Serial Story: टीस (भाग-3)

रहिला बुरी तरह तिलमिला गई और फिर पैर पटकते हुए गैस्टहाउस में आ गई. फिर सोचने लगी कि और बेइज्जती बरदाश्त नहीं कर सकती. औपरेशन तो हो ही गया है, जितेंद्र से कहेगी पहली उड़ान से उस की वापसी का इंतजाम कर दे. तभी उस का मोबाइल बजा.

‘‘आप कहां हैं मैडम?’’ जितेंद्र ने पूछा, ‘‘जल्दी से अस्पताल के रूम में पहुंचिए राजेंद्रजी की हालत देखने के बाद सारिका मैडम बहुत घबरा गईर् हैं.’’

‘‘अनिता से कहो उन्हें समझाने को, सलिल भी तो होगा वहां. और सुनो जितेंद्र, वहां से फुरसत मिले तो गैस्टहाउस आना,’’ कह कर उस ने फोन काट दिया.

कुछ देर बाद ही अनिता के साथ बदहवास सारिका और उस का सामान उठाए जितेंद्र और सलिल आ गए.

‘‘हम मैडम को यहीं ले आए हैं…’’

‘‘अस्पताल के नियमानुसार आईसीयू के मरीज के परिजन को रूम में ही रहना होता है,’’ रहिला ने अनिता की बात काटी.

‘‘उस के लिए मैं हूं न,’’ सलिल बोला, ‘‘जीजाजी का फूला नीला चेहरा देख कर जीजी बहुत घबरा गई हैं.’’

‘‘राजेंद्र साहब के चेहरे का फूलना स्वाभाविक है, क्योंकि रीढ़ की  हड्डी का औपरेशन था. अत: उन्हें पेट के बल लिटाया गया होगा और 7-8 घंटे उस अवस्था में बेहोश लेटने पर मुंह पर खून जमेगा और सोजिश आएगी ही, जो जल्दी उतरेगी भी नहीं. घबराने की बात नहीं है.’’

‘‘यही मैं भी कह रहा हूं रहिलाजी, लेकिन जीजी मेरी बात समझती ही नहीं हैं,’’ सलिल बेबसी से बोला, ‘‘आप जीजी को अपने साथ रखिए ताकि ये ठीक से खा और सो सकें.’’

‘‘लेकिन मैं तो कल सुबह वापस जा रही हूं,’’ रहिला ने बेरुखी से कहा.

‘‘यह…यह कैसे हो सकता है मैडम?’’ अनिता और जितेंद्र एकसाथ बोले.

‘‘मुझे बीच मझधार में छोड़ कर कैसे जा सकती हो रहिला? राजेंद्र अभी आईसीयू में हैं और डा. रसूल से क्लीन चिट मिलने पर ही रूम में आएंगे. 2 दिन तक लगातार औपरेशन करने से डा. रसूल बहुत थक गए हैं और सुना है थकान उतरने पर ही अस्पताल आएंगे. ऐसे में अगर उन से कुछ कहना हुआ तो मैं क्या करूंगी?’’ सारिका ने रुंधे स्वर में पूछा.

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जैसे यह कम नहीं था कि तभी साहिल का फोन आ गया. साहिल ने कंपनी के चेयरमैन की ओर से रहिला का धन्यवाद कर के कहा कि उसे कुछ दिन और दिल्ली में रुकना होगा. रहिला छटपटा कर रह गई. सारिका को तो नींद की गोली खिला कर सुला दिया, लेकिन रहिला खुद नहीं सो सकी. सब लोग उस से ऐसे व्यवहार कर रहे थे जैसे डा. रसूल से दोस्ती कोईर् बहुत बड़ी उपलब्धि हो, जबकि उस की नजरों में तो यह अभिशाप ही था.  रसूल का स्कूलकालेज में पढ़ाने वाली लड़की के उपहास ने उसे इतना गहरा कचोटा था कि पढ़ाई से ही दिल उचाट हो गया था. एमफिल का परिणाम इतना संतोषजनक नहीं था कि पीएचडी में आसानी से दाखिला मिल जाता. अब्बू की बात मान कर उस ने साहिल से शादी कर ली थी. बेहद सुखी थी उस के साथ, अपनी पढ़ाई का सदुपयोग विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए कोचिंग देने वाले संस्थान में स्नातकोत्तर प्रत्याशियों को अंगरेजी पढ़ा कर कर रही थी. अगर रसूल ने इतनी छिछोरी टिप्पणी न की होती तो आज वह भी पीएचडी कर के डाक्टर होती और विश्वविद्यालय की प्राचार्य. तब किसी की हिम्मत नहीं होती उसे किसी रसूल की खुशामद के लिए रोकने की.

देर रात तक जागने के बाद रहिला अगली सुबह देर से उठी. सारिका कमरे में नहीं  थी. तैयार होने के बाद वह बाहर आई. अनिता उस का इंतजार कर रही थी.  ‘‘सलिल का फोन आया था कि राजेंद्र साहब को होश आ गया है. अत: सारिका मैडम जितेंद्र के साथ चली गई हैं. आप नाश्ता कर लीजिए. फिर हम भी अस्पताल चलते हैं,’’ अनिता बोली.

जितेंद्र और सलिल अस्पताल के बाहर ही मिल गए.  ‘‘कुछ देर पहले डा. रसूल आए थे. उन्होंने जीजाजी को खड़ा कर के, कुछ कदम चला कर देखा और कहा कि सब ठीक है. इन्हें रूम में शिफ्ट कर दो. रूम में तो मरीज के साथ एक अटैंडैंट ही रह सकता है. लंच और दोपहर के आराम के लिए जीजी को गैस्टहाउस भेज कर मैं जीजाजी के पास बैठ जाऊंगा,’’ सलिल ने कहा, ‘‘यहां का स्टाफ कह रहा है कि पहली बार डा. रसूल ने लगातार 2 दिन तक औपरेशन किए हैं और थकान के बावजूद आज मरीज को देखने आ गए. आप की सिफारिश का असर है रहिलाजी.’’

‘‘मैं ने कोई सिफारिश नहीं की थी सलिल, सिर्फ हाल बताया था. ऐसी नाजुक हालत वाले मरीज को ठीक करने का चैलेंज कोईर् भी काबिल सर्जन नहीं छोड़ता,’’ रहिला व्यंग्य से हंसी.

‘‘यहां तो आप रुक नहीं सकतीं और गैस्टहाउस में भी जा कर क्या करेंगी, कहीं जाना चाहें तो मैं गाड़ी की व्यवस्था कर दूं मैंडम?’’ जितेंद्र ने पूछा.

‘‘तुम और अनिता दिल्ली वाले हो जितेंद्र, तुम चाहो तो अपनेअपने घर हो आओ. मैं गैस्टहाउस में आराम करूंगी, सारिकाजी को लंच भी करवा दूंगी. तुम लोग शाम तक आ जाना,’’ रहिला ने उन दोनों को भेज दिया.

वह अकेले रहना चाहती थी, लेकिन कुछ देर के बाद ही दरवाजे पर दस्तक हुई. सामने रसूल खड़ा था. उम्र के साथ जिस्म और चेहरे पर भराव आ गया था, लेकिन आंखों की चमक वैसी ही चंचल थी.  ‘‘माफ करना रहिला, मेरे शहर में होते हुए भी तुम्हें गैस्टहाउस में रहना पड़ रहा है. मगर चाह कर भी तुम्हें अपने घर चलने को नहीं कह सकता,’’ रसूल ने बगैर किसी भूमिका के कहा.

‘‘क्यों बेगम साहिबा को अनजान मेहमान पसंद नहीं हैं?’’ न चाहते हुए भी रहिला कटाक्ष किए बगैर न रह सकी.

रसूल ने गहरी सांस ली. फिर बोला, ‘‘बेगम साहिबा खुद ही मेहमान की तरह घर आती हैं, रहिला. उन्हें दुनिया में आने वालों को लाने या हमेशा के लिए दुनिया में आने वालों का रास्ता बंद करने यानी हिस्टरेक्टोमी औपरेशन करने से ही फुरसत नहीं मिलती. दिन में लंबा इमरजैंसी औपरेशन कर के आती हैं और रात को डिलीवरी के लिए बुला ली जाती हैं.’’  ‘‘बच्चे तो होंगे, उन का खयाल कौन  रखता है?’’

‘‘नैनीताल होस्टल में हैं दोनों… छुट्टियों में भी यहां के बजाय लखनऊ में अम्मीअब्बू के पास ज्यादा  रहते हैं,’’ रसूल ने फिर गहरी सांस ली, ‘‘बहुत ही मसरूफ गाइनोकोलौजिस्ट हैं, कई नैशनल और इंटरनैशनल अवार्ड विनर डा. जाहिदा सुलताना.’’

‘‘बहुत खूब. मियां पद्मविभूषण न्यूरो सर्जन और बीवी जानीमानी गाइनोकोलौजिस्ट यानी मुकाबले की जोड़ी है.’’

‘‘काहे की जोड़ी रहिला, एक ही छत के नीचे रहते हुए भी रोज मुलाकात नहीं होती. खैर, तुम अपनी सुनाओ, मियांजी क्या करते हैं?’’

‘‘डिप्टी जनरल मैनेजर हैं एक मल्टीनैशनल कंपनी में… मसरूफ तो रहते हैं, लेकिन इतने भी नहीं कि बीवीबच्चों के साथ वक्त न गुजार सकें.’’

‘‘और तुम क्या करती हो?’’

‘‘आईएएस और एमबीए के उम्मीदवारों को अंगरेजी पढ़ाती हूं, अपने बच्चे और आशियाना यानी घर भी संभालती हूं, जिस पर मियांजी को नाज है.’’

‘‘कुल मिला कर खुशहाल जिंदगी है तुम्हारी?’’

‘‘खुशहाल और मुकम्मल भी. और तुम्हारी?’’

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‘‘मालूम नहीं रहिला. जाहिदा से तो कोई शिकायत नहीं है. मेरे कदम से कदम मिला कर चल रही है मेरी हमपेशा हमसफर, मगर सिर्फ पेशे में. खुद की जिंदगी क्या है शायद भूल चुके हैं हम दोनों,’’ रसूल ने फिर एक गहरी सांस ली, ‘‘अकसर सोचता हूं कि गलती करी अब्बू की डाक्टरप्रोफैसर की जोड़ी बनाने के इरादे का मजाक बना कर और तुम्हें चोट पहुंचा कर जिस की टीस गाहेबगाहे कचोटती रहती है. खैर, सुकून मिला यह जान कर कि खुशगवारगुलजार आशियाना है तुम्हारा.’’

‘टीस से नजात तो मुझे मिली है रसूल यह जान कर कि टीस बन कर ही सही तुम्हारे जेहन में मुकाम तो है मेरा,’ रहिला ने सोचा, ‘लेकिन मेरी खुशहाल जिंदगी के बारे में जान कर तुम्हें अच्छा भले ही लगा हो, टीस से नजात नहीं मिलेगी, पछतावा बन कर और भी चुभा करेगी अब तो.’

Serial Story: टीस (भाग-1)

‘‘गाड़ी के स्पार्क प्लग तो ठीक से लगा नहीं सकता और ख्वाब देख रहा है इंजीनियर बनने के,’’  साहिल को बेटे पर झुंझलाते देख कर रहिला मुसकरा पड़ी, तो साहिल और झुंझला उठा.

‘‘इस में मुसकराने वाली क्या बात है?’’ उस ने पूछा.

‘‘वैसे ही कुछ याद आ गया. इस वर्ष दिल्ली के जिस मशहूर न्यूरो सर्जन डा. गुलाम रसूल को पद्मविभूषण मिला है न वह बचपन में मेरा पड़ोसी था. एक बार बावर्ची के न आने पर चाचीजान ने रसूल को मछली साफ कर काटने को कहा तो वह कांपते हुए मछली ले कर मेरे पास आया. मिन्नतें कर के मुझ से मछली कटवाई और आज देखो कितना सफल सर्जन है.’’

‘‘अचानक इतनी हिम्मत कैसे आ गई?’’

‘‘पता नहीं, क्योंकि तब तो अब्बू का तबादला होने की वजह से रसूल के परिवार से तअल्लुकात टूट गए थे. फिर जब दोबारा लखनऊ आने पर मुलाकात हुई तो पता चला कि रसूल पीएमटी की तैयार कर रहा है. उस की अंगरेजी हमेशा कमजोर रही, इसलिए उस ने मिलते ही मुझ से मदद मांगी.’’

‘‘और तुम ने कर दी?’’

‘‘हां, बचपन से ही करती आई हूं. अंगरेजी में वह हमेशा कमजोर रहा. पीएमटी तो अच्छे नंबरों से पास कर ली और लखनऊ मैडिकल कालेज में दाखिला भी मिल गया, लेकिन अंगरेजी कमजोर ही थी. अत: रोज अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ कर मैं उसे अंगरेजी बोलना सिखाती थी.’’  तभी फोन की घंटी बजी और बात वहीं खत्म हो गई. आज उसी बात को  याद कर के साहिल रहिला से कह रहा था कि वह उस के बौस के परिवार के साथ दिल्ली जाए और डा. गुलाम रसूल से अपने संपर्क के बल पर तुरंत अपौइंटमैंट ले कर बौस का औपरेशन करवा दे.  साहिल के बौस जनरल मैनेजर राजेंद्र को फैक्टरी में ऊंचाई से गिरने के कारण रीढ़ की हड्डी में गहरी चोट लगी थी. डाक्टरों ने तुरंत किसी कुशल सर्जन द्वारा औपरेशन करवाने को कहा था, क्योंकि देर और जरा सी चूक होने पर वे उम्र भर के लिए अपाहिज हो सकते थे.

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इस समय सब की जबान पर पद्मविभूषण डा. गुलाम रसूल का ही नाम था. लेकिन वे केवल जटिल औपरेशन ही करते थे. औपरेशन करने में 7-8 घंटे लग जाते थे. मरीज को होश आने के बाद ही घर जाते थे. फिर थकान उतरने के बाद ही दूसरा औपरेशन करते थे. इसीलिए उन से समय मिलना बहुत मुश्किल होता था.

‘‘इतने वर्षों बाद पद्मविभूषण डा. गुलाम रसूल को रहिला की कहां याद होगी…’’

‘‘क्या बात कर रही हो रहिला, अपनी इतनी मदद करने वाली बचपन की दोस्त को कौन भूल सकता है?’’ साहिल ने बात काटी.

‘‘मदद याद होती तो तअल्लुकात ही क्यों बिगड़ते?’’ रहिला के मुंह से अचानक निकला.

‘‘मतलब? कुछ रंजिशवंजिश हो गई थी?’’ साहिल ने कुरेदा.

रहिला ने इनकार में सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘नहीं, हमेशा की तरह अचानक वहां से अब्बू का तबादला हो गया था. न रसूल के परिवार ने हमारा बरेली का अतापता मांगा न हम ने दिया. मुद्दत के बाद अखबार में उसे पद्मविभूषण मिलने की खबर से पता चला कि वह दिल्ली में है…’’  ‘‘अब जब पता चल ही गया है तो उस का फायदा उठा कर राजेंद्र और उन के परिवार को नई जिंदगी दिलवा दो रहिला. अभी उन की उम्र ही क्या है… नौकरी में तरक्की मिलने वाली है… सही इलाज न हुआ तो सब खत्म हो जाएगा… उन के मासूम बच्चों और बीवी के बारे में सोचो. उन से तो तुम्हारी अच्छी दोस्ती है रहिला.’’

‘‘सवाल दोस्ती का नहीं इनसानियत का है साहिल और मैं नहीं समझती कि डा. गुलाम रसूल जैसे आदमी से इनसानियत की उम्मीद करनी चाहिए. मिलना तो दूर की बात है वह मुझे फोन पर पहचानेगा भी नहीं. उस पर समय बरबाद करने के बजाय इंटरनैट पर किसी दूसरे न्यूरो सर्जन की तलाश करते हैं.’’  ‘‘कर रहे हैं भई, मगर ट्रैक रिकौर्ड गुलाम रसूल का ही सब से बढि़या है. तुम एक बार उन्हें फोन कर के तो देखो,’’ साहिल ने आजिजी से कहा.

‘‘बगैर नंबर के?’’

‘‘यह सुनते ही कि तुम उन्हें जानती हो राजेंद्रजी की पत्नी सारिका ने डा. रसूल का मोबाइल, दिल्ली के घर का लैंडलाइन नंबर और पता मंगवा लिया है. अगर तुम ने फोन करने में देर की तो सारिका खुद आ जाएंगी तुम से मदद मांगने… अच्छा लगेगा तब तुम्हें?’’  रहिला सिहर उठी. बौस की बीवी होने के बावजूद सारिका का व्यवहार हमेशा उस से सहेली जैसा था. ‘अपने अभिमान और स्वाभिमान को ताक पर रख कर सारिका की खातिर रसूल की अवहेलना एक बार और सहन करना तो बनता ही है,’ सोच उस ने नंबर मिलाया. स्विच्ड औफ था.

घर पर फोन नौकर ने उठाया, ‘‘डाक्टर साहब औपरेशन थिएटर से बाहर आने के बाद ही मोबाइल खोलते हैं. आप मोबाइल पर ही कोशिश करती रहें. घर कब आएंगे मालूम नहीं.’’

‘‘तो तुम कोशिश करती रहो और जैसे भी हो उन्हें राजेंद्रजी का इलाज करने को मना लो. सवाल मेरी नौकरी का नहीं इनसानियत का है रहिला.’’

‘‘नौकरी तो तुम्हारी राजेंद्रजी की हालत ने और भी पक्की कर दी है. तुम ही तो संभालोगे उन की जिम्मेदारी. अत: अब सवाल हमारी नैतिकता और ईमानदारी का भी है साहिल. हमें उन का सही इलाज करवाना होगा. सोच रही हूं रसूल को कैसे घेरा जाए.’’

‘‘सोचो, मैं तब तक अस्पताल जा कर सारिका को तसल्ली देता हूं,’’ कह कर साहिल रहिला को यादों के भंवर में डूबनेउबरने के लिए छोड़ कर चला गया…  गुलाम रसूल से बचपन में तो प्यार नहीं था, लेकिन कालेज में लड़कियों से  प्यारमुहब्बत के किस्से सुनते हुए लंबा, छरहरा रसूल अपने सपनों का राजकुमार लगने लगा था और एक रोज रसूल ने यह पूछ कर कि तुम्हारे इंगलिश लिटरेचर में मेरे जैसा हैंडसम हीरो है कोई? और उस के क्यों पूछने पर यह कह कर क्योंकि तुम लड़कियों की पसंद किताबी हीरो के इर्दगिर्द ही घूमती है, उस की सोच को हकीकत में बदल दिया था और वह सपनों की रोमानी दुनिया में विचरने लगी थी.  पढ़ाई के बढ़ते बोझ ने उन का मिलनाजुलना कम कर दिया था और फिर रसूल होस्टल में रहने चला गया था. जब भी घर आता था तो उस से मिलता जरूर था. लेकिन जैसे औपचारिकता निभाने को. रहिला को एमए करते ही कालेज में लैक्चरर की नौकरी मिली ही थी कि गुलाम रसूल का रिजल्ट भी आ गया. वह भी डाक्टर बन गया था.

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Serial Story: टीस (भाग-2)

‘‘क्यों न इन दोनों की शादी कर दी जाए गुलाम अली?’’ अब्बू ने रसूल के वालिद से कहा था.

‘‘सही कह रहे हो शम्शुल हक. लाजवाब जोड़ी रहेगी डाक्टर और प्रोफैसर की. मैं रसूल और उस की अम्मी को अभी बताता हूं. कल पीर के मुबारक दिन पर महल्ले में शीरनी बंटवा देंगे?’’

अगले रोज अब्बू के पूछने पर कि शीरनी मंगवाएं, गुलाम अली ने टालने के लहजे में कहा कि रसूल अभी शादी के लिए तैयार नहीं है. एमडी करने के बाद सोचेगा.  ‘‘तो अभी शादी करने को कह कौन रहा है? रहिला को भी एमफिल करनी है. जब तक रहिला की एमफिल पूरी होगी तब तक रसूल भी एमडी कर के शादी के लिए तैयार हो जाएगा.’’

‘‘लेकिन अपने मुकाबले की डाक्टर लड़की से स्कूलकालेज में पढ़ाने वाली से नहीं. गुलाम रसूल को तो यह डाक्टरप्रोफैसर की जोड़ी बनाने वाली बात ही एकदम बचकानी लगी,’’ गुलाम अली ने व्यंग्य से कहा.

अब्बू को ही नहीं रहिला को भी यह बात सरासर अपनी काबिलीयत की तौहीन लगी थी. दोनों परिवारों में तअल्लुकात ठंडे होने शुरू हो गए थे और इस से पहले कि और बिगड़ते, हमेशा की तरह अचानक अब्बू का तबादला हो गया. जल्द ही उन्होंने रहिला के लिए इंजीनियर साहिल तलाश कर लिया…  तभी साहिल और सारिका आ गए.

‘‘डा. रसूल को फोन लगाओ रहिला, मेरे भाई का दिल्ली से फोन आया है कि डाक्टर साहब औपरेशन थिऐटर से बाहर आ गए हैं,’’ सारिका ने उतावली से कहा.  रहिला ने स्पीकर औन कर के नंबर मिलाया. दूसरी ओर से बहुत ही थकी सी आवाज में किसी ने हैलो कहा. रहिला आवाज पहचान गई.

‘‘सुनिए, मैं रहिला बोल रही हूं, रहिला शम्श…’’

‘‘बोलो रहिला,’’ थकी आवाज में अब चहक थी, ‘‘शम्शवम्श लगाने की क्या जरूरत है…’’

‘‘सोचा शायद रहिला नाम से न पहचानो, बड़ी परेशानी में फोन कर रही हूं… किसी की जिंदगी का सवाल है,’’ और एक ही सांस में रहिला ने सारी बात बता दी.

‘‘लेकिन ऐसे मरीज को भोपाल से दिल्ली कैसे लाओगी?’’

‘‘एअर ऐंबुलैंस से डाक्टर साहब,’’ साहिल बोला, ‘‘औन ड्यूटी ऐक्सीडैंट हुआ है. अत: कंपनी ने एअरऐंबुलैंस की व्यवस्था करवा दी है.’’

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‘‘तो लाने में देर मत करिए… ऐंबुलैंस में जो डाक्टर साथ आएंगे उन से मेरी बात करवा दीजिए… मैं यहां भी अपने स्टाफ को सभी जरूरी हिदायतें दे देता हूं कि पहुंचते ही मरीज को इमरजैंसी में शिफ्ट कर दें और फैमिली को रूम दे दें ताकि आप को कोई परेशानी न हो… आप बेफिक्र हो कर मरीज को ले आएं,’’ कह कर डा. गुलाम रसूल ने फोन काट दिया.

साहिल और सारिका तो खुशी से उछल पड़े, लेकिन रहिला एक बार फिर अपनी अवहेलना से तिलमिला गई. बगैर उस से कुछ कहे फोन काट देना सरासर उस की बेइज्जती थी.

‘‘आप घर जा कर दिल्ली चलने की तैयारी करिए,’’ साहिल ने सारिका से कहा, ‘‘मैं अस्पताल जा कर साथ चलने वाले डाक्टर की डा. रसूल से बात करवाता हूं और रहिला, तुम भी अपना सामान पैक करो दिल्ली जाने को.’’

‘‘मैं…मैं दिल्ली जा कर क्या करूंगी? जितनी बात की जरूरत थी कर ली…’’

‘‘अभी बहुत बातों की जरूरत है रहिला और उस से भी ज्यादा मुझे तुम्हारे साथ की जरूरत है. तुम्हारे साथ चलने से मुझे बहुत सहारा रहेगा,’’ सारिका ने रहिला के साथ पकड़ लिए.

रहिला उसे मना नहीं कर सकी और फिर जाने की तैयारी करने लगी.

‘‘रहिला, साथ चलने वाले डाक्टर से डाक्टर रसूल की बात हो गई  है. उन्होंने डाक्टर को समझा दिया है कि उड़ान में क्या सावधानियां बरतनी जरूरी हैं और यह भी कहा है बेफिक्र हो कर आइए, आप मेरे मेहमान हैं,’’ साहिल ने कुछ देर के बाद आ कर कहा.

‘‘तो फिर मेरे जाने की तो जरूरत ही नहीं रही साहिल…’’

‘‘जरूरत और भी बढ़ गई है शुक्रिया करने को… राजेंद्रजी का औपरेशन कई घंटे तक चलेगा. उस दौरान सारिका को संभालने को भी तो कोई होना चाहिए.’’

‘‘अस्पताल में मरीज के पास तो सारिका ही रह सकती हैं, मैं कहां रहूंगी?’’

‘‘अस्पताल के सामने ही एक गैस्टहाउस है, वहां पर कंपनी की ओर से कमरे बुक करवा दिए हैं. यहां से कंपनी की जनसंपर्क अधिकारी अनिता भी तुम्हारे साथ जा रही हैं और वित्त विभाग के जितेंद्र सिंह भी. दोनों को ही तुम बहुत अच्छी तरह जानती हो.’’

रहिला ने राहत की सांस ली.  ‘‘इतने लोगों को ऐंबुलैंस में बैठने देंगे?’’

‘‘सिर्फ सारिकाजी को. तुम, अनिता और जितेंद्र शाम की फ्लाइट से जा रहे हो.’’

जब रहिला अस्पताल पहुंची तो राजेंद्रजी को इमरजैंसी में ऐडमिट करवा कर सारिका अपने भाई सलिल के साथ रूम में थी. दोनों भाईबहन एक स्वर में डा. रसूल के गुण गा रहे थे कि कितनी आत्मीयता से मरीज के बिलकुल ठीक हो जाने का आश्वासन दिया और उन लोगों के रहने, खाने के बारे में पूछा.

‘‘मेरे बारे में तो नहीं पूछा न?’’ रहिला ने धड़कते दिल से पूछा.

‘‘इतना समय ही कहां था उन के पास.’’

‘हां, वक्त तो मेरे पास ही खाली रहा है हमेशा कभी उसे पढ़ाने को तो कभी कोई खुशामद करने को,’ रहिला ने कड़वाहट से सोचा, ‘सारिका के साथ उस का भाई है. अत: कल औपरेशन होते ही वापस चली जाऊंगी.’  देर शाम रहिला भी सारिका के साथ औपरेशन थिएटर के बाहर खड़ी थी कि तभी थिएटर का दरवाजा खुला और डाक्टर के परिधान में रसूल बाहर आया. दोनों की नजरें मिलते ही रसूल की आंखों में पहचान की चमक उभरी, लेकिन अगले ही पल वह सारिका की ओर मुड़ा, ‘‘मैं ने चोट का मुक्कम्मल इलाज कर दिया है, अब आप ने सही तीमारदारी की तो जल्द ही आप के शौहर अपनी पुरानी फौर्म में लौट आएंगे. उन के आईसीयू में जाने से पहले आप उन्हें पल भर को देख लीजिए और फिर खुद भी आराम कीजिए. मरीज की देखभाल के लिए आप का चुस्तदुरुस्त रहना बेहद जरूरी है.’’

‘‘आप का बहुतबहुत शुक्रिया डाक्टर…’’

‘‘शुक्रिया मेरा नहीं…’’ रसूल ने बात काटी और इस से पहले कि रहिला समझ पाती वह उस की ओर देख रहा था या छत की ओर एक नर्स ने सारिका को अंदर जाने का इशारा किया. रहिला भी लपक कर उस के पीछे जाने लगी.

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‘‘अंदर सिर्फ मरीज की बीवी जा सकती है, तुम नहीं,’’ रसूल ने उसे रोका, ‘‘वैसे तुम ठहरी हुई कहां हो?’’

‘‘सामने वाले गैस्टहाउस में.’’

‘‘दैन गो देयर, यहां भीड़ लगाना मना है,’’ और रसूल तेज कदमों से आगे बढ़ गया.

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Short Story: आज मैं रिटायर हो रही हूं

कुनकुनी धूप जाड़े में तन को कितना चैन देती है यह कड़कड़ाती ठंड के बाद धूप में बैठने पर ही पता लगता है. मेरी चचिया सास ने अचार, मसाले सब धूप में रख दिए थे. खाट बिछा कर अपने सिरहाने पर तकियों का अंबार भी लगा दिया था. चादरें, कंबल और क्याक्या.

‘‘चाची, लगता है आज सारी की सारी धूप आप ही समेट ले जाएंगी. पूरा घर ही बाहर बिछा दिया है आप ने.’’

‘‘और नहीं तो क्या. हर कपड़े से कैसी गंध आ रही है. सब गीलागीला सा लग रहा है. बहू से कहा सब बाहर बिछा दे. अंदर भी अच्छे से सफाई करवा ले. दरवाजे, खिड़कियां सब खुलवा दिए हैं. एक बार तो ताजी हवा सारे घर से निकल जाए.’’

‘‘सुबह से मुग्गल धूप जलने की तेज सुगंध आ रही है. मैं सोच रही थी कि पड़ोस के गुप्ताजी के घर आज किसी का जन्मदिन होगा सो हवन करवा रहे हैं, तो आप ने ही हवन सामग्री जलाई होगी घर में.’’

‘‘कल तेरे चाचा भी कह रहे थे कि घर में हर चीज से महक आ रही है. सोचा, आज हर कोने में सामग्री जला ही दूं.’’

सलाइयां लिए स्वेटर बुनने में मस्त हो गईं चाची. उन की उंगलियां जिस तेजी से सलाइयों के साथ चलती हैं हमारा सारा खानदान हैरान रह जाता है. बड़ी फुर्ती से चाची हर काम करती हैं. रिश्तेदारी में किसी के भी घर पर बच्चा पैदा होने की खबर हो तो बच्चे का स्वेटर चाची पहले ही बुन कर रख देती हैं. दूध के पैसे देने जाती हैं तो स्वेटर साथ होता है. 60-65 के आसपास तो उन की उम्र होगी ही फिर भी लगता नहीं है कभी थक जाती होंगी. उन की बहू और मैं हमउम्र हैं और हमारे बीच में अच्छी दोस्ती भी है. हम कई बार थक जाती हैं और उन्हें देख कर अपनेआप पर शरम आ जाती है कि क्या कहेगा कोई. जवान बैठी है और बूढ़ी हड्डियां घिसट रही हैं.

‘‘चाची, आप बैठ जाओ न, हम कर तो रही हैं. हो जाएगा न… जरा चैन तो लेने दो.’’

‘‘चैन क्या होता है बेटा. आधा काम कर के भी कभी चैन होता है. बस, जरा सा ही तो रह गया है. बस, हो गया समझो.’’

‘‘मां, तुम कोई भी काम ‘मिशन’ ले कर मत किया करो. तुम तो बस, करो या मरो के सिद्धांत पर काम करती हो. कल दिन नहीं चढ़ेगा क्या? बाकी काम कल हो जाएगा न… या सारा आज ही कर के सोना है.’’

‘‘कल किस ने देखा है बेटा, कल आए न आए. कल का नाम काल…’’

‘‘कैसी मनहूस बातें करती हो मां. चलो, छोड़ो, भाभी और निशा कर लेंगी.’’

विजय भैया, चाची को खींच कर ले जाते हैं तब कहीं उन के हाथ से काम छूटता है.

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आज 15-20 दिन के बाद धूप निकली है और चाची सारा का सारा घर ही बाहर ले आई हैं. निशा के माथे के बल आज कुछ गहरे लग रहे हैं. सर्दी की वजह से उस की बांह में कुछ दिन से काफी दर्द चल रहा था. घर का जरूरी काम भी वह मुश्किल से कर पा रही थी. ऊपर से बच्चों के टैस्ट भी चल रहे हैं. सारी की सारी रसोई और सारे के सारे बिस्तर बाहर ले आने की भला क्या जरूरत थी. धूप कल भी तो निकलेगी. लोहड़ी के बाद तो वैसे भी धूप ही धूप है. सुबह तो सामान महरी से बाहर रखवा लिया, शाम को समेटते समय निशा की शामत आएगी. दुखती बांह से निशा रात का खाना बनाएगी या भारी रजाइयां और गद्दे उठाएगी. कैसे होगा उस से? कुछ कह नहीं पाएगी सास को और गुस्सा निकालेंगी बच्चों पर या विजय भैया पर.

मैं जानती हूं. आज चाची के घर परेशानी होग  बिस्तर तो परसों भी सूख जाते या 4 दिन बाद भी. टैस्ट को कैसे रोका जाएगा. और वही हुआ भी.

दूसरे दिन निशा धूप में कंबल ले कर लेटी थी और चाची उखड़ीउखड़ी थीं.

‘‘क्या हुआ चाची, निशा की बांह का दर्द कम नहीं हुआ क्या?’’

‘‘कल 4 बिस्तर जो उठाने पड़े. बस, हो गई तबीयत खराब.’’

‘‘चाची, उस की बांह में तो पहले से ही दर्द था. आप ने इतना झमेला डाला ही क्यों था. आप समझती क्यों नहीं हैं. ज्यादा से ज्यादा आप अपना तकियारजाई ले आतीं. जोशजोश में आप निशा पर कितना काम लाद देती हैं. मैं ने आप से पहले भी कहा था कि अब घर के काम में ज्यादा दिलचस्पी लेना आप छोड़ दीजिए. अपनी बहू को उस के हिसाब से सब करने दीजिए पर मानती ही नहीं हैं आप.’’

मैं ने कान में धीरे से फुसफुसा कर कहा. चाची ने गौर से मुझे देखा. मैं दावा कर सकती हूं कि चाची के साथ भी मेरा मित्रवत व्यवहार चलता है. दकियानूस नहीं हैं चाची और न ही अक्खड़. समझाओ तो समझ भी जाती हैं.

‘‘अब उस की बांह तो और दुख गई न. आप ने इतना बखेड़ा कर डाला. एक बिस्तर सुखा लेतीं. आज भी तो धूप है न… कुछ आज भी हो जाता.’’

सुनती रहीं चाची फिर धीरे से उठ कर नीचे चली गईं. वापस आईं तो उन के हाथ में लहसुन जला गरमगरम तेल था.

‘‘निशा, उठ बेटा.’’

चाची ने धीरे से निशा का कंबल खींचा. उठ कर बैठ गई निशा. उन्होंने उस की बांह में कस कर मालिश कर दी.

‘‘तुम ने बताया क्यों नहीं, बांह में दर्द है. मैं बादामसौंठ का काढ़ा बना देती. अभी नीचे गैस पर चढ़ा कर आई हूं. रमिया को समझा आई हूं कि उसे कब उतारना है…अभी गरमागरम पिएगी तो रात तक दर्द गायब हो जाएगा.’’

मैं कनखियों से देखती रही. निशा के माथे के बल धीरेधीरे कम होने लगे थे.

‘‘रात को खिचड़ी बना लेंगे,’’ चाची बोलीं, ‘‘तेरे पापा को भी अच्छी लगती है.’’

सासबहू की मनुहार मुझे बड़ी प्यारी लग रही थी. निशा चुपचाप काढ़ा पी रही थी. मेरी सास नहीं हैं और इन दोनों को देख कर अकसर मुझे यह प्रश्न सताता है कि अगर मेरी सास होतीं तो क्या चाची जैसी होतीं या किसी और तरह की. मुझे याद है, मेरे बेटे के जन्म के समय मुझे खुद पता नहीं कि चाची क्याक्या पिला दिया करती थीं. मैं मना करती तो चपत सिर पर सवार रहती.

‘‘खबरदार, फालतू बात मत करना.’’

‘‘चाची, इतना क्यों खिलाती हो?’’

‘मेरी सास कहा करती थीं कि बहू  और घोड़े को खिलाना कभी व्यर्थ नहीं जाता. तू चुपचाप खा ले जो भी मैं खिलाऊं.’’

‘‘घोड़ा और बहू एक कैसे हो गए, चाची?’’

‘‘घोड़ा ताकतवर होगा तो ज्यादा बोझ उठाएगा और बहू ताकतवर होगी तो बीमार कम पड़ेगी. बीमार कम पड़ेगी तो बेटे की कमाई, दवा पर कम लगेगी और कामों में ज्यादा. सेहतमंद बहू के बच्चे सेहतमंद होंगे और घर की बुनियाद मजबूत होगी. सेहतमंद बहू ज्यादा काम करेगी तो घर के ही चार पैसे बचेंगे न. अरे, बहू को खिलाने के फायदे ही फायदे हैं.’’

‘‘आप की सास आप को बहुत खिलाती थीं क्या?’’

‘‘तेरी सास नानुकर करती रहती थी. खानेपीने में नकारी…इसीलिए तो बीमार रहती थी. मुझे देख मैं अपनी सास का कहना मानती थी इसीलिए आज भी भागभाग कर सब काम कर लेती हूं.’’ चाची अपनी सास को बहुत याद करती हैं. अकसर मैं ने इस रिश्ते को बदनाम ही पाया है. सास भी कभी प्यार कर सकती है यह सदा एक प्रश्न ही रहा है. पराए खून और पराई संतान पर किसी को प्यार कम ही आता है. मुझे याद है जब निशा इस घर में आई थी तब मेरी शादी को 2 साल हो चुके थे. चाचाचाची अपनी दोनों बेटियां ब्याह कर अकेले रह रहे थे. विजय की नौकरी तब बाहर थी. हमारी कोठी बहुत बड़ी है. आमनेसामने 2 घर हैं, बीच में बड़ा सा आंगन. पूरे घर पर एक ही बड़ी सी छत.

मेरी भी 2 ननदें ब्याही हुई हैं और पापा की छत्रछाया में मैं और मेरे पति बड़े ही स्नेह से रहते हैं. चाचीचाचा का बड़ा सहारा है. विजय भैया शादी के बाद 2 साल तो बाहर ही रहे अब इसी शहर में उन की बदली हो गई है.  निशा के आने तक चाची ही मेरी सास थीं. मेरी दोनों ननदें बड़ी हैं. इस घर में क्या माहौल है क्या नहीं मुझे क्या पता था. मन में एक डर था कि बिना औरत का घर है, पता नहीं कैसेकैसे सब संभाल पाऊंगी, ननदें ब्याही हुई थीं…उन का भी अधिकार मित्रवत न हो कर शुरू में रोबदार था. चाची कम दखल देती थीं और लड़कियों को अपनी करने देती थीं. कुछ दिन ऐसा चला था फिर एक दिन पापा ने ही मुझे समझाया था :

‘‘मुझे अपने घर में लड़कियों का ज्यादा दखल पसंद नहीं है. इसलिए तुम जराजरा बात के लिए उन का मुंह मत देखा करो. तुम्हारी चाची हैं न. कोई भी समस्या हो, कुछ भी कहनासुनना हो तो उन से पूछा करो. लड़कियां अपने घर में हैं… जो चाहें सो करें, मेरे घर में तुम हो, मेरी छोटी भाभी हैं… एक तरह से वे भी मेरी बहू जैसी ही हैं. फिर क्यों कोई बाहर वाली हमारे घर के लिए कोई भी निर्णय ले.’’

मेरा हाथ पकड़ कर पापा चाची की रसोई में ले गए थे. सिर पर पल्ला खींच चाची ने अपने हाथ का काम रोक लिया था.

‘‘बीना, आज से इसे तुम्हें सौंपता हूं. तुम्हीं इस की मां भी हो और सास भी.’’

बरसों बीत गए हैं. मुझे वे क्षण आज भी याद हैं. चाची ने गुलाबी रंग की सफेद किनारी वाली साड़ी पहन रखी थी. माथे पर बड़ी सी सिंदूरी बिंदिया. तब चाची पूरियां तल रही थीं. आटा छिटक कर परात से बाहर जा गिरा था, हमारे घरों में ऐसा मानते हैं कि आटा परात से बाहर जा छिटके तो कोई मेहमान आता है. विजय भैया और चाचा तब नाश्ता कर रहे थे.

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‘‘मां, तुम्हारा आटा छिटका…देखो आज कौन आता है.’’

ये दोनों बातें साथसाथ हुई थीं. रसोई में मेरा प्रवेश करना और चाची का आटा छिटकना.

‘‘जी सदके… मेहमान क्यों आज तो मेरी बहूरानी प्रीति आई है…आजा मेरी बच्ची…’’

अकसर ऐसा होता है न कभीकभी जब हम स्वयं नहीं जानते कि हम कितने उदास हो चुके हैं. मायका दूर था…घर में करने वाली मैं अकेली औरत, पापा और मेरे पति अजय के जाने के बाद घर में अकेली घुटती रहती थी या जराजरा बात के लिए अपनी ननदों को फोन करती. शायद पापा को उस दिन पहली बार मेरी समस्या का खयाल आया था.

…और चाची ने बांहें फैला कर जो उस पल छाती से लगाया तो वह स्नेहिल स्पर्श मैं आज तक भूली नहीं हूं. रोने लगी थी मैं. शायद उस पल की मेरी उदासी इतनी प्रभावी थी कि सब भीगभीग से गए थे. पापा आंखें पोंछ चले गए थे. विजय भैया ने मेरा सिर थपक दिया था.

‘‘हम हैं न भाभी. रोइए मत. चुप हो जाइए.’’

वह दिन और आज का दिन, चाची से ऐसा प्यार मिला कि अपना मायका ही भूल गई मैं. चाची मेरी सखी भी बन गईं और मेरी मां भी.

मेरे दोनों बेटों के जन्म पर चाची ने ही मुझे संभाला. विजय भैया की शादी में चाची ने हर जिम्मेदारी मुझ पर डाल रखी थी. निशा के गहनों में, चूडि़यों में, गले के हारों में, कपड़ों में सूटसाडि़यों से शालस्वेटरों तक चाची ने मेरी ही राय को प्राथमिकता दी थी. निशा भी हिलीमिली सी लगी. आते ही मुझ से  प्यार संजो लिया उस ने भी. लगभग 8 साल हो गए हैं निशा की शादी को और 10 साल मुझे इस घर में आए. बहुत अच्छी निभ रही है हम में. एक उचित दूरी और संतुलन रख कर हमारा रिश्ता बड़ा अच्छा चल रहा है. निशा के माथे पर जरा सा बल पड़े तो समझ जाती हूं मैं.

‘‘चाची, आप थोड़ाथोड़ा अपना हाथ खींचना शुरू कर दीजिए न. उसे उसी के तरीके से करने दीजिए, अब आप की जिम्मेदारी खत्म हो चुकी है. जरा देखिए, हम कैसेकैसे सब करती हैं, कहीं कोई परेशानी आएगी तो पूछ लेंगे न.’’

‘‘मैं बेकार हो जाऊंगी तब. हाथपैर ही न चलाए तो आज ही जंग लग जाएगा.’’

‘‘जंग कैसे लगेगा. सुबह उठ कर चाचाजी के साथ सैर करने जाइए, रसोई के अंदर जरा कम जाइए. बाहर से मदद कर दीजिए, सब्जी काट दीजिए, सलाद काट दीजिए. सूखे कपड़े तह कर के अलगअलग रख दीजिए. कितने ही हलकेफुलके काम हैं…जराजरा अपने अधिकार कम करना शुरू कीजिए.’’

‘‘तुझे क्या लगता है कि मैं अनावश्यक अधिकार जमाती हूं? निशा ने कुछ कहा है क्या?’’

‘‘नहीं चाची, उस ने क्या कहना है. मैं ही समझा रही हूं आप को. अब आप चिंता मुक्त हो कर जीना शुरू कीजिए, सुबहसुबह उठ कर नहाधो कर रसोई में जाने की अब आप को क्या जरूरत है, फिर आप के जोड़ भी दुखते हैं.

‘‘ऐसा कौन बरात का खाना बनाना होता है. 10 बजे तक सारे काम निबटा देना आप की कोई जरूरत तो नहीं है न. 7 बजे उठ कर भी नाश्ता बन सकता है. दोपहर का तो 2 बजे चाहिए, इतनी हायतौबा सुबहसुबह किसलिए. अपने वक्त किया न आप ने, अब निशा का वक्त शुरू हुआ है तो करने दीजिए उसे. रिटायर हो जाइए अब आप.’’

चाची चुपचाप सुनती रहीं. मुझे डर भी लग रहा था कि कहीं यह मेरी अनावश्यक सुलह ही प्रमाणित न हो जाए. कहीं निशा यही न समझ ले कि मैं ही सासबहू में दुख पैदा कर रही हूं. सच तो यह है कि सास कभीकभी बिना वजह अपनी हड्डियां तोड़ती रहती हैं, जो बेटे की गृहस्थी में योगदान नहीं बनता बल्कि एक अनचाहा बोझ बन जाता है.

‘‘अब मां ने कर ही दिया है तो ठीक है, यों ही सही.’’

‘‘मैं ने तो सोचा था आज कोफ्ते बनाऊंगी… मां ने सुबहसुबह उठ कर दाल चढ़ा दी.’’

‘‘हम सोच रहे थे कि इस इतवार नई पिक्चर देखने जाएंगे पर मां ने मामीजी को खाने पर बुला लिया.’’

‘‘जोड़ों का दर्द है मां को तो सुबहसुबह क्यों उठ जाती हैं. सारा दिन खाली ही तो रहते हैं हम. इतनी मारधाड़ भी किसलिए.’’

निशा का स्वर कई बार कानों मेें पड़ जाता है जिस कारण मुझे चिंता भी होने लगती है. चाची का ममत्व अनचाहा न बन जाए. वे तो सदा से इसी तरह करती आ रही हैं न. सो आज भी करती हैं. उन्हें लगता है कि वे बहू की सहायता कर रही हैं जबकि बहू को सहायता चाहिए ही नहीं. अकसर यह भी देखने में आता है कि बहू नकारा होती नहीं है बस, सास के अनुचित सेवादान से नकारी हो जाती है. जाहिर सी बात है, जिस तरह एक म्यान में 2 तलवारें नहीं समा सकतीं उसी तरह 2 मंझे हुए कलाकार, 2 बहुत समझदार लोग, 2 कमाल के रसोइए एक ही साथ काम नहीं कर सकते, क्योंकि दोनों ही ‘परफैक्ट’ हैं, दोनों ही संपूर्ण हैं.

रात भर मुझे नींद नहीं आई, पता नहीं सुबह क्या दृश्य मिलेगा, सुबह 6 बजे उठी तो देखा सामने चाची की रसोई में अंधेरा था. कहीं चाची बीमार तो नहीं हो गईं. वे तो 6 बजे तक नहाधो कर सब्जियां भी चढ़ा चुकी होती हैं. कहीं मेरी ही कोई बात उन्हें बुरी तो नहीं लग गई जो कुछ मन पर ले लिया हो.  लपक कर चाची का दरवाजा खटखटा दिया. ‘‘आ जाओ बेटी, दरवाजा खुला है,’’ चाचा का स्वर था.

भीतर जा कर देखा तो नया ही रंग नजर आया. चाची रजाई में बैठी आराम से अखबार पढ़ रही थीं. मेज पर चाय के खाली कप पड़े थे. मेरी तरफ देखा चाची ने. एक प्यारी सी हंसी आ गई उन के होंठों पर.

‘‘चाची, आप ठीक तो हैं न,’’ मैं ने पूछा.

‘‘यह तो मैं भी पूछ रहा हूं. कह रही है कि आज से मैं रिटायर हो रही हूं. रात को ही इस ने निशा को समझा दिया कि सुबह से वही रसोई में जाएगी मैं नहीं… पता नहीं इसे एकाएक क्या सूझा है… मैं समझाता रहा…मेरी तो सुनी ही नहीं… आज अचानक से इस में इतना बड़ा परिवर्तन…’’

चाचा अपनी ऐनक उतार स्नानागार में चले गए और मैं मंत्रमुग्ध सी चाची का एक और प्यारा सा रूप देखती रही.

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क्षितिज के उस पार

‘‘मां, क्या इस शनिवार भी पिताजी नहीं आएंगे?’’  अंजू ने मुझ से तीसरी बार पूछा था. मैं खुद समझ नहीं पा रही थी. अभय का न तो पिछले कुछ दिनों से फोन ही आया था, न कोई खबर. सोचने लगी कि क्या होता जा रहा है उन्हें. पहले तो कितने नियमित थे. हर शनिवार को हम लोग उन के पास चले जाते थे 2 दिन के लिए और अगले शनिवार को उन्हें आना होता था. सालों से यह क्रम चला आ रहा था, पर पिछले 2 महीनों से उन का आना हो ही नहीं पाया था. बच्चियों के इम्तिहान करीब थे, इसलिए उन्हें भी ले जाना संभव नहीं था. मैं ही 2 बार हो आई थी, पर क्या अभय को बच्चियों की भी याद नहीं आती होगी?

‘‘मां, पिताजी तो इस बार मेरे जन्मदिन पर भी आना भूल गए…’’ मंजू ने रोंआसे स्वर में कहा था.

‘‘हां…और क्या…इस बार वह आएंगे न तो मैं उन से कुट्टी कर लूंगी…मैं नहीं जाऊंगी कहीं भी उन की कार में घूमने…’’

‘‘अरे, पहले पिताजी आएं तो सही…’’ अंजू ने मंजू को चिढ़ाते हुए कहा था.

‘‘ऐसा करते हैं, शाम तक उन का इंतजार कर लेते हैं, नहीं तो फिर मैं ही सुबह की बस से चली जाऊंगी…आया रह लेगी तुम लोगों के पास…क्या पता, उन की तबीयत ही ठीक न हो या फिर दादीजी बीमार हों,’’ मैं आशंकाओं में घिरती जा रही थी. रात को ठीक से नींद भी नहीं आ पाई थी. मन देर तक उधेड़बुन में ही लगा रहा. अगर बीमार थे या कोई और बात थी तो खबर तो भेज ही सकते थे. यों अहमदाबाद से आबूरोड इतना अधिक दूर भी तो नहीं है. फिर इतने सालों से आतेजाते तो यह दूरी और भी कम लगने लगी है.

इन गरमियों में हमारी शादी को पूरे 9 वर्ष हो जाएंगे. मुझे आज भी याद है वह घटना जब अभय से मेरी गृहस्थी से संबंधित बातचीत हुई थी. शुरूशुरू में जब मुझे अहमदाबाद में नौकरी मिली थी तब मैं कितना घबराई थी, ‘तुम राजस्थान में हो…हम लोग एक जगह तबादला भी नहीं करवा पाएंगे.’

‘तो क्या हुआ…मैं हर हफ्ते आता रहूंगा,’ अभय ने समझाया था.

समय अपनी गति से गुजरता रहा.

अभय को अभी 2 छोटी बहनों की शादी करनी थी. पिता का देहांत हो चुका था. बैंक में मात्र क्लर्क की ही तो नौकरी थी उन की. मेरा अचानक ही कालेज में व्याख्याता पद पर चयन हो गया था. यह अभय की ही हिम्मत और प्रेरणा थी कि मैं यहां अलग फ्लैट ले कर बच्चियों के साथ रह पाई थी. छोटी ननद भी तब मेरे साथ ही आ गई थी. यहीं से कोई कोर्स करना चाहती थी. अलग रहते हुए भी मुझे कभी लगा नहीं था कि मैं अभय से दूर हूं. वह अकसर दफ्तर से कालेज फोन कर लेते. शनिवार, इतवार को हम लोग मिल ही लेते थे.

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घर की आर्थिक दशा भी धीरेधीरे सुधरने लगी थी. बड़ी ननद का धूमधाम से विवाह कर दिया था. फिर पिछले साल छोटी भी ब्याह कर ससुराल चली गई. कुछ समय बाद अभय की भी पदोन्नति हो गई थी. महीने पहले ही आबूरोड में बैंक मैनेजर हो कर आए थे. नई कार ले ली थी, पर अब एक नई जिद शुरू हो गई थी. वे अकसर कहते, ‘रितु, तुम अब नौकरी छोड़ दो…मुझे अब स्थायी घर चाहिए. यह भागदौड़ मुझ से नहीं होती है और फिर मां का भी स्वास्थ्य अब ठीक नहीं रहता है…’

मैं हैरान हो गई थी, ‘5 साल हो गए, इतनी अच्छी नौकरी है, फिर जब बच्चियां छोटी थीं, इतनी परेशानियां थीं तब तो मैं नौकरी करती रही. अब तो मुझ में आत्म- विश्वास आ गया है. बच्चियां भी स्कूल जाती हैं. इतनी जानपहचान यहां हो गई है कि कोई परेशानी नहीं. अब भला नौकरी छोड़ने में क्या तुक है?’

पिछली बार यही सब जब मैं ने कहा था तो अभय झल्ला कर बोले थे, ‘तुम समझती क्यों नहीं हो, रितु. तब जरूरत थी, मुझे बहनों की शादी करनी थी, पैसा नहीं था, पर अब तो ऐसी कोई बात नहीं है.’

‘क्यों, अंजू, मंजू के विवाह नहीं करने हैं?’ मैं ने भी तुनक कर जवाब दिया था.

‘उन के लिए मेरी तनख्वाह काफी है,’ उन्होंने एक ही वाक्य कहा था.

मैं फिर कुछ नहीं बोली थी, पर अनुभव कर रही थी कि पिछले कुछ दिनों से यही मुद्दा हम लोगों के आपसी तनाव का कारण बना हुआ था. कितनी ही बहस कर लो, हल तो कुछ निकलने वाला नहीं था. पर अब मैं नौकरी कैसे छोड़ दूं? इतने साल तक एक कामकाजी महिला रहने के बाद अब नितांत घरेलू बन कर रह जाना शायद मेरे लिए संभव भी नहीं था.

ठीक है, मां बीमार सी रहती थीं पर नौकर भी तो था. फिर हम लोग भी आतेजाते ही रहते थे. अहमदाबाद में बच्चियां अच्छे स्कूल में पढ़ रही थीं.

‘साल दो साल बाद तुम्हारा तबादला भी तो होता रहता है,’ मैं ने तनिक गुस्से में कहा था.

‘जिन के तबादले होते रहते हैं उन के बच्चे क्या पढ़ते नहीं?’ अभय ने चिढ़ कर कहा था. मैं क्या कहती? सोचने लगी कि इन्हें मेरी नौकरी से इतनी चिढ़ क्यों होने लगी है? कारण मेरी समझ से परे था. यों भी हम लोग कुछ समय के लिए ही मिल पाते थे. इसलिए जब भी मिलते, समय आनंद से ही गुजरता था.

शुरू में बातों ही बातों में एक दिन उन्होंने कहा था, ‘रितु, मेरा तो अब मन करता है कि तुम लोग सदा मेरे साथ ही रहो. अब और अलग रहना मुझे अच्छा नहीं लगता है.’ मैं तो तब भी नहीं समझी थी कि यह सब अभय गंभीरता से कह रहे हैं. बाद में जब उन्होंने यही सब बारबार कहना शुरू कर दिया, तब मैं चौंकी थी, ‘आखिर तुम अब क्यों नहीं चाहते कि मैं नौकरी करूं? अचानक तुम्हें क्या हो गया है?’ ‘रितु, मैं ने बहुत सोच कर देखा है, इस तरह तो हम हमेशा ही अलगअलग रहेंगे. फिर अब जब आर्थिक स्थिति भी पहले से बेहतर है, तब क्यों अनावश्यक रूप से यह तनाव झेला जाए? बारबार आना मुश्किल है, मेरा पद भी जिम्मेदारी का है, इसलिए छुट्टियां भी नहीं मिल पातीं.’

मुझे अब यह प्रसंग अरुचिकर लगने लगा था, इसलिए मैं ने उन्हें कोई जवाब ही नहीं दिया था.

रात को नींद देर से ही आई थी. सुबह फिर मैं ने आया को बुला कर सारा काम समझा दिया था. बच्चियों की पढ़ाई आवश्यक थी. इसलिए उन्हें साथ ले जाने का इरादा नहीं था.

बस का 4-5 घंटे का सफर ही तो था, पर रात को सो न पाने की वजह से बस में ही झपकी लग गई थी. जब एक जगह बस रुकी और सब लोग चायनाश्ते के लिए उतरे, तभी ध्यान आया कि सुबह मैं ने ठीक से नाश्ता नहीं किया था, पर अभी भी कुछ खाने की इच्छा नहीं थी. बस, एक प्याला चाय मंगा कर पी. मन फिर आशंकित होने लगा था कि पता नहीं, अभय क्यों नहीं आ पाए.

आबूरोड बस स्टैंड से घर पास ही था. रिकशा कर के जब घर पहुंची तो अभय घर से निकल ही रहे थे.

‘‘रितु, तुम?’’ अचानक मुझे इस तरह आया देख शायद वह चौंके थे.

‘‘इतने दिनों से आए क्यों नहीं?’’ मैं ने अटैची रख कर सीधे प्रश्न दाग दिया था.

‘‘अरे, छुट्टी ही नहीं मिली… आवश्यक मीटिंग आ गई थी. आज भी दोपहर को कुछ लोग आ रहे हैं, इसीलिए तो तुम्हें फोन करने जा रहा था. चलो, अंदर तो चलो.’’

अटैची उठा कर अभय भीतर आ गए थे.

घर इस बार साफसुथरा और सजासंवरा लग रहा था, नहीं तो यहां पहुंचते ही मेरा पहला काम होता था सबकुछ व्यवस्थित करना. मांजी भी अब कुछ स्वस्थ लगी थीं.

‘‘शालू…चाय बनाना अच्छी सी…’’ अभय ने कुछ जोर से कहा था.

मैं सहसा चौंकी थी.

‘‘अरे, शालिनी है न…पड़ोस ही में तो रहती है. वही आ जाती है मां को संभालने…बीच में तो ये काफी बीमार हो गई थीं…मुझे दिन भर बाहर रहना पड़ता है, शालिनी ने ही इन्हें संभाला था.’’

तभी मुझे कुछ ध्यान आया. पिछली बार आई थी, तब मांजी ने ही कहा था, ‘पड़ोस में रामबाबू हैं न…रिटायर्ड हैडमास्टर साहब, उन की बेटी यहीं स्कूल में पढ़ाती है. बापबेटी ही हैं. बड़ी समझदार बिटिया है. मां नहीं है उस की, दिन में 2 बार पूछ जाती है.’

‘‘दीदी, चाय लीजिए,’’ शालिनी चाय के साथ बिस्कुटनमकीन भी ले आई थी. दुबलीपतली, सुंदर, घरेलू सी लड़की लगी थी. फिर वह बोली, ‘‘आप जल्दी से नहाधो लीजिए. मैं ने खाना बना लिया है. आप तो थकी होंगी, मैं अभी गरमागरम फुलके सेंक देती हूं.’’

मैं कुछ कह न पाई थी. मुझे लगा कि अपने ही घर में जैसे मेहमान बन कर आई हूं. मैं सोचने लगी कि यह शालिनी घर की इतनी जिम्मेदार सदस्या कब से हो गई?

अटैची से कपड़े निकाल कर मैं नहाने चली गई थी.

‘‘वह बहादुर कहां गया है?’’ बाथरूम से निकल कर मैं ने पूछा.

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‘‘छुट्टी पर है. आजकल तो शालू सुबहशाम खाना बना देती है, इसलिए घर चल रहा है. वाह, कोफ्ते…और मटर पुलाव…वाह, शालूजी, दिल खुश कर दिया आप ने,’’ अभय चटखारे ले कर खा रहे थे.

मेरे मन में कुछ चुभा था. रसोई का काम छोड़े मुझे काफी समय हो गया था. नौकरी और फिर घर पर बच्चों की संभाल के कारण आया ही सब कर लेती थी. यहां पर बहादुर था ही.

‘रितु, तुम्हारे हाथ का खाना खाए अरसा हो गया. कहीं खाना पकाना भूल तो नहीं गईं,’ अभय कभी कह भी देते थे.

‘यह भी कोई भूलने की चीज है. फिर ये लोग ठीक ही बना लेते हैं.’

‘पर गृहिणी की तो बात ही और होती है.’

मैं समझ जाती थी कि अभय चाहते हैं कि मैं खुद उन के लिए कुछ बनाऊं पर फिर बात आईगई हो जाती.

अचानक अभय बोले, ‘‘तुम्हें पता है, शालू बहुत अच्छा सितार बजाती है?’’

अभय ने कहा तो मुझे लगा कि जैसे मैं यहां शालू के ही बारे में सबकुछ जानने आई हूं. मन खिन्न हो उठा था. खाना खातेखाते ही फिर अभय ने कहा, ‘‘शालू, तुम्हें बाजार जाना था न. दफ्तर जाते समय तुम्हें छोड़ता जाऊंगा.’’

‘‘ठीक है,’’ शालिनी भी मुसकराई थी.

मैं सोच रही थी कि इतने दिनों बाद मैं यहां आई हूं, अभय को न तो मेरे बारे में कुछ जानने की इच्छा है, न घर के बारे में और न ही बच्चियों के बारे में. बस, एक ‘शालू…शालू’ की रट लगा रखी थी.

‘‘अच्छा, मैं चलूंगा.’’

‘‘ठीक है,’’ मैं ने अंदर से ही कह दिया था. तभी खिड़की से देखा, शालिनी कार में अगली सीट पर अभय के बिलकुल पास बैठी थी. पता नहीं अभय ने क्या कहा था, उस के मंद स्वर में हंसने की आवाज यहां तक आई थी.

मन हुआ कि अभी इसी क्षण लौट जाऊं. सोचने लगी कि आखिर मैं यहां आई ही क्यों थी?

मांजी खाना खा कर शायद सो गई थीं. मेज पर रखा अखबार उठाया, पर मन पढ़ने में नहीं लगा था.

अभय शायद 2 घंटे बाद लौटे थे. मैं ने उठ कर चाय बनाई.

‘‘रितु, रात का खाना हमारा शालू के यहां है,’’ अभय ने कहा था.

‘‘शालू…शालू…शालू…मैं क्या खाना भी नहीं बना सकती. समझ में नहीं आता कि तुम लोग क्यों उस के इतने गुलाम बने हुए हो. बहादुर छुट्टी पर क्या गया, लगता है, उस छोकरी ने इस घर पर आधिपत्य ही जमा लिया है.’’

‘‘रितु, क्या हो गया है तुम्हें? इस तरह तो तुम कभी नहीं बोलती थीं. घर का कितना ध्यान रखती है शालिनी…तुम्हें कुछ पता भी है? तुम्हें तो अपनी नौकरी… अपने कैरियर के सिवा…’’

‘‘हां, सारी अच्छाइयां उसी में हैं…मैं अभद्र हूं…बहुत बुरी हूं…कह लो जो कुछ कहना है…मैं क्या जानती नहीं कि उस का जादू तुम्हारे सिर पर चढ़ कर बोल रहा है. उसे घुमानेफिराने के लिए समय है तुम्हारे पास…और बीवी, जो इतने दिनों बाद मिली है, उस के पास दो घड़ी बैठ कर बात भी नहीं कर सकते.’’

‘‘वह बात करने लायक भी तो हो…’’ अभय भी चीखे थे…और चाय का प्याला परे सरका दिया था. फिर मेरी ओर देखते हुए बोले, ‘‘क्यों बात का बतंगड़ बनाने पर तुली हो?’’

‘‘बतंगड़ मैं बना रही हूं कि तुम? क्या देख नहीं रही कि जब से आई हूं तब से शालू…शालू की रट लगा रखी है…यह सब तो मेरे सामने हो रहा है…पता नहीं पीठ पीछे क्याक्या गुल…’’

‘‘रितु…’’ अभय का एक जोर का तमाचा मेरे गाल पर पड़ा. मैं सचमुच अवाक् थी. अभय कभी मुझ पर हाथ भी उठा सकते हैं, मैं तो ऐसा सपने में भी नहीं सोच सकती थी. मेरा इतना अपमान…वह भी इस लड़की की खातिर…

तकिए में मुंह छिपा कर मैं सिसक पड़ी थी…अभय चुपचाप बाहर चले गए थे. शायद उन्होंने महरी से कहा था कि शालिनी के यहां खाने के लिए मना कर दे. मांजी तो शाम को खाना खाती नहीं थीं. उन्हें दूध दे दिया था. मैं सोच रही थी कि अभय कुछ तो कहेंगे, माफी मांगेंगे फिर मैं रसोई में जा कर कुछ बना दूंगी…पर वे तो बैठक में बैठे सिगरेट पर सिगरेट पीते जा रहे थे. मन फिर जल उठा कि आखिर ऐसा क्या कर दिया मैं ने. शायद इस तरह बिना किसी पूर्व सूचना के आ कर उन के कार्यक्रम को चौपट कर दिया था, उसी का इतना गम होगा. गुस्से में आ कर मैं ने फिर अटैची में कपड़े ठूंस लिए थे.

‘‘मैं जा रही हूं…अहमदाबाद…’’ मैं ने ठंडे स्वर में कहा था.

‘‘अभी…इस समय?’’

‘‘हां…अभी बस मिल जाएगी…’’

‘‘कल चली जाना, अभी तो रात काफी हो गई है.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है,’’ मैं भी जिद पर आमादा थी. शायद अभय के थप्पड़ की कसक अब तक गालों पर थी.

‘‘ठीक है, मैं छोड़ आता हूं…’’

अभय चुपचाप कार निकालने चले गए थे. मैं और भी जलभुन गई थी कि कितने आतुर हैं मुझे वापस छोड़ आने को. मैं चुप थी…और अभय भी चुपचाप गाड़ी चला रहे थे. मेरी आंखें छलछला आईं कि कभी यह रास्ता कितना खुशनुमा हुआ करता था.

‘‘रितु, मैं ने बहुत सोचविचार कर देख लिया है…तुम्हें अब यह नौकरी छोड़नी पड़ेगी…और कोई चारा नहीं है…’’ अभय ने जैसे एक हुक्म सा सुना डाला था.

‘‘क्यों, क्या कोई लौंडीबांदी हूं मैं आप की, कि आप ने फरमान दे दिया, नौकरी करो तो मैं नौकरी करने लगूं…आप कहें नौकरी छोड़ दो…तो मैं नौकरी छोड़ दूं?’’

‘‘हां, यही समझ लो…क्योंकि और किसी तरह से तो तुम समझना ही नहीं चाहती हो और ध्यान से सुन लो, अगर तुम अब अपनी जिद पर अड़ी रहीं तो मैं भी मजबूर हो कर…’’

‘‘क्या? क्या करोगे मजबूर हो कर, मुझे तलाक दे दोगे? दूसरी शादी कर लोगे उस…अपनी चहेती…क्या नाम है, उस छोकरी का…शालू के साथ?’’ गुस्से में मेरा स्वर कांपने लगा था.

‘‘बंद करो यह बकवास…’’ अभय का कंपकंपाता बदन निढाल सा हो गया था. गाड़ी डगमगाई थी. मैं कुछ समझ नहीं पाई थी. सामने से एक ट्रक आता दिखा था और गाड़ी काबू से बाहर थी.

‘‘अभय…’’ मैं ने चीख कर अभय को खींचा था और तभी एक जोरदार धमाका हुआ था. गाड़ी किसी बड़े से पत्थर से टकराई थी.

‘‘क्या हुआ, क्या हुआ?’’ 2-3 साइकिल सवार उतर कर पूछने लगे थे. ट्रक ड्राइवर भी आ गया था, ‘‘बाबूजी, क्या मरने का इरादा है? भला ऐसे गाड़ी चलाई जाती है…मैं ट्रक न रोक पाता तो… वह तो अच्छा हुआ कि गाड़ी पत्थर से ही टकरा कर रुक गई, मामूली ही नुकसान हुआ है.’’

मैं ने अचेत से पड़े अभय को संभालना चाहा था, डर के मारे दिल अभी तक धड़क रहा था.

‘‘अभय, तुम ठीक तो हो न…?’’ मेरा स्वर भीगने लगा था.

‘‘यह तो अच्छा हुआ बहनजी…आप ने इन्हें खींच लिया वरना स्टियरिंग पेट में घुस जाता तो…’’ ट्रक ड्राइवर कह रहा था.

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अभय ने मेरी तरफ देखा तो मैं ने आंखें झुका ली थीं.

‘‘बाबूजी, इस समय गाड़ी चलाना ठीक नहीं है, आगे की पुलिया भी टूटी हुई है. आप पास के डाकबंगले में रुक जाइए, सुबह जाना ठीक होगा…गाड़ी की मरम्मत भी हो जाएगी,’’ ड्राइवर ने राय दी.

‘‘हां…हां, यही ठीक है…’’ मैं सचमुच अब तक डरी हुई थी.

डाकबंगला पास ही था. मैं तो निढाल सी बाहर बरामदे में पड़ी कुरसी पर ही बैठ गई थी. अभय शायद चौकीदार से कमरा खोलने के लिए कह रहे थे.

‘‘बाबूजी, खाना खाना चाहें तो अभी पास के ढाबे से मिल जाएगा…फिर तो वह भी बंद हो जाएगा,’’ चौकीदार ने कहा था.

‘‘रितु, तुम अंदर कमरे में बैठो, मैं खाना ले कर आता हूं,’’ कहते हुए अभय बाहर चले गए थे.

साधारण सा ही कमरा था. एक पलंग बिछा था. कुछ सोच कर मैं ने बैग से चादर, कंबल निकाल कर बिछा दिए थे. फिर मुंह धो कर गाउन पहन लिया. अभय को बड़ी देर हो गई थी खाना लाने में. सोचने लगी कि पल भर में ही क्या हो जाता है.

एकाएक मेरा ध्यान भंग हुआ था. अभय शायद खाना ले कर लौट आए थे.

अभय ने साथ आए लड़के से प्लेटें मेज पर रखने को कहा था.

खाना खाने के बाद अभय ने एक के बाद दूसरी और फिर तीसरी सिगरेट सुलगानी चाही थी.

‘‘बहुत सिगरेट पीने लगे हो…’’ मैं ने धीरे से उन के हाथ से लाइटर ले लिया था और पास ही बैठ गई थी, ‘‘इतनी सिगरेट क्यों पीने लगे हो?’’

‘‘दूर रहोगी तो कुछ तो करूंगा ही…’’ पहली बार अभय का स्वर मुझे स्वाभाविक लगा था, ‘‘थक गया हूं रितु, ठीक है तुम नौकरी मत छोड़ना, मैं ही समय से पहले सेवानिवृत्त हो जाऊंगा, बस, अब तो खुश हो,’’ उन्होंने और सहज होने का प्रयास किया था…और मुझे पास खींच लिया था. फिर धीरे से मेरे उस गाल को सहला दिया था जहां शाम को थप्पड़ लगा था.

‘‘नहीं अभय, मैं नौकरी छोड़ दूंगी… आखिर मेरी सब से बड़ी जरूरत तो तुम्हीं हो,’’ कहते हुए मेरा गला रुंध गया था.

‘‘सच…क्या सच कह रही हो रितु?’’ अभय ने मेरी आंखों में झांका.

‘‘हां सच, बिलकुल सच,’’ मैं ने धीरे से कहते हुए अपना सिर अभय के कंधे पर टिका दिया था.

मन का रिश्ता: खून के रिश्तों से जुड़ी एक कहानी

मेरे हाथों में मेहंदी लगी देख सुदेश ने सवाल उछाल दिया, ‘‘यह मेहंदी किस खुशी में लगाई है? कोई शादीब्याह, तीजत्योहार या व्रतउपवास है क्या?’’

जवाब में मैं ने भी प्रश्न ही उछाल दिया, ‘‘आप को मालूम है…मधु की शादी तय हो गई है?’’

‘‘कौन मधु?’’

‘‘आप भी न कमाल करते हैं. अरे, हमारे पड़ोसी विपिनजी की बेटी, जिसे आप बचपन से देखते आ रहे हैं. सुंदर, सुशील, प्रतिभाशाली और काम में निपुण…’’ मेरी बात अधूरी ही रह गई जब सुदेश ने बात काटते हुए प्रश्न किया, ‘‘वही मधु न जिसे विपुल ने रिजेक्ट कर दिया था?’’

‘‘रिजेक्ट नहीं किया था,’’ मैं तमतमा उठी. मानो मेरा अपना अपमान हुआ हो. ‘‘उसे सौम्या पसंद थी. उस से प्यार करता था वह. खैर, वे सब पुरानी बातें हो गईं. मुझे तो खुशी है मधु को भी अच्छा घरवर मिल गया. शादी अच्छे से संपन्न हो जाए.’’

‘‘हुंह…बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना. तुम्हें हमेशा दूसरों के सुखचैन की पड़ी रहती है,’’ कहते हुए उन्होंने फाइलों में मुंह छिपा लिया. मैं सोच में डूब गई. शायद बेटा विपुल और ये ठीक ही कहते हैं. न जाने क्यों मुझ से किसी का बुरा सोचा ही नहीं जाता. चाहे वह आत्मीय हो या अजनबी, हमेशा हर एक के लिए दुआ ही निकलती है.

सुदेश तो कई बार समझाने भी लग जाते हैं कि तुम्हें थोड़ा व्यावहारिक होना चाहिए. सांसारिक दृष्टिकोण रखना कोई बुरी बात नहीं है. पर मैं चाह कर भी अपनेआप को बदल नहीं पाती.

विपुल हंसते हुए कहता है, ‘पापा, हमारी मम्मी इस ग्रह की नहीं हैं, किसी दूसरे ग्रह की प्राणी लगती हैं.’ मैं भी उन के मजाक में शामिल हो जाती. पर मुझे हमेशा यही लगता कोई इनसान इतना आत्मकेंद्रित कैसे हो सकता है? आखिर इनसानियत भी तो कोई चीज है.  मधु के साथ अनजाने में मुझ से जो अपराध हुआ था, वह मुझे हमेशा सालता रहता था. दरअसल सुंदर, गुणी मधु से मैं हमेशा से प्रभावित थी और उसे अपनी बहू बनाने का सपना भी देखती थी. जाने- अनजाने अपना यह सपना मैं मधु और उस के घर वालों पर भी प्रकट कर चुकी थी और वे भी इस रिश्ते से मन ही मन बेहद खुश थे. सुदर्शन, इंजीनियर दामाद उन्हें घर बैठे जो मिल रहा था.

विपुल दूसरे शहर में नौकरी करने लगा था. इस बार जब वह छुट्टी ले कर आया तो मैं ने अपना मंतव्य उस पर प्रकट कर दिया. हालांकि पहले भी मैं उसे मधु को ले कर छेड़ती रहती थी, लेकिन इस बार जब उस ने मुझे गंभीर और शादी की तिथि निश्चित करने के लिए जोर डालते देखा तो वह भी गंभीर हो उठा.‘मम्मी, मैं अपनी सहकर्मी सौम्या से प्यार करता हूं और उसी से शादी करूंगा.’

मुझे झटका सा लगा था, ‘पर बेटे…’

‘प्लीज मम्मी, शादी मेरा निहायत व्यक्तिगत मामला है. मैं इस में आप की पसंद को अपनी पसंद नहीं मान सकता. मुझे उस के साथ पूरी जिंदगी गुजारनी है.’

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‘मधु हर तरह से तुम्हारे लिए उपयुक्त है, बेटा. निहायत शरीफ…’ मैं ने अपना पक्ष रखना चाहा.  ‘आई एम सौरी, जिस लड़की से मैं प्यार नहीं करता उस से शादी नहीं कर सकता,’ विपुल इतना कह चला गया. मैं बिलकुल टूट सी गई थी. लेकिन सुदेश ने भी मुझे ही दोषी ठहराया था, ‘गलती तुम्हारी है इंदु. तुम्हें मधु या उस के घर वालों से कोई भी वादा करने से पहले विपुल से पूछ लेना चाहिए था.’

मैं ने अपनी गलती मान ली थी. मधु और उस के घर वालों के सम्मुख वस्तुस्थिति स्पष्ट करते हुए मैं ने क्षमा भी मांग ली थी. मधु ने तो मेरी मजबूरी समझ ली थी. हालांकि उस के चेहरे से लग रहा था कि उसे गहरा धक्का लगा है पर उस के घरवाले काफी उत्तेजित हो गए थे. खूब खरीखोटी सुनाई उन्होंने मुझे. मैं ने गरदन झुका कर सबकुछ सुन लिया था. आखिर गलती मेरी थी. ऊपर से संबंध भले ही फिर से सामान्य हो गए थे पर कहीं कोई गांठ पड़ गई थी. पहले वाली बेतकल्लुफी और अपनापन कहीं खो सा गया था. विपुल की शादी में वे शामिल नहीं हुए. पूरा परिवार ही शहर से बाहर चला गया था. इरादतन या संयोगवश, मैं आज तक नहीं जान पाई. स्वभाववश मैं ने हमेशा की तरह यही कामना की थी कि मधु को भी जल्दी ही अच्छा घरवर मिल जाए. और एक दिन मधु की मां खुशीखुशी शादी का कार्ड पकड़ा गई थीं. मैं ने उन्हें गले से लगा लिया था.

‘‘सच कहूं बहन, आप से भी ज्यादा आज मैं खुश हूं,’’ और इसी खुशी में मैं ने अपने हाथों में मेहंदी रचा ली थी. ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ जैसा पति का व्यंग्य भी मेरी खुशी को कम नहीं कर सका था. बहुत उत्साह से मैं ने शादी की सभी रस्मों में भाग लिया और फिर भारी मन से बेटी की तरह मधु को विदा किया.

मधु की शादी के बाद विपुल और सौम्या घर आए तो मैं मधु की विदाई का गम भूल उन के सत्कार में लग गई. सौम्या भी बहुत अच्छी लड़की थी. मुझे उस पर भी बेटी सा स्नेह उमड़ आता था. बापबेटे हमेशा की तरह मुझ पर हंसते थे. ‘मम्मी को सब में अच्छाइयां ही नजर आती हैं. परायों से भी रिश्ता जोड़ लेती हैं. फिर तुम तो उन की इकलौती बहू हो. तुम पर तो जितना प्यार उमड़े कम है.’  सच, उन के साथ पूरा सप्ताह कैसे गुजर गया, पता ही नहीं चला. उन के जाने के बाद एक दिन बाजार में मुझे मधु मिल गई. उसे देखते ही मेरा चेहरा एकदम खिल उठा, लेकिन गौर से उसे देखा तो जी धक से रह गया. सूनी मांग, सूनी कलाइयां, सूना माथा और भावनाशून्य चेहरा… मुझे चक्कर सा आने लगा. पास के खंभे को पकड़ अपने को संभाला.

‘‘कब आईं तुम? और यह क्या है?’’ वह फफक उठी. देर तक फूटफूट कर रोती रही, ‘‘सब खत्म हो गया आंटी, एक दुर्घटना में वे चल बसे. ससुराल वालों ने अशुभ कह कर दुर्व्यवहार आरंभ कर दिया. मैं यहां आ गई. दोचार दिन तो सब ने हाथोंहाथ लिया. पर अब भाभीभैया अवहेलना करने लगे हैं. आखिर हूं तो मैं बोझ ही. मां सबकुछ देखतीसमझती हैं पर कर कुछ नहीं पातीं. जीवन बोझ लगने लगा है. मरने का मन करता है.’’

‘‘पागल हो गई हो? ऐसा कभी सोचना भी मत. चलो, मेरे साथ घर चलो,’’ उस का मुंह धुला कर मैं ने उसे चाय पिलाई. जब उस का मूड कुछ ठीक हो गया तो मैं ने बात आगे बढ़ाई.

‘‘तुम तो काफी पढ़ीलिखी हो. पति की जगह नौकरी पर क्यों नहीं लग जातीं?’’

‘‘सोचा था. पता चला, उस जगह देवर लगने का प्रयास कर रहे हैं.’’

‘‘लेकिन पहला हक तुम्हारा है. यदि तुम आत्मसम्मान की जिंदगी जीना चाहती हो तो तुम्हें अपने हक के लिए लड़ना होगा.’’

‘‘लेकिन मुझे तो कुछ भी नहीं मालूम…कैसे क्या करना है?’’

‘‘हूं… एक आइडिया है. विपुल उसी शहर में है. मैं उस से कहती हूं, वह तुम्हारी मदद करेगा.’’

विपुल पहले तो एकदम बिदक गया, ‘‘क्या मां, आप हर किसी के फटे में टांग डालती रहती हो.’’ पर जवाब में मेरी ओर से कोई आवाज सुनाई नहीं दी तो तुरंत मेरी मनोस्थिति ताड़ गया, ‘‘ठीक है मम्मी, मैं प्रयास करता हूं.’’  विपुल के प्रयास रंग लाए और मधु को नौकरी मिल गई. वह बेहद खुश थी. उस की मुसकान देख कर मुझे लगा कि मेरी गलती का आंशिक पश्चात्ताप हो गया है. उस के जाने के बाद एक दिन उस की मां मिल गईं. उन्होंने  यह कहते हुए मेरा बड़ा एहसान माना कि मैं ने मधु को नई जिंदगी दी है.

‘‘मैं तो चाहती हूं उस का फिर से घर भी बस जाए. अभी उस की उम्र ही क्या है?’’ मेरी जबान फलीभूत हुई. मधु की मां ने ही एक दिन बताया कि मधु ने अपने एक सहकर्मी से आर्यसमाज में शादी कर ली है. उस के भाईभाभी ऊपर से तो रोष जता रहे हैं, लेकिन मन ही मन खुश हैं कि चलो, बला टली.

‘‘यह दुनिया ऐसी ही है बहन. आप के बेटेबहू कोई अपवाद नहीं हैं.’’

‘‘लेकिन आप तो अपवाद हैं. अपनों की तो हर कोई सोचता है लेकिन आप तो परायों के लिए भी…’’

‘‘अपनापराया कुछ नहीं होता. रिश्ते तो मन के होते हैं. जिस से मन जुड़ जाए वही अपना लगने लगता है. मधु को मैं ने हमेशा अपनी बेटी की तरह चाहा है. उस के लिए कुछ करने से मुझे कभी रोकना मत.’’

वैसे प्यार तो मुझे सौम्या से भी बहुत हो गया था. सच कहूं, मुझे हर वक्त उस की चिंता लगी रहती थी. पतली, नाजुक, छुईमुई सी लड़की कैसे आफिस और घर दोनों जिम्मेदारियां संभालती होगी? विपुल से जब भी बात होती मैं उसे सौम्या की मदद करने की सीख देना नहीं भूलती.  और जब से मुझे पता चला कि वह गर्भवती है तो एक ओर तो मैं हर्ष से फूली नहीं समाई, लेकिन दूसरी ओर उस की चिंता मुझे दिनरात सताने लगी. मैं ने डरतेडरते सुदेश से अपने मन की बात कही, ‘‘मैं चली जाती हूं दोनों के पास उन्हें संभालने. सौम्या बेचारी, कैसे मैनेज कर रही होगी?’’

‘‘इंदु, तुम्हारा इतना संवेदनशील और लचीला होना मुझे बहुत अखरता है. अभी उसे मात्र 2 महीने हुए हैं. उसे 9 महीने इसी अवस्था में गुजारने हैं. तुम कब तक उन की देखभाल करोगी? वे बच्चे नहीं हैं. अपनेआप को और अपने घर को संभाल सकते हैं. उन्हें तुम्हारे हस्तक्षेप, जिसे तुम सहयोग कहती हो, की जरूरत नहीं है. जरूरत होगी, तब वे अपनेआप तुम्हें बुला लेंगे और तभी तुम्हारा जाना सार्थक और सम्मानजनक होगा.’’

मैं कहना चाहती थी, भला अपनों के काम आने में क्या सम्मान और सार्थकता देखना, पर जानती थी ऐसा कहना एक बार फिर मेरी व्यावहारिक नासमझी को ही दर्शाएगा. इसलिए चुप्पी लगा गई. पर गुपचुप छिटपुट तैयारियां करना मैं ने आरंभ कर दिया था. बहू के लिए खूब सारे सूखे मेवे खरीद लाई थी. कोई जाएगा तो साथ भिजवा दूंगी. फोन पर हिदायतों का दौर तो जारी था ही.  इसी बीच खबर लगी कि मधु भी गर्भवती है. मैं ने मधु की मां से मिल कर उन्हें बधाई दी. पता चला कि वे मधु के पास ही जा रही थीं.  मैं तुरंत घर लौटी. मेवे का पैकेट खोल कर उस के 2 पैकेट बनाए और तुरंत मधु की मां को ला कर थमा दिए, ‘‘यह एक पैकेट विपुल आ कर ले जाएगा और दूसरा मधु के लिए है.’’  डबडबाई आंखों से उन्होंने दोनों पैकेट थाम लिए. समय के साथसाथ सौम्या की तबीयत संभलने लगी थी. मैं विपुल से फोन पर हमेशा यही कहती, ‘‘जरा सी भी दिक्कत हो तो मुझे निसंकोच फोन कर देना. मैं तुरंत पहुंच जाऊंगी.’’

‘‘बिलकुल मां, यह भी भला कोई कहने की बात है?’’

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सौम्या की डिलीवरी का समय पास आ गया था. उस ने अब आफिस से छुट्टियां ले ली थीं. आपस में सलाह- मशविरा कर उन्होंने हमें सूचित किया कि डिलीवरी के समय मैं सौम्या के पास रहूं इसलिए सुदेश के खाने का प्रबंध कर मैं उन के पास रहने चली गई. तय हुआ कि डिलीवरी के बाद कुछ वक्त गुजार कर मैं लौट आऊंगी और तब सौम्या की मां आ कर सब संभाल लेंगी.

सौम्या का समय पूरा हो चुका था पर उसे अभी तक लेबरपेन आरंभ नहीं हुआ था. डाक्टर की सलाह पर हम ने उसे अस्पताल में भरती करवा दिया. अभी हम पूरी तरह व्यवस्थित भी नहीं हो पाए थे कि पास लाई गई दूसरी प्रसूता को देख मैं चौंक उठी. यह तो मधु थी. वह दर्द से कराह रही थी. उसे आसपास का जरा भी होश न था. उस की मां उसे संभालने का असफल प्रयास कर रही थीं. मैं ने उन्हें धीरज बंधाया. जल्दी ही मधु को लेबर रूम में ले जाया गया और कुछ समय बाद ही उस ने एक बेटे को जन्म दे दिया. भावातिरेक में उस की मां मेरे गले लग गईं. अब बस सौम्या की चिंता थी. डाक्टर ने चेकअप किया. सामान्य प्रसव के कोई आसार न देख आपरेशन से बच्चा पैदा करने का निर्णय लिया गया. मैं बारबार सौम्या के सुरक्षित प्रसव की कामना कर रही थी. मधु और उस की मां ने मेरी बेचैनी देखी तो मुझे धीरज बंधाया.

‘‘सब अच्छा ही होगा. आप जैसे भले लोगों के साथ कुदरत हमेशा भला ही करेगी.’’

जब तक सौम्या आपरेशन थिएटर में बंद रही और विपुल बाहर चक्कर काटता रहा उस दौरान मधु की मां ने बातों से मेरा दिल बहलाए रखा. साथ ही मधु और अपने नवासे को भी संभालती रहीं. लेडीडाक्टर ने जब जच्चाबच्चा दोनों के सुरक्षित होने की सूचना दी तब ही मुझे चैन पड़ा. घर में पोती आई थी. मैं बहुत खुश थी, लेकिन यह जान कर मेरी चिंता बढ़ गई कि नवजात बच्ची बहुत कमजोर है. सौम्या की हालत भी ज्यादा अच्छी नहीं थी. फिर उसे दूध भी नहीं उतर रहा था. अस्पताल में नर्सरी आदि की सुविधा नहीं थी. डाक्टर के अनुसार बच्ची को यदि कुछ समय तक किसी नवप्रसूता का दूध मिल जाए तो उस की स्थिति संभल सकती थी.

‘‘आप को एतराज न हो तो मैं इसे दूध पिला देती हूं,’’ मधु ने स्वयं को प्रस्तुत किया तो हम एकबारगी तो चौंक गए.

‘‘नेकी और पूछपूछ,’’ कहते हुए उस की मां ने बच्ची को तुरंत मधु की गोद में डाल दिया. मधु ने उसे प्यार से आंचल में ढांप लिया और दूध पिलाने लगी. मैं उस के इस ममतामयी रूप पर निछावर हो गई.

2 दिन हो गए थे. सुदेश भी आ गए थे. मधु जितनी बार अपने बेटे को दूध पिलाती, याद से गुडि़या को भी पिला देती. तीसरे दिन डाक्टर ने चेकअप किया. मधु की अस्पताल से छुट्टी हो चुकी थी. गुडि़या की तबीयत संभल गई थी, लेकिन सौम्या को अभी कुछ दिन और अस्पताल में रहना था. उस के घाव अभी भरे नहीं थे. बड़ी असमंजस की स्थिति थी. गुडि़या को मां से दूर भी नहीं किया जा सकता था और अभी कुछ दिन उसे और ऊपर के दूध के साथ मां के दूध की जरूरत थी. हम सोच ही रहे थे कि क्या किया जाए कि मधु बोल पड़ी, ‘‘हमारा घर पास में ही है. मैं इसे दूध पिलाने आती रहूंगी. साथ ही ऊपर का दूध भी बना कर लाती रहूंगी.’’

‘‘हां हां, आप चिंता मत कीजिए. हम सब संभाल लेंगे,’’ मधु की मां भी तुरंत बोल पड़ीं.

3-4 दिन तक मांबेटी का यही क्रम चलता रहा. मधु न केवल गुडि़या को दूध पिला जाती बल्कि ताजा गुनगुना दूध बना कर भी ले आती. कभी सौम्या के लिए खिचड़ी, दलिया आ जाता.  मधु की मां जो दवा मधु के लिए बनातीं उस की एक खुराक आ कर सौम्या को भी खिला जातीं. विपुल और उस के पापा ये सब देख कर अचंभित रह जाते. अपनी अब तक की सोच पर शर्मिंदगी के भाव उन के चेहरे पर स्पष्ट परिलक्षित होते थे. मैं मधु को बारबार कहती, ‘‘तुम्हें इतना श्रम अभी नहीं करना चाहिए. तुम्हें आराम की जरूरत है.’’

‘‘मुझे ये सब करने से इतना आराम मिल रहा है कि मैं आप को बता नहीं सकती,’’ वह मुसकरा कर कहती. एक नर्स ने तो मुझ से पूछ भी लिया था, ‘‘क्या रिश्ता है आप का इस लड़की से?’’

‘‘इनसानियत का रिश्ता, जिस के तार मन से जुड़े होते हैं,’’ यह कहते हुए मेरे चेहरे पर असीम तृप्ति के भाव थे.

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आत्मनिर्णय

मैं सोचती रह गई कि आज की नई पीढ़ी क्या हम बड़ों से ज्यादा समझदार हो गई है? आन्या ने जो फैसला लिया, शायद ठीक ही था, जबकि परिपक्व होते हुए भी आत्मनिर्णय लेने में मैं ने कितनी देर लगा दी थी.

मैं ने आन्या के पापा को उस के पैदा होने के महीनेभर बाद ही खो दिया था. हरीश हमारे पड़ोसी थे. वे विधुर थे और हम एकदूसरे के दुखसुख में बहुत काम आते थे. हरीश से मेरा मन काफी मिलता था. एक बार हरीश ने लिवइन रिलेशनशिप का प्रस्ताव मेरे सामने रखा तो मैं ने कहा, ‘यह मुमकिन नहीं है. आप के और मेरे दोनों के बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा. पति को तो खो ही चुकी हूं, अब किसी भी कीमत पर आन्या को नहीं खोना चाहती. हम दोनों एकदूसरे के दोस्त हैं, यह काफी है.’ उस के बाद फिर कभी उन्होंने यह बात नहीं उठाई.

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धीरेधीरे समय का पहिया घूमता रहा और आन्या अपनी पढ़ाई पूरी कर के नौकरी करने लगी. उसे बस से औफिस पहुंचने में करीब सवा घंटा लगता था. एक दिन अचानक आन्या ने आ कर मुझ से कहा, ‘‘मम्मी, बहुत दूर है. मैं बहुत थक जाती हूं. रास्ते में समय भी काफी निकल जाता है. मैं औफिस के पास ही पीजी में रहना चाहती हूं.’’

एक बार तो उस का प्रस्ताव सुन कर मैं सकते में आ गई, फिर मैं ने सोचा कि एक न एक दिन तो वह मुझ से दूर जाएगी ही. अकेले रह कर उस के अंदर आत्मविश्वास पैदा होगा और वह आत्मनिर्भर रह कर जीना सीखेगी, जोकि आज के जमाने में बहुत जरूरी है. मैं ने उस से कहा, ‘‘ठीक है बेटा, जैसे तुम्हें समझ में आए, करो.’’

3-4 महीने बाद उस ने मुझे फोन कर के अपने पास आने के लिए कहा तो मैं मान गई, और जब उस के दिए ऐड्रैस पर पहुंच कर दरवाजे की घंटी बजाई तो दरवाजे पर एक सुदर्शन युवक को देख कर भौचक रह गई. इस से पहले मैं कुछ बोलूं, उस ने कहा, ‘‘आइए आंटी, आन्या यहीं रहती है.’’

यह सुन कर मैं थोड़ी सामान्य हो कर अंदर गई. आन्या सोफे पर बैठ कर लैपटौप पर कुछ लिख रही थी. मुझे देखते ही वह मुझ से लिपट गई और मुसकराते हुए बोली, ‘‘मम्मी, यह तनय है, मैं इस से प्यार करती हूं. इसी से मुझे शादी करनी है. पर अभी ससुराल, बच्चे, रीतिरिवाज किसी जिम्मेदारी के लिए हम मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से परिपक्व नहीं हैं. अलग रह कर रोजरोज मिलने पर समय और पैसे की बरबादी होती है. इसलिए हम ने साथ रह कर समय का इंतजार करना बेहतर समझा है. मैं जानती हूं अचानक यह देख कर आप को बहुत बुरा लग रहा है, लेकिन आप मुझ पर विश्वास रखिए, आप को मेरे निर्णय से कभी शिकायत का मौका नहीं मिलेगा.

‘‘और मैं यह भी जानती हूं, आप पापा के जाने के बाद बहुत अकेला महसूस कर रही हैं. आप हरीश अंकल से बहुत प्यार करती हैं. आप भी उन के साथ लिवइन में रह कर अपने अकेलेपन को दूर करें. फिर मुझे भी आप की ज्यादा चिंता नहीं रहेगी.’’

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यह सब सुनते ही एक बार तो मुझे बहुत झटका लगा, फिर मैं ने सोचा कि आज के बच्चे कितने मजबूत हैं. मैं तो कभी आत्मनिर्णय नहीं ले पाई, लेकिन जीवन का इतना बड़ा निर्णय लेने में उस को क्यों रोकूं. तनय बातों से अच्छे संस्कारी परिवार का लगा. अब समय के साथ युवा बदल रहे हैं, तो हमें भी उन की नई सोच के अनुसार उन की जीवनशैली का स्वागत करना चाहिए. उन पर हमारा निर्णय थोपने का कोई अर्थ नहीं है. और यह मेरी परवरिश का ही परिणाम है कि वह मुझ से दूसरे बच्चों की तरह छिपा कर कुछ नहीं करती. मैं ने तनय को अपने गले से लगाया कि उस ने आन्या के भविष्य की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले कर मुझे मुक्त कर दिया है. मैं संतुष्ट मन से घर लौट आई और आते ही मैं ने हरीश के प्रस्ताव पर मुहर लगा दी.

नश्तर: पति के प्यार के लिए वे जिंदगीभर क्यों तरसी थी?

लेखक- नीलम कुलश्रेष्ठ

पैरों की एडि़यां तड़कने लगी हैं, चेहरे की झुर्रियां भी जबतब कसमसाने लगी हैं. कितनी भी कोल्ड क्रीम घिसें, थोड़ी देर में ही जैसे त्वचा तड़कने लगती है. बूढ़े लोगों को देखना और बात है, लेकिन बुढ़ापे को अपने शरीर में महसूस करना और बात. सारी इंद्रियों की शक्ति धीरेधीरे जाने कहां लुप्त होने लगती है. बस, एक ही चीज खत्म नहीं होती, और वह है अंदर की चेतना.

कभीकभी उन्हें झुंझलाहट भी होती है कि सारी शक्ति की तरह यह चेतना भी क्षीण क्यों नहीं हो जाती. यदि ऐसा हो जाए तो कितना अच्छा हो. सुबह उठ कर खाओपीओ, हलकेफुलके काम करो और सो जाओ, अवकाशप्राप्त जिंदगी में और है ही क्या, लेकिन ऐसा होता कहां है.

उन की चेतना के आंचल में ढेरों नश्तर घुसे हुए हैं. वे चाहती हैं कि उन्हें नोच कर बाहर फेंक दें. वे तो जमीन में उगे कैक्टस की मानिंद हैं, ऊपर से कितना भी काटो, फिर उग आएंगे. एक नश्तर तो उन की चेतना में पिरोए दिल की झिल्ली में जैसे बारबार दंश मारता रहता है.

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अर्चना दीदी उन से 5 वर्ष छोटी हैं. वे गौरवर्णा, चिकनी त्वचा वाली गोलमटोल महिला हैं. अकसर ऐसी स्त्रियों के गाल उन्नत होते हैं और आंखें छोटीछोटी व कटीली. वे इन का इस्तेमाल करना भी खूब जानती हैं. कहने को तो वे विजयजी की दूर के रिश्ते की बहन हैं, लेकिन जब भी घर में कदम रखेंगी, आंखें नचा कर, तरहतरह के मुंह बना कर इस तरह बात करेंगी कि विजयजी हंसतेहंसते लोटपोट हो जाते हैं.

अपनी ही बात पर मोहित हो वे विजयजी के गले में बांहें डाल देंगी, ‘क्यों भैया, मैं ने ठीक कहा न?’

‘तुम गलत ही कब कहती हो,’ विजयजी उन की ब्लाउज व साड़ी के बीच की खुली कमर को अपनी बांहों में घेर कर उन्हें अपने पास खींच लेंगे.

वे यह नाटक कुछ महीनों से देखती चली आ रही हैं. कुछ बोलने की हिम्मत नहीं होती. घर के किसी कोने में आंसू बहाती रहती हैं या कुढ़ती रहती हैं. इस गले लगाने या लिपटने से आगे भी उन दोनों के बीच कुछ और है, वे टोह नहीं ले पाई हैं. वैसे भी वे हर समय पति के पीछे थोड़े ही लगी रहती हैं.

कभीकभी उन्हें अपनेआप पर बेहद खीझ होती है कि क्यों उन्होंने खुद को दब्बू बना रखा है? शादी से पहले जब वे सोफे पर कूद कर ‘धम’ से बैठती तो मां बड़बड़ाया करती थीं, ‘क्या लड़कों जैसी उछलतीकूदती रहती है, जरा लड़कियों जैसी नजाकत से रहा कर.’

तीज से एक दिन पहले मां एक कटोरी में मेहंदी घोल कर बैठ जातीं. तब वे बहाना बनातीं, ‘मां, कल विज्ञान का टैस्ट है.’

‘तू हर साल बहाना करती है. लड़कियों को पता नहीं क्याक्या शौक होते हैं. नेलपौलिश लगाएंगी, लिपस्टिक लगाएंगी, चूडि़यां पहनेंगी. लेकिन एक तू…नंगे डंडे जैसे हाथ लिए घूमती रहती है. चल, आज तो मेहंदी का शगुन कर ले.’

बेहद खीझते हुए वे मां के सामने बैठ जातीं. मां मेहंदी में नीबू, चीनी, चाय का पानी और न जाने क्याक्या मिला कर उसे तैयार करतीं, पर मेहंदी लगवाते हुए वे शोर मचातीं, ‘मां, जल्दी करो, दुखता है.’

मां तो जैसे तीजत्योहारों पर तानाशाह बन जाती थीं, ‘चुपचाप बैठी रह. कल नहाने से पहले तुझे हरे रंग की चूडि़यां पहननी हैं.’

‘ठीक है, पहन लूंगी, लेकिन यह किस ने कानून बनाया है कि मेहंदी लगा कर उसे धो डालो. मुझे तो मेहंदी का हरा रंग ही लुभावना लगता है.’

‘तू बड़बड़ मत कर, मेहंदी बिगड़ जाएगी.’

मां के तानाशाही लाड़दुलार में जैसे उन का मन भीगभीग जाता था. वे हथियार डाल देती थीं. दूसरे दिन मेहंदी लगे हाथों में हरे रंग की चूडि़यों के साथ हरे रंग की साड़ी जैसेतैसे पिन लगा कर पहन लेतीं, मां निहाल हो उठतीं, ‘कैसी राजकुमारी सी लग रही है, जिस के घर जाएगी, वह धन्य हो जाएगा.’

अपनी शादी की दूसरी रात वे ऐसे ही तो नख से शिख तक तैयार हुई थीं. ननद व जेठानी उन्हें सजा कर स्वयं ठगी सी रह गई थीं.

लेकिन जिन के लिए सज कर वे बैठी थीं, उन्होंने बिना उन का चेहरा देखे रुखाई से कहा था, ‘जा कर कपड़े बदल लीजिए, भारी साड़ी में गरमी लग रही होगी.’

वे अपमान का घूंट पी दूसरे कमरे में जा कर सूती जरी की किनारी वाली साड़ी पहन कर आ गई थीं. उस निर्मोही ने फिर भी उन की तरफ नहीं देखा था. बत्ती बंद करते हुए कहा था, ‘शादी की भागदौड़ में आप भी थक गई होंगी, मैं भी थक गया हूं. मुझे जोरों की नींद आ रही है,’ 2 मिनट में ही करवट बदल कर गहरी नींद में सो गए थे.

विजयजी के साथ उन की शादी के शुरुआती 8 दिन ऐसे ही बीते थे. वे अनब्याही दुलहन की तरह मायके लौट आई थीं. घर में जरा भी एकांत मिलता तो अपनेआप झरझर आंसू बहने लगते. वे नहीं चाह रही थीं कि कोई उन के आंसू देखे, लेकिन मां की छठी इंद्रिय ने बेटी के मन की थाह को सूंघ ही लिया. एक दिन उन्होंने पूछ ही लिया था, ‘तू अकेले में क्यों रोती है?’

पहले तो वे सकुचाईं कि किस तरह कहें कि उन की देह को पति ने स्पर्श तक नहीं किया. फिर संकोच छोड़ कर सारी बात उन्हें बता दी.

‘यदि ऐसा था तो शर्म को त्याग कर उन से इस का कारण पूछना था.’

‘मैं ऐसी बात कैसे पूछ सकती थी?’

‘पतिपत्नी के संबंधों में संकोच कैसा? वैसे हम लोगों ने पैसा तो भरपूर दिया था, लेकिन हो सकता है कि कुछ लेनदेन के बारे में उन की नाराजगी हो?’

‘यदि वे ऐसे लालची हैं तो मैं वहां नहीं रहूंगी.’

‘बेटी, पहले तू पूछ कर तो देख.’

मां के प्रोत्साहन के कारण दूसरी बार ससुराल आ कर वे खुद को आश्वस्त महसूस कर रही थीं. जैसे ही विजयजी ने रात को बत्ती बुझानी चाही, उन्होंने उन का हाथ पकड़ लिया, ‘जरा, आज हम लोग बातचीत कर लें.’

विजयजी ने झुंझला कर हाथ छुड़ाया, ‘क्या बात करनी है? शादी हो गई, तुम इस घर की मालकिन बन गईं और क्या चाहिए?’

‘यदि मैं आप का मन नहीं जीत पाई तो मेरा इस घर में आना बेकार है.’

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‘तुम औरतों को चाहिए क्या, कपड़ा और खाना. इन चीजों की तुम्हें जिंदगीभर कमी नहीं होगी,’ फिर उन्होंने स्विच की तरफ हाथ बढ़ाना चाहा. पर उन्होंने उन का हाथ दृढ़ता से पकड़ लिया, ‘नहीं, आज मुझे इतना अधिकार दीजिए कि मैं आप से चंद बातें कर सकूं.’

वे बेमन पलंग पर तकिए के सहारे टिक कर बैठ गए, ‘अब कहो? मैं कहां नाराज हूं,’ वह उन्हें आग्नेय नेत्रों से देख कर बोले.

‘आप की आंखें तो कुछ और ही कह रही हैं,’ वे जैसे हर प्रहार के लिए कलेजा कड़ा कर के बैठी थीं.

‘मेरे चाचा से पूछो कि मेरी नाराजगी का कारण क्या है?’

‘मैं ने सुना तो था कि आप के पिताजी सीधेसादे हैं, शादी की हर बात तय करने के लिए आप के चाचा को आगे कर देते हैं.’

‘हां, उन्हीं चाचा ने रुपयों के लालच में मुझे तुम्हारे पिता के हाथों बेच दिया.’

उन का चेहरा भी तमतमा आया था, ‘मेरे पिता दूल्हा खरीदने नहीं निकले थे. उन्होंने तो अपनी जाति की प्रथा के हिसाब से रुपया दिया था. फिर मेरे पिता व्यापार करते हैं, उन के लिए 2 लाख रुपए अपनी मरजी से देना बड़ी बात नहीं थी.’

‘2 लाख? लेकिन चाचा ने तो हमें डेढ़ लाख रुपए ही दिए थे.’

‘नहीं, सच में मेरे पिता ने 2 लाख रुपए दिए थे.’

‘तो क्या मेरे चाचा झूठ बोलेंगे?’

‘इस बात का फैसला तो बाद में होगा. अब समसया यह है तो हम लोगों को सहज जीवन व्यतीत करना चाहिए.’

‘मैं तुम्हारे लिए बिका हूं, यह बात मुझे सहज नहीं होने दे रही.’

‘मैं आप को सहज कर दूंगी,’ कह कर उन्होंने स्वयं बिजली के बटन पर हाथ रख दिया. ऐसे में उन के कंगन बज उठे थे.

उन दिनों वे मन ही मन कितनी आहत होती थीं. पति तो नवविवाहिता पत्नी का दीवाना हो जाता है, लेकिन उन के हाथ में कुछ उलटा ही रचा था, जैसे कि उन्हें मेहंदी का भी उलटा रंग ही पसंद आता था. वे जबरदस्ती उन्हें अपने आकर्षण में बांध रही थीं. बस, ऐसे ही एक बेटे व बेटी की मां बन गई थीं.

कभी उन्होंने सुना था कि यदि दूल्हे व दुलहन के मन में ब्याह के मंडप के नीचे कोई गांठ हो तो वह जिंदगीभर नहीं खुलती. क्या यह बात सच है? उसी मंडप में चाचाजी ने 50 हजार रुपए अपनी जेब में खिसका लिए थे. यह बात पंडित की बहुत खुशामद करने के बाद पता लगी थी.

उन्होंने लाख कोशिश कर के देख ली थी, पर पति के दिल को वे पूरी तरह जीत नहीं पाई थीं. इसीलिए पास के स्कूल में उन्होंने नौकरी कर ली थी. बच्चों के लिए एक आया रख ली थी. दोपहर के खाने के लिए विजयजी घर पर आते थे, आया उन्हें खाना खिला देती व घर की देखभाल भी कर लेती थी.

तब स्कूल में बराबर की अध्यापिकाओं में उन का मन रम गया था. कभी स्कूल से ही पास के बाजार में चाट खाने का कार्यक्रम बन जाता तो कभी फिल्म देखने का. उधर विजयजी ने भी चैन की सांस ली थी कि वे उन पर अपनी खीझ नहीं उतारतीं, अपनी सहेलियों में मस्त हैं.

एक दिन एक अध्यापिका के पिता की मृत्यु के कारण स्कूल 11 बजे ही बंद हो गया. सो, वे जल्दी घर आ गईं. 5 मिनट तक वे दरवाजा खटखटाती रहीं, तब कहीं आया ने खोला. वह कुछ हकलाते हुए बोली, ‘बच्चों को स्कूल छोड़ आईर् थी. स…स…साहब जल्दी घर आ गए हैं…’

‘क्यों?’

‘उन को दर्द हो रहा है?’

‘कहां?’

‘कमर में…न…नहीं सिर में…’

उस की हकलाहट पर उन्हें आश्चर्य हुआ. उन्होंने उसे घूर कर देखा था. यह देख उन्हें कुछ ज्यादा ही आश्चर्य हुआ कि यह तो बड़े सलीके से साड़ी बांधा करती है, पर इस समय वह बेतरतीब सी क्यों  नजर आ रही है? माला का पेंडेंट सदा बीच में रहता है, वह कंधे पर क्यों पड़ा हुआ है? बाल भी बेतरतीब हो रहे हैं. उन्हें कुछ अजीब सा लगा, लेकिन वे सीधे अंदर घुसती चली गईं. कमरे में देखा, पति कुरसी पर बैठे उलटा अखबार पढ़ रहे हैं. उन्हें हंसी आ गई, ‘क्या सिर में इतना दर्द हो रहा है कि उलटे अक्षर समझ में आ रहे हैं?’

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‘किस के सिर में दर्द हो रहा है?’

‘आप के और किस के?’

‘मेरे तो नहीं हो रहा,’ खिसिया कर उन्होंने उलटा अखबार सीधा कर लिया.

‘कपिला तो ऐसा ही कह रही थी.’

‘पहले सिर में दर्द हो रहा था, लेकिन कपिला ने चाय बना दी. चाय के साथ दवा लेने से आराम है?’

उन्होंने कपड़े बदलने के लिए जैसे ही सोने के कमरे में कदम रखा, बिस्तर की सिलवटें देख कर तो जैसे उन का रक्त ही जम गया. एक झटके में कपिला की बेतरतीब बंधी साड़ी, उस का हकलाना, विजयजी का उलटा अखबार पढ़ना और बिस्तर की सिलवटें जैसे उन्हें सबकुछ समझा गई थीं. वे उसी कमरे में कपड़े बदलते हुए जारजार रो उठी थीं. उन्हें अपनेआप पर ही आश्चर्य हो रहा था कि वे कपिता के बाल पकड़ कर उसे घसीट कर घर से बाहर क्यों नहीं कर देतीं या विजयजी से लड़ कर घर में हंगामा क्यों नहीं खड़ा कर देतीं? लेकिन वे खामोश ही रहीं.

बाद में उन्होंने अचानक स्कूल से कई बार आ कर देखा, लेकिन कभी कुछ सुराग हाथ नहीं लगा.

हां, जब भी पति घर में होते, उन की आंखें हमेशा जिस ढंग से कपिला का पीछा करती रहतीं, इस से उस के प्रति उन का आकर्षण छिपा न रहता. उन दिनों वे समझ गईर् थीं कि जो पुरुष अपने मन की गांठ के कारण अपनी सुसंस्कृत पत्नी को भरपूर प्यार नहीं कर पाते, वे अपने तनमन की प्यास बुझाने के लिए अकसर भटक जाते हैं.

उस दिन को याद कर के जैसे आज भी नुकीला नश्तर उन के दिल में चुभता रहता है. जब वे कभी कपिला को टोकतीं तो वह उत्तर देती, ‘जल्दी क्या है बाईजी, अभी सारा काम हो जाएगा.’

एक बार कपिला ने एक दिन की छुट्टी मांगी, लेकिन 3 दिनों बाद काम पर लौट कर आई. वे तो मौका ही ढूंढ़ रही थीं. जानबूझ कर आगबबूला हो गईं, ‘तुझे पता नहीं है, मैं बाहर काम करती हूं?’

‘मैं ने गीता मेम की बाई को बोला तो था कि मेरे पीछे आप का काम कर ले.’

‘सिर्फ एक दिन आई थी. आज तू अपना हिसाब कर और चलती बन.’

‘पहले साहब से तो पूछ कर देख लो, मुझे निकालना पसंद करेंगे कि नहीं?’ कह कर वह कुटिलता से मुसकराई.

‘साहब कौन होते हैं घर के मामले में दखल देने वाले?’ कहते हुए उन का चेहरा तमतमा गया.

‘लो बोलो, वे तो घर के मालिक हैं…किस औरत को अपने घर में रखना है और किसे नहीं, वे ही तो सोचेंगे. मैं जब आईर् थी तो कैसे उदास रहते थे. अब कैसे खुश रहते हैं. उन की खुशी के वास्ते ही अपने घर में रख लो.’

‘तू बहुत बदतमीज औरत है.’

‘देखो, गाली मत निकालना. गाली देना हम को भी आता है,’ कपिला चिल्लाई.

उन्होंने बिना बोल मेज पर रखे पर्स में से रुपए निकाल कर उस का हिसाब चुकता कर दिया. वह बकती हुई चली गई. लेकिन क्या आज भी उन के जीवन से वह जा पाई है? उन के नारीत्व की खिल्ली उड़ाती उस की कुटिल मुसकान क्या अभी भी उन का पीछा छोड़ पाई है?

अब बुढ़ापे में यह अर्चना आ मरी है. वह अकसर अपने बचपन के किस्से सुनाती है, ‘भाभी, जब हम अपनी मौसी के यहां, यानी कि भैया की चाची के यहां गरमी की छुट्टियों में जाते थे तो जानती हो, तब ये बिलकुल जोकर लगते थे. ये किताब ले कर छत पर पढ़ने चले जाते थे. मैं पीछे से इन्हें धक्का दे कर ‘हो’ कर के डरा देती थी.’

तब हमेशा चुप रहने वाले विजयजी भी चहकते, ‘और जानती हो, इस ने मुझे भी शैतान बना दिया था. एक बार यह कुरसी पर बैठी तकिए का गिलाफ काढ़ रही थी. मैं ने इस की चोटी का रिबन कुरसी से बांध दिया था. जब यह कुरसी से उठी तो धड़ाम से ऐसे गिरी…’ विजयजी ने कुरसी पर से उठ कर गिरने का ऐसा अभिनय किया कि सीधे अर्चना की गोद में जा गिरे और दोनों देर तक खिलखिलाते, हंसते रहे.

वे क्रोध से कसमसा उठीं कि 64 वर्ष की उम्र में इस बुढ़ऊ को क्या हो गया है. फसाद की जड़ यह अर्चना ही है. इस के पति अकसर दौरे पर रहते हैं. बच्चे होस्टल में रह रहे हैं, इसलिए जबतब उन के घर आ टपकती है. बड़े अधिकार से आते ही घोषणा कर देती है, ‘आज तो हम यहीं खाना खाएंगे.’

विजयजी अवकाशप्राप्त हैं. इस उम्र में यदि कोई चुहल करने वाला मिल जाए तो फिर तो चांदी ही चांदी है. पत्नी से वे कभी ठीक से जुड़ नहीं पाए. अर्चना से मिल रहे इस खुलेदिल के प्यारदुलार से जैसे उन के चेहरे पर रंगत आ गई है.

वे मन ही मन कुढ़ती रहती हैं. वैसे पति ऐसा कुछ नहीं करते कि उन से लड़झगड़ सकें. दोनों के रिश्तों के ऊपर भाईबहन का बोर्ड लगा है. वे कहें भी तो क्या? वैसे उन के दिल के दौरे का कारण भी तो अर्चना ही थीं.

उस दिन दोपहर में खाना बन चुका था. खाना लगाने के लिए अर्चना की सहायता लेने वे कमरे में जा रही थीं. अचानक दरवाजे के परदे के पीछे ही वे अर्चना की आवाज सुन कर रुक गईं.

‘छोडि़ए भैया…’

‘तुम मुझे भैया क्यों कहती हो?’ विजयजी का अधीर स्वर सुनाई दिया था.

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‘जब हम युवा थे तो मैं ने आप को भैया कहने से इनकार किया था. खुद आगे बढ़ कर आप का प्यार मांगा था, लेकिन तब आप ने मेरा प्यार ठुकरा दिया था.’

‘हां, वह मेरी कायरता थी. तुम मुझ से उम्र में भी कितनी छोटी थीं. फिर मैं अपने रिश्तों के कारण डर गया था कि घर वाले क्या समझेंगे. बस, उन्हीं कारणों से तुम्हारी मां के सामने शादी का प्रस्ताव नहीं रख सका.’

‘तो अब मेरे पास क्यों आना चाह रहे हैं?’

‘इसलिए कि चाचाजी द्वारा रुपए के लालच में जबरदस्ती मेरे सिर मढ़ दी गई पत्नी के लिए मेरे दिल में कोई रुचि नहीं है.’

यह सुनते ही उन का सिर घूम गया. अपनी उम्र, अपना पूरा जीवन इस घर को दे दिया, फिर भी उम्र के इस मुकाम पर अब यह कह रहे हैं? उन्हें लगा था कि उन की छाती के बाईं ओर एक बवंडर उठ रहा है. फिर उन्हें कुछ याद न रहा कि वे कितनी देर बेहोश रही थीं.

दिल के पहले दौरे से उबरने में उन्हें महीनों लग गए थे. बेटी व बेटे के परिवार उन की देखरेख के लिए आ गए थे. उस समय पति उन के पलंग के आसपास ही रहते थे. उन्हें आश्चर्य होता कि कैसा होता है पतिपत्नी का रिश्ता. आपस में प्यार हो या न हो, एकदूसरे के साथ की आदत तो हो ही जाती है. एक की तकलीफ दूसरे की तकलीफ बन जाती है.

बेटे ने तो बहुत जिद की कि वे दोनों उस के साथ ही चलें, किंतु वे अड़ी रहीं. ‘बेटे, जब हाथपैर थकने लगेंगे, तब तो तुम्हारे पास ही आना है. अभी तुम आजादी से रहो.’

बच्चों के परिवारों के जाते ही फिर अर्चना दीदी का आना आरंभ हो गया था.

कुछ महीनों बाद उन्होंने अपने स्वास्थ्य पर काफी हद तक काबू पा लिया था. उन के मन में क्रोध उभरता रहता था कि उन की अब कितनी जिंदगी बची है, 4-5 या हद से हद 10-12 साल. फिर क्यों वे पति के संबंधों को ले कर कुढ़ती रहें? उन की बरदाश्त करने की सीमा चुक गई थी. वे समझ ही नहीं पा रही थीं कि अर्चना की बच्ची से कैसे पीछा छुड़ाएं. उन की उम्र भी ऐसी थी कि  यदि इस बारे में किसी से शिकायत करें तो वह उन की झुर्रियों को देख कर हंस देगा. उन्हें लगता है, अब अपनेआप ही कोई रास्ता खोजना होगा.

एक दिन उन्हें पता लगा कि अर्चना के पति दिवाकर दौरे से लौट आए हैं. उन्होंने अर्चना को फोन किया, ‘आज हम लोग शाम को खाने पर आप के यहां आ रहे हैं.’

उन्होंने अर्चना के घर पहुंच कर अपना लाया स्टील का डब्बा खोला और उस में से एक गुलाबजामुन निकाल कर दिवाकर के सामने खड़ी हो गईं, ‘मुंह खोलिए, मैं ने ये गुलाबजामुन खासतौर से आप के लिए बनाए हैं.’

दिवाकर ने उन के इस अचानक उमड़ रहे दुलार से हैरान हो कर मुंह खोल दिया. तब उन्होंने उन के मुंह में अपने हाथ से गुलाबजामुन डाल दिया, ‘बताइए कैसा लगा?’

‘बहुत ही स्वादिष्ठ.’

जब तक अर्चना रसोई में खाना बनाती रही, वे अपने से छोटे दिवाकर को बातों में उलझाए रहीं. पूर्व मुलाकातों में वे समझ गई थीं कि लंबी यात्राओं ने दिवाकर में किताबें पढ़ने का शौक पैदा कर दिया है…वे खानेपीने के भी बहुत शौकीन हैं.

जब भी दिवाकर शहर में होते, वे पति के संग वहीं चल देतीं. विजयजी अकसर उन के घर चलने से आनाकानी करते, क्योंकि वे अर्चना से खुल कर बातें न कर पाते थे. तब वे उन से कहतीं, ‘देखते नहीं हो, दिवाकर नहीं होते तो अर्चना किस तरह साधिकार हमारे घर आ जाती है. मेरा कितना समय उस की खातिरदारी में निकलता है. क्यों न हम लोग भी उस के घर जाया करें.’

अब मन ही मन कुढ़ने की अर्चना की बारी थी. वह भाभी को दिवाकर से देशविदेश की चर्चा करते देखती, किताबों का आदानप्रदान करते देखती तो हतप्रभ रह जाती. वह इतनी प्रतिभाशाली नहीं थी कि इतनी ऊंचीऊंची बातें कर सके.

दिवाकर तो उन से मिल कर निहाल हो उठते थे, ‘भाभीजी, आप से बातचीत कर के मुझे पहली बार पता लगा है कि महिलाओं का भी मानसिक स्तर ऊंचा हो सकता है,’

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जब भी वे शहर में होते तो अर्चना पर जोर डालते कि चलो, आज भाभीजी के यहां चलते हैं.

उन के घर के अंदर आते ही वे घोषणा कर देते, ‘भाभीजी, आज तो हम आप के हाथ का बना खाना खाएंगे. बहुत दिनों से लजीज खाना नहीं खाया है.’

तब अर्चना बुरा मान जाती, ‘तो क्या मैं बुरा खाना बनाती हूं?’

‘खाना तो तुम भी अच्छा बनाती हो, किंतु भाभीजी के हाथ के खाने की बात ही कुछ और है.’

जब वे दोनों किसी बहस में मशगूल होते तो उन की आंखों से छिपा न रहता कि  विजयजी व अर्चना के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही हैं. उन्हें पति का चेहरा देख कर मन ही मन हंसी आती.

धीरेधीरे अर्चना उन के घर आना कम करती जा रही थी. यदि आती भी तो विजयजी से कुछ दूरी बनाए रखती. उस ने मन ही मन समझ लिया था कि उस के पति भाभीजी से बेहद प्रभावित हैं. वे उम्र में बड़ी हैं तो क्या हुआ, उन का बौद्धिक आकर्षण तो उन्हें बांधे ही रखता है.

एक दिन दिवाकर उन के यहां आ कर खूब हंसे, ‘भाभाजी, जानती हैं, आप की ननद उम्र से पहले ही सठिया गई है. मैं आप से अधिक बातचीत करता हूं तो इन्हें लगता है कि हमारे बीच रोमांस चल रहा है. हो…हो…हो…भाभीजी, मैं तो यहां आना चाहता हूं, लेकिन यह ही मुझे रोकती रहती है.’

‘अर्चना दीदी, आप ने ऐसा सोच भी कैसे लिया, मेरी उम्र भी तो देखी होती. कहीं ऐसा तो नहीं है कि सावन के अंधे को हमेशा हरा ही हरा दिखाई देता है?’

भोले दिवाकर कुछ समझ न पाए, लेकिन विजयजी व अर्चना पर मानो घड़ों पानी पड़ गया.

विजयजी भी उन्हें एक साधारण गृहिणी समझते थे. अब वे भी उन के बौद्धिक ज्ञान से चमत्कृत हैं. उन्होंने एक दिन पूछा, ‘तुम में इतना ज्ञान कहां से आया?’

‘आप ने तो सारा जीवन अपनी नौकरी व अपने में ही गुमसुम रह कर निकाल दिया. पर मैं बच्चों के बड़े

होने पर कैसे जीवन काटती? इन्हीं किताबों की बातों में रुचि ले कर जीवन काटा है.’

‘मैं तुम्हारे साथ रह कर भी तुम्हें समझ नहीं पाया.’

‘तो अब समझ लीजिए,’ इतना कह कर उन्होंने पति के कंधे पर सिर टिका दिया, ‘अभी देर कहां हुई है?’

जब पति ने हंस कर उन के कंधे पर हाथ रख दिया तो उन्हें ऐसा महसूस हुआ, जैसे उन्होंने तमाम नश्तरों को थाम लिया है.

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Serial Story: महकी रात की रानी (भाग-1)

उसेलाइब्रेरी में आते देख अमोली ने सोचा कि औफिस में किसी नए औफिसर ने जौइन किया है. आसमानी शर्ट के साथ गहरे नीले रंग की टाई लगाए गौरवर्णीय वह युवक अमोली को बहुत आकर्षक लगा. लाइब्रेरी में घुसते ही वह पत्रिकाओं के रैक के पास पहुंचा और एक पत्रिका निकाल उलटपुलट कर देखने लगा. कुछ देर बाद वह पुस्तकों की ओर बढ़ गया. अमोली अपनी सीट पर बैठी कंप्यूटर में नई पुस्तकों की ऐंट्री कर रही थी. कुछ देर बाद उस युवक ने ग्राफिक डिजाइनिंग पर एक पुस्तक ला कर अमोली के सामने मेज पर रख दी.

‘‘मिल ही गई… इस बुक को मेरे नाम पर इशू कर दीजिए,’’ कहते हुए वह अमोली के सामने वाली कुरसी पर बैठ गया.

‘‘बुक इशू करवाने के लिए आप की डिटेल ऐंटर करनी पड़ेगी… अपना नाम, डिपार्टमैंट, पता वगैरह बताएं प्लीज,’’ अमोली उस की ओर देखते हुए बोली.

‘‘इस की जरूरत नहीं, औलरैडी ऐंटर्ड है सबकुछ… पिछले कई दिनों से छुट्टी पर था… वाइफ काफी बीमार हैं… मैं सुजीत कुमार… आप शायद इस औफिस में नई हैं… आप से पहले तो एक उम्रदराज मैडम बैठती थीं यहां पर…’’

अमोली ने सुजीत का नाम सर्च किया. एक व्यक्ति ही था औफिस में इस नाम का. फोटो भी था वहां. अमोली ने बुक इशू कर दी.

कुछ देर मुसकरा कर अमोली को देखने के बाद बोला, ‘‘अच्छा लगा आप से मिल कर… मिलते रहेंगे और फिर तेजी से बाहर निकल गया.’’

डिजाइनिंग की एक मल्टीनैशनल फर्म में वहां काम करने वाले लोगों के लिए बनी हुई थी वह लाइब्रेरी. अमोली वहां 2 माह पहले ही आई थी. सारा दिन काम में व्यस्त रहने के कारण उस की किसी से मित्रता नहीं हो पाई थी. बुक इशू करते समय या कोई जानकारी देते हुए जब कुछ देर के लिए किसी से उस की बातचीत हो जाती तब उसे बहुत अच्छा लगता था.

सुजीत अकसर वहां आने लगा था. छुट्टियों से लौटने पर उसे नया काम दे दिया गया था जो फोटोशौप से संबंधित था. इस विषय में उसे अधिक जानकारी नहीं थी. अत: वह इंटरनैट और पुस्तकों की मदद ले रहा था. इसी सिलसिले में प्राय: लाइब्रेरी जाना हो जाता था. वहां जा कर वह कुछ देर अमोली के पास जरूर बैठता था.

बातोंबातों में अमोली को पता लगा कि सुजीत की पत्नी को एक ऐसी बीमारी है जिस में शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता शरीर की कार्यप्रणालियों पर ही आक्रमण करना शुरू कर देती है. इस बीमारी के कारण उस का अब चलनाफिरना भी कम हो गया था और वह अपना अधिकतर समय बिस्तर पर ही बिताती थी. सुजीत पिछले 3 महीनों से पत्नी के उपचार के लिए अवकाश पर था. उन का 8 महीने का 1 बेटा भी है, जिस की देखभाल के लिए इन दिनों सुजीत की साली आई हुई थी.

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सुजीत से बातें करते हुए अमोली को बहुत संतोष मिलता था. एक तो सुजीत जैसे व्यक्ति का साथ, उस पर हालात से परेशान इंसान के मन को कुछ देर तक अपनी बातों से सुकून पहुंचाना. अमोली सुजीत के साथ समय बिताते हुए सुखद एहसास से भर जाती थी. धीरेधीरे वे एकदूसरे के अच्छे मित्र बनते गए और शाम अकसर साथ कौफी पीते हुए किसी कैफे में बिताने लगे.

सुजीत के साथ कुछ समय बिताने और उस का दर्द सा झा करने के बाद अमोली शाम को घर पहुंच कर कुछ देर आराम करती और फिर काम में मां की मदद करती. थोड़ी देर बाद ही पिता दफ्तर से लौट आते और चाय पीतेपीते ही अपना लैपटौप खोल कर बैठ जाते. काफी समय से वे अमोली के लिए एक वर की तलाश कर रहे थे. अमोली को जब वे अपनी पसंद के किसी लड़के का प्रोफाइल दिखाते तो अनजाने में वह उस की तुलना सुजीत से कर बैठती.

अगले दिन जब सुजीत के साथ इस विषय में

वह चर्चा करती तो सुजीत प्रत्येक

लड़के में कोई न कोई कमी निकाल देता. अमोली मन ही मन सबकुछ सम झ रही थी. उस से दूर हो कर सुजीत एक अच्छी दोस्त को खोना नहीं चाहता था.

सुजीत अमोली के साथ अब मन की बातें सा झा करने लगा था. एक दिन पत्नी की बीमारी की चर्चा करते हुए वह बोला, ‘‘पता है अमोली, कहने को तो यह बीमारी उसे कुछ महीनों से अपने लपेटे में लिए है, पर मैं एक पत्नी का सुख विवाह के बाद कुछ दिनों तक ही भोग पाया था. शादी के बाद जल्द ही प्रैगनैंट हो गई थी वह. प्रैगनैंसी में उस ने कई तरह के कौंप्लिकेशंस का सामना किया, फिर बच्चे की देखभाल में दोनों की रतजगाई… और अब यह असाध्य रोग. कभीकभी लगता है टूट जाऊंगा मैं.’’

अमोली सुन कर बेबस हो जाती थी. वह जानती थी कि सुजीत सचमुच समय से लड़ रहा है. ‘‘तुम्हें अपने लाइफपार्टनर में कौन सी खूबियां चाहिए?’’ एक दिन रैस्टोरैंट में बैठे हुए सुजीत अमोली से पूछ बैठा.

‘‘हैंडसम हो या न हो, पर केयरिंग हो. बुरे वक्त में मेरा साथ दे, वैसे ही जैसे आप दे रहे हैं,’’ अमोली मुसकरा दी.

‘‘मैं हैंडसम नहीं हूं क्या?’’ बच्चों की तरह मासूम सा मुंह बना कर सुजीत बोला.

‘‘अरे नहीं बाबा… आप अपनी मैडम का कितना खयाल रखते हो, इसलिए कहा मैं ने ऐसा… वैसे देखने में तो जनाब हीरो लगते हैं किसी फिल्म के,’’ कहते हुए अमोली ने सुजीत का गाल पकड़ कर खींच लिया.

अमोली का हाथ अपने गाल से हटाते हुए सुजीत गंभीर हो कर बोला, ‘‘प्लीज अमोली, ऐसा न करो… अपने से दूर रखो मु झे, नहीं तो मैं भूल जाऊंगा कि हम सिर्फ दोस्त हैं.’’

‘‘भूल जाओगे? तो क्या सम झोगे मु झे?’’

अमोली उस का आशय नहीं सम झ पाई थी.

‘‘कैसे सम झाऊं तुम्हें? यह तो सम झती हो न कि फिजिकल नीड नाम की भी कोई चीज होती है. मैं भी तो एक इंसान हूं न. भीतर से एक मीठी सी  झन झनाहट महसूस होने लगी थी तुम्हारे टच से… सच बताओ अमोली, तुम्हें भी तो किसी की कमी इस उम्र में खलने लगी होगी… अकेले में किसी का साथ पाना चाहती हो न तुम भी?’’ सुजीत ठंडी आह भरते हुए बोला.

अमोली बहुत देर तक सिर  झुकाए बैठी रही.

आगे पढ़ें- मैं परेशान नहीं करना चाहता था तुम्हें…

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Serial Story: महकी रात की रानी (भाग-2)

पिछला भाग पढ़ने के लिए- महकी रात की रानी: भाग 1

‘‘अरे, किस खयाल में खो गई? मैं परेशान नहीं करना चाहता था तुम्हें… चलो किसी और टौपिक पर बात करते हैं बाहर चल कर,’’ कह कर सुजीत कुरसी से उठ गया और अमोली का हाथ पकड़ कर उसे भी उठा दिया. दोनों मुसकराते हुए रैस्टोरैंट से बाहर निकल आए.

उस रात अमोली को बहुत देर तक नींद नहीं आई. सोचती रही कि सुजीत सच ही तो कह रहा है, उसे भी तो कोई स्वप्निल स्पर्श गुदगुदाता रहा है, एक पिपासा दिनरात महसूस करती है वह. सुजीत के दिल पर क्या बीतती होगी? वह तो विवाहित है. अपनी पत्नी का साथ देते हुए भी एक अकेलापन… सचमुच रातें तो उस की छटपटाहट का पर्याय ही बन गई होंगी. उफ, कैसी विषम परिस्थिति है.

सुजीत और अमोली एकदूसरे के साथ अब और भी खुलने लगे थे. अमोली को सुजीत की आंखों में एक चाहत सी दिखाई देने लगी थी. पहले वह कौफी पीने के बाद अमोली को अपनी कार से मैट्रो स्टेशन तक ही छोड़ता था, पर अब अकसर घर तक छोड़ देने का हठ ले कर बैठ जाता. अमोली के बैठते ही वह कार में रोमांटिक गाने लगा कर मतवाला सा हो कर ड्राइविंग करने लगता. अमोली उसे देख मुसकराती रहती. घर आ कर उस की सुनहरी कल्पनाओं में अब सुजीत चला आता था.

उस दिन लंच में अमोली के पास सुजीत आया तो उस का चेहरा गुमसुम सा था. अमोली ने उसे अपने साथ खाना खाने को कहा तो बोला, ‘‘मन नहीं कर रहा आज कुछ खानेपीने को… पता है, एक वीक बिताना पड़ेगा तुम्हारे बिना मु झे… मुंबई में ट्रेनिंग के लिए जाना है परसों. घर पर तो अभी साली साहिबा की मेहरबानी से सब ठीक चल रहा है… लेकिन पता नहीं कैसे रह पाऊंगा बिना तुम्हारे?’’

‘‘इतना निर्भर हो जाओगे मु झ पर तो कैसे चलेगा? अच्छा है न, इस बहाने थोड़ा मु झ से दूर होना सीख जाओगे,’’ अमोली मेज पर सिर टिका कर

स्नेह से सुजीत की ओर देखते हुए बोली.

अमोली की हथेली अपनी दोनों हथेलियों के बीच छिपाते हुए वह बोला, ‘‘यों छिपी हो तुम मेरे मन में… दूरी नहीं, मैं तो बस अब सिर्फ करीबी के सपने देखता हूं… यह हाथ मेरा सहारा है और यह चेहरा… ये होंठ मेरा सपना.’’

सुजीत के प्रेम में भीगे शब्दों ने अमोली का मन भिगो दिया.

शाम को कौफी पीते हुए भी सुजीत 1 सप्ताह अमोली से दूर रहने पर उदास था. मैट्रो स्टेशन पर अमोली को छोड़ते हुए तो जैसे उस का कलेजा ही छलनी हुआ जा रहा था.

सुजीत के जाने के बाद अमोली भी उदास हो गई. सुजीत, अमोली और यह नया रिश्ता… पूरा सप्ताह अमोली की सोच बस इसी के इर्दगिर्द घूमती रही.

जब 1 सप्ताह बीत गया और सुजीत नहीं लौटा तो अमोली चिंतित हो गई. उस ने कई बार कौल किया, पर फोन नौट रिचेबल था. एक बार मिला भी तो ‘हैलो’ के बाद सुजीत की आवाज ही नहीं आई.

‘क्यों न एक बार सुजीत के घर चली जाऊं? उस की पत्नी से पता लग जाएगी वजह… और वहां सुजीत न सही उस की वह खुशबू तो रचीबसी होगी जो रोज मु झे अपने मोहमाश में जकड़े रहती है,’ सोचते हुए अमोली ने कंप्यूटर खोल सुजीत के घर का पता नोट कर लिया.

अगले दिन रविवार था. अमोली ने बुके खरीदा और कैब बुक कर सुजीत के घर पहुंच गई.

घर ढूंढ़ने में उसे कोई विशेष परेशानी नहीं हुई. बस मन में एक  िझ झक अवश्य थी कि सुजीत की पत्नी और साली को वह अपना परिचय कैसे देगी.

डोरबैल बजाते ही दरवाजा खुला तो उस के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. कालेज में उस की सहेली रही नमिता सामने खड़ी थी. ‘तो नमिता की बहन है सुजीत की पत्नी वाह,’ सोचते हुए अमोली की सारी  िझ झक दूर हो गई. अमोली को देख कर नमिता का मुंह भी प्रसन्नता से खुला का खुला रह गया.

‘‘अरे, मु झे क्या पता था कि सुजीत तेरे जीजू हैं. उन के साथ ही काम करती हूं मैं. उसी औफिस की लाइब्रेरी में लाइब्रेरियन हूं,’’ सोफे पर बैठते हुए अमोली बोली.

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‘‘हा… हा… हा… अच्छा उन से काम है तु झे. पर जीजू नहीं यार, सुजीत मेरे मियांजी हैं… मुंबई में हैं वे इन दिनों… कल आ रहे हैं वापस. पर तूने जीजू कैसे बना दिया उन्हें मेरा?’’

‘‘वह क्या है न… बात यह है कि तू तो लगती ही नहीं शादीशुदा…’’ शब्द अमोली के गले में अटके जा रहे थे.

‘‘थैंक्स डियर,’’ नमिता खिल उठी.

‘‘इन शौर्ट्स में देख कर कौन कहेगा कि तू एक नन्हेमुन्ने की मौम है,’’ अमोली संभलते हुए बोली.

‘‘अच्छा तो सुजीत ने तु झे मिंटू के बारे में भी बता दिया… बड़ा नौटी होता जा रहा है मिंटू… सुजीत के पीछे से अकेले उसे संभालना बहुत मुश्किल हो रहा है… अभी तो सो रहा है.’’

कुछ देर बातें करने के बाद, ‘‘मैं चाय बना कर लाती हूं. आज मेड छुट्टी पर है,’’ कह कर नमिता किचन में चली गई.

अमोली का दिमाग जैसे कुछ भी सोचने की स्थिति में नहीं था.

‘नमिता… सुजीत की पत्नी… बिलकुल दुरुस्त है यह तो वह बीमारी… क्यों किया सुजीत ने ऐसा?’ वह अपने को लुटा सा महसूस कर रही थी.

नमिता से मिल कर अमोली को पुराना समय याद आ रहा था. कालेज में साथ पढ़ने वाली नमिता उस की पक्की सहेली तो नहीं थी, पर दोनों में मित्रता अवश्य थी.

‘‘क्या सोच रही है? चल आ चाय पीते हुए फिर एक बार कालेज वाली सहेलियां बन जाती हैं,’’ नमिता की खनकती आवाज सुन अमोली को ध्यान आया कि वह नमिता के ड्राइंगरूम में बैठी है.

‘‘सुजीतजी पिछले काफी समय से छुट्टी पर थे न?’’ अमोली ने अपने को संयत कर पूछा.

‘‘हां… औफिस में तो मेरी बीमारी के नाम से ली थी छुट्टियां, पर तु झ से क्या छिपाना. दरअसल, एक नई जौब औफर हुई थी उन्हें. कुछ दिन काम कर के देखना चाह रहे थे. पसंद नहीं आया वहां का माहौल, इसलिए दोबारा पुरानी जगह चले गए.’’

‘अच्छा हुआ न वरना हम कैसे मिलते,’’ अपने मुंह पर नकली मुसकान चिपकाते हुए अमोली बोली.

चाय पीते हुए नमिता से कुछ देर तक बातें करने के बाद अमोली वापस चली

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आई. उस का बेचैन मन उसे कुछ भी सोचने नहीं दे रहा था. सुजीत ने उस से इतना बड़ा छल किया है, इस बात पर उसे अब भी विश्वास नहीं हो रहा था.

अगले दिन सुजीत वापस आ गया. अपने आने का समाचार उस ने अमोली को व्हाट्सऐप पर दिया, किंतु अमोली ने कोई जवाब नहीं दिया.

आगे पढ़ें- सुजीत की बात सुन अमोली चुपचाप बैठी रही, पर…

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