Mobile Addiction: कहीं आप भी तो इस के शिकार नहीं

Mobile Addiction: जब से लोगों ने मोबाइल को एंटरटेनमैंट के लिए इस्तेमाल करना शुरू किया है, उन्हें इस की लत लग गई है. स्मार्टफोन की यह लत कब हमारी लाइफ का अहम पार्ट बन जाती है हमें पता भी नहीं चलता. दिन में 4 घंटे मोबाइल पर चिपके रहना लाइफस्टाइल का हिस्सा बन गया है.

स्मार्टफोन यूज करना अच्छा तो बहुत लगता है लेकिन इस की अच्छीखासी कीमत हमें अपनी सेहत के जरीए चुकानी पड़ती है. इस बारे में बता रही हैं जनरल फिजिशन डाक्टर रिया अग्रवाल :

रील्स देखनेसुनने के लिए घंटों ईयरफोन का यूज खतरनाक है

कहीं आप को भी तो रातों में जाग कर फोन पर रील्स देखनेसुनने की आदत तो नहीं? अब रात में मोबाइल स्पीकर पर भी नहीं कर सकते इसलिए कहीं आप भी तो इस के लिए ईयरफोन का यूज तो नहीं कर रहे. अगर ऐसा कर रहे हैं तो हम आप को बता दें कि हेडफोन या ईयरफोन लगातार लगाने से कानों में हीट पैदा होती है, जिस से ईयर इन्फैक्शन का खतरा बढ़ सकता है. ज्यादा समय तक ईयरफोन लगाने से कानों की नसों पर भी दबाव पड़ता है. उन में सूजन भी आ सकती है. कानों में वाइब्रेशन से हियरिंग सेल्स भी प्रभावित होती है. ईयरफोन सुनने की क्षमता ही नहीं सिरदर्द को भी बढ़ा सकता है. ईयर स्पेशलिस्ट का कहना है कि है कि ईयरफोन की 100 डीबी तक आवाज भी कानों को डैमेज कर सकती है.

टेक्स्ट नेक सिंड्रोम

टेक नेक वह स्थिति है, जब व्यक्ति लंबे समय तक मोबाइल या लैपटौप का उपयोग करते हुए गरदन झुका कर बैठता है. सामान्य स्थिति में सिर का वजन 4-5 किलोग्राम होता है, लेकिन जैसे ही हम सिर को आगे की ओर झुकाते हैं, यह वजन कई गुना बढ़ कर गरदन और रीढ़ पर अतिरिक्त दबाव डालता है. सिर्फ यही नहीं बल्कि घंटों सिर झुकाए रहने से स्पाइनल कौर्ड की डिस्क में खराबी आने लगती है, जिस से कंधा जाम हो जाता है और हाथ घुमाने, उठाने में तकलीफ हो जाती है.

गरदन झुका कर बैठने से सर्वाइकल डिस्क पर लगातार दबाव पड़ता है. यह स्थिति डिस्क बल्ज या हर्निएशन का कारण बन सकती है. लंबे समय तक स्क्रीन पर झुक कर बैठने से गरदन की मांसपेशियां सख्त हो जाती हैं, जिस से अकड़न और दर्द होता है. गरदन पर तनाव बढ़ने से सिरदर्द, आंखों में थकान और हाथों में झनझनाहट या कमजोरी भी महसूस हो सकती है.

डिजिटल आई स्ट्रेन या कंप्यूटर विजन सिंड्रोम की प्रौब्लम हो सकती है

मोबाइल ऐडिक्शन से आंखों में थकान, सूखापन, सिरदर्द, धुंधली दृष्टि, आंखों में जलन और लालिमा जैसी दिक्कतें हो सकती हैं, जिसे डिजिटल आई स्ट्रेन या कंप्यूटर विजन सिंड्रोम कहते हैं. इस के मुख्य कारण स्क्रीन से निकलने वाली ब्लू लाइट और कम पलकें झपकाना हैं, जिस से आंखों में तनाव आता है.

एक ताजा रिसर्च में खुलासा हुआ है कि रोजाना सिर्फ 1 घंटे मोबाइल, टैबलेट या स्मार्टफोन जैसी डिजिटल स्क्रीन का इस्तेमाल करने से मायोपिया (नजदीक की चीजें साफ दिखना, दूर की चीजें धुंधली लगना) का खतरा 21% तक बढ़ सकता है. सामान्यतया 1 मिनट में 12 से 14 बार पलक झपकनी चाहिए, लेकिन लगातार मोबाइल स्क्रीन पर नजरें गड़ाने से यह कम हो जाती है, जिस से आंखों की नमी खत्म होती है और जलन, खुजली व लालिमा जैसी समस्याएं बढ़ जाती हैं. आंखों पर पड़ने वाले तनाव के कारण चीजें धुंधली दिखाई देने लग सकती हैं.

डिजिटल डिमेंशिया तो नहीं हो गया आप को

लगातार मोबाइल को देखना अपनेआप में एक गंभीर बीमारी है. इस कंडीशन में दिमाग में ब्लड सप्लाई कम हो जाती है जिस से सेल्स को नुकसान पहुंचता है और वे डैमेज होने लगते हैं. इस से आप चीजें भूलने लगते हैं. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि फोन पर घंटो स्क्रोल करने पर ढेरों फोटोज, एप्स, वीडियोज सामने आते हैं जिस से आप के दिमाग के लिए सबकुछ याद रखना मुश्किल हो जाता है. परिणामस्वरूप आप की याद्दाश्त, कंसंट्रेशन और सीखने की क्षमता पर बुरा असर पड़ता है.

अगर आप का बच्चा याद किया हुआ भूल जाए या फिर किसी चीज पर फोकस न कर पाए या फिर उस की परफौर्मेंस घटने लगे, तो उसे डांटने से कुछ नहीं होगा बल्कि आप समझ लीजिए कि वह डिजिटल डिमेंशिया से जूझ रहा है.

डिजिटल डिमेंशिया सिर्फ बच्चों पर ही नहीं बल्कि बड़ों पर भी अटैक कर रहा है.

ब्रिटेन में हुई स्टडी के मुताबिक, दिन में 4 घंटे से ज्यादा स्क्रीन टाइम से वैस्कुलर डिमेंशिया और अल्जाइमर का जोखिम बढ़ जाता है. सिर्फ यही नहीं बल्कि इस से न्यूरोडीजैनेरेशन का रिस्क भी हो जाता है.

दरअसल, 18-25 साल की उम्र में ज्यादा स्क्रीन पर देखते रहने से  दिमाग की सब से बाहरी परत सेरेब्रल कौर्टेक्स पतला हो सकता है. यही परत मेमोरी, कौग्निटिव फंक्शंस को बेहतर बनाने में मदद करता है. जब यह पतली होती जाती है तो समस्याएं भी बढ़ती जाती हैं.

टेक्स्टिंग टेंडनाइटिस भी हो सकता है

घंटों मोबाइल चलाने से कलाई, हाथ और उंगलियों में दर्द और अकड़न महसूस हो सकती है, जिसे टेक्स्टिंग टेंडनाइटिस कहा जाता है. घंटों तक स्मार्टफोन का इस्तेमाल शारीरिक दर्द और थकान को बढ़ा सकता है. यह स्थिति लंबे समय तक रह सकती है और यदि उचित उपचार न लिया जाए तो यह स्थायी समस्या बन सकती है. जैसेकि मोबाइल चलाने में लगातार अंगूठे का इस्तेमाल करने से कापल टर्नल सिंड्रोम भी हो सकता है जिस में अंगूठे में इतना दर्द रहने लगता है कि आप उसे हिला भी नहीं पाते, काम करना तो दूर की बात है.

दरअसल, लंबे समय तक मोबाइल के इस्तेमाल से कलाई की मेडियन नस पर दबाव पड़ सकता है, जिस की वजह से दर्द, झनझनाहट, सुन्नपन और कमजोरी जैसे लक्षण दिखते हैं.

सिर्फ यही नहीं बल्कि ज्यादा स्मार्टफोन का इस्तेमाल करने से टेंडन में सूजन हो सकती है, जिस में कलाई में दर्द और स्टिफनैस भी होती है, जिस से हाथ हिलाना कठिन हो जाता है, जिसे टेंडिनाइटिस कहते हैं. बारबार उंगली का इस्तेमाल करने से टेंडन डिस्टल पाम के पास चिपक सकती है, जिस से डिसकंफर्ट होने के साथ ही आप का मूवमैंट भी प्रभावित हो सकता है. इसे ट्रिगर फिंगर भी कहते हैं. यह सब दिक्कतें मोबाइल का ज्यादा इस्तेमाल करने से होती हैं.

मोबाइल ऐडिक्शन से ओबेसिटी

मोबाइल ऐडिक्शन से ओबेसिटी हो सकती है क्योंकि यह शारीरिक गतिविधियों को कम करती है, नींद की कमी पैदा करती है और अस्वस्थ खानपान की आदतों को बढ़ावा देती है. लोग घंटों फोन पर बैठे रहते हैं, जिस से बैठने का जीवनशैली बढ़ती है और शारीरिक गतिविधियां जैसे व्यायाम या खेलकूद छूट जाते हैं, जो वजन बढ़ने का एक प्रमुख कारण है.

मोबाइल देखने के चलते हम देर रात तक जागते हैं और इस से नींद की कमी हो जाती है और भूख को नियंत्रित करने वाले हार्मोन प्रभावित होते हैं, जिस से हम अनहैल्दी चीजों जैसे चिप्स, नमकीन, बिस्कुट जैसे क्रेविंग बढ़ती है और हमें पता भी नहीं चलता कि हम कितना और कब खा रहे हैं. यह मोटापे का कारण बन सकता है.

Mobile Addiction

Oil or Serum: क्या है आपके खूबसूरत बालों का राज, जानें

Oil or Serum: सभी लड़कियों को लंबे और शाइनी केश पसंद आते हैं, लेकिन आज की भगदौड़ भरी जिंदगी में उन के बढ़ते स्ट्रेस, असंतुलित डाइट, कम नींद आदि ने उन के हेयर ग्रोथ को काफी हद तक प्रभावित किया है. कम उम्र में ही वे गंजेपन का शिकार हो रही हैं. ऐसा देखा गया है कि जिन लड़कियों के पेरैंट्स के हेयर ग्रोथ उम्र हो जाने के बाद भी अच्छे हैं, लेकिन उन की बेटी के हेयर लौस अधिक मात्रा में है, इस की वजह वे असंतुलित लाइफस्टाइल, स्ट्रेस और डाइट को मानती हैं.

इन लड़कियों ने दादीनानी के नुसखों से ले कर आज के महंगे सैलून ट्रीटमैंट्स तक, सबकुछ अपना लिया है, लेकिन हेयर ग्रोथ में फर्क नहीं आया है. कुछ लड़कियों को तो हमेशा इस बात की चिंता रहती है कि केशों के झड़ने की वजह हेयर औयल लगाना है या नहीं, क्योंकि आजकल बाजार में कई प्रकार के हेयर औयल, कंडिशनर, सीरम आदि मिलते हैं, जिसे ले कर वे बहुत कन्फ्यूज्ड रहती हैं. बालों में औयल लगाना कितना सही है या नहीं, इसे ले कर अलगअलग लोगों के अलगअलग मत हैं.

आइए, जानते हैं ऐक्सपर्ट की राय क्या है और हेयर औयल का हेयर ग्रोथ में कितना हाथ होता है.

स्कैल्प का क्लीन होना जरूरी

इस बारें में डर्मेटोलौजिस्ट डा. सोमा सरकार कहती हैं कि आमतौर पर मैं हेयर औयल लगाने से पहले उन के स्कैल्प क्लीन होने चाहिए, डैंड्रफ न हों, जिस में औयल अधिकतर रूट्स पर नहीं आगे के हेयर पर लगाने की सलाह देती हूं.

असल में उंगली के पोरो से औयल मसाज करने पर स्कैल्प का ब्लड सर्कुलेशन बढ़ता है, जिस से फीलगुड फैक्टर काम करता है. इस का हेयर ग्रोथ या हेयर फौल से कोई मतलब नहीं होता. यदि किसी को औयल लगाने की इच्छा होती है, तो औलिव, आलमंड या मस्टर्ड औयल बालों के लिए अच्छा माना जाता है.

किसी प्रकार की कैमिकल युक्त औयल हमेशा ही केशों के लिए नुकसानदायक होता है. बाजार में आजकल कई प्रकार के प्रोडक्ट्स विटामिन और मिनरल युक्त औयल मिलते हैं. ये सब मार्केटिंग गिमिक हैं, जिन में अधिकतर कुछ खास कैमिकल या आयुर्वेदिक दवाओं के मिश्रण से हेयर को हैल्दी बनाने का नुसखा कहा जाता है, जिस का असर हेयर पर नहीं होता.

हेयर क्वालिटी और ग्रोथ अधिकतर जेनेटिक होता है, जो जींस और लाइफस्टाइल पर निर्भर करता है. इस के अलावा कुछ जगहों पर आज हेयरफौल की वजह केशों के साथ कई ऐक्सपेरिमैंट का करते रहना है, मसलन ब्लो ड्राई, कलरिंग, प्रदूषण, असंतुलित भोजन आदि जिम्मेदार हैं.

सप्लिमेंट्स का सहारा

डा. सोमा कहती हैं कि हेयर स्ट्रैंथ के लिए ऐनिमल प्रोटीन, जिस में खासकर एमीनो एसिड होता है, जिस में एग, मछली, चिकन आदि के साथ, ऐंटी औक्सीडैंट मसलन विटामिन सी, सिलेनियम, प्रोटीन, बायोटिन आदि डाइट में होने की आवश्यकता है. अगर आप की डाइट में कुछ कमी हो रही है तो डाक्टर की सलाह से सप्लिमैंट्स भी ले सकती हैं.

कई बार लोग शैंपू करने के बाद बालों में तेल लगा लेते हैं, ऐसा करने से बालों को नुकसान पहुंच सकता है. अकसर लोग यह सोचते हैं कि बालों में लंबे समय तक तेल लगा कर रखने से फायदे मिलते हैं, लेकिन ऐसा बिलकुल भी नहीं है.  बालों में 40 से 45 मिनट के लिए तेल लगा कर रखें. मसाज के बाद इसे छोड़ दें और 40 मिनट बाद बालों को हलके शैंपू से धो लें. बालों में तेल लगाने के बाद इन्हें गरम पानी से न धोएं.

1 घंटे से ज्यादा समय के लिए बालों में तेल लगा रहने से डैंड्रफ और गंदगी बढ़ने का खतरा रहता है. ऐसा करने से स्कैल्प के छिद्र बंद हो सकते हैं. इस से बालों को कई तरह के नुकसान पहुंच सकते हैं. अगर आप को ऐलर्जी या किसी अन्य तरह की समस्या है, तो बिना डाक्टर की सलाह के बालों की औयलिंग करने से बचना चाहिए.

सीरम कब लगाएं

हेयर सीरम एक सिलिकान बेस्ड लिक्विड प्रोडक्ट होता है. हेयर सीरम बालों की सतह पर कोटिंग करती है. हेयर सीरम बालों की ऊपरी सतह को ही पोषण दे कर मुलायम बनाता है. यह बालों के क्यूटिकल्स तक नहीं जाता. हेयर सीरम का इस्तेमाल करने से बालों की चमक को बढ़ावा मिलता है.

ऐक्सपर्ट के अनुसार, बालों में हेयर सीरम का इस्तेमाल हमेशा औयलिंग, शैंपू और कंडीशनर के बाद किया जाता है. इस के अलावा हेयर सीरम का कम पीएच लेवल बालों के स्ट्रैंड्स को एकसाथ रखता है, जो डैमेज को कम कर सकता है.

इस प्रकार सीरम और हेयर औयल दोनों बालों के लिए फायदेमंद होते हैं. अगर आप के केश ड्राई और डैमेज हैं, तो अपने लाइफस्टाइल में बदलाव करें. हेयर औयलिंग हमेशा बालों को शैंपू से धोने से पहले करनी चाहिए. वहीं, हेयर सीरम का इस्तेमाल शैंपू करने के बाद किया जाता है. जो लोग अकसर अपने बालों की स्टाइलिंग करते हैं, उन के लिए हेयर सीरम ज्यादा बेहतर औप्शन है.

ऐक्सपर्ट की मानें तो सप्ताह में 2 बार हेयर औयल लगाने के बाद शैंपू करना चाहिए. शैंपू के बाद बालों के नमी को सही तरीके से सुखा कर सीरम लगाना चाहिए. ऐसा करने से बालों को सही पोषण मिलता है और बालों का डैमेज कम हो सकता है.

Oil or Serum

Motivational Story: मुक्त- क्या पिंजरे से छूट पाई इंदू

Motivational Story: भारतीय लोक सेवा आयोग की परीक्षा का परिणाम आ गया था. चुने हुए कुल 790 उम्मीदवारों में इंदु का स्थान 140वां था. यह कहना सर्वथा अनुचित नहीं था कि उस की स्वयं की लगन, परिश्रम तथा संघर्ष ने उसे आज का दिन दिखाया था. घर में उत्सव जैसा माहौल था. बधाई देने के लिए मिलने आने वालों का सिलसिला लगा हुआ था. उस का 7 सालों का लंबा मानसिक कारावास आज समाप्त हुआ था. आखिर उस का गुनाह क्या था? कुछ भी नहीं. बिना किसी गलती के दंड भोगा था उस ने. उस की व्यथाकथा की शुरुआत उसी दिन हो गई थी जिस दिन वह विवाहबंधन में बंधी थी.

इंदु के पिता एक सरकारी संस्थान में कार्यरत थे और मां पढ़ीलिखी गृहिणी थीं. उस की एक छोटी बहन थी. दोनों बहनें पटना के एक कौन्वैंट स्कूल में पढ़ती थीं. इंदु शुरू से ही एक विशिष्ट विद्यार्थी थी और मांबाप उसे पढ़ने के लिए सदा प्रोत्साहित करते रहते थे. 10वीं व 12वीं दोनों बोर्ड परीक्षाओं में इंदु मैरिट लिस्ट में आई थी. इस के बाद उसे दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रख्यात कालेज में दाखिला मिल गया था. इधर इंदु अपनी पढ़ाई में व्यस्त थी, उधर उस के घर में एक अनहोनी हो गई. उस के चाचाजी की 20 साल की बेटी घर छोड़ कर एक पेंटर के साथ भाग गई. उस ने अपना भविष्य तो खराब किया ही, इंदु के जीवन को भी वह स्याह कर गई. सभी रिश्तेदारों के दबाव में आ कर, उस के पिता इंदु के लिए रिश्ते तलाशने लगे. सब को समझाने की सारी कोशिशें व्यर्थ चली गई थीं इंदु की. गलती किसी और की, सजा किसी और को. कितना रोई थी छोटी के गले लग कर इंदु जिस दिन उस की शादी तय हुई थी.

उस के चाचा एक पंडे को बुला लाए जिस ने अनापशनाप गणना कर शादी को आवश्यक बता डाला. चाचा ने अपना दोष छिपाने के लिए उस के घर में जबरन यज्ञहवन करा डाला. एक असाध्य वास्तु के अनुसार सोफे इधर से उधर कर पड़ा दानदक्षिणा बटोर कर चलता बना. आनंद आईआईटी से इंजीनियरिंग कर के एक प्रख्यात कंपनी में काफी ऊंचे पद पर था. उस का परिवार भी उस के समुदाय में काफी समृद्ध तथा प्रतिष्ठित माना जाता था. उस पर भी उन लोगों की तरफ से एक रुपए की भी मांग नहीं रखी गई थी. देखने में तो आनंद साधारण ही था, परंतु वैसे भी हमारे समाज में लड़के की सूरत से ज्यादा उस का बैंक बैलेंस तथा परिवार देखा जाता है. हां, बात अगर लड़की की हो तो, नाक का जरा सा मोटा होना ही शादी टूटने का कारण बन जाता है. आनंद को उस के आगे पढ़ने से कोई एतराज नहीं था. वैसे भी शादी के बाद उन दोनों को दिल्ली में रहना था. उन की सिर्फ एक ही शर्त थी, इंदु नौकरी कभी नहीं करेगी. आनंद और उस के परिवार को एक घरेलू लड़की चाहिए थी.

शादी तय होने से ले कर शादी होने तक इंदु के अश्रु नहीं थमे. अपनी विदाई में तो वह इतना रोई थी कि बरात में मौजूद अजनबी लोगों की भी आंखें भर आईं. सब को लग रहा था, मातापिता से जुदाई का दुख उसे दर्द दे रहा है परंतु सिर्फ इंदु ही जानती थी कि वह रो रही थी अपने सपनों, अपनी उम्मीदों और अपने लक्ष्य की मृत्यु पर. विवाह कर के इंदु भौतिक सुखसुविधाओं से भरे हुए ससुराल में आ गई थी. संसार की नजरों में उस के जैसा सुखी कोई नहीं था. उस ने दोबारा कालेज जाना भी शुरू कर दिया था. परंतु तब की इंदु और अब की इंदु में एक बहुत बड़ा अंतर आ गया था और वह अंतर था लक्ष्य का. लक्ष्यविहीन शिक्षा का कोई औचित्य नहीं होता, लक्ष्य कुछ भी हो सकता है, परंतु उस का होना आवश्यक है.

उस का वैवाहिक जीवन बाह्यरूप में तो सुखद ही लगता था परंतु शयनकक्ष के अंदर अगर कुछ था तो वह था बलात्कार, अतृप्ति तथा अपमान. हर रात आनंद स्वयं से लड़ते हुए उस के साथ जो कुछ करने की कोशिश करता, उस में कभीकभी ही सफल हो पाता. परंतु हर रात की इस प्रताड़ना से इंदु को गुजरना पड़ता था. कभीकभी तो कुछ न कर पाने का क्षोभ वह इंदु पर हाथ उठा कर निकालता था. इंदु की इच्छाओं, उस के सुख, उस की मरजी से आनंद को कभी कोई मतलब नहीं रहा. साल में कईकई महीने आनंद घर से बाहर रहता. इंदु के पूछने पर उसे झिड़क देता था.

इस बारे में इंदु ने पहले अपनी सास तथा बाद में अपनी मां से भी बात की. परंतु दोनों ने ही आनंद का पक्ष लिया. उन का कहना था आनंद काम से ही तो बाहर जाता है, फिर इस में क्या परेशानी? दोनों की सलाह थी कि अब उन दोनों को अपना परिवार आगे बढ़ाने के बारे में सोचना चाहिए. एक शिशु मातापिता की बीच की कड़ी को और मजबूत करता है. बच्चे के बाद आनंद का बाहर जाना भी कम हो जाएगा. कैसे बताती इंदु उन्हें कि एक बच्चे के जन्म के लिए पतिपत्नी के बीच सैक्स होना भी जरूरी होता है. परंतु आनंद और इंदु के बीच जो होता था, वह सैक्स तो कदापि नहीं था. पूरी रात उस के शयनकक्ष का एसी चलता, परंतु अपमान, क्षोभ तथा अतृप्ति की आग को तो वह ठंडा नहीं कर पाता था. मुख पर मर्यादा के ताले को लगा कर, जीवन के 3 साल निकाल दिए थे इंदु ने. कुछ नहीं बदला था सिवा इस के कि उस की पढ़ाई पूरी हो गई थी. और फिर वह दिन आया जब आनंद का एक सच उस के सामने आया था.

उन दोनों की शादी की चौथी वर्षगांठ थी. आनंद औफिस के काम से पुणे गया था. इंदु की एक कालेज मित्र ने उस के साथ शौपिंग का प्लान बनाया था. इंदु ने भी सोचा वह आनंद के लिए कुछ खरीद लेगी. सहेली के घर जाते समय इंदु की नजर एक बड़े अपार्टमैंट के बाहर फोन पर बात करते हुए एक आदमी पर पड़ी. वह चौंक गई, क्योंकि वह आदमी और कोई नहीं, आनंद था. आनंद वहां क्या कर रहा था? इंदु समझ नहीं पा रही थी. गाड़ी लालबत्ती पर रुकी हुई थी. इंदु ने ड्राइवर को गाड़ी आगे लगाने का निर्देश दिया और स्वयं आनंद के पीछे भागी. आनंद तब तक बिल्ंिडग के अंदर जा चुका था.

अपनेआप को संयत कर के इंदु आगे बढ़ी. आनंद का नाम बताने पर वाचमैन ने उस के फ्लैट का नंबर इंदु को बता दिया. अभी इंदु कौरिडोर में पहुंची ही थी कि उस ने आनंद को किसी लड़के के साथ खड़ा पाया. इंदु ने सोचा आनंद का कोई मित्र होगा. परंतु अगले ही पल जो हुआ वह उस की कल्पना से परे था. आनंद और वह लड़का अचानक ही एकदूसरे को बेतहाशा वहीं पर चूमने लगे थे. शायद, उन्हें वहां उस समय किसी के होने की उम्मीद नहीं थी. इंदु के मानसपटल पर उस के अपने शयनकक्ष की तसवीर आ गई. आनंद की बेचैनी, उस की कमजोरी, उस का साल में कईकई महीने बाहर रहने का कारण उस की समझ में आ गया था. अपनेआप को संभाल नहीं पाई थी इंदु, लड़खड़ा कर गिर पड़ी. इंदु जब होश में आई, अपनेआप को एक अपरिचित कमरे में पाया. अभी वह अपनेआप को संभाल रही थी कि सामने से वह लड़का आता दिखाई दिया.

‘अब कैसी तबीयत है आप की?’

‘ठ…ठ…ठीक हूं, बस, सिर थोड़ा सा भारी है. मेरे पति कहां हैं?’ अभी वह उस लड़के से बात करने के मूड में बिलकुल नहीं थी.

‘सिर तो भारी होगा ही, चोट जो लगी है. अच्छीखासी भीड़ इकट्ठी कर ली थी आप ने तो. वह तो मैं ने बात संभाल ली.’

‘अच्छा, क्या बताया आप ने लोगों को?’

‘यही कि आप मेरी कजिन हैं. अब यह तो बता नहीं सकता कि आप मेरी सौतन हैं. हा…हा…हा…’ उस की बेहयाई पर इंदु ठगी सी रह गई, परंतु अपने पर काबू रख कर उस ने जवाब दिया, ‘‘जी, बिलकुल, सच बता देना चाहिए था आप को…’’ ‘अच्छा, सच बता देना चाहिए था,’ उसी वक्त चीखते हुए आनंद कमरे में दाखिल हुआ. कितना बेशर्म तथा संगदिल था वह इंसान. अभी भी उस की नजरों में लेशमात्र भी पछतावा नहीं था.

‘आनंद शांत हो जाओ, इंदु आज के जमाने की लड़की है, मुझे यकीन है वह हमें समझेगी. समझोगी न इंदु?’ ‘मिस्टर सौतन, आप बिलकुल सही कह रहे हैं, मैं समझती हूं. परंतु आप को नहीं लगता कि इसे मैं ज्यादा अच्छे से समझ पाती अगर मुझ से खुल कर बात की जाती.’

‘मिस्टर सौतन…’

‘मेरा नाम राजीव है.’

‘हां तो राजीव, आप को पता है आप की गलती क्या है?’

‘यही कि हम गे…’

‘नहीं, आप क्या हैं उस में आप का बस नहीं है, इसलिए वह आप की गलती हो ही नहीं सकती,’ राजीव को बीच में ही रोक कर इंदु बोली.

‘तो फिर?’ इस बार आनंद बोला था. ‘मुझ से शादी क्यों की? मेरी जिंदगी बरबाद क्यों की? यह आप की गलती है आनंद. और राजीव आप की गलती यह है कि आप ने इन्हें नहीं रोका.’ ‘मैं ने समाज के लिए तुम से शादी की. मुझे घर संभालने के लिए एक बीवी तो चाहिए थी. और फिर तुम्हें क्या कमी थी? सोना, हीरा, लेटेस्ट गैजेट, महंगे कपड़े… और क्या चाहिए था तुम्हें?’

‘अच्छा, तो फिर आप को दिखावे के लिए एक पत्नी चाहिए थी, तो फिर हर रात मुझ पर वह जुल्म क्यों किया जो आप करना ही नहीं चाहते थे या कर नहीं सकते थे?’ ‘तुम्हें क्या लगता है, वह सब मैं अपनी मरजी से करता था? तुम से कहीं ज्यादा मुझे तकलीफ होती थी. पर मां खानदान का वारिस चाहती थीं. उन्होंने मुझ से वादा किया था कि उस के बाद मुझे अपनी जिंदगी अपनी मरजी से जीने की आजादी होगी.’

‘म…म…म…म…मम्मीजी को पता था?’ ‘जी हां, वरना तुम जैसे कंगालों से रिश्ता कौन करता. मम्मी को तुम गऊ जैसी सीधी लगी थी. तुम्हारे बाप की औकात भी है हमारे सामने खड़े होने की. चलो, अच्छा ही है तुम्हें पता चल गया. जाओ, अब घर जाओ.’ ‘सही पहचाना आप की मां ने, मैं गऊ हूं. परंतु वे मेरे सिर के ऊपर की सींगों को देखना भूल गईं,’ अपमान की आग मैं झुलसती हुई इंदु ने कहा.

‘अच्छा, क्या करेगी तू, जरा मैं भी तो सुनूं?’

‘मैं सब को तुम्हारी और तुम्हारे खानदान की असलियत बता दूंगी. तुम सब इंसान के भेष में छिपे भेडि़ए हो. मैं जा रही हूं. हमारी अगली मीटिंग कोर्ट में होगी.’ ‘अच्छा, यह बात है. राजीव, देख, मैं ने कहा था न, यह ऐसे नहीं मानेगी. चल आ जा, चढ़ जा इस के ऊपर.’ उन दोनों ने इस की तैयारी शायद तभी कर ली थी जब इंदु बेहोश पड़ी थी. इंदु मुसीबत में फंस चुकी थी, उसे थोड़ा होशियार रहना चाहिए था. परंतु आनंद इतना नीचे गिर जाएगा, इस की कल्पना उस ने नहीं की थी. राजीव ने इंदु को बिस्तर पर गिरा दिया था और उस के कपड़े उतारने की कोशिश कर रहा था. यह सबकुछ आनंद अपने वीडियो में रिकौर्ड कर रहा था.

‘अरे राजीव, उतर नहीं रहा तो फाड़ दे, फिर इस का वीडियो बनाएंगे. हमें धमकी दे रही थी. इस के बाद यह वही करेगी जो हम कहेंगे. वरना यह वीडियो…’ तभी दरवाजे की घंटी जोर से बजी, रुकरुक कर काफी बार बजी. राजीव और आनंद दोनों चौंक पड़े. इस बात का फायदा उठा कर, इंदु ने राजीव को वहां किक मारी जहां उसे सब से ज्यादा दर्द होता. फिर जोरजोर से शोर करते हुए दौड़ी. आनंद ने लपक कर उस का मुंह बंद किया और उस का सिर दीवार पर जोर से दे मारा. परंतु तब तक उस की आवाज बाहर जा चुकी थी. लोगों ने दरवाजा तोड़ दिया था. स्थानीय लोगों ने पुलिस को भी बुला लिया था. दरवाजा तोड़ने पर उस के अस्तव्यस्त कपड़ों को देख कर लोगों को सारा माजरा समझते देर न लगी थी. गनीमत यह हुई थी कि पुलिस की पैट्रोलिंग टीम पास में ही थी. इसलिए पुलिस को भी आने में ज्यादा समय नहीं लगा था.

अस्पताल में इंदु से मिलने उस के कालेज के कई मित्र आए थे. उन्होंने ही उस के मम्मीपापा को फोन किया था. मम्मीपापा शाम तक आ गए थे. पापा बारबार स्वयं को दोष दे रहे थे. इंदु की यंत्रणाओं का दौर यहीं खत्म नहीं हुआ था. जब उस ने आनंद

को तलाक देने का निर्णय लिया, मम्मीपापा के अलावा सभी रिश्तेदारों ने उस का जम कर विरोध किया. उन का तर्क था कि इस के बाद खानदान की बाकी लड़कियों का क्या होगा, छोटी का क्या होगा. कौन करेगा उस से शादी? आनंद के परिवार वाले बड़े लोग हैं, वे तो साफ निकल जाएंगे. भुगतना तो इंदु को ही और उस के परिवार को पड़ेगा. परंतु इस बार इंदु के साथ उस की ढाल बन कर उस के पापा खड़े थे. आनंद की मां ने भी कई चक्कर काटे. उन का कहना था कि आनंद निर्दोष था. सारा दोष राजीव का था. परंतु जब इंदु इतने पर भी नहीं मानी, तब शुरू हुआ उस के चरित्र पर दाग लगाने का दौर. उस की ससुराल वालों ने कहना शुरू किया कि उस का और राजीव का अनैतिक संबंध था. जिस का पता आनंद को चल गया था. इंदु और उस के परिवार वालों का घर से निकलना मुश्किल हो गया था. परंतु इंदु नहीं हारी, लड़ती रही और आखिरकार कोर्ट ने उस के हक में फैसला सुना दिया था. उसे तलाक मिल गया.

तलाक के बाद जीवन सरल होने की जगह और कठिन हो गया था. उसे हर दिन पुरुषों की लोलुप नजरों, महिलाओं की शक्की नजरों तथा रिश्तेदारों की तिरछी नजरों का सामना करना पड़ता था. अपनी मां की सलाह पर इंदु ने प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने का निर्णय लिया. उस ने अपनेआप को एक कमरे में सीमित कर लिया और लग गई परीक्षा की तैयारी में. लोगों की छींटाकशी उस तक पहुंच ही नहीं पाती थी. थोड़ीबहुत छींटाकशी उस तक पहुंचती भी थी तो इंदु उन्हें हंस कर टाल देती. बहुत अधिक कष्ट झेल लेने पर, इंसान को पीड़ा का एहसास भी कम हो जाता है, वही इंदु के साथ हो रहा था. 2 सालों के अथक परिश्रम के बाद, अपने दूसरे ही प्रयास में इंदु का चयन हो गया था. आज उस ने अपना आत्मसम्मान तथा अपनी आजादी दोनों पा लिए थे.

‘‘इंदु, बाहर आ जा बेटा.’’

‘‘दीदी, क्या कर रही हो?’’

मां और छोटी की आवाज से इंदु वर्तमान में लौट आई थी. बाहर रिश्तेदारों तथा जानने वालों की फौज बैठी हुई थी. भविष्य में कुछ पाने की आशा ले कर, कई गुमनाम रिश्तेदार ऐसे प्रकट हो रहे थे जैसे थोड़े से शहद को देख कर चीटियां न जाने कहां से प्रकट हो जाती हैं. ‘‘भाईसाहब, अब तो इंदु के लिए अच्छे रिश्तों की कमी न होगी,’’ कोई कह रहा था पापा से.

बात घूमफिर कर वहीं आ गई थी… शादी, जैसे स्त्रीजीवन का एकमात्र लक्ष्य तथा उस की पूर्णता शादी में ही है. ‘‘बेटा, पंडितजी आ गए हैं.’’ तभी चाचा टपके, ‘‘इन्हीं की कृपा से सबकुछ हुआ है.’’

‘‘जी नहीं चाचा. इन की कृपा से तो मेरे 7 साल खराब हुए हैं. मैं ने जो दुख झेले हैं उन्हें मैं ही जानती हूं.’’ उस की वकील भी आई. उन्हें गले लगा कर वह बोली,

‘‘सोने के पिंजरे से निकला पक्षी सामने उस के अनंत आकाश था पड़ा जंजीर का टुकड़ा अभी भी पैरों में था उस के पिंजरे का दरवाजा भी था खुला पलट कर न देखा उस ने दोबारा झटक कर उस टुकड़े को भी तोड़ दिया मुक्त होना क्या होता है अब उस ने था जान लिया.

Motivational Story

Fictional Story: पिया बावरा- उस धुंधली छाया में बस एक छवि अटकी थी

Fictional Story: घंटी बजते ही दरवाजे खोल दिए गए थे. डा. सुभाष गर्ग चुपचाप बाहर निकल गए. सब की तरह उन के हाथों में भी फावड़ाटोकरी थमा दिए गए थे.

सुभाष ने हैरत से अपने हाथों को देखा कि जिन में कल तक सिरिंज और आपरेशन के पतले नाजुक औजार होते थे अब उन में फावड़ा और कुदाल थमा दी गई.

‘‘क्यों डाक्टर, उठा तो पा रहे हो न?’’ एक कैदी ने मसखरी की, ‘‘अब यहां कोई नर्स तो मिलेगी नहीं जो अपने नाजुकनाजुक हाथों से आप को कैंचीछुरी थमाएगी.’’

सभी कैदियों को एक बड़ी चट्टान पर पहुंचा दिया गया और कहा गया कि यहां की चट्टानों को तोड़ना शुरू करो.

यह सुन कर सुभाष के पूरे शरीर में सिहरन सी दौड़ गई थी.

‘यह क्या हो गया मुझ से. कुछ भी बुरा करते समय आखिर ऐसे अंजाम के बारे में हम क्यों नहीं सोच पाते हैं?’ सुभाष मन ही मन अपने उस अतीत के लिए तड़प उठे जिस की वजह से आज वे जेल की सजा काट रहे हैं और अब कुछ हो भी नहीं सकता था. इतनी भारी कुदाल उठा कर पत्थर तोड़ना आसान नहीं था. डा. सुभाष गर्ग बहुत जल्दी थक गए. पहले पत्थर तोड़ना फिर उन्हें फावड़े की मदद से तसले में डालना. कुदाल की चार चोटों में ही उन की सांस फूल गई थी. काम रोक कर वहीं पत्थर पर बैठ कर वे सुस्ताने लगे. हीरालाल ने दूर से देखा और अपना काम रोक कर वहीं आ गया.

‘‘थक गए, डाक्टर?’’

सुभाष चुप रहे.

हीरालाल ने पूछा, ‘‘क्यों मारा था पत्नी को?’’

‘‘मैं ने नहीं मारा.’’

‘‘तो मरवाया होगा?’’ हीरालाल ने व्यंग्य से कहा.

डाक्टर चुप रहे.

‘‘बहुत सुंदर होगी वह जिस के लिए तुम ने पत्नी को मरवाया?’’ हीरा शरारत से बोला.

तभी एक सिपाही का कड़कदार स्वर गूंज उठा, ‘‘क्या हो रहा है. एक दिन आए हुआ नहीं कि कामचोरी शुरू हो गई,’’ और दोनों पर एकएक बेंत बरसा कर तुरंत काम करने का आदेश दिया.

बेंत लगते ही दर्द से तड़प उठे डाक्टर. अपनी हैसियत और हालात पर सोच कर उन की आंखें भर आईं. चुपचाप डाक्टर ने कुदाल उठा ली और काम में जुट गए.

जैसेतैसे शाम हुई. सभी कैदी अपनीअपनी कोठरी में पहुंचा दिए गए.

अपनी कोठरी में लेटेलेटे डा. सुभाष बारबार आंखें झपकाने की कोशिश कर रहे थे पर गंदी सीलन भरी जगह और नीची छत देख कर लग रहा था जैसे वह अभी सिर पर टपकने ही वाली है. 2 दिन पहले एक रिपोर्टर उन का इंटरव्यू लेने आई थी. उस ने प्रश्न किया था :

‘अपने प्यार को पाने के लिए क्या पत्नी का कत्ल जरूरी था? आप तलाक भी तो ले सकते थे?’

डाक्टर की यादों के मलबे में जाने कितने कांच और पत्थर दबे हुए थे. रात भर खयालों की हथेलियां उन पत्थरों और कांच के टुकड़ों को उन के जज्बातों पर फेंकती रहती हैं. काश, वे उत्तर दे पाते कि इतने बड़ेबड़े बच्चों की मां और अमीर बाप की उस बेटी को तलाक देना कितना कठिन था.

सुभाष गर्ग जिस साल डाक्टरी की डिगरी ले कर घर पहुंचे थे उसी साल 6 माह के भीतर ही वीणा पत्नी बन कर उन के जीवन में आ गई थी.

वीणा बहुत सुंदर तो नहीं पर आकर्षक जरूर थी. बड़े बाप की इकलौती संतान थी वह. उस के पिता ने सुभाष के लिए नर्सिंग होम बनवाने का केवल वादा ही नहीं किया, बल्कि टीके की रस्म होते ही वह हकीकत में बनने भी लगा था.

मातापिता बहत गद्गद थे. सुभाष भी नए जीवन के रोमांचक पलों को भरपूर सहेज रहे थे. जैसेजैसे डा. सुभाष अपने नर्सिंग होम में व्यस्त होने लगे और वीणा अपने बच्चों में तो पतिपत्नी के बीच की मधुरता धूमिल हो चली.

वीणा के तेवर बदले तो मुंह से अब कर्कश स्वर निकलने लगे. उसे हर पल याद रहने लगा कि वह एक अमीर पिता की संतान है और वारिस भी. इसलिए घर में उस की पूछ कुछ अधिक होनी चाहिए. इसीलिए उस की शिकायतें भी बढ़ने लगीं. सुभाष जैसेजैसे पत्नी वीणा से दूर हो रहे वैसेवैसे वे नर्सिंग होम और अपने मरीजों में खोते जा रहे थे. जीवन में तनिक भी मिठास नहीं बची थी. दवाओं की गंध में फूलों से प्यारे जीवन के क्षण खो गए थे. याद करतेकरते जाने कब डा. सुभाष को नींद ने आ घेरा.

खाने की थाली ले कर जब डा. सुभाष कैदियों की लाइन में लगते तो अपने नर्सिंग होम पर लगी मरीजों की लाइन उन्हें याद आने लगती. वह लाइन शहर में उन की लोकप्रियता का एहसास कराती थी जबकि यह लाइन किसी भिखारी का एहसास दिलाती है. डा. सुभाष को उस पत्रकार महिला का प्रश्न याद आ गया, ‘क्या सचमुच समस्या इतनी बड़ी थी, क्या और कोई राह नहीं थी?’

खाना खाते समय लगभग वे रोते रहते. अपने घर की वह शानदार डाइनिंग टेबल उन्हें याद आने लगती. बस, वही तो कुछ पल थे जिस में पूरा परिवार एकसाथ बैठ कर खाना खाता था. हालांकि यह नियम भी वीणा ने ही बनाया था.

वीणा का नाम व चेहरा दिमाग में आते ही डा. सुभाष फिर पुरानी यादों में खो से गए.

उस साल बड़ा बेटा पुनीत इंजीनियरिंग पढ़ने आई.आई.टी. रुड़की गया था और छोटा भी मेडिकल के लिए चुन लिया गया था. इधर नर्सिंग होम में पहले से और अधिक काम बढ़ गया तो डा. सुभाष दोपहर में घर कम आने लगे. रोज की तरह उस दिन भी घर से उन का टिफिन नर्सिंग होम आ गया था और उन के सामने प्लेट रख कर चपरासी ने सलाद निकाला था. तभी तीव्र सुगंध का झोंका लिए 30 वर्ष की एक युवती ने कमरे में प्रवेश किया.

‘सौरी सर, आप को डिस्टर्ब किया.’

डा. सुभाष ने गर्दन उठाई तो आंखें खुली की खुली रह गईं. मन में खयाल आया कि इतना सौंदर्य कहां से मिल जाता है किसीकिसी को.

‘सर, मैं डा. सुहानी, मुझे आप के पास डा. रावत ने भेजा है कि तुरंत आप से मिलूं.’

एक सांस में बोल कर युवती अपना पसीना पोंछने लगी.

सुभाष मुसकरा दिए.

‘आइए, बैठिए.’

‘नो सर. आप कहें तो मैं थोड़ी देर में आती हूं.’

‘नर्वस क्यों हो रही हैं डाक्टर, आप बैठिए,’ सुभाष ने खड़े हो कर सामने वाली कुरसी की ओर संकेत किया.

सुहानी डरती हुई कुरसी पर बैठ गई. डा. सुभाष ने चपरासी को इशारा किया तो उस ने दूसरी प्लेट सुहानी की तरफ रख दी.

‘नो सर, मैं दोपहर में पूरा खाना नहीं खाती हूं.’

‘आप सलाद लीजिए.’

उन के इतने अनुरोध की मर्यादा रखते हुए सुहानी ने थोड़ा सा सलाद अपनी प्लेट में रख लिया.

डा. सुभाष उस के सौंदर्य को देखते हुए मुसकरा कर बोले, ‘आज मेरी समझ में आया है कि कैसे लड़कियां केवल सलाद खा कर सुंदरता बनाए रखती हैं.’

सुहानी ने संकोच से देखा और बोली, ‘ओके, डाक्टर.’

डा. सुभाष ने कांटे में पनीर का एक टुकड़ा फंसा कर मुख में रख लिया और बोले, ‘आप यहां मेरी सहायक के रूप में काम करेंगी. अभी थोड़ी देर में सुंदर आप को केबिन दिखा देगा.’

उस दिन के बाद डा. सुभाष का हर दिन सुहाना होता गया. सुहानी केवल सौंदर्य की ही नहीं, मन की भी सुंदरी थी. उस के मीठे बोल डा. सुभाष में स्फूर्ति भर देते. यह काम की नजदीकियां कब प्यार में बदल गईं, दोनों को पता ही नहीं चला.

तब घर का पूरा उत्तरदायित्व वे अच्छी तरह पूरा कर रहे थे. पर पहले की तरह अब घर पर दुखी भी होते तो सुहानी की यादें उन की आंखों में घुलीमिली रहतीं.

उन दिनों वीणा कुछ अधिक ही चिड़चिड़ी होती जा रही थी. शायद इस की वजह यह थी कि बच्चों के जाने के बाद सुभाष भी उस से दूर हो गए थे और बढ़ती दूरी के चलते उस को अपने पति सुभाष पर शक हो गया था. एक रात वीणा ने पूछ ही लिया, ‘आजकल कुछ ज्यादा ही महकने लगे हो, क्या बात है?’

डा. सुभाष चौंक पड़े, ‘ये क्या बेसिरपैर की बातें कर रही हो. अब उम्र महकने की तो रही नहीं. मेरी तकदीर में तो आयोडीन और…’

‘बसबस. आदमियों की उम्र महकने के लिए हमेशा 16 की होती है.’

‘देखो वीणा, रातदिन दवाओं की खुशबू सूंघतेसूंघते जी खराब होने लगता है तो कभीकभार सेंट छिड़क लेता हूं. बहुत संभव है कि कभी ज्यादा सेंट छिड़क लिया होगा,’ सुभाष ने सफाई दी, लेकिन धीरेधीरे वीणा की शिकायतों और डा. सुभाष की सफाइयों का सिलसिला बढ़ गया.

नर्सिंग होम में वीणा के बहुत सारे अपने आदमी भी थे जो तरहतरह की रिपोर्ट देते रहते थे.

‘तुम्हारे इतने बड़ेबड़े बच्चे हो गए हैं. कल को उन की शादी होगी. बुढ़ापे में इश्क फरमाते कुछ तो शर्म करो,’ वीणा क्रोध में उन्हें सुनाती.

सुभाष ने उन दिनों चुप रहने की ठान ली थी. इसीलिए वीणा का पारा अधिक गरम होता जा रहा था.

रोजरोज की चिकचिक से तंग आ कर आखिर एक दिन सुभाष के मुख से निकल ही गया कि हां, मैं सुहानी से प्यार करता हूं और उस से शादी भी करना चाहता हूं.

डा. सुभाष को जेल की यातना सहते महीनों बीत चुके थे, लेकिन घर से मिलने कोई नहीं आया था. वे बच्चे भी नहीं जो उन के ही अंश हैं और जिन को उन्होंने अपना नाम दिया है. ऐसा नहीं कि बच्चे उन्हें प्यार नहीं करते थे पर मां तो मां ही होती है. मां की हत्या ने उन्हें बच्चों की नजरों में एक अपराधी, मां का हत्यारा साबित कर दिया था, पर क्या इस हादसे के लिए वे अकेले ही उत्तरदायी हैं?

बच्चे क्या जानें कि वीणा सुहानी को ले कर कितनी हिंसक हो उठी थी. एक दिन गुस्से में  उस ने कहा भी था, ‘आप अगर सोचते हैं कि मैं आप से तलाक ले लूंगी और आप मजे से उस से शादी कर लेंगे तो मैं आप को याद दिला दूं कि मैं उस बाप की बेटी हूं जो अपनी जिद के लिए कुछ भी कर सकती है. मेरे एक इशारे पर आप की वह प्रेमिका कहां गायब हो जाएगी पता भी नहीं चलेगा.’

वीणा की धमकियां जैसेजैसे बढ़ रही थीं वैसेवैसे सुभाष की घबराहट भी बढ़ रही थी…वे अच्छी तरह जानते थे कि इस आयु में बड़ेबड़े बच्चों के सामने पत्नी को तलाक देना या दूसरा विवाह करना उन के लिए सरल न होगा. पर सुहानी को वीणा सताए यह भी उन्हें स्वीकार नहीं था. इसलिए ही उन्होंने सुहानी से कहा था कि वह जितनी जल्दी हो सके यहां से लंबे समय के लिए कहीं दूर चली जाए.

अगले दिन सुहानी को नर्सिंग होम में न देख कर वीणा बोली थी, ‘उसे भगा दिया न. क्या मैं उसे खोज नहीं सकती. पाताल से भी खोज कर उसे अपनी राह से हटाऊंगी. तुम समझते क्या हो अपनेआप को.’

‘इतनी नफरत किस काम की,’ गुस्से से डा. सुभाष ने कहा था, ‘क्या इस उम्र में मैं दूसरी शादी कर सकता हूं.’

‘प्यार तो कर रहे हो इस उम्र में.’

‘नहीं, किसी ने गलत खबर दी है.’

‘किसी ने गलत खबर नहीं दी,’ वीणा फुफकारती हुई बोली, ‘मैं ने स्वयं आप का पीछा कर के अपनी आंखों से आप दोनों को एकदूसरे की बांहों में सिमटते देखा है.’

डा. सुभाष स्तब्ध थे, कितनी तेज है यह औरत. घबरा कर कहा, ‘अपने बच्चों को भी तो हम किसी अच्छी बात पर प्यार कर लेते हैं.’

‘शर्म नहीं आती तुम को इतना झूठ बोलते हुए,’ वीणा के अंदर का झंझावात बुरी तरह उफन रहा था.

उस दिन पत्थर तोड़ते हुए हीरा ने कहा, ‘‘डाक्टर आप चाहते तो बच सकते थे. आप ने बीवी की कार का पीछा क्यों किया. अच्छेभले नर्सिंग होम में बैठे रहते तो बच जाते.’’

‘‘मैं बहुत डरा हुआ था, क्योंकि वीणा के पिता के आदमी उस की सुरक्षा में लगे हुए थे. शायद हत्या की सुपारी लेने वाला अपना काम न कर पाता,’’ हीरालाल की सहानुभूति पा कर डा. सुभाष ने भी बोल दिया.

‘‘उस के आदमी चारों तरफ सुरक्षा में फैले रहते हैं. तभी तो आप आसानी से अंदर हैं.’’

शायद हीरालाल ठीक कह रहा था, वे क्या करते, जो कुछ भी हुआ वह सोचीसमझी योजना का हिस्सा नहीं था. वह सबकुछ केवल सुहानी को बचाने की जिद से हो गया. शायद उन से बचकानी हरकत हो गई. इतनी बड़ी बात को गंभीरता से नहीं लिया और नतीजे के बारे में भी नहीं सोचा था.

उन्हें लगा कि वीणा सुहानी के घर की तरफ ही जा रही है और बिना समय गंवाए उन्होंने वीणा पर गोली चला दी. सुहानी तो बच गई मगर वीणा के पिता का कुछ भरोसा नहीं. केवल उन्हें सलाखों के पीछे भेज कर वे संतुष्ट होने वाले नहीं हैं. सुभाष के जीवन से तो सबकुछ छिन गया, पत्नी भी और प्रेमिका भी.

वह 15 अगस्त का दिन था. सभी कैदियों को सुबह झंडा फहराते समय राष्ट्रगान गाना था. फिर सब को बूंदी के लड्डू दिए गए थे. सुभाष अपना लड्डू खाने का प्रयत्न कर ही रहे थे कि हीरालाल ने जल्दी से आ कर उन के कान से मुख सटा दिया और कहा, ‘‘अभीअभी इंस्पेक्टर के कमरे से सुन कर आया हूं, कह रहे थे कि डाक्टर की प्रेमिका का पता चल गया है. बहुत जल्द उसे भी गिरफ्तार कर लिया जाएगा.’’

‘‘क्या?’’ उन के हाथ से लड्डू छिटक गया. हीरालाल ने झट से लड्डू उठा लिया और बोला, ‘‘डाक्टर, मुझे पता है कि अब तुम इस लड्डू को नहीं खाओेगे. डाक्टर हो न, जमीन पर गिरा लड्डू कैसे खा सकते हो.’’

उस ने वह लड्डू भी खा लिया.

सुभाष बहुत व्याकुल हो उठे थे. वे समझ गए थे कि यह सब वीणा के पिता ने ही करवाया है. उन की आंखों से आंसू बहने लगे.

हीरा ने कहा, ‘‘यह क्या, डाक्टर साहब. आप इतने कमजोर दिल के हैं, फिर भला दूसरों के दिल का आपरेशन कैसे करते थे?’’

डाक्टर ने अपने आंसू पोंछे और कहा, ‘‘हीरा, सब को अपने अंत का पता होता है, फिर भी हम जैसों से इतनी भूल कैसे हो जाती है.’’

‘‘आप शरीफ इनसान हैं इसलिए सबकुछ शराफत के दायरे में करने की कोशिश की. काश, आप भी शातिर खिलाड़ी होते तो आज पकड़ा कोई और जाता और आप अपनी सुहानी के साथ हनीमून मना रहे होते.’’

सुभाष ने चौंक कर हीरालाल को देखा और बोले, ‘‘क्या कह रहे हो?’’

‘‘ठीक कह रहा हूं, डाक्टर. आज मैं जिस कत्ल की सजा भोग रहा हूं उस व्यक्ति को मैं ने कभी देखा ही नहीं. उस का हत्यारा बहुत शातिर और धनवान था. मुझे उलझा कर खुद मजे से घूम रहा है.’’

डाक्टर ठगे से खड़े रह गए.

‘‘डाक्टर, सच यह है कि इतने वर्षों में इस जेल के अंदर रह कर मैं ने दांवपेंच सीख लिए हैं. एक बार यहां से भागने का अवसर मिला तो उस शातिर की हत्या कर के सचमुच का हत्यारा बन जाऊंगा.’’

डा. सुभाष अपनी सोच में डूबे हुए थे, धीरे से बुदबुदाए, ‘इस से तो अच्छा था कि मुझे फांसी हो जाती.’’

इतना कहने के साथ ही उन्होंने कस कर अपनी छाती को दबाया और कराह उठे. उन का हृदय दर्द से तड़प रहा था.

‘‘डाक्टर,’’ हीरा चिल्ला उठा.

डाक्टर धीरेधीरे धरती पर गिर कर तड़पने लगे. हलचल मचते ही कई अधिकारी वहां आ गए थे. डाक्टर को स्ट्रेचर पर लिटाया गया और सिपाही चल पड़े. हीरा भाग कर वहां पहुंचा और झुक कर डाक्टर के कान में कहने की चेष्टा की कि वहां से भाग जाना पर सुभाष बेसुध हो चुके थे.

हीरा मन मसोस कर उन्हें जाता देखता रहा. सुभाष की बंद आंखों के सामने बहुत से चेहरे घूम रहे थे.

‘तुम पागल हो गए हो उस बेटी समान लड़की के लिए,’ वीणा के पुराने स्वर डाक्टर को नीमबेहोशी में सुनाई दे रहे थे. फिर सबकुछ डूबने लगा. आवाज, सांस और धुंधलाती सी पुरानी यादें. उस धुंधली छाया में बस एक छवि अटकी थी सुहानी…सुहानी.

Fictional Story

Short Story: विटामिन-पी- संजना ने कैसे किया अस्वस्थ ससुरजी को ठीक

Short Story: संजना टेबल पर खाना लगा रही थी. आज विशेष व्यंजन बनाए गए थे, ननदरानी मिथिलेश जो आई थी.

‘‘पापा, ले आओ अपनी कटोरी, खाना लग रहा है,’’ मिथिलेश ने अरुणजी से कहा.

‘‘दीदी, पापा अब कटोरी नहीं, कटोरा खाते हैं. खाने से पहले कटोरा भर कर सलाद और खाने के बाद कटोरा भर फ्रूट्स,’’ संजना मुसकराती हुई बोली.

‘‘अरे, यह चमत्कार कैसे हुआ? पापा की उस कटोरी में खूब सारे टैबलेट्स, विटामिन, प्रोटीन, आयरन, कैल्सियम होता था… कहां, कैसे, गायब हो गए?’’ मिथिलेश ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘बेटा यह चमत्कार संजना बिटिया का है,’’ कहते हुए वे पिछले दिनों में खो गए…

नईनवेली संजना ब्याह कर आई, ऐसे घर में जहां कोई स्त्री न थी. सासूमां का देहांत हो चुका था और ननद का ब्याह. घर में पति और ससुरजी, बस 2 ही प्राणी थे. ससुरजी वैसे ही कम बोलते थे और रिटायरमैंट के बाद तो बस अपनी किताबों में ही सिमट कर रह गए थे.

संजना देखती कि वे रोज खाना खाने से पहले दोनों समय एक कटोरी में खूब सारे टैबलेट्स निकाल लाते. पहले उन्हें खाते फिर अनमने से एकाध रोटी खा कर उठ जाते. रात को भी स्लीपिंग पिल्स खा कर सोते. एक दिन उस ने ससुरजी से पूछ ही लिया, ‘‘पापाजी, आप ये इतने सारे टेबलेट्स क्यों खाते हैं.’’

‘‘बेटा, अब तो जीवन इन पर ही निर्भर है, शरीर में शक्ति और रात की नींद इन के बिना अब संभव नहीं.’’

‘‘उफ पापाजी, आप ने खुद को इन का आदी बना लिया है. कल से आप मेरे हिसाब से चलेंगे. आप को प्रोटीन, विटामिन, आयरन, कैल्सियम सब मिलेगा और रात को नींद भी जम कर आएगी.’’

अगले दिन सुबह अरुणजी अखबार देख रहे थे तभी संजना ने आ कर कहा, ‘‘चलिए पापाजी, थोड़ी देर गार्डन में घूमते हैं, वहां से आ कर चाय पीएंगे.’’

संजना के कहने पर अरुणजी को उस के साथ जाना पड़ा. वहां संजना ने उन्हें हलकाफुलका व्यायाम भी करवाया और साथ ही लाफ थेरैपी दे कर खूब हंसाया.

‘‘यह लीजिए पापाजी, आप का कैल्सियम, चाय इस के बाद मिलेगी,’’ संजना ने दूध का गिलास उन्हें पकड़ाया.

नाश्ते में स्प्राउट्स दे कर कहा, ‘‘यह लीजिए भरपूर प्रोटींस. खाइए पापाजी.’’

लंच के समय अरुणजी दवाइयां निकालने लगे, तो संजना ने हाथ रोक लिया और कहा, ‘‘पापाजी, यह सलाद खाइए, इस में टमाटर, चुकंदर है, आप का आयरन और कैल्सियम. खाना खाने के बाद फू्रट्स खाइए.’’

अरुणजी उस की प्यार भरी मनुहार को टाल नहीं पाए. रात को भोजन भी उन्होंने संजना के हिसाब से ही किया. रात को संजना उन्हें फिर गार्डन में टहलाने ले गई.

‘‘चलिए पापा, अब सो जाइए.’’

अरुणजी की नजरें अपनी स्लीपिंग पिल्स की शीशी तलाशने लगीं.

‘‘लेटिए पापाजी, मैं आप के सिर की मालिश कर देती हूं,’’ कह कर उस ने अरुणजी को बिस्तर पर लिटा दिया और तेल लगा कर हलकेहलके हाथों सिर का मसाज करने लगी. कुछ ही देर में अरुणजी की नींद लग गई.

‘‘संजना, बेटी कल रात तो बहुत ही अच्छी नींद आई.’’

‘‘हां पापाजी, अब रोज ही आप को ऐसी नींद आएगी. अब आप कोई टैबलेट नहीं खाएंगे.’’

‘‘अब क्यों खाऊंगा. अब तो मुझे रामबाण औषधि मिल गई है,’’ अरुणजी गार्डन जाने के लिए तैयार होते हुए बोले.

‘‘थैंक्यू भाभी,’’ अचानक मिथिलेश की आवाज ने अरुणजी की तंद्रा भंग की.

‘‘हां बेटा, थैंक्स तो कहना ही चाहिए संजना बेटी को. इस ने मेरी सारी टैबलेट्स छुड़वा दीं. अब तो बस मैं एक ही टैबलेट खाता हूं,’’ अरुणजी बोले.

‘‘कौन सी?’’ संजना ने चौंक कर पूछा.

‘‘विटामिन-पी यानी भरपूर प्यार और परवाह.’’

Short Story

Long Story: चक्रव्यूह- सायरा को मुल्क अलग होने का क्यों हुआ फर्क

Long Story: सुबह का अखबार देखते ही मंसूर चौंक पड़ा. धूधू कर जलता ताज होटल और शहीद हुए जांबाज अफसरों की तसवीरें. उस ने लपक कर टीवी चालू किया. तब तक सायरा भी आ गई.

‘‘किस ने किया यह सब?’’ उस ने सहमे स्वर में पूछा.

‘‘वहशी दरिंदों ने.’’

तभी सायरा का मोबाइल बजा. उस की मां का फोन था.

‘‘जी अम्मी, हम ने भी अभी टीवी खोला है…मालूम नहीं लेकिन पुणे तो मुंबई से दूर है…वह तो कहीं भी कभी भी हो सकता है अम्मी…मैं कह दूंगी अम्मी… हां, नाम तो उन्हीं का लगेगा, चाहे हरकत किसी की हो…’’

‘‘सायरा, फोन बंद करो और चाय बनाओ,’’ मंसूर ने तल्ख स्वर में पुकारा, ‘‘किस की हरकत है…यह फोन पर अटकल लगाने का मुद्दा नहीं है.’’

सायरा सिहर उठी. मंसूर ने पहली बार उसे फोन करते हुए टोका था और वह भी सख्ती से.

‘‘जी…अच्छा, मैं कुछ देर बाद फोन करूंगी आप को…जी अम्मी जरूर,’’ कह कर सायरा ने मोबाइल बंद कर दिया और चाय बनाने चली गई.

टीवी देखते हुए सायरा भी चुपचाप चाय पीने लगी. पूछने या कहने को कुछ था ही नहीं. कहीं अटकलें थीं और कहीं साफ कहा जा रहा था कि विभिन्न जगहों पर हमले करने वाले पाकिस्तानी आतंकवादी थे.

‘‘आप आज आफिस मत जाओ.’’

इस से पहले कि मंसूर जवाब देता दरवाजे की घंटी बजी. उस का पड़ोसी और सहकर्मी सेसिल अपनी बीवी जेनेट के साथ खड़ा था.

‘‘लगता है तुम दोनों भी उसी बहस में उलझ कर आए हो जिस में सायरा मुझे उलझाना चाह रही है,’’ मंसूर हंसा, ‘‘कहर मुंबई में बरस रहा है और हमें पुणे में, बिल में यानी घर में दुबक कर बैठने को कहा जा रहा है.’’

‘‘वह इसलिए बड़े भाई कि अगला निशाना पुणे हो सकता है,’’ जेनेट ने कहा, ‘‘वैसे भी आज आफिस में कुछ काम नहीं होगा, सब लोग इसी खबर को ले कर ताव खाते रहेंगे.’’

‘‘खबर है ही ताव खाने वाली, मगर जेनी की यह बात तो सही है मंसूर कि आज कुछ काम होगा नहीं.’’

‘‘यह तो है सेसिल, शिंदे साहब का बड़ा भाई ओबेराय में काम करता है और बौस का तो घर ही कोलाबा में है. इसलिए वे लोग तो आज शायद ही आएं. और लोगों को फोन कर के पूछते हैं,’’ मंसूर बोला.

‘‘जब तक आप लोग फोन करते हैं मैं और जेनी नाश्ता बना लेते हैं, इकट्ठे ही नाश्ता करते हुए तय करना कि जाना है या नहीं,’’ कह कर सायरा उठ खड़ी हुई.

‘‘यह ठीक रहेगा. मेरे यहां जो कुछ अधबना है वह यहीं ले आती हूं,’’ कह कर जेनेट अपने घर चली गई. यह कोई नई बात नहीं थी. दोनों परिवार अकसर इकट्ठे खातेपीते थे लेकिन आज टीवी के दृश्यों से माहौल भारी था. सेसिल और मंसूर बीचबीच में उत्तेजित हो कर आपत्तिजनक शब्द कह उठते थे, जेनी और सायरा अपनी भरी आंखें पोंछ लेती थीं तभी फिर मोबाइल बजा. सायरा की मां का फोन था.

‘‘जी अम्मी…अभी वही बात चल रही है…दोस्तों से पूछ रहे हैं…हो सकता है हो, अभी तो कुछ सुना नहीं…कुछ मालूम पड़ा तो जरूर बताऊंगी.’’

‘‘फोन मुझे दो, सायरा,’’ मंसूर ने लपक कर मोबाइल ले लिया, ‘‘देखिए अम्मीजान, जो आप टीवी पर देख रही हैं वही हम भी देख रहे हैं इसलिए क्या हो रहा है उस बारे में फोन पर तबसरा करना इस माहौल में सरासर हिमाकत है. बेहतर रहे यहां फोन करने के बजाय आप हकीकत मालूम करने को टीवी देखती रहिए.’’

मोबाइल बंद कर के मंसूर सायरा की ओर मुड़ा, ‘‘टीवी पर जो अटकलें लगाई जा रही हैं वह फोन पर दोहराने वाली नहीं हैं खासकर लाहौर की लाइन पर.’’

‘‘आज के जो हालात हैं उन में लाहौर से तो लाइन मिलानी ही नहीं चाहिए. माना कि तुम कोई गलत बात नहीं करोगी सायरा, लेकिन देखने वाले सिर्फ यह देखेंगे कि तुम्हारी कितनी बार लाहौर से बात हुई है, यह नहीं कि क्या बात हुई है,’’ सेसिल ने कहा.

‘‘सायरा, अपनी अम्मी को दोबारा यहां फोन करने से मना कर दो,’’ मंसूर ने हिदायत के अंदाज में कहा.

‘‘आप जानते हैं इस से अम्मी को कितनी तकलीफ होगी.’’

‘‘उस से कम जितनी उन्हें यह सुन कर होगी कि पुलिस ने हमारे लाहौर फोन के ताल्लुकात की वजह से हमें हिरासत में ले लिया है,’’ मंसूर चिढ़े स्वर में बोला.

‘‘आप भी न बड़े भाई बात को कहां से कहां ले जाते हैं,’’ जेनेट बोली, ‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा लेकिन फिर भी एहतियात रखनी तो जरूरी है सायरा. अब जब अम्मी का फोन आए तो उन्हें भी यह समझा देना.’’

दूसरे सहकर्मियों को फोन करने के बाद सेसिल और मंसूर ने भी आफिस जाने का फैसला कर लिया.

‘‘मोबाइल पर नंबर देख कर ही फोन उठाना सायरा, खुद फोन मत करना, खासकर पाकिस्तान में किसी को भी,’’ मंसूर ने जातेजाते कहा.

मंसूर ने रोज की तरह अपना खयाल रखने को नहीं कहा. वैसे आज जेनी और सेसिल ने भी ‘फिर मिलते हैं’ नहीं कहा था.

सायरा फूटफूट कर रो पड़ी. क्या चंद लोगों की वहशियाना हरकत की वजह से सब की प्यारी सायरा भी नफरत के घेरे में आ गई?

नौकरानी न आती तो सायरा न जाने कब तक सिसकती रहती. उस ने आंखें पोंछ कर दरवाजा खोला. सक्कू बाई ने उस से तो कुछ नहीं पूछा मगर श्रीमती साहनी को न जाने क्या कहा कि वह कुछ देर बाद सायरा का हाल पूछने आ गईं. सायरा तब तक नहा कर तैयार हो चुकी थी लेकिन चेहरे की उदासी और आंसुओं के निशान धुलने के बावजूद मिटे नहीं थे.

‘‘सायरा बेटी, मुंबई में कोई अपना तो परेशानी में नहीं है न?’’

‘‘मुंबई में तो हमारा कोई है ही नहीं, आंटी.’’

‘‘तो फिर इतनी परेशान क्यों लग रही हो?’’

साहनी आंटी से सायरा को वैसे भी लगाव था. उन के हमदर्दी भरे लफ्ज सुनते ही वह फफक कर रो पड़ी. रोतेरोते ही उस ने बताया कि सब ने कैसे उसे लाहौर बात करने से मना किया है. मंसूर ने अम्मी से तल्ख लफ्जों में क्या कहा, यह भी नहीं सोचा कि उन्हें मेरी कितनी फिक्र हो रही होगी. ऐसे हालात में वह बगैर मेरी खैरियत जाने कैसे जी सकेंगी?

‘‘हालात को समझो बेटा, किसी ने आप से कुछ गलत करने को नहीं कहा है. अगर किसी को शक हो गया तो आप की ही नहीं पूरी बिल्ंिडग की शामत आ सकती है. लंदन में तेरा भाई सरवर है न इसलिए अपनी खैरखबर उस के जरिए मम्मी को भेज दिया कर.’’

‘‘पता नहीं आंटी, उस से भी बात करने देंगे या नहीं?’’

‘‘हालात को देखते हुए न करो तो बेहतर है. रंजीत ने तुझे बताया था न कि वह सरवर को जानता है.’’

‘‘हां, आंटी दोनों एक ही आफिस में काम करते हैं,’’ सायरा ने उम्मीद से आंटी की ओर देखा, ‘‘क्या आप मेरी खैरखबर रंजीत भाई के जरिए सरवर को भेजा करेंगी?’’

‘‘खैरखबर ही नहीं भेजूंगी बल्कि पूरी बात भी समझा दूंगी,’’ श्रीमती साहनी ने घड़ी देखी, ‘‘अभी तो रंजीत सो रहा होगा, थोड़ी देर के बाद फोन करूंगी. देखो बेटाजी, हो सकता है हमेशा की तरह चंद दिनों में सब ठीक हो जाए और हो सकता है और भी खराब हो जाए, इसलिए हालात को देखते हुए अपने जज्बात पर काबू रखो. आतंकवादी और उन के आकाओं की लानतमलामत को अपने लिए मत समझो और न ही यह समझो कि तुम्हें तंग करने को तुम से रोकटोक की जा रही…’’ श्रीमती साहनी का मोबाइल बजा. बेटे का लंदन से फोन था.

‘‘बस, टीवी देख रहे हैं…फिलहाल तो पुणे में सब ठीक ही है. पापा काम पर गए. मैं सायरा के पास आई हुई हूं. परेशान है बेचारी…उस की मां का यहां फोन करना मुनासिब नहीं है न…हां, तू सरवर को यह बात समझा देना…वह भी ठीक रहेगा. वैसे तू उसे बता देना कि हमारे यहां तो कसूरवार को भी तंग नहीं करते तो बेकसूर को क्यों परेशान करेंगे, उसे सायरा की फिक्र करने की जरूरत नहीं है.’’

श्रीमती साहनी मोबाइल बंद कर के सायरा की ओर मुड़ीं, ‘‘रंजीत सरवर को बता देगा कि वह मेरे मोबाइल पर तुम से बात करे. वीडियो कानफें्रस कर तुम दोनों बहनभाइयों की मुलाकात करवा देंगे.’’

‘‘शुक्रिया, आंटीजी…’’

‘‘यह तो हमारा फर्ज है बेटाजी,’’ श्रीमती साहनी उठ खड़ी हुईं.

उन के जाने के बाद सायरा ने राहत की सांस ली. हालांकि सरवर के जरिए अम्मी को उस की खैरखबर भिजवाने की जिम्मेदारी और सरवर के साथ वीडियो कानफें्रसिंग करवाने की बात कर के आंटी ने उसे बहुत राहत दी थी मगर उन का यह कहना ‘हमारे यहां तो कसूरवार को भी तंग नहीं करते तो बेकसूर को क्यों परेशान करेंगे’ या ‘यह तो हमारा फर्ज है’ उसे खुद और अपने मुल्क पर कटाक्ष लगा. वह कहना चाहती थी कि आप लोगों की अपने मुंह मिया मिट्ठू बनने और एहसान चढ़ाने की आदत से चिढ़ कर ही तो लोग आप को मजा चखाने की सोचते हैं.

सायरा को लंदन स्कूल औफ इकनोमिक्स के वे दिन याद आ गए जब पढ़ाई के दबाव के बावजूद वह और मंसूर एकदूसरे के साथ वहां के धुंधले सर्द दिनों में इश्क की गरमाहट में रंगीन सपने देखते थे. सुनने वालों को तो यकीन नहीं होता था लेकिन पहली नजर में ही एकदूसरे पर मर मिटने वाले मंसूर और सायरा को एकदूसरे के बारे में सिवा नाम के और कुछ मालूम नहीं था.

अंतिम वर्ष में एक रोज जिक्र छिड़ने पर कि नौकरी की तलाश के लिए कौन क्या कर रहा है, सायरा ने मुंह बिचका कर कहा था, ‘नौकरी की तलाश और वह भी यहां? यहां रह कर पढ़ाई कर ली वही बहुत है.’

‘तुम ने तो मेरे खयालात को जबान दे दी, सायरा,’ मंसूर फड़क कर बोला, ‘मैं भी डिगरी मिलते ही अपने वतन लौट जाऊंगा.’

‘वहां जा कर करोगे क्या?’

‘सब से पहले तो सायरा से शादी, फिर हनीमून और उस के बाद रोजीरोटी का जुगाड़,’ मंसूर सायरा की ओर मुड़ा, ‘क्यों सायरा, ठीक है न?’

‘ठीक कैसे हो सकता है यार?’ हरभजन ने बात काटी, ‘वतन लौट कर सायरा से शादी कैसे करेगा?’

‘क्यों नहीं कर सकता? मेरे घर वाले शियासुन्नी मजहब में यकीन नहीं करते और वैसे भी हम दोनों पठान यानी खान हैं.’

‘लेकिन हो तो हिंदुस्तानी- पाकिस्तानी. दोनों मुल्कों के बाशिंदों को नागरिकता या लंबा वीसा आसानी से नहीं मिलता,’ हरभजन ने कहा.

सायरा और मंसूर ने चौंक कर एकदूसरे को देखा.

‘क्या कह रहा है हरभजन? सायरा भी पंजाब से है…’

‘बंटवारे के बाद पंजाब के 2 हिस्से हो गए जिन में से एक में तुम रहते हो और एक में सायरा यानी अलगअलग मुल्कों में.’

‘क्या यह ठीक कह रहा है सायरा?’ मंसूर की आवाज कांप गई.

‘हां, मैं पंजाब यानी लाहौर से हूं.’

‘और मैं लुधियाना से,’ मंसूर ने भर्राए स्वर में कहा, ‘माना कि हम से गलती हुई है, हम ने एकदूसरे को अपने शहर या मुल्क के बारे में नहीं बताया लेकिन अगर बता भी देते तो फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि फिदा तो हम एकदूसरे पर नाम जानने से पहले ही हो चुके थे.’

‘जो हो गया सो हो गया लेकिन अब क्या करोगे?’ दिव्या ने पूछा.

‘मरेंगे और क्या?’ मंसूर बोला.

‘मरना तो हर हाल ही में है क्योंकि अलग हो कर तो जी नहीं सकते सो बेहतर है इकट्ठे मर जाएं,’ सायरा बोली.

‘बुजदिली और जज्बातों की बातें करने के बजाय अक्ल से काम लो,’ अब तक चुप बैठा राजीव बोला, ‘तुम यहां रहते हुए आसानी से शादी कर सकते हो.’

‘शादी के बाद मैं इसे लुधियाना ले कर जा सकता हूं?’ मंसूर ने उतावली से पूछा.

‘शायद.’

‘तब तो बात नहीं बनी. मैं अपना देश नहीं छोड़ सकता.’

‘मैं भी नहीं,’ सायरा बोली.

‘न मुल्क छोड़ सकते हो न एकदूसरे को और मरना भी एकसाथ चाहते हो तो वह तो यहीं मुमकिन होगा इसलिए जब यहीं मरना है तो क्यों नहीं शादी कर के एकसाथ जीने के बाद मरते,’ हरभजन ने सलाह दी.

‘हालात को देखते हुए यह सही सुझाव है,’ राजीव बोला.

‘घर वालों को बता देते हैं कि परीक्षा के बाद यहां आ कर हमारी शादी करवा दें,’ मंसूर ने कहा.

‘मेरी अम्मी तो आजकल यहीं हैं, अब्बू भी अगले महीने आ जाएंगे,’ सायरा बोली, ‘तब मैं उन से बात करूंगी. तुम्हें अगर अपने घर वालों को बुलाना है तो अभी बात करनी होगी.’

‘ठीक है, आज ही तफसील से सब लिख कर ईमेल कर देता हूं.’

‘तुम भी सायरा आज ही अपनी अम्मी से बात करो, उन लोगों की रजामंदी मिलनी इतनी आसान नहीं है,’ राजीव ने कहा.

राजीव का कहना ठीक था. दोनों के घर वालों ने सुनते ही कहा कि यह शादी नहीं सियासी खुदकुशी है. खतरा रिश्तेदारों से नहीं मुल्क के आम लोगों से था, दोनों मुल्कों में तनातनी तो चलती रहती थी और दोनों मुल्कों के अवाम खुनस में उन्हें नुकसान पहुंचा सकते थे.

सायरा की अम्मी ने तो साफ कहा कि शादी के बाद हरेक लड़की को दूसरे घर का रहनसहन और तौरतरीके अपनाने पड़ते हैं लेकिन सायरा को तो दूसरे मुल्क और पूरी कौम की तहजीब अपनानी पड़ेगी.

‘तुम्हारी इस हरकत से हमारी शहर में जो इज्जत और साख है वह मिट्टी में मिल जाएगी. लोग हमें शक की निगाहों से देखने लगेंगे और इस का असर कारोबार पर भी पड़ेगा,’ मंसूर के अब्बा बशीर खान का कहना था.

घर वालों ने जो कहा था उसे नकारा नहीं जा सकता था लेकिन एकदूसरे से अलग होना भी मंजूर नहीं था इसलिए दोनों ने घर वालों को यह कह कर मना लिया कि वे शादी के बाद लंदन में ही रहेंगे और उन लोगों को सिवा उन के नाम के किसी और को कुछ बताने की जरूरत नहीं है. उन की जिद के आगे घर वाले भी बेदिली से मान गए. वैसे दोनों ही पंजाबी बोलते थे और तौरतरीके भी एक से थे. शादी हंसीखुशी से हो गई.

कुछ रोज मजे में गुजरे लेकिन दोनों को ही लंदन पसंद नहीं था. दोस्तों का कहना था कि दुबई या सिंगापुर चले जाओ लेकिन मंसूर लुधियाना में अपने पुश्तैनी कारोबार को बढ़ाना चाहता था. भारतीय उच्चायोग से संपर्क करने पर पता चला कि उस की ब्याहता की हैसियत से सायरा अपने पाकिस्तानी पासपोर्ट पर उस के साथ भारत जा सकती थी. सायरा को भी एतराज नहीं था, वह खुश थी कि समझौता एक्सप्रेस से लाहौर जा सकती थी, अपने घर वालों को भी बुला सकती थी लेकिन बशीर खान को एतराज था. उन का कहना था कि सायरा की असलियत छिपाना आसान नहीं था और पंजाब में उस की जान को खतरा हो सकता था.

उन्होंने मंसूर को सलाह दी कि वह पंजाब के बजाय पहले किसी और शहर में नौकरी कर के तजरबा हासिल करे और फिर वहीं अपना व्यापार जमा ले. बशीर खान ने एक दोस्त के रसूक से मंसूर को पुणे में एक अच्छी नौकरी दिलवा दी. काम और जगह दोनों ही मंसूर को पसंद थे, दोस्त भी बन गए थे लेकिन उसे हमेशा अपने घर का सुख और बचपन के दोस्त याद आते थे और वह बड़ी हसरत से सोचता था कि कब दोनों मुल्कों के बीच हालात सुधरेंगे और वह सायरा को ले कर अपनों के बीच जा सकेगा.

सब की सलाह पर सायरा ने नौकरी नहीं की थी. हालांकि पैसे की कोई कमी नहीं थी लेकिन घर बैठ कर तालीम को जाया करना उसे अच्छा नहीं लगता था और वैसे भी घर में उस का दम घुटता था. अच्छी सहेलियां जरूर बनी थीं पर कब तक आप किसी से फोन पर बात कर सकती थीं या उन के घर जा सकती थीं.

मंसूर के प्यार में कोई कमी नहीं थी, फिर भी पुणे आने के बाद सायरा को एक अजीब से अजनबीपन का एहसास होने लगा था लेकिन उसे इस बात का कतई गिला नहीं था कि उस ने क्यों मंसूर से प्यार किया या क्यों सब को छोड़ कर उस के साथ चली आई.

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Hindi Drama Story: इसमें गलत क्या है- क्या रमा बड़ी बहन को समझा पाई

Hindi Drama Story: मेरी छोटी बहन रमा मुझे समझा रही है और मुझे वह अपनी सब से बड़ी दुश्मन लग रही है. यह समझती क्यों नहीं कि मैं अपने बच्चे से कितना प्यार करती हूं.

‘‘मोह उतना ही करना चाहिए जितना सब्जी में नमक. जिस तरह सादी रोटी बेस्वाद लगती है, खाई नहीं जाती उसी तरह मोह के बिना संसार अच्छा नहीं लगता. अगर मोह न होता तो शायद कोई मां अपनी संतान को पाल नहीं पाती. गंदगी, गीले में पड़ा बच्चा मां को क्या किसी तरह का घिनौना एहसास देता है? धोपोंछ कर मां उसे छाती से लगा लेती है कि नहीं. तब जब बच्चा कुछ कर नहीं सकता, न बोल पाता है और न ही कुछ समझा सकता है.

‘‘तुम्हारे मोह की तरह थोड़े न, जब बच्चा अपने परिवार को पालने लायक हो गया है और तुम उस की थाली में एकएक रोटी का हिसाब रख रही हो, तो मुझे कई बार ऐसा भी लगता है जैसे बच्चे का बड़ा होना तुम्हें सुहाया ही नहीं. तुम को अच्छा नहीं लगता जब सुहास अपनेआप पानी ले कर पी लेता है या फ्रिज खोल कर कुछ निकालने लगता है. तुम भागीभागी आती हो, ‘क्या चाहिए बच्चे, मुझे बता तो?’

‘‘क्यों बताए वह तुम्हें? क्या उसे पानी ले कर पीना नहीं आता या बिना तुम्हारी मदद के फल खाना नहीं आएगा? तुम्हें तो उसे यह कहना चाहिए कि वह एक गिलास पानी तुम्हें भी पिला दे और सेब निकाल कर काटे. मौसी आई हैं, उन्हें भी खिलाए और खुद भी खाए. क्या हो जाएगा अगर वह स्वयं कुछ कर लेगा, क्या उसे अपना काम करना आना नहीं चाहिए? तुम क्यों चाहती हो कि तुम्हारा बच्चा अपाहिज बन कर जिए? जराजरा सी बात के लिए तुम्हारा मुंह देखे? क्यों तुम्हारा मन दुखी होता है जब बच्चा खुद से कुछ करता है? उस की पत्नी करती है तो भी तुम नहीं चाहतीं कि वह करे.’’

‘‘तो क्या हमारे बच्चे बिना प्यार के पल गए? रातरात भर जाग कर हम ने क्या बच्चों की सेवा नहीं की? वह सेवा उस पल की जरूरत थी इस पल की नहीं. प्यार को प्यार ही रहने दो, अपने गले की फांसी मत बना लो, जिस का दूसरा सिरा बच्चे के गले में पड़ा है. इधर तुम्हारा फंदा कसता है उधर तुम्हारे बच्चे का भी दम घुटता है.’’

‘‘सुहास ने तुम से कुछ कहा है क्या? क्या उसे मेरा प्यार सुहाता नहीं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अरे नहीं, दीदी, वह ऐसा क्यों कहेगा. तुम बात को समझना तो चाहती नहीं हो, इधरउधर के पचड़े में पड़ने लगती हो. उस ने कुछ नहीं कहा. मैं जो देख रही हूं उसी आधार पर कह रही हूं. कल तुम भावना से किस बात पर उलझ रही थीं, याद है तुम्हें?’’

‘‘मैं कब उलझी? उस ने तेरे आने पर इतनी मेहनत से कितना सारा खाना बनाया. कम से कम एक बार मुझ से पूछ तो लेती कि क्या बनाना है.’’

‘‘क्यों पूछ लेती? क्या जराजरा सी बात तुम से पूछना जरूरी है? अरे, वही

4-5 दालें हैं और वही 4-6 मौसम की सब्जियां. यह सब्जी न बनी, वह बन गई, दाल में टमाटर का तड़का न लगाया, प्याज और जीरे का लगा लिया. भिंडी लंबी न काटी गोल काट ली. मेज पर नई शक्ल की सब्जी आई तो तुम ने झट से नाकभौं सिकोड़ लीं कि भिंडी की जगह परवल क्यों नहीं बनाए. गुलाबी डिनर सैट क्यों निकाला, सफेद क्यों नहीं. और तो और, मेजपोश और टेबल मैट्स पर भी तुम ने उसे टोका, मेरे ही सामने. कम से कम मेरा तो लिहाज करतीं. वह बच्ची नहीं है जिसे तुम ने इतना सब बिना वजह सुनाया.

‘‘सच तो यह है, इतनी सुंदर सजी मेज देख कर तुम से बरदाश्त ही नहीं हुआ. तुम से सहा ही नहीं गया कि तुम्हारे सामने किसी ने इतना अच्छा खाना सजा दिया. तुम्हें तो प्रकृति का शुक्रगुजार होना चाहिए कि बैठेबिठाए इतना अच्छा खाना मिल जाता है. क्या सारी उम्र काम करकर के तुम थक नहीं गईं? अभी भी हड्डियों में इतना दम है क्या, जो सब कर पाओ? एक तरफ तो कहती हो तुम से काम नहीं होता, दूसरी तरफ किसी का किया तुम से सहा नहीं जाता. आखिर चाहती क्या हो तुम?

‘‘तुम तो अपनी ही दुश्मन आप बन रही हो. क्या कमी है तुम्हारे घर में? आज्ञाकारी बेटा है, समझदार बहू है. कितनी कुशलता से सारा घर संभाल रही है. तुम्हारे नातेरिश्तेदारों का भी पूरा खयाल रखती है न. कल सारा दिन वह मेरे ही आगेपीछे डोलती रही. ‘मौसी यह, मौसी वह,’ मैं ने उसे एक पल के लिए भी आराम करते नहीं देखा और तुम ने रात मेज पर उस की सारे दिन की खुशी पर पानी फेर दिया, सिर्फ यह कह कर कि…’’

चुप हो गई रमा लेकिन भन्नाती रही देर तक. कुछ बड़बड़ भी करती रही. थोड़ी देर बाद रमा फिर बोलने लगी, ‘‘तुम क्यों बच्चों की जरूरत बन कर जीना चाहती हो? ठाट से क्यों नहीं रहती हो. यह घर तुम्हारा है और तुम मालकिन हो. बच्चों से थोड़ी सी दूरी रखना सीखो. बेटा बाहर से आया है तो जाने दो न उस की पत्नी को पानी ले कर. चायनाश्ता कराने दो. यह उस की गृहस्थी है. उसी को उस में रमने दो. बहू को तरहतरह के व्यंजन बनाने का शौक है तो करने दो उसे तजरबे, तुम बैठी बस खाओ. पसंद न भी आए तो भी तारीफ करो,’’ कह कर रमा ने मेरा हाथ पकड़ा.

‘‘सब गुड़गोबर कर दे तो भी तारीफ करूं,’’ हाथ खींच लिया था मैं ने.

‘‘जब वह खुद खाएगी तब क्या उसे पता नहीं चलेगा कि गुड़ का गोबर हुआ है या नहीं. अच्छा नहीं बनेगा तो अपनेआप सुधारेगी न. यह उस के पति का घर है और इस घर में एक कोना उसे ऐसा जरूर मिलना चाहिए जहां वह खुल कर जी सके, मनचाहा कर सके.’’

‘‘क्या मनचाहा करने दूं, लगाम खींच कर नहीं रखूंगी तो मेरी क्या औकात रह जाएगी घर में. अपनी मरजी ही करती रहेगी तो मेरे हाथ में क्या रहेगा?’’

‘‘अपने हाथ में क्या चाहिए तुम्हें, जरा समझाओ? बच्चों का खानापीना या ओढ़नाबिछाना? भावना पढ़ीलिखी, समझदार लड़की है. घर संभालती है, तुम्हारी देखभाल करती है. तुम जिस तरह बातबात पर तुनकती हो उस पर भी वह कुछ कहती नहीं. क्या सब तुम्हारे अधिकार में नहीं है? कैसा अधिकार चाहिए तुम्हें, समझाओ न?

‘‘तुम्हारी उम्र 55 साल हो गई. तुम ने इतने साल यह घर अपनी मरजी से संभाला. किसी ने रोका तो नहीं न. अब बहू आई है तो उसे भी अपनी मरजी करने दो न. और ऐसी क्या मरजी करती है वह? अगर घर को नए तरीके से सजा लेगी तो तुम्हारा अधिकार छिन जाएगा? सोफा इधर नहीं, उधर कर लेगी, नीले परदे न लगाए लाल लगा लेगी, कुशन सूती नहीं रेशमी ले आएगी, तो क्या? तुम से तो कुछ मांगेगी नहीं न?

‘‘इसी से तुम्हें लगता है तुम्हारा अधिकार हाथ से निकल गया. कस कर अपने बेटे को ही पकड़ रही हो…उस का खानापीना, उस का कुछ भी करना… अपनी ममता को इतना तंग और संकुचित मत होने दो, दीदी, कि बेटे का दम ही घुट जाए. तुम तो दोनों की मां हो न. इतनी तंगदिल मत बनो कि बच्चे तुम्हारी ममता का पिंजरा तोड़ कर उड़ जाएं. बहू तुम्हारी प्रतिद्वंद्वी नहीं है. तुम्हारी बच्ची है. बड़ी हो तुम. बड़ों की तरह व्यवहार करो. तुम तो बहू के साथ किसी स्पर्धा में लग रही हो. जैसे दौड़दौड़ कर मुकाबला कर रही हो कि देखो, भला कौन जीतता है, तुम या मैं.

‘‘बातबात में उसे कोसो मत वरना अपना हाथ खींच लेगी वह. अपना चाहा भी नहीं करेगी. तुम से होगा नहीं. अच्छाभला घर बिगड़ जाएगा. फिर मत कहना, बहू घर नहीं देखती. वह नौकरानी तो है नहीं जो मात्र तुम्हारा हुक्म बजाती रहेगी. यह उस का भी घर है. तुम्हीं बताओ, अगर उसे अपना घर इस घर में न मिला तो क्या कहीं और अपना घर ढूंढ़ने का प्रयास नहीं करेगी वह? संभल जाओ, दीदी…’’

रमा शुरू से दोटूक ही बात करती आई है. मैं जानती हूं वह गलत नहीं कह रही मगर मैं अपने मन का क्या करूं. घर के चप्पेचप्पे पर, हर चीज पर मेरी ही छाप रही है आज तक. मेरी ही पसंद रही है घर के हर कोने पर. कौन सी चादर, कौन सा कालीन, कौन सा मेजपोश, कौन सा डिनर सैट, कौन सी दालसब्जी, कौन सा मीठा…मेरा घर, मैं ने कभी किसी के साथ इसे बांटा नहीं. यहां तक कि कोने में पड़ी मेज पर पड़ा महंगा ‘बाऊल’ भी जरा सा अपनी जगह से हिलता है तो मुझे पता चल जाता है. ऐसी परिस्थिति में एक जीताजागता इंसान मेरी हर चीज पर अपना ही रंग चढ़ा दे, तो मैं कैसे सहूं?

‘‘भावना का घर कहां है, दीदी, जरा मुझे समझाओ? तुम्हें जब मां ने ब्याह कर विदा किया था तब यही समझाया था न कि तुम्हारी ससुराल ही तुम्हारा घर है. मायका पराया घर और ससुराल अपना. इस घर को तुम ने भी मन से अपनाया और अपने ही रंग में रंग भी लिया. तुम्हारी सास तुम्हारी तारीफ करते नहीं थकती थीं. तुम गुणी थीं और तुम्हारे गुणों का पूरापूरा मानसम्मान भी किया गया. सच पूछो तो गुणों का मान किया जाए तभी तो गुण गुण हुए न. तुम्हारी सास ने तुम्हारी हर कला का आदर किया तभी तो तुम कलावंती, गुणवंती हुईं.

वे ही तुम्हारी कीमत न जानतीं तो तुम्हारा हर गुण क्या कचरे के ढेर में नहीं समा जाता? तुम्हें घर दिया गया तभी तो तुम घरवाली हुई थीं. अब तुम भी अपनी बहू को उस का घर दो ताकि वह भी अपने गुणों से घर को सजा सके.’’

रमा मुझे उस रात समझाती रही और उस के बाद जाने कितने साल समझाती रही. मैं समझ नहीं पाई. मैं समझना भी नहीं चाहती. शायद, मुझे प्रकृति ने ऐसा ही बनाया है कि अपने सिवा मुझे कोई भी पसंद नहीं. अपने सिवा मुझे न किसी की खुशी से कुछ लेनादेना है और न ही किसी के मानसम्मान से. पता नहीं क्यों हूं मैं ऐसी. पराया खून अपना ही नहीं पाती और यह शाश्वत सत्य है कि बहू का खून होता ही पराया है.

आज रमा फिर से आई है. लगभग 9 साल बाद. उस की खोजी नजरों से कुछ भी छिपा नहीं. भावना ने चायनाश्ता परोसा, खाना भी परोसा मगर पहले जैसा कुछ नहीं लगा रमा को. भावना अनमनी सी रही.

‘‘रात खाने में क्या बनाना है?’’ भावना बोली, ‘‘अभी बता दीजिए. शाम को मुझे किट्टी पार्टी में जाना है देर हो जाएगी. इसलिए अभी तैयारी कर लेती हूं.’’

‘‘आज किट्टी रहने दो. रमा क्या सोचेगी,’’ मैं ने कहा.

‘‘आप तो हैं ही, मेरी क्या जरूरत है. समय पर खाना मिल जाएगा.’’

बदतमीज भी लगी मुझे भावना इस बार. पिछली बार रमा से जिस तरह घुलमिल गई थी, इस बार वैसा कुछ नहीं लगा. अच्छा ही है. मैं चाहती भी नहीं कि मेरे रिश्तेदारों से भावना कोई मेलजोल रखे.

मेरा सारा घर गंदगी से भरा है. ड्राइंगरूम गंदा, रसोई गंदी, आंगन गंदा. यहां तक कि मेरा कमरा भी गंदा. तकियों में से सीलन की बदबू आ रही है. मैं ने भावना से कहा था, उस ने बदले नहीं. शर्म आ रही है मुझे रमा से. कहां बिठाऊं इसे. हर तरफ तो जाले लटक रहे हैं. मेज पर मिट्टी है. कल की बरसात का पानी भी बरामदे में भरा है और भावना को घर से भागने की पड़ी है.

‘‘घर वही है मगर घर में जैसे खुशियां नहीं बसतीं. पेट भरना ही प्रश्न नहीं होता. पेट से हो कर दिल तक जाने वाला रास्ता कहीं नजर नहीं आता, दीदी. मैं ने समझाया था न, अपनेआप को बदलो,’’ आखिरकार कह ही दिया रमा ने.

‘‘तो क्या जाले, मिट्टी साफ करना मेरा काम है?’’

‘‘ये जाले तुम ने खुद लगाए हैं, दीदी. उस का मन ही मर चुका है, उस की इच्छा ही नहीं होती होगी अब. यह घर उस का थोड़े ही है जिस में वह अपनी जानमारी करे. सच पूछो तो उस का घर कहीं नहीं है. बेटा तुम से बंधा कहीं जा नहीं सकता और अपना घर तुम ने बहू को कभी दिया नहीं.

‘‘मैं ने समझाया था न, एक दिन तुम्हारा घर बिगड़ जाएगा. आज तुम से होता नहीं और वह अपना चाहा भी नहीं करती. मनमन की बात है न. तुम अपने मन का करती रहीं, वह अपने मन का करती रही. यही तो होना था, दीदी. मुझे यही डर था और यही हो रहा है. मैं ने समझाया था न.’’

रमा के चेहरे पर पीड़ा है और मैं यही सोच कर परेशान हूं कि मैं ने गलती कहां की है. अपना घर ही तो कस कर पकड़ा है. आखिर इस में गलत क्या है?

Hindi Drama Story

Family Kahani: मन से मन का जोड़

Family Kahani: मोती से मिल कर धागा और गंगाजल के कारण जैसे साधारण पात्र भी कीमती हो जाता है, वैसे ही छवि भी मनोज से विवाह कर इतनी मंत्रमुग्ध थी कि अपनी किस्मत पर गर्व करती जैसे सातवें आसमान पर ही थी. उस का नया जीवन आरंभ हो रहा था.

हालांकि अमरोहा के इतने बड़े बंगले और बागबगीचों वाला पीहर छोड़ कर गाजियाबाद आ कर किराए के छोटे से मकान में रहना यों आसान नहीं होता, मगर मनोज और उस के स्नेह की डोर में बंध कर वह सब भूल गई.

मनोज के साथ नई गृहस्थी, नया सामान, सब नयानया, वह हर रोज मगन रहती और अपनी गृहस्थी में कुछ न कुछ प्रयोग या फेरबदल करती. इसी तरह पूरे 2 साल निकल गए.

मगर, कहावत है ना कि ‘सब दिन होत न एक समान‘ तो अब छवि के जीवन में प्यार का प्याला वैसा नहीं छलक रहा था, जैसा 2 साल पहले लबालब रहता था.

यों तो कोई खास दिक्कत नहीं थी, मगर छवि कुछ और पहनना चाहती तो मनोज कुछ और पहनने की जिद करता. यह दुपट्टा ऐसे ओढ़ो, यह कुरता वापस फिटिंग के लिए दे दो वगैरह.

मनोज हर बात में दखलअंदाजी करता था, जो छवि को कभीकभी बहुत ही चुभ जाती थी. बाहर की बातें, बाहर के मामले तो छवि सहन कर लेती थी, मगर यह कप यहां रखो, बरतन ऐसे रखो वगैरह रोकटोक कर के मनोज रसोई तक में टीकाटिप्पणी से बाज नहीं आता था.

परसों तो हद ही हो गई. छवि पूरे एक सप्ताह तक बुखार और सर्दी से जूझ रही थी, मगर मनोज तब भी हर पल कुछ न कुछ बोलने से बाज नहीं आ रहा था. छवि जरा एकांत चाहती थी और खामोश रह कर बीमारी से लड़ रही थी, मगर मनोज हर समय रायमशवरा दे कर उस को इतना पागल कर चुका था कि वह पक गई थी.

तब तो हद पार हो गई, जब वह सहन नहीं कर सकी. हुआ यह था कि अपने फोन पर पसंदीदा पुराने गीत लगा कर जब किसी तरह वह रसोई में जा कर नाश्ता वगैरह तैयार करने लगी और मनोज ने आदतन बोलना शुरू कर दिया, ‘‘छवि, यह नहीं यह वाले बढ़िया गाने सुनो,‘‘ और फिर वह रुका नहीं, ‘‘छवि, यह भिंडी ऐसे काटना, वो बींस वैसे साफ करना, उस लहसुन को ऐसे छीलना,‘‘ बस, अब तो छवि ने तमतमा कर चीखनाचिल्लाना शुरू कर दिया, ‘‘ये लो, यह पकड़ो अपने घर की चाबी. यह रहा पर्स, यह रहे बचत के रुपए और यह रहे 500 रुपए, बस यही ले जा रही हूं… और जा रही हूं,‘‘ कह कर छवि ने बड़बड़ाते हुए बाहर आ कर रिकशा किया और सीधा बस स्टैंड चल दी.

बस तैयार खड़ी थी. छवि को सीट भी मिल गई. वह पूरे रास्ते यही सोचती रही, ‘‘अब इस टोकाटाकी करने वाले मनोज नामक व्यक्ति के पास कभी जाएगी ही नहीं, कभी नहीं.‘‘

महज 4 घंटे में वह पीहर पहुंच गई. वह पीहर, जहां वह पूरे 2 साल में बस एक बार पैर फिराने और दूसरी बार पीहर के इष्ट को पूजने गई थी.

पीहर में पहले तो उस को ऐसे अचानक देख पापामम्मी, चाचाचाची और चचेरे भाईबहन सब चैंक गए, मगर छवि ने बहाना बनाया, ‘‘वहां कोई परिचित अचानक बीमार हो गए हैं. मनोज को वहां जाना है. मुझे पहले से बुखार था, तो मनोज ने कहा कि अमरोहा जा कर आराम करो. बस जल्दी में आना पड़ा, इसलिए केवल यह मिठाई लाई हूं.‘‘

सब लोग खामोश रहे. मां सब समझ गई थीं. वे छवि को नाश्ता करा कर उस की अलमारी की चाबी थमा कर बोलीं, ‘‘जब से तुम गई हो, तुम्हारे पापा हर रोज 100 रुपए तुम्हारे लिए वहां रख देते हैं. यह लो चाबी और वो सब रुपए खुल कर खर्च करो.‘‘

यह सुन कर छवि उछल पड़ी और चाबी ले कर झटपट अपनी अलमारी खोल दी. उस में बहुत सी पोशाकें थीं और कुछ पर्स थे नोटों से भरे हुए.

छवि ने मां से पूछा, ‘‘पापा यहां रुपए क्यों रख रहे थे?‘‘

मां ने हंस कर कहा, ‘‘तुम हमारी सलोनी बिटिया कैसे कुशलता से अपना घर चला रही हो. हम को गर्व है, यह तो तुम्हारे लिए है बेटी.‘‘

‘‘अच्छा, गर्व है मुझ पर,‘‘ कह कर छवि आज सुबह का झगड़ा याद कर के मन ही मन शर्मिंदा होने लगी. उस को लगा कि मां कुछ छानबीन करेंगी, कुछ सवाल तो जरूर ही पूछ लेंगी, मगर उस को प्यार से सहला कर और आराम करो, ऐसा कह कर मां कुछ काम करने चली गईं. वह अलमारी के सामने अकेली रह गई, मगर अभी कुछ जरूरी काम करना था. इसलिए छवि सबकुछ भूल कर तुरंत दुनियादार बन गई. वहां तकरीबन 25,000 रुपए रखे थे. उस ने चट से एक सूची बना कर तैयार कर ली.

छवि फिलहाल तो कुछ खा कर सो गई, मगर शाम को बाजार जा कर उन रुपयों से पीहर में सब के लिए उपहार ले आई. बाजार में उस को अपनी सहेली रमा मिल गई. छवि और उस की गपशप भी हो गई. उस के गांव का बाजार बहुत ही प्यारा था. छोटा ही था, पर वहां सबकुछ मिल गया था.

उपहार एक से बढ़ कर एक थे. सब से उन उपहारों की तारीफ सुन कर कुछ बातें कर के वह उठ गई और फिर छवि ने रसोई में जा कर कुछ टटोला. वहां आलू के परांठे रखे थे. उस ने बडे़ ही चाव से खाए और गहरी नींद में सो गई. नींद में उस को रमा दिखाई दी. रमा से जो बातें हुईं, वे सब वापस सपने में आ गईं. छवि पर इस का गहरा असर हुआ.

सुबह उठ कर छवि वापस लौटने की जिद पर अड़ गई थी. मां समझ गईं कि शायद सब मामला सुलझ गया है. वे कभी भी बच्चों के किसी निर्णय पर टोकाटाकी नहीं करतीं थीं. वे ग्रामीण थीं, मगर बहुत ही सुलझी हुई महिला थीं. छवि को पीहर की मनुहार मान कर कम से कम आज रुकना पड़ा. वह कल तो आई और आज वापस, यह भी कोई बात हुई. सब की मानमनुहार पर छवि बस एक दिन और रुक गई.

उधर, मनोज को इतनी लज्जा आ रही थी कि उस ने ससुराल मे शर्म से फोन तक नहीं किया. मगर वह 2 दिन तक बस तड़पता ही रहा और उस के बाद फोन ले कर कुछ लिखने लगा.

‘‘छवि, पता है, तुम सब से ज्यादा शाम को याद आतीं. दिनभर तो मैं काम करता था, मगर निगोड़ी शाम आते ही पहली मुश्किल शुरू हो जाती थी कि आखिर इस तनहा शाम का क्या किया जाए. तुम नहीं होती थीं, तो एक खाली जगह दिखती थी, कहना चाहिए कि बेचैनी और व्याकुलता से भरी. तब मैं एलबम उठा लेता था, इसे तुम्हारी तसवीरों से, उन मुलाकातों की यादों से, बातों से, तुम्हारी किसी अनोखी जिद और बहस को हूबहू याद करता और जैसेतैसे भर दिया करता था, वरना तो यह दैत्य अकेलापन मुझे निगल ही गया होता.

‘‘तुम होती थीं, तो मेरी शामों में कितनी चहलपहल, उमंग, भागमभाग, तुम्हारी आवाजें, गंध, शीत, बारिश, झगड़े, उमस या ओस सब हुआ करता था, मगर अब तो ढलती हुई शाम हर क्षण कमजोर होती हुई जिंदगी बन रही है कि जितना विस्मय होता है, उस से अधिक बेचैनी.

‘‘तुम्हारे बिना एक शाम न काटी गई मुझ से, जबकि मैं ने कोशिश भरसक की थी. परसों सुबह तुम नाराज हो कर चली गईं. मैं ने सोचा कि वाह, मजा आ गया. अब पूरे 2 साल बाद मैं अपनी सुहानी शाम यारों के साथ गुजार लूंगा. अब पहला काम था उन को फोन कर के कोई अड्डा तय करना. रवि, मोहित और वीर यह तीनों तो सपरिवार फिल्म देखने जा रहे थे. इसलिए तीनों ने मना कर दिया. अब बचा राजू. उसे फोन किया तो पता लगा कि वह अपनी प्रेमिका को समय दे चुका है. इतनी कोफ्त हुई कि आगे कोई कोशिश नहीं की.

‘‘बस, चैपाटी चला गया, मगर वहां तो तुम्हारे बिना कभी अच्छा लगता ही नहीं था. बोर होता रहा और कुछ फोटोग्राफी कर ली. बाहर कुछ खाया और घर आ गया.

‘‘घर आ कर ऐसा लगा कि घर नहीं है, कोई खंडहर है. बहुत ही भयानक लग रहा था तुम्हारे बिना, पर मेरे अहंकार ने कहा कि कोई बात नहीं, कल सुबह से शाम बहुत मजेदार होने वाली है और बस सोने की कोशिश करता रहा. करवट बदलतेबदलते किसी तरह नींद आ ही गई. सुबह मजे से चाय बनाई, मगर बहुत बेस्वाद सी लगी, फिर अकेले ही घर साफ कर डाला और दफ्तर के लिए तैयार हो गया.

‘‘अब नाश्ता कौन बनाता, बाहर ही सैंडविच खा लिए, तब बहुत याद आई, जब तुम कितने जायकेदार सैंडविच बनाती हो, यह तो बहुत ही रूखे थे.

‘‘मुझे अपने जीवन की फिल्म दिखाई देने लगी किसी चित्रपट जैसी, मगर नायिका के बगैर. मैं बहुत बेचैन हो गया. दफ्तर की मारामारी में मन को थोड़ा सा आराम मिला, मगर पलक झपकते ही शाम हो गई और दफ्तर के बाहर मैदान में हरी घास देख कर तुम्हारी फिर याद आ गई. 1-2 महिला मित्र हैं, उन को फोन लगाया, मगर वे तो अब अपनी ही दुनिया में मगन थीं. कहां तो 4 साल पहले तक वे कितनी लंबीलंबी बातें करती थीं और कहां अब वे मुझे भूल ही गई थीं.

अब क्या करता, फिर से एक उदास शाम को धीरेधीरे से रात में तबदील होता नहीं देख सकता, पर झक मार कर सहता रहा. मन ऐसा बेचैन हो गया था कि खाना तो बहुत दूर की बात पानी तक जहर लग रहा था. शाम के गहरे रंग में तारों को गिन रहा था, मगर तुम को न फोन किया और न तुम्हारा संदेश ही पढ़ा. तुम को जितना भूलना चाहता, तुम उतना ही याद आ रही थीं.

बस, इस तरह से दो शामों को रात कर के अपने ऊपर से गुजर जाने दिया. मेरा अहंकार मुझे कुचल रहा था, पर मैं कुछ समझना ही नहीं चाहता था. तुम हर पल मेरे सामने होतीं और मैं नजरअंदाज करना चाहता, यह भी मेरे अहंकार का विस्तार था.

अब तुम को लेने आ रहा हूं, तुम तैयार रहना, यह सब अपने फोन पर टाइप कर के मनोज ने छवि को भेज दिया. मगर 10 मिनट हो गए, कोई जवाब नहीं आया. 20 मिनट बीततेबीतते मनोज की आंखें ही छलक आईं. वह समझ गया कि अब शायद छवि कभी लौट कर नहीं आने वाली है, तभी दरवाजा खुला. मनोज चैंक गया, ‘‘ओह छवि, उसे पता रहता तो कभी दरवाजा बंद ही नहीं करता.’’

छवि ने हंस कर अपने फोन का स्क्रीन दिखाते हुए कहा, ‘‘वह बारबार यह संदेश पढ़ रही थी.‘‘

संदेश पढ़ कर तुम उड़ कर ही वापस आ गई, ‘‘हां… हां, पंख लगा कर आ गई,’’ यह सुन कर मनोज ने कुछ नहीं कहा. वह बडे़ गिलास में पानी ले आया और छवि को गरमागरम चाय भी बना कर पिला दी.

छवि ने अपने भोलेपन में मनोज को यह बात बता दी कि पीहर के बाजार में सहेली रमा मिली थी. रमा से बात कर के उस का मन बदल गया. वह उसे पूरे 2 साल बाद अचानक ही मिली थी. वह बता रही थी, ‘‘उस के पति सूखे मेवे का बड़ा कारोबार करते हैं. रोज उस को 5,000 रुपए देते हैं कि जहां मरजी हो खर्च करो. घरखर्च अलग देते हैं, पर कोई बात नहीं करते. कभी पूछते तक नहीं कि रसोई कैसे रखूं, कमरा कैसे सजाऊं, क्या पहनूं और क्या नहीं?

‘‘हर समय बस पैसापैसा यही रहता है दिमाग में. मुझे हर महीने पीहर भेज कर अपने कारोबारी दोस्तों के साथ घूमते हैं. मेरे मन की बात, मेरी कोई सलाह, मेरा कोई सपना, उन को इस से कुछ लेनादेना नहीं है. बस, मैं तो चैकीदार हूं, जिस को वे रुपयों से लाद कर रखते हैं.

‘‘सच कहूं, ऐसा लापरवाह जीवनसाथी है कि बहुत उदास रहती हूं, पर किसी तरह मन को मना लेती हूं. मगर यह सपाट जीवन लग रहा है.‘‘

यह सब सुन कर मुझे बारबार मनोज बस आप की याद आने लगी. मन ही मन मैं इतनी बेचैन हो गई कि रात सपने में भी रमा दिखाई दी और वही बातें कहने लगी. मैं समझ गई कि यह मेरी अंतरात्मा का संकेत है. रमा अचानक राह दिखाने को ही मिली, और मैं वापस आ गई.’’

‘‘पर छवि, तुम कम से कम रमा को कोई उचित सलाह तो देतीं. तुम तो सब को अच्छी राय देती हो. जब वह तुम को अपना राज बता रही थी छवि,‘‘ मनोज ने टोका, तो छवि ने कहा, ‘‘हां, हां, मैं ने उस को अपने दोनों फोन नंबर दे दिए हैं और गाजियाबाद आने का आमंत्रण दिया है.

‘‘साथ ही, उसे यह सलाह दी कि रमा, तुम मन ही मन मत घुटती रहो. मुझे लगता है, मातापिता, भाईबहन, पड़ोसन या किसी मित्र को अपना राजदार बना लो. अगर कोई एक भी आप को समझता है, तो अगर वह सलाह नहीं देगा, पर कम से कम सुनेगा तो, तब भी मन हलका हो जाता है. साहित्य से लगाव हो, तो सकारात्मक साहित्य पढ़ो. नई जगहों पर अकेले निकल जाओ, नई जगह को अपनी यादों में बसा कर उन को अपना बना लो.

‘‘आमतौर पर जब भी कभी किसी को ऐसी बेचैनी वाली परिस्थिति का सामना करना पड़ा है, अच्छी किताब और संगीत, वफादार मित्र साबित होते हैं वैसे समय में. और अकेले खूब घूमा करो, पार्क में या मौल में या हरियाली को दोस्त बना लो और यह भी सच है कि सब से बड़ा आनंद तो अपना काम देता है. झोंक देना स्वयं को, काम में. चपाती सेंकना और पकवान बनाना यह सब मन की सारी नकारात्मकता को खत्म करता है.‘‘

‘‘हूं, वाह, वाह, बहुत अच्छी दी सलाह,‘‘ कह कर मनोज ने गरदन हिला दी.

‘‘बहुत शुक्रिया,‘‘ शरारत से कह कर छवि ने मनोज को कुछ पैकेट थमा दिए. उन सब में मनोज के लिए उपहार रखे थे, जो छवि को पीहर से दिए गए थे.

छवि ने रुपयों से भरी अलमारी का पूरा किस्सा भी सुना दिया, तो मनोज ने उस का हाथ थाम कर कहा, ‘‘तब तो पिता के गौरव की हिफाजत करो. छवि, अब नाराज मत होना. ठीक है.‘‘

छवि ने प्रगट में तो होंठों पर हंसी फैला दी, पर वह मन ही मन कहने लगी, मगर, मुझे तो मजा आ गया, ऐसे लड़ कर जाने में तो बहुत आनंद है. नहीं, अब बिलकुल नहीं, मनोज ने उस के मन की आवाज सुन कर प्रतिक्रिया दी. दोनों खिलखिला कर हंसने लगे.

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Teachers vs AI: महज ज्ञान नहीं व्यक्तित्व गढ़ते हैं शिक्षक                      

Teachers vs AI: आज के डिजिटल युग में ज्ञान पाना बेहद आसान हो गया है. गूगल, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) और अनेक औनलाइन प्लेटफार्म ने सीखने के साधन बदल दिए हैं. हर सवाल का जवाब तुरंत मिल जाता है, लेकिन सवाल यह है कि क्या केवल जानकारी ही जीवन संभालने की क्षमता देती है?

यहीं शिक्षक और मशीन का मूल अंतर सामने आता है. तकनीक तेज है, लेकिन संवेदनहीन; वह डेटा देती है, दिशा नहीं. एक अच्छा गुरु सिर्फ तथ्य नहीं समझाता, वह सोचने की कला, जीवन की जटिलताओं को समझने और मानसिक मजबूती विकसित करने की शक्ति देता है.

आज मानसिक स्वास्थ्य हर उम्र के लिए चुनौती बन चुका है. प्रतियोगिता, अपेक्षाएं, सोशल मीडिया का दबाव और बदलते रिश्ते युवाओं को भीतर से कमजोर बना रहे हैं. ऐसे समय में गुरु ही वह शख़्सियत है, जो पढ़ाने के साथ सहारा देता है, सुनता है, समझता है और आत्मविश्वास तथा भावनात्मक संतुलन का आधार तैयार करता है.

गूगल हर प्रश्न का उत्तर दे सकता है, लेकिन “तुम कर सकते हो” जैसा आत्मविश्वास नहीं जगा सकता. AI भविष्य की संभावनाएं बता सकता है, लेकिन किसी के आंसू पोंछकर उसके मन का बोझ हल्का नहीं कर सकता. शिक्षक का यही मानवीय स्पर्श जीवन में संतुलन लाता है, आत्मसम्मान बढ़ाता है और कठिन समय में सही राह दिखाता है.

तकनीक कितनी भी आगे बढ़ जाए, शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ जानकारी देना नहीं, बल्कि इंसान को इंसान बनाना है. मानसिक मज़बूती, नैतिकता, संवेदना और आशा का संचार केवल एक अच्छे शिक्षक ही कर सकते हैं. मशीनें ज्ञान दे सकती हैं, पर मानवीय संवेदना और दिशा देने का कार्य गुरु ही निभाते हैं.

Teachers vs AI

Dowry System: दहेज प्रेम का सौदा या मानसिक असंतुलन का प्रतीक   

Dowry System: भारत आज विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में ऊंचाइयां छू रहा है, परंतु दहेज जैसी कुप्रथाएं अब भी हमारे मानसिक विकास पर प्रश्न उठाती हैं. यह केवल सामाजिक बुराई नहीं, बल्कि उन लड़कों की मानसिक अस्वस्थता का प्रतीक है जो विवाह जैसे पवित्र बंधन को लेनदेन का सौदा बना देते हैं.

दहेज प्रथा भारतीय समाज में पितृसत्तात्मक सोच, आर्थिक असमानता और लैंगिक भेदभाव का परिणाम है. विवाह के बाद महिलाओं को बोझ समझने की प्रवृत्ति आज भी बनी हुई है. दहेज मांगने वाले परिवार महिलाओं को वस्तु के रूप में देखते हैं, जिससे हिंसा और मानसिक शोषण बढ़ता है.

भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 80 और 85 के बावजूद, कई मामले “पारिवारिक विवाद” कहकर दबा दिए जाते हैं. वर्ष 2017 से 2022 के बीच 6,100 से अधिक दहेज हत्याएं दर्ज हुईं. उपभोक्तावाद, आर्थिक दबाव और भव्य विवाह संस्कृति ने इस कुप्रथा को और गहरा बना दिया है, जो समाज की मानसिक अस्वस्थता को दर्शाता है.

दहेज मांगने वाले लड़के न केवल अपने व्यक्तित्व की कमजोरी दिखाते हैं, बल्कि विवाह की नींव को पहले दिन से ही खट्टा कर देते हैं. जो रिश्ता प्रेम, समानता और सम्मान पर टिकना चाहिए, वह लालच और दिखावे के बोझ तले टूटने लगता है. ऐसे पुरुष यह नहीं समझते कि दहेज लेकर वे पत्नी का नहीं, बल्कि अपनी सोच का अपमान कर रहे हैं.

निकी जैसी घटनाएं यह दर्शाती हैं कि दहेज अब केवल लालच नहीं, बल्कि मानसिक रोग का रूप ले चुका है. यह पुरुषों की असुरक्षा और हीनभावना का परिणाम है. जब परिवार और समाज ऐसे व्यवहार को “परंपरा” कहकर स्वीकार करते हैं, तो वे भी इस मानसिक बीमारी को बढ़ावा देते हैं.

अब समय है कि लड़के खुद यह संकल्प लें कि वे दहेज नहीं लेंगे — क्योंकि आत्मसम्मान और सच्चे प्रेम का कोई मोल नहीं होता. दहेज मांगने वाला लड़का केवल पैसे नहीं लेता, वह अपने रिश्ते की गरिमा और पत्नी के सम्मान को भी गिरवी रख देता है.

लड़के वाले लड़को को चेक मानते हैं जिन्हें शादी के बंधन में बांधते समय लड़की पक्ष से मन मुताबिक कैश कराया जाता है. वास्तविक प्रगति तभी होगी जब पुरुष वर्ग स्वयं इस सोच को बदले और विवाह को सम्मान, समानता और साझेदारी का बंधन समझे न कि सौदेबाजी का मंच. जब लड़के यह ठान लेंगे कि दहेज नहीं चाहिए, तब समाज अपने आप बदल जाएगा.

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