Payal Ghosh: लड़की को इंडस्ट्री में न्याय नहीं, हुईं कास्टिंग काउच का शिकार

Payal Ghosh: बांग्ला, तमिल, कन्नड, तेलगू और बॉलीवुड फिल्मों में काम करने वाली खूबसूरत और हंसमुख अभिनेत्री पायल घोष कोलकाता की है. पायल ने अभिनय की शुरुआत में एक कनाडाई फिल्म से किया, जिसमें उन्होंने अपने पड़ोसी के नौकर के साथ प्यार करने वाली एक स्कूली लड़की की भूमिका निभाई थी. वह एक ट्रैन्ड भरतनाट्यम डान्सर है, उन्होंने फिल्म पटेल की पंजाबी शादी से बॉलीवुड में डेब्यू किया.

टीवी सीरियल ‘साथ निभाना साथिया’ में भी उन्होंने काम किया है, जिसमें उनके काम को काफी सराहना मिली. वर्ष 2020 में पायल घोष ने निर्देशक अनुराग कश्यप पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया, जिसे अनुराग कश्यप ने अपने रुतबे की वजह से दबा दिया. आज भी पायल को इस बात का मलाल है कि उसे सही न्याय नहीं मिला.

अभी पायल एक हिन्दी फिल्म शक द डाउट में मुख्य भूमिका निभाने वाली है, जिसे लेकर वह बहुत खुश है. वह कहती है कि इस फिल्म में मैंने मुख्य भूमिका निभाई है, ये एक मर्डर मिस्ट्री थ्रिलर फिल्म है, जिसमें मैं ब्लाइन्ड गर्ल की भूमिका निभा रही हूँ. इसके लिए मैंने काफी वर्कशॉप किये है और अच्छी ऐक्टिंग के लिए काफी प्रैक्टिस भी की है.

भाषा चुनौती नहीं

पायल ने कई भाषाओं में फिल्में की है, इसमें आई चुनौती के बारें में उनका कहना है कि अलग – अलग भाषाओं में काम करने की चुनौती काफी होती है, उस भाषा को सीखना और समझना पड़ता है. मुझे ऐक्टिंग पसंद है, ऐसे में उससे जुड़ी किसी भी बात को जानना और सीखना मेरे लिए एक इक्साइटमेंट होता है. साउथ में भाषा न जानने की वजह से किसी संवाद को सही तरीके से डेलीवर करना थोड़ा मुश्किल होता था, लेकिन मैंने कई फिल्में की है. इसलिए मैँ भाव समझ जाती हूं और कुछ हद तक उसे सीख भी लिया है.

इसके अलावा डायरेक्टर किसी भी संवाद को अच्छी तरह इक्स्प्लैन शूट से एक दिन पहले कर देते है, जिससे अभिनय करना आसान हो जाता है. बाद में वे डबिंग कर लेते है. शुरू में बहुत मुश्किल होता था, अब नहीं होता.

मिली प्रेरणा

पायल का कहना है कि मेरे क्लोज़ में कोई भी ऐक्टिंग फील्ड से नहीं है, साथ ही मेरा परिवार थोड़ा कॉनजरवेटिव भी है, जहां किसी भी फील्ड में लड़कियों के काम करने को अच्छा नहीं माना जाता था. इसके अलावा मेरी माँ नहीं है, बचपन में जब मैँ केवल 7 साल की थी, तब उनका देहांत हो गया था. इसलिए मेरे लिए उनका सपोर्ट भी नहीं था. मेरे परिवार में दूर के रिश्तेदार ने अभिनेत्री महुआ रॉय चौधरी से शादी की थी, लेकिन उनका मेरे साथ कोई कनेक्शन नहीं है.

मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैँ अभिनय कर पाऊँगी. असल में मैँ बचपन से ही माधुरी दीक्षित, करीना कपूर, शाहरुख खान आदि की फिल्में बहुत देखती थी. बचपन में सभी मुझे सभी माधुरी दीक्षित कहकर बुलाते थे, क्योंकि मैँ अच्छा डांस कर लेती थी. इससे मेरे अंदर अभिनय की प्रेरणा जगी.

परिवार का सहयोग

पायल कहती है कि मेरी माँ नहीं है और हम दो बहने है, ऐसे में पिता की सोच रही थी कि 18 साल होने पर मेरी शादी कर देंगे और पढ़ाई भी वहाँ जाकर ही पूरा करना है, क्योंकि मैँ सुंदर थी और काफी लड़के मेरे पीछे पड़ते थे, उन्हे ये सब पसंद नहीं था. खासकर मेरे पिता बहुत डरे रहते थे, मुझे घर से बाहर नहीं निकलने देते थे. जब मैँ 15 साल की हुई, तो मुझे लगा कि मैँ शादी कर अपने सपने को पूरा नहीं कर सकूँगी, मैँ सोच में पड़ गई. एक दिन मैंने मन में निश्चय कर लिया कि मैँ अभिनय के क्षेत्र में कोशिश करूंगी और 12 वीं की परीक्षा के बाद मैँ किसी को बिना बताए कजिन सिस्टर के पास मुंबई आ गई. पैसों का जुगाड़ मैंने अपने काजीन्स और अपने कुछ जमा किये हुए से किया था. मैंने सुबह की फ्लाइट ली, इसलिए किसी को मेरे घर से निकलने की आहट तक नही मिली.

बाद में जब उन्हे पता चला, तो सभी को शॉक लगा. मेरी कजिन ने फोनकर उन्हे मेरी सलामती बताई. मेरे पिता इतने गुस्से हुए कि 6 महीने तक उन्होंने मुझसे बात तक नहीं की, लेकिन मेरे खर्चे के पैसे वे भेज दिया करते थे.

ली ऐक्टिंग की ट्रेनिंग

पायल मुंबई आकर किशोर नमित कपूर ऐक्टिंग इंस्टिट्यूट में जॉइन किया, 7 से 10 दिन में उन्हे पहली तेलगू फिल्म मिल गई थी. पहले उन्होंने मना किया था, क्योंकि मैँ उस इंडस्ट्री से परिचित नहीं थी, लेकिन बाद में राजी हो गई.

मिला ब्रेक

वह आगे कहती है कि असल में मेरी एक फ्रेंड ऑडिशन के लिए जा रही थी, मैँ भी उसके साथ ऑडिशन के प्रोसेस को जानने के लिए चल दी, वहाँ उनको नई और फ्रेश चेहरा चाहिए था. मैँ उस समय 17 साल की थी, मैंने जैसे ही ऑडिशन दिया, उन्हे मैँ पसंद आ गई. पहले मैंने मना कर दिया था, लेकिन बाद में मेरी भूमिका समझाने और नैशनल अवॉर्ड डायरेक्टर की वजह से मैंने उस फिल्म को किया.

संवाद को याद रखना था मुश्किल

पायल हंसती हुई कहती है कि पहली बार कैमरे के सामने आना मेरे लिए मुश्किल मुझे नहीं था, क्योंकि मैंने ऐक्टिंग का प्रशिक्षण लिया था, लेकिन भाषा मेरे लिए बाधा थी, क्योंकि भाषा को समझकर लिपसिंग करना मेरे लिए पहली फिल्म में थोड़ा मुश्किल था, जिसके लिए मुझे काफी मेहनत करनी पड़ी. इसके बाद हिन्दी फिल्म पटेल की पंजाबी शादी में मैने मुख्य भूमिका निभाई जिसे दर्शकों ने काफी पसंद किया.

किये संघर्ष

पायल को पहली तेलगू फिल्म प्रायानम आसानी से मिली, फिल्म के रिलीज का बाद कई सारे ऑफर भी उन्हे मिलने लगे, क्योंकि फिल्म सुपर हिट रही. इतना ही नहीं पहली फिल्म में उन्हे 10 लाख के ऑफर वर्ष 2009 में मिला था, जो एक अच्छी रकम थी, लेकिन पायल को हिन्दी फिल्म में काम करने की इच्छा थी, इसलिए वह कुछ सालों तक वहाँ काम करने के बाद हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में आ गई.

साउथ की इंडस्ट्री में उन्हे पैसे, प्यार और रेसपेक्ट सब मिले, जिसकी कमी हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में है.
वह कहती है कि मैंने काफी संघर्ष एक अच्छी फिल्म करने के लिए किया है और मुझे मिला. जबकि मेरे कई फ़्रेंड्स बहुत सारे ऑडिशन देकर भी उन्हे काम नहीं मिला और अंत में वे वापस चले गए. कुछ तो अभी भी संघर्ष कर रहे है. साउथ में संघर्ष कम है, जबकि हिन्दी सिनेमा में एक अच्छी भूमिका के लिए संघर्ष अधिक करना पड़ता है.

 

कंट्रोवर्सी का किया सामना

पायल कहती है कि शुरू में मैंने मलयालम फिल्म इसलिए नहीं किया था, क्योंकि लोग कहते थे कि मलयालम फिल्मों में हिरोइन को काफी इक्स्पोज़ किया जाता है, जिससे मैँ डर गई थी और काफी ऑफर ठुकरा दिए थे, क्योंकि तब मैँ इंटीमेट सीन्स करने में सहज नहीं थी, लेकिन अब मैँ देखती हूं कि मलयालम फिल्मों की कहानी काफी स्ट्रॉंग होती है, वे हॉलिवुड को भी टक्कर दे सकते है.

अब कोई काम मिलने पर अवश्य करना चाहूँगी. इसके अलावा जब तक साउथ में थी किसी प्रकार की
परेशानी मैंने नहीं झेली, हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में मुझे बहुत कुछ सहना पड़ा. मैंने खुद को कई बार
असहाय भी महसूस किया. मैंने कई सारे हिन्दी फिल्में छोड़ दिया था, क्योंकि मुझे निर्माता, निर्देशक
के साथ कोम्प्रमाइज़ करने की बात सीधा कहा गया, इस वजह से मैंने कई फिल्मों को छोड़ दिया था.

हुई कास्टिंग काउच की शिकार

पायल आगे कहती है कि इंडस्ट्री में किसी नए कलाकार की बात को लोग सीरीयसली नहीं लेते, मेरे साथ भी यही हुआ था. डायरेक्टर अनुराग कश्यप की वजह से मैँ डिप्रेशन में चली गई थी, इतनी बीमार हो गई थी कि अधिक फिल्में नहीं कर पाती थी. मुझे घर से निकलने में भी डर लगता था.

मेरे साथ जो उन्होंने जो किया, उससे मुझे सारे लोगों से डर लगने लगा था. अंदर ही अंदर मैँ घुटती
रहती थी, पूरी रात सोती नहीं थी, क्योंकि मुझे सब याद आता था. मीडिया और लोगों ने मेरे इस बात
को गलत बताया, क्योंकि मेरे सपोर्ट में कोई नहीं था, क्योंकि वे बड़े डायरेक्टर है. जब किसी के घर
परिवार में ऐसा होता है, तब वे इस बात की गहराई को समझ सकते है. फिल्म हंसी तो फंसी फिल्म
की ऑडिशन के लिए अनुराग कश्यप ने घर पर बुलाया, पहले दिन बहुत अच्छे से पेश आए, खाना
बनाकर खिलाया.

ऑडिशन देने के बाद उन्होंने घर पर रात को बुलाया, मुझे लगा कि कुछ अच्छा बताने के लिए वे मुझे बुला रहे है, मैँ खुश हुई. मैंने मैनेजर से पूछा, तो उन्होंने भी मुझे जाने के लिए कहा और आने वाली साउथ की फिल्म के बारें में भी बताने को कहा. मैँ सबको बताकर ही गई थी. वहाँ जाने के बाद उन्होंने थोड़ी बातचीत की, फिर दूसरे रूम में ले गए, वहाँ वे अपने कपड़े उतारने लगे. मेरे साथ बदतमीजी की. मैँ समझ नहीं पा रही थी कि मैँ क्या करूँ, क्योंकि ये सब कर मैँ आगे बढ़ नहीं सकती, मैँ बदनाम हो जाऊँगी. मैँ शॉकड हो गई और अंदर ही अंदर डर गई, उस समय मैँ केवल 22 साल की थी.

मैँ आज भी डिप्रेशन की दवा लेती हूँ और ट्रस्ट वाले लोगों के साथ ही काम करती हूँ. मैंने पुलिस कॉम्प्लैन किया, लेकिन पुलिस का सहयोग नहीं मिला, फिर मैंने छोड़ दिया, क्योंकि पुलिस अनुराग का पक्ष लेगी, मेरा नहीं. इंडस्ट्री में किसी अकेले को न्याय नहीं मिलता. आगे मैँ हिन्दी के साथ मैँ साउथ की फिल्में भी करूंगी. मैँ बहुत अधिक इंटीमेट सीन्स करने में सहज नहीं. मैँ अच्छी कंटेन्ट वाली फिल्में करना पसंद करती हूँ. खाली समय में मैँ फिल्में देखना पसंद करती हूँ. Payal Ghosh

Social Story in Hindi: अंधेरी आंखों के उजाले- मदन बाबू ने कैसे की मदद

Social Story in Hindi: खंभे की पच्चीकारी को जहां तक हाथ पहुंचता, छू कर देखते, एकदूसरे को बताते, फिर कहीं बातों मैं दूर बैठा उन्हें देख रहा था. जान गया कि वे दोनों अंधे हैं. एक तीव्र इच्छा यह जानने को जागी कि नेत्रहीन होते हुए भी इस दर्शनीय स्थल पर वे क्यों आए थे. सोच में डूबा मैं उन्हें देख रहा था.

घड़ी भर भी न बीता होगा कि बच्चों की चहक पर ध्यान चला गया. तीनों बच्चे उन दोनों के पास दौड़ कर आए थे. इसलिए थोड़ा हांफ रहे थे.

‘‘मां, चल कर देखो न, वहां पूरे मंदिर का छोटा सा एक मौडल रखा है. बिलकुल मेरी गुडि़या के घर जैसा है.’’

‘‘हांहां, बहुत अच्छा है,’’ मां ने हामी भरी.

‘‘अच्छा है? पर आप ने देखा कहां? चल कर देखो न,’’ बच्चे मचल रहे थे.

वे दोनों अपने तीनों बच्चों को समेटे मंदिर के छोटे पर अत्यंत सुघड़ मौडल को देखने चल दिए.

पास बैठ कर दोनों ने मौडल को हर कोने से छू कर देखा. मैं ने देखा, उन दोनों के हाथों में उलझी थीं उन के बच्चों की उंगलियां.

देखने के इस क्रम में आंखों की जरूरत कहां थी. मन था, मन का विश्वास था, एकदूसरे को समझनेसमझाने की चाहत थी, उल्लास था, उत्साह था. कौन कहता है कि आंखें भी चाहिए. बिना आंखों के भी दुनिया का कितना सौंदर्य देखा जा सकता है. आंखों वाले मांबाप क्या अपने बच्चों को सामीप्य का इतना सुख दे पाते होंगे? इस तरह के विचार मेरे मन में आए जा रहे थे.

हंसतेबतियाते वे पांचों फिर मंदिर में इधरउधर टहलते रहे. 3 जोड़ी आंखों से पांचों निहारते रहे, फिर वहीं बैठ

कर उन्होंने अपने नन्हेमुन्नों को गोद में समेट लिया.

उन की अंधेरी आंखों में कितने उजाले थे. मेरा मन उन से मिलने को कर रहा था. मुझ से रहा नहीं गया तो उठ कर उन के पास चला आया.

‘‘जी, नमस्ते,’’ और इस संबोधन को सुन कर अपने में डूबे वे दोनों चौंक गए.

‘‘पापा, कोई अंकल हैं, आप को नमस्ते कर रहे हैं,’’ एक बच्चे ने कहा.

‘‘हांहां समझा, कोई काम है क्या?’’

‘‘नहीं, बस यों ही आप से बात करने का मन कर आया.’’

‘‘हम से क्यों? हम…मतलब कोई खास बात है क्या?’’

‘‘खास बात तो नहीं है, बस, थोड़ी देर आप से बात करना चाहता हूं.’’

एक तरफ को सरक कर उन्होंने मेरे लिए जगह बना दी.

‘‘रणकपुर देखने आए हैं?’’ अच्छी जगह है…मतलब बहुत सुंदर है… आप ने तो देखा?’’

अटपटा सा वार्त्तालाप. समझ नहीं पा रहा था कि सूत्र किधर से पकड़ूं. उन के बारे में जानने की उत्सुकता अधिक थी पर शब्द नदारद थे.

‘‘हम दोनों जन्मजात अंधे हैं.’’

क्या प्रश्न था और क्या उत्तर आया. एकदम अचकचा गया. यही तो पूछना चाहता था. कैसे एकदम ठीक जान लिया इन लोगों ने.

‘‘पर यह तो कुदरत की मेहरबानी है कि हमारे तीनों बच्चे स्वस्थ व संपूर्ण हैं. छोटे हैं पर सबकुछ समझते हैं. इन्हें शिकायत नहीं कि हम देख नहीं सकते. हमें दिखा देने की भरपूर कोशिश करते हैं. इसलिए कहा कि संपूर्ण हैं.’’

‘‘आप की समझ बहुत अच्छी है वरना संपूर्ण का मतलब तो अच्छेअच्छे भी नहीं जानते.’’

‘‘ठीक कहा आप ने. पढ़ालिखा हूं, फैक्टरी में वरिष्ठ लिपिक हूं पर सच कहूं तो संपूर्ण होने का दावा करने वाली यह दुनिया… सच में बड़ी खोखली है. उस का बस चले तो मेरा यह आधार भी छीन ले.’’

कितना तल्ख स्वर हो आया उन का. चोट खाना और निरंतर खाते रहना हर किसी के बस का नहीं होता.

इतना स्नेहिल व्यक्तित्व अपनी दुनिया का सबकुछ था पर बाहर की दुनिया उसे कुछ न होने का एहसास हर पल कराती.

पत्नी का हाथ पति के कंधे तक आ गया. बच्चे उन के और करीब सिमट गए. एक अनकही सांत्वना के घेरे में वह सुरक्षित हो गए. मैं बाहर था, बाहर ही रह गया. बातचीत का सिल- सिला टूट गया. मैं फिर भी न जाने किस आशा में बैठा रहा. वे भी अपने में सिमटे गुम थे.

‘‘आप…’’ मैं ने पूछना चाहा.

‘‘महाशय, आज नहीं, फिर कभी… आज का दिन इन बच्चों का है.’’

प्रश्न अनुत्तरित रह गया. वे उठ गए. मंदिर में प्रसाद का प्रबंध हो रहा था. प्रसाद में पूरा खाना. पंगत में बैठे, खाना खाते वे परिवारजन अपने भीतर एक खुशी समाए हुए थे. सच में वे संपूर्ण थे. दुनिया उन्हें कुछ दे पाती उस की क्या बिसात थी. वे ही दुनिया को देने के काबिल थे. एक आदर्श पतिपत्नी, एक आदर्श मातापिता.

फिर भी मैं सोच रहा था कि यह तो उन का आज था. यहां तक आतेआते जीवन के कितने पड़ावों पर समय ने उन्हें कितना तोड़ा होगा? ये बच्चे ही जब छोटे होंगे तो क्याक्या कठिनाइयां न आई होंगी उन के सामने. निश्चय ही कितने दुख, दुविधाएं और असहजताएं पहाड़ बन कर टूट पड़ी होंगी.

मैं मंदिर से बाहर आ गया. घर आ कर भी कितने ही दिन तक उन को ले कर मन में विचार खुदबुदाते रहे थे.

फिर धीरेधीरे दिन बीतने लगे. वे कभीकभार याद आते थे, पर वक्त ने धीरेधीरे सबकुछ धूमिल कर दिया और मैं अपनी दुनिया में खो गया.

उन दिनों आफिस के काम से मुझे गुजरात के सांबल गांव जाना पड़ा. सांबल गांव क्या था, अच्छा शहरनुमा कसबा था. दिन तो कार्यालय में अपना काम पूरा करतेकरते बीत गया. शाम हो गई पर काम पूरा न हो पाया. लगता था कि कम से कम 2-3 दिन तो खा ही जाएगा यह काम. रुकने का मन बना लिया. स्टाफ में मदन भाई को थोड़ाबहुत जानता था क्योंकि वह भी इसी तरह टूर में 1-2 बार हमारे कार्यालय आए थे. बाकी 1-2 से काम के साथ ही जान- पहचान हुई.

मदन बाबू का घर पास ही था सो उन के आग्रह पर चाय उन के घर ही पीनी थी. दिन भर की थकान के बाद अदरक की चाय ने बदन में जान डाल दी. चुस्ती महसूस करता मैं ड्राइंगरूम का निरीक्षण करता रहा. मदन बाबू भीतर थे. 15-20 मिनट बाद की वापसी के बाद ही वे एकदम तरोताजा बदलेबदले लगे. तय हुआ कि वे मुझे डाक बंगले छोड़ देंगे.

मैं वहां जल्दी पहुंचना चाहता था. थकान व चिपचिपाहट से नहाने का मन कर रहा था.

डाक बंगले में पहुंच कर मदन बाबू ने विदा लेनी चाही. मैं ने भी यों ही पूछ लिया, ‘‘अब सवारी किधर को निकलेगी?’’

मदन बाबू हंस दिए, ‘‘जरा ब्लाइंड स्कूल तक जाऊंगा.’’

‘‘ब्लाइंड स्कूल? वहां क्यों?’’ मन में रणकपुर वाली घटना अनायास कौंध गई.

‘‘महीने में एक बार जाता हूं. इसी बहाने थोड़ा मन बहल जाता है कि कुछ तो किया.’’

उत्सुकता से सिर उठा लिया था, ‘‘यार, मैं भी चलूंगा तुम्हारे साथ.’’

‘‘क्या करोगे, राव? यहीं आराम कर लो. दिन भर में थके नहीं क्या? मुझे तो वहां समय लग जाता है. तुम बेकार बोर होगे.’’

‘‘नहीं…नहीं. बस, 10 मिनट,’’ मैं हड़बड़ा कर बोला, ‘‘किसी खास मकसद से जा रहे हो?’’

‘‘मकसद तो कोई नहीं…मातापिता की याद में जाना शुरू किया था. उन के नाम से खानाकपड़ा बांट आता था. फिर मुझे लगा कि उन्हें इन चीजों से भी अधिक प्यार की जरूरत है.’’

‘‘ओह, अब तो मैं जरूर ही चलूंगा, मिनटों में हाजिर हुआ.’’

मेरे दिल में रणकपुर में मिले उन लोगों ने दस्तक दी. वे न सही, वैसे ही कुछ और लोग मिलेंगे.

मैं मदन बाबू के साथ निकल पड़ा. रास्ते मेरे पहचाने न थे. कई सड़कें, मोड़, चौराहे पार कर के हम एक इमारत के सामने रुक गए. अंध स्कूल एवं बोर्डिंग आ गया था.

भीतर प्रवेश करने पर सीधे हाथ को कुछ आफिस जैसे कमरे थे. बाएं हाथ को सामने काफी बड़ा मैदान था. कुछ बच्चे वहां खेल रहे थे. कुछ पौधों में पानी दे रहे थे. कुछ आजा रहे थे. एक जगह कुछ खेल भी चल रहा था.

मदन बाबू ने किसी को आवाज दी तो सारे बच्चे मुड़ कर उन की तरफ आ गए और उन को चारों ओर से घेर लिया. किसी ने हाथ पकड़ा, किसी ने उंगली तो किसी ने बुशर्र्ट का कोना ही पकड़ लिया. एकलौते बटन की कमीज पहने एक छोटा लड़का पैरों से चिपट गया. देख कर लगा सब के सब उन के बहुत नजदीक होना चाहते थे. उन्होंने भी किसी  का गाल थप- थपाया तो किसी की पीठ पर हाथ फेर कर प्यार किया. कुछ बच्चे उन से पटाखे लाने के लिए भी कह रहे थे.

मदन बाबू ने बच्चों से उन का सामान लाने का वादा किया और हम भीतर के हिस्से में चल पड़े. अगलबगल के कमरों से गुजरते हुए मैं ने बच्चों को कुरसियां बुनते, बढ़ईगीरी का काम करते, बेंत के खिलौने बनाते देखा था. एक छोटी सी लाइब्रेरी भी देखी, जहां बच्चे ब्रेल लिपि का साहित्य पढ़ रहे थे. 5-6 बिस्तरों वाला छोटा सा अस्पताल भी देखा.

यों ही घूमते हुए हम थोड़ी खुली जगह में आ गए.

‘‘चलिए, राव साहब, अब आप को एक हीरे से मिलवाते हैं,’’ मदन बाबू मुझ से बोले.

अब हम कुछ गलियारे पार कर एक बडे़ से कमरे तक आ गए. रोशनी में डूबे इस कमरे की धड़कन कुछ अलग सी लगी, तनिक खामोश सी.

‘‘विनोद बाबू, देखिए तो कौन आया है?’’

‘‘अरे, मदनजी… किसे लाए हैं?’’ चेहरा हमारी तरफ घूम गया. मेरा दिल तेजी से धड़क उठा. आंखें पहचानने में भूल नहीं कर सकती थीं. यह वही सज्जन थे, वही रणकपुर वाले. आंखें एक बार फिर खुशी से नाच उठीं.

‘‘अपने राव साहब हैं,’’ मदन बाबू बोले, ‘‘राजस्थान से टूर पर आए हैं. आप तक ले आया इन्हें.’’

‘‘अच्छा किया,’’ और मेरी तरफ हाथ बढ़ा कर विनोद बाबू बोले, ‘‘आइए, प्रशांतजी…’’

मैं ने बढ़ कर उन का हाथ थाम लिया. दूसरे हाथ का सहारा लगाते हुए उन्होंने हाथ मिलाया.

‘‘पहली बार आए हैं गुजरात…’’ विनोद बाबू बोले.

‘‘जी…’’ बहुत इच्छा हो रही थी कि रणकपुर की याद दिलाऊं, पर इस वक्त अनजान बने रहना ठीक लगा. मैं उन्हें सचमुच जानना चाहता था. उन के हर अनछुए पहलू को, उन के व्यक्तित्व को, जीवन को, उन के संपूर्ण बच्चों को…और मेरे होंठों पर यह सोच कर हंसी तिर आई. आखिर वे मिल ही गए.

मदन बाबू उन से बातें करने लगे. बातें सामान्य थीं, अधिकतर संस्था से संबंधित.

मदन बाबू ने बताया कि वह कितना यत्न कर के इस संस्था को संभाल रहे थे और यह भी बताया कि वह अपने काम के प्रति कितने निष्ठावान, सच्चरित्र, महत्त्वाकांक्षी और मेहनती हैं.

तो मैं ने उन्हें ठीक ही भांपा था. शायद यही सब था जो मैं जानना चाहता था. उन के चेहरे पर सलज्ज आभा थी. अपनी इतनी तारीफ सुनने में उन के चेहरे पर किस कदर सकुचाहट थी. आंखें होतीं तो वे भी सपनों को पूरा होते देख भूरिभूरि सी चमक उठतीं.

अपनी शारीरिक क्षमता की सीमा के बावजूद उन के हौसलों के परिंदे कितनी ऊंची उड़ान भरना चाहते थे, वह भी सरकारी महकमे में, जहां आंख वाले तक अंधे हो जाते हैं. काम से दूर भागते, काहिल से, पीक थूकते, चाय गटकते, टिन के जंग लगे पुतलों की तरह बेवजह बजते. विनोद बाबू इन सब का अपवाद बने सामने खड़े थे.

‘‘प्रशांतजी, कैसी लगी आप को हमारी संस्था?’’

‘‘काफी व्यवस्थित सी.’’

‘‘आप तो बहुत ही कम बोलते हैं पर आप ने सही शब्द कहा है. इस व्यवस्था को बनाने में कई साल लग गए हैं. सरकारी छल तो आप जानते ही हैं. पैसों की तंगी झेलनी ही पड़ती है.’’

‘‘जानता हूं, फिर भी आप ने…’’

‘‘मैं ने नहीं, सब ने, यहां बड़ा स्टाफ है. हाथपैरों से सब करते हैं पर सुविधाएं जुटाना… पूरा दम लग जाता है.’’

‘‘कुछ ठीक से बताएंगे… आज तो मैं तल्लीन श्रोता ही हो जाता हूं.’’

खनकती हंसी हंस दिए विनोद बाबू. मदन बाबू भी बहुत उत्कंठित लगे.

‘‘प्रशांतजी, जब आया था तो सचमुच निराश था. मेरी योग्यता को ओछा बना दिया गया था. कैसे भी, कहीं भी, कोई भी काबिल, नाकाबिल सब आगे बढ़ते जाते थे. मेरी सारी शिक्षा, मेरी सारी मेहनत, मेरी इन आंखों से माप दी जाती थी. मैं ने मन मसोस कर, अंतहीन दुख पा कर बहुत समय बिताया, जगहजगह काम किया पर सब बेकार ही रहा. सब के पास आंखें थीं पर कान न थे, दिमाग न था, दिल न था. मुझे अनसुना, अनबूझा, अनजाना रहना था सो रह गया. उस कठिन घड़ी में मेरे बच्चे और मेरी पत्नी ही मेरा अंतिम सहारा थे.’’

मदन बाबू और मैं चुप थे. सन्नाटे ख्ंिचे उस प्रकाश में उन का दुख शायद अरसे बाद बाहर रिस आया था.

‘‘7-8 साल की मायूसी में डूबताउतराता मैं अंधेरे में डूब ही जाता कि रोशनी की सूरत में यह संस्थान मिल गया. प्रशांतजी, रोशनी की दुनिया का ठुकराया मेरा अस्तित्व जैसे अपनों के बीच आ मिला. जो कुछ मैं ने झेला वह ये बच्चे न झेलें, यही सोचता हूं हर दम. हौसला बांधे हुए तभी से जुटा हूं. मदनजी से बड़ी मदद है.’’

‘‘मैं नहीं विनोद बाबू, यह तो आप की यात्रा है.’’

‘‘मदन बाबू, तिनके का सहारा भी डूबते के लिए बहुत होता है. आप ने तो सब देखा ही है. कितनी बदइंतजामी थी. न खाना, न पीना, न पहनना, न जानना, न समझना. सब बेढंगा… बड़ी पीड़ा हुई थी. यहां इतना बिखराव था कि समझ में नहीं आता था कि कहां से समेटूं. बच्चों को छोड़ कर मातापिता भी जैसे भूल चुके थे.’’

‘‘क्या मतलब? इन के मातापिता हैं क्या?’’

‘‘हां, हैं न, 10-15 बच्चे अनाथ हैं यहां, पर बाकी को मांबाप की लापरवाही ने अनाथ बना दिया है. मैं ने सब से पहले यही किया. सभी बच्चों का ब्योरा बनाया. मैं भी समझ रहा था कि ये अनाथ हैं, पर राव साहब, यह अंध स्कूल है, अंध अनाथाश्रम नहीं. बच्चे दिन भर यहीं रहते हैं. खानापीना, पढ़नालिखना, रोजमर्रा के कामों की ट्रेनिंग और जो कोई कारीगरी सीख पाए तो वह भी. शाम को इन्हें घर जाना चाहिए, पर इस में नियमितता नहीं है. रात गए तक मांबाप की प्रतीक्षा करता बच्चा…क्या कहूं…कलेजा मुंह को आता है.

‘‘मांबाप को टोको तो सौ बहाने बना देते हैं. उन के लिए दुनिया के सारे काम जरूरी हैं और उन का सहारा खोजता उन का अपना बच्चा कुछ भी नहीं.

‘‘प्यार के भूखे ये बच्चे. सच इन्हें थोड़ी सी देखभाल, पर ढेर सारा प्यार चाहिए और कुछ नहीं चाहिए. ये अपनी दुनिया में संपूर्ण हैं.’’

सच में वे संपूर्ण थे. न केवल अपने परिवार के लिए वरन सामाजिक सरोकार में भी. शतरंज और लूडो खेलते, कुरसी बुनते, टाइपिंग करते, कंप्यूटर पर काम करते, एकदूसरे का कंधा थामे गणतंत्र दिवस पर परेड करते, बागबानी करते इन बालकों के जीवन में कला के कितने ही रंग, स्वर और गंध समा गई थी. Social Story in Hindi

हर 3-4 महीने में लेटैस्ट मोबाइल खरीदने का मुझे शौक हो गया है, मैं क्या करूं?

सवाल-

19 वर्षीय युवती हूं. मुझे मोबाइल फोबिया हो गया है. हर 3-4 महीने के बाद लेटैस्ट मोबाइल खरीदने का मुझे शौक है. देर रात तक मोबाइल पर गेम्स खेलना और चैटिंग करना मेरी आदत में शुमार है. इस वजह से पढ़ाई में भी मन नहीं लगता. इस से मेरा रिजल्ट भी प्रभावित हो रहा है. बताएं मैं क्या करूं?

जवाब-

मोबाइल से चिपके रहना न सिर्फ शारीरिक रूप से नुकसानदायक है, बल्कि मानसिक रूप से भी व्यक्ति को कमजोर कर देता है. आप को अभी अपने कैरियर पर ध्यान देना चाहिए. इस के लिए मोबाइल को छोड़ पत्रपत्रिकाओं में ध्यान लगाएं. अच्छा साहित्य पढ़ें. इस से आप का सामान्य ज्ञान बढ़ेगा. रूटीन लाइफ और अच्छा साहित्य पढ़ना शुरू करेंगी तो स्वत: ही मोबाइल की गंदी लत से छुटकारा मिल जाएगा.

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कॉलेज में पढ़ाई का खर्च ज्‍यादा होता है. ऐसे में परिवार की फाइनेंशियल हालत अच्‍छी नहीं हो तो परेशानी आ सकती है. हालांकि, इस तरह के हालात से बचा जा सकता है. आप पढ़ाई के साथ कुछ घंटे काम करके कॉलेज के दौरान 10 से 20 हजार रुपए मंथली कमा सकते हैं.

सोशल मीडिया स्ट्रैटेजिस्ट

सोशल मीडिया के बढ़ते असर को देखते हुए कॉरपोरेट कंपनियां, पॉलिटीशियन, सरकारी महकमों आदि में सोशल मीडिया मैनेज करने वालों की मांग तेजी से बढ़ी है. इसमें वैसे लोगों की मांग बढ़ी है, जिनको फेसबुक, ट्विटर, लिंक्‍ग‍इन, यूटूब आदि की समझ हो और इसको अच्‍छे से मैनेज करने की क्षमता रखते हों. अगर, आप कॉलेज स्‍टूडेंट हैं तो इस काम को पढ़ाई के साथ बेहतर तरीके से कर सकते हैं. इसके लिए कोई एक्‍सट्रा नॉलेज या स्‍पेस की जरूर नहीं होगी. आपको कंटेंट और टेक्‍नोसेवी होना होगा.

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Family Drama Story: सुलभा का एक हाथ अधखुले किवाड़ पर था. वह उसी स्थान पर लकवा मारे मनुष्य की तरह जड़ सी हो गई थी. शरीर व मस्तिष्क दोनों पर ही बेहोशी सी तारी हो गई थी मानो. उसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. क्या जो कुछ उस ने सुना वह सच है? जगदीश इस तरह की बात कर सकता है? जगदीश, उस का दीशू, जिसे वह बचपन से जानती है, जिस के विषय में उसे विश्वास था कि वह उस की नसनस से परिचित है…वह?

आगे क्या बातें हुईं वह उस के जड़ हो चुके कानों ने नहीं सुनीं. थोड़ी देर बाद जब उस के दोस्त की आवाज कान में पड़ी, ‘‘चलता हूं यार, तेरे रंग में भंग नहीं डालूंगा,’’ तो मानो उसे होश आया.

अधखुले कपाट को धीरे से बंद कर के अपनी चुन्नी से सिर और मुंह को अच्छी तरह ढक कर वह शीघ्रता से मुड़ी और लगभग दौड़ती हुई बगल में अपने घर के फाटक से अंदर प्रवेश कर के एक झाड़ी की आड़ में खड़ी हो गई.

जगदीश के दोस्त ने सड़क पार खड़ी अपनी कार का दरवाजा खोला, अंगूठा ऊपर कर घर के दरवाजे पर खड़े जगदीश को इशारा सा किया और कार स्टार्ट कर निकल गया.

जगदीश के अधिकांश मित्रों को वह पहचानती है, पर यह शायद कोई नया है. भाभी बता रही थीं, आजकल उस की बड़ेबड़ों से मित्रता है. इधर कंस्ट्रक्शन में काफी कमाई कर ली है उस ने.

जगदीश अपने घर के सदर दरवाजे में दोनों हाथ सीने पर बांधे सीधा तन कर खड़ा था. सुलभा कुछ क्षण उस की इस उम्र में भी सुंदर, सुगठित ऊंचीलंबी काया को देखती रही, फिर मुंह फेर लिया. आश्चर्य…? उसे जगदीश से घृणा या वितृष्णा का अनुभव नहीं हो रहा था. वह समझ नहीं पा रही थी कि इसे निराशा कहे या विश्वास की टूटन या मन में स्थापित किसी प्रिय सुपरिचित मूर्ति का खंडित होना. वास्तव में उस के मस्तिष्क की जड़ता उसे कुछ अनुभव करने ही नहीं दे रही थी. कुछ भी सोचनेसमझने में असमर्थ वह थोड़ी देर यों ही खड़ी रही.

घर के अंदर बजती टैलीफोन की घंटी की आवाज ने उसे कुछ विचलित किया. वह समझ रही थी कि फोन जगदीश का ही होगा और उत्तर न पा कर वह कहीं खुद ही न आ धमके, घबरा कर फाटक खोल कर वह सड़क पर आ गई और बिना कुछ सोचेसमझे जगदीश के घर की विपरीत दिशा में तेजी से चलने लगी. वह इस समय जगदीश का सामना करने के मूड में बिलकुल नहीं थी. दो कदम चलते ही उसे औटो मिल गया. औटो में बैठ कर पीछे देखने पर उस ने पाया कि जगदीश अपने घर की सीढि़यां उतर चुका था. उस ने औटो वाले को तेज चलने का आदेश दिया.

उस के बचपन की सहेली सुधा उसे यों अचानक देख कर आश्चर्यचकित रह गई. वह बोली, ‘‘अरे तू, तू कब आई? तेरा तो पता ही नहीं चलता. कब मायके आती है कब जाती है. मिले हुए कितना अरसा हो गया, पता भी है? शुक्र है आज तुझे याद तो आई कि मैं भी इसी शहर में रहती हूं.’’

उस की धाराप्रवाह चलती बातों को बीच में ही रोक कर सुलभा ने तनिक हंस कर कहा, ‘‘अच्छा, बातें बाद में होंगी, पहले औटो वाले को पैसे तो दे दे, आते समय पर्स उठाना ही भूल गई. भैयाभाभी किसी पार्टी में गए हैं, उन्हें फोन कर दूंगी वापसी में वे मुझे लेते जाएंगे.’’

सुधा के साथ इधरउधर की बातों में सुलभा शाम की घटना को भुलाने की कोशिश करती रही. सुधा के पति दौरे पर थे, यह जानकर सुलभा को अच्छा लगा. उस के साथ ही बेमन से खाना भी खा लिया. घर पर तो शायद वह कुछ खा ही न पाती.

अकेले सांझ बिताने की बोरियत से छुटकारा पाने के उत्साह में, यों अचानक सहेली के आगमन से, सुधा का सुलभा की असमंजसता पर ध्यान ही नहीं गया. सुलभा ने चैन की सांस ली.

भैयाभाभी के साथ घर लौटते रात के 12 बज गए थे. पर सुलभा की आंखों में नींद नहीं थी. अब तक का जीवन एक फिल्म की रील की भांति उस के जेहन में घूम रहा था.

दोनों की माताएं शायद दूर की मौसेरी बहनें थीं. पर उन का परस्पर परिचय पड़ोसी होने के नाते ही हुआ था. उस दूर के रिश्ते की जानकारी भी परिचय होने के बाद ही हुई. पर विभाजन के बाद भारत आए विस्थापित परिवारों को इस नए और अजनबी परिवेश के चलते रिश्ते की इस पतली सी डोर ने भी मजबूती से बांध दिया था. कभीकभी तो इतना सौहार्द बेहद नजदीकी रिश्तों में भी नहीं हो पाता.

जगदीश और सुलभा हमउम्र थे. जहां सुलभा दोनों भाइयों में छोटी थी, वहीं जगदीश अपने मातापिता की जेठी संतान था. जो उन के ब्याह के 7-8 वर्षों बाद पैदा होने के कारण मातापिता, विशेषकर माता, का बहुत लाड़ला था और 5 वर्ष बाद दूसरे भाई के जन्म के बाद भी उस के लाड़प्यार में कमी नहीं आई थी.

जगदीश और सुलभा अभिन्न थे. दोनों एकसाथ स्कूल जाते, खेलते या लड़तेझगड़ते पर एकदूसरे के बिना मानो सुकून न मिलता. प्राइमरी के बाद सुलभा का दाखिला गर्ल्स स्कूल में हो गया था, तो भी कक्षा एक ही होने की वजह से दोनों की पढ़ाई अकसर एकसाथ ही होती. सुलभा पढ़ाई में अच्छी होने के कारण सदा अच्छी रैंक लाती, वहीं जगदीश जैसेतैसे पास हो जाता.                             

बचपन में वे एकदूसरे को दीशू और सुली कह कर पुकारते. कालेज जौइन कर लेने के बाद सुलभा ने उसे पूरे नाम से पुकारना शुरू कर दिया था पर जगदीश कभीकभी सुली कह लेता था. वयस्क हो जाने के बाद भी दोनों का दोस्ती वाला व्यवहार और हंसीमजाक कभी किसी को नहीं खटका.

जब वे दोनों हाईस्कूल में थे, तब मौसी ने एक बार सुलभा से कहा था, ‘तू जगदीश को राखी क्यों नहीं बांधती.’ बीच में ही जल्द से बात काट कर जगदीश बोल उठा था, ‘रहने दो बीजी, राखी बांधने के लिए इतनी सारी चचेरी, फुफेरी बहनें क्या कम हैं? सुली तो मेरी दोस्त, सखी है. इसे वही रहने दो.’ दोनों की माताएं हंस पड़ी थीं.

सुलभा ने तब हंस कर कहा था, ‘हां, तुम्हारे जैसे फिसड्डी को भाई बताने में मुझे भी शर्म ही आएगी.’ जगदीश बनावटी गुस्से से उसे मारने उठा तो वह उस की मां के पीछे जा छिपी. मौसी ने उसे लाड़ से थपथपा कर कह दिया, ‘ठीक तो कह रही है, कहां हर साल अव्वल आने वाली हमारी सुलभा बेटी और कहां तुम, पास हो जाओ वही गनीमत.’ वैसे, सुलभा को भी उसे राखी बांधने का खयाल कभी नहीं आया था.

सुलभा के बीए फाइनल में पहुंचते ही उस की दादी ने अपनी उम्र का हवाला देते हुए उस की शादी के लिए जल्दी करनी शुरू कर दी. उन्होंने इकलौती पोती का कन्यादान करने की ख्वाहिश जाहिर की थी.

सुलभा ने चिढ़ कर कहा था, ‘‘क्या मैं कोई गाय या बछिया हूं जो मेरा दान करेंगी बीजी?’’

‘अरे बेटी, लड़की के ब्याह के लिए यही कहा जाता है न.’

जगदीश ने छेड़ा, ‘देख ली अपनी औकात?’ वह मारने दौड़ी तो जगदीश जबान दिखाते हुए भाग गया.

बीए की परीक्षा होते ही सुलभा की शादी हो गई. हालांकि बाद में उस ने एमए और बीएड भी कर लिया था. 2 बच्चों के जन्म के बाद और पति की तबादले वाली नौकरी के कारण वह अधिक दिनों के लिए मायके न आ पाती, फिर मातापिता के न रहने पर और बच्चों की पढ़ाई के चलते मायके आना और भी कम हो गया.

हालांकि, पड़ोस होने के कारण हर बार आने पर जगदीश और उस  के परिवार से मुलाकात हो ही जाती. जगदीश किसी प्रकार एमए कर के पिता के साथ बिजनैस में लग गया था. मातापिता के न रहने पर अब वही घर का सर्वेसर्वा था. छोटा भाई इंजीनियरिंग की डिगरी ले कर दूसरे शहर में नौकरी कर रहा था. इस बीच जगदीश ने भी शादी कर ली.

एक बार जगदीश की पत्नी उषा ने कहा था, ‘दीदी, आप मुझे भाभी क्यों नहीं कहतीं?’

‘क्योंकि तुम आयु में मुझ से छोटी हो और मुझे दीदी कहती हो. फिर मैं ने जगदीश को भी तो कभी भैया नहीं कहा. पर यदि तुम्हें अच्छा लगता है तो मैं तुम्हें भाभी ही कहा करूंगी, उषा भाभी,’ और मैं हंस पड़ी थी. उषा भी हंस दी पर उस का चेहरा लाल हो आया था मानो उस की कोई चोरी पकड़ी गई हो. पास बैठा जगदीश बिना कुछ बोले मुंह पर गंभीरता ओढ़े उठ कर चला गया था.

फिर एक दिन उषा ने हंसीहंसी में कहा था, ‘दीदी, आप अपने सखा की गोपियों के बारे में जानती हैं?’

सुलभा जगदीश के रसिक स्वभाव से परिचित थी. अधिकांश लड़़कियां भी उस सुदर्शन युवक से परिचित होने को उत्सुक रहतीं. पर सुलभा ने इस ओर कभी ध्यान नहीं दिया था. कुछ आश्चर्य से ही बोली, ‘हां.’

‘आप को बुरा नहीं लगा, आप तो उन की सखी हैं न, उन की राधा’, उषा ने चुटकी लेते हुए कहा.

सुलभा हंस पड़ी थी. ‘बुरा तो रुक्मिणी को लगना चाहिए, नहीं?’

बचपन से दोनों परिवारों को उन में अभिन्नता देखते आने के कारण उन का आपसी व्यवहार स्वाभाविक ही लगता था. पर दूसरे परिवेश से आई उषा को शायद उन का व्यवहार असामान्य लगता है. सुलभा ने कई बार यह महसूस किया है, हालांकि इस बारे में गंभीरता से नहीं सोचा.

पर, अपने खुले स्वभाव के कारण विकास ने कभी अन्यथा नहीं लिया जबकि सुलभा ने देखा कि मिलने पर विकास जब जगदीश की पीठ पर धौल जमा कर ‘और साले साहब, क्या हालचाल हैं’  कहते हैं, ‘नवाजिश है आप की’ कहते जगदीश मन ही मन कसमसा जाता, हालांकि ऊपर से हंसता रहता है.

भाभी नहाने गई थीं. सुलभा और जगदीश बैठे बातें कर रहे थे. एकाएक किसी बात का रिस्पौंस न पा कर सुलभा ने जगदीश की ओर देखा, लगा जैसे उस ने सुलभा की बात सुनी ही न हो. वह जाने कैसी नजरों से उसे एकटक देख रहा था.

सुलभा कुछ सकुचा कर उठने को हुई कि जगदीश ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘सुनो सुली, मेरी बात ध्यान से सुनो और प्लीज नाराज मत होना. मैं…मैं तुम्हें…तुम मेरी बात समझ रही हो न. देखो इधर मेरी आंखों में देखो सुली, क्या तुम्हें कुछ भी दिखाई नहीं देता? मैं…मैं तुम्हारे लिए वर्षों से तड़प रहा हूं. क्या तुम सचमुच कुछ भी नहीं समझतीं, या…’’

सुलभा उत्तेजित हो कर कुछ कहने को हुई, तो वह उस के मुंह पर हाथ रख कर बोला, ‘‘नहीं, पहले तुम मेरी पूरी बात सुन लो, सुली, अभी कुछ मत कहो. अच्छी तरह सोच लो. मैं आज रात 8 बजे के बाद अपने घर में तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा, प्लीज.’’ आंखों में आंसू भर कर उस ने हाथ जोड़ दिए. फिर बोला, ‘‘देखो, यह मेरी अंतिम इच्छा है. एक बार पूरी कर दो. इस के बाद मैं तुम से कुछ नहीं मांगूंगा.

‘‘देखो, मैं जानता हूं तुम और विकास एकदूसरे को बहुत प्यार करते हो, हालांकि यही बात मैं अपने और उषा के लिए नहीं कह सकता, शायद, इस के लिए मैं ही अधिक दोषी हूं. पर कभीकभी मुझे लगता है कि मुझे तुम्हारे ब्याह के समय ही विरोध करना चाहिए था. पर तब मैं अपनी भावनाएं अच्छी तरह समझ नहीं पाया था और बाद में बहुत देर हो चुकी थी.

‘‘तुम मेरी गर्लफ्रैंड्स के बारे में जानती हो, पर विश्वास मानो मैं उन सब में तुम्हें ही ढूंढ़ता रहा हूं. उषा बच्चों के साथ मायके गई हुई है और तुम्हारे भैयाभाभी को आज रात किसी पार्टी में जाना है. ऐसा अवसर फिर कभी नहीं मिलेगा. आजकल तुम यहां आती ही कितना हो. मुश्किल से 2-3 दिन या किसी विशेष अवसर पर. और अकेले तो कितने अरसे बाद आई हो. देखो, मेरा दिल मत तोड़ना सुली. तुम्हें अपने दीशू की कसम.’’ उसे कुछ कहने का मौका दिए बिना ही रूमाल से आंसू पोंछता वह जल्दीजल्दी चला गया.

सुलभा सन्न रह गई. उसे याद आया कुछ वर्षों पहले भी उस ने कुछ इसी तरह का इशारा किया था. वह लज्जा और क्रोध से लाल हो गई थी. उस का रौद्र रूप देख कर जगदीश सकपका गया था, कान पकड़ कर हंसते हुए बोला था, ‘सौरी बाबा, सौरी, मजाक कर रहा था.’

‘दिमाग ठीक है तुम्हारा? ऐसा भी मजाक होता है? बच्चे नहीं हो कि जो मुंह में आया बक दिया. आज के बाद मुझ से बात करने की भी कोशिश मत करना’, क्रोध और क्षोभ से वह उठ खड़ी हुई थी.

जगदीश एकदम घबरा गया था, ‘माफ कर दो सुली. मगर ऐसा गजब न करना, तुम्हारे पैर पड़ता हूं. माफ कर दो प्लीज.’ और उस ने सचमुच सुलभा के पैर पकड़ लिए थे.

तो क्या यह इतने वर्षों से ही यह इच्छा मन में रखे है, वह तो कब का उस बात को भूल चुकी थी. और आज इस उम्र में…सुलभा का बेटा इंजीनियरिंग के फाइनल ईयर में है, बेटी मैडिकल के प्रथम वर्ष में है. खुद जगदीश की बेटी इस वर्ष कालेज जौइन करेगी.

उस ने अपने मन को टटोलने का यत्न किया. पर उस के अपने मन में तो सदा जगदीश के लिए दोस्तीभाव ही रहा है. उस का प्यार तो विकास ही है. और जगदीश का आज का प्रस्ताव क्या प्यार है? क्या पुरुष की दृष्टि में नारी का एक यही रूप है? छि:, उस का सिर घूम रहा था, दिमाग मानो कुछ भी सोचनेसमझने में असमर्थ हो रहा था. भाभी के कुछ एहसास करने पर सिरदर्द का बहाना बना कर वह अपने कमरे में जा कर लेट गई.

शाम तक उस की यही हालत रही. पहले उस ने सोचा, भैयाभाभी के साथ पार्टी में चली जाए, पर अनजान, अपरिचित लोगों से मिलने और वार्त्तालाप करने लायक उस की मनोस्थिति नहीं थी. फिर भाभी ने साथ चलने के लिए खास अनुरोध भी नहीं किया था. पार्टी उन की सहेली की शादी की वर्षगांठ की थी और उस ने शायद चुनिंदा लोगों को ही बुलाया था.

दिनभर वह इसी ऊहापोह में रही कि क्या करे. अंधेरा होने पर जब वह जगदीश के घर की ओर चली, तब तक तय नहीं कर पाई थी कि वह क्यों जा रही है और उस से क्या कहेगी. पर वह यह भी जानती थी कि उस के न जाने पर वह खुद ही आ धमकेगा.

जगदीश के घर के सदर दरवाजे के पल्ले यों ही भिड़े थे. सुलभा ने उसे खोलने के लिए पल्ले पर हाथ रखा ही था कि एक अपरिचित स्वर सुन कर ठिठक गई, ‘‘तो आज तुम बिलकुल नहीं लोगे? मैं ने तो सोचा था कि भाभी नहीं हैं, सो, आज जरा जम कर बैठेंगे.’’

‘‘नहीं यार, आज तो बिलकुल नहीं. उसे ड्रिंक से सख्त नफरत है. आज जब मेरे जीवनभर का अरमान पूरा होने जा रहा है, मैं यह रिस्क नहीं ले सकता.’’

‘‘पर यार, मेरी समझ में नहीं आ रहा. अब इतने वर्षों बाद ऐसा भी क्या है. अरे, तुझे कोई कमी है. एक से एक परी तेरे एक इशारे की प्रतीक्षा में रहती है. और तू है कि इस अधेड़ उम्र की स्त्री के लिए इतना बेचैन हो रहा है?’’                               

‘‘तू नहीं समझेगा. आज तक मुझे किसी युवती ने इनकार नहीं किया जिस पर भी मैं ने हाथ रखा, सिर्फ इसी ने…मुझे अपना सारा वजूद ही झूठा लगता था, मैं ने जिंदगी में कभी किसी स्तर पर हार नहीं मानी. न खेल में, न बिजनैस में, न प्रेम में. हार मैं सहन नहीं कर सकता. किसी कीमत पर नहीं. आज, आज लगता है मैं एवरेस्ट फतह कर लूंगा.’’

सुलभा को लगा था मानो किसी ने उस के कानों में पिघलता सीसा उड़ेल दिया हो. रातभर जगदीश के शब्द उस के वजूद पर कोड़े से बरसाते रहे. उस के गुस्से की सीमा नहीं थी. बचपन से ले कर आज तक का समय उस की आंखों के सामने फिल्म की रील सा घूम गया. वह अभी भी समझ नहीं पा रही थी कि बचपन से अब तक देखा, सुना और जाना हुआ सच था या आज का उस का यह रूप. मनुष्य के कितने रूप होते हैं? कब कौन सा रूप प्रकट हो जाएगा, कौन जान सकता है? क्या पुरुष का यही रूप उस का असली और सच्चा रूप है? क्या खून के रिश्तों के अलावा पुरुष की नजरों में स्त्रीपुरुष का यही एक रिश्ता है? बाकी सब गौण हैं? मित्रता भी एक दिखावा ही है? क्या वह अब किसी चीज पर विश्वास कर पाएगी?

सुबह अपना सामान संभालती वह सोच रही थी, भैयाभाभी से यों अचानक लौट जाने का कौन सा बहाना बनाएगी. वह अब कभी जगदीश का सामना पहले की तरह सहज भाव में कर पाएगी? पता नहीं. पर आज तो हरगिज नहीं कर पाएगी. Family Drama Story

Hindi Crime Story: ससुराल के अन्धविश्वास के माहौल में क्या बस पाई मंजू?

Hindi Crime Story: करीब 3 माह के इलाज के बाद आज दिनकर को मैंटल हौस्पिटल से छुट्टी मिलने वाली थी. उसे जबरदस्त मानसिक आघात की वजह से आगरा के मैंटल हौस्पिटल में भरती कराया गया था. जब हौस्पिटल से सूचना मिली कि वह अब पूरी तरह से ठीक है और उसे घर ले जाया जा सकता है, तो उस की पत्नी, बेटाबहू और 3 साल का पोता विनम्र उसे लेने आए थे. हौस्पिटल की औपचारिकताएं पूरी करने में 2-3 घंटे का समय लग गया. फिर दिनकर जैसे ही वार्ड से बाहर आया उसे लेने आए सभी की आंखों में चमक दौड़ गई. खुशी के मारे सभी के आंसू छलक पड़े. दिनकर ने जैसे ही बांहें फैलाईं सब के सब दौड़ कर लिपट गए. नन्हा विनम्र दिनकर के गले से लिपट गया और दादूदादू कह कर प्यार से अपने कोमल हाथ उस के चेहरे पर फिराने लगा. दिनकर की आंखों से अश्रुधारा बह निकली. विनम्र आंखें पोंछने लगा दादू की. बड़ा भावपूर्ण दृश्य था.

पत्नी कविता भी रह नहीं पाई, दिनकर के पांवों में गिर पड़ी, ‘‘मुझे माफ कर दीजिए,’’ कह कर बिलख पड़ी.

दिनकर ने दोनों हाथ आगे बढ़ा कर उसे उठाया, फिर कहा, ‘‘चलो चलते हैं.’’

सरिता को ले कर दिनकर को मानसिक आघात लगा था, जिस के इलाज के लिए वह अस्पताल में था. सरिता से उस की मुलाकात 15 साल पहले एक रिश्तेदार की शादी में हुई थी. उसे जो भी देखता, देखता ही रह जाता. गजब का आकर्षण था उस में. उस की शादी को 10 बरस हो गए थे, लेकिन आज भी ऐसा लगता था जैसे जवानी की दहलीज पर कदम रखा है. किसी को विश्वास ही नहीं होता था कि 30 वसंत देख चुकी सरिता 2 बच्चों की मां भी है. शादी में कविता ने दिनकर से सरिता का परिचय कराया.

‘‘ये मेरी फ्रैंड है सरिता और रिश्ते में बहन भी. और सरिता, ये मेरे हसबैंड दिनकर.’’

‘‘हैलो जीजू, हाऊ आर यू?’’ सरिता ने हाथ आगे बढ़ाया.

‘‘फाइन,’’ दिनकर ने हाथ मिला कर संक्षिप्त सा जवाब दिया.

अपने आप में सिमट कर रहने वाला दिनकर कुछ शर्मीले स्वभाव का था, लेकिन सरिता बिलकुल विपरीत. एकदम बिंदास. सरिता और कविता शादी के उस माहौल में एकदूसरे से बतियातीं अपने बचपन की यादें ताजा कर रही थीं और दिनकर बीचबीच में कुछ बोल लेता.

‘‘अरे जीजू, आप तो कुछ बोल ही नहीं रहे. क्या बात है कविता, बोलने पर पाबंदी लगा कर आई हो क्या? हमारे पतिदेव तो ऐसे नहीं है, भई.’’

‘‘अरे ऐसा कुछ नहीं है. बस थोड़ा कम बोलते हैं,’’ कविता ने कहा.

सरिता कविता से बातें कर रही थी, लेकिन उस की नजरें बारबार दिनकर से टकरा रही थीं. लगता था उस की दिलचस्पी कविता में कम दिनकर से बात करने में ज्यादा थी. दिनकर स्मार्ट और अच्छी कदकाठी का धीरगंभीर था. जबकि कविता थुलथुल काया की थी. वह कब क्या बोल दे, कब कटाक्ष कर दे और कब बातोंबातों में किसी का अपमान कर दे कोई भरोसा नहीं रहता था. कविता और सरिता 10-12 साल बाद इस शादी में मिल रही थीं, इसलिए देर तक बात करती रहीं. फिर एकदूसरे को अपनेअपने शहर में आने का निमंत्रण भी दिया. कुछ दिनों बाद नववर्ष का आगमन हुआ तो दिनकर के मोबाइल फोन पर बधाइयों, शुभकामनाओं का दौर चल रहा था. दिनकर ने सब को नववर्ष की शुभकामनाएं एसएमएस से भेजीं. तभी अचानक दिनकर के मोबाइल की घंटी बजी तो मोबाइल स्क्रीन पर सरिता, मुंबई का नाम दिखाई दिया. दिनकर ने जैसे ही मोबाइल औन किया, ‘‘हैलो जीजू, आप को नववर्ष बहुतबहुत मुबारक हो. आप के लिए ढेरों खुशियां ले कर आए वह,’’ एक सांस में सरिता बोल गई.

‘‘आप को भी मुबारक हो,’’ दिनकर ने कहा.

‘‘आप का एसएमएस मिला. मुझे तो करना आता नहीं, सोचा बात ही कर लेती हूं.’’ और उस दिन नववर्ष की वह बातचीत लंबी चली. दिनकर को भी अच्छा लगा सरिता से बातें कर के. दिनकर को शेरोशायरी के शौक था. वह मोबाइल पर अपने दोस्तों से शेरों का आदानप्रदान करता था. उस दिन के बाद उस ने सरिता को भी उन्हें भेजना शुरू कर दिया. और सरिता तो जैसे मौके की तलाश में ही रहती. जैसे ही एसएमएस मिलता, दिनकर को फोन कर लेती. एक नया सिलसिला चल पड़ा दोनों के बीच. घंटों बातें होतीं. सरिता अपनी लाइफ की हर छोटीबड़ी बात उस से शेयर करने लगी. फिर उस ने एसएमएस करना भी सीख लिया.

‘‘दिनकरजी, आप मुंबई आइए न कभी. आप से मिलने को बड़ा मन कर रहा है,’’ एक दिन सरिता ने अपने दिल की बात कही.

‘‘मन तो मेरा भी बहुत कर रहा है सरिताजी. आप से मिलने का.’’

‘‘आप सरिताजी क्यों बोलते हैं? मैं आप से छोटी हूं. सरिता कह कर बोलेंगे तो मुझे अच्छा लगेगा. और हां, ये आपआप कहना भी बंद कीजिए. तुम बोलिए.’’

उस दिन सरिता ने दिनकर को यह अधिकार दे दिया तो वह उसे सरिता और तुम ही बोलने लगा. एक दिन दिनकर को अपने कारोबार के सिलसिले में मुंबई जाने का अवसर मिला तो उस ने सरिता को बताया.

वह खुशी से झूम उठी और बोली, ‘‘आप सीधे मेरे घर ही आओगे. किसी होटलवोटल में नहीं जाना.’’

‘‘अरे भई, मैं ने कहा न कि मैं काम से आ रहा हूं. दिन में काम निबटा कर तुम से और तुम्हारे पतिदेव से मिलने आ जाऊंगा.’’

‘‘ऐसा बिलकुल नहीं चलेगा. आप एअरपोर्ट से सीधे मेरे घर आओगे.’’

‘‘अच्छा बाबा देखता हूं. पर यार बड़ा अजीब लगेगा. तुम्हारे पति व बच्चे तो अनकंफर्टेबल महसूस करें.’’

‘‘नहीं करेंगे. सब ठीक होगा तभी तो आप को घर आने के लिए कह रही हूं न. आप तो बस एअरपोर्ट पर पहुंच कर मुझे फोन कर देना. हमारा ड्राइवर आप को मिल जाएगा.’’

सरिता ने आखिर दिनकर को घर आने के लिए मना लिया. फिर मुंबई एअरपोर्ट पर उसे सरिता का कार ड्राइवर मिल गया तो कुछ समय बाद वह सरिता के घर के सामने था. घर की बालकनी में खड़ी सरिता ने हाथ हिला कर दिनकर का अभिवादन किया. ऐसा लग रहा था कि वह बड़ी बेसब्री से दिनकर का इंतजार कर रही थी. उस के बच्चे स्कूल जा चुके थे और पति विजय सो रहे थे.

‘‘आइए दिनकरजी, हम यहां गैस्टरूम में बैठते हैं, आप चाय लेंगे या कौफी?’’ सरिता ने पूछा.

‘‘जो भी मिल जाए,’’ दिनकर ने कहा.

‘‘बस 5 मिनट में आई, तब तक आप फ्रैश हो लें,’’ सरिता ने किचन में जाते हुए कहा.

थोड़ी देर बाद गरमगरम चाय की चुसकियां लेते हुए सरिता ने कहा, ‘‘आखिर आप आ ही गए यहां.’’

‘‘आना तो था ही, तुम ने जो बुलाया था.’’

‘‘अच्छा जी. वैसे हम आप के होते कौन हैं?’’ सरिता ने शरारती अंदाज में पूछा.

‘‘सब कुछ. मेरी दुनिया, मेरी सांसें, मेरा जीवन, क्या नहीं हो तुम.’’

दिनकर की बातों के इस अंदाज से सरिता मुंह फाड़ कर दिनकर को देखने लगी. फिर दिनकर की आंखों में झांकते हुए बोली, ‘‘जानती हूं मिस्टर, लेकिन सरिता के लिए भी आप बहुत कुछ हो.

‘‘विनय कुछ देर में उठने वाले हैं, आप तब तक तैयार हो जाइए, मैं नाश्ता तैयार करती हूं,’’ कह कर सरिता ने उठना चाहा तो दिनकर ने उस का हाथ थाम कर कहा, ‘‘बैठो न कुछ देर, क्या जल्दी है?’’

दिनकर का हाथ थामना और प्रेमपूर्वक आग्रह करना सरिता को अच्छा लगा. पर बातों में पता ही नहीं चला कि विजय कब उठ कर फ्रैश हो चुका था. उस ने अचानक कमरे में प्रवेश किया.

‘‘ओहो विजय, आप उठ गए?’’ सरिता ने संभलते हुए कहा. फिर, ‘‘विजय ये दिनकर हैं. आप से मैं ने जिक्र किया था न,’’ कह कर दिनकर से परिचय कराया.

‘‘हैलो.’’ विजय ने हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा.

‘‘बहुत खुशी हुई विजयजी आप से मिल कर,’’ दिनकर ने कहा.

‘‘और मुझ से मिल कर नहीं?’’ सरिता ने तपाक से कहा तो तीनों खिलखिला कर हंस पड़े.

उस दिन विजय को औफिस जाना था. उस ने सरिता से कहा, ‘‘मुझे तो औफिस जाना है. तुम दिनकरजी को जहां जाना है गाड़ी से छोड़ देना.’’

‘‘ठीक है, बस मैं भी तैयार होती हूं. फिर इन्हें जहां कहेंगे छोड़ दूंगी.’’

विजय के जाने के बाद सरिता को दिनकर से खुल कर बातें करने का वक्त मिल गया. घर में दोनों अकेले थे इसलिए खूब बातें कीं. दिनकर ने दिल खोल कर रख दिया, तो सरिता भी पीछे न रही. दोनों ने अपनेअपने दर्द बयां किए तो दोनों एकदसरे के हमदर्द बन गए और हमदर्दी पा कर प्यार की कोंपलें फूटने लगीं. दोनों को लगा कि कुदरत ने हमारे लिए जीवनसाथी बनाते समय हमारे साथ अन्याय किया है.

सरिता ने दिन भर दिनकर को शहर में घुमाया. दिनकर ने अपने जरूरी काम निबटाए फिर सरिता से कहा, ‘‘अब मैं तुम्हारे हवाले हूं मैडम, जहां मरजी ले चलो.’’

‘‘भगा ले चलूं तो…,’’ सरिता ने कार चलाते हुए कहा.

‘‘मैं तैयार हूं भागने को.’’

दिनकर के कहने का अंदाज कुछ ऐसा था कि दोनों खिलखिला कर हंस पड़े. फिर दिन भर घूमने के बाद शाम को दोनों घर लौट आए.

बच्चे स्कूल से आने वाले थे. विजय डिनर के वक्त ही घर आता था. दिनकर की फ्लाइट देर रात की थी पर सरिता चाहती थी कि कैसे भी हो दिनकर विजय के घर लौटने से पहले ही एअरपोर्ट चला जाए. जबकि दिनकर चाहता था कि कुछ समय और सरिता के साथ गुजारे.

‘‘आप अभी एयरपोर्ट चले जाइए न दिनकरजी,’’ सरिता ने विचलित भाव से कहा.

‘‘पर क्यों, अभी तो बहुत देर है फ्लाइट में, पहले जा कर क्या करूंगा?’’

‘‘यहां ट्रैफिक जाम रहता है, कहीं जाम लग गया तो आप की फ्लाइट मिस हो जाएगी.’’

‘‘नहीं होगी और अगर हो भी जाएगी तो क्या है कल चला जाऊंगा,’’ दिनकर ने टालते हुए कहा.

कुछ बोल नहीं पाई सरिता लेकिन उस के हावभाव से लग रहा था कि कुछ बात जरूर है, नहीं तो दिन भर साथ रहने वाली सरिता यों पीछा छुड़ाने का प्रयास न करती. अचानक डोर बैल बजी. सुन कर आशंकित सी हो उठी सरिता. चेहरे के भाव बदल गए. दरवाजा खोला तो विजय सामने खड़ा था. उस की शर्ट कहीं, टाई कहीं जा रही थी. उस के मुंह से तेज भभका ज्योंही सरिता के नाक तक पहुंचा वह बोली, ‘‘विजय, आप पी कर आए हैं न? आज तो न पीते दिनकर आए हुए हैं.’’

‘‘तेरा मेहमान आया है तो मैं क्या करूं? हट पीछे. तू तो जब देखो तब रोती रहती है,’’ विजय ने लड़खड़ाते कदमों से घर में प्रवेश किया.

‘‘प्लीज, विजय धीरे बोलिए, दिनकर अंदर हैं,’’ सरिता ने हाथ जोड़ते हुए कहा.

दिनकर ने सारा ड्रामा देखा और सुना तो सहम गया. पता नहीं सरिता के साथ कैसा व्यवहार करेगा विजय, कहीं मुझ से ही न उलझ जाए? विजय सीधा बैडरूम में गया और जैसे आया था वैसे ही कपड़े और जूते पहने बिस्तर पर लुढ़क गया. सरिता देखती रह गई. उस की आंखों से आंसू छलक पड़े. दिल का दर्द बह निकला. दिनकर दूर खड़े हो कर सब नजारा देख चुका था. सरिता ने दिनकर को देखा तो खुद को रोक नहीं पाई. दिनकर से लिपट कर सुबक पड़ी.

‘‘बस करो सरिता, हिम्मत रखो,’’ कह कर दिनकर ने प्यार से सरिता की पीठ पर हाथ फिराया तो सरिता को अपनत्व का एहसास हुआ.

‘‘मुझे भी साथ ले चलो दिनकर, मुझे यहां नहीं रहना,’’ सरिता ने सुबकते हुए कहा तो दिनकर अवाक रह गया. यों कहां ले जाए, कैसे ले जाए, किस रिश्ते से ले जाए? अनेक सवाल कौंध गए दिनकर के मन में. ‘‘सब ठीक हो जाएगा,’’ इतना ही बोल पाया दिनकर. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि इस हालत में सरिता को छोड़ कर कैसे जाए, लेकिन फ्लाइट का टाइम हो रहा था, इसलिए निकल पड़ा.

दिनकर अपने शहर तो आ गया, लेकिन सरिता का चेहरा बारबार उस की आंखों के सामने घूम रहा था. उस ने सरिता को फोन किया, ‘‘हैलो सरिता, कैसी हो?’’

‘मैं बिलकुल ठीक हूं. आप बताइए, कैसे हैं?’’

‘‘तुम्हें ही याद कर रहा था. बहुत चिंता हो रही थी.’’

‘‘अरे आप टैंशन न लें. वह सब तो मेरी लाइफ बन चुका है.’’

‘‘मैं तो डर गया था तुम्हारी हालत देख कर.’’

‘‘मत सोचिए ज्यादा, मैं तो बस आप को देख कर थोड़ा इमोशनल हो गई थी,’’ सरिता ने कहा.

दिनकर और सरिता एकदूसरे के और करीब आते गए. दिनकर का आनाजाना और सरिता से मिलनाजुलना बढ़ गया. दोनों का यह मेलमिलाप कविता को फूटी आंख नहीं सुहाता था. दिनकर के प्रति उस का व्यवहार और रूखा हो गया. इस से कविता से दूर और सरिता के और करीब होता गया दिनकर. फिर एक वक्त ऐसा आया कि सरिता और दिनकर 1 घंटा भी अपनेअपने शहर में इधरउधर होते तो आशंकित हो उठते. कहां हो, क्या कर रहे हो? जैसे दोनों के सवालजवाब का आदानप्रदान होता तो उन्हें चैन मिलता. दोनों का प्यार चरम पर था. दिनकर के साथ और उस की हौसला अफजाई से सरिता में निखार आता चला गया. उस ने अपने पति विजय को भी संभाला लेकिन दिनकर से वह बहुत प्यार करती थी.

विजय का व्यवहार सरिता के प्रति धीरेधीरे ठीक होता जा रहा था, लेकिन दिनकर कविता से दूर होता जा रहा था. कविता का व्यवहार दिनकर के प्रति इस कदर रूखा और बदतमीजी वाला हो गया था कि दिनकर का जीना दूभर हो गया था. इस बीच दिनकर के बेटे की शादी भी हो गई. बहुत समझदार और सुशील बहू पा कर दिनकर ये उम्मीदें करने लगा कि कविता में कुछ सुधार हो जाएगा, लेकिन सारी उम्मीदें सिर्फ ख्वाब बन कर रह गईं. बहू ने पुत्र के रूप में नया वारिस भी दे दिया. दिनकर और सरिता के अनाम रिश्तों को 15 साल होने जा रहे थे कि अचानक सरिता के व्यवहार में परिवर्तन आ गया. वह दिनकर को कम तो विजय को ज्यादा वक्त देने लगी. सरिता के इस तरह के व्यवहार से दिनकर विचलित हो गया. उसे लगा कि सरिता उस के साथ धोखा कर रही है. साथसाथ जीनेमरने की कसम खाने वाली सरिता क्यों बदल रही थी यह बात दिनकर समझ नहीं पा रहा था. वह स्वयं को अकेला महसूस करता. कविता तो उस की हो नहीं पाई. अब सरिता भी साथ छोड़ने की ओर कदम बढ़ा रही थी.

सरिता ने आखिर वह बात कह दी जो दिनकर ने कभी सोची ही नहीं थी, ‘‘मुझे भूल जाइए दिनकर. मैं आप का साथ नहीं दे सकती.’’

‘‘पर सरिता मैं कहां जाऊं, क्या करूं?’’ दिनकर ने रुंधे गले से कहा.

‘‘मुझे माफ कर दीजिए दिनकर, मेरे बच्चे अब बड़े हो गए हैं. मैं यह दोहरा जीवन नहीं जी पा रही.’’

‘‘मुझे किस बात की सजा दे रही हो सरिता? मुझ में अचानक क्या कमी आ गई?’’

‘‘आप में कोई कमी नहीं दिनकरजी. मैं ने आप से ही जीना सीखा है. आज जो भी हूं आप की वजह से हूं,’’ कहते हुए सरिता की आंखें भर आईं.

‘‘हमारा रिश्ता इतने सालों से चल रहा है तो बाकी जिंदगी भी कट जाएगी, सरिता.’’

‘‘नहीं दिनकर, हमारे रिश्ते का कोई नाम नहीं है. यह सामाजिक और कानूनी दोनों रूप से ठीक नहीं है.’’

‘‘इस से क्या होता है सरिता, हम कौन सा किसी को नुकसान पहुंचा रहे हैं?’’

‘‘नहीं अब नहीं चलेगा. अब तक हम दुनिया की नजरों में नहीं आए तो इस का मतलब यह नहीं कि चोरीछिपे जो कर रहे हैं कभी लोग समझ नहीं पाएंगे,’’ सरिता ने सख्त लहजे में कहा तो दिनकर को लगा उस के साथ बहुत बड़ा धोखा कर रही है सरिता. उस को गहरा धक्का लगा.

‘‘तो अब तक तुम जो मेरे साथ रहीं वह वैध था? तब समाज का डर नहीं लगा तुम्हें? अब तुम्हारा पति ठीक हो गया तो तुम बदल रही हो,’’ चिल्ला पड़ा दिनकर. गुस्से से लाल हो गया उस का चेहरा.

सरिता भी कम न थी. बोली, ‘‘तो जबरदस्ती का प्यार करोगे क्या? जो चीज संभव नहीं उस की कोशिश मत करो.’’

सरिता का बदला रंग देख कर दिनकर डिप्रैस हो गया. एक ही औरत के कई रंग देख लिए थे उस ने. प्यार में मिले आघात से वह मानसिक संतुलन खो बैठा. कामकाज छोड़ दिया. रात को नींद आनी बंद हो गई. अजीब सी बातें और हरकतें करने लगा. दिन में बड़बड़ाने लगा. हर किसी को मारने दौड़ता. बातबात पर गुस्सा और आपे से बाहर होने लगा. और एक दिन ऐसी स्थिति आई कि वह हिंसक हो उठा. कविता से किसी बात पर कहासुनी हो गई तो बजाय शांत करने के कविता ने उसे और भड़का दिया. तब कोई तीखी चीज ले कर दिनकर ने कविता पर हमला करना चाहता तो बेटे ने बड़ी मुश्किल से काबू किया. उसे तुरंत डाक्टर के पास ले जाया गया. डाक्टर ने बताया कि दिनकर को किसी बात से गहरा मानसिक आघात लगा है. इसे मैंटल हौस्पिटल में इलाज की जरूरत है. इलाज लंबा भी चल सकता है. तब तय हुआ कि अपने शहर के बजाय आगरा हौस्पिटल में इलाज लेना बेहतर होगा. आज हौस्पिटल से निकले जिंदगी के 50 वसंत देख चुके दिनकर के जीवन की एक नई शुरुआत होने जा रही थी. वह अपनी पिछली जिंदगी भूल कर कविता के साथ नई जिंदगी गुजारने को तैयार था. Hindi Crime Story

Basic Skills: प्लेट खुद की है, तो धोने की ज़िम्मेदारी भी खुद की हो

Basic Skills: ऑफिस से घर आने के बाद सोनाली देखती है कि उसका पति सुमित, जो वर्क फ्रॉम होम करता है, अपने खाने की प्लेट को बेसिन में रखा हुआ है, धोया नहीं और पूरा बेसिन बर्तनों से भरा पड़ा है. सोनाली को गुस्सा आया और उसने अपने पति से अपना प्लेट और बर्तन धोकर रखने की सलाह दी, क्योंकि वह पूरे दिन ऑफिस में काम करने के बाद घर आकर पूरा काम नहीं कर सकती, उसे भी घर का काम करना पड़ेगा.

इस पर दोनों में बहस हो गई. सोनाली ने सुमित को बताया कि उसके परिवार में हर कोई भाई हो या पिता, अपना प्लेट खाने के बाद खुद धोकर सही जगह पर रखते है. यही उसने बचपन से देखा है और सुमित के लिए भी यही नियम यहाँ लागू है. पहले तो सुमित को बुरा लगा, लेकिन अंत में बात की गहराई को समझकर अगले दिन से अपना प्लेट और यूज किये हुए बर्तनों को धोकर रखना शुरू कर दिया. इसे देखकर उनके 6 साल का बेटा रोहित भी अपनी प्लेट धोकर सही जगह पर रखने लगा.

हालांकि सुमित ने भी बचपन से ही पिता को घर के कई काम करते हुए देखा है, क्योंकि उसकी माँ
वर्किंग रही, लेकिन ये स्किल इतना जरूरी है, समझ नहीं पाया था, क्योंकि सुमित अकेला बेटा होने की वजह से कोई भी उसे किसी काम के लिए कहता नहीं था. परिवार में सब अपना काम खुद करने पर कोई भी काम किसी के लिए समस्या नहीं होती.

आपको याद होगा कि वर्ष 2001 मैं आई फिल्म ‘आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया’ भी एक ऐसी ही फिल्म रही, जिसमें गोविंदा को जूही चावला के साथ घर के सभी काम करना बहुत पसंद था, क्योंकि वह मानता था कि इससे पति – पत्नी में प्यार बढ़ता है. इसे देखकर उसके तीनों पड़ोसी उसे जोरू का गुलाम कहते थे, लेकिन इससे गोविंदा को कोई फर्क नहीं पड़ता था. हालांकि ये एक कॉमेडी फिल्म थी, लेकिन इसका संदेश स्पष्ट था कि हर किसी को किचन और घर के काम के स्किल होने जरूरी है.

स्किल की कमी

आज के यूथ अपना काम खुद करने की स्किल का विकास न होने की वजह उनका परिवार है, जो इस काम के महत्व को उन्हे नहीं समझाते. मनोवैज्ञानिक राशिदा कपाड़िया कहती है कि अपनी प्लेट खुद धोने की आदत विकसित करना एक सरल और प्रभावी तरीका है, जिससे व्यक्ति की आत्म-निर्भरता और जिम्मेदारी की भावना बढ़ती हैं. इसके लिए, आपको बस कुछ बेसिक स्टेप्स का पालन करना होता है और इसे नियमित रूप से अपनी रूटीन में शामिल कर लेना होता है.

अपना काम खुद करने की आदतों का विकास परिवार के सभी पुरुषों को करना जरूरी है, जिसमें पिता द्वारा किये गए काम को बेटा जल्दी सीख जाता है. एक लड़का आज की तारीख में अधिक से अधिक 22 साल तक अपने पेरेंट्स के साथ रहता है, इसके बाद उसे अधिकतर पढ़ाई या जॉब के लिए बाहर जाना पड़ता है, ऐसे में अगर उसके पास ये स्किल नहीं है, तो उसे कई समस्याओं का सामना आगे चलकर करना पड़ सकता है.

सिखाए स्किल्स

ऐसा देखा जा रहा है कि अधिकतर पेरेंट्स के आजकल एक या दो बच्चे होते है और पेरेंट्स जरूरत से अधिक उनपर अपना ध्यान देते रहते है, ऐसे में बच्चों को कभी समझ में ही नहीं आता है कि उम्र के बढ़ने के साथ – साथ किन – किन स्किल्स को अडाप्ट करना है और पेरेंट्स भी लाड़ – प्यार से उन्हे कुछ बताते नहीं. विदेश में रहने वाला एक बच्चा डेढ़ साल से खाना खुद खा लेता है, जबकि यहाँ 10 साल के लड़के को भी पेरेंट्स हाथ से खिलाते रहते है, ऐसे में उसे किसी भी स्किल्स के विकास का महत्व समझ नहीं आता.

जन्म से शुरू होती है स्किल डेवलपमेंट की प्रोसेस

राशिदा आगे कहती है कि बच्चे की स्किल्स सीखने की प्रक्रियाँ जन्म से ही शुरू हो जाती है, ऐसे में उन्हे छोटे – छोटे काम शुरू से बताते रहना चाहिए. जैसे कि खुद खाना, खाने के बाद प्लेट को जगह पर रखना, उसे धोकर, पोंछकर जगह पर रखने को भी बता देना आवश्यक होता है और ये एक बेटा अपने पिता से ही जल्दी सीखता है.

करें प्लेट धोने की स्किल का विकास

प्लेट धोने की स्किल यानि जिसे बर्तन धोने का कौशल भी कहा जाता है, एक व्यावहारिक जीवन कौशल है. इसमें प्लेटों को प्रभावी ढंग से साफ करने के लिए सही तकनीक और प्रक्रियाओं का उपयोग करना शामिल है.

प्लेट धोने की स्किल निम्न है:

• बर्तन धोने के ग्लव्स खरीद लें, लिक्विड सोप अच्छी क्वालिटी की खरीदें, ताकि बर्तन की सफाई अच्छी तरह से हो सकें, सोप में कंजूसी न करें.
• बर्तनों को धोने से पहले, उन्हें पानी से धोकर उन पर लगी गंदगी को हटा दें.
• साबुन और पानी का उपयोग करके, प्लेटों को अच्छी तरह से रगड़कर साफ करें.

• साफ पानी से प्लेटों को अच्छी तरह से धो डालें, ताकि उन पर साबुन के कोई निशान न रहे.
• प्लेटों को हवा में सुखाएँ या तौलिये से पोंछकर सुखा लें.
• साफ और सूखे प्लेटों को व्यवस्थित रूप से रखें.
• ध्यान रखें कि थोड़े बर्तन या प्लेट होने पर ही उसे धोते जाएँ, ताकि एक साथ अधिक बर्तन सिंक में जमा न हो जाय.
• किचन की सिंक में बदबू न हो, इसके लिए बर्तन धोने के बाद सिंक की सफाई अच्छे से करें.
• सिंक पर लाइट पंखा हो, ताकि व्यक्ति को प्लेट साफ करने में परेशानी न हो.
• परिवार के सभी व्यक्ति को अपनी प्लेटे खुद धोने की आदत होने जरूरी है, प्लेटों और बर्तनों को धोकर सही जगह पर रखने की आदत सभी अपनाए.

इसके अलावा ये स्किल न केवल प्लेटों को साफ करने में मदद करता है, बल्कि हाथ-आँख समन्वय पर ध्यान और जिम्मेदारी की भावना जैसे स्किल को भी विकसित करता है. इस काम में अभ्यास और धैर्य की आवश्यकता होती है. इस प्रकार डेली रूटीन में प्लेट धोने की स्किल को शामिल करने से, भले ही डिशवॉशर उपलब्ध हो, यूथ को मूल्यवान सबक और स्किल मिल जाता हैं, जो उन्हे आगे चलकर इन कामों को करने में समस्या नहीं होती. Basic Skills

Family Story: एक कहानी का अंत- सुख के दिन क्यों न देख सकी पुष्पा

Family Story: ‘‘मेरे पूरे जिस्म में दर्द हो रहा है. पूरा जिस्म अकड़ रहा है. आह, कम से कम अब तो मुक्ति मिल जाए. कोई तो बुलाओ डाक्टर को,’’ पुष्पा कराहते हुए बोल रही थी.

‘‘शांत हो जाओ, मां. लो, मुंह खोलो, दवा पिलानी है,’’ मंजू बोली.

‘‘मेरी बच्ची, अब समय आ गया, मैं नहीं बचूंगी,’’ कहते हुए पुष्पा ने गिलास लगभग छीनते हुए पकड़ा और दवा एकदम गटक ली.

मंजू को लगा कि मां के जिस्म में चेतना आ रही है और वे सही हो जाएंगी. वैसे भी, पहले भी कई बार ऐसा ही कुछ हुआ था. अभी वह सोच ही रही थी कि गिलास के गिरने की आवाज आई और उस की मां पुष्पा का शरीर एक ओर लुढ़क गया.

‘‘मां, मां, उठो, बात करो मु झ से. आंखें खोलो न.’’ पर मां तो जा चुकी थीं, दूर, बहुत दूर.

कमरे में सन्नाटा छा गया था. अगर कोई विलाप कर रहा था तो वह थी मंजू. रोते हुए उस ने अपने पति को सूचना दी और वहीं बैठ गई. वह मां के पार्थिव शरीर को पत्थर बनी ताकती रही.

‘‘रात के डेढ़ बजे हैं, सब काम सुबह होंगे,’’ कह कर भाईभाभी अपने कमरे की तरफ चल दिए. वह बारबार मां को छू कर देखती, उम्मीद लिए कि शायद वापस आ जाएंगी वे. फिर सब की शिकायत करेंगी उस से.

कितना दुखी जीवन था उस की मां पुष्पा का. मंजू ने जब से होश संभाला हमेशा मां को रोते ही देखा…एक जल्लाद पति, बृजेश, हमेशा नशे में धुत. कहने को तो स्कूल अध्यापक था, पर ताश खेलना और शराब पीना, बस, यही उस की दिनचर्या थी. जब देखो तब वह पुष्पा को जलील करता, नशे में मारता, गालियां देता. कई बार उस ने पुष्पा को जान से मारने की भी कोशिश की थी. लेकिन आदमी जो ठहरा, रात में अपने शरीर की पिपासा बु झाने से भी वह बाज न आता.

सबकुछ सह रही थी पुष्पा. सिर्फ और सिर्फ अपने 3 छोटे बच्चों के लिए. कहां जाती वरना. न तो सासससुर का साया था और न ही मातापिता का. नाम का भाई था जो कभीकभी पत्नी से छिप कर मिलने आ जाता था और चुपचाप कुछ रुपए उस के हाथ में रख जाता.

बृजेश की आधी से ज्यादा कमाई ऐयाशी में उड़ जाती. जैसेतैसे घर की गाड़ी चल रही थी, बच्चों के साथ परेशानियां भी बड़ी होने लगीं.

बृजेश के काले मन को पुष्पा भांप गई थी, इसलिए साए के जैसे वह मंजू के साथ रहती. एक दिन पड़ोस में गमी में जाना पड़ गया, तो वह मंजू की जिम्मेदारी अपने बड़े बेटे पर सौंप कर चली गईं. बृजेश को जैसे भनक लग गई थी, उस ने अपने बेटे को किसी काम से बाजार भेज दिया और मंजू को अपनी बांहों में दबोच लिया. वह अपने को छुड़ाने के लिए छटपटा रही थी पर बृजेश पर तो शैतान हावी था.

अचानक पुष्पा आ गई. यह देखते ही वह गुस्से से पागल हो गई. वहीं एक बांस रखा था, आव देखा न ताव, वह बृजेश को पीटने लगी, ‘कमीने, बेशर्म, चला जा यहां से. बाप के नाम पर धब्बा है तू. कभी सूरत मत दिखाना. मैं नहीं चाहती तेरा साया भी पड़े मेरे बच्चों पर.’ मंजू सहमी सी खड़ी देख रही थी यह सब. धमकी दे कर बृजेश वहां से चला गया.

अब पुष्पा सिलाई और बिंदी बनाने का काम करने लगी. उसी से घरखर्च चल रहा था. बड़े बेटे ने पढ़ाई छोड़ दी. उसे शराब और सट्टेबाजी की लत लग गई. अकसर नशे में वह मां को कोसता और गाली देता. वह बाप के जाने का दोषी मां को ठहराता था.

पुष्पा खून के आंसू पी कर रह जाती. पुष्पा को अब बड़े होते बच्चों की चिंता सताने लगी थी. सो, म झले बेटे को उस के मामा के घर भेज दिया आगे पढ़ने के लिए. इंटर पूरा करते ही मंजू के हाथ पीले कर दिए. म झले बेटे की पढ़ाई पूरी होते ही नौकरी लग गई बैंक में. पुष्पा ने उस का भी विवाह कर दिया. जबकि बड़ा अभी कुंआरा था.

आशा के विपरीत म झले बेटे की बहू ने सब की जिम्मेदारी से बचने के लिए अलग घर बसाने की पेशकश की और शहर से बाहर चली गई. फिर कभी नहीं आई. कितनी बार पुष्पा ने उसे बुलाना चाहा पर उसे नहीं आना था सो नहीं आई. टूट चुकी थी पुष्पा. अब बड़े बेटे की जिम्मेदारी से निबटने के लिए उस का भी विवाह कर दिया.

इसी बीच, बृजेश को कैंसर हो गया. दरदर भटकते अब उसे घर की याद आई थी. पुष्पा को याद करता हुआ किसी तरह पहुंच ही गया उस के पास. अपने आखिरी दिनों में उस ने अपने किए की कई बार पुष्पा से क्षमा मांगी. पुष्पा ने उसे घर में रुकने की इजाजत तो दे दी पर दिल से माफ नहीं कर पाई. अब घर एक जंग का मैदान हो गया था.

पुष्पा कुछ भी कहती, बहू दानापानी ले कर चढ़ जाती. आखिरकार एक दिन बृजेश ने इस दुनिया से विदा ली. धीरेधीरे गमों को पीते हुए पुष्पा भी बिस्तर से लग गई, उस के पैर बेकार हो चुके थे. बहू उस की कोई भी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहती थी, उलटा आएदिन अपना हिस्सा मांगती. पुष्पा के पास अगर कुछ था तो यही एक मकान, जहां अब वह जिंदगी के बाकी बचे दिन काट रही थी. सब की नजर उस मकान पर थी. शायद पुष्पा की आंख बंद होने का इंतजार था.

पुष्पा ने एक आया सुनीता लगा ली थी. वही उस के सब काम नहलानाधुलाना आदि करती थी. आएदिन पुष्पा मंजू को फोन कर के उस से घर के सदस्यों की शिकायत करती. मंजू जब भी भाभी को सम झाना चाहती, वह टका सा जवाब देती. हार कर फिर वह मां को ही सम झाती. पुष्पा अकसर मंजू से बोलती, ‘लल्ली, तू नहीं सम झेगी, मेरे जाने के बाद पता चलेगा. सारा जीवन दे दिया पर कोई अपना नहीं हुआ. यह दुनिया पैसे की है. मु झे कोई नहीं पूछता, सारे दिन गफलत में पड़ी रहती हूं. जिस दिन कुछ खाने को मांग लिया उसी दिन तूफान.’

‘‘जीजी, जीजी,’’ सुनीता की आवाज से मंजू चौंकी. ‘‘जीजाजी आ गए. पति को देखते ही उस के सब्र का बांध टूट गया. वह खूब रोई. इतने में सुनीता ने एक पत्र उस के पति को देते हुए कहा, ‘‘अम्मा लिख गई हैं, कह रही थीं, मेरे बाद मंजू को देना.’’ शायद, पुष्पा को अपने आखिरी समय का एहसास हो गया था.

मंजू ने पत्र पति के हाथ से ले लिया. आंसू पोंछते हुए पत्र पढ़ने लगी.

‘मंजू बेटी, तू दुनिया की सब से अच्छी बेटी है. तू ने मेरी बहुत सेवा की. मेरी एक विनती है कि मेरे बाद मेरा क्रियाकर्म संबंधी काम एक दिन में ही पूरा कर देना, जिन बहूबेटों के पास जीतेजी मेरे लिए समय नहीं था उन को बाद में भी परेशान होने की जरूरत नहीं.

‘पिछले महीने ही तू मेरे लिए कपड़े लाई थी, वे सब बांट देना. मेरी रोटी के लिए जिन के पास रुपए नहीं थे वे मेरे बाद मु झ पर खर्च न करें. दामादजी, आप इस घर का सौदा कर दें. उस सौदे से मिलने वाली रकम के 3 हिस्से करना. एक हिस्सा इन दोनों लड़कों का और दो हिस्से में से एक सुनीता को दे देना. बेचारी ने बहुत ध्यान रखा मेरा. अगले महीने उस की लड़की की शादी है. एक हिस्सा मेरी नातिन का है. मंजू बेटी, तू मेरा बेटा भी थी. मेरी हर छोटी से छोटी जरूरत और इच्छा का खयाल रखा तू ने. शायद मैं जिंदा ही तेरी वजह से थी. कर्जदार हूं मैं तेरी. सदा खुश रहो. सब को तेरी जैसी बेटी मिले.’

‘‘मां.’’

सब की आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे. मां के कहेनुसार एक ही दिन में सब कार्य कर मंजू अपने पति के साथ भारी मन से वापस अपने घर चली गई.

मां के साथ ही उस के दुखों का अंत हो गया था. बड़ी दुखदायी, एक कहानी का अंत हो गया था. बड़ा लंबा वनवास था यह. 70 साल का सफर कम नहीं होता, जो पुष्पा ने अकेले ही तय किया था. जीवन जिया तो था उस ने लेकिन सुख के दिन क्या होते हैं, कभी नहीं देख सकी.

Blackheads Removal: ऐसे पाएं ब्लैक हैड्स से छुटकारा

Blackheads Removal: ब्लैकहेड्स छोटे पीले सा फिर काले रंग के उभार होते हैं. ये रोम छिद्रों में गंदगी के जम जाने के कारण बनते है. कई बार तो हॉर्मोनल बदलाव, ब्यूटी प्रोटक्ट का यूज, त्वचा की सही देखभाल न कर पाने, तनाव, खराब खानपान और ऑयली हेयर के कारण हो जाते है.

आमतौर पर ब्लैड हैड्स की समस्या महिलाओं में ज्यादा होती है. इसके कारण हमारी त्वचा मैली-मैली सी लगती है. इन्हें ही ब्लैकहैड कहा गया है. दरअसल यह काले रंग के छोटे-छोटे बाल होते हैं. युवावस्था से ही चेहरे पर बहुत सारे ब्लैक हैड दिखाई देने लगते हैं. यह ब्लैक हैड सभी प्रकार की त्वचा पर हो सकते हैं लेकिन तैलीय त्वचा वाले इस समस्या से ज्यादा परेशान रहते हैं.

ब्लैक हैड्स और व्हाइट हैड्स में सिर्फ इतना अंतर होता है कि ब्लैक हैड्स में रोमछिद्र खुल हो जाते है और दूसरे में बंद जाते है. और जब ये खुल जाते है तो स्किन के सेल में आक्सीजन और ऑक्सीडाइज काले में परिवर्तित हो जाती है. जो कि ब्लैक हैड्स कहलाते है. ब्लैक हैड्स गंदगी के कारण कभी नहीं होता है.

अगर आपको  ब्लैक हैड्स से निजात पाना है तो सिर्फ दो उपाय है. एक ब्यूटीशियन के पास जाएं और नाक की स्ट्रिप्स कराएं. दूसरा है कि सिंपल तरीके से दो चीजों का इस्तेमाल कर इससे निजात पाएं. जानिए इससे घरेलू उपाय से कैसे निजात पा सकते है.

ऐसे बनाएं ये पैक

– इसके लिए आपको चाहिए 1 चम्मच दूध और एक चम्मच जेलेटिन पाउडर.

– इस मिश्रण को तैयार करने के लिए आप माइक्रोवेव या फिर किसी चीज में गर्म कर सकते है.

– इसके लिए दोनो चीज को एक बाउल में लेकर गाढ़ा पेस्ट बना लें.

– इसके बाद इसे 10 मिनट गर्म करें.

– जब ये थोड़ा ठंडा हो जाए तो इसे मेकअप ब्रश की सहायता से अपनी नाक के चारों और लगाएं.

– 10 मिनट इसी तरह लगा रहने के बाद इसे धीरे से निकाल लें.

आप इसका रिजल्ट देखकर खुद विश्वास नहीं कर पाएगे. आपकी नाक से सभी ब्लैक हैड्स खत्म हो गए है. Blackheads Removal

Monsoon Special: एक प्रीमिक्स से बनाएं ये रेसिपीज

Monsoon Special: आजकल की भागदौड़ भरी जिन्दगी में हम सभी के पास समय का अभाव है, कामकाजी महिलाओं के लिए तो घरेलू कार्यों को भली भांति मेनेज करना ही बहुत बड़ी चुनौती होती है ऐसे में घर पर कुछ अच्छा बनाने के बारे में सोचकर ही कई बार घबराहट होने लगती है. हर समय बाहर का खाना न तो स्वास्थ्यप्रद होता है और न ही आर्थिक रूप से सही होता है पर यदि पहले से ही कुछ तैयारी कर ली जाये तो बनाना काफी आसान हो जाता है. आज हम आपको ऐसा ही एक प्रीमिक्स बनाना बता रहे हैं जिसे आप एक बार बनाकर रख लें तो एक प्रीमिक्स से ही आप कई रेसिपीज बना सकतीं हैं तो आइये देखते हैं कि इसे कैसे बनाया जाता है और एक बार बनाकर रखने के बाद इसे कैसे प्रयोग किया जाता है-

सामग्री (प्रीमिक्स के लिए)

धुली मूंग दाल              1 कप

चने की दाल                500 ग्राम

हींग पाउडर                 1 टीस्पून

बेकिंग सोडा                 1/4 टीस्पून

नमक                      1 टीस्पून

सामग्री(मसाले के लिए)

साबुत धनिया               2 टेबल स्पून

साबुत लाल मिर्च            4

साबुत काली मिर्च            1 टेबलस्पून

सौंफ                       2 टेबलस्पून

अजवाइन                   1 टीस्पून

लौंग                       10-12

नमक                      1 टीस्पून

विधि-

प्रीमिक्स की दोनों दालों को साफ पानी से दो बार धोकर पानी निकाल दें और साफ सूती कपड़े से पोंछकर 4-5 घंटे पंखे की हवा में सुखा लें. अब बिना घी या तेल के इन दोनों दालों को धीमी आंच पर लगातार चलाते हुए हल्का सा भून लें ताकि इनकी नमी निकल जाये. ठंडा होने पर दोनों को एक साथ हींग और बेकिंग सोडा डालकर बारीक पीस लें.

सभी मसालों को भी एक साथ मिक्सी में दरदरा पीस लें और तैयार प्रीमिक्स में अच्छी तरह मिला दें. तैयार प्रीमिक्स को एयरटाईट जार में भरकर फ्रिज में रखें और दो से तीन माह तक प्रयोग करें.

कैसे करें प्रयोग

-पकोड़ा बनाने के लिए 2 कप प्रीमिक्स में बारीक कटा प्याज, हरा धनिया, हरी मिर्च, कटी लहसुन और अदरक मिलाकर आधा कप पानी डालकर अच्छी तरह मिलाकर गर्म तेल में पकोड़े तलें.

-कचौरी का भरावन बनाने के लिए डेढ़ कप प्रीमिक्स को 1/4 कप पानी मिलाकर आधे घंटे के लिए ढककर रख दें ताकि दालफूल जाये. अब मैदे या आटे की लोई में तैयार भरावन को भरकर कचौरियो को गर्म तेल में तलकर बटर पेपर पर निकाल लें. इसी प्रकार आप दाल के परांठे भी बना सकतीं हैं.

-तैयार प्रीमिक्स के अंदर चीज, पनीर या आलू की स्टफिंग करके आप टेस्टी बॉल्स तैयार कर सकतीं हैं.

-यदि आप प्रीमिक्स से इंस्टेंट पकोड़ा, कचौरी, बड़ा आदि बनाना चाहती हैं तो ठंडे पानी के स्थान पर गर्म पानी का प्रयोग करें. Monsoon Special

Social Story: एक चुप, हजार सुख- सुधीर भैया हमेशा लड़ाई क्यों करते थे

Social Story: कुछ लोगों की टांगें जरूरत से ज्यादा लंबी होती हैं, इतनी कि वे खुद ही जा कर दूसरों के मामले में अड़ जाती हैं. ऐसे ही अप्राकृतिक टांगों वाले व्यक्ति हैं मेरे बड़े भाई सुधीर भैया. वैसे तो लड़ने या लड़ाई के बीच में पड़ने का उन्हें कोई शौक नहीं है पर किसी दलितशोषित, जबान रहते भी खामोश, मजबूर व्यक्ति पर कुछ अनुचित होते देख कर उन का क्षत्रिय खून उबाल मारने लगता है. फिर वे उस बेचारे के उद्धार में लग जाते हैं. उन के साथ ऐसा बचपन से है. जाहिर है कि स्कूल और महल्ले में वे अपने इस गुण के कारण नेताजी के नाम से प्रसिद्ध रहे हैं.

भैया उम्र में मुझ से 2 वर्ष बड़े हैं. हम दोनों बचपन से बहुत करीब रहे हैं और एक ही स्कूल में होने के कारण हम दोनों को एकदूसरे के पलपल की खबर रहती थी. कब कौन क्लास से बाहर निकाला गया, किस लड़के ने मुझे कब छेड़ा या किस शिक्षक को देखते ही भैया के पांव कांपने लगते थे आदिआदि. जाहिर है कि भैया की अड़ंगेबाजी की नित नई कहानियां मुझे फौरन मिल जाती थीं.

चौथी कक्षा की बात है. भैया को जानकारी मिली कि उन की क्लास के एक शांत सहपाठी का बड़ी क्लास के कुछ उद्दंड छात्रों ने जीना मुश्किल कर रखा था. फिर क्या था, पूरी तफ्तीश करने के बाद लंच के दौरान बाकायदा उन बड़े लड़कों को रास्ते में रोक कर, लंबाचौड़ा भाषण दे कर और बात न मानने की स्थिति में शारीरिक नुकसान पहुंचाने की धमकी दे कर दुरुस्त किया गया.

भैया अपने समाजसेवी कार्य अपने दोस्तों से छिपा कर करते थे. उन्होंने किस बल पर अकेले ही उन लड़कों से लोहा लेने की ठानी, यह मेरे लिए आज भी रहस्य है. उन लड़कों ने भैया के सहपाठी को बिलकुल ही छोड़ दिया, पर उस दिन के बाद से अकसर ही कभी भैया की साइकिल पंक्चर मिलती या होमवर्क कौपी स्याही से रंगी मिलती या कभी बैग में से मेढक निकलते. भैया का उन लड़कों से पीछा तभी छूटा जब हम दोनों का स्कूल बदला.

इस के बाद घटनाएं तो कई हुईं किंतु सब से नाटकीय प्रकरण तब हुआ जब भैया कक्षा 9 में थे. वे गली के मुहाने पर खड़े अपने किसी दोस्त से बतिया रहे थे. सामने सड़क पर इक्कादुक्का गाडि़यां निकल रही थीं. लैंपपोस्ट की रोशनी बहुत अधिक न हो कर भी पर्याप्त थी. एक बूढ़ी दादी डंडे के सहारे मंथर गति से सड़क पार करने लगीं. एक मारुति कार गलती से एफ वन ट्रैक से भटक कर फैजाबाद रोड पर आ गई थी.

दादीजी की गति तो ऐसी थी कि बैलगाड़ी भी उन को टक्कर मार सकती थी. उस कारचालक ने बड़े जोर का ब्रेक लगाया और दादीजी बालबाल बच गईं. वह रुकी हुई कार रुकी ही रही. भैया और उन के मित्र के एकदम सामने ही बीच सड़क पर खड़ी उस कार की अगली सीट की खिड़की का शीशा नीचे गिरा और तीखे स्त्रीकंठ में ‘बुढि़या’ के बाद कुछ अपशब्दों की बौछार बाहर आई. भाईसाहब को बुरा लगना लाजिमी था, टांग अड़ाने का कीड़ा जो था.

‘‘मैडम, वे बहुत बूढ़ी हैं. जाने दीजिए, कोई बात नहीं. वैसे आप लोग भी काफी तेज आ रहे थे.’’ भैया के ये मधुरवचन सुनते ही वह महिला, गोद में बैठे 3-4 साल के बच्चे को अपनी सीट पर पटक, ‘‘तुझे तो मैं अभी बताती हूं,’’ कहते हुए, क्रोध से फुंफकारती हुई भैया की तरफ बड़े आवेश में लपकी. और फिर जो हुआ वह बड़ा अनापेक्षित था. एक जोरदार हाथ भैया के ऊपर आया जिसे उन के कमाल के रिफ्लैक्स ने यदि समय पर रोक न लिया होता तो उन की कृशकाया पीछे बहती महल्ले की नाली में से निकालनी पड़ती और पुलिस को आराम से उन के गाल से अपराधी की उंगलियों के निशान मिल जाते.

बचतेबचते भी उक्त महिला की मैनिक्योर्ड उंगली का नाखून भैया के गाल को छू ही गया. यदि गांधीजी की उस महिला से कभी भेंट हुई होती तो दूसरा गाल आगे कर लेनेदेने की बात के आगे यह क्लौज अवश्य लगा देते कि अतिरिक्त खतरनाक व्यक्ति से सामना होने पर पहले थप्पड़ के बाद उलटेपांव भाग खड़ा होना श्रेयस्कर रहेगा.

असफल हमले की खिसियाहट और छोटीमोटी भीड़ के इकट्ठा हो जाने से वह दंभी महिला क्रोध से कांपती, भैया को अपशब्दों के साथ, ‘‘देख लूंगी’’ की धमकी देते हुए कार में बैठ कर चली गई. उधर, हमारी प्यारी बूढ़ी दादी इस सब कांड से बेखबर अपनी पूर्व धीमी गति से चलते हुए कब गायब हो गईं, किसी को पता भी नहीं चला.

उस दिन भैया और मेरी लड़ाई हुई थी और बोलचाल बंद थी. इस घटना के बाद भैया सीधे मेरे पास आए और पूरी बात बताई. वे घबराए हुए थे. 15 वर्ष की संवेदनशील उम्र में दर्शकगण के सम्मुख अपरिचित से थप्पड़, चेहरे पर भले न लगा हो, अहं पर खूब छपा था. पर क्या भैया सुधरने वालों में से थे.

भैया इंजीनियरिंग के प्रथम वर्ष में थे. घर से दूर जाने का प्रथम अनुभव, उस पर कालेज की नईनई हवा. उन की क्लास में हमारे ही शहर का एक अतिसरल छात्र था जिस पर कालेज के कुछ अतिविशिष्ट, अतिसीनियर और अतिउद्दंड लड़कों की एक टोली ने अपना निशाना साध लिया था. बेचारा दिनरात उन के असाइनमैंट पूरे करता रहता था. छुट्टी वाले दिन उन के कपड़े धोने से ले कर खाना बनाने का काम करता था. यह अगर कम था तो उस गरीब को टोली के ऊबे होने की स्थिति में अपनी नृत्यकला और संगीतकला से मनोरंजन भी करना पड़ता था.

दूरदूर तक किसी में भी उन सीनियर लड़कों को रोक सकने या डिपार्टमैंट हैड तक यह बात पहुंचा सकने की हिम्मत नहीं थी. स्थिति अजीब तो थी पर अकेले व्यक्ति के संभाले जा सकने वाली भी न थी. जान कर अपना सिर कौन शेर के मुंह में देता है? यह प्रश्न भले ही अलंकारिक है पर इस का उत्तर है ‘मेरे बड़े भैया.’ परिणाम निश्चित था. मिला भी. गनीमत यह थी कि इस कांड के तुरंत बाद ही दशहरे की छुट्टियां पड़ गईं.

किंतु भैया अब भी समझ गए होते तो यह कहानी आगे क्यों बढ़ती. जख्मों से वीभत्स बना चेहरा और प्लास्टर लगा पैर ले कर भैया, हमारे चचेरे बड़े भाईबहन, प्रियंका दीदी और आलोक भैया के साथ दिल्ली के अतिव्यस्त रेलवे स्टेशन पर लखनऊ की ट्रेन का इंतजार कर रहे थे. दीदी भैया की नासमझी (छोटी हूं इसलिए ‘मूर्खता’ कहने की धृष्टता नहीं कर सकती) से इतनी नाराज थीं कि उन से बात ही नहीं कर रही थीं. आलोक भैया भाईसाहब से पहले ही लंबीचौड़ी गुफ्तगू कर चुके थे.

स्टेशन पर इन तीनों के पास ही कुछ लड़कियों का समूह विराजमान था. वे सभी अपनी यूनिवर्सिटी की पेटभर बुराई करते हुए, स्टेशन से खरीदे अखबार व पौलिथीन में बंधे भोजन का लुत्फ उठा रही थीं. कहने की आवश्यकता नहीं कि भोज समापन पर कूड़े का क्या हुआ. मुझे रोड पर तिनका डालने के लिए भी डांटने वाले भैया का पारा चढ़ना स्वाभाविक था. अब आप सोचेंगे कि यहां कौन दलित या शोषित था. टौफी का छिलका हो या पिकनिक के बाद का थैलाभर कूड़ा, भैया या तो सबकुछ कूड़ेदान में डालते हैं या तब तक ढोते रहते हैं जब तक कोई कूड़ेदान न मिल जाए.

उन शिक्षित लड़कियों के कर्कट विसर्जन के समापन की देर थी कि भैया दनदनाते हुए (जितना प्लास्टर के साथ संभव था) गए, कूड़ा उठाया और लंगड़ाते हुए जा कर वहां रखे कूड़ेदान में डाल आए. वापस आ कर कोई वजनी बात कहना आवश्यक हो गया था. सो, उधर गए और बहुत आक्रामक मुद्रा में बोले, ‘‘बैठ कर यूनिवर्सिटी की बुराई करना आसान है पर अपनी बुराई देख पाना बहुत कठिन होता है.’’ इस डायलौग संचालन का उद्देश्य था उन युवतियों को ग्लानि से त्रस्त कर उन की बुद्धि जाग्रत करना पर हुआ इस का उलटा.

लड़कियों ने भैया की ओर ऐसे क्रोधाग्नि में जलते बाण लक्ष्य किए कि सब उन की ओर पीठ फेर कर बैठ गए भाईसाहब की कमीज में आग नहीं लगी, आश्चर्य है. उन में से एक के पिताजी, जो साथ ही थे, भैया के पास आए और ज्ञान देने की मुद्रा धारण कर बोले, ‘‘बेटा, प्यार से कहने से बात अधिक समझ आती है. स्वामी दयानंद सरस्वती ने यही बात समझाई है.’’ इस के आगे भी काफी कुछ था जो भैया अवश्य सुनते यदि वे सज्जन अपनी पुत्री और उस की समबुद्धि सहेलियों को भी कुछ समझाते.

सारे प्रकरण का सिर्फ इतना हल निकला कि अगले डेढ़दो घंटे भैया को उस दल ती तीखी नजरों के अलावा बड़ी बहन का अच्छाखासा प्रवचन (जिस का सारांश कुल इतना था, ‘‘अभी भी बुद्धि में बात आई नहीं है? नेता बनना छोड़ दो.’’) और बड़े भाई के मुसकराते हुए श्रीमुख से निकले अनगिनत कटाक्ष बरदाश्त करने पड़े.

घर पहुंच कर दोनों घटनाओं के व्याख्यान के बाद, भाईसाहब की परिवार के प्रत्येक बड़े सदस्य से जम कर फटकार लगवाने और अच्छाखासा लैक्चर दिलवाने के बाद ही दीदी को शांति मिली. भैया मेरे कमरे में आए तो ग्लानि और क्रोध दोनों से ही त्रस्त थे. इस का एक ही परिणाम निकला, पूरी छुट्टियोंभर मेरे सब से अप्रिय विषय की किताब से जम कर प्रश्न हल करवाए गए और स्वयं को मिली डांट का शतांश प्रतिदिन मुझ पर निकाल कर ही भाईसाहब कुछ सामान्य हुए.

ऐसे अनेकानेक प्रकरण हैं जहां मेरे भोलेभाले भैया ने गलत को सही दिशा देने हेतु या किसी मजबूर के हिस्से की आवाज उठाते हुए, कभी रौद्र रूप अपनाया है या कभी आवाज बुलंद की है. घर, कालेज, सड़क, मंदिर, बाजार कहीं भी जहां भाईसाहब को लगा है कि यह गलत है, वहां कभी कह कर, कभी झगड़ कर, कभी डांट कर या लड़भिड़ कर उन्होंने स्थिति सुधारने की बड़ी ईमानदारी से कोशिश है, किंतु हर बार बूमरैंग की भांति उन का सारा आवेश घूम कर आ उन्हें ही चित कर गया है.

नौकरी में आ कर, कई सारे कड़वे अनुभवों के बाद आखिरकार भैया के ज्ञानचक्षु खुले. उन्हें 3 बातों का ज्ञान हुआ. पहली, चुप रहना या बरदाश्त करते रहना हमेशा सीधेसरल या कमजोर व्यक्तियों की मजबूरी नहीं होती बल्कि अकसर ही घाघ, घुन्ने और कांइयां व्यक्तियों का गुण भी होता है. दूसरी, लोगों की जिह्वा और कान दोनों को ही मीठे का चस्का होता है. तीसरी और आखिरी, बेगानी शादी में दीवाने अब्दुल्ला साहब की रेड़ पिटनी तो पहले से ही निश्चित होती है.

मेरे भैया, यह आत्मज्ञान पा जाने के बाद से बहुत ही अधिक शांत हो गए हैं. सदा ही पांव समेट कर चलते हैं. पर मैं, जो उन्हें अच्छी तरह से जानती हूं, यह समझती हूं कि उन के लिए यह कितना भारी काम है. खैर, भैया शांत भले ही हो गए हों लेकिन स्कूल और कालेज के सभी दोस्तों के बीच उन का नाम अभी भी ‘नेताजी’ ही चलता है. Social Story

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