ZEE Cine Awards 2025 : शरवरी को मिला ‘आउटस्टैंडिंग परफौर्मेंस’ अवार्ड, कहा औडियंस ने इंडस्ट्री में मेरे पांव जमाने में मदद की

ZEE Cine Awards 2025 : उभरती अभिनेत्री शरवरी ने एक और उपलब्धि अपने नाम कर ली है. साल 2024 में जहां उन्होंने मुंजा जैसी 100 करोड़ की ब्लौकबस्टर फिल्म दी, वहीं वेदा और ‘महाराज’ जैसी फिल्मों में अपने दमदार अभिनय से दर्शकों और समीक्षकों का दिल जीता है. अब ZEE Cine Awards 2025 में उन्हें मुंजा और वेदा में शानदार अभिनय के लिए ‘आउटस्टैंडिंग परफौर्मेंस बाय अ यंग टैलेंट’ के अवार्ड से नवाज़ा गया है.

अवार्ड जीतने के बाद शरवरी ने कहा, “2024 मेरे करियर का सबसे खास साल रहा है. इस साल मुझे जितनी भी शानदार फिल्में और किरदार मिले, वो मेरे लिए एक सपने के सच होने जैसा है.दर्शकों से मिले प्यार ने मुझे इस इंडस्ट्री में पहचान दिलाई है और ये अवार्ड भी उन्हीं को समर्पित है.

शरवरी ने अपने प्रोड्यूसर्स और डायरेक्टर्स का भी आभार जताया. उन्होंने कहा, “मैं दिनेश विजन, आदित्य सर्पोतदार, निखिल आडवाणी, मोनीषा, मधु, आदित्य चोपड़ा और सिद्धार्थ पी. मल्होत्रा सर की बहुत आभारी हूं कि उन्होंने मुझ पर विश्वास जताया और मुझे ये मौके दिए.

शरवरी फिलहाल YRF स्पाय यूनिवर्स की अगली फिल्म ‘अल्फा’ की शूटिंग में व्यस्त हैं, जिसमें वह सुपरस्टार आलिया भट्ट के साथ नजर आएंगी. इस फिल्म का निर्देशन ‘द रेलवे मेन’ फेम शिव रवैल कर रहे हैं और यह 25 दिसंबर 2025 को रिलीज होगी.

बौडी शेमिंग को मुंहतोड़ जवाब देने वाला सीरियल ‘मेरी भव्या लाइफ’ ऐक्ट्रैस प्रीशा ने अपने रोल के लिए बढ़ाया 10 किलो वजन

Meri Bhavya Life : कलर्स चैनल पर प्रसारित शो ‘मेरी भव्या लाइफ’ एक ऐसी लड़की की कहानी है जो भोपाल में रहने वाली गोल्ड मेडलिस्ट आर्किटेक्चर है, लेकिन ज्यादा वजन होने की वजह से समाज में मजाक का कारण बनती है. जिस वजह से अपने मांबाप की प्यारी अच्छे स्वभाव की मल्टी टैलेंटेड होने के बावजूद भव्या को समाज के तानों का शिकार होना पड़ता है.

85 किलो वजन की भव्या को अपने भारी शरीर से कोई शिकायत नहीं है क्योंकि वह आत्मविश्वास से भरी हुई है और उसका मानना है किसी भी इंसान को उसकी खूबियों से परखना चाहिए ना कि खूबसूरत शरीर से. भव्या की जिंदगी में ज्यादा वजन होने की वजह से क्याक्या प्रौब्लम आती है और उसका सामना वह किस तरह से करती है? इसे दिलचस्प कहानी के रूप में दिखाया जा रहा है.

भव्या का किरदार निभाने वाली प्रीशा धतवालिया ने इस सीरियल में काम करने के लिए खास तौर पर अपना 10 किलो वजन बढ़ाया है. क्योंकि इस रोल के लिए एक मोटी लड़की की जरूरत थी , जिसका वजन 85 के करीब हो. असल जिंदगी में पेशे से पत्रकार रह चुकी लेकिन एक्टिंग का शौक रखने वाली प्रीशा ने खास तौर पर इस सीरियल के लिए अपना वजन 10 किलो बढ़ाया है.

प्रीशा के अनुसार लोग अभिनय की शुरूआत करने के लिए अपना वजन घटाते है और मुझे बहुत सारा खा पीकर अपना वजन बढ़ाना पड़ा. मेरी भव्या लाइफ मेरी जिंदगी का खूबसूरत टर्निंग पौइंट है. उसके लिए 10 किलो वजन बढ़ाना तो क्या मैं अपने रोल को खूबसूरत बनाने के लिए किसी भी हद तक जा सकती हूं.

Hindi Fiction Stories : जूनियर, सीनियर और सैंडविच

Hindi Fiction Stories : सोनिका सुबह औफिस के लिए तैयार हो गई तो मैं ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटी, आराम से नाश्ता कर लो, गुस्सा नहीं करते, मन शांत रखो वरना औफिस में सारा दिन अपना खून जलाती रहोगी. मैनेजर कुछ कहती है तो चुपचाप सुन लिया करो, बहस मत किया करो. वह तुम्हारी सीनियर है. उसे तुम से ज्यादा अनुभव तो होगा ही. क्यों रोज अपना मूड खराब कर के निकलती हो?’’

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‘‘आप को क्या पता, मौम, बस मुझे और्डर दे कर इधरउधर घूमती रहती है. फिर कभी कहती है, यह अभी तक नहीं किया, इतनी देर से क्या कर रही हो? जैसे हम जूनियर्स उस के गुलाम हैं. हुंह, मैं किसी दिन छोड़ दूंगी सब कामवाम, तब उसे फिर से किसी जूनियर को सारा काम सिखाना पड़ेगा.’’

‘‘नहीं, सोनू, मैनेजर्स अपने जूनियर्स के दुश्मन थोड़े ही होते हैं. नए बच्चों को काम सिखाने में उन्हें थोड़ा तो स्ट्रिक्ट होना ही पड़ता है. तुम्हें तो औफिस में सब पर गुस्सा आता है. टीमवर्क से काम चलता है, बेटा.’’

‘‘मौम, इस मामले में आप मुझे कुछ न कहो तो अच्छा है. मैं जानती हूं आप को किस ने सिखा कर भेजा है. वे भी सीनियर हैं, मैनेजर हैं न, वे क्या जानें किसी जूनियर का दर्द.’’

‘‘कैसी बातें कर रही हो, सोनू, वे तुम्हारे पापा हैं.’’

‘‘मुझे तो अब वे एक सीनियर मैनेजर ही लगते हैं. मैं जा रही हूं, बाय,’’ वह नाश्ता बीच में ही छोड़ कर खड़ी हो गई तो मैं ने कहा, ‘‘सोनू, नाश्ता तो खत्म करो.’’

‘‘मैनेजर साहब को खिला देना, उन्हें तो जाने की जल्दी भी नहीं होगी. मुझे जाना है वरना मेरी मैनेजर, उफ्फ, अब बाय,’’ कह कर सोनू चली गई.

मैं प्लेट में उस का छोड़ा हुआ नाश्ता रसोई में रखने चली गई. इतने में आलोक तैयार हो कर आए, डायनिंग टेबल पर बैठते हुए बोले, ‘‘तनु, सोनू कहां है, गई क्या?’’

‘‘हां, अभी निकली है.’’

‘‘अरे, आज उस ने मुझे बाय भी नहीं कहा.

मैं चुप, गंभीर रही तो आलोक फिर बोले, ‘‘क्या हुआ, फिर उस का मूड खराब था क्या?’’

‘‘हां.’’

‘‘वही सीनियर के लिए गुस्सा?’’

‘‘हां,’’ मैं जानती थी अब उन के कौन से डायलौग आने वाले हैं और वही हुआ.

‘‘तनु, उसे प्यार से समझाओ, सीनियर के साथ बदतमीजी अच्छी बात नहीं है. वे जूनियर्स की भलाई के लिए ही टोकते हैं, उन्हें गाइड करते हैं. सोनू जरूर औफिस में भी लापरवाही करती होगी. घर में भी तो कहां वह कोई काम करना चाहती है. वह लापरवाह तो है ही. इन जूनियर्स को झेलना आसान काम नहीं होता. मुझ से तो वह आजकल ठीक से बात ही नहीं करती है. उसे प्यार से समझाओ कि काम में मन लगाए. लड़कियां औफिस में गौसिप करती हैं,’’ बातें करतेकरते आलोक ने नाश्ता खत्म किया. मैं भी उन के साथ ही नाश्ता कर रही थी. चुपचाप उन की बातें सुन रही थी. आलोक ने अपना टिफिन, बैग और कार की चाबी उठाई और औफिस के लिए निकल गए. मैं ‘क्या करूं, इन बापबेटी का’ की स्थिति में अपना सिर पकड़े थोड़ी देर के लिए सोफे पर ही पसर गई.

आजकल कुछ समझ नहीं आता कि क्या करूं, लगता ही नहीं कि घर में एक पिता है, एक बेटी है. अब तो हर समय यही महसूस होता है कि घर में एक सीनियर है, एक जूनियर है और एक सैंडविच है, मतलब मैं. दोनों के बीच पिसती हूं आजकल. अपनी स्थिति पर कभी गुस्सा आता है, कभी हंसी आ जाती है. वैसे, दोनों की प्रतिक्रियाएं देखसुन कर हंसी ही ज्यादा आती है.

आलोक दवाओं की एक मल्टीनैशनल कंपनी में नैशनल सेल्स मैनेजर हैं. उन्हें नौकरी करते 28 साल हो रहे हैं. हमारी इकलौती बेटी सोनिका एक बड़ी कंपनी में सीए की अपनी आर्टिकलशिप कर रही है. वह अपने औफिस में सब से जूनियर है. एक तो ठाणे से लोकल ट्रेन की भीड़ में दादर आनेजाने में उसे थकान होती है, ऊपर से पता नहीं क्यों वह अपनी टीम से नाराज सी रहती है. उस की शिकायतें कुछ इस तरह की होती हैं, ‘मेरी मैनेजर शिवानी को खुशामद पसंद है. मैं यह सब नहीं करूंगी. मुझ से कोई कितना भी काम सारा दिन करवा ले पर मैं झूठी तारीफें नहीं करूंगी किसी की. शिवानी अपने हिसाब से करती है हर काम. उस का घर तो 20 मिनट की दूरी पर है, कार से आतीजाती है. मुझे आनेजाने में सब से ज्यादा टाइम लगता है. यह भी नहीं सोचता कोई, रात 8 बजे तक बिठाए रखते हैं मुझे. खुद सब निकल जाते हैं साढ़े 5-6 बजे तक. सारा दिन नहीं बताएगा कोई पर शाम होते ही सारा काम याद आता है सब को.’

शुरूशुरू में सोनिका ने जब ये बातें बतानी शुरू कीं घर में, आलोक ने समझाना शुरू किया, ‘‘अगर मैनेजर अपनी तारीफ से खुश होती है तो क्या बुराई है इस में. सब को अपनी तारीफ अच्छी लगती है, खासतौर पर लेडीज को. अगर इस से वह खुश रहती है तो 1-2 शब्द तुम भी कह दिया करो, क्या फर्क पड़ता है और आनेजाने में तुम्हें जो परेशानी होती है उस से किसी सीनियर को क्या मतलब. काम तो करना ही है न, मुंबई में तो इस परेशानी की आदत पड़ ही जाती है धीरेधीरे. और हो सकता है शाम को ही कुछ अर्जेंट काम आता हो. तुम्हारी कंपनी के कई क्लाइंट विदेशों में भी तो हैं.’’

बस, यह कहना आलोक का, फिर सोनू की गर्जना, ‘‘पापा, इस बारे में अब मुझे आप से कोई बात ही नहीं करनी है, लगता है अपने पापा से नहीं किसी सीनियर से बात कर रही हूं.’’

मैं दोनों के बीच सैंडविच बनी कभी आलोक का, कभी सोनिका का मुंह ताकती रह जाती. कुछ महीनों पहले आलोक का औफिस पवई से यहीं ठाणे शिफ्ट हो गया है. अब उन्हें आराम हो गया है. कार से जाने में 10 मिनट ही लगते हैं. जबकि सोनू डेढ़ घंटे में औफिस पहुंचती है. आनेजाने में रोज उसे 3 घंटे लगते ही हैं. रात साढे़ 10 बजे तक आती है, बहुत ही थकी हुई, खराब मूड में. शनिवार, रविवार दोनों की छुट्टी रहती है. आजकल मैं हर समय किसी बड़ी बहस को रोकने की कोशिश में लगी रहती हूं. पति और बेटी दोनों अपनी जगह ठीक लगते हैं. दोनों का अपनाअपना नजरिया है हर बात को देखने का. पर दोनों ही चाहते हैं मैं उसी की हां में हां मिलाऊं.

एक दिन आलोक शनिवार को रात के 11 बजे तक लैपटौप पर काम कर रहे थे. सोनू कुछ हलकेफुलके मूड में थी. उस ने छेड़ा, ‘‘आज एक सीनियर रात तक काम कर रहा है? किसी जूनियर को बोल कर आराम करो न.’’

आलोक को उस के सीनियर पुराण पर हंसी आ गई, कहने लगे, ‘‘देख लो, कितनी मेहनत करनी पड़ती है मैनेजर को, सोमवार को एक मीटिंग है, उस की तैयारी कर रहा हूं बैठ कर.’’

‘‘हुंह,’’ कह कर सोनू ने सिर को एक झटका दिया. मुझे हंसी आ गई. सोनू खुद भी हंस पड़ी. शनिवार की रात थी, अगले दिन छुट्टी थी, इसलिए सोनू अच्छे मूड में थी वरना संडे की शाम से उस का मूड खराब होना शुरू हो जाता है. पता नहीं कहां क्या बात है जो वह अपने सीनियर्स से खुश नहीं है. उस के मन में सब के लिए बहुत गुस्सा भरा है.

मैं बहुत देर से ये सब बातें सोच रही थी. अचानक डोरबैल बजी. मेड आई तो मैं घर के कामों में व्यस्त हो गई. उस दिन रात को 11 बजे आई सोनू. मैं ने उसे पुचकारा, ‘‘आ गई बेटा, बहुत देर हो गई आज, मेरी बच्ची थक गई होगी.’’

उस ने इशारे से पूछा, ‘‘पापा कहां हैं?’’

‘‘सो गए हैं,’’ मैं ने धीरे से बताया.

वह बड़बड़ाई, ‘देखा, कैसे टाइम से सो पाते हैं सीनियर्स.’

मुझे हंसी आ गई. उस का बड़बड़ाना जारी था, ‘ऐसे ही घर जा कर शिवानी, मिस्टर गौतम, सब सो रहे होंगे.’

मैं ने उस के सिर पर हाथ रखा, ‘‘सुबह भी गुस्से में निकलती हो, शांत रहो, बेटा.’’

वह चिढ़ गई, ‘‘क्या शांत रहूं, आप को क्या पता औफिस में क्या पौलिटिक्स चलती है.’’

मैं चुप रही तो वह मुझ से चिपट गई, ‘‘मौम, आई हेट माई सीनियर्स.’’

‘‘अच्छा, चलो अब मुंहहाथ धो लो.’’

अगले दिन सुबह ही हंगामा मचा था घर में, आलोक और सोनू दोनों ही तैयार हो रहे थे जाने के लिए. मैं दोनों का टिफिन पैक कर नाश्ता डायनिंग टेबल पर रख रही थी. आलोक का मोबाइल बजा. आलोक की गुस्से से भरी आवाज पूरे घर में फैल गई, ‘‘काम तो करना पडे़गा. सेल्स की क्लोजिंग का टाइम है और तुम्हें छुट्टी चाहिए. इस समय कोई छुट्टी नहीं मिलेगी. इस बार टारगेट पूरा नहीं किया तो इस्तीफा ले कर आना मीटिंग में. इन्सैंटिव की बात करना याद रहता है, काम का क्या होगा. मैं करूंगा तुम्हारा काम?’’

अचानक सोनिका पर नजर पड़ी मेरी, वह अपनी कमर पर हाथ रखे आलोक को घूरती हुई तन कर खड़ी थी. मुझे मन ही मन हंसी आ गई. आलोक के फोन रखते ही सोनिका शुरू हो गई, ‘‘पापा, आप किस से बात कर रहे थे?’’

‘‘एक नया लड़का है. महीने का आखिर है, हमारी सेल्स क्लोजिंग का टाइम है और जनाब को छुट्टी चाहिए. पिछले महीने भी गायब हो गया था. पक्का कामचोर है.’’

‘‘पापा, आप ऐसे बात नहीं कर सकते किसी जूनियर से, कितना खराब तरीका था बात करने का.’’

‘‘तुम चुप रहो, सोनू. मेरा मूड बहुत खराब है,’’ आलोक ने थोड़ा सख्ती से कहा.

‘‘मैं जा रही हूं, मौम.’’

‘‘अरे, नाश्ता?’’

‘‘नो, आई एम गोइंग. आई हेट मैनेजर्स.’’

आलोक भी तन कर खड़े हो गए, ‘‘ये आजकल के बच्चे, बस मोटी तनख्वाह चाहिए, कोई काम न कहे इन से,’’ आलोक ने खड़ेखड़े जूस के कुछ घूंट पिए और औफिस के लिए निकल गए. एक सीनियर, एक जूनियर, दोनों जा चुके थे और अब, बस मैं थी दोनों के बीच बनी सैंडविच. दोनों के सोचने के ढंग का जायजा लेते हुए मैं ने मन ही मन मुसकराते हुए अपना चाय का कप होंठों से लगा लिया.

Interesting Hindi Stories : कोठे में सिमटी पार्वती

Interesting Hindi Stories :  आगे एक सार्वजनिक पेशाबखाना था, जहां से तेज बदबू आ रही थी. 10 कदम और आगे चलने पर 64 नंबर कोठे के ठीक सामने ‘चाय वाला’ की चाय की खानदानी दुकान थी. चाय की दुकान से 5 कदम हट कर अधेड़ उम्र की दरमियाना कद की पार्वती खड़ी थी. उस की उम्र 45 साल के करीब लग रही थी. वह सड़क के बगल से हो कर गुजरने वाले ऐसे राहगीरों को इशारा कर के बुला रही थी, जो लार टपकाती निगाहों से कोठे की तरफ देख रहे थे.

पार्वती की आंखें और गाल अंदर की तरफ धंसने लगे थे. चेहरे पर सिकुड़न के निशान साफसाफ झलकने लगे थे. अपने हुस्न को बरकरार रखने के लिए उस ने अपनी छोटीछोटी काली आंखों में काजल लगाया हुआ था.

गरमी की वजह से पार्वती का शरीर पसीने से तरबतर हो रहा था. हाथों में रंगबिरंगी चूडि़यां सजी हुई थीं. सोने की बड़ीबड़ी बालियां कानों से नीचे कंधे की तरफ लटक रही थीं. वह लाल रंग की साड़ी में ढकी हुई थी, ताकि ग्राहकों को आसानी से अपनी तरफ खींच सके.

पिछले 3 घंटे से पार्वती यों ही चाय की दुकान के बगल में खड़ी हो कर राहगीरों को अपनी तरफ इशारा कर के बुला रही थी, लेकिन अभी तक कोई भी ग्राहक उस के पास नहीं आया था.

पार्वती को आज से 10 साल पहले तक ग्राहकों को फंसाने के लिए इतनी ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती थी. उस ने कभी सोचा तक नहीं था कि उस को ये दिन भी देखने पड़ेंगे.

आज से 28-29 साल पहले जब पार्वती इस कोठे में आई थी तो उस को सब से ऊपरी मंजिल यानी चौथी मंजिल पर रखा गया था, जहां 3 सालों तक उस की निगरानी होती रही थी. वहां तो वह बैंच पर बैठी रहती थी और सिंगार भी बहुत कम करती थी, फिर भी ग्राहक खुद उस के पास बिना बुलाए आ जाते थे. लेकिन आज ऐसा समय आ गया है कि इक्कादुक्का ग्राहक ही फंस पाते हैं.

जो धंधेवालियां अब अधेड़ उम्र की हो गई हैं, वे सब से निचली मंजिल पर शिफ्ट कर दी गई हैं. चौथी और तीसरी मंजिल पर सभी नई उम्र की धंधेवालियां बाजार को संवारती हैं. दूसरी मंजिल पर 25 से ले कर 40 साल की उम्र तक की धंधेवालियां हैं और सब से निचली मंजिल पर 40 साल से ज्यादा उम्र की धंधेवालियां रहती हैं, जो किसी तरह अपनी उम्र इस कोठे में गुजार रही हैं.

ऊपरी मंजिलों पर जहां लड़कियां एक बार में ही 400-500 से ज्यादा

रुपए ऐंठती थीं, वहीं पार्वती को सिर्फ 50-100 रुपए पर संतोष करना पड़ता था. उस में से भी आधा पैसा तो कोठे की मालकिन यमुनाबाई को चुकाना पड़ता था.

आज जब पुराना जानापहचाना ग्राहक रामवीर, जिस की करोलबाग में कपड़ों की खानदानी दुकान है, पार्वती को देख कर बड़ी तेजी से शक्ल छुपाता हुआ ऊपरी मंजिल की तरफ चला गया तो पार्वती को बहुत दुख हुआ. वह उन दिनों को याद करने लगी, जब रामवीर की शादी नहीं हुई थी. तब वह अकसर अपनी जिस्मानी प्यास बुझाने के लिए पार्वती के पास आता था. अब पिछले कुछ महीने से एक बार फिर उस ने इस कोठे में आना शुरू किया है, लेकिन रंगरलियां नई उम्र की लड़कियों के साथ ऊपरी मंजिल पर मनाता है.

मंटू जैसे 50 से भी ज्यादा पुराने ग्राहक थे, जो पार्वती की तरह ही

45 साल से ज्यादा के हो चुके थे. इन के बच्चे भी जवान हो गए थे, लेकिन ये लोग भी हफ्ते में 1-2 बार 64 नंबर के कोठे में हाजिरी दे देते थे.

इन में से कई चेहरे पार्वती को अच्छी तरह से याद हैं. वह अभी तक इन्हें नहीं भूल पाई है. इन ग्राहकों में से कुछ की प्यारमुहब्बत वाली घिसीपिटी बातें आज तक पार्वती के कानों में गूंजती रहती हैं. लेकिन अब जब ये लोग पार्वती को देख कर तेज कदमों से ऊपर की मंजिलों पर चले जाते हैं तो वह टूट जाती है.

पार्वती नेपाल के एक खूबसूरत गांव से यहां आई थी. कोठे की दुनिया में फंस कर वह सिगरेटशराब पीने लगी थी. इस के बाद वह जिंदगी की सारी कमाई अपने आशिकों, दलालों और सहेलियों के साथ पी गई.

पार्वती के साथ 10 और लड़कियां भी नेपाल से यहां आई थीं, आधी से ज्यादा लड़कियां अपना 5 साल का करार पूरा कर के वापस लौट गईं और दूरदराज के पहाड़ी गांवों में अपने भविष्य को संवार चुकी थीं, लेकिन पार्वती की बदकिस्मती ने उस को इस दलदल से निकलने ही नहीं दिया.

दुनिया में देह धंधा ही एक ऐसा पेशा है, जहां पर अनुभव और समय बढ़ने

के साथ आमदनी और जिस्मफरोशी की कीमत में गिरावट होती जाती है. नई

उम्र की धंधेवालियों को तो मुंहमांगा पैसा मिल जाता है.

पार्वती जब 16 साल की थी तो उस को चौथी मंजिल पर जगह मिली थी. उस के बाद तीसरी मंजिल, दूसरी मंजिल पर आई और अब पहली मंजिल की अंधेरी कोठरी में आ कर अटक गई है, जहां पर बाहरी दुनिया को झांकने के लिए एक खिड़की तक नहीं है.

जब दिल नहीं लगता था तो पार्वती शीतल से बात करती थी, जो उसी के साथ नेपाल से यहां आई थी.

शीतल की एक बेटी थी, जिस के बाप का कोई अतापता नहीं था. उस लड़की ने एक साल पहले अपनी मां का कारोबार संभाल लिया था और चौथी मंजिल पर अपना बाजार लगाती थी.

उस के पास ही तीसरे बिस्तर पर सलमा रहती थी, जो राजस्थान के सीकर जिले से आज से 25 साल पहले यहां आई थी. उस को भी किसी अजनबी से एक बेटा पैदा हो गया था. बेटा अब मां को सहारा देने लगा था. उस को तालीम हासिल करने का मौका कभी नहीं मिल पाया था.

अब वह लड़का दलाली का काम करने लगा था. वह अजमेरी गेट, कमला मार्केट, पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के इर्दगिर्द ग्राहकों की तलाश में मंडराता रहता था. वह अच्छाखासा पैसा कमा लेता था. कभीकभार तो वह ग्राहक से हजारों रुपए ऐंठ लेता था.

दूसरी तरफ लक्ष्मी बैठती थी, जो तेलंगाना के करीमनगर से पार्वती के जमाने में यहां आई थी. उस की हालत कमोबेश पार्वती जैसी ही थी. पार्वती की तरह ही लक्ष्मी को किसी भी अजनबी से कोई औलाद नहीं हो पाई थी.

पार्वती की यही तीनों सब से अच्छी सहेलियां थीं, जो अपना सुखदुख बांटती थीं. यही पार्वती का एक छोटा सा संसार था, एक छोटा सा समाज था.

पार्वती का जन्म नेपाल की राजधानी काठमांडू से काफी ऊपर एक सुंदर पहाड़ी गांव में हुआ था. गांव काफी चढ़ाई पर था, जहां पर तब 3 दिन तक पैदल चल कर पहुंचने के अलावा कोई दूसरा साधन नहीं था. लोग वहां से रोजगार की तलाश में मैदान और तराई के हिस्से में आते थे, क्योंकि गांव में जीविका का कोई भी अच्छा जरीया नहीं था.

पार्वती के मांबाप भी गांव के ज्यादातर लोगों की तरह गरीब थे और उन लोगों की जिंदगी पूरी तरह खेती पर ही निर्भर करती थी.

जब पार्वती 10 साल की थी तो उस का पिता बीमारी की चपेट में आ कर इस दुनिया से चल बसा था. अब घर में काम करने वालों में मां अकेली बच गई थी.

दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने में मां को काफी पसीना बहाना पड़ता था. वह पूरा दिन अपने छोटे से खेत में काम करती थी और बकरियां और भेड़ें पालती थी. पार्वती कामकाज में मां का हाथ बंटाने लगी थी.

पार्वती के घर से थोड़ा सा हट कर धर्म बहादुर का घर था. उस का घर दूर से देखने पर ही किसी सुखी अमीर आदमी का घर लगता था.

धर्म बहादुर हर साल 6 महीने के लिए पैसा कमाने के लिए दिल्ली चला जाता था और पैसा कमा कर गरमी के मौसम में घर लौट आता था. उस के बीवीबच्चे अच्छे कपड़े पहनते थे और अच्छा खाना खाते थे.

पार्वती की मां की नजर में धर्म बहादुर बहुत मेहनती और नेकदिल इनसान था. एक बार धर्म बहादुर दिल्ली से घर लौटा तो उस ने पार्वती की मां से कहा, ‘‘अब तो पार्वती 15 साल की हो गई है. अगर वह मेरे साथ दिल्ली जाती है तो उस को अपनी जानपहचान के सेठजी के घर में बच्चों का खयाल रखने का काम दिला देगा. उन का बच्चा छोटा है. पार्वती बच्चे की देखरेख करेगी. पैसा भी ठीकठाक मिल जाएगा और 2 सालों के अंदर वह मेरे साथ गांव वापस आ जाएगी.’’

मां ने कुछ सोचविचार किया और फिर वह मान गई, क्योंकि धर्म बहादुर एक अच्छा पड़ोसी था और मां को उस के ऊपर पूरा भरोसा था.

पार्वती के मन में भी अब दिल्ली जाने की लालसा जागने लगी थी. वह अब जवानी की दहलीज पर कदम रख रही थी. चेहरे पर खूबसूरती चढ़ने लगी थी. वह दिल्ली के बारे में काफी सुन चुकी थी. अब उसे अपनी आंखों से देखना चाहती थी.

उसी सर्दी में मां ने पार्वती को धर्म बहादुर के साथ दिल्ली भेज दिया. चूंकि वह उन का पड़ोसी था और पार्वती का दूर का चाचा लगता था, इसीलिए मां उस पर यकीन करती थी. पार्वती के पिता के मर जाने के बाद वह उन दोनों की थोड़ीबहुत मदद भी कर दिया करता था.

धर्म बहादुर पार्वती को हिमालय के आगोश में बसे हुए इस छोटे से पहाड़ी गांव से उतार कर सीधा दिल्ली के जीबी रोड के इस 64 नंबर कोठे में ले आया. अब अल्हड़ और भोलीभाली पार्वती को मालूम हुआ कि वह तो एक दलाल के हाथ में फंस गई है.

धर्म बहादुर 64 नंबर कोठे की चौथी मंजिल पर धंधेवालियों से नकदी वसूल कर बक्से में रखता था और यमुनाबाई को हिसाबकिताब दिया करता था. वह यमुनाबाई के लिए कई सालों से काम करता आ रहा था.

इस तरह से पार्वती कोठे की बदबूदार दुनिया में फंस गई थी. इस घटना ने उस की जिंदगी के रुख को पूरब से पश्चिम की तरफ मोड़ दिया था.

धर्म बहादुर ने कुछ पैसा मां को ईमानदारी से पहुंचा दिया था, लेकिन पार्वती दिल से काफी टूट गई थी. धर्म बहादुर ही उस की जिंदगी का पहला ऐसा मर्द था, जिस ने उसे कच्ची कली से फूल बना दिया था और फिर उस के बाद यमुनाबाई को एक सेठ ने शगुन में मोटी रकम दी और वह इस मासूम कली को 2 हफ्ते तक चूसता रहा. वह चाह कर भी यह सब नहीं रोक सकी थी.

इस के बाद तो पार्वती पूरी तरह से खुल चुकी थी. उदासी और डर की दुनिया से 3 महीने के अंदर ही बाहर निकल आई और कोठे की रंगीन दुनिया में इस तरह खो गई कि 30 साल किस तरह बीते, इस का उसे पता भी नहीं चला. हां, यहां आने के 3 साल बाद वह एक बार घर लौटी थी, पर तब तक मां बहुत ज्यादा बीमारी हो चुकी थी. बेटी के घर लौटते ही मां एक महीने के अंदर ही चल बसी.

कुछ दिनों के बाद पार्वती को फिर से उस कोठे की याद आने लगी थी, जहां पर कम से कम उस के आशिक उस की खूबसूरती की तारीफ तो करते थे. उस ने घर में ताला मार कर चाबी पड़ोसी को दे दी और फिर से कोठे की इसी रंगीन दुनिया में लौट आई. तब से ले कर आज तक वह यहीं पर फंसी रह गई.

जब कभी पार्वती बहुत ज्यादा मायूस होने लगती थी, तब वह सलीम चाय वाले से गुफ्तगू कर के अपने दिल को बहलाती थी. सलीम चाय वाला अपने अब्बा की मौत के बाद पिछले कई सालों से अकेला ही चाय बेचता आ रहा था. वह भी अब बूढ़ा हो गया था. वह पार्वती के सुनहरे लमहों से ले कर अभी तक की बदहाली का गवाह बन कर इस कोठे के गेट के सामने चाय बेचता आ रहा था.

वह पार्वती को कभीकभार मुफ्त में चाय, पान और सिगरेटगुटका दे दिया करता था. जब इन सब चीजों से भी उस का दिल तंग हो जाता था तो वह वीर बहादुर के पास कुछ देर बैठ कर नेपाली भाषा में बात कर लेती थी और अपने वतन के हालात पूछ लेती थी.

वीर बहादुर पार्वती के गांव के ही आसपास के किसी पहाड़ी गांव से यहां आया था और रिश्ते में धर्म बहादुर का दूर का भाई लगता था. अपने देशवासियों से बात कर के दिल को थोड़ाबहुत सुकून मिलता था.

जब पार्वती सड़क के किनारे खड़ीखड़ी थक जाती थी और कोई ग्राहक भी नहीं मिलता था तो वह उसी अंधेरी कोठरी में वापस लौट आती थी, जहां रात हो या दिन, हमेशा एक बल्ब टिमटिमाता रहता था और उस बल्ब में इतनी ताकत नहीं थी कि वह पूरी कोठरी को जगमगा पाए.

जब पार्वती खाली होती थी तब वह सामने रेलवे स्टेशन पर खड़ी जर्जर होती एक मालगाड़ी और अपनी जिंदगी के बारे में सोचते हुए खो जाती थी कि धंधेवाली की जवानी और जिंदगी भी इसी मालगाड़ी की तरह है, जो तेज रफ्तार से कहां से कहां तक चली जाती है, इस का पता भी नहीं चल पाता है.

जब वह ज्यादा चिंतित हो जाती तो सलमा उस को हिम्मत बंधाते हुए कहती थी, ‘‘मेरा बेटा है न. तुम को कुछ भी होगा तो वह मदद करेगा. जब तक मैं यहां हूं, तब तक हम दोनों साथसाथ रहेंगी. एकदूसरे की मदद करेंगी. तुम रोती क्यों हो… हम तवायफों की जिंदगी ही ऐसी है, इस पर रोनाधोना बेकार है.’’

अपनी सहेलियों की ऐसी बातों को सुन कर पार्वती ने आंसू सुखा लिए और अगले दिन के धंधे के बारे में सोचने लगी. शाम को चारों सहेलियां मिल कर शराब खरीदती थीं और नशे में खोने की कोशिश करती थीं लेकिन शराब भी अब उन पर कुछ असर नहीं कर पाती थी.

इधर कई दिनों से पार्वती काफी परेशान रहती थी. अपने पुश्तैनी घर के सामने के बगीचे, पेड़पौधे, पहाड़ पर झरने के उन सुंदर नजारों को काफी याद किया करती थी.

उन्हें देखने की काफी चाहत होती थी. लेकिन वह ऐसे कैदखाने में बंद थी, जहां शुरुआती दिनों की तरह अब ताला नहीं लगता था, लेकिन इतने सालों बाद इस कैदखाने से आजाद हो कर भी अपनेआप को अंदर से गुलाम महसूस करती थी. अब वह चाह कर भी कहीं जा नहीं पाती थी.

सुबह हो गई थी. अचानक पार्वती की नींद टूट गई. ऊपरी मंजिल से नेपाली लड़कियों के रोने की आवाज कानों में गूंजने लगी. वह उठ कर बैठ गई और आंखों को मलते हुए सोचने लगी, ‘ये लड़कियां, मेरी हमवतन क्यों रो रही हैं? कोई लड़की ऊपर मर तो नहीं गई?’

पार्वती दौड़ कर ऊपरी मंजिल की तरफ बढ़ी. जैसे ही वह वहां पर पहुंची, वैसे ही पाया कि कई लड़कियां जोरजोर से छाती पीटपीट कर रो रही थीं.

पूछने पर पता चला कि आज सुबह काठमांडू के आसपास एक विनाशकारी भूकंप आया है और सबकुछ तबाह हो चुका है. बहुत सारे घर तहसनहस हो गए हैं और हजारों की तादाद में लोग मारे गए हैं. इस में कई लड़कियों के सगेसंबंधी भी मर गए थे.

सामने वीर बहादुर चुपचाप बैठा हुआ था. उस की आंखों से आंसू टपक रहे थे. उस को देख कर पार्वती ने पूछा, ‘‘तू क्यों आंसू बहा रहा है बे? तेरा भी कोई सगासंबंधी भूकंप की चपेट में आया है क्या?’’

इस पर वीर बहादुर के मुंह से कुछ शब्द निकले, ‘‘मेरा मौसेरा भाई धर्म बहादुर भी अपनी बीवीबच्चों समेत घर में दब कर मर गया है. गांव में काफी लोग भूकंप में अपनी जान गंवा चुके हैं. सबकुछ तबाह हो गया है.’’

इतना कह कर वीर बहादुर रोने लगा, लेकिन पार्वती की आंखों से बिलकुल आंसू नहीं निकले. उस के गुलाबी चेहरे पर मुसकराहट और खुशी की लहर बिखरने लगी. इसे देख कर वीर बहादुर काफी अचरज में पड़ गया, किंतु पार्वती पर इन लोगों के रोनेधोने का कोई असर नहीं हुआ.

अगले दिन पार्वती ने सुबह के 10 बजे बैग में अपना सारा सामान पैक किया और रेलवे स्टेशन की तरफ चलने लगी. उस की सहेलियां शीतल, लक्ष्मी और सलमा की आंखों से आंसू टपक रहे थे. इतने सालों बाद वह अपनी सहेलियों को नम आंखों से विदाई दे रही थी.

वीर बहादुर तीसरी मंजिल से पार्वती की तरफ टकटकी निगाह से देख रहा था. सामने सलीम चाय वाले ने एक पान लगा कर पार्वती को दे दिया. पार्वती पान को शान से चबाते हुए रेलवे स्टेशन की तरफ अहिस्ताआहिस्ता बढ़ती जा रही थी. कुछ पलों के अंदर ही वह हमेशा के लिए इन लोगों की नजरों से ओझल हो गई.

Hindi Folk Tales : करकट – क्या तूफान में टूट गया ताप्ती का घर

Hindi Folk Tales : सुबह होते ही गांव में जैसे हाहाकार मच गया था. नदी में पानी का लैवल और बढ़ गया था जिस से गांव में पानी घुस आया था और वह लगातार बढ़ता जा रहा था. दूर नदी में पानी की धार देखते ही डर लगता था. सभी के घरों में अफरातफरी मची थी. लोग जैसे किसी अनहोनी से डरे हुए थे.

वैसे तो तकरीबन सभी के पास अपनीअपनी छोटीबड़ी नावें थीं, मगर इस भयंकर बहाव में जहाज तक के बह जाने का डर था, फिर भी जान बचाने के लिए निकलना तो था ही.

‘‘लगता है, फिर से मणिपुर बांध से पानी छोड़ा गया है…’’ लक्ष्मण बोल रहा था, ‘‘अब हमें यह जगह छोड़नी पड़ेगी.’’

‘‘तो चलो न, सोच क्या रहे हो…’’ उस की पत्नी ताप्ती जैसे पहले से तैयार बैठी थी, ‘‘लो, पहले मैं ही चावल की बोरी नाव में चढ़ा आती हूं.’’

तीनों बच्चे भी सामान की छोटीबड़ी पोटलियों को नाव पर लादने में लगे रहे. रसोई के बरतन, बालटी, कलश वगैरह नाव पर रखे जा चुके थे. कुछ सूखी लकडि़यां और धान की भूसी से भरा बोरा भी लद चुका था.

तीनों बच्चे नाव पर चढ़े पानी के साथ छपछप खेल रहे थे कि ताप्ती ने उन्हें डांटा, ‘‘तुम लोगों को कितनी बार कहा है कि पानी और आग के साथ खेल नहीं खेलते हैं.’’

‘‘हमें तैरना आता है मां…’’ बड़ा बेटा रिंकू हंसते हुए बोला, ‘‘देखना

मां, एक दिन मैं इसी नाव को खेते हुए बंगलादेश में सिलहट शहर चला जाऊंगा.’’

रिंकू की इस बात पर लक्ष्मण हंसने लगा. कभी वे दिन थे, जब वह अपने बालपन में ऐसे ही सपने पाला करता था. यह अलग बात थी कि वह उधर कभी जा नहीं पाया. कैसे जा सकता है किसी दूसरे देश में. वैसे, बराक इलाके का हर बच्चा पानी के साथ खेलतेतैरते ही तो बड़ा होता है.

अचानक तेज आवाज में होती बात से लक्ष्मण की तंद्रा टूटी. ताप्ती उस की विधवा मां से बहस कर रही थी, ‘‘तुम लोग जाओ न, मैं यहीं रह लूंगी. हम सभी एकसाथ निकल नहीं सकते. नाव भारी हो जाएगी. फिर हमारे पीछे कोई घर के छप्पर का करकट खोल ले जाएगा तो क्या होगा.

‘‘यह करकट बिलकुल नया है.

3-4 महीने ही तो हुए हैं इसे खरीदे हुए. पूरे 12,000 रुपए लग गए इस में. मैं इसे चोरों के भरोसे नहीं छोड़ सकती.’’

‘‘अरे नहीं, तुम लोग जाओ…’’ उस की सास बोल रही थी, ‘‘वहां बांध पर बच्चों को संभालने और खाना बनाने के लिए कोई तो होना चाहिए. मैं अकेली यहीं रह लूंगी. रात में पानी नहीं बढ़ा तो अब क्या बढ़ेगा. कितनी मुश्किल से पैसापैसा जोड़ कर लक्ष्मण ने यह करकट खरीदा है. अगर चोर इसे खोल ले गए, तो घर में खुले में रहना मुमकिन है क्या. धूपबारिश से बचाव कैसे होगा… मैं यहीं रहूंगी.’’

‘‘अरी मां, तुम जाओ तो सही,’’ ताप्ती अपनी सास को नाव की ओर तकरीबन धकेलते हुए बोली, ‘‘तुम बूढ़ी औरत, तुम्हारे सामने ही करकट खोल ले जाएंगे और तुम चिल्लाने के अलावा क्या कर पाओगी.

‘‘सारा गांव खाली पड़ा है. कौन आएगा बचाने? मैं कम से कम यह कटारी तो चला ही सकती हूं. कोई मेरे पास भी फटक नहीं पाएगा,’’ इतना कह कर उस ने बड़ा सा दांव निकाल कर दिखाया, तो सभी हंस पड़े.

आखिरकार लक्ष्मण अपने तीनों बच्चों और मां के संग नाव पर चढ़ गया. नाव खोल दी गई. नाव हलके से हिलोरें ले कर गहरी नदी की ओर बढ़ चली.

नदी के दूसरी तरफ ऊंचाई पर बसा शहर है, जहां लक्ष्मण कमाई करने अकसर जाता रहता है. उधर ही कहीं किसी आश्रय में कुछ दिन गुजारा करना होगा. नदी के उतरते ही वह वापस हो लेगा.

ऊपर आसमान में काले बादल फिर से डेरा जमाने की जुगत में लगे थे. अगर बारिश होने लगी तो गंभीर हालात पैदा हो जाएंगे.

नदी की लहरों से खेलतीलड़ती नाव डगमगाते हुए आगे बढ़ चली. बच्चे डरे से, कातर निगाहों से ओझल होती हुई मां को, फिर गांव को देखते रहे. छोटा बेटा तो सुबक ही पड़ा, तो उस की बहन उसे दिलासा देने लगी.

लक्ष्मण चप्पू को अपनी मजबूत बांहों में भर कर सावधानी से चला रहा था. चप्पू चलाते हुए वह चिल्लाया, ‘‘चुपचाप पड़े रहो. तुम्हारी मां बराक नदी की बहादुर बेटी है. उसे कुछ  नहीं होगा.’’

उफनती हुई बराक नदी में जैसे लक्ष्मण के सब्र और हिम्मत का इम्तिहान हो रहा था. उस की एक जरा सी गलती और लापरवाही नाव को धार में बहाने या जलसमाधि लेने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ती. उसे जल्दी से उस पार पहुंचना था. नदी की लहरें जैसे उसे लीलने पर आमादा थीं. लहरों के थपेड़े उसे दिशा बदलने या उलटने की चेतावनी सी देते थे और वह अपने वजूद, अपने परिवार, अपनी नाव को सुरक्षित दिशा की ओर, सधे हाथ से खेता जा रहा था.

इस नदी को सामान्य दिनों में लक्ष्मण 20-25 मिनट में आसानी से पार कर लिया करता था. मगर वही नदी आज जब पूरी तरह भरी हुई अपने तटबंधों को पार कर गई थी, तो महासागर के समान दिख रही थी. 4 घंटे तक लगातार प्रलयंकर लहरों से लड़ते, नाव खेते हुए वह थका जा रहा था, फिर भी जैसे कोई अंदरूनी ताकत उसे आगे बढ़ते रहने को कह रही थी और अब वह शहर के एक घाट के किनारे पहुंच चुका था.

इसी के साथ हलकी बारिश भी शुरू हो चुकी थी. लक्ष्मण जल्दी से अपने परिवार और माल को समेट कर बाढ़ राहत केंद्र पहुंचा था. थकान और भूख से उस की हड्डीहड्डी हिल रही थी. बच्चों ने पोटलियों से चूड़ा और मूढ़ी निकाल फांकना शुरू कर दिया था. भोजन पता नहीं कब मिले. मिले या नहीं भी मिले. मां तो पीछे गांव में है. फिर खाना कौन बनाएगा और वह भी इस खुली जगह में? शायद राहत सामग्री बांटने वाले भोजन भी बांटें. मगर यह तो बाद की बात है. लक्ष्मण फिर उठ खड़ा हुआ. बादल छितर गए थे. बारिश रुक चुकी थी. दिन रहते वह ताप्ती को वापस ले आए तो बेहतर.

‘‘नहीं बेटा, मत जाओ…’’ बूढ़ी मां गिड़गिड़ा रही थी, ‘‘तुम बहुत थक गए हो. एक बार फिर वहां जाना और वापस आना काफी मुश्किल है. खतरा मोल मत लो, रुक जाओ बेटा.’’

‘‘अरी मां, तुम घबराती क्यों हो…’’ लक्ष्मण फीकी हंसी हंसते हुए बोला,

‘‘मैं बराक नदी का बेटा हूं. मुझे कुछ नहीं होगा.’’

‘‘तुम ने कुछ खायापीया नहीं है,’’ मां मनुहार कर रही थी, ‘‘हम सभी तुम्हारे भरोसे हैं. तुम्हें कुछ हो गया तो हम भी जिंदा नहीं रह पाएंगे.’’

‘‘मां, तुम बेकार ही चिंता करती हो,’’ लक्ष्मण ने अपने बेटे के कटोरे से एक मुट्ठी मूढ़ी निकाल कर फांकते हुए बोला, ‘‘आतेजाते समय नाव खाली ही रहेगी, सो जल्दी वापस आ जाऊंगा…’’ और वह अपनी नाव के साथ दोबारा नदी में उतर पड़ा.

अब नदी में पानी का लैवल और बढ़ चुका था और बढ़ता ही जा रहा था. अनेक डूबे हुए गांव और घर दिखाई दे रहे थे. डूबे हुए घर में ताप्ती कैसे रह पाएगी, लक्ष्मण को तो जाना ही है. उस ने पतवार तेजी से चलानी शुरू कर दी. उसे रहरह कर ताप्ती का रंग बदलता अक्स दिखाई दे रहा था. मन में डर घुमड़ रहा था. पहली बार नई दुलहन के रूप में, दूसरी बार जब उस ने बड़े बेटे को जन्म दिया था, उस का मोहक रूप कितना चमक रहा था. खेत में धान लगाते और काटते, घर के छप्पर पर सब्जियों की लतर चढ़ाते वक्त उस का रूप अद्भुत होता था.

आह, उसे मौत के मुंह में कैसे छोड़ दे. उसे घर के करकट वाले छप्परों की चिंता है. जान बची, तो फिर आ जाएंगे लोहे के करकट. वैसे भी इस भयावह बाढ़ में चोरों को अपने प्राणों की परवाह नहीं होगी क्या, जो करकट खोल ले जाएंगे.

‘‘अरे बाप रे…’’ ताप्ती उसे अपने सामने पा कर हैरान थी, ‘‘तुम दिनभर बिना खाएपीए नाव चलाते रहे. शाम होने को आई है. क्या जरूरत थी जान पर खेलने की…’’

‘‘तो तुम्हें क्या करकट की रखवाली करने के लिए यहां छोड़ देता…’’ वह गुर्राया, ‘‘जल्दी चलो. नाव पर बैठो. अंधेरा होने के पहले वापस पहुंचना है.’’

सोचविचार करने और बहस की गुंजाइश न थी. ताप्ती को नाव पर बिठा कर लक्ष्मण वापस चल पड़ा. ताप्ती ने भी पतवार संभाल ली थी. नाव खेने का उस का भी अपना तजरबा था. नाव पर से अपने घर के चमकते करकट को हसरत भरी निगाहों से दूर होते वह देख रही थी. नाव अब नदी में उतर चुकी थी.

अंधेरा होने के पहले ही वे उस पार पहुंच चुके थे और इसी के साथ भयावह आंधीपानी आ चुका था. मगर बच्चे अपनी मां को सामने पा कर रो उठे.

पूरे हफ्ते मौसम खराब रहा. साथ ही, नदी का पानी पूरे उफान पर था. 8वें दिन से जब पानी उतरने लगा तो लक्ष्मण ने अपने गांव की ओर नाव का रुख किया. ताप्ती जबरदस्ती आ कर नाव में बैठ गई.

गांव में अपने घर के चमकते हुए लोहे के सफेद करकट को सहीसलामत देख वह खुशी से रो पड़ी. चोर इस बार उस के घर का करकट खोल कर नहीं ले जा सके थे.

Hindi Story Collection : ब्रेकअप के बाद – क्या गलती सुधार पाई रुपा

Hindi Story Collection :  राहुल ने कालेज से ही फोन किया, ‘‘मां, आज 3 बजे तक मेरे दोस्त आएंगे.’’

रूपा ने पूछा, ‘‘कौन से दोस्त?’’

‘‘मेरा पुराना गु्रप?’’

‘‘कौन सा गु्रप? नाम बताओ, इतने तो दोस्त हैं तुम्हारे.’’

‘‘अरे मां, कृतिका, नेहा, अनन्या, मोहित,  अमित ये लोग आएंगे.’’

‘‘क्या? अनन्या भी?’’

‘‘हां, मां.’’

‘‘लेकिन वह यहां… हमारे घर पर?’’

‘‘ओह मां, इस में हैरानी की क्या बात है? आप तो हर बात पर हैरान हो जाती हैं.’’

‘‘अच्छा, ठीक है तुम आ जाओ,’’ कहते हुए रूपा ने फोन रखते हुए सोचा ठीक तो कह रहा है राहुल… मैं तो हैरान ही होती रहती. आजकल के बच्चों की सोच पर कि कैसी है युवा पीढ़ी. कितनी सहजता से रिएक्ट करती है हर छोटीबड़ी बात पर. हां, बड़ी बात पर भी.

अनन्या और राहुल बचपन से साथ पढ़े थे, फिर अनन्या ने साइंस ले ली थी, राहुत ने कौमर्स, लेकिन दोनों की दोस्ती बहुत पक्की थी. अमित और राहुल के पिता व मां दोनों अपने युवा बच्चों के दोस्त बन कर रहते थे. राहुल से 3 साल बड़ी सुरभि सीए कर रही थी.

राहुल भी उसी लाइन पर चल रहा था, बच्चों की गतिविधियों पर सावधान नजरें रखती हुई रूपा अंदाजा लगा चुकी थी कि राहुल और अनन्या के बीच दोस्ती से बढ़ कर भी कुछ और है, राहुल अनन्या के साथ बाहर जाता तो अमित कई बार उसे छेड़ते हुए कहते कि गया तुम्हारा बेटा अपनी गर्लफ्रैंड के साथ. राहुल भी हंसता हुआ आराम से कहता कि हां, अच्छी दोस्त है वह मेरी.’’

अब मातापिता के सामने यही कह सकता था बाकी तो अमित और रूपा ने अंदाजा लगा ही लिया था. कई बार तो रूपा ने इस विषय पर सख्ती से काम लेने की सोची, लेकिन फिर आज के बच्चे, आज का माहौल देखते हुए खुद को ही समझ लिया था. वैसे राहुल काफी सभ्य और पढ़ाई में होशियार था. स्पोर्ट्स में भी आगे रहता, अनन्या से उस की दोस्ती पर वह घर में कलह करे रूपा का मन यह भी नहीं चाहता था.

फिर अचानक फोन पर होने वाली राहुल की बातों से रूपा को अंदाजा हुआ कि दोनों का ब्रेकअप हो गया है. रूपा से रहा नहीं गया, पूछ ही लिया, ‘‘राहुल, क्या हुआ?  कोई झगड़ा हुआ है क्या अनन्या से?’’

‘‘हां मां, ब्रेकअप हो गया.’’

‘‘क्यों क्या हुआ?’’

‘‘वे सब छोड़ो आप.’’

‘‘अरे, कुछ तो बताओ?’’

राहुल हंसा, ‘‘जितना जरूरी होता है बता तो देता हूं न आप को, बस.’’

रूपा ने मन में सोचा कि कह तो ठीक रहा है. अपनेआप उसे जितना अपने बारे में बताना होता है बिना पूछे बता देता है. चलो, ठीक है, युवा बच्चों से ज्यादा क्या पूछना. अभी तो ये बच्चे ही हैं, हो गई होगी कोई बात.

रूपा उस दिन के बाद कई बार राहुल के चेहरे के भाव जांचतीपरखती कि उस का बेटा उदास तो नहीं है. एक दिन जब राहुल उस के पास ही लेटा था, रूपा ने उसे दुलारते हुए पूछा, ‘‘तुम्हारी अनन्या से इतनी दोस्ती थी, तुम्हें दुख तो हुआ होगा न?’’

स्वीकारा था राहुल ने,  ‘‘हां मां, दुखी तो हुआ था मैं.’’

रूपा ने फिर टटोला, ‘‘हुआ क्या था?’’

‘‘वे सब रहने दो मां.’’

‘‘अच्छा ठीक है.’’

इस के 3 महीने बाद ही राहुल की नई गर्लफ्रैंड के बारे में पता चला रूपा को. मिताली ने राहुल के साथ ही माटुंगा, पोद्दार कालेज में एडमिशन लिया था. दोनों साथ ही ट्रेन पकड़ते. घर आ कर भी वह मिताली से फोन पर बातों में व्यस्त रहता.

सुरभि राहुल को छेड़ती, ‘‘राहुल, नई फ्रैंड बनाने में 3 महीने भी नहीं लगे? कहां है अनन्या आजकल?’’

‘‘इंजीनियरिंग कर रही है बैंगलुरु में.’’

‘‘तेरी बात होती है उस से?’’

‘‘हां.’’

‘‘सच?’’

‘‘तो और क्या? बात तो होती रहती है मोबाइल पर. वीडियो चैटिंग भी होती है.’’

रूपा भी चौंकी, ‘‘लेकिन तुम तो कह रहे थे तुम्हारा ब्रेकअप हो गया.’’

अमित ने भी बात में हिस्सा लिया, ‘‘पता नहीं तुम्हारा लाडला क्या कहानियां सुनाता रहता है तुम्हें और तुम सुनती हो.’’

राहुल ने गंभीरतापूर्वक कहा, ‘‘पापा, झठ तो नहीं बोलता मैं मां से, अनन्या से बात होती रहती है. इस में झठ क्यों बोलूंगा मैं?’’

लौकडाउन के दिनों में तो वह यहीं मुंबई में थी और हम लोग कई बार चोरीछिपे मिल भी लिए थे. मास्क लगा कर सब ने खूब ऐंजौय किया था, राहुल ने यह रहस्य भी बताया.

राहुल के और दोस्तों के साथ मिताली भी घर आती रहती थी. अच्छी, स्मार्ट लड़की थी. रूपा को अनन्या की तरह मिताली भी अच्छी लगती थी.

सुरभि ने एक दिन हंसते हुए कहा, ‘‘मां, आप राहुल की हर फ्रैंड को बहू के रूप में देखने लगती हो… मजा आता है मु?ो यह देख कर.’’

रूपा ?ोंप गईर्. कुछ बोली नहीं. अमित ने भी कहा, ‘‘अभी तो तुम्हारे बेटे ने इतनी जल्दी गर्लफ्रैंड बदली है, थोड़ा समय तो होने दिया करो. इतनी जल्दी बहू के सपने देखने क्यों शुरू कर देती हो.’’

घर में हंसीमजाक चलता रहता था. मजाक का निशाना अकसर राहुल की लड़कियों से

दोस्ती होती.

अभी तो रूपा यह सोच कर हैरान थी कि अनन्या आज घर कैसे आ रही है और इतनी निकटता के बाद ब्रेकअप और आज फिर घर आने को तैयार… पहले भी अकसर घर आती रहती थी, ब्रेकअप के बाद कैसे राहुल से बात कर लेती है.

राहुल कालेज से आया. रूपा उस के चेहरे के भाव पढ़ने लगी थी, वह रोज की तरह फ्रैश हो कर खाना खा कर उसी के साथ बैठ गया. रूपा तो मन ही मन बेचैन थी. पूछ ही लिया, ‘‘राहुल, तुम्हारी अनन्या से बातचीत नौर्मल होती है?’’

‘‘तो और क्या मां.’’

‘‘लेकिन तुम्हारा तो बे्रकअप…’’

‘‘ओह मां, आप क्यों हर बात को इतना सीरियसली लेती हैं? मां, अच्छी दोस्ती कभी खत्म थोड़े ही होती है, किसी बात पर ब्रेकअप हो भी गया तो इस का मतलब यह तो नहीं कि आगेपीछे की अच्छीभली दोस्ती को भूल जाएं, अब अनन्या मेरी पहले से भी अच्छी दोस्त है.’’

राहुल बात कर ही रहा था कि उस के

सब दोस्त आ गए. यह रूपा के लिए अद्भुत सा था. उस ने तो अपने जमाने में यही देखा कि दोस्त तो दूर मौसियां, मामा भी एक बार नाराज पर बरसों तक गुस्सा पाले रखते हैं. एक बार उस की मौसी मां से मिलने बच्चों के साथ आईं थी. उसी बीच मां की किट्टी पार्टी पड़ी और उस में वे बहन को भी ले जाना चाहती थी पर बहन का कहना था कि वह 4 महीने बाद आई है, मां को किट्टी पार्टी में जाना ही नहीं चाहिए. मां उन दिनों किट्टी की इंचार्ज थी. अत: मां चली गई.

मौसी 10 दिन के लिए आई थी, 3 दिन में चली गई और अब तक मां से बात नहीं करती.

सब ने रूपा का अभिवादन किया. राहुल सब को देख कर चहका. रूपा अनन्या को एकटक देख रही थी, सुंदर स्मार्ट तो वह थी ही, रूपा को उस की हंसी पहले से भी ज्यादा आकर्षक लगी.

अपने खास अंदाज में मुसकराते हुए, ‘‘आंटी, कैसी हैं आप? अंकल और सुरभि दी कैसे हैं?’’ अनन्या ने पूछा.

रूपा ने जवाब दिया,  ‘‘सब ठीक है, तुम लोग बैठो, मैं पानी लाती हूं.’’

अनन्या फौरन बोली, ‘‘आंटी, आप बिलकुल परेशान न हों, हमें कुछ चाहिए होगा तो हम खुद ले लेंगे. हम सब कुछ न कुछ अपने साथ लाए भी हैं. आप मेरी बनाई यह डिश टेस्ट तो करो.’’

‘‘रूपा को वह बहुत स्वाद लगी. फिर, ‘‘ठीक है, तुम लोग बैठ कर बातें करो,’’ कह कर रूपा अपने रूम में आ कर लेट गई.

सब बातों में व्यस्त हो गए. रूपा के कान अनन्या की आवाज पर लगे हुए थे, रूपा हैरान थी, ये आजकल के बच्चे, अपनी टूटी हुई दोस्ती को कैसे सहजता से, सामान्य रूप से अपना लेते हैं. कहीं कोई ताना नहीं, कहीं एकदूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश नहीं, कितनी सरलता है इन के मन में… वही अपनापन, वही हंसीमजाक.

अनन्या की वही पुरानी प्यारी खिलखिलाहट ड्राइंगरूम में गूंज रही थी और रूपा अपने बैड पर करवटें बदल रही थी. उस ने तो आज 25 साल बाद भी मन पर लगा घाव ताजा रहने दिया है. कहां ये बच्चे और कहां वह… सालों पुराना जख्म फिर टीसने लगा.

यादों की परतदरपरत खुलने लगी… उस के घर के सामने ही था उस के बालसखा रोहन का घर. दोनों ने युवावस्था में कदम रखा तो दिल में दोस्ती के साथ प्यार भी पनपने लगा. वह तो मन ही मन रोहन से विवाह का सपना भी देखने लगी थी पर अपने मातापिता की इकलौती संतान रोहन ने अपने मातापिता की मरजी के आगे सिर झका दिया तो तड़प उठी थी रूपा कि कायर, धोखेबाज… पता नहीं क्याक्या कहा था उस ने रोहन को.

रोहन के मातापिता ने रोहन से साफसाफ  कह था, ‘‘हम अपनी बिरादरी की लड़की को ही अपनी बहू बनाएंगे, दोस्ती तो ठीक है, लेकिन विवाह नहीं होगा तुम्हारा रूपा से. हम ऊंची जाति के हैं और तुम कायस्थ.’’

रोहन ने बहुत मनाया था उन्हें, लेकिन आखिर में हथियार डाल दिए.

रूपा के मन की स्थिति जानते हुए उस के मातापिता ने भी मुंबई से आया अमित का रिश्ता स्वीकार कर लिया. रूपा ने भी मन पर पत्थर रख कर अपने होंठ सी लिए और अमित से विवाह कर लखनऊ से मुंबई चली आई.

उस का मायके जाना न के बराबर था. जानती थी जाने पर कभी भी रोहन से आमनासामना हो जाएगा. आज उस की भी पत्नी थी, 2 बच्चे थे, लेकिन रूपा जब भी मायके जाती तो उस से मिलने से बचती. एक दिन रोहन सामने पड़ गया. वह उस से बात करने आगे बढ़ा पर उस ने नफरत भरी ऐसी नजर उस पर डाली कि रोहन के बढ़ते कदम रुक गए. कितने मौके ऐसे आए, रूपा के छोटे भाइयों, बहन का विवाह हुआ. रूपा सपरिवार गई. विवाह में रोहन और उस के परिवार से आमनासामना होने पर नजरें घुमा ली थीं रूपा ने. पूरी तरह से रोहन की उपेक्षा कर दी थी.

रोहन कई बार उस की तरफ  बढ़ा, लेकिन रूपा पीठ घुमा कर चली गई और विवाह संपन्न होते ही मुंबई लौट आई. अमित ने हैरान हो कर कहा भी था, ‘‘क्या बात है तुम्हारा तो मायके में बिलकुल मन नहीं लगता?’’

रूपा फीकी हंसी हंस दी. भाइयों के बच्चे हुए, पिता चल बसे. वह मां के पास चाह कर भी न रुक पाती, एक टीस आज भी थी उस के दिल में इतने सालों बाद भी…

आज जब भी अनन्या की हंसी रूपा के कानों में पड़ रही थी, उसे आत्मग्लानि

हो रही थी. अमित जैसा प्यार करने वाला पति है, 2 अच्छे बच्चे हैं, पिता नहीं रहे, मां बीमार रहने लगी है… जब भी उसे आने के लिए कहती हैं वह टका सा जवाब दे देती है और रोहन, उसे तो उस ने किसी अपराधी की तरह देखा है हमेशा और एक यह अनन्या, यही तो उम्र थी उस की भी उस समय… वह तो अपने टूटे रिश्ते का आज तक शोक मना रही है और अनन्या… आपस में प्यार का रिश्ता टूट भी गया तो राहुल से अपनी दोस्ती कैसे सहेज ली है उस ने. रूपा जानती है राहुल बहुत ही नर्मदिल और विश्वसनीय लड़का है. अब राहुल से उस की दोस्ती अटूट लग रही है. अनन्या कितनी खुश है… उस के पास राहुल के रूप में एक अच्छा दोस्त हमेशा रहेगा और वह कितनी मूर्ख थी… जबजब भी रोहन उस के पास आया, उस ने मुंह घुमा लिया… बचपन का एक अच्छा दोस्त भी हमेशा के लिए खो दिया.

अनन्या की आवाज से रूपा की तंद्रा टूटी. वह बैडरूम के दरवाजे पर खड़ी पूछ रही थी, ‘‘आंटी, आप कहें तो मैं सब के लिए चाय बना लूं?’’

रूपा झटके से उठी, ‘‘अरे नहींनहीं, तुम लोग बैठो बेटा, मैं बनाती हूं.’’

‘‘नहीं आंटी, आप आराम करें, मैं बनाती हूं न, आप चीनी लेती हैं न?’’ कहते हुए अनन्या किचन की तरफ बढ़ रही गई.

राहुल की आवाज आ रही थी, ‘‘अन्नू, जरा ढंग की बनाना,’’ वह अनन्या को चिढ़ा रहा था.

किचन से अनन्या भी बराबर जवाब दे रही थी राहुल को. रूपा को याद आ रहा था उस के व्यवहार से आहत, अपमानित रोहन का चेहरा, इन बच्चों ने आज उसे बहुत कुछ सिखाया था. अगली बार रोहन से सामना होने पर वह उस से कैसे मिलेगी, यह सोच कर ही उसे अपने मन के सालों पुराने घाव भरते हुए नजर आए.

Latest Hindi Stories : आखिरी खत – आखिर कौन था यह शीलू?

Latest Hindi Stories : नैना बहुत खुश थी. उस की खास दोस्त नेहा की शादी जो आने वाली थी. यह शादी उस की दोस्त की ही नहीं थी बल्कि उस की बूआ की बेटी की भी थी. बचपन से ही दोनों के बीच बहनों से ज्यादा दोस्ती का रिश्ता था. पिछले 2 वर्षों में दोस्ती और भी गहरी हो गई थी. दोनों एक ही होस्टल में एक ही कमरे में रह रही थीं अपनी पढ़ाई के लिए. यही कारण था कि नैना कुछ अधिक ही उत्साहित थी शादी में जाने के लिए. वह आज ही जाने की जिद पर अड़ी थी जबकि उस के पिता चाहते थे कि हम सब साथ ही जाएं. उन की भी इकलौती बहन की बेटी की शादी थी. उन का उत्साह भी कुछ कम न था.

सुबह से दोनों इसी बात को ले कर उलझ रहे थे. मैं घर का काम खत्म करने में व्यस्त थी. जल्दी काम निबटे तो समान रखने का वक्त मिले. मांजी शादी में देने के लिए सामान बांधने में व्यस्त थीं.

जाने की तैयारी में 2 दिन और निकल गए. नैना को रोक पाना अब मुश्किल हो रहा था. वह अकेले जाने की जिद पर अड़ी थी. मैं ने पति को समझाया. ‘‘काम तो जीवनभर चलता रहेगा. शादीब्याह रोजरोज नहीं होते. फिर शादी के बाद नेहा भी अपनी ससुराल चली जाएगी तो पहले वाली बात नहीं रह जाएगी. नैना रोज उस से नहीं मिल पाएगी.’’

नैना के पिता सुनील ने पूरे एक हफ्ते की छुट्टी ले ली थी

वे पहले ही अपना मन बना चुके थे. बस, नैना को चकित करना चाहते थे. नैना, मैं और उस के पापा हम तीनों शादी से 4 दिन पहले ही दीदी के घर आ गए, शादी की सभी रस्में जो निभानी थीं. नैना के पिता यानी मेरे पति सुनील ने पूरे एक हफ्ते की छुट्टी ले ली थी शादी के बाद भी बचे हुए कामों में दीदी की सहायता करने के लिए. नेहा हमारी भी बेटी जैसी ही थी. बचपन से नैना के साथ ही रही थी तो उस से अपनापन भी कुछ ज्यादा ही था.

दीदी के घर अकसर हम कार से ही जाया करते थे. इस बार तो सामान अधिक था, सो कार से जाना ही सुविधाजनक था. मांजी और पिताजी बाद में ट्रेन से आने वाले थे. हम तीनों कार से ही दीदी के घर के लिए रवाना हो गए. 5-6 घंटे के रास्ते में नैना ने एक बार भी कार को रोकने नहीं दिया. उस का उतावलापन देखते ही बनता था. शाम को लगभग 5 बजे हम उन के घर पर थे.

शादी में 4 दिन अभी शेष थे, फिर भी नेहा ने अपनी नाराजगी जाहिर की. नैना से तो उस ने बात भी न की. उस की नाराजगी इस बात से थी कि वह इस बार अकेले क्यों नहीं आ पाई. हर बार तो आती थी. क्या शादी से पहले ही उसे पराया मान लिया गया है? नैना अपने तर्क दे रही थी. पिछले हफ्ते ही परीक्षा समाप्त हुई थी. कपड़े भी सिलाने थे. कुछ और भी तैयारी करनी थी. उस के सभी तर्क बेकार गए. उस दिन तो नेहा ने उस से बात न की.

अगले दिन मुझे हस्तक्षेप करना ही पड़ा, ‘‘अब तो आ गए हैं न, अब तो बात करो.’’ मैं ने जोर दे कर कहा तो उस की समझ में कुछ बात आई. 3 दिन कैसे निकले, पता ही न चला. अगले दिन नेहा की बरात आने वाली थी. मैं दीदी के साथ ही थी. नेहा के चले जाने की बात से वे बहुत उदास थीं. लड़का विदेश में था. कुछ महीनों बाद नेहा को भी उस के साथ जाना होगा. यही सोच कर उन की आंखें बारबार भर आती थीं.

मैं ने उन्हें दुनियादारी समझाने की पूरी कोशिश की. ‘‘इतने अच्छे घर में रिश्ता हुआ है. परिवार भी छोटा ही है. खुले दिमाग के लोग हैं. विदेश में रह कर भी अपनी सभ्यता नहीं भूले हैं. हमारी नेहा बहुत खुश रहेगी उन के घर. नेहा को नौकरी करने से भी मना नहीं कर रहे हैं. और तो और, अपने व्यवसाय में उसे जिम्मेदारी देने को तैयार हैं. और क्या चाहिए हमें?’’

शादी के दिन तक ये सभी बातें जाने कितनी बार मैं ने उन के सामने बोली थीं. इस से ज्यादा कुछ जानती भी न थी मैं नेहा की ससुराल वालों के बारे में. दीदी से पूछने की कोशिश भी की पर उन्हें उदास देख कर मन में ही रोक लिए थे अपने सभी प्रश्न.

आखिर वह घड़ी आ गई जिस का हम सब को इंतजार था. नेहा की बरात आ गई. दूल्हे का स्वागत करने दरवाजे पर जाना था दीदी को. साथ मैं भी थी. आरती की थाली हाथ में पकड़े दीदी आगे चल रही थीं. मैं शादी में आई दूसरी औरतों के साथ उन के पीछे चल रही थी. मन में बड़ा कुतूहल था दूल्हे को देखने का. तभी बरात घर के सामने आ कर रुकी. दूल्हे राजा घोड़ी से नीचे उतरे और दोस्तों, रिश्तेदारों के झुंड के साथ मुख्यद्वार के सामने रुक गए.

बैंडबाजे के साथ दूल्हे को तिलक लगा कर हम ने उस का स्वागत किया. स्वागत के बाद हम लोग घर की ओर मुड़ गए और बरात स्टेज की ओर बढ़ गई. नेहा को उस की सहेलियों ने घेर रखा था. हम लोग भी वहीं खड़े हो कर वरमाला का इंतजार करने लगे. नेहा आसमान से उतरी एक परी की तरह दिख रही थी. दुलहन के लिबास में उस का रंगरूप और भी निखर गया था. कुछ देर बाद वरमाला के लिए नेहा का बुलावा आ गया.

नेहा नैना और अपनी दूसरी सहेलियों के साथ स्टेज की ओर धीरेधीरे बढ़ रही थी. दीदी सहित हम सभी औरतें उन से थोड़ी दूरी पर चल रहे थे. मैं ने अपना चश्मा अब पहन लिया था. स्वागत के समय दूल्हे को ठीक से देख न पाई थी. नेहा ने वरमाला पहनाई. सभी लोगों ने तालियां बजाईं. अब दूल्हे की बारी थी. उस ने भी वरमाला नेहा के गले में पहना दी. एक बार वापस तालियों की गड़गड़ाहट फिर से गूंज उठी. वरमाला पहनाने की रस्म पूरी होते ही दूल्हादुलहन स्टेज पर बैठ गए. अब दोनों को सामने से देख सकते थे. दूल्हे का चेहरा जानापहचाना सा लग रहा था मुझे.

लगभग 2 बजे नेहा अंदर आ गई. फेरों की तैयारियां शुरू हो गईं. पंडितजी अपने आसन पर बैठ गए. दूल्हा फेरों के लिए बैठ चुका था. पंडितजी ने अपना काम प्रारंभ कर दिया. कुछ देर बाद नेहा को भी बुलवा लिया. अधिकतर मेहमान उस समय तक विदा हो चुके थे. घर के लोग और कुछ निजी रिश्तेदार ही रुके थे. निजी रिश्तेदारों में भी हमारा परिवार ही जाग रहा था. बाकी लोग खाना खा कर सो चुके थे. सभी को अगले दिन जाना ही था.

सुबह 4 बजे नेहा की विदाई हो गई. घर में गिनती के लोग रह गए थे. पूरा घर सूनासूना लग रहा था. नैना एक कमरे में उदास बैठी थी. मैं नाश्ते की व्यवस्था करने के लिए रसोईघर में थी. दीदी भी नैना के पास ही बैठी थीं. रातभर जागने के बाद भी किसी का सोने का मन नहीं था. घर में रौनक लड़कियों के कारण ही होती है, आज सभी यह महसूस कर रहे थे.

पग फिराई की रस्म के लिए नेहा कल घर वापस आने वाली थी. घर को व्यवस्थित भी करना था. सब का नाश्ता हुआ, तब तक नैना और दीदी ने मिल कर घर की सफाई कर ली. ऊपर वाला कमरा मेहमानों के विश्राम के लिए रखा था. 11 बजे वे लोग आ गए- नेहा, प्रतीक और एकदो रिश्तेदार. उन के आते ही सब लोग उन के स्वागत में जुट गए. लड़की की ससुराल से पहली बार मेहमान घर आए थे. चाव ही अलग था. हम लोग नेहा के साथ व्यस्त हो गए. नैना और उस के पापा प्रतीक और बाकी मेहमानों के साथ ऊपर वाले कमरे में चले गए. जीजाजी ने बहुत रोका परंतु दोपहर का खाना खा कर नेहा को ले कर वे लोग लगभग 4 बजे रवाना हो गए.

हम ने जाने के लिए कहा तो दीदी ने रोना शुरू कर दिया, ‘‘भाभी, मैं अकेली रह गई हूं अब. आप तो जानते हो नेहा भी अभी जल्दी नहीं आने वाली वापस. आप को कुछ और दिन रुकना ही होगा.’’

उन्होंने जिद पकड़ ली. नैना, उस के पापा और मांजी और पिताजी उसी दिन शाम को घर लौट गए. मैं दोचार दिन के लिए रुक गई. सब के जाने के बाद दीदी ने नेहा की ससुराल से आया सामान खोला. सभी के लिए कुछ न कुछ उपहार दिया था उस की ससुराल वालों ने. मेरे लिए भी. मेरा पैकेट हाथ में दे कर दीदी बोलीं, ‘‘भाभी, घर जा कर खोलना भैया और नैना के उपहार के साथ.’’ मुझे उन की बात ठीक लगी. मन में एक प्रश्न जरूर था, ‘लड़की की ससुराल से इतने उपहार?’ प्रश्न मन में रख कर पैकेट अपने सूटकेस में रख लिए.

जब रोकना चाहें तो समय पंख लगा कर उड़ता है. शनिवार को सुनील मुझे ले जाने के लिए आए. दीदी बहुत उदास थीं. परंतु अब रुकना संभव नहीं था. नैना को भी जाना था. उसे नौकरी मिल गई थी स्नातकोत्तर के अंतिम वर्ष में ही. नेहा की शादी के कारण उस ने जाने का समय कुछ दिन बाद रखा था. रविवार सुबह ही हम घर के लिए रवाना हो गए.

घर जा कर देखा तो मांजी घर पर अकेली थीं. टीवी देखते हुए सब्जी काट रही थीं. उन के चरण स्पर्श कर के मैं ने नैना के बारे में पूछा. उन्होंने थोड़ा रोष से जवाब दिया, ‘‘किसी दोस्त के घर पर गई होगी. तुम्हारे पीछे घर पर रुकती ही कहां है? आजकल की लड़कियां थोड़ा पढ़लिख जाएं तो नौकरी तलाश कर लेती हैं. घर के कामकाज तो छोड़ो, घर पर रहना ही उन्हें नहीं भाता है.’’

मेरे बोलने से पहले ही सुनील ने बात खत्म करने के उद्देश्य से कहा, ‘‘आ जाएगी मां. किसी काम से ही गई होगी. जब जिम्मेदारी सिर पर आती है, सब निभाना सीख जाते हैं.’’ इन की बात खत्म होते ही नैना आ गई.

‘‘लो दादी, तुम्हारी दवाइयां. बहुत दूर से मिलीं,’’ दवाई दादी के पास रख कर उस ने कहा और आ कर मुझ से लिपट गई.

‘‘तुम्हारे बिना घर पर मन ही नहीं लगता मां,’’ उस ने मुझ से लिपट कर कहा. फिर थोड़ा सामान्य हो कर बोली, ‘‘मेरा उपहार तो दो जो नेहा की ससुराल वालों ने दिया है. जल्दी दो न मां.’’

‘‘ठीक है, मुझे छोड़ो और मेरे पर्स से चाबी ले लो. सूटकेस खोल कर सब के पैकेट निकाल लो.’’

मैं ने उसे अपने से अलग करते हुए कहा, ‘‘मां, अपना पैकेट तुम खोलो. पापा का उन को देती हूं.’’

मेरा पैकेट दे कर नैना मांजी को अपना उपहार दिखाने चली गई. मैं पैकेट हाथ में ले कर कमरे की ओर बढ़ गई. कपड़े भी बदलने थे. पहले पैकेट खोल लेती हूं. बेचैन रहेगी तब तक यह लड़की. मैं ने मन में सोचा. खोला तो सब से पहले एक पत्र था. लिफाफे में था. परंतु पोस्ट नहीं किया गया था. सकुचाते हुए मैं ने लिफाफे से पत्र निकाला.

‘‘मां,

‘यह मेरा आखिरी खत है. इस के बाद तो मैं आप से मिलता ही रहूंगा. मैं ने नेहा से इसीलिए शादी की है कि आप के संपर्क में रह पाऊं. नेहा बहुत अच्छी लड़की है परंतु आप से झूठ नहीं बोल सकता हूं.

‘‘क्या आप को अपना शीलू याद है मां? मैं एक दिन भी आप को नहीं भूला हूं. दादादादी मुझे बहुत प्यार करते हैं. चाचाचाची ने मुझे अपने पास विदेश में रख कर काबिल बनाया. मुझे उन से कोई शिकायत नहीं है मां. बस, यह जानना चाहता हूं कि तुम मुझे छोड़ कर क्यों गईं? क्या मजबूरी थी मां? पापा के जाने के बाद मैं आप के साथ था. फिर आप ने मुझे क्यों छोड़ा, मां वह भी बिना बताए. अब तो आप को बताना ही पड़ेगा मां. मैं आप के जवाब का इंतजार करूंगा.

‘आप का राजा बेटा,

‘शीलू.’

मेरी आंखों से आंसू टपटप गिर रहे थे. पत्र पूरा भीग चुका था. ‘लू, मेरा बेटा’. मुंह से निकला और मैं फफकफफक कर रो पड़ी. सालों पुराने जख्म हरे हो चुके थे. कुछ देर के लिए चेतना शून्य हो गई थी मेरी. बस, बोलती जा रही थी, ‘मैं तुम्हें कैसे बताती बेटा, तुम बहुत छोटे थे. तुम्हारी दादी का ही निर्णय था यह. दुर्घटना में तुम्हारे पिता की मृत्यु के बाद भी मैं उन लोगों के साथ ही रहना चाहती थी, तुम्हें ले कर रह भी रही थी. एक दिन के लिए भी उन्हें छोड़ कर कहीं नहीं गई. तुम्हारे नाना के घर भी नहीं. तुम्हारी दादी ने ही बुलाया था उन्हें.

‘घर बुला कर कहा था कि यदि अपनी बेटी का पुनर्विवाह नहीं कर सकते हो तो कोई लड़का देख कर हम ही कर देंगे. छोटे बेटे की शादी के बाद हम शीलू को ले कर उस के साथ विदेश चले जाएंगे. इसलिए शीलू की चिंता करने की जरूरत नहीं है. एक वाक्य में तुम्हें मुझ से अलग कर दिया था उन्होंने.’

तभी सुनील अंदर आए. उन्हें देख कर मैं फिर से रो पड़ी. ‘‘तुम तो सब जानते हो सुनील. तुम तो भैया के करीबी दोस्त थे न. शादी से ले कर खाली हाथ वापस घर आने तक सब तुम ने अपनी आंखों से देखा है, कानों से सुना है. किस तरह अपमानित कर के मुझे घर से निकाल दिया था उन्होंने. आखिरी बार शीलू से मिलने भी नहीं दिया था. देखो, यह चिट्ठी देखो.’’

‘‘अरे हां, देख रहा हूं भाई.’’ उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘कुछ भी भूला नहीं हूं. अब उठो. वर्तमान में आओ. शीलू ने तुम्हें हमेशा के लिए ढूंढ़ लिया है. मैं नेहा की शादी से पहले से जानता हूं कि प्रतीक ही शीलू है.’’

मैं हतप्रभ उन्हें देख रही थी. नैना भी तब तक कमरे में आ चुकी थी, बोली, ‘‘मां, अगले हफ्ते नेहा और प्रतीक आ रहे हैं घर पर. हनीमून के लिए जाते हुए वे हम लोगों से मिलते हुए जाएंगे. उठो मां, बहुत सी तैयारियां करनी हैं उन के स्वागत की.’’

सब की आवाज सुन कर मांजी भी कमरे में आ गईं. मैं उठने लगी तो वे बोलीं, ‘‘बेटा, दोनों भाईबहनों ने मुझे मना किया था तुम्हें बताने के लिए. इसीलिए मैं चुप रही. मुझे माफ करना. पहले बता दिया होता तो तुम्हारा दिल तो नहीं दुखता.’’

मैं ने उठ कर उन के पैर पकड़ लिए, बोल पड़ी, ‘‘मां, तुम ने तो मेरा दिल हमेशा के लिए खुश कर दिया है. आज जिंदगी को फिर से देखा. एक वह मां थी. एक यह मां है. एक वह समय था जब शीलू को मुझ से मिलने ही नहीं दिया गया. एक यह समय है जब शीलू मुझ से मिलने आने वाला है.’’

‘शीलू से मिल कर, उसे अपने सीने से लगा कर, उस की सारी शिकायतें दूर कर दूंगी. मेरे बेटे, तू ने अपनी मां को आज जीवन की वे खुशियां दी हैं, जो मुझ से छीन ली गई थीं. शीलू, मेरे बेटे जल्दी आ,’ मेरा मन सोचते हुए खुशी से भरा जा रहा था.

Famous Hindi Stories : आंचल भर दूध

Famous Hindi Stories : बाहर चबूतरे पर इक्कादुक्का लोग इधरउधर बैठे हैं. सब के सब लगभग शांत. कभीकभार हांहूं… कर लेते. कुछ बच्चे भी हैं, कुछ न कुछ खेलने का प्रयास करते हुए….और इन्हीं बच्चों में नसरीन की 3 बेटियां भी हैं.

सुबह से बासी मुंह… न मुंह धुला है, न हाथ. इधरउधर देख रही हैं. किसी ने तरस खा कर बिस्कुट के पैकेट थमा दिए. ये नन्हीं जान सुखदुख से अनजान हैं. इन्हें क्या पता कि क्या हुआ है?

घर के अंदर नसरीन को समझाया जा रहा है कि वह दूध बख्श दे, पर उस से दूध नहीं बख्शा जाता. ऐसा लगता है जैसे उस की जबान तालू से चिपक गई है या उस के होंठ परस्पर सिल गए हैं. वह बिलकुल बुत बनी बैठी है.

उस के सामने उस की नवजात बच्ची मृत पड़ी है और उस की गोद में 1 और बच्चा है, उस के स्तन से सटा हुआ. ये दोनों बच्चे जुड़वां पैदा हुए थे. इन में से यह गोद वाला बच्चा, जो जीवित है, अपनी मृत बहन से 5 मिनट बड़ा है.

सुबह से ही औरतों का तांता लगा हुआ है. जो भी औरत देखने आती है वह नसरीन को समझाती है कि वह दूध बख्श दे, पर उस की समझ में नहीं आता कि वह दूध बख्शे भी तो कैसे?

उस की सास उसे समझातेसमझाते हार गई हैं. मोहल्ले भर की मुंहबोली खाला हमीदा भी मौजूद हैं. हमीदा खाला का रोज का मामूल यानी दिनचर्या है, सुबह उठ कर सब के चूल्हे झांकना. यह पता लगाना कि किस के यहां क्या बन रहा है, क्या नहीं. किस के यहां सासबहू में बनती है, किस के यहां आपस में तनातनी रहती है. किस के लड़केलड़की की शादी तय हो गई है, किस की टूट गई है. किस की लड़की का चक्कर किस लड़के से है… वगैरहवगैरह…

बाल की खाल निकालने में माहिर हमीदा खाला ऐसे शोक के अवसर पर भी बाज नहीं आतीं, अपना भरसक प्रयास करती हैं. जानना चाहती हैं कि मामला क्या है और नसरीन दूध क्यों नहीं बख्श रही?

वह नसरीन को समझाती हुई कहती हैं, ‘‘बहू, आखिर तुम्हें दिक्कत क्या है? तुम क्या सोच रही हो? दूध क्यों नहीं बख्श रही हो?”

हमीदा खाला थोड़ी देर शांत रहीं, फिर नसरीन की सास से बोलीं, ‘‘2 दिन पहले कितनी खुशी थी. सब के चेहरे कितने खिलेखिले थे…और आज…सब कुदरत की मरजी…वही जिंदगी देता है, वही मौत… बेचारी की जिंदगी इतनी ही थी…

नसरीन की सास चुपचाप बैठी रहीं. ना हूं किया, ना हां.

हमीदा खाला फिर से नसरीन की तरफ मुड़ीं,”क्यों रूठी हो बहू? यह कोई रूठने का वक्त है…देखो, तुम्हारे ससुर खफा हो रहे हैं… बाहर आदमी लोग इंतजार में बैठे हैं… बच्ची को कफन दिया जा चुका है और तुम झमेला फैलाए बैठी हुई हो?

दूसरी औरतें भी हमीदाखाला की हां में हां मिलाती हैं और नसरीन को दूध बख्शने की नसीहत देती हैं.

कहती हैं,”सिर्फ 3 मरतबा कह दे, ‘मैं ने दूख बख्शा, मैं ने दूख बख्शा, मैं ने दूख बख्शा…'”

पर वह टस से मस नहीं होती. बस एकटक अपनी मृत बच्ची को देखे जा रही है. ऐसा लगता है कि उसे कुछ भी सुनाई नहीं पड़ रहा है.

नहीं, उसे सबकुछ सुनाई पड़ रहा है और दिखाई भी…

शोरशराबा, धूमधाम… उस की सास खुशी से फूले नहीं समा रही हैं. ससुर पोते का मुंह देख कर खुश हैं और अख्तर, उस का तो हाल ही मत पूछो, वह शादी के बाद संभवतया  पहली बार इतना खुश हुआ है.

इस से पहले के अवसरों पर नसरीन के कोई करीब नहीं जाता था. अजी, उसे तो छोड़ ही दो, पैदा होने वाली बच्ची की भी तरफ कोई रुख नहीं करता था. न सास, न ससुर और न ही नन्दें.

अख्तर का व्यवहार तो बहुत ही बुरा होता था. वह कईकई हफ्ते नसरीन से बोलता नहीं था और जब बोलता तो बहुत बदतमीजी से. ऐसा लगता जैसे लड़की के पैदा होने में सारा दोष नसरीन की ही है.

पर इस बार अख्तर बहुत मेहरबान है. वह नसरीन पर सबकुछ लुटाने को तैयार है. मगर वह करे भी तो क्या? उस की जेब खाली है. इन दिनों उस का काम नहीं चल रहा है. बरसात का मौसम जो ठहरा.

इस मौसम में सिलाई का काम कहां चलता है? वैसे तो वह दिल्ली चला जाता था, पर अब रजिया उसे दिल्ली जाने कहां देती है…

रजिया से बहुत प्यार करता है वह और रजिया भी उसे. अख्तर के लिए ही रजिया अपनी ससुराल नहीं जाती. उस का शौहर उसे लेने कई बार आया था, पर उस ने उस की सूरत तक देखना गंवारा नहीं किया.

रजिया का एक बेटा भी है, उसी शौहर से. बहुत खूबसूरत. 8 बरस का. अख्तर को पापा कहता है. उस के पापा कहने पर नसरीन के कलेजे पर मानों सांप लोट जाता है और जब वह रजिया से कहती है कि वह समीर को मना करे कि वह अख्तर को पापा न कहे, तो रजिया नसरीन के घर घुस कर उस की पिटाई कर देती है और रहीसही कसर अख्तर पूरी कर देता है.

लातघूसों के साथ गंदीगंदी गालियां देता है. तर्क देता है कि खुद बेटा पैदा नहीं कर सकतीं, ऊपर से किसी का बेटा मुझे पापा या अंकल कहे, तो उसे बुरा लगता है.

नसरीन कह सकती है, पर वह नहीं कहती कि रजिया का ही लड़का तुम्हें पापा क्यों कहता है?

मोहल्ले में और भी तो लड़के हैं. वह नहीं कहते पर जबानदराजी करे, तो क्या और पिटे? इसलिए वह बरदाश्त करती है. बरदाश्त करने के अतिरिक्त कोई और चारा भी तो नहीं है. उस के एक के बाद एक बेटी जो पैदा होती गई…

सास और नन्दों के ही नहीं, बल्कि सासससुर और शौहर के ताने सुनसुन कर वह अधमरी सी हो गई. अब तो सूख कर कांटा हो गई है वह. कहां उस का चेहरा फूल सा खिलाखिला रहता था और अब तो मुरझाया सा, बेरौनकबेनूर…

और इस बार बेटा पैदा हुआ भी, तो अकेला नहीं, अपने साथ अपनी एक और बहन को लेता आया. क्या उसे बहनों की कमी थी?

अरे, पैदा होना है, तो वहां हो, जहां रूपएपैसों की कोई कमी नहीं है. हम जैसे फटीचरों के यहां पैदा होने से क्या लाभ? लेकिन तुम को इस से क्या? तुमलोग तो बिना टिकट, बिना पास भागती चली आती हो.

अब देखो ना, एक बच्चे का बोझ उठाना कितना कठिन है. ऊपर से तुम भी…अरे, तुम्हारी क्या जरूरत थी? तुम क्यों चली आईं? किसी ऊंची बिल्डिंग में जा गिरतीं. पर वहां तुम कैसे पहुंच पातीं? वहां तो सारे काम देखभाल कर होते हैं. जांचपरख कर होते हैं…..और हम जैसे गरीबों के यहां तो बस अंधाधुंध, ताबड़तोड़…

अब तुम आई भी थीं, तो अपने साथ रूपयापैसा भी लेती आतीं. भला यह कहां हो सकता था. ऊपर से और कमी हो गई. इस बार मेरे पास आंचलभर दूध भी तो नहीं है. हो भी कैसे? मन भी बहुत खुश रहता है. ऊपर से भरपेट भोजन जो मिलता है…अरे, यह तुम्हारा भाई, कुछ न कुछ कर के अपना पेट पाल ही लेगा. लड़का है, कुछ भी न करे, तो भी खानदान की नस्ल तो बढ़ाएगा ही और तुम…

“बहू…”

हमीदा खाला की आवाज से नसरीन का ध्यान भग्न हुआ,”बहू, क्यों देर करती हो….क्यों जिद खाए बैठी हो? कोई बात हो तो बताओ… आखिर तुम्हें दूध बख्शने में कैसी शर्म… कुछ बोलो भी, क्या बात है? किसी से नाराज हो? किसी ने कुछ कहा है? क्या अख्तर मियां ने…?”

नसरीन की सास को गुस्सा आ गया, बोलीं, ‘‘क्यों समझाती हो खाला? यह बहुत ढीठ है… कभी किसी की कोई बात मानी भी है, जो आज मानेगी। हमेशा अपने मन की करे है…मन हो, तो बोलेगी….ना हो, तो ना…’’

हमीदा खाला बोल पड़ीं, ‘‘अरे, ऐसी भी मनमानी किस काम की? बच्ची मरी पड़ी है और यह है कि फूली बैठी है।”

तभी अम्मां की आवाज सुन कर अख्तर अंदर आया और बड़े तैश में बोला, ‘‘क्या नौटंकी फैलाए बैठी हो?क्यों सब को परेशान करे है? दूध क्यों नहीं बख्शती?’’

अख्तर की दहाड़ का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा,”नसरीन बोल पड़ी, ‘‘हम इसे दूध पिलाए हों, तो बख्शें.’’

Skin Care : साबुन से चेहरा धोने से मेरा फेस ड्राई हो गया है… क्या करूंं?

Skin Care :  अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक जरूर पढ़ें…

सवाल-

मैं काफी समय से साबुन से चेहरा धोती हूं, पर इधर कुछ दिनों से चेहरे पर रुखापन दिखाई देने लगा है. मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब-

शरीर के अन्य हिस्सों की अपेक्षा चेहरे की त्वचा बहुत नाजुक होती है, इसलिए अपनी त्वचा की जरूरत और किस्म के मुताबिक फेस वाश का इस्तेमाल करें. आप घरेलू उपचार के तौर पर यह अपना सकती हैं- एक बाउल में 4 बड़े चम्मच बेसन और 1 छोटा चम्मच ताजा मलाई मिलाएं. गाढ़ा पेस्ट तैयार कर उसे त्वचा पर लगाएं. 20 मिनट बाद चेहरे को कुनकुने पानी से धो लें.

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औयली स्किन हो या ड्राई स्किन फेसवौश की जरूरत हर किसी को पड़ती है. आजकल के पौल्यूशन में फेस न धोयें तो यह स्किन को नुकसान पहुंचाता है और अगर किसी नौर्मल साबुन से फेस धोएं तो यह स्किन को डैमेज भी कर सकता है. इसलिए फेस के लिए फेसवौश जरूरी है. पर मार्केट में कई तरह के फेसवौश आ गए हैं, जो स्किन के लिए तो अच्छे होते हैं, लेकिन महंगे होते हैं. आज हम आपको कुछ सस्ते और अच्छे फेसवौश के बारे में बताएंगे जिसे आप मार्केट या औनलाइन खरीद सकते हैं.

1. हिमालया मौइस्चराइजिंग एलोवेरा फेसवौश

एंजाइम, पौलीसेकेराइड और पोषक तत्वों से भरपूर, यह फेसवौश स्किन को इफेक्टिव रूप से साफ, पोषण और मौइस्चराइज करने का काम करता है. मार्केट में 200 मि.ली. का हिमालय मौइस्चराइजिंग एलोवेरा फेस वौश आपको 128 रूपए में मिल जाएगा.

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Pots and Pans Unveils the Ultimate in Culinary Innovation

Introducing the Meyer Presta Tri-Ply Pressure Cooker Collection

Pots and Pans, India’s premier destination for international-grade cookware, proudly introduces a bold new chapter in Indian kitchens, the Meyer Presta Tri-Ply Pressure Cooker Collection.

This is a reinvention of a staple found in nearly every Indian home. As India’s pressure cooker market is poised to grow from USD 338.3 million in 2024 to USD 611.3 million by 2031, innovation in this space is timely and transformative.

pressure cooker

A Kitchen Essential, Reinvented

In Indian households, the pressure cooker is a symbol of tradition, speed, and everyday convenience. From aromatic dals to one-pot biryanis, it’s the silent workhorse behind countless family meals.

The Meyer Presta Collection elevates this beloved classic with:

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Every detail of the Presta Collection is engineered for elegance, efficiency, and everyday reliability. This isn’t just cookware — it’s a statement of thoughtful design.

Key Features:

  • ISI Certification for trusted safety
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