नामर्द: तहजीब का इल्जाम क्या सह पाया मुश्ताक

तहजीब के अब्बा इशरार ने अपनी लड़की को दिए जाने वाले दहेज को गर्व से देखा. फिर अपने साढ़ू तथा नए बने समधी से पूछा, ‘‘अल्ताफ मियां, कुछ कमी हो तो बताओ?’’

‘‘भाई साहब, आप ने लड़की दी, मानो सबकुछ दे दिया,’’ तहजीब के मौसा व नए रिश्ते से बने ससुर अल्ताफ ने कहा, ‘‘बस, जरा विदाई की तैयारी जल्दी कर दें.’’

शीघ्र ही बरात दुलहन के साथ विदा हो गई. तहजीब का मौसेरा भाई मुश्ताक अपनी मौसेरी बहन के साथ शादी करने के पक्ष में नहीं था. उस का विचार था कि यह व्यवस्था उस समय के लिए कदाचित ठीक रही होगी जब लड़कियों की कमी रही होगी. परंतु आज की स्थिति में इतने निकट का संबंध उचित नहीं. किंतु उस की बात नक्कारखाने में तूती के समान दब कर रह गई थी. उस की मां अफसाना ने सपाट शब्दों में कहा था, ‘‘मैं ने खुद अपनी बहन से उस की लड़की को मांगा है. अगर वह इस घर में दुलहन बन कर नहीं आई तो मैं सिर पटकपटक कर अपनी जान दे दूंगी.’’

विवश हो कर मुश्ताक को चुप रह जाना पड़ा था. तहजीब जब अपनी ससुराल से वापस आई तो वह बहुत बुझीबुझी सी थी. वह मुसकराने का प्रयास करती भी तो मुसकराहट उस के होंठों पर नाच ही न पाती थी. वह खोखली हंसी हंस कर रह जाती थी. तहजीब पर ससुराल में जुल्म होने का प्रश्न न था. दोनों परिवार के लोग शिक्षित थे. अन्य भी कोई ऐसा स्पष्ट कारण नहीं था जिस में उस उदासी का कारण समझ में आता.

‘‘तुम तहजीब का दिल टटोलो,’’ एक दिन इशरार ने अपनी पत्नी रुखसाना से कहा, ‘‘उसे जरूर कोई न कोई तकलीफ है.’’

‘‘पराए घर जाने में शुरू में तकलीफ तो होती ही है, इस में पूछने की क्या बात है?’’ रुखसाना बोली, ‘‘धीरेधीरे आदत पड़ जाएगी.’’ ‘‘जी हां, जब आप पहली बार इस घर से गई थीं तब शायद ऐसा ही मुंह फूला हुआ था, खिली हुई कली के समान गई थीं. तहजीब बेचारी मुरझाए हुए फूल के समान वापस आई है,’’ इशरार ने शरारत के साथ कहा.

‘‘हटो जी, आप तो चुहलबाजी करते हैं,’’ रुखसाना के गालों पर सुर्खी दौड़ गई, ‘‘मैं तहजीब से बात करती हूं.’’

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रुखसाना ने बेटी को कुरेदा तो वह उत्तर देने की अपेक्षा आंखों में आंसू भर लाई. ‘‘तुझे वहां क्या तकलीफ है? मैं आपा को आड़े हाथों लूंगी. उन्हीं के मांगने पर मैं ने तुझे उन की झोली में डाला है. मैं ने उन से पहले ही कह दिया था कि मेरी बिटिया नाजों से पली है. किसी ने उस के काम में नुक्ताचीनी निकाली तो ठीक नहीं होगा.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है, अम्मीजान, मुझ से किसी ने कुछ कहा नहीं है,’’ तहजीब ने धीमे से कहा.

‘‘फिर?’’

कुछ कहने की अपेक्षा तहजीब फिर आंसू बहाने लगी. नकविया तहजीब की सहेली थी. वह एक संपन्न घराने की थी. जिस समय तहजीब की शादी हुई थी उस समय वह लंदन में डाक्टरी की पढ़ाई कर रही थी. उसे शादी में बुलाया गया था परंतु यात्रा की किसी कठिनाई के कारण वह समय पर नहीं आ सकी थी. उस का आना कुछ दिन बाद हो पाया था. भेंट होने पर रुखसाना ने उस से कहा, ‘‘बेटी, तहजीब ससुराल से आने के बाद से बहुत उदास है. कुछ पूछने पर बस रोने लगती है. जरा उस के दिल को किसी तरह टटोलो.’’

‘‘आप फिक्र न करें, अम्मीजान, मैं सबकुछ मालूम कर लूंगी,’’ नकविया ने कहा और फिर वह तहजीब के कमरे में घुस गई.

‘‘अरे यार, तेरा चेहरा इतना उदासउदास सा क्यों है?’’ उस ने तहजीब से पूछा.

‘‘बस यों ही.’’

‘‘यह तो कोई बात न हुई. साफसाफ बता कि क्या बात है? कहीं दूल्हा भाई किसी दूसरी से तो फंसे हुए नहीं हैं.’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. वे कहीं फंसने लायक ही नहीं हैं,’’ तहजीब बहुत धीमे से बोली, ‘‘वे तो पूरी तरह ठंडे हैं.’’

‘‘क्या?’’ नकविया ने चौंक कर कहा, ‘‘तू यह क्या कह रही है?’’

‘‘हां, यही तो रोना है, तेरे दूल्हा भाई पूरी तरह ठंडे हैं, वे नामर्द हैं.’’ नकविया सोच में डूब गई, ‘भला वह पुरुष नामर्द कैसे हो सकता है जो कालेज के दिनों में घंटों एक लड़की के इंतजार में खड़ा रहता था और कालेज आतेजाते उस लड़की के तांगे का पीछा किया करता था.’

‘‘नहीं, वह नामर्द नहीं हो सकता,’’ नकविया के मुख से अचानक निकल गया.

‘‘तू दावे के साथ कैसे कह सकती है? भुगता तो मैं ने उसे है. एकदो नहीं, पूरी 5 रातें.’’

‘‘अरे यार, मैं डाक्टर हूं. मैं जानती हूं कि ऐसे 99 प्रतिशत मामले मनोवैज्ञानिक होते हैं. लाखों में कोई एकाध आदमी ही कुदरती तौर पर नामर्द होता है.’’

‘‘तो शायद तेरे दूल्हा भाई उन एकाध में से ही हैं,’’ तहजीब मुसकराई.

‘‘अच्छा, क्या तू उन्हें मेरे पास भेज सकती है? मैं जरा उन का मुआयना करना चाहती हूं.’’

‘‘भिजवा दूंगी, जरा क्या, पूरा मुआयना कर लेना. तेरी डाक्टरी कुछ नहीं करने की.’’

‘‘तू जरा भेज तो सही,’’ नकविया ने इतना कहा और उठ खड़ी हुई. तहजीब की मां ने जब नकविया से तहजीब की उदासी का कारण जाना तो वह सनसनाती हुई अपनी बहन के घर जा पहुंची. उस ने उन को आड़े हाथों लिया, ‘‘आपा, तुम्हें अपने लड़के के बारे में सबकुछ पता होना चाहिए था. ऐसी कोई कमी थी तो उस की शादी करने की क्या जरूरत थी? मेरी लड़की की जिंदगी बरबाद कर दी तुम ने.’’

‘‘छोटी, तू कहना क्या चाहती है?’’ मुश्ताक की मां अफसाना ने कुछ न समझते हुए कहा.

‘‘अरे, जब लड़का हिजड़ा है तो शादी क्यों रचा डाली? कम से कम दूसरे की लड़की का तो खयाल किया होता,’’ रुखसाना हाथ नचा कर बोली.

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‘‘छोटी, जरा मुंह संभाल कर बात कर. मेरी ससुराल में ऐसे मर्द पैदा हुए हैं जिन्होंने 3-3 औरतों को एकसाथ खुश रखा है. यहां शेर पैदा होते हैं, गीदड़ नहीं.’’ बातों की लड़ाई हाथापाई में बदल गई. अल्ताफ ने बड़ी मुश्किल से दोनों को अलग किया.

रुखसाना बड़बड़ाती हुई चली गई. इस प्रकरण को ले कर दोनों परिवारों के मध्य बहुत कटुता उत्पन्न हो गई. एक दिन अल्ताफ और इशरार भी परस्पर भिड़ गए, ‘‘मैं तुम्हें अदालत में खींचूंगा. तुम पर दावा करूंगा. दहेज के साथसाथ और सारे खर्चे न वसूले तो नाम पलट कर रख देना,’’ इशरार ने गुस्से से कहा तो अल्ताफ भी पीछे न रहा. दोनों में हाथापाई की नौबत आ गई. कुछ लोग बीच में पड़ गए और उन्हें अलगअलग किया. दोनों तब वकीलों के पास दौड़े. तहजीब मुश्ताक के पास यह संदेश भेजने में सफल हो पाई कि उसे उस की सहेली नकविया याद कर रही है. एक दिन मुश्ताक नकविया के घर जा पहुंचा.

‘‘आइए, आइए,’’ नकविया ने मुश्ताक का स्वागत करते हुए कहा, ‘‘मेरे कालेज जाने से पहले और लौट कर आने से पहले तो मुस्तैदी से रास्ते में साइकिल लिए तांगे का पीछा करने को तैयार खड़े मिलते थे, और अब बुलाने के इतने दिन बाद आए हो.’’

नकविया ने मुसकरा कर यह बात कही तो मुश्ताक झेंप गया. फिर दोनों इधरउधर की बातें करते रहे. ‘‘तहजीब के साथ क्या किस्सा हो गया? मैं उस की सहेली होने के साथसाथ तुम्हारे लिए भी अनजान नहीं हूं. मुझे सबकुछ साफसाफ बताओ जिस से 2 घरों के बीच खिंची तलवारों को म्यानों में पहुंचाया जा सके?’’

‘‘मैं बचपन से तहजीब को अपनी बहन मानता रहा हूं. वह भी मुझे ‘भाईजान’ कहती रही है. उस के साथ जिस्मानी ताल्लुक रखना मेरे लिए बहुत ही मुश्किल काम है. तुम ही बताओ, इस में मेरा क्या कुसूर है?’’ नकविया मुश्ताक को कोई उत्तर नहीं दे सकी. तब उस ने बात का पहलू बदल लिया, वह दूसरी बातें करने लगी. जब मुश्ताक जाने लगा तो उस ने वादा किया कि वह रोज कुछ देर के लिए आएगा जब तक कि वह इंगलैंड नहीं चली जाती.

फिर नकविया तथा मुश्ताक दोनों एकदूसरे के निकट आते चले गए. एक दिन नकविया ने तहजीब को बताया, ‘‘सुन, तेरा पति तो पूरा मर्द है. उस में कोई कमी नहीं है. उस के दिल में तेरे लिए जो भावना है, उसे मिटाना बड़ा मुश्किल काम है,’’ फिर नकविया ने सबकुछ बता दिया. तहजीब बहुत देर तक कुछ सोचती रही. फिर बोली, ‘‘उन का सोचना ठीक लगता है. सचमुच, इतने नजदीकी रिश्तों में शादी नहीं होनी चाहिए. अब कुछ करना ही होगा.’’ फिर तहजीब और मुश्ताक परस्पर मिले और उन के बीच एक आम सहमति हो गई. कुछ दिन बाद मुश्ताक ने तहजीब को तलाक के साथ मेहर का पैसा तथा सारा दहेज भी वापस भेज दिया.

‘‘मैं दावा करूंगा. क्या समझता है अल्ताफ अपनेआप को. जब लड़का हिजड़ा था तो क्यों शादी का नाटक रचा,’’ तहजीब के अब्बा गुस्से से बोले.

‘‘नहीं अब्बा, नहीं. अब हमें कुछ नहीं करना है. मुश्ताक में कोई कमी नहीं थी. दरअसल, मैं ही उस से पिंड छुड़ाना चाहती थी,’’ तहजीब ने बात समाप्त करने के उद्देश्य से इलजाम अपने ऊपर ले लिया.

‘‘लेकिन क्यों?’’ उस की मां ने हस्तक्षेप करते हुए पूछा.

‘‘मुझे वे पसंद नहीं थे.’’

‘‘अरे बेहया,’’ मां चिल्लाईं, ‘‘तू ने झूठ बोल कर पुरानी रिश्तेदारी को भी खत्म कर दिया,’’ उन्होंने तहजीब के सिर के बालों को पकड़ कर झंझोड़ डाला. फिर उस के सिर को जोर से दीवार पर दे मारा. कुछ दिनों बाद नकविया लंदन वापस चली गई. लगभग 5 माह बाद नकविया फिर भारत आई. वह अपने साथ 1 व्यक्ति को भी लाई थी. उस को ले कर वह तहजीब के घर गई. तहजीब के मांबाप से उस व्यक्ति का परिचय कराते हुए नकविया ने कहा, ‘‘ये मेरे साथ लंदन में डाक्टरी पढ़ते हैं. लखनऊ में इन का घर है. आप चाहें तो लखनऊ जा कर और जानकारी ले सकते हैं. तहजीब के लिए मैं बात कर रही हूं.’’ लड़का समझ में आ जाने पर अन्य बातें भी देखभाल ली गईं, फिर शादी भी पक्की हो गई.

‘‘बेटी, तुम शादी कहां करोगी, हिंदुस्तान में या इंगलैंड में?’’ एक दिन तहजीब की मां ने नकविया से पूछा.

‘‘अम्मीजान, मैं अपने ही देश में शादी करूंगी. बस, जरा मेरी पढ़ाई पूरी हो जाए.’’

‘‘कोई लड़का देख रखा है क्या?’’

‘‘हां, लड़का तो देख लिया है. यहीं है, अपने शहर का.’’

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‘‘कौन है?’’

‘‘आप का पहले वाला दामाद मुश्ताक,’’ नकविया ने मुसकरा कर कहा.

‘‘हाय, वह… वह नामर्द. तुम्हें उस से शादी करने की क्या सूझी?’’

‘‘अम्मीजान, वह नामर्द नहीं है,’’ नकविया ने तब उन्हें सारा किस्सा कह सुनाया. ‘‘हम ही गलती पर थे. हमें इतनी नजदीकी रिश्तेदारी में बच्चों की शादी नहीं करनी चाहिए. सच है, जहां भाईबहन की भावना हो वहां औरतमर्द का संबंध क्यों बनाया जाए,’’ तहजीब की मां ने अपनी गलती मानते हुए कहा.

बकरा: भाग 3- क्या हुआ था डिंपल और कांता के साथ

लेखक- कृष्ण चंद्र महादेविया

सब से पहले गुर ने पिंडी की पूजा की, फिर दूसरे खास लोगों को पूजा करने को कहा गया. चेला और मौहता व दूसरे कारदार जोरजोर से जयकारा लगाते थे. ढोलनगाड़ातुरही बजने लगे थे. गुर खालटू कनखियों से चारों ओर भी देख लेता था और गंभीर चेहरा बनाए खास दिखने की पूरी कोशिश करता था. माधो डिंपल के साथ मंदिर से थोड़ी दूर अपराधी की तरह खड़ा था. कांता भी अपनी दादी के साथ एक पेड़ के नीचे खड़ी थी. माधो के बकरे को पिंडी के पास लाया गया था. उस की पीठ पर गुर ने पानी डाला, तो बकरे ने जोर से पीठ हिलाई. चारों ओर से लटूरी देवता की जयजयकार गूंज गई.

छांगू चेले ने सींगों से बकरे को पकड़ा था. एक मोटे गांव वाले ने दराट तेज कर पालकी के पास रखा था. उसे बकरा काटने के लिए गुर के आदेश का इंतजार था. अचानक कांता जोरजोर से चीखने. गरदन हिलाते हुए उछलने भी लगी. उस के बाल बिखर गए. दुपट्टा गिर गया था. सभी लोग उस की ओर हैरानी से देखने लगे थे. कांता की दादी बड़े जोर से बोली, ‘‘लड़की में कोई देवी या फिर कोई देवता आ गया है. अरे, कोई पूछो तो सही कि कौन लड़की में प्रवेश कर गया है?’’ गुर, चेला और दूसरे कारदार बड़ी हैरानी और कुछ डरे से कांता की ओर देखने लग गए. गुर पूजापाठ भूल गया था.

एक बूढ़े ने डरतेडरते पूछा, ‘‘आप कौन हैं जो इस लड़की में आ गए हैं? कहिए महाराज…’’

‘‘मैं काली हूं. कलकत्ते वाली. लटूरी देवता से बड़ी. सारे मेरी बात ध्यान से सुनो. आदमी के चलने से रास्ते कभी अपवित्र नहीं होते, न कोई देवता नाराज होता है. मैं काली हूं काली. आज में झूठों को दंड दूंगी. माधो और उस की बेटी पर झूठा इलजाम लगाया गया है. सुनो, लटूरी देवता कोई बलि नहीं ले सकता. अभी मेरी बहन महाकाली भी आने वाली है. आज सब के सामने सच और झूठ का फैसला होगा,’’ कांता उछलतीकूदती चीखतीचिल्लाती पिंडी के पास पहुंच गई.

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अचानक तभी डिंपल भी जोर से चीखने और हंसने लगी. उस के बाल खुल कर बिखर गए. अब तो गांव वाले और हैरानपरेशान हो गए. इस गांव के ही नहीं, बल्कि आसपास के बीसियों गांवों में कभी ऐसा नहीं हुआ था कि किसी औरत में देवी आई हो. डिंपल की आवाज में फर्क आ गया था. एक बुढि़या ने डरतेडरते पूछा, ‘‘आप कौन हैं, जो इस सीधीसादी लड़की में प्रवेश कर गए हो? हे महाराज, आप देव हैं या देवी?’’ डिंपल भी चीखतीउछलती लटूरी देवता की पिंडी के पास पहुंच गई थी. वह जोर से बोली, ‘‘मैं महाकाली हूं. आज मैं पाखंडियों को सजा दूंगी. अब काली और महाकाली आ गई हैं, अब दुष्टों को दंड जरूर मिलेगा,’’ कह कर उस ने पिंडी के पास से दराट उठाया और बकरे का सींग पकड़े छांगू के हाथ पर दे मारा.

छांगू चेले की उंगलियों की 2 पोरें कट कर नीचे गिर गईं. वह दर्द के मारे चिल्लाने और तड़पने लगा. ‘‘बकरे, जा अपने घर, तुझे कोई नहीं काट सकता. जा, घर जा,’’ डिंपल ने उछलतेकूदते कहा.

बकरा भी माधो के घर की तरफ दौड़ गया. यह सब देख कर लोग जयकार करने लगे. अब तक तो सभी ने हाथ भी जोड़ लिए थे. बच्चे तो अपने मांओं से चिपक गए थे.

डिंपल ने दराट लहराया फिर चीखते और उछलते बोली, ‘‘बहन काली, गुर और उस के झूठे साथियों से पूछ सच क्या है, वरना इन्हें काट कर मैं इन का खून पीऊंगी.’’ ‘‘जो आज्ञा. खालटू गुर, जो पूछूंगी सच कहना. अगर झूठ कहा, तो खाल खींच लूंगी. आज सारे गांव के सामने सच बोल.’’

डिंपल ने एक जोर की लात खालटू को दे मारी. दूसरी लात कांता ने मारी, तो वह गिरतेगिरते बचा. गलत आदमी भीतर से डराडरा ही रहता है. डर के चलते ही खालटू ने सीधीसादी लड़कियों में काली और महाकाली का प्रवेश मान लिया था. छांगू की कटी उंगलियों से बहते खून ने उसे और ज्यादा डरा दिया था, जबकि वह खुद में तो झूठमूठ का देवता ला देता था. लातें खा कर मारे डर के वह उन के पैर पड़ गया और गिड़गिड़ाया ‘‘मुझे माफ कर दीजिए माता कालीमहाकाली, मुझे माफ कर दीजिए.’’

दर्द से तड़पते छांगू चेले ने अपनी उंगलियों पर रुमाल कस कर बांध लिया था. गुर को लंबा पड़ देख कर डर और दर्द के मारे वह भी रोते हुए उन के पैर पड़ गया, ‘‘मुझे भी माफी दे दो माता.’’ डिंपल ने गुर की पीठ पर कस कर लात मारी, ‘‘मैं महाकाली खप्पर वाली हूं. सच बता रे खालटू या तेरी गरदन काट कर तेरा सारा खून पी जाऊं,’’ डिंपल ने हाथ में पकड़ा दराट लहराया, तो वह डर के मारे कांप गया.

‘‘बताता हूं माता, सच बताता हूं. गांव वालो, माधो का बकरा खाने के लिए हम ने झूठमूठ की अफवाहें फैला कर माधो और डिंपल पर झूठा आरोप लगाया था. मुझ में कोई देवता नहीं आता है. मैं, चेला छांगू, मौहता भागू, कारदार सब से ठग कर माल ऐंठते थे. हम सारे दूसरों की औरतों पर बुरी नजर रखते थे. मुझे माफ कर दीजिए. आज के बाद मैं कभी बुरे काम नहीं करूंगा. मुझे माफ कर दीजिए.’’

डिंपल और कांता की 2-4 लातें और खाने से वह रो पड़ा. अब तो कारदार भी उन दोनों के पैरों में लौटने लगे थे.

‘‘तू सच बता ओ छांगू चेले, नहीं तो तेरा सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा,’’ कांता ने जोर की ठोकर मारी तो वह नीचे गिर पड़ा, फिर उठ कर उस के पैर पकड़ लिए.

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‘‘गांव के भाईबहनो, मैं तो चेला बन कर तुम सब को ठगता था. कई लड़कियों और औरतों को अंधविश्वास में डाल कर मैं ने उन से कुकर्म किया, उन से रुपएपैसे ऐंठे. मुझे माफ कर दीजिए माता महाकाली. आज के बाद मैं कभी बुरे काम नहीं करूंगा.’’

गुर, चेले, मौहता और कारदारों ने सब के सामने सच उगल दिया. डिंपल और कांता ने उछलतेचीखते उन्हें लातें मारमार कर वहां से भागने पर मजबूर कर दिया.

एक नौजवान ने पेड़ से एक टहनी तोड़ कर कारदार और मौहता भागू को पीट दिया. डिंपल और जोर से चीखी, ‘‘जाओ दुष्टो, भाग जाओ, अब कभी गांव मत आना.’’ वे सिर पर पैर रख कर भाग गए और 2 मील नीचे लंबा डग नदी के तट पर जीभ निकाले लंबे पड़ गए. उन की पूरे गांव के सामने पोल खुल गई थी. वे एकदूसरे से भी नजरें नहीं मिला पा रहे थे.

कांता ने उछलतेचीखते जोर की किलकारी मारते हुए गुस्से से कहा, ‘‘गांव वालो, ध्यान से सुनो. खशलोहार के नाम पर रास्ते मत बांटो, वरना मैं अभी तुम सब को शाप दे दूंगी.’’ ‘माफी काली माता, शांत हो जाइए. आप की जय हो. हम रास्ते नहीं बांटेंगे. माफीमाफी,’ सैकड़ों मर्दऔरत एक आवाज में बोल उठे. बच्चे तो पहले ही डर के मारे रोने लगे थे.

काली और महाकाली के डर से अब खशखश न थे और लोहार लोहार न थे, लेकिन वे सारे गुर खालटू, चेले, मौहता व कारदारों से ठगे जाने पर दुखी थे. ‘माफी दे दो महाकाली माता. आप दोनों देवियां शांत हो जाइए. हमारे मन का मैल खत्म हो गया है. शांत हो जाइए माता,’ कई औरतें हाथ जोड़े एकसाथ बोलीं.

‘‘क्या माफ कर दें बहन काली?’’

‘‘हां बहन, इन्हें माफ कर दो. पर ये सारे भविष्य में झूठे और पाखंडी लोगों से सावधान रहें.’’

‘हम सावधान रहेंगे.’ कई आवाजें एकसाथ गूंजी. कुछ देर उछलनीचीखने और दराट लहराने के बाद डिंपल ने कहा, ‘‘काली बहन, अब लौट चलें अपने धाम. हमारा काम खत्म.’’

‘‘हां दीदी, अब लौट चलें.’’

डिंपल और कांता कुछ देर उछलींचीखीं, फिर ‘धड़ाम’ से धरती पर गिर पड़ीं. काफी देर तक चारों ओर सन्नाटा छाया रहा. सब की जैसे बोलती बंद हो गई थी.

जब काफी देर डिंपल और कांता बिना हिलेडुले पड़ी रहीं, तो कांता की दादी ने मंदिर के पास से पानी भरा लोटा उठाया और उन के चेहरे पर पानी के छींटे मारे. वे दोनों धीरेधीरे आंखें मलती उठ बैठीं. वे हैरानी से चारों ओर देखने लगी थीं. फिर कांता ने बड़ी मासूमियत से अपनी दादी से पूछा, ‘‘दादी, मुझे क्या हुआ था?’’ ‘‘और मुझे दादी?’’ भोलेपन से डिंपल ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं. आज सच और झूठ का पता चल गया है. लूट और पाखंड का पता लग गया है. जाओ भाइयो, सब अपनेअपने घर जाओ.’’

धीरेधीरे लोग अपने घरों को लौटने लगे. दादी कांता का हाथ पकड़ कर बच्ची की तरह उसे घर ले गईं. डिंपल को उस की मां और बापू घर ले आए. शाम गहराने लगी थी और हवा खुशबू लिए सरसर बहने लगी थी. एक बार फिर डिंपल और कांता सुनसान मंदिर के पास बैठ कर ठहाके लगने लगी थीं.

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‘‘बहन महाकाली.’’

‘‘बोलो बहन काली.’’

‘‘आज कैसा रहा सब?’’

‘‘बहुत अच्छा. बस, अब कदम रुकेंगे नहीं. पहली कामयाबी की तुम्हें बधाई हो कांता.’’

‘‘तुम्हें भी.’’

दोनों ने ताली मारी, फिर वे अपने गांव और आसपास के इलाकों को खुशहाल बनाने के लिए योजनाएं बनाने लगीं. आकाश में चांद आज कुछ ज्यादा ही चांदनी बिखेरने लगा था.

वक्त की अदालत में: भाग 4- मेहर ने शौहर मुकीम के खिलाफ क्या फैसला लिया

मेहर ने क्या चाहा था. बस, शादी के बाद एक सुकूनभरी जिंदगी. वह भी न मिल सकी उसे. पति ऐसा मिला जिस ने उसे पैर की जूती से ज्यादा कुछ न समझा. लेकिन वक्त की धारा में स्थितियां बदलती हैं और वह ऐसी बदली कि…

एक लंबी जद्दोजेहद के बावजूद कामांध मुकीम बारबार मुंह से  फुंफकार निकालते हुए सहर को अपनी तरफ खींचने के लिए जोर लगा रहा था. तभी मैं ने एक जोरदार लात उस के कूल्हे पर दे मारी. वह पलट कर चित हो गया. गुस्से से बिफर कर मैं ने दूसरी लात उस के ऊपर दे मारी. दर्द से चीखने लगा. मारे दहशत के मैं ने जल्दी से सहर का हाथ खींच कर उठाया और तेजी से उसे कमरे से बाहर खींच कर दरवाजे की कुंडी चढ़ा दी. और धड़धड़ करती सीढि़यां उतर कर संकरे आंगन के दूध मोगरे के पेड़ के साए तले धम्म से बैठ कर बुरी तरह हांफने लगी.

रात का तीसरा पहर, साफ खुले आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे. नीचे के कमरों में देवरदेवरानी और सास के खर्राटों की आवाजें गूंज रही थीं. दोनों बहनें दम साधे चौथे पहर तक एकदूसरे से लिपटी, गीली जमीन पर बैठी अपनी बेकसी पर रोती रहीं. ऊपर के कमरे में पूरी तरह खामोशी पसरी पड़ी थी. नशे में धुत मुकीम शायद सुधबुध खो कर सो गया था.

अलसुबह मैं छोटी बहन को उंगली के इशारे से यों ही चुप बैठे रहने को कह कर दबे कदमों से ऊपर पहुंची. बिना आवाज किए कुंडी खोली. हलके धुंधलके में मुकीम का नंगा शरीर देखते ही मुंह में कड़वाहट भर गई. थूक दिया उस के गुप्तांग पर. वह कसमसाया, लेकिन उठ नहीं सका. मैं ने पर्स में पैसे ठूंसे और दोनों नींद से बो िझल बच्चों को बारीबारी कर के नीचे ले आई और दबेपांव सीढि़यां उतर गई. दोनों बहनें मेनगेट खोल कर पुलिस थाने की तरफ जाने वाली सड़क की ओर दौड़ने लगीं.

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दिन का उजाला शहर के चेहरे पर खींची सड़कों पर फैलने लगा था. ठंडी हवा के  झोंके राहत देने लगे थे. चलते हुए हांफने लगी थीं हम दोनों बहनें. पुलिस थाने से पहले एक पुलिया पर बैठ धौंकती सांसों पर काबू पाने का निरर्थक प्रयास करने लगीं. सड़क पर मौर्निंग वाक करते इक्कादुक्का लोग दिखाई देने लगे थे. बच्चों की आंखें भी खुल गई थीं. मम्मी और खाला को सड़क के किनारे बैठा देख कर वे हैरानी से पूछने लगे, ‘क्या हुआ मम्मी, आप रो क्यों रही हैं?’ ‘कुछ नहीं बेटे’, कह कर मैं ने रुलाई दबाते हुए दोनों बच्चों को सीने से चिपका लिया.

इस घटना ने मेरे दिलोदिमाग को  झक झोर दिया. क्या गजब कर रही हो मेहर? कुंआरी बहन को पुलिस थाने में खड़ा कर के अपने शौहर की करतूतों का बखान करते हुए क्या बदनामी के छीटों से उस के सुनहरे भविष्य पर कालिमा पोत दोगी. तुम्हारी कमजोरी के कारण पहले ही वह मर्द तुम पर इतना हावी है, और अब भी उस का क्या बिगाड़ लोगी. वह मर्द है, सुबूतों के अभाव में बेदाग बरी हो जाएगा. लेकिन तुम्हारी बहन के साथ बलात्कार की तोहमत लगते ही वह कानून और समाज दोनों के हाथों बुरी तरह रुसवा कर दी जाएगी. तुम्हारा सदमा क्या कम है अम्मीअब्बू के लिए जो अब अपने पति के अक्षम्य अपराध की खातिर उन की जिंदगी को नारकीय बनाने जा रही हो. तुम्हारी अबोध बहन जिंदगीभर मीठे खवाबों की लाश ढोतेढोते खुद एक जिंदा लाश बन जाएगी. क्यों बरबाद कर रही हो बहन की जिंदगी? यह तुम्हारी जंग है, तुम लड़ो और जीतो. मैं जैसे डरावने खवाब से जागी.

नहीं, नहीं, मैं अपनी चरमराती जिंदगी की काली छाया अपनी छोटी बहन के उजले भविष्य पर कतई नहीं पड़ने दूंगी. धीरेधीरे मेरा चेहरा कठोर होने लगा. एक ठोस फैसला लिया, ‘सहर, तुम अभी इसी वक्त स्टेशन के लिए रवाना हो जाओ. एन्क्वायरी से पूछ कर रायपुर जाने वाली पहली ट्रेन की जनरल बोगी में बैठ जाना. सामने से गुजरते रिकशे को रोक लिया मैं ने. सहर रात के हादसे से बेहद डर गई थी. दिल से बहन को उस गिद्ध के नुकीले पंजों के बीच अकेले छोड़ना नहीं चाह रही थी लेकिन मेरे बारबार इसरार करने पर रिकशे पर बैठ गई.

सूरज अपनी सुनहरी किरणों के कंधों पर सवार धीरेधीरे  आसमान पर चढ़ने लगा था. पूरा शहर, गलीकूचे, घर उजाले से दमकने लगे थे, लेकिन मेरी ब्याहता जिंदगी का सूरज आज हमेशाहमेशा के लिए डूबने वाला है, यह जानते हुए भी मैं दोनों बच्चों की उंगली पकड़े पुलिस थाने के मुख्यद्वार तक पहुंच गई.

रात की ड्यूटी वाले पुलिसकर्मी खाकी पैंट पर सिर्फ सफेद बनियान पहने दोनों हाथ ऊपर कर के अंगड़ाइयां ले कर मुंह से लंबीलंबी उबासियां लेते हुए रात की खुमारी उतार रहे थे.

‘मु झे रिपोर्ट लिखवानी है,’ मेरा चेहरा सख्त और आवाज में पुख्तगी थी. 2 बच्चों के साथ मैक्सी पहने सामने खड़ी महिला को देख कर भांपते देर नहीं लगी. वे समझ गए कि नारी उत्पीड़न और घरेलू मारपीट का मामला लगता है.

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सिपाही ने बीड़ी सुलगाते हुए पूछा, ‘क्या हुआ?’

मैं ने बहन के साथ बलात्कार की कोशिश वाली घटना को छिपा कर बाकी सारी दास्तान आंसूभरी आंखों और लरजती आवाज से सुना दी.

‘पढ़ीलिखी लगती है’, सिपाही दूसरे की तरफ देख कर फुसफुसाया. फिर बोला, ‘रिपोर्ट तो हम लिख लेंगे मैडम, मगर यहां आएदिन ही औरतमर्द का  झगड़ा भांगड़ का तमाशा देखते हैं हम.’

‘मु झ पर जुल्म हो रहा है. मैं अपनी सुरक्षा के लिए आप के पास रिपोर्ट लिखवाने आई हूं. और आप इसे तमाशा कह रहे हैं?’

‘अरे मैडम, हम तो रोेजिच ये भांगड़ देखते हैं न. औरत बड़े गुस्से में आ कर रिपोर्ट लिखवाती है अपने मरद और ससुराल वालों के खिलाफ. फिर पता  नहीं कहां से उस के भीतर हिंदुस्तानी औरत का मोरल सिर उठाने लगता है और वह पति को ले कर कंप्रोमाइज करने आ जाती है. ऐसे में हमारी पोजिशन बड़ी खराब हो जाती है. न तो हम कोई ऐक्शन ले सकते हैं, न ही थाने का मजाक बनते देख सकते हैं. आप बुरा नहीं मानने का,’ होंठ टेढ़े कर के बीड़ी के आखिरी सिरे की आग को टेबल पर रगड़ता हुआ बोला सिपाही.

‘नहीं, मैं रिपोर्ट वापस नहीं लूंगी. थक गई हूं मैं 12 सालों से रोजरोज गालियां सुनते और मार खाते हुए’, कह कर मैं ने गले पर लिपटा दुपट्टा नीचे खिसका दिया. गले और कंधे पर जमे खून के धब्बे और नीले निशान देख कर थाना इंचार्ज ने सारी स्थिति सम झ कर रिपोर्ट लिख दी. महाराष्ट्र पुलिस हमेशा से अपनी मुस्तैदी के कारण शाबाशी की हकदार रही है. तुरंत हरकत में आ गई. मु झे लेडी पुलिस के साथ मेओ अस्पताल मैडिकल के लिए भेजा और दूसरी तरफ नंगे पड़े मुकीम को थाने ले आई.

दूसरे दिन लोकल अखबारों में मर्दाना वहशत को महिला समाज में दशहत बना कर सुर्खियों में खबर छपी, ‘सरकारी शिक्षिका घरेलू हिंसा की शिकार, पति पुलिस कस्टडी में.’ पुलिस ने मु झे बच्चों के साथ घर पहुंचा दिया और वायरलैस से खबर दे कर अब्बू को नागपुर बुलवा लिया. तीसरे दिन शाम को ट्रक में भर कर बेटी का सामान स्कूल क्वार्टर में पहुंचा दिया. अब्बू एक हफ्ते तक साथ रहे. मेरे सिर पर हाथ रख कर सम झाते रहे, ‘सब्र करो, बेटा. सब ठीक हो जाएगा.’

घर के टूटने के मानसिक आघात से उबरने में लंबा वक्त लगा मु झे. अब्बू वापस चले गए. मैं बच्चों के साथ करोड़ों की आबादी वाले देश में तनहा रह गई.

स्कूल में सहकर्मियों के साथसाथ विद्यार्थियों से नजरें मिलाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थी. बचपन से ही मैं अंतर्मुखी, अल्पभाषी, कभी भी किसी से अपना दुखदर्द बांटने के लिए शब्द नहीं बटोर पाती थी. रात की भयावहता मेरे अंदर के सुलगते ज्वालामुखी के लावे को आंखों के रास्ते निकालने में मदद करती. होंठों पर गहरी खामोशी और आंखों के नीचे काले दायरे मेरी बेबसी की कहानी के लफ्ज बन जाते. हर रात आंसुओं से तकिया भीगता. मेरा खंडित परिवार मिलिट्री एरिया के स्कूल में महफूज तो था लेकिन डाक टिकट के परों पर बैठ कर कागजी यमदूतों को मु झ तक पहुंचने से रोकने के लिए कोई कानून नहीं बना था.

2 महीने बाद ही कोर्ट का नोटिस मिला, ‘घर से चोरी कर के चुपचाप भागने का इलजाम…’ चीजों की लिस्ट में आधुनिक घरेलू चीजों के अलावा इतने जेवरात और रुपयों का जिक्र था जिन्हें मुकीम ने कभी देखा भी नहीं होगा. एक हफ्ते बाद फिर दूसरा नोटिस मिला, ‘बच्चों पर पिता का मालिकाना हक जताने का दावा.’

वकील ने तसल्ली दी थी, ‘दुहानी गाय हाथ से निकल गई. बस, इस की तिलमिलाहट है. जो शख्स अच्छा शौहर नहीं बन सका वह अच्छा बाप कैसे बन सकता है.’

प्राथमिक शिक्षिका की सीमित तनख्वाह, उस पर सरकारी क्वार्टर का किराया, फैस्टिवल एडवांस की कटौती, बच्चों की किताबों और घर का खर्च. महीने के आखिरी हफ्ते में एक वक्त की रोटी से ही गुजर करनी पड़ती.

तीसरे महीने प्राचार्य ने मेरे सारे ओरिजिनल सर्टिफिकेट मंगवाए तो मुकीम की बिजबिजाती बदलेभरी सोच का एक और घिनौना सुबूत सामने आया, ‘जाली सर्टिफिकेट से हासिल नौकरी की एन्क्वायरी.’ 12 साल साथ रह कर भी मेरी एक भी खूबी मुकीम का दिल नहीं जीत सकी. बेरहम को अपने बच्चों पर भी रहम नहीं आया.

आधी रात को घर की खटकती कुंडी की कर्कश आवाज ने मु झे नींद से जगा दिया. दरवाजा खोला तो 3 कलीग, एक महिला 2 पुरुष, मुझे निर्विकार और उपेक्षित भाव से घूर रहे थे. ‘सर, इस वक्त?’ शब्द गले में अटकने लगे मेरे.

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सौरी मैडम, फौर डिस्टर्बिंग यू इन दिस औड टाइम. मिसेस ने बतलाया कि आप की तबीयत खराब है, इसलिए खबर लेने आए हैं. अंदर आने के लिए नहीं कहेंगी? सहज बनने का अभिनय करते हुए दरवाजे से मेरे थोड़ा हटते ही तीनों घर में घुस आए. मेरे माथे पर हथौड़े पड़ने लगे. मेरी बीमारी की  झूठी खबर किस दुश्मन ने उड़ाई होगी. और मेरी खैरियत जानने के लिए आधी रात का ही वक्त चुनने की गरज क्यों आन पड़ी मेरे कलीग्स को? लेकिन प्रत्यक्ष में ठहरी हुई  झील की तरह मैं शांत रही.

‘आप ने बरसात में छत के टपकने की कंपलेंट की थी न. कौन सा कमरा है?’ कहते हुए रस्तोगीजी घड़घड़ाते हुए बैडरूम में पहुंच गए, ‘एक्चुअली बिल्ंिडग मेंटिनैंस का चार्ज पिछले हफ्ते ही दिया गया है न मु झे.’

‘बच्चे सो गए क्या?’ महिला सहकर्मी ने बनावटी हमदर्दी दिखलाई और आंखें घुमाघुमा कर खूंटी पर टंगे कपड़ों और रैक पर रखे जूतों के साइज नापने लगी.

‘मैडम, क्या मैं आप का टौयलेट यूज कर सकता हूं?’ निगमजी ने औपचारिकता निभाई.

‘ओह, श्योर सर.’

तीनों अध्यापक घर के किचन, बैडरूम और बाथरूम का निरीक्षण करने लगे. मैं हैरानपरेशान, बस, चुपचाप उन्हें अपने ही घर में बेहिचक चहलकदमी करते देखती रही. दूसरे दिन दहकता शोला अंतरंग कलीग ने सीने में डाल दिया. ‘मुकीम ने हायर अथौरिटी से कंपलेंट की है कि यू आर लिविंग विद समबडी एल्स.’ सुन कर मेरे बरदाश्त का बांध तिलमिलाहट के तूफानी वेग में बुरी तरह से टूट गया.

मर्द समाज के पास औरत को बदनाम करने के लिए सब से सिद्धहस्त बाण, उस के चरित्र को  झूठमूठ ही आरोपित करना है, बस. औरत अपनी सचाई का सुबूत किसे बनाएगी? कौन कोयले की दलाली में हाथ काले करेगा? कोई सुबूत नहीं. चश्मदीद गवाह नहीं. अपराध और मढ़े गए ग्लानिबोध से टूटी, अपनेआप ही केंचुए की तरह अपने दामन के व्यास को समेट लेगी. सदियों से बड़ी ही कामयाबी से इस नुस्खे को आजमा कर मर्द समाज अपनी मर्दाना कामयाबी पर ठहाके लगाते हुए जश्म मना रहा है.

3 केसों की तारीखें पड़ने लगीं. कोर्ट के नोटिस आने लगे. वकील साहब ने मेरी नौकरी की मजबूरी को देख कर पेशी पर अपना मुंशी खड़ा करने का वादा किया. ‘मैडम, मेरी फीस कम कर दीजिए मगर मुंशी तो छोटी तनख्वाह वाला बालबच्चेदार आदमी है.’

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वक्त की अदालत में: भाग 3- मेहर ने शौहर मुकीम के खिलाफ क्या फैसला लिया

पलट कर देखा, तो मुकीम अंगारे उगलती आंखों और विद्रूप चेहरे पर व्यंग्यभरी मुसकान से बोला, ‘इतना सजधज कर स्कूल जा रही है, या कहीं मुजरा करने जा रही है.’ सुन कर मैं अपमान और लांछन के दर्द से तिलमिला गई, ‘हां तवायफ हूं न, मुजरा करने जा रही हूं. और तुम क्या हो, तवायफ की कमाई पर ऐश करने वाले.’

‘आज तो तु झे जान से मार डालूंगा मैं…ले, ले,’ कहते हुए मुकीम मेरे कमर से नीचे तक के लंबे घने खुले बालों को खींच कर घर के मुख्य दरवाजे पर ही पटक कर लातोंघूसों से मारने लगा. नई साड़ी तारतार हो गई. कुहनी, घुटना और ठुड्डी से खून बहने लगा. सड़क से आतेजाते लोग औरत की बदकिस्मती और मर्द की सरपस्ती का भयानक व हृदयविदारक दृश्य देखने लगे. ‘बड़ा जाहिल आदमी है, पढ़ीलिखी, नौकरीपेशा औरत के साथ कैसा जानवरों सा सुलूक कर रहा है,’कहते हुए औरतें रुक जातीं. जबकि मर्द देख कर भी अनदेखा करते हुए तटस्थभाव से आगे बढ़ जाते.

‘मियांबीवी का मामला है, अभी  झगड़ रहे हैं 2 घंटे बाद एक हो जाएंगे. बीच में बोलने वाले बुरे बन जाएंगे. छोड़ो न, हमें क्या करना है,’ कहते और सोचते हुए पड़ोसी खिड़कियां बंद करने लगे और राहगीर अपनी राह पकड़ कर आगे बढ़ गए.

भूख, तंगदस्ती, शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न अपनी पराकाष्ठा पार करने लगा था. फिर भी मैं अपने और बच्चों की लावारिसी की खौफनाक कल्पना से डर कर 12 सालों तक चुप्पी साध कर मुकीम के घर में ही रहने के लिए विवश थी. लेकिन मुकीम ने अस्मिता पर चोट  की तो मैं बिलबिला कर शेरनी की तरह बिफर गई, ‘लो मारो. और मारो मुझे. लो, बच्चों को भी मार डालो. अपनी तमाम खामियां और कमजोरियां मर्दाना ताकत से दबा कर सिर्फ मजबूर औरत पर जुल्म कर सकते हो न, बड़ा घमंड है अपने मर्द होने पर. जानती हूं मेरे बाद कई औरतों से कई बच्चे पैदा करने की ताकत है तुम में, लेकिन सच यह है कि इस के अलावा और कोई खूबी भी तो नहीं तुम में. इसलिए तो मेरे वकार, मेरी ईमानदारी को लहुलूहान कर के खुश होने का भ्रम पाल रखा है तुम ने.’

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‘साली, सजधज कर बाहर के मर्दों को रि झाने जाती है. कुछ कहने पर मुंहजोरी करती है. आज तो मैं तु झे सबक सिखा कर रहूंगा. दो पैसे कमाने का इतना घमंड दिखलाती है. ले, अब चला मुंह,’ कहते हुए मुकीम वहशी की तरह दौड़ा और पास पड़े 3 फुट लंबे चमड़े के पाइप को उठा कर पूरी ताकत से बरसाने लगा मेरे तांबे से जिस्म पर, सटाक, सटाक. आसमान देख रहा था चुपचाप, धरती देख रही थी चुपचाप, महल्ला देख रहा था चुपचाप, हवा बह रही थी चुपचाप. कोई एक कदम आगे न बढ़ा मुकीम की कलाई मरोड़ने के लिए. न ही मेरे जख्मों पर मरहम लगाने के लिए. पड़ोसिन सिद्दीकी आंटी मुंह पर पल्लू रख कर धीरे से बुदबुदाई थीं, ‘इसलिए तो औरत के बेबाक बाहर जाने पर पाबंदी लगाई जाती है. औरत को बाहर की हवा लगते ही वह मुंहफट और दीदेफटी हो जाती है.’

2 बच्चों की मां, कमाई करने वाली औरत, घर में नौकरानी की तरह खटने वाली औरत मैं 12 वर्षों तक अपने हक की रक्षा न कर सकी. खुदगर्ज मर्द के साथ बराबरी का सम्मान हासिल न कर पाईर्. 21वीं सदी की मुसलिम महिला की इस से बड़ी त्रासदी व विडंबना और क्या हो सकती है.

3 दशकों पहले राजीखुशी के समाचार खतों के जरिए ही मालूम होते थे. मैं ने कई बार सोचा, अम्मी व अब्बू को तब के मौजूदा हालात से वाकिफ करवा दूं, मगर हर बार उन की बुजुर्गी का सवाल कैक्टस की तरह चुभने लगता. मैं अपने भीतर की तपिश को ज्यादा दिन बरदाश्त नहीं कर पाई. जिस्मोदिल चूरचूर हो गए थे. बुरी तरह से बीमार पड़ गई. स्कूल से लंबी छुट्टी. सूखा, टूटता, बिखरता शरीर. भूख से तड़पते दोनों मासूम बच्चों की सिसकियां. मुकीम को पछतावा तो दूर उन की फिक्र करने की भी चिंता न थी.

उस की कमीनगी ने एक और रूप से परिचित करवा दिया. ‘मेहर सीरियस, कम सून.’ पोस्टमैन के हाथ से तार लेते हुए अब्बू थरथराने लगे थे. ‘सहर, देख तो अब्बू को क्या हो गया. जल्दी से पानी ला,’ अम्मी की बदहवास चीखों ने घर की दीवारों को थर्रा दिया. तबीयत संभली तो तीसरे दिन अब्बू सहर के साथ मुकीम की ड्योढ़ी पर खड़े थे. लाचार, बेबस बाप, मेरे चेहरे के नीचे स्याह धब्बों को लाचारगी से देखते हुए सीने से लगा कर फफक कर रो पड़े. नाजों में पली फूल सी बच्ची पर इतनी बर्बरता के निशान, उफ, बेटी पैदा करने की यह सजा. इतनी क्रूरता, ऐसा पाशिविक बरताव, मालूम होता तो पैदा होते ही नमक चटा देते, गला घोंट देते.

पढ़ेलिखे दामाद ने कितने लोगों की जिंदगी को अबाब बना कर रख दिया. न कानून सख्त है, न समाज में हौसला है एक औरत को शारीरिक, मानसिक यंत्रणा देने वाले मर्द को सजा देने का. ये उन के दिए गए संस्कार ही थे जिस की बदौलत बेटी ने ससुराल की ड्योढ़ी से बाहर कदम नहीं निकाला.

अब्बू की कोशिश यही रही कि बात को संभाला जाए. बेबाप के बच्चे, बेशौहर की औरत समाज में नासूर की तरह ही पलते हैं. यह सोच कर अपने आक्रोश का जहर पी कर पत्थर की तरह वे चुप रहे. सहर ने किचन संभाल लिया. अब्बू सौदासलूक के साथ मेरे रिसते जख्मों के लिए मरहम और दवाइयां ले आए. शरीर के घाव तो भर जाएंगे लेकिन मनमस्तिष्क के गहरे घावों को भरने में शायद पूरी उम्र भी कम पड़ जाए. मुकीम परिवार से कटाकटा ही रहा. अब्बू भी उस के मुंह लग कर अपनी इज्जत खोना नहीं चाहते थे. मुसलिम मध्यवर्गीय परिवार का सब से विवश और निरीह प्राणी बेटियों का बाप होता है.

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हफ्तेभर बाद मेरे सिर पर सहानुभूति का हाथ रख कर बोले थे अब्बू, ‘बेटा, आप की अम्मी शुगर और ब्लडप्रैशर की मरीज हैं, आप के लिए बहुत फिक्रमंद हो रही होंगी. मैं शाम की गाड़ी से घर वापस जाने की इजाजत चाहता हूं.’

‘नहीं अब्बू, हमें अकेला छोड़ कर मत जाइए. ये दरिंदे तो हमें…’ मैं ने कस कर अब्बू के दोनों हाथ पकड़ लिए थे. ‘न, न… बेटा, मरे आप के दुश्मन. हौसला रखिए. अभी आप को दोनों बच्चों को पढ़ालिखा कर काबिल बनाना है, छोटी बहनों को विदा करना है, छोटे भाइयों को बड़ा होते देखना है, और पिं्रसिपल भी तो बनना है.’

‘नहीं, नहीं अब्बू, आप के साथ होने से बड़ी तसल्ली मिलती है. आप के अलावा इस शेर की मांद में हमारी हिफाजत कौन करेगा. आप मत जाइए, अब्बू.’

असमंजस की स्थिति में गिरफ्तार अब्बू काफी देर बाद बोल सके, ‘अच्छा, मैं सहर को कुछ दिनों के लिए आप के पास छोड़ जाता हूं. तसल्ली रहेगी आप को. तबीयत ठीक होते ही खत लिख देना. मैं आ कर ले जाऊंगा.’ डूबते को तिनके का सहारा. मेरा कोई तो अपना मेरे साथ होगा इन लोगों के बीच.

मुकीम अपने रूखे, नीरस और निष्ठुर स्वभाव के कारण बीवीबच्चों के साथ संवेदनशीलता से स्पंदनरहित था. यों तो घर का माहौल शांत था, फिर भी तूफानी हवाओं की सांयसांय अकसर कनपटी गरम कर जाती.

सहर खाली वक्त में बचपन की बातें याद दिला कर हंसाने की पुरजोर कोशिश करती, मगर मेरे चेहरे पर फीकी हंसी की एक लकीर लाने में भी कामयाब न हो पाती.

मैं ने पपड़ाए जख्मों के साथ ही स्कूल जौइन किया. स्टाफरूम की हर निगाह सवाली, मेरे गुलाबी, फड़फड़ाते होंठों से वहशीयत की कहानी सुनने के लिए. मगर सिले होंठों की सिवन कभी न उधेड़ने की प्रतिज्ञा करने पर मेरे खाते में सिर्फ हमदर्दी की शबनम ही आती रही.

उस दिन रोज ही की तरह सहर दोनों बच्चों को अगलबगल लिए दूसरे कमरे में सोई थी. दरवाजे का परदा गिरा था. मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी. पानी पीने के लिए उठना ही चाहती थी कि सीढि़यों पर चढ़ती पदचाप सुन कर आंखें मूंदे करवट बदल कर लेटी रही. दवाइयों का असर और शरीर की टूटन ने धीरेधीरे नींद की आगोश में भर दिया. अकसर मुकीम पलंग की दूसरी तरफ चुपचाप आ कर लेट जाता था.

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तीसरे पहर सहर की जोरदार चीख सुन कर मैं कच्ची नींद से उठ कर दूसरे कमरे की तरफ भागी. नींद से बो िझल आंखों को कुछ भी नजर नहीं आया, तो दीवार पर टटोल कर बिजली का बटन दबा दिया. दूधिया रोशनी में सामने का दृश्य देख कर पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. शराब के नशे में धुत मुकीम कमर के नीचे से एकदम नंगा, चित लेटी सहर के ऊपर लेटा एक हाथ से उस के मुंह को दबाए, दूसरे हाथ से उस की छातियां मसल रहा था. दिल हिला देने वाला पाशविक दृश्य किसी भी सामान्य इंसान के रोंगटे खड़े कर देने के लिए काफी था. मैं ने अपनी पूरी ताकत सहर को मुकीम की गिरफ्त से छुड़ाने में लगा दी.

अगले भाग में पढ़ें- वक्त की धारा में स्थितियां बदलती हैं और वह ऐसी बदली कि…

मोबाइल पर फिल्म : सूरज ने कैसे दिखाई धन्नो को फिल्म

ऐसे टुकुरटुकुर क्या देख रहा है?’’ अपना दुपट्टा संभालते हुए धन्नो ने जैसे ही पूछा, तो एक पल के लिए सूरज सकपका गया.

‘‘तुझे देख रहा हूं. सच में क्या मस्त लग रही है तू,’’ तुरंत संभलते हुए सूरज ने जवाब दिया. धन्नो के बदन से उस की नजरें हट ही नहीं रही थीं.

‘‘चल हट, मुझे जाने दे. न खुद काम करता है और न ही मुझे काम करने देता है…’’ मुंह बनाते हुए धन्नो वहां से निकल गई.

सूरज अब भी उसे देख रहा था. वह धन्नो के पूरे बदन का मुआयना कर चुका था.

‘‘एक बार यह मिल जाए, तो मजा आ जाए…’’ सूरज के मुंह से निकला.

सूरज की अकसर धन्नो से टक्कर हो ही जाती थी. कभी रास्ते में, तो कभी खेतखलिहान में. दोनों में बातें भी होतीं. लेकिन सूरज की नीयत एक ही रहती… बस एक बार धन्नो राजी हो जाए,

फिर तो…

धन्नो को पाने के लिए सूरज हर तरह के हथकंडे अपनाने को तैयार था.

‘‘तू कुछ कामधंधा क्यों नहीं करता?’’ एक दोपहर धन्नो ने सूरज से पूछा.

‘‘बस, तू हां कर दे. तेरे साथ घर बसाने की सोच रहा हूं,’’ सूरज ने बात छेड़ी, तो धन्नो मचल उठी.

‘‘तू सच कह रहा है,’’ धन्नो ने खुशी में उछलते हुए सूरज के हाथ पर अपना हाथ रख दिया.

सूरज को तो जैसे करंट मार गया. वह भी मौका खोना नहीं चाहता था. उस ने झट से उस का हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘‘सच धन्नो, मैं तुम्हें अपनी घरवाली बनाना चाहता हूं. तू तो जानती है कि मेरा बाप सरपंच है. नौकरी चाहूं, तो आज ही मिल जाएगी.’’

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सूरज ने भरोसा दिया, तो धन्नो पूछ बैठी, ‘‘तो नौकरी क्यों नहीं करते? फिर मेरे मामा से मेरा हाथ मांग लेना. कोई मना नहीं करेगा.’’

सूरज ने हां में सिर हिलाया. धन्नो उस के इतना करीब थी कि वह अपनी सुधबुध खोने लगा.

‘‘यहां कोई नहीं है. आराम से लेट कर बातें करते हैं,’’ सूरज ने इधरउधर देखते हुए कहा.

‘‘मैं सब जानती हूं. तुम्हारे दिमाग का क्या भरोसा, कुछ गड़बड़ कर बैठे तो…’’ धन्नो ने तपाक से जवाब दिया, ‘‘ब्याह से पहले यह सब ठीक नहीं… मरद जात का क्या भरोसा?’’ इतना कहते हुए वह तीर की मानिंद निकल गई. जातेजाते उस ने सूरज के हाथ को कस कर दबा दिया था. सूरज इसे इशारा समझने लगा.

‘‘फिर निकल गई…’’ सूरज को गुस्सा आ गया. उसे पूरा भरोसा था कि आज उस की मुराद पूरी होगी. लेकिन धन्नो उसे गच्चा दे कर निकल गई.

अब तो सूरज के दिलोदिमाग पर धन्नो का नशा बोलने लगा. कभी उस का कसा हुआ बदन, तो कभी उस की हंसी उसे पागल किए जा रही थी. वैसे तो वह सपने में कई बार धन्नो को पा चुका था, लेकिन हकीकत में उस की यह हसरत अभी बाकी थी.

सरपंच मोहन सिंह का बेटा होने के चलते सूरज के पास पैसों की कोई कमी नहीं थी. सो, उस ने एक कीमती मोबाइल फोन खरीदा और उस में खूब ब्लू फिल्में भरवा दीं. उन्हें देखदेख कर धन्नो के साथ वैसे ही करने के ख्वाब देखने लगा.

‘‘अरे, तू इतने दिन कहां था?’’ धन्नो ने पूछा. उस दिन हैंडपंप के पास पानी भरते समय दोनों की मुलाकात हो गई.

‘‘मैं नौकरी ढूंढ़ रहा था. अब नौकरी मिल गई है. अगले हफ्ते से ड्यूटी पर जाना है,’’ सूरज ने कुछ सोच कर कहा, ‘‘अब तो ब्याह के लिए हां कर दे.’’

‘‘वाह… वाह,’’ नौकरी की बात सुनते ही धन्नो उस से लिपट गई. सूरज की भावनाएं उफान मारने लगीं. उस ने तुरंत उसे अपनी बांहों में भर लिया.

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‘‘हां कर दे. और कितना तरसाएगी,’’ सूरज ने उस की आंखों में आंखें डाल

कर पूछा.

‘‘तू गले में माला डाल दे… मांग भर दे, फिर जो चाहे करना.’’

सूरज उसे मनाने की जीतोड़ कोशिश करने लगा.

‘‘अरे वाह, इतना बड़ा मोबाइल फोन,’’ मोबाइल फोन पर नजर पड़ते ही धन्नो के मुंह से निकला, ‘‘क्या इस में सिनेमा है? गानेवाने हैं?’’

‘‘बहुत सिनेमा हैं. तू देखेगी, तो चल उस झोंपड़े में चलते हैं. जितना सिनेमा देखना है, देख लेना,’’ सूरज धन्नो के मांसल बदन को देखते हुए बोला, तो

वह उस के काले मन के इरादे नहीं भांप सकी.

धन्नो राजी हो गई. सूरज ने पहले तो उसे कुछ हिंदी फिल्मों के गाने दिखाए, फिर अपने मनसूबों को पूरा करने के लिए ब्लू फिल्में दिखाने लगा.

‘‘ये कितनी गंदी फिल्में हैं. मुझे नहीं देखनी,’’ धन्नो मुंह फेरते हुए बोली.

‘‘अरे सुन तो… अब अपने मरद से क्या शरमाना? मैं तुम से शादी करूंगा, तो ये सब तो करना ही होगा न, नहीं तो हमारे बच्चे कैसे होंगे?’’ उसे अपनी बाजुओं में भरते हुए सूरज बोला.

‘‘वह तो ठीक है, लेकिन शादी करोगे न? नहीं तो मामा मेरी चमड़ी उतार देगा,’’ नरम पड़ते हुए धन्नो बोली.

‘‘मैं कसम खाता हूं. अब जल्दी से घरवाली की तरह बन जा और चुपचाप सबकुछ उतार कर लेट जा,’’ इतना कहते हुए सूरज अपनी शर्ट के बटन खोलने लगा. उस के भरोसे में बंधी धन्नो विरोध न कर सकी.

‘‘तू सच में बहुत मस्त है…’’ आधा घंटे बाद सूरज बोला, ‘‘किसी को कुछ मत बताना. ले, यह दवा खा ले. कोई शक नहीं करेगा.’’

‘‘लेकिन, मेरे मामा से कब बात करोगे?’’ धन्नो ने पूछा, तो सूरज की आंखें गुस्से से लाल हो गईं.

‘‘देख, मजा मत खराब कर. मुझे एक बार चाहिए था. अब यह सब भूल जा. तेरा रास्ता अलग, मेरा अलग,’’ जातेजाते सूरज ने कहा, तो धन्नो पर जैसे बिजली टूट गई.

अब धन्नो गुमसुम सी रहने लगी. किसी बात में उस का मन ही नहीं लगता.

‘‘अरे, तेरे कपड़े पर ये खून के दाग कैसे?’’ एक दिन मामी ने पूछा, तो धन्नो को जैसे सांप सूंघ गया. ‘‘पिछले हफ्ते ही तेरा मासिक हुआ था, फिर…’’

धन्नो फूटफूट कर रोने लगी. सारी बातें सुन कर मामी का चेहरा सफेद पड़ गया. बात सरपंच मोहन सिंह के पास पहुंची. पंचायत बैठी.

मोहन सिंह के कड़क तेवर को सभी जानते थे. उस के लिए किसी को उठवाना कोई बड़ी बात नहीं थी.

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‘‘तो तुम्हारा कहना है कि सूरज ने तुम्हारे साथ जबरदस्ती की है?’’ सरपंच के आदमी ने धन्नो से पूछा.

‘‘नहीं, सूरज ने कहा था कि वह मुझ से ब्याह करेगा, इसलिए पहले…’’

‘‘नहींनहीं, मैं ने ऐसा कोई वादा नहीं किया था…’’ सूरज ने बीच में टोका, ‘‘यह झूठ बोल रही है.’’

‘‘मैं भी तुम से शादी करूंगा, तो क्या तू मेरे साथ भी सोएगी,’’ एक मोटे से आदमी ने चुटकी ली.

‘‘तू है ही धंधेवाली…’’ भीड़ से एक आवाज आई.

‘‘चुप करो,’’ मोहन सिंह अपनी कुरसी से उठा, तो वहां खामोशी छा गई. वह सीधा धन्नो के पास पहुंचा.

‘‘ऐ छोकरी, क्या सच में मेरे सूरज ने तुझ से घर बसाने का वादा किया था?’’ उस ने धन्नो से जानना चाहा.

मोहन सिंह के सामने अच्छेअच्छों की बोलती बंद हो जाती थी, लेकिन न जाने क्यों धन्नो न तो डरी और न ही उस की जबान लड़खड़ाई.

‘‘हां, उस ने मुझे घरवाली बनाने की कसम खाई थी, तभी तो मैं राजी…’’ यह सुनते ही सरपंच का सिर झुक गया. भीड़ अब भी शांत थी.

‘‘बापू, तू इस की बातों में न आ…’’ सूरज धन्नो को मारने के लिए दौड़ा.

‘‘चुप रह. शर्म नहीं आती अपनी घरवाली के बारे में ऐसी बातें करते हुए. खबरदार, अब धन्नो के बारे में कोई एक शब्द कहा तो… यह हमारे घर की बहू है. अब सभी जाओ. अगले लगन में हम सूरज और धन्नो का ब्याह रचाएंगे.’’

धन्नो मोहन सिंह के पैरों पर गिर पड़ी. उस के मुंह से इतना ही निकला, ‘‘बापू, तुम ने मुझे बचा लिया.’’

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अंधा मोड़

‘‘सौरभ, ऐसे कब तक चलेगा?’’

‘‘तुम्हारा क्या मतलब है माधवी?’’

‘‘मेरा मतलब यह है कि सौरभ…’’ माधवी ने एक पल रुक कर कहा, ‘‘अब हम ऐसे कब तक छिपछिप कर मिला करेंगे?’’

‘‘जब तक तुम्हारा और मेरा सच्चा प्यार है…’’ समझाते हुए सौरभ बोला, ‘‘फिर तुम क्यों घबराती हो?’’

‘‘मैं घबराती तो नहीं हूं सौरभ, मगर इतना कहती हूं कि अब हमें शादी कर लेनी चाहिए,’’ माधवी ने जब यह प्रस्ताव रखा, तब सौरभ सोचने पर मजबूर हो गया.

हां, सौरभ ने माधवी से प्यार किया है, शादी भी करना चाहता है, मगर इस के लिए उस ने अपना मन अभी तक नहीं बनाया है. उस के इरादे कुछ और ही हैं, जो वह माधवी को बताना नहीं चाहता है. उस ने माधवी को अपने प्रेमजाल में पूरी तरह से फांस लिया है. अब मौके का इंतजार कर रहा है. उसे चुप देख कर माधवी फिर बोली, ‘‘क्या सोच रहे हो सौरभ?’’ ‘‘सोच रहा हूं कि हमें अब शादी कर लेनी चाहिए.’’

‘‘बताओ, कब करें शादी?’’

‘‘तुम तो जानती हो माधवी, मेरे मांबाप बचपन में ही गुजर गए थे. अंकल ने मुझे पालापोसा और पढ़ाया, इसलिए वे जैसे ही अपनी सहमति देंगे, हम शादी कर लेंगे.’’

‘‘मगर, डैडी मेरी शादी के लिए जल्दी कर रहे हैं…’’ समझाते हुए माधवी बोली, ‘‘मैं टालती जा रही हूं. आखिर कब तक टालूंगी?’’

‘‘बस माधवी, अंकल हां कर दें, तो हम फौरन शादी कर लेंगे.’’

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‘‘पता नहीं, तुम्हारे अंकल न जाने कब हां करेंगे.’’

‘‘जब हम ने इतने दिन निकाल दिए, थोड़े दिन और निकाल लो. मुझे पक्का यकीन है कि अंकल जल्दी ही हमारी शादी की सहमति देंगे,’’ कह कर सौरभ ने विश्वास जताया, मगर माधवी को उस के इस विश्वास पर यकीन नहीं हुआ. यह विश्वास तो सौरभ उसे पिछले 6-7 महीनों से दे रहा है, मगर हर बार ढाक के तीन पात साबित होते हैं. आखिर लड़की होने के नाते वह कब तक सब्र रखे. माधवी जरा नाराजगी से बोली, ‘‘नहीं सौरभ, तुम ने मुझ से प्यार किया है और मैं प्यार में धोखा नहीं खाना चाहती हूं. आज मैं अपना फैसला सुनना चाहती हूं कि तुम मुझ से शादी करोगे या नहीं?’’

‘‘देखो माधवी, मैं ने तो तुम से उतना ही प्यार किया है, जितना कि तुम ने मुझ से किया है…’’ समझाते हुए सौरभ बोला, ‘‘मगर, तुम मेरे हालात को क्यों नहीं समझ रही हो.’’ ‘‘मगर मेरे हालात को तुम क्यों नहीं समझ रहे हो सौरभ. तुम लड़के हो, मैं एक लड़की हूं. मुझ पर मांबाप का कितना दबाव है, यह तुम नहीं समझोगे…’’

एक बार फिर माधवी समझाते हुए बोली, ‘‘कितना परेशान कर रहे हैं वे शादी के लिए, यह तुम नहीं समझोगे.’’ ‘‘अपने पिता को जोर दे कर क्यों नहीं कह देती हो कि मैं ने शादी के लिए लड़का देख लिया है,’’ सौरभ बोला. ‘‘बस यही तो मैं नहीं कर सकती हूं सौरभ. तुम समझने की कोशिश क्यों नहीं कर रहे हो?’’

‘‘और तुम मेरे हालात को समझने की कोशिश क्यों नहीं कर रही हो…’’ सौरभ जरा नाराजगी से बोला. माधवी ने भी उसी नाराजगी में जवाब दिया, ‘‘ठीक है, तुम लड़के हो कर डरपोक बन कर रहते हो, तो मैं तो लड़की हूं. फिर भी मैं तुम्हारे फैसले का इंतजार करूंगी,’’ कह कर माधवी चली गई. सौरभ भी उसे जाते हुए देखता रहा. दोनों का प्यार कब परवान चढ़ा, यह उन को अच्छी तरह पता है. वैसे, सौरभ एक बिगड़ा हुआ नौजवान था, जबकि माधवी गरीब परिवार की लड़की. वह अपने मातापिता की एकलौती बेटी थी. उस से 2 छोटे भाई जरूर थे.

माधवी अब जवानी की दहलीज पर कदम रख चुकी थी. जब लड़की जवान हो जाती है, तब हर मातापिता के लिए चिंता की बात हो जाती है. माधवी के लिए लड़के की तलाश जारी थी. कुछ लड़के मिले, मगर वे दहेज के लालची मिले. माधवी के पिता रघुनाथ इतना ज्यादा दहेज नहीं दे सकते थे. वे चाहते थे कि माधवी का साधारण घर में ब्याह कर दें, जहां वह सुख से रह सके. मगर ऐसा लड़का उन्हें कई सालों तक नहीं मिला. माधवी सौरभ से शादी करना चाहती थी. वह बिना सोचेसमझे उसे अपना दिल दे बैठी थी. इन 6-7 महीनों में वह सौरभ के बहुत करीब आई, मगर उसे समझ नहीं पाई. उस ने उस पर प्यार भी खूब जताया. जरूरत की चीजें भी उसे खरीद कर दीं, मगर इस की हवा अपने मांबाप तक को नहीं लगने दी. इस के लिए उस ने 2-3 ट्यूशनें भी कर रखी थीं, ताकि मांबाप को यह एहसास हो कि वह ट्यूशन के पैसों से चीजें खरीद कर ला रही है. जब भी सौरभ का फोन आता, वह फौरन उस से मिलने चली जाती. तब घंटों बातें करती.

शादी के बाद क्याक्या करना है, सपनों के महल बनाती, मगर कभीकभी वह यह भी सोचती कि यह सब फिल्मों में होता है, असली जिंदगी में यह सब नहीं चलता है. मगर जब भी वह उस से शादी की बात करती, वह अंकल का बहाना बना कर टाल देता. आखिर ये अंकल थे कौन? इस का जवाब उस के पास नहीं था. तभी माधवी को एहसास हुआ कि कोई उस के पीछेपीछे बहुत देर से चला आ रहा है. उस ने पीछे मुड़ कर देखा, तो एक बूढ़ा आदमी था. माधवी ने ऊपर से नीचे तक घूरा, फिर गुस्से से बोली, ‘‘आप मेरे पीछेपीछे क्यों चल रहे हैं?’’ ‘‘मैं जानना चाहता हूं बेटी, जिस लड़के को तुम ने छोड़ा है, उस के बारे में क्या जानती हो?’’ उस बूढ़े ने यह सवाल पूछ कर चौंका दिया.

माधवी पलभर के लिए यह सोचती रही, ‘यह आदमी कौन है? और यह सवाल क्यों पूछ रहा है?’ कुछ देर तक माधवी कुछ जवाब नहीं दे सकी. तब उस बूढ़े ने फिर पूछा, ‘‘तुम ने जवाब नहीं दिया बेटी.’’

‘‘मगर, आप यह क्यों पूछना चाहते हैं बाबा?’’

‘‘इसलिए बेटी कि तुम्हारी जिंदगी बरबाद न हो जाए.’’

‘‘क्या मतलब है आप का? वह मेरा प्रेमी है और जल्दी ही हम शादी करने जा रहे हैं.’’

‘‘बेटी, मैं ने तुम्हारी सारी बातें सुन ली थीं, आड़ में रह कर…’’ वह बूढ़ा आदमी जरा खुल कर बोला, ‘‘जैसे ही तुम वहां से चली थीं, तभी से मैं तुम्हारे पीछेपीछे चला आ रहा हूं.

‘‘बेटी, जिस लड़के से तुम शादी करना चाहती हो, वह ठीक नहीं है.’’

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‘‘यह आप कैसे कह सकते हैं?’’

‘‘क्योंकि मैं उस का बाप हूं.’’

‘‘इस बुढ़ापे में झूठ बोलते हुए आप को शर्म नहीं आती? क्यों हमारे प्यार के बीच दुश्मन बन कर खड़े हो गए,’’ झल्ला पड़ी माधवी. ‘‘मुझे तो सौरभ ने बताया है कि उस के मांबाप बचपन में ही गुजर गए. एक अंकल ने उन्हें पालापोसा और आप उस के बाप बन कर कहां से टपक पड़े?’’ माधवी गुस्से से बोली. ‘‘तुझे कैसे यकीन दिलाऊं बेटी…’’ उस बूढ़े की बात में दर्द था. वह आगे बोला, ‘‘मगर, मैं सच कह रहा हूं बेटी, सौरभ मेरा नालायक बेटा है, जिसे मैं ने अपनी जमीनजायदाद से भी कानूनन अलग कर दिया है.  ‘वह तुम से शादी नहीं करेगा बेटी, बल्कि शादी के नाम पर तुम्हें कहीं ले जा कर किसी कोठे पर बेच देगा. सारे गैरकानूनी धंधे वह करता है. अफीम की तस्करी में वह जेल की हवा भी खा चुका है. तुम से प्यार का नाटक कर के तुम्हारे पिता को ब्लेकमैल करेगा.

‘‘जिसे तुम प्यार समझ रही हो, वह धोखा है. छोड़ दे उस नालायक का साथ. वहीं शादी कर बेटी, जहां तेरे पिता चाहते हैं. ‘‘एक बार फिर हाथ जोड़ कर कह रहा हूं कि बेटी, छोड़ दे उसे. मैं तुझे बरबादी के रास्ते से बचाना चाहता हूं.’’ इतना कह कर वह बूढ़ा रो पड़ा. माधवी को लगा कि कहीं बूढ़ा नाटक तो नहीं कर रहा है. इतने में वह बूढ़ा आगे बोला, ‘‘बेटी, तुझे विश्वास न हो, तो घर जा कर सारे सुबूत मैं दिखा सकता हूं.’’ ‘‘आप मेरे पिता समान हैं बाबा, झूठ नहीं बोलेंगे. मगर…’’ कह कर माधवी पलभर के लिए रुकी, तो वह बूढ़ा बोला, ‘‘मगर बेटी, न तुम मुझे जानती हो और न मैं तुम्हें जानता हूं. मगर जब मैं ने तुम को अपने नालायक बेटे के साथ देखा, तब मैं ने तुम्हें उस के चंगुल से छुड़ाने का सोच लिया. तभी से मैं ने तुम्हारे घर आने की योजना बनाई थी, ताकि तुम्हारे मांबाप को सारी हकीकत बता सकूं. ‘‘मेरा विश्वास करो, कहीं ऐसा न हो कि तुम प्यार में धोखा खा जाओ. मैं ने इसलिए पूछा था कि जिस लड़के से तुम प्यार करती हो, उसे अच्छी तरह परख लिया होगा. मगर तुम ने उस का केवल बाहरी रूप देखा है, भीतरी रूप तुम नहीं समझ सकी.’’

‘‘आप झूठ तो नहीं बोल रहे हैं बाबा? शायद आप मुझे अपनी बहू नहीं बनाना चाहते हैं. आप को भी दहेज वाली बहू चाहिए, इसलिए आप भी मेरे और सौरभ के बीच दीवार खड़ी करना चाहते हैं,’’ माधवी ने यह सवाल पूछा.

‘‘तू अच्छे घराने की है. मैं तेरी जिंदगी बचाना चाहता हूं. मेरी बात पर यकीन कर बेटी. जिस के प्यार के जाल में तू उलझी हुई है, वह शिकारी एक दिन तुझे बेच देगा.’’ बाबा ने माधवी को बड़ी दुविधा में डाल दिया था. वे उसे सौरभ के अंधे प्रेमजाल से क्यों निकालना चाहते हैं? वह किसी अनजान आदमी की बातों को क्यों मान ले? उसे चुप देख कर बाबा फिर बोले, ‘‘क्या सोच रही हो बेटी?’’ ‘‘मैं आप पर कैसे यकीन कर लूं कि आप सच कह रहे हैं. यह आप का नाटक भी तो हो सकता है?’’ एक बार माधवी फिर बोली, ‘‘मैं सौरभ का दिल नहीं तोड़ सकती हूं. इसलिए अगर आप मेरे पीछे आएंगे, तो मैं पुलिस में शिकायत कर दूंगी.’’

इतना कह कर बुरा सा मुंह बना कर माधवी चली गई. बूढ़ा चुपचाप वहीं खड़ा रह गया. कुछ दिनों बाद सौरभ ने माधवी को ऐसी जगह बुलाया, जहां से वे भाग कर किसी मंदिर में शादी करेंगे. वह भी अपनी तैयारी से तय जगह पर पहुंच गई. वहां सौरभ किसी दूसरे लड़के के साथ बात करता हुआ दिखाई दे रहा था. वह चुपचाप आड़ में रह कर सब सुनने लगी. वह लड़का सौरभ से कह रहा था, ‘‘माधवी अभी तक नहीं आई.’’

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‘‘वह अभी आने वाली है. अरे, इन 6-7 महीनों में मैं ने उस से प्यार कर के विश्वास जीता है. अब तो वह आंखें मूंद कर मुझे चाहती है. शादी के बहाने उसे ले जा कर चंपाबाई के कोठे पर बेच आऊंगा.’’ ‘‘ठीक है, तुम अपनी योजना में कामयाब रहो,’’ कह कर वह लड़का दीवार फांद कर कूद गया. सौरभ बेचैनी से माधवी का इंतजार करने लगा. अब माधवी सौरभ की सचाई जान चुकी थी. इस समय उसे बाबा का चेहरा याद आ रहा था. बाबा ने जो कुछ कहा था, सच था. अब सौरभ के प्रति उसे नफरत हो गई. सौरभ बेचैनी से टहल रहा था, मगर वह उस से नजर बचा कर बाहर निकल गई. वह सचमुच आज अंधे मोड़ से निकल गई थी.

रस्मे विदाई: भाग 3- क्यों विदाई के दिन नहीं रोई मिट्ठी

मिट्ठी का काम दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा था. उस की ख्याति महल्ले से निकल कर पूरे शहर में फैल गई. इस बीच उस के दोनों भाई भी अपनी पसंद की लड़कियों से विवाह कर चुके थे. दोनों दूसरे शहरों में कार्यरत थे. मातापिता के साथ केवल मिट्ठी ही रहती थी.

उस दिन सुबह से ही मिट्ठी की तबीयत ठीक नहीं थी. यद्यपि उस के सहायक कार्य कर रहे थे, पर मिट्ठी सबकुछ उन के भरोसे छोड़ने की अभ्यस्त नहीं थी. विवाहों का मौसम होने के कारण कार्य इतना अधिक था कि अपनी दुकान बंद करने की बात वह सोच भी नहीं सकती थी.

सांझ गहराने लगी थी. मिट्ठी को लगा जैसे बुखार तेज हो रहा था. आंखों के आगे अंधेरा सा छाने लगा था. उस ने सोचा, आज काम थोड़ा जल्दी बंद कर देंगे, पर इस से पहले कि वह कोई निर्णय ले पाती, सामने एक कार आ कर रुकी और एक युवकयुवती उतर कर दुकान में आए.

‘हां, यही है वह बुटीक भैया, जिस के बारे में पल्लवी ने बताया था,’ युवती साथ आए युवक से कह रही थी.

‘यह बुटीक नहीं एक साधारण सी दुकान है. बताइए, हम आप की क्या सेवा कर सकते हैं,’ मिट्ठी बोली थी.

‘पर आप काम असाधारण करती हैं. मेरी सहेली पल्लवी की शादी का जोड़ा तो इतना अनूठा था कि सब देखते ही रह गए. वह कह रही थी कि आश्चर्य की बात तो यह है कि इसे डिजाइन करने वाली ने कभी शादी का जोड़ा नहीं पहना,’ वह युवती बोले जा रही थी.

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‘ओह, श्रीवाणी ऐसा नहीं कहते. अपने काम की बात करो,’ उस का भाई श्रीनाथ बोला था.

‘कोई बात नहीं, मैं बुरा नहीं मानती. बताइए, आप को क्या चाहिए,’ मिट्ठी ने शीघ्र ही उन्हें निबटाने की गरज से पूछा था.

‘लगता है हम दोनों का हाल एकजैसा ही है,’ श्रीनाथ बोला था.

‘जी?’

‘देखिए न, आप शादी के जोड़े बनाती हैं पर स्वयं कभी नहीं पहना. मेरी आभूषणों की दुकान है पर स्वयं कभी गहने नहीं पहने,’ वह मुसकराया था.

‘आप की उंगलियों और गले को देख कर तो ऐसा नहीं लगता,’ मिट्ठी ने श्रीनाथ की उंगलियों में चमकती अंगूठियों की ओर इशारा किया था. पर इस से पहले कि श्रीनाथ कोई उत्तर दे पाता, मिट्ठी काउंटर पर सिर रख कर बेसुध हो गई थी.

‘अरे, देखिए तो क्या हो गया है इन्हें?’ श्रीवाणी और श्रीनाथ ने मिट्ठी की सहायिका को पुकारा था.

‘आज सुबह से ही दीदी को बुखार था. पता नहीं क्या हो गया है. मैं डाक्टर को फोनकरती हूं,’ एक सहायिका बोली थी.

‘आप लोग इन्हें उठाने में सहायता करें, तो इन्हें पास के नर्सिंग होम में ले कर चलते हैं,’ श्रीनाथ ने राय दी थी.

मिट्ठी को पास के नर्सिंग होम ले जाया गया और शीघ्र ही उपचार शुरू हो गया था. यद्यपि कुछ ही देर में मिट्ठी को होश आ गया था, पर बुखार तेज होने के कारण उसे नर्सिंग होम में दाखिल कर दिया गया और उस के मातापिता को सूचित कर दिया गया था.

मिट्ठी को स्वस्थ होने में 4-5 दिन लगे थे. इस बीच श्रीनाथ उस से मिलने रोज आता रहा और ताजा फूलों का गुलदस्ता देता रहा. स्वस्थ होने के बाद भी मिट्ठी की दुकान पर जबतब वह जाता. पहले अपनी बहन श्रीवाणी के विवाह के जोड़े बनवाने के लिए, फिर विवाह के लिए आमंत्रित करने के लिए. वह कार्ड देते हुए बोला था, ‘आप श्रीवाणी के विवाह में अवश्य आएंगी.’

‘देखूंगी, वैसे मैं कहीं आतीजाती नहीं, समय ही नहीं मिलता.’

‘लेकिन, यह एक विशेष निमंत्रण है. मेरी मां आप से मिलना चाहती हैं.’

‘मुझ से मिलना चाहती हैं? पर क्यों?’ मिट्ठी उलझनभरे स्वर में बोली थी.

‘आप को नहीं लगता मिट्ठीजी कि हम दोनों की जोड़ी खूब जंचेगी,’ श्रीनाथ मुसकराया था.

‘जोड़ी? क्या कह रहे हैं आप? मैं 37 से ऊपर की हूं. विवाह आदि के बारे में मैं सोचती भी नहीं,’ मिट्ठी बोली थी.

‘मैं भी 40 का हूं, पर जब से आप को देखा है, लगता है हम दोनों की खूब गुजरेगी. मेरा मतलब है शादी के जोड़े और आभूषण एक ही जगह,’ श्रीनाथ मुसकराया था.

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‘पता नहीं, आप क्या कह रहे हैं? मेरे मातापिता दूसरी बिरादरी में विवाह के लिए कभी तैयार नहीं होंगे,’ मिट्ठी घबरा गई थी.

‘आप तो हां कहिए, आप के मातापिता को मैं मना लूंगा,’ श्रीनाथ ने आग्रह किया था.

श्रीनाथ द्वारा विवाह प्रस्ताव रखे जाते ही नीरा भड़क उठी थीं, ‘बिरादरी के बाहर विवाह किया तो लोग क्या कहेंगे? पुष्पी ने अपनी मरजी से शादी की थी, पर की तो बिरादरी में ही थी.’

‘बिरादरी में ही ढूंढ़ रहे थे हम भी, पर कोई मिला क्या? ऊपर से जले पर नमक छिड़कते थे. हमारे पास लेनेदेने को है ही क्या? मैं तैयार हूं, मिट्ठी श्रीनाथ से ही विवाह करेगी,’ सर्वेश्वर बाबू ने स्वीकृति दे दी तो नीरू चुप रह गई थीं.

फिर तो आननफानन सब हो गया. मिट्ठी सचमुच प्रसन्न थी. मां कहती हैं कि रोने की रस्म होती है, पर वह नहीं रोएगी. वह तब नहीं रोई जब सारा समाज उसे रुलाना चाहता था तो अब क्यों रोएगी वह?

विवाह की रस्में समाप्त होते ही विदाई होने वाली थी. पर मिट्ठी की आंखों में आंसुओं का नामोनिशान तक नहीं था. तभी मां ने उसे गले से लगा लिया था.

‘‘न रो, मिट्ठी, मेरी बेटी, चुप हो जा. ऐसे भी भला कोई रोता है,’’ वे कह रही थीं, पर मिट्ठी चित्रलिखित सी कार की ओर बढ़ रही थी. उस का मन हो रहा था हंसे, खिलखिला कर हंसे, इस विचित्र परंपरा पर.

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वक्त की अदालत में: भाग 2- मेहर ने शौहर मुकीम के खिलाफ क्या फैसला लिया

आप फिक्र न कीजिए, मेहरून बेटी. मैं प्लौट बेच कर आप के बीएड का खर्च पूरा करूंगा.’ अब्बू का खत आया था. इस से तो अच्छा होता मैं बीएड कर के नौकरी करती, फिर शादी करती. पर समाज के तानों ने अम्मी और अब्बू का जीना मुहाल कर दिया था. बीएड के ऐंट्रैंस एग्जाम में मैं पास हो गई थी. मेरी क्लासेस शुरू हो गईं. चारदीवारी की घुटन से निकल कर खुली हवा सांसों में भरने लगी. लेकिन घर से महल्ले की सरहद तक हिजाब कर के बसस्टौप तक बड़ी मुश्किल से पहुंचती थी.

‘यार, तुम कैसे बुरका मैनेज करती हो? तुम्हें घुटन नहीं होती? सांस कैसे लेती हो? मैं होती तो सचमुच नोंच कर फेंक देती और हिजाब करवाने वालों का भी मुंह नोंच लेती. चले हैं नौकरी करवाने काला लबादा पहना कर. शर्म नहीं आती लालची लोगों को,’ पौश कालोनी की सहपाठिन मेहनाज बोली थी.

‘मेहर में इतनी हिम्मत कहां कि वह ससुराल वालों का विरोध कर सके. यह तो गाय जैसी है. उठ कहा, तो उठ गई. बैठ कहा, तो बैठ गई. पढ़ीलिखी बेवकूफ और डरपोक है,’ शेरी मैडम के तंज का तीर असमर्थता के सीने पर धंसा. खचाक, मजबूरियों के खून का फौआरा छूटता, दर्दीली चीख उठती, आंखों में खून उतर आता, दुपट्टे का एक कोना खारे पानी के धब्बों से भर जाता.

‘तुम्हें वजीफा मिला है मेहर, नोटिस बोर्ड पर लिस्ट लगी है,’ मेहनाज ने चहकते हुए मु झे खबर दी थी.

‘सचमुच,’ खुश हो गई थी मैं.

‘हां, सचमुच, देख इन पैसों से कुछ अच्छे कपड़े और एग्जाम के लिए गाइड खरीद लेना. सम झी, मेरी भोली मालन,’ मेहनाज ने राय दी थी. ‘ठीक है,’ कह कर मैं घर की तरफ जाने वाली बस में चढ़ गई थी.

दूसरे दिन मुकीम कालेज मेरे साथ ही आ गया था. क्लर्क से वजीफे की कैश रकम ले कर जब अपनी जेब के हवाले करने लगा, तो मैं तड़प गई, ‘मुझे इम्तहान के लिए गाइड्स और टीचिंग एड बनाने के लिए कुछ सामान खरीदना है. कुछ पैसे मुझे चाहिए.’

मुकीम ने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे कुत्ता लाश का गोश्त नोंचने वाले गिद्ध की तरफ देखता है, बोला, ‘पुरानी किताबों की दुकान से सैकंडहैंड गाइड्स ला दूंगा. टीचिंग एड्स रोलअप बोर्ड पर बनाना. मु झे कर्जदारों का पैसा अदा करना है.’

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बीएड एग्जाम के बाद 2 साल में 2 बच्चे, शिथिल शरीर और आर्थिक अभावों ने आत्मनिर्भरता की दूरियों को और बढ़ा दिया. बड़ी हिम्मत कर के महल्ले के आसपास के प्राइवेट स्कूलों में अपना रिज्यूमे दे आई थी. आज से 30 साल पहले 50 रुपए से नौकरी शुरू की थी. उन दिनों क्रेच का कोई अस्तित्व ही नहीं था क्योंकि 99वें प्रतिशत औरतें घरेलू होती थीं.

बड़ी मुश्किल से एक विधवा वृद्धा के पास दोनों बच्चों को छोड़ कर मुंहअंधेरे ही घर का पूरा कामकाज निबटा कर स्कूल जाने लगी. मेरी कर्मठता और पाबंदी ने अगले माह ही इन्सैंटिव के रूप में 50 रुपए की तनख्वाह में चारगुना वृद्धि कर दी.

इस बीच, सरकारी स्कूल में वकैंसी निकली. लिखित परीक्षा में सफलता और 3 महीने बाद इंटरव्यू में सलैक्शन. ‘अब तो इस बेहया के और पैर निकल आएंगे,’ सास को अपना सिंहासन डोलता नजर आने लगा. ‘अरे अम्मी, यह क्यों नहीं सोचतीं कि भाभी की तनख्वाह बच्चों के बहाने से हम अपनी जरूरत के लिए ले सकते हैं,’ मक्कार और कपटी ननद ने मां के कान भरे.

‘अरे हां बाजी, अब आप अपना घर बनने तक भाईजान के पोर्शन में रह सकती हैं. भाईजान को महल्ले में ही किराए का घर ले कर रहने के लिए अम्मी जिद कर सकती हैं. अब पैसों की तंगी का बहाना नहीं कर सकेंगे भाईजान,’ देवरानी ने ननद के लालच के तपते लोहे पर चोट की. दरअसल, वह सास की वजह से मायके नहीं जा सकती थी. ननद पास में रहेगी, तो सास को उस के भरोसे छोड़ कर कई दिनों तक मायके में रहने, घूमनेफिरने का आनंद उठा सकती थी.

स्वार्थी और निपट गंवार सास ने आएदिन मुकीम को टेंचना शुरू किया. ‘तेरी औरत से कोई आराम तो मिला नहीं. उलटे, हमेशा डर बना रहता है कि मेरे बाजार और कहीं जाने पर यह छोटी बहू को भी अपने रंग में रंग कर घर के 3 टुकड़े न कर डाले. अब तू किराए का मकान ले ले. मेरी बेटी का मकान बनने तक वह यहीं रहेगी मेरे पास. और मेरी खिदमत भी करेगी.’

नागपुर से 10 किलोमीटर दूर कामठी में पोस्ंिटग पर मैं आ गई. ‘तुम स्कूल से कहां बारबार बैंक जाती रहोगी पैसे निकलवाने के लिए,’ कह कर मुकीम ने चालाकी से मेरे साथ जौइंट अकाउंट खोल लिया.

अम्मी ने देर रात तक कपड़े सिल कर, क्रोशिए से दस्तरख्वान, चादरें बुनबुन कर मेरी कालेज की फीस दी थी. पहली तनख्वाह मिली, तो मैं ने 25 रुपए का मनीऔर्डर कर उन के एहसानों का शुक्रिया अदा करते हुए उन के पते पर भेजा. पहली बार मेरा चेहरा खुशी और आत्मविश्वास से कुमुदनी की तरह खिल गया था.

एक हफ्ते बाद मुकीम के हाथ का कस के पड़ा तमाचा मेरे गुलाबी गाल पर पांचों उंगलियों के निशान छोड़ गया, ‘मायके से पैसे मंगवाने के बजाय मां को मनीऔर्डर भेज रही है. शर्म नहीं आती. बदजात औरत. आईंदा मु झ से पूछे बगैर एक पाई भी यहांवहां खर्च की, तो चीर के रख दूंगा, सम झी.’ उस दिन पहली बार लगा कि मैं ससुराल में सिर्फ पैसा कमाने वाली और बच्चा पैदा करने वाली मशीन बन गई हूं. मैं सिसकती हुई भूखी ही सो गई.

बचपन से ही सीधीसादी, छलकपट से कोसों दूर रहने वाली मैं मुकीम की क्रूरता को सालों तक चुपचाप सहती रही.

मुकीम के परिवार के लोगों का छोटीछोटी बातों को ले कर ऊंचीऊंची आवाज से लड़ना,  झगड़ना, गालीगलौज करना सहज स्वाभाविक दस्तूर की तरह रोज ही घटता रहता. यह अमानवीय और क्रूर दृश्य देख कर मेरे पैर थरथराने लगते, पेट में ऐंठन होने लगती और पसीने से लथपथ हो जाती.

उस दिन बड़े बेटे की तबीयत अचानक स्कूल में खराब हो गई. एमआई रूम के डाक्टर ने चैकअप कर के मिलिट्री हौस्पिटल के लिए रैफर कर दिया. दोपहर तक टैस्ट होते रहे. पर्स में सिर्फ 30 रुपए थे जो घर से निकलते वक्त मुकीम भिखारियों की तरह मेरे हाथ पर रख देता था. इलाज के लिए पैसों की जरूरत पड़ेगी, सोच कर शौर्टलीव ले कर बैंक पहुंची. विदड्रौल स्लिप पर लिखी रकम देख कर कैशियर व्यंग्य से मुसकराया, ‘मैडम, आप के अकाउंट में सिर्फ सिक्युरिटी की रकम बाकी है.’ यह सुन कर पैरोंतले जमीन खिसक गई.

बेइज्जती का दंश सहती बीमार बच्चे को ले कर घर पहुंची तो बच्चे के इलाज के खर्च के लिए मुकीम को आनाकानी करते देख कर मैं अपना आपा खो बैठी, ‘इसीलिए आप ने जौइंट अकाउंट खुलवाया था कि महीना शुरू होते ही मेरी पूरी तनख्वाह निकाल कर शराब और जुए में उड़ा दें और अपनी तनख्वाह अपनी बहन के परिवार और मां पर खर्च कर दें. आप ने अपने ऐश के लिए मु झे नौकरी करने की इजाजत दी है, बच्चे के इलाज के लिए धेला तक खर्च नहीं करना चाहते. वाह, क्या खूब शौहर और बाप की जिम्मेदारी निभा रहे हैं.’

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‘हां, हां, मेरा बेटा तो निकम्मा है. तेरी कमाई से ही तो घर चल रहा है,’ कब से दीवार पर कान लगा कर सुन रही सास ने दिल की भड़ास निकाली.

‘आप हमारे बीच में मत बोलिए. मेरे घर को जलाने के लिए पलीता आप ही ने सुलगाया है हरदम,’ बेटे की कराह सुन कर मु झ में जाने कहां से विपरीत दिशा से आती तूफानी हवाओं को घर में धंसने से रोकने की ताकत भर गई.

‘देखदेख, मुकीम, यह नौकरी कर रही है, तो कितना ठसक दिखा रही है. मार इस को, हाथपैर तोड़ कर डाल दे,’ मां की आवाज सुनते ही मुकीम ने बरतनों के टोकरे से चिमटा खींच कर दे मारा मेरे सिर पर. खून की धार मेरे काले घने बालों से हो कर माथे पर बहने लगी. सिर चकरा गया और मैं धड़ाम से मिट्टी के फर्श पर बिखर गई. दोनों बच्चे यह वहशियाना नजारा देख कर चीख कर रोने लगे. मुकीम अपने भीतर के शैतान पर काबू नहीं कर पाया और मु झ बेहोश बीवी को गालियां बकते हुए लातोंघूंसों से मारने लगा. आवाजें सुन कर आसपास के घरों के लोग अपनी छतों से उचक कर मेरे घर का तमाशा देखने व सुनने की कोशिश करने लगे. खून देख कर सास धीरे से नीचे खिसक आई.

आधी रात को मुझे होश आया तो दोनों बच्चों को नंगे फर्श पर अपने से चिपक कर सोता हुआ पाया. हंसने, किलकने और बेफिक्र मासूम बचपन के हकदार बच्चे पिता का रौद्र रूप देख कर नींद में भी सिसक उठते थे.

मैं जिस्म की टूटन और सिर के जख्म की वजह से 3 दिनों तक स्कूल नहीं जा सकी. मगर पेट को तो भरना ही था न. मुकीम को तो मौका मिल गया घर में दंगाफसाद कर के होटल का मनपसंद खाना और शराब में धुत आधी रात को घर लौटने का.

अप्रैल में स्कूल में ऐनुअल फंक्शन था. उर्दू, हिंदी, इंग्लिश तीनों पर बेहतरीन कमांड होने के कारण प्राचार्य ने अनाउंसमैंट की मेरी ड्यूटी लगा दी थी. बच्चों के साथ खुद भी तैयार हो कर घर से बाहर निकल ही रही थी कि पीछे से किसी ने बड़े एहतियात से बनाया गया जूड़ा पकड़ कर खींच दिया. दर्द से बिलबिला गई.

अगले भाग में पढ़ें- ‘सहर, देख तो अब्बू को क्या हो गया. 

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परिवर्तन: भाग 3- राहुल और कवि की कहानी

लेखक- खुशीराम पेटवाल

अचानक राहुल कुलबुलाया तो कवि की तंद्रा टूट गई. उसे भूख लग आई है. यह सोच उस ने राहुल के मुंह में अपना स्तन दे दिया और प्यार से बच्चे को थपथपाने लगी.

उस छोटी सी जगह में छेद के रास्ते बाहर से रोशनी का आना कवि को बड़ा सुखद लगा. रोशनी से ही तो जीवन है. जीवन की हलचल है. जीवन का संचार है. रात भर के लिए मौत के आगोश में दबे लोगों के लिए सूरज नया जीवन ले कर आता है. आज भी वह फिर आया है.

अचानक बाहर हलकी सी खटखट हुई. कोई है. किसी को अपनी मौजूदगी का अहसास कराने के लिए कवि फिर चिल्लाने लगी, ‘‘कोई है…कोई है…अरे, कोई तो मुझे बचा लो.’’ पर उसे लगा कि उस की आवाज बाहर नहीं जा रही है. चिल्लातेचिल्लाते वह थक गई. राहुल भी दहशत के मारे रोने लगा. जब कवि थक गई और बाहर से किसी तरह का कोई संकेत नहीं मिला तो वह सोचने लगी, देश भर में भुज में आए भूकंप की खबर फैल गई होगी. बचाव व राहत दल वाले आ चुके होंगे. शायद सेना के लोग हों.  पर मेरा अपार्टमेंट तो मुख्य सड़क से काफी दूर है. इसलिए क्या मेरे यहां तक सहायता पहुंचने में देरी हो रही है क्योंकि राहत व बचाव कार्य पहले सड़क के किनारे वाले अपार्टमेंट में ही तो होगा. बीच में कितने अपार्टमेंट हैं. शायद सभी गिरे पड़े हों. हे भगवान, राहत वालों को यहां जरूर भेजना, लेकिन जब कम रोशनी होने लगी तो भगवान पर से विश्वास उठने के साथ ही उस का दिल भी डूबने लगा.

इस छोटी सी जगह पर जहां बैठना मुश्किल है कवि ने अपने और राहुल के लिए थोड़ी सी जगह साफ कर दी है. कंकड़ बीन लिए हैं. नीचे रेत है और आज उसे थोड़ी ठंड भी लग रही है. राहुल भूख के मारे रोने लगा क्योंकि उस की भूख अब उस के दूध से शांत नहीं हो पा रही है. क्या करूं? इस अंधेरे में, इस मौत के घर में मेरे स्तनों में दूध के अलावा उसे देने को है भी क्या.

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उम्मीद के सहारे जिंदा कवि के स्तनों में दूध न पा कर राहुल ने अपने मसूड़े स्तनों में गड़ा दिए तो भी वह प्यार से उसे देखती रही और सोचती रही, कल तुझे कुछ न कुछ जरूर मिलेगा. कल हम बाहर जरूर जाएंगे मेरे बच्चे.

इतने दिनों बाद पहली बार कवि को अपनी मां की याद आई कि उस ने क्यों नहीं तब उन की सलाह को माना था, मां ने मना किया था कि अपार्टमेंट में मकान न ले, पर मैं ही अपनी जिद पर अड़ी रही. शहर दूरदूर तक देखा जा सकेगा. रात को उस की बालकनी में खड़े हो कर सारे भुज को देखना कितना अच्छा लगता था. वाकई कितना प्यारा, कितना सुंदर, रात के प्रकाश में जग-मगाता भुज. अब हेमंत को कहूंगी कि कोठीनुमा मकान ढूंढ़ेंगे. कवि मुसकराई और उस की आंखें मुंद गईं.

राहुल के चिल्लाने से कवि की नींद टूट गई. स्तनों में दूध नहीं था इसलिए एक बेबस मां की तरह उस ने उसे चिल्लाने दिया. थोड़ी देर में सूरज की रोशनी छेद के रास्ते भीतर आई. रोशनी के साथ ही मेरे भीतर जीवन का संचार हो गया. आशा बलवती हो गई. शायद आज कोई आए. मैं चिल्लाने लगी. राहुल भी मां को चिल्लाता देख कर रोने लगा. जब कवि चिल्लातेचिल्लाते थक गई तो उस ने राहुल की तरफ देखा. वह दोनों हाथों से मुंह में रेत डाल रहा था. ‘‘मिट्टी नो राहुल, नो,’’ कवि के मुंह से वही चिरपरिचित आवाज निकली. जब भी राहुल पार्क में खेलता तो मुंह में मिट्टी डाल लेता था.

विपरीत परिस्थितियां देख कर कवि ने खामोश रहना ही ठीक समझा. वह राहुल को उसी तरह मिट्टी के साथ खातेखेलते अपलक देखती रही. उस ने सोचा, मेरे बच्चे, रेत खाना भी तेरे नसीब में लिखा था.

कवि ने बच्चे को उठा कर अपनी छाती पर बैठा लिया. वह खेलने लगा. उस की नाक व मुंह पर रेत लगी देख कवि ने अपनी साड़ी से उस के मुंह की रेत झाड़ी तो राहुल मुसकरा दिया जिसे देख कर वह कुछ पल को दुखदर्द भूल गई. अतीत में अपनी व्यस्तता और बच्चे के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को याद कर कवि भावुक हो उठी. उसे पहली बार एहसास हुआ कि जिस आधुनिक खयाल में वह जी रही थी उस में उस ने पाया कम, खोया अधिक है. वह तो ऐसी अभागी मां है जो अपने बच्चे को आज तक एक बार नहला भी न सकी है. हे ईश्वर, मेरे राहुल को बचाना. यह कवि नहीं भीतर बैठी मां के मन से निकली आवाज थी और उस ने राहुल को जोर से अपनी छाती से भींच लिया.

रात फिर घिर आई. कवि का दायां पैर आज तेज दर्द कर रहा था. शायद घुटने में भीतर चोट लगी है. थोड़ी सूजन भी है. सिर में भी हलका दर्द है. उस ने अपने पैर को दबाया, थोड़ा आगेपीछे चलाया जितना कि उस जगह चलाया जा सकता था. दर्द कम नहीं हो रहा पर यह सोच कर कि इसे तो सहना ही है. कवि ने अपने को हालात के हवाले छोड़ दिया.

पिछले 3 दिनों से कवि को प्यास ही नहीं लगी पर अब पानी की जरूरत महसूस हो रही है. भूख तो नहीं है पर प्यास से गला सूखा जा रहा है. क्या करूं? यों ही इसे भी सहना होगा. कवि ने थूक घूंटा तो कुछ राहत महसूस हुई. अब जबजब प्यास लगेगी थूक ही गले के नीचे उतारूंगी.

प्यास तो राहुल को भी लग रही होगी, कवि ने बच्चे की तरफ देख कर सोचा कि यदि दूध होता तब तो जरूरत नहीं थी पर बिना दूध के जाने कैसे जी पाएगा. राहुल को तो इस की ज्यादा जरूरत होगी.

फिर से सुबह का धुंधलका भीतर आ गया. आज कवि को शौच महसूस हो रही है. क्या करना होगा? राहुल तो 3-4 बार यहीं कर भी चुका है. उसे कवि ने रेत से ढक दिया है. यहां इन हालात में तो यही करना होगा.

अचानक लगा कि बाहर धमधम की आवाज हो रही है. लगता है कोई है. ‘बचाओ…बचाओ…मुझे यहां से बचाओ.’ कवि के चिल्लाने के साथ ही राहुल का रोना भी शुरू हो गया. कवि घंटों चिल्लाती रही. इस प्रयास में उस की आवाज भी फट गई पर सब व्यर्थ.

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इस घर में अब फिर से रात ढल आई है. राहुल रेत खा कर सो गया है. वह अब हिलडुल भी कम रहा है. उस के रोने में भी वह ताकत नहीं है. उस की आवाज मंद पड़ती जा रही है. बेटे की यह दशा देख कर बेबस कवि सोचने लगी कि कैसे वह राहुल को दम तोड़ते हुए देख सकती है. वह एक मां है और सबकुछ बरदाश्त कर सकती है पर अपने सामने भूख से मरते बच्चे को तो नहीं देख सकती क्योंकि वह तो एक मां है. जीवन में पहली बार कवि ने ईश्वर को याद कर मनौती मानी कि भगवान, तुम मुझे और मेरे बच्चे को इस संकट से जीवित बचा लो. मैं तो सारे तीर्थ जा कर मत्था टेकूंगी.

कवि की जब आंख खुली तो सुबह का उजाला भीतर प्रवेश कर चुका था. राहुल अभी सो रहा है. जाने कैसे जिंदा है. 5-6 दिन हो गए हैं. इन 5-6 दिनों में हर पल कवि को मरना पड़ा है. वह  मरमर कर जीती रही है. वह एक दूध पीते बच्चे के साथ कैसे इतने दिनों से जिंदा है? इस प्रश्न का उत्तर कवि का मन ढूंढ़ ही रहा था कि अचानक बाहर शोर हुआ. लग रहा है कोई ऊपर है. कोई खोद रहा है.

कवि पूरी ताकत से चिल्लाई, ‘‘मैं यहां हूं, हम यहां हैं.’’ चिल्लातेचिल्लाते फेफड़े थक गए. फिर भी उस का चिल्लाना जारी रहा.

रोते हुए राहुल को थपथपाते हुए कवि बोली, ‘‘चुप हो जा मेरे बच्चे कोई है शायद. आर्मी वाले हों और जीवन पाने की खुशी में कवि राहुल को जोर से भींच कर उसे चूमने लगी. ऊपर से 2 आंखों  ने भीतर झांका तो कवि चिल्लाई और एक बार फिर बेटे को अपने में इस तरह छिपा लिया कि उसे एक खरोंच तक न लगे. ऊपर की दीवार तोड़ी जा रही थी. दो हाथ भीतर आए.

‘‘बच्चे को दो,’’ कई दिनों बाद इनसानी स्वर सुनने को मिला. कवि के उत्साह का ठिकाना न रहा. उस ने राहुल को उन 2 हाथों में थमा दिया.

भगवान यहां भी मूकदर्शक बना रहा. आखिर, इनसान की सहायता में इनसान के 2 हाथ ही आगे बढ़े और थोड़ी देर बाद कवि भी बाहर आ गई.

आर्मी वालों में शोर हुआ, ‘संभल कर,’ ‘‘सावधान’, ‘हुर्रे’. किसी ने किसी की पीठ थपथपाई. ‘बकअप’ और सब में जीवन का अद्भुत संचार हो गया. धन्यवाद, धन्यवाद आर्मी वालो.

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शहीद: भाग 3- क्या था शाहदीप का दीपक के लिए फैसला

शाहीन ने जब अपने मौसामौसी को समझाने की कोशिश की तो उन्होंने यह कह कर उसे चुप करा दिया कि अभी अच्छाबुरा समझने की तुम्हारी उम्र नहीं है.

उस दिन के बाद से मेरे और शाहीन के मिलने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया.

मुझे विश्वास था कि मेरे घर वाले मेरा साथ जरूर देंगे किंतु मैं यहां भी गलत था.

डैडी ने फोन पर साफ कह दिया, ‘हम फौजी हैं. हम लोग जातिपांति में विश्वास नहीं रखते. हमारा धर्म, हमारा मजहब सबकुछ हमारा देश है इसलिए अपने जीतेजी मैं दुश्मन की बेटी को अपने घर में घुसने की इजाजत नहीं दे सकता.’

चुपचाप अदालत में जा कर शादी करने के अलावा हमारे पास अब दूसरा कोई रास्ता नहीं बचा था और हम ने वही किया. शाहीन के मौसामौसी को जब पता चला तो उन्होंने बहुत हंगामा किया किंतु कुछ कर न सके. हम दोनों बालिग थे और अपनी मरजी की शादी करने के लिए आजाद थे.

अपनी दुनिया में हम दोनों बहुत खुश थे. शाहीन ने तय किया था कि छुट्टियों में पाकिस्तान चल कर हम लोग उस के पापा को मना लेंगे. मैं ने पासपोर्ट के लिए आवेदनपत्र भर कर भेज दिया था.

एक दिन शाहीन ने बताया कि वह मां बनने वाली है तो मैं खुशी से झूम उठा. मेरे चौड़े सीने पर सिर रखते हुए उस ने कहा, ‘दीपक, जानते हो अगर मेरा बेटा हुआ तो मैं उस का नाम शाहदीप रखूंगी.’

‘ऐसा नाम तो किसी का नहीं होता,’ मैं ने टोका.

‘लेकिन मेरे बेटे का होगा. शाहीन और दीपक का सम्मिलित रूप शाहदीप. इस नाम का दुनिया में केवल हमारा ही बेटा होगा. जो भी यह नाम सुनेगा जान जाएगा कि वह हमारा बेटा है,’ शाहीन मुसकराई.

कितनी निश्छल मुसकराहट थी शाहीन की लेकिन वह ज्यादा दिनों तक मेरे साथ नहीं रह पाई. एक बार मैं 2 दिन के लिए बाहर गया हुआ था. मेरी गैरमौजूदगी में उस के पापा आए और जबरदस्ती उसे पाकिस्तान ले गए. वह मेरे लिए एक छोटा सा पत्र छोड़ गई थी जिस में लिखा था, ‘हमारी शादी की खबर सुन कर पापा को हार्टअटैक हो गया था. वह बहुत कमजोर हो गए हैं. उन्होंने धमकी दी है कि अगर मैं तुम्हारे साथ रही तो वह जहर खा लेंगे. मैं जानती हूं वह बहुत जिद्दी हैं. मैं उन की मौत की गुनहगार बन कर अपनी दुनिया नहीं बसाना चाहती इसलिए उन के साथ जा रही हूं. लेकिन मैं तुम्हारी हूं और सदा तुम्हारी ही रहूंगी. अगर हो सके तो मुझे माफ कर देना.’

इस घटना ने मेरे वजूद को हिला कर रख दिया था. मैं पागलों की तरह पाकिस्तान का वीजा पाने के लिए दौड़ लगाने लगा किंतु यह इतना आसान न था. बंटवारे ने दोनों देशों के बीच इतनी ऊंची दीवार खड़ी कर दी थी जिसे लांघ पाने में मुझे कई महीने लग गए. लाहौर पहुंचने पर पता चला कि शाहीन के पापा अपनी सारी जायदाद बेच कर कहीं दूसरी जगह चले गए हैं. मैं ने काफी कोशिश की लेकिन शाहीन का पता नहीं लगा पाया.

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मेरा मन उचट गया था. अत: इंगलैंड न जा कर भारत लौट आया. एम.बी.ए. तो मैं केवल डैडी का मन रखने के लिए कर रहा था वरना बचपन से मेरा सपना भी अपने पूर्वजों की तरह फौज में भरती होने का था. मैं ने वही किया. धीरेधीरे 25 वर्ष बीत गए.

अपने अतीत में खोया मुझे समय का एहसास ही न रहा. ठंड लगी तो घड़ी पर नजर पड़ी. देखा रात के 2 बज गए थे. चारों ओर खामोशी छाई हुई थी. पूरी दुनिया शांति से सो रही थी किंतु मेरे अंदर हाहाकार मचा हुआ था. मेरा बेटा मेरी ही कैद में था और मैं अभी तक उस की कोई मदद नहीं कर पाया था.

बेचैनी जब हद से ज्यादा बढ़ने लगी तो मैं बाहर निकल आया. अनायास ही मेरे कदम बैरक नंबर 4 की ओर बढ़ गए. मन का एक कोना वहां जाने से रोक रहा था किंतु दूसरा कोना उधर खींचे लिए जा रहा था. मुझे इस बात का एहसास भी न था कि इतनी रात में मुझे अकेला एक पाकिस्तानी की बैरक की ओर जाते देख कोई क्या सोचेगा. इस समय अपने ऊपर मेरा कोई नियंत्रण नहीं बचा था. मैं खुद नहीं जानता था कि मैं क्या करने जा रहा हूं.

शाहदीप की बैरक के बाहर बैठा पहरेदार आराम से सो रहा था. मैं दबे पांव उस के करीब पहुंचा तो देखा वह बेहोश पड़ा था. बैरक के भीतर झांका, शाहदीप वहां नहीं था.

‘‘कैदी भाग गया, कैदी भाग गया,’’ मैं पूरी शक्ति से चिल्लाया. रात के सन्नाटे में मेरी आवाज दूर तक गूंज गई.

मैं ने पहरेदार की जेब से चाबी निकाल कर फुरती से बैरक का दरवाजा खोला. भीतर घुसते ही मैं चौंक पड़ा. बैरक के रोशनदान की सलाखें कटी थीं और शाहदीप उस से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था किंतु रोशनदान छोटा होने के कारण उसे परेशानी हो रही थी.

‘‘शाहदीप, रुक जाओ,’’ मैं पूरी ताकत से चीख पड़ा और अपना रिवाल्वर उस पर तान कर सर्द स्वर में बोला, ‘‘शाहदीप, अगर तुम नहीं रुके तो मैं गोली मार दूंगा.’’

मेरे स्वर की सख्ती को शायद शाहदीप ने भांप लिया था. अपने धड़ को पीछे खिसका सिर निकाल कर उस ने कहर भरी दृष्टि से मेरी ओर देखा. अगले ही पल उस का दायां हाथ सामने आया. उस में छोटा सा रिवाल्वर दबा हुआ था. उसे मेरी ओर तानते हुए वह गुर्राया, ‘‘ब्रिगेडियर दीपक कुमार सिंह, वापस लौट जाइए वरना मैं अपने रास्ते में आने वाली हर दीवार को गिरा दूंगा, चाहे वह कितनी ही मजबूत क्यों न हो.’’

इस बीच कैप्टन बोस और कई सैनिक दौड़ कर वहां आ गए थे. इस से पहले कि वे बैरक के भीतर घुस पाते शाहदीप दहाड़ उठा, ‘‘तुम्हारा ब्रिगेडियर मेरे निशाने पर है. अगर किसी ने भी भीतर घुसने की कोशिश की तो मैं इसे गोली मार दूंगा.’’

आगे बढ़ते कदम जहां थे वहीं रुक गए. बड़ी विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गई थी. हम दोनों एकदूसरे पर निशाना साधे हुए थे.

‘‘लेफ्टिनेंट शाहदीप, तुम यहां से भाग नहीं सकते,’’ मैं गुर्राया.

‘‘और तुम मुझे पकड़ नहीं सकते, ब्रिगेडियर,’’ शाहदीप ने अपना रिवाल्वर मेरी ओर लहराया, ‘‘मैं आखिरी बार कह रहा हूं कि वापस लौट जाओ वरना मैं गोली मार दूंगा.’’

मेरे वापस लौटने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था. शाहदीप जिस स्थिति में लटका हुआ था उस में ज्यादा देर नहीं रहा जा सकता था. जाने क्या सोच कर उस ने एक बार फिर अपने शरीर को रोशनदान की तरफ बढ़ाने की कोशिश की.

‘‘धांय…धांय…’’ मेरे रिवाल्वर से 2 गोलियां निकलीं. शाहदीप की पीठ इस समय मेरी ओर थी. दोनों ही गोलियां उस की पीठ में समा गईं. वह किसी चिडि़या की तरह नीचे गिर पड़ा और तड़पने लगा.

मुझे और बरदाश्त नहीं हुआ. अपना रिवाल्वर फेंक मैं उस की ओर दौड़ पड़ा और उस का सिर अपने हाथों में ले बुरी तरह फफक पड़ा, ‘‘शाहदीप, मेरे बेटे, मुझे माफ कर दो.’’

कैप्टन बोस दूसरे सैनिकों के साथ इस बीच भीतर आ गए थे. मुझे इस तरह रोता देख वे चौंक पड़े, ‘‘सर, यह आप क्या कह रहे हैं.’’

‘‘कैप्टन, तुम तो जानते ही हो कि मेरी शादी एक पाकिस्तानी लड़की से हुई थी. यह मेरा बेटा है. मैं इस के निशाने पर था अगर चाहता तो यह पहले गोली चला सकता था लेकिन इस ने ऐसा नहीं किया,’’ इतना कह कर मैं ने शाहदीप के सिर को झिंझोड़ते हुए पूछा, ‘‘बता, तू ने मुझे गोली क्यों नहीं मारी? बता, तू ने ऐसा क्यों किया?’’

शाहदीप ने कांपते स्वर में कहा, ‘‘डैडी, जन्मदाता के लिए त्याग करने का अधिकार सिर्फ हिंदुस्तान के लोगों का ही नहीं हम पाकिस्तानियों का भी इस पर बराबर का हक है.’’

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शाहदीप ने एक बार फिर मुझे बहुत छोटा साबित कर दिया था. मैं उसे अपने सीने से लगा कर बुरी तरह रो पड़ा.

‘‘डैडी, जीतेजी तो मैं आप की गोद में न खेल सका किंतु अंतिम समय मेरी यह इच्छा पूरी हो गई. अब मुझे जिंदगी से कोई शिकायत नहीं है.’’

इसी के साथ शाहदीप ने एक जोर की हिचकी ली और उस की गरदन एक ओर ढुलक गई. मेरे हाथ में थमा उस का हाथ फिसल गया और इसी के साथ उस की उंगली में दबी अंगूठी मेरे हाथों में आ गई. उस अंगूठी पर दृष्टि पड़ते ही मैं एक बार फिर चौंक पड़ा. उस में भी एक नन्हा सा कैमरा फिट था. इस का मतलब उस ने एकसाथ 2 कैमरों से वीडियोग्राफी की थी. एक कैमरा हमें दे कर उस ने अपने एक फर्ज की पूर्ति की थी और अब दूसरा कैमरा ले कर अपने दूसरे फर्ज की पूर्ति करने जा रहा था.

शाहदीप के निर्जीव शरीर से लिपट कर मैं विलाप कर उठा. अपने आंसुओं से उसे भिगो कर मैं अपना प्रायश्चित करना चाहता था तभी कैप्टन बोस ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘सर, आंसू बहा कर शहीद की आत्मा का अपमान मत कीजिए.’’

मैं ने आंसू भरी नजरों से कैप्टन बोस की ओर देखा फिर भर्राए स्वर में पूछा, ‘‘कैप्टन, क्या तुम मेरे बेटे को शहीद मानते हो?’’

‘‘हां, सर, ऐसी शहादत न तो पहले कभी किसी ने दी थी और न ही आगे कोई देगा. एक वीर के बेटे ने अपने बाप से भी बढ़ कर वीरता दिखाई है. इस का जितना भी सम्मान किया जाए कम है,’’ इतना कह कर कैप्टन बोस ने शाहदीप के पार्थिव शरीर को सैल्यूट मारा फिर पीछे मुड़ कर अपने सैनिकों को इशारा किया.

सब एक कतार में खड़े हो कर आसमान में गोली बरसाने लगे. पाकिस्तानी लेफ्टिनेंट को 101 गोलियों की सलामी देने के बाद ही हिंदुस्तानी रायफलें शांत हुईं. दुनिया में आज तक किसी भी शहीद को इतना बड़ा सम्मान प्राप्त नहीं हुआ होगा.

मेरे कांपते हाथ खुद ही ऊपर उठे और उस वीर को सलामी देने लगे.

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