वक्त की अदालत में: भाग 5- मेहर ने शौहर मुकीम के खिलाफ क्या फैसला लिया

‘जी, मैं दे दूंगी. बेफिक्र रहें.’ अपने बच्चों की मासूम जिदों का गला घोंट कर भी मैं वकील और मुंशी की फीस तनख्वाह मिलते ही अलग डब्बे में रखने लगी.

खूबसूरत ख्वाबों का मृगजाल दिखलाने वाली जिंदगी का बेहद तकलीफजदा घटनाक्रम इतनी तेजी से घटा कि मुझे अपने स्लम एरिया में हाल में किस्तों पर अलौट हुए आवास विकास के 2 कमरों के मकान पर जाने का मौका ही नहीं मिला.

4 महीने बाद चाबी पर्स में डाल कर अपनी चचेरी बहन और बच्चों के साथ उस महल्ले में पहुंचने ही वाली थी कि नुक्कड़ पर सार्वजनिक नल से पानी भरती परिचित महिला मुझे देख कर जोर से चिल्लाई, ‘अरे बाजी, आप? बड़े दिनों बाद दिखलाई दीं. मास्टर साहब तो कह रहे थे आप का दूर कहीं तबादला हो गया है. और वह औरत क्या आप की रिश्तेदार है जिस के साथ मास्टर साहब रह रहे हैं?’ भीतर तक दरका देने वाले समाचार ने एक बार फिर मुझ को आजमाइश की सलीब पर लटका दिया.

‘उन्होंने क्या दूसरा निकाह कर लिया है? भरे बदन वाली गोरीचिट्टी, बिलकुल आप की तरह है. मगर आप की तरह हंसमुख नहीं है. हर वक्त मुंह में तंबाकू वाला पान दबाए पिच्चपिच्च थूकती रहती है.’ मु झ को चुप देख कर पड़ोसिन ने पूरी कहानी एक सांस में सुना दी.

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कलेजा निचोड़ लेने वाली अप्रत्याशित घटना की खबर मात्र ने मु झ को हिला कर रख दिया. गरम गोश्त के सौदागर, औरतखोर मुकीम ने 4 महीनों में ही अपनी शारीरिक भूख के संयम के तमाम बांध तोड़ डाले. घर से मेरे निकलते ही उस ने दूसरी औरत घर में बिठा ली. जैसे औरत का अस्तित्व उस के सामने केवल कमीज की तरह बदलने वाली वस्तु बन कर रह गया हो. एक नहीं तो दूसरी, फिर तीसरी, फिर चौथी. मात्र खिलौना. दिल भर गया, कूड़ेदान में डाल दिया. हाड़मांस के शरीर और संवेदनशील हृदय वाली त्यागी, ममतामयी, सहनशील, कर्मशील औरत के वजूद की कोई अहमियत नहीं पुरुषप्रधान मुसलिम भारतीय परिवारों में. यही कृत्य अगर औरत करे तो वह वेश्या, कुलटा. कठमुल्लाओं ने मर्दों को कौन सी घुट्टी पिला दी कि वे खुद को हर मामले में सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिकारी होने का भ्रम पालने लगे हैं.

मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि से चचेरी बड़ी आपा की तरफ देखा. ‘तुम यहीं पेड़ के नीचे खड़ी रहो, मैं देखती हूं, माजरा क्या है,’ यह कह कर उन्होंने कंधे पर हाथ रख कर मु झे तसल्ली दी थी.

उन के जाने और आने के बीच लगभग एक घंटे तक मैं बुरे खयालों के साथ आंखें मींच कर खड़ी रही. कौन है वह औरत, क्या सचमुच मुकीम ने दूसरा निकाह कर लिया है? मेरी हसरतों की लाश पर अपनी ऐयाशी का महल तामीर करते हुए उसे अपने पिता होने का जरा भी खयाल नहीं आया. औरत सिर्फ बच्चा पैदा करने वाली मशीन और मर्द केवल बीज बोने वाला हल. फसल के लहलहाने या बरबाद होने से उस का कोई वास्ता नहीं. निर्ममता का ऐसा कठोर और स्पंदनहीन हादसा क्या हर युग में ऐसा ही अपना रूप बदलबदल कर घटता होगा.

नफरत की आग में पूरा शरीर धधकने लगा था. एक अदद 2 कमरों का मकान जिसे अपना पेट काटकाट कर बड़ी मुश्किल से किस्तों में खरीदने की हिम्मत की थी मैं ने अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित करने के लिए, बहेलिया ने परिंदों को जाल में फंसाने के बाद कितनी बेदिली से उन के घोंसलों के तिनके भी हवा में उड़ा दिए. घर, पति, इज्जत, सबकुछ लूट लिया. जीवन के चौराहे पर हर तरफ त्रासदियों की दहकती आग ही आग थी. कौन सा रास्ता मिलेगा बच्चों को सुरक्षित रखने के लिए? शायद कोई नहीं.

आपा वापस लौट आईं उदास और निरीह चेहरा लिए हुए ‘केस की हर पेशीयों में वह औरत अकसर मुकीम को कोर्ट में मिल जाती थी. 4 बच्चों की मां ने शौहर के उत्पीड़न से पीडि़त हो कर घर छोड़ दिया और खानेखर्चे का दावा पति पर ठोंक दिया. उन की मुलाकातें बढ़ती गईं. एकदूसरे की  झूठीसच्ची दर्दीली कहानी और अत्याचार का मुलम्मा चढ़ा कर सुनाया गया फर्जी फसाना, एकदूसरे की शारीरिक, मानसिक भूख की क्षुधा मिटाने का जरिया बनता चला गया.’

मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया. चुपचाप थके कदमों से वापस लौट आई. अपने अधिकारों का हनन करने और करवाने के प्रति आक्रोश व्यक्त करूं या वक्त की अदालत के फैसले का इंतजार करते हुए अपने और बच्चों के जीवित रखने के प्रयासों में लग जाऊं या फिर अतीत और भविष्य से आंखें मूंद लूं?

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‘मैडम, कल स्कूल इंस्पैक्शन टीम में असिस्टैंट कमिश्नर आ रहे हैं. अगर आप कहें तो आप के ट्रांसफर के लिए सिफारिश कर दूं?’ मुकीम के भेजे कागजी जानवर के तेजी से बढ़ते खूनी पंजों के नाखूनों से खुद भी आहत होते प्राचार्य ने मु झ से हमदर्दी से पूछा, ‘यहां तो आप के शौहर ने आप का जीना हराम कर ही रखा है, ऊपर से स्टाफ को भी अनर्गल बकवास का मौका दे दिया है. टीचर्स बच्चों पर कम, आप के बारे में ही चर्चारत रहते हैं. ये लीजिए आप के ओरिजिनल सर्टिफिकेट, सब सही पाए गए हैं. चैक कर के रिसीविंग दे दीजिए.’

सच झूठ की लड़ाई में हर युग में सच का ही परचम लहराते देखा गया है. वकील साहब ने यकीन दिलाया था, ‘आप फिक्र न कीजिए. हियरिंग पर ही आप को आना पड़ेगा कोर्ट में, बाकी मैं संभाल लूंगा. बस, फीस टाइम पर मनीऔर्डर करती जाइएगा.’ लुटे मुसाफिर की जरूरत के वक्त उस का पैरहन तक उतारने में नहीं हिचकते वकील लोग.

मुकीम ने स्टाफ के पुरुष शिक्षकों के सामने अपने उजड़ जाने की कपोलकल्पित कहानियां सुना कर उन्हें अपने पक्ष में कर लिया. फिर मु झे डराधमका कर कंप्रोमाइज करने के कई हथकंडे अपनाए. लेकिन मैं शिलाखंड बनी बदसूरते हाल के हर  झं झावात सहते हुए उस की हर कोशिश, चाल को नाकाम करती हुई नौकरी, बच्चे और अपनी मर्यादा के प्रति पूरी तरह से निष्ठावान रही.

एक दिन डाक से आया लिफाफा खोला तो उस में दोनों बच्चों के नाम सौसौ रुपए के चैक थे. दूसरे दिन बैंक में जमा करवा दिए. 5वें दिन बैंक मैनेजर ने उन चैक्स के बाउंस हो जाने की खबर दी. चालबाजी, शातिरपन, मक्कारी भला कब तक सचाई के सूरज का सामना कर पाएगी. कोर्ट में वही चैक उस की कमजर्फी और बच्चों के प्रति गैरजिम्मेदाराना बरताव का ठोस सुबूत बन गए.

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ट्रांसफर और्डर हाथ में थमाते हुए प्राचार्य ने मुसकरा कर कहा था, ‘आप जब चाहेंगी, आप का रिलीविंग और्डर और बच्चों की टीसी तैयार करवा दूंगा.’

मैं ने अब्बू को बतलाए बगैर जरूरत का सामान पैक किया और चल पड़ी सौ द्वीपों के बीच सब से ज्यादा आबाद टापू की ओर. जुल्म सहती औरत का अरण्य रुदन सुनते गूंगे, बहरे और अंधे नाकारा शहर से हजारों मील दूर अंडमान निकोबार की तरफ. पानी के जहाज का सफर, उछाल मारती लहरों का बारबार किनारे से सिर पटकना. नहीं, अब और नहीं सहूंगी जिल्लत, रुसवाई और लोगों की आंखों में उगते चुभते सवालों के प्रहारों को. नहीं होने दूंगी अपने दामन को और जख्मी. अब मैं, मेरे बच्चे और मेरा भविष्य… खुशियों की आस की एक किरण क्षितिज से चलती हुई अंतस में कही समा जाती.

अगले भाग में पढ़ें- पतझड़ सावन में, सावन बंसत में तबदील होते रहे.

वक्त की अदालत में: भाग 1- मेहर ने शौहर मुकीम के खिलाफ क्या फैसला लिया

मैं बिस्तर पर ही थी कि मोबाइल बज उठा, ‘‘हैलो.’’

‘‘जी दीदी, नमस्ते, मैं नवीन बाबू बोल रहा हूं.’’

इतनी सुबह नवीन बाबू का फोन? कई शंकाएं मन में उठने लगीं. उन के घर के सामने की सड़क के उस पार मेरा नया मकान बना था नागपुर में. वहां कुछ अनहोनी तो नहीं हो गई. ‘‘जी भैया, नमस्ते. खैरियत तो है?’’

‘‘आप को एक खबर देनी है,’’ नवीन बाबू की आवाज में बौखलाहट थी, ‘‘दीदी, आप के शौहर की कोई जवान बेटी है क्या?’’

‘‘हां, है न.’’

‘‘उस का नाम निलोफर है क्या?’’

‘‘नाम तो मु झे पता नहीं. हां, उस महल्ले में मेरी एक कलीग रहती है, उस से पूछ कर बतला सकती हूं.’’

‘‘मु झे विश्वास है, निलोफर अब्दुल मुकीम की दूसरी बीवी की बेटी है. पता लिखा है प्लौट नं. 108, लश्करी बाग.’’

‘‘हां, मेरे घर का पता तो यही था. मगर हुआ क्या, बतलाइए तो.’’

‘‘निलोफर के साथ कांड हो गया है. पेपर में खबर छपी है,’’ भैया कोर्ट की भाषा में बोले, ‘‘कल पांचपावली थाने की पुलिस मेरे कोर्ट में एक आरोपी को पकड़ कर लाई थी. जज साहब ने बड़ी मुश्किल से उस का पीसीआर दिया है. आरोपी पर 4 धाराएं लगी हैं. लड़की को बहलाफुसला कर होटल में ले जा कर बलात्कार करने और लड़की द्वारा शादी के लिए कहने पर उसे और उस के बाप से 5 लाख रुपए की डिमांड करने, न देने पर बाप को जान से मार देने की धमकी के 4 केस लगाए गए हैं.’’ यह सब सुन कर मेरे कानों से गरमगरम भाप निकलने लगी. सिर चकराने लगा. वह आगे बोलता रहा, ‘‘इतना ही नहीं दीदी, आरोपी खुद पुलिसमैन है और अनुसूचित जाति का है. दीदी, आप जब नागपुर आएंगी न, तब पीसीआर की कौपी दिखलाऊंगा.’’ नवीन बाबू की आवाज ‘‘हैलो, हैलो…’’ आती रही और मेरे हाथ से मोबाइल छूट कर बिस्तर पर गिर पड़ा.

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मैं पसीने से लथपथ थी. दिमाग सुन्न सा हो गया. और मैं बिस्तर पर ही बुत बनी बैठी रही. दोपहर के 3 बजे आंख खुली. घर का सांयसांय करता सन्नाटा नवीन बाबू की आवाज की प्रतिध्वनि से टूटने लगा. बड़ी मुश्किल से उठी. घसीटते कदमों से किचन में जा कर पानी का बड़ा गिलास गटगट कर के गले से नीचे उतार लिया और धम्म से वहीं फर्श पर सिर पकड़ कर बैठ गई. धीरेधीरे आंखें बंद होने लगीं लेकिन मस्तिष्क में जिंदगी की काली किताब का एकएक बदरंग पन्ना समय की तेज हवाओं से फड़फड़ाने लगा.

40 साल पहले मेरे पोस्टग्रेजुएट होने के बाद अम्मी व अब्बू की रातों की नींद हराम हो गई थी, मेरी शादी की फिक्र में. पूरे एक साल की तलाश के बाद भी जब सही रिश्ता नहीं मिला तो मेरी बढ़ती उम्र और छोटी 2 बहनों के भविष्य की खातिर मु झे एक ग्रेजुएट, पीटी टीचर से शादी की रजामंदी देनी पड़ी.

ससुराल में 2 देवर, एक ब्याहता ननद और बेवा सास. निम्न मध्यवर्गीय परिवार में खाना पकाने के भी समुचित बरतन नहीं थे.

‘लोग कहते हैं आप के 3-3 बेटे हैं. इतना दहेज मिलेगा कि घर में रखने की भी जगह नहीं होगी.’ सास की यह बात सुन कर शादी की तारीख तय करने गए अम्मी व अब्बू आश्चर्य से एकदूसरे का मुंह ताकने लगे. अपनी हैसियत से कहीं ज्यादा जेवरात, कपड़े, घरेलू सामान देने पर भी मेहर की रकम को कम से कम करवाने पर सास के अडि़यल स्वभाव ने मेरे विदा होने से पहले ही कड़वाहट की बरछियों से मेरे मधुर सपनों की महीन चादर में कई सुराख कर दिए जिन में से मेरी पीड़ा को बहते हुए आसानी से देखा जा सकता था.

‘दुलहन, जो जेवर हम ने तुम्हें निकाह के वक्त पहनाए थे वे हमें वापस दे दो. तुम्हारे देवर के निकाह में वही जेवर छोटी दुलहन के लिए ले जाएंगे,’ सास ने शादी के 5वें दिन ही हुक्म दिया. मैं ने अकेले में मुकीम से पूछा तो उन्होंने हामी भर दी और बगलें  झांकते हुए काम का बहाना कर के कमरे से बाहर चले गए. दूसरे ही दिन मैं ने मन मसोस कर अपने मायके और निकाह के वक्त दिए गए तमाम जेवर सास के हाथ में थमा दिए. उन का चेहरा खिल गया.

पूरे दिन में सिर्फ एक वक्त चाय और दो वक्त खाना बनता जिस में से रसेदार सब्जी होती तो दालचावल नहीं बनते. हां, जुमे के दिन विशेष खाना जरूर पकता था.

शौहर के संसर्ग के शहदीले सपने तब कांच की तरह टूट गए जब शादी के 10वें दिन शौहर को आधीरात नशे में धुत देखा. ‘शादी की पार्टी में दोस्तों ने जबरदस्ती पिला दी,’ मेरे पूछने पर उन्होंने कहा. मेरे संस्कार धूधू कर के जलने लगे.

मेरे हाथों की मेहंदी का रंग फीका भी नहीं पड़ा था कि एक शाम शादी के वास्ते लिए गए कर्ज की अदायगी को ले कर मुकीम, सास और देवर के बीच जबरदस्त  झगड़ा होने लगा. ‘मु झे अपने दूसरे बेटों की शादियां भी करनी हैं और घर भी चलाना है. तू अपनी शादी का कर्जा खुद अदा कर और घर में खर्च के लिए भी पैसे दे, सम झा,’ सास अपने बेटे यानी मेरे शौहर मुकीम से बोलीं.

‘नहीं, शादी का कर्जा दोनों भाई मिल कर देंगे और घर भी दोनों मिल कर चलाएंगे,’ मुकीम ने जवाब  दिया.

‘अरे वाह रे वाह, एक तू ही चालाक है. तुम दोनों मियांबीवी. और वह अकेला. वह क्यों देगा तेरा कर्जा? उस पर से तेरे कमरे की बिजली का खर्च. पानी, हाउसटैक्स, पूरे 5 हजार रुपए का खर्च है महीने का. उस पर तेरा शौक पीना… वह क्यों उठाएगा इतना खर्च? तू ने शादी की है, तू भरता रह अपना कर्जा.’ बात तूल पकड़ती चली गई. घर से चीखनेचिल्लाने की आती हुई आवाजों ने पड़ोसियों को अपनी खिड़कियों की  िझरी से  झांकने के लिए बाध्य कर दिया. उसी दिन मु झे ससुराल की खस्ताहाल आर्थिक स्थिति का पता चला.

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चीखना, चिल्लाना, गालीगलौज के बीच दोनों भाइयों का हाथापाई का दृश्य देख कर मैं भीतर तक सहम गई थी. मायके में मेरे घर के शांत व शालीन वातावरण में ऊंची आवाज में बोलना बदतमीजी सम झी जाती थी. ससुराल में परिवार के सदस्यों के बीच फौजदारी की हद तक की लड़ाई का दंगाई दृश्य देख कर मैं बुरी तरह आहत हो गई. सास गुस्से से तनतनाती हुई बेटी के घर चली गई, लेकिन जातेजाते अपनी आपसी लड़ाई का ठीकरा मेरे सिर पर फोड़ गई. वह मेरे और मुकीम के बीच तनाव व मनमुटाव का कसैला धुआं फैला गई. रिश्तेदारों के सम झानेबु झाने पर वापस लौट तो आई लेकिन घर में 2 चूल्हों का पतीला ले कर. मेरे और सास, देवर, ननद के बीच अबोले की काली चादर तन गई.

मैं ऊपर की मंजिल वाले कमरे में तनहा बैठी उन बेतुके और अनबु झे कारणों को ढूंढ़ती जिन्होंने मु झे निहायत बदकार, खुदगर्ज और कमजर्फ बहू बना दिया क्योंकि उन को यह वहम हो गया था कि मैं मुकीम को सब के खिलाफ भड़काती हूं.

जीवन के सतरंगी सपनों का पड़ाव घुटन के संकरे दर्रे में सिमट गया. मैं बीमार पड़ गई और मुकीम, पैसा खर्च न करना पड़े, मु झे बुखार की हालत में ही मायके छोड़ आए. वे बोले थे, ‘बीमार लड़की मेरे गले मढ़ दी आप लोगों ने. पूरा इलाज करवाइए, पूरी तरह से ठीक होने पर ही मु झे सूचित कीजिएगा.’ अम्मी व अब्बू उस की धमकी सुन कर स्तब्ध रह गए.

टायफाइड हो गया था मु झे. पलंग पर हड्डियों के ढांचे के बीच सिर्फ 2 पलकें ही खुलतीं, बंद होतीं, जो मेरे जीवित होने की सूचना देतीं. महीनों तक न कोई खत, न कोई खबर, न फोन. अब्बू ने भी चुप्पी साध ली थी.

अचानक एक दिन घर के सामने मुकीम को रिकशे से उतरते देख दोनों छोटी बहनों ने चहकते हुए दरवाजा खोला, ‘खुशामदीदी भाईसाहब.’ मेहमानखाने में अम्मी के साथ मु झे खड़ा देख कर वह चौंक कर बोला, ‘अरे, मैं तो सम झा था कि अब तक मरखप गई होगी. यह तो हट्टीकट्टी, जिंदा है. तो क्या ससुराल में नाटक कर रही थी?’ कर्कश स्वर से निकले मुकीम के विषैले शब्दों ने हम सब का सीना चीर दिया. जी चाहा, उसे धक्के मार कर दरवाजे के बाहर ढकेल दूं मगर पतिपत्नी के रिश्ते की नजाकत ने मेरे गुस्से के उफान को दबा दिया. अम्मी व अब्बू की तिलतिल घुलती काया और ब्याह लायक दोनों छोटी बहनों के चेहरे पर उभरती उदासी की छटपटाहट ने मु झे रोक दिया और मुकीम के साथ वापस ससुराल जाने के लिए मजबूर कर दिया.

म झले देवर की शादी मेरी गैरहाजिरी में हो गई थी. सास और शौहर ने बड़ी बहू के अस्तित्व को नकारते हुए मु झे अपने घर में सिर्फ एक गैरजरूरी चीज की तरह चुप रह कर दिन काटने के लिए मजबूर कर दिया था.

‘पढ़ीलिखी, मगर नाकारा लड़की को बहू बना लिया तुम ने, असगरी. कम से कम नौकरी कर के घर की खस्ता हालत को सुधारने में मदद करने वाली बहू ब्याह लाती? बुजुर्ग ठीक ही कहते हैं, सयाना कौवा अकसर मैले पर ही बैठता है,’ मामी सास के तंज ने मेरा रहासहा हौसला भी पस्त कर दिया.

‘बीएड करूंगी मैं.’ एक दिन हिम्मत कर के मैं बोली.

‘तेरे बाप ने हुंडा दे रखा है क्या?’ मुकीम की तीखी आवाज का तमाचा गाल पर पड़ा. कान  झन झना कर रह गए.

‘जेवर बेच दीजिए मेरे.’

‘उसी को तो बैंक में रख कर मैं ने लोन लिया है.’

‘क्या?’ जैसे आसमान से गिर पड़ी मैं.

म झली बहन की शादी की तैयारियों में अब्बू की टूटती कमर का मु झे शिद्दत से एहसास था. फिर मेरे लिए कहां से लाएंगे वे पैसे.

अगले भाग में पढ़ें- वह सिर के जख्म की वजह से 3 दिनों तक स्कूल नहीं जा सकी.6.- 

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परिवर्तन: भाग 2- राहुल और कवि की कहानी

लेखक- खुशीराम पेटवाल

वह देर तक चिल्लाती रही. उस के साथ राहुल भी रोता रहा. चिल्लातेचिल्लाते उस का गला रुंध गया. थक कर वह चुप हो गई. जाने कहां हैं? कहां दबे पड़े हैं. इसी ढेर के नीचे…मेरे नीचे भी तो शायद यह छत है और मेरे ऊपर? हाथ से टटोल कर देखा तो कुछेक हाथ ऊपर एक दीवार को टिका पाया. मैं कहां दबी पड़ी हूं…अंधेरे में केवल टटोल सकती हूं.

राहुल रो रहा था. उसे शायद भूख लग आई थी. उस के मुंह में अपना स्तन दे कर कवि ने ऊपर की ओर देखा तो दीवार के एक छोटे से छेद से रोशनी छन कर भीतर आ रही थी. जितनी रोशनी अंदर आ रही थी उस से वह अपने इस नए घर को देख तो सकती ही थी.

सिर की तरफ एक 3-4 फुट ऊंची सीमेंट की कालम है. नीचे भी टेढ़े ढंग से दीवार है. इस तरह कुल 3 फुट की ऊंचाई की जगह और 2 हाथ चौड़ाई की जगह. जहां वह बैठ सकती है और किसी तरह पैर सिकोड़ कर लेट सकती है.

कवि अपने वर्तमान को समझने का प्रयास करती हुई यह नहीं जान पाई कि इस स्थिति में रहते हुए उसे कितने दिन गुजरे हैं. जो भी हो, यहां से तो निकलना ही होगा. कैसे निकलूं? कोई हो तो उसे आवाज दूं और वह जोर से चिल्लाई, ‘‘बचाओ… बचाओ…कोई है, कोई तो सुने.’’

काफी देर तक कवि चिल्लाती रही. बाहरी दुनिया को बताने की कोशिश की कि वह जिंदा है, मगर बेकार. कोई हो तो सुने. जब पूरा भुज शहर ही भूकंप की चपेट में जमीन से आ लगा है तो किसे पड़ी है कि वह उस की सुनेगा.

राहुल अपनी मां की चीखें सुन कर कुछ देर तक रोता रहा और फिर सो गया. कवि ने उसे पास से देखा. कितना प्यारा बच्चा है. कितना गोलमटोल, हाथपैर हिलाते हुए उस का राहुल कितना अच्छा लगता है. कवि के मन ने उस से ही प्रश्न पूछा, ‘तू ने अपने बेटे को इतने करीब से देखा ही कब है जो तुझे यह एहसास होता जो आज हो रहा है. तू तो हमेशा अपनी नौकरी नाम की गृहस्थी में ही व्यस्त रही है.’

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सहसा कवि के दिमाग में प्रश्न कौंधा कि सातमंजिला इमारत ढह गई और मैं चौथी मंजिल वाली अपने दूध- पीते बेटे राहुल के साथ बिलकुल ठीकठीक जिंदा हूं. यह कैसे संभव हुआ? क्या इस के पीछे हेमंत का ईश्वर है या परिस्थितियों ने मुझे बचा लिया क्योंकि तब मैं दीवार के किनारे तक ही पहुंच पाई थी. फिर भी उस के कमजोर मन ने बेटी और पति के जिंदा रहने की दुआ तो मांगी थी. कवि को पहली बार पता चला कि कमजोर समय में लोग भगवान को क्यों याद करते हैं. शायद इसलिए कि उन के पास दूसरा कोई उपाय नहीं होता. मायूस हो कर ईश्वर को याद करते हैं. काम बन गया तो ठीक, नहीं बना तो ठीक.

मैं अपने और बच्चे के बचाव के लिए जब तक चिल्ला सकती थी चिल्लाती रही कि शायद शोर सुन कर कोई तो आवाज दे. अगलबगल दबे मेरी तरह जिंदा इनसान या फिर ऊपर बचाव वाला, कोई.

धीरेधीरे छेद से रोशनी कम होतीदेख कर कवि को लगा कि रात होने वाली है. वह सोचने लगी कि अंधेरा अकेला नहीं आता. वह अपने साथ लाता है तरहतरह के डर. डर चोरों का, डर अकेले होने का, डर इस खंडहर में सोने का, डर इस दीवार के गिरने का और सब से बड़ा डर खुद पर से विश्वास उठ जाने का.

कवि अपने बच्चे राहुल को सीने से लगाए हेमंत की पंक्तियां गुनगुनाने लगी, ‘इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर न हो…’ पहली बार इन पंक्तियों को गुनगुनाते हुए कवि को ऐसा लगा जैसे उस के साथ कोई है. कोई ताकत उस के भीतर आ गई है. इस गाने में कितनी शक्ति है आज इसे वह महसूस कर रही है. और वह बड़ी देर तक बारबार इन पंक्तियों को गुनगुनाती रही.

राहुल भूख के मारे कुलबुलाने लगा. उस के मुंह में उस ने अपना स्तन दे दिया. उसे आश्चर्य इस बात का था कि उस के स्तनों में इतना दूध कहां से आ गया जबकि उस ने अपने बच्चे को दूध बहुत कम पिलाया है. वह तो जानबूझ कर पहले माह से ही बच्चे को ऊपर का दूध पिलाने पर आमादा थी पर हेमंत के बहुत आग्रह पर उस ने राहुल को पहले माह ही दूध पिलाया था. उस के बाद एकाध बार से ज्यादा उस ने राहुल को कभी दूध पिलाया हो यह उसे याद नहीं. सुंदरता को कायम रखने के चक्कर में बच्चे को दूध पिलाने में आनाकानी करती रही. जब 3 महीने से राहुल बिलकुल भी उस का दूध नहीं पी रहा है तो आज उस की छाती  से दूध कैसे उतर रहा है? और उस के मुंह का स्पर्श एक अजीब सी सिहरन पैदा कर रहा है. राहुल से हट कर जब उस का ध्यान गिरजा की तरफ गया तो मन में एक हूक सी उठी कि गिरजा को भी उस ने दूध कब पिलाया है. 1-2 महीने ही. बेचारी बच्ची, जाने कैसे बड़ी हो गई. मैं भी कैसी अभागिन मां हूं जो अपने सुख के चक्कर में अपने बच्चों को उन के सुख से वंचित रखा.

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अपने बारे में सोचतेसोचते कवि कब सो गई उसे पता ही नहीं चला. जब जागी तो अपने चारों ओर अंधेरा देख कर सोचा अभी रात बाकी है. अब उसे सब से ऊपरी मंजिल पर रहने वाले हर्ष की याद आई. उस बेचारे की तो टांग भी टूटी हुई थी और बीवी भी बीमार थी. जाने अब कहां होगा वह परिवार. 7वीं मंजिल जब नीचे आई होगी तो वे कहां होंगे? यहीं कहीं मेरे ऊपर दबे होंगे. हर्ष तो बैड सहित ही नीचे आ गया होगा. वह जरूर बच गया होगा. छठी मंजिल वाली ऊषा का क्या हुआ होगा? अकेली लड़की, कोई नातेरिश्तेदार भी नहीं. पता नहीं जिंदा भी है या फिर…

बड़ी सुंदर है. हेमंत अकसर उस की तारीफ करता है. कहता है  कि क्या सुंदर कसे बदन की मलिका है यह लड़की. नितंब के अनुपात में ही छातियां. पतली कमर, कुल मिला कर विश्व सुंदरी वाला माप. उसे इस आफत की घड़ी में भी हेमंत की बातें याद कर हंसी आ गई कि क्या दिलफेंक इनसान है उस का पति.

यों तो वह मेरी तारीफ करते नहीं थकता. कहता है, ‘कवि, तुम सांचे में ढली हो. तुम्हारी ये आंखें मुझे हमेशा अपने पास बुलाती हैं. तुम्हारे ये रसीले होंठ बिना लाली के ही लाल हैं.’ और मेरे होंठों पर उस के अधीर चुंबन की सरसराहट दौड़ गई. ये मर्द होते ही ऐसे हैं जो जेहन में ऊषा जैसी औरत को रखेंगे और क्रिया करेंगे बीवी के साथ घर में…पर हेमंत वाकई मुझे प्यार करता है.

आगे पढ़ें- अचानक बाहर हलकी सी खटखट हुई….

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शहीद: भाग 2- क्या था शाहदीप का दीपक के लिए फैसला

शाहदीप को वहीं छोड़ मैं कैप्टन बोस के साथ चल पड़ा था कि उस ने आवाज दी, ‘‘ब्रिगेडियर साहब, मैं आप से अकेले में कुछ बात करना चाहता हूं.’’

मैं असमंजस में पड़ गया. ऐसी कौन सी बात हो सकती है जो वह मुझ से अकेले में करना चाहता है. कैप्टन बोस ने मेरे असमंजस को भांप लिया था अत: वह सैनिकों के साथ दूर हट गए.

मैं वापस बैरक के भीतर घुसा तो देखा कि घायल शाहदीप का पूरा शरीर कांप रहा था.

मैं उस के करीब पहुंचा ही था कि उस का शरीर लहराते हुए मेरी ओर गिर पड़ा. मैं ने उसे अपनी बांहों में संभाल कर सामने बने चबूतरे पर लिटा दिया. वह लंबीलंबी सांसें लेने लगा.

उस की उखड़ी हुई सांसें कुछ नियंत्रित हुईं तो मैं ने पूछा, ‘‘बताओ, क्या कहना चाहते हो?’’

‘‘सिर्फ इतना कि मैं ने आप का कर्ज चुका दिया है.’’

‘‘कैसा कर्ज? मैं कुछ समझा नहीं.’’

‘‘अगर मैं चाहता तो आप मुझे मार भी डालते तो भी मेरे यहां आने का राज कभी मुझ से न उगलवा पाते. मैं यह भी जानता था कि देशभक्ति के जनून में आप मुझे मार डालेंगे किंतु यदि ऐसा हो जाता तो फिर जिंदगी भर आप अपने को माफ नहीं कर पाते.’’

‘‘फौजी तो अपने दुश्मनों को मारते ही रहते हैं, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है,’’ मैं ने अचकचाते हुए कहा.

‘‘लेकिन एक बाप को फर्क पड़ता है. अपने बेटे की हत्या करने के बाद वह भला चैन से कैसे जी सकता है?’’ शाहदीप के होंठों पर दर्द भरी मुसकान तैर गई.

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‘‘कैसा बाप और कैसा बेटा. तुम कहना क्या चाहते हो?’’ मेरा स्वर कड़ा हो गया.

शाहदीप ने अपनी बड़ीबड़ी आंखें मेरे चेहरे पर टिका दीं और बोला, ‘‘ब्रिगेडियर दीपक कुमार सिंह, यही लिखा है न आप की नेम प्लेट पर? सचसच बताइए कि आप ने मुझे पहचाना या नहीं?’’

मेरा सर्वांग कांप उठा.

मेरी ही तरह मेरे खून ने भी अपने खून को पहचान लिया था. हम बापबेटों ने जिंदगी में पहली बार एकदूसरे को देखा था किंतु रिश्ते बदल गए थे. हम दुश्मनों की भांति एकदूसरे के सामने खड़े थे. मेरे अंदर भावनाओं का समुद्र उमड़ने लगा था. मैं बहुत कुछ कहना चाहता था किंतु जड़ हो कर रह गया.

‘‘डैडी, आप को पुत्रहत्या के दोष से बचा कर मैं पुत्रधर्म के ऋण से उऋण हो चुका हूं. आज के बाद जब भी हमारी मुलाकात होगी आप अपने सामने पाकिस्तानी सेना के जांबाज और वफादार अफसर को पाएंगे, जो कट जाएगा लेकिन झुकेगा नहीं,’’ शाहदीप ने एकएक शब्द पर जोर देते हुए कहा.

‘‘इस का मतलब तुम ने जानबूझ कर अपना राज खोला है,’’ बहुत मुश्किलों से मेरे मुंह से स्वर फूटा.

‘‘मैं कायर नहीं हूं. मैं आप की सौगंध खा कर वादा करता हूं कि जिस देश का नमक खाया है उस के साथ नमकहरामी नहीं करूंगा,’’ शाहदीप की आंखें आत्मविश्वास से जगमगा उठीं.

शाहदीप के स्वर मेरे कानों में पिघले शीशे की भांति दहक उठे. मैं एक फौजी था अत: अपने बेटे को अपनी फौज के साथ गद्दारी करने के लिए नहीं कह सकता था किंतु जो वह कह रहा था उस की भी इजाजत कभी नहीं दे सकता था. अत: उसे समझाते हुए बोला, ‘‘बेटा, तुम इस समय हिंदुस्तानी फौज की हिरासत में हो इसलिए कोई दुस्साहस करने की कोशिश मत करना. ऐसा करना तुम्हारे लिए खतरनाक हो सकता है.’’

‘‘दुस्साहस तो फौजी का सब से बड़ा हथियार होता है, उसे मैं कैसे छोड़ सकता हूं. आप अपना फर्ज पूरा कीजिएगा मैं अपना फर्ज पूरा करूंगा,’’ शाहदीप निर्णायक स्वर में बोला.

मैं दर्द भरे स्वर में बोला, ‘‘बेटा, तुम्हारे पास समय बहुत कम है. मेहरबानी कर के तुम इतना बता दो कि तुम्हारी मां इस समय कहां है और यहां आने से पहले क्या तुम मेरे बारे में जानते थे?’’

‘‘साल भर पहले मां का इंतकाल हो गया. वह बताया करती थीं कि मेरे सारे पूर्वज सेना में रहे हैं. मैं भी उन की तरह बहादुर बनना चाहता था इसलिए फौज में भरती हो गया था. अपने अंतिम दिनों में मां ने आप का नाम भी बता दिया था. मैं जानता था कि आप भारतीय फौज में हैं किंतु यह नहीं जानता था कि आप से इस तरह मुलाकात होगी,’’ बोलतेबोलते पहली बार शाहदीप का स्वर भीग उठा था.

मैं भी अपने ऊपर नियंत्रण नहीं रख पा रहा था. अत: शाहदीप को अपना खयाल रखने के लिए कह कर तेजी से वहां से चला आया.

‘‘सर, वह क्या कह रहा था?’’ बाहर निकलते ही कैप्टन बोस ने पूछा.

‘‘कह रहा था कि मैं ने आप की मदद की है इसलिए मेरी मदद कीजिए, और मुझे यहां से निकल जाने दीजिए,’’ मेरे मुंह से अनजाने में ही निकल गया.

मैं चुपचाप अपने कक्ष में आ गया. बाहर खड़े संतरी से मैं ने कह दिया था कि किसी को भी भीतर न आने दिया जाए. इस समय मैं दुनिया से दूर अकेले में अपनी यादों के साथ अपना दर्द बांटना चाहता था.

कुरसी पर बैठ उस की पुश्त से पीठ टिकाए आंखें बंद कीं तो अतीत की कुछ धुंधली तसवीर दिखाई पड़ने लगी.

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उस शाम थेम्स नदी के किनारे मैं अकेला टहल रहा था. अचानक एक अंगरेज नवयुवक दौड़ता हुआ आया और मुझ से टकरा गया. इस से पहले कि मैं कुछ कह पाता उस ने अत्यंत शालीनता से मुझ से माफी मांगी और आगे बढ़ गया. अचानक मेरी छठी इंद्री जाग उठी. मैं ने अपनी जेब पर हाथ मारा तो मेरा पर्स गायब था.

‘पकड़ोपकड़ो, वह बदमाश मेरा पर्स लिए जा रहा है,’ चिल्लाते हुए मैं उस के पीछे दौड़ा.

मेरी आवाज सुन उस ने अपनी गति कुछ और तेज कर दी. तभी सामने से आ रही एक लड़की ने अपना पैर उस के पैरों में फंसा दिया. वह अंगरेज मुंह के बल गिर पड़ा. मेरे लिए इतना काफी था. पलक झपकते ही मैं ने उसे दबोच कर अपना पर्स छीन लिया. पर्स में 500 पाउंड के अलावा कुछ जरूरी कागजात भी थे. पर्स खोल कर मैं उन्हें देखने लगा. इस बीच मौका पा कर वह बदमाश भाग लिया. मैं उसे पकड़ने के लिए दोबारा उस के पीछे दौड़ा.

‘छोड़ो, जाने दो उसे,’ उस लड़की ने लगभग चिल्लाते हुए कहा था.

उस की आवाज से मेरे कदम ठिठक कर रुक गए. उस बदमाश के लिए इतना मौका काफी था. मैं ने उस लड़की की ओर लौटते हुए तेज स्वर में पूछा, ‘आप ने उसे जाने क्यों दिया?’

‘लगता है तुम इंगलैंड में नए आए हो,’ वह लड़की कुछ मुसकरा कर बोली.

‘हां.’

‘ये अंगरेज आज भी अपनी सामंती विचारधारा से मुक्त नहीं हो पाए हैं. प्रतिभा की दौड़ में आज ये हम से पिछड़ने लगे हैं तो अराजकता पर उतर आए हैं. प्रवासी लोगों के इलाकों में दंगा करना और उन से लूटपाट करना अब यहां आम बात होती जा रही है. यहां की पुलिस पर सांप्रदायिकता का आरोप तो नहीं लगाया जा सकता, फिर भी उन की स्वाभाविक सहानुभूति अपने लोगों के साथ ही रहती है. सभी के दिमाग में यह सोच भर गई है कि बाहर से आ कर हम लोग इन की समृद्धि को लूट  रहे हैं.’

मैं ने उसे गौर से देखते हुए पूछा, ‘तुम भी इंडियन हो?’

‘पाकिस्तानी हूं,’ लड़की ने छोटा सा उत्तर दिया, ‘शाहीन नाम है मेरा. कैंब्रिज विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन कर रही हूं.’

‘मैं दीपक कुमार सिंह. 2 दिन पहले मैं ने भी वहीं पर एम.बी.ए. में प्रवेश लिया है,’ अपना संक्षिप्त परिचय देते हुए मैं ने अपना हाथ आगे बढ़ाया तो यह कहते हुए शाहीन ने मेरा हाथ गर्मजोशी से पकड़ लिया कि फिर तो हमारी खूब निभेगी.

उस अनजान देश में शाहीन जैसा दोस्त पा कर मैं बहुत खुश था. उस के पापा का पाकिस्तान में इंपोर्टएक्सपोर्ट का व्यवसाय था. मां नहीं थीं. पापा अपने व्यापार में काफी व्यस्त रहते थे इसलिए वह यहां पर अपनी मौसी के पास रह कर पढ़ने आई थी.

शाहीन के मौसामौसी से मैं जल्दी ही घुलमिल गया और अकसर सप्ताहांत उन के साथ ही बिताने लगा. शाहीन की तरह वे लोग भी काफी खुले विचारों वाले थे और मुझे काफी पसंद करते थे. सब से अच्छी बात तो यह थी कि यहां पर ज्यादातर हिंदुस्तानी व पाकिस्तानी आपस में बैरभाव भुला कर मिलजुल कर रहते थे. ईद हो या होलीदीवाली, सारे त्योहार साथसाथ मनाए जाते थे.

शाहीन बहुत अच्छी लड़की थी. मेरी और उस की दोस्ती जल्दी ही प्यार में बदल गई. साल बीततेबीतते हम ने शादी करने का फैसला कर लिया. हमें विश्वास था कि शाहीन के मौसीमौसा इस रिश्ते से बहुत खुश होंगे और वे शाहीन के पापा को इस शादी के लिए मना लेंगे, किंतु यह हमारा भ्रम निकला.

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‘तुम्हारी यह सोचने की हिम्मत कैसे हुई कि कोई गैरतमंद पाकिस्तानी तुम हिंदुस्तानी काफिरों से अपनी रिश्तेदारी जोड़ सकता है,’ शाहीन के मौसा मेरे शादी के प्रस्ताव को सुन कर भड़क उठे थे.

‘अंकल, यह आप कैसी बातें कर रहे हैं. इंगलैंड में तो सारे हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी आपस का बैर भूल कर साथसाथ रहते हैं,’ मैं आश्चर्य से भर उठा.

‘अगर साथसाथ नहीं रहेंगे तो मारे जाएंगे इसलिए हिंदुस्तानी काफिरों की मजबूरी है,’ मौसाजी ने कटु सत्य पर से परदा उठाया.

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झूठ से सुकून: भाग 2- शशिकांतजी ने कौनसा झूठ बोला था

लेखक- डा. मनोज मोक्षेंद्र

उमाकांतजी के ड्राइंगरूम का नजारा ही कुछ अलग था. वहां सबकुछ उलटापलटा पड़ा हुआ था. वे हुड़दंग करने के मूड में लग रहे थे. सोसायटी के कोई दर्जनभर लोग वहां जमे हुए थे. टेबल पर व्हिस्की की बोतलें थीं और कुछ लोग शतरंज के खेल में व्यस्त थे जबकि टीवी पर कोई वल्गर फिल्म चल रही थी. जब मैं ने झिझकते हुए उमाकांतजी के जनानखाने का जायजा लेना चाहा तो वे बोल उठे, ‘‘यार, बीवी को अभीअभी राहुल के साथ उस के मायके भेज दिया है जो यहीं राजनगर में है. अब हमारे ऊपर कोई निगरानी रखने वाला नहीं है. आज कई दिनों बाद तो मौजमस्ती का मूड बना है. सोचा कि तुम्हें भी साथ ले लूं. ऐसा मौका रोजरोज कहां आता है? खूब खाएंगेपीएंगे और एडल्ट फिल्में देखेंगे.’’

चूंकि मैं कभी ऐसे माहौल का आदी नहीं रहा, छात्र जीवन में भी पढ़नेलिखने के सिवा कभी कोई ऐसीवैसी नाजायज हरकत नहीं की, इसलिए मैं वहां काफी देर तक असहज सा रहा. बड़ी घुटन सी महसूस कर रहा था. तभी कुलदीपा ने कहला भेजा कि लखनऊ के ताऊजी सपरिवार पधारे हैं. सो, मुझे वहां से मुक्त होने का एक बहाना मिल गया. मैं ने उस माहौल से विदा होते समय राहत की सांस ली.

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उस शाम जब मैं लखनऊ से पधारे मेहमानों को घंटाघर का मार्केट घुमाने ले जा रहा था तो अपार्टमैंट के ही कुछ बदमिजाज लौंडों के बीच खेलखेल में नोकझोंक के बाद मारपीट हो गई जिस में उमाकांतजी के लड़के राहुल का सिर फट गया. मामला थाने तक जाने वाला था कि मैं ने बीचबचाव कर के झगड़े को निबटाया और अपने मेहमानों को वापस घर में बैठा कर राहुल को मरहमपट्टी कराने अस्पताल चला गया. काफी देर बाद वापस लौटा तो मेहमानों को होटल में डिनर कराने ले गया क्योंकि अपार्टमैंट में पैदा हुए उस माहौल में कुलदीपा के लिए डिनर तैयार करना बिलकुल संभव नहीं था. बहरहाल, मैं यह सोचसोच कर शर्म में डूबा जा रहा था कि आखिर, ताऊताई क्या सोच रहे होंगे कि कैसे वाहियात अपार्टमैंट में हम ने फ्लैट लिया है और कैसे वाहियात लोगों के साथ हम रह रहे हैं. सुबह जब ताऊताईजी टहलने जा रहे थे तो अपार्टमैंट में गजब की गंदगी फैली हुई थी. बोतलें, कंडोम, सिगरेट के पैकेट आदि रास्ते में बिखरे हुए थे.

उस दिन मैं ने मेहमानों की खिदमत के लिए एक दिन की और छुट्टी ले ली. सुबह, नीलेशजी सोसायटी के किसी काम से आए थे, पर मुझे मेहमाननवाजी में व्यस्त देख कर चले गए. उस के बाद भी सोसायटी के कुछ लोग मेरे बारे में पूछने आए. परंतु कुलदीपा ने उन्हें कोई तवज्जुह नहीं दी. उस शाम मेहमानों को वापस लखनऊ जाना था. लिहाजा, शाम को उन्हें ट्रेन में बैठा कर वापस लौटा तो मैं बड़ी राहत महसूस कर रहा था क्योंकि उन के रहते अपार्टमैंट में कोई और ऐसी नागवार वारदात नहीं घटी जिस से कि उन्हें किसी और अजीबोगरीब अनुभव से गुजरना पड़ता. इसी बीच, मैं ड्राइंगरूम में थका होने के कारण सोफे पर लुढ़का हुआ था तभी कुलदीपा मेरे बगल में आ कर बैठ गई. उस ने मेरे बालों में अपनी उंगलियां उलझाते हुए कहा, ‘‘आप थोड़े में ही थक जाते हैं. देखिए, मैं भी तो कल से मिनटभर को आराम नहीं कर पाई हूं. अब समाज में रहते हैं तो हमें सामाजिक जिम्मेदारियां भी तो निभानी पड़ेंगी.’’

मैं उस का इशारा समझ गया. वह चाहती थी कि मैं औफिस की ड्यूटी के साथसाथ सोसायटी के काम में भी बढ़चढ़ कर हिस्सा लेता रहूं. मैं ने मन ही मन कहा, ‘कुलदीपा, देखना तुम खुद भी इन निठल्ले सोसायटी वालों से ऊब जाओगी.’ हम बातचीत में मशगूल थे कि तभी मेरी बिटिया तनु ने आ कर बताया कि उमाकांत अंकल बाहर खड़े हैं और वे आप से मिलना चाहते हैं. फिर मैं ड्राइंगरूम में आ गया और तनु से कह दिया कि अंकल को अंदर बुला लाओ.

उमाकांतजी सोफे पर बैठने से पहले ही बोल उठे, ‘‘अजी शशिकांतजी, एक बड़ी कामयाबी हमें मिली है.’’

‘‘अरे हां, बताइए,’’ मुझे लगा कि जैसे वे कोई बड़ी जंग जीत कर आए हैं.

‘‘बिल्डर निरंजन के घर का पता मिल गया है. वह यहीं पास के महल्ले में रहता है. आज शाम हम ने तय किया है कि अपने पदाधिकारियों के साथ अपार्टमैंट के सभी लोग उस से मिलने चलेंगे और उस पर प्रैशर बनाएंगे कि वह अपार्टमैंट के बकाया काम को तुरंत निबटाए, वरना हम उस के खिलाफ ऐसी कानूनी लड़ाई शुरू करेंगे कि उसे छटी का दूध याद आ जाएगा.’’

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‘‘ठीक है, हम सभी उस के घर चलते हैं और उसे डराधमका कर आते हैं,’’ मैं ने कान खुजलाते हुए उन के मनोबल में इजाफा किया.

उस शाम हम निरंजन के घर गए तो बहसाबहसी का दौर इतना लंबा खिंचा कि रात के 11 बज गए. उस के गुंडों के साथ झड़प होने से हम बालबाल बच गए. उस का कहना था कि उस ने अपार्टमैंट में एक भी काम बकाया नहीं छोड़ा है जबकि हम ने कल कोर्ट में जो केस दायर किया था उस में कोई दर्जनभर ऐसे काम दर्शाए थे जिन्हें उस ने अपने वादे के अनुसार पूरा नहीं किया है. बहरहाल, बिल्डर निरंजन की नाराजगी की एक अहम वजह यह थी कि उसे पता चल गया था कि वैलफेयर सोसायटी ने उस के खिलाफ कोर्ट में एक केस डाला है. बस, इसी खुंदक में वह भविष्य में अपार्टमैंट में कोई भी काम कराने से साफ इनकार कर रहा था. उस ने तैश में भुनभुना कर कहा भी, ‘ऐसे कितने केस हम पर चल रहे हैं, एक और केस देख लेंगे. मेरा क्या बिगाड़ लोगे?’

रात के कोई 12 बजे घर लौट कर मैं ने खाना खाया. सोने की कोशिश की तो नींद का आंखों से रिश्ता कायम नहीं हो पाया. लिहाजा, पता नहीं कब आंख लगी और जब सुबह के 8 बजे तो मैं हड़बड़ा कर उठा. कुलदीपा भी घर के सारे कामकाज निबटाने के बाद नहाधो चुकी थी. किसी तरह अफरातफरी में तैयार हो कर मैं औफिस पहुंचा. मैं मुश्किल से अभी अपनी कुरसी पर बैठा ही था कि मैसेंजर ने आ कर बताया कि नीलेश नाम के कोई साहब आए थे और आप से मिलना चाह रहे थे. मैं सोच में पड़ गया. तभी मेरा मोबाइल बज उठा, ‘‘हैलो शशिकांतजी, मैं वैलफेयर सोसायटी से नीलेश बोल रहा हूं. मैं बाहर रिसैप्शन पर खड़ा हूं. आप से एक जरूरी काम था.’’

मेरा माथा ठनका, अच्छा, तो ये अपनी वैलफेयर सोसायटी के नीलेशजी हैं. मतलब यह कि अपनी सोसायटी अब मेरे औफिस तक आ पहुंची है. मैं ने रिसैप्शनिस्ट को फोन कर के बताया कि नीलेशजी को अंदर मेरे चैंबर में भेज दो. वे आए तो एकदम से अपने मतलब की बात पर आ गए, ‘‘शशिकांत, मैं बड़ी मुसीबत में हूं. मेरे बच्चे का सैंट्रल स्कूल में ऐडमिशन नहीं हो पा रहा है. हर मुमकिन कोशिश कर चुका हूं. अधिकारियों से खूब मगजमारी भी कर चुका हूं. अगर आप अपने डीओ लैटर पर सैंट्रल स्कूल के पिं्रसिपल से एक रिक्वैस्ट लिख दें तो मेरा बड़ा उपकार हो जाएगा.’’

वे हाथ जोड़ कर मुझ से बुरी तरह याचना करने लगे. मैं ने सोचा, अपनी वैलफेयर सोसायटी का मामला है, वह भी एक पदाधिकारी का. आखिर, मेरे अनुरोध पर उस के बच्चे का ऐडमिशन हो जाए तो इस में हर्ज ही क्या है. इस तरह वैलफेयर सोसायटी और औफिस की जिम्मेदारियां साथसाथ निबटाते हुए 2 दिन और गुजरे थे कि उमाकांतजी द्वारा एक सूचना मिली कि कल दोपहर बाद उन के यहां कोई खास आयोजन है जिस में मुझे सपरिवार शामिल होना है. कुलदीपा भी सामने आ खड़ी हुई, ‘‘अजी, सोसायटी का मामला है, कोई कोताही मत बरतना. कल कायदे से दोपहर बाद, औफिस से आधी छुट्टी ले कर यहां आ जाना, वरना बहुत बुराई हो जाएगी. लोग कहेंगे कि शशिकांत साहब ऐसे छोटेमोटे आयोजन में कहां आने वाले हैं, आखिर, वे एक बड़े अफसर जो ठहरे.’’

कुलदीपा के आग्रह को टालना मेरे वश की बात नहीं है. सो, उस दिन मैं औफिस से आधी छुट्टी ले कर उमाकांतजी के आयोजन में शामिल होने सपरिवार जा पहुंचा. लेकिन, मैं ने देखा कि वहां कोई बड़ा जश्न नहीं है, जैसे कि किसी का जन्मदिन या मैरिज एनिवर्सरी आदि. बस, नीलेशजी, लालजी और भीमसेनजी के परिवारजन ही वहां मौजूद थे. लिहाजा, उमाकांतजी ने खड़े हो कर स्वागत किया जबकि उन की पत्नी, कुलदीपा को ले कर दूसरे कमरे में चली गईं और मेरे दोनों बच्चे वहां दूसरे बच्चों के साथ खेलकूद में व्यस्त हो गए. मामूली औपचारिकताओं के बाद चायपान हुआ, फिर 4 बजे के आसपास खाना. मुझे बड़ी कोफ्त हुई. बस, इतने से आयोजन के लिए मुझे औफिस का अत्यंत महत्त्वपूर्ण काम छोड़ कर वहां से छुट्टी लेनी पड़ी. बहरहाल, जब हम लोग वापस अपने फ्लैट में आए तो कुलदीपा ने बताया कि आज मिसेज उमाकांतजी से मेरी खूब बातचीत हुई. उमाकांतजी घंटाघर के पास एक शराब का ठेका लेना चाहते हैं जिस के लिए उन्हें आप की मदद चाहिए.

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मैं चौंक गया, तो क्या शराब के ठेके के लिए लाइसैंस दिलाने के लिए सारी जुगत मुझे ही करनी होगी? मैं ने कुलदीपा से कहा, ‘‘अब, यह काम मुझ से नहीं हो पाएगा. उमाकांत नाजायज काम करने वाला आदमी है और मेरी उस के साथ नहीं निभने वाली है.’’ पर कुलदीपा उमाकांतजी के ही पक्ष में मुझ से तर्ककुतर्क करने लगी, ‘‘अरे, अब उमाकांतजी यह बिजनैस करना चाहते हैं तो करने दीजिए. हमारा क्या जाता है?’’ ‘‘मतलब यह कि वह हमारे मारफत ठेका खोलेगा, ठेके पर अवैध धंधा करेगा और जब पकड़ा जाएगा तो कानून की गिरफ्त में मैं आऊंगा क्योंकि उस के ठेके की जिम्मेदारी मेरे ऊपर होगी,’’ मैं एकदम से बिफर उठा.

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नपुंसक : भाग 3- नौकरानी के जाल में कैसे फंस गए रंजीत

लेखक- वीरेंद्र बहादुर सिंह

यह पछतावा तब ज्वालामुखी बन कर फूट पड़ा, जब ममता के मंदिर जाने पर देवी ने रंजीत को बताया कि इस महीने उसे महीना नहीं हुआ. अब वह क्या करे? यह सुन कर रंजीत पर तो जैसे आसमान टूट पड़ा था. धरती भी नहीं फटने वाली थी कि वह उस में समा जाते. उन्हें खुद से घृणा हो गई.

उन्होंने एक लड़की की जिंदगी बरबाद की थी. इस अपराधबोध से उन का रोमरोम सुलग रहा था. लेकिन अब पछताने से कुछ होने वाला नहीं था. अब तो समाधान ढूंढना था. उन्होंने देवी से कहा, ‘‘तुम्हारी जिंदगी बरबाद हो, उस के पहले ही कुछ करना होगा. मैं दवा की व्यवस्था करता हूं. तुम दवा खा लो, सब ठीक हो जाएगा.’’

लेकिन देवी ने कोई भी दवा खाने से साफ मना कर दिया. रंजीत उसे मनाते रहे, पर वह जिद पर अड़ी थी. रंजीत की अंतरात्मा कचोट रही थी कि उन्होंने कितना घोर पाप किया है. आज तक उन्होंने जो भी भलाई के काम किए थे, इस एक काम ने सारे कामों पर पानी फेर दिया था.

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वह पापी हैं. चिंता और अपराधबोध से ग्रस्त रंजीत को देवी ने दूसरा झटका यह कह कर दिया कि उस के पापा उन से मिलना चाहते हैं. जो न सुनना चाहिए, वह सुनने की तैयारी के साथ रंजीत देवी के घर पहुंचे. उस दिन ड्राइवर की नौकरी करने वाले देवी के बाप रामप्रसाद का अलग ही रूप था.

हमेशा रंजीत के सामने हाथ जोड़ कर सिर झुकाए खड़े रहने वाले रामप्रसाद ने उन पर हाथ भले ही नहीं उठाया, पर लानतमलामत खूब की. रंजीत सिर झुकाए अपनी गलती स्वीकार करते रहे और रामप्रसाद से कोई रास्ता निकालने की विनती करते रहे. अंत में रामप्रसाद ने रास्ता निकाला कि वह देवी की शादी और अन्य खर्चों के लिए पैसा दे दें.

‘‘हां…हां, जितने पैसे की जरूरत पड़ेगी, मैं दे दूंगा.’’ राहत महसूस करते हुए रंजीत ने कहा, ‘‘कब करनी है शादी?’’

‘‘अगले सप्ताह. बलबीर का कहना है, ऐसे में देर करना ठीक नहीं है.’’

‘‘बलबीर? वही जो आवारा लड़कों की तरह घूमता रहता है. तुम्हें वही नालायक मिला है ब्याह के लिए?’’

‘‘वह नालायक…आप से तो अच्छा है जो इस हालत में भी शादी के लिए तैयार है.’’

बलबीर का नाम सुन कर रंजीत हैरान थे, लेकिन वह कुछ कहने या करने की स्थिति में नहीं थे. देवी की शादी और अन्य खर्च के लिए रंजीत को 10 लाख रुपए देने पड़े. इस के अलावा उपहार के रूप में कुछ गहने भी.

शादी के बाद रहने की बात आई तो रंजीत ने अपना बंद पड़ा फ्लैट खोल दिया. ऐसा उन्होंने खुशीखुशी नहीं किया था बल्कि यह काम दबाव डाल कर करवाया गया था. इज्जत बचाने के लिए वह रामप्रसाद के हाथों का खिलौना बने हुए थे.

फ्लैट के लिए ममता ने ऐतराज किया तो उन्होंने उसे यह कह कर चुप करा दिया कि देवी अपने ही घर पलीबढ़ी है. शादी के बाद कुछ दिन सुकून से रह सके, इसलिए हमें इतना तो करना ही चाहिए.

देवी की शादी के 7 महीने ही बीते थे कि ममता ने रंजीत को बताया कि देवी को बेटा हुआ है. रंजीत मन ही मन गिनती करते रहे, पर वह हिसाब नहीं लगा सके. ममता ने कहा, ‘‘हमें देवी का बच्चा देखने जाना चाहिए.’’

ममता के कहने पर रंजीत मना नहीं कर सके. वह पत्नी के साथ देवी के यहां पहुंचे तो बलबीर बच्चा उन की गोद में डालते हुए बोला, ‘‘एकदम बाप पर गया है.’’

रंजीत कांप उठे. ममता ने कहा, ‘‘देखो न, बच्चे के नाकनक्श बलबीर जैसे ही हैं.’’

अगले दिन बलबीर ने शोरूम पर जा कर रंजीत से कहा, ‘‘आप अपना बच्चा गोद ले लीजिए.’’

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‘‘इस में कोई बुराई तो नहीं है, पर ममता से पूछना पड़ेगा.’’

रंजीत को बलबीर का प्रस्ताव उचित ही लगा था. लेकिन बलबीर ने शर्त रखी थी कि जिस फ्लैट में वह रहता है, वह फ्लैट उस के नाम कराने के अलावा कामधंधा शुरू करने के लिए कम से कम 25 लाख रुपए देने होंगे.

सब कुछ रंजीत की समझ में आ गया था. उन्होंने पैसा कम करने को कहा तो वह ब्लैकमेलिंग पर उतर आया. कारोबारी रंजीत समझ गए कि अब खींचने से कोई फायदा नहीं है. उन्होंने ममता से बात की. थोड़ा समझाने बुझाने पर वह देवी का बच्चा गोद लेने को राजी हो गई.

बच्चे को गोद लेने के साथसाथ अपने वकील को उन्होंने फ्लैट देवी के नाम कराने के कागज तैयार करने के लिए कह दिया. 25 लाख देने के लिए रंजीत को प्लौट का सौदा करना था. इस के लिए उन्होंने प्रौपर्टी डीलर को सहेज दिया था. इतना सब होने के बावजूद ममता का मन अभी पराया बच्चा गोद लेने का नहीं हो रहा था. इसलिए उस ने रंजीत से कहा, ‘‘बच्चा गोद लेने से पहले आप एक बार अपनी जांच करा लीजिए.’’

रंजीत ने सोचा, उन का टैस्ट तो हो चुका है. उन्हीं के पुरुषत्व का नतीजा है देवी का बच्चा. फिर भी पत्नी का मन रखने के लिए उन्होंने अपनी जांच करा ली. इस जांच की जो रिपोर्ट आई, उसे देख कर रंजीत के होश उड़ गए. वह खड़े नहीं रह सके तो सोफे पर बैठ गए. तभी उन्हें एक दिन देवी की फोन पर हो रही बात समझ में आ गई, जिसे वह उन पर डोरे डालते समय किसी से कर रही थी.

देवी ने जब पहली बार रंजीत का हाथ पकड़ा था, तब उन्होंने उसे कोई भाव नहीं दिया था. इस के बाद उस ने फोन पर किसी से कहा था, ‘‘तुम्हारे कहे अनुसार कोशिश तो कर रही हूं. प्लीज थोड़ा समय दो. तब तक वह वीडियो…’’

तभी रंजीत वहां आ गए. उन्हें देख कर देवी सन्न रह गई थी. उसे परेशान देख कर उन्होंने पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

देवी ने बहाना बनाया कि वह किसी सहेली से वीडियो देखने की बात कर रही थी. अब रंजीत की समझ में आया कि उस समय देवी की बलबीर से बात हो रही थी. देवी का कोई वीडियो उस के पास था, जिस की बदौलत वह देवी से उसे फंसाने के लिए दबाव डाल रहा था.

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रिपोर्ट देख कर साफ हो गया था कि देवी का बच्चा बलबीर का था. उन्हें अपनी मूर्खता पर शरम आई. लेकिन उन्होंने जो गलती की थी, उस की सजा तो उन्हें भोगनी ही थी.

रंजीत ने वकील और प्रौपर्टी डीलर को फोन कर के प्लौट का सौदा और फ्लैट के पेपर बनाने से रोक दिया. अब न उन्हें बच्चा गोद लेना था, न फ्लैट देवी के नाम करना था. अब उन्हें प्लौट भी नहीं बेचना था. वकील और प्रौपर्टी डीलर को फोन करने के बाद उन्होंने ममता को बुला कर कहा, ‘‘ममता मैडिकल रिपोर्ट आ गई. रिपोर्ट के अनुसार मेरे अंदर बाप बनने की क्षमता नहीं है. मैं संतान पैदा करने में सक्षम नहीं हूं.’’

ममता की समझ में नहीं आया कि उस का पति अपने नपुंसक होने की बात इतना खुश हो कर क्यों बता रहा है.

नपुंसक : भाग 2- नौकरानी के जाल में कैसे फंस गए रंजीत

लेखक- वीरेंद्र बहादुर सिंह

कभी किसी चीज को हाथ न लगाने वाली देवी कितनी ही बार रंजीत की जेब से पैसे निकाल चुकी थी. उसे पैसे निकालते देख लेने पर भी रंजीत और ममता अनजान बने रहते थे. वे सोचते थे कि कोई जरूरत रही होगी. देवी चोरी भी होशियारी से करती थी. वह पूरे पैसे कभी नहीं निकालती थी.

इधर एक लड़का, जिस का नाम बलबीर था, अकसर रंजीत की कोठी के बाहर खड़ा दिखाई देने लगा था. ममता ने जब उसे देवी को इशारा करते देखा तो देवी को तो टोका ही, उसे भी खूब डांटाफटकारा. इस से उस का उधर आनाजाना कम तो हो गया था, लेकिन बंद नहीं हुआ था. एक रात रंजीत वाशरूम जाने के लिए उठे तो उन्हें बाहर बरामदे से खुसरफुसर की कुछ आवाज आती सुनाई दी.

खुसरफुसर करने वाले कौन हैं, जानने के लिए वह दरवाजा खोल कर बाहर आ गए. उन के बाहर आते ही कोई अंधेरे का लाभ उठा कर दीवार कूद कर भाग गया. उन्होंने लाइट जलाई तो देवी को कपड़े ठीक करते हुए पीछे की ओर जाते देखा.

यह सब देख कर रंजीत को बहुत गुस्सा आया. उन्होंने सारी बात ममता को बताई तो उन्होंने देवी को खूब डांटा, साथ ही हिदायत भी दी कि दोबारा ऐसा नहीं होना चाहिए. इस के बाद देवी का व्यवहार एकदम से बदल गया. वह रंजीत और ममता से कटीकटी तो रहने ही लगी, दोनों की उपेक्षा भी करने लगी.

देवी के इस व्यवहार से रंजीत और ममता को उस की चिंता होने लगी थी. शायद इसी वजह से उन्होंने देवी के मातापिता से उस की शादी कर देने को कह दिया था.

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अचानक देवी का व्यवहार फिर बदल गया. ममता के साथ तो वह पहले जैसा ही व्यवहार करती रही, पर रंजीत से वह हंसहंस कर इस तरह बातें करने लगी जैसे कुछ हुआ ही नहीं था. रंजीत ने गौर किया, वह जब भी अकेली होती, उदास रहती. कभीकभी वह फोन करते हुए रो देती. उस से वजह पूछी जाती तो कोई बहाना बना कर टाल देती.

एक दिन तो उस ने हद कर दी. रोज की तरह उस दिन भी ममता मंदिर गई थी. रंजीत शोरूम पर जाने की तैयारी कर रहे थे. एकदम से देवी रंजीत के पास आई और उन के गाल को चुटकी में भर कर बोली, ‘‘आप कितने स्मार्ट हैं, मुझे बहुत अच्छे लगते हैं.’’

पहले तो रंजीत की समझ में ही नहीं आया कि यह क्या हो रहा है. जब समझ में आया तो हैरान रह गए. वह कुछ कहे बगैर नहाने चले गए. आज पहली बार उन्हें लगा था कि देवी अब बच्ची नहीं रही, जवान हो गई है.

अगले दिन जैसे ही ममता मंदिर के लिए निकली, देवी दरवाजा बंद कर के सोफे पर बैठे रंजीत के बगल में आ कर बैठ गई. उस ने अपना हाथ रंजीत की जांघ पर रखा तो उन का तनमन झनझना उठा. उन्होंने तुरंत मन को काबू में किया और उठ कर अपने कमरे में चले गए. वह दिन कुछ अलग तरह से बीता.

पूरे दिन देवी ही उन के खयालों में घूमती रही. आखिर वह चाहती क्या है. एक विचार आता कि यह ठीक नहीं. देवी तो नादान है जबकि वह समझदार हैं. कोई ऊंचनीच हो गई तो लोग उन्हीं पर थूकेंगे. जबकि दूसरा विचार आता कि जो हो रहा है, होने दो. वह तो अपनी तरफ से कुछ कर नहीं रहे हैं, जो कर रही है वही कर रही है.

अगले दिन सवेरा होते ही रंजीत के दिल का एक हिस्सा ममता के मंदिर जाने का इंतजार कर रहा था, जबकि दूसरा हिस्सा सचेत कर रहा था कि वह जो करने की सोच रहे हैं, वह ठीक नहीं है. ममता के मंदिर जाने पर देवी दरवाजा बंद कर रही थी, तभी वह नहाने के बहाने बाथरूम में घुस गए. दिल उन्हें बाहर निकलने के लिए उकसा रहा था. रोकने वाली आवाज काफी कमजोर थी. शायद इसीलिए वह नहाधो कर जल्दी से बाहर आ गए.

देवी रसोई में काम कर रही थी. उस के चेहरे से ही लग रहा था कि वह नाराज है. रंजीत सोफे पर बैठ कर उस का इंतजार करने लगे. लेकिन वह नहीं आई. पानी देने के बहाने उन्होंने बुलाया. पानी का गिलास मेज पर रख कर जाते हुए उस ने धीरे से कहा, ‘‘नपुंसक.’’

रंजीत अवाक रह गए. देवी के इस एक शब्द ने उन्हें झकझोर कर रख दिया. डाक्टर के कहने पर उन के मन में अपने लिए जो संदेह था, देवी के कहने पर उसे बल मिला. उन का चेहरा उतर गया. उसी समय ममता मंदिर से वापस आ गईं. पति का चेहरा उतरा देख कर उस से पूछा, ‘‘तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

रंजीत क्या जवाब देते. अगले दिन उन्होंने नहाने जाने में जल्दी नहीं की. दरवाजा बंद कर के देवी उन के सामने आ कर खड़ी हो गई. जैसे ही रंजीत ने उस की ओर देखा, उस ने झट से कहा, ‘‘मैं कैसी लग रही हूं?’’

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‘‘बहुत सुंदर.’’ रंजीत ने कहा. लेकिन यह बात उन के दिल से नहीं, गले से निकली थी. देवी रंजीत की गोद में बैठ गई. वह कुछ कहते, उस के पहले ही उन का हाथ अपने हाथ में ले कर पूछा, ‘‘मैं आप को अच्छी नहीं लगती क्या?’’

‘‘नहीं…नहीं, ऐसी बात नहीं है.’’ रंजीत ने कहा.

इस के आगे क्या कहें, यह उन की समझ में नहीं आया तो ममता के आने की बात कह कर उसे उठाया और जल्दी से बाथरूम में घुस गए. इसी तरह 2-3 दिन चलता रहा. रंजीत अब पत्नी के मंदिर जाने का इंतजार करने लगे. अब देवी की हरकतें उन्हें अच्छी लगने लगी थीं. क्योंकि 40 के करीब पहुंच रहे रंजीत पर एक 18 साल की लड़की मर रही थी.

यही अनुभूति रंजीत को पतन की राह की ओर उतरने के लिए उकसा रही थी. उन का पुरुष होने का अहं बढ़ता जा रहा था. खुद पर विश्वास बढ़ने लगा था. इस के बावजूद वह खुद को आगे बढ़ने से रोके हुए थे. पर एक सुबह वह दिल के आगे हार गए. जैसे ही देवी आ कर बगल में बैठी, वह होश खो बैठे.

नहाने गए तो उन के ऊपर जो आनंद छाया था, वह अपराधबोध से घिरा था. पूरे दिन वह सहीगलत की गंगा में डूबतेउतराते रहे. अगले दिन वह ममता के मंदिर जाने से पहले ही तैयार हो गए. ममता हैरान थी, जबकि देवी उन्हें अजीब निगाहों से ताक रही थी. रंजीत उस की ओर आकर्षित हो रहे थे.

लेकिन आज दिमाग उन पर हावी था. दिमाग कह रहा था, ‘लड़की तो नासमझ है, उस की भी बुद्धि घास चरने चली गई है, जो अच्छाबुरा नहीं सोच पा रहा है. उस ने जो किया है, वह ठीक नहीं है.’ अब उन्हें अपने किए पर पछतावा हो रहा था.

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नपुंसक : भाग 1- नौकरानी के जाल में कैसे फंस गए रंजीत

लेखक- वीरेंद्र बहादुर सिंह

रंजीत को जिस तरह साजिश रच कर ठगा गया था, उस से वह हैरान तो थे ही उन्हें गुस्सा भी बहुत आया था. उस गुस्से में उन का शरीर कांपने लगा था. कंपकंपी को छिपाने के लिए उन्होंने दोनों हाथों की मुट्ठियां कस लीं, लेकिन बढ़ी हुई धड़कनों पर वह काबू नहीं कर पा रहे थे.

उन्हें डर था कि अगर रसोई में काम कर रही ममता आ गई तो उन की हालत देख कर पूछ सकती है कि क्या हुआ जो आप इतने परेशान हैं. एक बार तो उन के मन में आया कि सारी बात पुलिस को बता कर रिपोर्ट दर्ज करा दें लेकिन तुरंत ही उन की समझ में आ गया कि गलती उन की भी थी. सच्चाई खुल गई तो वह भी मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे.

पत्नी के डर से उन्होंने मेज पर पड़ी अपनी मैडिकल रिपोर्ट अखबारों के नीचे छिपा दी थी. मोबाइल उठा कर उन्होंने प्रौपर्टी डीलर को प्लौट का सौदा रद्द करने के लिए कह दिया. उस की कोई भी बात सुने बगैर रंजीत ने फोन काट दिया था. हमेशा शांत रहने वाले रंजीत मल्होत्रा जितना परेशान और बेचैन थे, इतना परेशान या बेचैन वह तब भी नहीं हुए थे, जब उन्हें साजिश का शिकार बनाया गया था. फिर भी वह यह दिखाने की पूरी कोशिश कर रहे थे कि वह जरा भी परेशान या विचलित नहीं हैं.

रंजीत मल्होत्रा एक इज्जतदार आदमी थे. शहर के मुख्य बाजार में उन का ब्रांडेड कपड़ों का शोरूम तो था ही, वह साडि़यों के थोक विक्रेता भी थे. कपड़ा व्यापार संघ के अध्यक्ष होने के नाते व्यापारियों में उन की प्रतिष्ठा थी. उन के मन में कोई गलत काम करने का विचार तक नहीं आया था. उन के पास पैसा और शोहरत दोनों थे. इस के बावजूद उन में जरा भी घमंड नहीं था. वह अकेले थे, लेकिन हर तरह से सफल थे.

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उन की तरक्की से कई लोग ईर्ष्या करते थे. इतना सब कुछ होते हुए भी उन्हें हमेशा इस बात का दुख सालता था कि शादी के 12 साल बीत जाने के बाद भी वह पिता नहीं बन सके थे. उन की पत्नी ममता की गोद अभी तक सूनी थी.

रंजीत और ममता की शादी के बाद की जिंदगी किसी परीकथा से कम नहीं थी. हंसीखुशी से दिन कट रहे थे. जब उन की शादी हुई थी तो ममता की खूबसूरती को देख कर उन के दोस्त जलभुन उठे थे. उन्होंने कहा था, ‘‘भई आप तो बड़े भाग्यशाली हो, हीरोइन जैसी भाभी मिली है.’’

ममता थी ही ऐसी. शादी के 12 साल बीत जाने के बाद भी उन की सुंदरता में कोई कमी नहीं आई थी. शरीर अभी भी वैसा ही गठा हुआ था. पिछले 10 सालों से रंजीत के यहां देवी नाम की लड़की काम कर रही थी. जब वह 10-11 साल की थी, तभी से उन के यहां काम कर रही थी. देवी हंसमुख और चंचल तो थी ही, काम भी जल्दी और साफसुथरा करती थी. इसलिए पतिपत्नी उस से खुश रहते थे. अपने काम और बातव्यवहार से वह दोनों की लाडली बनी हुई थी.

घर में कोई बालबच्चा था नहीं, इसलिए पतिपत्नी उसे बच्चे की तरह प्यार करते थे. जहां तक हो सकता था, देवी भी ममता को कोई काम नहीं करने देती थी. हालांकि वह इस घर की सदस्य नहीं थी, फिर भी अपने बातव्यवहार और काम की वजह से घर के सदस्य जैसी हो गई थी. पतिपत्नी उसे मानते भी उसी तरह थे. जब उस की शादी हुई तो ममता पर तो कोई फर्क नहीं पड़ा, लेकिन रंजीत पूरी तरह बदल गए थे.

देवी की शादी रंजीत के लिए किसी कड़वे घूंट से कम नहीं थी. उस की शादी को 2 साल हो चुके थे. इन 2 सालों में रंजीत के जीवन में कितना कुछ बदल गया था, जिंदगी में कितने ही व्यवधान आए थे. शादी के 10 साल बीत जाने पर गोद सूनी होने की वजह से ममता काफी हताश और निराश रहने लगी थी.

वह हर वक्त खुद को कोसती रहती थी. ईश्वर में जरा भी विश्वास न करने वाली ममता पूरी तरह आस्तिक हो गई थी. किसी तरह उस की गोद भर जाए, इस के लिए उस ने तमाम प्रयास किए थे. इस सब का कोई नतीजा नहीं निकला तो ममता शांत हो कर बैठ गई.

शादी के 4 सालों बाद दोनों को लगा कि अब उन्हें बच्चे के लिए प्रयास करना चाहिए. इस के बाद उन्होंने प्रेग्नेंसी रोकने के उपाय बंद कर दिए. बच्चे के लिए उन्हें जो करना चाहिए था, किया. दोनों को पूरा विश्वास था कि उन का प्रयास सफल होगा. उन्हें अपने बारे में जरा भी शंका नहीं थी, क्योंकि दोनों ही नौरमल और स्वस्थ थे.

इस तरह उम्मीदों में समय बीतने लगा. आशा और निराशा के बीच कोशिश चलती रही. रंजीत ममता को भरोसा देते कि जो होना होगा, वही होगा. उन्होंने डाक्टरों से भी सलाह ली और तमाम अन्य उपाय भी किए. पर कोई लाभ नहीं हुआ. पति समझाता कि चिंता मत करो. हम दोनों आराम से रहेंगे लेकिन पति के जाते ही अकेली ममता हताश और निराश हो जाती. रंजीत का पूरा दिन तो कारोबार में बीत जाता था, लेकिन वह अपना दिन कैसे बिताती.

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सारे प्रयासों को असफल होते देख डाक्टर ने रंजीत से अपनी जांच कराने को कहा. अभी तक रंजीत ने अपनी जांच कराने की जरूरत महसूस नहीं की थी. वह दवाएं भी कम ही खाते थे. रंजीत ऊपर से भले ही निश्चिंत लगते थे, लेकिन संतान के लिए वह भी परेशान थे. चिंता की वजह से रंजीत का किसी काम में मन भी नहीं लगता था. चिंता में वह शारीरिक रूप से भी कमजोर होते जा रहे थे.

काम करते हुए उन्हें थकान होने लगी थी. खुद पर से विश्वास भी उठ सा गया था. शांत और धीरगंभीर रहने वाले रंजीत अब चिड़चिड़े हो गए थे. बातबात पर उन्हें गुस्सा आने लगा था. घर में तो वह किसी तरह खुद पर काबू रखते थे, पर शोरूम पर वह कर्मचारियों से ही नहीं, ग्राहकों से भी उलझ जाते थे.

घर में भी ममता से तो वह कुछ नहीं कहते थे, पर जरा सी भी गलती पर नौकरानी देवी पर खीझ उठते थे. देवी भी अब जवान हो चुकी थी, इसलिए उन के खीझने पर ममता उन्हें समझाती, ‘‘पराई लड़की है. अब जवान भी हो गई है, उस पर इस तरह गुस्सा करना ठीक नहीं है.’’

‘‘तुम ने ही इसे सिर चढ़ा रखा है, इसीलिए इस के जो मन में आता है, वह करती है.’’ रंजीत कह देते. बात आईगई हो जाती. जबकि देवी पर इस सब का कोई असर नहीं पड़ता था. वह उन के यहां इस तरह रहती और मस्ती से काम करती थी, जैसे उसी का घर है. ममता भले ही देवी का पक्ष लेती थी, लेकिन वह भी महसूस कर रही थी कि अब वह काफी बदल गई है.

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रस्मे विदाई: भाग 1- क्यों विदाई के दिन नहीं रोई मिट्ठी

‘‘यह क्या है मिट्ठी? 2 दिन रह गए हैं तुम्हारी विदाई को और तुम यहां बैठी खीखी कर रही हो, नाक कटवाओगी क्या? तुम लड़कियों को कुछ काम नहीं है क्या? अरे, शादी का घर है, सैंकड़ों काम पड़े हैं, थोड़े हाथपैर चलाओगी तो छोटी नहीं हो जाओगी,’’ नीरा ने अपनी बेटी मिट्ठी और उस की सहेलियों को इस तरह लताड़ा कि सब सकते में आ गईं. सहेलियां उठ कर कमरे से बाहर निकल गईं और इधरउधर कार्य करने का दिखावा करने लगीं. मिट्ठी वहीं बैठी रही और अपनी मां को अपलक देखती रही.

‘‘अब हम क्या करें, मां, कुछ काम भी तो करने नहीं देती हैं आप? हमारे हंसनेबोलने से आप की नाक कटने का खतरा कैसे पैदा हो गया, यह भी हमारी समझ में नहीं आया.’’

‘‘हांहां, तुम्हारी समझ में क्यों आने लगा. अकेले में तुम्हें समझा सकूं, इसीलिए उन लड़कियों को यहां से भगा दिया. हमारे जमाने में तो विवाह से

10-12 दिनों पहले से ही लड़कियां धीरेधीरे स्वर में रोने लगती थीं. आनेजाने वाले भी लड़की से गले मिल कर दो आंसू बहा लेते थे कि लड़की अब पराई होने जा रही है. माना, अब नया जमाना है पर 2 दिन पहले तो धीरेधीरे रो ही सकती हो. नहीं तो लोग क्या कहेंगे कि लड़की को शादी की बड़ी खुशी है.’’

‘‘वाह मां, किस युग की बातें कर रही हैं आप, आजकल विदाई के समय कोई नहीं रोता. हमारी बात तो आप जाने दीजिए, पर आजकल की अधिकतर लड़कियां पढ़ीलिखी हैं, अपने पैरों पर खड़ी हैं. वे इन पुराने ढकोसलों में विश्वास नहीं करतीं.’’

‘‘बदल गया होगा जमाना, पर इस महल्ले में तो सब जैसे का तैसा है, यहां लोग अभी भी पुरानी परंपराओं का पालन करते हैं. हर विवाह के बाद वर्षों यह चर्चा चलती रहती है कि लड़की विदाई के समय कितना रोई. उसी से तो मायके के प्रति लगाव का पता चलता है. अच्छा, मैं चलती हूं, ढेरों काम पड़े हैं, पर अब ठहाके सुनाई न दें, इस का ध्यान रखना,’’ कहती हुई नीरा चली गई थीं.

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उन के जाते ही मिट्ठी का मन हुआ कि वह इतना जोर से खिलखिला कर हंसे कि सारा घर कांप जाए. विदाई के समय रोने की प्रथा को इतनी गंभीरता से तो शायद ही कभी किसी ने लिया हो. 40 वर्ष की उम्र के करीब पहुंच रही है मिट्ठी, अब क्या रोना और क्या हंसना. लेकिन मां नहीं समझेंगी.

आज भी वह दिन मिट्ठी की यादों में उतना ही ताजा है, जब पहली बार उसे वर पक्ष के लोग देखने आए थे. उन दिनों तो उस का अपना अलग ही स्वप्निल संसार था और वास्तविकता से उस का दूरदूर कोई वास्ता नहीं था. घूमनाफिरना, सिनेमा देखना और उत्सवों व विवाहों में भाग लेना, यही उस की दिनचर्या थी. कालेज जाना भी इस में शामिल था पर उस में पढ़ाई से अधिक महत्त्व सहेलियों, फिल्मों और गपशप का था. कालेज जाना तो विवाह होने तक के समय का सदुपयोग मात्र था.

भावी वर को देख कर तो उस की आंखें चौंधिया गई थीं. वैसा सुदर्शन युवक आज तक उस की नजरों के सामने से नहीं गुजरा. साथ ही ऊंची नौकरी, संपन्न परिवार, उस की तो मानो रातोंरात काया ही पलट गईर् थी.

पर जब एक सप्ताह बीतने पर भी उधर से कोई जवाब नहीं मिला था तो सब का माथा ठनका था. शीघ्र ही देवदत्त बाबू से, जो मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे थे, संपर्क किया गया तो वे स्वयं ही चले आए और आते ही मिट्ठी के पिता को ऐसी खरीखोटी सुनाई थी कि बेचारे के मुख से आवाज नहीं निकली थी.

‘इतने ऊंचे स्तर का घरवर और आप ने उन्हें अच्छे दहेज तक का प्रलोभन नहीं दिया? पूरी बिरादरी में कहीं देखा है ऐसा सजीला युवक?’ देवदत्त बाबू बोले थे.

‘लेकिन देवदत्त बाबू, देखनेसुनने में तो अपनी मिट्ठी भी किसी से कम नहीं है,’ उस के पिता सर्वेश्वर बाबू बोले.

‘हां जी, आप की मिट्ठी तो परी है परी. कल कोई राजकुमार आएगा और फोकट में उसे ब्याह कर ले जाएगा.’ देवदत्त बाबू के स्वर ने अंदर अपने कमरे में बैठी मिट्ठी को पूरी तरह से लहूलुहान कर दिया था और पता नहीं सर्वेश्वर बाबू पर क्या बीती थी.

‘मैं ने तो फोकट में विवाह करने की बात कभी की नहीं, मैं ने आप से पहले ही कहा था कि हम 3 लाख रुपए तक खर्च करने को तैयार हैं,’ सर्वेश्वर बाबू दबे स्वर में बोले थे.

‘सच कहूं? 3 लाख रुपए की बात सुन कर देर तक हंसते रहे थे लड़के के घर वाले. लड़के की मां ने तो सुना ही दिया कि 3 लाख रुपए में कहीं शादी होती है. अरे, इतने में तो ठीक से बरात की खातिरदारी भी नहीं हो सकेगी,’ देवदत्त बाबू ने एक और वार किया था.

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‘इस से अधिक तो मेरे लिए संभव नहीं हो सकेगा. आप तो जानते हैं कि मिट्ठी से छोटे 4 और भाईबहन हैं. बहुत कोशिश करने पर 3 का साढ़े 3 लाख रुपए हो जाएगा.’

‘फिर तो आप उसी स्तर का वर ढूंढ़ लीजिए अपनी मिट्ठी के लिए. आप तो जानते ही हैं कि जितना गुड़ डालोगे उतना ही मीठा होगा. वैसे भी उस लड़के का संबंध तय हो गया और 15 लाख रुपए पर बात पक्की हुईर् है. 5-6 लाख रुपए का तो केवल तिलक आएगा,’ कहते हुए देवदत्त बाबू उठ खड़े हुए थे.

मिट्ठी ने बीए पास कर एमए में दाखिला ले लिया था. उधर सर्वेश्वर बाबू ने वर खोजो अभियान तेज कर दिया था. हर माह 2-3 भावी वर और उस के मातापिता उसे देखने आते. पर कुछ न कुछ ऐसा हो जाता था कि बात बनतेबनते रह जाती. सर्वेश्वर बाबू ने अब यह कहना भी बंद कर दिया था कि वे दहेज प्रथा में विश्वास नहीं करते और प्रस्तावित दहेज की रकम बढ़ा कर 4 लाख रुपए कर दी थी. पर जब सभी प्रयत्नों के बाद भी वह बेटी के लिए एक अदद वर नहीं ढूंढ़ पाए तो सब का क्रोध मिट्ठी पर उतरने लगा था. उस की दादीमां ने तो एक दिन खुलेआम ऐलान भी कर दिया था कि घर में कन्या पैदा होने से बड़ा अभिशाप कोई और नहीं है.

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वक्त की अदालत में: भाग 6- मेहर ने शौहर मुकीम के खिलाफ क्या फैसला लिया

नया परिवेश, नए लोग, नए मौसम के बीच तालमेल बैठाने की पुरजोर कोशिश में लगी हुई थी. एक दिन प्राचार्य ने स्कूल के बाद मिलने के लिए कहा. अतीत के नुकीले पत्थर पर पड़ कर फिर से कहीं पैर लहुलूहान न हो जाए, अटकलों, ऊहापोहों ने इंटरवल के बाद के 4 पीरियड में पेट में हौल पैदा कर दी. समय की काली छाया मेरा पीछा करते इस नितांत अनजान टापू में तो नहीं घुस आई. ‘यह किसी अब्दुल मुकीम का लैटर मेरे नाम आया है. आप के कैरेक्टर के बारे में बड़ी एब्यूज लैंग्वेज और बैड इन्फौर्मेशन लिखी है. डू यू नो हिम?’

‘यस सर, ही इज माई हसबैंड,’ मैं ने सिर  झुका लिया.

‘ओह, आय सी. तभी तो आप को 2 छोटेछोटे बच्चों के साथ मीलों का सफर अकेले तय कर के नए माहौल में आने की वजह ढूंढ़ता रहा मैं.’

दुखती नस पर किसी ने हाथ रख दिया. दर्द से बिलबिला गई. आंखों में सावन की  झड़ी लग गई.

‘डोंट वरी, आई विल टैकल दिस मैटर. यू जस्ट कन्सैन्ट्रेट अपौन योर ड्यूटी ऐंड योर चिल्ड्रन.’

‘सर, प्लीज स्टाफ में किसी से…’ मेरे होंठ थरथराए.

‘नो मैडम, कीप फेथ औन मी. आई विल सेव योर रिस्पैक्ट ऐंड औनर.’

घसीटते कदमों ने घर तो पहुंचा दिया मगर कमरे की निस्तब्धता ने कस कर बाहों में बांध लिया. तेज रुलाई फूटी. देर तक निढाल फर्श पर बैठी रही.

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पतझड़ सावन में, सावन बंसत में तबदील होते रहे. गरमी की छुट्टियों में बच्चों के साथ कभी समुद्री जहाज से, कभी फ्लाईट से अब्बूअम्मी के पास आती रही. केसों की हियरिंग पर अपनी बरबादी की, मूकदर्शक बनी सड़कों की खाक छानना मेरी मजबूरी बन गई. सहेलियों, रिश्तेदारों से मुकीम की नईनई खबरें मिलती रहीं. मेरे घर से निकलने के 6 महीने बाद ही उस की मां मर गईं. शराब की लत और शक्की स्वभाव ने कोर्ट में मिली औरत को जल्द ही उकता दिया और वह एक रात उस की पूरी तनख्वाह ले कर घर से भाग गई.

16 महीने मुकीम ने नई जोड़ीदार की पुरजोर तलाश की. मुसलिम समाज में मर्द कपड़ों की तरह औरत बदलता है तो बेवा और तलाकशुदा औरतें 2 रोटी और एक छत के लिए किसी भी कमाऊ के साथ निकाह करने के लिए मजबूर हो जाती हैं. समाज का यह लिजलिजा विकृत रूप उस की खोखली व्यवस्था की चूलें हिला कर रख देता है. बीमार मानसिकता, आघातप्रतिघात, दोषारोपण की खरपतवार आने वाली फसल को कमजोर बनाती जा रही है. अशिक्षित मुसलिम समाज भारत की प्रगति में कंधे से कंधे मिलाना तो दूर, मजहबी संकीर्णता की खोह में लिपटा कुलबुलाकुलबुला कर ही दम तोड़ देता है.

एक साल के बाद ही मुकीम ने एक बच्चे की बेवा मां का सिरमौर बनने का फख्र हासिल कर लिया.  उस ने एक साल बाद मुकीम को एक लड़की का पिता बना दिया. मुकीम सीना ताने घूमता, ‘अभी और 10 बच्चे पैदा करने की ताकत रखता हूं. औरतें मेरे लिए नहीं, मैं औरतों का उद्धार करने के लिए पैदा हुआ हूं, वरना 200 रुपयों में तो कितनी औरतें बिछबिछ जाएं.’

पुलिस केस से बचने के लिए उस ने सरकारी वकील को खरीद लिया. मेरा स्लम एरिया का मकान मात्र 17 हजार रुपए में बेच दिया. 10 साल के बेटे ने जज के सामने बाप की दरिंदगी का एकएक सफा खोल कर रख दिया. केस का फैसला मेरे हक में हो गया.

मुकीम की म झले भाई के साथ घर के मेंटिनैंस और बिजलीपानी के खर्च को ले कर होने वाली तकरारों ने म झले को रेलवे क्वार्टर लेने के लिए मजबूर कर दिया. पूरे घर पर अब मुकीम का एकछत्र अधिकार. लेकिन जीने की लकड़ी की सीढि़यां बुरी तरह हिलने लगी थीं. छत की दीवारों का रंग और प्लास्टर उधड़ने लगा. शराब, जुए की लत उसे घुन की तरह चाट कर कंगाल बनाने लगी. कर्जदारों की फेहरिस्त बढ़ने लगी.

मेरे दोनों बच्चों ने 10वीं, 12वीं के बोर्ड इम्तिहान में आशातीत सफलता हासिल कर के स्पोर्ट्स में भी अच्छी जगह बना ली. बेहतरीन इंग्लिश, हिंदी, मिश्रित उर्दू के कारण वे आकाशवाणी के बालजगत कार्यक्रम की एंकरिंग करने लगे. स्वस्थ मानसिकता, तरक्की और कामयाबी की बुनियाद बन गई.

बाद मैं ख्वाबों के खूनी शहर पहुंची तो मालूम हुआ कि मुकीम अपनी तीसरी बीवी के सौतले बेटे की फूटती मूंछों के नीचे से निकली अपने प्रति भर्त्सना बरदाश्त नहीं कर पाया. ‘निकालो साले को यहां से वरना जान से मार डालूंगा. मेरा ही खा कर मु झ पर ही गुर्राता है.’

उस की आएदिन की चिंघाड़ और रौद्र रूप को बेटे के प्रति आसक्त मां बरदाश्त नहीं कर पाई. 6 साल की बेटी को सामान लाने के बहाने बाहर भेज कर मिट्टी तेल छिड़क लिया. धूधू कर के एक बार फिर वही घर जला जिस की बुनियाद केवल देह के सुख और नितांत पुरुषस्वार्थ पर रखी गई थी. 90 प्रतिशत जली तीसरी बीवी ने अपनी मासूम, अबोध के गले पर मुकीम का निरंतर कसता पंजा देख कर सारा दोष खुद पर ले लिया. एक बार फिर अमानुष के गले में फांसी का फंदा पड़ने से पहले ही कमजोर और शिथिल पड़ गया. अदालत को तो चश्मदीद गवाह और ठोस सुबूत चाहिए न.

8 माह बाद कमसिन बच्ची की परवरिश का हवाला दे कर मुकीम की बहन फिर उस के लिए एक अदद हड्डी गोश्त का जिंदा लोथड़ा ढूंढ़ने लगी. 65 वर्ष की तलाकशुदा औरत ने मुकीम से निकाह मंजूर कर लिया जो पिछले 10 सालों से भाभी के घर के सभी सदस्यों की आंखों में कांटे की तरह चुभती रही थी. निकाह के वक्त मुकीम रिटायर हो चुका था. मेरे दोनों बच्चे कौंपिटीटिव एग्जाम में अच्छी रैंक हासिल कर के नेवी और इंजीनियरिंग की पढ़ाई में व्यस्त हो गए. खुद मैं अपनी काबिलीयत और मेहनत के बल पर 2 प्रमोशन हासिल कर के सीनियर टीचर बन गई. मेरा शांत स्वभाव कभी भी मु झे बहुसंख्यकों के बीच अपना विरोधी पैदा करने नहीं देता.

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दर्दीले अतीत की भयावहता से खुद को बचाने के लिए बचपन के 2 अधूरे शौकों को पूरा करने का प्रयास करने लगी. गले का माधुर्य मु झे संगीत के करीब ले जाना चाहता रहा, लेकिन इसलाम में संगीत हराम माना जाता है.  दकियानूसी और अपरिपक्व सोच ने 55 साल की उम्र में गले को साधने की कोशिश को एक बार फिर नाकाम कर दिया. पूरी तवज्जुह सिलाई और मशीन की कशीदाकारी के फन पर आ कर सिमट गई.

बेहतरीन सूट, चादरें, मैक्सी के लुभावने आकर्षक धागे और डिजाइन मेरे कलाकार मन को दिनभर खिलाखिला रखते. वर्तमान शिक्षा पद्धति के साथ खुद को भी अपडेट करने के शगल ने मेरे छोटे बेटे से मु झे कंप्यूटर सिखला दिया. गुनाहों और बदकारियों से दामन बचाने वाली मैं प्रकृति का शुक्रिया अदा करती रहती हूं. बच्चे अपने अब्बू के जल्लादी, जाहिल वजूद की यादों को अपने जेहन से खुरचखुरच कर फेंक चुके थे.

आज नवीन भैया की दी गई खबर ने ठहरे समंदर में तूफान उठा दिया. कई दिनों तक खुद को संतुलित नहीं कर पाई. हार कर नवीन भैया का नंबर डायल कर ही दिया.

‘‘हैलो दीदी, आप ठीक हैं न?’’

‘‘मैं ठीक हूं भैया, लेकिन आप से एक गुजारिश है.’’

‘‘कैसी बातें कर रही हैं, दीदी. आप के ही स्नेह से मेरे घर में दोदो बेटियों ने जन्म लिया है, वरना हम तो उम्मीद ही छोड़ बैठे थे. आप ने प्रोत्साहित किया, बहू को अपने घर रख कर इलाज करवाया. आप का एहसान…’’ गला भर गया उन का, ‘‘आप तो बस हुक्म कीजिए.’’

‘‘भैया, जिस दिन अब्दुल मुकीम की बेटी के केस की तारीख हो, मैं उस दिन सैशन कोर्ट में केस की कार्रवाई सुनना चाहती हूं.’’

‘‘ठीक है, दीदी.’’ मेरे अंतस में उठते हाहाकर की गर्जन साफ सुनाई दे रही थी तजरबेकार कोर्ट सुपरिटैंडैंट को. ‘‘मगर दीदी, अपने किए की सजा तो इस कलियुग में जीतेजी ही भुगतनी पड़ती है. आप क्यों अपने जख्म हरे करना चाहती हैं. भुगतने दो उस को. दूसरे की बेटी की जिंदगी बरबाद की, तो उस की बेटी के साथ.’’

‘‘भैया, जुर्म की सजा कानून भले ही नहीं देता लेकिन वक्त गिनगिन कर सजा देता है. निलोफर के बलात्कारी को कानून तो सजा देगा लेकिन असली कुसूरवार तो मुकीम है जो बारबार मांबाप की लाड़ली बेटियों को अपनी क्रूरता का शिकार बना कर अपनी चालाकी, धूर्तता से कानून की गिरफ्त में आने से खुद  को बचाता रहा. अब जब अपनी बेटी पर जुल्म हुआ तब क्या वह चुप रहेगा? खुद को कचोटेगा, पछताएगा.

‘‘मैं सिर्फ एक बार उस के चेहरे पर दर्दोमलाल की सिलवटें देखना चाहती हूं. उस की आंखों में पस्तहाल शबनम की बूंदें देखना चाहती हूं. उस का मर्दाना दंभ, उस का अभिमानी सिर असमर्थता और बेबसीलाचारी के हथौड़े से कुचलते हुए देखना चाहती हूं. उस की आंखों में दहशत के बवंडर और माथे पर पश्चात्ताप की शिकन देखना चाहती हूं. गुस्से से उबलती उस की मक्कार आंखों में लोहे से पिघलते आंसू देखना चाहती हूं,’’ कहतेकहते मैं हांफने लगी थी.

‘‘दीदी, अगले महीने की 14 तारीख को केस की सुनवाई है. मैं जज से स्पैशली आप के बैठने की इजाजत ले लूंगा. दीदी, अब सो जाओ, बहुत रात हो गई है. कल बात करूंगा. गुड नाइट,’’ कह कर नवीन भैया ने फोन काट दिया. मेरी आंखों में 20-22 वर्षीया लड़की का अक्स उतर आया. निलोफर का आंसुओंभरा चेहरा, पुलिस मर्द की वासना का शिकार, कौन करेगा भोग्या का उद्धार. नहीं, उसे तो उम्रभर की वस्तु सम झ कर मर्द समाज की दूसरी पौध इस्तेमाल करने के जाने कौनकौन से घिनौने मंसूबे बनाएगी. उस के मासूम सपने, घर, पतिबच्चे, प्यारखुशियां, सम्मान, सबकुछ सामाजिक अपमान, तिरस्कार, घृणा की बलिवेदी पर चढ़ गया. कैसे वह अपने भीतर आत्मविश्वास और जीवित रहने की अदम्य इच्छा की दीपशिखा को प्रज्वलित रख पाएगी.

एक अकेले मुकीम ने अपने निर्दयी व्यवहार के कारण 7 लोगों को अर्थहीन, दिशाहीन और पीड़ायुक्त जीवन जीने के लिए मजबूर किया. चिंदीचिंदी कर के रख दिया उन के ख्वाबों, खुशियों और संकल्पों को. हाड़मांस की औरतों के सम्मान, अधिकारों को अपनी मर्दाना ताकत की ज्वाला में नेस्तनाबूद करने वाला शख्स अपनी एक अदद बेटी की अस्मत की सुरक्षा नहीं कर पाया. छि, धिक्कार है ऐसे मर्द पर. लेकिन रहती दुनिया तक ऐसे लाखों हिंदुस्तानी मर्द सिर ऊंचा कर के अपनी पूरी अकड़ और ऐंठ के साथ जिंदा रहेंगे.

मुकीम अपनी तमाम वहशियाना फितरत, मक्कारियों, चालबाजियों के साथ शरीर के हड्डी का ढांचा होने तक, आंखों के फूट जाने तक, अपने गरूर के साथ जिंदा रहेगा. लेकिन जब उस का थरथराता, कंपकंपाता शरीर मौत मांगेगा, रहम की भीख मांगेगा, तब दुनिया उस की फटी छाती की चीत्कार सुन कर भी अनसुना कर देगी. घसीटघसीट कर बुरी मौत मरेगा वह. यही उस वक्त की अदालत का फैसला होगा.

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