समर्पण भाग-2

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मेरी यह योजना सुधा को बेहद पसंद आई. उस की आंखों में खुशी के आंसू भर आए. वह बोली, ‘‘अब मैं पूरी तरह से आप को समर्पित हूं. आप जो भी मुझे प्यार से देंगे उसे मैं अपना हक समझ कर खुशी से स्वीकार करूंगी,’’ और फिर एकाएक आगे बढ़ कर उस ने

मेरा माथा चूमलिया. कहने लगी, ‘‘प्रोफेसर, आप से मिलने के बाद मेरी कई मुश्किलें हल होती दिखाई देती हैं.’’

मैं ने महसूस किया कि एकदूसरे का सामीप्य तनमन को प्यार के रंग में भिगो देता है. हमारे जीवन मेें वे कुछ अनमोल क्षण होते हैं जिन से हमें जीवन भर ऊर्जा और जीने का मकसद मिलता है.

जवानी की दहलीज पर खड़ी सुधा पूरी उमंग और जोश में थी. उसे प्रेम के प्रथम अनुभव की तलाश थी, उसे चाहिए था जी भर कर प्यार करने वाला एक प्रौढ़ और पुरुषार्थी प्रेमी, जो शायद उस ने मुझ में ढूंढ़ लिया था. नाजुक और व्यावहारिक क्षणों में कभीकभी नैतिकता बहुत पीछे रह जाती है.

घनिष्ठता के अंतरंग क्षणों में, चाय की चुस्कियां लेते हुए साहस कर सुधा ने पूछ ही लिया, ‘‘प्रोफेसर, कौन थी वह भाग्यशाली लड़की जो आप को पसंद आई थी. उस का नाम क्या था. देखने में कैसी लगती थी?’’

उस की रुचि देख कर मैं ने अपनी अलबम के पृष्ठ पलट कर, उसे कृष्णा की फोटो दिखाते हुए कहा, ‘‘उस का नाम कृष्णा था. बहुत सुंदर और अच्छी लड़की थी.’’

फोटो देख कर उसे झटका सा लगा लेकिन स्पष्टतौर पर उस ने जाहिर नहीं होने दिया.

‘‘इस से अधिक मुझ से कुछ मत पूछना, सुधा,’’ मैं ने कहा.

उस दिन मेरा मन हुआ काश, सुधा आज देर तक मेरे घर रुके और हम लोग प्यार भरी बातें करें, पर देर होने के कारण वह जल्दी ही चली गई.

सुधा के निमंत्रण पर एक शाम मैं प्रोग्राम देख रहा था. फिल्मी कलाकार की तरह सुधा नृत्य पेश कर रही थी. हाल खचाखच भरा हुआ था. ‘बीड़ी जलाइ ले’ और ‘कजरारे कजरारे’ जैसे मशहूर गानों पर सुधा अपने हर स्टेप पर दर्शकों की वाहवाही बटोर रही थी. तालियों की गड़गड़ाहट से बारबार हाल गूंज उठता था. प्रोग्राम के अंत में मेरे पास से गुजरते हुए सुधा ने मुझ से धीमे स्वर में पूछा, ‘‘प्रोफेसर, कैसा लगा मेरा डांस?’’ मैं ने धीमे स्वर में सराहना करते हुए कहा, ‘‘तुम वाकई बहुत अच्छा डांस करती हो.’’

दूसरे दिन सुधा शाम को 5 बजे मेरे घर पहुंची. घर में प्रवेश करते ही बोली, ‘‘प्रोफेसर, चाय बना कर लाती हूं, फिर ढेर सारी बातें करेंगे.’’

वह चाय ले कर आई और मेरे पास बैठ गई.

‘‘प्रोफेसर, आप ने ‘निशब्द’ फिल्म देखी है?’’ सुधा ने पूछा.

‘‘हां, देखी है, मुझे अच्छी भी लगी थी,’’ मैं ने बताया.

सुधा मेरे इतने पास बैठी थी कि मन हुआ मैं उस के नरम गालों को स्पर्श कर अपने हाथों से उसे प्यार करूं. कृष्णा की याद आज ताजा हो उठी थी. उसे मैं इसी तरह प्यार किया करता था.

उस दिन ट्यूशन का कोई काम नहीं हो पाया. बस, नजदीकियां बढ़ा कर, हम दोनों एकदूसरे को प्यार करते रहे. जाते समय सुधा ने बडे़ प्यार से मेरा हाथ अपने हाथ में ले कर कहा, ‘‘‘निशब्द’ में अमिताभ बच्चन ने जिया से कितना जीजान से प्यार किया है. उम्र को भूल जाइए प्रोफेसर, मुझे आप से वैसा ही बेबाक प्यार चाहिए. अपने स्वाभिमान को भी बनाए रखिए और मुझ से प्रेम करते रहिए, मेरा दिल कभी नहीं तोडि़एगा.’’

मेरे भीतर कुछ ऐसा परिवर्तन हो चुका था कि उम्र की सीमा को लांघ कर मैं ने सुधा को अपनी बांहों में कस लिया और प्यार करने लगा, ‘‘नैतिकता की बात मत सोचना सुधा. मेरे साथ आज आनंद में डूब जाओ,’’ मैं बोलता रहा, ‘‘कुदरत ने शायद हम दोनों को इसीलिए मिलाया है कि हम प्रेम की ऐसी मिसाल कायम करें जिस का अनुभव अपनेआप में अद्भुत हो.’’

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एक झटके में मुझ से अलग होते हुए सुधा बोली, ‘‘प्रोफेसर, हम ऐसा कुछ भी नहीं करेंगे. ‘निशब्द’ में भी ऐसा कुछ नहीं दिखाया गया है. अमिताभ ने जिया से कोई यौन संपर्क नहीं किया. चलो, वह तो कहानी थी. हम वास्तव में प्यार करते रहेंगे. बस, एक यौन संपर्क को छोड़ कर,’’ एक पल रुक कर वह फिर बोली, ‘‘मैं एक बात और आप को बताना चाहती हूं कि जो फोटो कृष्णा की आप ने दिखाई थी वह मेरी मां की है. मेरी मां का नाम कृष्णा है. प्यार तो किया है आप से मैं ने और जिंदगी भर करती रहूंगी.’’

यह जान कर मेरे पैरों तले जमीन सरक गई. आश्चर्यचकित मैं सुधा के चेहरे की ओर देखता रहा. झील सी गहरी आंखों में अब भी मेरे लिए प्यार उमड़ रहा था. होंठों पर मधुर मुसकान थी. सुधा मेरी निगाहों में इतने ऊंचे

स्तर तक उठ चुकी थी, जिस महानता को मेरा निस्वार्थ प्रेम छू तक नहीं सकता था.

क्षण भर को मुझे लगा था, शायद तकदीर ने सुधा के रूप में मेरा पहला प्यार मुझे लौटा दिया है. दूसरे ही क्षण मैं अपने विचार पर मन ही मन हंस दिया कि अगर कृष्णा से विवाह भी हो गया होता तो सुधा जैसी ही सुंदर लड़की होती…

मैं अपने विचारों में खोया था, इतने में सुधा ने अपना फैसला सुना दिया, ‘‘प्रोफेसर, यह मत सोचना कि मैं आप के पास आना बंद कर दूंगी. मैं एक बोल्ड लड़की हूं. आप को अपने मन की बात बता रही हूं. मां को बता चुकी हूं, अब मैं शादी नहीं करूंगी. आज के माहौल में जहां दहेज के लोभी लोग लड़कियों को तंग करते हैं, जला देते हैं या तलाक जैसे नर्क में ढकेल देते हैं, मैं शादी के चक्कर में नहीं पड़ूंगी. मैं अपनी मर्जी की मालिक हूं. आप चाहोगे तो आप के पास आ कर रहने लगूंगी. नहीं चाहोगे तो भी आप के पास आती रहूंगी.

‘‘प्यार में चिर सुख की चाह होती है. यौन संबंध और विवाह की आवश्यकता से ऊपर उठ चुकी है आप की सुधा. आप के संरक्षण में

बहुत सुरक्षित रहूंगी,’’ मेरा हाथ अपने हाथ में ले कर शेक हैंड करते हुए उस ने कहा.

मेरी आंखों में आंसू छलक उठे थे. मैं उस को जाते हुए देखता रहा, बोझिल मन लिए और निशब्द. लेकिन वह गई नहीं, वापस लौट आई.

‘‘तुम क्या सोचते थे, मैं तुम्हें आंसुओं के साथ छोड़ जाऊंगी. तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा. आप से तुम संबोधन पर आ गई हूं. ‘तुम’ में अपनापन लगता है. तुम रिटायर तो हो ही नहीं सकते. रिटायर काम से हुए हो जिंदगी से नहीं. हम दोनों आज से नई जिंदगी शुरू कर रहे हैं. कल सुबह सामान के साथ आ रही हूं,’’ हंसते हुए उस ने कहा, ‘‘अब तो मुसकरा दो…अब की सामान ले कर आ रही हूं. अच्छा…जाती हूं वापस आने के लिए.’’

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जन्मदिन का तोहफा भाग-2

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लेखक- स्मिता टोके 

सुमन ने स्वेच्छा से नन्हे विनय की देखभाल का जिम्मा खुद पर ले लिया था. पत्नी की इस तरह मौत से रमेश बिलकुल जड़ हो गए. चिड़चिड़े, तुनकमिजाज और छोटीछोटी बातों पर बिफरने वाले. घर के बड़े लोगों ने सोचा कि यदि रमेश की शादी कर दी जाए तो शायद वह फिर सामान्य जीवन बिता सके.. और उन्हें इस के लिए सुमन से बेहतर विकल्प नहीं दिख रहा था. बड़ों के प्रश्न के जवाब में वह ना नहीं कह सकी और ब्याह कर इस घर में आ गई, जो कभी उस की दीदी का घर था.

मुखर दीपिका को शांत सुमन में खोजने की रमेश की कोशिश निष्फल रही. धीरेधीरे घर में उन का व्यवहार सिर्फ खाना खाने, कर्तव्यपूर्ति के लिए धन और सामान जुटाने व आराम करने के लिए ही शेष रह गया था.

सुमन के प्रति रमेश का कटु व्यवहार कभीकभी उस में भी अपराधभाव जगाता, लेकिन जल्द ही वह उस से फारिग भी हो जाता. हां, रमेश के इस आचरण से सुमन जरूर दिन ब दिन उन से दूर होती चली जा रही थी. रमेश के उखड़े व्यवहार के बावजूद सुमन विनय की बाललीलाओं और बाबूजी के स्नेह के सहारे अपने नवनिर्मित घरौंदे को बचाने की कोशिश करती रहती.

उस दिन सुमन की उम्मीद के विपरीत रमेश सही वक्त पर घर पहुंच गए. उस की सखियां चुहल करने लगीं कि तू तो कह रही थी कि जीजाजी नहीं आएंगे.

रमेश बड़ी देर तक सुमन की सभी सहेलियों से बातचीत करते रहे. बड़े खुशनुमा माहौल में उस की सखियों ने सब से विदा ली. जातेजाते वे बोलीं, ‘‘जीजाजी, सुमन को ले कर घर जरूर आइएगा.’’

‘‘जरूरजरूर, क्यों नहीं.’’

वह विस्मित थी कि लोगों के सामने उस के साथ से भी कतराने वाले रमेश आज इतने मुखर कैसे हो उठे?

‘‘थैंक्स, रमेश, जल्दी आने के लिए,’’ सुमन, विनय को चादर ओढ़ाते हुए बोली.

‘‘इस में थैंक्स की क्या बात है. मैं ने सिर्फ अपना फर्ज पूरा किया है,’’ रमेश का स्वर हमेशा की तरह सपाट था.

‘‘फर्ज निभाया? और मेरी गिफ्ट?’’ वह शरारत से बोली.

‘‘गिफ्ट, कैसी गिफ्ट? तुम्हारी सहेलियों से जरा अच्छे से बात क्या कर ली कि तुम्हारे तो हौसले ही बढ़ने लगे. इस घर में किस बात की कमी है तुम्हें जो एक गिफ्ट और चाहिए. इन सब की उम्मीद मत रखना मुझ से,’’ रमेश गुस्से में बोला.

‘‘क्यों, मैं ने ऐसी कौन सी बात बोल दी, जो इतने लालपीले हो रहे हो,’’ पहली बार जबान खोली उस ने. आवेश में उस की आवाज कांपने लगी.

‘‘मैं लालपीला हो रहा हूं, यह बोलने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी,’’ रमेश फटकारते हुए बोले.

‘‘रमेश, सब्र की भी कोई सीमा होती है. 6 माह से मैं लगातार आप का मन जीतने और आप को सामान्य महसूस कराने की कोेशिश कर रही हूं. लेकिन आप ने तो जैसे खुद को एक पिंजरे में कैद कर लिया है. न खुद बाहर निकलते हैं, न मुझे अपने करीब आने देते हैं. दीदी के जाने का सदमा सिर्फ आप को ही नहीं हम सब को हुआ है. अब तो इस पिंजरे की दीवारों से टकरा कर मैं लहूलुहान हो चुकी हूं. अब इस से ज्यादा मैं नहीं सह सकती. आप के इस रवैये को देख कर तो मैं कभी का घर छोड़ चुकी होती, लेकिन बाबूजी के स्नेह ने मुझे ऐसा करने नहीं दिया. आप मुझे सह नहीं पा रहे हैं इस घर में तो मैं यह घर ही छोड़ दूंगी. कल सुबह ही मैं मुन्ने को ले कर मां के यहां जा रही हूं,’’ सुमन की आवाज थरथराई, वह धम्म से पलंग पर बैठ गई.

रमेश पैर पटकते हुए तकिया और चादर ले, हाल में जा कर सोफे पर लेट गए.

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वह सोचने लगी, ‘मैं कोई बेजबान गुडि़या तो नहीं जो ठोकरों को सहती रहे और उसे चोट भी न लगे.’ आवेश के मारे उस का रगरग तपने लगा और सोचतेसोचते शरीर को बुखार ने चपेट में ले लिया. रात 1 बजे तक चिंतन से जब दिमाग जवाब देने लगा तो वह खुद नींद की आगोश में चली गई.

सुबह आंख खुली तो घड़ी 7 बजा रही थी. विनय सोया हुआ था. सिर दर्द से फटा जा रहा था. उस ने उठने की असफल कोशिश की. उसे जागा देख कर रमेश तुरंत आ गए. उस ने घृणा से मुंह फेर लिया.

‘‘ओह, तुम्हें तो बहुत तेज बुखार है,’’ रमेश उस के तपते माथे पर हाथ रखते हुए बोले.

वह आंखें मूंदे लेटी रही.

‘‘लो, चाय पी लो.’’

‘‘बाई आ गई क्या?’’ क्षीण स्वर में सुमन ने पूछा.

‘‘नहीं तो.’’

‘‘फिर चाय?’’

‘‘क्यों, मैं नहीं बना सकता क्या?’’ रमेश ने मुसकराते हुए बिस्कुट की तश्तरी आगे कर दी.

‘‘एक मिनट, ब्रश कर के आती हूं.’’

जैसे ही सुमन उठने को हुई कि उसे चक्कर सा आ गया और वह फिर से पलंग पर बैठ गई. तब रमेश उसे सहारा दे कर वाशबेसिन तक ले कर आए.

जब वह मुंह धो चुकी तो रमेश हाथों में टावेल ले कर खड़े थे.

वह चाय पी कर लेट गई. रमेश उस के सिरहाने ही बैठ गए.

पिछली रात के घटनाक्रम और रमेश के सुबह के रूप में तालमेल बिठातेबिठाते सुमन की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी.

‘‘प्लीज, रोओ मत तुम, नहीं तो तबीयत और खराब होगी.’’

रमेश का चिंतित स्वर अंदर तक हिला गया उसे.

रमेश का कौन सा रूप सच्चा है.

रमेश उस के सिर पर हथेली रख कर बोले, ‘‘कल के लिए सौरी, सुमन. मैं सारी सीमाएं तोड़ गया कल. तुम्हें चोट पहुंचा कर मेरा अहं संतुष्ट होता रहा अब तक. दीपिका के बाद मैं तो टूट ही चुका था. तुम्हीं थीं जिस ने मेरा उजड़ा घर फिर बसाया. नातेरिश्तेदार तुम्हारी तारीफ करते नहीं थकते थे. इस से मुझे बहुत तकलीफ होती थी, लेकिन ये तारीफ मिलने के पहले तुम ने अपने सारे अरमानों को राख कर दिया है, इतनी छोटी सी बात को नहीं समझ पाया मैं. हर रोज छोटीछोटी बातों पर तुम्हें अपमानित कर के भले ही मैं थोड़ी देर का संतोष पा लेता था, लेकिन अपनी यह हरकत मुझे भी कचोटती रहती थी. आखिर इतना बुरा तो नहीं हूं मैं. हां, मैं अपनी कुंठा, तुम पर निकालता रहा, तुम्हारी तपस्या को कभी देख ही नहीं पाया. कल तुम ने घर छोड़ कर जाने की बात की तो मैं बर्दाश्त नहीं कर सका.’’

एक पल को रमेश रुके फिर बोले, ‘‘सुमन, तुम्हारे बिना अब मैं अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता.’’

यह सब सुन कर सुमन उन्हें अपलक देखती रही. तभी दरवाजे के बाहर बाबूजी की आहट पा कर रमेश एक झटके में उठ खड़े हुए.

‘‘बेटा, डाक्टर साहब से बात हो गई है. वह आधे घंटे में क्लिनिक पहुंच जाएंगे. सुमन बेटा, तुम विनय की चिंता मत करना, वह मेरे पास खेल रहा है.’’

‘‘जी, बाबूजी, हम लोग अभी तैयार हो जाते हैं,’’ सुमन ने कहा.

‘‘सुनो, तुम कपड़े बदल लो. हमें 10 मिनट में निकलना है.’’

‘‘हां,’’ सुमन का स्वर अशक्त था.

पलंग से उठ कर सुमन ने मेज पर देखा तो लखनवी कढ़ाई वाला आसमानी रंग का सूट रखा था और पास ही थी लाल गुलाब की ताजी कली.

सुमन सोचने लगी कि वह कहीं कोई सपना तो नहीं देख रही है.

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डाक्टर के क्लिनिक से लौटते समय उस ने रमेश से पूछा, ‘‘आफिस के लिए लेट हो रहे हो न?’’

‘‘नहीं, आज छुट्टी ले ली है.’’

सुन कर वह बड़ी आश्वस्त हुई. हलके से मुसकराते हुए यह विचार उस के दिलोदिमाग में कौंध गया कि रमेश ने उसे भले ही कोई कीमती उपहार न दिया हो, पर जन्मदिन का इस प्यार से बढ़ कर बड़ा तोहफा क्या हो सकता है?

समर्पण भाग-1

नौकरी से सेवानिवृत्ति के बाद मैं नियमित रूप से सुबह की सैर करने का आदी हो गया था. एक दिन जब मैं सैर कर घर लौट रहा था तो लगभग 26-27 साल की एक लड़की मेरे साथसाथ घर आ गई. वह देखने में बहुत सुंदर थी. मैं ने झट से पूछ लिया, ‘‘हां, बोलो, किस काम से मेरे पास आई हो?’’

उस ने कहा, ‘‘हम लोगों का एक आर्केस्ट्रा गु्रप है. मैं रिहर्सल के बाद रोज इधर होते हुए अपने घर जाती हूं. आज इधर से गुजरते हुए  आप दिखाई दिए तो मैं ने सोचा, आप से मिल ही लूं.’’

मैं ने बताया नहीं कि मैं भी उसे नोटिस कर चुका हूं और मेरा मन भी था कि उस से मुलाकात हो.

‘‘थोड़ा और बताओगी अपने कार्यक्रमों और ग्रुप में अपनी भूमिका के बारे में.’’

‘‘यहीं खडे़खडे़ बातें होंगी या आप मुझे घर के अंदर भी ले जाएंगे.’’

‘‘यू आर वेलकम. चलो, अंदर चल कर बात करते हैं.’’

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ड्राइंग रूम में बैठने के बाद उस ने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘मेरा नाम सुधा है, वैसे हम कलाकार लोग स्टेज पर किसी और नाम से जाने जाते हैं. मेरा स्टेज का नाम है नताशा. हमारे कार्यक्रम या तो बिजनेस हाउस करवाते हैं या हम लोग शादियों में प्रोग्राम देते हैं. मैं फिल्मी गानों पर डांस करती हूं.’’

मैं ने उस से पूछा, ‘‘कार्यक्रमों के अलावा और क्या करती हो?’’

‘‘मैं एम.ए. अंगरेजी से प्राइवेट कर रही हूं,’’ सुधा ने बताया, ‘‘मेरे पापा का नाम पी.एल. सेठी है और वह पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट में काम करते हैं.’’

सुधा ने खुल कर अपने परिवार के बारे में बताया, ‘‘मेरी 3 बहनें हैं. बड़ी बहन की शादी की उम्र निकलती जा रही है. मुझ से छोटी बहनें पढ़ाई कर रही हैं. मां एक प्राइवेट स्कूल की टीचर हैं. घर का खर्च मुश्किल से चलता है. प्रोफेसर साहब, मैं ने आप की नेमप्लेट पढ़ ली थी कि आप रिटायर्ड प्रोफेसर हैं, इसलिए आप को प्रोफेसर साहब कह कर संबोधित कर रही हूं. हां, तो मैं आप को अपने बारे में बता रही थी कि मुझे हर महीने कार्यक्रम से साढ़े 3 हजार रुपए की आमदनी हो जाती है, जो मैं बैंक में जमा करवा देती हूं.’’

मैं ने सुधा के पूरे शरीर पर नजर डाली. गोरा रंग, यौवन से भरपूर बदन और उस पर गजब की मुसकराहट.

सुधा ने पूछा, ‘‘आप के घर पर कोई दिखाई नहीं दे रहा है. लोग कहीं बाहर गए हैं क्या?’’

मैं ने सुधा को बताया, ‘‘मेरे घर पर कोई नहीं है. मैं ने शादी नहीं की है. मेरा एक भाई और एक बहन है. दोनों अपने परिवार के साथ इसी शहर में रहते हैं. वैसे सुधा, मैं शाम को इंगलिश विषय की एम.ए. की छात्राओं को ट्यूशन पढ़ाता हूं. तुम आना चाहो तो ट्यूशन के लिए आ सकती हो.’’

सुधा ने हामी भर दी और बोली, ‘‘मैं शीघ्र ही आप के पास ट्यूशन के लिए आ जाया करूंगी. आप समय बता दीजिए.’’

सुधा के निमंत्रण पर मैं ने एक दिन उस का कार्यक्रम भी देखा. निमंत्रणपत्र देते हुए उस ने कहा, ‘‘प्रोफेसर साहब, आप से एक निवेदन है कि मेरे पापा भी कार्यक्रम को देखने आएंगे. आप अपना परिचय मत दीजिएगा. मैं सामने आ जाऊं तो यह मत जाहिर कीजिएगा कि आप मुझे जानते हैं. कुछ कारण है, जिस की वजह से मैं फिलहाल यह जानपहचान गुप्त रखना चाहती हूं.’’

ट्यूशन पर आने से पहले सुधा ने पूछा, ‘‘सर, कोचिंग के लिए आप कितनी फीस लेंगे?’’

मैं ने उत्तर दिया, ‘‘तुम से फीस नहीं लेनी है. तुम जब भी मेरे घर आओ किचन में चाय या कौफी बना कर पिला दिया करना. हम दोनों साथसाथ चाय पीने का आनंद लेंगे तो समझो फीस चुकता हो गई.’’

‘‘सर, चाय तो मुझे भी बहुत अच्छी लगती है,’’ सुधा बोली, ‘‘एक बात पूछ सकती हूं, आप ने शादी क्यों नहीं की?’’

मैं इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं था किंतु अब तक हम एकदूसरे के इतने निकट आ चुके थे कि बडे़ ही सहज भाव से मैं ने उस से कहा, ‘‘पहले तो मातापिता की जिम्मेदारी मुझ पर थी, फिर उन के देहांत के बाद मैं मन नहीं बना पाया. मातापिता के जीवन काल

में एक लड़की मुझे पसंद आई थी, लेकिन वह उन्हें नहीं अच्छी लगी. बस, इस के बाद शादी का विचार छोड़ दिया.’’

सुधा अकसर सुबह रिहर्सल के बाद सीधे मेरे घर आती और ट्यूशन का समय मैं ने उसे साढे़ 5 बजे शाम का अकेले पढ़ने के लिए दे दिया था.

उस का मेरे घर आना इतना अधिक हो गया था कि महल्ले वाले भी रुचि दिखाने लगे. कब वह मेरे घर आती है, कितनी देर रुकती है, यह बात उन की चर्चा का विषय बन गई थी. जब मैं ने उन के इस आचरण पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई तो वे खुदबखुद ठंडे पड़ गए. हां, इस चर्चा का इतना असर जरूर पड़ा कि जो छात्राएं 4-5 बजे शाम को ग्रुप में आती थीं वे एकएक कर ट्यूशन छोड़ कर चली गईं.

इस बात की परवा न तो मैं ने की और न ही सुधा पर इन बातों का कोई असर था. मेरे भाई और बहन ने भी मुझे इस बारे में व्यंग्य भरे लहजे में बताया था, किंतु उन्होंने ज्यादा पूछताछ नहीं की.

सुधा को साउथइंडियन डिशेज अच्छी लगती थीं. अत: उसे साथ ले कर मैं एक रेस्तरां में भी जाने लगा था. वहां के वेटर भी हमें पहचानने लगे थे. एक दिन जब देर रात सुधा रेस्तरां पहुंची तो वेटर ने उस से कहा, ‘‘मैडम, आप के पापा का फोन आया था. वह थोड़ी देर से आएंगे. आप बैठिए, मैं आप के लिए पानी और चाय ले कर आता हूं.’’

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मैं जब रेस्तरां में पहुंचा तो सुधा ने हंसते हुए बताया, ‘‘प्रोफेसर, आज बड़ा मजा आया. वेटर कह रहा था आप के पापा लेट आएंगे. यहां के वेटर्स मुझे आप की बेटी समझते हैं.’’

इस पर मैं ने भी चुटकी ले कर कहा, ‘‘मेरी उम्र ही ऐसी है, इन की कोई गलती नहीं है. यह भ्रम बना रहने दो.’’

डिनर से पहले सुधा ने कहा, ‘‘प्रोफेसर, आप का मेरे जीवन में आना एक मुबारक घटना है.’’

वह बहुत ही भावुक हो कर कह रही थी. मुझे लगा जैसे किसी बहुत ही घनिष्ठ संबंध के लिए मुझे मानसिक रूप से तैयार कर रही हो. मैं अकसर उस के डांस की तारीफ किया करता था और उसे यह बहुत अच्छा लगता था.

एक दिन शाम को हम दोनों चाय पी रहे थे तो बडे़ प्यार से उस की पीठ सहलाते हुए मैं ने कहा, ‘‘सुधा, तुम्हें तो पता ही है कि रिटायरमेंट होने पर मुझे काफी अच्छी रकम मिली है. मेरी जरूरतें भी बहुत सीमित हैं. मेरा एक योगदान अपने परिवार के लिए स्वीकार करो. हर महीने तुम्हें मैं 1 हजार रुपए दिया करूंगा. वह तुम अपने एकाउंट में जमा करवाती रहना.’’

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जन्मदिन का तोहफा भाग-1

लेखक- स्मिता टोके 

‘‘कितनी लापरवाही से काम करती हो तुम,’’ रमेश के स्वर की कड़वाहट पिघले सीसे की तरह कानों में उतरती चली गई.

सुबहसुबह काम की हड़बड़ी में रमेश के लिए रखा दूध का गिलास मेज पर लुढ़क गया था. सुमन बेजबान बन कर अपमान के घूंट पीती रही, फिर खुद को संयत कर बोली, ‘‘टिफिन तो रख लो.’’

‘‘भाड़ में जाए तुम्हारा टिफिन. बच्चा रो रहा है और तुम्हें टिफिन की पड़ी है.’’

‘‘ले रही हूं विनय को, लेकिन आप के खानेपीने की चिंता भी तो मुझे ही करनी पडे़गी न.’’

‘‘छोड़ो ये बड़ीबड़ी बातें,’’ रोज की तरह सुमन को शर्मिंदा कर रमेश जूते खटखटाते हुए आफिस निकल गए और सुमन ठगी सी खड़ी रह गई. नन्हे विनय को गोद में उठा कर वह जब तक आंगन में पहुंचती, रमेश गाड़ी स्टार्ट कर फुर्र से निकल गए, न मुड़ कर देखा, न परवा की.

‘‘अच्छा, भूख लगी है राजा बेटे को. हांहां, हम बिट्टू को दूध पिलाएंगे…’’ सुमन के हाथ यंत्रवत बोतल में दूध भरने लगे. मुंह में दूध की बोतल लगते ही विनय का रोना थम गया. लेकिन सुमन तो जैसे झंझावात से घिर गई थी. अंतर्मन में घुमड़ रहे बवंडर पर उस का खुद का भी बस न था.

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वह सोच रही थी, आखिर उस की गलती क्या है? क्या समर्पण का यही फल मिलेगा उसे. 22 साल की उम्र में उस ने अपनी भावनाओं का गला घोंट दिया. दीदी के उजड़े परिवार को बसाने की खातिर खुद का बलिदान दे दिया तो क्या गलती हो गई उस से. यह ठीक है कि दीपिका दीदी के असमय बिछोह ने रमेश को अस्तव्यस्त कर दिया है, लेकिन क्या इस के लिए वह सुमन पर जबतब व्यंग्य बाण चलाने का हकदार बन जाते हैं?

दूसरे दिन आने वाले अपने जन्मदिन पर सुमन ने अपनी सहेलियों को घर पर आमंत्रित किया. मधु, रीना, वाणी, महिमा सब कितनी बेताब थीं उस के घर आने को. सुमन की अचानक हुई शादी में शामिल न होने की कसर वे उस का जन्मदिन मना कर ही पूरी कर लेना चाहती थीं. सुबह की घटना को भूल कर सुमन ने रमेश के सामने बात छेड़ी, ‘‘सुनिए, कल मैं ने कुछ सहेलियों को घर पर बुलाया है. आप भी 6 बजे तक आ जाएंगे न.’’

‘‘क्यों, कल क्या है?’’ रमेश ने आंखें तरेरते हुए पूछा.

‘तो जनाब का गुस्सा अभी ठंडा नहीं हुआ है,’ सुमन मन ही मन सोचते हुए चुहल के मूड में बोली, ‘‘जैसे आप को मालूम ही नहीं है?’’

‘‘हां, नहीं मालूम मुझे, क्या है कल?’’ कहते हुए रमेश के माथे पर बल पड़ गए.

रमेश के तेवर देख कर सुमन का सारा उत्साह ठंडा पड़ गया. वह मायूसी से बोली, ‘‘मधु, वाणी वगैरह कल मेरा बर्थडे मनाना चाहती थीं. इसी बहाने मिलना भी हो जाएगा और हम सहेलियां मिल कर गपशप भी कर लेंगी.’’

‘‘बर्थडे और तुम्हारा? ओह, कम आन सुमन. एक बच्चे की मां हो तुम और बर्थडे मनाओगी, सहेलियों को बुलाओगी. यह बचकानापन छोड़ो और थोड़ी मैच्योर हो जाओ,’’ रमेश की बातें सुन कर उस के धैर्य का बांध टूटने लगा.

‘‘इस में बचकानेपन की क्या बात है? आप नहीं आ पाएंगे क्या?’’ वह संयत स्वर में बोली.

‘‘देखूंगा. वैसे तुम्हारी सहेलियों से मिलने में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है. और तुम तो जानती हो कि दीपिका के बाद कोई भी फंक्शन, भले ही वह छोटा क्यों न हो, मैं उस में शामिल होना पसंद नहीं करता. फिर क्यों जोर दे रही हो तुम?’’ रमेश की आवाज में उपेक्षा साफ झलक रही थी.

शादी के बाद इस दिन के लिए कितनी कल्पनाएं की थीं सुमन ने पर वे सारी कल्पनाएं धराशायी हो गईं. वह मन ही मन आशाएं लगा रही थी कि उस दिन रमेश सुबहसुबह उसे उठा कर कोई अच्छा सा गिफ्ट देंगे और वह सारे गिलेशिकवे भुला कर उन्हें माफ कर देगी. सारी कड़वाहट भुला देगी. रमेश उसे सरप्राइज देते हुए, एक दिन की छुट्टी ले लेंगे. उस की सहेलियों के घर में आने पर सारे लोग मिल कर खूब मौजमस्ती करेंगे. विनय भी खूब खुश होगा. सब को हंसीखुशी देख कर बाबूजी को बहुत संतोष होगा कि उन का निर्णय गलत नहीं था. क्या कुछ नहीं सोचा था उस ने, पर सब धरा का धरा रह जाएगा.

‘मैच्योर होने की ही तो सजा भुगत रही हूं रमेश. आज मैं किसी दूसरे घर में होती तो मुझे यों उलाहने न सुनने पड़ते. दूसरी बीवी हूं न इसलिए मेरे किए का, मेरी भावनाओं का कोई मूल्य नहीं है आप के लिए,’ वह तड़प कर बुदबुदाई.

लेकिन उस की बुदबुदाहट सुनने के लिए रमेश वहां थे कहां? वह तो कब के मामले का पटाक्षेप कर के अपने कमरे में बैठे टेलीविजन देख रहे थे.

दूसरे दिन सुबह उठ कर जब बाबूजी को प्रणाम किया तो उन्होंने आशीर्वाद की झड़ी लगा दी, ‘‘खुश रहो बेटा. तुम्हारे आने से यह घर बस गया है बेटी. अच्छा सुनो, आज मां के यहां भी सहेलियों के आने से पहले हो आना. वे दोनों भी तो राह देखते होंगे. रमेश चला गया न, नहीं तो तुम तीनों ही चले जाते.’’

‘‘कोई बात नहीं, बाबूजी. मैं आटो कर लूंगी,’’ इतना कह कर वह धीरे से मुसकराई.

नए कपड़ों में 5 माह का गोलमटोल विनय और भी प्यारा लग रहा था. सुनहरी किनारी वाला रानी कलर का सूट सुमन पर खूब फब रहा था.

आटो रुकते ही मां दौड़ी चली आईं. उस ने विनय को अपनी मम्मी की गोद में दे कर मम्मीपापा दोनों को झुक कर प्रणाम किया.

पापा बोले, ‘‘बेटा, रमेश आते तो अच्छा होता.’’

‘‘वह तो चाहते थे, लेकिन छुट्टी ही नहीं मिली,’’ अपनी प्रतिष्ठा बचाने और मम्मीपापा को दिलासा देने की खातिर झूठ बोलने में कितनी कुशल हो गई थी सुमन.

थोड़ी देर बाद पापा विनय को घुमाने ले गए. उन के निकलते ही मां को टोह लेने का मौका मिल गया.

‘‘सच बता सुमी, तू खुश तो है न? रमेश का व्यवहार कैसा है?’’

‘‘सब ठीक है, मां,’’ वह उदास स्वर में बोली.

‘‘सब ठीक है तो फिर तू उदास, खोईखोई सी क्यों लगती है?’’

‘‘मां, विनय रात में सोने कहां देता है. नींद पूरी नहीं हो पाती, इसी से सुबह भी थकी हुई लगती हूं.’’

‘‘बेटी, वह तो ठीक है. पर…’’ मां की आवाज का प्रश्नचिह्न बहुत कुछ कह गया.

‘‘पर क्या, मां? मैं ने कभी कुछ कहा क्या?’’ वह झुंझलाई.

‘‘बोला नहीं तभी तो सुमी. यह जो तेरी कुछ न बोलने की आदत है न, उसी से तो डर लगता है. तू शुरू से ही ऐसी है. मन की बात भीतर दबा कर रखने वाली. तू घुटघुट कर जी लेगी, लेकिन अपनी पीड़ा कहेगी नहीं. बेटी, क्या हम नहीं समझते कि यह शादी तुम ने सिर्फ हमारी इच्छा रखने की खातिर की है.’’

‘‘अब गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या फायदा?’’ उस का शुष्क स्वर उभरा.

मां लगभग चिल्लाते हुए बोलीं, ‘‘क्योंकि तू अभी जिंदा है और तू अपने परिवार के साथ हंसतीखेलती रहे यही हमारी हसरत है. एक बेटी को तो हम खो ही चुके हैं. आगे कुछ भलाबुरा सहन नहीं…’’ मां की आवाज तर हो गई. मां ने हथेलियों से आंसू छिपाने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहीं.

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सुमन मां के कंधे पर हाथ रखते हुए बोली, ‘‘सौरी मां, मैं ने तुम्हें रुला दिया. मैं ने कहा न सब ठीक है, तुम बेकार ही परेशान होती हो. अच्छा, मां, बोलो तो मेरे लिए क्या बनाया है?’’

मां आंसू पोंछते हुए नाश्ते की थाली लगाने लगीं. पापा भी विनय को ले कर लौट आए. मां ने सुमन की सहेलियों के लिए भी केक, मटर कचौरी, नमकीन और गाजर का हलवा रखवा दिया.

पापा उसे घर तक छोड़ने गए. फिर दोनों समधी देर तक बरामदे में बैठ कर बतियाते रहे.

महीनों बाद सुमन खुल कर हंस रही थी, वरना शादी के बाद तो उस का जीवन जैसे दुस्वप्न बन गया था. उस की बड़ी बहन दीपिका की सड़क दुर्घटना में हुई आकस्मिक मौत ने जैसे सभी के जीवन से खुशियों के रंग छीन लिए थे. मम्मी, पापा और बाबूजी की समझ से परे था कि दीपिका की मौत का गम करें या विनय और रमेश के बचने के लिए नियति को धन्यवाद दें.

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सर्वभक्ष अभियान

बैंक के पास से निकल रहा था कि गुरुजी दिख गए. वहरुपए गिनने में व्यस्त थे और अपने इस काम में इतने तल्लीन थे कि अपने आसपास का उन्हें ध्यान ही नहीं था. अत: उन्हें छेड़ते हुए हम ने कहा, ‘‘गुरुजी, अगर नोट गिनने में परेशानी हो रही हो तो हम भी कुछ मदद करें.’’

गुरुजी ने एक नजर हम पर डाली और बोले, ‘‘अरे, कहां? ये तो बस, थोड़े से ही नोट हैं,’’ फिर अफसोस करते हुए बोले, ‘‘वैसे भी इस माह छुट्टियों के कारण महीने के 12 दिन तो स्कूल बंद ही रहा है. ऐसे में दोपहर भोजन कार्यक्रम का बिल बने भी तो कहां से.’’

मैं ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, ‘‘चलिए, कोई बात नहीं, इस माह कम छुट्टियां हैं तो मध्याह्न भोजन का बिल ठीकठाक होगा. वैसे भी आप परेशान क्यों हो रहे हैं? यह तो मध्याह्न

भोजन कार्यक्रम का पैसा है, कम हो

या ज्यादा, आप को क्या फर्क पड़ता है?’’

‘‘वह तो है, लेकिन ज्यादा नोट गिनने का अपना ही मजा है, भले ही वह नोट सरकारी ही क्यों न हों,’’ गुरुजी बोले.

‘‘आप भी गुरुजी कहां सरकारी और गैरसरकारी के चक्कर में पड़ गए. जब तक नोट आप की जेब में हैं तब तक तो वह आप की ही संपत्ति हैं अब क्या नोटों पर छपा हुआ है कि वह आप के हैं या सरकारी हैं? और फिर यदि नोट सरकारी हैं तो आप भी तो सरकारी आदमी ही हैं. अब सरकार के आदमी के पास सरकारी संपत्ति नहीं रहेगी तो क्या किसी ऐरेगैरे के पास रहेगी?

वैसे भी यह जिम्मेदारी भरा काम है इसीलिए तो सरकार ने यह जिम्मेदारी आप को सौंपी है,’’ हम ने अपनी ओर से गुरुजी को प्रसन्न करने की कोशिश की.

वह बोले, ‘‘कह तो तुम सही रहे हो.’’

हम ने उन्हें और चढ़ाते हुए कहा, ‘‘वैसे देखा जाए तो अपना कार्य करने के साथसाथ आप लोग तो इस योजना को संचालित कर के समाजहित में एक बड़ा कार्य कर रहे हैं. एक बड़ी जिम्मेदारी निभा रहे हैं.’’

‘‘जिम्मेदारी क्या है, व्यर्थ की परेशानी है,’’ फिर सिर झटकते हुए बोले, ‘‘ढेरों हिसाबकिताब रखो, दाल बनवाओ, सब्जी बनवाओ, रोटियां बनवाओ. सुबह से इसी में लगे रहना पड़ता है. ऊपर से बिलवाउचर बनवाओ, कैश बुक मेंटेन करो, आडिट करवाओ. इतना सबकुछ करने पर भी जांच पार्टी आ कर ऐसे जांच करती है जैसे हम ने कितना बड़ा गबन कर लिया हो.

उन्हें संतुष्ट करो, सब को खुश करतेकरते तो यहां जान निकली जा रही है.’’

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‘‘यह सब को खुश क्यों करना पड़ता है?’’ हम चकराए. मेरे इस सवाल पर उन्होंने मुझे ऐसे देखा जैसे मैं ने कोई बेवकूफी भरा प्रश्न कर दिया हो. फिर बोले, ‘‘अब सब तो यहां पीछे पड़े हैं. हर कोई अपना हिस्सा चाहता है. जिसे न दो उसी से बुराई. मध्याह्न भोजन न हुआ मास्टरों को तंग करने का एक नया हथियार हो गया. कभी जिले के शिक्षा विभाग से कोई जांच पार्टी आ रही है, तो कभी ब्लाक से…और कहीं से नहीं तो स्कूल से तो पार्टी कभी भी आ धमकती है. सिर्फ आती ही नहीं है बल्कि ऐसी बारीकी से जांच व पूछताछ करती है कि उन्हें जवाब से संतुष्ट करतेकरते सिर दुखने लगता है. हर दिन हर समय जांच रूपी तलवार सिर पर लटकी ही रहती है.’’

‘‘तो इस में परेशानी की क्या बात है? आप जांच और पूछताछ से इतना घबराते क्यों हैं? अरे, यदि आप सही हैं, आप के काम में कोई खोट नहीं है, तो लाख जांच होने पर भी कोई आप का कुछ नहीं बिगाड़ सकता. जब आप सबकुछ ठीक कर रहे हैं तो सिरदर्द का तो प्रश्न ही नहीं उठता.’’

गुरुजी थोड़ा ढीले हुए, ‘‘नहीं समझे आप. अरे भाई, जब इतनी बड़ी योजना है और हम इतनी मेहनत कर रहे हैं तो थोड़ीबहुत ऊंचनीच, थोड़ाबहुत पतलागाढ़ा तो चलता ही है…और चलाना भी पड़ता है. अब उस में ही आप छानबीन करने लग जाएं कि दाल इतनी पतली क्यों है या सब्जी में आलू इतने कम क्यों हैं, तो यह तो कोई बात नहीं हुई. अरे भाई, जब सरकार ने भरोसा कर के यह योजना हम शिक्षकों के सुपुर्द की है, तो आप भी तो थोड़ा विश्वास करो, थोड़ा भरोसा करो.’’

हम ने भी मजा लेते हुए पूछा, ‘‘लेकिन गुरुजी, यह पतलेगाढ़े का चक्कर है क्या? जहां तक मुझे पता है कि सारा भोजन एक स्पष्ट दिशानिर्देश के तहत बनाया जाता है, तो फिर उस का पालन करने से भोजन अपनेआप ही स्तरीय बनेगा, पौष्टिक बनेगा और ऐसे में एक बार नहीं लाख बार चैकिंग हो जाए, तो भी कोई आप का कुछ भी गलत नहीं कर सकता.’’

हमारे व्यंग्य को न समझते हुए गुरुजी बोले, ‘‘भैया, दिशानिर्देश तो हमें भी मालूम हैं. हमारे पास सबकुछ लिखित में है, लेकिन आप ही बताइए, कोई कहां तक उन नियमों का पालन करे. वेसे भी व्यावहारिकता में इन का पालन संभव है क्या?’’

‘‘क्यों, क्या दिक्कत है. जहां तक मुझे मालूम है, सबकुछ एकदम साफ, एकदम पारदर्शी है. फिर कानून के पालन में बुराई भी क्या है?’’

हमारे यह कहने पर वह भड़क कर बोले, ‘‘कानूनों के पालन की आप ने अच्छी चलाई. आप ही बताइए, आज कानूनों का पालन कर कौन रहा है? जिसे जहां मौका मिल रहा है वहीं वह कानूनों को तोड़मरोड़ कर उन की अपने हिसाब से व्याख्या कर रहा है. आज जब हर तरफ भ्रष्टाचार का बोलबाला है तो फिर आप शिक्षकों से ही कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे नियमों का पालन करें? और वे करें भी तो क्यों करें. आखिर वे भी तो इसी समाज का एक अंग हैं. अब आज यदि उन्हें प्रगति करने, आगे बढ़ने का एक मौका मिला है तो दूसरों के पेट में मरोड़ क्यों हो रही है?’’

उन की बातों का मतलब समझते हुए मैं ने कहा, ‘‘लेकिन उन्नति का यह तो कोई रास्ता नहीं हुआ. वैसे भी समाज आप शिक्षकों से कुछ और ही उम्मीद करता है. आप हमारे पथप्रदर्शक हैं, भावी पीढ़ी के निर्माता हैं. आप लोगों से एक आदर्श प्रस्तुत करने की उम्मीद तो समाज कर ही सकता है. यदि वह भी वही सब करने लगे तो उन में और दूसरों में अंतर ही क्या रह जाएगा?’’

‘‘इन्हीं लच्छेदार बातों से हमें सदियों से बेवकूफ बनाया जाता रहा है,’’ गुरुजी बोले, ‘‘लेकिन अब शिक्षक जागरूक हो गया है. अब वह अपने अधिकारों के प्रति जागृत है. उसे अपने अच्छेबुरे का ज्ञान है. ऐसी बातें कर के उसे अब और बरगलाया नहीं जा सकता.’’

गुरुजी शांत होने का नाम ही नहीं ले रहे थे, अत: बातों का रुख मोड़ने के लिए हम ने प्रश्न किया, ‘‘और सुनाइए, सर्वशिक्षा अभियान तो इन दिनों बड़े जोरशोर से चल रहा है. सब ओर इसी अभियान के चर्चे हैं.’’

वही हुआ जो हम चाहते थे. गुरुजी कुछ शांत हुए, ‘‘हां, इस अभियान के नतीजतन हमारे यहां वर्ग, संख्या में उल्लेखनीय प्रगति हुई है. शाला भवन का निर्माण और रसोईघर (किचिन शेड) निर्माण भी उसी अभियान के अंतर्गत हुआ है. वैसे इस अभियान से बच्चों में पढ़ाई के प्रति रुझान बढ़ा है… हर कक्षा में छात्र संख्या में वृद्धि हुई है.’’

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अब यह वृद्धि कैसे हुई और क्यों हुई इस का असली कारण समझते हुए भी हम ने मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालना उचित नहीं समझा. उन की मनोस्थिति भांपते हुए हम ने उन के मुताबिक ही एक प्रश्न किया, ‘‘15 अगस्त से तो हर छात्र बजट बढ़ा कर 1.50 से 2.00 रुपए प्रतिदिन कर दिया गया है. अब तो योजना का संचालन और भी आसान हो गया होगा.’’

गुरुजी बोले, ‘‘आप ऐसा सोचते हैं पर यह क्यों नहीं देखते कि यदि बजट बढ़ाया गया है तो मीनू में तो दोनों चीजें (दाल व सब्जी) देना अनिवार्य कर दिया गया है. बात तो आखिर वहीं की वहीं रही,’’ फिर सुझाव देते हुए बोले, ‘‘मेरे हिसाब से तो बढ़ती हुई महंगाई को देखते हुए सरकार को इस बजट को और बढ़ाना चाहिए.’’

मन में आया कह दें कि सरकार यदि बजट बढ़ा कर 2 से 5 रुपए प्रति छात्र भी कर दे तो न तो आप का पेट भरेगा और न ही आप संतुष्ट होंगे, क्योंकि स्वार्थ और बेईमानी का गहरा चश्मा आप की आंखों पर चढ़ा हुआ है और जिस के चलते सभी तरह की गलत और अनैतिक गतिविधियों को भी सीना ठोक कर आप जायज बता रहे थे. गरीब बच्चों का पेट काट कर भी अपना पेट और घर भरने की कोशिश कर रहे थे. पर उन से कुछ कहना उन के द्वारा रचित सुख में विघ्न डालना ही होता और ऐसा कह कर हम गुरुजी की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहते.

Romantic Story In Hindi: प्रेम लहर की मौत- भाग 4

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लेखक- वीरेंद्र बहादुर सिंह 

असीम ने तो स्माइल की, पर मेरी आंखों से आंसू टपक पड़े. आंसू गिरते देख उस ने कहा, ‘‘प्लीज अनु, रोना मत.’’

  ‘‘नहीं, मैं बिलकुल नहीं रोऊंगी.’’ मैं ने कहा.

  ‘‘तुम्हें तो पता है अनु, तुम मेरे सामने बिलकुल झूठ नहीं बोल सकती, तो फिर क्यों बेकार की कोशिश कर रही हो. मैं तुम्हें अच्छी तरह से जानता हूं अनु. मुझे पता है कि तुम रोओगी, खूब रोओगी और मुझे यह हर्ट करेगा. जबकि मैं नहीं चाहता कि तुम मेरी वजह से रोओ, जी जलाओ.’’

तभी निकी का फोन आ गया कि ट्रेन के आने का एनाउंसमेंट हो गया है. हम दोनों एकदूसरे को देखते रहे. थोड़ी देर तक हमारे बीच मौन छाया रहा. अचानक असीम ने पूछा, ‘‘अनु, तुम कम से कम यह तो बता दो कि तुम जा कहां रही हो?’’

  ‘‘नहीं, अब मैं कुछ नहीं बताऊंगी. मेरा यह मोबाइल नंबर भी कल सुबह से बंद हो जाएगा. जहां भी जाऊंगी, नया नंबर ले लूंगी. अब अंत में सिर्फ इतना ही कहूंगी कि तुम खुश रहना, सुखी रहना और प्रियम को भी खुश और सुखी रखना, उसे खूब प्रेम करना और हमारी मुलाकात को एक सुंदर सपना समझ कर भूल जाना. इस के बाद हम स्टेशन पर आ गए. हमारे स्टेशन आतेआते टे्रन आ गई थी. उस के बाद जो हुआ, उसे आप ने देखा ही है.’’ कह कर अनु चुप हो गई.

मैं मन ही मन अनु के प्रेम, उस की संवेदनशीलता, उस की समर्पण भावना को सलाम करते हुए सोच रहा था कि काश! इसी तरह प्रेम करने वाली सुंदर लड़की मुझे भी मिल जाती तो मेरे लिए स्वर्ग इसी धरती पर उतर आता. सच बात तो यह थी कि अनु से मुझे प्यार हो गया था. मन कर रहा था, क्यों न मैं उस से अपने दिल की बात कह कर देखूं.

मैं मन की बात कहने का विचार कर ही रहा था कि उस ने एक ऐसी बात कह दी, जिस से मेरे मन में जो प्रेम पैदा हुआ था, उस की अकाल मौत हो गई थी. एक तरह से मेरा प्रेम पैदा होते ही मर गया था. उस ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘मैं यह नौकरी छोड़ने की जो बात कर रही हूं, यह सब नाटक है. मैं ने न नौकरी छोड़ी है और न यह शहर छोड़ कर जा रही हूं.’’

  ‘‘क्या?’’ मैं एकदम से चौंका, ‘‘आप ने यह नाटक क्यों किया, आप ने इतना बड़ा झूठ क्यों बोला?’’

  ‘‘क्योंकि असीम और निकी ने सलाह कर के प्रियम नाम के झूठे करेक्टर को खड़ा कर के मेरे साथ नाटक किया, शायद उन्हें पता नहीं कि मैं उन दोनों से बड़ी नाटकबाज हूं.

  ‘‘अगर असीम मेरे बारे में सब जानता है, तो मैं भी बेवकूफ नहीं हूं कि उस के बारे में सब कुछ न जानती. मैं उस से प्रेम करने लगी थी तो उस के बारे में एकएक चीज का पता लगा कर ही प्रेम किया था. जिस दिन निकी ने मेरे सामने प्रियम का नाम ले कर मुझे चिढ़ाने और परेशान करने के लिए नाटक शुरू किया, उसी के अगले दिन ही मैं ने सच्चाई का पता लगा लिया था, क्योंकि मुझे तुरंत शक हो गया था.’’

  ‘‘कैसे?’’ मैं ने पूछा.

क्योंकि अगर प्रियम से असीम का प्यार चल रहा होता तो निकी इतने दिनों तक इंतजर न करती. क्योंकि उसे मेरे और असीम के प्रेम संबंध की एकएक बात पता थी. अगर असीम के जीवन में कोई प्रियम होती तो वह मुझे पहले ही बता कर असीम के साथ इतना आगे न बढ़ने देती.

अगले दिन मुझे इस का सबूत भी मिल गया था. निकी सुबह नहा रही थी तो उस का मोबाइल मेरे हाथ लग गया, उस में कुछ मैसेज थे, जिस से मेरा शक यकीन में बदल गया. बस, फिर मैं ने भी नाटक शुरू कर दिया.

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मैं ने ऐसा नाटक किया कि उन्हें लगा मैं सचमुच बहुत दुखी हूं. मुझे तो सच्चाई पता थी. पर उन्हें पता नहीं था कि मैं भी नाटक कर रही हूं. इस खेल में मैं उन से ज्यादा होशियार निकली. क्योंकि वे दोनों मेरे आते वक्त तक सच्चाई उजागर नहीं कर पाए. अब उन्हें डर सता रहा है कि सच्चाई उजागर करने पर मैं उन पर खफा हो जाऊंगी?’

मैं ने अनु को बीच में रोक कर पूछा, ‘‘इस का मतलब आप ने नौकरी छोड़ी नहीं है, सिर्फ उन लोगों से कहा कि नौकरी छोड़ कर जा रही हो.’’

  ‘‘पागल हूं, जो नौकरी छोड़ देती. केवल एक सप्ताह की छुट्टी ले कर घर जा रही हूं. घर पहुंच कर फोन का सिम निकाल दूंगी. औफिस वालों को दूसरा नंबर दे आई हूं्. असीम मुझे परेशान करना चाहता था. बदले में मैं ने उसे सबक सिखाया. मैं उसे इतना प्यार करती हूं कि उस के बिना जी नहीं सकती. अगर सचमुच में प्रियम होती तो मैं आप को अपनी यह कहानी बताने के लिए न होती. किसी मानसिक रोगी अस्पताल में अपना इलाज करा रही होती.’’

  ‘‘सलाम है आप के प्रेम को, जब लौट कर  आओगी तो…’’

मेरी बात बीच में ही काट कर अनु ने कहा, ‘‘यही तो सरप्राइज होगा असीम के लिए.’’

अनु के बारे में सोचते हुए कब आंख लग गई, मुझे पता ही नहीं चला. मुझे असीम से ईर्ष्या हो रही थी. ट्रेन स्टेशन पर रुकी तो मेरी आंख खुली. पता चला ट्रेन कानपुर में खड़ी थी. अनु खड़ी हुई, अपना बैग और पर्स लिया और उतर कर निकास गेट की ओर बढ़ गई. वह जैसेजैसे दूर जा रही थी, मैं यही सोच रहा था, काश! सचमुच प्रियम होती, तो आज मेरे प्यार की अकाल बाल मौत न होती.

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Romantic Story In Hindi: प्रेम लहर की मौत- भाग 3

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लेखक- वीरेंद्र बहादुर सिंह 

  ‘‘ऐसा क्यों?’’

  ‘‘बिकाज…बिकाज… आई लव यू. अनु एंड आई नो दैट यू आलसो लव मी. इसी बात से डर लग रहा था कि प्रियम के बारे में पता चलने पर कहीं तुम्हें खो न दूं.’’

असीम की बात सुन कर मैं फफकफफक कर रो पड़ी. रोते हुए मैं ने कहा, ‘‘असीम तुम्हें पता है कि प्रियम तुम्हें कितना चाहती है और तुम भी उसे कितना चाहते हो. मात्र 4 महीने के अपने इस संबंध में तुम अपने और प्रियम के 4 सालों के प्यार को कैसे भुला सकोगे? और हमारे बीच संबंध ही क्या है?

  ‘‘असीम, आज भी तुम मात्र प्रियम को ही प्यार करते हो. जितना पहले करते थे, उतना ही, शायद उस से भी ज्यादा. वह अभी तुम्हारे पास यानी तुम्हारे साथ नहीं है. तुम उसे खूब मिस कर रहे हो.

  ‘‘ऐसे में मेरे प्रेम की वजह से तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम मुझे प्रेम करते हो. जबकि सच्चाई यह है कि तुम ने मुझे कभी प्रेम किया ही नहीं. तुम मुझ में प्रियम को खोजते हो. मेरा तुम्हारा केयर करना, तुम्हारी छोटीछोटी बातों का ध्यान रखना, तुम्हें लगता है तुम्हारे लिए यह सब प्रियम कर रही है. तुम्हें ऐसा लगा, इसीलिए तुम मेरे प्रति आकर्षित हुए. बट इट्स नाट लव. असीम, यू नाट लव मी.’’

  ‘‘पर अनु तुम…’’

  ‘‘मैं… यस औफकोर्स आई लव यू. आई लव यू सो मच.’’

  ‘‘तो क्या यह काफी नहीं है.’’

  ‘‘नहीं असीम, यह काफी नहीं है. प्रियम और तुम एकदूसरे को बहुत प्यार करते हो. हां, यह बात भी सच है कि मैं भी तुम्हें बहुत प्यार करती हूं. पर मैं इतनी स्वार्थी नहीं हूं कि अपने प्यार के लिए प्रियम के साथ धोखा करूं या धोखा होने दूं. नहीं असीम, मैं अपने सपनों का महल प्रियम की हाय पर नहीं खड़ा करना चाहती. इसीलिए मैं ने तय किया है कि मैं यहां से दूर चली जाऊंगी, तुम से बहुत ही दूर.’’

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  ‘‘अरे, तुम कहां और क्यों जाओगी? जरूरत ही क्या है यहां से कहीं जाने की?’’

  ‘‘क्यों जाऊंगी, कहां जाऊंगी, यह तय नहीं है. पर जाऊंगी जरूर, यह तय है.’’

  ‘‘प्लीज अनु, डोंट डू दिस यू मी. मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता.’’

  ‘‘असीम, मैं भी तुम से यही कहती हूं, डोंट डू दिस टू प्रियम, मात्र 4 महीने के प्रेम के लिए तुम 4 साल के प्रियम के प्रेम को कैसे भूल सकते हो. उस के प्रेम की कुर्बानी मत लो असीम.’’

  ‘‘अनु, तुम ने जो निर्णय लिया है, बहुत सही लिया है.’’ निकी ने कहा.

मैं निकी के गले लग कर खूब रोई. उस ने भी मुझे रोने दिया. रोने से दिल हलका हो गया. उस रात मैं ने कुछ नहीं खाया. निकी ने मुझे बहुत समझाया, पर कौर गले के नीचे नहीं उतरा. मैं सो गई. सुबह उठी तो काफी ठीक थी. फ्रैश हो कर मैं औफिस गई.

मैं ने व्यक्तिगत कारणों से नौकरी छोड़ने की बात लिख कर एक महीने का नोटिस दे कर नौकरी से इस्तीफा दे दिया. बौस और सहकर्मियों ने पूछा कि बात क्या है, बताओ तो सही, सब मिल कर उस का हल निकालेंगे, पर मैं अपने निर्णय पर अडिग रही.

उस के बाद मैं कैसे जी रही हूं, मैं ही जानती हूं. जीवन जैसे यंत्रवत हो गया है. हंसना बोलना तो जैसे भूल ही गई हूं. कलेजा अंदर ही अंदर फटता है. मेरी व्यथा या तो मैं जानती हूं या फिर निकी, हां कुछ हद तक असीम भी. किसी तरह 20 दिन बीत गए. इस बीच मैं ने न तो असीम को फोन किया और न मैसेज.

उस के फोन भी आ रहे थे अैर मैसेज भी. पर मैं न फोन उठा रही थी और न मैसेज के जवाब दे रही थी. मैं जानती थी कि उस की भी मेरी जैसी ही व्यथा है. इसलिए मैं ने निकी से कहा कि वह उस के कांटैक्ट में रहे. मेरे साथ तो निकी थी. लेकिन वह तो एकदम अकेला था.

एक दिन उस ने निकी से बहुत रिक्वेस्ट की तो निकी ने मुझ से कहा कि असीम से बात कर लो. मैं ने बात की तो असीम ने कहा, ‘‘अनु, मैं ने जब गंभीरता से विचार किया तो तुम्हारी बात सच निकली, सचमुच मैं आज भी प्रियम को उतना ही प्यारर करता हूं. उस की कमी मुझे खूब खलती है. पर अनु तुम…? हमने इतना समय साथ बिताया, तुम मुझ से काफी जुड़ गई थीं, मुझे तुम्हारी बहुत चिंता हो रही है.’’

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  ‘‘इट्स ओके असीम, आई एम फाइन. तुम मेरी जरा भी चिंता मत करो. मैं इतनी डरपोक या कमजोर नहीं कि खुद को किसी तरह का नुकसान पहुंचाऊं या आत्महत्या जैसी कायराना हरकत के बारे में सोचूं. असीम, मुझे मरना नहीं जीना है, तुम्हारे प्रेम में. और मैं जीऊंगी भी. मैं जानती हूं कि ऐसी स्थिति में मरना बहुत आसान है, जीना बहुत मुश्किल. पर तुम्हारी चाहत और प्रेम को मैं अपने हृदय में संभाल कर जीऊंगी. मैं भले ही तुम्हारा प्रेम नहीं पा सकी, पर तुम्हें, मात्र तुम्हें प्रेम करती हूं और इसी प्रेम के साथ जी सकती हूं.’’ कह कर मैं ने फोन काट दिया.

नोटिस के दौरान मैं ने अपने लिए दूसरे शहर में नौकरी तलाश ली थी. रहने के लिए जगह की भी व्यवस्था कर ली थी. दो दिन पहले असीम का फोन फिर आया. उस ने मुझ से मिलने की इच्छा प्रकट की. मैं मना नहीं कर सकी. मैं ने कहा कि हम स्टेशन पर मिलेंगे. उस की ट्रेन साढ़े 10 बजे आती थी और मेरी टे्रन साढ़े 12 बजे की थी. हमारे पास 2 घंटे का समय था. अंतिम मुलाकात के लिए इतना समय पर्याप्त था.

अनु ये बातें कर रही थी, तभी न जाने क्यों मुझे लगा कि मैं उस के प्रेम, उस की संवेदनशीलता की ओर आकर्षित होने लगा हूं. शायद उसे प्रेम करने लगा हूं. पर उस समय चुपचाप उस की बातें सुनने के अलावा मैं कुछ नहीं कर सकता था. मेरा मूक श्रोता बने रहना ही उचित था. मैं सिर्फ उस की बातें सुनता रहा. उस ने अपनी और असीम की अंतिम मुलाकात की बातें बतानी शुरू कीं.

असीम की ट्रेन 15 मिनट लेट थी. इसलिए उस की ट्रेन पौने 11 बजे आई. मैं अपना सामान ले कर निकी के साथ 10 बजे ही स्टेशन पर पहुंच गई थी. असीम आया, मैं ने उस से हाथ मिलाया. हम स्टेशन के सामने वाले रेस्टोरेंट में कोने की मेज पर आमनेसामने बैठे. सुबह का समय था इसलिए ज्यादा चहलपहल नहीं थी.

हम दोनों की स्थिति ऐसी थी कि दोनों एक शब्द भी नहीं बोल पा रहे थे. फिर भी बात शुरू हुई. उस ने मेरा हाथ हलके से हथेली में ले कर कहा, ‘‘अनु, आई एम वेरी सौरी, मेरी वजह से तुम्हें यह तकलीफ सहन करनी पड़ रही है.’’

  ‘‘प्लीज असीम, डू नाट से सौरी. मेरे नसीब में तुम्हारा बस इतना ही प्यार था. और हां, हम ने साथ बिताए समय के दौरान अगर कभी तुम्हें मेरे लिए, मात्र मेरे लिए सहज भी प्रेम महसूस हुआ हो तो उसी प्रेम की कसम, तुम कभी भी मेरे लिए गिल्टी कांसेस फील मत करना. प्रियम को खूब प्रेम करना. प्रियम को खुश होते देख, समझना मैं खुश हो रही हूं. मुझे पूरा विश्वास है कि तुम मेरी कसम नहीं तोड़ोगे. अब एक बढि़या सी स्माइल कर दो.’’

आगे पढ़ें- असीम ने तो स्माइल की, पर…

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लेखक- अनिल चाचरा

अर्चना ने अपने को छुड़ाने की कोई खास कोशिश नहीं की, पर नवीन को फौरन ही अपनी बांहों के घेरे से उसे मुक्त करने को मजबूर होना पड़ा.

2 सादी वरदी में पुलिस वाले एक घनी झाड़ी के पीछे से अचानक उन के सामने प्रकट हुए और शिकारी की नजरों से घूरते हुए पास आ गए.

‘‘शर्म नहीं आती तुम दोनों को सार्वजनिक स्थल पर अश्लील हरकतें करते हुए. समाज में गंदगी फैलाने के लिए तुम जैसे लोगों का मुंह काला कर के सड़कों पर घुमाना चाहिए,’’ लंबे कद का पुलिस वाला नवीन को खा जाने वाली नजरों से घूर रहा था.

‘‘बेकार में हमें तंग मत करो,’’ नवीन ने अपने डर को छिपाने का प्रयास करते हुए तेज स्वर में कहा, ‘‘हम कोई गलत हरकत नहीं कर रहे थे.’’

‘‘अब थाने चल कर सफाई देना,’’ दूसरे पुलिस वाले ने उन्हें फौरन धमकी दे डाली.

‘‘मैं पुलिस स्टेशन बिलकुल नहीं जाऊंगी,’’ अर्चना एकदम से रोंआसी हो उठी.

‘‘यह इस की पत्नी नहीं हो सकती,’’ लंबे कद का पुलिस वाला अपने साथी से बोला.

‘‘ऐसा क्यों कह रहे हैं, सर?’’ उस के साथी ने उत्सुकता दर्शाई.

‘‘अरे, अपनी बीवी के साथ कौन इतने जोश से गले मिलने की कोशिश करता है?’’

‘‘इस का मतलब यह किसी और की बीवी के साथ ऐश करने यहां आया है. गुड, हमारा केस इस कारण मजबूत बनेगा, सर.’’

‘‘नवीन, कुछ करो, प्लीज,’’ अर्चना के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं.

‘‘देखिए, आप दोनों को जबरदस्त गलतफहमी हुई है. हम कोई अश्लील हरकत…’’

‘‘कर ही नहीं सकते क्योंकि इन के बीच गलत रिश्ता है ही नहीं मिस्टर पुलिसमैन,’’ अचानक झाड़ी के पीछे से निकल कर उन का एक और सहयोगी मनोज उन के सामने आ गया.

उस के साथ विकास भी था. इन्हें देख कर पुलिस वाले ज्यादा सतर्क  और गंभीर से नजर आने लगे.

‘‘आप इन दोनों को जानते हैं?’’ लंबे पुलिस वाले ने सख्त स्वर में सवाल किया.

‘‘जानते भी हैं और इन के साथ भी हैं. यह हैं हमारी अर्चना दीदी,’’ विकास ने परिचय दिया.

‘‘और यह साहब?’’ उस ने नवीन की तरफ उंगली उठाई.

‘‘यह हमारे नवीन भैया हैं, क्योंकि उम्र में सब से बड़े हैं. अब आप ही बताइए कि कहीं भाईबहन अश्लील हरकत…छी, छी, छी,’’ विकास ने बुरी सी शक्ल बना कर दोनों पुलिस वालों को शर्मिंदा करने का प्रयास किया.

‘‘अगर ये भाईबहन हैं तो यह इसे गले लगाने की क्यों कोशिश कर रहा था?’’ दूसरे  पुलिस वाले ने अपने माथे पर बल डाल कर प्रश्न किया.

‘‘जवाब दीजिए, नवीन भाई साहब,’’ मनोज ने उसे हिंटदेने की कोशिश की, ‘‘अर्चना दीदी आजकल जीजाजी की सेहत के कारण चिंतित चल रही हैं. कहीं आप उन्हें हौसला बंधाने को तो गले से नहीं लगा रहे थे?’’

‘‘बिलकुल, बिलकुल, यही बात है,’’ नवीन अपनी सफाई देते हुए उत्तेजित सा हो उठा, ‘‘मेजर साहब, यानी कि मेरे जीजा की तबीयत ठीक नहीं चल रही है. इसलिए यह दुखी थी और मैं इसे सांत्वना…’’

‘‘क्या आप के पति फौज में मेजर हैं?’’ लंबे पुलिस वाले ने नवीन को नजरअंदाज कर अर्चना से अचानक अपना लहजा बदल कर बड़े सम्मानित ढंग से पूछा.

‘‘जी, हां,’’ अर्चना ने संक्षिप्त सा जवाब दिया.

‘‘यह आप की बहन हैं?’’ दूसरे ने नवीन से पूछा.

‘‘जी, हां.’’

‘‘असली बहन हैं?’’

‘‘जी, नहीं. ये आफिस वाली बहन हैं,’’ मनोज बीच में बोल पड़ा.

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि  हम सब एक आफिस में साथसाथ काम करते हैं और वहां सब के बीच भाईबहन का रिश्ता है.’’

‘‘आप को विश्वास नहीं हो रहा है तो नवीन भैया से पूछ लीजिए,’’ विकास बोला था.

दोनों पुलिस वालों ने नवीन को पैनी निगाहों से घूरा तो उस ने फौरन हकलाते हुए कहा, ‘‘हांहां, हम सब वहां भाईबहन की तरह प्यार से रहते हैं.’’

‘‘आप को परेशान किया इसलिए माफी चाहते हैं, मैडम,’’ लंबे कद के पुलिस वाले ने अर्चना से क्षमा मांगी और अपने साथी के साथ वहां से चला गया.

जहां वे बैठे थे वहां से सड़क नजर आती थी. वहां खड़ी एक सफेद रंग की कार में बैठे ड्राइवर ने अचानक जोरजोर से हार्न बजाना शुरू कर दिया.

‘‘मुझे वह बुला रहे हैं,’’ ऐसी सूचना दे कर अर्चना अचानक उठ खड़ी हुई.

‘‘कौन बुला रहा है?’’ नवीन ने चौंकते हुए पूछा.

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‘‘थैंक यू, नवीन भैया, लंच और फिल्म दिखाने के लिए बहुतबहुत धन्यवाद,’’ उस के सवाल का कोई जवाब दिए बिना अर्चना उस सफेद कार की तरफ चल पड़ी.

‘‘नवीन भैया,’’ मनोज ने ये 2 शब्द मुंह से निकाले और अचानक ठहाका मार कर हंसने लगा.

‘‘सर, वैलकम टू दी अर्चना दीदी क्लब,’’ विकास ने भी अपने सहयोगी का हंसने में साथ दिया.

‘‘देखो, ये बात किसी को आफिस में मत बताना,’’ अपने गुस्से को पी कर नवीन ने उन दोनों से प्रार्थना की.

दोनों ने मुंह पर उंगली रख कर उन्हें अपने खामोश रहने के प्रति आश्वस्त किया, पर वे दोनों अपनी हंसी रोकने में असफल रहे.

नवीन ने जब कार के ड्राइवर को बाहर निकलते देखा तो जोर से चौंका. ड्राइवर वही बड़ीबड़ी मूंछों वाला शख्स था जिसे उन्होंने सिनेमा हाल के बाहर अर्चना को घूरते हुए देखा था और जो अंदर हाल में उस की बगल में बैठा था.

‘‘यह कौन है?’’ नवीन ने उलझन भरे स्वर में पूछा.

‘‘यह मेजर साहब हैं…अर्चना के पति,’’ विकास ने जवाब दिया.

‘‘पर…पर अर्चना ने मुझे सच क्यों नहीं बताया?’’

‘‘सर, हमें भी नहीं बताया था और हम बन गए अर्चना दीदी क्लब के पहले 2 सदस्य. अपने फौजी जवानों की मदद से…होटल व सिनेमा हाल के मालिक से उन की दोस्ती है और उन दोनों की मदद से मेजर साहब अपनी छुट्टियों में अर्चना दीदी को तंग करने वाले हमारेतुम्हारे जैसे किसी रोमियो को अर्चना दीदी क्लबका सदस्य बनवा जाते हैं.’’

‘‘और ये दोनों पुलिस वाले नकली थे?’’

‘‘नहीं, सर, ये मिलिटरी पुलिस के लोग थे.’’

‘‘किसी को यों बेवकूफ बनाने का तरीका बिलकुल गलत है,’’ नवीन अपनी कमीज के टूटे बटनों को छू कर उस घटना को याद कर रहा था जब 2 युवकों ने, जो यकीनन फौजी सिपाही थे, उस पर हाथ उठाया था.

‘‘सर, आप के साथ जो गुस्ताखी हुई है, यह उस गुस्ताखी की सजा है जो आप ने यकीनन अर्चना दीदी के साथ की होगी. वैसे मेजर साहब दिल के अच्छे इनसान हैं और उन का एक संदेशा है आप के लिए.’’

‘‘क्या संदेशा है?’’

‘‘आर्मी क्लब में आप सपरिवार उन के डिनर पर मेहमान बन सकते हैं. आज वह दोनों पारिवारिक मित्र हैं और आप  चाहें तो उसी श्रेणी में शामिल हो सकते हैं.’’

‘‘सर, आप को क्लब जरूर आना चाहिए. अपनी भूल को सुधारने व क्षमा मांगने का यह अच्छा मौका साबित होगा,’’ बहुत देर से खामोश मनोज ने नवीन को सलाह दी.

कुछ पलों तक नवीन खामोश रह कर सोचविचार में डूबे रहे. फिर अचानक उन्होंने अपने कंधे उचकाए और मुसकरा पडे़.

‘‘दोस्तो, हम अर्चना दीदी क्लबके सदस्यों को मिलजुल कर रहना ही चाहिए. मैं सपरिवार क्लब में पहुंचूंगा.’’

नवीन की इस घोषणा को सुन कर विकास और मनोज कुछ हैरान हुए और फिर उन तीनों के सम्मिलित ठहाके से पार्क का वह कोना गूंज उठा.

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Romantic Story In Hindi: प्रेम लहर की मौत- भाग 2

पिछला भाग पढ़ने के लिए- प्रेम लहर की मौत: भाग-1

लेखक- वीरेंद्र बहादुर सिंह 

  ‘‘शायद जरूरत ही महसूस नहीं हुई. या फिर दोनों में से कोई हिम्मत नहीं कर सका. हम दोनों के इस प्यार की मूक साक्षी थी निकी. पर पता नहीं क्यों उस ने भी हमारे प्रेम को एकदूसरे के सामने व्यक्त नहीं किया.’’

  ‘‘तुम और असीम, कभी मिले नहीं?’’ मैं ने अनु को रोक कर पूछा.

  ‘‘नहीं, कभी जरूरत ही महसूस नहीं हुई.’’ उस ने कहा.

  ‘‘तुम लोगों की मिलने की इच्छा भी नहीं हुई? एकदूसरे को देखने का भी मन नहीं हुआ?’’ मैं ने पूछा.

  ‘‘क्यों नहीं हुआ? इच्छा तो होती ही है, लेकिन आधुनिक टेक्नोलौजी थी न जोड़े रखने के लिए हम हर रविवार को वीडियो चैट करते थे. यह मिलने जैसा ही था. आज हमारी पहली और अंतिम रूबरू मुलाकात थी.’’ कह कर वह सहज हंसी हंस पड़ी.

  ‘‘जब तुम दोनों के बीच इतनी अच्छी ट्यूनिंग थी तो फिर इस में तुम दोनों के अलग होने की बात कहां से आ गई?’’ मैं ने पूछा.

उस ने अपनी बात आगे बढ़ाई.

हम दोनों का एकदूसरे के प्रति प्रेम चरम पर था. अब तक असीम मुझे मुझ से ज्यादा जाननेपहचानने और समझने लगा था. मेरी छोटी से छोटी तकलीफ को बिना बताए ही जान जाता था. कई बार छोटीछोटी बात में मेरा मूड औफ हो जाता था. पर मुझे मनाने में उस का जवाब नहीं था. मुझे हंसा कर ही रहता था. मैं कभी भी उस से झूठ नहीं बोल पाती थी. वह तुरंत पकड़ लेता था कि मैं कुछ छुपा रही हूं. सच्चाई जान कर ही रहता था.

उस का ध्यान रखना, उस की देखभाल करना मुझे अच्छा लगता था. उस की मीटिंग हो या उसे कहीं बाहर जाना हो, मैं उसे सभी चीजों की याद दिलाती. उस के खाने, सोने और उठने, लगभग सभी बातों का मैं खयाल रखती थी.

सब ठीक चल रहा था कि एक दिन निकी ने मुझ से कहा, ‘‘अनु, असीम और तुम पिछले 4 महीने से एकदूसरे को जानते हो और जहां तक मैं समझा हूं 3 महीने से तुम दोनों एकदूसरे को प्रेम करते हो. इस बीच असीम ने तुम से कभी प्रियम के बारे में कोई बात की?’’

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  ‘‘प्रियम…? प्रियम कौन है?’’

  ‘‘सौरी टू से यू बट… मुझे लगा कि तुम्हें प्रियम के बारे में पता नहीं है. अगर पता होता तो तुम इस संबंध में इतना आगे न बढ़ती.’’ निकी ने कहा.

  ‘‘यार निकी प्लीज, अब तू इस तरह पहेली मत बुझा, जो भी बात है सीधेसीधे बता दे. कौन है यह प्रियम और असीम से उस का क्या संबंध है?’’ मैं ने झल्ला कर कहा.

  ‘‘अनु, असीम और प्रियम ने एक साथ एमबीए किया था और पिछले 4 सालों से दोनों एक साथ प्रणयफाग खेल रहे हैं. 6 महीने पहले प्रियम फ्यूचर स्टडीज के लिए यूएसए चली गई है.’’

  ‘‘निकी इतने दिनों तक तुम ने मुझ से यह बात छुपाए क्यों रखी, तुम्हें पहले ही बता देना चाहिए था.’’

  ‘‘अनु, मैं सोच रही थी कि यह बात तुम से असीम खुद कहे तो ज्यादा अच्छा होगा. पर जब मुझे लगा कि शायद असीम भी तुम्हें प्यार करने लगा है तो अब वह तुम से यह बात नहीं कह सकता. तब मुझे यह बात कहनी पड़ी. अनु असीम प्रियम को बहुत प्यार करता है, इसलिए अब तुम्हें इस संबंध में और अधिक गहरे जाने की जरूरत नहीं है. क्योंकि बाद में जब सहन करने की बात आएगी तो वह तुम्हारे हिस्से में ही आएगी.’’ निकी ने कहा.

  ‘‘सहन करने वाली बात मेरे ही हिस्से में क्यों आएगी?’’ निकी की बात मेरी समझ में नहीं आई, इसलिए मैं ने पूछा.

  ‘‘अगर प्रियम को अंधेरे में रख कर यानी उसे धोखा दे कर असीम तुम से शादी कर लेता है और भविष्य में कभी तुम्हें प्रियम और असीम के पुराने संबंध के बारे में पता चलता तो मन में अपराध बोध की जो भावना पैदा होगी वह तुम्हें.

  ‘‘अनु, तुम मेरी बात पर गहराई से विचार करो. उस के बाद खूब सोचसमझ कर आगे बढ़ो. मेरे कहने का मतलब यह है कि इस मामले में पूरी परिपक्वता दिखा कर ही निर्णय लो. मुझे तुम पर पूरा विश्वास है कि तुम जो भी निर्णय लोगी, सोचसमझ कर ही लोगी. तुम्हारा जो भी निर्णय होगा, उस में मैं तुम्हारे साथ हूं.’’ निकी ने कहा.

निकी की बात सुन कर मेरे मन में भूकंप सा आ गया था. उस की इन बातों से मेरे दिल पर क्या बीती, यह सिर्फ मैं ही जानती हूं. मैं पूरे दिन रोती रही. मैं ने न तो असीम को फोन किया और न ही मैसेज भेजा. उस के मैसेज के जवाब भी नहीं दिए. सच बात तो यह थी कि मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. मैं बिजी होऊंगी. यह सोच कर असीम ने भी कोई रिएक्ट नहीं किया.

पर शाम को जब उस ने फोन किया तो मेरी बातों से ही उसे लग गया कि कुछ गड़बड़ है. तब उस ने पूछा, ‘‘अनु बात क्या है, आज तुम्हारी आवाज अलग क्यों लग रही है? ऐसा लगता है आज तुम खूब रोई हो, शायद अभी भी रो रही हो?’’

  ‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है.’’ मैं ने कहा.

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पर असीम कहां मानने वाला था. उस ने कहा, ‘‘अनु, तुम्हें तो पता है कि तुम मेरे सामने झूठ नहीं बोल पातीं. इसलिए बेकार की कोशिश मत करो. सचसच बताओ, क्या बात है? तुम्हें मेरी कसम, बताओ तुम डिस्टर्ब क्यों हो? औफिस में कुछ हुआ है? किसी ने कुछ कहा है? प्लीज अनु, आइ एम वरीड यार…’’

  ‘‘मैं आज औफिस गई ही नहीं थी.’’ मैं ने कहा.

  ‘‘ क्यों? जब तुम औफिस नहीं गई थीं तो फोन क्यों नहीं किया, मैसेज करने की कौन कहे, जवाब भी नहीं दिया? क्यों अनु?’’ असीम को मेरी बात पर आश्चर्य हुआ.

  ‘‘असीम, यह प्रियम कौन है?’’ मैं ने असीम से सीधे पूछा.

मेरे इस सवाल पर पहले वह थोड़ा हिचकिचाया, फिर बोला, ‘‘…तो यह बात है. आखिर निकी ने बता ही दिया.’’

  ‘‘हां, उसी ने बताया है मुझे.’’ मैं ने बेरुखी से कहा, ‘‘पिछले 4 महीने में तुम ने कभी भी नहीं बताया, तुम्हें कभी नहीं लगा कि तुम्हें प्रियम के बारे में मुझे बताना चाहिए?’’

  ‘‘लगा था मुझे, कई बार लगा था, कई बार सोचा भी कि तुम से प्रियम के बारे में बता दूं. पर जुबान ही नहीं खुलती थी.’’

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क्लब: भाग-2

पिछला भाग पढ़ने के लिए- क्लब: भाग-1

लेखक- अनिल चाचरा

नवीन ने दाईं तरफ घूम कर मूंछों वाले लंबेचौड़े पुरुष की तरफ देखा. वह वास्तव में अर्चना को घूर रहा था. नवीन ने माथे पर बल डाल कर उस की तरफ गुस्से से देखा, तो उस व्यक्ति ने अपनी नजरें घुमा लीं.

‘‘लो, डरा दिया उसे,’’ नवीन ने नाटकीय अंदाज में अपनी छाती फुलाई.

‘‘थैंक यू. चलो, अंदर चलें.’’

अर्चना ने हाल में प्रवेश करने के लिए कदम बढ़ाए ही थे कि एक युवक से टकरा गई.

उस युवक के साथी ने अर्चना का मजाक उड़ाते हुए कहा, ‘‘जमाना बदल गया है, दोस्त. आज की लड़कियां खुलेआम लड़कों को टक्कर मारने लगी हैं.’’

‘‘शटअप,’’ अर्चना ने नाराज हो कर उसे डांट दिया.

‘‘इतनी खूबसूरत आंखों के होते हुए देख कर क्यों नहीं चल रही हो तुम?’’ पहले वाले युवक ने अर्चना का मजाक उड़ाते हुए सवाल किया.

‘‘शटअप, यू बास्टर्ड, लेडीज से बात करने की तमीज…’’

नवीन अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाया था कि युवक ने फौरन उस का कालर पकड़ कर झकझोरते हुए पूछा, ‘‘क्या है, मुझे गाली क्यों दी तू ने?’’

‘‘मेरा कालर छोड़ो,’’ नवीन को गुस्सा आ गया.

‘‘नहीं छोडं़ूगा. पहले बता कि गाली क्यों दी?’’

नवीन ने झटके से उस युवक से अपना कालर छुड़ाया तो उस की शर्ट के बटन टूट गए. उस का उस युवक पर गुस्सा बढ़ा तो हाथ छोड़ने की गलती कर बैठा.

इस से पहले कि भीड़ व अर्चना उन में बीचबचाव कर पाते, उन दोनों युवकों ने नवीन पर 8-10 हाथ जड़ दिए.

खिसियाया नवीन पुलिस बुलाना चाहता था पर अर्चना उसे खींच कर हाल के अंदर ले गई.

कोने वाली सीट पर अर्चना के साथ बैठ कर नवीन का मूड जल्दी ही ठीक हो गया. उस ने दोचार रोमांटिक संवाद बोले, फिर उस के कंधे से सटा और झटके से अर्चना का हाथ पकड़ कर उसे चूम लिया.

‘‘भाइयो, आज तो डबल मजा आएगा. एक टिकट में 2-2 फिल्में देखेंगे. एक दूर स्क्रीन पर और दूसरी बिलकुल सामने. पहली एक्शन और दूसरी सेक्स और रोमांस से भरपूर होगी,’’ बिलकुल पीछे वाली सीट से एक युवक की आवाज उभरी और उस के 3 दोस्त ठहाका मार कर हंसे.

अर्चना झटके से नवीन की दूसरी दिशा में झुक कर बैठ गई. नवीन ने पीछे घूम कर देखा तो चारों युवक एकदूसरे की तरफ देख कर हंस रहे थे. उन में 2 युवक वही थे जिन के साथ उस का बाहर झगड़ा हुआ था.

नवीन की बगल में 1 मिनट पहले आ कर बैठे आदमी ने उसे बिन मांगी सलाह दी, ‘‘जनाब, आजकल का यूथ बदतमीज हो गया है. उन से उलझना मत. अपनी पत्नी के साथ घर जा कर प्यार मोहब्बत की बातें कर लेना.’’

नवीन ने गरदन मोड़ कर देखा तो पाया कि बाहर अर्चना को घूरने वाला बड़ीबड़ी मूंछों वाला व्यक्ति ही उस की बगल में बैठा था.

नवीन कोई प्रतिक्रिया दर्शाता, उस से पहले ही अर्चना फुसफुसा कर बोली, ‘‘सर, इस हाल का मैनेजर मेरे पति का परिचित है. मैं उस के सामने नहीं जाना चाहती हूं. आप समझदारी दिखाते हुए शांत हो कर बैठें.’’

नवीन मन मसोस कर सीधा बना बैठा रहा. वह जरा भी हिलताडुलता तो पीछे से फौरन आवाज आती, ‘‘अब चालू होगी दूसरी फिल्म.’’

पिक्चर हाल के अंधकार का तनिक भी फायदा न उठा सकने और 4-5 सौ रुपए यों ही बेकार में खर्च करने का अफसोस मन में लिए नवीन 3 घंटे बाद अर्चना के साथ पिक्चर हाल से बाहर आ गया.

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अर्चना ने कुछ खाने की फरमाइश की तो फिर से उत्साह दर्शाते हुए नवीन उसे उस के मनपसंद होटल में ले आया.

दुर्भाग्य ने यहां भी नवीन का साथ नहीं छोड़ा और अर्चना के साथ जी भर कर दिल की बातें करने का मौका उसे नहीं मिला.

हुआ यों कि वेटर उन के लिए जो डोसासांभर ले कर आया उस में अर्चना की सांभर वाली कटोरी में लंबा सा बाल निकल आया.

‘‘आज इस होटल के मालिक की खटिया खड़ी कर दूंगी मैं,’’ नवीन को बाल दिखाते हुए अर्चना की आंखों से गुस्से की चिंगारियां उठ रही थीं.

‘‘तुम जा कहां रही हो?’’ उसे कुरसी छोड़ कर उठते देख नवीन परेशान हो उठा.

‘‘मालिक से शिकायत करने…और कहां?’’ अर्चना झटके से उठी तो एक और लफड़ा हो गया.

मेज को धक्का लगा और उस पर रखा खाने का सामान व प्लेटेंगिलास फर्श पर गिर कर टूट गए.

3 वेटर उन की मेज की तरफ बढ़े और अर्चना मालिक के कक्ष की तरफ. हाल में बैठे दूसरे लोगों के ध्यान का केंद्र वही बनी हुई थी.

अर्चना ने होटल के मालिक को खूब खरीखोटी सुनाई. उसे बोलने का मौका ही नहीं दिया उस ने. वह बेचारा मिमियाता सा मैडम, मैडमसे आगे कोई सफाई नहीं दे पाया.

अर्चना के चीखनेचिल्लाने व धमकियां देने से परेशान होटल मालिक ने अपने सामने दोबारा उन की मेज लगवाई. डोसासांभर इस बार आन दी हाउसउन के सामने पेश किया गया, पर अर्चना का मूड ज्यादा नहीं सुधरा. वह वेटरों को लगातार गुस्से से घूरती रही. नवीन ने उसे समझाने की कोशिश की, तो वह भी अर्चना के गुस्से का शिकार हो गया.

जब वे दोनों होटल के बाहर आए तो नवीन ने दबी जबान में कुछ देर बाजार में घूमने की बात कही. अर्चना ने साफ मना कर दिया.

‘‘कुछ देर सामने सुंदर पार्क में चल कर बैठते हैं. मेरा दिमाग शायद वहीं बैठ कर ठंडा होगा,’’ अर्चना के इस प्रस्ताव का नवीन ने मुसकरा कर स्वागत किया.

‘‘आज न जाने किस मनहूस का मैं ने सुबह मुंह देखा, जो इतना अच्छा दिन खराब गुजर रहा है? तुम जैसी सुंदरी के साथ पार्क में घूमना मेरे लिए तो गर्व की बात है.’’

नवीन की बात सुन कर अर्चना मुसकराई, तो उस की खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

पार्क काफी बड़ा था. अर्चना की मांग पर वे दोनों बातें करते हुए उस का चक्कर लगाने लगे.

पार्क के पीछे का हिस्सा सुनसान व ज्यादा घने पेड़पौधों वाला था. यहीं एकांत में पड़ी बैंच पर अर्चना बैठ गई तो नवीन भी उस की बगल में बैठ गया.

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बातें करतेकरते अचानक नवीन ने अर्चना को कंधे से पकड़ा और अपने नजदीक कर अपनी बांहों में भरने की कोशिश की.

आगे पढ़ें- अर्चना ने अपने को छुड़ाने की…

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