यादों का अक्स: भाग 3

इत्र की भीनीभीनी खुशबू और धीमाधीमा संगीत, बस, सब कुछ मुझे मदहोश करने के लिए काफी था.
बस, फिर वह सब हो गया, जो शायद बहुत पहले हो जाना चाहिए था.
जब वर्षों पुरानी चाहत पूरी हुई तो ऐसा लगा मानो आज बिन बादल बरसात हो गई, जिस में हम दोनों भीग कर उस चरम सुख को पा गए, जिस से अब तक हम अछूते रहे थे.
उस रात होटल के उस कमरे में रवि से लिपटी मैं उस तृप्ति को महसूस कर रही थी जो मुझे अब तक नहीं मिली थी.

‘‘रवि, आज तो मजा आ गया,’’ मैं भावावेश में उस के होंठों पर किस करते हुए बोली.
‘‘अरे मैडम, यह तो कुछ भी नहीं. आगेआगे देखो, मैं तुम्हें कैसे जन्नत का मजा दिलाता हूं,’’ कह कर रवि फिर से मुझ से लिपट गया. ‘‘मुझे बहुत दुख है जो समय रहते मैं तुम्हें अपनी नहीं बना पाया,’’ रवि मेरे सीने पर हाथ फेरते हुए बोला, ‘‘समीर बहुत खुशहाल इनसान है तभी तो यह हुस्न का प्याला उस की झोली में जा गिरा,’’ कह रवि मुझे पागलों की तरह चूमने लगा.
‘‘रवि इतना प्यार न करो, मुझे वरना…’’

‘‘वरना क्या?’’

‘‘अगर तुम मुझ से यों टूट कर प्यार करते रहोगे, तो तुम से अलग कैसे हो पाऊंगी?’’ और मैं अचानक रो पड़ी, ‘‘रवि, इस दिल पर तो तुम्हारा शुरू से अधिकार रहा है और आज तन पर भी हो गया,’’ मैं तड़पते हुए बोली.

मेरी तड़प देख कर रवि ने मुझे अपनी मजबूत बांहों के घेरे में कस लिया और मैं उस की पकड़ से खुद को छुड़ाने की नाकाम कोशिश करने लगी.

‘‘अच्छा, अब मैं चलती हूं,’’ सुबह की लौ देख मैं ने तुरंत कपड़े बदले और अपने घर आ गई.

रवि से शारीरिक संपर्क के बाद मेरे अंदर एक सुखद सा परिवर्तन आया. अब मैं हर समय खिलीखिली सी रहती थी.

‘‘इतना खुश तो मैं ने पहले तुम्हें कभी नहीें देखा,’’ उस दिन मुझे एक फिल्मी गाना गुनगुनाते देख समीर ने मुझे टोका.

‘‘वह क्या है कि आजकल नए दोस्त बन रहे हैं न,’’ मैं ने बात बदलते हुए कहा.

‘‘अच्छा लगता है तुम्हें यों खुश देख कर,’’ कह समीर ने भावातिरेक में मेरा माथा चूम लिया.सच, उस समय मुझे रवि की बहुत याद आई. आज रवि के कारण ही तो मेरे मन का सूनापन कम हो पाया था. उस के प्यार में पागल मैं आज दूसरी बार उस से मिलने उसी होटल में जाने वाली थी. पर उस समय बंटू स्कूल गया हुआ था, इसलिए दुविधा में थी कि कैसे जाऊं?

तब मेरी सास जो मेरे पास रहने आई हुई थीं, तुरंत बोलीं, ‘‘अरे बहू, परेशानी क्या है? अब जब मैं घर पर हूं तो बंटू को देख लूंगी, तुम अभी निकल जाओ वरना तुम्हें सामने देख कर ज्यादा परेशान होगा.’’

मांजी के इतना कहते ही मैं तुरंत निकल पड़ी. इधर मेरा औटोरिकशा होटल की तरफ बढ़ रहा था तो उधर मेरी बेचैनी. सब कुछ अपनी चरसीमा पर था…उस दिन का चरमसुख और आज फिर.

फिर अचानक मेरे विचारों पर विराम लग गया, क्योंकि मेरा होटल जो आ गया था. तेज कदमों से लौबी का रास्ता पार कर मैं होटल के कमरे के पास पहुंच गई.

कमरे का दरवाजा आधा खुला था और मैं जल्दी से उसे धकेल कर अंदर जाना चाहती थी कि अचानक रवि के मुंह से अपना नाम सुन कर मेरे बढ़ते कदम ठिठक गए.

जब मैं ने दरवाजे की ओट में खड़े हो कर अंदर झांका तो हैरान रह गई.

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रवि किसी और के साथ बैठा ड्रिंक कर रहा था. पूरे कमरे में सिगरेट का धुआं फैला हुआ था.
‘‘तेरी वह मुरगी कब तक आएगी, मेरा मन बेचैन हो रहा है?’’ रवि के सामने वह आदमी शराब का खाली गिलास रखते हुए बोला.

‘‘बस सर आने ही वाली होगी,’’ रवि उस के खाली गिलास में शराब डालते हुए बोला.
‘‘पर यार वह तो तेरी गर्लफ्रैंड है, ऐसे में वह मेरे साथ…’’

‘‘आप उस की फिक्र न करो, सरजी…अरे, वह तो मेरे प्यार में इतनी पागल है कि मेरे एक इशारे पर कुछ भी करने को तैयार हो जाएगी,’’ रवि ठठा कर हंस पड़ा, ‘‘अरे मैं ने कच्ची गोलियां नहीं खेली हैं, जो हाथ आया मौका यों जाने दूं,’’ नशे में धुत्त रवि बोला, ‘‘आप आज सिर्फ मेरे अभिनय का कमाल देखना…मैं आज उसे इतना बेचैन कर दूंगा कि वह मेरे साथसाथ आप को भी पूरा मजा देगी. बड़ी गरमी भरी पड़ी है उस के अंदर,’’ और फिर उस ने सिगरेट सुलगा ली.

‘‘अच्छा, मैं चलता हूं. बाहर लौबी में तुम्हारे फोन का इंतजार करता हूं. जब मामला पट जाए तब आ जाऊंगा,’’ कह कर वह आदमी पागलों की तरह हंसने लगा.

‘‘आप मजे की फिक्र न करो. वह तो मैं आप को पूरा दिलवाऊंगा पर मेरा आप की आने वाली फिल्म में हीरो का रोल तो पक्का है न?’’ कह रवि ने वही गुलाबी नाइटी बैड पर फैला दी.

‘‘अरे यार मैं जुबान का पक्का हूं. इधर वह लड़की गई तो उधर तेरा हीरो का रोल पक्का.’’
यह सब सुन कर मेरे तो होश उड़ गए. मेरी तो उस समय ऐसी स्थिति थी कि काटो तो खून नहीं. पहले तो मेरे मन में आया कि अंदर जा कर उन दोनों मुंह नोच लूं पर फिर मैं तुंरत संभल गई कि नीचता पर उतर आए ये दोनों मेरे साथ कुछ भी गलत कर सकते हैं.

फिर मैं ने समय न गंवाते हुए बाहर का रुख किया ताकि उन की पकड़ से बाहर निकल जाऊं. वैसे भी वह आदमी कभी भी बाहर आ सकता था.

उस समय मेरा तनमन गुस्से से उबल रहा था और मेरी आंखें लगातार बह रही थीं. रवि के प्यार का यह वीभत्स रूप देख कर मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे.

मैं औटोरिकशा में अपने घर जा रही थी. रवि के कई फोन मेरे मोबाइल पर आए, मेरा मन उस समय इतना बेचैन था कि उस से बात करना तो दूर मैं उस की आवाज भी नहीं सुनना चाहती थी. इसलिए मैं ने अपना मोबाइल औफ कर दिया और बीती बातें भुला कर अपने घर चली गई.

‘‘अरे समीर, तुम कब आए?’’ समीर को बंटू के साथ खेलते देख कर मुझे सुकून सा मिला.
‘‘चलो, आज पिक्चर देखने चलते हैं, खाना भी बाहर ही खा लेंगे,’’ समीर ने अचानक मुझ से कहा तो मैं अचकचा सी गई, ‘‘पर बंटू का तो सुबह स्कूल है,’’ मैं ने बात बदलते हुए कहा. अब समीर से कैसे कहती कि मेरा मूड खराब है.

‘‘बंटू को तो मैं देख लूंगी. समय से खाना खिला कर सुला दूंगी,’’ सासूमां कमरे में प्रवेश करते हुए बोलीं.
‘‘क्यों बंटू, दादी के साथ खेलेगा न? और फिर वह दिन वाली स्टोरी भी तो पूरी करनी है न,’’ सासूमां के इतना कहते ही बंटू उन से लिपट गया.

‘‘चलो, अब तो तुम्हारी समस्या हल हो गई. अब जल्दी से तैयार हो जाओ,’’ समीर ने मेरा कंधा थपथपाते हुए कहा.

फिर हम तैयार हो कर मूवी देखने चले गए. जब पिक्चर देख कर बाहर निकले तो बाहर काले बादल घिर आए थे. देखते ही देखते तेज बारिश शुरू हो गई.

समीर कार का दरवाजा खोल कर अंदर बैठने लगा तो मैं ने अचानक उस का हाथ पकड़ कर बाहर खींच लिया.

‘‘मैडम, बारिश शुरू हो गई है और तुम्हें बारिश में भीगने से ऐलर्जी है,’’ उस के स्वर में व्यंग्य था.

‘‘अब मुझे बारिश में भीगना अच्छा लगता है,’’ कह कर में ने समीर को हाथ से पकड़ बाहर खींच लिया और फिर दोनों देर तक बारिश में भीगने का मजा लेते रहे.

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जब बारिश की ठंडी फुहारें मेरे तनमन की तपिश निकालने में कामयाब हुईं तब मैं समीर के कंधे से जा लगी.

मेरे अंदर आए अचानक इस बदलाव को देख कर समीर को इतना अच्छा लगा कि उस ने एक चुंबन मेरे होंठों पर अंकित कर दिया.

जब समीर की मजबूत बांहों ने मेरे तन को कसा तो ऐसा लगा मानो अब मेरे मन पर सिर्फ और सिर्फ समीर का ही अधिकार है और तब ऐसा लगने लगा मानो रवि की यादों का अक्स धुंधला पड़ने लगा है.

दूसरी मुसकान: भाग-1

गुलमोहर और अमलतास के पेड़ों की अनवरत कतारों के बीच चिकनी काली, चमकीली सड़क दूर तक दिखाई देती है. जगहजगह सड़क के किनारे लैंपपोस्ट लगे थे. उसे इन की पीली रोशनी हमेशा से रहस्यमयी लगती रही है. सड़क की दोनों ओर पैदल चलने वालों के लिए चौड़ी पटरी बनी है. कैंट की इस सड़क से पिछले कई वर्षों से उस का सुबहशाम का वास्ता है.

पिछले 8 वर्षों में यही नौकरी है, जो मुसल्सल 2 सालों से चल रही है वरना कहीं

8-9 महीने तो कहीं सवा साल. बस फिर किसी न किसी वजह से या तो नौकरी उसे बायबाय कह देती या फिर वह खुद नौकरी से विदा ले लेती.

न जाने क्यों इन गुलमोहर के पेड़ों नीचे से गुजरते समय उस के अंदर कुछ पिघलने सा लगता है. अब ही नहीं वर्षों पहले भी ऐसा ही होता था. जब वसंत उस की जिंदगी में आया तो ढेरों फूल खिल गए थे उस के आंचल में, वजूद महकने लगा था.

‘‘तुम्हें पता है, मुझे वसंत पसंद है,’’ वह खोईखोई सी कहती.

‘‘अच्छा,’’ वसंत उसे शरारती नजरों से देखता तो वह शर्म से लाल हो जाती.

‘‘मैं, मौसम की बात कर रही हूं.’’

‘‘मैं भी,’’ वही शरारत और गालों के भंवर, जिस में उस ने खुद को खो सा दिया था.

कंपनी पार्क के आगे लगी बड़ी सी घड़ी ने 6 बजने की सूचना दी तो वह वर्तमान में लौट आई. कदम कुछ तेजी से आगे बढ़ने लगे.

घर पहुंची तो देखा शुभी होमवर्क करने में व्यस्त थी.

‘‘मेरी बच्ची खूब मन लगा कर पढ़ो,’’ उस ने प्यार से शुभी के सिर पर हाथ फेरा और फिर बैग सोफे पर रख कर सीधा रसोई में चली आई. उसे घर पहुंचते ही चाय चाहिए. चाय की बड़ी तलब है उसे, पर जिस से यह आदत लगी, उस के साथ बैठ कर सुकून से चाय पीए हुए मुद्दत हो गई.

‘‘अरे, यह क्या? चाय तो पहले से ही रैडी है. साथ में प्लेट में कुछ नमकीन भी रखा है,’’ उस के होंठों पर मुसकराहट फैल गई.

तब पीछे से शुभी ने लाड़ से गले में बांहें डाल दीं. उसे अच्छी तरह मालूम है कि यह लाड़ क्यों हो रहा है. मगर प्रत्यक्ष में उस ने शुभी को चूम लिया. सच बच्चों के छोटेछोटे मतलब भी मांओं को सुकून देते हैं.

शुमी चाय की ट्रे उठा कर ड्राइंगरूम में आ गई. वह चाय पीते हुए शुभी को गौर से देखने लगी. शुभी न जाने किधरकिधर की बातें सुनाने में लगी हुई थी. वह जानती है, चाय खत्म होने से पहले शुभी मतलब की बात पर आ ही जाएगी.

‘‘ममा, प्लीज मुझे भेज दो न पिकनिक पर, कल पैसे जमा करने की लास्ट डेट है. प्लीज ममा, फिर आगे से चाहे कहीं मत भेजना. प्लीज ममा, नीता और शालू भी तो जा रही हैं… पूरी क्लास है, प्लीज ममा.’’

‘‘शुभी, मैं ने पहले ही कह दिया था किसी पानी वाली जगह मैं तुझे नहीं भेजूंगी,’’ शुमी झुंझला उठी.

‘‘उफ ममा, मैं कोई बच्ची हूं जो पानी में गिर जाऊंगी? आप कहीं भी ले कर नहीं जाते हो… अब स्कूल की तरफ से जा रहे हैं तो भी न जाओ,’’ और फिर शुभी रोने लग पड़ी.

शुभी को रोता देख कर शुमी का भी मन किया कि वह भी शुभी को गले लगा कर जी भर कर रोए पर यह कोई नई बात नहीं थी. पिछले कई सालों से वह अकेले ही इस सब का सामना करती आई है.

वह जानती है कि शुभी की पूरी क्लास पिकनिक पर जा रही है और वह भी अब कोई बच्ची नहीं है. 7वीं कक्षा में है. मगर उस के लिए तो वह अभी भी नर्सरी में पढ़ने वाली बच्ची ही है. शुभी को ले कर वह हमेशा असुरक्षित रहती है.

वह शुभी के आंसू नहीं देख सकती थी. अत: उठ कर प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरा. उस की जबान साथ नहीं दे रही थी. ‘यों कब तक शुभी को बांध कर रखेगी?’ वह खुद से ही सवाल करती है. वह चाहती है कि शुभी मजबूत बने, अपने पांवों पर खड़ी हो…अगर कुछ सालों बाद किसी कोर्स के लिए उसे शहर से बाहर जाना पड़ा तो क्या वह नहीं जाने देगी? रोक लेगी उसे? फिर अगर उस की जिंदगी में भी कोई वसंत आ गया तो? नहींनहीं उस की बच्ची को तो अभी ऊंची उड़ान भरनी है. वह खुद को ही तसल्ली दे रही थी. वह जानती है कि वह शुभी के मामले में ओवर प्रोटैक्टिव है. फिर उस ने शुभी का माथा चूम लिया.

‘‘सुबह अपनी क्लास टीचर से मेरी बात करा देना,’’ यह सुन कर शुभी खुशी से खिल उठी थी.

सुबह शुभी उस के उठने से पहले ही उठ गई. जल्दीजल्दी तैयार हो कर उस के पास

किचन में आ गई. फिर वही गले में बांहें डालने वाला लाड़.

वह मुसकान ही थी पर कभीकभी मुसकराहटें भी कितनी फीकी होती हैं, यह उस ने वसंत के इश्क में मर कर जाना था.

शुभी के हाथों में पैसे रखते हुए उस ने चेतावनी दी कि अपनी टीचर से मेरी बात जरूर करवाना वरना पिकनिक कैंसिल. शुभी उस के गालों को चूम कर तुरंत घर से निकल गई. वह उसे आंखों से ओझल होने तक एकटक देखती रही.

 

शुभी का निकलता हुआ कद और गालों में पड़ते भंवर वसंत जैसे अपनी कार्बन

कौपी छोड़ गया था उस के पास. शादी के 2 साल बाद बड़ी मुश्किल से उम्मीद जगी थी कि वह मां बनने वाली है. बच्चा भी जैसे उस ने भीख में ही मांगा था वसंत से, पर इस खुशी की खबर ने जैसे पंख लगा दिए थे. उस ने वसंत की मुसकराती तसवीर हर कमरे में फ्रेम करवा कर रख दी थी.

‘‘मुझे तुम्हारे जैसा बेटा ही चाहिए वसंत,’’ वह वसंत के सीने पर सिर रख कर प्यार से बोलती.

‘‘और अगर बेटी हुई तो?’’

‘‘नहीं, बेटा ही होगा.’’

‘‘अच्छा, तुम दुनिया की पहली औरत हो जो बेटी की मुखालफत कर रही है.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है, मगर पहला बेटा ही होना चाहिए.’’

‘‘पहला मतलब? अभी और बच्चे चाहिए… महंगाई देखी है…’’ वसंत का वही ठहरा हुआ जवाब.

‘‘हद है, मकान तुम्हें बनाबनाया मिल गया. घर में भी सब कुछ है. अब क्या तुम बच्चों को पालपोस भी नहीं सकते? तुम्हें बच्चे अच्छे नहीं लगते? महंगाई में क्या लोग बच्चे पैदा नहीं करते?’’ वह खीज जाती, मगर वसंत की वही खामोशी उस की बात शुरू होते ही दम तोड़ देती और नतीजे पर नहीं पहुंचती. वही गुलमोहर और अमलतास की कतारें…रोज उस का मन पंछी की तरह डालडाल पर अटकता हुआ चलता है.

यह सड़क सीधी चर्च रोड से मिलती है और चर्च रोड शुरू होते ही कोने में पुरानी किताबों की दुकान, उस की बगल में रोजमैरी रैस्टोरैंट, जिस में न जाने कितनी शामें उस ने और वसंत ने एकसाथ बिताई थीं. आगे विलियम गेट. उस के आगे कंपनी गार्डन. उस से कुछ दूरी पर सैंट सोफिया इंटरमीडिएट स्कूल, जहां उस ने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की थी और वसंत से भी तो यहीं मिली थी.

मन फिर अतीत में भटकते लगा. पहली बार उस ने वसंत को स्कूल कैंपस में कैंटीन

के बाहर खड़ा देखा था. निकलता हुआ कद, गेहुंआ रंग, बड़ीबड़ी गहरी आंखें, पैंट की जेब में हाथ डाले वह बेखयाली से इधरउधर देख रहा था.

कैंटीन के कोने में खड़ी जाने क्यों वह उसे एकटक देखने लगी. उम्र का वह पड़ाव जिस में अनायास ही कोई अपनी तरफ खींचता है… वह भी खिंच रही थी, इस बात से बेखबर कि रोमा कब से उस के पीछे आ खड़ी है. रोमा ने उस की चिकोटी काटी तो उस की चीख निकल गई.

कुछ दूर खड़े वसंत की नजरें आवाज की दिशा में उठीं और उस से टकरा गईं. वह मुसकरा दिया. मुसकराते ही उस के गालों पर भंवर खिलने लगे और वह उन भंवरों में ऐसी खोई कि खुद को कभी तलाश ही नहीं कर पाई.

दूसरे दिन खुद को लाख रोकने के बावजूद वह फिर उसी वक्त कैंटीन के बाहर थी. वसंत वहीं खड़ा था, मगर आज बेखयाल नहीं, कुछ सचेत सा था. उस के ख्वाबों में फूल खिलने लगे थे.

अब मुलाकातें स्कूल से बाहर होने लगी थीं. हफ्ते में 2-3 बार ही मिल पाती थी. शनिवार ही को होस्टल से बाहर निकलने की इजाजत थी. रोज निकलना मुमकिन नहीं था. होस्टल वार्डन एक युवा महिला थी. ज्यादा रोकटोक नहीं करती थी. इसीलिए इतना भी मिल पाते थे. वह जानती थी इस उम्र का पानी अपने बहने का रास्ता ढूंढ़ ही लेता है.

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दूसरी मुसकान: भाग-2

वह बेसब्री से शनिवार का इंतजार करती, खुद को सजातीसंवारती. उसे वसंत के साथ अपनी हर मुलाकात पहली मुलाकात ही लगती. देर तक हाथों में हाथ डाले वे इन्हीं लंबी सड़कों पर घूमा करते. गुलमोहर गवाह हैं इन के प्यार के. वह वसंत के सीने पर सिर रखती तो वह उसे अपनी मजबूत बांहों में जकड़ लेता. वह धीरेधीरे पिघलने लगती. उसे लगता उस के बदन की ताप से गुलमोहर भी सुलग उठेंगे. चांदी के दिन थे वे…इतना कीमती और सुनहरा वक्त हमेशा कहां जिंदगी में रहता है.

उस का स्कूल खत्म होने वाला था और वापस अलवर जाने का वक्त आ गया था. मांबाबूजी तो वक्त से पहले ही इस दुनिया से उठ गए थे. इसलिए उस की सारी जिम्मेदारी हेमा दी और रमन जीजाजी के ऊपर आ पड़ी थी. वह लगातार रोए जा रही थी.

‘‘वसंत कुछ करो, मुझे वापस नहीं जाना.’’

‘‘रोओ मत, कुछ करते हैं. ऐसे तो मैं भी तुम्हें नहीं जाने दूंगा…पगली अभी तो वक्त है…कोई न कोई रास्ता जरूर निकलेगा.’’

इंटर के पेपर हो चुके थे. रिजल्ट आने में अभी वक्त था. बिना मार्कशीट कहीं भी दाखिला नहीं होना था. पेपरों के बाद छुट्टियां पड़ रही थीं. वही वापस जाने की मुसीबत. कैसे खुद को जाने से रोके, वह सोच रही थी.

इसी बीच स्कूल की तरफ से 10वीं और 12वीं कक्षा के स्टूडैंट्स के लिए हौबी क्लासेज शुरू होने की खबर आई. स्कूल इस के लिए कुछ ऐक्सट्रा चार्ज कर रहा था. मगर उस की तो मुंहमांगी मुराद पूरी हो गई कि वह अब कोई भी हौबी क्लास जौइन कर लेगी. अलवर वापस जाने से बच जाएगी.

हेमा दी फोन पर बहुत नाराज हुई थीं. कई बार उसे लौटने के लिए कहा था. मगर फिर उस की जिद के आगे चुप हो गई थीं. 2 महीने तफरी में बीत गए. हौबी क्लास में क्या सीखा कुछ पता नहीं. सोनेचांदी के दिन यों ही गुजरते हैं. रिजल्ट आया तो पास हो गई थी. वसंत ने रोजमैरी रैस्टोरैंट में सब को शानदार पार्टी दी.

‘‘मुझे कुछ और भी चाहिए,’’ उस ने वसंत की आंखों में आंखें डाल कर शोखी से कहा था.

‘‘हां, बोलो,’’ वसंत ने उस के चेहरे पर गिर आई लटों को अपनी उंगलियों से संवारते हुए पूछा. वसंत के स्पर्श से वह बेसुध होने लगी थी. बोली, ‘‘मुझे कहीं मत जाने देना.’’

‘‘वादा तुम्हें कहीं नहीं जाने दूंगा.’’

 

और सच में वह कहीं नहीं जा पाई थी. वसंत ने उस के रहने का बंदोबस्त एक होस्टल

में कर दिया था. उस होस्टल को एक क्रिश्चियन महिला विलियम चलाती थी. होस्टल के पास ही फैशन इंस्टिट्यूट था, जहां रोमा की सिस्टर कोर्स कर रही थी. यह आइडिया भी वसंत का ही था कि वह कोर्स कर ले. बीए की पढ़ाई तो वह प्राइवेट भी कर सकती है. उसे आइडिया पसंद आया. हेमा दी को रुकने की एक ठोस वजह बता पाएंगी.

होस्टल के कमरे में हेमा दी उस पर बरस रही थीं, ‘‘तेरा दिमाग खराब हो गया है… क्या रखा है इस शहर में जो तू यहां से जाना नहीं चाहती? तेरी जिद्द थी, इसलिए हम ने तुझे यहां होस्टल में रह कर पढ़ने की इजाजत दी. तेरे जीजाजी तो तब भी नहीं मानते थे और अब तो बिलकुल भी नहीं. फिर तेरे लिए एक रिश्ता भी देखा हुआ है. खातापीता परिवार है. लड़का तेरे जीजाजी का देखाभाला है. पढ़ाई पूरी होते ही हम तेरी शादी कर देंगे. वक्त से अपने घर चली जाओगी तो हमारी भी जिम्मेदारी और चिंता खत्म होगी.’’

हेमा दी बोले जा रही थीं. वह सिर झुकाए बस सुन रही थी. बचपन से वह ऐसे ही करती थी. कोई बहस नहीं, जवाब नहीं. चुप रह कर अपनी सारी बातें मनवाती आई थी. अब भी यही होना था और हुआ. हेमा दी को झुकना पड़ा. फिर रोमा और उस के परिवार ने उन्हें तसल्ली दी थी कि वे उस का ध्यान रखेंगे.

हेमा दी भारी मन से सौ हिदायतें दे कर लौट गईं. उन के जाते ही हफ्ते भर बाद जीजाजी आ गए. नाराज थे मगर प्रत्यक्ष में उस के रहने, खाने और पढ़ाई से संबंधित सारा इंतजाम बड़े ध्यान से चैक कर रहे थे. फिर उस के नाम का एक अकाउंट खुलवा कर लौट गए.

वक्त गुजरने लगा था. वह खुश थी. बीए प्राइवेट कर रही थी. फैशन डिजाइनर के कोर्स में उस का खूब मन लग रहा था. कपड़ों की रेशमी रंगबिरंगी दुनिया में वह अपने नाजुक मन की कल्पनाओं से खूब रंग भरती. यह काम उस के नेचर के मुताबिक ही था. वसंत उस के बनाए कपड़ों को गौर से देखता और फिर मुसकरा देता. उस के बिना कुछ कहे ही वह खुशी से भर जाती.

2 साल गुजर चुके थे और यकीनन वह 7वें आसमान पर थी. लेकिन अब उसे धीरेधीरे नीचे आना था. बीए का 1 साल रह गया था. फिर यहां रुकने का कोई बहाना नहीं था.

यों ही एक दिन कंपनी गार्डन में घूमते हुए उस ने वसंत से पूछा, ‘‘मुझ से शादी करोगे न? मैं तो अब किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकती.’’

वसंत खामोश रहा.

‘‘कुछ बोलो. मुझे डर लगने लगा है.’’

‘‘हांहां, सब हो जाएगा,’’ वसंत ने लापरवाही से कहा.

‘‘हेमा दी पागल नहीं हैं…और जिंदगी भर क्या मैं पढ़ती रहूंगी? शादी की बात कर रही हूं… तुम्हें इस बार उन से बात करनी पड़ेगी.’’

वसंत फिर खामोश रहा.

‘‘हेमा दी अगले महीने आ रही हैं. वे चाहती हैं कि मैं उन के साथ लौट चलूं…पेपरों के वक्त ही यहां लौटूं, तुम इस बार उन से शादी की बात करोगे न?’’ उस ने मनुहार की.

‘‘हांहां, देखा जाएगा… पहले तुम अपनी पढ़ाई तो पूरी करो,’’ वसंत टालने के मूड़ में था. वह खीज गई. देर तक दोनों के बीच खामोशी रही. फिर वसंत ने उसे अपनी तरफ खींच लिया. फिर वही गहरी आंखें और तपता हुआ स्पर्श, जो उस की बरबादी के लिए काफी था.

‘‘कल हेमा दी ने आना है और तुम्हें अभी काम पड़ना था…या दी का सामना ही नहीं करना चाहते?’’ और वह जोरजोर से रोने लगी.

वसंत उसे चुप कराने लगा और आखिर उस ने अपनी दलीलों से उसे मना ही लिया कि अगली बार बात करेगा. वह दी का सामना करने के लिए फिर अकेली खड़ी थी.

इस बार पहली दफा उस ने दी के सामने काफी कुछ झूठ कहा. काफी नाराजगी और चिंता के साथ हेमा दी फिर लौट गईं. उन के जाने के बाद वह फूटफूट कर रो पड़ी. कुछ था जो दिल में उलझ रहा था.

विलियम ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरा था, ‘‘तुम ने अपनी सिस्टर को वसंत के बारे में क्यों नहीं बताया?’’ उस के और वसंत के बारे में विलियम सब जानती थी. मगर इस विषय पर वह पहली बार बात कर रही थी.

‘‘बात तो वसंत को करनी चाहिए थी,’’ और वह फिर सिसक पड़ी.

‘‘वह तुम्हारी सिस्टर के सामने क्यों नहीं आया? देखो यह तुम्हारी लाइफ का सवाल है… तुम्हें अब उस से सब कुछ साफसाफ पूछना चाहिए,’’ विलियम ने इस से ज्यादा कुछ नहीं कहा था, मगर कई सवाल वह उस के आसपास छोड़ गई थी.

दूसरे ही दिन वसंत लौट आया, जबकि वह 1 हफ्ते की कह कर गया था. वह

वसंत को देख कर खुश हुई, मगर साथ ही पहली बार उसे कुछ चुभ भी गया कि इतनी ही जल्दी लौट आना था तो 1 दिन बाद चला जाता. दी से बात तो हो जाती. मगर वसंत ने फिर उसे अपने जादू में बांध लिया था.

धीरेधीरे फाइनल परीक्षा का टाइम आ गया. मगर परीक्षा से ज्यादा उस की चिंता यह थी कि वसंत शादी को ले कर चुप्पी साधे हुआ है. वह जानती थी कि उस के यहां से जाते ही उस की शादी कर दी जाएगी. उस का मन करता वसंत खुद उस से शादी की बात करे और उसे सब साफसाफ और सचसच बताए जैसे वह अपने बारे में बताती है.

मगर ऐसा नहीं था. एक दिन उस ने इन्हीं गुलमोहरों के पेड़ों के नीचे वसंत से कहा था, ‘‘एक दिन चली जाऊंगी यहां से… तुम्हें शायद याद भी न आऊं…’’

‘‘क्या जाने की रट लगाए रहती हो… कहा तो है कि कुछ करेंगे.’’

‘‘तुम कुछ नहीं करोगे और इस बार मैं भी नहीं करूंगी,’’ वह संजीदा हो गई.

‘‘शादी के बिना प्यार मुकम्मल नहीं होता क्या? बड़े झमेले हैं मेरी जान…करोगी तो कहोगी पहले ही अच्छे थे,’’ वसंत ने उस के गले में बांहें डाल कर उसे बहलाने की कोशिश की.

‘‘तुम्हें बड़ा पता है शादी के झमेलों के बारे में…कितनी कर चुके हो?’’

‘‘हां, 4-5 तो कर ही ली हैं,’’ वसंत ने आंख दबा कर कहा.

‘‘वसंत प्लीज आज मुझ से साफसाफ बात करो,’’ कहते ही उस की आंखों से आंसू बहने लगे.

वसंत उस के आंसुओं को पोंछते हुए ठहरी सी आवाज में बोला, ‘‘मेरे पास कुछ नहीं है…न घर, न पैसा, काम अभी जमा नहीं है…शादी कर भी लूं तो मेरे साथ रहोगी कैसे?’’

‘‘रह लूंगी. बस तुम शादी के लिए तैयार हो जाओ. मेरे मांबाबूजी की जो संपत्ति है वह मेरी और हेमा दी दोनों की है. शादी के बाद मेरे हिस्से की संपत्ति मुझे मिलेगी…हम उसे बेच घर भी ले लेंगे और तुम अपना बिजनैस भी आगे बढ़ा लेना…’’

वसंत खामोशी से सब कुछ सुनता जा रहा था. अंतत: उस ने शादी के लिए हां कर दी.

यादोें में सफर करतेकरते वह कब औफिस पहुंच गई, उसे पता ही नहीं चला. रोज ऐसा ही होता है. न चाहते हुए भी अतीत के रास्तों में भटकती रहती. औफिस में कदम रखते ही हड़बड़ाता हुआ कबीर उस के पास आया, ‘‘मैडम, आज सुबह से बहुतोें की क्लास लग चुकी है…अब आप की बारी है.’’

उस ने पर्स मेज पर रखा और मेजर आनंद के कैबिन की तरफ बढ़ गई.

‘‘मे आई कम इन सर?’’

‘‘यस, प्लीज.’’

‘‘सर आप ने बुलाया?’’

‘‘बैठो, दीवान एसोसिएशन की पेमैंट का चैक अभी तक नहीं पहुंचा और स्टौक में दालों का स्टौक लगभग खत्म है.’’

‘‘सौरी सर, आज सब हो जाएगा,’’ उस ने धीरे से कहा.

‘‘खैर, कोई बात नहीं. अब देख लेना. और कुछ सोचा जो हम ने कहा था?’’ कह मेजर थोड़ा आंखों ही आंखों में मुसकरा दिए.

उस से जवाब देते न बना.

‘‘मैं बता दूंगी सर,’’ कह कर वह अपने कैबिन में आ कर काम निबटाने लगी. स्टोर का सामान शौर्टलिस्ट करने लगी तो देखा दालों के अलावा भी काफी सामान खत्म था.

काम निबटातेनिबटाते लंच टाइम हो गया. आज वह लंच नहीं लाई थी. अत: स्टोर के ही एक हिस्से में बने कैफे में चली गई. कौफी के साथ ब्रैडरोल खाते हुए खयाल मेजर आनंद की तरफ चला गया.. वही मालिक थे स्टोर के. स्टोर के साथ ही एक इंस्टिट्यूट था, जिस में कई तरह के कोर्स कराए जाते थे. जो लोग फीस नहीं दे सकते थे उन्हें मुफ्त ट्रेनिंग दी जाती थी और जो फीस दे सकते थे उन्हें बताया जाता था कि उन के पैसों का सदुपयोग कहां किया जाता है. इंस्टिट्यूट सरकार से मान्यताप्राप्त था. अत: काफी चलता था. इस के अलावा मेजर ट्रेड फेयर के द्वारा स्थानीय किसानों और विभिन्न प्रकार के कारीगरों व कलाकारों को भी बढ़ावा देते थे. इस के अलावा वे कई तरह के सामाजिक कार्यों में भी लगे हुए थे. लोग उन की बहुत इज्जत करते थे. सुनने में आया था कि उन की बीवी और बच्चे एक ऐक्सीडैंट में मारे गए थे. तब मेजर ने काफी कम उम्र में ही आर्मी से रिटायरमैंट ले लिया था और अपनी पुश्तैनी प्रौपर्टी जो करोड़ों की थी, को बेच कर उस पैसे को भलाई के कामों में लगा दिया था.

वह जब यहां नौकरी करने आई थी तो उसे लगा था ज्यादा दिन नहीं टिक पाएगी.

आर्मी के लोग बहुत कायदाकानून पसंद होते हैं. मेजर थे भी ऐसे ही. काम में लापरवाही उन्हें पसंद नहीं थी. मगर धीरेधीरे उस के लिए काफी कुछ आसान होता गया था.

बड़ी बात यह थी कि उसे यह महसूस हुआ था कि वह यहां सिर्फ नौकरी नहीं कर रही, बल्कि किसी अच्छे नेक मकसद में हिस्सेदार भी है. उसे मेजर आनंद की बात याद आई. वे उसे शहर से कुछ दूर होने वाले ट्रेडफेयर में ले जाना चाहते थे, जहां से 2 दिन से पहले नहीं लौटा जा सकता था. ऐसा नहीं कि वह पहले फेयर में मेजर और उन की टीम के साथ न गई हो, पर यों

2-3 दिन रुकने के लिए बिलकुल तैयार नहीं थी.

ऐसे सवालों के जवाब उस के पास हमेशा न में ही होते थे. मगर जाने क्यों अब सीधा सा जवाब नहीं दे पा रही थी. इतने सालों बाद उसे भी शायद ब्रेक चाहिए था. कौफी खत्म कर के वह सीधा मेजर आनंद के कैबिन में पहुंची और फिर पूछा, ‘‘कब चलेंगे सर?’’

मेजर मुसकरा दिए फिर कहा, ‘‘इस पूरे महीने में जब तुम्हें सुविधा लगे.’’

वह वापस आ कर काम करने लगी. शाम को घर लौटी. रूटीन कामों से फारिग हो कर वार्डरोब खोल कर देखने लगी. इतने सालों में पसंदनापसंद कहीं खो गई थी. कभी फैशन डिजाइनिंग का कोर्स किया था, सोच कर हंसी आती…पर कुछ अच्छा नया खरीदती भी कैसे…जब मन ही खुश नहीं रहता तो तन की खुशी कहां से आती. वह बैड पर लेट गई. मन फिर अतीत में भटकने लगा…

आगे पढ़ें-  कितनी मुश्किल के साथ वसंत से उस की शादी हुई थी. जमीनआसमान…

दूसरी मुसकान: भाग-5

मेजर आनंद ने वापस कैंप में फोन किया. मगर वहां से भी नाउम्मीदी ही हाथ लगी. कार्यकर्ता अहमद ने बताया कि यहां जोर की बारिश और आंधीतूफान है…पहाड़ी नाला सड़क पर बहने लगा है, इसलिए कोई उन की मदद को नहीं आ सकता.

‘‘अब क्या होगा?’’ उस ने घबरा कर मेजर की तरफ देखा.

‘‘सिवा इंतजार के कोई रास्ता नहीं. आप तो काफी भीग गई हैं…पीछे बैग में कुछ ड्रैसेज रखी हैं, उन में से ही कुछ पहन लो. यों भीगे कपड़ों में रात भर रहीं तो बीमारी पड़ जाओगी,’’ कह मेजर गाड़ी से बाहर निकल गए.

उस ने देखा बैग में ट्रेड फेयर में बिकने वाले कपड़े रखे थे. कपड़े पारंपरिक थे. छींट का लहंगाचोली थी. उसे संकोच हुआ, मगर भीगे कपड़ों से छुटकारा पाने का यही तरीका था. उस ने गाड़ी की लाइट औफ की और कपड़े बदल लिए. बालों को भी खोल कर कपड़े से पोंछ लिया. अब काफी सुकून महसूस कर रही थी.

मेजर गाड़ी में आ कर बैठ गए. उन्होंने एक गहरी नजर से उसे देखा और फिर हलके से मुसकरा दिए. जाने क्या था उन नजरों में कि वह अपनेआप में सिमट गई. मेजर ने सीट ऐडजस्ट कर दी. वह पीछे की सीट में खुद को समेट कर लेट गई. रात यों ही गुजरने लगी. बारिश रुकरुक कर हो रही थी.

सुबह के 6 बजने वाले होंगे कि मैकैनिक बाइक में अपने साथी कारीगर के साथ वहां पहुंच गया. उसे रात में कब नींद लगी और मेजर कब से मदद के लिए फोन मिला रहे थे, उसे पता ही नहीं चला. मेजर ने उसे धीरे से हिलाया तो वह अचकचा कर उठ बैठी.

‘‘आओ, तुम्हें छोड़ दूं,’’ मेजर ने पहली बार उस के लिए आप की जगह तुम का प्रयोग किया था.

वह अपना लहंगा संभालती हुई गाड़ी से बाहर आ गई. मौसम में गजब की ठंडक थी. उस ने चुन्नी कस के बदन से लपेट ली.

‘‘सर, कच्चे रास्ते से जाइएगा, पक्का रास्ता तो जाम है,’’ मैकैनिक ने कहा. उन्होंने बिना कुछ बोले बाइक स्टार्ट की. वह चुपचाप उन के पीछे बैठ गई. रास्ता काफी उबड़खाबड़ था. वह गिरने ही वाली थी कि उस ने मेजर को पकड़ लिया.

सुबह का धुलाधुला मौसम, ठंडी हवा, आसपास का हराभरा नजारा, जाने क्या था कि उस पर रोमानियत छाने लगी. पहली बार उस को लगा कि यह रास्ता कभी खत्म न हो.

रास्ता एक अजीब सी खुमारी में खामोशी से कट गया. घर पास आतेआते वह संभल कर बैठ गई. मेजर ने घर के सामने बाइक रोकी. वह लहंगे को संभालते हुए उतर गई.

‘‘आइए, चाय पी कर जाइएगा,’’ वह शर्मिंदगी से बमुश्किल बोल पाई.

मेजर मुसकराए और फिर बाइक मोड़ कर बिना कुछ कहे चले गए. वह भाग कर घर में घुसी. डोरबैल बजाई, सामने विलियम खड़ी थी. उसे ऐसी ड्रैस में देख कर सुखद आश्चर्य में भर गई.

चाय पीतेपीते उस ने विलियम को सारा हाल कह सुनाया. वह हंस पड़ी. सर्दी से उसे बुखार चढ़ गया था. उस के जेहन से मेजर आनंद उतर ही नहीं रहे थे. उसे लगा एक खुली हवा का झोंका उस के अंदर की घुटन को बाहर निकाल रहा है और वह सालों बाद सांस ले रही है.

उधर मेजर आनंद बुखार में तप रहे थे. सारी रात गीले कपड़ों की वजह से अंदर जबरदस्त सर्दी बैठ गई थी. उस ने न आने के लिए अपनी साथी जमुना को फोन किया, तो उसे मेजर साहब की बीमारी के बारे में पता चला.

जमुना ने चुटकी ली, ‘‘दोनों एकसाथ बीमार…और सारी रात…क्या बात है.’’

वह भी हंस पड़ी थी. उसे सुकून की नींद आई थी.

सुकून भरी नींद की मिठास सालों बाद उस के हिस्से में आई थी. खुद को काफी हलका महसूस कर रही थी. अजीब सी खुमारी छाई हुई थी. उसे लगा मेजर साहब की तबीयत के बारे में उसे पूछना चाहिए. उन की यह हालत उस की वजह से ही तो हुई थी…न उसे छोड़ने आते न वह उन पर शक करती और न वे भीगते. अत: उस ने नंबर मिला दिया.

‘‘हैलो,’’ उधर से मेजर की उन्नींदी सी आवाज आई.

‘‘हैलो सर,’’ मैं शुमी.

‘‘हां, कहो शुमी क्या बात है?’’

‘‘जी आप कैसे हैं?’’

‘‘ठीक हूं,’’ छोटे से जवाब के साथ खामोशी छाई रही. उसे भी कुछ नहीं सूझा.

‘‘शुभी ठीक है? शायद पहली बार वह तुम्हारे बिना रही होगी.’’

वह हैरान थी कि मेजर साहब को उस की बेटी का नाम पता है. अरे, वे उस की बच्ची के बारे में पूछ रहे थे, जिस की सुध उस के अपने पिता ने भी कभी नहीं ली थी.

वह अंदर तक सुकून से भर गई. थोड़ी देर बाद उस ने हेमा दी को फोन किया और सालों बाद देर तक सुकून के साथ बातें कीं.

2 दिन तक वह छुट्टी पर रही थी. काम फिर शुरू हो गया था. अब वह पहले से ज्यादा उत्साह के साथ मेजर का दिया काम करने लगी थी. उन के हर काम का महत्त्व उसे समझ आने लगा था. धीरेधीरे वह काफी कुछ सीख गई और आश्चर्यचकित थी कि अगर हम अपनी सोच का दायरा फैलाएं और कुछ करने की ठान लें, तो दुनिया का अलग ही रंग नजर आता है.

वह मेजर साहब की दिल से इज्जत करने लगी थी. वे अपने दुखों से ऊपर उठ कर किस तरह दूसरों को सुख पहुंचाने की कोशिश करते थे… खुद को अकेला नहीं छोड़ा था उन्होंने… कितने लोग जुड़े हुए थे उन के साथ और एक वह थी. सालों तक खुद को ही बंद कर के बैठी हुई थी.

मेजर उसे जिस ट्रेड फेयर में जाने को कह रहे थे वह अब तक का सब से बड़ा ट्रेड फेयर था और मेजर के लिए महत्त्वपूर्ण भी था. उन्होेंने अपनी टीम के साथ मिल कर उस के लिए बहुत मेहनत की थी. लेकिन वह शहर से काफी दूर था, जहां से उसी दिन वापस नहीं आया जा सकता था. शुभी को कहां रखे? वह विलियम से कैसे कहे कि वह मेजर आनंद के साथ अकेली जा रही है और वह उस की बच्ची को रखे.

दूसरे दिन सुबह उठी तो खुद आश्चर्य से भर गई. हेमा दी सामने थीं. वह दीदी से लिपट गई.

‘‘अचानक कैसे दी? कोई फोन नहीं, खबर नहीं.’’

‘‘तुम से मिलने का बड़ा मन था,’’ हेमा दी ने प्यार से निहारा जैसे पहली बार देख रही हों. वे उसे ऐसे छू रही थीं जैसे मां अपने बच्चे को छूती है… वे उस की मां ही तो थीं. उस के हर दुखसुख में वे और रमन जीजाजी साथ खड़े रहे थे. वह देर तक दी से बातें करती रही.

‘‘कुछ बताना भूल तो नहीं रही?’’ दी ने प्यार से पूछा.

‘‘क्या?’’ वह हंस पड़ी.

‘‘मेजर आनंद…’’ दी ने कहा.

वह खामोशी से दी को देखने लगी. दी ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘जिंदगी ने तुझे एक मौका और दिया है. हाथ से जाने मत देना.’’

वह हैरान थी कि दी इतना कुछ कैसे जानती हैं?

हेमा दी ने मेजर आनंद को फोन कर के लंच पर बुला लिया और फिर दोनों ने मिल कर खूब चाव से अच्छेअच्छे व्यंजन बनाए.

मेजर आए तो वह उन के सामने बैठने से भी शरमा रही थी. हेमा दी मेजर आनंद से प्रभावित हुई थीं. दी ने काफी देर उन से बातें कीं. वे शुभी से भी घुलमिल गए थे. मेजर आनंद का शुभी से लगाव उसे अंदर तक भिगो गया. शुभी उन्हें अपनी बनाई ड्राइंग दिखा रही थी.

हेमा दी 3 दिन उस के पास रुकी और उन्होंने अपनी रजामंदी से उसे मेजर आनंद के साथ ट्रेड फेयर में भेज दिया. काफी शानदार मेला था. मेजर आनंद और उन की टीम की मेहनत नजर आ रही थी. उसे वहां काफी कुछ देखनेसमझने को मिला. रहने की व्यवस्था मेले के पास ही गैस्ट हाउस में की गई थी.

‘‘अपनी जिंदगी मेरे साथ बिताना पसंद करोगी?’’ चाय पीते हुए मेजर साहब ने उस से पूछा.

वह काफी देर खामोश रही. शुभी के बारे में काफी कुछ कहना चाहती थी, मगर कहां से शुरू करे समझ नहीं पा रही थी.

‘‘शुभी को मैं अपनी बेटी मान चुका हूं… बाकी मैं बोलने में नहीं करने में यकीन रखता हूं.’’

बिना कुछ कहे, बिना पूछे तसल्ली हो गई थी. ट्रेड फेयर से लौटते ही उस ने अपना फैसला दी को सुना दिया. सुन कर वे बहुत खुश हुईं और विलियम की आंखों में भी उस ने वह तसल्ली महसूस करी थी, जो वसंत के वक्त नहीं थी. उम्र के तजरबे और फर्क को वह अब महसूस कर पाई थी.

हेमा दी के जाते ही रमन जीजा आ गए. मेजर आनंद से मिले. सब बातें उन्होंने खोल कर सामने रखीं. दोनों तरफ से तसल्ली होने पर शादी तय हो गई.

हेमा दी ने काफी सामान पहले ही खरीद रखा था. बाकी तैयारी उस के और विलियम के साथ मिल कर कर ली. विलियम ने सारी तैयारी में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया.

शादी साधारण तरीके से कोर्ट में संपन्न हुई. मेजर आनंद ने कुछ खासखास लोगों को ही शादी में शामिल किया. हेमा दी ने भी कुछ करीबी लोगों को ही बुलाया था. वह एक बार फिर शादी के बंधन में बंध गई.

हेमा दी ने उसे अपने हाथों से बड़े प्यार से सजाया और फूलों से महकते कमरे में पहुंचा दिया.

मेजर आनंद कमरे में आए तो उस का दिल जोरजोर से धड़कने लगा. उन्होंने धीरे से उस का हाथ अपने हाथ में ले कर हौले से दबाया और फिर झुक कर उस के माथे को चूम लिया. न जाने कितने सितारे उस के अंदर चमकने लगे, सैकड़ों फूल उस के दामन में खिल उठे.

‘‘जिंदगी भर मेरी दोस्त बन कर रहना, क्योंकि दोस्त से प्यार ज्यादा होता है. वैसे डर तो नहीं लग रहा?’’ मेजर आनंद ने उस के कान में शरारत से कहा, तो वह शर्म से उन की बांहों में पिघलने लगी. उसे महसूस हुआ चारों तरफ जुगनू चमकने लगे हैं और वह उन्हें मुट्ठी में भर रही है.

दूसरी मुसकान: भाग-4

उस ने खुद को उस वक्त बहुत छोटा महसूस किया था. बिखर गई थी वह…प्यार में छला हुआ आदमी कहीं का नहीं रहता…उस के आंसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

हेमा दी और रमन जीजा देर तक उसे समझाते रहे थे कि वसंत किसी भी मामले में खरा नहीं उतरा और अब भी बच्चे की आड़ में वह सिर्फ अपना मतलब ही निकाल रहा है.

मगर वह सोच रही थी कि अब पैसे वसंत के हाथों में नहीं देगी…जो करेगी खुद करेगी…खर्चा कैसे चलेगा…वसंत के पास कुछ था नहीं. बैंक में  8-9 महीने का खर्चा ही बचा था. फिर कैसे होगा सब…एक बार वह बस जिंदगी की गाड़ी को पटरी पर लाना चाहती थी और उस के लिए उसे पैसे की सख्त जरूरत थी.

हेमा दी और रमन जीजा जानते थे कि उस की उम्र और अक्ल इतनी नहीं है कि वसंत की चालाकियों से बच सके. बड़ी मुश्किल से ही नतीजा निकला था. रमन जीजा ने मकान की कीमत लगवा कर उसे उस के हिस्से का पैसा दे दिया था और कुछ पैसा शुभी के नाम फिक्स कर दिया था, जिस का जिक्र उन्होंने वसंत के आगे करने से मना किया था. वे दोनों आखिर तक उसे वसंत की चालों से बचाना चाह रहे थे.

मगर वसंत की चालाकियों के आगे तीनों मुंह ही ताकते रह गए थे. चंद महीने के अंदर ही वसंत ने उस का सारा पैसा साफ कर दिया और फिर वही रवैया शुरू हो गया. अब वसंत पहले से ज्यादा घर से बाहर रहता और महीने 2 महीने में ही घर आता. जिस बच्ची के भविष्य की चिंता दिखा कर उस ने सारा पैसा समेट लिया था अब उस की तरफ देखता भी नहीं था.

वह घर और बच्ची की जिम्मेदारी के साथ फिर अकेली खड़ी थी. दोनों के रिश्ते कड़वाहट से भरने लगे थे. कुछ था, जो उसे साफसाफ न सही, मगर नजर आ रहा था. उस का सामाजिक जीवन पूरी तरह खत्म हो चुका था. शुभी के स्कूल दाखिले के वक्त उसे खासी परेशानी उठानी पड़ी. धीरेधीरे उस का धीरज जवाब दे गया. वह पहली बार रमन जीजा के सामने बिखर गई, ‘‘मुझे मुक्ति दिला दीजिए…शायद तभी मुझे सांस आएगी.’’

रमन जीजा ने पुलिस में रिपोर्ट लिखवा दी. पहली बार बिना उस की सलाह के उन्होंने अपनी पहुंच का इस्तेमाल कर के वसंत की खोजखबर निकलवाने की कोशिश करी. जब सच सामने आया तो वह कई दिनों तक अस्पताल के बिस्तर पर रही.

वसंत पहले से शादीशुदा था. वह अपनी पहली पत्नी और बच्चों के प्रति भी कोई जिम्मेदारी नहीं उठाता था. उन की देखभाल वसंत के मातापिता ही करते थे, क्योंकि वसंत एक आवारा किस्म का इनसान था.

इतना सब होने के बाद अब उस का रिश्ता वसंत के साथ बेनाम और बेअसर हो चुका था. हेमा दी उसे और शुभी को अस्पताल से ही अपने घर ले गईं, घर में उन्होंने ताला लगा दिया था. वह तो जैसे पत्थर ही हो गई थी. हेमा दी और रमन जीजा उस का गम समझते थे. वक्त हर जख्म का मरहम होता है. मगर एक अच्छाखासा वक्त लगा था उसे अपनी सोचसमझ वापस लाने में. आखिरकार वह वसंत से अलग हो गई. उस वसंत से जो खून बन कर उस की रगों में दौड़ता था. कागज के एक टुकड़े पर साइन करते वक्त उसे ऐसा लगा था कि क्यों नहीं उस के प्राण शरीर को छोड़ देते…उस दिन वह बिलखबिलख कर रोई थी.

पूरा साल उस ने हेमा दी के पास गुजारा था. उस की हालत ऐसी नहीं थी कि वह वापस आती खाली मकान में. आने के नाम से ही उस को घबराहट होने लगती. पहले उसे वसंत का इंतजार रहता था और आने की उम्मीद अब किस का इंतजार करेगी? फिर पासपड़ोस के उन लोगों का कैसे सामना करेगी, जो हमदर्दी जताने के बहाने जख्म कुरेद जाते हैं.

हेमा दी चाहती थीं की वह उस मकान को बेच कर यहीं आ कर रहे और दोबारा अपनी जिंदगी शुरू करे. रमन जीजा तो उस के लिए रिश्ते खोजने की कोशिश में थे. बस उन्हें उस की हां का इंतजार था. वसंत की तमाम यादों से जुड़े मकान को बेचना उस की मजबूरी हो गई थी, मगर वह वापस अलवर भी आना नहीं चाहती थी. रिश्तेनातेदारों से भरा शहर, हेमा दी का सुखीसंपन्न परिवार और ससुराल उसे उस का खाली होने का ज्यादा एहसास करवाते. वह भाग जाना चाहती थी वहां से.

विलियम की टच में वह हमेशा थी. उस ने जिद कर उन के पड़ोस में ही एक छोटा मकान खरीद लिया और चली आई उसी में. एक बार फिर सब को नाराज कर के.

जिंदगी फिर शुरू हो चुकी थी, मगर इतना आसान नहीं था. वसंत था कि उस के दिलोदिमाग से निकलता नहीं था. हेमा दी कितनी बार उसे ले जाने आ चुकी थीं. उन्हें उस की खाली जिंदगी खौफ देती थी, खुद उसे भी. मगर उस के अंदर से यकीन जैसे खत्म हो चुका था.

फिर अचानक जिंदगी में नया मोड़ आया और उस मोड़ ने मेजर आनंद से मिलवा दिया. जब से उन से मिली थी, जिंदगी में हलचल होने लगी थी… ठहरे पानी पर जमी काई उखड़ने लगी थी. वह कहीं कुछ महसूस करने लगी थी… वे जज्बात जो दर्द की तह में सो चुके थे, अब फिर जागने लगे थे…बिना इजाजत कोई दिल के दरवाजे पर दस्तक देने लगा था.

मेजर आनंद की आदतें उसे रमन जीजा की याद दिलाती थीं. हेमा दी कितनी खुश थीं उन के साथ. शुरूशुरू में उसे कितनी परेशानी हुई थी काम करने में…इतना सारा काम, स्टोर की देखभाल, सैकड़ों आइटम्स देखना कि कुछ खत्म न हो, ऊपर से इंस्टिट्यूट का काम, ट्रेड फेयर की व्यवस्था और न जाने कहांकहां से काम निकल आता था…उस के लिए काफी मुश्किल था सब कुछ, मगर मेजर साहब की वजह से धीरेधीरे सब आसान होने लगा था. वह धीरेधीरे मेजर आनंद की तरफ खिंचती चली जा रही थी.

उसे जौब करते अभी कुछ ही महीने हुए थे. चंपारन में एक बड़ा ट्रेड फेयर लगाया जा रहा था. मेजर साहब ने स्थानीय और बाहर के काफी हस्तशिल्पियों की उस में शिरकत करवाई थी. स्थानीय किसान जो ऐक्सपर्ट्स के अंडर रह कर जड़ीबूटियों की खेती कर रहे थे वे उन के इस प्रयास से काफी खुश और उत्साहित नजर आ रहे थे.

औफिस के स्टाफ से कुछ लोग और उन के सामाजिक कार्यकर्ता वहीं मेले में ही रहे थे. मगर उसे शुभी के स्कूल की वजह से डेली अपडाउन करना पड़ रहा था.

1 हफ्ते से मेला काफी अच्छा चल रहा था. सभी में उत्साह था, मगर उस दिन अचानक तेज आंधीतूफान से बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई. सब कुछ समेटवाते हुए वह काफी लेट हो गई थी.

वह शुभी को ले कर परेशान हो गई थी. भले ही विलियम उस के पास थी, मगर शुभी को रात में उस ने कभी अकेला नहीं छोड़ा था. मेजर आनंद ने खुद उसे गाड़ी से छोड़ने को कहा. देर रात सवारी मिलना, वह भी इस मौसम में मुश्किल था. वह तैयार हो गई. मगर बीच रास्ते में ही गाड़ी खराब हो गई.

वह घबरा गई. तरहतरह के गंदे खयाल उस के दिमाग में आने लगे. मेजर आनंद ने बोनट खोल कर देखा, मगर कुछ समझ न आने की वजह से वे फोन उठा कर किसी को फोन करने लगे. जाने उसे क्या हुआ, उस ने मेजर के हाथ से फोन छीन लिया. मेजर आश्चर्य से उस की तरफ देखने लगे.

‘‘आप किसी को भी फोन नहीं करेंगे,’’ उस ने सख्ती से कहा.

‘‘मगर क्यों? मैकैनिक को फोन कर रहा हूं. गाड़ी ठीक नहीं हुई तो जाएंगे कैसे?’’

‘‘हुआ क्या?’’ मेजर हैरान थे.

‘‘पहले मैं फोन करूंगी,’’ कह वह तुरंत विलियम को फोन करने लगी.

मेजर दोनों हाथ जेब में डाल कर किनारे खड़े हो कर उसे ध्यान से देखने लगे.

उस ने पहली बार उन नजरों की ताब को महसूस किया था. वह गाड़ी में जा बैठी. मेजर पेड़ के सहारे खड़े रहे. उन्होंने उसे कुछ कहने या समझाने की कोशिश नहीं की. उसे मेजर के रवैए पर गुस्सा आ रहा था. वह मन ही मन एक अनजाने भय से घिरी बैठी थी. करीब 1 घंटे से ऊपर बीत चुका था और मेजर यों ही बाहर एक पेड़ के सहारे खड़े थे. सुनसान रास्ता, रात का वक्त उस पर बारिश फिर होने लगी थी. मेजर भीगने लगे थे. वह कुछ देर तक देखती रही. आखिर उसे लगा वह बेवजह के वहम में गिरफ्तार है. अत: गाड़ी से बाहर आई, तो ठंड और बारिश से सिहर उठी.

‘‘अंदर चलिए,’’ उस ने कहा.

‘‘क्यों?’’ मेजर ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘आप भी भीग रहे हैं और मैं भी… अब चलिए भी,’’ उस ने खीजते हुए कहा.

‘‘अब डर नहीं लग रहा मुझ से?’’ और फिर मेजर गाड़ी में आ कर बैठ गए. उन्होंने नंबर मिलाया तो दूसरी तरफ से जो कहा गया उसे सुन मेजर के मुंह से निकला, ‘‘ओह नो.’’

‘‘क्या हुआ?’’ उस ने पूछा.

‘‘भूस्खलन से रास्ते बंद हो गए हैं. कोई मैकैनिक इस वक्त नहीं आ सकता. अब सारी रात गाड़ी में ही बितानी होगी.’’

‘‘क्या?’’ उस के हाथपैर ठंडे होने लगे. गाड़ी से बाहर निकलने से मेजर के साथसाथ वह भी भीग गई थी. यों सारी रात भीगे बदन गाड़ी में बैठना कैसे हो पाएगा? इस सोच से ही वह कांपने लगी थी.

आगे पढ़ें- मेजर आनंद ने वापस कैंप में फोन किया. मगर…

दूसरी मुसकान: भाग-3

पूर्व कथा:

पढ़ाई के दौरान शुमी की मुलाकात वसंत से हुई और फिर दोनों में प्यार हो गया. शुमी वसंत से शादी करना चाहती थी, मगर वह टालमटोल कर रहा था. आखिरकार वसंत के घर वालों की रजामंदी के बगैर दोनों ने शादी कर ली. शुमी एक बच्ची की मां बन चुकी थी. अब वसंत ने अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया. जब शुमी को पता चला कि वसंत पहले से शादीशुदा है, तो वह उस से अलग हो गई.

अब आगे पढ़ें:

 

कितनी मुश्किल के साथ वसंत से उस की शादी हुई थी. जमीनआसमान एक करना शायद इसी को कहते हैं, जो उस ने किया था… बड़ी साधारण सी शादी हुई थी. शादी में वसंत की तरफ से 2-3 लोग ही शामिल हुए थे. सब को बड़ा अटपटा सा लग रहा था. हेमा दी और रमन जीजा के चेहरे बड़े बुझेबुझे से थे. मगर वह खुश थी कि जिसे चाहा वह मिल गया. रमन जीजाजी ने उसी शहर में उस के नाम पर एक मकान खरीद दिया था और फिर हेमा दी ने घरगृहस्थी का सारा सामान खरीद कर घर सजा दिया था. इस के अलावा काफी पैसा भी उस के अकाउंट में डाल दिया था. मगर वसंत नाराज था. उस ने दी और जीजाजी को तो कुछ नहीं कहा, मगर उस के आगे अपनी सारी भड़ास निकाल दी.

वसंत के कहे मुताबिक उस की दी और जीजा को उस पर यकीन नहीं था. तभी सारा पैसा मकान और सामान पर लगा दिया. वह शादी के दूसरे दिन वसंत के ये तेवर देख कर दंग थी. हेमा दी ने अपनी तरफ से उन का हनीमून प्लान किया. ऊटी के एक होटल में उन की बुकिंग करवा दी. मगर वसंत गुस्से में नहीं गया.

‘‘अब हम अपना हनीमून भी तुम्हारी बहन की मरजी से मनाएंगे?’’

‘‘तुम कहीं और ले चलो,’’ उस ने मनुहार की थी.

‘‘देखेंगे,’’ कह वसंत टालता रहा और फिर हनीमून बस एक सपना ही बन कर रह गया. करीब 1 महीने बाद काम का वास्ता दे कर वसंत ने उस से क्व2 लाख निकलवाए. उस ने गौर किया था कि वसंत को शादी का कोई क्रेज नहीं था, न ही उस की तरफ कोई खास ध्यान. वसंत को अपनी नईनवेली दुलहन का कतई ध्यान नहीं था. वह उदास रहने लगी थी.

वसंत मुंह से कोई लड़ाईझगड़ा नहीं करता था, लेकिन उस का ठंडा रवैया उसे अंदर ही अंदर खाने लगा था.

वसंत कितनेकितने दिन घर से बाहर रहता. जिस दिन लौटने की कह कर जाता उस दिन कभी न आता. वह किसी अनजाने डर से घिरी रातरात भर जागती रहती. उसे कुछ पता नहीं रहता कि वसंत कहां है और क्या कर रहा है. उस ने कितनी बार उस से कहा कि घर में एक फोन लगवा लो, मगर वह एक कान से सुनता और दूसरे से निकाल देता.

हेमा दी ने उसे एक मोबाइल खरीद कर दे दिया और कहा था कि कम से कम टच में तो रहोगी. कभी रातबिरात कोई परेशानी भी हो सकती है… अकेली किस का दरवाजा खटखटाएगी. हेमा दी से तो उस की बात रोज ही हो जाती, मगर वसंत से बात कभीकभार ही होती या तो उस का फोन बंद होता या वह फोन काट देता. रात को तो उस का फोन अकसर स्विच औफ होता. वह हैरान थी.

घर में राशन है या नहीं वसंत को इस से कोई मतलब नहीं था. वह जब भी घर के खर्च या जरूरत के सामान की बात करती वह खामोशी इख्तियार कर लेता. उस की यह बेजारी उसे अंदर तक तोड़ जाती. थकहार कर वह बैंक जा कर पैसा निकाल कर बेमन से घर के सारे इंतजाम करती. वसंत को ले कर उस ने जो सपने देखे थे, वे सपने ही रह गए. उस के प्यार से बेजार एक बेल की तरह वह सूखती जा रही थी.

अब उसे एहसास होने लगा था कि रमन जीजाजी ने सारा पैसा नक्द न दे कर उसे मकान और सामान खरीद कर क्यों दिया था. शादी को साल भर से ऊपर हो गया था. वसंत पिछले 20 दिन से घर से बाहर था. बेदिली से काम निबटा कर वह बालकनी में आ कर खड़ी हो गई.

‘‘कैसी हो’’ आवाज की दिशा में उस ने मुड़ कर देखा, तो निर्मला खड़ी मुसकरा रही थी.

‘‘मैं ठीक हूं, आप सुनाइए?’’ उस ने बेदिली से मुसकरा कर कहा.

‘‘बस ठीक हूं और तुम सुनाओ वसंत भैया आ गए क्या?’’

‘‘नहीं, अभी कुछ वक्त और लगेगा,’’ उस ने खीज कर जवाब दिया. अब वह चिढ़ने लगी थी, ऐसे सवालों से.

‘‘अरे, पर कल ही तो इन्होंने उन्हें ईजी स्टोर में देखा. आवाज भी लगाई, मगर वे शायद जल्दी में थे,’’ निर्मला अजीब तरह से मुसकराते हुए बता रही थी.

वह हैरान थी कि वसंत इसी शहर में है और उसे पता भी नहीं. उस ने गुस्से में तमतमा कर वसंत को फोन लगाया. फोन पर ही उस का झगड़ा हो गया. वह देर तक रोती रही. उस ने हेमा दी को फोन पर वसंत की सारी हरकतें बता दीं, जिन पर वह अब तक परदा डालती आ रही थी. वसंत दूसरे ही दिन घर आ गया और जिंदगी यों ही लड़खड़ाते हुए गुजरने लगी.

बेजारी के उस आलम में एक दिन उसे एहसास हुआ कि वह मां बनने  वाली है. वह खुशी से पागल हो गई. मगर यह सुन कर वसंत गुस्से से बोला, ‘‘दिमाग खराब है… तुम्हें संभालना ही मुश्किल है ऊपर से बच्चा… बिलकुल नहीं.’’

‘‘यह क्या कह रहे हो?’’ वह अविश्वास से चीख उठी. फिर वही झगड़ा, रोनाधोना. जिस खबर से घर में उल्लास का माहौल होना चाहिए था उस बात से जबरदस्त क्लेश हो रहा था. वसंत किसी भी तरह इस बच्चे को नहीं चाहता था और वह इस अजन्मे बच्चे को मारना नहीं चाहती थी. एक अजीब सा तनाव पूरे घर में पसर गया.

फिर अचानक वसंत ने अपना विरोध खत्म कर दिया और उस की देखभाल करने लगा. उसे आश्चर्य हुआ कि मरुस्थल में अचानक फूल कैसे खिल उठे. वह उस का नकारात्मक रवैया देखने की अभ्यस्थ हो चुकी थी. मगर अच्छे परिवर्तन हमेशा सुखद लगते हैं. कुल मिला कर गर्भावस्था के 9 महीने कठिन होने के बावजूद अच्छे गुजरे. बच्चे के जन्म से पहले ही उस ने घर को बच्चे की जरूरत के सामान से सजा दिया. वसंत की मुहब्बत बूंदबूंद कर फिर उस के अंतर में उतरने लगी थी. वह खुश थी और इंतजार में थी उस नन्हे मेहमान के, जिस के आने से उस की झोली खुशियों से भर गई थी. उस का वसंत उसे वापस मिल गया था.

वह एक प्यारी सी बच्ची की मां बन गई थी. वसंत ने अच्छे अस्पताल में उस की डिलिवरी करवाई थी. बच्ची को गोद में लेते ही वह रो पड़ी थी. मां बनना भी कितना सुखद अनुभव है, जिसे बिना मां बने समझा नहीं जा सकता.

हेमा दी और रमन जीजाजी दोनों ही आए थे. ढेर सारे तोहफों से उन्होंने घर भर दिया था. वसंत ने नामकरण का फंक्शन बहुत अच्छी तरह किया था. उस के अच्छे इंतजाम की सब ने तारीफ की थी. बच्ची का नाम रखा गया शुभी.

उस दिन फिर वसंत को बिजनैस की वजह से बाहर जाना था. बच्ची को गोद में ले कर वह प्यार से निहार रहा था. उस ने उस के कंधे पर हाथ रखा, ‘‘क्या देख रहे हो?’’

‘‘शुमी हमारी बच्ची शहर के सब से बड़े स्कूल में पढ़ेगी और इस की परवरिश राजकुमारियों की तरह होगी…तुम देखना मैं अपनी बच्ची के लिए क्याक्या करता हूं. अब मुझ से बाहर भी नहीं रहा जाता. मैं अपना काम अब इसी शहर में करूंगा ताकि तुम दोनों के साथ रह सकूं.’’

वह खिल उठी थी कि कहां समेटेगी इतनी खुशियां. इधर कुछ दिनों से वसंत परेशान रहने लगा था. वह पूछती तो हंस कर टाल जाता. मगर एक दिन वह फूटफूट कर रो पड़ा. उस का दिल बैठने लगा. वह वसंत का सिर गोद में रख कर खुद भी रो पड़ी.

‘‘कुछ बताओ भी?’’ उस ने पूछा.

‘‘मेरे पार्टनर ने धोखे से सब कुछ अपने नाम करवा लिया… गलती मेरी ही थी, जो वक्त रहते अपने बिजनैस को ले कर सीरियस नहीं हुआ… सब कुछ खत्म हो गया,’’ और वसंत फिर फूटफूट कर रो पड़ा.

उस के पैरों तले की जमीन खिसक गई, ‘‘तुम ने पुलिस में रिपोर्ट नहीं की?’’

सब कुछ कर दिया है… मैं उसे इतनी आसानी से छोड़ूंगा नहीं, मगर इन सब कामों में तो बहुत वक्त और पैसा लगेगा, तब तक क्या होगा? मेरे पास तो नया बिजनैस शुरू करने के लिए पैसा भी नहीं है.’’

‘‘सब ठीक हो जाएगा,’’ उस ने कह तो दिया था, मगर कैसे, यह उसे भी अभी पता नहीं था.

वसंत की भागदौड़ और परेशानी वह देख रही थी. वह भी उस के साथ परेशान रहने लगी थी. शादी के इतने अरसे बाद तो एक सुखद बदलाव आया था…वह भी ज्यादा दिन नहीं रहा था. वसंत नया बिजनैस शुरू करना चाहता था. इस के लिए उसे पैसों की दरकार थी. जितने पैसे उस के अकाउंट में थे उन से काम नहीं चल रहा था. वह तंग रहने लगी थी. वसंत को समझाती कि सभी लोग तो लाखों रुपयों से बिजनैस शुरू नहीं करते? फिर तुम कोई नौकरी क्यों नहीं करते? अगर और पैसा चाहिए तो अपने पिता से बात करो.’’

सुनते ही वसंत भड़क गया, ‘‘तुम से शादी न की होती तो सब कुछ था मेरे पास. अब किस मुंह से उन के आगे हाथ फैलाऊं… यह पैसा मुझे अपने लिए तो नहीं चाहिए न….काम होगा तभी तो बच्ची को अच्छे स्कूल में पढ़ाएंगे.’’

‘‘तो मैं भी कहां से लाऊं पैसा? मेरे कौन से मांबाप बैठे हैं,’’ वह भी खीज उठी.

‘‘मांबाप का मकान तो है न…तुम्हारा हिस्सा है उस में…अपनी बहन से कहो तुम्हें तुम्हारा हिस्सा दे दे,’’ वसंत ने कह ही दिया.

यह सुन वह सकते की हालत में थी. एक शब्द नहीं फूटा उस के मुंह से…उस के सोचनेसमझने की शक्ति जैसे खत्म हो गई थी. वह फिर से वहीं लौट आई थी जहां पहले थी. घर का माहौल फिर से बोझल रहने लगा था. फर्क इतना था कि वसंत अब घर से गायब नहीं होता था और अपनी बच्ची को प्यार से रख रहा था.

‘‘देखो शुमी समझने की कोशिश करो. मैं तुम से पैसा कभी नहीं मांगता, अगर मेरे अपने से इंतजाम हो जाता और तब भी नहीं कहता अगर उस मकान में तुम्हारे मातापिता रह रहे होते. मगर वह तो खाली पड़ा है. तुम और हेमा दी ही तो उस की वारिस हो. अब तुम्हें जरूरत है, तो उसे बेच कर अपना हिस्सा ले लो. मैं काम तुम्हारे नाम पर शुरू करूंगा. 1-1 पैसा तुम अपने हाथों से खर्च करना. फिक्र मत करो. तुम्हें तुम्हारा पैसा बढ़ा कर ही वापस करूंगा. अब मैं पैसे की वैल्यू समझ चुका हूं और अपनी बच्ची के लिए अपनी जिंदगी की नई शुरुआत करना चाहता हूं. बस, इस बार मेरा यकीन कर लो.’’

थकहार कर उसे हेमा दी से बात करनी पड़ी. सुनते ही वे फट पड़ीं, ‘‘खबरदार मायका है वह हमारा… मांबाबूजी की अमानत है वह… हमारे बचपन की अनगिनत यादें हैं वहां. वह पैसा मांगता रहता है और तुम निकाल कर देती रहती हो. पिछले दोढाई साल में उस ने तुम्हें कुछ दिया है सिवा परेशानियों के? वह तो बच्चा भी नहीं चाहता था… अब इसी बच्ची की आड़ में मकान हजम करना चाहता है…कब समझोगी तुम? खाली हाथ हो कर सड़क पर आ जाओगी तब आंखें खुलेंगी तुम्हारी…तुम्हें बेटी मानते हैं इसलिए कोई हिसाब नहीं करते न करेंगे…उस मकान में तुम्हारा हिस्सा हमेशा रहेगा, लेकिन किसी बाहर वाले को उसे छूने भी नहीं दूंगी,’’ कहतेकहते हेमा दी रो पड़ी थीं.

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#coronavirus: आइये हम कोरोना थूकते है

लेखक-रंगनाथ द्विवेदी

हमारे देश के व्यंग्य साहित्य में थूकने पर लिखना कोई नया नही है, मुझसे पहले भी इस थूकने जैसे व्यंग्य के विषय पर लोग–“अपना बौद्धिक सत्यानाश कर चुके है, व्यंग्य का यही बौद्धिक सत्यानाश आज मुझे भी थूकने जैसे विषय पर व्यंग्य लिखने को ललचा रहा “. क्योंकि अगर मै इस थूकने पर नही लिखूंगा  तो निश्चित जानिए कि मेरे अंदर का व्यंग्यकार मुझे अगले जन्म में तुम भी इसी तरह “कोरोना थूकोगे ऐसा श्राप देगा”. इसलिए मै अपने दिल पर व्यंग्य रखकर शपथ लेता हूं कि–“मै कोरोना थूकता हूं व्यंग्य की वायरल बिधा जो तबलीगी जमात से उपजी है उन्हें मै अपने स्तर के विद्वान के तौर पर समर्पित करता हूं “.

हमारे इस देश में–“थूकने वाले भी दो कटेगरी के है एक तो सभ्य है, दुसरे असभ्य थूकने वाले है”. अब ये आप पर निर्भर है कि–“आइये हम कोरोना थूकते है” को आप इनमे से किस जमात में रखते है. हर देश और उसके राज्य में “थूकने का अपना एक इतिहास-भूगोल है, वैसे ही हमारे देश में भी थूकने का सबसे ज्यादा जनप्रिय इतिहास भूगोल है”. इसपे हमारे देश के “थूकने वाले अपने आप को थूकने का महापुरुष समझे और अपने थूकने पर गर्व करे”. ऐसा नही की सभी इतना ऐतिहासिक तरीके से थूकते है, कुछ बेचारे थूकने वाले यूँही बेमन से थूक देते है.

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हमारे इस देश में आपको यहां-वहा थूकने में सहायक तमाम खाद्य सामग्री छोटी-छोटी लकड़ी की गुमटी से लेकर दुकान में टंगे मिल जाएंगे इन खाद्य सामग्री को गुटखा कहते है. हमारे देश में अधिकांश थूकने वाले–“खैनी और गुटखा का बड़े चटखारे के साथ इसका वैज्ञानिक आनंद लेते है”. इनमे से कुछ एक राज्य ऐसे है जहाँ के कुछ जमातियो ने तो “आइये हम कोरोना थूकते है” कहकर और थूककर थूकने की आधुनिक व्यंग्य साहित्य का सीना ही 56 इंच का कर दिया. कुछ लोग कयास लगा रहे या कह रहे है कि ये “कोरोना वायरस थूकने वाला व्यंग्य पाकिस्तान के आतंकी व्यंग्यकार ने ईजाद किया है ये उसी की नकल कर कोरोना थूक रहे है.

लेकिन मै आपको यकीन दिलाता हूं कि–“आइये हम कोरोना थूकते है” ये मेरे स्वयं के व्यंग्य लेखन का एक भीषण बौद्धिक एक्सीडेंट है. इतना ही नही इस थूकने को हम “व्यंग्य साहित्य का आधुनिक काल भी कह सकते है “. अतः अभी तलक हम आप सभी ने बीना मतलब के बहुत थूका है, लेकिन प्लीज अब हम और आप अपने इस देश के विरुद्ध ना थूके.

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फंदा: भाग-1

पूरे कमरे में बहता खून और खून से सनी लाशें… मासूम बच्चे, बडे़, सब किसी अपने के ही हाथों अपनी जिंदगी गंवा चुके थे. ऊपर जाने वाली सीढि़यों पर भी खून से सने जूतों के निशान, दीवारों पर, सीढि़यों पर, हर तरफ खून के छींटे. कठोर से कठोर दिल वाले पुलिस वालों ने भी ऊपर जा कर देखा तो घबराहट से उन की भी कंपकंपी छूट गई. ऊपर भी लाशें और मां के ही दुपट्टे से गले में फांसी का फंदा लगा झूलता हसन.

मुंबई में ठाणे के इस मुसलिम बहुल इलाके कासारवडावली में छोटीछोटी सड़कों के दोनों तरफ दुकानें थीं. बीचबीच में लोगों के दोमंजिला तिमंजिला खुले मकान. माहौल पूरी तरह से पुराने जमाने के आम मुसलिम परिवारों के महल्ले जैसा ही था. लड़कियां, औरतें बुरके में ही बाहर आतीजाती थीं. लोग आर्थिक दृष्टि से संपन्न थे, पर उन का रहनसहन, लड़कियों की पढ़ाईलिखाई जमाने के हिसाब से आगे नहीं बढ़ पाई थी. लड़के तो पढ़लिख कर फिर भी अच्छे ओहदे पा चुके थे, पर इस इलाके की लड़कियां आज भी थोड़ाबहुत पढ़लिख कर घर तक ही सीमित थीं.

शौकत अली और आयशा बेगम की3 बेटियां थीं- सना, रूबी और हिबा. तीनों बेटियों की उम्र में 2-2 साल का अंतर था. रूबी मानसिक रूप से अस्वस्थ थी. सब से छोटी हिबा से 5 साल छोटा था हसन, आयशा उस पर दिनरात कुरबान होती थीं. अब तक नीचे 2 बैडरूम थे. आयशा ने अब हसन के लिए पहली मंजिल पर एक आरामदायक कमरा बनवा दिया था. हसन की हर सुविधा का ध्यान रखते हुए आयशा ने हर चीज का प्रबंध कर दिया था.

रूबी तो स्कूल जा नहीं पाई थी. सना और हिबा को आयशा बेगम ने 10वीं क्लास तक ही पढ़ने की छूट दी थी. शौकत अली ने बेटियों को पढ़ाना चाहा तो आयशा उन पर ही बरस पड़ी थीं, ‘‘क्या करना है इन्हें पढ़ कर? शादी हो ही जाएगी जल्दी. बस, हसन को पढ़ालिखा कर बड़ा आदमी बनाना है. हमारे बुढ़ापे का सहारा है वह.’’

हसन की हर बात आयशा हर हाल में पूरा करती थीं. हसन इस बात का खूब फायदा उठाने लगा था. शौकत एक प्राइवेट फर्म में काम करते थे. उन की तनख्वाह इतनी तो थी ही कि घर का गुजारा अच्छी तरह हो जाता.

रूबी बहुत इलाज के बाद भी ठीक नहीं हो पाई थी. वह साफ नहीं बोल पाती थी. इशारे से अपनी बात समझाती थी. समझती तो कुछकुछ थी पर उस का चलने, उठनेबैठने पर अपना नियंत्रण नहीं था. किसी को उस के आसपास रहना होता था. हसन जानबूझ कर उसे तंग करता था.

हसन जैसेजैसे बड़ा हो रहा था, उस की बातें, उस का स्वभाव, उस के हावभाव, तौरतरीके किसी अच्छे लड़के की तरह नहीं थे. उस की किसी भी गलती पर उसे टोकने पर आयशा उस की ढाल बन जाती थीं.

घर के पास एक दरगाह थी. वहीं एक कोने में दिन में एक जमाल बाबा बैठा करता था. वहीं एक कमरे में रात में रहता भी था. उन के पास झाड़फूंक करवाने वालों की भीड़ लगी रहती थी. आयशा को भी उस पर बड़ा भरोसा था. हसन जहां बीमार पड़ता, आयशा झट से उसे बाबा के पास ले जाती थीं.

एक दिन आयशा ने उस से कहा, ‘‘बाबा, हसन को कुछ दीनधर्म की बातें बताओ… आप के कदमों में इसे महजब की जानकारी की राह मिल जाए तो हम सब का भी भला हो जाएगा.’’

अब हसन अकसर बाबा के पास बैठने लगा था. उस के दोस्त कम होते जा रहे थे. वह अपनेआप में ही खोया रहने लगा था. आयशा बेटे को शांत देख कर खुश होती थीं. उन्हें जरा भी अंदाजा नहीं था कि उन के बेटे के अंदर कैसेकैसे बीज अपनी जड़ें जमा रहे हैं.

शौकत को हसन के बाबा के पास बैठ कर समय बिताने के बारे में पता चला तो उन्होंने डांटा, ‘‘उस के पास बैठ कर क्यों टाइम खराब करते हो? बैठ कर पढ़ाई करो, मेहनत करो.’’

जवाब आयशा ने दिया, ‘‘कैसे बाप हो तुम? पढ़ाई के साथसाथ तुम्हारा बेटा दीनधर्म की राह पर चल रहा है… इस बात से तुम्हें खुश होना चाहिए… बेचारे बाबा मजहब के बारे में ही तो बताते हैं.’’

बस यहीं शौकत चुप हो जाते थे, क्योंकि आम इनसान की तरह उन के दिल में भी धर्म का बड़ा खौफ था.

कुछ साल और बीत गए. सना के रिश्ते आने शुरू हुए तो आयशा को पहली बार बेटियों के निकाह की फिक्र हुई. उन्होंने हसन से इस विषय पर बात की तो उस ने जवाब दिया, ‘‘अम्मी, मेरी आप की बेटियों की जिंदगी में कोई दिलचस्पी नहीं है. अब्बू की चहेती हैं, वे ही जानें. मुझे और भी काम हैं.’’

शौकत यह सुन कर हैरान रह गए. फिर बोले, ‘‘शाबाश बेटा, यही उम्मीद थी तुम से… आयशा, सुन लिया?’’

आयशा को तो अपने कानों पर विश्वासही नहीं हुआ. बोलीं, ‘‘हसन, अपनी बहनों के बारे में ये कैसी बातें कर रहे हो? तुम्हारी कितनी देखभाल की है उन्होंने? कितना प्यार दिया है तुम्हें?’’

‘‘तो मैं क्या करूं? यह उन का फर्ज था, मुझ से यह आम सी बातें मत करो, मैं इस दुनिया में कुछ अलग करने आया हूं. मुझे इन छोटीछोटी बातों में मत खींचो,’’ कह कर वह पैर पटकते हुए चला गया.

शौकत ने अपनी बेगम को देखा. लाड़ले बेटे के बिगड़े तेवर देख कर पहली बार आयशा के चेहरे का रंग उड़ा देखा तो शौकत को तरस आ गया. फिर धीरे से बोले, ‘‘दुखी मत हो, यह सब तुम्हारे जरूरत से ज्यादा लाड़प्यार का नतीजा है.’’

आयशा गुमसुम खड़ी थीं. महसूस हो गया था कि कहीं तो कुछ गलत है. पर क्या, यह समझ नहीं आ रहा था.

कुछ ही दूर स्थित ‘भिवंडी’ से सना के लिए रशीद का रिश्ता आया. वह बैंक में कार्यरत था. शौकत को शांत, सभ्य रशीद सना के लिए बिलकुल उचित लगा. रशीद के मातापिता को भी सना पसंद आई.

निकाह की तारीख तय होते ही घर में जोरशोर से तैयारी शुरू हो गई. पर हसन को किसी बात से कोई मतलब नहीं था.

अब सना हसन में कुछ बदलाव देख रही थी. जब एक दिन सना दोपहर में आराम कर रही थी, तो हसन आ कर उस के पास लेट गया. सना ने हैरानी से पूछा, ‘‘क्या हुआ हसन? कुछ चाहिए?’’

‘‘नहीं. ऐसे भी तो अपनी बाजी के पास लेट सकता हूं न.’’

सना मुसकरा दी. सोचा अब भाई का दिल शायद यह महसूस कर रहा हो कि बड़ी बहन ससुराल चली जाएगी.

फिर अचानक हसन उठ कर बैठ गया. उस के घुटने पर हाथ रख कर इधरउधर की बातें करता रहा. पहले तो सना भाई की बातें ध्यान से सुनती रही, फिर अचानक जब हसन का घुटने पर रखा हाथ इधरउधर घूमने लगा तो सना को धक्का सा लगा. वह उठ बैठी. थी तो औरत ही और यह तो हर औरत के अंदर गजब का एहसास होता है कि वह होश संभालते ही अच्छेबुरे स्पर्श का फर्क समझने लगती है. उसे पल भर खुद को संभालने में लग गया कि छोटा भाई उसे कैसे छू रहा है, मन तो हुआ एक थप्पड़ लगा दे. वह उठ कर जाने लगी तो हसन ने कहा, ‘‘कहां जा रही हो बाजी, बैठो न.’’

‘‘नहीं, अम्मी ने कुछ जरूरी काम बताए थे, वे करने हैं.’’

हसन ने उसे अजीब नजरों से देखा तो सना को अपना वहम साफसाफ सच लगा. उस के बाद कई बार ऐसा हुआ कि सना को हसन जबतब कहीं भी छू कर बात करने लगा, जबकि पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था. सना मन ही मन बहुत परेशान रहने लगी कि किस से कहे? कहना चाहिए भी या नहीं? कहीं यह मन का वहम ही न हो… जिस भाई को गोद में खिलाया, उस के बारे में ऐसा सोचना भी दिल को बहुत तकलीफ पहुंचा रहा था.

हसन को सना के पास मंडराता देख आयशा बेगम मुसकरा कर कहतीं, ‘‘देख, भाई है न. अब तेरे ससुराल जाने की बात सोच कर परेशान होता घूम रहा है.’’

सना हर बार कुछ जवाब न दे कर कुछ परेशान सी दिखती. आखिर एक दिन हिबा ने अकेले में पूछ ही लिया, ‘‘बाजी, आजकल कुछ परेशान सी दिख रही हैं. बताओ न?’’

आयशा का सारा ध्यान हसन पर ही रहता था. मां की इस उपेक्षा को दोनों बहनों ने बराबर महसूस किया था. इन बातों ने दोनों बहनों को, बहनों के साथ, हमराज, सहेली बना दिया था. अत: सना धीरे से बोली, ‘‘हिबा, आजकल हसन की हरकतें अच्छी नहीं लग रही हैं.’’

हिबा चौंकी, ‘‘बाजी, क्या आप ने भी कुछ महसूस किया? हसन अजीब सा व्यवहार करता है न?’’

सना हैरान हुई, ‘‘तुझे भी कुछ कहा है क्या?’’

‘‘हां, बाजी, पहले तो ऐसा नहीं करता था. अब जब भी अकेली होती हूं, कभी भी, कहीं भी, इधरउधर की बातें करता हुआ यहांवहां छूता रहता है. उस की हरकतें कुछ ठीक नहीं लग रही हैं. आप के निकाह की तैयारी चल रही है, इसलिए मैं आप को यह सब बता कर परेशान नहीं करना चाह रही थी. रूबी के सामने ये बातें कर भी नहीं सकती थी… बेचारी कुछ समझ भी लेगी तो घबरा जाएगी.’’

‘‘हिबा, मुझे तो लगा मैं ही कुछ गलत तो नहीं सोच रही. चल, अम्मी से बताते हैं.’’

‘‘अम्मी यकीन करेंगी?’’

‘‘मुश्किल तो है पर बताना जरूरी है.’’

हसन कालेज गया हुआ था. आयशा बेगम उस का कमरा ठीक करने ऊपर गई हुई थीं. रूबी नीचे सो रही थी. सना और हिबा ऊपर चली गईं.

दोनों को साथ और गंभीर देख कर आयशा चौंकी. पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘आप से जरूरी बात करनी है अम्मी.’’

‘‘बोलो.’’

सना ने बात शुरू की, ‘‘अम्मी,

आजकल हसन का हमारे साथ व्यवहार ठीक नहीं है.’’

‘‘क्या कह रही हो… आजकल तो हर समय तुम लोगों के आगेपीछे घूमता है… तुम्हें तो खुश होना चाहिए.’’

‘‘नहीं अम्मी, कुछ गलत हरकतें हैं उस की… हमें यहांवहां छूने की कोशिश करता है.’’

आयशा बेगम को जैसे एक धक्का सा लगा. धम्म से वहीं बैड पर बैठ गईं. मुश्किल से आवाज निकली जैसे खुद को तसल्ली दे रही हों, ‘‘नहीं बेटा, भाई है तुम्हारा. आजकल के खराब माहौल की बातें सुन कर वहम हो गया होगा तुम्हें.’’

नीचे से रूबी की आवाज आई तो तीनों नीचे उतर आईं.

अब हसन की हरकतों पर आयशा ने ध्यान देना शुरू किया, तो उन्हें बेटियों की बात ठीक लगी. हसन जानबूझ कर कभी उन के गले में हाथ डाल देता तो कभी कमर में, तो कभी गाल छूता. पहले ऐसा नहीं था.

क्या करें, शौहर को बताएं? नहीं, वे उन से नहीं कहेंगी, शादी का घर है. आयशा बेगम सोच में पड़ गईं कि अगर शौहर को बताया तो बेकार में तनाव का माहौल हो जाएगा.

अत: चुप रहना ही मुनासिब समझा. फिर जब तक हसन घर में रहता, वे साए की तरह उस पर निगाह रखने लगीं.

कई बार हसन चिल्ला पड़ता, ‘‘क्यों मेरे पीछेपीछे घूमती रहती हैं आप… मैं क्या कोई बच्चा हूं.’’

‘‘मेरे लिए तो बच्चे ही रहोगे.’’

इसी बीच सना का रशीद से निकाह हो गया. सना के जाने के बाद हिबा अकेलेपन का शिकार होने लगी. घर के कामों में, रूबी की देखभाल में दिन तो बीत जाता पर रात को बहन की याद आंखें नम कर जाती.

हसन घर के बाहर शांत, सभ्य लड़का था पर घर के अंदर वह एक आवारा, बदतमीज लड़के की तरह हरकतें करता था. हिबा उस से बहुत दूरदूर रहने की कोशिश करने लगी थी. शौकत अली जितनी देर घर पर रहते, वह उन के आसपास ही रहती थी.

हसन के कालेज जाने पर जैसे सब चैन की सांस लेते. उस का जमाल बाबा के पास बैठना जारी था. जमाल बाबा से हसन के बारे में पूछताछ करने का मतलब था बात का बतंगड़ बनाना. हसन मजहब के बारे में खूब लंबीचौड़ी बातें करने लगा था. बाहर वालों को लगता था कि कितना अमनपसंद, मजहबी लड़का है पर सच सिर्फ घर वाले जानते थे.

सना की कोशिशों से हिबा के भी रिश्ते आने लगे थे. सना को बहुत अच्छी ससुराल मिली. रशीद और उस के अम्मीअब्बू सना के साथ बहुत ही प्यार से रहते थे. सना का जीवन अचानक बहुत खुशियों से भर उठा था पर मन ही मन उसे अपनी बहनों की बहुत चिंता रहती थी. फोन पर सब से बात भी होती रहती थी. उस का जब मन होता मिलने भी चली आती थी. रूबी तो उसे देखते ही उस से ऐसे लिपटती थी जैसे कोई छोटी बच्ची अपनी मां से लिपट जाती है.

सना ने हिबा से फोन पर ही ढकेछिपे शब्दों में पूछा, ‘‘हिबा, कोई परेशानी तो नहीं है?’’

‘‘बाजी, सब वैसा ही है जैसा आप के सामने था, कोई फर्क नहीं पड़ा है.’’

‘‘मैं जल्दी तुम्हारे लिए अच्छा लड़का ढूंढ़ूंगी, हिबा.’’

‘‘पर बाजी, हमारे बाद रूबी कैसे रहेगी?’’

‘‘देखते हैं… हिबा, कुछ तो करना पड़ेगा.’’

रशीद के ही एक रिश्तेदार जहांगीर से हिबा की शादी हो गई तो सना खुशी से चहक उठी. जहांगीर प्रोफैसर था. सना की कोशिशें रंग लाई थीं.

सना मायके आई हुई थी. उस ने आयशा से कहा, ‘‘अम्मी, रूबी के लिए मैं ने अपने यहां काम करने वाली फायजा काकी की बेटी निगहत से बात कर ली है. वह तलाकशुदा है, सुबह से शाम तक रूबी की देखभाल करेगी. रात को काकी के पास घर चली जाएगी. उस के 2 बच्चे हैं, कभीकभी जरूरत पड़ने पर वह दिन में भी बच्चों को देखने जाया करेगी. रात को आप रूबी के साथ सो जाया करो. ठीक है न अम्मी?’’

हिबा का निकाह जहांगीर से हो गया. उसे भी एक अच्छा जीवनसाथी मिल गया था. बेटियों को खुश और संतुष्ट देख कर आयशा का मन भी हलका हो गया था. शौकत अली भी खुश थे.

हसन ने किसी तरह बी.कौम. पूरा कर एक प्राइवेट फर्म में नौकरी कर ली, तो सब ने चैन की सांस ली. वह अब दिन में औफिस रहता. पर शाम को बाबा से मिलने का समय निकाल ही लेता था. जमाल बाबा ने जीवन में उसे अंधविश्वासों को पीछे छोड़ आगे बढ़ने केnबजाय अपनी बातों से इतना गुमराह कर दिया था कि वह अब अपनेआप को बहुत खास, खुदा का बंदा समझने लगा था, जो सब बुराइयों को मिटाने आया है, वह कुछ भी कर सकता है, उसे किसी से डरने की जरूरत नहीं है. आयशा ने जो अच्छी मजहबी बातें सीखने के लिए उसे बाबा के सुपुर्द किया था, इन बातों का असर भविष्य में क्या होगा, उन्हें इस का अंदाजा नहीं था.

हसन का नौकरी में मन नहीं लग रहा था. एक दिन वह बाबा के पास पहुंचा. वहां काफी लोग लाइन में लगे थे. बाबा आंखें मूंद कर कह रहा था, ‘‘दुनिया दुखों से भरी है, इनसान अपने कर्मों का फल भोगता है. दुनिया में ऐसी कोई तकलीफ नहीं जो दूर न की जा सके. तुम मेरी पनाह में आए हो तो मुझ पर भरोसा रखो. कुदरत ने हर चीज की 2 सूरतें बनाई हैं… कांटे हैं तो फूल भी हैं, धूप है तो छांव भी है… शैतान है तो खुदा भी है, उसी खुदा की इच्छा से मैं तुम्हारे पास आया हूं… ऊपर बैठा वह देख रहा है… मुझ से कुछ न छिपाओ, सब कुछ कह दो, अपने दिल में कुछ न रखो, डरो मत.’’

विश्वास के बाजार में बैठे बाबा के चेहरे के पीछे एक और चेहरा था. कहने को तो बाबा अपने हाथ में कोई पैसा नहीं पकड़ता था, पर उस के सामने एक कपड़ा बिछा रहता था, जिस की जितनी मरजी होती, उस पर उतना रख कर चला जाता था. उस के पास धीरेधीरे इतना पैसा जमा हो चुका था कि दूसरे शहर में उस का अपना घर था, पत्नी थी, 3 बच्चे थे. जब भी वह अपने शहर जाता, सब यही समझते बाबा तो सिद्धपुरुष है, अपनी किसी विद्या की खोज में गया है… उस के घर वाले समझते थे कि बाबा दूसरे शहर में कोई नौकरी कर रहा है. कुल मिला कर मूर्ख लोगों की कृपा से बाबा अच्छी जिंदगी गुजार रहा था.

हसन भी उस की चादर पर अच्छेखासे रुपए रख जाता था. बाबा के हिसाब से उस के  सभी शागिर्दों में हसन सब से मूर्ख शागिर्द था, जो भी बाबा कहता हसन के लिए वह फरमान है. यह बाबा जान चुका था.

बाबा ने आंखें खोलीं. देखा, हसन उदास, चुपचाप बैठा है. फिर जल्दीजल्दी बाकी लोगों पर झाड़फूंक का काम निबटाया. फिर पूछा, ‘‘हसन मियां, क्यों परेशान हो?’’

‘‘मेरा नौकरी में मन नहीं लग रहा है, बाबा.’’

‘‘तो छोड़ दो.’’

‘‘फिर क्या करूं?’’

‘‘अपना काम कर लो. तुम में तो हुनर ही हुनर है. तुम्हें किसी की नौकरी की क्या जरूरत है?’’

‘‘पर इतना पैसा कहां है मेरे पास?’’

‘‘तुम्हारे अब्बू हैं, बहनें हैं, बहनोई हैं, सब तुम्हारी मदद करेंगे. तुम ही तो इकलौते बेटे हो घर के.’’

बात हसन के दिमाग में बैठ गई. अब हसन ने सोचा कि पहले बहनों को खुश रखना पड़ेगा. उन के दिल से अपने लिए गुस्सा निकालना पड़ेगा. इस में समय लगेगा पर करना तो पड़ेगा ही. अत: उस ने घर पर कुछ समय देना शुरू किया. सना और हिबा से फोन पर हालचाल लेने लगा. दोनों हैरान तो होतीं पर इस बदलाव का कारण समझ नहीं पाईं. हसन रशीद और जहांगीर से भी दोस्ताना संबंध बनाने लगा. सना और हिबा ने फोन पर आपस में बात की. सना ने कहा, ‘‘हसन कुछ बदल गया है.’’

‘‘हां, बहुत ज्यादा बदल गया है, पर अचानक क्यों?’’

‘‘हो सकता है उम्र के साथसाथ अपनी हरकतों पर पछतावा हो, अब शर्मिंदा हो.’’

‘‘अगर ऐसा है तो ठीक है, देर आयद, दुरुस्त आयद.’’

कुछ साल और बीत गए. सना के 2 बेटे और 1 बेटी और हिबा के भी 2 बेटियां और

1 बेटा हो चुका था.

हसन की शादी की भी बात शुरू हो चुकी थी. सब की सलाह के बाद सुंदर जोया घर की बहू बन कर आ गई. जोया के आने से हसन की जिंदगी में कुछ बदलाव हुआ पर दिमाग से बिजनैस का भूत नहीं उतरा.

इसी खयाल को अंजाम देते हुए उस ने अपने दिमाग में एक योजना बना कर सना और हिबा को फोन कर के शनिवार को सुबह आने के लिए कहा.

जोया ने आते ही सब का दिल जीत लिया था. हसन जोया के साथ अच्छा व्यवहार रखता था. अब उस का बातबात में गुस्सा करना कम हो गया था. शौकत अली और आयशा खुश थीं कि उन के सब बच्चे जीवन में राजीखुशी आगे बढ़ रहे हैं.

हसन का बाबा के पास बैठना कम तो हुआ था पर अब भी समय मिलते ही उस के पास पहुंच जाता था.

हसन के दिमाग में जो चल रहा था उस का अंदाजा भी किसी को नहीं था. वह जो बाहर से दिखाई देता था अंदर से बिलकुल उस के उलट था. उस की सोच से अनजान दोनों बहनें शनिवार को सुबह आ गईं. सुबह से ही जोया के साथ मिल कर हसन ने सब के लिए शानदार लंच तैयार किया. सब साथ खाने बैठे तो घर में अलग ही रौनक थी. बच्चे तो मिल कर खूब मस्ती करने लगे तो हसन ने कहा, ‘‘जाओ बच्चो, सब ऊपर खेलो.’’

फिर हसन ने कहा, ‘‘मैं ने सोचा है अब हर शनिवार को हम सब लंच और डिनर साथ किया करेंगे,’’ कह हसन हंसा तो सना और हिबा भी हंस पड़ीं.

रशीद ने छेड़ा, ‘‘मतलब मुझे और जहांगीर को छोड़ कर सब यहीं रहेंगे रात भर… ठीक है भई, जैसी तुम्हारी मरजी.’’

कुछ महीने और बीते. जोया ने बेटे को जन्म दिया जिस का नाम शान रखा. शान की पैदाइश पर भी भाईबहनों ने मिल कर खूब जश्न मनाया, खूब दावतें हुईं. अब तो दोनों बहनें और उन के परिवार शनिवार की दावत का इंतजार करते थे. शनिवार, रविवार घर में भाईबहनों का प्यार देख शौकत अली और आयशा के दिल को चैन आ जाता था.

एक शनिवार और आया. हमेशा की तरह सब ने साथ बैठ कर डिनर किया. बच्चे आपस में मस्ती कर रहे थे. हसन काफी चुप और गंभीर था.

सना ने पूछा, ‘‘हसन, क्या कुछ हुआ है? परेशान हो?’’

‘‘कुछ नहीं, बाजी.’’

हिबा ने भी टोका, ‘‘कुछ बात तो है.’’

शौकत और आयशा भी वहीं बैठे थे. बहुत पूछने पर हसन ने बहुत गंभीरतापूर्वक कहा, ‘‘बाजी, मुझे कुछ रुपयों की जरूरत है. मैं अपना बिजनैस करना चाहता हूं.’’

‘‘तुम तो अच्छी भली नौकरी कर रहे हो, बिजनैस क्यों?’’

‘‘मैं नौकरी छोड़ने वाला हूं… मुझे पैसों की सख्त जरूरत है… समझ नहीं आ रहा कहां से इंतजाम करूं.’’

शौकत ने डांट दिया, ‘‘बिजनैस का आइडिया बिलकुल बेकार है. हम आम नौकरी करने वाले लोग हैं. इतना पैसा कहां से आएगा और अगर उधार लिया तो चुकाएगा कैसे?

कब? कौन देगा पैसा? बेकार की बात है यह, जितनी पढ़ाई तुम ने की है उस हिसाब से तुम्हें नौकरी ठीक ही मिली है. चुपचाप मन से इसे ही करते रहो.’’

‘‘अब्बू, मैं सब चुका दूंगा. मैं ने अच्छी तरह से सोच लिया है,’’ कह कर हसन माथे पर हाथ रख कर दुखी हो कर बैठ गया.

आयशा से बेटे के चेहरे की उदासी देखी नहीं गई. इतनी मुश्किल से तो बेटा खुश रहने लगा था, घर में उस के खुश रहने से ही कितना बदलाव आ गया था. अत: प्यार से हसन के सिर पर हाथ रख कर बोलीं, ‘‘पर बेटा, यह खयाल छोड़ ही दो, हमारे पास इतना पैसा कहां है?’’

हिबा ने पूछा, ‘‘कितना चाहिए?’’

‘‘25-30 लाख.’’

‘‘क्या?’’ सब चौंक पड़े.

‘‘इतना कहां से आएगा हसन?’’ सना ने परेशान होते हुए कहा.

जोया चुपचाप हैरान सी बैठी थी. अपने शौहर को वह आज तक समझ नहीं पाई थी. उस के दिमाग में कुछ चलता रहता था पर क्या, वह अंदाजा नहीं लगा पाती थी. कभी वह कुछ कहता था, तो कभी कुछ. कभी वह बड़ीबड़ी मजहबी बातें करता था, कभी एक लालची, मक्कार की तरह व्यवहार करता था.

हसन ने कहा, ‘‘जोया के पास जितने भी जेवर हैं, उन्हें बेच भी दूं तो काम नहीं होगा. बाजी, आप लोग मुझे कुछ रकम उधार दे दो. मैं बहुत जल्दी चुका दूंगा,’’ सना जो हैरान सी थी, बोली, ‘‘हसन, हम कहां से लाएं?’’

‘‘आप रशीद भाई से बात करो न, उन का तो अच्छा बिजनैस है. वे तो मुझे आराम से लोन दे सकते हैं.’’

हिबा ने कहा, ‘‘हसन, मेरे लिए तो यह नामुमकिन है. 2-2 ननदें हैं, जहांगीर अकेले हैं. उन्हीं पर सारी जिम्मेदारी है. उन दोनों के निकाह का भी सोचना है.’’

‘‘तो आप मुझे अपने गहने दे दो.’’

हिबा चौंकी, ‘‘यह क्या कह रहे हो हसन. गहने कैसे दे दूं?’’

‘‘बाजी, पहली बार आप के भाई ने आप से कुछ मांगा है. मैं सब वापस दे दूंगा, वादा करता हूं. आप लोग समझ नहीं रही हैं, अगर आप लोगों ने मेरी मदद नहीं की तो बहुत बुरा होगा.’’

शौकत अली ने हसन को टोका, ‘‘हसन, यह बेकार का फुतूर अपने दिमाग से इसी समय निकाल दो. बहनों से उधार ले कर बिजनैस करोगे? ऐसी क्या आफत आई है… घर की बेटियों को इस परेशानी में डालने की कोई जरूरत नहीं है.’’

हसन को गुस्सा आ गया, ‘‘आप को हमेशा बेटियों की ही चिंता रही है. आप मेरे लिए तो कुछ करना ही नहीं चाहते. बेटियां ही आप के लिए सब कुछ हैं,’’ कह कर हसन पैर पटकते हुए घर से बाहर चला गया.

 – क्रमश:

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