लौकडाउन में दिल मिल गए: भाग-2

‘मान न मान मैं तेरा मेहमान…’ मन ही मन भुनभुनाते हुई पार्वती चाय बनाने को उठ खड़ी हुई.

“सुनो पार्वती, अदरक थोड़ी ज्यादा ही रखना. बिना अदरक के चाय भी कोई चाय है. दरअसल, मेरे पास आज ही अदरक खत्म हो चुकी है तो मैं ने सोचा….”

“जी हां, क्यों नहीं. पार्वती, तुम साहब के लिए 2-4 अदरक की टुकङी भी ले आना,” सविता ने किचन की ओर मुंह कर के आवाज लगाई.

“बंदे को ओंकार कहते हैं. एक रिटायर्ड फौजी. बस यही छोटी सी पहचान है अपनी,” बेबाकी से ओंकार ने अपना परिचय दिया.

बातों की श्रृंखला में एक हलका सा अल्पविराम आ गया जब पार्वती ने चाय का मग और अदरक के 2 टुकड़े ला कर जरा जोर से सैंटर टेबल पर रखे.

“पार्वती, बस इतना ही…” सविता ने आंखें तरेरीं.

“हां दीदी, अब ज्यादा अपने पास भी नहीं है.”

“अरे, इतना बहुत है मेरे लिए. कम से कम 3-4 दिन चलेगा. वैसे चाय बहुत बढ़िया बनाई है तुम ने,” पहला सिप लेते हुए ओंकार बोल पङे.

उन के जाने के बाद पार्वती ने बड़बड़ाते हुए पूरी जगह को अच्छे से सैनेटाइज किया और अपने काम में लग गई. उस की मुखमुद्रा देख सविता के चेहरे पर हंसी आ गई.

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उस दिन सविता का जन्मदिन था. मना करतेकरते भी पार्वती ने उस की पसंदीदा रैसिपी छोलेकुलछे बना लिए. उस दिन स्वाद ही स्वाद में वे कुछ ज्यादा ही खा गईं. शाम होतेहोते उन का जी मितलाया और उन्हें  उलटी हो गयी. पार्वती ने जल्दी से  ग्लूकोज का पानी पिलाया पर थोड़ी देर बाद फिर हुई उलटी हुई. बाद में 3-4 उलटियां और होने से शरीर में पानी की कमी के चलते सविता को बहुत कमजोरी व चक्कर आने लगे. पेट मे रहरह कर मरोड़ भी उठने लगी थी. वे लगातार कराह रही थीं.

रात के 1बजे थे. पार्वती को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. कहीं डायरिया की नौबत आ गई तो कैसे क्या होगा? घर मे उलटी की कोई दवा भी नहीं थी. कोई और रास्ता न देख उस ने फौरन ही जा कर ओंकार के फ्लैट की घंटी बजा दी…

“साहब, दीदी को बहुत उलटियां हो रही हैं. पेट में दर्द भी है. घरेलू नुसखों से भी कोई आराम नहीं मिला,” यह कह कर पार्वती रोआंसी हो गई.

“लगता है फूड पौइजिनिंग हो गई है. रुको, मेरे पास मैडिसीन है. मैं ले कर आता हूं, तब तक हो सके तो तुम गरम पानी से उन के पेट की सिंकाई करो.”

2-3 मिनट बाद ही वे मैडिसीन का पूरा पत्ता हाथ में लिए सविता के सामने खड़े थे.

“यह एक गोली अभी ले लीजिए और देखिए तुरंत आराम मिल जाएगा.”

“जी धन्यवाद, पर आप ने तकलीफ क्यों की? पार्वती से भिजवा दिया होता,” सविता ने कराहते हुए कहा.

“अरे तकलीफ किस बात की? मैं तो वैसे भी अकेले बोर ही होता रहता हूं,” कहते हुए ओंकार ठठा कर हंस पड़े.

उत्तर में सविता भी धीरे से मुसकराई और उठने की कोशिश करने लगी.

आज पहली बार उस ने ओंकार के चेहरे पर एक भरपूर नजर डाली और फिर देखती रह गई. लंबा कद, रौबीले चेहरे पर घनी व तावदार मूंछें. हां, उम्र का अंदाजा उन के चेहरे से लगाना मुश्किल था, क्योंकि बढ़ती उम्र के बोझ से बेअसर उन के चेहरे की रौनक बता रही थी कि वे अपने जीवन में कितने अनुशासित रहे हैं. कुल मिला कर आकर्षक व्यक्तित्व के धनी ओंकार ने आज पहली बार उसे काफी प्रभावित किया था. अभी तक तो बिन बुलाया मेहमान मान वह उन से ढंग से बात भी न करती थी.

“आप बैठिए न,” सामने पड़ी कुरसी की ओर सविता ने इशारा किया.

“जी जरूर…” तभी पार्वती ट्रे में पानी ले आई, “क्या लेंगे आप, ठंडा या चायकौफी?” उस ने प्रश्नवाचक निगाह उन पर डाली.

“फिलहाल कुछ नहीं. आप की चाय ड्यू रही.” ओंकार फिर खिलखिला उठे.

बच्चों जैसी उन की मासूम निश्छल हंसी सविता के दिल को छू गई. थोड़ी देर बाद ही दवा ने अपना प्रभाव दिखाया और सविता को तनिक आराम मिला. ओंकार से बात करतेकरते वे न जाने कब सो गईं.

“साहब आप भी जा कर सो जाइए. 3 बज रहे हैं,” पार्वती ने ओंकार का धन्यवाद अदा करते हुए कहा.

“1-2 घंटे और देख लेते हैं, वैसे भी मुझे जागने का अच्छा अभ्यास है. जाओ तुम सो जाओ,” साइड टेबल पर पड़ी गृहशोभा मैगजीन उठाते हुए ओंकार ने कहा.

सुबह 5 बजे के करीब जब पार्वती की आंखें खुलीं तो सविता गहरी नींद में सो रही थी और कुरसी पर बैठेबैठे ओंकार भी ऊंघ रहे थे.

उस ने उन्हें उठाया और घर भेजा. “ठीक है, जब सविता जी उठें तो उन्हें 1-2 बिस्कुट खिला कर फिर यह दवा दे देना,” कह कर ओंकार चले गए.

सुबह 11 बजे के करीब बेल बजने पर पार्वती ने जा कर दरवाजा खोला, “क्या कह रही हैं? अब आप की तबियत कैसी है?” ड्राइंगरूम में प्रवेश करते ही सामने बैठी सविता को देख ओंकार ने पूछा.

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“जी काफी आराम है और अब तो भूख भी लग रही है.”

“मैं जानता था, इसलिए ही मूंगदाल की पानी वाली खिचड़ी बना कर ले आया हूं. यही इस वक्त आप के हाजमे के लिए बैस्ट है,” ओंकार आदतन हंस पड़े.

“पर आप ने क्यों तकलीफ उठाई, मैं बना देती न…” इस बार सविता को बोलने का मौका दिए बिना पार्वती बोल उठी.

“तुम तो रोज ही बनाती हो पार्वती. आज मेरे हाथ का सही. जाओ 3 प्लैटें ले आओ. तुम भी खा कर बताओ जरा कैसी बनी है?” ओंकार ने कैसरोल खोलते हुए कहा.

हींग की सोंधी महक वाली खिचड़ी वाकई बहुत स्वादिष्ठ बनी थी. उस के साथ भुने पापड़ों के जोड़ ने खाने के स्वाद को दोगुना कर दिया. सविता का पेट भर गया पर थोड़ी खिचड़ी और लेने की लालसा वह रोक नहीं सकी और खिचड़ी परोसने के लिए अपनी प्लेट आगे बढ़ाई.

“बस अब ज्यादा न खाएं. भूख से थोड़ा कम ही खाएं तो जल्दी ठीक होंगी,” कहते हुए ओंकार ने साधिकार उस के हाथ से प्लेट ले ली और किचन की तरफ बढ़ चले. सविता चकित हो उन्हें निहारती रह गई.

उस दिन काफी देर बातों का सिलसिला जारी रहा. ओंकार के व्यवहार की सादगी और स्पष्टता ने पार्वती के दिल में भी उन के लिए सम्मान की भावना जगा दी थी.

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लौकडाउन में दिल मिल गए: भाग-1

सविता बारबार घर की बालकनी से नीचे झांक रही थी. पार्वती अभी तक आई नहीं थी. बेकार ही सामान मंगवाया, सबकुछ तो रखा था. थोड़ा कम में काम चल जाता पर बेवजह अधिक जमा करने के चक्कर में उस बेचारी को दौड़ा दिया. तभी नीचे पार्वती को आता देख उन्होंने राहत की सांस ली और लगभग दौड़ कर दरवाजा खोला.

लगभग हांफती हुई पार्वती ने दोनों थैले घर के कोने पर पड़ी एक टेबल पर रखे और नीचे बैठ गई.

“बड़ी मुश्किल से मिला है दीदी, सभी दुकानों पर भारी भीड़ थी. सोसाइटी की दुकान पर तो खड़े होने की जगह भी नहीं थी, फिर बाहर जा कर कोने वाली एक दुकान से खरीद कर ले  आई हूं.”

“ओह, इतनी दूर क्यों गईं, नहीं मिलता तो न सही, ऐसी भी क्या जरूरत थी?”

“नहीं दीदी, पता नही यह लौकडाउन कब तक चलेगा? स्थिति बहुत खराब हो चली है. बाहर निकलना खतरे से खाली नहीं. बस, आप को किसी चीज की कमी नहीं होनी चाहिए.”

“कितनी चिंता करती है मेरी? चल सब से पहले हाथों और सामान को सैनेटाइज कर लें.”

रात को बिस्तर पर सोते समय सविता की आंखों से नींद कोसों दूर थी. सच में कितना करती है पार्वती उस के लिए. अगर वह नहीं होती तो उस का क्या होता? सोचते हुए सविता 2 साल पहले उन यादों के झरोखे में जा पहुंची जहां पति के अत्याचारों से तंग पार्वती से वह पहली बार अपने कालेज में मिली थी.

वह जिस कलेज में पढ़ाती थी, वहां पार्वती भी बाई का काम करती थी. लगभग रोज ही उस का सूजा चेहरा और जगहजगह पड़े नील स्याह के निशान पति के दुर्दांत जुल्मों की इंतहा की याद दिलाते रहते. उस की नौकरी के बल पर ऐयाशी करने वाला उस का शराबी पति बातबात पर उसे पीटा करता था. उन दोनों की एक ही लड़की थी जो शादी कर अपनी ससुराल जा चुकी थी.

उस वक्त उस ने आगे बढ़ कर न सिर्फ उस की मदद की थी बल्कि उस के पति को सलाखों के पीछे भी पहुंचाया था. दुखी पार्वती को घर लाते वक्त उसे बोध भी न था कि जिसे निराश्रित, निस्सहाय समझ वह मानवता के नाते आश्रय दे रही है, वही कल को उस का सब से बड़ा संबल बन जाएगी.

सविता के पति पहले ही एक सड़क दुर्घटना में उसे छोड़ कर जा चुके थे. इकलौता बेटा बहू के साथ कनाडा में रह रहा था. बेटेबहू के बहुत कहने के बावजूद वह उन के साथ कनाडा नहीं शिफ्ट हुई थीं. क्योंकि हाथपांव के चलते रहने तक वे किसी पर बोझ नहीं बनना चाहती थीं. वैसे भी नौकरी के 8-10 साल बचे थे और स्वावलंबी सविता अपने बल पर ही अपनी जिंदगी जीना चाहती थीं.

तब से वे अपने फ्लैट पर अकेली रहती आई थीं. वैसे तो कालेज में बच्चों के बीच वह काफी व्यस्त रहती थी, पर छुट्टी का दिन उस से काटे न कटता था.

हां, पार्वती के आने से उस की जिंदगी बेहद आसान हो चली थी. पार्वती के रूप में उसे एक सखी, सहायक और शुभचिंतक मिल गई थी, जिस ने बड़ी कुशलता से उस के घर को संभाल लिया था और इस तरह दोनों एकदूसरे का सहारा बन कर अपनी जिंदगी जिए जा रही थीं. हालांकि बेटेबहू ने बारबार उसे पार्वती के लिए चेताया था.

उन का कहना था कि किसी पर इतनी जल्दी ऐसा भरोसा करना ठीक नहीं. शायद वे अपनी जगह सही भी थे. मगर कोई रिश्ता न होते हुए भी पार्वती उस की कितनी अपनी हो चुकी है यह बात सिर्फ वही समझती थी. यही सब सोचतेसोचते जाने कब सविता को नींद ने आ घेरा.

सुबह सविता की नींद कुछ देर से खुली. घर का काम निबटा कर पार्वती नहाधो चुकी थी. सविता को उठा देख वह झटपट चाय बना लाई. बालकनी में बैठे वे दोनों चाय की चुसकियां ले ही रही थीं कि दरवाजे की बेल बजी.

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लौकडाउन के दौरान किसी के कहीं भी आनेजाने पर पूर्णतः पाबंदी लगी हुई है. फिर कौन हो सकता है?

“दीदी, मैं देखती हूं, जो भी होगा बाहर से चलता कर दूंगी,” चेहरे पर मास्क लगाए पार्वती ने उठ कर दरवाजा खोला.

“माफ कीजिएगा, थोड़ी शक्कर मिल सकती है क्या?”

“आप यहीं ठहरिए, मैं दीदी से पूछ कर बताती हूं,” कह कर पार्वती ने दरवाजा चिपका दिया.

“दीदी, सामने वाले फ्लैट में जो नए किराएदार आए हैं उन्हें शक्कर चाहिए,” पार्वती ने सविता पर प्रश्नवाचक नजर डाली.

“मना कर दूं क्या, कल ही लौकडाउन की घोषणा हुई है, तो क्या ला कर नहीं रख सकते थे? एक बार दिया तो बारबार किसी भी चीज को मांगने आ जाएंगे.”

“नहींनहीं… ऐसा कर, एक डब्बे में आधा किलोग्राम के करीब दे दे. अपने पास कोई कमी नहीं, बहुत रखी है,” सविता ने चाय का कप उसे पकड़ाते हुए कहा.

“लेकिन दीदी…”

“अरे जितना कहा है उतना कर दे न,” सविता ने झूठमूठ की त्योरियां चढ़ाईं.

“यह लीजिए शक्कर…” पार्वती ने आगंतुक को घूरा.

“आप की मैडम नहीं दिखाई नहीं दे रहीं?”

“आप को मैडम चाहिए या शक्कर?” पार्वती ने अपनी खीझ उतारी. हाथ में शक्कर की थैली लिए वे महानुभाव जैसे आए थे वैसे ही अपने फ्लैट में वापस लौट गए.

“बड़ा अजीब था. आप के बारे में पूछने लगा. भला यह क्या बात हुई? ऐसे लोगों से तो थोड़ी दूरी ही अच्छी है,” पार्वती के स्वर में झल्लाहट थी.

“जाने दे पार्वती, अभी नएनए आए हैं. ज्यादा किसी को जानते नहीं होंगे इसलिए पूछे होंगे,” कह कर सविता ने बात खत्म की.

सरकार द्वारा लौकडाउन का दूसरा चरण और भी सख्ती से लागू कर दिया गया था. कुछ दिन बाद शाम के वक्त सविता और पार्वती टीवी पर कोरोना के बारे में न्यूज देख रही थीं कि तभी बेल बजी. चिटकनी खोलते ही फिर वही सज्जन दरवाजे पर खड़े दिखाई दिए.

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“ओहो… चाय का दौर चालू है.” कह कर बड़ी ही बेतकल्लुफी से वे सामने वाले सोफे पर जा विराजे.

“अभी बस पी कर खत्म ही की है. आप चाहें तो आप के लिए भी…” अभी सविता की बात पूरी भी न होने पाई थी कि आगंतुक ने कहा, “हांहां… क्यों नहीं, चाय के लिए मना मैं कभी कर ही नहीं सकता… हाहाहाहाहा….”

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प्यार को प्यार ही रहने दो : भाग-5

 आजकल घर में भी रजत पहले से अधिक प्रसन्न रहने लगा. थोड़ीबहुत चुहल निरंजना से भी करता रहता. यही तो एक अच्छा साइड इफैक्ट है फ्लर्टिंग का. पति महोदय बाहर फ्लर्टिंग करते हैं और घर में पत्नी को भी खुश रखते हैं. उन का अपना दिल जो उत्साहित रहता है.

प्रसन्नचित्त तो आजकल निरंजना भी बहुत रहने लगी है. सोशल मीडिया साइट पर आखिर उस ने नसीम को खोज जो निकाला. नसीम आजकल दूसरे शहर में रहता है, किंतु काम के चलते उस का दिल्ली आना होता रहता है. दोनों ने मिल कर यह तय किया कि अगली बार जब वह दिल्ली आएगा, तब दोनों मुलाकात अवश्य करेंगे.

और बहुत जल्दी वह दिन भी आ गया, जब नसीम का दिल्ली आना हुआ. सुबह से फटाफट सारा काम निबटा कर, स्वयं पर मेकअप की पूरी मेहरबानी करने के बाद निरंजना उस से मिलने तय रैस्टोरैंट के लिए घर से चल पड़ी.

रास्ते से ही उस ने रजत को एसएमएस भेज दिया कि वह अपने ओल्ड टाइम फ्रैंड से मिलने जा रही है. हो सकता है कि शाम को थोड़ी देर हो जाए.

उधर, रजत ने साक्षात्कार के लिए श्वेता को कंपनी द्वारा बुलावा भिजवा दिया था. उस से मिलने के लिए औफिस नहीं, बल्कि रैस्टोरैंट में मुलाकात तय की गई. इस का कारण श्वेता को यह बताया गया कि जिन सर को इंटरव्यू लेना है, वह उस दिन किसी मीटिंग के लिए औफिस में उपस्थित नहीं होंगे. सो, जहां वे उपस्थित होंगे, आप वहीं पहुंच जाइए.

श्वेता को भी इस में कुछ अटपटा नहीं लगा, क्योंकि आजकल कई साक्षात्कार औफिस के बाहर भी होते हैं.

तय समय से पहले रजत उस रैस्टोरैंट में पहुंच कर श्वेता की प्रतीक्षा करने लगा.

नसीम को रैस्टोरैंट में पहले से अपने लिए प्रतीक्षारत पा कर निरंजना का दिल एकबारगी जरा जोर से उछला. तो क्या आज भी नसीम उसी से प्यार करता है?

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अपने पहले प्यार को सामने पा कर निरंजना कभी उत्तेजना से भरने लगी, तो कभी विवाहिता होने के कारण संकोच से अपने रेशमी बालों को बारबार अपने गुलाबी गालों पर गिरने से रोकने के लिए अपनी कोमल उंगलियों से कानों के पीछे धकेलने लगी.

‘‘रहने दो ना इन जुल्फों को अपने सुंदर चेहरे पर. तुम भूल गई क्या कि मुझे तुम्हारी यह जुल्फें कितनी पसंद हैं,‘‘ नसीम के कहने पर निरंजना केवल मुसकरा कर नजरें नीचे किए रह गई.

फिर बातों का दौर चला. कुछ नसीम ने अपनी कही, तो कुछ निरंजना ने अपनी सुनाई. आज उस से अपने दिल की बात कह कर निरंजना काफी हलका महसूस कर रही थी. इसी पल के लिए वह ना जाने कितने समय से तरस रही थी.

‘‘मुझे यह जान कर अत्यंत अफसोस हो रहा है, नसीम, कि तुम ने अभी तक शादी नहीं की. काश, मैं तुम्हें उस समय मिल पाती. बस एक बार तुम्हें अपनी मजबूरी बता देना चाहती थी… आज वह बोझ भी दिल से उतर गया. पर समय निकल गया इस बात का. अफसोस शायद हमेशा खलेगा,‘‘ निरंजना ने अपनी बात पूरी की.

नसीम खामोशी से निरंजना के चेहरे को निहारता रहा, फिर हौले से कहने लगा, ‘‘समय तो अपने हाथ में होता है. अगर सोचो कि बीत गया तो अलग बात है. वरना आज भी समय हमारे साथ ही है. देखो, हम आज भी एकसाथ हैं. यदि तुम चाहो तो…‘‘

‘‘लेकिन, अब मेरी शादी हो चुकी है,‘‘ निरंजना उस की बात बीच में ही काटते हुए बोली, ‘‘यदि मेरी शादी ना हुई होती तब बात अलग थी, पर अब मैं रजत की पत्नी हूं. ऐसे में हमारा रिश्ता पाप कहलाएगा.‘‘

‘‘ऐसा क्यों कहती हो भला. पहले हम दोनों ने प्यार किया, रजत तो तुम्हारी जिंदगी में बाद में आया. सो, इस रिश्ते में तीसरा वो है. अगर तुम्हारे और मेरे घर वाले धर्म के चक्कर में ना पड़ कर हमारे प्यार के लिए राजी हो गए होते और आननफानन तुम्हारी शादी दूसरी जगह ना करवा दी होती, तो आज हम एकसाथ होते.‘‘

जब श्वेता आरक्षित टेबल पर पहुंची, तो वहां रजत को बैठा देख उस का चौंकना स्वाभाविक था, ‘‘रजत तुम यहां?‘‘

‘‘हां श्वेता, मैं ही हूं, जिस के साथ आज तुम्हारा साक्षात्कार है. हो गई ना सरप्राइज… मैं तो तुम्हारा बायोडाटा पढ़ते ही तुम्हें पहचान गया था. और तुम से मिलने के इस मौके को मैं किसी भी कीमत पर गंवा नहीं सकता था.‘‘

सारी स्थिति समझने के बाद श्वेता और रजत हंसहंस कर एकदूसरे के साथ आज तक बीती जिंदगी के अनुभव बांटने लगे.

‘‘कितना अच्छा लग रहा है तुम से मिल कर. न जाने क्यों इतने समय से हम मिले नहीं. तुम तो मेरे बीएफएफ (बैस्ट फ्रैंड फार ऐवर) रहे हो.‘‘

श्वेता उसे अपनी शादी, गृहस्थी, बच्चों के किस्से सुनाने लगी. वह काफी खुश लग रही थी. जाहिर था कि अपनी जिंदगी में श्वेता अच्छी तरह रम चुकी है और उसे कोई शिकायत भी नहीं.

प्यार हमारा दिल नहीं तोड़ सकता. वह तो अधूरी ख्वाहिशों और निराश सपनों के कारण टूटता है. रजत को समझ आ रहा था कि उस का प्यार वाकई एकतरफा था. तभी उस की नजर रैस्टोरैंट के दूसरे कोने में बैठी निरंजना पर पड़ी.

निरंजना को देखते ही वह असहज हो उठा. यदि उस ने रजत को यहां किसी अन्य महिला के साथ बैठे देख लिया तो…? ना जाने उस के बारे में क्या सोचने लगे. उसे याद आया कि आज निरंजना भी अपने एक पुराने दोस्त से मिलने गई है. इत्तेफाक देखिए, दोनों एक ही रैस्टोरैंट में पहुंच गए. लेकिन मौजूदा स्थिति में रजत उस चोर की तरह था, जो अपनी दाढ़ी के तिनकों को छिपाने के प्रयास में जुटा हो.

वह आगे कुछ कहता, इस से पहले ही श्वेता बोल पड़ी, ‘‘रजत, मैं ने नौकरी के लिए आवेदन अवश्य दिया था, किंतु कल ही मेरे पति का तबादला दूसरे शहर में हो गया है. इस कारण यह नौकरी मैं कर नहीं पाऊंगी.

‘‘मैं यहां यही बताने आई थी, लेकिन कितना अच्छा हुआ, जो तुम से मुलाकात हो गई. आगे भी हम टच में रहेंगे.‘‘

घर लौटते समय कैब में बैठी निरंजना आज नसीम के साथ बिताई दुपहरी को रिवाइंड करने लगी. नसीम आज भी उसे चाहता है. आज भी उस की राह देख रहा है, शायद… अगर वह चाहे तो नसीम के पास जा सकती है. पर क्या वह ऐसा चाहती है? क्या रजत के साथ बिताए शादीशुदा जिंदगी के पांच साल इतने हलके हैं कि उन से हाथ छुड़ाना उस के लिए संभव है?

इस सारे प्रकरण में रजत कहां खड़ा होता है? उस की क्या गलती है? निरंजना दोनों पलड़ों के बीच झूलने लगी. जेहन के कांपते हुए पानी पर असमंजस की नाव बह निकली. तभी एफएम पर गाना बजने लगा, ‘प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम ना दो ‘

नहीं, वह रजत को नहीं छोड़ सकती. जिस के साथ उस ने अपनी गृहस्थी बसाई, जिस ने उस का हमेशा ध्यान रखा, उसे पूरा प्यार दिया, अपने परिवार में सम्मान दिया, उसे वह कैसे बिसरा दे.

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यदि उस ने एक गलत कदम उठाया तो रजत का प्यार पर से विश्वास उठ जाएगा. अपनी जिंदगी में रंग भरने के लिए वह अपने पति की जिंदगी को स्याहा नहीं कर सकती.

कई बार हमारे जीवन के कुछ ऐसे अंश होते हैं, जिन्हें हम न भूल सकते हैं और न मिटा सकते हैं. जो हमें सुकून भी देते हैं और कष्ट भी. परंतु उन्हें हम अपने दिल के कोनों में हिफाजत से संजो कर रखना चाहते हैं. पहला प्यार इस सूची में संभवतः सब से ऊपर आता है.

रजत की कार में भी एफएम पर गाना बज रहा था, ‘सिर्फ एहसास है यह रूह से महसूस करो, प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम ना दो…‘

बहार: भाग 3- क्या पति की शराब की लत छुड़ाने में कामयाब हो पाई संगीता

लेखिका- रिचा बर्नवाल

पार्क में आरती ने संगीता को कुछ ऐक्सरसाइजें सिखाईं. लौटने के समय संगीता बहुत खुश थी.

‘‘मम्मी, शादी के बाद से मेरा वजन लगातार बढ़ता जा रहा है. क्या व्यायाम से मैं पतली हो जाऊंगी,’’ आंखों में आशा की चमक ला कर संगीता ने अपनी सास से पूछा.

‘‘इन के अलावा वजन कम करने का और क्या तरीका होगा? पर एक समस्या है,’’ आरती की आंखों में उलझन  के भाव पैदा हुए.

‘‘कैसी समस्या?’’

‘‘सुबह पार्क में आने की.’’

‘‘मैं जल्दी उठ जाया करूंगी.’’

अचानक आरती ताली बजाती हुई बोलीं, ‘‘मैं तुम्हारे ससुर को जोश दिलाती हूं कि वे

रवि को नाश्ते की चीजें बनाना सिखाएं. उन दोनों को रसोई में उलझ कर हम पार्क चली आया करेंगी.’’

‘‘बिलकुल ऐसा ही करेंगे, मम्मी. आम के आम और गुठलियों के दाम. मेरा वजन भी कम होने लगेगा और नाश्ता भी बनाबनाया मिल जाएगा,’’ संगीता प्रसन्न नजर आने लगी.

उधर रसोई में रमाकांत अपने बेटे को समझ रहे थे, ‘‘रवि, मैं ने कुछ चीजें तेरी मां

से बनानी सीखीं क्योंकि अब उस की तबीयत ज्यादा ठीक नहीं रहती. मैं ने देखा है कि तू भी अधिकतर डबलरोटी मक्खन खा कर औफिस जाता है. मैं तुझे ये 5-7 चीजें बनानी सिखा देता हूं. ढंग का नाश्ता घर में बनने लगेगा, तो तेरा और बहू दोनों का फायदा होगा.’’

‘‘पोहा बनाने में आप की सहायता करना मुझे अच्छा लगा, पापा. आप मुझे बाकी की चीजें भी जरूर सिखाना,’’ रवि खुश नजर आ रहा था.

‘‘अब ब्रश कर के आ. फिर हम दोनों साथ बैठ कर नाश्ता करेंगे.’’

‘‘मम्मी और संगीता के आने का इंतजार नहीं करेंगे क्या?’’

‘‘अरे, तेरी बहू जितनी ज्यादा देर घूमे अच्छा है. अपनी मां के साथ उसे रोज पार्क भेज दिया कर. उस का बढ़ता मोटापा उस की सेहत के लिए ठीक नहीं है.’’

रमाकांत की यह सलाह रवि के मन में बैठ गई. उस दिन ही नहीं बल्कि रोज उस ने सुबह उठ कर अपने पिता के मार्गदर्शन में कई नईर् चीजें नाश्ते में बनानी सीखीं.

आरती और संगीता रसोई में आतीं, तो बापबेटा उन्हें फौरन बाहर कर देते. तब आरती अपनी बहू को पार्क में ले जाती.

वहां से सैर और व्यायाम कर के दोनों लौटतीं, तो उन्हें नाश्ता तैयार मिलता. सब बैठ कर नाश्ते की खूबियों व कमियों पर बड़े उत्साह से चर्चा करते. सुबह की शुरुआत अच्छी होने से बाकी का दिन अच्छा गुजरने की संभावना बढ़ जाती.

संगीता अपने सासससुर के आने से अब सचमुच बड़ी प्रसन्न थी. सास के द्वारा काम में मदद करने से उसे बड़ी राहत मिलती. बहुत कुछ नया सीखने को मिला उसे आरती से.

रवि का मन बहुत होता अपने दोस्तों के साथ शराब पीने का, पर हिम्मत नहीं पड़ती. अपनी खराब लत के कारण वह अपने मातापिता को लड़तेझगड़ते नहीं देखना चाहता था.

धीरेधीरे शराब पीने की तलब उठनी बंद हो

गई उस के मन में. उस में आए इस बदलाव के कारण संगीता की खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

सप्ताहभर तक नियमित रूप से पार्क जाने का परिणाम यह निकला कि संगीता के पेट का माप पूरा 1 इंच कम हो गया. उस ने यह खबर बड़े खुश अंदाज में सब को सुनाई.

‘‘आज पार्टी होगी मेरी बहू की इस सफलता की खुशी में और सारी चीजें संगीता और मैं घर में बनाएंगे,’’ आरती की इस घोषणा का बाकी तीनों ने तालियां बजा कर स्वागत किया.

उस रविवार के दिन के भोजन में मटरपनीर, दहीभल्ले, बैगन का भरता, सलाद, परांठे और मेवों से भरी खीर सबकुछ संगीता और आरती ने मिल कर तैयार किया.

खाना इतना स्वादिष्ठ बना था कि सभी उंगलियां चाटते रह गए. आरती ने इस का बड़ा श्रेय संगीता को दिया, तो वह फूली न समाई.

‘‘मैं कहता हूं कि किसी होटल में क्व2 हजार रुपए खर्च कर के भी ऐसा शानदार खाना नसीब नहीं हो सकता,’’ रवि ने संतुष्टि भरी डकार लेने के बाद घोषणा करी.

‘‘चाहे वह स्वादिष्ठ खाना हो या दिल को गुदगुदाने वाली खुशियां, इन्हें घर से बाहर ढूंढ़ना मूर्खता है,’’ बोलते

हुए आरती की आंखों में अचानक आंसू छलक आए.

‘‘मम्मी, आप की आंखों में आंसू क्यों आए हैं?’’ रवि

ने अपनी मां का कंधा छू कर भावुक लहजे में पूछा.

‘‘हम से कोई गलती हो गई क्या?’’ संगीता एकदम घबरा उठी.

‘‘नहीं, बहू,’’ आरती ने उस का गाल प्यार से थपथपाया, ‘‘सब को एकसाथ इतना खुश देख कर आंखें भर आईं.’’

‘‘यह तो आप दोनों के आने का आशीर्वाद है मम्मी,’’ संगीता ने उन का हाथ पकड़ कर प्यार से अपने गाल पर रख लिया.

रमाकांत ने गहरी सांस छोड़ कर कहा, ‘‘आज शाम को हम वापस जा रहे हैं. शायद इसीलिए पलकें नम हो उठीं.’’

‘‘यों अचानक जाने का फैसला क्यों कर लिया आप ने?’’ रवि ने उलझन भरे स्वर में पूछा.

‘‘नहीं, आप दोनों को मैं बिलकुल नहीं जाने दूंगी,’’ संगीता ने भरे गले से अपने दिल की इच्छा जाहिर करी.

‘‘हम दोनों तो आज के दिन ही लौटने का कार्यक्रम बना कर आए थे, बहू. तेरे जेठजेठानी व दोनों भतीजे बड़ी बेसब्री से हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं,’’ आरती ने मुसकराने की कोशिश करी, पर जब सफल नहीं हुईं तो उन्होंने संगीता को गले लगा लिया.

संगीता एकाएक सुबकने लगी. रवि की आंखों में भी आंसू ?िलमिलाने लगे.

‘‘मम्मीपापा, आप दोनों अभी मत जाइए. मेरे घर में आई खुशियों की बहार कहीं आप

दोनों के जाने से खो न जाए,’’ रवि उदास नजर आने लगा.

रमाकांत ने उस का माथा चूम कर समझया, ‘‘बेटा, अपने घर की

खुशियों, सुखशांति और मन के संतोष के लिए किसी पर भी निर्भर मत रहना. तुम दोनों समझदारी से काम लोगे, तो यह घर हमारे जाने के बाद भी खुशियों से महकता रहेगा.’’

‘‘बस, सदा हमारी एक ही बात याद रखो तुम दोनों,’’ आरती उन दोनों से प्यारभरे स्वर में बोलीं.

‘‘आपसी मनमुटाव से दिलोदिमाग पर बहुत सा कूड़ाकचड़ा जमा हो जाता है. इंसान को प्यार करने व लड़नेझगड़ने दोनों के लिए ऊर्जा खर्चनी पड़ती है. तुम दोनों चाहे लड़ो चाहे प्यार करो, पर सदा ध्यान रखना कि ऊर्जा के बहाव में दिलोदिमाग पर जमा वह कूड़ाकचरा जरूर बह जाए. बीते पलों की यादों को फालतू ढोने से इंसान कभी भी नए और ताजे जीवन का आनंद नहीं ले पाता.’’

रवि और संगीता ने उन की बात बड़े ध्यान से सुनी. जब उन दोनों की नजरें आपस में मिलीं, तो दोनों के दिलों में एकदूसरे के लिए प्र्रेम की ऊंची लहर उठी.

‘‘आप अगली बार आएंगे, तो मुझे पूरी तरह बदला हुआ पाएंगे,’’ संगीता ने फौरन अपने सासससुर से मजबूत स्वर में वादा किया

‘‘हमारी आंखें खोलने के लिए आप दोनों को धन्यवाद,’’ कह रवि ने अपने मातापिता के हाथों को चूमा.

‘‘मिल कर अपने बच्चों का शुभ सोचना हमारी एकमात्र इच्छा है. हमारे लड़नेझगड़ने को तो तुम दोनों नाटक समझना,’’ आरती बोलीं.

आरती के इस बचन को सुना कर रमाकांत रहस्यमयी अंदाज में मुसकराने लगे.

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हिंदी व्याकरण में सियासत

मैं जब भी किसी नेता को यह कहते हुए सुनता हूं कि वे तो राजनीति छोड़ना चाहते हैं, पर राजनीति उन्हें नहीं छोड़ती, मुझे उस गरीब की याद आ जाती है जो घोर सर्दी में कहीं से एक कंबल पा गया था. उस से अगर कोई पूछता था, ‘‘बहुत सर्दी है क्या?’’ तो उस का जवाब होता था, ‘‘कतई नहीं.’’ अगला सवाल, ‘‘तो कंबल में यों ठिठुर क्यों रहे हो?’’ उस का जवाब होता, ‘‘मैं तो यह कंबल छोड़ना चाहता हूं पर यह कंबल मुझे नहीं छोड़ता.’’

उक्त प्रसंग का एक खास कारण है कि मेरी भी दशा उन नेताओं जैसी बरबस होती जा रही है. मैं कतई राजनीति नहीं पसंद करता. मैं आजीवन हिंदी लेखन का एक छात्र बना रहना चाहता हूं पर मुसीबत तो यह है कि यह राजनीति मेरे व्याकरण पर भी सवार हो चुकी है. अब क्योंकि हिंदी लेखन तो मैं छोड़ नहीं पाऊंगा लिहाजा, इस से भी पिंड छूटता नजर नहीं आता.

गौर कीजिए, जब देश के राष्ट्रपति के पद के लिए प्रतिभा देवीसिंह पाटिल के नाम का प्रस्ताव आया था तो राजनीतिक हलकों में एक बहस छिड़ गई थी कि अगर उस खास पद पर एक पुरुष हो तो राष्ट्रपति कहा जाना तर्कसंगत है पर जब उस पर कोई महिला हो तो क्या उसे राष्ट्रपत्नी कहा जाना चाहिए? भाई लोगों ने चटखारे लेले कर इस सियासती व्याकरण की खूब खिल्ली उड़ाई थी. प्रतिभा पाटिल के बहाने चली बहस में महात्मा गांधी को भी लपेट लिया गया था कि अगर वे राष्ट्रपिता थे तो क्या कस्तूरबा गांधी राष्ट्रमाता थीं. ऐसी बचकाना हरकत  इंदिरा गांधी के समय में भी एक बार उछाली गई थी. यह एक व्याकरणात्मक राजनीति थी.

अगर इसे आधार मान लिया जाए तो जवाहर लाल नेहरू क्योंकि चाचा नेहरू के नाम से मशहूर हो गए थे, तो क्या उन की पत्नी कमला नेहरू चाची कहलाई गईं?

हरियाणा के एक नेता देवीलाल ताऊ कहलाए जाने लगे थे तो क्या उन की पत्नी ताई कहलाई गईं?

उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ के एक नेता राजा भैया के नाम से मशहूर हैं. सवाल है कि क्या उन की पत्नी को राजा बहन कहा जाए या रानी भैया कहा जाए या रानी बहन कहा जाए? ये सभी मामले विशुद्ध व्याकरणात्मक राजनीति के हैं जिन से मेरा कोई लेनादेना नहीं है पर जब ये लिखने वाली भाषा के व्याकरण में आने लगते हैं तो मेरी तकलीफ नाजायज नहीं कही जाएगी.

अब गौर कीजिए साली का पुल्ंिलग, साला हुआ पर गाली का गाला नहीं हुआ. गठरी का गट्ठा तो हुआ लेकिन मठरी का मट्ठा नहीं हो सकता. लंगड़ी का लंगड़ा तो हुआ, पर गृहिणी का गृहणा नहीं हो सकता, पत्नी का पत्ना भी नहीं हो सकता. पुत्री का पुत्र तो होता है पर नेत्री का नेत्र नहीं हो सकता. खाली का खाला नहीं हो सकता और राजनीति का राजनीता भी नहीं हो सकता. इसी तरह कोयल का कोयला भी नहीं हो सकता.

चाचा का स्त्रीलिंग चाची तो होता है, मामा का मामी भी होता है पर बप्पा का बप्पी कतई नहीं होता. सरकारी कार्यालयों में जूता बोलता है, वह चाहे चांदी का हो या चमड़े का या फिर चाचा, दादा का, पर जूती कतई नहीं बोलती. जबकि दूसरी तरफ दबंग की तूती बोलती है, पर किसी का तूता बोलते आप ने कभी नहीं सुना होगा.

यह समस्या केवल पुल्ंिलग और स्त्रीलिंग में ही नहीं है, एकवचन और बहुवचन में भी है. गाड़ी का बहुवचन गाडि़यां होता है, साड़ी का साडि़यां होता है पर कबाड़ी का कबाडि़यां नहीं होता. बात का बातें तो होता है, लात का लातें भी होता है पर तात (पिता) का तातें नहीं हो सकता. पेड़ का बहुवचन भी पेड़ ही है. आप यह नहीं कह सकते कि इस बाग में 10 पेड़ें हैं, सही तो यही होगा कि इस बाग में 10 पेड़ हैं, ‘जंगल में मोर नाचा’ का बहुवचन होगा ‘जंगल में मोर नाचे’ न कि मोरें नाचे.

अब आप ही बताइए, जैसे दबंग सियासतदां कभी भी और कहीं भी अवैध कब्जों के लिए अलिखित अधिकार पाए हुए होते हैं इसी तरह यह सियासत भी कहीं भी अवैध कब्जा करने के लिए आजाद है. वह लेखन के क्षेत्र में ही नहीं, नदी, तालाब या पाताल तक भी जा सकती है. मामला लिंग का जो ठहरा, इस के पास सत्ता होती है. अब सत्ता का शब्द खुद ही पुल्ंिलग जैसा दिखता है, इस का पुल्ंिलग कैसे बनाया जा सकता है. यह एक व्याकरणात्मक समस्या है राजनीतिक नहीं.

कुछ ऐसा ही मामला विलोम शब्दों के साथ भी है. अंकुश का निरंकुश तो होता है पर माता का निर्माता नहीं हो सकता आदि.

वंश बेल : महाराज जी की दूसरी शादी से क्यों हैरान रह गई सुनीता

पूर्व कथा

रामलीला मैदान में आयोजित कार्यक्रम के दौरान एक स्त्री महाराजजी के आगे ‘बेटा’ न होने का दुखड़ा रोती है तो वह उसे गुरुमंत्र और कुछ पुडि़या देते हैं. कार्यक्रम की समाप्ति पर महाराज विदेशी कार में अपने पूरे काफिले के साथ आश्रम चले जाते हैं. थोड़ी देर आराम करने के बाद अपने खास सेवकों के साथ कार्यक्रम की चर्चा करते हैं तभी एक सेवक कहता है कि गुरुजी इस वंशबेल को बढ़ाने के लिए कोई उत्तराधिकारी तो होना ही चाहिए. लोग कहते हैं कि यदि बेटा होने की कोई दवाई या मंत्र होता तो क्या महाराज का कोई बेटा नहीं होता. उन की बातें सुन कर महाराज दुखी हो जाते हैं. अत: सभी शिष्य मिल कर महाराज के दूसरे विवाह की योजना बनाते हैं. कुछ दिनों के बाद उन के शिष्य एक स्त्री के बारे में अफवाह फैला देते हैं कि एक गर्भवती स्त्री को उस के शराबी पति ने घर से निकाल दिया है और अब वह महाराज की शरण में है. एक दिन सभा के दौरान भक्तों की चुनौती पर महाराज उसे अपनाने को तैयार हो जाते हैं लेकिन जब यह बात महाराज की पहली पत्नी सावित्री को पता चलती है तो वह तिलमिला जाती है. महाराज अपनी दूसरी नवविवाहिता पत्नी सुनीता के साथ दूसरे आश्रम में रहने लगते हैं. सावित्री की नाराजगी दूर करने के लिए उस को ‘गुरु मां’ का दरजा दे देते हैं. कुछ महीनों के बाद सुनीता के गर्भवती होने की खबर पा कर महाराजजी उसे डाक्टर के पास ले जाते हैं और उस के गर्भस्थ शिशु का लिंगभेद जानने के लिए अल्ट्रासाउंड करने को कहते हैं तभी सुनीता, डाक्टर और महाराज के बीच हुई सारी बातें सुन लेती है. अब आगे…

अंतिम भाग

गतांक से आगे…

सुनीता से यह सब सहा नहीं गया और वह बेहद विचलित हो उठी.

महाराज का असली रूप देख कर उस का मन घृणा से भर उठा. वह चाहती तो थी कि उसी समय उस कमरे में जा कर उन दोनों को खूब खरीखरी सुना दे लेकिन महाराज का पद, पैसा, प्रतिष्ठा देख कर वह रुक गई. वह जान गई थी कि महाराज और उन के सेवक उसे क्षण भर में ही मसल कर रख देंगे. महाराज कोई न कोई आरोप लगा कर उसे लांछित और प्रताडि़त कर सकते हैं, क्योंकि अपनी छवि और प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकते हैं. हार कर वह पुन: बाहर बैठ गई.

तब तक महाराज बाहर आ चुके थे. सुनीता को देखते ही उन्होंने कुटिल मुसकान उस पर डाली.

सुनीता बडे़ सधे कदमों से उन तक पहुंची और बोली, ‘‘क्या कहा डाक्टर ने, सब ठीक तो है न?’’

‘‘हां, सब ठीक है,’’ वह थोड़ा चिंतित हो कर बोले, ‘‘यहां की मशीनें इतनी आधुनिक नहीं हैं… कहीं और चल कर दिखाएंगे.’’

‘‘आज तो मैं बहुत थक चुकी हूं. थोड़ा आराम करना चाहती हूं…आप कहें तो आश्रम चलें?’’ सुनीता ने स्वयं पर नियंत्रण रखते हुए बेहद विनम्रता से पूछा.

‘‘हांहां, क्यों नहीं,’’ कहतेकहते महाराज बाहर आ गए. तब तक उन की विदेशी कार पोर्च में आ चुकी थी. सेवकों ने द्वार खोला और वह उस में मुसकराते हुए प्रवेश कर गए. सुनीता ज्यों ही उन के पास आ कर बैठी, कार चल पड़ी.

कार आश्रम में आ गई. सुनीता फौरन महाराजजी के लिए ठंडा पानी ले कर आई. वह जानती थी कि इस समय महाराजजी निजी कमरे में विश्राम करते हैं और उस के बाद भक्तों की भीड़ लग जाती है. फिर कुछ सोचते हुए वह महाराज के पास जा कर बैठ गई और उन के घुंघराले बालों में हाथ फेरते हुए बेहद मुलायम स्वर में बोली, ‘‘आज मैं आप को कहीं नहीं जाने दूंगी. आप के भोजन की व्यवस्था भी यहीं कर देती हूं. मेरा भी तो मन करता है कि अपने महाराजजी, अपने पति परमेश्वर को अपने सामने बैठा कर भोजन कराऊं.’’

इतना कह कर सुनीता उन से लिपट गई. इस से पहले कि महाराज कुछ कहते सुनीता ने जानबूझ कर अपनी साड़ी का पल्लू गिरा कर अपने दोनों वक्षों में महाराज के मुंह को छिपा लिया. सुनीता के गुदाज और गोरे बदन की भीनीभीनी खुशबू में महाराज धीरेधीरे डूबने लगे. उन्होंने सुनीता को कस कर अपने बाहुपाश में जकड़ लिया. सुनीता ने उन की कमजोर नस को दबा रखा था और जानबूझ कर अपने शरीर को उन के शरीर के साथ लपेट लिया. इस से पहले कि महाराज उस के तन से कपड़े अलग करते उस ने महाराज की आंखों में झांकते हुए कहा, ‘‘अब तो मैं आप के बच्चे की मां बनने जा रही हूं. मैं ने आज तक आप से कभी कुछ नहीं मांगा…’’

‘‘तो तुम्हें क्या चाहिए रानी?’’ महाराज ने उस के कपोलों पर चुंबन अंकित कर के पूछा.

‘‘मैं भला क्या चाहूंगी… सभी सुखसुविधाएं तो आप की दी हुई हैं, पर थोडे़ से पैसे और अपने रहनसहन के लिए हर बार आप के सामने प्रार्थना करनी पड़ती है, जो मुझे अच्छा नहीं लगता. आप तो हमेशा बाहर ही रहते हैं और मैं…’’ सुनीता ने जानबूझ कर अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया.

‘‘तो ठीक है. मेरे कमरे के सेफ में कुछ रुपए रखे रहते हैं. मैं उस की चाबी तुम को दे देता हूं. बस, अब तो खुश हो न,’’ कह कर महाराज उस के आगोश में सिमट कर लेट गए.

शाम को जब महाराजजी आश्रम की गतिविधियों को देखने के लिए वहां से जाने लगे तो सुनीता ने खुद ही बात शुरू कर दी :

‘‘महाराज, अब तो आप पिता बनने वाले हैं. आज मैं इनाम लिए बिना नहीं मानूंगी.’’

‘‘इनाम?’’ महाराज चौंक कर उसे देखने लगे.

‘‘क्यों…क्या आप को बच्चे की खुशी नहीं है.’’

‘‘हां, खुशी तो है पर पता नहीं बेटा होगा या…’’ महाराज कुछ सोचते हुए बोले.

‘‘आप को क्या चाहिए…बेटा या बेटी?’’

‘‘बेटा…पहले तो बेटा ही होना चाहिए,’’ महाराज तपाक से बोले.

‘‘तो फिर बेटा ही होगा,’’ कह कर सुनीता हंसने लगी.

‘‘और अगर बेटी हुई तो?’’

‘‘फिर आप जैसा चाहेंगे वैसा ही होगा. मैं आप की पत्नी हूं. मेरा सुख तो आप के साथ ही है. आप नहीं चाहेंगे तो बेटी पैदा नहीं होगी. मैं बस, आप को सुखी और खुश देखना चाहती हूं,’’ कह कर वह उन्हें प्यार से देखने लगी.

इधर महाराज को 6 दिन के लिए एक विशेष शिविर में भाग लेने मध्य प्रदेश जाना पड़ गया. सुनीता को तो ऐसे मौके की ही तलाश थी. इसी बीच सुनीता ने अपने रहने के स्थान पर अभूतपूर्व परिवर्तन कर दिया. इतालवी झूमर व लाइटें, बेहद खूबसूरत नक्काशीदार पलंग, शृंगार की मेज पर विदेशी इत्र एवं पाउडर, गद्देदार सोफे और इंच भर धंसता कालीन…यह सबकुछ इसलिए कि सुनीता चाहती थी कि महाराज जब वापस यहां आएं तो बस, यहीं के हो कर रह जाएं.

उस दिन शाम को जब महाराज शिविर से लौट कर थकेहारे आए तो सुनीता बेहद आकर्षक बनावशृंगार के साथ आभूषणों से लदी खूबसूरत कपड़ों में महाराज का स्वागत करने के लिए आगे बढ़ी. वह उसे देखते ही रह गए. उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी कि सुनीता इतनी खूबसूरत भी हो सकती है.

‘‘बहुत थक गए होंगे आप,’’ महाराज के एकदम पास आ कर सुनीता बोली, ‘‘पहले फ्रैश हो जाइए, तब तक मैं चाय ले कर आती हूं.’’

सुनीता जब तक चाय ले कर आई तब तक महाराज आसपास की वस्तुओं को बडे़ ध्यान से देखते रहे. उन की आंखों की भाषा को पढ़ते हुए वह बोली, ‘‘अब यह मत कहिएगा कि इतना सामान कहां से लिया और महंगा है. आप कमाते किस लिए हैं…उस भविष्य के लिए जो आप ने देखा ही नहीं या उस वर्तमान के लिए जो आप जी नहीं पा रहे हैं. बस, सुबह से शाम तक आश्रम और साधकों को लुभाने के लिए सफेद कुर्ताधोती या गेरुए वस्त्र. इस से बाहर भी कोई दुनिया है,’’ इतना कह कर सुनीता उन्हें प्यार से सहलाने लगी, ‘‘अच्छा, अब आप स्नान कर लीजिए. मैं अपने हाथ से आप के लिए खाना लगाती हूं. बहुत हो गया सेवकों के हाथ से खाना खाते हुए,’’ सुनीता ने अलमारी से एक सिल्क का कुरता निकाला और महाराज को पकड़ा दिया.

‘‘अरे, यह सब?’’ आश्चर्य और प्रसन्नता से उन्होंने पूछा.

‘‘क्यों, अच्छा नहीं है क्या? यहां पर आप कोई महंत या महात्मा तो हैं नहीं. मैं जैसा चाहूंगी वैसा आप को रखूंगी,’’ कह कर उस ने महाराज के गालों पर चुंबन अंकित कर दिया.

महाराज आज सुबह बहुत ही तरोताजा लग रहे थे. कमरे के साथ लगे लान में वह अखबार पढ़ रहे थे. तभी सुनीता चाय की ट्रे करीने से सजा कर उन के पास ले आई और महाराज की तरफ तिरछी नजर से देखते हुए बोली, ‘‘आज तो आप बहुत ही फ्रेश लग रहे हैं. कैसी लगी आप को मेरी पसंद और घर का बदला हुआ स्वरूप?’’

‘‘घर से ज्यादा तो तुम्हारे बदले हुए रूप ने मुझे प्रभावित किया है,’’ महाराज ने शरारत भरी नजरों से सुनीता को देखते हुए कहा, ‘‘आज मैं सचमुच तुम्हारी पसंद से बहुत खुश हूं. तुम मुझे पहले क्यों नहीं मिलीं.’’

‘‘महाराजजी, मेरा बस चले तो आश्रम की व्यवस्था और सुंदरता की कायापलट कर दूं. इतनी दूरदूर से लोग आप से मिलने आते हैं. उन्हें भी सुखसुविधाएं मिलनी चाहिए. आते ही ठंडा पानी, बैठने के लिए आरामदायक स्थान और भोजन आदि की व्यवस्था…आप का भी मान बढे़गा और लोग भी खुशीखुशी आएंगे.’’

‘‘पर इस के लिए इतना धन चाहिए कि…’’

‘‘आप को धन की क्या कमी है, महाराज,’’ सुनीता बीच में बात काटते हुए बोली, ‘‘लक्ष्मी तो आप पर विशेष रूप से मेहरबान है.’’

महाराज अपनी प्रशंसा सुन कर मुसकराने लगे…फिर बोले, ‘‘अच्छा, मैं अपनी समिति के सदस्यों और अंतरंग सेवकों से सलाह ले लूं.’’

‘‘अंतरंग सदस्यों से? महाराज, यह आश्रम आप का है. सलाह सब की लें पर निर्णय आप का ही होना चाहिए. यदि हर काम उन से सलाह ले कर करेंगे तो देखना एक दिन सब आप को लूट खाएंगे. आप तो बस, अपना निर्णय सुनाइए.’’

‘‘सुनीता, इस आश्रम के नियमों में तो मैं कोई परिवर्तन नहीं कर सकता हूं, हां, शहर के दूसरी तरफ मुझे एक भक्त ने 2 बीघा जमीन दान मेें दी है. तुम उस पर जैसा चाहो वैसा करो. उस के डिजाइन, रखरखाव में जैसा परिवर्तन चाहोगी वैसा कर सकती हो. तुम चाहोगी तो कुछ सेवक भी वहां नियुक्त कर दूंगा.’’

सुनीता को तो जैसे मनचाही खुशी मिल गई.

महाराज तैयार हो कर आश्रम जाने लगे तो सुनीता सहमे स्वर में बोली, ‘‘कल मैं आप के पीछे आप की आज्ञा के बिना पास के क्लीनिक में गई थी. बाकी तो सब ठीक है पर महाराज, बडे़ खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि गर्भस्थ शिशु लड़की ही है.’’

‘‘लड़की…ओफ,’’ महाराज ने ऐसे कहा जैसे कुछ जानते ही न हों.

‘‘मैं जानती थी कि आप को यह सुन कर दुख होगा क्योंकि आप बेटा चाहते हैं, इसलिए मैं ने डाक्टर को कह दिया कि हमें लड़की नहीं चाहिए. डाक्टर ने कहा है कि इस काम के लिए कुछ दिन और इंतजार करना पडे़गा और 5 हजार रुपए का खर्चा आएगा.’’

सुनीता अच्छी तरह जानती थी कि यदि खुद उस ने ऐसा नहीं कहा तो किसी दिन वह स्वयं उसे किसी न किसी बहाने किसी बडे़ क्लीनिक या अस्पताल में ले जाएंगे. तब वह दीनहीन बन कर अपना सर्वस्व समाप्त कर लेगी.

महाराज ने सोचा भी नहीं था कि इतनी आसानी से सुनीता गर्भपात के लिए तैयार हो जाएगी. उन्होंने एक भेदभरी नजर से उस को देखा फिर अंक में भर कर बोले, ‘‘तुम दुख न मनाओ…हां, अपना ध्यान रखना. मैं तुम जैसी पत्नी को पा कर धन्य हो गया हूं.’’

धीरेधीरे समय बीतता गया. महाराज से अति निकटता प्राप्त करने का सुनीता ने कोई भी अवसर नहीं गंवाया. नए आश्रम की बागडोर भी महाराज ने उसे दे दी, जैसा कि वह चाहती थी. इतना ही नहीं दिनप्रतिदिन उस के चेहरे पर निखार आता गया और वह नएनए गहनों में इठलाती, इतराती घूमती रहती.

एक दिन वही हुआ जो होना था. दोपहर को सुनीता अपने कमरे में बैठी फोन पर बात कर रही थी कि तभी महाराज तेजी से आए और सेफ की चाबियां मांगने लगे.

‘‘क्यों, ऐसा क्या हो गया आज. आप 2 मिनट विश्राम तो कीजिए,’’ कह कर वह तेजी से स्थिति को भांप गई और फोन को पास ही में रख कर खड़ी हो गई.

‘‘होना क्या था. मेरा एक 10 लाख का चेक बैंक से वापस आ गया है. समझ में नहीं आता कि ऐसा कैसे हो गया जबकि बैंक में बैलेंस भी था.’’

‘‘इतने बडे़ अमाउंट का चेक आप ने किसे दे दिया? आप ने तो कभी बताया ही नहीं.’’

‘‘यह सब बताने का समय मेरे पास नहीं है. पैसा आज न दिया तो मेरे हाथ से बहुत बड़ी जमीन निकल जाएगी.’’

‘‘पर सेफ में इतने रुपए कहां हैं,’’ सुनीता ने कहा.

‘‘क्यों?’’ महाराज की भौंहें तन गईं. 20 लाख से अधिक रकम होनी चाहिए वहां तो.

‘‘महाराजजी, आप को याद नहीं कि आप से पूछ कर ही तो यहां की साजसज्जा और अपने लिए रुपए लिए थे…और फिर नए आश्रम का काम भी तो…’’

‘‘सुनीता,’’ महाराज अपने क्रोध को नियंत्रित न कर पाए, ‘‘मैं कल उस आश्रम में भी गया था. वहां सब मिला कर 5 लाख से ऊपर खर्च नहीं हुए होंगे.’’

‘‘तो मैं ने कौन से अपने लिए रख लिए हैं. सबकुछ तो आप के सामने है. तब तो आप की जबान मेरी तारीफ करते नहीं थकती थी और अब…’’ सुनीता तुनक कर बोली.

‘‘अब समझ में आया कि इन सारे खर्चों की आड़ में तुम ने मेरा काफी पैसा ले लिया है,’’ कह कर महाराजजी तेजी से सेफ खोल कर देखने लगे. वहां केवल 50 हजार रुपए कैश रखे थे. वह माथा पकड़ कर वहीं बैठ गए फिर तेज स्वर में बोले, ‘‘सचसच बताओ, सुनीता, तुम ने ये सारे रुपए कहां रखे हैं. एक तो मेरा सारा बैंक का रुपया सावित्री ने न जाने कहांकहां खर्च कर दिया और ऊपर से तुम ने.’’

‘‘सावित्री…ये सावित्री कौन है?’’

‘‘सावित्री, मेरी पत्नी… तुम नहीं जानतीं क्या?’’

‘‘तो मैं कौन हूं? आप ने कभी बताया नहीं कि आप ने दूसरा विवाह भी किया है. मुझे भी धोखे में रखा है.’’

‘‘तो तुम उसी धोखे का बदला ले रही हो मुझ से? जितना मानसम्मान, धन, ऐश्वर्य मैं ने तुम को दिया है तुम्हें सात जन्मों में भी नसीब न होता.’’

‘‘आप की पत्नी होने से तो अच्छा था मेरे पिता कोई अंधा, बहरा, लूलालंगड़ा दूल्हा ढूंढ़ देते तो मैं खुद को ज्यादा तकदीर वाली समझती.’’

‘‘मैं ने इतनी मेहनत से जो पैसा जमा किया है अब समझ में आया, तुम ने क्या किया.’’

‘‘मेहनत से या लोगों को बेवकूफ बना कर. आप महात्मा हैं या ढोंगी. अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए कैसा घिनौना खेल खेल रहे हैं,’’ सुनीता का स्वर जरूरत से ज्यादा तेज हो गया, ‘‘लोगों को पुत्र होने के मंत्र और भस्म देते हैं. जरा स्वयं पर भी तो उसे आजमाइए तो पता चले. आप की जानकारी के लिए बता दूं कि स्त्री केवल एक उपजाऊ भूमि होती है. और बेटा या बेटी पैदा करने के लिए जिस बीज की जरूरत होती है वह पुरुष के पास होता है, स्त्री के पास नहीं… तुम दोष स्त्री को देते हो. मैं इन सारे तथ्यों को लोगों को बताऊंगी ताकि लोगों के विश्वास को धक्का न पहुंचे, जो अपना एकएक पैसा जोड़ कर बड़ी श्रद्धा से आप के चरणों में भेंट चढ़ाते हैं.

‘‘आप ने सारे तथ्यों को छिपा कर मुझ से विवाह किया. मुझे पहले ही मालूम होता कि आप विवाहित और 3 लड़कियों के पिता हैं तो मैं कभी भी विवाह न करती और आप ने मुझ से केवल इसीलिए विवाह किया कि मैं बेटा पैदा कर सकूं. आप के शिष्यों ने पता नहीं क्याक्या झूठ बोल कर मेरे गरीब मातापिता को भ्रम में रखा और जब तक मुझे सचाई का पता चलता, बहुत देर हो चुकी थी.

‘‘जिस औरत ने मुझे सहारा दिया और मुसीबत के क्षणों में मेरा साथ दिया, जिस के कहने पर यह सारा प्रेम प्रपंच रचा गया वह आप के पीछे खड़ी है. मैं तो एक साधारण औरत ही थी.’’

महाराज ने पीछे मुड़ कर देखा तो उन की पत्नी सावित्री खड़ी थी. महाराज एकदम अचंभित से हो गए.

सावित्री उन्हें तीखी नजरों से देखने लगी, ‘‘महाराज, जिस तरह आप ने लोगों से धन जमा किया है, हम ने भी उसी प्रकार आप से ले लिया है. आप जहां शिकायत करना चाहें करें पर इतना ध्यान जरूर रखें कि आप के कारनामे सुनने के लिए बाहर समाचारपत्र और टीवी चैनल वाले आप का इंतजार कर रहे हैं.’’

महाराज को ऐसा कोई रास्ता नहीं मिल रहा था कि वह बाहर जा सकें. खिड़की का परदा हटा कर देखा तो आश्रम के बाहर हजारों व्यक्तियों की भीड़ उमड़ पड़ी थी जो काफी गुस्से में थी.

सावित्री ने सुनीता के सिर पर हाथ रख कर कहा, ‘‘अब तुम मेरे संरक्षण में हो. तुम्हें घबराने की कोई जरूरत नहीं है. जिस इनसान को भीड़ से बचने की चिंता है वह हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता.’

ब्राह्मण यूनियन

पंडित अंबाप्रसाद सवेरे जल का लोटा ले कर सूर्य देवता को अर्पण करने जब छत पर पहुंचे तब उन के पड़ोसी केदारनाथ बेचैनी से छत पर चहलकदमी कर रहे थे. केदारनाथ यूनियन के नेता थे और यह चहलकदमी भी कोई नई बात नहीं थी. पंडित अंबाप्रसाद पड़ोसी का हाल बेहाल देख कर मन ही मन बड़े प्रसन्न हुए, पर प्रकट रूप में सूर्य को नमस्कार कर, श्रद्धा से जल अर्पण कर और उच्च स्वर में ‘हरिओम’ की गुहार लगा कर पड़ोसी से बोले, ‘‘तो अभी तक कुछ फैसला नहीं हुआ आप की यूनियन का?’’

केदारनाथ, अंबाप्रसाद के मन की बात ताड़ते हुए निश्ंिचतता की मुद्रा में बोले, ‘‘फैसला भी हो जाएगा, अंबाप्रसादजी, हमारे खिलाफ तो फैसला होने से रहा. आप को तो पता ही है, यह ट्रेड यूनियन का युग है. यूनियन के आगे अच्छेअच्छे घुटने टेक देते हैं. फिर यह तो जरा सा मामला है.’’

अंबाप्रसाद भी पड़ोसी से हार मानने के लिए तैयार नहीं थे. कुछ सोचविचार कर उन्होंने आंखें गोल कर गोपनीय बात कहने के अंदाज में केदारनाथ से धीरेधीरे कहना शुरू किया, ‘‘देखो, भाई साहब, यह तो ठीक है कि ट्रेड यूनियन का जमाना है और यूनियन में बड़ा दम होता है, पर आप की नामराशि के ग्रहयोग ठीक नहीं हैं, इसलिए कुछ उपाय कर लीजिए वरना सफलता मिलने में संदेह है.’’

केदारनाथ मुसकरा कर बोले, ‘‘पंडितजी, हमारी और निदेशक महोदय की नामराशि एक ही है, हम केदारनाथ और वह केहरीसिंह. जो होगा, देखा जाएगा. उपाय करने से ही क्या होगा?’’

अंबाप्रसाद छत से नीचे उतर आए. कौन इस दुष्ट के मुंह लगे और सवेरेसवेरे अपना मन खराब करे. शाम को वैसे भी पंडित दुर्गाप्रसाद का तार आया था, आने वाले ही होंगे. संदेश में आने का प्रयोजन तो लिखा नहीं, फिर क्या पता चले कि क्या बात है? पर जरूर कोई खास बात होगी, जो तार द्वारा अपने आने की सूचना भिजवाई है.

अंबाप्रसाद अपनी गद्दी पर बैठ कर कुछ यजमानों के वर्षफल निकालने लगे. कई दिनों से हाथ बड़ा तंग चल रहा था. कोई जन्मकुंडली दिखाने वाला पहुंचे तो बात बने.

अंबाप्रसाद अभी अपना काम भी खत्म नहीं कर पाए थे कि बाहर आटोरिकशा के रुकने की आवाज हुई. उन्होंने खिड़की का परदा उठा कर बाहर झांका, पंडित दुर्गाप्रसाद आ पहुंचे थे. अपनी कागज- पोथी सब समेट कर अंबाप्रसाद ने अलमारी में रख दी और आगंतुक का स्वागत करने मुख्यद्वार की तरफ बढ़ गए.

दुर्गाप्रसाद काफी कमजोर लग रहे थे, पर उन की आवाज अभी उसी तरह जोश भरी थी. कुशलक्षेम और औप- चारिकता के पश्चात दुर्गाप्रसाद अपने आने के प्रयोजन पर पहुंच गए. वह गंभीर स्वर में बोले, ‘‘अंबाप्रसाद, अब ब्राह्मण परिषद के गठन का समय आ गया है. अब हर कोई यह जानता है कि आज का युग ट्रेड यूनियन का युग है. समाज का हर वर्ग अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संगठित हो चुका है, सिर्फ ब्राह्मण समाज ही है जो चारों तरफ बिखरा पड़ा है और इसी लिए उसे यजमानों की दया पर निर्भर रहना पड़ता है.’’

अंबाप्रसाद, दुर्गाप्रसाद का वक्तव्य सुन कर हैरत में आ गए. मन में सोचने लगे, ‘तो क्या अब ब्राह्मणों की भी ट्रेड यूनियन बनेगी?’ पर वह सहमति में सिर हिलाते हुए बोले, ‘‘यह बात तो आप की अक्षरश: सत्य है.’’

‘‘हम ब्राह्मण सदियों से आपस में द्वेष रखते हैं. एक ब्राह्मण दूसरे को देख कर ऐसे गुर्राता है जैसे गली में दूसरे कुत्ते को देख कर कुत्ता. मुझे तो यह कहते भी शर्म आती है कि मेरा पड़ोसी मिसरा गुनगुनाता रहता है कि ‘ब्राह्मण, कुत्ता, नाऊ, जाति देख गुर्राऊ’,’’  दुर्गाप्रसाद बोले.

अंबाप्रसाद को भी अपना पड़ोसी याद आया, जो उन के पांडित्य का लोहा नहीं मानता, बस राजनीतिक जोड़तोड़ में लगा रहता है. उन्होंने दुर्गाप्रसाद की बात का समर्थन करते हुए कहा, ‘‘हमारे शहर में ब्राह्मणों ने एक ब्राह्मण परिषद बना रखी है, जिस के अध्यक्ष पंडित भवानीसिंह हैं. आप कहें तो उन के पास चल कर अखिल भारतीय ब्राह्मण सम्मेलन का आयोजन करने की चर्चा करें?’’

दुर्गाप्रसाद को यह युक्ति जंच गई. वह तुरंत चलने को तैयार हो गए. दुर्गाप्रसाद ने भवानीसिंह से हुई पहली ही मुलाकात में यह भांप लिया कि आदमी बड़े जीवट का है और असरदार भी. दुर्गाप्रसाद की हर बात भवानीसिंह ने बड़े ध्यान से सुनी और यह सुझाव दिया कि एक विशाल भारतीय ब्राह्मण सम्मेलन बुलाया जाए और ब्राह्मणों द्वारा किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों की एक दर सूची बना दी जाए. इस से यजमानों में भी ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धा भाव उत्पन्न होगा और ब्राह्मणों की गलाकाट स्पर्धा के कारण, जो यजमान कभीकभी सत्यनारायण की कथा करवा कर दक्षिणा में चवन्नी ही टिकाते हैं, उन की भी आंखें खुलेंगी.

अंबाप्रसाद और दुर्गाप्रसाद ने इस प्रस्ताव का जोरदार स्वागत किया. भवानीसिंह ने अगले ही दिन अपनी योजना को कार्यान्वित करना शुरू कर दिया और दसों दिशाओं में ब्राह्मणों को निमंत्रण भेजे जाने लगे. सभा का आयोजन सनातन धर्म कालिज के हाल में किया गया. पहली बार ब्राह्मण सम्मेलन हो रहा था.

दूरदूर से ब्राह्मण लोग इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए पधार रहे थे. उन की छटा देखते ही बनती थी. आधुनिकता का रंग चढ़े हुए ब्राह्मण पैंटबुशर्ट में थे तो कुछ कुरतेपाजामे में. कुछ पुरातन परंपरा- वादी धोतीकुरते में थे और कुछ पगड़ी व बगलबंदी में दिखाई पड़ रहे थे.

सभा के आरंभ में संयोजक अंबाप्रसाद ने ब्राह्मण परिषद की आवश्यकता पर जोर दिया और ट्रेड यूनियन के महत्त्व को समझाया, तत्पश्चात भवानीसिंह ने अध्यक्ष पद की गरिमा को देखते हुए अपना भाषण शुरू किया, ‘‘भाइयो, दूरदूर से पधारे ब्राह्मणों का मैं हार्दिक स्वागत करता हूं. हम लोग आज यहां पर एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य से एकजुट हुए हैं. यजमानों की मनमानी से बचने के लिए विभिन्न अवसरों पर हमें यजमान से क्या शुल्क (दक्षिणा) लेना चाहिए इस के निर्धारण के लिए गठित प्रवर समिति के सभी निर्णयों पर काफी विचार हो चुका है. अब इस दर सूची की एकएक प्रतिलिपि सभी आगंतुक महानुभावों को अर्पित की जा रही है. इसे देख कर आप सब अपनीअपनी सहमति से हमें अवगत कराएं.’’

दर सूची की एकएक प्रतिलिपि सब को बंट चुकी थी. अगली पंक्ति में बैठे नवयुवक ब्राह्मण उस को पढ़ कर फूले नहीं समा रहे थे. वे प्रफुल्लित स्वर में बोल रहे थे, ‘‘वाह, इसे कहते हैं एकता में बल. देखा, नामकरण संस्कार की शुल्कदर पिता की संपत्ति का 20वां हिस्सा यानी 5 प्रतिशत, पाणिग्रहण संस्कार की दक्षिणा दहेज का 10 प्रतिशत, गृहप्रवेश का शुल्क मकान के मूल्य का 5 प्रतिशत, कथावाचन के 51 रुपए, जन्मकुंडली के 101 रुपए.’’

‘‘अरे, इसे कहते हैं यूनियन बना कर रहना. आज ट्रेड यूनियन का जमाना है. बस, भैया, गरीबी के दिन लद गए, पंडितों ने आज पहली बार अपनी आवाज उठाई है,’’ एक गद्गद स्वर उभरा.

‘‘अजी, पंडित जन्म से ले कर मृत्यु तक और उस के बाद भी पिंडदान, श्राद्ध आदि कर्म करवा कर मनुष्यों का उद्धार करवाते हैं, किंतु दानदक्षिणा की तुच्छ सी रकम पाने वाले हम लोग यजमान के आगे कैसे असहाय नजर आते हैं,’’ एक बोला.

‘‘अपनी ग्रहदशा जान कर यजमान भविष्य सुधार कर लाखों रुपया कमाते हैं और हमें चवन्नी पकड़ा देते हैं,’’ एक पंडित तलखी से बोला.

एक नवयुवक ब्राह्मण जो पुरोहिताई के धंधे में नएनए जम रहे थे, इस सूची का समर्थन करते हुए चीख रहे थे, ‘‘यह सूची ब्राह्मण कर्म के उपयुक्त है. इस में छपी हुई दरों के मुताबिक ही सब पुरोहित एक जैसी दक्षिणा यजमानों से वसूलें. जो इस कानून को तोड़ेगा उस का जातीय बहिष्कार किया जाएगा.’’

नवयुवकों के पीछे बूढ़े पुरोहित पंडित राधेश्याम ने शांति से कहा, ‘‘वत्स, दानदक्षिणा की कोई दर तय नहीं होती. यह तो यजमान की आर्थिक स्थिति और श्रद्धा पर निर्भर करती है. यह दर तालिका कोरी भावुकता है, अव्यावहारिक है.’’

पंडित द्वारिकाप्रसादजी ने भी बुजुर्ग पंडित की बात का समर्थन करते हुए कहा, ‘‘ऊंची फीस लेने वाले वैद्य, डाक्टर, वेश्या और वकील हमेशा मक्खियां ही मारा करते हैं. कोई ग्राहक उन के पास नहीं फटकता.’’

पंडित जगन्नाथप्रसाद ने कुरसी छोड़ कर खड़े होते हुए अपनी धोती की लांग ठीक की और सख्त आवाज में कहा, ‘‘ब्राह्मण सम्मेलन का उद्देश्य क्या ब्राह्मण कर्म के लिए प्रस्तावित दर सूची पारित करना ही था? ब्राह्मणों के लिए शिक्षा या अन्य सुविधाएं जुटाने का कोई प्रस्ताव इस सम्मेलन के पास नहीं है?’’

पंडित द्वारिकाप्रसाद भी आक्रोश में उठ कर खड़े हुए, ‘‘यह भवानी हमेशा अपनी नेतागीरी दिखाता है. इस तरह की दरें नियत कर यह हमें भूखों मार देगा. यजमान का मुंह देख कर ही दक्षिणा मांगी जाती है. आज के वैज्ञानिक युग में वैसे भी सारी पंडिताई धूल में मिलती जा रही है. इस तरह तो एक दिन ऐसा आ जाएगा जब पंडितों को कोई घास भी नहीं डालेगा.’’

जो नवयुवक पुरोहित दर सूची को पारित करवाने के लिए जोर दे रहे थे, ऐसे भाषण सुन कर तिलमिला उठे. उन्हें सुनहरे भवन ढहते जान पड़े. वे द्वारिकाप्रसाद की बात पर चिढ़ कर चिल्लाते हुए बोले, ‘‘आप यह घास डालने की बात किसे कह रहे हैं? हम लोग क्या कोई जानवर हैं?’’

‘‘चुप बे, सड़कछाप बरुए, हमारे आगे बोल रहा है,’’ पंडित जगन्नाथप्रसाद सब शिष्टाचार भूल कर तूतड़ाक पर उतर आए. पंडित जगन्नाथप्रसाद के बोलते ही पीछे से किसी ने फटा हुआ जूता मंच पर फेंक कर मारा. संयोजक अंबाप्रसाद मंच से चीखे, ‘‘अरे, यह कौन असामाजिक तत्त्व हाल में घुस आया? पकड़ो, पकड़ो बदमाश को.’’

घड़ी भर में ही सभाभवन का वातावरण बदल गया, ‘‘मारो इन बदमाशों को, चले हैं यूनियन बनाने. मारो…मारो.’’

तरहतरह की आवाजों के साथ मंच पर चप्पलजूतों की बौछार शुरू हो

गई. गेंदे और गुलाब के फूलों से सजा मंच क्षण भर में जूते- चप्पलों से भर गया. संयोजक अंबाप्रसाद और अध्यक्ष भवानीसिंह कब दुम दबा कर मंच से खिसक गए, यह किसी को पता नहीं चला और ब्राह्मण परिषद भंग हो गई. द्य

योग की पोल

पिछले 3 दिनों से रतन कुमारजी का सुबह की सैर पर हमारे साथ न आना मुझे खल रहा था. हंसमुख रतनजी सैर के उस एक घंटे में हंसाहंसा कर हमारे अंदर एक नई ऊर्जा का संचार कर देते थे.

क्या बताएं, जनाब, हम दोनों ही मधुमेह से पीडि़त हैं. दोनों एक ही डाक्टर के पास जाते हैं. सही समय से सचेत हो, नियमपूर्वक दवा, संतुलित भोजन और प्रतिदिन सैर पर जाने का ही नतीजा है कि सबकुछ सामान्य चल रहा है यानी हमारा शरीर भी और हम भी.

बहरहाल, जब चौथे दिन भी रतन भाई पार्क में तशरीफ नहीं लाए तो हम उन के घर जा पहुंचे. पूछने पर भाभीजी बोलीं कि छत पर चले जाइए. हमें आशंका हुई कि कहीं रतन भाई ने छत को ही पार्क में परिवर्तित तो नहीं कर दिया. वहां पहुंच कर देखा तो रतनजी  योगाभ्यास कर रहे थे.

बहुत जोरजोर से सांसें ली और छोड़ी जा रही थीं. एक बार तो ऐसा लगा कि रतनजी के प्राण अभी उन की नासिका से निकल कर हमारे बगल में आ दुबक जाएंगे. खैर, साहब, 10 मिनट बाद उन का कार्यक्रम समाप्त हुआ.

रतनजी मुसकराते हुए बोले, ‘‘आइए, आइए, देखा आप ने स्वस्थ होने का नायाब नुस्खा.’’

मैं ने कहा, ‘‘यार, यह नएनए टोटके कहां से सीख आए.’’

वह मुझे देख कर अपने गुरु की तरह मुखमुद्रा बना कर बोले, ‘‘तुम तो निरे बेवकूफ ही रहे. अरे, हम 2 वर्षों से उस डाक्टर के कहने पर चल, अपनी शुगर केवल सामान्य रख पा रहे हैं. असली ज्ञान तो अपने ग्रंथों में है. योेग में है. देखना एक ही माह में मैं मधुमेह मुक्त हो जाऊंगा.’’

मैं ने कहा, ‘‘योगवोग अपनी जगह कुछ हद तक जरूर ठीक होगा पर तुम्हें अपनी संतुलित दिनचर्या तो नहीं छोड़नी चाहिए थी. अरे, सीधीसादी सैर से बढ़ कर भी कोई व्यायाम है भला.’’

उन्होंने मुझे घूर कर देखा और बोले, ‘‘नीचे चलो, सब समझाता हूं.’’

नीचे पहुंचे तो एक झोला लिए वह प्रकट हुए. बड़े प्यार से मुझे समझाते हुए बोले, ‘‘मेरी मौसी के गांव में योगीजी पधारे थे. बहुत बड़ा योग शिविर लगा था. मौसी का बुलावा आया सो मैं भी पहुंच गया. वहां सभी बीमारियों को दूर करने वाले योग सिखाए गए. मैं भी सीख आया. देखो, वहीं से तरहतरह की शुद्ध प्राकृतिक दवा भी खरीद कर लाया हूं.’’

मैं सकपकाया सा कभी रतनजी को और कभी उन डब्बाबंद जड़ीबूटियों के ढेर को देख रहा था. मैं ने कहा, ‘‘अरे भाई, कहां इन चक्करों में पडे़ हो. ये सब केवल कमाई के धंधे हैं.’’

रतनजी तुनक कर बोले, ‘‘ऐसा ही होता है. अच्छी बातों का सब तिरस्कार करते हैं.’’

इस के बाद मैं ने उन्हें ज्यादा समझाना ठीक नहीं समझा और जैसी आप की इच्छा कह कर लौट आया.

एक सप्ताह बाद एक दिन हड़बड़ाई सी श्रीमती रतन का फोन आया, ‘‘भाईसाहब, जल्दी आ जाइए. इन्हें बेहोशी छा रही है.’’

मैं तुरंत डाक्टर ले कर वहां पहुंचा. ग्लूकोज चढ़ाया गया. 2 घंटे बाद हालात सामान्य हुए. डाक्टर साहब बोले, ‘‘आप को पता नहीं था कि मधुमेह में शुगर का सामान्य से कम हो जाना प्राणघातक होता है.’’

डाक्टर के जाते ही रतनजी मुंह बना कर बोले, ‘‘देखा, मैं ने योग से शुगर कम कर ली तो वह डाक्टर कैसे तिलमिला गया. दुकान बंद होने का डर है न. हा…हा हा….’’

मैं ने अपना सिर पकड़ लिया. सोचा यह सच ही है कि हम सभी भारतीय दकियानूसी पट्टियां साथ लिए घूमते हैं. बस, इन्हें आंखों पर चढ़ाने वाला चाहिए. उस के बाद जो चाहे जैसे नचा ले.

एक माह तक रतनजी की योग साधना जारी रही. हर महीने के अंत में हम दोनों ब्लड टेस्ट कराते थे. इस बार रतनजी बोले, ‘‘अरे, मैं पूरी तरह से स्वस्थ हूं. कोई परीक्षण नहीं कराऊंगा.’’

अब तो परीक्षा का समय था. मैं बोला, ‘‘दादा, अगर तुम्हारी रिपोर्ट सामान्य आई तो कल से मैं भी योग को पूरी तरह से अपना लूंगा.’’

बात बन गई. शुगर की जांच हुई. नतीजा? नतीजा क्या होना था, रतनजी का ब्लड शुगर सामान्य से दोगुना अधिक चल रहा था.

रतनजी ने तुरंत आश्रम संपर्क साधा. कोई संतोषजनक उत्तर न पा कर  वह कार ले कर चल पड़े और 2 घंटे का सफर तय कर आश्रम ही जा पहुंचे.

मैं उस दिन आफिस में बैठा एक कर्मचारी से किसी दूसरे योग शिविर की महिमा सुन रहा था. रतनजी का फोन आया, ‘‘यार, योगीजी अस्वस्थ हैं. स्वास्थ्य लाभ के लिए अमेरिका गए हैं. 3 माह बाद लौटेंगे.’’

मैं ठहाके मार कर हंसा. बस, इतना ही बोला, ‘‘लौट आओ यार, आराम से सोओ, कल सैर पर चलेंगे.’’

Serial Story: गुंडा (भाग-2)

पूर्वकथा :

मेरी की सभी सहेलियां और चंदू व आनंद कालेज की गतिविधियों में भाग लेते थे. आनंद जहां गंभीर और काफी अमीर था वहीं चंदू एक नरमदिल इंसान था. हर कार्य वह निस्वार्थ भाव से करता था जबकि आनंद अपना बुराभला देख कर ही काम करता था. नीरू आनंद की दीवानी हो गई थी लेकिन कालेज में घटी एक घटना ने उस की सोच ही बदल दी.

अब आगे…

कालेज चुनाव में शीतल जीत गई थी. जीत की पार्टी वह अपने सारे दोस्तों को कैंटीन में दे कर लौटी थी. नीरू के लिए विशेष निमंत्रण था. वैसे भी अब वह उन के घर  लगी थी, क्योंकि उन के साथ एक अनकहा सा रिश्ता बन गया था. आनंद का व्यवहार ऐसा होता जैसे उस का उस पर कोई हक हो.

शीतल भी ऐसा ही व्यवहार करती थी, क्योंकि वह समझ गई थी कि उस का भाई नीरू को बहुत पसंद करता है. तीनों कार की ओर जा ही रहे थे कि इतने में जोर की चीख सुनाई पड़ी. चारों ओर से सारे विद्यार्थी उस ओर दौड़ पड़े. माली का बेटा जो अकसर अपने पिता के साथ काम करने आया करता था जोरजोर से रो रहा था. कुदाल लग जाने से उस का पैर लहूलुहान हो गया था. घाव कुछ ज्यादा ही गहरा था. सभी लोग तरहतरह के सुझाव दे रहे थे. कोई आटो बुलाने जा रहा था, कोई प्रिंसिपल के कमरे की ओर दौड़ रहा था तो कोई कह रहा था कि डाक्टर को ही यहां बुला लो.

नीरू को लगा आनंद उसे अपनी कार से डाक्टर के पास ले जाएगा, मगर वह मौन खड़ा तमाशा देख रहा था. पता नहीं कहां से चंदू आया उस ने माली के सिर का साफा निकाला और बच्चे के पैर में बांध दिया. फिर 10-12 साल के बच्चे को अपने हाथों में उठा लिया और कहा, ‘‘चलो यार, कोई मेरे साथ. मेरी जेब से मेरी बाइक की चाबी निकाल कर गाड़ी चलाओ. मैं इसे ले कर पीछे बैठता हूं.’’ फाटक काफी दूर था अगर कोई आटो ले कर आता तो तब तक काफी खून बह जाता.

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इस के बाद शीतल के घर जा कर भी नीरू अनमनी सी ही रही. न उसे वहां पैस्ट्रीज अच्छी लगीं न कोल्डड्रिंक्स.

‘‘क्या हो गया नीरू तुम्हें, क्या तुम मेरी जीत से खुश नहीं हो?’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है…’’

‘‘शायद माली के बेटे वाली घटना से विचलित है. दिल इतना कमजोर होगा तो कैसे चलेगा. यह तो उन के जीवन का भाग है,’’ आनंद हंसा.

उसे लगा वह उस की हिम्मत नहीं बंधा रहा है बल्कि हंसी उड़ा रहा है.

‘‘मैं तो उस घटना को वहीं भूल गई. नीरू तुम्हें सख्त होना पड़ेगा, नहीं तो तुम्हारे लिए बहुत मुश्किल होगी,’’ शीतल ने कहा.

‘‘सख्त, यह तो संवेदनहीनता है. एक गरीब, निसहाय आदमी को भी बच्चा उतना ही प्यारा होता है जितना एक करोड़पति को. ऊपर से अस्पताल का खर्च. कैसे झेल पाएगा वह?’’ उस का हृदय भीग गया.

‘‘छोड़ो यार, तुम तो ऐसे डिस्टर्ब हो जैसे वह तुम्हारा अपना हो. यह सब तो चलता रहता है. ठीक है तुम्हारा मूड ठीक करने का उपाय मैं जानती हूं.’’

‘‘अच्छा शीतल, मुझे कुछ काम है. अभी आता हूं,’’ कह कर आनंद वहां से

चला गया.

‘‘सुनो नीरू, पापा बाहर गए हुए हैं. शायद 2-3 दिन में वापस आएंगे. उन के वापस आते ही भैया तुम्हारी बात चलाएंगे,’’ उस ने बड़ी अपेक्षा से नीरू की ओर देखा. कोई प्रतिक्रिया न पा कर वह स्वयं बोली, ‘‘अरे यार, मैं तो समझी थी कि तुम खुशी से उछल पड़ोगी. भैया को तो कोई पसंद ही नहीं आती थी. कितनी लकी हो तुम, जिस के पीछे लड़कियां लाइन लगाती हों, वे स्वयं तुम्हारे पीछे हैं.’’

नीरू का वहां और रुकने का मन नहीं हुआ. वह जाने को उठी, तो शीतल ने कहा, ‘‘अरे रुको, भैया पहुंचा देंगे. यहींकहीं गए हैं, आ जाएंगे.’’

‘‘नहीं शीतल, मुझे एक जगह और जाना है, अच्छा बाय.’’

‘‘मगर भैया…’’ शीतल पुकारती रह गई. उस रात उसे नींद नहीं आई. खून से लथपथ माली के बेटे का पांव, उस का आसुंओं से भीगा चेहरा और माली की दैन्य स्थिति उसे कचोट रही थी. बारबार एक ही सवाल उस के मन में उठ रहा था, ‘क्या आनंद की परिपक्वता, शालीनता, बड़प्पन केवल एक ढकोसला है? सब के सामने अपनेआप को कितना अच्छा दिखाता है. गाड़ी है, पैसा है, मगर दिल में…’ नीरू का मन खट्टा हो गया.

नीरू सुबह तैयार हो कर कालेज जाने को निकल तो पड़ी पर उस का जाने का मन न हुआ. मेरी ने तो कल ही कह दिया था कि अब कम से कम 4-5 दिन पढ़ाई नहीं होगी, इसलिए वह अपनी दीदी के यहां चली जाएगी. उस के मन में विचार आया कि क्यों न माली के बेटे को देख आऊं. माली का घर उस के कालेज के रास्ते में ही पड़ता था. छोटी सी झोंपड़ी थी उस की. वह सकुचाती हुई उस की झोंपड़ी में घुस गई.

माली शायद काम पर जा चुका था और लड़का एक पुरानी सी खाट पर गुदडि़यों में लिपटा पड़ा था. किसी की आहट सुन कर उस ने आंखें खोलीं. नीरू ने उसे अपना परिचय दिया और उस की खाट पर बैठ कर उस से बातें करने लगी. पहले तो वह बहुत सकुचाया पर बाद में नीरू से प्रोत्साहन और अपनेपन से खुल कर बातें करने लगा.

उस ने बताया कि उस की मां 4-5 घरों में बरतनचौका करती हैं, इसलिए इस समय वहीं गई हुई हैं. पौलीथिन बैग में से नीरू ने बड़ा सा फ्रूट ब्रैड और बिस्कुट का पैकेट निकाला और खोल कर उस के सामने रख दिया.

‘‘आप यह सब क्यों लाई हैं, अभी अम्मां आएंगी तो हम लोग खाना खा लेंगे.’’

‘‘मुझे पता है भैया, अभी थोड़ा खा लो. बाकी बाद में सब मिल कर खाना.’’

उस ने एक ब्रैड का पीस उस की ओर बढ़ाया, जिस तरह से उस ने उसे खाया उस से पता चल गया कि वह वास्तव में भूखा था. उस का मन भर आया. कितना आत्मसम्मान है इस बच्चे में. उसे 2 बिस्कुट खिला कर पानी पिलाया. फिर आने का वादा कर के वह बाहर निकल ही रही थी कि चंदू और मेघा ने अंदर प्रवेश किया. वे एकदूसरे को देख कर चौंके.

उन से 2 मिनट बातें कर के नीरू निकलने ही वाली थी कि मेघा ने कहा, ‘‘नीरूजी, 2 मिनट रुक जाइए. मंगल की मां आती ही होगी. उस से मिल कर हम भी चलते हैं.’’ दूसरा तो कोई काम था नहीं, वह रुक गई.

वे लोग अभी बातें ही कर रहे थे कि मंगल की मां और एक 9-10 साल की लड़की आ गई. मेघा ने बताया कि यह लड़की मंगल की छोटी बहन लक्ष्मी है. मेघा ने एक थैला उस स्त्री के हाथ में दिया और बोली, ‘‘खाना है, सब लोग खा लेना और हां, डब्बों की चिंता मत करो, हम बाद में ले जाएंगे.’’

वह महिला नहीं मानी और बोली, ‘‘नहीं बेटा, रुक जाओ, 2 मिनट का काम है,’’ कहती हुई उस ने फटाफट डब्बों को खाली किया. नीरू ने देखा सब के लिए खाने के साथसाथ मिठाई और समोसे भी थे.

‘‘इतना सारा खाना क्यों ले आए बेटा? रूखासूखा खाने वाले गरीब आदमी हैं हम,’’ उस की आंखें भर आईं. वह डब्बे धोने बाहर चली गई. मेघा को जैसे कुछ याद आया.

‘‘अरे भैया, दवाइयां…’’

‘‘हां, वे तो डिक्की में रह गईं. मैं ले आता हूं.’’

‘‘रुको, बहुत सारे पैकेट्स हैं. मुझे आना ही पड़ेगा.’’ दोनों बाहर चले गए.

दवाइयों के पैकेट के साथ जब वापस आए तो मेघा कह रही थी, ‘‘क्यों बताया आप ने?’’ वह कुछ नाराज लग रही थी.

‘‘नहीं बताता तो निवाला उस के गले से नहीं उतरता. अब जल्दी कर. ये दवाइयां कब, कैसे लेनी हैं, 2 बार अच्छे से समझा कर चल. मां राह देख रही होंगी.’’ नीरू को उन की बातें समझ में नहीं आईं.

दोनों ने अच्छी तरह से दवाइयों के बारे में समझाया और फिर से आने को कह कर बाहर निकल आए.

मेघा ने कहा, ‘‘नीरू एतराज न हो तो थोड़ी देर के लिए मेरे घर चलो, मुझे अच्छा लगेगा. चाहो तो मैं घर आ कर आंटी को बता दूंगी.’’

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‘‘तुम कभी भी मेरे घर आ सकती हो, मुझे भी अच्छा लगेगा. इस वक्त केवल मां की इजाजत के लिए आने की जरूरत नहीं है. मैं घर जा कर बताने ही वाली थी कि मैं कालेज नहीं गई थी. रास्ते में मन बदल गया था और मंगल के घर चली गई थी,’’ नीरू ने हंसते हुए कहा.

‘‘मेघा, तुम मां से कह देना कि मैं एक जरूरी काम से जा रहा हूं. आधे घंटे में घर पहुंच जाऊंगा.’’ चंदू उछल कर गाड़ी में बैठ गया. मेघा नीरू के साथ आटो में बैठ गई.

नीरू को देख कर मेघा की मां बहुत खुश हुई, ‘‘अच्छा किया बेटा, जो अपनी सहेली को साथ ले आई, मंगल कैसा है?’’

‘‘ठीक हो रहा है मां, नीरू भी वहीं थी. हम लोग उस की मां और छोटी बहन से भी मिले.’’

‘‘नीरू बेटे, मुझे बहुत अच्छा लगा. इस के पिता के जाने के बाद इस ने अपना जन्मदिन मनाना ही छोड़ दिया. आज सालों बाद इस ने जन्मदिन पर कम से कम अपनी एक सहेली को तो बुलाया है. मैं तुम्हें यों ही नहीं जाने दूंगी.

‘‘मेघा बेटी, जरा आंटीजी को फोन कर के बता दे कि नीरू आज यहां तुम्हारे साथ खाना खाएगी, वे इस का इंतजार न करें.’’

‘‘नहीं आंटीजी, मुझे मीठा खिला दीजिए, मैं कालेज जाने के लिए घर से खाना खा कर निकली थी, मगर मैं कालेज न जा कर मंगल को देखने चली गई थी.’’

‘‘मेघा, तुम ने मुझे बताया ही नहीं कि आज तुम्हारा जन्मदिन है,’’ नीरू ने कहा.

‘‘इस में जन्मदिन वाली कोई बात नहीं है और कोई दिन होता तो भी मैं यही करती. मंगल के यहां हमारा मिलना एक सुखद संयोग है.’’

उस दिन मेघा के घर से लौटने के बाद नीरू का मन बिलकुल स्थिर और शांत हो गया था. उस ने सोचा, ‘कितना प्यारा घर है, शांत और सुकून देने वाला. कितना प्यार और अपनापन था वहां. उस की सारी बेचैनी दूर हो गई थी.’

इस के बाद उस का मेघा से मेलजोल बढ़ा. वे दोनों एकदूसरे को बहुत पसंद करती थीं. मेघा बहुत कम बोलती थी, मगर जो बोलती थी उस में सार, समझदारी, कोमलता, आर्द्रता आदि होती थी. वह बिना बोले दूसरों की बात समझ जाती थी और उसी के अनुसार काम करती थी. उस के पास आ कर लोगों का आत्मबल बढ़ता था.

धीरेधीरे नीरू को महसूस होने लगा कि उस घर में जब भी जाती है उसे एक शीतल, सुगंध छू जाती है. मन को सुकून मिलता है जैसे वहां स्नेह का मलयानिल बह रहा हो.

आनंद के साथ नीरू की सगाई तय हो गई. एक बार आनंद के कहने पर मेघा ने नीरू की मां को फोन किया कि वह आनंद की बहन है.

नीरू और आनंद एकदूसरे को पसंद करते हैं, पर दोनों इस बात को घर बताने में शरमाते हैं. वे लोग उस के घर आ कर रिश्ते की बात उस के मम्मीपापा से करें.

वह अपने भाई से बहुत प्यार करती है. इसलिए फोन कर रही है. यह बात वे किसी से न कहें, यहां तक कि नीरजा या आनंद से भी नहीं.

‘अंधा क्या चाहे दो आंखें,’ ऐसा रईस और शहर में प्रतिष्ठित खानदान नीरजा को मिले, इस से बढ़ कर उन्हें क्या चाहिए था, वह भी बिना प्रयास के. उस की पढ़ाई भी अब समाप्त होने वाली है. बात आगे बढ़ी और तारीख भी पक्की हो गई. फिर तो आएदिन नीरू के लिए तोहफे आने लगे. कभी कपड़े, कभी सैंडल तो कभी सौंदर्य प्रसाधन.

एक बार नीरू ने आनंद से कहा, ‘‘आप लोग बातबेबात मुझे तोहफे क्यों भेजते हैं? मुझे बड़ा संकोच होता है. प्लीज…’’

‘‘इस बारे में तुम बहुत मत सोचा करो. ऐसे छोटेमोटे तोहफे देना हमारे लिए बहुत बड़ी बात नहीं है. धीरेधीरे तुम्हें आदत पड़ जाएगी,’’ आनंद ने कहा.

उस दिन उन के कालेज के सहपाठी अनुरूप का जन्मदिन था. वह भी शहर के बहुत बड़े उद्योगपति का बेटा था. नीरू अपने मित्रों के साथ शीतलपेय लेते हुए बातें कर रही थी कि पीछे से कंधे पर हाथ पड़ा. उस दबाव से उसे पीड़ा हुई. वह गुस्से से पलटी, सामने आनंद खड़ा था.

‘‘वन मिनट प्लीज,’’ उस के मित्रों से कह कर आनंद उसे हाथ पकड़ कर एक ओर ले गया.

‘‘क्या अजीब से कपड़े पहन लिए हैं तुम ने, इसीलिए तो तोहफे भेजता हूं कि कुछ ढंग का पहनो,’’ उस ने फुसफुसाते हुए कहा.

वह जानती थी कि सारी सहेलियों की नजरें उन्हीं पर टिकी हुई थीं. वह स्तब्ध रह गई. चेहरा लाल हो गया. तोहफों का यह अर्थ उस ने कभी नहीं लगाया था. उसे तो लगा था कि अपना प्यार जताने के लिए वह तोहफे देता है.

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उसे क्या पता था कि वह अपने साथ खड़े होने के लायक बनाने के लिए उसे तोहफे देता है. उस ने आंखों में आने को आतुर आंसुओं को रोका. उसे घिन आ रही थी अपनेआप पर कि इंसान को पहचानने में इतनी बड़ी गलती कैसे

हो गई?

वापस आने पर जीना ने कहा, ‘‘अरे वाह, सब के बीच रोमांस?’’

‘‘नहीं यार, वे लोग अपनी शादी के बाद की पार्टी का प्लान कर रहे थे.’’ यह रूमा थी.

‘‘ठीक कहा तू ने. आनंद कोई भी काम करता है तो सब देखते रह जाते हैं. भई, अपनी नीरू भी तो लकी है.’’ कौन थी ये जो उस के भाग्य की हंसी उड़ा रही थी.

आगे पढ़ें- मेरी ने उस का हाथ थामा….

Serial Story: गुंडा (भाग-1)

तेज रफ्तार से आती बाइक को देख कर लोग तितरबितर हो गए.

‘‘अरे ओ, रुक जाओ. कैसे चला रहे हो गाड़ी? ऊपर चढ़े जा रहे हो, दिखता नहीं है क्या? थोड़े में बच गई, वरना आज तो रामप्यारी हो जाती.’’ हाथ नचाती जोरजोर से चिल्लाती लड़की को साथ चलने वाली लड़की ने हाथ पकड़ कर कुछ समझाना चाहा, मगर उस ने अपना हाथ छुड़ा लिया. बाइक वाला अचानक ब्रेक मार कर सर्र से पीछे मुड़ा और इन के सामने आ कर एक पैर जमीन पर रख कर रुक गया.

‘‘अरे, रामप्यारी मैडम, दूसरों को कुछ कहने से पहले जरा खुद को देखो. बीच सड़क पर ऐसे चल रही हो जैसे पियक्कड़ चलते हैं. यह आम रास्ता है, आप की खुद की जागीर नहीं.’’

‘‘हां, यह हमारी ही जागीर है. तुम कौन होते हो मना करने वाले, चोरी और सीना जोरी.’’

‘‘सही कहा मेरीरानी. तुम ने तो मेरे मुंह की बात छीन ली. अच्छा, यह सब छोड़ो. यह तो बताओ कि तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है? आज क्लास नहीं है, फिर क्यों सड़क नाप रही हो?’’

‘‘तुम्हें इस से क्या? मैं चाहे पढूं या सड़कें नापूं, मेरी मरजी. तुम्हें इस से क्या लेनादेना मिस्टर चंदूलाल?’’

‘‘ठीक है, समझ गया. लगता है बहुत दिन से शाहरुख खान की कोई फिल्म नहीं देखी. इसलिए आग उगल रही हो.’’

‘‘अरे जा, ऐसा कभी हो सकता है कि शाहरुख की फिल्म लगी हो और मैं न देखूं. अभी पिछले हफ्ते तो ‘माई नेम इज खान’ लगी थी और तुरंत मैं ने देख ली.’’

‘‘कैसी लगी? अच्छी है न?’’

‘‘अच्छी… महाबोर. उस की सारी फिल्में एक से एक हैं, मगर ये…’’

‘‘क्यों क्या हुआ?’’ उस ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘बिलकुल थर्ड क्लास. नहीं देखती तो अच्छा था, अब पछता रही हूं.’’

‘‘ऐसा क्या?’’ उस की हंसी छिपाए नहीं छिप रही थी, मगर मेरी अपनी ही धुन में बोले जा रही थी.

‘‘और क्या? बिलकुल शाहरुख की पिक्चर नहीं लगी. इतनी बोर तो उस की कोई पिक्चर नहीं है.’’

‘‘समझा. लड़कियों की आंखों में आंखें डाल कर रोमांटिक डायलौग्स बोलता हुआ, नाचतागाता, उन के दिलों पर राज करते रोमांटिक हीरो की छवि इस फिल्म में नहीं है. शायद इसलिए यह तुम्हें पसंद नहीं आई,’’ वह हंसता हुआ बोला.

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‘‘अरे, मैं तो भूल ही गई. यह मेरी सहेली नीरजा है. इस शहर और कालेज में नई आई है. मेरी ही कक्षा में है,’’ उस ने अपने साथ खड़ी लड़की की ओर इशारा करते हुए कहा.

‘‘जी, हां. मेरे पापा बैंक में हैं. इसलिए 3-4 साल से ज्यादा हम एक जगह रह ही नहीं सकते.’’

‘‘अच्छा, मैं चलता हूं. मेरी क्लास है बाय,’’ कह कर वह चला गया.

‘‘बड़ी अच्छी लगी आप लोगों की चुहलबाजी, बिलकुल बच्चों जैसी. तकरार तो है ही साथ में अपनापन भी है,’’ नीरजा ने हंसते हुए कहा.

‘‘ठीक कहा तुम ने नीरजा. देखा नहीं, कितने हक से वह इसे मेरीरानी कह रहा था,’’ पता नहीं रूमा कब आ गई थी साथ चलते हुए बोली, ‘‘अच्छा, यह तो बता मेरीरानी की च…’’

‘‘बस, रूमा बहुत हुआ. सीधीसादी बात को गोलगोल घुमाना, उस में अपने मन से रंग भर कर रंगीला, चटकीला बनाना कोई तुझ से सीखे.’’ लाख कोशिश करने पर भी मेरी अपने गुस्से पर परदा नहीं डाल सकी.

‘‘इस में इतना भड़कने की क्या जरूरत है? क्या केवल वही मेरीरानी कह सकता है, हम नहीं.’’ उस के स्वर में व्यंग्य नहीं था. वह हंसते हुए चली गई.

‘‘क्या हुआ मेरी? रूमा तो मजाक कर रही थी. तुम बुरा क्यों मान गई?’’ नीरजा उसे समझाने के अंदाज में बोली.

‘‘तुम नहीं जानती नीरू कि रूमा कितनी खतरनाक है. तुम अभी नई हो. यहां सबकुछ इतना सीधा नहीं है जितना दिखता है. वास्तव में यह रूमा चंदू के पीछे पड़ी थी.’’

‘‘पड़ी क्या थी, वह तो अब भी उस की दीवानी है. चंदू हां करे तो वह उस के पैरों में बिछ जाए, मगर वह ऐसी लड़कियों को भाव ही नहीं देता, तो यह चिढ़ती है और उसे बदनाम करने की कोशिश करती है,’’ मेरी बोली.

‘‘यह तो लड़केलड़कियों में आम बात है. यहां से निकलते ही सब लोग पिछली बातें भूल कर अपनीअपनी जिंदगी जीते हैं, लेकिन तुम पर वह क्यों व्यंग्यबाण चला रही थी?’’ नीरजा ने कहा.

‘‘उस की आदत है. छोटी सी बात को ले कर भी उसे लोगों की खिंचाई करना अच्छा लगता है. वास्तव में चंदू मेरे स्कूल का सहपाठी है. हम दोनों साथ खेलतेकूदते और लड़तेझगड़ते बड़े हुए हैं. एक बात बताऊं? स्कूल में मेरा नाम मेरीरानी ही था. कालेज में मैं ने रानी हटा कर मेरी रखा.’’

‘‘अच्छा, यह बात है? मगर रानी क्यों हटा लिया? मेरीरानी अच्छा तो लग रहा है.’’

‘‘तुम तो मुझे बनाने लगी. यह नाम बंगालियों में अकसर सुनने में आता है, मगर मुझे बड़ा अटपटा लगता था, क्योंकि स्कूल में मुझे सब लोग मेरीरानी कह कर चिढ़ाया करते थे, खासकर लड़के. इसीलिए मैं ने अपने नाम से रानी हटा लिया, केवल चंदू जानता है, इसीलिए कभीकभी अकेले में छेड़ता है.’’

‘‘और उस का नाम चंदूलाल… आज के जमाने में…’’

‘‘अबे, नहीं. उस का नाम तो चंद्रभान है.’’

‘‘यानी चांद और सूरज साथसाथ.’’

‘‘अरे हां, सच है. मैं ने तो आज तक गौर ही नहीं किया. सब उसे बचपन में चंदू कह कर बुलाते थे. हम जब लड़ते थे तब वह गाता था, ‘मेरीरानी बड़ी सयानी…’ और मैं गाती ‘चंदूलाल चने की दाल…’’ दोनों सहेलियां हंस पड़ीं.

नीरजा ने कलाई पर बंधी घड़ी की ओर देखा और उछल पड़ी. 5 मिनट की देरी हो चुकी थी. ‘‘अरे, बाप रे, अंगरेजी की मैम तो बहुत स्ट्रिक्ट हैं. वे तो कक्षा में घुसने नहीं देंगी. मेरी, जल्दी चलो.’’ दोनों कक्षा की ओर भागीं. अभी मैडम क्लास में नहीं आई थीं. क्लास में काफी शोर हो रहा था. दोनों बैठ गईं.

पीछे बैठी शीतल ने ‘हाय’ किया, लेकिन जवाब देने से पहले ही मैडम आ गईं. पीरियड समाप्त होते ही मेरी फ्रैंच क्लास में चली गई.

नीरजा की अब कोई क्लास नहीं थी. इसीलिए वह किताबें समेट कर घर जाने के लिए निकल पड़ी. शीतल भी साथ चलते हुए बोली, ‘‘चलो, नीरजा कैंटीन में चाय पीते हैं.’’

‘‘नहीं शीतल, मुझे जाना होगा. मम्मी राह देखती होंगी, बाय,’’ कह कर वह निकल गई. इतने दिन में वह समझ गई थी कि शीतल की पढ़ाई में कम और कालेज में भीड़ इकट्ठी करने, पार्टियों और फिल्म देखने में ज्यादा रुचि थी. शायद वह किसी करोड़पति से शादी कर के ऐशोआराम की जिंदगी जीने के इंतजार में थी.

उस दिन तो नीरू का मूड ही खराब हो गया. आखिर उस के मुंह से निकल गया, ‘‘सर, कितने दिन से मैं इस किताब के लिए लाइब्रेरी के चक्कर लगा रही हूं. किस के पास है यह किताब?’’

‘‘बेटा, मुझे याद नहीं है कि किस के पास है, जरा 2 मिनट रुक जाओ. मैं देख कर बताता हूं.’’

‘‘सर, यह किताब मेरे पास है. कल लौटा दूंगा,’’ सामने से आवाज आई. नीरू ने पलट कर देखा तो कोई लड़का पास ही मेज पर बैठा कुछ पढ़ रहा था. उस ने इस की बातें सुन ली थीं.

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. आप पढ़ने के बाद ही उसे वापस कीजिए. मैं सर से ले लूंगी,’’ नीरू ने सकुचाते हुए कहा.

‘‘मैं ने पढ़ ली है. मैं वापस देने ही वाला था, पर जरा लापरवाही हो गई. आई एम सौरी. कल ला दूंगा. आप ले लीजिएगा.’’

इस प्रकार हुआ था उस का आनंद से परिचय. बाद में पता चला कि वह शीतल का भाई है. कितना अंतर था उन दोनों में. शीतल जहां एक चंचल तितली की तरह थी, वहीं वह चरित्रवान आदर्श व्यक्ति का स्वरूप.

ऐसे व्यक्ति के पास लड़कियां अपनेआप को बिलकुल सुरक्षित महसूस करती हैं. वह नीरू को भा गया तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है.

उस दिन क्लास खत्म होने के बाद जब नीरजा घर जाने के लिए निकली तो आकाश काले बादलों से ढका हुआ था.

4 बजे ही अंधेरा छा गया था. बूंदाबांदी शुरू हो गई थी. पता नहीं क्यों आज मेरी भी नहीं आई थी. हमेशा दोनों पैदल ही जाती हैं, क्योंकि दोनों के घर कालेज से ज्यादा दूर नहीं थे. वह जल्दीजल्दी घर की ओर जाने लगी. इतने में एक बाइक उस के पास आ कर रुकी.

‘‘बहुत तेज बरसात होने वाली है. आप को एतराज न हो तो मैं आप को घर छोड़ दूं?’’ यह चंदू की आवाज थी.

‘‘जी, नहीं. मैं चली जाऊंगी. घर पास में ही है,’’ वह दनदनाती हुई आगे बढ़ गई. अभी दो कदम भी नहीं  चली थी कि तेज बरसात हो गई.

‘अब क्या करूं?’ नीरजा सोचने लगी, ‘चंदू के साथ चली जाती तो अच्छा था. किताबें भीग रही हैं.’ चंदू के बारे में लोगों की विरोधाभासी बातें सुन कर वह अब तक अपनी कोई राय नहीं बना पाई थी. पीछे से जोरजोर से कार के हौर्न की आवाज सुन कर वह पलटी.

‘‘नीरू, जल्दी अंदर आ जाओ,’’ शीतल ने आवाज दी. कार का दरवाजा खुला और वह लपक कर कार में बैठ गई. उस ने देखा अंदर रूमा भी बैठी थी. कार आनंद चला रहा था.

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‘‘क्या कह रहा था हीरो,’’ रूमा ने हंसते हुए पूछा.

नीरू ने कहा, ‘‘यही कि आइए, तेज बरसात होने वाली है. आप भीग जाएंगी. मैं अपने खटारे पर आप को घर छोड़ दूंगा.’’

‘‘लड़कियां पटाना तो कोई इस से सीखे,’’ दोनों जोरजोर से हंस पड़ीं. सामने लगे आईने में आनंद की मंदमंद मुसकराहट भी नीरू देख रही थी.

‘‘देखो नीरू, इस भंवरे से दूर ही रहना. चंदू मवाली, गुंडा और आवारा है. तुम्हारी सहेली मेरी तो उस की हिमायती है. कभी उस की बातों में न आना,’’ रूमा ने बड़ी आत्मीयता जताते हुए कहा.

‘‘बरसात बढ़ रही है, हम ने आप का घर देख लिया है फिर कभी जरूर आएंगे,’’ कह कर आनंद ने गाड़ी आगे बढ़ा दी.

2 दिन बाद मेरी कालेज आई. बहुत कमजोर हो गई थी. उसे मलेरिया हो गया था. वह आ तो गई थी मगर बैठ नहीं पा रही थी. बड़ी मुश्किल से 2 पीरियड निकालने के बाद उस ने घर जाने का निश्चय कर लिया. नीरू उसे रिकशे में बैठाने साथ गई. कालेज के मुख्य फाटक पर पहुंचने से पहले ही नीरू ने देखा कि एक पेड़ के नीचे चंदू, रूमा और अन्य 2-3 लड़कियां जोरजोर से हंस रही थीं. इतने में रूमा ने अपने हाथ से चंदू के बाल बिखेर दिए और उस का हाथ पकड़ कर जब चंदू ने उसे रोकना चाहा तो रूमा ने दूसरे हाथ से चिकोटी काट ली और सब  हंसने लगे. नीरू ने सोचा, ‘अजीब लड़का है. कालेज में कृष्ण कन्हैया बना फिरता है. पढ़ता कब होगा.’

कालेज का युवा सम्मेलन कार्यक्रम बहुत अच्छा होता है. उस में तरहतरह के रंगारंग कार्यक्रम होते हैं. मेरी ने एक अंगरेजी नाटक में मुख्य भूमिका निभाई. शीतल, रूमा और कुछ अन्य लड़कियों ने मिल कर एक पश्चिमी नृत्य पेश किया. इसी कार्यक्रम में घोषणा की गई कि आनंद ने कालेज के पुस्तकालय के लिए 10 हजार रुपए का अनुदान दिया है.

पिछले वर्ष विभिन्न विभागों में प्रथम और द्वितीय स्थान प्राप्त करने वालों को इनाम दिए गए. अंत में खेल विभाग का नंबर आया. सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी और खेल सचिव के रूप में चंद्रभान शर्मा का नाम घोषित किया गया. जितनी तालियां उस के लिए बजीं उतनी तो शायद किसी और के लिए नहीं बजी थीं.

भीड़ को चीरते हुए चंद्रभान आगे आ रहा था. नीरू ने देखा, वह हमेशा की तरह बिंदास था. बाल बिखरे, कमीज कुछ अंदर, कुछ बाहर. हवा के झोंके की तरह चला आ रहा था वह.

एक अध्यापक ने उसे पकड़ा. उस की कमीज ठीक की, बाल संवारे और कहा, ‘‘तुम कहां रह गए थे? स्टेज के पीछे रहने को कहा गया था न? बाकी सारे इनाम के हकदार वही हैं.’’

‘‘जी, सर पीछे बैठा एक वृद्ध व्यक्ति बेहोश हो गया था. उसे अस्पताल पहुंचा कर आ रहा हूं,’’ उस ने जवाब दिया.

‘‘सर, यह हमारे कालेज का सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी और खेल सचिव है. हमें दोतिहाई पुरस्कार इसी की वजह से मिले हैं,’’ प्रिंसिपल साहब ने मुख्य अतिथि से परिचय कराते हुए कहा.

शीतल के बुलावे पर 3-4 बार नीरू को उस के घर जाना पड़ा. शीतल कालेज के चुनावों में सांस्कृतिक सचिव के पद के लिए चुनाव लड़ रही थी. वह यह कह कर नीरू को अपने घर ले जाती कि तेरे आइडियाज बहुत अच्छे हैं, तेरी प्लानिंग भी अच्छी है. चुनाव में जीतने के लिए तुम्हारी मदद की मुझे काफी जरूरत है.

नीरू किसी को भी ना नहीं कर सकती थी. मगर शीतल के नीरू को पटाने के और भी कारण थे, क्योंकि नीरू पढ़ने में अच्छी थी. वह चुनाव में व्यस्त होने के बहाने उस के नोट्स ले कर फोटोकौपी करवा लेती. दूसरा और जरूरी कारण यह था कि वह जानती थी कि आनंद की नीरू में रुचि है और आनंद ने ही उन दोनों की दोस्ती को प्रोत्साहित किया था.

पहली बार उन के घर को देख कर नीरू चकित रह गई. वे बहुत पैसे वाले लोग थे. सब के अलगअलग कमरे, अलगअलग गाडि़यां, अलग जीने के तरीके थे. किसी को दूसरे के बारे में पता नहीं, न ही वे एकदूसरे के जीवन में दखल देते थे. नीरू जब भी वहां जाती आनंद से अवश्य मिलती. वैसे भी आनंद का शालीन, संतुलित व्यवहार उसे भाने लगा था.

आजकल नीरू को शीतल के साथ चुनाव प्रचार के लिए कालेज के छात्रछात्राओं के घर जाना पड़ता था. दोनों कार से जाते, वापसी में शीतल उसे घर छोड़ देती. उस दिन शीतल की कार खराब हो गई थी इसलिए आनंद ने शीतल को एक घर के सामने छोड़ दिया.

‘‘यह किस का घर है?’’ नीरू ने पूछा.

‘‘मेघा का.’’

‘‘मेघा… हां, याद आया. परिचय तो नहीं है पर शायद आर्ट फैकल्टी में है.’’

‘‘हां, ठीक पहचाना. क्या करें, जरूरत पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है,’’ कार लौक करते हुए शीतल ने कहा.

‘‘क्या?’’

‘‘कुछ नहीं. चलोचलो. आज हमें 3 घर निबटाने हैं.’’

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कार की आवाज सुन कर कोई बाहर आया. नीरू ने सोचा यही मेघा है, वह मुसकरा दी.

‘‘मेघा, यह नीरजा है, मेरी ही क्लास में है.’’

‘‘जानती हूं और मैं मेघा, जर्नलिज्म की छात्रा हूं. मैं आप को अकसर शीतल के साथ देखती हूं या पुस्तकालय में,’’ नीरू मुसकराते हुए सुन तो रही थी मगर उस का दिमाग तेजी से विचारों में उलझा हुआ था. इसे तो मैं अच्छी तरह जानती हूं. यह मेरी आंखों में बसी हुई है. कालेज में तो कई छात्र हैं उस लिहाज से नहीं. फिर… अचानक उसे याद आया, ‘‘हां, यह तो अकसर चंदू के स्कूटर पर नजर आती है.’’

‘‘आइए न अंदर,’’ उस के पीछे शीतल और नीरजा अंदर चल दीं. वहां एक प्रौढ़ा कुछ पढ़ रही थीं. मेघा ने अपनी मां से दोनों का परिचय कराया. उन्होंने बड़े प्यार से दोनों लड़कियों से बात की. थोड़ी देर बाद एक स्कूटर घर के आगे रुका, जिस से चंदू उतरा और घर के अंदर आ गया.

नीरजा देखती रह गई, ‘‘चंदू यहां…’’

‘‘नीरजा, यह मेरा भाई चंद्रभान है. मैं इन की छोटी बहन हूं, कोई मुझे जाने या न जाने इन्हें तो हर कोई जानता है.’’

‘‘शीतल आज तुम यहां… हमारा घर पवित्र हो गया. अरे, भई मेघा, इन लोगों को कुछ खिलायापिलाया या नहीं?’’

‘‘नहीं भैया, अभीअभी तो आए हैं,’’ इतने में मेघा की मां एक ट्रे ले कर आईं, जिस में पकौडे़ थे.

‘‘मां, मुझे बुला लेतीं. आप अब बैठिए, मैं चाय बना लूंगी.’’

‘‘ठीक है, ठीक है, पहले इन्हें खाने तो दे,’’ मां ने कहा.

मेघा ने उठ कर पकौड़ों की प्लेट शीतल के आगे बढ़ाई.

चंदू बोला, ‘‘लो शीतल, मां बहुत स्वादिष्ठ पकौड़े बनाती हैं. एक बार खाओगी तो बारबार मेरे घर आओगी, इन्हें खाने के लिए.’’

‘‘नहीं मेघा, पहले ही मेरा गला बहुत खराब है. ऐसावैसा कुछ खा लिया तो हालत और खराब हो जाएगी.’’

चंदू पकौड़ों की प्लेट ले कर खुद खाने लगा. ‘‘अरे भैया, नीरजा को दो,’’ मेघा ने टोका.

‘‘नहीं मेघा, क्यों उन्हें परेशान करती हो. जैसे ध्यानचंद वैसे मूसर चंद. मुझे अच्छे लगते हैं इसलिए मैं खा रहा हूं.’’

क्रमश:

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