे बचाऊंगा,’’ यह कह कर वह अपनी एक वर्षीय छोटी बहन को गोद में उठाने की चेष्टा करने लगा.

अंचल की बातें सुन कर मैं कुछ हलका अनुभव कर रही थी. साथ ही यह भी सोच रही थी कि छोटे बच्चों के पालनपोषण में मातापिता को कितने धैर्य व समझदारी से काम लेना पड़ता है.

आज इन बातों को 20 वर्ष हो चुके हैं. अंचल ब्रिटिश रेलवे में वैज्ञानिक है व अभिलाषा डाक्टरी के अंतिम वर्ष में पढ़ रही है. ऐसा नहीं है कि अन्य भाईबहनों की भांति उन में नोकझोंक या बहस नहीं होती, परंतु इस के साथ ही दोनों आपस में समझदार मित्रों की भांति व्यवहार करते हैं. दोनों के मध्य सामंजस्य, सद्भाव, स्नेह व सहयोग की भावनाओं को देख कर उन के बचपन की छोटीछोटी लड़ाइयां याद आती हैं तो मेरे होंठों पर स्वत: मुसकान आ जाती है.

इस के साथ ही याद आती है अपने प्यार व ममता की वह तुला, जिस के दोनों पलड़ों में संतुलन रखने का प्रयास हम पतिपत्नी अपने आपसी मतभेद व वैचारिक विभिन्नताओं को एक ओर रख कर किया करते थे. दरवाजे की घंटी बजती है. मैं दरवाजा खोलती हूं. सामने अंचल हाथ में एक खूबसूरत राखी लिए खड़ा है. मुसकराते हुए वह कहता है, ‘‘मां, कल रक्षाबंधन है, अभिलाषा आज शाम तक आ जाएगी न?’’

‘‘हां बेटा, भला आज तक अभिलाषा कभी रक्षाबंधन का दिन भूली है,’’ मैं हंसते हुए कहती हूं.

‘‘मैं ने सोचा, पता नहीं बेचारी को लंदन में राखी के लिए कहांकहां भटकना पड़ेगा. इसलिए मैं राखी लेता आया हूं. आप ने मिठाई वगैरा बना ली है न?’’ अंचल ने कहा.

मैं ने ‘हां’ में सिर हिलाया और मुसकराते हुए पति की ओर देखा, जो स्वयं भी मुसकरा रहे थे.

Raksha Bandhan: रेतीला सच- शिखा की बिदाई के बाद क्या था अनंत का हाल

‘‘तुम्हें वह पसंद तो है न?’’ मैं  ने पूछा तो मेरे भाई अनंत  के चेहरे पर लजीली सी मुसकान तैर गई. मैं ने देखा उस की आंखों में सपने उमड़ रहे थे. कौन कहता है कि सपने उम्र के मुहताज होते हैं. दिनरात सतरंगी बादलों पर पैर रख कर तैरते किसी किशोर की आंखों की सी उस की आंखें कहीं किसी और ही दुनिया की सैर कर रही थीं. मैं ने सुकून महसूस किया, क्योंकि शिखा के जाने के बाद पहली बार अनंत को इस तरह मुसकराते हुए देख रही थी.

शिखा अनंत की पत्नी थी. दोनों की प्यारी सी गृहस्थी आराम से चल रही थी कि एक दर्दनाक एहसास दे कर यह साथ छूट गया. शिखा 5 साल पहले अनंत पर उदासी का ऐसा साया छोड़ गई कि उस के बाद से अनंत मानो मुसकराना ही भूल गया.

पेट में लगातार होने वाले हलकेहलके दर्द को शिखा ने कभी गंभीरता से नहीं लिया. जब दर्द ज्यादा बढ़ने लगा तो जांच के बाद पित्त की थैली में पत्थर पाया गया जो काफी लंबे समय से हलकाहलका दर्द देते रहने के बाद अब पैंक्रियाज को कैंसरग्रस्त कर चुका था. इलाज शुरू हुआ पर 3 महीने के अंदर ही शिखा पति अनंत और अपने चारों बच्चों को छोड़ कर चल बसी.

शिखा के गुजरने के बाद मैं जब मायके गई तो कमरों की दीवारें हों या आंगन का खुला आसमान, अपनीअपनी भाषा में बस यही दोहराते हुए से लग रहे थे कि शिखा के साथ ही अब उस घर की रौनक भी हमेशा के लिए चली गई. अनंत और चारों बच्चों की आंखों से पलभर भी मायूसी जुदा नहीं होती थी. सभी एकदूसरे की ओर भीगी आंखों से मूक ताकते रहते. उन सब की हालत देख कर मन तड़प कर रह जाता.

6 महीने बाद रक्षाबंधन पर जब मैं दोबारा वहां गई तो घर का माहौल काफी अलग था. समय के साथ कितनाकुछ बदल जाता है. दोनों बहनें आकृति और सुकृति सुबहसुबह आईं और भाइयों को राखी बांध अपनाअपना नेग ले कर शाम को वापस चली गईं, क्योंकि उन के बच्चों के एग्जाम्स चल रहे थे. दोनों बेटे अनूप और मधूप तथा बहुएं झरना और नेहा भी अपनीअपनी दुनिया में बिजी नजर आईं. सुबह 8 बजे के बाद घर बिलकुल सूना हो जाता. शाम 5-6 बजे के बाद ही बेटेबहुएं वापस आतीं.

रात का खाना एकदिन तो सब ने साथ में खाया शायद मेरी वजह से, पर उस के बाद 8 बजे ही खाने के लिए एकदो बार मुझ से पूछ कर दोनों बहुओं और बेटों ने यह कह कर कि सुबहसुबह स्कूल, औफिस के लिए निकलना पड़ता है, खाना खा लिया. 9 बजतेबजते दोनों बेटे अपनीअपनी बीवियों के साथ अपनेअपने कमरों में बंद हो जाते. इतवार के दिन दोनों बेटे अपनी पत्नियों के साथ घूमने निकल जाते.

अनंत के कहने पर मैं एक हफ्ते के लिए वहां रुक गई थी. इस एक ही हफ्ते में उन बच्चों की दिनचर्या से मेरे सामने यह साफ हो गया कि मौजमस्ती को ही वे अपना जीवनमंत्र मानते थे. अनंत ने औफिस से हफ्तेभर की छुट्टी ले रखी थी. एक दिन वह किसी काम से 2 घंटे के लिए घर से बाहर गया. मैं घर में अकेली रह गई, तो उतने बड़े घरआंगन का सूनापन भांयभांय कर चीखता अनंत के जीवन में अंधेरे एकाकीपन को मेरे सामने बयान करने लगा.

पुराने ढंग के हमारे पुश्तैनी मकान को भैयाभाभी ने कितने पैसे और मेहनत से आलीशान बंगले का रूप दे दिया था पर हर तरह की सुखसुविधाओं वाले भरेपूरे घर में आज घर का मालिक ही अवांछित, तिरस्कृत सा हो गया था. अनंत को रात में देर से खाने की आदत थी. हम दोनों भाईबहन अकेले बैठे बातें करते रहते.

10 बजे मैं खाना निकालने किचन में जाती और वापस आ कर देखती कि अनंत सूनी आंखों से दीवारों को ताक रहा है.

खुद से 11 साल छोटे अपने इकलौते भाई की ऐसी दशा देख कर मेरा मन तड़प उठता. मैं मन को समझाती कि शायद संसार का रिवाज ही यही है. हम सब में से ज्यादातर लोग जिन अपनों के लिए अपने जीवन की सारी ऊर्जा खर्च कर खुशियों के इंतजाम में लगे रहते हैं वही एक दिन इतने संवेदनहीन हो जाते हैं कि उन्हें हमारी वेदनाओं, भावनाओं का कोई एहसास तक नहीं होता.

बड़ा बेटा मोटरपार्ट्स की एक बड़ी फर्म में मैनेजर था और छोटा दुलारा बेटा सरकारी स्कूल में टीचर. दोनों बहुएं एक कंप्यूटर सैंटर में पढ़ाने जाती थीं. पर चारों में से कोई भी परिवार के लिए एक पैसा नहीं निकालता था. पूरे घर का खर्च अनंत ही चलाता था. भाईभाभियों के व्यवहार की वजह से ही शायद घर की दोनों बेटियां भी ज्यादा आनाजाना नहीं रखती थीं. सब अपनीअपनी दुनिया में मस्त थे. अगर कोई अलगथलग और अकेला पड़ गया था तो वह था अनंत.

मैं ने मन में यह निर्णय कर लिया कि अनंत को इस तरह अकेले उपेक्षित जीवन नहीं जीने दूंगी  जाते वक्त मैं ने उस से कहा कि शनिवाररविवार तो छुट्टी होती है, हमारे पास आ जाया करो. हम भी अकेले ही रहते हैं. तुम्हारा भी दिल लगा रहेगा और हमारा भी. वह पहले एकाध बार आया पर धीरेधीरे अब हर शनिवार को हमारे घर आ जाता, रविवार रुक कर सोम की सुबह यहीं से सीधा अपने औफिस चला जाता.

इधर कई सालों से बच्चों के विदेश में सैटल हो जाने के बाद हम दोनों भी अकेले हो गए थे. कभीकभार छुट्टी वाले दिन मंजरी कुछ देर के लिए चली आती तो थोड़े समय को घर मैं रौनक रहती. शनिवाररविवार मंजरी की छुट्टी होती थी. हम सब बातें करते, कभीकभार बाहर घूमने भी चले जाते.

मंजरी मेरी बड़ी बेटी की सहेली है और यहीं एक कालेज में पढ़ाती है. हमारे लिए वह एक पारिवारिक सदस्य की तरह ही है. देखने में खूबसूरत होने के साथसाथ उस के विचार भी सुलझे हुए हैं. वह तलाकशुदा है और अपने छोटे से जीवन में उस ने बहुत संघर्ष झेले हैं. आज से 15 साल पहले उस की उम्र तब 35 साल की रही होगी जब वह इस कालोनी में रहने आई थी. तब उस का तलाक का केस चल रहा था. उस की अरैंज मैरिज हुई थी. उस का पति बेहद घटिया इंसान था. वह मंजरी को परेशान करने के लिए 2-3 बार यहां भी आ चुका था.

मैं हर सुबह अपनी बालकनी से उसे काम पर जाते हुए और शाम को फिर घर वापस आते हुए देखती रहती थी. तब मेरे घर से 2 बिल्ंिडग छोड़ कर तीसरी में वह रहती थी. पर अपनी मेहनत के बल पर अब इसी कालोनी में उस ने अपना खुद का छोटा सा फ्लैट खरीद लिया है. पहले पैदल या औटो से कालेज आतीजाती थी, अब अपनी गाड़ी से आतीजाती है. 13 साल के मासूम से बच्चे को साथ ले कर आई थी. बच्चा आज इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर बेंगलुरु में जौब कर रहा है. अपने देश की लचर कानून व्यवस्था की पीड़ा झेलते हुए

20 साल बाद आखिरकार उसे उस पति से तलाक मिल गया पर पति को छोड़ने की वजह से उस के पिता और परिजन आज भी उस से नाराज हैं. शुरुआती दिनों में ही एक बार जब मंजरी कालेज के लिए घर से निकली तो उस का पति रास्ता रोक कर उस से झगड़ने लगा था. उस ने मंजरी की कलाई को कस कर पकड़ रखा था. लोग तमाशा देख रहे थे. अनंत ने उधर से गुजरते हुए जब यह सब देखा तो उस ने मंजरी के पति का विरोध करते हुए पुलिस को फोन पर घटना की जानकारी दी. तब गुस्से से अनंत की ओर देख कर उस के पति ने घटिया लहजे में कहा था, ‘तू क्यों बीच में टपक रहा है, तू क्या इस का यार लगता है?’ लज्जा, पीड़ा और अपमान से मंजरी का चेहरा लाल हो गया था.

अनंत और मंजरी की यही पहली मुलाकात थी. उस के काफी समय बाद दोनों फेसबुक फ्रैंड बने, पर मुलाकातें नहीं होती थीं. अब जब मिलनाजुलना होने लगा तो मैं ने महसूस किया कि दोनों एकदूसरे का साथ काफी पसंद करते हैं.

एक दिन माहौल देख कर मैं ने अनंत से कहा कि दुनिया का यही दस्तूर है जब तक अपना स्वार्थ सिद्ध होता रहे, आदमी आदमी को पहचानता है. स्वार्थ खत्म तो रिश्ते खत्म. मौत से पहले अपनों की अवहेलना ही मार डालती है. तुम्हारे सामने अभी लंबा जीवन पड़ा हुआ है, ऐसे कैसे गुजारोगे. उधर, मंजरी भी अकेली है और मुझे लगता है कि वह तुम्हें पसंद भी करती है. तुम दोनों शादी कर लो, दोनों के जीवन में चटख रंग खिल उठेंगे. एकदूसरे के सहारे बन कर जीवन का सफर हंसतेमुसकराते पूरा हो जाएगा…कहो तो मैं मंजरी से बात करूं. थोड़ा ठहर कर अनंत बोला. ‘बच्चों से एक बार बात कर लेना उचित रहेगा.’ मैं अनंत को जाते हुए देखती रही.

एक दिन सुबह के 6 भी नहीं बजे थे कि फोन की घंटी लगातार बजने लगी. उस तरफ अनंत की बड़ी बेटी आकृति थी. न दुआ न सलाम, बडे़ ही गुस्से में वह बोली, ‘‘बुड्ढा शादी कर रहा है, तुम्हें पता है न?’’

मैं ने पूछा, ‘‘कौन बुड्ढा?’’

‘‘तुम्हारा भाई और कौन, ऐसे बाप को और क्या कहा जाए जिस ने यह भी नहीं सोचा कि उन के इस कारनामे के बाद मेरे बच्चों, खासकर, मेरी बेटियों से कौन शादी करेगा.’’ वह आक्रोशित स्वर में बोल रही थी.

मेरा मन गुस्से से सुलग उठा, बोली, ‘‘जो इंसान जीवनभर तुम सब के सुख की खातिर मेहनत की चक्की में पिसपिस कर मिट्टी होता रहा, तुम सब का जीवन संवारने के लिए क्याक्या जतन करता रहा, आज जब तुम सब सैटल हो गए तो वह तुम्हारे लिए पिता न हो कर बुड्ढा हो गया? अपने एकाकीपन में घुटघुट कर वह आज हर पल मर रहा है पर तुम सब को तो इस का एहसास तक नहीं? तुम सब के लिए सोचता रहे तो बहुत बढि़या, एक बार अपने लिए सोच लिया तो गुनाहगार हो गया? बुड्ढे होने से जीवन खत्म हो जाता है? आदमीआदमी न हो कर कुछ और हो जाता है? क्या तुम सब कभी बुड्ढे नहीं होगे?’’

इतना सुनते ही व्यंगभरी चुभती आवाज में वह बोली, ‘‘मुझे तो लगा था कि तुम अपने भाई को समझाओगी, पर बुरा न मानना बूआ, अब तो मुझे लग रहा कि यह सब तुम्हारा ही कियाधरा है.’’ और उधर से फोन पटकने की आवाज आई.

अनंत आज सुबह ही औफिस के किसी काम से 2-3 दिनों के लिए मुंबई निकल गया था.

मंजरी अपने घर में लेटी हुई टीवी देख रही थी. शाम को लगभग 6 बज रहे थे. बाहर हलका झुटपुटा सा हो रहा था. दरवाजे पर खटखट की आवाज सुन कर अलसाई हुई मंजरी ने दरवाजा खोला, सामने एक नवयुवक हाथ में रिवौल्वर लिए खड़ा नजर आया. उस ने चेहरे पर मास्क पहन रखा था, केवल उस की लाललाल आंखें ही नजर आ रही थीं. मंजरी घबरा कर दो कदम पीछे हो गई.

चेतावनीभरी आवाज मंजरी के कानों में पड़ी, ‘‘सुना है तुम डाक्टर अनंत कुमार सिंह से शादी करने की सोच रही हो? अगर ऐसा है तो इस सोच को यहीं विराम दे दो, तुम्हारी सेहत के लिए यही अच्छा होगा.’’ रिवौल्वर वाले हाथ को एक हलकी सी जुंबिश दे कर वह वापस मुड़ा और पलट कर बोला, ‘‘याद रखना.’’

मैं ने अपनी बालकनी से मधूप और 3 अन्य युवकों को मंजरी के घर की तरफ से निकल कर कालोनी से बाहर की तरफ जाते हुए देखा. यह इधर क्या करने आया था, सोच ही रही थी कि इतने में मंजरी का फोन आया, ‘‘अनंत के बच्चे अपने स्वार्थ के लिए इस हद तक गिर जाएंगे, मैं ने कभी सोचा भी न था.’’ इस सब के बाद मुझे लगा था मंजरी अब इस शादी से पीछे हट जाएगी. लेकिन हुआ इस का उलटा.

अनंत को फोन कर के मैं ने सबकुछ बता दिया था. मंजरी के साथ अपने बेटे की करतूत जान कर वह बेहद लज्जित था. तीसरे दिन आया तो मंजरी के सामने आंखें नहीं उठा पा रहा था, हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘तुम्हारी जिंदगी तो वैसे ही गमों से खाली न थी, मैं तुम्हारा दर्द और नहीं बढ़ा सकता. समय का मारा हूं जो ऐसे बच्चों का बाप हूं और क्या कहूं. तुम्हारे जीवन को बदरंग करने का मुझे कोई हक नहीं.’’

अनंत की आंखों में नमी थी, उठ कर जाने लगा. मंजरी खड़ी हो गई और उस का हाथ पकड़ कर बोली, ‘‘यह तुम ने अपनी बात कही. अब मेरी बात सुनो. मैं न तो तुम्हें रोकूंगी न टोकूंगी, न सामाजिक नियमों की जंजीरों में जकड़ूंगी. न तुम मुझे रोकना न टोकना, न किसी नकशे में जकड़ना. हम उड़ेंगे एकदूसरे के साथ और अपनेअपने विवेक के साथ. शुरू करेंगे एक सफर जो पूरा होगा प्रेम के स्वच्छंद आसमान में. लेकिन उस से पहले अपने पंखों को मजबूत करना होगा. जीवन में वीरानी आ जाए तो अपने लिए एक नए जीवन का चयन करना कहीं से भी गलत नहीं. इस से पहले कि हमारा यह जीवन अवेहलना व उदासियों का गुच्छा सा बन कर रह जाए, कुछ चटकीले रंगों को मुट्ठियों में भर लेने का हक और हौसला हम सब के पास होना चाहिए.’’

४सारस का एक जोड़ा आसमान से गुजर रहा था, अपनी बालकनी में बैठी मैं सोच रही थी, क्यों हम ने अपने जीवन के चारों ओर नियमों, रूढि़यों, धर्मों, और आडंबरों के झाड़झंखाड़ों की चारदीवारियां उगा रखी हैं. ये सब इंसानों के लिए होने चाहिए या इंसान इन सब के लिए…

Raksha Bandhan: मेरे भैया- क्या लिखा था उस अंतिम खत में

सावन का महीना था. दोपहर के 3 बजे थे. रिमझिम शुरू होने से मौसम सुहावना पर बाजार सुनसान हो गया था. साइबर कैफे में काम करने वाले तीनों युवक चाय की चुसकियां लेते हुए इधरउधर की बातों में वक्त गुजार रहे थे. अंदर 1-2 कैबिनों में बच्चे वीडियो गेम खेलने में व्यस्त थे. 1-2 किशोर दोपहर की वीरानगी का लाभ उठा कर मनपसंद साइट खोल कर बैठे थे.  तभी वहां एक महिला ने प्रवेश किया. युवक महिला को देख कर चौंके, क्योंकि शायद बहुत दिनों बाद एक महिला और वह भी दोपहर के समय, उन के कैफे पर आई थी. वे व्यस्त होने का नाटक करने लगे और तितरबितर हो गए.

महिला किसी संभ्रांत घराने की लग रही थी. चालढाल व वेशभूषा से पढ़ीलिखी भी दिख रही थी. छाता एक तरफ रख कर उस ने अपने बालों को जो वर्षा की बूंदों व तेज हवा से बिखर गए थे, कुछ ठीक किए. फिर काउंटर पर बैठे लड़के से बोली, ‘‘मुझे एक संदेश टाइप करवाना है. मैं खुद कर लेती पर हिंदी टाइपिंग नहीं आती है.’’

‘‘आप मुझे लिखवाएंगी या…’’

‘‘हां, मैं बोलती जाती हूं और तुम टाइप करते जाओ. कर पाओगे? शुद्ध वर्तनी का ज्ञान  है तुम्हें?’’

लड़का थोड़ा सकपका गया पर हिम्मत कर के बोला, ‘‘अवश्य कर लूंगा,’’ मना करने से उस के आत्मविश्वास को ठेस पहुंचने की आशंका थी.  महिला ने बोलना शुरू किया, ‘‘लिखो- मेरे भैया, शायद यह मेरी ओर से तुम्हारे लिए अंतिम राखी होगी, क्योंकि अब मुझ में इतना सब्र नहीं बचा है कि मैं भविष्य में भी ऐसा करती रहूंगी. नहीं तुम गलत समझ रहे हो. मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है, क्योंकि शिकायत करने का हक तुम वर्षों पहले ही खत्म कर चुके हो.’’  इतना बोल कर महिला थोड़ी रुक गई. भावावेश से उस का चेहरा तमतमाने लगा था. उस ने कहा, ‘‘थोड़ा पानी मिलेगा?’’

लड़के ने कहा, ‘‘जरूर,’’ और फिर एक बोतल ला कर उस महिला को थमा दी. लड़के को बड़ी उत्सुकता थी कि महिला आगे क्या बोलेगी. उसे यह पत्र बड़ा रहस्यमयी लगने लगा था.  महिला ने थोड़ा पानी पीया, पसीना पोंछा और फिर लिखवाना शुरू किया, ‘‘कितना खुशहाल परिवार था हमारा. हम 5 भाईबहनों में तुम सब से बड़े थे और मां के लाड़ले तो शुरू से ही थे. तभी तो पापा की साधारण कमाई के बावजूद तुम्हें उच्च शिक्षा के लिए शहर भेज दिया था. पापा की इच्छा के विरुद्ध जा कर मां ने तुम्हारी इच्छा पूरी की थी. तुम भी वह बात भूले नहीं होंगे कि मां ने अपनी बात मनवाने के लिए

2 दिन खाना नहीं खाया था. जब तुम्हारा दाखिला मैडिकल कालेज में हुआ था तो मैं ने अपनी सारी सखियों को चिल्ला कर इस के बारे में बताया था और मुझे उन की ईर्ष्या का शिकार भी होना पड़ा था. एक ने तो चिढ़ कर यह भी कह दिया था कि तुम तो ऐसे खुश हो रही हो जैसे तुम्हारा ही दाखिला हुआ हो, जिस का उत्तर मैं ने दिया था कि मेरा हो या मेरे भैया का, क्या फर्क पड़ता है. है तो दोनों में एक ही खून. भैया क्या मैं ने गलत कहा था?  ‘‘फिर तुम होस्टल चले गए थे और जबजब आते थे, मैं और मां सपनों के सुनहरे संसार में खो जाती थीं. सपनों में मां देखती थीं कि तुम एक क्लीनिक में बैठे हो और तुम्हारे सामने मरीजों की लंबी लाइन लगी है. तुम 1-1 कर के सब को परामर्श देते और बदले में वे एक अच्छीखासी राशि तुम्हें देते. शाम तक रुपयों से दराज भर जाती. तुम सारे रुपए ले कर मां की झोली भर देते. तुम बातें ही ऐसी करते थे, मां सपने न देखतीं तो क्या करतीं?

‘‘और मैं देखती कि मैं सजीधजी बैठी हूं. एक बहुत ही उच्च घराने से सुंदर, सुशिक्षित वर मुझे ब्याहने आया है. तुम अपने हाथों से मेरी डोली सजा रहे हो और विदाई के वक्त फूटफूट कर रो रहे हो.

‘‘पिताजी हमें अकसर सपनों से जगाने की कोशिश करते रहते थे पर हम मांबेटी नींद से उठ कर आंखें खोलना ही नहीं चाहती थीं, क्योंकि तुम अपनी मीठीमीठी बातों से ठंडी हवा के झोंके जो देते रहते थे.

‘‘मां ने साथसाथ तुम्हारी शादी के सपने देखने भी शुरू कर दिए थे. उन्हें एक सुंदरसजीली दुलहन, आंखों में लाज लिए, घर के आंगन में प्रवेश करते हुए नजर आती थी. मां का पद ऊंचा उठ कर सास का हो जाता था और घर उपहारों से उफनता सा नजर आता था.

‘‘होस्टल से आतेजाते मां तुम्हें तरहतरह के पकवान बना कर खिलाती भी थीं और बांध कर भी देती थीं. पता नहीं ये सब करते समय मां में कहां से ताकत व हिम्मत आ जाती थी वरना तो सिरदर्द की शिकायत से पूरे घर को वश में किए रखती थीं.

‘‘सपने पूरे होने का समय आ गया था. तुम ने अपनी डिगरी हासिल कर ली थी और होस्टल छोड़ कर घर आने की तैयारी कर ही रहे थे कि अचानक तुम्हें एक प्रस्ताव मिला. प्रस्ताव एक सहपाठिन के पिता की ओर से था- विवाह का. तुम ने मां को बताया. मां को अपने सपने दूनी गति से पूरे होते नजर आने लगे. मां ने सहर्ष हामी भर दी. मैं आज तक नहीं समझ पाई कि मां ने स्वयं को इतनी खुशहाल कैसे समझ लिया था. इठलातीइतराती घरघर समाचार देने लगीं कि डाक्टर बहू आएगी हमारे घर.

‘‘तुम्हारा विवाह हो गया. अब सब को मेरे विवाह की चिंता सताने लगी थी. मां बहुत खुश थीं. उन्होंने जो थोड़ाबहुत गहने मेरे लिए बनवाए थे उन्हें दिखाते हुए तुम से कहा था कि बेटा इतना तो है मेरे पास, कुछ नकद भी है, तू कोई अच्छा वर तलाश कर बाकी इंतजाम भी हो जाएगा. अब तू यहां रहेगा तो क्या चिंता है. समाज में मानप्रतिष्ठा भी बढ़ेगी और आर्थिक समृद्धि भी आएगी.

‘‘सब कुछ ठीक चल रहा था कि एक दिन भाभी ने घोषणा कर दी कि अभी यहां क्लीनिक खोलने से लाभ नहीं है. इतना पैसा तो है नहीं आप लोगों के पास कि सारी मशीनें ला सकें. नौकरी करना ही ठीक रहेगा. मेरे पिताजी ने हम दोनों के लिए सरकारी नौकरी देख ली है, हमें वहीं जाना होगा.

‘‘और तुम चले गए थे. उस के बाद तुम जब भी आते तुम्हारे साथ भाभी की फरमाइशों व शिकायतों का पुलिंदा रहता था पर पापा की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे अब तुम्हारी सभी इच्छाएं पूरी कर पाते. उन्हें अन्य भाईबहनों की भी चिंता थी. भैया उन दिनों मैं ने तुम्हारे चेहरे पर परेशानी व विवशता दोनों का संगम देखा था. तुम्हारी मुसकराहट न जाने कहां गायब हो गई थी. हर वक्त तनाव व चिड़चिड़ाहट ने तुम्हारे चारों ओर घेरा बना लिया था. भाभी को मां गंवार, मैं बोझ और पापा तानाशाह नजर आने लगे थे. तुम ने बहुत कोशिश की कि मां कुछ ऐसा करती रहें कि भाभी संतुष्ट रहे, परंतु न मां में इतनी सामर्थ्य थी, न ही भाभी में सहनशक्ति. धीरेधीरे तुम भी हमें भाभी की निगाहों से देखने लगे थे. कुछ तुम्हारी मजबूरी थी, कुछ तुम्हारा स्वार्थ. एक दिन तुम ने मां से कहा कि मां, मुझे दोनों में से एक को चुनना होगा, आप सब या मेरा निजी जीवन.

‘‘मां ने इस में भी अपना ममत्व दिखाया और तुम्हें अपने बंधन से मुक्त कर के भाभी  के सुपुर्द कर दिया ताकि तुम्हारा वैवाहिक जीवन सुखमय बन सके.

‘‘उस दिन के बाद तुम यदाकदा घर तो आते थे पर एक मेहमान की तरह और अपनी खातिरदारी करवा कर लौट जाते थे. पापा ने मेरा रिश्ता तय कर दिया और शादी भी. इसे मेरा विश्वास कहो या नादानी अभी भी मुझे यही लगता था कि यदि तुम मेरे लिए वर ढूंढ़ते तो पापा से बेहतर होता और मैं कई दिनों तक तुम्हारा इंतजार करती भी रही थी. पर तुम नहीं आए. शादी के वक्त तुम थे परंतु सिर्फ विदा करने के लिए. सीधेसादे पापा ने अपने ही बलबूते पर सभी भाईबहनों का विवाह कर दिया. करते भी क्या. घर का बड़ा बेटा ही जब धोखा दे जाए, हिम्मत तो करनी ही पड़ती है.

‘‘मैं पराई हो गई थी. जब भी मैं मां से मिलने जाती मां की सूनी आंखों में तुम्हारे इंतजार के अलावा और कुछ नजर नहीं आता था. मां मुझ से कहतीं कि एक बार भैया को फोन मिला कर पूछ तो सही कैसा है, वह घर क्यों नहीं आता. कहो न उस से एक बार बस एक बार तो मिलने आए. तुम ने घर आना बिलकुल बंद कर दिया था. पापा पुरुष थे, उन्हें रोना शोभा नहीं देता था, परंतु मायूसी उन के चेहरे पर भी झलकती थी. मां के पास सब कुछ होते हुए भी जैसे कुछ नहीं था. तुम मां के लाड़ले जो चले गए थे मां से रूठ कर. पर मां को अपना दोष कभी समझ नहीं आया. वे अकसर मुझ से पूछतीं कि क्या मुझे उसे पढ़ने बाहर नहीं भेजना चाहिए था या मैं ने उस का यह रिश्ता कर के गलती की? अंत में यही परिणाम निकलता कि सारा दोष मध्यवर्गीय परिवार से संबंध रखना ही था. सिर्फ खर्चा और कुछ न मिलने की आस से ही यह हुआ था.

‘‘पापा ने आस छोड़ दी थी पर मां के दिल को कौन समझाता? पापा से छिपछिप कर अपनी टूटीफूटी भाषा में तुम्हें चिट्ठी लिख कर पड़ोसियों के हाथों डलवाती रहती थीं और उन की 5-6 चिट्ठियों का उत्तर भाभी की फटकार के रूप में आता था कि हमें परेशान मत करो, चैन से जीने दो.

‘‘मां का अंतिम समय आ गया था. पर तुम नहीं आए. तुम से मिलने की आस लिए मां दुनिया छोड़ कर चली गईं और किसी ने तुम्हें भी खबर कर दी. तुम आए तो सही पर अंतिम संस्कार के वक्त नहीं, क्योंकि शायद तुम्हें यह एहसास हो गया था कि अब मैं इस का हकदार नहीं हूं.

‘‘जीतेजी मां सदा तुम्हारा इंतजार करती रहीं और मरते वक्त भी तुम्हारा हिस्सा मुझ से बंधवा कर रखवा गई हैं, क्योंकि वे मां थीं और मैं ने भी उन्हें मना नहीं किया, क्योंकि मैं भी आखिर बहन हूं पर तुम न बेटे बन सके न भाई.

‘‘भैया, क्या इनसान स्वार्थवश इतना कमजोर हो जाता है कि हर रिश्ते  को बलि पर चढ़ा देता है? तुम ऐसे कब थे? यह कभी मत कहना ये सब भाभी की वजह से हुआ है, क्या तुम में इतना भी साहस नहीं था कि  अपनी इच्छा से एक कदम चल पाते? यदि  तुम्हारे जीवन में रिश्तों का बिलकुल ही महत्त्व नहीं है, तो मेरी राखी न मिलने पर विचलित क्यों हो जाते हो? और किसी न किसी के हाथों यह खबर भिजवा ही देते हो कि अब की बार राखी नहीं मिली.

‘‘भैया, क्या सिर्फ राखी भेजने या बांधने से ही रक्षाबंधन का पर्व सार्थक सिद्ध हो जाता है? क्या इस के लिए दायित्व निभाने जरूरी नहीं? आज 25 साल हो गए. इस बीच न तो तुम मुझ से मिलने ही आए और न ही मुझे बुलाया. इस बीच मेरे द्वारा भेजी गई राखी एक नाजुक सेतु की तरह थी जोकि अब टूटने की कगार पर है, क्योंकि अब मेरा विश्वास व इच्छाशक्ति दोनों ही खत्म हो गए हैं.

‘‘भैया, बस तुम मुझे एक बात बता दो कि यदि हम बहनें न होतीं तो क्या तुम मम्मीपापा को छोड़ कर नहीं जाते? क्या तुम्हारे पलायन का कारण हम बहनें थीं? हम तुम्हें कैसे विश्वास दिलातीं कि हम तुम से कभी कुछ अपेक्षा नहीं रखेंगी, तुम एक बार अपनी विवशता कहते तो सही. हो सके तो इस राखी को मेरी अंतिम निशानी समझ कर संभाल कर रख लेना, क्योंकि मेरे खयाल से तुम्हारे दिल में न सही, घर में इतनी जगह तो होगी.’’

लिखवातेलिखवाते वह महिला उत्तेजना व दुखवश कांपने लगी, पर उस की आंखों से आंसू नहीं छलके. शायद वे सूख चुके थे, पर टाइप करने वाले लड़के की आंखें नम हो गई थीं.  काम पूरा हो गया था. उस महिला ने लड़के से कहा, ‘‘तुम इस की एक प्रतिलिपि निकाल कर मुझे दे दो ताकि मैं यह संदेश अपने भैया तक पहुंचा सकूं. तुम जानते हो आज 25 वर्षों बाद मैं यह सब लिखने का साहस कर पाई हूं. मैं सदा छोटी बहन बन कर ही रही. ‘‘हां, एक कष्ट और दूंगी तुम्हें. इस संदेश को इंटरनैट द्वारा ऐसे ब्लौग पर डाल दो जहां से ज्यादा से ज्यादा लोग इसे पढ़ें. हो सकता है दुनिया में ऐसे और भी भाई हों, जिन में आत्मनिर्णय व आत्मसम्मान की कमी हो. उन को इस पत्र से कुछ लाभ हो जाए. यह संदेश मैं अपनी मां को अपनी अंतिम श्रद्धांजलि के रूप में देना चाहती हूं ताकि जो दुख वे अपने सीने में दबाए इस दुनिया से विदा हो गईं, उस से उन्हें कुछ राहत मिल सके.’’

Raksha Bandhan : फैस्टिवल सीजन में रहना चाहते हैं एनर्जेटिक, तो ऐसे रखें अपनी सेहत का ख्याल

त्यौहारों में शरीर को स्वस्थ और वजन को नियंत्रण रखना तभी संभव है जब आप यह ध्यान रखें कि आप क्या खाते हैं और कितना खाते हैं. भोजन की किस्म और पोर्शन का आकार आप को यह जानने में मदद करता है कि आप रोज कितनी कैलोरी ले रही हैं. अगर आप स्वस्थ और सही शेप में रहना चाहती हैं तो जरूरी है कि खाना सोचसमझ कर खाएं. हम सब जानते हैं कि त्योहार खुशियों के साथसाथ मिठाई का भी समय होता है. मिठाई के साथ आप ज्यादा कैलोरी का सेवन करती हैं. इस से आप का शरीर और स्वास्थ्य भी खराब हो सकता है.

क्या खाएं क्या नहीं

आहार से संबंधित इन बुनियादी चीजों का त्योहार के दिनों में खास ध्यान रखना चाहिए:

इस दौरान डाइट बहुत महत्त्वपूर्ण है और बुनियादी चीजों की शुरुआत इस दौरान खाने के लिए सही चीजों का स्टौक रख कर की जा सकती है. अगर आप कैलोरी पर नजर रखती हैं तो जरूरी है कि आप के पास खाने के लिए सही चीजें हों. इस से आप खुशियों और मिठाइयों के बीच रह कर भी अपना आहार स्वस्थ रख पाएंगी.

आप चाहें तो इस समय मेवों का चुनाव कर सकती हैं. इन में स्वास्थ्यकर फैट्स होता है, जो वजन को कोई नुकसान पहुंचाए बगैर आप की त्वचा और बालों को ठीक करने में सहायता कर सकता है. मुट्ठीभर मेवे जैसे किशकिश, बादाम, पिश्ता, काजू, खूबानी, अंजीर आदि त्योहारों पर कुछ स्वास्थ्यकर खाने और उपहार देने के अच्छे विकल्प हैं. यही नहीं सगाई, शादी, दीवाली, होली के मौके पर कई लो कैलोरी वाली मिठाइयों में इन्हें भी शामिल किया जा सकता है.

यह भी महत्त्वपूर्ण है कि आप सफेद चीनी, घी या तेल में तली चीजों से बचें. इन की वजह गुड़ या डार्क चौकलेट और मेवों से बनी मिठाई का सेवन करें. यह एक बेहतर विकल्प होगा. मैदा, चीनी और घी से बनी मिठाइयां कम से कम खाएं ताकि बहुत ज्यादा कैलोरी को दूर रख सकें.

मसालों की जगह स्वास्थ्यकर चीजों का उपयोग किया जाना चाहिए. मीठी चीजों में लौंग, केसर, दालचीनी, इलायची और कालीमिर्च आदि इस्तेमाल किए जा सकते हैं. ये खा-पदार्थों को अच्छा फ्लेवर देने के साथसाथ कई जैविक गुणों से भी समृद्ध होते हैं और इसीलिए स्वास्थ्य को कई तरह से लाभ देते हैं. ये चीजें भारतीय रसोई में आराम से उपलब्ध भी होती हैं.

खरीदारी के दौरान हलकाफुलका खाने का रिवाज भी है. इस दौरान आप क्या खाती हैं, उस का ध्यान रखना स्वास्थ्य के लिए महत्त्वपूर्ण है. आप क्या खाती हैं उस का ध्यान रखना भी जरूरी है. औलिव औयल या शहद से सीजन्ड अथवा किसी अन्य और्गेनिक सीजनिंग वाले स्वास्थ्यकर फलदार सलाद का चुनाव करें. स्वास्थ्यकर पाक विधियों वाले डैजर्ट तैयार करें और उन के ऊपर सफेद चीनी की जगह फल रख कर सजाएं.

स्वास्थ्यकर डाइट के लिए कुछ टिप्स

खुद को स्वस्थ और फिट रखने के लिए निम्नलिखित उपायों पर निर्भर कर सकती हैं:

– अगर आप रोज कोई वर्कआउट करती हैं तो अपनी इस दिनचर्या का पालन करती रहें, क्योंकि वर्कआउट में व्यवधान के बाद खाने में जरा सी भी गड़बड़ी का नुकसान ज्यादा हो सकता है. आप का वजन बढ़ जाएगा.

– खाना पकाना कइयों के लिए तनाव कम करने का काम करता है. हालांकि खाली पेट खाना बनाने से बीचबीच में खाने का मन करता है. इस से बचने का तरीका यह है कि आप ऐसे समय खाने की चीजें बनाएं जब आप भूखी न हों या फिर अस्वास्थ्यकर चीजें पास न रखें. आप जो भी जीच बनाएं वह स्वास्थ्यकर हो यह खयाल रखें और इस के लिए स्वास्थ्यकर चीजों का ही उपयोग करें. मीठे की जगह शहद, गुड़ और यहां तक कि ताजे फलों का भी उपयोग किया जा सकता है. ये सब प्राकृतिक मिठाई या फ्लेवर की तरह स्वीकार किए जाते हैं.

– त्योहारों से पहले की तैयारियों के दौरान खरीदारी का संबंध कुछ सिद्धांतों के अनुसार होना चाहिए. इस में सिर्फ स्वास्थ्यकर खा-पदार्थों को चुनना और शुरू से ही अस्वास्थ्यकर चीजों से बचना शामिल है.

– मांसाहारी भोजन के सेवन से बचें और खाने में ज्यादा प्राकृतिक चीजें, सब्जियां और फल लें. अगर यह संभव न हो तो मांसाहारी और शाकाहारी भोजन के बीच संतुलन बनाए रखने के मंत्र का पालन करें.

– हाईड्रेटेड रहना हमेशा याद रखें. खूब पानी और दूसरे तरल पेय पीएं. त्योहारों में हम जल्दबाजी में भी रहते हैं. हमें अपने काम के साथ घूमने, खरीदारी करने और कई अन्य चीजों के बीच संतुलन बनाना होता है. इस व्यस्तता में हमें कभी भी पोषण और स्वास्थ्य को नहीं भूलना चाहिए. यही नहीं, कई बार प्यास को भूख मान लिया जाता है. फिर खाना ज्यादा खा लेते हैं, पानी कम पीते हैं. इस से अस्थाई तौर पर पानी को ले कर असंतुलन हो सकता है और शरीर में तनाव हो सकता है. इसलिए इस बार शादी या त्योहार की खरीदारी के दौरान खूब पानी व तरल पदार्थ पीएं और संतुष्ट रहें.

   –सतकाम दिव्य

सीईओ, क्लीनिक ऐप्स द्वारा

पति की फ्लर्टिंग प्रौब्लम से परेशान हो गई हूं, मैं क्या करूं ?

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक जरूर पढ़ें…

सवाल-

विवाह को 18 साल हो चुके हैं. 2 किशोरवय के बच्चे हैं. मेरे पति प्रशासनिक अधिकारी हैं. घर में हर तरह की सुखसुविधा है. बावजूद इस के मैं अपने पति की कामुक प्रवृत्ति के चलते परेशान हूं. मैं ने एजेंसी से एक लड़की बच्चों की देखरेख व घर के कामकाज के लिए रखी थी पर मेरे पति उस से भी छेड़छाड़ करने से बाज नहीं आए. मजबूरन मुझे उसे हटाना पड़ा. घर में बेटी है, इसलिए नौकर नहीं रख सकती. घर का सारा काम इन दिनों मुझे करना पड़ता है, जिस से मैं बेहद थक जाती हूं. बताएं क्या करूं?

जवाब-

आप ने अच्छा किया कि अपनी मेड को हटा दिया. घर के कामकाज के लिए फुल टाइम मेड न रख कर सुबहशाम साफसफाई व बरतन आदि के लिए बाई रख लें, जो काम करने के बाद लौट जाए. इस से आप को मदद भी मिल जाएगी और पति की ओर से भी आशंकित नहीं रहेंगी.

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कालेज के दिनों में मैं ज्यादातर 2 सहेलियों के बीच बैठा मिलता था. रूपसी रिया मेरे एक तरफ और सिंपल संगीता दूसरी तरफ होती. संगीता मुझे प्यार भरी नजरों से देखती रहती और मैं रिया को. रही रूपसी रिया की बात तो वह हर वक्त यह नोट करती रहती कि कालेज का कौन सा लड़का उसे आंखें फाड़ कर ललचाई नजरों से देख रहा है. कालेज की सब से सुंदर लड़की को पटाना आसान काम नहीं था, पर उस से भी ज्यादा मुश्किल था उसे अपने प्रेमजाल में फंसाए रखना. बिलकुल तेज रफ्तार से कार चलाने जैसा मामला था. सावधानी हटी दुर्घटना घटी. मतलब यह कि आप ने जरा सी लापरवाही बरती नहीं कि कोई दूसरा आप की रूपसी को ले उड़ेगा.

मैं ने रिया के प्रेमी का दर्जा पाने के लिए बहुत पापड़ बेले थे. उसे खिलानेपिलाने, घुमाने और मौकेबेमौके उपहार देने का खर्चा उतना ही हो जाता था जितना एक आम आदमी महीनेभर में अपने परिवार पर खर्च करता होगा. ‘‘रिया, देखो न सामने शोकेस में कितना सुंदर टौप लगा है. तुम पर यह बहुत फबेगा,’’ रिया को ललचाने के लिए मैं ऐसी आ बैल मुझे मार टाइप बातें करता तो मेरी पौकेट मनी का पहले हफ्ते में ही सफाया हो जाता.

मगर यह अपना स्पैशल स्टाइल था रिया को इंप्रैस करने का. यह बात जुदा है कि बाद में पापा से सचझूठ बोल कर रुपए निकलवाने पड़ते. मां की चमचागिरी करनी पड़ती. दोस्तों से उधार लेना आम बात होती. अगर संगीता ने मेरे पीछे पड़पड़ कर मुझे पढ़ने को मजबूर न किया होता तो मैं हर साल फेल होता. मैं पढ़ने में आनाकानी करता तो वह झगड़ा करने पर उतर आती. मेरे पापा से मेरी शिकायत करने से भी नहीं चूकती थी.

 

व्हाट्सऐप मैसेज या व्हाट्सऐप औडियो से अपनी समस्या इस नम्बर पर 9650966493 भेजें या हमें इस ईमेल आईडी पर भी भेज सकते हैं- submit.rachna@delhipress.biz   सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

Raksha Bandhan: घर पर ही करें सरप्राइज पार्टी, भाईबहन के लिए यादगार होगा ये फैस्टिवल

अब दौर नई तरह की पार्टियों का है. हर त्यौहार में सेलीब्रेशन का स्टाइल बदल रहा है. रक्षाबंधन में भी अब सरप्राइज पार्टियों का सिलसिला युवाओं को पंसद आने लगा है. इसकी वजह यह है कि आज के युवाओ को फैस्टिवल में धूमधड़ाका पसंद आता है. जिसमें डांस, म्यूजिक, फोटो और सोशल मीडिया पर अपडेट करने वाला सैलीब्रेशन हो.

सजावट हो खास:

रक्षाबंधन की थीम पार्टी की सजावट खास हो. इसमें सबसे पहले जिस जगह पर सेलीब्रेशन हो रहा हो वहां की सजावट थीम के हिसाब से हो. रक्षाबंधन भाईबहन का त्यौहार होता है. इसकी सजावट उसी तरह से हो. यह बरसात के सीजन में होता है तो जरूरी है कि सजावट में बरसात की झलक भी मिले. आजकल रंगबिरंग छाते बाजार में मिलते है. सजावट वाले छाते अलग से आते है. हरा और पीला रंग का प्रयोग हो. चुनरी प्रिंट के कपडे का प्रयोग भी डेकोरेषन में कर सकते है. बैलून का प्रयोग भी कर सकते है.

रक्षाबंधन के दिन सरप्राइज पार्टी:

इस पार्टी का आयोजन रक्षाबंधन के दिन हो. घर के एक कमरे को सजा ले. इस बात की जानकारी भाई को न हो. चाहे तो भाई के दोस्तों को भी बुला ले. जिनको राखी बांधी जा सकती हो. अपनी दोस्त और उसके भाई को भी बुला ले. जिससे एक साथ एक ही जगह पर कई सारी बहने अपने भाईयों को राखी बांध सके. जिन भाई बहनों के राखी बांधने वाला कोई न हो उनको भी पार्टी में बुला ले. जिससे वह भी अकेलापन अनुभव न करे.

ट्रेडिशनल ड्रेस कोड:

रक्षाबंधन की इस पार्टी में ड्रेस कोड ट्रेडिशनल रखा जाये. जो देखने में अच्छा लगेगा. इसके रंग भी खिले हुये हो.

सिगल भाई बहन का रखे ध्यान:

आज कल कई ऐसे लडका लडकी होते है जिनके कोई भाईबहन नहीं होता है. जब पार्टी में वह भी शामिल होगे तो उनको सरप्राइज के साथ राखी बंधवाने का अवसर भी मिलेगा.

होटलों में भी कम लोगो की पार्टी:

अब होटल और रेस्ंत्रा में भी कम लोगों के लिये पार्टियांे का आयोजन होने लगा है. इसके लिये तय जगह पर एक पार्टी का आयोजन किया जा सकता है. घर के मुकाबले यहां अधिक इंज्वाय हो सकता है.

लाइव म्यूजिक और गेम्स:

फेस्टिवल का सैलीब्रेशन करने के लिये लाइव म्यूजिक और गेम्स को रखा जा सकता है. युवाओं को यह खूब पसंद आता है.

केक का प्रयोग:

वैसे तो रक्षाबंधन ट्रेडिशनल  फेस्टिवल है. आजकल हर पार्टी में केक का प्रयोग नया रंग भरता है. ऐसे में रक्षाबंधन की सरप्राइज पार्टी में भी केक का प्रयोग किया जा सकता है. डिजाइनर केक बनवाया जाये जो रक्षाबंधन की थीम पर बना हो.

फोटो शूट और वीडियो:     

सोशल मीडिया के इस दौर में किसी भी पार्टी की तैयारी तब तक पूरी नहीं होती जबतक फोटो शूट और वीडियो न बने. यह फोटो और वीडियों की पार्टी की जान होते है. जब यह सोशल मीडिया पर लाइव और पोस्ट होते है हजारो लाइक और कमेंटस मिलते है.

Raksha Bandhan: इस बार मार्केट से खरीदने के बजाए घर पर ही आसान तरीके से सजाएं राखी की थाली

अगर रक्षाबंधन में राखी की थाली सजी-संवरी रहती है, तो भाई का मन खुश हो जाता है और उसे अपने स्‍पेशल होने का एहसास भी होता है. आजकल बाजार में रेडी मेड राखी की थाली भी आने लगी है, लेकिन अगर आप अपने प्‍यारे भाई के लिये खुद ही थाली सजाएं तो सोचिए कैसा रहेगा. तो आइये आज हम आपको बताते हैं कि राखी की थाली को किस तरह से सजाया जाए कि भाई का मन खुश हो जाए.

स्टेप-1: सबसे पहने एक थाली लें, वह थाली प्‍लास्‍टिक की भी हो सकती है और या फिर स्‍टील की भी. अब इस थाली को क्राफ्ट पेपर से ढंक दें, यह पेपर पीला या फिर लाल रंग का हो तो थाली की खूबसूरती निखर कर आएगी.

स्टेप-2: पेपर पर कांच चिपकाकर उसे और आकर्षक बना सकती हैं. या फिर कुंदन, स्टोन्स, जरदोजी, सितारे आदि लगाकर भी अलग तरह का वर्क किया जा सकता है.

स्टेप-3: अब पेपर के बीचो बीच में एक बड़ा सा डिजाइन बनाएं. इसके बाद उसी डिजाइन के बीचो बीच एक मिट्टी का डेकोरेटेड दिया रखें, जिसमें तेल और बाती होना चाहिये.

स्टेप-4: अब थाली में कुछ छोटी-छोटी कटोरियां रख लें. आप चाहें तो इन कटोरियों को अपने मन-पसंद रंगो से रंग सकती हैं. फिर उन्‍हीं कटोरियों में कुमकुम, हल्‍दी, चावल, दही आदि रखें.

स्टेप-5: थाली के बाएं ओर, राखी रखें. थाली के दाहियने ओर अपने भाई की फेवरिट मिठाई रखें. अपनी फेवरिट मिठाई देख आपका भाई और भी खुश हो जाएगा.

Raksha Bandhan: तोबा मेरी तोबा- अंजली के भाई के साथ क्या हुआ?

मेरे सिगरेट छोड़ देने से सभी हैरान थे. जिस पर डांटफटकार और समझानेबुझाने का भी कोई असर नहीं हुआ वह अचानक कैसे सुधर गया? जब मेरे दोस्त इस की वजह पूछते तो मैं बड़ी भोली सूरत बना कर कहता, ‘‘सिगरेट पीना सेहत के लिए हानिकारक है, इसलिए छोड़ दी. तुम लोग भी मेरी बात मानो और बाज आओ इस गंदी आदत से.’’

मुझे पता है, मेरे फ्रैंड्स  मुझ पर हंसते होंगे और यही कहते होंगे, ‘नौ सौ चूहे खा कर बिल्ली हज को चली. बड़ा आया हमें उपदेश देने वाला.’ मेरे मम्मीडैडी मेरे इस फैसले से बहुत खुश थे लेकिन आपस में वे भी यही कहते होंगे कि इस गधे को यह अक्ल पहले क्यों नहीं आई? अब मैं उन से क्या कहूं? यह अक्ल मुझे जिंदगी भर न आती अगर उस रोज मेरे साथ वह हादसा न हुआ होता.

कालेज में कदम रखते ही मुझे सिगरेट की लत पड़ गई थी. जब मौका मिलता, हम यारदोस्त पांडेजी की दुकान पर खड़े हो कर खूब सिगरेट फूंकते और फिर हमारे शहर में सिगरेट पीना मर्दानगी की निशानी समझी जाती थी. कालेज के जो लड़के सिगरेट पी कर खांसने लगते, हम उन का मजाक उड़ाते. हां, लेकिन घर लौटने से पहले मैं पिपरमिंट की गोलियां चूस लेता ताकि किसी को तंबाकू की बू न आए. वजह यह नहीं थी कि मैं घर में किसी से डरता था. वजह सिर्फ यही थी कि घर के लोग किसी भी बात पर लेक्चर देना शुरू कर देते जिस से मुझे बड़ी चिढ़ होती थी.

मेरी बड़ी बहन अंजली की नाक बड़ी तेज थी. हमारे किचन में अगर कुछ जल रहा हो तो गली में दाखिल होते ही अंजली दीदी को उस की बू आ जाती. एक दिन मैं घर पहुंचा तो दरवाजा उसी ने खोला. वे बिल्ली की तरह नाक सिकोड़ कर बोलीं, ‘‘सिगरेट की बदबू कहां से आ रही है? तुम ने पी है क्या?’’

मैं पहले तो सहम गया लेकिन फिर गुस्से से बोला, ‘‘आप क्यों हर समय मेरे पीछे पड़ी रहती हैं? हमारा चौकीदार दिन भर बीड़ी फूंकता है. जब हवा चलती है तो उस का धुआं यहां तक आ जाता है. यकीन न आए तो बाहर जा कर देख लीजिए. वह इस वक्त जरूर बीड़ी पी रहा होगा.’’

मुझे गलत साबित करने के लिए अंजली दीदी फौरन बरामदे में चली गईं. संयोग से चौकीदार उस समय वाकई बीड़ी पी रहा था. मुझे शक भरी नजरों से देखती हुई वे उस समय तो वहां से चली गईं लेकिन उस दिन के बाद मैं ने नोट किया कि वे मुझ पर नजर रखने लगी थीं. मैं जब बाहर से लौट कर अपने कमरे में आता तब यह बात फौरन समझ में आ जाती कि मेरे कमरे की तलाशी ली गई है. अलमारी और मेज की दराजें सब टटोले गए हैं. मुझे यकीन हो गया कि अंजली दीदी जरूर कोई सुराग ढूंढ़ रही होंगी ताकि मुझ पर हमला किया जा सके. पर मैं ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली थीं. अपने कमरे में सिगरेट और माचिस की डब्बी मैं भूल से भी नहीं रखता था.

एक दिन मुझ से गलती हो गई. मैं महल्ले के लड़कों के साथ नुक्कड़ पर खड़े हो कर गपशप कर रहा था. एक दोस्त ने सिगरेट सुलगाई तो मैं ने उस के हाथ से ले कर एक कश लगा लिया. उसी समय अंजली दीदी सब्जी ले कर घर लौट रही थीं. उन की नजर मुझ पर पड़ी और मैं रंगेहाथों पकड़ा गया. वे तीर की तरह घर की तरफ भागीं और मैं ने घबराहट में सिगरेट का एक और ऐसा दमदार कश लगाया कि मुझे चक्कर आने लगे. दोस्तों के सामने मैं ने शेखी बघारी कि मैं किसी से नहीं डरता. सिगरेट पीता हूं तो क्या हुआ? कोई चोरी तो नहीं की, डाका तो नहीं डाला. मेरे दोस्तों ने मेरी पीठ ठोंक कर मुझे शाबाशी दी. मेरी हिम्मत वाकई काबिलेतारीफ थी. मैं ने खुश हो कर सब को एक इंपोर्टेड सिगरेट पिला दी. फिर मैं घर जाने के लिए मुड़ा, लेकिन कुछ सोच कर रुक गया. घर पहुंचते ही कैसा हंगामा होगा, इस का अंदाजा था मुझे. यही सब सोच कर दिनभर घर लौटने की मेरी हिम्मत न हुई.

पूरा दिन अपनी साइकिल पर सवार शहर के चक्कर काटता रहा. सोचा कि चलो लगेहाथ फिल्म देख डालें. लेकिन जब जेब में हाथ डाला तो पता चला कि टिकट के पैसे नहीं हैं. दोस्तों को इंपोर्टेड सिगरेट जो पिला दी थी.

शाम को अंधेरा होने के बाद मैं डरतेडरते घर में दाखिल हुआ. मम्मी और डैडी बड़े कमरे में बैठे थे. उन के गंभीर चेहरों से साफ जाहिर था कि उन को अंजली दीदी से पता चल गया था कि मैं सिगरेट पीता हूं. वे मेरी राह देख रहे थे. मम्मी के पीछे अंजली दीदी खड़ी थीं और उन के होंठों पर चिपकी हुई जहरीली मुसकान, नुकीले कांटे की तरह चुभ रही थी मुझे. मैं समझ रहा था कि डैडी अभी उठ कर मेरे पास आएंगे और दोचार भारीभरकम थप्पड़ रसीद करेंगे मुझे. लेकिन उन्होंने शांत आवाज में मुझे अपने पास बुला कर बिठाया. हमारे परिवार में कोई किसी किस्म का भी नशा नहीं करता था, न सिगरेट न शराब और न ही तंबाकू वाला पान. फिर मुझे यह लत कैसे लगी, इस बात का बड़ा अफसोस था उन्हें.

काफी देर तक वे मुझे सिगरेट के नुकसान समझाते रहे. यह कह कर डराया भी कि एक सिगरेट पीने से इंसान की उम्र 15 दिन कम हो जाती है. मैं बड़ी विनम्रता से सिर झुकाए उन की बातें सुनता रहा. मन ही मन यह भी सोचता रहा कि अंजली दीदी से बदला कैसे लिया जाए? जब अदालत का समय समाप्त हुआ तब मैं ने डैडी को वचन दिया कि आज के बाद मैं सिगरेट छुऊंगा तक नहीं. डैडी ने खुश हो कर मेरी पीठ थपथपाई और 500 रुपए का नोट मेरे हाथ में थमा कर कहा, ‘इस के फल खरीद कर ले आओ और रोज खाया करो. अपनी सेहत का खयाल रखो.’

अंजली दीदी ने मिर्च लगाई, ‘डैडी, आप देख लेना, 500 रुपए यह धुएं में उड़ा देगा.’ अब मैं ने अपनेआप को वचन दिया, ‘अंजली दीदी को सबक सिखा के रहूंगा.’ लेकिन वे इतनी चालाक थीं कि हर बार बच कर निकल जातीं.

मुश्किल से 3 दिन मैं ने अपने वादे पर अमल किया. मेरे दोस्त सिगरेट फूंकते तो उस की खुशबू सूंघ कर ही मैं इत्मिनान कर लेता. लेकिन फिर मुझ से सब्र न हुआ और चौथे दिन पूरी डब्बी खरीद कर फूंक डाली. सिगरेट पीने वाले जानते हैं कि जब तलब लगती हैं तब इंसान बेचैनी से कैसे फड़फड़ाता है.

कालेज की छुट्टियां शुरू हो गईं. गरमियों के दिन थे और लू चलती थी, इसलिए बाहर जाने का मन नहीं करता था. एक दिन दोपहर में जब सब सो रहे थे, मौका देख कर मैं चुपचाप बाथरूम में गया, अंदर से कुंडी लगाई और सिगरेट सुलगा ली. बड़े आराम से कमोड पर बैठ कर सिगरेट पीता रहा और सोचा, ‘वाह, क्या जगह ढूंढ़ निकाली है मैं ने.’ लेकिन जब बाथरूम से निकलने के लिए दरवाजा खोलने लगा तो दिल धक से रह गया. किसी ने बाहर से कुंडी लगा दी थी. हमारे बाथरूम का एक दरवाजा आंगन की तरफ खुलता था, मैं ने वह खोलना चाहा लेकिन उस की भी बाहर से कुंडी लगी हुई थी. दरवाजा खटखटा कर मैं ने जोर से पुकारा तो बाहर से अंजली दीदी की आवाज आई, ‘बदतमीज, तुम कभी नहीं सुधरोगे. तुम्हारी यह हिम्मत कि घर में भी सिगरेट पीना शुरू कर दिया. अब डैडी ही आ कर खोलेंगे यह दरवाजा.’

मैं ने बहुत मिन्नत की, माफी मांगी, कसमें भी खाईं लेकिन दीदी का दिल नहीं पसीजा. मदद के लिए मैं ने मम्मी को पुकारा लेकिन उन्हें भी मुझ पर तरस नहीं आया. चीख कर बोलीं, ‘तेरी यही सजा है.’

शाम को डैडी ने घर लौट कर जब दरवाजा खोला तब तक मैं बाथरूम की गरमी से निढाल हो चुका था. तिस पर डैडी ने आव देखा न ताव, गिन कर पूरे 4 थप्पड़ मेरे मुंह पर जड़ दिए. 1 घंटे तक मम्मी की डांट सुननी पड़ी सो अलग. सिर्फ अंजली दीदी ही नहीं, पूरा घर मेरा दुश्मन बन चुका था. उन्होंने सोचा कि इतने थप्पड़ खाने के बाद अब मैं सुधर जाऊंगा, लेकिन मैं भी बहुत जिद्दी हूं. तपती हुई धूप में घर से बाहर जा कर सिगरेटें फूंकता रहता.

एक दिन डैडी ने मुझे रास्ते के किनारे सिगरेट पीते हुए देख लिया. उसी वक्त मुझे गाड़ी में बिठा कर अपने साथ ले गए और घर से थोड़े फासले पर गाड़ी रोक कर बोले, ‘लोग सारी जिंदगी सिगरेट पीने के बाद भी यह आदत छोड़ देते हैं. फिर तुम क्यों नहीं छोड़ सकते यह गंदी आदत? तुम्हें जो चाहिए वह तुम्हें मिलेगा, बस तुम सिगरेट पीना छोड़ दो.’

उसी समय सामने वाली सड़क पर चमचमाती हुई मोटरबाइक आ कर रुकी. ललचाई नजरों से बाइक को देखते हुए मैं ने डैडी से कहा, ‘मुझे मोटरबाइक दिला दीजिए, मैं सिगरेट पीना छोड़ दूंगा.’ मुझे पूरा यकीन था कि डैडी इनकार कर देंगे. लेकिन मैं हैरत से चक्कर खा गया जब डैडी ने बड़े ही शांत लहजे में कहा, ‘अगर तुम इसी शर्त पर सिगरेट छोड़ोगे तो मुझे तुम्हारी यह शर्त भी मंजूर है.’

जिस दिन मोटरबाइक मेरे हाथ आई उस दिन अपने 2 यारों को साथ बिठा कर पूरे शहर में उड़ता फिरा और फिर जश्न मनाने हम पांडेजी की दुकान पर पहुंच गए. कोल्ड ड्रिंक के बाद सिगरेट और पान के बाद फिर सिगरेट. बुरा भी लग रहा था कि डैडी को धोखा दे रहा हूं लेकिन फिर अपने मन को समझाया कि बस यह आखिरी सिगरेट है, इस के बाद नहीं पीऊंगा. लेकिन फिर हर सिगरेट आखिरी सिगरेट बनती गई और यह सिलसिला चलता रहा.

मम्मी और डैडी अंजली दीदी की शादी को ले कर काफी चिंतित रहा करते थे. मैं भी दुआएं मांगता था कि यह बला जल्दी टले ताकि मुझे भी आजादी मिले. चंद महीनों की तलाश के बाद एक मुनासिब रिश्ता आया और अंजली दीदी का ब्याह तय हो गया. हमारे घर में यह पहली शादी थी इसलिए खूब धूम मची हुई थी. ब्याह के लिए जेवरात और कपड़ों की खरीदारी शुरू हो गई. उस गहमागहमी और खुशी के माहौल में मेरा जुर्म सब भूल गए. अंजली दीदी भी मुझ से हंसहंस कर बात करने लगीं. छोटेबड़े हर काम के लिए मेरी खुशामद करतीं, कभी चंदू भाई टेलर तो कभी मगन भाई सुनार के पास जाना होता और मैं दौड़दौड़ कर वे सारे काम कर देता. अब वे अपनेआप में इतनी मगन रहतीं कि मैं अपने कमरे में बैठ कर सिगरेट फूंकता तब भी उन्हें पता न चलता.

घर के आंगन में बरातियों के लिए शामियाना लगाया गया. रौनक बढ़ाने के लिए रंगबिरंगे फूल और नीलेपीले बल्ब भी लगाए गए. जैसेजैसे शादी का दिन नजदीक आने लगा, रिश्तेदारों और मेहमानों की चहलपहल बढ़ने लगी. कोई सहारनपुर से तो कोई भोपाल से. अंजली दीदी की सहेलियों ने तो घर पर धावा ही बोल दिया था. स्कूल से ले कर कालेज तक की सारी सहेलियां मौजूद थीं. दिन भर उन के हंसने और खिलखिलाने की आवाजें घर में गूंजती रहतीं. मैं शादी की भागदौड़ में मसरूफ रहता, लेकिन इस बीच जब कोई सुंदर चेहरा नजर आता तब थोड़ी सी थकान दूर हो जाती.

जिस कमरे में अंजली दीदी हलदी की रस्म के बाद बैठी थी, वहां से नाचगाने और ढोलक की आवाजें आतीं और मैं छिप कर झरोखे से उन्हें निहारता रहता. लड़कियां झूमझूम कर नाचतीं और मधुर गीत गातीं. उन सब में एक लड़की बहुत सुंदर थी. पता चला कि उस का नाम बांसुरी है. वह भोपाल से आई है और डैडी के एक दोस्त की बेटी है. उस का कद लंबा था, रंग सांवला, लंबीलंबी पलकें, बहुत ही आकर्षक चेहरा, छुईमुई जैसी इतनी प्यारी कि छू लेने को दिल चाहे.

रोज की तरह उस दिन भी जोरजोर से नए फिल्मी गाने बज रहे थे और आंगन में बच्चे नाच रहे थे. बच्चों ने जिद की तो मैं भी उन के साथ नाच में शामिल हो गया. नाचतेनाचते मैं खो गया और मन की आंखों से सोचने लगा कि बांसुरी इन गानों पर नाचती हुई कैसी दिखेगी. अचानक किसी की आवाज आई, ‘ओ भाईसाब, यह क्या हो रहा है?’

मैं ने आंखें खोल कर देखा तो चौंक पड़ा. बांसुरी मेरे सामने खड़ी थी. मैं ने सोचा कि मैं सपना देख रहा हूं और मैं ने फिर से आंखें बंद कर लीं. इस बार उस ने मेरे कंधे पर हलकी सी चपत लगाई और बोली, ‘नींद में हो क्या? मैं तुम से कह रही हूं.’

मैं ने बहुत नरमी से पूछा, ‘कुछ काम है मुझ से?’ वह तुनक कर बोली, ‘ये कैसे गाने लगा रखे हैं जिन की एक लाइन भी समझ में नहीं आती. यों लगता है जैसे दीवाली के पटाखों से डर कर कोई कुत्ता भौंक रहा है. मीठेमीठे पुराने गाने बजाओ. और ये जो नए गाने हैं न, ये तुम अपनी शादी में बजाना.’

वह पलट कर जाने लगी तो मैं ने उस का हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘एक शर्त पर, जिस दिन मेरा ब्याह तुम्हारे साथ होगा उस दिन तुम्हारी पसंद के गाने बजेंगे, बल्कि तुम कहो तो मैं तुम्हें पुराने गाने गा कर भी सुनाऊंगा.’

उस ने घूर कर देखा और मेरा हाथ झटक कर वह भाग गई, लेकिन फिर दरवाजे के पास जा कर मुड़ी और मुसकरा कर मुझे देखने लगी. मेरा दिल इतने जोर से धड़का जैसे अभी उछल कर बाहर आ जाएगा. यह दिल कम्बख्त है ही ऐसी चीज. जरा सी खुशी मिली नहीं कि धड़कने लगता है, वह भी जोरों से.

जब पुराने गीत बजने लगे तब मैं उसे झरोखों से छिपछिप कर देखता रहा. वह बारबार कनखियों से मुझे देखती और लहरालहरा कर नाचती रही. उस ने महफिल में ऐसा रंग जमाया कि मम्मी ने कहा, ‘तेरा ब्याह जल्द हो जाए और ऐसा पति मिले जो तुझे हमेशा खुश रखे.’ वह मेरी ओर देख कर धीरे से मुसकराई और उस रात मैं उसी के सपने देखता रहा. सपने में वह मेरी दुलहन थी और मैं उस का दूल्हा.

अगले दिन बड़ी चहलपहल थी. अंजली दीदी का ब्याह होना था. घर के पिछवाड़े हलवाई खाना बना रहे थे. डैडी ने मेरी ड्यूटी वहां लगा दी थी. बांसुरी अचानक वहां आ धमकी और मुझे देख कर बोली, ‘अंजली दीदी का संदेशा लाई हूं तुम्हारे लिए. उन्होंने कहा है, नमकमिर्च का खयाल रखना, अगर जरा भी ऊंचनीच हो गई न, तो तुम्हारी खैर नहीं.’

बांसुरी की आवाज में ऐसी खनक थी कि वह गाली भी दे तो मीठी लगे. मैं ने मुसकरा कर पूछा, ‘तुम्हें खाना पकाना आता है या नहीं?’

उस की भवें तन गईं, ‘क्यों पूछ रहे हो?’

मैं शरारत से बोला, ‘बड़ी खास वजह है इसीलिए पूछ रहा हूं. वैसे तुम्हें यह भी बता दूं कि अगर तुम्हें खाना पकाना नहीं आता हो तब भी चिंता की कोई बात नहीं. जब हमारा ब्याह हो जाएगा तब इन बेचारे हलवाइयों को अपने घर में नौकरी दे देंगे तो इन की रोजीरोटी का बंदोबस्त भी हो जाएगा.’

वह जोर से हंसी, ‘तुम से ब्याह करे मेरी जूती.’

बैंड बाजे के साथ बरात आई तो हर कोई दूल्हे को देखने बरामदे में आ गया. धक्कामुक्की और आपाधापी में पता ही नहीं चला कि बांसुरी चुपके से आ कर कब मेरे पास खड़ी हो गई. नरमनरम गुदाज जिस्म मेरी बांह से टकराया तो मैं ने चौंक कर उसे देखा. लेकिन वह ऐसी अनजान बन गई जैसे उस ने मुझे देखा ही न हो. मौके का फायदा उठा कर मैं ने उस का हाथ मजबूती से अपने हाथ में पकड़ लिया. पहले तो उस ने अपने दोनों हाथ अपने दुपट्टे में छिपा लिए फिर मेरे बाजू पर ऐसी खतरनाक चुटकी काटी कि मेरे मुंह से आह निकल गई.

समय अपनी गति से चलता रहा. शामियाने में पंडितजी के मंत्र गूंजने लगे. ब्याह के फेरों का समय हो चला था. अपनी सहेलियों से घिरी अंजली दीदी धीरेधीरे शामियाने की ओर बढ़ने लगीं. जरीदार साड़ी और गहनों में लिपटी हुई कितनी सुंदर लग रही थीं मेरी दीदी. मैं उन्हें एकटक देखता रहा और यह सोच कर कि अब वे इस घर से चली जाएंगी, मेरी आंखें डबडबा गईं. उन्होंने मुझे मम्मीडैडी से बहुत डांट खिलवाई थी, पिटवाया भी था मुझे, ताने भी दिए थे, लेकिन हैं तो आखिर मेरी बहन. अचानक डैडी की आवाज मेरे कानों में गूंजी, ‘यह क्या हुलिया बना रखा है तुम ने? अभी तक तैयार नहीं हुए? जाओ, कपड़े बदल कर आओ.’ मैं सरपट अपने कमरे की तरफ भागा.

कमरे में दाखिल होते ही मैं ठिठक गया. बांसुरी अलमारी के आईने के सामने खड़ी हो कर जेवर पहन रही थी. मुझे देख कर वह जरा भी नहीं चौंकी बल्कि डांट कर बोली, ‘यह क्या मुंह उठाए चले आ रहे हो? इतनी भी तमीज नहीं कि दरवाजे पर दस्तक दे कर अंदर आओ.’ उसे वहां देख कर मेरे होशोहवास तो जैसे गुम हो गए थे. वह बला की हसीन लग रही थी, जैसे आसमान से उतर कर कोई अप्सरा धरती पर आ गई हो. मैं बेशर्मी से उसे घूरता रहा और मैं ने पहली बार देखा कि वह भी कुछ सकपका सी गई है. मैं धीरेधीरे उस के नजदीक गया और घुटी हुई आवाज में बोला, ‘तुम कितनी सुंदर हो, मैं ने आज तक इतनी सुंदरता कहीं नहीं देखी.’

अपनी तारीफ सुन कर उस के चेहरे पर हलकी सी मुसकराहट आ गई. वह अपनी जगह से नहीं हिली, बस मेरी आंखों में आंखें डाल कर मुझे देखती रही. बेखुदी के आलम में मैं उस की ओर खिंचता चला गया, इतने पास कि उस की गर्म सांसें अपने गालों पर महसूस करने लगा. उस के होंठ धीरे से खुले और उस ने अपनी आंखें मूंद लीं. मेरे शरीर में कंपकंपी सी होने लगी. ऐसी कैफियत मैं ने पहले कभी महसूस नहीं की थी. मैं ने अपने दोनों हाथ उस के कंधों पर रखे और मैं उस के होंठों को चूमने ही वाला  था कि वह अचानक पीछे हटी, ‘तुम सिगरेट पीते हो?’

पहले तो मेरी समझ में नहीं आया कि वह बोल क्या रही है. मैं हक्काबक्का सा उसे देखता रहा और वह गुस्से से बोली, ‘दूर हटो मुझ से. नफरत है मुझे सिगरेट पीने वालों से. कितनी गंदी बदबू आ रही है तुम्हारे मुंह से.’

मैं इस अचानक हमले से संभल भी नहीं पाया था कि वह कमरे से बाहर चली गई और मैं सिर झुकाए शर्मिंदा सा वहीं खड़ा रह गया.

अगले दिन वह भोपाल वापस चली गई.

वह दिन और आज का दिन, मैं ने सिगरेट कभी नहीं पी. आज भी जब कोई मेरे सामने सिगरेट सुलगाता है तो मेरा मन करता है कि उस के हाथ से सिगरेट छीन कर दो कश लगा लूं, लेकिन अब यह मुमकिन नहीं, क्योंकि उस हादसे के बाद जब मैं बांसुरी से मिलने भोपाल पहुंचा तो बांसुरी इसी शर्त पर मुझ से शादी करने के लिए राजी हुई कि मैं सिगरेट कभी नहीं पीऊंगा. अब आप ही बताइए, जिस लड़की को पाने की खातिर मैं ने अपना दिल-ओ-जान कुरबान कर दिया था, उस की खातिर क्या मैं सिगरेट की कुरबानी नहीं दे सकता?

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