‘‘स्वाति दीदी और नकुल जीजाजी आ रहे हैं. आप उन्हें जा कर ले आना. मेरे औफिस में एक प्रतिनिधि मंडल आ रहा है. मेरा जाना संभव नहीं हो सकेगा,’’ स्वस्ति अपने पति सुकेतु से बोली.
‘‘मैं नहीं जा सकूंगा. फोन कर दो. टैक्सी कर के आ जाएंगे,’’ सुकेतु ने स्वयं में डूबे हुए उत्तर दिया.
‘‘विवाह के बाद पहली बार हमारे घर आ रहे हैं, बुरा मान जाएंगे. आप की दीदी आई थीं, तो आप सप्ताह भर घर से काम करते रहे थे. अब 1 दिन भी नहीं कर सकते?’’
‘‘दीदी हमारी सुखी गृहस्थी देखने आई थीं. हम कितने सुखी दिखे कह नहीं सकता, पर यह अवश्य कह सकता हूं कि वे काफी निराश लग रही थीं. मैं ने तो तभी सोच लिया था जैसे हम अपना कार्य स्वयं करते हैं, अपना पैसा अलग रखते हैं, मित्र अलग हैं, वैसे ही संबंधी भी
अलग ही रहने चाहिए. है कि नहीं?’’ सुकेतु लापरवाही से बोला तो स्वस्ति खून का घूंट पी कर रह गई.
6 वर्षों तक प्रेम की पींगें बढ़ाने के बाद सुकेतु और स्वस्ति का विवाह हुआ था. दोनों के विवाह को 1 वर्ष भी पूरा नहीं हुआ था पर विवाहपूर्व का प्रगाढ़ प्रेम कब का काफूर हो चुका था. दोनों एकदूसरे को नीचा दिखाने का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देते थे. मधुयामिनी के समय ही दोनों में इतना झगड़ा हुआ था कि पांचसितारा होटल के प्रबंधक ने बड़ी शालीनता से दोनों को होटल छोड़ कर जाने की सलाह दे डाली थी.
‘‘हम ने पूरे सप्ताह के लिए अग्रिम किराया दे रखा है,’’ स्वस्ति क्रोधित स्वर में बोली जबकि सुकेतु चुप खड़ा देखता रहा.
‘‘आप ठीक कह रही हैं महोदया. पर हम अपने दूसरे अतिथियों को नाराज करने का खतरा नहीं उठा सकते. रही आप के अग्रिम किराए की बात, तो आप ने हमारे फर्नीचर और कपप्लेटों पर जो कृपा की है उस का हरजाना तो चुकाना ही पड़ेगा. शेष रकम हम लौटा देंगे,’’ उत्तर मिला.
दोनों चुपचाप अपने कक्ष में चले गए थे और अपने आगे के कार्यक्रम पर विचार करना चाहते थे. पर विचार करते तो कैसे, दोनों के बीच अबोला जो पसर गया था.
सुकेतु सोफे पर ही पसर गया था. पर आंखों से नींद कोसों दूर थी. स्वस्ति नर्मगुदगुदे बिस्तर पर भी करवटें बदलती रही थी. दोनों के बीच एक शब्द का भी आदानप्रदान नहीं हुआ था.
अगले दिन हालचाल जानने के लिए दोनों के मातापिता के फोन आए तो दोनों में स्वत: ही बोलचाल हो गई थी. किसी तरह दोनों ने वह समय गुजारा था, क्योंकि वापसी के टिकट पहले से ही बुक थे. अत: पहले जाना संभव नहीं था.
कुछ औपचारिकताओं के लिए उन्हें सुकेतु के मातापिता के यहां रुकना पड़ा था. दोनों के उतरे चेहरे देख कर सुकेतु की मां का माथा ठनका था.
‘‘क्या हुआ? कोई समस्या है क्या? तुम दोनों ही बड़े तनाव में लग रहे हो?’’ थोड़ा सा एकांत मिलते ही उन्होंने पूछ लिया था.
‘‘मां समझ में नहीं आता, क्या कहूं, क्या नहीं? लगता है मैं अपने जीवन की सब से बड़ी भूल कर बैठा हूं. हम दोनों का साथ रहना संभव नहीं लगता.’’
‘‘क्या कह रहे हो? पिछले 6 वर्षों से तो तुम उस के दीवाने बने घूम रहे थे. याद है मैं ने कितना समझाया था कि पहले अपनी छोटी बहन का विवाह हो जाने दो, फिर तुम्हारा विवाह करेंगे पर तब तुम ने एक नहीं सुनी थी.’’
‘‘ठीक कह रही हो मां. सच पूछो तो स्वस्ति की कलई तो अब खुली है. लगता ही नहीं है कि कभी हम दोनों एकदूसरे के प्यार में पागल थे,’’ सुकेतु बुझे स्वर में बोला था.
‘‘क्या सोचा था क्या हो गया. सोचा था तुम दोनों खुश रहोगे तो हम भी आनंदित रहेंगे पर यहां तो सब कुछ उलटपुलट होता दिख रहा है. किसी ने ठीक ही कहा है, सोना जानिए कसे-मनुष्य जानिए बसे. दुख तो इस बात का है कि तुम
6 वर्षों में भी स्वस्ति को नहीं समझ पाए.’’
‘‘इन छोटी बातों को दिल से नहीं लगाया करते, मां. थोड़े दिन और देखते हैं. ऐसा ही रहा तो अलग हो जाएंगे.’’
‘‘खबरदार, जो कभी फिर ऐसी बात मुंह से निकाली. हमारे खानदान में आज तक किसी ने तलाक की बात जबान से नहीं निकाली. इधर तुम्हारी शादी को 4 दिन हुए हैं और तुम लगे अलग होने की बातें करने,’’ मां बिगड़ गई थीं.
‘‘मैं भी तुरंत अलग नहीं होने जा रहा हूं. हमारा प्रेम 6 वर्ष पुराना है. विवाह कम से कम 6 माह तो चलना ही चाहिए. हर परिवार में कोई न कोई कार्य पहली बार अवश्य होता है. यों भी विवाह का अर्थ आजीवन कारावास तो है नहीं कि हर हाल में साथ निभाना ही पड़ेगा,’’ सुकेतु अनमने स्वर में बोल कर चुप हो गया था पर मां के चेहरे की उदासी उसे देर तक झकझोरती रही थी.
आज स्वस्ति से बहस होने के बाद मां से बात करने की तीव्र इच्छा हुई तो उस ने फोन मिला ही लिया.
‘‘क्या बात है सुकेतु, आज मां की याद कैसे आ गई?’’ मां उस का स्वर सुनते ही पहचान गई थीं.
‘‘क्या कह रही हैं मां. याद तो उस की आती है, जिसे भुला दिया गया हो. आप तो हर समय साए की तरह मेरे साथ रहती हैं.’’
‘‘अच्छा लगा सुन कर और सुनाओ क्या चल रहा है?’’
‘‘कल स्वस्ति की दीदी और जीजाजी पधार रहे हैं. काफी खुश लग रही है. मुझ से कहने लगी कि मैं उन्हें जा कर ले आऊं. उसे औफिस में काम है. मैं ने तो साफ कह दिया तुम्हारी दीदी है तुम जानो. मैं भी बहुत व्यस्त हूं,’’ और सुकेतु हंस दिया.
‘‘क्या हो गया है तुम्हें, सुकेतु? तुम तो पड़ोसियों तक की मदद करने को भी तैयार रहते थे… अतिथि हमारेतुम्हारे नहीं होते. वे तो सब के साझे होते हैं,’’ मां ने समझाना चाहा.
‘‘दीदी भी आई थीं न मां? तब स्वस्ति ने ऐसा व्यवहार किया था जैसे वे कोई अजनबी हों. मैं उस बात को चाह कर भी नहीं भुला पाया.’’
‘‘घरगृहस्थी में ईंट का जवाब पत्थर से नहीं देते बेटे. तुम दोनों को जीवन साथ बिताना है. थोड़ी समझदारी दिखाओगे तो राह आसान हो जाएगी.’’
‘‘मां, आप को मेरी ही गलती नजर आ रही है. सही जवाब नहीं देने का अर्थ होगा हार स्वीकार कर लेना. आप तो जानती ही हैं कि हार स्वीकार करना मेरे स्वभाव में है ही नहीं.’’
‘‘मैं ने हारजीत की तरह कभी सोचा ही नहीं. जीवन कोई युद्ध तो है नहीं. फिर भी मैं यह तुम्हारे विवेक पर छोड़ती हूं. और सुनाओ कैसा चल रहा है?’’
‘‘सब ठीकठाक है. आप और पापा कुछ दिनों के लिए यहां आ जाओ न. अच्छा लगेगा.’’
‘‘सोचेंगे, तुम्हारी छोटी बहन नंदिनी का विवाह तय हो गया तो शायद तुम लोगों को ही आना पड़े.’’
स्वस्ति समानांतर फोन पर दोनों का वार्त्तालाप सुन रही थी. उस की आंखों में अपनी मौम की छवि तैर गई, जिन्होंने उस के मनमस्तिष्क में यह कूटकूट कर बैठा दिया था कि अपने हितों की रक्षा के लिए उसे शुरू से ही सजग रहना होगा ताकि वर पक्ष सदा डरासहमा सा रहे. अधिक चूंचपड़ करें तो पुलिस की धमकी देने से भी पीछे मत रहना. दुनिया देखी है मैं ने. तुम दोनों को मैं ने कैसी मुसीबतों में पाला है, यह मैं ही जानती हूं. तुम्हारे पापा और उन के परिवार ने तो मेरा जीवन नर्क बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. पर बाद में वे भी समझ गए थे कि मैं दूसरी ही मिट्टी की बनी हूं. उन्होंने उसे समझाया था.
स्वस्ति के लिए मां की हर बात अटल सत्य होती थी. सुकेतु से उस का प्रेमप्रसंग भी तभी आगे बढ़ा था जब मौम ने स्वीकृति दी थी.
सुकेतु और उस की मां की बातें सुन कर स्वस्ति कुछ सोचने को विवश अवश्य हुई थी,
पर वह अपनी भूल स्वीकारने को तैयार नहीं थी. अहं जो आड़े आ रहा था. वह केवल मन ही मन सोचती रही कि शायद सुकेतु का हृदय परिवर्तन हो जाए और वह अपनी मां की बात मान ले. पर सुकेतु ने ऐसा कोई मंतव्य प्रकट नहीं किया. हार कर उसे स्वाति को फोन करना ही पड़ा कि दोनों की अतिव्यस्तता के कारण वे उन्हें लेने नहीं आ सकेंगे. अत: वे टैक्सी कर के आ जाएं. उस ने अपनी आया को भी भलीभांति समझा दिया कि मेहमानों का किस प्रकार विशेष ध्यान रखना है. फिर भी दिन भर स्वस्ति चिंता में डूबतीउतराती रही.
पता नहीं स्वाति क्या सोच रही होगी. विवाह के बाद पहली बार आ रही है वह भी नकुल जीजाजी के साथ. वह जब मुंबई में पढ़ रही थी तो हर सप्ताह बड़े अधिकार से स्वाति के यहां पहुंच जाती थी. स्वाति ने भी उस के स्वागतसत्कार में कभी कोई कमी नहीं की. स्वाति को न केवल खाना खिलाने का शौक था, पाक कला में भी उसे दक्षता प्राप्त थी. नित नए पकवान बनाना उसे खूब भाता था. स्वस्ति की विचारधारा अविरल बहती जा रही थी.
उधर स्वस्ति को रसोईघर में घुसने के नाम से ही डर लगता था. फिर भी उस ने फ्रिज को फलों और सब्जियों से भर दिया था. उसे पता था नकुल को बाहर खाने का शौक नहीं है. इसीलिए वह लगभग हर तरह की सामग्री खरीद लाई थी. घर पहुंचते ही समवेत स्वर में खिलखिलाहट के स्वर सुन कर उस के होंठों पर भी मुसकान तैर गई. स्वाति जहां हो वहां मस्ती का साम्राज्य होना स्वाभाविक है.
‘‘क्या बात है? तुम सब इतना खिलखिला कर क्यों हंस रहे हो? मुझे भी तो बताओ. माफ कर दो, दीदीजीजाजी, मैं चाह कर भी छुट्टी नहीं ले सकी. पूरे दिन मन इतना तड़पता रहा कि पूछो मत. मुझे अपने बौस पर बहुत गुस्सा आ रहा था. तुम्हीं बताओ दीदी हम नौकरी क्यों करते हैं? अपना और अपनों का खयाल रखने के लिए ही न?’’
‘‘स्वस्ति इतना दुखी होने की आवश्यकता नहीं है. हम क्या पराए हैं कि तुम्हें क्षमा मांगनी पड़े? वैसे भी सुकेतु ने हमारा इतना स्वागतसत्कार किया कि तुम्हारी याद तक नहीं आई,’’ नकुल ने हंसते हुए कहा.
‘‘रहने दो न. क्यों चिढ़ाते हो बेचारी को. दिन भर खट कर घर लौटी है,’’ स्वाति ने टोका.
‘‘लो भला, मैं क्यों चिढ़ाने लगा तुम्हारी प्यारी बहन को? मैं तो केवल यह कहने का प्रयत्न कर रहा हूं कि हमारे कारण स्वस्ति को किसी अपराधबोध से पीडि़त होने की आवश्यकता नहीं है. हम तो बड़े मजे में हैं.’’
‘‘जानती हूं, मेरी गैरमौजूदगी में सब प्रसन्न ही रहते हैं. शायद मेरा चेहरा ही ऐसा है, जिसे देखते ही सब दुखी हो जाते हैं,’’ स्वस्ति रोंआसे स्वर में बोली.
‘‘इस का उत्तर तो सुकेतु ही दे सकते हैं, क्योंकि हम तो आज ही आए हैं. अत: तुम्हें देखते ही दुखी होने का प्रश्न ही नहीं उठता. वैसे भी हम तुम्हारी गैरमौजूदगी में प्रसन्न क्यों होने लगे भला?’’ नकुल ने ठहाका लगाया.
‘‘मैं ने तो ऐसे प्रश्नों के उत्तर देने कब से बंद कर दिए हैं. ऐसी बातों को तो मैं एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देता हूं,’’ सुकेतु शांत स्वर में बोला.
‘‘वाह, तुम तो यह कला बड़ी जल्दी सीख गए. हम तो अब तक नहीं सीख पाए,’’ नकुल फिर हंस दिया.
‘‘देख लिया न दीदी. जो मेरी बातों को एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देता है उस से कैसा संवाद कायम हो सकता है,’’ स्वस्ति तीखे स्वर में बोली.
‘‘स्वस्ति तुम तो गंभीर हो गईं. ऐसी बातों को सहजता से लेना सीखो. सुकेतु का वह अर्थ नहीं है जो तुम लगा रही हो. वह तो केवल मजाक कर रहा है,’’ स्वाति ने समझाना चाहा.
‘‘मैं ने तो कब का कहनासुनना छोड़ दिया है दीदी. मौम ने मुझे पहले ही सावधान किया था कि हमारे और सुकेतु के परिवारों की संस्कृति में जमीनआसमान का अंतर है पर मैं ने ही ध्यान नहीं दिया था.’’
‘‘समझी, तो आजकल मौम की सलाह पर अमल किया जा रहा है,’’ स्वाति हंसी.
‘‘इस में आश्चर्य की क्या बात है. मां से अधिक मेरा भलाबुरा और कौन सोचेगा? सच पूछो तो वे मेरी मां होने के साथसाथ मेरी मित्र तथा मार्गदर्शक भी हैं.’’
‘‘जान कर प्रसन्नता हुई. हमारा कोई भाई नहीं है न. इसीलिए शायद तुम श्रवण कुमार बनने का प्रयत्न कर रही हो.’’
‘‘मौम के लिए मेरे मन में बहुत सम्मान है, आवश्यकता पड़ने पर मैं उन के लिए कुछ भी कर सकती हूं. पर अभी प्रश्न वह नहीं है. अभी वे मेरी शादी को बचाने में लगी हैं. आप विश्वास नहीं करोगी कि शादी के बाद सुकेतु कितना बदल गया है. हर बात में अपनी ही चलाता है. मैं तो जैसे कुछ हूं ही नहीं. मौम ने समझाया अभी से नकेल कस कर नहीं रखी तो जीवन भर पैर की जूती बना कर रखेगा. अत: अभी से सावधान हो जाओ. सावधानी हटी दुर्घटना घटी.’’
‘‘क्या कह रही है? यह सब तुझ से मौम ने कहा? मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा. पर तुझे मौम से सुकेतु की शिकायत करने की क्या आवश्यकता थी?’’
‘‘मैं ने शिकायत नहीं की थी. मौम ने ही खोदखोद कर पूछा था… एक मां अपनी बेटी की चिंता नहीं करेगी तो कौन करेगा?’’
‘‘मैं मौम की आलोचना नहीं कर रही. उन की हम दोनों के लिए चिंता स्वाभाविक है, पर पतिपत्नी का संबंध बहुत नाजुक होता है. इस में किसी तीसरे का हस्तक्षेप घातक हो सकता है.
तुम अब छोटी बच्ची नहीं हो. अपने निर्णय स्वयं लेने सीखो.’’
‘‘छोड़ो ये सब दीदी. तुम बताओ घर कैसे पहुंची? घर पहुंच कर कोई परेशानी तो नहीं हुई?’’
‘‘लो भला परेशानी क्यों होने लगी? सुकेतु हमें एअरपोर्ट से घर ले आया. हमारी खूब खातिरदारी की. हमारा दिन तो खूब अच्छा गुजरा. तुम्हारी कमी अवश्य खली. तुम भी आ जातीं, तो चार चांद लग जाते.’’
‘‘1 दिन और दीदी उस के बाद तो पूरे 4 दिन की छुट्टी ली है मैं ने. खूब घूमेंगेफिरेंगे. मैं ने कई अच्छे रेस्तरां ढूंढ़ रखे हैं. कल के बाद घर में खाना बंद. ऐसेऐसे व्यंजन खिलाऊंगी तुम्हें कि मन प्रसन्न हो जाएगा.’’
‘‘क्या कह रही है स्वस्ति. नकुल को तो बाहर का खाना पसंद ही नहीं है. मुझे भी नए पकवान बनाने का बड़ा शौक है. इस संबंध में हम दोनों की खूब पटरी बैठती है.’’
‘‘यही तो समस्या है. अधिकतर पुरुष यही चाहते हैं कि पत्नी दिन भर रसोई में घुसी रहे. मुझे तो मौम ने पहले ही सावधान कर दिया था. वे नहीं चाहतीं कि मैं भी तुम्हारी तरह दिन भर खाना पकाती रहूं. हम दोनों तो अपना नाश्ताखाना सब स्वयं बना लेते हैं.’’
‘‘सुकेतु को भी खाना पकाने का शौक है क्या?’’
‘‘बहुत शौक है दीदी. मैं ही प्रोत्साहित नहीं करती. इस के कई नुकसान हैं. एक तो रोज कुछ न कुछ खरीदना पड़ता है. फिर रसोई गंदी हो जाती है. करते रहो सफाई. इसीलिए तो मौम कहती हैं कि पति की आदत खराब मत करो वरना जीवन भर पछताना पड़ेगा. दीदी एक राज की बात बताऊं?
‘‘बताओ, रोका किस ने है?’’
‘‘पिछले 1 वर्ष से हमारी गैस खत्म नहीं हुई है. गैस एजेंसी वालों ने सोचा कि हम यहां रहते ही नहीं हैं. अत: हमारा कनैक्शन ही हटा दिया था,’’ और फिर दोनों बहनें खिलखिला कर हंस दीं.
‘‘मौम ने यह भी सिखाया है क्या?’’
‘‘यही समझ लो. शादी के बाद जीवन कैसे बिताना है, मुझे तो कुछ पता ही नहीं था. सब कुछ मौम ने ही सिखाया. वे तो यह भी कहती हैं कि पति को चुस्तदुरुस्त रखना है तो किचन से दूर रहना सीखो वरना खूब खाखा कर फूल जाएंगे.’’
‘‘इसीलिए मौम ने पापा को घर और जीवन दोनों से ही निकाल फेंका,’’ स्वाति के स्वर की कड़वाहट से स्वस्ति चौंक गई.
‘‘क्या कह रही हो दीदी? मुझे तो अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा?’’
‘‘नहीं कुछ नहीं, यों ही मेरे मुंह से निकल गया था.’’
‘‘कुछ तो है जिसे तुम मुझ से छिपा रही हो… तुम्हें बताना ही पड़ेगा.’’
‘‘इस में छिपाने जैसा कुछ नहीं है. मौम ने वही किया जो करने की सीख वे तुम्हें दे रही हैं. तुम बहुत छोटी थीं तब. पर मुझे सब अच्छी तरह याद है. पापा अच्छा कमाते थे. कुछ दिनों तक घर में कुक भी था पर मौम न स्वयं कुछ पकाती थीं न उसे पकाने देती थीं. हार कर उसे हटा दिया था पापा ने. मेरा बचपन तो केक, डबलरोटी, पिज्जा तथा बाहर से लाए अन्य खाद्यानों को खाते ही बीता. कभीकभी पापा पकाया करते थे तो मैं भी उन के साथ हो लेती. शायद तभी से मुझे खाना पकाने का शौक लगा.’’
‘‘मुझे तो पापा का चेहरा भी ठीक से याद नहीं है,’’ स्वस्ति सोच में डूब गई.
‘‘तुम्हें कैसे याद होगा, नन्ही बच्ची थीं तुम. मैं भी 10 वर्ष की थी जब मांपापा अलग हो गए थे. मैं कई दिनों तक रोती रही थी. पर किसी को मुझ पर दया नहीं आई थी. मैं तो पापा के साथ रहना चाहती थी पर मां ने अनुमति नहीं दी. कुछ दिनों तक पापा स्कूल में मिलने आते थे, मुझे कुछ पैसे और खिलौने भी दे जाते थे. मां को पता लगा तो स्कूल जा कर उन के मुझे से मिलने पर रोक लगवा दी. उन्हें लगता था कि पापा मुझे उठा कर ले जाएंगे. तब से मन में मां के प्रति ऐसी उदासीनता घर कर गई है कि चाह कर भी मैं उन्हें कभी प्यार नहीं कर सकी. मां भी समझ गई थीं. इसीलिए मुझे होस्टल में डाल कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी.’’
‘‘खूब याद है. तुम केवल छुट्टियों में घर आती थीं. तब हम दोनों कितनी मस्ती किया करते थे.’’
‘‘तेरे लिए ही तो आया करती थी मैं. मां के पास तो हमारे लिए समय ही कहां था.’’
‘‘शायद इसीलिए मां ने मुझे भी होस्टल में डाल दिया था. तुम्हारे कालेज जाने से पहले हम दोनों साथ में कितनी मस्ती किया करते थे. पर तुम्हारे जाने के बाद तो न स्कूल में मन लगता था न घर में.’’
‘‘पता है, हम दोनों का बचपन घोर एकाकीपन में बीता. मां को भी क्या मिला. उन के तथाकथित मित्र 1-1 कर के दूर चले गए. अब तो रतन अंकल को छोड़ कर शायद ही कोई उन की खोज खबर लेता हो,’’ स्वाति का स्वर बेहद उदास था.
‘‘नाम मत लो रतन अंकल का. हमारे परिवार की बरबादी में उन का बड़ा हाथ है,’’ स्वस्ति एकाएक क्रोधित हो उठी.
‘‘अपनी समस्याओं के लिए दूसरों को दोषी ठहराना छोड़ दो मेरी प्यारी बहना. अभी तो अपना घर संभालो. तुम्हारा घर टूटा तो मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगेगा.’’
‘‘तुम्हें क्या लगता है सारा दोष मेरा ही है?’’
‘‘बहन हूं तुम्हारी, झूठ नहीं बोलूंगी. दोष किस का है यह नहीं कहूंगी, पर अपनी गृहस्थी को केवल तुम ही बचा सकती हो. यह मैं अवश्य कहूंगी.’’
‘‘माना दोनों बहनें बहुत दिन बाद मिली हैं, पर क्या आज रतजगा है?’’ तभी हंसते हुए नकुल ने प्रवेश किया.
‘‘मुझे लगा आप दोनों फिल्म देख रहे हैं. हमारी सुध ही कहां थी आप को,’’ स्वाति हंसी.
‘‘फिल्म तो कब की समाप्त हो गई है. अब तो सोने जा रहे हैं हम.’’
‘‘चलो, हम भी सोते हैं स्वस्ति भी थकी हुई है,’’ कह स्वाति उठ खड़ी हुई.
पर स्वस्ति की आंखों से नींद कोसों दूर थी.
स्वाति और नकुल ठंडी हवा के झोंके की तरह आए थे. 1 सप्ताह घूमफिर कर चले गए. उन के जाते ही घर में पुन: सन्नाटा पसर गया.
एक दिन सुकेतु हमेशा की तरह अपने लैपटौप में डूबा था कि तभी स्वस्ति आ
कर उस के गले में बांहें डाल कर झूल गई. सुकेतु हैरान था. ऐसे प्रेमपूर्ण स्पर्श को तो वह लगभग भूल ही चुका था.
‘‘चलो खाना खा लें. ठंडा हो रहा है.’’
सुकेतु मेज पर रखी सामग्री को देख कर हैरान रह गया. फिर पूछा, ‘‘कहां से मंगाया है ये सब?’’
‘‘मंगाया नहीं है मैं ने खुद बनाया है. ऐसा खाना बाजार में कहां मिलता है?’’ कह स्वस्ति मुसकराई, उस ने लाइट बंद कर के सुगंधित मोमबत्ती जला दी थी, जिस की सुगंध पूरे कक्ष में फैल गई थी.
‘‘काश, स्वाति दीदी और पहले आ जातीं,’’ सुकेतु बोला. स्वस्ति बोली कुछ नहीं थी पर चेहरे के भाव बता रहे थे कि वह भी मन ही मन स्वाति को धन्यवाद दे रही थी.