Sattu Sharbat Recipe : घर पर ऐसे बनाएं सत्तू का शर्बत

पाठक द्वारा भेजी गई रेसिपी

नाम – हेमलता श्रीवास्तव
स्थान – नई दिल्ली

Sattu Sharbat Recipe : सत्तू का शरबत गर्मियों में बहुत ही फायदेमंद होता है.

सामग्री

सत्तू पाउडर 8 बड़ॆ चम्मच
शुगर सिरप 1 कप
ठंडा पानी 1 लीटर
गुलाब जल 1 बड़ा चम्मच
गुलाब की पत्ती सजाने के लिए
आइस

बनाने की विधि:-

सत्तू और चीनी के मिश्रण को एक बड़े बर्तन में अच्छी तरह से चलाकर मिला लें और इसमें गुलाब जल के साथ ठंडा पानी मिला लें.
अब ग्लास में पहले बर्फ डालें फिर समान मात्रा में शरबत के एक- एक ग्लास में डालें.
ऊपर से गुलाब पत्ती से सजाकर ठंडा परोसें.
परोसने से पहले एक बार फिर से अच्छी तरह से चला दें.

मिथिला आर्ट को दुनियाभर में चर्चित किया : डा. रानी झा

Dr. Ranji Jha : रानी  झा मिथिला फोक आर्टिस्ट व स्कौलर हैं. उन्होंने कई महिलाओं को आर्ट सिखाया और उन्हें सशक्त बनाया. उन्हें जानने वाली महिलाएं उन से प्रेरणा लेती हैं. 20 मार्च को गृहशोभा इंस्पायरिंग अवार्ड में उन के साथ बातचीत की गई.

कौटन साड़ी, माथे पर बिंदी, आम भारतीय वेशभूषा में 20 मार्च को गृहशोभा इंस्पाइरिंग अवार्ड में शामिल हुईं रानी  झा भारत की उन करोड़ों महिलाओं का प्रतिनिधित्व कर रही थीं जिन का जीवन कड़े संघर्षों से बीता है मगर उन्होंने हार नहीं मानीं. यही कारण भी था कि उन के उल्लेखनीय काम के लिए उन्हें गृहशोभा फोक हैरिटेज अवार्ड से सम्मानित किया गया.

रंग लाई मेहनत

उन्होंने कहा, ‘‘मैं लगभग 45 सालों से मधुबनी आर्ट कर रही हूं. मेरी दादी, दीदी भी यही करती थीं. मैं ने उन्हीं से सीखा है. गांव में कोई छोटाबड़ा फंक्शन होता है तो यह आर्ट किया जाता है. आज से 50 साल पहले तक लड़कियों की शादी की मैरिट उस के ‘लिखिया’ (मधुबनी आर्ट) आने को ले कर माना जाता था और भगवती का गीत आता है या नहीं यह पूछा जाता था. यह हर लड़की सीखती थी कम या ज्यादा. मु झे ज्यादा उत्सुकता थी. मैं ने अपनी चचेरी दादी (बिंदु देवी) से यह सीखा. मेरी अपनी दादी भी बहुत बड़ी मधुबनी कलाकार थीं. उन की बनाई पेंटिंग का फोटोग्राफ ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन में लगा है.’’

उन्होंने आगे कहा, ‘‘मेरा स्कूल ही मेरी दादी, नानी, मामी हुआ करती थीं. जैसे भूमिचित्र में चावल के घोल से उंगलियों को कैसे घुमाया जाता है, यह सीखने के लिए मैं अपनी चचेरी दादी के पास बैठती थी. यही मेरा ककहरा था. परिवार की सारी महिलाएं एकसाथ ये चित्र बनाया करती थीं.’’

रानी  झा ने 2010 में एलएमएनयू दरभंगा से मिथिला पेंटिंग और लिटरेचर में महिलाओं का योगदान में पीएचडी की. उन्होंने अपने आर्ट को और गहराई तक समझने और महिलाओं के प्रति ज्यादा जवाबदेह बनाने के चलते अपनी पीएचडी की. कोई भी आर्ट बिना सोशल मैसेज के खोखला लगता है. देशदुनिया में जितने भी कलाकार उभरे हैं उन्होंने सामाजिक संदेशों को अपने आर्ट के केंद्र में रखा और रानी  झा भी इन्हीं में से रहीं.

चित्र के माध्यम से अपनी बात

वे कहती हैं, ‘‘2004 तक मैं पारंपरिक चित्र बनाती थी लेकिन मेरे मन में महिलाओं को ले कर कई सवाल उठने लगे जैसे क्यों लड़कियों को कोख में मार दिया जाता है, क्यों हम धड़ल्ले से दरवाजे पर नहीं जा सकते, क्यों पढ़ाई से रोका जाता है, इन छटपटाहटों को मैं ने अपने चित्रों में दिखाने की कोशिश की.’’

उन्होंने आगे कहा, ‘‘मैं समाज के जो भी मुद्दे उठाती हूं पहले उसे लिखती हूं, फिर गाती हूं मंचों से, फिर चित्र बनाती हूं.’’

डिसीजन मेकिंग

रानी  झा का मानना है कि जो काम महिला उत्थान के लिए सरकार नहीं कर पाई वह मधुबनी आर्ट ने किया. उन्होंने कहा, ‘‘सरकार की कोई भी स्कीम इतनी सफल नहीं हुई जितनी मिथिला पेंटिंग महिलाओं के लिए सफल हुई. मिथिला पेंटिंग ने महिलाओं का सशक्तीकरण किया. ये पेंटिंग महिलाएं बनाती हैं, उन की पेंटिंग्स बाजारों में बिकती हैं और उन्हें अपने आर्ट की कीमत पता चली है, अपनी कीमत पता चली है.

‘‘आज हम घर की कमाऊ सदस्य बन गईं, घर में हमारा महत्त्व बढ़ गया, डिसीजन मेकिंग में हमारा रोल बढ़ गया. कभी हमें इग्नोर किया जाता था निर्णय लेने में, अब हम निर्णय लेने लगी हैं. मिथिला की बहुत सारी महिलाएं इस के दम पर अपना घर चला रही हैं, बच्चों को पढ़ा रही हैं, देशविदेश जा रही हैं और पद्मश्री ले रही हैं.’’

यह आर्ट और महिलाओं तक कैसे पहुंचे इस के लिए उन्होंने बताया कि सरकार को कलाकारों तक सीधे पहुंचना चाहिए, पूरी पारदर्शिता होनी चाहिए. सरकार कर रही है

मगर थ्योरी पर काम नहीं कर रही. चित्र तो बन रहे हैं मगर जरूरी है कि लिटरेचर को डैवलप किया जाए.

माइंड कोच के तौर पर अपनी अलग पहचान बनाई : श्रुति सेठ

Shruti Seth : सीरियल ‘शरारत’ की जिया और ‘कौमेडी सर्कस’ की ऐंकर श्रुति सेठ को कौन नहीं जानता. अवार्ड्स इवेंट में श्रुति ने भी एक अवार्ड अपने नाम किया. लेकिन यह अवार्ड उन्हें ऐक्टिंग के लिए नहीं बल्कि डिजिटल क्रिएटर की कैटेगरी के लिए दिया गया था.

जी हां, टीवी और सिनेमा में 25 साल काम करने के बाद श्रुति डिजिटल की दुनिया में आ चुकी हैं, जहां वे पेरैंटिंग, मदरहुड और फैमिली मैंटल वैल बीइंग से जुड़े कौंटैंट बनाती हैं. वे माइंड कोच के तौर पर भी अपने फौलोअर्स को पेरैंटिंग से जुड़े मिथ्स बताती हैं और उन का सौल्यूशन भी देती हैं.

बढ़ती गई खोज

श्रुति ‘क्यों होता है प्यार,’ ‘ब्लडी ब्रदर,’ ‘रिश्ता डौट कौम,’ ‘श्श्श् कोई है,’ ‘बालवीर’ जैसे कई सीरियलों में नजर आईं. श्रुति ने करिश्मा कपूर के साथ ‘मैंटरहुड’ जैसी सीरीज में भी काम किया है. आमिर खान और काजोल की सुपरहिट फिल्म ‘फना’ में श्रुति ने काजोल की दोस्त का रोल निभाया था. इस के अलावा श्रुति यशराज की फिल्म ‘तारा रम पम’ में और प्रकाश झा की फिल्म ‘राजनीति’ में भी नजर आईं.

अब इस अदाकारा ने माइंड कोच के तौर पर भी अपनी पहचान बनाई है. जब उन से पूछा कि उन्हें यह कोर्स कैसे मिला और उन्होंने इसे क्यों चुना, तो उन्होंने कहा, ‘‘मैं ने महामारी के दौरान जिज्ञासा और आत्मजांच की आवश्यकता के कारण अचानक अध्ययन करना शुरू कर दिया. मुझे एहसास नहीं था कि मैं एक कभी न खत्म होने वाली यात्रा पर निकलने वाली हूं. प्रत्येक अगले कोर्स के साथ गहराई से जानने की मेरी खोज बढ़ती ही गई. मानव मन और मानवीय स्थिति की प्रकृति ऐसी ही है.’’

ऐसे पहुंचाया लाभ

श्रुति कहती हैं, ‘‘जैसेजैसे मैं ने खुद को शिक्षित किया, मुझे एहसास हुआ कि मैं दूसरों को भी लाभ पहुंचा सकती हूं ताकि वे अधिक संतुष्टिदायक जीवन जी सकें, पुरानी आदतों को तोड़ सकें और अपने कार्यों के प्रति अधिक सजग हो सकें. कला आधारित थेरैपी में पीजी डिप्लोमा और माइंडफुलनैस मैडिटेशन में प्रमाणन प्राप्त करने के बाद से मैं ने जोखिम में पड़े बच्चों, शिक्षकों, छात्रों और कौरपोरेट सीईओ के लिए कई कार्यशालाएं आयोजित की हैं.’’

हार नहीं मानी

श्रुति ने टीवी से ले कर फिल्मों तक अपने काम को खूब मजे से निभाया और इसे ले कर वे खुश भी हैं. अवार्ड लेने समय उन्होंने हंसते हुए कहा कि फिल्मी दुनिया में उन्हें 25 सालों के काम के बाद भी कोई अवार्ड नहीं मिला. लेकिन आज मेरी नई भूमिका को गृहशोभा ने अवार्ड के रूप में नई पहचान दी है. आज के दौर में जहां कई कलाकार कम काम मिलने की वजह से अवसाद का शिकार बन जाते हैं वहीं श्रुति जैसे लोग अपने लिए नए रास्ते बनाते हैं. वह भी ऐसे रास्ते जो न सिर्फ खुद को मंजिल दिला सकें बल्कि दूसरों को भी सही दिशा दे सकें.

नई भूमिका में खुश

श्रुति को उन की बेहतरीन अदाकारी के लिए तो जाना ही जाता है लेकिन अब वे एक बेहतरीन पेरैंटिंग और माइंड कोच भी हैं. अपनी इस भूमिका में वे पहले से?भी ज्यादा व्यस्त हैं. अब वे अपनी लाइफ की स्क्रिप्ट राइटर होने के साथसाथ डाइरैक्टर भी हैं. अपनी नई भूमिका को वे अच्छी तरह से निभा भी रही हैं. श्रुति ने लोगों को यह भी बता दिया कि यदि सोशल मीडिया का इस्तेमाल सही तरह से किया जाए तो यह सभी के लिए लाइफ चैंजिग मीडियम साबित हो सकता है. श्रुति का मानना है कि हर महिला के अंदर एक टैलेंट होता है बस जरूरत होती है खुद में खुद को ढूंढ़ने की. जिस दिन आप ने ऐसा कर लिया उस दिन आप से बेहतर शायद कोई नहीं होगा.

Periods के दौरान मेरी ब्रैस्ट का साइज हैवी हो जाता है, मैं क्या करूं?

Periods :  अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक जरूर पढ़ें…

सवाल-

मैं 26 साल की हूं. पीरियड्स के दौरान मेरी ब्रैस्ट का साइज हैवी हो जाता है. ब्रैस्ट कड़ी भी हो जाती है. पीरियड्स के कुछ दिनों बाद तक भी यह समस्या बनी रहती है. इस से सैक्स के दौरान मैं सही फील महसूस नहीं करती. बताएं मैं क्या करूं?

जवाब-

पीरियड्स के दौरान ब्रैस्ट हैवी होना कोई गंभीर समस्या नहीं है. ऐसा आमतौर पर सौल्ट रिटैंशन की वजह से होता है. बेहतर होगा कि आप फैमिली डाक्टर से मिलें और उन्हें अपनी परेशानी बताएं. उचित उपचार व खानपान से न सिर्फ इस समस्या को जड़ से खत्म किया जा सकता है, बल्कि आप का सौल्ट रिटैंशन और कंजैशन भी कम हो जाएगा.

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पीरियड्स से पहले होने वाली तकलीफ़, मूड स्विंग्स, पेट में दर्द, क्रैम्प्स (ऐंठन) जैसी समस्याएं यानी पीएमएस की तकलीफें हार्मोन्स के कम या ज़्यादा होने के कारण होती हैं. सच कहें तो हार्मोन्स में बदलाव ही महिलाओं के मासिक धर्म का प्रमुख कारण होता है. लेकिन यदि ये हार्मोन्स असंतुलित हो जाते हैं तो ये तकलीफें हद से ज़्यादा बढ़ जाती है.आइये जानते हैं डायटीशियन डॉ स्नेहल अडसुले से कि पीरियड्स के समय , बाद में और पहले क्याक्या चीज़ें खानी चाहिए;

पीरियड्स के पहले

पीरियड्स के पहले यानी मेन्स्ट्रुअल सायकल के 20वें से 30 वें दिन तक आप के अंदर की ऊर्जा कम हो जाती है. आप थोड़ी उदासी भी महसूस कर सकती हैं. दिन में कई बार काफी ज़्यादा भूख महसूस हो सकती है और इसलिए इन दिनों आप के शरीर और मन के लिए सेहतमंद स्नैक्स ज़रुरी होते हैं.

रिफाइन्ड शक्कर, प्रोसेस्ड फूड और अल्कोहल का सेवन जितना संभव हो कम करें. बादाम, अखरोट, पिस्ता जैसे सूखे मेवे यानी हेल्दी फैट का सेवन करें. सलाद में तिल और सूरजमुखी के बीज शामिल करें. सेब, अमरुद, खजूर,पीच जैसे अधिक फायबर वाले फलों को अपने आहार में शामिल करें.

हायड्रेटेड रहें. सोड़ा और मीठे पेय से परहेज़ करें. पर्याप्त मात्रा में पानी पियें. नींबू पानी में पुदिना और अदरक डाल कर पिएं. रात को सोने से पहले शरीर और मन को आराम मिले इसके लिए पेपरमिंट या कैमोमाईल चाय लें.

खून में आयरन सही मात्रा में रहने से आप का मूड और ऊर्जा का स्तर भी अच्छा रहेगा. नट्स, बीन्स (फलियां), मटर, लाल माँस और मसूर जैसे लोहयुक्त खाद्यपदार्थों का आहार में समावेश करें. पेट फूलने या सूजन जैसी समस्या से बचने के लिए नमक का सेवन कम करें.

पीरियड्स के दिनों में (पहले से सातवें दिन तक)

पीरियड्स के दिनों में खास कर पहले दो दिनों में आप को ऐसा लग सकता है जैसे सारी शक्ति चली गई हो. ऊर्जा का स्तर बेहद कम हो जाता है और आप को थकान महसूस हो सकती है. इसलिए इन दिनों ऐसा भोजन करें जिस से आप के शरीर में ऊर्जा का स्तर ऊँचा ऱखने में मदद मिले. अपने आहार में किशमिश, बादाम, मूँगफली, दूध का समावेश करें.

जंक और प्रोसेस्ड फूड में सोडियम और रिफाइन्ड कार्ब्ज प्रचुर मात्रा में होते हैं. इन्हें खाने से बचें. शीतल पेयों में रिफाइन्ड शक्कर भारी मात्रा में होती है जिस के कारण क्रैम्प्स (ऐंठन) आने की मात्रा और पीड़ा बढ़ सकती है. शीतलपेय या सोड़ा के बजाय नींबूपानी, ताजा फलों का रस या हर्बल टी लें.

सीमा रेखा: क्या था निर्मला का असली रूप

लेखक- मधुप चौधरी

समधिन की बात सुन कर दिवाकर सकते में आ गए. नागिन की तरह फुफकार कर निर्मला बोली, ‘‘आप लोग मेरी बेटी को तरहतरह से तंग करते हैं. मैं ने बेटी का ब्याह किया है, उसे आप के हाथों बेचा नहीं है. मेरी बेटी अब आप के घर नहीं जाएगी.’’

दिवाकर ने पिछले साल ही अपने बड़े बेटे मुकुल की शादी पटना से सटे इस कसबे के निवासी गुलाबचंद की बड़ी बेटी रूपा से की थी. लड़की देखने आए तो गुलाबचंद और निर्मला के व्यवहार से इतना प्रभावित हुए थे कि आननफानन में रिश्ते के लिए ‘हां’ कर दी थी.

रूपा भी साधारण तौर पर नापसंद करने लायक नहीं थी. साफ रंग, छरहरा शरीर, नैननक्श भी ठीक ही थे. उस समय वह बीए की परीक्षा की तैयारी कर रही थी. दिवाकर को भी पढ़ीलिखी लड़की की ही तलाश थी सो रूपा हर तरह से उन लोगों को जंच गई. मुकुल को भी पसंद आई.

शादी बिना दानदहेज के बड़ी धूमधाम से हुई. बाजेगाजे और पूरे वैवाहिक कार्यक्रम की वीडियोग्राफी  हुई. रूपा के ससुराल आने पर दिवाकर ने एक शानदार प्रीतिभोज का आयोजन किया था.

दिवाकर को इस रिश्ते के लिए सब से अधिक लड़की की मां के व्यवहार और उन्मुक्तता ने प्रभावित किया था. कसबे के माहौल में ऐसी गृहिणियां भी हो सकती हैं, दिवाकर की कल्पना में भी नहीं था. गुलाबचंद दब्बू किस्म के मर्द लगे पर ऐसा ही होता है. दब्बू किस्म के मर्दों की पत्नियां मुखर होती हैं.

लेकिन दिवाकर को निर्मला से इस तरह से बातचीत या ऐसे तेवर की उम्मीद नहीं थी.

पिछले 2 महीने से नाराज हो कर आने के बाद रूपा मायके में थी. दिवाकर ने सोचा था पटना का अपना काम निबटाने के बाद समधी से मिल कर रूपा की विदाई के बारे में बात कर लेंगे. सीधे लौट जाने पर गुलाबचंद और निर्मला को बुरा लगने वाली बात होती. लेकिन समधिन के तीखे स्वर और तीखी बातों ने दिवाकर को बेचैन कर दिया. असहजता महसूस करते हुए बोले, ‘‘क्या कह रही हैं आप, समधिनजी?’’

‘‘मैं ठीक कह रही हूं दिवाकरजी,’’ निर्मला बोली, ‘‘आप ने मेरी बेटी को ले जा कर पिंजरे में बंद कर दिया. ऊपर से कई तरह की पाबंदियां कि यह मत करो, वैसा मत पहनो, ऐसे मत खाओ, उधर मत जाओ. वह क्या जानवर है जो गाय समझ कर गोशाला में खूंटे से बांध दी? इस पर हमें ही दोषी ठहराते हैं कि बच्चों पर हमारा कंट्रोल नहीं है.’’

दिवाकर को अब समझ में आया कि समधिन का गुस्सा उन की उस बात पर है जो उन्होंने गुलाबचंद से, जब वह रूपा को लाने गए थे, कही थी.

शादी के बाद ससुराल आई रूपा

की चालढाल और व्यवहार से दिवाकर संतुष्ट नहीं थे. रूपा घर के अदब व कायदों को मानने को राजी नहीं थी. वह उसे बंदिश लगते थे. दिवाकर रूढि़वादी नहीं थे परंतु अमर्या- दित आजादी और खुलापन उन्हें पसंद नहीं था.

मुकुल की मां की सोच बहू के बारे में पारंपरिक थी. बहू सुशील और मृदुभाषी हो. घरगृहस्थी का काम जाने, बड़ों का सम्मान करे, हमेशा हंसती- मुसकराती रहे और अपने व्यवहार से घर में खुशियां बिखेरे.

रूपा उन की बहू की उस तसवीर से बिलकुल अलग थी. वह देर रात तक टीवी पर सिनेमा व धारावाहिक देखती. देर से सो कर उठती. उठने के बाद उसे बेड टी चाहिए थी. रसोई का नाम सुनते ही उस का सिर दर्द करने लगता. वह सिर्फ मुकुल को अपना समझती थी. घर के बाकी किसी सदस्य से उसे कोई मतलब नहीं था.

दिवाकर ने रूपा को बेटी की तरह मानते हुए हर तरह से समझाने की कोशिश की कि बेटी, यह तुम्हारा घर है, तुम इस घर की बड़ी बहू हो. घर की जिम्मेदारियों को समझो. लेकिन रूपा में जरा भी परिवर्तन नहीं हुआ. दिवाकर को लगा कि उन्होंने निर्मला की बाहरी चमक से प्रभावित हो कर भारी भूल की, भीतर झांक कर तह तक जाने का प्रयास नहीं किया.

फिर भी दिवाकर को विश्वास था कि रूपा समय के साथ धीरेधीरे इन बातों और अपनी जिम्मेदारियों को समझने लगेगी. आखिर बच्ची ही तो थी. उस से इतनी जल्दी प्रौढ़ता की उम्मीद करना भूल होगी. फिर जिस घर में उन्मुक्तता का वातावरण हो और जहां मातापिता ने अपनी संतानों को जिम्मेदारियों का पाठ न पढ़ाया हो, बेटियों को बेटी और बहू का अंतर न समझाया हो वहां ऐसा होना बहुत स्वाभाविक है. इस में दोष रूपा का नहीं उस के मातापिता का है.

इसी बीच एक घटना घट गई. रूपा के छोटे भाई राजेश ने मां के डांटने पर अपने कपड़ों पर तेल छिड़क कर आग लगा ली थी. सतर्कता के कारण वह बच गया लेकिन यह भयंकर हादसा हो सकता था.

गुलाबचंद रूपा को लेने आए तो बातों ही बातों में दिवाकर कह बैठे, ‘‘भाई साहब बुरा मत मानिएगा, आप के घर में बच्चों पर आप का नियंत्रण नहीं है.’’

असल में दिवाकर का इशारा रूपा की ओर था जिसे समझा कर वह हार चुके थे और हर तरह का प्रयत्न कर के भी परिवार की धारा में नहीं ला पा रहे थे.

यह बात गुलाबचंद निर्मला को कह देंगे और वह इस का इतना बुरा मान जाएंगी दिवाकर ने सोचा भी नहीं था. लेकिन निर्मला ने जब तेवर और तैश से इसे दोहराया तो जैसे दिवाकर का आत्मसम्मान जाग उठा. क्षण भर को यही खयाल जागा कि यह औरत उन्हें भी गुलाबचंद समझती है क्या. गुलाबचंद उस की धौंस सह सकते हैं. उन पर क्यों धौंस जमाएगी यह औरत?

विवाद वहीं उत्पन्न होता है जहां व्यक्ति सीमा रेखा का उल्लंघन करता है. दिवाकर को लगा निर्मला अपनी पारिवारिक सीमा लांघ कर उन की पारिवारिक व्यवस्था में दखल देने की ज्यादती कर रही है. वह बोल उठे, ‘‘सचमुच आप के घर में किसी पर किसी का नियंत्रण नहीं है. सभी अपने मन के हैं. बड़ों की इज्जत की किसी को परवा नहीं है. राजेश ने आग लगा ली. गनीमत थी सिर्फ थोड़ा सा पैर जला. बड़ा हादसा हो जाता तो क्या होता?’’

दिवाकर ने यह भी समझाने के लिए कहा था परंतु निर्मला को यह बात उस की सत्ता को चुनौती और व्यंग्य सी लगी. वह तिलमिला उठी.

उसी समय गुलाबचंद वहां आ गए. दिवाकर ने गुलाबचंद से कहा, ‘‘भाई साहब, मैं पटना अपने किसी काम से आया था तो आप लोगों से मिलने भी चला आया. रूपा को आए 2 महीने हो गए हैं. आप कब उसे विदा करेंगे?’’

‘‘यह क्या बोलेंगे?’’ निर्मला तमतमाए स्वर में बोली, ‘‘मैं कह चुकी हूं कि मेरी बेटी अब उस घर में कभी नहीं जाएगी.’’

‘‘आप एक बात भूल रही हैं, समधिनजी,’’ दिवाकर कुरसी छोड़ कर खड़े हो गए और समझाते हुए बोले, ‘‘रूपा अब हमारे घर की बहू है. उस पर आप का नहीं, हमारा हक बनता है. आप अपने अहं को बेटी के भविष्य से जोड़ कर अच्छा नहीं कर रही हैं. ठंडे दिमाग से सोच कर देखिएगा. मैं जा रहा हूं लेकिन अब मैं या मुकुल रूपा को विदा कराने नहीं आएंगे. आप लोगों की इच्छा होगी तो बेटी भेज दीजिएगा या फिर सारी जिंदगी अपने घर पर ही रखे रहिएगा.’’

निर्मला ने चीख कर कहा, ‘‘हां, हम उसे सारी जिंदगी रखेंगे पर आप के घर कभी नहीं भेजेंगे.’’

दिवाकर निर्मला की बात सुनते हुए भी अनसुनी कर बाहर निकल गए.

दिवाकर के जाने के बाद निर्मला थके हुए योद्धा की तरह धम से सोफे पर बैठ गई. उसे लगा कि दिवाकर नाम के इस मर्द का दर्प आज उस ने चूर कर दिया है पर दूसरे ही पल ऐसा महसूस हुआ कि नहीं, इस जंग में वह जीत नहीं सकी. और इस के लिए गुलाबचंद को दोषी मानते हुए वह उन पर बरस पड़ी, ‘‘दिवाकर इतनी बड़ीबड़ी बातें कह गए और आप को कुछ बोलते नहीं बना?’’

‘‘मैं क्या कहता? तुम तो बोल ही रही थीं,’’ गुलाबचंद ने सफाई दी.

‘‘आप मर्द हैं या माटी का लोंदा? वह आदमी आप की पत्नी का अपमान कर गया और आप चुपचाप उस का चेहरा देखते रहे.’’

गुलाबचंद ने देखा कि निर्मला बहुत नाराज है और अपनी आदत के अनुसार जो भी उस के सामने पड़ेगा उसी पर झल्लाएगी, इसलिए वहां से हट जाना ही उचित समझा.

गुलाबचंद के जाने के बाद निर्मला ने तेज स्वर में रूपा को आवाज दी, ‘‘रूपा…’’

‘‘आई, मम्मी…’’ के साथ ही रूपा बगल के कमरे से निकल कर सामने आ गई.

निर्मला ने सीधे रूपा की ओर देखा. उस की मांग में सिंदूर भरा हुआ था. वह गुस्से में तिलमिला कर बोली, ‘‘मैं ने तुझे सिंदूर लगाने को मना किया है न, तू मानती क्यों नहीं?  जा, जा कर सिंदूर धो दे.’’

रूपा वहां से चली आई.

रूपा पसोपेश में थी, क्या करे, क्या न करे. इस बार सास और पति से झगड़ कर गुस्से में आई थी. मम्मी को रोरो कर उस ने सारा हाल बताया था और यह भी कहा था कि वह उस घर में नहीं जाना चाहती. मम्मी ने भी कहा था वह उस घर में नहीं जाएगी और उन्होंने सिंदूर लगाने को मना किया था. रूपा ने तब मम्मी के कहने पर सिंदूर पोंछ दिया था पर बालों में कंघा करते वक्त अनायास ही उस के हाथ सिंदूर की डिबिया और मांग तक पहुंच जाते.

रूपा अभी ऊहापोह में ही थी कि उसे अपनी छोटी बहन गुडि़या की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘क्या चिंता कर रही हो, दीदी? मम्मी ने कहा है मांग का सिंदूर धो दो तो धो डालो. तुम भी तो यही चाहती हो.’’

गुडि़या, रूपा की तरह उन्मुक्त और लापरवा नहीं बल्कि गंभीर प्रवृत्ति की थी. 12वीं कक्षा में पढ़ती थी. पापा से बहुत कम ही बातें करती थी. हां, छोटे भाइयों से बहुत स्नेह रखती थी.

रूपा ने कहा, ‘‘मैं तय नहीं कर पा रही हूं गुडि़या कि इस समय मुझे क्या करना चाहिए.’’

‘‘क्यों?’’ गुडि़या ने करीब आ कर कहा, ‘‘तुम्हारा तो उस घर में दम घुटता है. उस घर के सभी लोग तुम पर अत्याचार करते हैं. तुम पर तरहतरह की बंदिशें लगाते हैं. वह घर है या जेलखाना. बचपन से मम्मी से आजादी का पाठ पढ़ा है तुम ने. फिर तुम उस जेलखाने में कैसे रह सकती हो?’’

‘‘जेलखाना तो सचमुच ही है परंतु…’’

‘‘परंतु क्या, दीदी?’’ गुडि़या ने रूपा की बात को बीच में काटते हुए कहा, ‘‘यही मौका है. बंधन तोड़ कर बाहर निकल आओ और आजाद पंछी की तरह घूमो. इस सिंदूर में क्या रखा है? शादी तो एक धोखा है, पवित्र धोखा. आत्मा के बंधन के नाम पर धोखा. असल में यह औरतों को मर्दों का गुलाम बनाने का फंदा है. है न दीदी?’’

‘‘तुम ठीक कह रही हो, गुडि़या,’’ रूपा को लगा गुडि़या उस का समर्थन कर रही है पर अगले ही पल गुडि़या का जवाब सुन कर वह चकरा गई.

‘‘मेरी बात मानोगी, दीदी. तुम अभी ही ससुराल वापस चली जाओ. वही तुम्हारा घर है. हम बेटियों के लिए मांबाप का घर शादी के पहले तक ही होता है, शादी के बाद ससुराल ही हमारा अपना घर होता है. तुम अपने आसपास देखो, कहीं दिखाई पड़ता है ऐसा कि शादी के बाद बेटी पिता के घर पर रह रही है.’’

रूपा को कुछ उत्तर देते न बना.

‘‘सच तो यह है दीदी कि मम्मी तुम्हारे कष्टों के लिए यह रिश्ता नहीं तोड़ रहीं, अपने अहं की तुष्टि के लिए तोड़ रही हैं. उन्हें आप के ससुर का कहना बुरा लगा है. मम्मी को तो तुम जानती ही हो और मैं भी. जरा सोचो दीदी, रिश्ता टूटने से उन का क्या बिगड़ेगा? लड़के वाले हैं. जीजाजी की दूसरी शादी हो जाएगी पर तुम्हारा क्या होगा? तुम्हें शादी के बंधन में नहीं बंधना हो तो अलग बात है. वरना परित्यक्ता का दाग तो लग ही जाएगा. फिर मुकुल जीजाजी या उन के घर वाले जालिम हैं ऐसा तो नहीं लगता और मैं भी तो तुम्हारे ससुराल हो आई हूं.’’

‘‘मुझे उन की पाबंदियों वाली बातें बरदाश्त नहीं होतीं,’’ रूपा ने अपना पक्ष रखने की नीयत से कहा.

‘‘ठीक है, तुम्हें उन की नसीहत, उन की सीख अच्छी नहीं लगती. और इसी को तुम ने अत्याचार का नाम दे कर बारबार मम्मी से शिकायत की है लेकिन जब मम्मी डांटती हैं तो कैसे बरदाश्त कर लेती हो?’’

‘‘तुम कहना चाहती हो गुडि़या, मुझे ससुराल लौट जाना चाहिए?’’

‘‘हां, दीदी, इसी में हम सब की भलाई है,’’ गुडि़या ने कहा, ‘‘इस से तुम्हारी इज्जत और जिंदगी बर्बाद होने से बच जाएगी. दोनों परिवारों की इज्जत रह जाएगी. यदि ऐसा नहीं हुआ तो मेरी शादी नहीं हो पाएगी.’’

‘‘वह कैसे?’’ रूपा ने विस्मय से पूछा.

‘‘जिस परिवार की बेटी साधारण समस्याओं के लिए पति और ससुराल छोड़ कर पिता के घर में बैठी हो उस परिवार में कौन रिश्ता जोड़ने आएगा?’’ गुडि़या ने कहा.

‘‘लेकिन मम्मी…’’

‘‘मम्मी की परवा मत करो, दीदी, तुम अपना भविष्य देखो. मम्मी भी तो किसी घर की बेटी हैं. वह क्यों नहीं रहीं अपने मायके में जो तुम्हारी ससुराल छुड़ाना चाहती हैं.’’

रूपा ने आश्चर्य से गुडि़या को देखा कि इतनी छोटी सी लड़की और इतनी समझदारी, इतना ज्ञान कहां से आया उस के पास.

‘‘एक बात तुम्हें और बताती हूं, दीदी, लड़का हो या लड़की, उम्र के साथ जिम्मेदारियां भी बदलती हैं और उसी के साथ विचार भी. आज मम्मी जींस पहनें तो अच्छा लगेगा? बोलो न, अच्छा लगेगा?’’

रूपा ने तात्पर्य न समझते हुए भी कहा, ‘‘नहीं.’’

‘‘ठीक उसी तरह बहू के लिबास में मर्यादा की मांग की जाए तो बुरा क्यों लगना चाहिए? तुम तो सलवारकमीज ही पहनती रहीं. मुझे जींस पसंद है परंतु शादी के बाद बहू की मर्यादा वाला लिबास ही पहनूंगी.’’

गुडि़या और भी कुछ कहती पर रूपा अपने भीतर चल रहे मंथन में डूब गई.

अगली सुबह रूपा मम्मी के सामने आई तो निर्मला ने अवाक् हो कर उसे देखा. वह ससुराल की साड़ी पहने और शृंगार किए हुए थी. मांग में सिंदूर दमक रहा था. निर्मला चीख उठी, ‘‘यह क्या किया तू ने? मैं ने तुझे सिंदूर धो देने को कहा था.’’

‘‘पति के जीवित रहते सिंदूर नहीं धो सकती,’’  रूपा ने साहस कर के कहा.

‘‘कौन पति? कैसा पति?  मर गया तेरा पति.’’

‘‘मम्मी, ऐसा मत कहिए. मैं ससुराल जाने के लिए आप से अनुमति लेने आई  हूं.’’

‘‘क्या? ससुराल जाएगी. दिमाग फिर गया है तेरा?’’

‘‘दिमाग तो पहले फिरा हुआ था, मम्मी,’’ बगल के कमरे से निकल कर गुडि़या सामने आ गई, ‘‘तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि दीदी अपने घर जा रही हैं. इस के साथ ही महीनों से चला आ रहा दोनों परिवारों के बीच का तनाव खत्म हो जाएगा.’’

‘‘तू चुप रह, बड़ी समझदार हो गई है. मेरी कोख से जन्मी मुझी को सबक सिखा रही है,’’ निर्मला गरजीं.

‘‘तुम चाहे जितना बिगड़ लो, मम्मी, दीदी अब यहां नहीं रहेंगी, अपनी ससुराल जाएंगी, आज और अभी.’’

‘‘देखती हूं कौन ले जाता है इसे,’’ निर्मला चीखीं.

‘‘पापा ले कर जाएंगे, और यदि पापा नहीं ले गए तो मैं दीदी को छोड़ कर आऊंगी.’’

निर्मला अपना गुस्सा नहीं रोक सकी. उठ कर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया गुडि़या के गाल पर. फिर उस की गरदन पकड़ कर झकझोरने लगी, ‘‘नालायक, मुझे जवाब देती है.’’

रूपा गुडि़या को छुड़ा कर निर्मला के सामने सीधी खड़ी हो गई. उस की आंखों में आज तेज था. निर्मला की आंखों में देखते हुए बोली, ‘‘बस कीजिए, मम्मी. हद हो गई. मैं बच्ची नहीं बालिग हूं. अपने बारे में सोचनेसमझने और फैसला लेने का मुझे पूरा हक है. मैं ने ससुराल वापस जाने का फै सला कर लिया है और जाऊंगी ही. मुझे कोई नहीं रोक सकता.’’

निर्मला गश खा कर धम से सोफे पर बैठ गई. कल दिवाकर के साथ बहस की जंग में जीती थी या हारी थी, ठीकठीक नहीं मालूम पर आज अपनी सत्ता और अहं के युद्ध में पूरी तरह परास्त हो गई थी वह.   द

Hindi Stories Online : पहली तारीख – क्यों परेशान हो जाती थी रेखा

Hindi Stories Online :  डोरबैल बजी तो रेखा ने दरवाजा खोला. न्यूजपेपर वाला हाथ में पेपर लिए किसी से फोन पर बात कर रहा था. रेखा ने उस के हाथ से अखबार ले दरवाजा बंद किया ही था कि फिर से डोरबैल बजी. जैसे ही रेखा ने दरवाजा खोला तो अखबार वाला बोला, ‘‘मैडम, यह हिंदी का अखबार. आप के घर हिंदी और अंगरेजी 2 पेपर आते हैं.’’

‘‘अरे, फिर तभी क्यों नहीं दे दिया?’’

‘‘जब तक देता, आप ने दरवाजा ही बंद कर दिया,’’ अखबार वाला बोला.

‘‘अच्छा, ठीक है,’’ कह रेखा ने अखबार ले कर दरवाजा बंद कर दिया. तभी विपुल यानी रेखा के पति का शोर सुनाई दिया.

‘‘अरे भई कहां हो?’’ रेखा के पति विपुल की आवाज आई.

तभी डोरबैल भी बजती है. रेखा परेशान सी दरवाजा खोलने चल दी. दरवाजा खोला तो सामने वही अखबार वाला खड़ा था. अब रेखा ने गुस्से से पूछा, ‘‘अब क्या है?’’

‘‘मैडम, वह अखबार का बिल,’’ अखबार वाला बोला.

‘‘पहले नहीं दे सकते थे?’’ गुस्से से कह रेखा ने दरवाजा बंद कर दिया.

उधर विपुल आवाज पर आवाज लगाए जा रहा था, ‘‘रेखा, तौलिया तो दे दो, मैं नहा चुका हूं. कब से आवाजें लगा रहा हूं.’’

रेखा ने तौलिया पकड़ाया ही था कि फिर से डोरबैल बजी. दरवाजा खोलते ही रेखा गुस्से में चीखी, ‘‘क्यों बारबार बैल बजा रहे हो?’’

‘‘मैडम, यह गृहशोभा.’’

‘‘नहीं चाहिए,’’ कह रेखा दरवाजा बंद करने लगी.

तभी अखबार वाला बोला, ‘‘अरे, आप ने ही तो कल मैगजीन लाने को बोला था.’’

‘‘क्या ये सब काम एक बार में नहीं कर सकते?’’ कह रेखा ने जोर से दरवाजा बंद कर दिया.

‘‘इतनी देर लगती है क्या तौलिया देने में?’’ विपुल बोला.

‘‘मैं क्या करती, घंटी पर घंटी बजाए जा रहा था, तुम्हारा पेपर वाला.’’

‘‘लगता है तुम्हें पसंद करता है,’’ विपुल हंसते हुए बोला.

‘‘विपुल, मैं मजाक के मूड में नहीं हूं.’’

तभी फिर डोरबैल बजती है. रेखा गुस्से से दरवाजा खोल कर बोली, ‘‘अब क्या है?’’

सामने दूध वाला था. बोला, ‘‘मैडम दूध.’’

रेखा ने थोड़ा शांत हो दूध ले लिया.

‘‘अरे भई नाश्ता लगाओ. देर हो रही है. औफिस जाना है,’’ विपुल की आवाज आई.

रेखा आंखें तरेरते हुए विपुल को देख किचन में चली गई. विपुल किसी से फोन पर बात कर रहा था.

फिर डोरबैल बजी. रेखा ने झल्लाते हुए दरवाजा खोला.

‘‘मैडम, दूध का बिल,’’ दूध वाला बोला.

‘‘क्या परेशानी है तुम सब को? क्या यह बिल दूध के साथ नहीं दे सकते थे?’’ गुस्से में बोल रेखा ने बिल ले लिया.

‘‘क्या खिला रही हो नाश्ते में?’’ विपुल बोला.

रेखा बोली, ‘‘अपना सिर… घंटी पर घंटी बज रही… ऐसे में क्या बन सकता है? ब्रैडबटर से काम चला लो.’’

‘‘अरे, तुम्हारे हाथों से तो हम जहर भी खा लेंगे,’’ विपुल ने कहा.

‘‘देखो, मैं इतनी भी बुरी नहीं हूं,’’ रेखा बोली.

तभी फिर से डोरबैल बज उठी. रेखा गुस्से से बोली, ‘‘विपुल, दरवाजा खोलो… फिर मत कहना मुझे औफिस को देर हो रही है.’’

विपुल ने फोन पर बात करते हुए ही दरवाजा खोला. दूध वाला ही खड़ा था.

दूध वाला बोला, ‘‘साहब, हम कल दूध देने नहीं आएंगे.’’

‘‘जब दूध दिया था तब नहीं बता सकते थे?’’ विपुल ने डांटा.

‘‘सर, भूल गया था.’’

विपुल औफिस चला गया. औफिस पहुंच कर उस ने रेखा को फोन किया. तभी फिर घंटी बज उठी. रेखा जब दरवाजा खोलने पर पेपर वाले को देखती है, तो उस का गुस्सा 7वें आसमान को छू जाता है. विपुल फोन लाइन पर ही था. अत: बोला, ‘‘अरे, रेखा अब कौन है?’’

‘‘वही तुम्हारा पेपर वाला.’’

‘‘यह क्या बना रखा है… क्या सारा दिन दरवाजे पर ही बैठे रहें एक चौकीदार की तरह?’’

‘‘अब क्या लेने आए हो?’’ रेखा तमतमाते हुए बोली.

‘‘सुबह के 50 दे दो… फिर से नहीं आऊंगा,’’ पेपर वाला बोला.

‘‘कोई 50 नहीं मिलेंगे. चले जाओ यहां से,’’ रेखा ने कहा.

इस बीच फोन कट गया था. वह नहाने जा ही रही थी कि फिर से डोरबैल की आवाज पर भिन्ना गई. दरवाजा खोला तो सामने केबल वाला खड़ा था.

‘‘मैडम, केबल का बिल,’’ वह बोला.

‘‘कुछ और देना है तो वह भी दे दो.’’

‘‘मैडम, समझा नहीं,’’ वह बोला.

‘‘कुछ नहीं,’’ रेखा ने जोर से दरवाजा बंद कर दिया और फिर नहाने चली गई.

तभी उसे कुछ शोर सुनाई देता है. ध्यान से सुनने पर, ‘मैडमजी, मैडमजी,’ एक लड़की की आवाज सुनाई दी.

नहा कर दरवाजा खोला तो सामने नौकरानी की लड़की खड़ी थी.

रेखा ने पूछा, ‘‘क्या चाहिए?’’

‘‘मैडमजी, मम्मी आज काम पर नहीं आएंगी. शाम को जिस औफिस में सफाई करती हैं, वहां पगार लेने गई हैं… वहां लंबी लाइन लगी है.’’

रेखा गुस्से में बोली, ‘‘अच्छाअच्छा, ठीक है.’’

‘इसे भी आज ही…’ रेखा मन ही मन बड़बड़ाई और फिर सोचने लगी कि आज खाने में बनेगा क्या… इतनी देर हो गई है… घड़ी की तरफ देखा 1 बज चुका था. अभी सोच ही रही थी कि फिर घंटी बजी. वह चुपचाप यह सोच बैठी रही कि अब दरवाजा नहीं खोलेगी. 2… 3… 4… बार घंटी बजी पर वह नहीं उठी.

तभी फोन बजा. विपुल बोला, ‘‘अरे भई, क्या हम यहीं खड़े रहेंगे… दरवाजा तो खोलो.’’

रेखा मन ही मन सोचती कि इतनी जल्दी कैसे आ गए? क्या बात है? फिर जल्दी से दरवाजा खोला.

‘‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं?’’ विपुल बोला.

‘‘अरे, आप इतनी जल्दी कैसे आ गए?’’

‘‘कैसे आ गए. तुम सुबह से परेशान थीं. सोचा, चलो आज लंच बाहर ही करते हैं.’’

रेखा सवाल भरी निगाहों से विपुल की तरफ देखने लगी तो वह बोला, ‘‘अरे बावली, आज पहली तारीख है.’’

Interesting Hindi Stories : आखिर क्यों – क्या दूर हुआ सुरभि और सास का अंधविश्वास

Interesting Hindi Stories : नवंबर मास की ठंडी शाम थी. मैं आफिस से घर लौटी तो घरों में बल्ब जगमगा उठे थे. सुरभि के घर से आती दूधिया रोशनी ने उस के वापस लौट आने की पुष्टि कर दी थी. एक बार मन किया, दौड़ कर उस का हालचाल पूछूं, पर तुरंत ही उस का यों चुपचाप लौट आना मुझे अनेक आशंकाओं से आतंकित कर गया.

घर के बाहरी द्वार पर खड़ी सासू मां को देखते ही मैं अपने पर काबू नहीं रख पाई और बेसाख्ता बोल उठी, ‘‘मांजी, आप को पता है, सुरभि लौट आई है.’’

‘‘लेकिन कब? तुम्हें कैसे पता लगा,’’ मांजी के हैरानी भरे प्रश्न ने स्पष्ट कर दिया कि उन्हें भी उस के लौट आने की कोई खबर नहीं है.

‘‘अभी लौटी, तो देखा उस के घर उजाला हो रहा है,’’ मैं ने उत्तर दिया.

‘‘अच्छा, तो जा, जल्दी से उस की खबर ले आ, बड़ी चिंता हो रही है मुझे.’’

फिर सचमुच मुझ से भी रहा न गया. आशाआशंका के भंवर में फंसे अपने उद्विग्न चित्त को ले, मैं उस के घर की ओर बढ़ गई. बरसों पुराना घटनाक्रम सहसा मेरी आंखों के  सामने चलचित्र की भांति क्रमबद्ध हो उठा. सुरभि से मेरा परिचय तब से है जब मैं यहां नईनवेली ब्याह कर आई थी. वह भी मेरी तरह कालोनी के गुप्ताजी की बहू और उन के सुपुत्र विपिन, जो फैक्टरी में सुपरवाइजर था, की दुलहन थी. मुझ से कोई 3 साल पहले ही ब्याह कर आई थी.

उस की सास कौशल्या देवी से ही पहलेपहल मुझे मालूम हुआ कि उस की गोद अब तक सूनी है. एक दिन जब उस की सास हमारे घर आई हुई थीं तब सासू मां के परिचय कराने के उपरांत मैं ने उन के चरण स्पर्श किए तो वह मुझे ‘दूधों नहाओ पूतों फलो’ के आशीर्वाद से नवाजना नहीं चूकीं. साथ ही उलाहना देते हुए मेरी सास से बोलीं, ‘मैं तो अपनी बहू को 3 साल से यही दुआ दे रही हूं पर लगता है बहन, निगोड़ी बांझ है.’

प्रत्युत्तर में मैं ने मांजी को सांत्वना देते हुए सुना, ‘अरे कौशल्या, तुम तो नाहक नाउम्मीद हो रही हो. अभी तो सिर्फ 3 साल हुए हैं, अरे, थोड़ा मौजमस्ती करने दो उन्हें. समय आने पर सब ठीक हो जाएगा.’

इस बीच मैं नेहा, नितिन की मां भी बन गई पर सुरभि की गोद सूनी ही रही. एक दिन मौका लगने पर एकांत में मैं ने उसे टटोला, ‘तुम ने किसी डाक्टर से अपनी जांच वगैरह कभी करवाई.’’

‘नीति, तुम तो जानती हो, मेरी सास को डाक्टरों से ज्यादा साधुसंतों, तांत्रिकों व ओझाओं पर विश्वास है,’ उस ने कहा.

मैं हतप्रभ सी रह गई. आज के इस चिकित्सा विज्ञान के क्रांतिकारी युग में कोई इस के चमत्कार से अछूता कैसे रह सकता है.

फिर तो आएदिन सुरभि मुझे बताती रहती. आज सासू मां के साथ फलांफलां साधु के दर्शनार्थ जाना है या अमुक-अमुक महात्मा शहर में पधारने वाले हैं, उन के सत्संग में जाना है, आदिआदि.

आज इस बात को लगभग 8 वर्ष होने को आए हैं. 1 माह के लिए मैं अपने मायके आगरा गई हुई थी. लौटी तो पता चला सुरभि नए मेहमान के आगमन की चिरप्रतीक्षित अभिलाषा से सराबोर थी. सुन कर बहुत अच्छा लगा. 9 माह के पूर्ण प्रसवकाल के पश्चात उस की झोली सुंदर सलोने बच्चे से भर गई. अनेकानेक प्रयासों के बाद उसे यह संतान नसीब हुई थी. अत: उस ने उस का नाम ‘सार्थक’ रखना चाहा. परंतु सासू मां का मानना था कि यह सब गुरु महाराज वत्सलानंद के आशीर्वाद से संभव हुआ है, अत: बच्चे को नाम दिया गया ‘वत्सल’.

हालांकि पहलेपहल वह सास के इस तर्क से आहत हो उठी थी पर फिर मैं ने ही उसे समझाबुझा कर शांत करने का प्रयास किया था, ‘वैसे तो सार्थक वास्तव में एकदम सटीक नाम है परंतु वत्सल भी कम सुंदर नाम नहीं है. और फिर नाम में क्या रखा है. वत्सल चाहे ईश्वर की सौगात हो या वत्सलानंद की कृपा का फल, तुम्हें क्या फर्क पड़ता है.’

‘नहींनहीं नीति. तुम गलत समझ रही हो, यह सच है कि वत्सल उन्हीं के प्रताप का फल है. जिस माह हम ने उन से दीक्षा ली थी उसी माह उन के आशीर्वाद से यह मेरे गर्भ में आ गया.’

संयोग मात्र को सास अपने गुरु की कृपा समझ बैठी थी. कौशल्या देवी के अंधविश्वासी रंगों में रंगे उस के विचार सुन कर पहली बार मुझे झटका सा लगा.

फिर तो यह आम बात हो गई. वत्सल का अन्नप्राशन हो या नामकरण, जन्मोत्सव हो या फिर स्कूल में उस के नामांकन का कार्य, सभी कार्यकलापों के लिए शुभमुहूर्त स्वामी वत्सलानंद की सुझाई गई तिथियों के हिसाब से क्रियान्वित होने लगे.

मैं ने एकआध बार अपनी सास से इस बात का जिक्र किया तो वह कहने लगीं, ‘अरे जाने दो बहू, अपनीअपनी सोच है, चाहे गुरु की कृपा रही हो या ईश्वर की इच्छा, यही क्या कम है कि कौशल्या का घरआंगन बच्चे की किलकारियों से गुंजायमान हो उठा है.’

सब कुछ निर्बाध गति से चल रहा था कि एक दिन सांझ को बच्चों ने बताया कि स्कूल में प्रार्थना सभा के दौरान वत्सल खड़ेखड़े गिर पड़ा और फिर उसे बहुत उल्टियां हुईं. अत: मैं ने मांजी को उस का हालचाल ले आने को कहा.

मांजी लौट कर आईं तो चिंतामग्न सी दिखीं. पूछने पर उन्होंने बताया कि कौशल्या बता रही थी कि वत्सल को इस तरह की शिकायत 2-4 बार पहले भी हो चुकी है परंतु बजाय किसी डाक्टर को दिखाने के वे स्वामीजी के चक्कर में पड़े हैं.

दूसरे दिन सुरभि को समझाने की गरज से मैं आफिस से लौटते हुए सीधे उस के घर गई. देखती क्या हूं कि बैठकखाने का सुसज्जित विशाल कक्ष धूप व अगरबत्ती की अनोखी सुगंध से सुशोभित है. कक्ष के एक ओर, एक बड़े से तख्त पर बिछे बेशकीमती पलंगपोश पर एक स्थूलकाय महात्मा भगवा वस्त्र धारण किए हुए विराजमान हैं जो संस्कृत के श्लोकों की स्तुति में विचारमग्न हैं. मैं असमंजस की स्थिति से उबरने का प्रयास कर ही रही थी कि सुरभि आई और कक्ष के एक कोने में मुझे बिठाते हुए स्वामीजी के बारे में बताने लगी, ‘यही गुरु वत्सलानंद जी हैं. वत्सल की बीमारी सुन कर महाराज घर आ कर उस के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ के लिए संजीवनी जाप कर रहे हैं. सच, वत्सल अपनेआप को काफी अच्छा महसूस कर रहा है.’

वस्तुत: स्वामीजी पर विश्वास से अभिप्रेरित उस परिवार के लोगों का निर्मल मन, बारबार यह झूठा आश्वासन दिला रहा था कि बच्चा स्वस्थ हो रहा है, पर क्या सुरभि भी बच्चे के गिरते स्वास्थ्य का मूल्यांकन नहीं कर पा रही थी. इस से अधिक मैं उसे सुन नहीं सकी. तभी तो लगभग घसीटते हुए मैं सुरभि को दूसरे कमरे में ले गई और बोली, ‘सुरभि तुम्हें ये क्या हो गया है, तुम तो इन थोथी बातों पर विश्वास नहीं करती थीं, फिर आज कैसे इन ढोंगी साधुओं की बातों में फंस गईं. वत्सल को इस समय इन के जपतप की नहीं बल्कि किसी अच्छे डाक्टर के परीक्षण की आवश्यकता है. देख नहीं रही हो, वह किस कदर कमजोर हो गया है.’

पर मेरी बात सुन कर वह जरा भी विचलित नहीं हुई, बल्कि कहने लगी, ‘नहीं नीति, पहले मैं भी इन की शक्तियों से अनभिज्ञ थी, पर अब मैं इन की दिव्य शक्तियों को जान चुकी हूं.’

मैं उसे कुछ और समझाने का प्रयत्न करती कि इस के पूर्व स्वामीजी, जिन्होंने कदाचित क्रोधाग्नि में धधकती मेरी मुखर वाणी सुन ली थी, क्रोध से गरज उठे, ‘ये कौन है जो मेरे ‘भैरव’ देव को ललकार रहा है. कुछ अनिष्ट हुआ तो हमें दोष मत देना. हम साधुसंन्यासी हैं, हमारा भी मानसम्मान है, पर जहां हमारा अपमान हो, हम पर अविश्वास हो, वहां एक पल और ठहरना असंभव.’

‘नहींनहीं गुरुदेव, क्षमा कीजिए,’ क्षमायाचना से भीगे उस की सासू मां के शब्द गूंजे और अगले ही पल उन्होंने स्वामीजी के चरण पकड़ लिए, ‘हमें नहीं पता था वरना मैं उसे आप के सामने आने की इजाजत कभी नहीं देती.’

उसी क्षण सुरभि की बदलती मुखमुद्रा व उस की आग्नेय दृष्टि देख कर मुझे यह आभास होने में क्षण भर भी नहीं लगा कि स्वामीजी के विरुद्ध बोल कर मैं यहां सर्वथा अवांछनीय हो गई हूं. अत: बाहर की ओर रुख करने में ही मैं ने भलाई समझी.

और फिर मेरे घर लौटने के पूर्व ही कौशल्या देवी ने मेरी सास को फोन पर हिदायत दे डाली, ‘अपनी बहू को इतनी ढील मत दो, शारदा. जो मन में आता है बोल देती है, बड़ेछोटे किसी का लिहाज नहीं. आज तो उस ने स्वामीजी का ही अपमान कर डाला. हमारा विपिन तो उन्हें इतना मानता है कि उस ने पूरे 50 हजार रुपए उन की संस्था को श्रद्धा से दान कर दिए.’

अभी वह न जाने और क्याक्या सुनातीं कि मुझे घर आया देख कर मांजी ने फोन काट दिया और मुझे संबोधित कर बोलीं, ‘बेटा, तुम क्यों इन लोगों से उलझती हो, वे गड्ढे में गिरना चाहते हैं तो उन्हें कौन रोक सकता है.’

‘मांजी, मैं तो वत्सल की हालत देख कर आपे में नहीं रह सकी थी, यदि चाचीजी को इतना बुरा लगा है तो मैं उन से माफी मांग लूंगी पर बेचारा वत्सल,’ मैं आह भर कर रह गई.

यों ही 4-5 माह बीत गए. उस दिन की घटना की कड़वाहट से दोनों परिवारों के मध्य एक शीतयुद्ध का मौन पसर गया था. पर कालोनी के अन्य लोगों से मांजी वत्सल की खोजखबर लेती रहतीं. सुना था कि उस की हालत दिन पर दिन गिरती जा रही है, स्कूल में भी वह हफ्तों अनुपस्थित रहने लगा है. इधर बच्चों की वार्षिक परीक्षाएं आरंभ हो चुकी थीं. परीक्षा के दौरान एक दिन वत्सल चक्कर खा कर सीट से लुढ़क पड़ा, जिस से उसे सिर में गंभीर चोट लग गई. आननफानन में स्कूल वालों ने उसे शहर के एक बड़े अस्पताल में भर्ती करा दिया. उसी दौरान उसे अनेक परीक्षणों से गुजरना पड़ा. सुन कर मैं भी अपने को रोक नहीं सकी और वत्सल से मिलने अस्पताल जा पहुंची. सुरभि मुझे देखते ही मुझ से लिपट कर रो पड़ी.

उस की सास भी मुझ से नजरें चुरा रही थी. पूछने पर पता चला कि वत्सल को ब्रेन ट्यूमर था जो घर वालों की लापरवाही की वजह से अधिक जटिल अवस्था में पहुंच गया था. मुझे देखते ही वह फफकफफक कर रो पड़ी और गले से लिपट कर बोली, ‘नीति, तुम ने मुझे समझाने का बहुत प्रयास किया था, पर मेरी ही मति भ्रष्ट हो गई थी जो उस पाखंडी के चक्कर में फंस गई,’

उस की आंखों से अंधविश्वास का परदा हट चुका था.

2 दिन पश्चात उसे डाक्टरों के निर्देशानुसार दिल्ली के एक बड़े अस्पताल ले जाया गया. 12 दिनों तक एडमिट रहने के बाद उस का

ब्रेन ट्यूमर का आपरेशन हुआ फिर करीब 10 घंटे बाद उस के होश में आ जाने की खबर सुरभि ने मुझे फोन पर दी, ‘नीति, लगता है, ईश्वर ने मेरी सुन ली.

यही उस का अंतिम संदेश था.

जब कुछ दिनों तक कोई खबर नहीं मिली तो उस के देवर के यहां फोन किया तो पता चला कि दूसरे ही दिन वह कोमा में चला गया था, तब से सघन चिकित्सा परीक्षण से गुजर रहा है. उस के बाद लाख प्रयत्न करने पर भी कोई खबर नहीं मिल सकी. और आज उस का यों बिना किसी पूर्व सूचना के लौट आना मन को आशंकित कर रहा है. किसी अनिष्ट की कल्पना मात्र से मैं थरथरा उठी.

घर पहुंची तो उस का मुख्यद्वार उढ़का पड़ा था. उसे ठेल कर मैं भीतर बढ़ी तो सामने नजर पड़ी, सुरभि फटीफटी नजरों से शून्य में ताक रही है, उस के भाईभाभी ने किसी तरह उसे थाम रखा था. सास भी अपना सिर पकड़ कर गमगीन सी फर्श की ओर एकटक निहार रही थी. विपिन प्रस्तर की बुत बने एक कोने में बैठे थे. उन के बुझेबुझे चेहरों ने मेरे अनुमानित अनिष्ट की पुष्टि कर दी थी.

सुरभि की भाभी ने ही बताया कि कोमा में जाने के 5 दिन बाद उसे पुन: होश आ गया था, उस दिन उस ने मां के हाथों से दलिया भी खाया, तो हमारी खोई आस भी लौट आई. परंतु उस दिन वह शायद मां की ममता को तृप्त करने, उस जगी आस को झूठा साबित करने को ही जाग्रत हुआ था. उस रात वह जो सोया तो फिर कभी नहीं जगा. बताते-बताते वह स्वयं रो पड़ीं. मैं भी अपने आंसुओं को कहां रोक पाई थी.

एक नन्हामासूम सा बच्चा अंधविश्वासों की बलि चढ़ गया था. अंधविश्वास की इतनी बड़ी सजा आखिर उस मासूम को ही क्यों मिली. काश इन ढोंगी साधुसंन्यासियों के लिए भी कानून में मृत्युदंड का प्रावधान होता जो भोलेभाले लोगों को अपने झूठे जाल में फांस कर इन के जीवन तक से खेलने से नहीं हिचकिचाते.

सुरभि इस हादसे से उन्मादित हो उठी थी. कभी वह वीभत्स हंसी हंसती तो कभी उस की मर्मभेदी चीख हृदय पर शूल बन कर उतर जाती.

अंधविश्वास की धुंध छंटने में सचमुच बहुत देर लग चुकी थी और हकीकत की सुबह, काली अंधेरी रात से भी अधिक स्याह प्रतीत हो रही थी. मेरे कानों में मानो वत्सल का प्रश्न गूंज रहा था, आखिर क्यों हुआ यह सब मेरे साथ?

कहानी- दया हीत

Hindi Fiction Stories : बनते बिगड़ते रिश्ते – क्या हुआ था रमेश के साथ

Hindi Fiction Stories : उन दिनों रमेश बहुत ज्यादा माली तंगी से गुजर रहा था. उसे कारोबार में बहुत ज्यादा घाटा हुआ था. मकान, दुकान, गाड़ी, पत्नी के गहने सब बिकने के बाद भी बाजार की लाखों रुपए की देनदारियां थीं. आएदिन लेनदार घर आ कर बेइज्जत करते, धमकियां देते और घर का जो भी सामान हाथ लगता, उठा कर ले जाते.

रमेश ने भी अनेक लोगों को उधार सामान दिया था और बदले में उन्होंने जो चैक दिए, वे बाउंस हो गए. वह उन के यहां चक्कर लगातेलगाते थक गया, मगर किसी ने भी न तो सामान लौटाया और न ही पैसे दिए.

थकहार कर रमेश ने उन लोगों पर केस कर दिए, मगर केस कछुए की चाल से चलते रहे और उस की हालत बद से बदतर होती चली गई.

जब दो वक्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल हो गया, तो रमेश को अपने पुराने दोस्तों की याद आई. बच्चों की गुल्लक तोड़ कर किराए का इंतजाम किया. कुछ पैसे पत्नी कहीं से ले आई और वह अपने शहर की ओर चल दिया.

पृथ्वी रमेश का सब से अच्छा दोस्त था. रमेश को पूरी उम्मीद थी कि वह उस की मदद जरूर करेगा.

अपने शहर बीकानेर आ कर रमेश सीधा अपनी मौसी के घर चला गया. वहां से नहाधो कर व खाना खा कर वह पृथ्वी के घर की ओर चल दिया.

शनिवार का दिन था. रमेश को पृथ्वी के घर पर मिलने की पूरी उम्मीद थी. वह मिला भी और इतना खुश हुआ, जैसे न जाने कितने सालों बाद मिले हों. इस के बाद वे पूरे दिन साथ रहे. रमेश पृथ्वी से पैसे के बारे में बात करना चाहता था, मगर झिझक की वजह से कह नहीं पा रहा था.

वे एक रैस्टोरैंट में बैठ गए. रमेश ने हिम्मत जुटाई और बोला, ‘‘यार पृथ्वी, एक बात कहनी थी.’’

‘‘हांहां, बोल न,’’ पृथ्वी ने कहा.

इस के बाद रमेश ने उसे अपनी सारी कहानी सुनाई. पृथ्वी गंभीर हो गया और बोला, ‘‘तेरी हालत तो खराब ही है. तू बता, मुझ से क्या चाहता है?’’

‘‘यार, वैसे तो मुझे लाखों रुपए की जरूरत है, मगर तू भी सरकारी नौकरी करता है, इसलिए फिलहाल अगर तू मुझे 3 हजार रुपए भी उधार दे देगा, तो मैं घर में राशन डलवा लूंगा.’’

‘‘कोई बात नहीं. सुबह ले लेना.’’

‘‘तो फिर मैं कितने बजे फोन करूं?’’

‘‘तू मत करना, मैं खुद ही कर लूंगा.’’

रमेश के सिर से एक बड़ा बोझ सा उतर गया था. उस ने चैन की सांस ली. इस के बाद उन्होंने काफी देर तक बातचीत की और बाद में वह रमेश को उस की मौसी के घर तक अपनी मोटरसाइकिल पर छोड़ गया.

रमेश ने पृथ्वी को बताया कि उस की ट्रेन दोपहर 2 बजे जाएगी. उस ने रमेश को भरोसा दिलाया कि वह सुबह ही 3 हजार रुपए पहुंचा देगा.

रमेश ऐसी गहरी नींद सोया कि आंखें 9 बजे ही खुलीं. नहाधो कर तैयार होने तक साढ़े 10 बज गए. पृथ्वी का फोन अभी तक नहीं आया था.

रमेश ने फोन किया, तो पृथ्वी का मोबाइल स्विच औफ ही मिला.

रमेश की ट्रेन आई और उस की आंखों के सामने से चली भी गई. उस का मन बुझ सा गया था. उस ने कोशिश करना छोड़ दिया. उस की सूरत ऐसी लग रही थी, जैसे किसी ने गालों पर खूब चांटे मारे हों. उस की आंखों में आंसू तो नहीं थे, मगर एक सूनापन उन में आ कर जम सा गया था. वह काफी देर तक प्लेटफार्म के एक बैंच पर बैठा रहा.

‘‘अरे, रमेश? तू रमेश ही है न?’’

रमेश ने आंखें उठा कर देखा. वह सत्यनारायण था. उस का एक पुराना दोस्त. वह एक गरीब घर से था और रमेश ने कभी भी उसे अहमियत नहीं दी थी.

‘‘हां भाई, मैं रमेश ही हूं,’’ उस ने बेमन से कहा.

‘‘रमेश, मुझे पहचाना तू ने? मैं सत्यनारायण. तुम्हारा दोस्त सत्तू…’’

‘‘क्या हालचाल है सत्तू?’’ रमेश थकीथकी सी आवाज में बोला.

‘‘मैं तो ठीक हूं, मगर तू ने यह क्या हाल बना रखा है? दाढ़ी बढ़ी हुई है और कितना दुबला हो गया है. चल, बाहर चल कर चाय पीते हैं.’’

रमेश की इच्छा तो नहीं थी, मगर सत्यनारायण का जोश देख कर वह उस के साथ हो लिया. वे एक रैस्टोरैंट में आ बैठे और चाय पीने लगे.

‘‘और सुना रमेश, कैसे हालचाल हैं?’’ सत्यनारायण ने पूछा.

‘‘हालचाल क्या होंगे? जिंदा बैठा हूं न तेरे सामने,’’ रमेश ने बेरुखी से कहा.

यह सुन कर सत्यनारायण गंभीर हो गया, ‘‘बात क्या है रमेश? मुझे बताएगा?’’

‘‘क्या बताऊं? यह बताऊं कि वहां मेरे बच्चे भूखे बैठे हैं और सोच रहे हैं कि पापा आएंगे, तो घर में राशन आएगा. पापा आएंगे, तो वे फिर से स्कूल जाएंगे. पापा आएंगे, तो नए कपड़े सिला देंगे. क्या बताऊं तुझे?’’

सत्यनारायण हक्काबक्का सा रमेश का चेहरा देख रहा था.

‘‘मैं तुझ से कुछ नहीं पूछूंगा रमेश. कितने पैसों की जरूरत है तुझे?’’ सत्यनारायण ने पूछा.

रमेश ने सत्यनारायण को ऊपर से नीचे तक देखा. साधारण से कपड़े, साधारण सी चप्पलें, यह उस की क्या मदद करेगा?

‘‘2 लाख रुपए चाहिए, क्या तू देगा मुझे?’’ रमेश ने कहा.

‘‘रमेश, मैं ने अपना सारा पैसा कारोबार में लगा रखा है. अगर तू मुझे कुछ दिन पहले कहता, तो मैं तुझे 2 लाख रुपए भी दे देता. यह बता कि फिलहाल तेरा कितने पैसों में काम चल जाएगा?’’ सत्यनारायण ने पूछा.

‘‘3 हजार रुपए में.’’

‘‘तू 10 मिनट यहां बैठ. मैं अभी आया,’’ कह कर सत्यनारायण वहां से चला गया.

रमेश को यकीन नहीं था कि सत्यनारायण लौट कर आएगा. अब तो लगता है कि चाय के पैसे भी मुझे ही देने पड़ेंगे.

इसी उधेड़बुन में 10 मिनट निकल गए. रमेश उठ ही रहा था कि उस ने सत्यनारायण को आते देखा.

सत्यनारायण की सांसें तेज चल रही थीं. बैठते ही उस ने जेब में हाथ डाला और 50 के नोटों की एक गड्डी रमेश के सामने रख दी.

‘‘यह ले पैसे…’’

रमेश को यकीन नहीं आ रहा था.

‘‘मगर, मुझे तो सिर्फ 3 हजार…’’ रमेश मुश्किल से बोला.

‘‘रख ले, तेरे काम आएंगे.’’

‘‘सत्तू, मैं तेरा एहसान कभी नहीं भूलूंगा.’’

‘‘क्या बकवास कर रहा है? दोस्ती में कोई एहसान नहीं होता है.’’

‘‘लेकिन, मैं ये पैसे तुझे 3-4 महीने से पहले नहीं लौटा पाऊंगा.’’

‘‘जब तेरे पास हों, तब लौटा देना. मैं कभी मांगूंगा भी नहीं. तुझ पर मुझे पूरा भरोसा है,’’ सत्यनारायण ने कहा, तो रमेश कुछ बोल नहीं पाया.

‘‘अब मैं निकलता हूं. चाय के पैसे दे कर जा रहा हूं. तुझे 5 बजे वाली ट्रेन मिल जाएगी, तू भी निकल. बच्चे तेरा इंतजार कर रहे होंगे.’’

सत्यनारायण चला गया. रमेश उसे दूर तक जाते देखता रहा. इस वक्त ये 5 हजार रुपए उस के लिए लाखों रुपए के बराबर थे. वह जिस इनसान को हमेशा छोटा समझता रहा, आज वही उस के काम आया.

रमेश वापस अपने घर लौट गया.

2-3 महीने का तो इंतजाम हो गया था. इस के बाद उस ने फिर से काम की तलाश शुरू कर दी.

एक दिन रमेश को कपड़े की दुकान पर सेल्समैन का काम मिल गया. तनख्वाह कम थी, मगर जीने के लिए काफी थी.

इस के बाद समय अचानक बदला. 3 मुकदमों का फैसला रमेश के हक में गया. जेल जाने से बचने के लिए लोगों ने उस की रकम वापस कर दी. कुछ दूसरे लोग डर की वजह से फैसला होने से पहले ही पैसे दे गए. 6 महीने में ही पहले जैसे अच्छे दिन आ गए.

रमेश ने फिर से कारोबार शुरू कर दिया. इस वादे के साथ कि पहले जैसी गलतियां नहीं दोहराएगा. रमेश ने सत्यनारायण के पैसे भी लौटा दिए. उस ने ब्याज देना चाहा, तो सत्यनारायण ने साफ मना कर दिया.

इन सब बातों को आज 10 साल से भी ज्यादा हो गए हैं. रमेश कारोबार के सिलसिले में अपने शहर जाता रहता है. किसी शादी या पार्टी में पृथ्वी से भी मुलाकात हो ही जाती है. पूरे समय वह अपने नए मकान या नई गाड़ी के बारे में ही बताता रहता है और रमेश सिर्फ मुसकराता रहता है.

रमेश का पूरा समय तो अब सिर्फ सत्यनारायण के साथ ही गुजरता है. वह जितने दिन वहां रहता है, उसी के घर में ही रहता है.

रमेश ने बहुत बुरा वक्त गुजारा. ये बुरे दिन हमें बहुतकुछ सिखा भी जाते हैं. हमारी आंखों पर जमी भरम की धुंध मिट जाती है और हम सबकुछ साफसाफ देखने लगते हैं.

लेखक- महेंद्र तिवारी

Hindi Story Collection : अजनबी

Hindi Story Collection : ‘‘देखिए भारतीजी, आप अन्यथा  न लें, आप की स्थिति को देखते हुए तो मैं कहना चाहूंगी कि अब आप आपरेशन करा ही लें, नहीं तो बाद में और भी दूसरी उलझनें बढ़ सकती हैं.’’

‘‘अभी आपरेशन कैसे संभव होगा डाक्टर, स्कूल में बच्चों की परीक्षाएं होनी हैं. फिर स्कूल की सारी जिम्मेदारी भी तो है.’’

‘‘देखिए, अब आप को यह तय करना ही होगा कि आप का स्वास्थ्य अधिक महत्त्वपूर्ण है या कुछ और, अब तक तो दवाइयों के जोर पर आप आपरेशन टालती रही हैं पर अब तो यूटरस को निकालने के अलावा और कोई चारा नहीं है.’’

डा. प्रभा का स्वर अभी भी गंभीर ही था.

‘‘ठीक है डाक्टर, अब इस बारे में सोचना होगा,’’ नर्सिंग होम से बाहर आतेआते भारती भी अपनी बीमारी को ले कर गंभीर हो गई थी.

‘‘क्या हुआ दीदी, हो गया चेकअप?’’ भारती के गाड़ी में बैठते ही प्रीति ने पूछा.

प्रीति अब भारती की सहायक कम छोटी बहन अधिक हो गई थी और ऊपर वाले फ्लैट में ही रह रही थी तो भारती उसे भी साथ ले आई थी.

‘‘कुछ नहीं, डाक्टर तो आपरेशन कराने पर जोर दे रही है,’’ भारती ने थके स्वर में कहा था.

कुछ देर चुप्पी रही. चुप्पी तोड़ते हुए प्रीति ने कहा, ‘‘दीदी, आप आपरेशन करा ही लो. कल रात को भी आप दर्द से तड़प रही थीं. रही स्कूल की बात…तो हम सब और टीचर्स हैं ही, सब संभाल लेंगे. फिर अगर बड़ा आपरेशन है तो इस छोटी सी जगह में क्यों, आप दिल्ली ही जा कर कराओ न, वहां तो सारी सुविधाएं हैं.’’

भारती अब कुछ सहज हो गई थी. हां, इसी बहाने कुछ दिन बच्चों व अपने घरपरिवार के साथ रहने को मिल जाएगा, ऐसे तो छुट्टी मिल नहीं पाती है. किशोर उम्र के बच्चों का ध्यान आता है तो कभीकभी लगता है कि बच्चों को जितना समय देना चाहिए था, दिया नहीं. रोहित 12वीं में है, कैरियर इयर है. रश्मि भी 9वीं कक्षा में आ गई है, यहां इस स्कूल की पिं्रसिपल हो कर इतने बच्चों को संभाल रही है पर अपने खुद के बच्चे.

‘‘तुम ठीक कह रही हो प्रीति, मैं आज ही अभय को फोन करती हूं, फिर छुट्टी के लिए आवेदन करूंगी.’’

स्कूल में कौन सा काम किस को संभालना है, भारती मन ही मन इस की रूपरेखा तय करने लगी. घर में आते ही प्रीति ने भारती को आराम से सोफे पर बिठा दिया और बोली, ‘‘दीदी, अब आप थोड़ा आराम कीजिए और हां, किसी चीज की जरूरत हो तो आवाज दे देना, अभी मैं आप के लिए चाय बना देती हूं, कुछ और लेंगी?’’

‘‘और कुछ नहीं, बस चाय ही लूंगी.’’

प्रीति अंदर चाय बनाने चल दी.

सोफे पर पैर फैला कर बैठी भारती को चाय दे कर प्रीति ऊपर चली गई तो भारती ने घर पर फोन मिलाया था.

‘‘ममा, पापा तो अभी आफिस से आए नहीं हैं और भैया कोचिंग के लिए गया हुआ है,’’ रश्मि ने फोन पर बताया और बोली, ‘‘अरे, हां, मम्मी, अब आप की तबीयत कैसी है, पापा कह रहे थे कि कुछ प्राब्लम है आप को…’’

‘‘हां, बेटे, रात को फिर दर्द उठा था. अच्छा, पापा आएं तो बात करा देना और हां, तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है? नीमा काम तो ठीक कर रही है न…’’

‘‘सब ओके है, मम्मी.’’

भारती ने फोन रख दिया. घड़ी पर नजर गई. हां, अभी तो 7 ही बजे हैं, अजय 8 बजे तक आएंगे. नौकरानी खाना बना कर रख गई थी पर अभी खाने का मन नहीं था. सोचा, डायरी उठा कर नोट कर ले कि स्कूल में कौन सा काम किस को देना है. दिल्ली जाने का मतलब है, कम से कम महीने भर की छुट्टी. क्या पता और ज्यादा समय भी लग जाए.

फिर मन पति और बच्चों में उलझता चला गया था. 6-7 महीने पहले जब इस छोटे से पहाड़ी शहर में उसे स्कूल की प्रधानाचार्य बना कर भेजा जा रहा था तब बिलकुल मन नहीं था उस का घरपरिवार छोड़ने का. तब उस ने पति से कहा था :

‘बच्चे बड़े हो रहे हैं अजय, उन्हें छोड़ना, फिर वहां अकेले रहना, क्या हमारे परिवार के लिए ठीक होगा. अजय, मैं यह प्रमोशन नहीं ले सकती.’

तब अजय ने ही काफी समझाया था कि बच्चे अब इतने छोटे भी नहीं रहे हैं कि तुम्हारे बिना रह न सकें. और फिर आगेपीछे उन्हें आत्मनिर्भर होना ही है. अब जब इतने सालों की नौकरी के बाद तुम्हें यह अच्छा मौका मिल रहा है तो उसे छोड़ना उचित नहीं है. फिर आजकल टेलीफोन, मोबाइल सारी सुविधाएं इतनी अधिक हैं कि दिन में 4 बार बात कर लो. फिर वहां तुम्हें सुविधायुक्त फ्लैट मिल रहा है, नौकरचाकर की सुविधा है. तुम्हें छुट्टी नहीं मिलेगी तो हम लोग आ जाएंगे, अच्छाखासा घूमना भी हो जाएगा.’’

काफी लंबी चर्चा के बाद ही वह अपनेआप को इस छोटे से शहर में आने के लिए तैयार कर पाई थी.

रोहित और रश्मि भी उदास थे, उन्हें भी अजय ने समझाबुझा दिया था कि मां कहीं बहुत दूर तो जा नहीं रही हैं, साल 2 साल में प्रधानाचार्य बन कर यहीं आ जाएंगी.

यहां आ कर कुछ दिन तो उसे बहुत अकेलापन लगा था, दिन तो स्कूल की सारी गतिविधियों में निकल जाता पर शाम होते ही उदासी घेरने लगती थी. फोन पर बात भी करो तो कितनी बात हो पाती है. महीने में बस, 2 ही दिन दिल्ली जाना हो पाता था, वह भी भागदौड़ में.

ठीक है, अब लंबी छुट्टी ले कर जाएगी तो कुछ दिन आराम से सब के साथ रहना हो जाएगा.

9 बजतेबजते अजय का ही फोन आ गया. भारती ने उन्हें डाक्टर की पूरी बात विस्तार से बता दी थी.

‘‘ठीक है, तो तुम फिर वहीं उसी डाक्टर के नर्सिंग होम में आपरेशन करा लो.’’

‘‘पर अजय, मैं तो दिल्ली आने की सोच रही थी, वहां सुविधाएं भी ज्यादा हैं और फिर तुम सब के साथ रहना भी हो जाएगा,’’ भारती ने चौंक कर कहा था.

‘‘भारती,’’ अजय की आवाज में ठहराव था, ‘‘भावुक हो कर नहीं, व्यावहारिक बन कर सोचो. दिल्ली जैसे महानगर में जहां दूरियां इतनी अधिक हैं, वहां क्या सुविधाएं मिलेंगी. बच्चे अलग पढ़ाई में व्यस्त हैं, मेरा भी आफिस का काम बढ़ा हुआ है. इन दिनों चाह कर भी मैं छुट्टी नहीं ले पाऊंगा. वहां तुम्हारे पास सारी सुविधाएं हैं, फिर आपरेशन के बाद तुम लंबी छुट्टी ले कर आ जाना. तब आराम करना. और हां, आपरेशन की बात अब टालो मत. डाक्टर कह रही हैं तो तुरंत करा लो. इतने महीने तो हो गए तुम्हें तकलीफ झेलते हुए.’’

भारती चुप थी. थोड़ी देर बात कर के उस ने फोन रख दिया था. देर तक फिर सहज नहीं हो पाई.

वह जो कुछ सोचती है, अजय उस से एकदम उलटा क्यों सोच लेते हैं. देर रात तक नींद भी नहीं आई थी. सुबह अजय का फिर फोन आ गया था.

‘‘ठीक है, तुम कह रहे हो तो यहीं आपरेशन की बात करती हूं.’’

‘‘हां, फिर लंबी छुट्टी ले लेना…’’ अजय का स्वर था.

प्रीति जब उस की तबीयत पूछने आई तो भारती ने फिर वही बातें दोहरा दी थीं.

‘‘हो सकता है दीदी, अजयजी ठीक कह रहे हों. यहां आप के पास सारी सुविधाएं हैं. नर्सिंग होम छोटा है तो क्या हुआ, डाक्टर अच्छी अनुभवी हैं, फिर अगर आपरेशन कराना ही है तो कल ही बात करते हैं.’’

भारती ने तब प्रीति की तरफ देखा था. कितनी जल्दी स्थिति से समझौता करने की बात सोच लेती है यह.

फिर आननफानन में आपरेशन के लिए 2 दिन बाद की ही तारीख तय हो गई थी.

अजय का फिर फोन आ गया था.

‘‘भारती, मुझे टूर पर निकलना है, इसलिए कोशिश तो करूंगा कि उस दिन तुम्हारे पास पहुंच जाऊं पर अगर नहीं आ पाऊं तो तुम डाक्टर से मेरी बात करा देना.’’

हुआ भी यही. आपरेशन करने से पहले डाक्टर प्रभा की फोन पर ही अजय से बात हुई, क्योंकि उन्हें अजय की अनुमति लेनी थी. सबकुछ सामान्य था पर एक अजीब सी शून्यता भारती अपने भीतर अनुभव कर रही थी. आपरेशन के बाद भी वही शून्यता बनी रही.

शरीर का एक महत्त्वपूर्ण अंग निकल जाने से जैसे शरीर तो रिक्त हो गया है, पर मन में भी एक तीव्र रिक्तता का अनुभव क्यों होने लगा है, जैसे सबकुछ होते हुए भी कुछ भी नहीं है उस के पास.

‘‘दीदी, आप चुप सी क्यों हो गई हैं, आप के टांके खुलते ही डाक्टर आप को दिल्ली जाने की इजाजत दे देंगी. बड़ी गाड़ी का इंतजाम हो गया है. स्कूल के 2 बाबू भी आप के साथ जाएंगे. अजयजी से भी बात हो गई है,’’ प्रीति कहे जा रही थी.

तो क्या अजय उसे लेने भी नहीं आ रहे. भारती चाह कर भी पूछ नहीं पाई थी.

उधर प्रीति का बोलना जारी था, ‘‘दीदी, आप चिंता न करें…भरापूरा परिवार है, सब संभाल लेंगे आप को, परेशानी तो हम जैसे लोगों की है जो अकेले रह रहे हैं.’’

पर आज भारती प्रीति से कुछ नहीं कह पाई थी. लग रहा था कि जैसे उस की और प्रीति की स्थिति में अधिक फर्क नहीं रहा अब.

हालांकि अजय के औपचारिक फोन आते रहे थे, बच्चों ने भी कई बार बात की पर उस का मन अनमना सा ही बना रहा.

अभी सीढि़यां चढ़ने की मनाही थी पर दिल्ली के फ्लैट में लिफ्ट थी तो कोई परेशानी नहीं हुई.

‘‘चलो, घर आ गईं तुम…अब आराम करो,’’ अजय की मुसकराहट भी आज भारती को ओढ़ी हुई ही लग रही थी.

बच्चे भी 2 बार आ कर कमरे में मिल गए, फिर रोहित को दोस्त के यहां जाना था और रश्मि को डांस स्कूल में. अजय तो खैर व्यस्त थे ही.

नौकरानी आ कर उस के कपड़े बदलवा गई थी. फिर वही अकेलापन था. शायद यहां और वहां की परिस्थिति में कोई खास फर्क नहीं था, वहां तो खैर फिर भी स्कूल के स्टाफ के लोग थे, जो संभाल जाते, प्रीति एक आवाज देते ही नीचे आ जाती पर यहां तो दिनभर वही रिक्तता थी.

बच्चे आते भी तो अजय को घेर कर बैठे रहते. उन के कमरे से आवाजें आती रहतीं. रश्मि के चहकने की, रोहित के हंसने की.

शायद अब न तो अजय के पास उस से बतियाने का समय है न पास बैठने का, और न ही बच्चों के पास. आखिर यह हुआ क्या है…2 ही दिन में उसे लगने लगा कि जैसे उस का दम घुटा जा रहा है. उस दिन सुबह बाथरूम में जाने के लिए उठी थी कि पास के स्टूल से ठोकर लगी और एक चीख सी निकल गई थी. दरवाजे का सहारा नहीं लिया होता तो शायद गिर ही पड़ती.

‘‘क्या हुआ, क्या हुआ?’’ अजय यह कहते हुए बालकनी से अंदर की ओर दौडे़.

‘‘कुछ नहीं…’’ वह हांफते हुए कुरसी पर बैठ गई थी.

‘‘भारती, तुम्हें अकेले उठ कर जाने की क्या जरूरत थी? इतने लोग हैं, आवाज दे लेतीं. कहीं गिर जातीं तो और मुसीबत खड़ी हो जाती,’’  अजय का स्वर उसे और भीतर तक बींध गया था.

‘‘मुसीबत, हां अब मुसीबत सी ही तो हो गई हूं मैं…परिवार, बच्चे सब के होते हुए भी कोई नहीं है मेरे पास, किसी को परवा नहीं है मेरी,’’ चीख के साथ ही अब तक का रोका हुआ रुदन भी फूट पड़ा था.

‘‘भारती, क्या हो गया है तुम्हें? कौन नहीं है तुम्हारे पास? हम सब हैं तो, लगता है कि इस बीमारी ने तुम्हें चिड़चिड़ा बना दिया है.’’

‘‘हां, चिड़चिड़ी हो गई हूं. अब समझ में आया कि इस घर में मेरी अहमियत क्या है… इतना बड़ा आपरेशन हो गया, कोई देखने भी नहीं आया, यहां अकेली इस कमरे में लावारिस सी पड़ी रहती हूं, किसी के पास समय नहीं है मुझ से बात करने का, पास बैठने का.’’

‘‘भारती, अनावश्यक बातों को तूल मत दो. हम सब को तुम्हारी चिंता है, तुम्हारे आराम में खलल न हो, इसलिए कमरे में नहीं आते हैं. सारा ध्यान तो रख ही रहे हैं. रही बात वहां आने की, तो तुम जानती ही हो कि सब की दिनचर्या है, फिर नौकरी करने का, वहां जाने का निर्णय भी तो तुम्हारा ही था.’’

इतना बोल कर अजय तेजी से कमरे के बाहर निकल गए थे.

सन्न रह गई भारती. इतना सफेद झूठ, उस ने तो कभी नौकरी की इच्छा नहीं की थी. ब्याह कर आई तो ससुराल की मजबूरियां थीं, तंगहाली थी. 2 छोटे देवर, ननद सब की जिम्मेदारी अजय पर थी. सास की इच्छा थी कि बहू पढ़ीलिखी है तो नौकरी कर ले. तब भी कई बार हूक सी उठती मन में. सुबह से शाम तक काम से थक कर लौटती तो घर के और काम इकट्ठे हो जाते. अपने स्वयं के बच्चों को खिलाने का, उन के साथ खेलने तक का समय नहीं होता था, उस के पास तो दुख होता कि अपने ही बच्चों का बालपन नहीं देख पाई.

फिर यह बाहर की पोस्ंिटग, उस का तो कतई मन नहीं था घर छोड़ने का. यह तो अजय की ही जिद थी, पर कितनी चालाकी से सारा दोष उसी के माथे मढ़ कर चल दिए.

इच्छा हो रही थी कि चीखचीख कर रो पड़े, पर यहां तो सुनने वाला भी कोई नहीं था.

पता नहीं बच्चों से भी अजय ने क्या कहा था, शाम को रश्मि और रोहित उस के पास आए थे.

‘‘मम्मी, प्लीज आप पापा से मत लड़ा करो. सुबह आप इतनी जोरजोर से चिल्ला रही थीं कि अड़ोसपड़ोस तक सुन ले. कौन कहेगा कि आप एक संभ्रांत स्कूल की पिं्रसिपल हो,’’ रोहित कहे जा रहा था, ‘‘ठीक है, आप बीमार हो तो हम सब आप का ध्यान रख ही रहे हैं. यहां पापा ही तो हैं जो हम सब को संभाल रहे हैं. आप तो वैसे भी वहां आराम से रह रही हो और यहां आ कर पापा से ही लड़ रही हो…’’

विस्फारित नेत्रों से देखती भारती सोचने लगी कि अजय ने बच्चों को भी अपनी ओर कर लिया है. अकेली है वह… सिर्फ वह…

Latest Hindi Stories : एक रिश्ता प्यारा सा – अमर ने क्या किया था

Latest Hindi Stories :  “अरे रमन जी सुनिए, जरा पिछले साल की रिपोर्ट मुझे फॉरवर्ड कर देंगे, कुछ काम था” . मैं ने कहा तो रमन ने अपने चिरपरिचित अंदाज में जवाब दिया “क्यों नहीं मिस माया, आप फरमाइश तो करें. हमारी जान भी हाजिर है.

“देखिए जान तो मुझे चाहिए नहीं. जो मांगा है वही दे दीजिए. मेहरबानी होगी.” मैं मुस्कुराई.

इस ऑफिस और इस शहर में आए हुए मुझे अधिक समय नहीं हुआ है. पिछले महीने ही ज्वाइन किया है. धीरेधीरे सब को जानने लगी हूं. ऑफिस में साथ काम करने वालों के साथ मैं ने अच्छा रिश्ता बना लिया है.

वैसे भी 30 साल की अविवाहित, अकेली और खूबसूरत कन्या के साथ दोस्ती रखने के लिए लोग मरते हैं. फिर मैं तो इन सब के साथ काम कर रही हूं. 8 घंटे का साथ है. मुझे किसी भी चीज की जरूरत होती है तो सहकर्मी तुरंत मेरी मदद कर देते हैं. अच्छा ही है वरना अनजान शहर में अकेले रहना आसान नहीं होता.

दिल्ली के इस ब्रांच ऑफिस में मैं अपने एक प्रोजेक्ट वर्क के लिए आई हुई हूं. दोतीन महीने का काम है. फिर अपने शहर जयपुर वाले ब्रांच में चली जाऊंगी. इसलिए ज्यादा सामान ले कर नहीं आई हूं.

मैं ने लक्ष्मी नगर में एक कमरे का घर किराए पर ले रखा है. बगल के कमरे में दो लड़कियां रहती हैं. जबकि मेरे सामने वाले घर में पतिपत्नी रहते हैं. शायद उन की शादी को ज्यादा समय नहीं हुआ है. पत्नी हमेशा साड़ी में दिखती है. मैं सुबहसुबह जब भी खिड़की खोलती हूं तो सामने वह लड़का अपनी बीवी का हाथ बंटाता हुआ दिखता है. कभीकभी वह छत पर एक्सरसाइज करता भी दिख जाता है.

उस की पत्नी से मेरी कभी बात नहीं हुई मगर वह लड़का एकदो बार मुझे गली में मिल चुका है. काफी शराफत से वह इतना ही पूछता है,” कैसी हैं आप ? कोई तकलीफ तो नही यहां.”

“जी नहीं. सब ठीक है.” कह कर मैं आगे बढ़ जाती.

इधर कुछ दिनों से देश में कोरोना के मामले सामने आने लगे हैं. हर कोई एहतियात बरत रहा है. बगल वाले कमरे की दोनों लड़कियों के कॉलेज बंद हो गए. दोनों अपने शहर लौट गई .

उस दिन सुबहसुबह मेरे घर से भी मम्मी का फोन आ गया,” बेटा देख कोरोना फैलना शुरु हो गया है. तू घर आ जा.”

“पर मम्मी अभी कोई डरने की बात नहीं है. सब काबू में आ जाएगा. यह भी तो सोचो मुझे ऑफिस ज्वाइन किए हुए 1 महीना भी नहीं हुआ है. इतनी जल्दी छुट्टी कैसे लूं? बॉस पर अच्छा इंप्रेशन नहीं पड़ेगा. वैसे भी ऑफिस बंद थोड़े न हुआ है. सब आ रहे हैं.”

“पर बेटा तू अनजान शहर में है. कैसे रहेगी अकेली? कौन रखेगा तेरा ख्याल?”

“अरे मम्मी चिंता की कोई बात नहीं. ऑफिस में साथ काम करने वाले मेरा बहुत ख्याल रखते हैं. सरला मैडम तो मेरे घर के काफी पास ही रहती है. उन की फैमिली भी है. 2 लोग हैं और हैं जिन का घर मेरे घर के पास ही है. इसलिए आप चिंता न करें. सब मेरा ख्याल रखेंगे.”

“और बेटा खानापीना… सब ठीक चल रहा है ?”

“हां मम्मा. खानेपीने की कोई दिक्कत नहीं है . मुझे जब भी कैंटीन में खाने की इच्छा नहीं होती तो सरला मैडम या दिवाकर सर से कह देती हूं. वे अपने घर से मेरे लिए लंच ले आते हैं. ममा डोंट वरी. मैं बिल्कुल ठीक हूं. गली के कोने में ढाबे वाले रामू काका भी तो हैं. मेरे कहने पर तुरंत खाना भेज देते हैं. ममा कोरोना ज्यादा फैला तो मैं घर आ जाऊंगी. आप चिंता न करो .”

उस दिन मैं ने मां को तो समझा दिया था कि सब ठीक है. मगर मुझे अंदाज भी नहीं था कि तीनचार दिनों के अंदर ही देश में अचानक लॉकडाउन हो जाएगा और मैं इस अनजान शहर में एक कमरे में बंद हो कर रह जाऊंगी. न घर में खानेपीने की ज्यादा चीजें हैं और न ही कोई रेस्टोरेंट ही खुला हुआ है .

मैं ने सरला मैडम से मदद मांगी तो उन्होंने टका सा जवाब दे दिया,” देखो माया अभी तो अपने घर में ही खाने की सामग्री कब खत्म हो जाए पता नहीं . अभी न तुम्हारा घर से निकलना उचित है और न हमारे घर में ऐसा कोई है जो तुम्हें खाना दे कर आए. आई एम सॉरी. ”

“इट्स ओके .” बस इतना ही कह सकी थी मैं. इस के बाद मैं ने दिवाकर सर को फोन किया तो उन्होंने उस दिन तो खाना ला कर दे दिया मगर साथ में अपना एक्सक्यूज भी रख दिया कि माया अब रोज मैं खाना ले कर नहीं आ सकूंगा. मेरी बीवी भी तो सवाल करेगी न.

“जी मैं समझ सकती हूं . मुझे उन की उम्मीद भी छोड़नी पड़ी. अब मैं ने रमन जी को फोन किया जो हर समय मेरे लिए जान हाजिर करने की बात करते रहते थे. उन का घर भी लक्ष्मी नगर में ही था. हमेशा की तरह उन का जवाब सकारात्मक आया. शाम में खाना ले कर आने का वादा किया. रात हो गई और वह नहीं आए. मैं ने फोन किया तो उन्होंने फोन उठाया भी नहीं और एक मैसेज डाल दिया, सॉरी माया मैं नहीं आ पाऊंगा.

अब मेरे पास खाने की भारी समस्या पैदा हो गई थी. किराने की दुकान से ब्रेड और दूध ले आई. कुछ बिस्किट्स और मैगी भी खरीद ली. चाय बनाने के लिए इंडक्शन खरीदा हुआ था मैं ने. उसी पर किसी तरह मैगी बना ली. कुछ फल भी खरीद लिए थे. दोतीन दिन ऐसे ही काम चलाया मगर ऐसे पता नहीं कितने दिन चलाना था. 21 दिन का लॉकडाउन था. उस के बाद भी परिस्थिति कैसी होगी कहना मुश्किल था.

उस दिन मैं दूध ले कर आ रही थी तो गेट के बाहर वही लड़का जो सामने के घर में रहता है मिल गया. उस ने मुझ से वही पुराना सवाल किया,” कैसी हैं आप? सब ठीक है न? कोई परेशानी तो नहीं?”

“अब ठीक क्या? बस चल रहा है. मैगी और ब्रेड खा कर गुजारा कर रही हूं .”

“क्यों खाना बनाना नहीं जानती आप?

उस के सवाल पर मैं हंस पड़ी.

“जानती तो हूं मगर यहां कोई सामान नहीं है न मेरे पास. दोतीन महीने के लिए ही दिल्ली आई थी. अब तक ऑफिस कैंटीन और रामू काका के ढाबे में खाना खा कर काम चल जाता था. मगर अब तो सब कुछ बंद है न. अचानक लॉक डाउन से मुझे तो बहुत परेशानी हो रही है.”

“हां सो तो है ही. मेरी वाइफ भी 5-6 दिन पहले अपने घर गई थी. 1 सप्ताह में वापस आने वाली थी. संडे मैं उसे लेने जाता तब तक सब बंद हो गया. उस के घरवालों ने कहा कि अभी जान जोखिम में डाल कर लेने मत आना. सब ठीक हो जाए तो आ जाना. अब मैं भी घर में अकेला ही हूं.”

“तो फिर खाना?”

“उस की कोई चिंता नहीं. मुझे खाना बनाना आता है. ” उस के चेहरे पर मुस्कान खिल गई.

“क्या बात है! यह तो बहुत अच्छा है. आप को परेशानी नहीं होगी.”

“परेशानी आप को भी नहीं होने दूंगा. कल से मैं आप के लिए खाना बना दिया करूंगा. आप बिल्कुल चिंता न करें. कुछ सामान लाना हो तो वह भी मुझे बताइए. आप घर से मत निकला कीजिए. मैं हूं न.”

एक अनजान शख्स के मुंह से इतनी आत्मीयता भरी बातें बातें सुन कर मुझे बहुत अच्छा लगा.” थैंक यू सो मच “मैं इतना ही कह पाई.

अगले दिन सुबहसुबह वह लड़का यानी अमर मेरे लिए नाश्ता ले कर आ गया. टेबल पर टिफिन बॉक्स छोड़ कर वह चला गया था. नाश्ते में स्वादिष्ट पोहा खा कर मेरे चेहरे पर मुस्कान खिल गई. मैं दोपहर का इंतजार करने लगी. ठीक 2 बजे वह फिर टिफिन भर लाया. इस बार टिफिन में दाल चावल और सब्जी थे. मैं सोच रही थी कि किस मुंह से उसे शुक्रिया करूं. अनजान हो कर भी वह मेरे लिए इतना कुछ कर रहा है.

मैं ने उसे रोक लिया और कुर्सी पर बैठने का इशारा किया. वह थोड़ा सकुचाता हुआ बैठ गया. मैं बोल पड़ी ,” आई नो एक एक अनजान, अकेली लड़की के घर में ऐसे बैठना आप को अजीब लग रहा होगा. मगर मैं इस अजनबीपन को खत्म करना चाहती हूं. आप अपने बारे में कुछ बताइए न. मैं जानना चाहती हूं उस शख्स के बारे में जो मेरी इतनी हेल्प कर रहा है.”

“ऐसा कुछ नहीं माया जी. हम सब को एकदूसरे की सहायता करनी चाहिए.” बड़े सहज तरीके से उस ने जवाब दिया और फिर अपने बारे में बताने लगा,

“दरअसल मैं ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं हूं. मेरठ में मेरा घर है . स्कूल में हमेशा टॉप करता था. मगर घर के हालात ज्यादा अच्छे नहीं थे. सो इंटर के बाद ही मुझे नौकरी करनी पड़ी. करोल बाग में मेरा ऑफिस है. वाइफ भी मेरठ की ही है. बहुत अच्छी है. बहुत प्यार करती है मुझ से. हम दोनों की शादी पिछले साल ही हुई थी. दिल्ली आए ज्यादा समय नहीं हुआ है.”

“बहुत अच्छे. मैं भी दिल्ली में नई हूं. हमारे इस ऑफिस का एक ब्रांच जयपुर में भी है. वही काम करती थी मैं. यहां एक प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए आई हुई हूं .अगर प्रमोशन मिल गया तो शायद हमेशा के लिए भी रहना पड़ जाए.”

अच्छा जी अब आप खाना खाएं. देखिए मैं ने ठीक बनाया है या नहीं.”

आप तो बहुत स्वादिष्ट खाना बनाते हैं. सुबह ही पता चल गया था. कह कर मैं हंस पड़ी. वह भी थोड़ा शरमाता हुआ मुस्कुराने लगा था. मैं खाती रही और वह बातें करता रहा.

अब तो यह रोज का नियम बन गया था. वह 3 बार मेरे लिए खाना बना कर लाता. मैं भी कभीकभी चाय बना कर पिलाती. किसी भी चीज की जरूरत होती तो वह ला कर देता . मुझे निकलने से रोक देता.

मेरे आग्रह करने पर वह खुद भी मेरे साथ ही खाना खाने लगा. हम दोनों घंटों बैठ कर दुनिया जहान की बातें करते.

इस बीच मम्मी का जब भी फोन आता और वह चिंता करतीं तो मैं उन्हें समझा देती कि सब अच्छा है. मम्मी जब भी खाने की बात करतीं तो मैं उन्हें कह देती कि सरला मैडम मेरे लिए खाना बना कर भेज देती हैं. कोई परेशानी की बात नहीं है.

इधर अमर की वाइफ भी फोन कर के उस का हालचाल पूछती. चिंता करती तो अमर कह देता कि वह ठीक है. अपने अकेलेपन को टीवी देख कर और एक्सरसाइज कर के काट रहा है.

हम दोनों घरवालों से कही गई बातें एकदूसरे को बताते और खूब हंसते. वाकई इतनी विकट स्थिति में अमर का साथ मुझे मजबूत बना रहा था. यही हाल अमर का भी था. इन 15- 20 दिनों में हम एकदूसरे के काफी करीब आ चुके थे. और फिर एक दिन हमारे बीच वह सब हो गया जो उचित नहीं था.

अमर इस बात को ले कर खुद को गुनहगार मान रहा था. मगर मैं ने उसे समझाया,” तुम्हारा कोई दोष नहीं अमर. भूल हम दोनों से हुई है. पर इसे भूल नहीं परिस्थिति का दोष समझो. यह भूल हम कभी नहीं दोहराएंगे. मगर इस बात को ले कर अपराधबोध भी मत रखो. हम अच्छे दोस्त हैं और हमेशा रहेंगे. एक दोस्त ही दूसरे का सहारा बनता है और तुम ने हमेशा मेरा साथ दिया है. मुझे खुशी है कि मुझे तुम्हारे जैसा दोस्त मिला.”

मेरी बात सुन कर उस के चेहरे पर से भी तनाव की रेखाएं गायब हो गई और वह मंदमंद मुस्कुराने लगा.

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