पुराने नोट

लेखक- सुरेश सौरभ

‘‘पता नहीं इस बुढि़या ने न जाने कहांकहां और क्याक्या कितना छिपा रखा है. मेरी तो जान आफत में आ पड़ी है. क्या उठाऊं और क्या धरूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा है.

‘‘यह बुढि़या भी बड़ी अजीब थी. जाने कहांकहां का… जाने क्यों ये चिथड़ेगुदड़े संभाल कर रखे हुए थी,’’ भुनभुनाते हुए सुमन अपनी मर चुकी सास के पुराने बक्से की सफाई कर रही थी.

तभी सुमन की नजर बक्से के एक कोने में मुड़ेतुड़े एक तकिए पर पड़ी जिस के किनारे की उखड़ी सिलाई से 500 का एक पुराना नोट बत्तीसी दिखाता सा झांक रहा था.

सुमन ने बड़ी हैरत से उस तकिए को उठाया, हिलायाडुलाया, फिर किसी अनहोनी के डर से जल्दीजल्दी उस तकिए की सिलाई उधेड़ने लगी.

अब सुमन के सामने 1000-500 के पुराने नोटों का ढेर था. वह फटी आंखों से उसे हैरानी से देखे जा रही थी. थोड़ी देर तक उस का दिमाग शून्य पर अटक गया, फिर उस की चेतना लौटी.

सुमन ने फौरन आवाज लगाई, ‘‘अरे भोलू के पापा, जल्दी आओ… जरा सुनो तो…’’

‘‘क्या आफत आ गई. अभी खाना दे कर गई है और पुकारने लगी है. यह औरत जरा भी सुकून से खाना नहीं खाने देती है,’’ पति झुंझलाया.

‘‘अरे, जल्दी आओ,’’ सुमन ने दोबारा कहा.

‘‘पता नहीं, कोई सांपबिच्छू तो नहीं है…’’ बड़बड़ाता हुआ पति वहां पहुंचा. सुमन सिर पर हाथ रखे अपने सामने 1000-500 के पुराने नोटों के ढेर को बड़ी हैरानी से देख रही थी.

पति ने यह नजारा देखा तो उस के भी होश उड़ गए. सारा गुस्सा ठंडा हो गया. फिर अटकतेअटकते वह बोला, ‘‘यह सब क्या है सुमन…’’

‘‘तुम्हारी मां ने बड़े अरमान से हमारी गरीबी दूर करने के लिए ये पैसे जोड़जोड़ कर अपने तकिए में रखे थे. लेकिन 2 साल पहले बेचारी मरते समय यह राज हमें न बता पाई. दिल में यही अरमान रहे होंगे कि बहू, बेटे और उन के बच्चों की इन रुपयों से गरीबी दूर हो जाएगी. पर हाय रे नोटबंदी का दानव मेरी सासू मां के सारे अरमानों को खा गया.’’

यह देख पति भारी मन से बोला, ‘‘अम्मां को मैं ही दवादारू के लिए थोड़ेबहुत पैसे देता रहता था, पर मुझे क्या पता था कि वे हमारी गरीबी दूर के लिए पैसे जोड़ रही थीं.’’

सुमन डबडबाई आंखों से बोली, ‘‘सचमुच अम्मां का दिल बहुत बड़ा था.’’

पति ने कहा, ‘‘हां, शायद हम लोगों से भी

ज्यादा बड़ा…’’

सुमन बोली, ‘‘आप सही कहते हो.’’

अब वहां वे दोनों फूटफूट कर रोने लगे, जिसे सिर्फ घर की दीवारें ही सुन पा रही थीं.

नरेंद्र मोदी की सरकार ने सोचा था कि वह नोटबंदी से अमीरों का काला धन निकालेगी, पर यहां तो गोराचिट्टा धन एक रात में काला हो गया था.

एतराज

लेखक- अशरफ खान

बतौर उर्दू टीचर जमाल की पोस्टिंग एक छोटे से गांव काजीपुर में हुई थी. वह बस से उतर कर कच्चे रास्ते से गुजरता हुआ स्कूल पहुंचा था.

अभी जमाल बैठा प्रिंसिपल साहब से बातें कर ही रहा था कि एक 10-11 साल का बच्चा वहां आया और उसे कहने लगा, ‘‘जमींदार साहब ने आप को बुलाया है.’’

यह सुन कर जमाल ने हैरानी से प्रिंसिपल साहब की तरफ देखा.

‘‘इस गांव के जमींदार बड़े ही मिलनसार इनसान हैं… जब मैं भी यहां नयानया आया था तब मुझे भी उन्होंने बुलाया था. कभीकभार वे खुद भी यहां आते रहते हैं… चले जाइए,’’ प्रिंसिपल साहब ने कहा तो जमाल उठ कर खड़ा हो गया.

जब जमाल जमींदार साहब के यहां पहुंचा तो वे बड़ी गर्मजोशी से मिले. सुर्ख सफेद रंगत, रोबीली आवाज के मालिक, देखने में कोई खानदानी रईस लगते थे. उन्होंने इशारा किया तो जमाल भी बैठ गया.

‘‘मुझे यह जान कर खुशी हुई कि आप उर्दू के टीचर हैं, वरना आजकल तो कहीं उर्दू का टीचर नहीं होता, तो कहीं पढ़ने वाले छात्र नहीं होते…’’

जमींदार साहब काफी देर तक उर्दू से जुड़ी बातें करते रहे, फिर जैसे उन्हें कुछ याद आया, ‘‘अजी… अरे अजीजा… देखो तो कौन आया है…’’ उन्होंने अंदर की तरफ मुंह कर के आवाज दी.

एक अधेड़ उम्र की औरत बाहर आईं. वे शायद उन की बेगम थीं.

‘‘ये नए मास्टर साहब हैं जमाल. हमारे गांव के स्कूल में उर्दू पढ़ाएंगे,’’ यह सुन कर जमींदार साहब की बेगम ने खुशी का इजहार किया, फिर जमाल से पूछा, ‘‘घर में और कौनकौन हैं?’’

जमाल ने कम शब्दों में अपने बारे

में बताया.

‘‘अरे, कुछ चायनाश्ता लाओ…’’ जमींदार साहब ने कहा.

‘‘नहीं, इस की कोई जरूरत नहीं है,’’ जमाल बोला.

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है… आप के प्रिंसिपल साहब भी कभीकभार यहां आते रहते हैं और हमारी मेहमाननवाजी का हिस्सा बनते हैं.’’

‘‘जी, उन्होंने ऐसा बताया था,’’ जमाल ने कहा.

कुछ देर बाद वे चायनाश्ता ले कर आ गईं… जमाल ने चाय पी और उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘अच्छा, अब मुझे इजाजत दीजिए.’’

‘‘हां, आते रहना.’’

जमाल दरवाजे के पास था. उन लोगों ने आपस में खुसुरफुसुर की और जमींदार साहब ने उसे आवाज दी, ‘‘अरे बेटा, सुनो… आज रात का खाना तुम हमारे साथ यहीं पर खाना.’’

‘‘नहीं… नहीं… आप परेशान न हों. चची को परेशानी होगी,’’ जमाल ने जमींदार साहब की बेगम को चची कह कर मना करना चाहा.

‘‘अरे, इस में परेशान होने की क्या बात है… तुम मेरे बेटे जैसे ही हो.’’

जमाल रात के खाने पर आने का वादा कर के चला गया.

जब जमाल रात को खाने पर दोबारा वहां पहुंचा तो जमींदार साहब और उन की बेगम उस के पास बैठे हुए थे. इधरउधर की बातें कर रहे थे. इतने में अंदर जाने वाले दरवाजे पर दस्तक हुई…

चची ने दरवाजे की तरफ देखा और उठ कर चली गईं… लौटीं तो उन के हाथ में खाने की टे्र थी.

जमाल का खाना खाने में दिल नहीं लग रहा था. रहरह कर उस की बेचैनी बढ़ती जा रही थी… आखिर दरवाजे की उस ओर कौन था? बहरहाल, किसी तरह खाना खाया और थोड़ी देर के बाद वह वहां से चला आया.

उस दिन रविवार था. जमाल बैठा बोर हो रहा था.

‘क्यों न जमींदार साहब की तरफ चला जाया जाए,’ उस ने सोचा.

जमाल तेज कदमों से लौन पार करता हुआ अंदर जा रहा था. उस की आहट पा कर एक लड़की हड़बड़ा कर खड़ी हो गई… वह क्यारियों में पानी दे रही थी. जमाल उसे गौर से देखता रहा. वह सफेद कपड़ों में थी. वह भी उसे देखती रही.

‘‘जमींदार साहब हैं क्या?’’ जमाल ने पूछा तो कोई जवाब दिए बगैर वह अंदर चली गई.

कुछ देर बाद जमींदार साहब अखबार लिए बाहर आए, ‘‘आओ बेटा, आओ…’’

जमाल उन के साथ अंदर दाखिल हो गया. उन के हाथ में संडे मैगजीन का पन्ना था. उन्होंने जमाल के सामने वह अखबार रखते हुए कहा, ‘‘देखो, इस में मेरी बहू की गजल छपी है…’’

जमाल ने गजल को सरसरी नजरों से देखा, फिर नीचे नजर दौड़ाई तो लिखा था, शबीना अदीब.

जमाल को उस लड़की के सफेद लिबास का खयाल आया. उस ने जमींदार साहब की आंखों में देखा. शायद वे उस की नजरों का मतलब समझ गए थे. उन्होंने नजरें झुका लीं और फिर उन्होंने जोकुछ बताया था, वह यह था:

शबीना जमींदार साहब की छोटी बहन हसीना की बेटी थी. शबीना की पैदाइश के वक्त हसीना की मौत हो गई थी और बाप ने दूसरा निकाह कर लिया था. सौतेली मां का शबीना के साथ कैसा बरताव होगा, यह सोच कर जमींदार साहब ने उसे अपने पास रख लिया था.

अदीब जमींदार साहब का बेटा था. शबीना और अदीब ने अपना बचपन एकसाथ गुजारा था, तितलियां पकड़ी थीं और जब दोनों ने जवानी की दहलीज पार की तो उन का रिश्ता पक्का कर दिया गया था.

उन की नईनई शादी हुई थी. अदीब ने आर्मी जौइन की थी. कोई जाने की इजाजत नहीं दे रहा था, लेकिन वह सब को मायूसी के अंधेरे में छोड़ कर चला गया. एक दिन वह वतन की हिफाजत करतेकरते शहीद हो गया.

शबीना पर गमों का पहाड़ टूट पड़ा. आंसू थे कि थमने का नाम नहीं ले रहे थे. फिर उस ने खुद को पत्थर बना लिया और कलम उठा ली, अपना दर्द कागज पर उतारने के लिए या अदीब का नाम जिंदा रखने के लिए.

अब जमाल अकसर जमींदार साहब के यहां जाता था. दिल में होता कि शबीना के दीदार हो जाएं… उस की एक झलक देख ले… लेकिन, वह उसे दोबारा नजर नहीं आई.

एक दिन जमाल उन के यहां बैठा हुआ था. जमींदार साहब किसी काम से शहर गए हुए थे. जमाल और उन की बेगम थे. वह बात का सिरा ढूंढ़ रहा था. आज जमाल उन से अपने दिल की बात कह देना चाहता था.

‘‘चची, आप मुझे अपना बेटा बना लीजिए,’’ जमाल ने हिम्मत जुटाई.

‘‘यह भी कोई कहने की बात है…

तू तो है ही मेरा बेटा…’’ उन्होंने हंस

कर कहा.

‘‘चची, मुझे अपने अदीब की जगह दे दीजिए. मेरा मतलब है कि शबीना का हाथ मेरे हाथ…’’ जमाल का इतना कहना था कि उन्होंने जमाल की आंखों में देखा.

‘‘अगर आप को कोई एतराज न

हो तो…’’

‘‘मुझे एतराज है,’’ इस से पहले कि वे कोई जवाब देतीं, इस आवाज के

साथ शबीना खड़ी थी, किसी शेरनी की तरह बिफरी हुई… फटीफटी आंखों से देखती हुई…

‘‘आप ने ऐसा कैसे सोच लिया… अदीब की यादें मेरे साथ हैं. वे मेरे जीने का सहारा हैं… मैं यह साथ कैसे छोड़ सकती हूं… मैं शबीना अदीब थी, शबीना अदीब हूं… शबीना अदीब रहूंगी. यही मेरी पहचान है… मैं इसी पहचान के साथ ही जीना चाहती हूं…’’ अपना फैसला सुना कर वह अंदर कमरे में जा चुकी थी.

जमाल ने चची की आंखों में देखा तो उन्होंने नजरें झुका लीं. जमाल उठ कर बाहर चला आया.

कुछ दिनों के बाद जमाल शहर जाने वाली बस के इंतजार में बसस्टैंड पर खड़ा था. इतने में एक बस वहां आ कर रुकी. उस ने अलविदा कहती नजरों से गांव की तरफ देखा और बस में सवार हो गया. उस ने नौकरी छोड़ दी थी.

शर्म की बात

औफिस में घुसते ही मोहन को लगा कि सबकुछ ठीक नहीं है. उसे देखते ही स्टाफ के 2-3 लोग खड़े हो गए व नमस्कार किया, पर उन के होंठों पर दबी हुई मुसकान छिपी न रह सकी. अपने केबिन की तरफ न बढ़ कर मोहन वहीं ठिठक गया. उस का असिस्टैंड अरविंद आगे बढ़ा. ‘‘क्या बात है?’’ मोहन ने पूछा.

‘‘राम साहब की पत्नी आई हैं. आप से मिलना चाहती हैं. मैं ने उन्हें आप के केबिन में बिठा दिया है.’’

‘‘अच्छा… पर वे यहां क्यों आई हैं?’’ मोहन ने फिर पूछा.

‘‘पता नहीं, सर.’’

‘‘राम साहब कहां हैं?’’

‘‘वे तो… वे तो भाग गए.’’

‘‘क्या…’’ मोहन ने पूछा, ‘‘कहां भाग गए?’’

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बाकी स्टाफ की मुसकराहट अब खुल गई थी. 1-2 ने तो हंसी छिपाने के लिए मुंह घुमा लिया.

‘‘पता नहीं. राम सर नहा रहे थे जब उन की पत्नी आईं. राम सर जैसे ही बाथरूम से बाहर आए, उन्होंने अपनी पत्नी को देखा तो वे फौरन बाहर भाग गए. कपड़े भी नहीं पहने. अंडरवियर पहने हुए थे.’’

‘‘लेकिन, राम साहब यहां क्यों नहा रहे थे? वे अपने घर से नहा कर क्यों नहीं आए?’’

‘‘अब मैं क्या बताऊं… वे तो अकसर यहीं नहाते हैं. अपनी पत्नी से उन की कुछ बनती नहीं है.’’

माजरा कुछ समझ में न आता देख मोहन ने अपने केबिन की तरफ कदम बढ़ा दिए.

राम औफिस में सीनियर क्लर्क थे. सब उन्हें राम साहब कहते थे. आबनूस की तरह काला रंग व पतली छड़ी की तरह उन का शरीर था. उन का वजन मुश्किल से 40 किलो होगा. बोलते थे तो लगता था कि घिघिया रहे हैं. उन की

6 बेटियां थीं.

इस बारे में भी बड़ा मजेदार किस्सा था. उन के 3 बेटियां हो चुकी थीं, पर उन्हें बेटे की बड़ी लालसा थी. उन के एक दोस्त थे. उन की भी 3 बेटियां थीं. सभी ने कहा कि इस महंगाई के समय में 3 बेटियां काफी हैं इसलिए आपरेशन करा लो. लेकिन दोनों दोस्तों ने तय किया कि वे एकएक चांस और लेंगे. अगर फिर भी बेटा न हुआ तो आपरेशन

करा लेंगे.

दोनों की पत्नियां फिर पेट से हुईं. दोस्त के यहां बेटी पैदा हुई. उस ने वादे के मुताबिक आपरेशन करा लिया. कुछ समय बाद राम के यहां जुड़वां बेटियां हुईं. पर

उन्होंने वादे के मुताबिक आपरेशन नहीं कराया क्योंकि अब उन

का कहना था कि जहां नाश वहां सत्यानाश सही. जहां 5 हुईं वहां और भी हो जाएंगी तो क्या हो जाएगा. फिर छठी बेटी भी हो गई. सुनते हैं कि उस दोस्त से राम की बोलचाल बंद है. वह इन्हें गद्दार कहता है.

मोहन ने अपने केबिन का दरवाजा खोल कर अंदर कदम रखा. सामने की कुरसी पर जो औरत बैठी थीं उन का वजन कम से कम डेढ़ क्विंटल तो जरूर होगा. वे राम साहब की पत्नी थीं. उन का रंग राम साहब से ज्यादा ही आबनूसी था. उन के पीछे अलगअलग साइजों की 5 लड़कियां खड़ी थीं. छठवीं उन की गोद में थी.

मोहन को देखते ही वे एकदम से उठीं और लपक कर मोहन के पैर पकड़ लिए. यह देख वह हक्काबक्का रह गया.

‘‘अरे, क्या करती हैं आप. मेरे पैर छोडि़ए,’’ मोहन ने पीछे हटते हुए कहा.

वे बुक्का फाड़ कर रो पड़ीं. उन को रोते देख पांचों लड़कियां भी रोने लगीं.

मोहन ने डांट कर सभी को चुप कराया. वह अपनी कुरसी पर पहुंचा

व घंटी बजा कर चपरासी को बुलाया.

6 गिलास पानी मंगवाया. साथ ही, चाय लाने को भी कहा. पानी आते ही वे सभी पानी पर टूट पड़ीं.

थोड़ी देर बाद मोहन ने पूछा. ‘‘कहिए, क्या बात है?’’

‘‘साहब, हमारे परिवार को बचा लीजिए…’’ इतना कह कर राम साहब की पत्नी फिर रो पड़ीं, ‘‘अब हमें आप का ही सहारा है.’’

‘‘क्या हो गया? क्या कोई परेशानी

है तुम्हें?’’

‘‘जी, परेशानी ही परेशानी है. मैं लाचार हो गई हूं. अब आप ही कुछ भला कर सकते हैं.’’

‘‘देखिए, साफसाफ बताइए. यह घर नहीं, औफिस है…’’ मोहन ने समझाया, ‘‘कोई औफिस की बात हो तो बताइए.’’

‘‘सब औफिस का ही मामला है साहब. अब इन 6-6 लड़कियों को ले कर मैं कहां जाऊं. इन का गला घोंट दूं या हाथपैर बांध कर किसी कुएं में फेंक दूं.’’

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‘‘आप ऐसा क्यों कह रही हैं. इन का खयाल रखने को राम साहब तो हैं ही.’’

‘‘वे ही अगर खयाल रखते तो रोना ही क्या था साहब.’’

अब मोहन को उलझन होने लगी, ‘‘देखिए, मेरे पास कई जरूरी काम हैं. आप को जोकुछ भी कहना है, जरा साफसाफ कहिए. आप हमारे स्टाफ की पत्नी हैं. हम से जो भी हो सकेगा, हम जरूर करेंगे.’’

‘‘अब कैसे कहें साहब, हमें तो शर्म आती है.’’

‘‘क्या शर्म की कोई बात है?’’

‘‘जी हां, बिलकुल है.’’

‘‘राम साहब के बारे में?’’

‘‘और नहीं तो क्या, वे ही तो सारी बातों की जड़ हैं.’’

मोहन को हैरानी हुई. इस औरत के सामने तो राम साहब चींटी जैसे हैं. वे इस पर क्या जुल्म करते होंगे. यह अगर उन का हाथ कस कर पकड़ ले तो वे तो छुड़ा भी न पाएंगे.

‘‘मैं फिर कहूंगा कि आप अपनी बात साफसाफ बताएं.’’

‘‘उन का किसी से चक्कर चल रहा है साहब…’’ वे फट पड़ीं, ‘‘न उम्र का लिहाज है और न इन 6 लड़कियों का. मैं तो समझा कर, डांट कर और यहां तक कि मारकुटाई कर के भी हार गई, पर वे सुधरने का नाम ही नहीं लेते हैं.’’

मोहन को हंसी रोकने के लिए मुंह नीचे करना पड़ा और फिर पूछा, ‘‘क्या आप को लगता है कि राम साहब कोई चक्कर चला सकते हैं? कहीं आप को कोई गलतफहमी तो नहीं हो रही है?’’

‘‘आप उन की शक्लसूरत या शरीर पर न जाइए साहब. वे पूरे घुटे हुए हैं. ये 6-6 लड़कियां ऐसे ही नहीं हो गई हैं.’’

मोहन को हंसी रोकने के लिए दोबारा मुंह नीचे करना पड़ा. तभी चपरासी चाय ले आया. सभी लड़कियों ने, राम साहब की पत्नी ने भी हाथ बढ़ा कर चाय ले ली व तुरंत पीना शुरू कर दिया.

‘‘राम साहब ने कपड़े मांगे हैं,’’ चपरासी ने उन से कहा.

मोहन ने देखा कि बड़ी बेटी के हाथ में एक पैंट व कमीज थी.

‘‘कपड़े तो हम उन्हें न देंगे. उन से कह दो कि ऐसे ही नंगे फिरें…’’ राम साहब की पत्नी गुस्से से बोलीं, ‘‘उन की अब यही सजा है. वे ऐसे ही सुधरेंगे.’’

‘‘राम साहब नंगे नहीं हैं. कच्छा पहने हुए हैं,’’ चपरासी ने कहा.

‘‘अगर तुम मेरे भाई हो तो जाओ वह भी उतार लाओ,’’ वे बोलीं.

‘‘राम साहब कहां हैं?’’ मोहन ने चपरासी से पूछा.

‘‘सामने चाय की दुकान पर चाय पी रहे हैं. बड़ी भीड़ लगी है वहां साहब.’’

‘‘जाओ, उन्हें यहां बुला लाओ.’’

‘‘वे नहीं आएंगे साहब. कहते हैं कि उन्हें शर्म आती है.’’

‘‘चाय की दुकान पर उन्हें शर्म नहीं आ रही है? जाओ और उन से कहो कि मैं बुला रहा हूं.’’

‘‘अभी बुला लाता हूं साहब,’’ चपरासी ने जोश में भर कर कहा.’’

‘‘अब तो आप ने देख लिया साहब…’’ वे आंखों में आंसू भर कर बोलीं, ‘‘हम लोग यहां तड़प रहे हैं और वे आराम से वहां कच्छा पहने चाय पी रहे हैं.’’

‘‘पर, आप ने भी तो हद कर दी…’’ मोहन को कहना पड़ा, ‘‘उन के कपड़े क्यों छीन लिए?’’

‘‘आदमी औफिस में काम करने आता है कि नहाने. घर में न नहा कर दफ्तर में नहाने की अब यही सजा है. सुबहसुबह तो उस कलमुंही रेखा से मिलने के लिए जल्दी से निकल गए थे. अब दफ्तर में तो नहाएंगे ही. ठीक है, आज दिनभर कच्छा पहने ही काम करें.’’

तभी लोगों ने ठेल कर राम साहब को केबिन के अंदर कर दिया. मोहन उन्हें सिर्फ कच्छा पहने पहली बार देख रहा था. उन का शरीर दुबलापतला था. पसली की एकएक हड्डी गिनी जा सकती थी. सूखेसूखे हाथपैर टहनियों जैसे थे. उन के काले शरीर पर एकदम नई पीले रंग की कट वाली अंडरवियर चमक रही थी.

‘‘इन्हें इन के कपड़े दे दो,’’ मोहन ने बड़ी लड़की से कहा.

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‘‘हम न देंगे…’’ वह लड़की पहली बार बोली, ‘‘अम्मां मारेंगी.’’

‘‘प्लीज, इन के कपड़े इन्हें दिला दीजिए…’’ मोहन ने उन से कहा, ‘‘यह ठीक नहीं लग रहा है.’’

‘‘देदे री. देती क्यों नहीं. साहब कह रहे हैं, तब भी नहीं देती. दे जल्दी.’’

लड़की ने हाथ बढ़ा कर कपड़े राम साहब को दे दिए. उन्होंने जल्दीजल्दी कपड़े पहन लिए.

मोहन ने कहा, ‘‘बैठिए, आप की पत्नी जो बता रही हैं, अगर वह सही है तो वाकई बड़ी गलत बात है.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है साहब. यह बिना वजह शक करती है.’’

‘‘शर्म नहीं आती झूठ बोलते हुए,’’ उन की पत्नी तड़पीं, ‘‘कह दो रेखा का कोई चक्कर नहीं है.’’

‘‘नहीं है. वह तो तभी खत्म हो गया था, जब तुम ने अपनी कसम दिलाई थी.’’

‘‘और राधा का?’’

‘‘राधा यहां कहां है. वह तो अपनी ससुराल में है.’’

‘‘और वह रामकली, सुषमा?’’

‘‘क्यों बेकार की बातें करती हो… सब पुरानी बातें हैं. कब की खत्म हो चुकी हैं.’’

मोहन हक्काबक्का सुनता रहा. राम साहब के हुनर से उसे जलन होने लगी थी.

‘‘देखो, तुम साहब के सामने बोल रहे हो.’’

‘‘मैं साहब के सामने झूठ नहीं बोल सकता…’’ राम साहब ने जोश में कहा, ‘‘साहब जो भी कहें, मैं कर सकता हूं.’’

‘‘साहब जो कहेंगे मानोगे?’’

‘‘हां, बिलकुल.’’

‘‘साहब कहेंगे तो तुम रेखा से राखी बंधवाओगे?’’

‘‘साहब कहेंगे तो मैं तुम से भी राखी बंधवाऊंगा.’’

‘‘क्या…?’’ पत्नी का मुंह खुला का खुला रह गया. राम साहब हड़बड़ा कर नीचे देखने लगे.

‘‘आप औफिस में क्यों नहानाधोना करते हैं?’’ पूछते हुए मोहन का मन खुल कर हंसने को हो रहा था.

‘‘अब क्या बताएं साहब…’’ राम साहब रोंआसा हो गए, ‘‘पारिवारिक बात है. कहते हुए शर्म आती है. इस औरत ने घर का माहौल नरक बना दिया है. मेरे बारबार मना करने के बाद भी आपरेशन के लिए तैयार ही नहीं होती. इतना बड़ा परिवार हो गया है. सुबह से कोई न कोई घुसा ही रहता है. किसी को स्कूल जाना है तो किसी का पेटदर्द कर रहा होता है, इसीलिए कभीकभी मुझे जल्दी आ कर औफिस में नहाना पड़ता है.

‘‘पर, असली बात जिस के लिए ये यहां आई हैं, यह नहीं है,’’ वे अपनी पत्नी की तरफ घूमे, ‘‘अब पूछती क्यों नहीं है.’’

‘‘पूछूंगी क्यों नहीं, मैं तुम से डरती हूं क्या.’’

‘‘तो अभी तक क्यों नहीं पूछा?’’

‘‘अब पूछ लूंगी.’’

‘‘क्या पूछना है?’’ मोहन ने पूछा.

‘‘मैं बताता हूं साहब…’’ अब राम साहब मोहन की तरफ घूमे, ‘‘इसे लगता है कि मैं अपनी पूरी तनख्वाह इसे नहीं देता व कुछ बचा कर इधरउधर खर्च करता हूं. कल से मेरे पीछे पड़ी है. औफिस के ही किसी आदमी ने इसे भड़का दिया है, जबकि मैं अपनी तनख्वाह का पूरा पैसा इस के हाथ में ले जा कर रख देता हूं. यह यही पूछने आई है कि मेरी तनख्वाह कितनी है.’’

‘‘क्या यही बात है?’’ मोहन ने राम साहब की पत्नी से पूछा.

‘‘हां साहब, मुझे सचसच बता दीजिए कि इन को कितनी तनख्वाह मिलती है.’’

‘‘राम साहब अगर इन्हें बता दिया जाए तो आप को कोई एतराज तो नहीं है?’’ मोहन ने राम साहब से पूछा.

‘‘मुझे क्या एतराज होना है. मैं तो पूरी तनख्वाह इस के हाथ में ही रख

देता हूं.’’

‘‘ठीक है. इन्हें बाहर ले जा कर बड़े बाबू के पास सैलरी शीट दिखा दीजिए.’’

वे उठे, पर उन से पहले ही पांचों लड़कियां बाहर निकल गई थीं.

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मोहन ने अरविंद को बुलाया.

‘‘क्या राम साहब वाकई सनकी हैं? वे अपने परिवार का तो क्या खयाल रखते होंगे?’’

‘‘ऐसी बात नहीं है साहब. परिवार पर तो वे जान छिड़कते हैं…’’ अचानक अरविंद फिर मुसकरा पड़ा, ‘‘आप को एक बार का किस्सा सुनाऊं. आप को इन के सोचने के लैवल का भी पता चलेगा.

‘‘जिस मकान में राम साहब रहते हैं, उस में 5-6 और किराएदार भी हैं. मकान मालिक नामी वकील हैं.

‘‘एक बार महल्ले में एक गुंडे ने किसी के साथ मारपीट की. वकील साहब ने उस के खिलाफ मुकदमा लड़ा. गुंडे को 3 महीने की सजा हो गई. वह जब जेल से बाहर आया तो उस ने वकील साहब को जान से मारने की धमकी दी.

‘‘वकील साहब ने एफआईआर दर्ज कर दी व उन के यहां पुलिस प्रोटैक्शन लग गई. एक दारोगा व 4 सिपाहियों की 24 घंटे की ड्यूटी लग गई.

‘‘जब उस गुंडे का वकील साहब पर कोई जोर न चला तो उस ने किराएदारों को धमकाया. उस ने तुरंत मकान खाली कर देने को कहा. उस गुंडे के डर से बाकी सब किराएदारों ने मकान खाली कर दिया, पर राम साहब ने मकान न छोड़ा.

‘‘हम सभी को राम साहब व उन के परिवार की चिंता हुई. गुंडे ने राम साहब को यहां औफिस में भी धमकी भिजवाई थी, पर राम साहब मकान छोड़ने को तैयार न थे.

‘‘एक दिन मैं ने राम साहब से कहा कि चलिए ठीक है, आप मकान मत छोडि़ए, पर कुछ दिनों के लिए आप मेरे यहां आ जाइए. जब मामला ठंडा हो जाएगा तो फिर वहां चले जाइएगा. तो जानते हैं राम साहब ने क्या जवाब दिया?

‘‘उन्होंने कहा, ‘नहीं अरविंद बाबू, अब मेरी जान को कोई खतरा नहीं है. मेरी छिद्दू से बात हो गई है. अभी कल ही जब मैं औफिस से घर पहुंचा तो वह एक जीप के पीछे खड़ा था. मुझे देखा तो इशारे से पास बुलाया.

‘‘‘पहले तो मैं डरा, पर फिर हिम्मत कर के उस के पास चला गया. उस ने मुझे खूब गालियां दीं. मैं चुपचाप सुनता रहा. फिर उस ने कहा कि अबे, तुझे अपनी जान का भी डर नहीं लगता. अगर 2 दिन के अंदर मकान नहीं छोड़ा तो पूरे परिवार का खात्मा कर दूंगा.’

‘‘अब मैं ने मुंह खोला, ‘छिद्दू भाई, तुम तो अक्लमंद आदमी हो, फिर भी गलती कर रहे हो. वकील साहब के यहां 15-20 साल के पुराने किराएदार थे. कोई 20 रुपए महीना देता था तो कोई 50. वकील साहब तो खुद ही उन से मकान खाली कराना चाहते थे, पर किराएदार पुराने थे. वे लाचार थे. तुम ने तो उन की मदद ही की.

‘‘‘मकान खाली हो गया और वह भी बिना किसी परेशानी के. अब मेरी बात ही लो. मैं 100 रुपया महीना देता हूं. अगर छोड़ दूं तो 300 रुपए पर तुरंत

उठ जाएगा.’

‘‘मेरी बात उस की समझ में आ गई. थोड़ी देर तक तो वह सोचता रह गया, फिर हाथ मलते हुए बोला, ‘यह तो तुम ठीक कह रहे हो. मुझ से बड़ी गलती हो गई. ठीक है, तुम मकान बिलकुल मत छोड़ो. लेकिन मैं ने भी तो सभी किराएदारों को खुलेआम धमकी दी है. सब को पता है. अगर तुम ने मकान नहीं छोड़ा तो मेरी बड़ी बेइज्जती होगी. सब यही सोचेंगे कि मेरे कहने का कोई असर नहीं हुआ.

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‘‘‘तो ऐसा करते हैं कि तुम मकान न छोड़ो. किसी दिन मैं तुम को बड़े चौक पर गिरा कर जूतों से मार लूंगा. मेरी बात भी रह जाएगी और काम भी हो जाएगा. तो अरविंद बाबू, अब मेरी जान को कोई खतरा नहीं है.’’’

अरविंद की आखिरी बात सुनतेसुनते मोहन अपनी हंसी न रोक सका. उस ने किसी तरह हंसी रोक कर कहा, ‘‘पर, उस भले मानुस को जूतों से मार खाने की क्या जरूरत थी भाई. चलिए छोडि़ए. राम साहब व उन की पत्नी से कहिएगा कि वे मुझ से मिल कर जाएंगे.’’

‘‘जी, बहुत अच्छा साहब,’’ कह कर अरविंद उठ गया.

तभी राम साहब व उन की पत्नी दरवाजा खोल कर अंदर आए. लड़कियां बाहर ही थीं.

‘‘देखा साहब, मैं पहले ही कहता था न…’’ राम साहब ने खुश हो कर कहा, ‘‘पूछ लीजिए, अब तो कोई शिकायत नहीं है न इन को?’’

मोहन ने राम साहब की पत्नी की तरफ देखा.

‘‘ठीक है साहब. तनख्वाह तो ठीक ही दे देते हैं हम को. पर ओवरटाइम का कोई बता नहीं रहा है.’’

‘‘अब जाने भी दीजिए. इतना जुल्म मत कीजिए इन पर. आइए बैठिए, मुझे आप से एक बात कहनी है. आप दोनों से ही. बैठिए.’’

वे दोनों सामने रखी कुरसियों पर

बैठ गए.

मोहन ने राम साहब की पत्नी से कहा, ‘‘राम साहब ठीक ही कहते हैं. एक लड़के की चाह में परिवार को इतना बढ़ा लेना अक्लमंदी नहीं है कि परिवार का पेट पालना भी ठीक से न हो सके. फिर आज के समय में लड़का और लड़की में फर्क ही क्या है. उम्मीद है, मेरी बात पर आप दोनों ही ध्यान देंगे.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है,’’ उन्होंने शर्म से अपने पेट पर हाथ फेरा, ‘‘इस बार शर्तिया लड़का ही होगा.’’

‘‘क्या…?’’ राम साहब हैरत व खुशी से उछल पड़े, ‘‘तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं?’’

‘‘धत…’’ वे बुरी तरह से शरमा

कर तिहरीचौहरी हो गईं, ‘‘मुझे शर्म आती है.’’

‘‘अरे पगली, मुझ से क्या शर्म,’’ राम साहब लगाव भरी नजरों से अपनी पत्नी को देखते हुए मुझ से बोले, ‘‘मैं अभी मिठाई ले कर आता हूं. तुम जल्दी से ओवरटाइम रिकौर्ड देख कर घर जाओ. ऐसे में ज्यादा चलनाफिरना ठीक नहीं होता. आज मैं भी जरा जल्दी जाऊंगा साहब. आप तो जानते ही हैं कि काफी इंतजाम करने पड़ेंगे.’’

इतना कह कर राम साहब अपनी पत्नी को मेरे सामने छोड़ कर तेजी से मिठाई लाने दौड़ गए.

मोहन को कुछ न सूझा तो अपना सिर दोनों हाथों से जोर से पकड़ लिया.

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बदला जारी है

सुशांत रोजाना की तरह कोरियर की डिलीवरी देने जा रहा था कि तभी उस का मोबाइल फोन बज उठा. उस ने झल्ला कर मोटरसाइकिल रोकी, लेकिन नंबर देखते ही उस की आंखों में चमक आ गई. उस की मंगेतर सोनी का फोन था. उस ने जल्दी से रिसीव किया, ‘‘कैसी हो मेरी जान?’’

‘तुम्हारे इंतजार में पागल हूं…’ दूसरी ओर से आवाज आई.

उन दोनों के बीच प्यारभरी बातें होने लगीं, पर सुशांत को जल्दी से जल्दी अगले कस्टमर के यहां पहुंचना था, इसलिए उस ने यह बात सोनी को बता कर फोन काट दिया.

दिए गए पते पर जा कर सुशांत ने डोरबैल बजाई. थोड़ी देर में एक औरत ने दरवाजा खोला.

‘‘मानसीजी का घर यही है मैडम?’’ सुशांत ने पूछा.

‘‘हां, मैं ही हूं. अंदर आ जाओ,’’ उस औरत ने कहा.

सुशांत ड्राइंगरूम में बैठ कर अपने कागजात तैयार करने लगा. मानसी भीतर चली गई.

अपने दोस्तों के बीच माइक्रोस्कोप नाम से मशहूर सुशांत ने इतनी ही देर में अंदाजा लगा लिया कि वह औरत उम्र में तकरीबन 40-41 साल की होगी. उस के बदन की बनावट तो खैर मस्त थी ही.

सुशांत ने कागजात तैयार कर लिए. तब तक मानसी भी आ गई. उस के हाथ में कोई डब्बा था.

सुशांत ने कागजपैन उस की ओर बढ़ाया और बोला, ‘‘मैडम, यहां दस्तखत कर दीजिए.’’

‘‘हां कर दूंगी, मगर पहले यह देखो…’’ मानसी ने वह डब्बा सुशांत को दे कर कहा, ‘‘यह मोबाइल फोन मैं ने इसी कंपनी से मंगाया था. अब इस

में बारबार हैंग होने की समस्या आ

रही है.’’

सुशांत चाहता तो मानसी को वह मोबाइल फोन रिटर्न करने की सलाह दे सकता था, उस की नौकरी के लिहाज से उसे करना भी यही चाहिए था, लेकिन अपना असर जमाने के मकसद से उस ने मोबाइल फोन ले कर छानबीन सी शुरू कर दी, ‘‘यह आप ने कब मंगाया था मैडम?’’

‘‘15 दिन हुए होंगे.’’

उन दोनों के बीच इसी तरह की बातें होने लगीं. सुशांत कनखियों से मानसी के बड़े गले के ब्लाउज के खुले हिस्सों को देख रहा था. उसे देर लगती देख कर मानसी चाय बनाने अंदर रसोईघर में चली गई.

सुशांत को यकीन हो गया था कि घर में मानसी के अलावा कोई और नहीं है. लड़कियों से छेड़छाड़ के कई मामलों में थाने में बैठ चुके 25 साला सुशांत की आदत अपना रिश्ता तय होने के बाद भी नहीं बदल सकी थी. उसे एक तरह से लत थी. ऐसी कोई हरकत करना, फिर उस पर बवाल होना, पुलिस थानों के चक्कर लगाना…

सुशांत ने बाहर आसपास देखा और मोबाइल फोन टेबल पर रख कर अंदर की ओर बढ़ गया. खुले नल और बरतनों की आवाज को पकड़ते हुए वह रसोईघर तक आसानी से चला गया.

मानसी उसे देख कर चौंक उठी, ‘‘तुम यहां क्या कर रहे हो?’’

कोई जवाब देने के बजाय सुशांत ने मानसी का हाथ पकड़ कर उसे खींचा और गले से लगा लिया.

मानसी ने उस की आंखों में देखा और धीरे से बोली, ‘‘देखो, मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’

मानसी की इस बात ने तो जैसे सुशांत को उस की मनमानी का टिकट दिला दिया. उस के होंठ मानसी की गरदन पर चिपक गए. नाम के लिए मानसी का नानुकर करना किसी रजामंदी से कम नहीं था.

कुछ पल वहां बिताने के बाद सुशांत मानसी को गोद में उठा कर पास के कमरे में ले आया और बिस्तर पर धकेल दिया.

मानसी अपने हटते परदों से बेपरवाह सी बस सुशांत को घूरघूर कर देखे जा रही थी. सुशांत को महसूस हो गया था कि शायद मानसी का कहना सही है कि उस की तबीयत ठीक नहीं है, क्योंकि उस का शरीर थोड़ा गरम था. लेकिन उस ने इस की फिक्र नहीं की.

थोड़ी देर में चादर के बननेबिगड़ने का दौर शुरू हो गया. रसोईघर में चढ़ी चाय उफनतेउफनते सूख गई. खुले नल ने टंकी का सारा पानी बहा दिया. घंटाभर कैसे गुजर गया, शायद दीवार पर लगी घड़ी भी नहीं जान सकी.

कमरे में उठा तूफान जब थमा तो पसीने से लथपथ 2 जिस्म एकदूसरे के बगल में निढाल पड़े हांफ रहे थे. तभी कमरे में रखा वायरलैस फोन बज उठा.

मानसी ने काल रिसीव की, ‘‘हां बेटा, आज भी बुखार हो गया है… डाक्टर शाम को आएंगे… जरा अपनी नानी को फोन देना…’’

मानसी ने कुछ देर तक बातें करने के बाद फोन काट दिया. सुशांत आराम से लेटा सीलिंग फैन को ताक रहा था.

‘‘कपड़े पहनो और निकलो यहां से अब… धंधे वाली का कोठा नहीं है जो काम खत्म कर के आराम से पसर गए,’’ मानसी ने अपनी पैंटी पहनते हुए थोड़ा गुस्से में कहा और पलंग से उतर कर अपने बाकी कपड़े उठाने लगी.

सुशांत ने उसे आंख मारी और बोला, ‘‘एक बार और पास आ जाता तो अच्छा होता.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं. तुम्हारे लिए एक बार ही बहुत है,’’ मानसी ने अजीब से लहजे में कहा.

यह सुन कर सुशांत मुसकरा कर उठा और अपने कपड़े पहनने लगा.

‘‘अगले महीने मेरी भी शादी होने वाली है, लेकिन जिंदगी बस एक के ही साथ रोज जिस्म घिसने में बरबाद हो जाती है, इसलिए बस यह सब कभीकभार…’’ सुशांत ने कहा.

सुशांत की बात सुन कर मानसी का चेहरा नफरत से भर उठा. वह अपने पूरे कपड़े पहन चुकी थी. उस ने आंचल सीने पर डाला और बैठक में से कोरियर के कागजात दस्तखत कर के ले आई.

‘‘ये रहे तुम्हारे कागजात…’’ मानसी सुशांत से बोली, ‘‘जानते हो, कुछ मर्द तुम्हारी ही तरह घटिया होते हैं. मेरे पति भी बिलकुल ऐसे ही थे.’’

अब तक सबकुछ ठीकठाक देख रहे सुशांत का चेहरा अपने लिए घटिया शब्द सुन कर असहज हो गया.

मानसी ताना मारते हुए कह पड़ी, ‘‘क्या हुआ? बुरा लगा तुम्हें? जिस लड़की से शादी रचाने जा रहा है, उस की वफा को ऐसे बेशर्म बन कर मेरे साथ अपने नीचे से बहाने में बुरा नहीं लगा क्या? पर मुझ से घटिया शब्द सुन कर बुरा लग रहा है?’’

‘‘देखिए मैडम, आप ने भी तो…’’ सुशांत ने अपनी बात रखनी चाही.

इस पर मानसी गुर्रा उठी, ‘‘हांहां, मैं सो गई तेरे नीचे. तुझे अपने नीचे भी दबा लिया, लेकिन बस इसलिए क्योंकि मुझ को तुझे भी वही देना था जो मेरा पति मुझे दे गया था… मरने से पहले…’’

सुशांत अब हैरान सा उसे देखे जा रहा था.

मानसी जैसे किसी अजीब से जोश में कहती रही, ‘‘मेरा पति अपने औफिस की औरतों के साथ सोता था. वह मुझे धोखा देता था. उस ने मुझे एड्स दे दिया और आज वही मैं ने तुझे भी… जा, खूब सो नईनई औरतों के साथ… तू भी मरना सड़सड़ कर, जैसे मैं मरूंगी…

‘‘मैं अब किसी भी मर्द को अपनी टांगों के बीच आने से मना नहीं करती… धोखेबाज मर्दों से यह मेरा बदला है जो हमेशा जारी रहेगा,’’ कहतेकहते मानसी फूटफूट कर रोने लगी.

सुशांत के कानों में जैसे धमाके होते चले गए. वह सन्न खड़ा रह गया, लेकिन अब क्या हो सकता था…

Serial Story: गुंडा (भाग-3)

मेरी ने उस का हाथ थामा, ‘‘नीरू, मुझे घर जाना है, जरूरी काम है. तू चलेगी क्या मेरे साथ?’’ मेरी अब उस की बहुत अच्छी दोस्त बन चुकी थी.

रास्ते में मेरी ने कहा, ‘‘नीरू, मैं बहुत दिन से एक बात कहना चाह रही थी, मगर डर रही थी कि कहीं तुम बुरा न मान जाओ. मेरा विचार है कि सगाई से पहले एक बार आनंद के बारे में पुनर्विचार कर लो. उस के और तुम्हारे स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर है. वह जो दिखता है वह है नहीं और तुम्हारा मन बिलकुल साफ है.’’

‘‘जिसे मैं शांत, गंभीर और नेक व्यक्ति मानती थी उस में अब मुझे पैसोें का गरूर, अपनेआप को सब से श्रेष्ठ और दूसरों को तुच्छ समझने की प्रवृत्ति, दूसरों के दुखदर्द के प्रति संवेदनशून्यता आदि खोट क्यों दिखाई दे रहे हैं? शायद यह मेरी ही नजरों का फेर हो.’’ नीरू की आंखों में आंसू आ गए. उसे मंगल की याद आई. उस ने आंसू पोंछे.

मेरी समझ गई. उस ने मन में सोचा, ‘अब तुम ने आनंद को ठीक पहचाना.’

‘‘मेरी, मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि जब बात सगाई तक पहुंच गई है अब मैं क्या कर क्या सकती हूं?’’

‘‘सगाई तो क्या, बात अगर शादी के मंडप तक भी पहुंच जाती है और तुझे लगता है कि तू उस के साथ सुखी नहीं रह सकती, तेरा स्वाभिमान कुचला जाएगा, तो ऐसे रिश्ते को ठुकराने का तुझे पूरा हक है,’’ मेरी उसे घर छोड़ कर चली गई.

2 दिन तक नीरजा कालेज नहीं गई. उसे कुछ भी करने की इच्छा नहीं हो रही थी. अगले दिन तो वह और भी बेचैन हो उठी थी. उस का दम घुट रहा था. शाम होतेहोते वह और भी बेचैन हो उठी.

‘‘मां, थोड़ी देर वाकिंग कर के आती हूं.’’

‘‘मैं साथ चलूं?’’

‘‘नहीं मां, यों ही जरा चल के आऊंगी तो थोड़ा ठीक लगेगा,’’ वह चप्पल पहन कर निकल गई.

नीरू की मां जानती थी कि उसे कोई चीज बेचैन कर रही है. छोटीमोटी बात होगी तो वापस आ कर ठीक हो जाएगी. ऐसीवैसी कोई बात होगी तो वह अवश्य उस के साथ चर्चा करेगी. वे अपने काम में लग गईं.

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थोड़ी देर चलते रहने के बाद उस ने देखा कि वह किसी जानेपहचाने रास्ते से जा रही है. वह रुक गई. उसे अचानक ध्यान आया कि वह मेघा के घर के आसपास खड़ी है. उस के कदम मेघा के घर की ओर बढ़ गए. फाटक खोल कर उस ने अंदर प्रवेश किया. चारों ओर शांति थी. वहां चंदू की बाइक नहीं थी. ‘चलो, अच्छा है घर पर नहीं है. मेघा और उस की मां से थोड़ी देर बात कर के उस की मनोस्थिति में थोड़ा बदलाव आएगा.’

‘तनाव मुक्त हो कर आज रात वह मां से खुल कर बात कर सकेगी.’ दरवाजा बंद था. उस ने घंटी बजाने को हाथ उठाया ही था कि अंदर से आवाज आई, ‘‘नहीं मेघा, यह नहीं हो सकता.’’ अरे, यह तो चंदू की आवाज है.

‘‘क्यों भैया, क्यों नहीं हो सकता? मैं जानती हूं कि तुम उस से बहुत प्यार करते हो.’’

‘‘हांहां, तू तो सब जानती है, दादी है न मेरी.’’

‘‘हंसी में बात को मत उड़ाओ भैया. अगर तुम नीरू से नहीं कह सकते तो बोलो, मैं बात करती हूं.’’

‘‘नहींनहीं मेघा, खबरदार ऐसा कभी न करना. मैं जानता हूं कि वह किसी और की अमानत है तो फिर मैं कैसे…’’

‘‘चलो, एक बात तो साफ है कि आप उस से…’’

‘‘मगर इस से क्या होता है मेघा? वह किसी और से प्यार करती है, दोचार दिन में उस की सगाई होने वाली है और फिर शादी.’’

अब नीरू की समझ में आ रहा था कि शायद वे लोग उस की बात कर रहे थे.

‘‘भैया, आप से किस ने कह दिया कि नीरजा आनंद से प्यार करती है. यह तो केवल घटनाओं का क्रम है. वह उस के साथ खुश नहीं रह पाएगी.’’

‘‘यह तू कैसे कह सकती है?’’ चंदू ने झुंझलाते हुए कहा.

‘‘दोनों के स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर है. आनंद स्वार्थी और अहंभावी है. वह वह नहीं है जो दिखता है. वह और भी खतरनाक है.’’

‘‘मैं सब जानता हूं मेघा, मगर अब कुछ नहीं हो सकता. सब से बड़ी बात यह है कि मैं कालेज में बदनाम हूं. धनवान भी नहीं हूं.’’

‘‘मगर मैं जानती हूं कि तुम कितने अच्छे हो. दूसरों की भलाई के लिए कुछ भी कर सकते हो.’’

‘‘मैं तेरा भाई हूं न, इसलिए तुझे ऐसा लगता है. मेघा अब छोड़ न यह सब. उस को शांति से आनंद के साथ आनंदपूर्वक जीने दे. इस समय तू मुझे जाने दे. मेरी गाड़ी अब तक ठीक हो गई होगी,’’ चंदू ने कहा.

घर की खिड़की से बचती हुई नीरू घर के पिछवाड़े की तरफ चली गई.

घर पहुंचने के बाद मां ने देखा कि अब वह तनावमुक्त थी, पर किसी आत्ममंथन में अभी भी उलझी हुई है. उन्होंने कुछ नहीं कहा. नीरू चुपचाप रात का खाना खाने के बाद अपने कमरे की बत्ती बुझा कर बालकनी में आ कर बैठ गई. बाहर चांदनी बिछी हुई थी.

वह जैसे किसी तंद्रा में थी. उस की आंखों के सामने तरहतरह की घटनाएं आ रही थीं, जिन में वह कभी आनंद को देख रही थी तो कभी चंदू को. जिसे सीधा, सरल, उत्तम और सहृदय मानती रही वह किस रूप में सामने आया और जिसे गुंडा, मवाली, फूलफूल पर मंडराने वाला भंवरा मानती आई है उस का स्वभाव कितना नरमदिल, दयालु और मददगार है, मगर उस ने चंदू को कभी उस नजरिए से नहीं देखा.

मेरी ने कई बार उसे समझाया भी कि चंदू साफ दिल का इंसान है जो अन्याय बरदाश्त नहीं कर सकता.

कोई लड़कियों को छेड़ता है, किसी बच्चे या बूढ़े को सताता है तो उस से लड़ाई मोल लेता है. वह लड़कियों के पीछे नहीं भागता, बल्कि उस के शक्तिशाली व्यक्तित्व और चुलबुलेपन से आकर्षित हो कर लड़कियां ही उसे घेरे रहती हैं. आज क्या बात हो गई उस के सामने सबकुछ साफ हो गया. शायद उस की आंखों पर लगा आनंद की नकली शालीनता का चश्मा उतर गया था.

‘ये क्या किया मैं ने. क्या मेरी पढ़ाई मुझे इतना ही ज्ञान दे पाई? मेरे संस्कार क्या इतने ही गहरे थे? मुझे सही और गलत की पहचान क्यों नहीं है? क्या मेरी ज्ञानेंद्रियां इतनी कमजोर हैं कि वे हीरे और कांच में फर्क नहीं कर पातीं? क्या मैं इतनी भौतिकवादी हो गई हूं कि मुझे आत्मा की शुद्धता और पवित्रता के बजाय बाहरी चमकदमक ने अधिक प्रभावित कर दिया.

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‘मेघा सही कहती थी कि वह आनंद के साथ कभी खुश नहीं रह पाएगी. न वह ऐश्वर्य में पलीबढ़ी है, न उसे पाना चाहती है. वह ऐसी सीधीसादी साधारण लड़की है जो एक शांतिपूर्ण, तनावमुक्त जिंदगी जीना चाहती है. वह अपने पति और परिवार से ढेर सारा प्यार पाना चाहती है.’

अचानक उस ने जैसे कुछ निश्चय कर लिया कि वह उस व्यक्ति से हरगिज शादी नहीं करेगी, जिस में संवेदनशीलता नहीं है, आर्द्रता नहीं है, जो भौतिकवादी है. फिर चाहे वह करोड़पति हो या अरबपति, उस का पति कदापि नहीं बन सकता. वह उस गुंडे, मवाली से ही शादी करेगी जो दिल का सच्चा है, नरमदिल और मानवतावादी है. वह जितना बिंदास दिखता है उतना ही परिपक्व और जीवन के प्रति गंभीर है. उसे पूरा विश्वास है कि उस की जिंदगी ऐसे व्यक्ति की छत्रछाया में बड़ी शांति से गुजर जाएगी. ऐसा निश्चय करने के बाद नीरजा को बड़े चैन की नींद आई.

बनते-बिगड़ते शब्दार्थ

कभी गौर कीजिए भाषा भी कैसेकैसे नाजुक दौर से गुजरती है. हमारा अनुभव तो यह है कि हमारी बदलतीबिगड़ती सोच भाषा को हमेशा नया रूप देती चलती है. इस विषय को विवाद का बिंदु न बना कर जरा सा चिंतनमंथन करें तो बड़े रोचक अनुभव मिलते हैं. बड़े आनंद का एहसास होता है कि जैसेजैसे हम विकसित हो कर सभ्य बनते जा रहे हैं, भाषा को भी हम उसी रूप में समृद्ध व गतिशील बनाते जा रहे हैं. उस की दिशा चाहे कैसी भी हो, यह महत्त्व की बात नहीं. दैनिक जीवन के अनुभवों पर गौर कीजिए, शायद आप हमारी बात से सहमत हो जाएं.

एक जमाना था जब ‘गुरु’ शब्द आदरसम्मानज्ञान की मिसाल माना जाता था. भाषाई विकास और सूडो इंटलैक्चुअलिज्म के थपेड़ों की मार सहसह कर यह शब्द अब क्या रूपअर्थ अख्तियार कर बैठा है. किसी शख्स की शातिरबाजी, या नकारात्मक पहुंच को जताना हो तो कितने धड़ल्ले से इस शब्द का प्रयोग किया जाता है. ‘बड़े गुरु हैं जनाब,’ ऐसा जुमला सुन कर कैसा महसूस होता है, आप अंदाज लगा सकते हैं. मैं पेशे से शिक्षक हूं. इसलिए ‘गुरु’ संबोधन के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रूपों से रोजाना दोचार होता रहता हूं. परंतु हमारी बात है सोलह आने सच.

‘दादा’ शब्द हमारे पारिवारिक रिश्तों, स्नेह संबंधों में दादा या बड़े भाई के रूप में प्रयोग किया जाता है. आज का ‘दादा’ अपने मूल अर्थ से हट कर ‘बाहुबली’ का पर्याय बन गया है. इसी तरह ‘भाई’ शब्द का भी यही हाल है. युग में स्नेह संबंधों की जगह इस शब्द ने भी प्रोफैशनल क्रिमिनल या अंडरवर्ल्ड सरगना का रूप धारण कर लिया है. मायानगरी मुंबई में तो ‘भाई’ लोगों की जमात का रुतबारसूख अच्छेअच्छों की बोलती बंद कर देता है. जो लोग ‘भाई’ लोगों से पीडि़त हैं, जरा उन के दिल से पूछिए कि यह शब्द कैसा अनुभव देता है उन्हें.

‘चीज’, ‘माल’, ‘आइटम’ जैसे बहुप्रचलित शब्द भी अपने नए अवतरण में समाज में प्रसिद्ध हो चुके हैं. हम कायल हैं लोगों की ऐसी संवेदनशील साहित्यिक सोच से. आदर्शरूप में ‘यत्र नार्यरतु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता:’ का राग आलापने वाले समाज में स्त्री के लिए ऐसे आधुनिक सम्माननीय संबोधन अलौकिक अनुभव देते हैं. सुंदर बाला दिखी नहीं, कि युवा पीढ़ी बड़े गर्व के साथ अपनी मित्रमंडली में उसे ‘चीज’, ‘माल’, ‘आइटम’ जैसे संबोधनों से पुकारने लगती है. सिर पीट लेने का मन करता है जब किसी सुंदर कन्या के लिए ‘फ्लैट’ शब्द भी सुनते हैं. जरा सोचिए, भला क्या संबंध हो सकता है इन दोनों में.

नारी को खुलेआम उपभोग की वस्तु कहने की हिम्मत चाहे न जुटा पाएं लेकिन अपने आचारव्यवहार से अपने अवचेतन मन में दबी भावना का प्रकटीकरण जुमलों से कर कुछ तो सत्य स्वीकार कर लेते हैं- ‘क्या चीज है,’ ‘क्या माल है?’ ‘यूनीक आइटम है, भाई.’ अब तो फिल्मी जगत ने भी इस भाषा को अपना लिया है और भाषा की भावअभिव्यंजना में चारचांद लगा दिए हैं.

‘बम’ और ‘फुलझड़ी’ जैसे शब्द सुनने के लिए अब दीवाली का इंतजार नहीं करना पड़ता. आतिशबाजी की यह सुंदर, नायाब शब्दावली भी आजकल महिला जगत के लिए प्रयोग की जाती है. कम उम्र की हसीन बाला को ‘फुलझड़ी’ और ‘सम थिंग हौट’ का एहसास कराने वाली ‘शक्ति’ के लिए ‘बम’ शब्द को नए रूप में गढ़ लिया गया है. इसे कहते हैं सांस्कृतिक संक्रमण. पहले  के पुरातनपंथी, आदर्शवादी, पारंपरिक लबादे को एक झटके में लात मार कर पूरी तरह पाश्चात्यवादी, उपभोगवादी, सिविलाइज्ड कल्चर को अपना लेना हम सब के लिए शायद बड़े गौरव व सम्मान की बात है. इसी क्रम में ‘धमाका’ शब्द को भी रखा जा सकता है.

‘कलाकार’ शब्द भी शायद अब नए रूप में है. शब्दकोश में इस शब्द का अर्थ चाहे जो कुछ भी मिले लेकिन अब यह ऐसे शख्स को प्रतिध्वनित करता है जो बड़ा पहुंचा हुआ है. जुगाड़ करने और अपना उल्लू सीधा करने में जिसे महारत हासिल है, वो जनाब ससम्मान ‘कलाकार’ कहे जाने लगे हैं. ललित कलाओं की किसी विधा से चाहे उन का कोई प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष संबंध न हो किंतु ‘कलाकार’ की पदवी लूटने में वो भी किसी से पीछे नहीं.

‘नेताजी’ शब्द भी इस बदलते दौर में पीछे नहीं है. मुखिया, सरदार, नेतृत्व करने वाले के सम्मान से इतर अब यह शब्द बहुआयामी रूप धारण कर चुका है और इस की महिमा का बखान करना हमारी लेखनी की शक्ति से बाहर है. इस के अनंत रूपों को बयान करना आसान नहीं. शायद यही कारण है कि आजकल ज्यादातर लोग इसे नापसंद भी करने लगे हैं. ‘छद्मवेशी’ रूप को आम आदमी आज भी पसंद नहीं करता है, इसलिए जनमानस में ये जनाब भी अपना मूलस्वरूप खो बैठे हैं.

‘चमचा’ अब घर की रसोई के बरतनभांडों से निकल कर पूरी सृष्टि में चहलकदमी करने लगा है. सत्तासुख भोगने और मजे

उड़ाने वाले इस शब्दविशेषज्ञ का रूपसौंदर्य बताना हम बेकार समझते हैं. कारण, ‘चमचों’ के बिना आज समाज लकवाग्रस्त है, इसलिए इस कला के माहिर मुरीदों को भी हम ने अज्ञेय की श्रेणी में रख छोड़ा है.

‘चायपानी’ व ‘मीठावीठा’ जैसे शब्द आजकल लोकाचार की शिष्टता के पर्याय हैं. रिश्वतखोरी, घूस जैसी असभ्य शब्दावली के स्थान पर ‘चायपानी’ सांस्कृतिक और साहित्यिक पहलू के प्रति ज्यादा सटीक है. अब चूंकि भ्रष्टाचार को हम ने ‘शिष्टाचार’ के रूप में अपना लिया है, इसलिए ऐसे आदरणीय शब्दों के चलन से ज्यादा गुरेज की संभावना ही नहीं है.

थोड़ी बात अर्थ जगत की हो जाए. ‘रकम’, ‘खोखा’, ‘पेटी’ जैसे शब्दों से अब किसी को आश्चर्य नहीं होता. ‘रकम’ अब नोटोंमुद्रा की संख्यामात्रा के अलावा मानवीय व्यक्तित्व के अबूझ पहलुओं को भी जाहिर करने लगा है. ‘बड़ी ऊंची रकम है वह तो,’ यह जुमला किसी लेनदेन की क्रिया को जाहिर नहीं करता बल्कि किसी पहुंचे हुए शख्स में अंतर्निहित गुणों को पेश करने लगा है. एक लाख की रकम अब ‘पेटी’, तो एक करोड़ रुपयों को ‘खोखा’ कहा जाने लगा है. अब इतना नासमझ शायद ही कोई हो जो इन के मूल अर्थ में भटक कर अपना काम बिगड़वा ले.

‘खतरनाक’ जैसे शब्द भी आजकल पौजिटिव रूप में नजर आते हैं. ‘क्या खतरनाक बैटिंग है विराट कोहली की?’ ‘बेहोश’ शब्द का नया प्रयोग देखिए – ‘एक बार उस का फिगर देख लिया तो बेहोश हो जाओगे.’ ‘खाना इतना लाजवाब बना है कि खाओगे तो बेहोश हो जाओगे.’

अब हम ने आप के लिए एक विषय दे दिया है. शब्दकोश से उलझते रहिए. इस सूची को और लंबा करते रहिए. मानसिक कवायद का यह बेहतरीन तरीका है. हम ने एसएमएस की भाषा को इस लेख का विषय नहीं बनाया है, अगर आप पैनी नजर दौड़ाएं तो बखूबी समझ लेंगे कि भाषा नए दौर से गुजर रही है. शब्दसंक्षेप की नई कला ने हिंदीइंग्लिश को हमेशा नए मोड़ पर ला खड़ा किया है. लेकिन हमारी उम्मीद है कि यदि यही हाल रहा तो शब्दकोश को फिर संशोधित करने की जरूरत शीघ्र ही पड़ने वाली है, जिस में ऐसे शब्दों को उन के मूल और प्रचलित अर्थों में शुद्ध ढंग से पेश किया जा सके.

इस देश का क्या होगा

व्यंग्य- रमेश भाटिया

अपने बाथरूम में शीशे के सामने खड़े हो कर फिल्मी धुन गुनगुनाते हुए रामनाथ दाढ़ी बनाने में लगे थे. वाशबेसिन के नल से ब्रश को पानी लगाया और अपने चेहरे पर झाग बनाने लगे. नीचे नल से पानी बह रहा था और ऊपर रामनाथ का हाथ दाढ़ी बनाने के काम में लगा था. रेजर को साफ करने के लिए जैसे ही उसे नल के नीचे ले गए तो पानी बंद हो चुका था.

वह कभी शीशे में अपने चेहरे को तो कभी नीचे नल को देख रहे थे. उन्हें सरकारी व्यवस्था पर इतना ताव आया कि नगरपालिका को ही कोसने लगे, ‘नहानेधोने और पीने के लिए पानी देना तो दूर की बात है, यहां तो मुंह धोने तक के लिए पानी नहीं दे पाती. कैसेकैसे निक्कमे लोगों को नगरपालिका वालों ने भरती कर रखा है. काम कर के कोई राजी नहीं. क्या होगा इस देश का?’

लगभग चिल्लाते हुए अपनी पत्नी को आवाज लगाई, ‘‘सुनती हो, जरा एक गिलास पानी तो देना ताकि मुंह पर लगे झाग को साफ कर लूं.’’

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पत्नी समझती थी कि इस समय कुछ कहूंगी तो घर में बेवजह कलह होगी इसलिए वह चुप रही.

नाश्ता खत्म कर रामनाथ आफिस के लिए निकले. बसस्टाप पर लंबी कतार लगी थी पर बस का दूरदूर तक कहीं अतापता न था. रामनाथ ने अपने आगे खड़े सज्जन से पूछा तो वह बोले, ‘‘अभी 2 मिनट पहले ही बस गई है, अब तो 20 मिनट बाद ही अगली बस आएगी.’’

रामनाथ उचकउचक कर बस के आने की दिशा में देखते और फिर अपनी घड़ी को देखते.

उन की इस नई कसरत को देख कर आगे वाले सज्जन ने आखिर पूछ ही लिया, ‘‘भाई साहब, आप जल्दी में लगते हैं, बस का समय देख कर आप घर से थोड़ा पहले निकलते तो शायद बस मिल गई होती.’’

रामनाथ बोले, ‘‘देश की आबादी इतनी बढ़ गई है कि जहां देखो वहां लंबीलंबी कतारें लगी हैं. धक्कामुक्की कर के बस में चढ़ जाओ तो ठीक वरना खड़े रहो इन लाइनों में. पता नहीं लोग इतने ज्यादा बच्चे क्यों पैदा करते हैं. मैं तो कहता हूं जब तक सरकार जनसंख्या पर काबू नहीं करेगी, इस देश का कुछ नहीं हो सकता.’’

इस से पहले कि वह कुछ और बोलते, उन के पड़ोसी श्यामलाल वहां से गुजरते हुए उन के पास आ गए और कहने लगे, ‘‘क्या हाल हैं, भाई रामनाथ? पिछले कई दिनों से कुछ जानने के लिए आप को ढूंढ़ रहा हूं. एक बात बताइए, पिछली बार आप भाभीजी को कौन से अस्पताल में डिलीवरी के लिए ले गए थे? भाई, इस मामले में आप खासे अनुभवी हैं. 6 बच्चों के बाप हैं. मेरा तो यह पहला मामला है. कुछ गाइड कीजिए.’’

रामनाथ ने झेंपते हुए कहा, ‘‘ठीक है, आप शाम को घर पर आना. मैं सब बता दूंगा. इस समय तो बस के अलावा कुछ नहीं सूझ रहा है. लगता है, आज भी बौस की डांट सुननी पड़ेगी.’’

आफिस की सीढि़यां चढ़ते हुए रामनाथ अपने सहकर्मी दीपचंद से बोले, ‘‘कैसेकैसे लोग हैं यार, पूरी सीढि़यों और दीवारों को पान की पीक से रंग दिया है. सीढि़यां चढ़ते समय गंदगी देख कर मितली आती है. क्या होगा इस देश का,’’ इस के बाद बुरा सा मुंह बना कर उन्होंने दीवार पर थूक दिया.

रामनाथ अभी सीढि़यां चढ़ ही रहे थे कि सामने से उन के बौस राजकुमारजी आते दिखे. वह बोले, ‘‘रामनाथ, कभी तो समय पर दफ्तर आ जाया करो. आप की मेज पर बहुत काम पड़ा है और लोग इंतजार कर रहे हैं. जल्दी जाइए और हां, काम निबटा कर मेरे कमरे में आना.’’

अपनी सीट पर फाइलों का अंबार और इंतजार करते लोगों को देख कर ही उन्हें थकावट होने लगी. चपरासी से बोले, ‘‘एक गिलास पानी तो पिला दो. कुछ चाय का इंतजाम करो. चाय पी कर कुछ तरावट आए तो लोगों के काम निबटाऊं.’’

चपरासी बुरा सा मुंह बनाता हुआ चाय लाने के लिए चला गया. इंतजार करते लोग परेशान थे. एक व्यक्ति ने हिम्मत की और कमरे में घुस कर निवेदन करते हुए बोला, ‘‘साहबजी, मैं काफी देर से आप का इंतजार कर रहा हूं. मेरी फाइल निबटा दें तो अति कृपा होगी.’’

रामनाथ बोले, ‘‘अरे भाई, फाइलें निबटाने के लिए ही तो मैं यहां बैठा

हूं. तनिक सांस तो लेने दो. चायपानी के बाद थोड़ा ताजादम हो कर आप सब का काम निबटाता हूं. तब तक आप बाहर जा कर बैठें.’’

फिर अपने सहकर्मी को सुनाते हुए रामनाथ बोले, ‘‘पता नहीं, कैसे- कैसे लोग आ जाते हैं. सुबह हुई नहीं कि सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने चल पड़ते हैं. लगता है इन को और कोई काम नहीं है. उधर साहब नाराज हैं, इधर इन लोगों ने तनाव कर रखा है. यह देश कभी भी आगे नहीं बढ़ सकता. क्या होगा इस देश का?’’

सहकर्मी ने उन की ओर एक मंद मुसकान फेंकी और अपने काम में लग गया.

कुछ तकदीर वालों की फाइलें निबटा कर रामनाथ ने उन्हें अपने बौस के कमरे में भेजा, जो बच गईं उन से संबंधित लोगों को अगले दिन आने को कह कर वह बौस के कमरे में जा पहुंचे. रामनाथ का चेहरा देखते ही बौस के तेवर चढ़ गए और बोले, ‘‘लगता है, आप ने रोजाना आफिस लेट आने का नियम बना लिया है. बहानेबाजी नहीं चलेगी. घर से जल्दी चलिए ताकि आफिस समय पर पहुंच सकें. आप के कारण लोगोें को कितनी तकलीफ हो रही है. मुझे भी अपने ऊपर वालों को जवाब देना पड़ता है. और शिकायतें आईं तो आप के खिलाफ सख्त काररवाई हो सकती है. आगे के लिए इस बात का खयाल रखिए. यह मेरी अंतिम चेतावनी है.’’

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शाम को बसों में धक्के खाते हुए रामनाथ जब घर पहुंचे तो बिजली नदारद थी. बीवी मोमबत्ती जला कर खाना बना रही थी. गरमी का मौसम, बिजली नदारद. उन को देश की अव्यवस्था पर बोलने का मौका मिल गया, ‘‘न जाने यह बिजलीघर वाले क्या करते हैं. जब देखो बिजली गायब, फिर भी इतने लंबेचौैड़े बिल भेज देते हैं. क्या हो रहा है? क्या होगा इस देश का?’’

बीवी उन की बातों को सुन कर मंदमंद मुसकरा रही थी. उसे पता था कि उस के पति ने किस तरह बिजलीघर के लाइनमैन को कुछ रुपए दे कर मीटर को खराब कराया था. वह ईद के चांद की तरह कभीकभी चल पड़ता था और बिल न के बराबर आता था.

अगले दिन सुबह उठते ही रामनाथ को बौस की चेतावनी याद आ गई. समय से दफ्तर पहुंचने के लिए घर से जल्दी निकल पड़े. जल्दबाजी में वह सड़क पर चलने के कायदेकानून भी भूल गए. उन्होंने बत्ती की तरफ देखा तक नहीं कि वह लाल है या हरी. अत: सामने से आती कार से टकरा कर वह वहीं ढेर हो गए.

काफी चोटें आईं. कार वाले ने उन्हें अस्पताल पहुंचाया. डाक्टर ने जांच कर के उन की पत्नी को बताया, ‘‘चोट गंभीर नहीं है. बचाव हो गया है, शाम तक आप इन्हें घर ले जा सकती हैं.’’

अब दफ्तर से जो भी मिलने आ रहा था, रामनाथ उसे यही बता रहे थे, ‘‘सड़कों पर लोग न जाने कैसे कार चलाते हैं? कोई नियमों का पालन ही नहीं करता. पैदल चलने वालों को तो वे कीड़ेमकोड़े समझते हैं. उन्हें कुचलते हुए चले जाते हैं. वह तो समय ठीक था कि मेरी जान बच गई.’’

कई दिनों से सफाई कर्मचारी कूड़ा उठाने नहीं आया तो पत्नी बोली, ‘‘सुनते हो, जमादार पिछले 2 दिनों से नहीं आ रहा है. बहुत कचरा जमा हो गया है. आप जरा थैला उठा कर कचराघर में फेंक आइए.’’

रामनाथ बोले, ‘‘कचरे को घर के पिछवाड़े फेंक देता हूं. जमादार जब ड्यूटी पर आएगा तो उठा ले जाएगा.’’

उन की बातें सुन कर पत्नी चुप हो गई.

सड़कों पर, घरों के आसपास फैली गंदगी के बारे में रामनाथ के विचार महत्त्वपूर्ण थे. वह अपने पड़ोसी के साथ बात करते हुए कह रहे थे, ‘‘हमारे शहर की म्युनिसिपलिटी बड़ी निकम्मी है. कोई काम नहीं करता. जिधर देखो गंदगी का राज है. सफाई कर्मचारी कचरा उठाते ही नहीं. उन्हें कोई पूछने वाला नहीं. लोग घर बनाते हैं तो बचाखुचा मलबा वहीं छोड़ देते हैं. पुलिस भी पैसे ले कर उन्हें मनमानी करने की छूट देती है. लोग अपने घर का कचरा जहां मरजी आए फेंक देते हैं. क्या होगा इस देश का?’’

पड़ोसी मुंहफट था. वह बोला, ‘‘भाई साहब, गंदगी के बारे में आप के विचार तो बड़े ऊंचे हैं पर आप को घर के पिछवाड़े मैं ने कचरा फेंकते देखा है. कथनी और करनी में इतना फर्क तो नहीं होना चाहिए. सभी सफाई का खयाल रखें तभी तो आसपास सफाई होगी.’’

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रामनाथ इस अचानक हमले के लिए बिलकुल तैयार न थे. काम का बहाना कर वहां से भाग खड़े हुए.

रामनाथ की एक और विशेषता अमेरिका का गुणगान करने की है. जब से उन का बेटा अमेरिका जा कर बसा वह अमेरिकाभक्त हो गए. वह कहते हैं, ‘‘सफाई देखनी हो तो अमेरिका जाओ. बिलकुल स्वर्ग जैसा है. साफसुथरा, बड़ा खुशहाल देश और सीमित जनसंख्या. यहां तो बस कीडे़मकोड़ों की जिंदगी जी रहे हैं.’’

किसी ने पूछ लिया, ‘‘आप अमेरिका हो आए हैं अथवा सुनीसुनाई बातें कर रहे हैं.’’

उन की बोलती बंद हो गई. सोचा, एक बार अमेरिका हो ही आएं. उन का बेटा कई बार उन्हें बुला चुका था. इस बार उस ने एअर टिकट भेजे तो दोनों पतिपत्नी अमेरिका यात्रा पर निकल पड़े.

अमेरिका पहुंचने पर रामनाथ ने देखा कि जैसा इस देश के बारे में उन्होंने सुना था वैसा ही उसे पाया. वह अपने बेटे से मिल कर बहुत खुश थे पर वह अपने काम में इतना व्यस्त था कि उसे अपने मांबाप के पास बैठने का समय ही नहीं था. वह सुबह 7 बजे निकलता तो देर रात को घर वापस आता. खाना भी वह घर पर अपने मांबाप के साथ कभीकभार ही खाता.

कुछ ही दिनों में रामनाथ और उन की पत्नी को लगने लगा कि वे जैसे अपने बेटे के घर में कैदी का जीवन जी रहे हैं. घर से बाहर निकलते तो बहुत कम लोग आतेजाते नजर आते. उन्हें अपने देश की भीड़भड़क्के वाली जिंदगी जीने की आदत जो थी. जब बहुत बोर होने लगे तो एक दिन उन्होंने बेटे से कहा, ‘‘हम सोच रहे हैं कि अब वापस भारत लौट जाएं. तुम्हारे लिए बहुत लड़कियां देख रखी हैं. तुम पसंद करो तो तुम्हारी शादी कर दें. यहां पर तुम्हारी देखभाल करने वाला कोई होगा तो हम भी निश्ंिचत हो जाएंगे.’’

बेटा समझदार था. अपने मांबाप की बोरियत को समझ गया. उस ने 2 दिन की छुट्टी ली और शनिवारइतवार को मिला कर कुल 4 दिन अपने मातापिता के साथ गुजारने का प्रोग्राम बनाया. कई देखने लायक जगहों की उन्हें सैर कराई और एक दिन पिकनिक के लिए उन्हें ले गया. उस की मां ने खाना पैक किया और वे चल पड़े.

पार्क में उन्हें बहुत लोग पिकनिक मनाते दिखे. कई अपने देश के भी थे. पेपर प्लेटों में खाना खाने के बाद रामनाथ ने जूठी प्लेट को उड़नतश्तरी की तरह हवा में फेंका. बेटा मना करने के लिए आगे बढ़ा पर उस के पिता ने अपना करतब कर दिया था. फेंकी हुई प्लेट उठाने के लिए वह जब तक आगे बढ़ता, एक सरकारी कर्मचारी, जो पार्क में ड्यूटी पर था, आगे आया और उस ने रामनाथ के हाथ में 100 डालर का चालान थमा दिया.

उन के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. वह मन ही मन 100 डालर को रुपए में बदल रहे थे. वह कुछ भी कहने की हालत में न थे. यहां वही हो रहा था जो वह अपने देश में सख्ती से करने की हामी कई बार भर चुके थे.

कर्मचारी बोला, ‘‘आप को यहां के नियमों की जानकारी रखनी चाहिए और उन का पालन करना चाहिए. आप के जैसे लोग यहां आ कर गंदगी फैलाएंगे तो हमारे देश का क्या होगा?’’

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फर्क

भाग-1

कहानी- दिनेश पालीवाल

इरा को स्कूल से लौटते हुए देर हो गई थी. बस स्टाप पर इस वक्त तक भीड़ बहुत बढ़ गई थी. पता नहीं बस में चढ़ भी पाएगी या नहीं… कंधे पर भारी बैग लटकाए, पसीना पोंछती स्कूल के फाटक से निकल वह तेजी से बस स्टाप की ओर चल दी. यह बस छूट गई तो पूरे 1 घंटे की देर हो जाएगी… और 1 घंटे की देर का मतलब, पूरे घर की डांटफटकार सुननी पड़ेगी.

नौकरी के वक्त इरा ने जो प्रमाणपत्र लगाए थे उन में अनेक नाटकों में भाग लेने के प्रमाणपत्र भी थे और देश के नामीगिरामी नाटक निर्देशकों के प्रसिद्ध नाटकों में काम करने का अनुभव भी… प्रधानाचार्या ने उसी समय कह दिया था, ‘हम आप को रखने जा रहे हैं पर आप को यहां अंगरेजी पढ़ाने के अलावा बच्चों को नाटक भी कराने पड़ेंगे और इस के लिए अकसर स्कूल समय के बाद आप को घंटे दो घंटे रुकना पड़ेगा. अगर मंजूर हो तो हम अभी नियुक्तिपत्र दिए देते हैं.’

‘नाटक करना और नाटक कराना मेरी रुचि का काम है, मैडम…मैं तो खुद आप से कह कर यह काम करने की अनुमति लेती,’ बहुत प्रसन्न हुई थी इरा.

इंटरव्यू दिलवाने पति पवन संग आए थे, ‘जवाब ठीक से देना. तुम तो जानती हो, हमारे लिए तुम्हारी यह नौकरी कितनी जरूरी है.’

इरा को वह दिन अनायास याद आ गया था जब पवन अपने मातापिता के साथ उसे देखने आए थे. मां ने साफ कह दिया था, ‘लड़की सुंदर है, यह तो ठीक है पर अंगरेजी में प्रथम श्रेणी में एम.ए. है, हम इसलिए आप की बेटी को पसंद कर सकते हैं…लड़की को कहीं नौकरी करनी पड़ेगी. इस में तो आप लोगों को एतराज न होगा?’

कहा तो मां ने था पर बात शायद पवन की थी, जो वे लोग घर से ही तय कर के आए होंगे. शादीब्याह अब एक सौदे के ही तहत तो किए जाते हैं. इरा के मांबाप ने हर लड़की के मांबाप की तरह खीसें निपोर दी थीं, ‘शादी से पहले लड़की पर मांबाप का हक होता है, उसे उन की इच्छानुसार चलना पड़ता है. पर शादी के बाद तो सासससुर ही उस के मातापिता होते हैं. उन्हीं की इच्छा सर्वोपरि होती है. आप लोग और पवन बाबू जो चाहेंगे, इरा वह हंसीखुशी करेगी. उसे करना चाहिए. हर बहू का यही धर्म होता है. इरा जरूर अपना धर्म निबाहेगी.’

बहू का धर्म, बहू के कर्तव्य, बहू के काम, बहू की मर्यादाएं, बहू के चारों ओर ख्ंिची हुई लक्ष्मण रेखाएं, बहू की अग्निपरीक्षाएं, बहू का सतीत्व, पवित्रता, चरित्र, घरपरिवार चलाने की जिम्मेदारियां… न जाने कितनी अपेक्षाएं बहुओं से की जाती हैं.

इंटरव्यू के बाद इरा को कुछ समय एक ओर कमरे में बैठने को कह दिया गया था. इस बीच किसी क्लर्क को बुलाया गया था. स्कूल के पैड पर जल्दी एक पत्र टाइप कर के मंगवाया गया था. प्रधानाचार्या ने वहीं हस्ताक्षर कर दिए थे और उसे बुला कर नियुक्तिपत्र थमा दिया था, ‘बधाई, आप चाहें तो कल से ही आ जाएं काम पर…’

धन्यवाद दे कर वह खुशी मन से बाहर आई तो पवन बड़ी बेचैनी से उस की प्रतीक्षा कर रहे थे. पूछा, ‘कैसा रहा इंटरव्यू?’

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जवाब में इरा ने नियुक्तिपत्र पवन को थमा दिया. एक सांस में पढ़ गए उसे पवन और एकदम खिल गए, ‘अरे, यानी 10 हजार की यह नौकरी तुम्हें मिल गई?’

‘इस पत्र से तो यही जाहिर हो रहा है,’ इरा इठला कर बोली थी, ‘पर जानते हो, अंगरेजी विषय की प्रथम श्रेणी उतनी काम नहीं आई जितने काम मेरे नाटक आए… नाटकों का अनुभव ज्यादा महत्त्व का रहा.’

सुन कर चेहरा मुरझा सा गया पवन का.

इरा को याद हो आया…शादी के बाद जब वह ससुराल आई थी और उस ने अपनी शैक्षणिक योग्यता के सारे प्रथम श्रेणी के प्रमाणपत्र पवन को दिखाए तो साथ में नाटकों के लिए मिले श्रेष्ठता के पुरस्कार और प्रमाणपत्र भी दिखाए थे. उन्हें बड़ी अनिच्छा से पवन ने एक ओर सरका दिया था, ‘अब यह नाटकसाटक सब भूल जाओ. ंिंजदगी नाटक नहीं है, इरा, एक ठोस हकीकत है. शादी के बाद जिंदगी की कठोर सचाइयों को जितनी जल्दी तुम समझ लोगी उतना ही अच्छा रहेगा तुम्हारे लिए… पापा रिटायर होने वाले हैं. मेरी अकेली तनख्वाह घर का यह भारी खर्च नहीं चला सकती. बहनों की शादी, भाइयों की पढ़ाईलिखाई… बहुत सी जिम्मेदारियां हैं हमारे सामने… तुम्हें जल्दी से जल्दी अपनी अंगरेजी की एम.ए. की डिगरी के सहारे कोई अच्छी नौकरी पकड़नी होगी…अगर तुम हिंदीसिंदी में एम.ए. होतीं तो मैं हरगिज तुम से शादी नहीं करता, भले ही तुम मुझे पसंद आ गईं होतीं तो भी… असल में मुझे ऐसे ही कैरियर वाली बीवी चाहिए थी जो मुझ पर बोझ न बने, बल्कि मेरे बोझ को बंटाए, कम करे…’

बस स्टाप की भीड़ बढ़ती जा रही थी. नाटक का पूर्वाभ्यास कराने में उस की चार्टर्र्ड बस निकल गई थी. अब तो सामान्य बस में ही घर जाना पड़ेगा.

घर के नाम पर ही उस के पूरे शरीर में एक फुरफुरी सी दौड़ गई. पवन अब तक लौट आए होंगे. चाय के लिए उस की प्रतीक्षा कर रहे होंगे. देवर हाकी के मैदान से लस्तपस्त लौटा होगा, उसे दूध गरम कर के देना भी इरा की ही जिम्मेदारी है. बड़ी ननद ब्यूटी पार्लर का काम सीख रही है, वहां से लौटी होगी. वह भी इरा का इंतजार कर रही होगी. बेटे का आज गणित का पेपर था. वह भी इंतजार कर रहा होगा.

सहसा इरा को याद आया कि आज तो बेटे सुदेश का जन्मदिन है. उसे हर हाल में जल्दी घर पर पहुंचना चाहिए था पर प्रधानाचार्या ने एक व्यंग्य नाटक के सिलसिले में उसे रोक लिया था. इरा ने बहुत सोचसमझ कर हरिशंकर परसाई की एक व्यंग्य रचना ‘मातादीन इंस्पेक्टर चांद पर’ कहानी का नाट्यरूपांतर किया और बच्चों को तैयार कराना शुरू कर दिया. चांद के लोग सीधेसादे हैं. वहां भ्रष्टाचार नहीं है. पृथ्वी के बारे में चांद के निवासियों को पता चलता है कि वहां पुलिस सब से आवश्यक है. चांद के निवासी पृथ्वी से एक इंस्पेक्टर मातादीन को चांद पर लिवा ले जाते हैं. वे चाहते हैं कि चांद पर भी पृथ्वी की तरह एक पुलिस विभाग बनाया जाए जिस से भविष्य में अगर कोई अपराध हो तो उसे काबू किया जा सके.

इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर भ्रष्टाचार की ऐसी गंगा बहाते हैं कि दर्शक लोटपोट हो जाते हैं. बहुएं दहेज के कारण जलाई जाने लगीं. जेबकतरी, चोरी, हत्या, डकैती, राहजनी, लूटमार, आतंकवाद, अपहरण, वेश्याबाजार आदि इंस्पेक्टर मातादीन की कृपा से चांद पर होने लगे और चारों ओर त्राहित्राहि मच गई.

प्रधानाचार्या को जब यह कहानी इरा ने सुनाई तो वह बहुत खुश हुईं, ‘अच्छी कहानी है, इसे जरूर करो.’

इंस्पेक्टर मातादीन के लिए उन्होंने कक्षा 10 के एक विद्यार्थी मुकुल का नाम सुझा दिया.

‘मुकुल क्यों, मैम…?’ इरा ने यों ही पूछ लिया. इरा के दिमाग में कक्षा 11 का एक लड़का था.

‘उस के पिता यहां के बड़े उद्योगपति हैं और उन से हमें स्कूल के लिए बड़ा अनुदान चाहिए. उन के लड़के के सहारे हम उन्हें खुश कर सकेंगे और अनुदान में खासी रकम पा लेंगे.’

मुकुल में प्रतिभा भी थी. इंस्पेक्टर मातादीन का अभिनय वह बहुत कुशलता से करने लगा था. अपना पार्र्ट उस ने 2 दिन में रट कर तैयार कर लिया था. उसी के पूर्वाभ्यास में इरा को आज देर हो गई थी.

मन ही मन झल्लाती, कुढ़ती, परेशान, थकीऊबी इरा, बस की प्रतीक्षा करती बस स्टाप पर खड़ी थी.

‘‘गुड ईवनिंग, मैम…’’ सहसा उस के निकट एक महंगी कार आ कर रुकी और उस में से इंस्पेक्टर मातादीन का किरदार निभाने वाला लड़का मुकुल बाहर निकला, ‘‘गाड़ी में पापा हैं, मैम… प्लीज, हमारे साथ चलें आप… पीछे, पापा बता रहे हैं कहीं एक्सीडेंट हो गया है, वहां लोगों ने जाम लगा दिया है. गाडि़यां नहीं आ रहीं. आप को बस नहीं मिलेगी. हम पहुंचा देंगे आप को.’’

एक पल को हिचकती हुई सोचती रही इरा, जाए या न जाए? तभी गाड़ी से मुकुल के पिता बाहर निकल आए. उन्हें बाहर देखते ही पहचान गई इरा, ‘‘अरे आप…मुकुल, आप का बेटा है…?’’ एकदम चहक सी उठी इरा. अरसे बाद अपने सामने शरदजी को देख कर उसे जैसे आंखों पर विश्वास ही न हुआ हो.

‘‘बेटे ने जब आप का नाम बताया और कहा कि हरिशंकर परसाई की व्यंग्य कथा ‘इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’ को नाटक के रूप में प्रस्तुत कर रही हैं तो विश्वास हो गया कि हो न हो, यह इरा मैम आप ही होंगी जिन्हें हम ने कभी अपने नाटक में नायिका के रूप में प्रस्तुत किया था… अपने-

आप को रोक नहीं पाया. बेटे को    लेने के बहाने मैं स्वयं आया, शरदजी बहुत खुश थे. आगे बोले, ‘‘प्लीज, इराजी… आप संकोच छोड़ें और हमारे साथ चलें… हम आप को घर छोड़ देंगे…’’

इरा दुविधा में फंसी पिछली सीट पर बैठी रही. बेटे के लिए कहीं से कोई उपहार खरीदे या नहीं? गाड़ी रुकवाना उचित लगेगा या नहीं? कहीं से केक लिया जा सकता है?… उस ने अपने पर्स में रखे नोट गिने… कुछ कम लगे. सकुचा कर बैठी रही.

मुकुल अपने पापा की बगल में आगे की सीट पर बैठा था. सहसा इरा ने उस से कहा, ‘‘मुकुल, जरा पापा से कहो, कहीं गाड़ी रोकें… मेरे बेटे का जन्मदिन है आज… उस के लिए कहीं से कोई चीज ले लूं और मिल जाए तो केक भी…’’

शरदजी ने गाड़ी रोकते हुए कहा, ‘‘अरे, आप भी कैसी मां हैं, इराजी? इतनी देर से आप साथ चल रही हैं और यह जरूरी बात बताई ही नहीं.’’

उन्होंने गाड़ी एक आलीशान शापिंग कांप्लेक्स की पार्किंग में पार्क की और इरा को ले कर चले तो सहम सी गई इरा. बोली, ‘‘यहां तो चीजें बहुत महंगी होंगी.’’

‘‘उस सब की आप फिक्र मत करिए. आप तो सिर्फ यह बताइए कि आप के बेटे को पसंद क्या आएगा?’’ हंसते हुए साथ चल रहे थे शरदजी.

कंप्यूटर गेम का सेट दिलवाने पर उतारू हो गए वे, ‘‘अरे भाई यह सब हमारा क्षेत्र है… हम यही सब डील करते हैं… आप का बेटा आज से कंप्यूटर गेम्स का आनंद लेगा…’’

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इरा की बेचैनी बढ़ गई, उस के पर्स में तो इतने रुपए भी नहीं थे.

ये घर बहुत हसीन है: भाग-3

सहसा आर्यन का फ़ोन बज उठा. आर्यन सब भूल जूस का गिलास टेबल पर रख बच्चे से बातें करने लगा.
रात को अकेले बिस्तर पर लेटी हुई वान्या विचित्र मनोस्थिति से गुज़र रही थी. ‘कभी लगता है आर्यन जैसा प्यार करने वाला न जाने कैसे मिल गया? लेकिन अगले ही पल स्वयं को छला हुआ महसूस करती हूं. सिर से पांव तक प्रेम में डूबा आर्यन एक फ़ोन के आते ही सब कुछ बिसरा देता है? क्या है यह सब?’ आर्यन की पदचाप सुन वान्या आंखें मूंदकर सोने का अभिनय करते हुए चुपचाप लेटी रही. आर्यन ने लाइट औफ़ की और वान्या से लिपटकर सो गया.

अगले दिन भी वान्या अन्यमनस्क थी. स्वास्थ्य भी ठीक नही लग रहा था उसे अपना. सारा दिन बिस्तर पर लेटी रही. आर्यन बिज़नस का काम निपटाते हुए बीच-बीच में हाल पूछता रहा. वान्या के घर से फ़ोन आया. अपने मम्मी-पापा को उसने अपने विषय में कुछ नहीं बताया, लेकिन उनकी स्नेह भरी आवाज़ सुन वह और भी बेचैन हो उठी.

रात को आर्यन खाने की दो प्लेटें लगाकर उसके पास बैठ गया. टीवी औन किया तो पता लगा कि अगले दिन ‘जनता कर्फ़्यू’ की घोषणा हो गयी है.

“अब क्या होगा? लगता है पापा का कहा सच होने वाला है. वे आज ही फ़ोन पर कह रहे थे कि लौकडाउन कभी भी हो सकता है.” वान्या उसांस लेते हुए बोली.

आर्यन ने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए, “घबराओ मत तुम्हें कोई काम नहीं करना पड़ेगा. प्रेमा कहीं दूर थोड़े ही रहती है कि लौकडाउन में आएगी नहीं. तुम क्यों उदास हो रही हो? लौकडाउन हो भी गया तो हम दोनों साथ-साथ रहेंगे सारा दिन….मस्ती होगी हमारी तो!”

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वान्या को अब कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. पानी पीकर सोने चली गयी. मन की उलझन बढ़ती ही जा रही थी. ‘पहले क्या मैं कम परेशान थी कि यह जनता कर्फ़्यू ! लौकडाउन हुआ तो अपने घर भी नहीं जा सकूंगी मैं. आर्यन से फ़ोन के बारे में कुछ पूछूंगी और उसने कह दिया कि हां, मेरी पहले भी शादी हो चुकी है. तुम्हें रहना है तो रहो, नहीं तो जाओ. जो जी में आये करो तो क्या करूंगी? यहां इतने बड़े घर में कैसी पराई सी हो गयी हूं. आर्यन का प्रेम सच है या ढोंग?’ अजीब से सवाल बिजली से कौंध रहे थे वान्या के मन-मस्तिष्क में.
अपने आप में डूबी वान्या सोच रही थी कि इस विषय में कहीं से कुछ पता लगे तो उसे चैन मिल जाये. ‘कल प्रेमा से सफ़ाई करवाने के बहाने पूरे घर की छान-बीन करूंगी, शायद कोई सुराग हाथ लग जाये.’ सोच उसे थोड़ा चैन मिला तो नींद आ गयी.

अगले दिन सुबह से ही प्रेमा को हिदायतें देते हुए वह सारे बंगले में घूम रही थी. आर्यन मोबाइल में लगा हुआ था. दोस्तों के बधाई संदेशों का जवाब देते हुए कुछ की मांग पर विवाह के फ़ोटो भी भेज रहा था. वान्या को प्रेमा के साथ घुलता-मिलता देख उसे एक सुखद अहसास हो रहा था.
इतना विशाल बंगला वान्या ने पहले कभी नहीं देखा था. जब दो दिन पहले उसने बंगले में इधर-उधर खड़े होकर खींची अपनी कुछ तस्वीरें सहेलियों को भेजी थीं तो वे आश्चर्यचकित रह गयीं थीं. उसे ‘किले की महारानी’ संबोधित करते हुए मैसेजेस कर वे रश्क कर रहीं थी. इतने बड़े बंगले का मालिक आर्यन आखिर उस जैसी मध्यमवर्गीया से सम्बन्ध जोड़ने को क्यों राज़ी हो गया? और तो और कोरोना के बहाने शादी की जल्दबाजी भी की उसने.

वान्या का मन बेहद अशांत था. प्रेमा के साथ-साथ घर में घूमते हुए लगभग दो घंटे हो चुके थे. रहस्यमयी निगाहों से वह घर को टटोल रही थी. बैडरूम के पास वाले एक कमरे में चम्बा की सुप्रसिद्ध कशीदाकारी ‘नीडल पेंटिंग’ से कढ़ी हुई हीर-रांझा की खूबसूरत वौल हैंगिंग में उसे आर्यन और अपनी सौतन दिख रही थी. पहली बार लौबी में घुसते ही दीवार पर टंगी मौडर्न आर्ट की जिस पेंटिंग के लाल, नारंगी रंग उसे उसे रोमांटिक लग रहे थे, वही अब शंका के फनों में बदल उसे डंक मार रहे थे. बैडरूम में सजी कामलिप्त युगल की प्रतिमा, जिसे देख परसों वह आर्यन से लिपट गयी थी आज आंखों में खटक रही थी. ‘क्या कोई अविवाहित ऐसा सामान सजाने की बात सोच सकता है? शादी तो यूं हुई कि चट मंगनी पट ब्याह, ऐसे में भी आर्यन को ऐसी स्टेचू खरीदकर सजाने के लिए समय मिल गया….हैरत है!’ घर की एक-एक वस्तु आज उसे काटने को दौड़ रही थी. ‘कैसा बेकार सा है यह मनहूस घर’ वह बुदबुदा उठी.

लगभग सारे घर की सफ़ाई हो चुकी थी. केवल एक ही कमरा बचा था, जो अन्य कमरों से थोड़ा अलग, ऊंचाई पर बना था. पहाड़ के उस भाग को मकान बनाते समय शायद जान-बूझकर समतल नहीं किया गया होगा. बाहर से ही छत से थोड़ा नीचे और बाकी मकान से ऊपर उस कमरे को देख वान्या बहुत प्रभावित हुई थी. प्रेमा का कहना था कि उस बंद कमरे में कोई आता-जाता नहीं इसलिए साफ़-सफ़ाई की कोई आवश्यकता नहीं है, लेकिन वान्या तो आज पूरा घर छान मारना चाहती थी. उसके ज़ोर देने पर प्रेमा झाड़ू, डस्टर और चाबी लेकर कमरे की ओर चल दी. लकड़ी की कलात्मक चौड़ी लेकिन कम ऊंचाई वाली सीढ़ी पर चढ़ते हुए वे कमरे तक पहुंच गए. प्रेमा ने दरवाज़े पर लटके पीतल के ताले को खोला और दोनों अन्दर आ गए.

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कमरे में अखरोट की लकड़ी से बनी एक टेबल और लैदर की कुर्सी रखी थी. काले रंग की वह कुर्सी किसी भी दिशा में घूम सकती थी. पास ही ऊंचे पुराने ढंग के लकड़ी के पलंग पर बादामी रंग की याक के फ़र से बनी बहुत मुलायम चादर बिछी थी. कुछ फ़ासले पर रखी एक आराम कुर्सी और कपड़े से ढके प्यानो को देख वान्या को वह कमरा रहस्य से भरा हुआ लगने लगा. दीवार पर घने जंगल की ख़ूबसूरत पेंटिंग लगी थी. वान्या पेंटिंग को देख ही रही थी कि दीवार के रंग का एक दरवाज़ा दिखाई दिया. ‘कमरे के अन्दर एक और कमरा’ उसका दिमाग चकरा गया. तेज़ी से आगे बढ़कर उसने दरवाज़े को धक्का दे दिया. चरर्र की आवाज़ करता हुआ दरवाज़ा खुल गया.

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ये घर बहुत हसीन है: भाग-2

अचानक तिपाही पर रखा आर्यन का मोबाइल बज उठा. ‘वंशिका कौलिंग’ देखा तो याद आया यह सुरभि दीदी की बेटी का नाम है. वान्या ने फ़ोन उठा लिया. उसके हैलो कहते ही किसी बच्चे की आवाज़ सुनाई दी, “पापा कहां है?”

दीदी के बच्चे तो बड़े हैं. यह तो किसी छोटे बच्चे की आवाज़ है, सोचते हुए वान्या बोली, “किस से बात करनी है आपको? यह नंबर तो आपके पापा का नहीं है. दुबारा मिलाकर देखो, बच्चे!”
“आर्यन पापा का नाम देखकर मिलाया था मैंने….आप कौन हो?” बच्चा रुआंसा हो रहा था.
वान्या का मुंह खुला का खुला रह गया. इससे पहले कि वह कुछ और बोलती आर्यन बाथरूम से आ बाहर आ गया. “किसका फ़ोन है?” पूछते हुए उसने वान्या के हाथ से मोबाइल ले लिया और तोतली आवाज़ में बातें करने लगा.
निराश वान्या कपड़े हाथ में लेकर बाथरूम की ओर चल दी. ‘किसने किया होगा फ़ोन? आर्यन भी जुटा हुआ है उससे बातें करने में. क्या आर्यन की पहले शादी हो चुकी है? हां, लगता तो यही है. तलाक़ हो चुका है शायद. मुझे बताया भी नहीं….यह तो धोखा है!’ वान्या अपने आप में उलझती जा रही थी.
आधुनिक सुख-सुविधाओं से लैस कमरे के आकार का बाथरूम जिसके वह सपने देखती थी, उसकी निराशा को कम नहीं कर रहा था. एअर फ्रैशनर की भीनी-भीनी ख़ुशबू, हल्की ठंड और गरम पानी से भरा बाथटब! जी चाह रहा था कि अभी आर्यन आ जाये और अठखेलियां करते हुए उसे कहे कि ‘फ़ोन उसके लिए नहीं था, किसी और आर्यन का नंबर मिलाना चाहता था वह बच्चा. मुझे पापा कब बनना है, यह तो तुम बताओगी….!’ वान्या फूट-फूट कर रोने लगी.

बाहर आई तो डायनिंग टेबल पर नाश्ते के लिए आर्यन उसकी प्रतीक्षा कर रहा था. ऊंची बैक वाली गद्देदार काले रंग की कुर्सियां वान्या को कोरी शान लग रहीं थी. वान्या के बैठते ही आर्यन उसके बालों से नाक सटाकर लम्बी सांस लेता हुआ बोला, “कौन सा शैम्पू लगाया है? कहीं यह ख़ुशबू तुम्हारे बालों की तो नहीं? महक रहा हूं अन्दर तक मैं!”

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वान्या को आर्यन की शरारती मुस्कान फिर से मोहने लगी. सब कुछ भूल वह इस पल में खो जाना चाहती थी. “जल्दी से खा लो. अभी प्रेमा सफ़ाई कर रही है. उसे जल्दी से वापिस भेज देंगे….अपना बैड-रूम तो तुमने देखा ही नहीं अब तक. कब से इंतज़ार कर रहा है मेरा बिस्तर तुम्हारा ! ” आर्यन का नटखट अंदाज़ वान्या को मदहोश कर रहा था.

नाश्ता कर वान्या बैडरूम में पहुंच गयी. शानदार कमरे में कदम रखते ही रोमांस की ख़ुमारी बढ़ने लगी. “मुझे ज़रूर ग़लतफहमी हुई है, आर्यन के साथ कोई हादसा हुआ होता तो वह प्यार के लम्हों को जीने के लिए इतना बेताब न दिखता. उसका इज़हार तो उस आशिक़ जैसा लग रहा है, जिसे नयी-नयी मोहब्बत हुई हो.” सोचते हुए वान्या बैड पर लेट गयी. फ़ोम के गद्दे में धंसे-धंसे ही मखमली चादर पर अपना गाल रख सहलाने लगी. प्रेमा और नरेंद्र के जाते ही आर्यन भी कमरे में आ गया. खड़े-खड़े ही झुककर वान्या की आंखों को चूम मुस्कुराते हुए उसे अपने बाहुपाश में ले लिया.
“कैसा है यह मिरर? कुछ दिन पहले ही लगवाया है मैंने?” बैड के पास लगे विंटेज कलर फ़्रेम के सात फुटिया मिरर की ओर इशारा करते हुए आर्यन बोला.
दर्पण में स्वयं को आर्यन की बाहों में देख वान्या के चेहरे का रंग भी आईने के फ़्रेम सा सुर्ख़ हो गया.
प्रेमासिक्त युगल एकाकार हो एक-दूसरे की आगोश में खोए-खोए कब नींद की आगोश में चले गए, पता ही नहीं लगा.

सायंकाल प्रेमा ने घंटी बजाई तो उनकी नींद खुली. ग्रीन-टी बनवाकर अपने-अपने हाथों में मग थामे दोनों घर के पीछे की ओर बने गार्डन में रखी बेंत की कुर्सियों पर जाकर बैठ गए. वहां रंग-बिरंगे फूल खिले थे. कतार में लगे ऊंचे-ऊंचे पेड़ों की शाखाएं हवा चलने से एक-दूसरे के साथ बार-बार लिपट रहीं थीं. सभी पेड़ों पर भिन्न आकार के फल लटक रहे थे, रंग हरा ही था सबका. वान्या की उत्सुक निगाहों को देख आर्यन बताने लगा, “मेरे राइट हैंड साइड वाले चार पेड़ आलूबुखारे के और आगे वाले तीन खुबानी के हैं. अभी कच्चे हैं, इसलिए रंग हरा दिख रहा है. दीदी की बेटी को बहुत पसंद है कच्ची खुबानी. हमारी शादी में नहीं आ सकी, वरना खूब एंजौय करतीं.”

“अपने बच्चों को साथ क्यों नहीं लाईं दीदी? वे दोनों आ गए तो बच्चे भी आ सकते थे. दीदी की बेटी नाम वंशिका है न? सुबह इसी नाम से कौल आई तो मैंने अटैंड कर ली, पर वह तो किसी और का था. किस बच्चे के साथ बात कर रहे थे तुम?” वान्या का मस्तिष्क फिर सुबह वाली घटना में जाकर अटक गया.
“तुम्हें देखते ही शादी करने को मन मचलने लगा था मेरा. दीदी से कह दिया था कि कोई आ सकता है तो आ जाये, वरना मैं अकेले ही चला जाऊंगा बारात लेकर! सबको लाना पौसिबल नहीं हुआ होगा तो जीजू को लेकर आ गयीं देखने कि वह कौन सी परी है जिस पर मेरा भाई लट्टू हो गया!”
आर्यन का मज़ाक सुन वान्या मुस्कुराकर रह गयी.

“एक मिनट…..शायद प्रेमा ने आवाज़ दी है, वापिस जा रही होगी, मैं दरवाज़ा बंद कर अभी आया.” वान्या की पूरी बात का जवाब दिए बिना ही आर्यन दौड़ता हुआ अन्दर चला गया.

कुछ देर तक जब वह लौटकर नहीं आया तो वान्या उस बच्चे के विषय में सोचकर फिर संदेह से घिर गयी. व्याकुलता बढ़ने लगी तो बगीचे से ऊपर की ओर जाती हुई सफ़ेद रंग की घुमावदार लोहे की सीढ़ियों पर चढ़ गयी. ऊपर खुली छत थी, जहां से दूर तक का दृश्य साफ़ दिखाई दे रहा था. ऊंची-ऊंची फैली हुई पहाड़ियों पर पर पेड़ों के झुरमुट, सर्प से बलखाते रास्ते और छोटे-बड़े मकान. मकानों की छतों का रंग अधिकतर लाल या सलेटी था. सभी मकान एक-दूसरे से कुछ दूरी पर थे. ‘क्या ऐसी ही दूरी मेरे और आर्यन के बीच तो नहीं? साथ हैं, लेकिन एक फ़ासला भी है. क्या राज़ है उस फ़ोन का आखिर?’ वान्या सोच में डूबी थी. सहसा दबे पांव आकर आर्यन ने अपने हाथों से उसकी आंखें बंद कर दीं.

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“तुम ही तो आर्यन….! कब आये छत पर?”

“हो सकता है यहां मेरे अलावा कोई और भी रहता हो और तुम्हें कानों कान ख़बर भी न हो.” आर्यन शरारत से बोला.
“और कौन होगा?” वान्या घबरा उठी.

“अरे कितनी डरपोक हो यार….यहां कौन हो सकता है?” वान्या की आंखों से हाथों को हटा उसकी कमर पर एक हाथ से घेरा बनाकर आर्यन ने अपने पास खींच लिया. “चलो, छत पर और आगे. तुम्हें यहां से ही कुछ सुन्दर नज़ारे दिखाता हूं.”

आर्यन से सटकर चलते हुए वान्या को बेहद सुकून मिल रहा था. उसकी छुअन और ख़ुशबू में डूब वान्या के मन में चल रही हलचल शांत हो गयी. दोनों साथ-साथ चलते हुए छत की मुंडेर तक जा पहुंचे. देवदार के बड़े-बड़े शहतीरों को जोड़कर बनाई गयी मुंडेर की कारीगरी देखते ही बनती थी. ‘काश! इन शहतीरों की तरह मैं और आर्यन भी हमेशा जुड़े रहें.’ वान्या सोच रही थी.

“देखो वह सामने सीढ़ीदार खेत, पहाड़ों पर जगह कम होने के कारण बनाये जाते हैं ऐसे खेत…..और दूर वहां रंगीन सा गलीचा दिख रहा है? फूलों की खेती होती है उधर.”

कुछ देर बाद हल्का कोहरा छाने लगा. आर्यन ने बताया कि ये सांवली घटायें हैं जो अक्सर शाम को आकाश के एक छोर से दूसरे तक कपड़े के थान सी तन जाती हैं. कभी बरसती हैं तो कभी सुबह सूरज के आते ही अपने को लपेट अगले दिन आने के लिए वापिस चली जाती हैं.”
सूरज ढलने के साथ अंधेरा होने लगा तो दोनों नीचे नीचे आ गए. घर सुन्दर बल्बों और शैंडलेयर्स से जगमग कर रहा था. वान्या का अंग-अंग भी आर्यन के प्रेम की रोशनी से झिलमिला रहा था. सुबह वाली बात मन के अंधेरे में कहीं गुम सी हो गयी थी.

प्रेमा के खाना बनाकर जाने के बाद आर्यन वान्या को डायनिंग रूम के पास बने एक कमरे में ले गया. कमरे की अलमारी में महंगी क्रौकरी, चांदी के चम्मच, नाइफ़ और फ़ोर्क आदि वान्या को बेहद आकर्षित कर रहे थे, लेकिन थकान से शरीर अधमरा हो रहा था. कमरे में बिछे गद्देदार सिल्वर ग्रे काउच पर वह गोलाकार मुलायम कुशन के सहारे कमर टिकाकर बैठ गयी. आर्यन ने कांच के दो गिलास लिए और पास रखे रेफ़्रीजरेटर से एप्पल जूस निकालकर गिलासों में उड़ेल दिया. वान्या ने गिलास थामा तो पैंदे पर बाहर की ओर क्रिस्टल से बने गुलाबी कमल के फूल की सुन्दरता में खो गयी.
“फूल तो ये हैं….कितने खूबसूरत !” कहते हुए आर्यन ने अपने ठंडे जूस में डूबे अधरों से वान्या के होठों को छू लिया. वान्या मदहोश हो खिलखिला उठी.
“जूस में भी नशा होता है क्या? मैं अपने बस में कैसे रहूं?” आर्यन वान्या के कान में फुसफुसाया.
“नशा तो तुम्हारी आंखों में है.” कांपते लबों से इतना ही कह पायी वान्या और आंखें मूंद लीं.

आगे पढें- रात को अकेले बिस्तर पर लेटी हुई वान्या विचित्र मनोस्थिति…

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