15 अगस्त स्पेशल: साहस- अंकित ने कैसे पूरा किया दादीमां का सपना

टैक्सी एअरपोर्ट के डिपार्चर टर्मिनल के बाहर रुकी. मीरा और आनंद उतरे. टैक्सी ड्राइवर ने डिक्की खोली और स्ट्रोली निकाल कर आनंद को पकड़ाई. आनंद ने झुक कर मीरा के पांव छुए.

‘‘अच्छा मां, मैं जा रहा हूं. अपना खयाल रखना. मेरे बारे में आप को कोई आशंका नहीं होनी चाहिए. मैं अपनी देखभाल अच्छी तरह कर सकता हूं. मैं आप को समयसमय पर फोन किया करूंगा और पढ़ाई खत्म होते ही भारत लौट आऊंगा आप की देखभाल करने के लिए,’’ यह कह कर आनंद ने मीरा से विदा ली.

‘‘जाओ बेटे, अच्छे से रहना. मेरे बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है. तुम सुखी रहो और तुम्हारी सारी मनोकामनाएं पूरी हों,’’ मीरा ने प्रसन्नता के साथ उसे विदा किया. आनंद टर्मिनल की ओर घूमा और मीरा टैक्सी में वापस बैठी. उस की आंखें सूखी थीं क्योंकि उस ने आंसू रोक रखे थे. वह टैक्सी ड्राइवर के सामने रोना नहीं चाहती थी. घर लौटते समय वह मन ही मन सोचने लगी, आनंद उस का इकलौता पुत्र था, जो अपने पिता की मौत के 6 महीने बाद पैदा हुआ था. मीरा ने उसे अकेले, अपने दम पर, पढ़ालिखा कर बड़ा किया था. और आज आनंद उसे छोड़ कर चला गया था. हमेशा के लिए तो नहीं, पर मीरा को शक था कि अब जब भी आनंद भारत लौटेगा तो वह सिर्फ चंद दिनों के लिए ही उस से मिलने के लिए आएगा.

उस ने हमेशा सोचा था कि आनंद को वह अपने पति मेजर विजय की तरह फौजी बना देगी, पर यह बात उस के बेटे के दिमाग में कभी नहीं जमी. वह तो बचपन से ही अमेरिका में जा कर बस जाने के सपने देखने लगा था. फौज में जाता तो उस का सपना अधूरा रह जाता. अपने सपने पूरे करने के लिए आनंद ने दिनरात पढ़ाई की जिस के कारण वह यूनिवर्सिटी में गोल्ड मैडलिस्ट बना, यानी अव्वल नंबर पर आया. उसे अमेरिका में आगे पढ़ाई करने के लिए बहुत अच्छी स्कौलरशिप मिली. अब उसे कौन रोक सकता था.

घर लौटने के बाद मीरा अपने पति के चित्र के आगे जा कर खड़ी हो गई, ‘‘देखिए, आज मैं ने आप के बेटे को अपने पैरों पर खड़े होने के काबिल बना दिया है. आप की तरह देशसेवक फौजी तो नहीं बना सकी पर मुझे यकीन है कि वह जीवन में बहुत सफलताएं प्राप्त करेगा ताकि हमारे सिर गर्व से ऊंचे रहेंगे.’’ मीरा अपने दिवंगत पति से और भी बातें करना चाहती थी, पर उस की भावनाओं का बांध टूट गया और वह हिचकियां ले कर रो पड़ी. उसे लगा कि उस के सारे सपने टूट गए थे.

उस का आनंद को फौजी बनाने का इरादा अधूरा ही रह गया था. आनंद ने उसे यह विश्वास दिलाया था कि वह पढ़ाई पूरी कर के भारत लौट आएगा, पर मीरा जानती थी कि यह बात उस ने उस को बहलाने के लिए ही कही थी. अचानक मीरा का ध्यान बंट गया. साथ वाले घर में रेडियो पर मन्ना डे का पुराना लोकप्रिय गाना बज रहा था, ‘इधर झूम के गाए जिंदगी उधर है मौत खड़ी. कोई क्या जाने कहां है सीमा, उलझन आन पड़ी…’ गाने को सुनतेसुनते मीरा को खयाल आया, ‘हां, यह तो बिलकुल ठीक है. सच में आज तक किसी को नहीं पता चला है कि जिंदगी और मौत की सीमा कहां है.’

वह कैसे भूल सकती थी अक्तूबर के उस शनिवार की काली रात को, जिस के दौरान उस की जिंदगी हमेशा के लिए बदल गई. उन के कैंटोन्मैंट के फौजी अफसरों के क्लब में हर महीने के दूसरे शनिवार को पार्टी होती थी. यह बड़ा कैंटोन्मैंट था, कई यूनिटें स्थलसेना की और 2 यूनिटें वायुसेना की थीं. क्लब की इन पार्टियों में काफी ज्यादा रौनक रहती थी. म्यूजिक सिस्टम पर नए से नए हिंदी और अंगरेजी गाने बजते थे, जिन की धुन पर जोडि़यां नाचती थीं. उस शनिवार की रात भी मीरा का पति मेजर विजय सिंह हमेशा की तरह उसे ले कर पार्टी में पहुंचा. क्लब का प्रोग्राम शुरू हुआ.

गाने बजने लगे और जोडि़यों ने नाचना शुरू किया. जो नाच नहीं रहे थे वे हाथों में डिं्रक का गिलास पकड़े उन्हें देख रहे थे. विजय नाचना चाहता था. पर मीरा नाचना नहीं चाहती थी क्योंकि वह गर्भ के तीसरे महीने में थी. पर विजय माना नहीं. ‘तुम फौजी की बीवी हो. तुम्हें कुछ नहीं होगा,’ कहते हुए वह मीरा सहित नाचने वालों में शामिल हो गया. 11 बजे के करीब, वे लोग जो अपने जवान बेटेबेटियों को साथ लाए हुए थे, जाने लगे. तभी अचानक एक अनापेक्षित बदलाव कार्यक्रम में आया. 

एक कर्नल, जो पूरी वरदी में था, क्लब में फुरती से आया. उस ने गानों को रोकने का संकेत दिया और ‘मैं माफी चाहता हूं’ की संक्षिप्त भूमिका के साथ उस ने विस्मित क्लब अधिकारी के हाथ से माइक्रोफोन का चोंगा अपने हाथ में लिया:

‘प्रतिष्ठित महिलाओ और सज्जनो,’ उस ने घोषणा की, ‘मैं आप की पार्टी को भंग करने के लिए क्षमा चाहता हूं. पर एक गंभीर राष्ट्रीय आपत्ति हमारे सामने उठ खड़ी हुई है. सेना व वायुसेना के सभी अधिकारी तुरंत क्लब छोड़ दें. वे अपने घर जाएं और कार्यक्षेत्र की वरदी पहनें.

फिर एक अन्य जोड़ी वरदी और टौयलेट का सामान छोटे से बैग में डाल कर अपनी यूनिट के हैडक्वार्टर में सुबह 4 बजे से पहले रिपोर्ट करें. मैं फिर कहता हूं कि यह राष्ट्रीय आपदा है और हमें फौरन सक्रिय होना है.’ यह कह कर वह पलटा और बाहर जा कर, जिस जीप में आया था उसी में बैठा और चला गया.

क्लब में सब लोग चौंक कर अपनीअपनी टिप्पणियां देने लगे. प्रश्न था कि क्या समस्या हो सकती है? क्योंकि कर्नल ने कुछ भी स्पष्ट नहीं किया था, इसलिए किसी को पता नहीं था कि कौन सी गंभीर घटना घटी है. तो भी फौजी हुक्म तो हुक्म ही था. सेना और वायुसेना के अफसरान फौरन जल्दीजल्दी बाहर निकले. जो परिवार के साथ आए थे वे घरों की ओर लौटे, अविवाहित अफसर अपने मैस के कमरों की तरफ पलटे.

मीरा और विजय भी अपने घर लौटे. जब तक विजय ने वरदी पहनी, मीरा ने उस के बैग में सामान डाला. ‘यह क्या हो रहा है? तुम लोग क्यों और कहां जा रहे हो? तुम कब तक लौटोगे? मुझे कुछ तो बताओ?’ पर उस के हर सवाल का जवाब विजय का ‘मैं नहीं जानता हूं.

मैं कुछ नहीं कह सकता हूं’ था. बिछुड़ने का समय आ गया. उन की शादी को 2 साल हो गए थे और मीरा पहली बार विजय से अलग हो रही थी. उस की आंखों में आंसू थे और दिल में एक अंजान सा डर, पता नहीं क्या होने वाला था. ‘चिंता मत करो, मेरी जान,’ विजय ने हौसला दिया था, ‘मैं फौजी हूं. हुक्म की तामील करना मेरा फर्ज है. और तुम एक फौजी की बीवी हो, साहस रखना तुम्हारा फर्ज है. मैं जल्दी ही तुम्हारे पास लौट आऊंगा.’

यह कहने के बाद विजय चला गया, हमेशाहमेशा के लिए चला गया. मीरा अतीत में खोई थी कि अचानक दरवाजे की घंटी से उस का ध्यान टूटा. वह आंसू पोंछ कर उठी. दरवाजे पर उस की बाई रामकली खड़ी थी. वह बोली, ‘‘मालकिन, आनंद बाबा को याद कर के रोओ मत.

वे अमेरिका में खूब खुश रहेंगे. आप अपने काम में लग जाओ. आज तक आप ने आनंद बाबा को विजय साहब की यादों के सहारे ही तो पाला है. अब अपने स्कूल के काम में मन लगाओ,’’ फिर मीरा को बहलाते हुए आगे बोली, ‘‘मैं आप के लिए चाय लाती हूं. फिर आप के लिए खाना बनाऊंगी.’’ उस रात को जब मीरा अपने बिस्तर पर लेटी तो यादों का कारवां एक बार फिर उस की आंखों के आगे चल निकला. मीरा को घर पर छोड़ने के बाद विजय पर जो गुजरी वह कई दिनों बाद मीरा को विजय के दोस्त और यूनिट में उस के साथी कैप्टन शर्मा ने बताई.

विजय के यूनिट पहुंचने के कुछ देर बाद कमांडिंग अफसर (सीओ) ने पूरी बटालियन को संबोधित किया और उन्हें बताया कि देश के लिए एक गंभीर संकट की स्थिति उठ खड़ी हुई थी. एक पड़ोस के दुश्मन देश ने, बिना कोई चेतावनी दिए हमारे कई सीमावर्ती अड्डों पर भारी हमला कर दिया था.

इस धोखाधड़ी वाले हमले के कारण हमारे कई सैनिक मारे गए थे और हमारी तकरीबन दर्जनभर चौकियां कुछ पूरब में, कुछ पश्चिम में दुश्मन के हाथ में आ गई थीं. दुश्मन को जल्द से जल्द रोकना अनिवार्य हो गया था. पश्चिम के सरहदी इलाके में दुश्मन को रोकने का काम उन की यूनिट को दिया गया था. 

अंत में सीओ साहब ने कहा, ‘‘हम वीर सैनिक, आने वाले खतरों का डट कर सामना करेंगे, भारतीय सेना की परंपरा के मुताबिक. हो सकता है कि हम में से कुछ अपना फर्ज निभातेनिभाते अपनी जान खो दें. पर इस कारण हमें डरना नहीं चाहिए. हमेशा याद रखो कि वतन की इज्जत के लिए जो भी जवान शहीद होता है वह देश की आंखों में अमर हो जाता है.’’

सीओ के भाषण के फौरन बाद विजय, बटालियन के बाकी सदस्यों के साथ हवाई अड्डे पहुंचा. वहां से सारे सैनिक, 3 हवाई जहाजों में सवार हुए और चंद घंटों के बाद, 14 हजार फुट की ऊंचाई पर सीमा के एक हवाई अड्डे पर उतारे गए. वहां मौजूद अधिकारियों ने उन्हें सूचित किया कि वहां की स्थिति बेहद खतरनाक थी. हवाई अड्डे से कुछ ही दूरी पर, दुश्मनों की एक बड़ी टोली ने मोरचा जमाया था.

वे अपने साथियों का इंतजार कर रहे थे जो हजारों की तादाद में 2-3 दिन बाद वहां पहुंचने वाले थे. हवाई अड्डे के पास वाले दुश्मनों को खदेड़ना और उन के आने वाले साथियों का रास्ता रोकना बेहद जरूरी था, वरना हवाई अड्डा दुश्मन के कब्जे में आ सकता था.

वहां के हालात देख कर, उन के सीओ ने दुश्मनों पर हमला करने की जिम्मेदारी विजय को सौंपी. बाकी सैनिक हवाई अड्डे की रक्षा में, और उस ओर आने वाले रास्ते को रोकने के काम में लगाए गए. अगले दिन सुबहसुबह विजय और उस के सैनिकों ने दुश्मनों पर अचानक धावा बोला. शुरू में तो उन को काफी सफलता मिली, पर इस दौरान विजय की टांग में 2 गोलियां लग गईं.

अपने घावों की चिंता किए बिना विजय ने अपने सिपाहियों के आगे जा कर दुश्मन पर फिर धावा बोला. इस बार हमला इतना भयानक था कि बचे हुए दुश्मन सैनिक मोरचा छोड़ कर भाग गए. पर हमले के दौरान दुश्मन की 4 और गोलियों ने विजय की छाती छलनी कर डाली और उस ने वहीं जिंदगी और मौत की सीमा पार कर के वीरगति प्राप्त कर ली थी. इस महान बहादुरी के काम के लिए मेजर विजय को मरणोपरांत परमवीर चक्र मिला.

यह दास्तान मीरा के दिल और दिमाग पर गहरे निशान छोड़ गई थी. उस रात की याददाश्त ताजी होने पर मीरा की आंखें भर आईं, पर उस ने अपने आंसू रोके. तभी भोर की पहली किरणों ने आकाश में रंग भरना शुरू कर दिया. वह उठ कर बालकनी में गई. उस ने सोचा कि विजय के जाने के बाद भी तो जिंदगी उस ने अकेले ही चलाई थी तो अब आनंद के अमेरिका जाने पर भी चल ही जाएगी. 

समय की रफ्तार को कौन रोक सका है. आनंद ने पढ़ाई पूरी कर के अमेरिका में ही नौकरी कर ली. वह भारत समयसमय पर आताजाता रहा पर अब उस का मन वहां नहीं लगता था. उस ने मां की पसंद से भारत में शादी तो कर ली पर अपनी दुलहन समेत अमेरिका में ही जा कर बस गया.

मीरा का सपना था कि आनंद अपने पिता विजय की तरह फौज में जाता पर वह सपना हकीकत न बन पाया. बाद में आनंद का आना भी कम हो गया. हां, उस की पत्नी शोभा आती रही.

उन का बेटा अंकित भारत में ही पैदा हुआ. 8 साल की उम्र के बाद से तो वह मीरा के पास ही रह कर पला और बढ़ा. वह चाहता था कि वह अपने दादा की तरह फौजी अफसर बने. पर आनंद की इस में रजामंदी नहीं थी. उस ने अपनी मां की जिंदगी में दुख भरे तूफान का असर देखा था और वह नहीं चाहता था कि किसी और महिला को ऐसा दर्द मिले. तो भी अंकित ने स्कूल में एनसीसी में भाग ले लिया और कालेज की पढ़ाई पूरी कर के वह देहरादून मिलिटरी अकेडमी में चला गया.

आनंद इस सब से नाखुश था. अकेडमी से अफसर बन कर जब अंकित बाहर निकला तो उस ने अपने दादाजी की रेजीमैंट को जौइन किया. पर अब वह छुट्टियों में कम ही घर आता. उस की छुट्टियां दोस्तों के साथ घूमनेफिरने और मौजमस्ती में ही कट जातीं. मीरा उसे देखने को तरस जाती.

 एक दिन मीरा दीवार पर लगी विजय की फोटो देख रही थी. फिर उस की नजर साथ लगे डिसप्ले केस पर पड़ी, जिस में विजय के मैडल लगे थे. सर्वप्रथम एक बैगनी रंग के रिबन से लटका परमवीर चक्र था. 3 इंच का कपड़ा, एक तोला धातु, जिस को पाने के लिए सिपाही जान की बाजी दांव पर लगाने को तैयार रहते थे. वाह री शूरवीरता! 

तभी दरवाजे की घंटी बजी. मीरा ने दरवाजा खोला और उस के दिल पर जोर का झटका लगा. उस के सामने वरदी पहने, उस का पोता अंकित खड़ा था. हूबहू विजय. वही विजय जिस ने उस को बहुत साल पहले छोड़ा था और जिस की वरदी पहने वाली तसवीर उस के दिमाग में हमेशा के लिए छप गई थी. उस ने सोचा कि उस की आंखें उस को धोखा दे रही थीं.

तभी एकदम अंकित ने उसे सैल्यूट मारा, फिर झुक कर पैर छुए, ‘‘देखिए दादीमां, मेरा प्रमोशन हो गया है. अब मैं भी दादाजी की तरह मेजर बन गया हूं.’’ मीरा ने अपने पोते को गले लगाया, उस के रुके हुए आंसू बह निकले.

मीरा सोच रही थी कि ठीक था कि विजय ने अपने देश के लिए अपनी जान की बाजी लगा कर सराहनीय साहस का परिचय दिया था. पर मीरा के साहस का कौन अंदाजा लगा सकता था. समय की आंधी के आगे वह तन कर डटी रही और आगे ही बढ़ती गई. आज उसी साहस के बल पर उस ने अपने पोते को देश को समर्पित कर दिया था.

Raksha Bandhan: कच्ची धूप- भाग 2- कैसे हुआ सुधा को गलती का एहसास

सौम्या के महीनेभर की होते ही सुधा उसे ले कर कोलकाता आ गई. इस के बाद केशव की शादी पर ही सुधा अपने मायके गई थी.

सुधा ने सौम्या को बहुत ही नाजों से पाला था. वह उसे न तो कहीं अकेले भेजती थी और न ही किसी से मेलजोल रखने देती थी. स्कूल जाने के लिए भी अलग से गाड़ी की व्यवस्था कर रखी थी सौम्या के लिए.

यों अकेले पलती सौम्या साथी के लिए तरसने लगी. वह सोने के पिंजरे में कैद चिडि़या की तरह थी जिस के लिए खुला आसमान केवल एक सपना ही था. वह उड़ना चाहती थी, खुली हवा में सांस लेना चाहती थी मगर सुधा ने उसे पंख खोलने ही नहीं दिए थे. उसे बेटी का साधारण लोगों से मेलजोल अपने स्टेटस के खिलाफ लगता था. हां, सौम्या के लिए खिलौनों और कपड़ों की कोई कमी नहीं रखी थी सुधा ने.

धीरेधीरे वक्त के पायदान चढ़ती सौम्या ने अपने 16वें साल में कदम रखा. इसी बीच केशव एक प्रतिष्ठित डाक्टर बन चुका था. वह नोखा छोड़ कर अब बीकानेर शिफ्ट हो गया था, वहीं लोकेश एक पुलिस अधिकारी बन कर क्राइम ब्रांच में अपनी सेवाएं दे रहा था. दोनों भाइयों की आर्थिक स्थिति सुधरने से अब सुधा के मन में उन के लिए थोड़ी सी जगह बनी थी, मगर इतनी भी नहीं कि वह हर वक्त मायके के ही गुण गाती रहे. जबजब सुधा को कोई जरूरत आन पड़ती थी, वह अपने भाइयों से मदद अवश्य लेती थी. मगर काम निकलने के बाद वह उन्हें मक्खी की तरह बाहर निकाल फेंकती थी. लोकेश और केशव उस के स्वभाव को जान चुके थे, इसलिए वे उस का बुरा भी नहीं मानते थे और जरूरत पड़ने पर बहन के साथ खड़े होते थे.

अपनी ममेरी बहन शालिनी की शादी में जाने के लिए सौम्या का उत्साह देखते ही बनता था. उसे याद ही नहीं कि वह पिछली बार ननिहाल साइड के भाईबहनों से कब मिली थी. उन के साथ बचपन में की गई किसी भी शरारत या चुहलबाजी की कोई धुंधली सी भी याद उस के जेहन में नहीं आ रही थी. बड़े होने पर भी मां कहां उसे किसी से भी कौन्टैक्ट रखने देती हैं. हां, सभी रिश्तेदारों ने व्हाट्सऐप पर ‘हमारा प्यारा परिवार’ नाम से एक फैमिली गु्रप बना रखा था, उसी पर वह सब को देखदेख कर अपडेट होती रहती थी. ‘पता नहीं वहां जा कर सब को पहचान पाऊंगी या नहीं, सब के साथ ऐडजस्ट कर पाऊंगी या नहीं, क्याक्या बातें करूंगी’ आदि सोचसोच कर ही सौम्या रोमांचित हुई जा रही थी.

सौम्या को यह देख कर आश्चर्य हो रहा था कि अपनी एकलौती भतीजी की शादी में जाने को ले कर उस की मां बिलकुल भी उत्साहित नहीं है. जहां सौम्या ने महीनेभर पहले से ही शादी में पहने जाने वाले कपड़ों, फुटवियर और मैचिंग ज्वैलरी की शौपिंग करनी शुरू कर दी थी, वहीं सुधा अभी तक उदासीन बैठी थी. उस ने मां से कहा भी, मगर सुधा ने यह कह कर उस के उत्साह पर पानी फेर दिया कि अभी तो बहुत दिन बाकी हैं, कर लेंगे तैयारी. शादी ही तो हो रही है इस में क्या अनोखी बात है. मगर यौवन की दहलीज पर खड़ी सौम्या के लिए शादी होना सचमुच ही अनोखी बात थी.

सौम्या बचपन से ही देखती आई है कि मां उस के लोकेश और केशव मामा से ज्यादा नजदीकियां नहीं रखतीं. मगर अब तो उन की एकलौती भतीजी की शादी थी. मां कैसे इतनी उदासीन हो सकती हैं?

खैर, शादी के दिन नजदीक आए तो सुधा ने शालिनी को शादी में देने के लिए सोने के कंगन खरीदे, साथ ही 4 महंगी साडि़यां भी. सौम्या खुश हो गई कि आखिर मां का अपनी भतीजी के लिए प्रेम जागा तो सही मगर जब उस ने सुधा को एक बड़े बैग में उस के पुराने कपड़े भरते देखा तो उस से रहा नहीं गया. उस ने पूछ ही लिया, ‘‘मां, मेरे पुराने कपड़े कहां ले कर जा रही हो?’’

‘‘बीकानेर ले जा रही हूं, तुम तो पहनती नहीं हो, वहां किसी के काम आ जाएंगे,’’ सुधा ने थोड़ी लापरवाही और थोड़े घमंड से कहा.

‘‘मगर मां किसी को बुरा लगा तो?’’ सौम्या ने पूछा.

‘‘अरे, जिसे भी दूंगी, वह खुश हो जाएगा. इतने महंगे कपड़े खरीदने की हैसियत नहीं है किसी की,’’ सुधा अपने रुतबे पर इठलाई.

‘‘और ये आप की ड्राईक्लीन करवाई हुई पुरानी साडि़यां? ये किसलिए?’’ सौम्या ने फिर पूछा.

‘‘अरे, मैं ने पहनी ही कितनी बार हैं? इतनी महंगी साडि़यां भाभी ने तो कभी देखी भी नहीं होंगी. बेचारी पहन कर खुश हो जाएगी,’’ सुधा एक बार फिर इठलाई. वह अपनेआप को बहुत ही महान और दरियादिल समझे जा रही थी, मगर सौम्या को यह सब बिलकुल भी अच्छा नहीं लग रहा था. वह पुराने कपड़ों को बीकानेर न ले जाने की जिद पर अड़ी रही. आखिरकार उस की जिद पर वह पुराने कपड़ों से भरा बैग सुधा को वहीं कोलकाता में ही छोड़ना पड़ा.

शालिनी की शादी में सौम्या ने अपने ममेरे भाईबहनों के साथ बहुत मस्ती की. उस ने पहली बार प्यार और स्नेह के माने जाने थे. उस ने जाना कि परिवार क्या होता है और फैमिली बौंडिंग किसे कहते हैं. दिल के एक कोने में प्यार की कसक लिए सौम्या लौट आई अपनी मां के साथ फिर से उसी सोने के पिंजरे में जहां उस के लिए सुविधाएं तो मौजूद हैं मगर उसे अपने पंख अपनी इच्छा से फड़फड़ाने की इजाजत नहीं थी.

सौम्या का दिल अब इन बंधनों को तोड़ने के लिए मचलने लगा. जितना सुधा उसे आम लोगों से दूर रखने की कोशिश करती, सौम्या उतनी ही उन की तरफ खिंचती चली जाती. उस के मन में सुधा और उस के लगाए बंधनों के प्रति बगावत जन्म लेने लगी.

सौम्या ने अपनी स्कूल की पढ़ाई खत्म कर के कालेज में ऐडमिशन ले लिया था. सुधा ने बेटी को कालेज आनेजाने के लिए नई कार खरीद दी. मगर जब तक सौम्या ठीक से गाड़ी चलाना नहीं सीख लेती, उस के लिए किशोर को ड्राइवर के रूप में रखा गया. किशोर लगभग 30 वर्षीय युवक था. वह शादीशुदा और एक बेटे का पिता था. मगर देखने में बहुत ही आकर्षक और बातचीत में बेहद स्मार्ट था. रोज साथ आतेजाते सौम्या का किशोरमन किशोर की तरफ झुकने लगा. वह उस की लच्छेदार बातों के भंवरजाल में उलझने लगी.

एक रोज बातोंबातों में सौम्या को पता चला कि 4 दिनों बाद किशोर का जन्मदिन है. सौम्या ने सुधा से कह कर उस के लिए नए कपड़ों की मांग की. 4 दिनों बाद जब किशोर सौम्या को कालेज ले जाने के लिए आया तो सुधा ने उसे जन्मदिन की बधाई देते हुए राघव के पुराने कपड़ों से भरा बैग थमा दिया. किशोर ने बिना कुछ कहे वह बैग सुधा के हाथ से ले लिया, मगर सौम्या को किशोर की यह बेइज्जती जरा भी रास नहीं आई. उस ने कालेज जाते समय रास्ते में ही किशोर से गाड़ी मार्केट की तरफ मोड़ने को कहा और एक ब्रैंडेड शोरूम से किशोर के लिए शर्ट खरीदी. शायद वह अपनी मां द्वारा किए गए उस के अपमान के एहसास को कम करना चाहती थी. किशोर ने उस की यह कमजोरी भांप ली और वक्तबेवक्त उस के सामने खुद को खुद्दार साबित करने की जुगत में रहने लगा.

Raksha Bandhan: कच्ची धूप- भाग 1-कैसे हुआ सुधा को गलती का एहसास

‘‘सुनिए, केशव का फोन आया था, शालिनी की शादी है अगले महीने. सब को आने को कह रहा था,’’ देररात फैक्टरी से लौटे राघव को खाना परोसते हुए सुधा ने औपचारिक सूचना दी.

‘‘ठीक है, तुम और सौम्या हो आना. मेरा जाना तो जरा मुश्किल होगा. कुछ रुपएपैसे की जरूरत हो तो पूछ लेना, आखिर छोटा भाई है तुम्हारा,’’ राघव ने डाइनिंग टेबल पर बैठते हुए कहा.

‘‘रुपएपैसे की जरूरत होगी, तभी इतने दिन पहले फोन किया है, वरना लड़का देखने से पहले तो राय नहीं ली,’’ सुधा ने मुंह बिचकाते हुए कहा.

सुधा का अपने मायके में भरापूरा परिवार था. उस के पापा और चाचा दोनों ही सरकारी सेवा में थे. बहुत अमीर तो वे लोग नहीं थे मगर हां, दालरोटी में कोई कमी नहीं थी. सुधा दोनों परिवारों में एकलौती बेटी थी, इसलिए पूरे परिवार का लाड़प्यार उसे दिल खोल कर मिलता था. चाचाचाची भी उसे सगी बेटी सा स्नेह देते थे. उस का छोटा भाई केशव और बड़ा चचेरा भाई लोकेश दोनों ही बहन पर जान छिड़कते थे.

सुधा देखने में बहुत ही सुंदर थी. साथ ही, डांस भी बहुत अच्छा करती थी. कालेज के फाइनल ईयर में ऐनुअल फंक्शन में उसे डांस करते हुए मुख्य अतिथि के रूप में पधारे बीकानेर के बहुत बड़े उद्योगपति और समाजसेवक रूपचंद ने देखा तो उसी क्षण अपने बेटे राघव के लिए उसे पसंद कर लिया.

रूपचंद का मारवाड़ी समाज में बहुत नाम था. वे यों तो मूलरूप से बीकानेर के रहने वाले थे मगर व्यापार के सिलसिले में कोलकाता जा कर बस गए थे. हालांकि, अपने शहर से उन का नाता आज भी टूटा नहीं था. वे साल में एक महीना यहां जरूर आया करते थे और अपने प्रवास के दौरान बीकानेर ही नहीं, बल्कि उस के आसपास के कसबों में भी होने वाली सामाजिक व सांस्कृतिक गतिविधियों में शामिल हुआ करते थे. इसी सिलसिले में वे नोखा के बागड़ी कालेज में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित थे.

‘सुधा की मां, तुम्हारी बेटी के तो भाग ही खुल गए. खुद रूपचंद ने मांगा है इसे अपने बेटे के लिए,’ पवन ने औफिस से आ कर शर्ट खूंटी पर टांगते हुए कहा.

‘मेरी प्यारी बहनिया बनेगी दुलहनिया…’ कह कर केशव ने सुधा को चिढ़ाया तो सुधा ने लोकेश की तरफ मदद के लिए देखा.

‘सज के आएंगे दूल्हे राजा, भैया राजा, बजाएगा बाजा…’ लोकेश ने हंसते हुए गाने को पूरा किया तो सुधा शर्म के मारे चाची के पीछे जा कर छिप गई. मां ने बेटी को गले लगा लिया. और पूरे परिवार ने एकसाथ मिल कर शादी की तैयारियों पर चर्चा करते हुए रात का खाना खाया.

2 कमरों के छोटे से घर की बेटी सुधा जब आलीशान बंगले की बहू बन कर आई तो कोठी की चकाचौंध देख कर उस की आंखें चौंधिया गईं. उस के घर जितनी बड़ी तो बंगले की लौबी थी. हौल की तो शान ही निराली थी. महंगे सजावटी सामान घर के कोनेकोने की शोभा बढ़ा रहे थे. सुधा हर आइटम को छूछू कर देख रही थी. हर चीज उसे अजूबा लग रही थी. ससुराल के बंगले के सामने सुधा को अपना घर ‘दीन की बालिका’ सा नजर आ रहा था.

पवन ने बेटी की शादी अपने समधी की हैसियत को देखते हुए शहर के सब से महंगे मैरिज गार्डन में की थी, मगर पगफेरे के लिए तो सुधा को अपने घर पर ही जाना था. उसे बहुत ही शर्म आ रही थी राघव को उस में ले जाते हुए.

सुधा जैसी सुंदर लड़की को पत्नी के रूप में पा कर राघव तो निहाल ही हो गया. उस के साथ कश्मीर में हनीमून के 15 दिन कैसे बीत गए, उसे पता ही नहीं चला. रूपचंद ने जब कामधंधे के बारे में याद दिलाया तब कहीं जा कर उसे होश आया. वहीं अपने मायके के परिवार में हवाईयात्रा कर हनीमून पर जाने वाली सुधा पहली लड़की थी. यह बात आज भी उसे गर्व का एहसास करा जाती है.

खूबसूरत तो सुधा थी ही, पैसे की पावर ने उस का दिमाग सातवें आसमान पर पहुंचा दिया. रूपचंद की बहू बन कर वह अपनेआप को अतिविशिष्ट समझने लगी थी. सुधा अपनी ससुराल के ऐशोआराम और रुतबे की ऐसी आदी हुई कि अब उस का नोखा जाने का मन ही नहीं करता था. उसे मायके के लोग और वहां का घर बहुत ही हीन लगने लगे. उस ने धीरेधीरे उन से दूरी बनानी शुरू कर दी.

जब भी नोखा से किसी का फोन आता, तो उसे लगता था जैसे किसी तरह की मदद के लिए ही आया है और वह बहुत ही रुखाई से उन से बात करती थी. केशव भी सब समझने लगा था, वह बहुत जरूरी हो, तो ही बहन को फोन करता था. लोकेश तो उस के बदले रवैये से इतना आहत हुआ कि उस ने सुधा से बात करनी ही बंद कर दी.

शादी के बाद 1-2 बार तो मां के बुलाने पर सुधा राखी बांधने नोखा गई मगर उस का व्यवहार ऐसा होता था मानो वहां आ कर उस ने मायके वालों पर एहसान किया हो. बातबात में अपनी ससुराल की मायके से तुलना करना मां को भी कमतरी का एहसास करा जाता था. एक बार सुधा अपनी रौ में कह बैठी, ‘मेरा जितना पैसा यहां राखी बांधने आने पर खर्च होता है उतने में तो केशव के सालभर के कपड़ों और जूतों की व्यवस्था हो जाए. नाहक मेरा टाइम भी खराब होता है और तुम जो साड़ी और नकद मुझे देते हो, उसे तो ससुराल में दिखाते हुए भी शर्म आती है. अपनी तरफ से पैसे मिला कर कहना पड़ता है कि मां ने दिया है.’ यह सुन कर मां अवाक रह गईं. इस के बाद उन्होंने कभी सुधा को राखी पर बुलाने की जिद नहीं की.

लोकेश की शादी में पहली बार सुधा राघव के साथ नोखा आई थी. उस के चाचा अपने एकलौते दामाद की खातिरदारी में पलकपांवड़े बिछाए बैठे थे. वे जब उन्हें लेने स्टेशन पर पहुंचे तो उन्हें यह जान कर धक्का सा लगा कि सुधा ने नोखा के बजाय बीकानेर का टिकट बनवाया है. कारण था मायके के घर में एसी का न होना. उन्होंने कहा भी कि आज ही नया एसी लगवा देंगे मगर अब सुधा को तो वह घर ही छोटा लगने लगा था. अब घर तो रातोंरात बड़ा हो नहीं सकता था, इसलिए अपमानित से चाचा ने माफी मांगते हुए राघव से कहा, ‘दामाद जी, घर बेशक छोटा है हमारा, मगर दिल में बहुत जगह है. आप एक बार रुक कर तो देखते.’ राघव कुछ कहता इस से पहले ही ट्रेन स्टेशन से रवाना हो चुकी थी.

सुधा ठीक शादी वाले दिन सुबह अपनी लग्जरी कार से नोखा आई और किसी तरह बरात रवाना होने तक रुकी. जितनी देर वह वहां रुकी, सारा वक्त अपनी कीhttps://audiodelhipress.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audible/ch_a108_000001/1043_ch_a108_000006_kachhi_dhoop_gh.mp3मती साड़ी और महंगे गहनों का ही बखान करती रही. बारबार गरमी से होने वाली तकलीफ की तरफ इशारा करती और एसी न होने का ही रोना रोती रही. सुधा की मां को बेटी का यह व्यवहार बहुत अखर रहा था.

हद तो तब हो गई जब सौम्या पैदा होने वाली थी. सामाजिक रीतिरिवाजों के चलते सुधा की मां ने उसे पहले प्रसव के लिए मायके बुला भेजा. कोलकाता जैसे महानगर की आधुनिक सुविधाएं छोड़ कर नोखा जैसे छोटे कसबे में अपने बच्चे को जन्म देना नईनई करोड़पति बनी सुधा को बिलकुल भी गवारा नहीं था, मगर मां के बारबार आग्रह करने पर, सामाजिक रीतिरिवाज निभाने के लिए, उसे आखिरकार नोखा जाना ही पड़ा.

सुधा की डिलीवरी का अनुमानित समय जून के महीने का था. उस ने पापा से जिद कर के, आखिर एक कमरे में ही सही, एसी लगवा ही लिया. सौम्या के जन्म के बाद घरभर में खुशी की लहर दौड़ गई. हर कोई गोलमटोल सी सौम्या को गोदी में ले कर दुलारना चाहता था मगर सुधा ने सब की खुशियों पर पानी फेर दिया. यहां भी उस का अपनेआप को अतिविशिष्ट समझने का दर्प आड़े आ जाता. वह किसी को भी सौम्या को छूने नहीं देती थी, कहती थी, ‘गंदे हाथों से छूने पर बच्ची को इन्फैक्शन हो जाएगा.’

Film review OMG 2: फिल्म यौन शिक्षा की जरूरत बयां कर रही या फिर धर्म पर अंधश्रद्धा की बात, जानिए सबकुछ यहां…

रेटिंग : 5 में साढ़े 3 स्टार

निर्माता : अरूणा भाटिया, विपुल डी शाह, राजेश बहल व अश्विन वर्दे।

क्रिएटिव निर्माता : डा. चंद्रप्रकाश द्विवेदी

लेखक व निर्देशक : अमित राय

कलाकार : अक्षय कुमार, पंकज त्रिपाठी, यामी गौतम, पवन मल्होत्रा, गोविंद नामदेव, अरूण गोविल, सिमरन राजपूत, ब्रजेंद्र काला,आरुष वर्मा, पराग छापेकर (पत्रकार से बने अभिनेता), गीता अग्रवाल व अन्य.

अवधि : 2 घंटे 37 मिनट

सैंसर प्रमाणपत्र : ‘ए’ वयस्क

यूएई सैंसर बोर्ड : 12+

भारत में आज भी सैक्स हौआ है. घर हो या स्कूल, समाज का कोई भी तबका सैक्स को ले कर बात नहीं करता. सैक्स को वर्जित माना जाता है.

एक उम्र के बाद हर लड़के व लड़कियों को स्कूल में सही यौन शिक्षा देने की मांग लंबे समय से उठती आई है, मगर हमारी सरकार इस संबंध में मौन है.

यहां तक कि भारत का ‘केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड’ यानि सैंसर बोर्ड के लिए भी सैक्स व यौन शिक्षा हौआ ही है. यह वही सैंसर बोर्ड है, जोकि धर्म के बाजार को आगे बढ़ाने के मकसद से ‘आदिपुरुष’ जैसी फिल्म को ‘यू’ प्रमाणपत्र दे कर पारित करता है.

मगर यौन शिक्षा की जरूरत की बात करने वाली फिल्म ‘ओह माय गौड 2’’  को ‘ए’ यानि वयस्क प्रमाणपत्र देता है.

हमारा सैंसर बोर्ड यह भूल गया कि कामसूत्र से ले कर पंचतंत्र की कहानियों में यौन शिक्षा की बात की गई है. वहीं इसलामिक देश ‘यूएई’ के सैंसर बोर्ड ने ‘ओह माय गौड 2’ को 12+ का प्रामणपत्र दिया है यानि 12 साल से बड़े बच्चे यूएई में इस फिल्म को देख सकते हैं, मगर भारत में 18 साल से कम उम्र के बच्चे नहीं देख सकते. अब भारत के सैंसर बोर्ड को सही कहा जाए या ‘यूएई’ के सैंसर बोर्ड को, इस पर खुल कर बात की जानी चाहिए.

अब धीरेधीरे समाज में यह मांग उठने लगी है कि सैंसर बोर्ड में सिनेमा की समझ रखने वाले ऐसे लोगों को रखा जाना चाहिए, जो बदलते समाज के बदलते आदर्शों और बदलती सामाजिक जरूरतों को समझ सकते हों. दूसरी बात, फिल्म के निर्माताओं ने जम कर प्रचार किया कि उन की फिल्म को 70 कट दिए गए, तो वहीं यूएई के अनुसार फिल्म को महज 1 कट दिया गया है, जोकि सही है क्योंकि ‘ओह माय गौड 2’ में पहले अक्षय कुमार शिव के किरदार में थे, पर भारतीय सैंसर बोर्ड ने बदलवा कर शिव का दूत कहलावा दिया.

माना कि फिल्मकार ने यौन शिक्षा जैसे मुद्दे को फिल्म में उठाया है. मगर इन की नियति पर सवाल उठ रहे हैं. फिल्म के निर्माता अक्षय कुमार व क्रिएटिव निर्माता डा. चंद्रप्रकाश द्विवेदी हैं. ये दोनों आरएसएस और भाजपा भक्त हैं. ऐसे में फिल्म ‘ओह माय गौड 2’ धर्म का बाजार न हो, यह कैसे हो सकता है.

इस फिल्म को शिव के उज्जैन स्थित महाकाल मंदिर के अलावा उज्जैन शहर में फिल्माया गया है. फिल्म में सनातन धर्म व हिंदू धर्म का खुल कर प्रचार किया गया है. लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यौन शिक्षा व सैक्स जैसे मुद्दे पर मनोरंजक फिल्म बनाने का शायद यही एकमात्र जरिया है. अथवा यों कहें कि इन दिनों देश में जिस तरह का धार्मिक माहौल बन गया है, उसे देखते हुए इस फिल्म को विशाल दर्शक वर्ग तक पहुंचाने के लिए यही ढांचा उपयुक्त है.

बहरहाल, फिल्म 11 अगस्त, 2023 से सिनेमाघरों में पहुंच चुकी है और इस फिल्म को हर किशोरवय उम्र के लड़केलड़कियों, स्कूलों के शिक्षकों व मातापिता को जरूर देखनी चाहिए. यदि इस फिल्म को 7वीं कक्षा के बाद के छात्रछात्राओं को स्कूल व कालेज में दिखाई जाए, तो गलत नहीं होगा.

फिल्म ‘ओह माय गौड 2’ पूरी तरह से अंतर्विरोधों वाली फिल्म है. फिल्म के अंदर एक तरफ अदालती दृश्यों में सैक्स व यौन शिक्षा को ले कर वैज्ञानिक किताबों, वैज्ञानिक पोस्टरों, खजुराहो, कामशास्त्र की बातें की जा रही हैं, तो वहीं शिव, शिव में आस्था, शिव के दास, महाकाल मंदिर, भैरव नाथ मंदिर, सनातन धर्म व संस्कृति, शिवलिंग आदि की बातें की जा रही हैं. शिव के दूत के रूप में अक्षय कुमार, कांति मुद्गल बने पंकज त्रिपाठी से एक जगह कहते हैं कि ईश्वर पर विश्वास खो कर आप ने सबकुछ गलत कर डाला. मतलब कि फिल्म देख कर बाहर निकलने वाले कुछ लोग सवाल कर रहे थे कि यह फिल्म यौन शिक्षा की जरूरत बयां कर रही थी या धर्म पर अंधश्रृद्धा की बात कर रही है.

यहां इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि वर्तमान सरकार ने सब से पहले वाराणसी में काशी कौरीडोर का निर्माण किया और फिर उस से 4

गुना बड़ा उज्जैन शहर में ‘महाकाल कौरीडोर’ बनाया गया, जिस का लोकार्पण 11 अक्तूबर, 2023 को किया गया और उस के बाद वहीं पर फिल्म ‘ओह माय गौड’ का फिल्मांकन किया गया है. स्वाभाविक तौर पर यह फिल्म मध्य प्रदेश सरकार से मिली सब्सिडी पर बनी होगी.

कहानी : फिल्म ‘ओह माय गौड 2’ की कहानी उज्जैन, मध्य प्रदेश में रह रहे कांति शरण मुद्गल (पंकज त्रिपाठी) के साधारण परिवार से शुरू होती है. शिवभक्त कांति शरण मुद्गल के परिवार में पत्नी (गीता अग्रवाल), एक बेटा विवेक (आरुष वर्मा ) और एक बेटी (अन्वेषा विज) है. कांति शरण महाकाल मंदिर के बाहर फूल, मालाएं व प्रसाद बेचने की दुकान चलाते हुए हंसीखुशी अपना जीवन बिता रहे हैं. उन्होंने मंदिर के मुख्य पुजारी (गोविंद नामदेव) की मदद से अपने बेटे विवेक का दाखिला एक इंटरनैशनल स्कूल में करा रखा है, जिस के संचालक अटल नाथ माहेश्वरी (अरूण गोविल) हैं. पर कांति शरण मुद्गल की जिंदगी में तब भूचाल आ जाता है, जब उन के बेटे विवेक का एक तथाकथित (स्कूल के टौयलेट में हस्तमैथुन करते हुए ) अश्लील वीडियो सोशल मीडिया पर उस के कालेज के एक सहपाठी दुश्मनी के चलते वायरल कर देता है. जिस के बाद स्कूल के संचालक विवेक पर सामाजिक अपराध करने का आरोप लगा कर स्कूल से निकाल देते हैं.

समाज में हरकोई उसे, उस की बहन व मातापिता को तंग करने लगते हैं, जिस से विवेक डिप्रैशन में चला जाता है और खुद ट्रेन के आगे अपनी जान देने का भी प्रयास करता है, मगर शिव का दूत (अक्षय कुमार) उसे मरने से बचा लेता है और फिर वह कांति शरण मुद्गल को समझाता है कि वह भगवान शिव पर विश्वास रखे। जो भगवान शिव पर विश्वास रखता है, वह शिव का दास होता है.

वह कांति शरण को उन के बेटे का सम्मान वापस दिलाने के लिए उन्हें सही राह दिखाता है. तब कांति शरण मुद्गल खुद अपने उपर स्कूल के संचालक, डाक्टर (ब्रजेंद्र काला), मैडिकल स्टोर के मालिक (पराग छापेकर), नीमहकीमों, जड़ीबूटी विक्रेताआ आदि पर अदालत में मुकदमा कर देते हैं.

स्कूल की तरफ से अटल नाथ की बहू व मशहूर ऐडवोकेट कामिनी माहेश्वरी (यामी गौतम) मुकदमा लड़ती हैं, जबकि कांति शरण अपनी पैरवी स्वयं करते हैं. अदालत में जज पुरूषोत्तम नागर (पवन राज मल्होत्रा), ऐडवोकेट कामिनी माहेश्वरी के तर्क को नजरअंदाज कर इस मुकदमे की सुनवाई करते हैं. कांति शरण वैज्ञानिक व धार्मिक तर्क देते हुए आरोप लगाते हैं कि उन के बेटे विवेक की जो हालत है, उस के लिए स्कूल दोषी है क्योंकि स्कूल ने उन के बेटे को सैक्स की सही शिक्षा नहीं दी.

अदालत में मुकदमा चलता रहता है। बीचबीच में शिव का दूत कांति शरण को सलाह देते रहता है. अदालत के अंदर कई मोड़ आते हैं. पर अंततः जीत कांति शरण मुद्गल की होती है. विवेक का खोया हुआ आत्मसम्मान उसे मिल जाता है.

लेखक व निर्देशन : मराठी फिल्म ‘टिंग्या’ के अलावा हिंदी फिल्म ‘रोड टू संगम’ का निर्देशन कर चुके अमित राय, जो पूरे 13 साल बाद एक उद्देश्यपूर्ण फिल्म ‘ओह माय गौड 2’ का लेखन व निर्देशन किया है. जोकि एक बेहतरीन कहानी पर सशक्त, साहसी व संवेदनशील पटकथा वाली रोचक फिल्म है. फिल्मकार ने फिल्म

में एकदम वास्तविक अंदाज में भारतीय समाज की सोच व कार्यशैली को पेश किया है. पूरी फिल्म वास्तविक लोकेशन पर फिल्माई गई है, इस कारण भी वास्तविकता का एक पुट आ ही जाता है. फिल्मकार ने स्कूल में यौन शिक्षा के बहाने सत्यपरक व सामाजिक विषमताओं की बात की है. फिल्म बाल मनोविज्ञान को समझने की भी बात करती है. आखिर एक बालक जब एक नृत्य के कार्यक्रम से महज इसलिए निकाल दिया जाता है कि उस का ‘लिंग’ छोटा है, तब वह ‘लिंग’ को बड़ा करने के सवाल व जिज्ञासा के साथ अपने स्कूल शिक्षक से ले कर कई लोगों से बात करता है. कोई भी उस की जिज्ञासा को शांत नहीं करता, तब वह गलत राय के अनुसार हस्तमैथुन करने लग जाता है. इसे फिल्मकार ने जिस सहजता से चित्रित किया है, उस के लिए अमित राय बधाई के पात्र हैं.

उन्होंने निडर हो कर सामाजिक पाखंड को भी उजागर किया है. अमित राय ने इस बात का स्पष्ट चित्रण किया है कि ‘यौन शिक्षा ’ के विरोध में हर धर्मावलंबी है. फिल्म के क्लाइमैक्स में जब जज का बेटा यौन शिक्षा के समर्थन में खड़ा दिखता है तो यह संकेत है कि गुजरती पीढ़ी को नई पीढ़ी के साथ कदमताल कितना जरूरी है. लेकिन यह फिल्म इस बात पर मौन है कि यौन शिक्षा किस तरह से दी जाए कि वह अश्लील न लगे. इतना ही नहीं फिल्म का क्लाइमैक्स काफी घटिया है.

फिल्मकार ने इस बात को नजरंदाज कर दिया कि स्कूल संचालक ने स्कूल के अंदर अवैध तरीके से अश्लील वीडियो का फिल्मांकन करने वाले छात्र के खिलाफ काररवाई क्यों नहीं की? क्या यह अपराध नहीं है?

अभिनय : किशोरवय बालक व बालिका के मध्यवर्गीय पिता कांति शरण मुद्गल, जोकि अपने बेटे के सम्मान को वापस लाने की लड़ाई लङते हैं, उस किरदार में पंकज त्रिपाठी ने जान डाल दी है. मूलतया बिहारी होते हुए भी पंकज त्रिपाठी ने मालवा की बोली को बहुत बेहतरीन तरीके से पकड़ा है. वैसे भी पंकज त्रिपाठी मंझे हुए कलाकार हैं. लेकिन अपने ‘छोटे’ लिंग को बड़ा करने की फिक्र में दरदर भटकते, फिर सामाजिक अपराध के दोषारोपण के साथ स्कूल से बाहर निकाले जाने के बाद अपमान सहते हुए डिप्रैशन का शिकार होने व अपने पिता की लड़ाई देख कर डिप्रैशन से उबरने वाले विवेक के किरदार को जितनी सहजता व डूब कर किशोरवय के बाल कलाकार आरूष वर्मा ने निभाया है, वह सभी अतिसक्षम कलाकारों पर भारी पड़ गया है. यदि आरूष का अभिनय निम्नस्तर का होता, तो फिल्म का प्रभाव नहीं होता. अन्वेषा विज ने अपने कठिन किरदारों में शानदार संभावनाएं दिखाई हैं.

ऐडवोकेट कामिनी माहेश्वरी के किरदार में यामी गौतम जमी हैं. पर कई दृश्यों में वह मात खा गई हैं. अक्षय कुमार के हिस्से कम दृश्य आए, यह अच्छा ही है. पत्रकार से अभिनेता बने पराग छापेकर महज शोपीस ही हैं. महाकाल मंदिर के मुख्य पुजारी के किरदार में गोविंद नामदेव अपनी छाप छोड़ जाते हैं.

इस के अलावा ब्रजेंद्र काला, गीता अग्रवाल व अन्य कलाकारों के हिस्से कुछ खास नही आया. कुछ साल पहले प्रदर्शित फिल्म ‘जौली एलएलबी’ में सौरभ शुक्ल ने जज को एक नया रंग दिया था. कुछ हद तक जज पुरूषोत्तम नगर ने उसी अंदाज में अपना पुट डालते हुए निभाया है. मगर जज को हिंदी समझ में नहीं आती है, यह बात कुछ अजीब सी लगती है, जिस के लिए लेखक व निर्देशक दोषी हैं.

15 अगस्त स्पेशल: मजहब नहीं सिखाता…

दरअसल, मजहब कुछ नहीं सिखाता, अगर सिखाता होता तो हजारों   साल से चले आ रहे इस देश में धर्म के नाम पर इतने दंगेफसाद न होते, इतने जानलेवा हमले न होते. इतने वर्षों से सुनाए जा रहे ढेरों उपदेशों का कहीं कुछ तो असर होता.  अद्भुत बात यह है कि हमारा देश धर्मपरायण भी है और धर्मनिरपेक्ष भी, यहां एकदेववाद भी है और बहुदेववाद भी, ‘जाकी रही भावना जैसी.’ जो जिस के लिए लाभकारी है वह उस का सेवन करता है. राजनीति के लिए धर्म बीमारी भी है और दवा भी. धर्म को चुनाव के समय जाति के साथ मिलाया जाता है और दंगों के समय उसे संप्रदाय नाम दिया जाता है.

हमारा देश धर्मप्राण देश कहलाता है क्योंकि यहां धर्म की रक्षा के लिए प्राण लेने और देने का सिलसिला जमाने से चला आ रहा है. बलिप्रथा आज भी बंद नहीं हुई है. धर्म के लिए बलिदान लेने वालों की व देने वालों की आज भी कमी नहीं है. भाई के लिए राजगद्दी छोड़ने वाला धर्म जायदाद के लिए भाई पर मुकदमा करना, उस का कत्ल करना सिखा रहा है. जिस धर्म ने धन को मिट्टी समझना सिखाया वही धर्म मिट्टी को धन समझ कर हड़पना, लूटना, नुकसान पहुंचाना सिखा रहा है.

हमारा देश धर्मनिरपेक्ष भी कहलाता है, लेकिन यह कैसी निरपेक्षता है कि हम अपने धर्म वाले से अपेक्षा करते हैं कि वह दूसरे धर्म वाले की हत्या करे. दूसरे धर्म वाले का सम्मान करने के बजाय अपमान करने के नएनए तरीके ढूंढ़ते रहते हैं. सुबह से शाम तक ‘रामराम’ करने वाले ऐसेऐसे श्रेष्ठ लोग हैं, जिन के कुल की रीति है, ‘वचन जाए पर माल न जाए.’ ऐसे ही श्रेष्ठ भक्तों के लिए कहावत बनी है, ‘रामराम जपना, पराया माल अपना.’ ऐसे ही श्रेष्ठ लोग मंत्रियों को गुप्तदान देते हैं. उन के शयनकक्ष से किसी भी पार्टी का कोई नेता खाली ब्रीफकेस ले कर नहीं लौटता. अपनेअपने धर्माचार्यों की झोली भी वही भरते जाते हैं. झोली इसलिए कि वे धन को हाथ से छूते तक नहीं.

धर्म का सब से प्रमुख तत्त्व सत्य होता है और यही सब प्रचारित भी करते हैं. अत: धर्मप्रेमियों को इस तत्त्व से सब से ज्यादा प्रेम होना चाहिए, लेकिन उन्हें इसी से सब से ज्यादा चिढ़ होती है क्योंकि उन के व्यवसाय में यही सब से ज्यादा आड़े आता है. सच बोलेंगे तो मिलावटी और नकली माल कैसे बेचेंगे? धर्म कहता है, ईमानदारी रखो, लेकिन व्यापार तो ईमानदारी से चल ही नहीं सकता. हां, दो नंबर में ऐसे लोग पूरी ईमानदारी बरतते हैं.

धर्म कहता है, त्याग करो और व्यवसाय कहता है, कमाई ही कमाई होनी चाहिए. धर्म कहता है, उदार बनो, लेकिन धर्म के ठेकेदार कट्टरपंथी होते हैं. इस की 2 शाखाएं हैं, एक पर उदारपंथी व्यवसायी बैठते हैं, दूसरे पर कट्टरपंथी जो दंगों का धंधा करते हैं. दरअसल, धर्म के नियमों में धंधों के हिसाब से संशोधन होते रहते हैं, तभी वह शाश्वत रह सकता है.

धर्मप्रेमी कहते हैं, ईश्वर एक है, हम सब उसी परमपिता की संतान हैं. फिर भाईभाई की तरह प्रेम से रहते क्यों नहीं? कहते हैं, वह हमारे पास ही है. फिर उसे चारों ओर ढूंढ़ते क्यों फिरते हैं? वे कहते हैं, ईश्वर सबकुछ करता है अर्थात जो खूनखराबा हो रहा है, इस में उन का कोई हाथ नहीं है. ये सब ईश्वर के कारनामे हैं, वे तो पूर्ण निष्काम हैं.

वे कहते हैं, ईश्वर बहुत दयालु है अर्थात तुम कितने भी दुष्कर्म करो, कृपा तो वह कर ही देगा. फिर चिंता की क्या बात. अत: डट कर चूसो, काटो, मारो. ‘पापपुण्य’ का हिसाब करने वाला तो ऊपर बैठा है. वस्तुत: उन का परमात्मा या तो उन की तिजोरी में होता है या ब्रीफकेस में. वे तो हमें बहकाने के लिए उसे इधरउधर ढूंढ़ने का नाटक करते हैं.  कहते हैं, किसी जमाने में शुद्ध संत हुआ करते थे, केवल धार्मिक. फिर मिलावट होनी शुरू हुई और संत राजनीतिबाज भी होने लगे.

गुरु गद्दी को ले कर झगड़े पहले भी होते थे, तभी तो हर बाबा का अलग आश्रम और अलग अखाड़ा होता था. उन में धार्मिक कुश्तियां होती थीं. अब के संत अपनेअपने नेताओं को दंगल में उतारते हैं. चुनावी मंत्रतंत्र सिखाते हैं.  नकली संत तुलसीदास के जमाने में भी होते थे, तभी तो उन्होंने कहा था, ‘नारि मुई घर संपत्ति नासी, मूंड मुड़ाए भए संन्यासी.’ अब के संतों को शिष्याएं चाहिए, संपत्ति चाहिए, बड़ीबड़ी सुंदर जुल्फें चाहिए, मूंड़ने को अमीर चेले चाहिए.

तब संतन को ‘सीकरी’ से कोई काम नहीं था, अब सारा ध्यान सीकरी पर ही रहता है कि कब वहां से बुलावा आए. वे एक तंत्र से दूसरे तंत्र की उखाड़पछाड़ के लिए तपस्या में लीन रहते हैं. ब्रह्मचारी विदेश जा कर अपनी सचिव के साथ हनीमून मनाते हैं. योगी योग के माध्यम से भोग की शिक्षा देते हैं. ऐसे धर्मात्मा संतों की जयजयकार हो रही है. सब की दुकानदारी खूब चल रही है.

आजकल धर्म के निर्यात का धंधा भी जोरों से चल निकला है. धर्म के देसी माल की विदेशों में मांग बढ़ रही है. अत: धर्म का बड़े पैमाने पर निर्यात होता है. इस धंधे में अच्छी संभावनाएं छिपी हुई हैं. सब अपनीअपनी कंपनी के धर्म की गुणवत्ता का गुणगान करते हैं, जिन्हें प्रार्थनाएं कहा जाता है.

यहां विशेष योग्यता वाले विक्रेता ही सफल हो पाते हैं. विदेशियों की आत्मा शांत करने के खूब ऊंचे दाम मिलते हैं. इस धंधे में लगे लोगों का यह लोक ही नहीं ‘दूसरा लोक’ भी सुधर जाता है. धर्म के धंधे से पर्याप्त विदेशी मुद्रा अर्जित की जाती है, लेकिन फिर भी हमारा देश दरिद्र रहना पसंद करता है. शायद हमारे देश के गरीबों और अमीरों के देवता अलगअलग हैं. शायद दोनों में पटती नहीं है.

कहते हैं, हमारा देवता बड़ा दानी है, अत: हमारे मांगते रहने में ही उस की दानवीरता सिद्ध होती है. हम उस राम से सिंहासन मांगते हैं जिन्होंने वचनपालन के लिए राजत्याग किया था. जो हनुमानजी सीता को माता मानते थे उन्हीं से नारियां संतान मांगती हैं और वह भी पुत्र.

राम द्वारा ली गई हर परीक्षा में बजरंग- बली सफल हो गए थे. शायद यही सोच कर परीक्षार्थी मंगलवार को सवा रुपए का प्रसाद चढ़ा कर परीक्षा में नकल करने की शक्ति मांगते हैं. दुष्टदमन करने वाली दुर्गा से दूसरों की संपत्ति लूटने का वरदान मांगते समय दुष्ट लोग बिलकुल नहीं डरते. जो शिवजी भभूत रमाते थे और  शेर की खाल लपेटते थे, उन्हीं की तसवीर धर्मात्मा लोग अपनी कपड़े की दुकान में सजाते हैं.

निष्काम कर्म का उपदेश देने वाले कृष्ण से लोग ऊपरी कमाई वाली नौकरी मांगते हैं. शादी में शराब पी कर पहले ब्रेकडांस करते हैं, फिर हवन में बैठ कर ‘ओम भूर्भुव: स्व…’ का खुशबूदार मंत्रोच्चार करते हैं. अहिंसा और करुणा का उपदेश देने वाले धर्मप्रेमी अपने स्कूल की अध्यापिकाओं का शोषण करते हैं. चींटियों को चीनी खिलाने वाले मैनेजर मास्टरनियों को पूरे वेतन पर हस्ताक्षर करवा कर आंशिक वेतन देते हैं. धर्म का चमत्कार यही है कि धर्म फल रहा है और धर्मात्मा फूल रहा है.

जिस धर्म का सर्वप्रमुख व आधारभूत सिद्धांत सत्य रहा हो उस धर्म की सचाई कहो या लिखो तो धर्म का अपमान होता है. धर्मविरुद्ध आचरण से धर्म का अपमान नहीं होता.

मातृभूमि के प्रेम के गीत गाने वाले ऊंचे दामों पर मातृभूमि बेचते हैं तो उस का अपमान नहीं होता. ‘देवी स्वरूपा’ नारी को नौकरानी बना कर शोषण करने से देवी का अपमान नहीं होता.  एकपत्नीव्रत धर्मपालक पांचसितारा होटल में रात बिता कर लौटते हैं, तब धर्म का अपमान नहीं होता. चरबी मिला कर घी बेचने से धर्म का अपमान नहीं होता. शांति का संदेश बांटने वाला धर्म हथियार बांट कर दंगे करता है, तब धर्म का अपमान नहीं होता. ऐसे धर्म की जयजयकार.  ऐसे महान धर्माचार्यों के धर्म को ‘करहुं प्रनाम जोरि जुग पानी.’

एक डाली के तीन फूल

भाई साहब की चिट्ठी मेरे सामने मेज पर पड़ी थी. मैं उसे 3 बार पढ़ चुका था. वैसे जब औफिस संबंधी डाक के साथ भाई साहब की चिट्ठी भी मिली तो मैं चौंक गया, क्योंकि एक लंबे अरसे से हमारे  बीच एकदूसरे को पत्र लिखने का सिलसिला लगभग खत्म हो गया था. जब कभी भूलेभटके एकदूसरे का हाल पूछना होता तो या तो हम टेलीफोन पर बात कर लिया करते या फिर कंप्यूटर पर 2 पंक्तियों की इलेक्ट्रौनिक मेल भेज देते.

दूसरी तरफ  से तत्काल कंप्यूटर की स्क्रीन पर 2 पंक्तियों का जवाब हाजिर हो जाता, ‘‘रिसीव्ड योर मैसेज. थैंक्स. वी आर फाइन हियर. होप यू…’’ कंप्यूटर की स्क्रीन पर इस संक्षिप्त इलेक्ट्रौनिक चिट्ठी को पढ़ते हुए ऐसा लगता जैसे कि 2 पदाधिकारी अपनी राजकीय भाषा में एकदूसरे को पत्र लिख रहे हों. भाइयों के रिश्तों की गरमाहट तनिक भी महसूस नहीं होती.

हालांकि भाई साहब का यह पत्र भी एकदम संक्षिप्त व बिलकुल प्रासंगिक था, मगर पत्र के एकएक शब्द हृदय को छूने वाले थे. इस छोटे से कागज के टुकड़े पर कलम व स्याही से भाई साहब की उंगलियों ने जो चंद पंक्तियां लिखी थीं वे इतनी प्रभावशाली थीं कि तमाम टेलीफोन कौल व हजार इलेक्ट्रौनिक मेल इन का स्थान कभी भी नहीं ले सकती थीं. मेरे हाथ चिट्ठी की ओर बारबार बढ़ जाते और मैं हाथों में भाई साहब की चिट्ठी थाम कर पढ़ने लग जाता.

प्रिय श्याम,

कई साल बीत गए. शायद मां के गुजरने के बाद हम तीनों भाइयों ने कभी एकसाथ दीवाली नहीं मनाई. तुम्हें याद है जब तक मां जीवित थीं हम तीनों भाई देश के चाहे किसी भी कोने में हों, दीवाली पर इकट्ठे होते थे. क्यों न हम तीनों भाई अपनेअपने परिवारों सहित एक छत के नीचे इकट्ठा हो कर इस बार दीवाली को धूमधाम से मनाएं व अपने रिश्तों को मधुरता दें. आशा है तुम कोई असमर्थता व्यक्त नहीं करोगे और दीवाली से कम से कम एक दिन पूर्व देहरादून, मेरे निवास पर अवश्य पहुंच जाओगे. मैं गोपाल को भी पत्र लिख रहा हूं.

तुम्हारा भाई,

मनमोहन.

दरअसल, मां के गुजरने के बाद, यानी पिछले 25 सालों से हम तीनों भाइयों ने कभी दीवाली एकसाथ नहीं मनाई. जब तक मां जीवित थीं हम तीनों भाई हर साल दीवाली एकसाथ मनाते थे. मां हम तीनों को ही दीवाली पर गांव, अपने घर आने को बाध्य कर देती थीं. और हम चाहे किसी भी शहर में पढ़ाई या नौकरी कर रहे हों दीवाली के मौके पर अवश्य एकसाथ हो जाते थे.

हम तीनों मां के साथ लग कर गांव के अपने उस छोटे से घर को दीयों व मोमबत्तियों से सजाया करते. मां घर के भीतर मिट्टी के बने फर्श पर बैठी दीवाली की तैयारियां कर रही होतीं और हम तीनों भाई बाहर धूमधड़ाका कर रहे होते. मां मिठाई से भरी थाली ले कर बाहर चौक पर आतीं, जमीन पर घूमती चक्कर घिन्नियों व फूटते बम की चिनगारियों में अपने नंगे पैरों को बचाती हुई हमारे पास आतीं व मिठाई एकएक कर के हमारे मुंह में ठूंस दिया करतीं.

फिर वह चौक से रसोईघर में जाती सीढि़यों पर बैठ जाया करतीं और मंत्रमुग्ध हो कर हम तीनों भाइयों को मस्ती करते हुए निहारा करतीं. उस समय मां के चेहरे पर आत्मसंतुष्टि के जो भाव रहते थे, उन से ऐसा प्रतीत होता था जैसे कि दुनिया जहान की खुशियां उन के घर के आंगन में थिरक रही हैं.

हम केवल अपनी मां को ही जानते थे. पिता की हमें धुंधली सी ही याद थी. हमें मां ने ही बताया था कि पूरा गांव जब हैजे की चपेट में आया था तो हमारे पिता भी उस महामारी में चल बसे थे. छोटा यानी गोपाल उस समय डेढ़, मैं साढ़े 3 व भाई साहब 8 वर्ष के थे. मां के परिश्रमों, कुर्बानियों का कायल पूरा गांव रहता था. वस्तुत: हम तीनों भाइयों के शहरों में जा कर उच्च शिक्षा हासिल करने, उस के बाद अच्छे पदों पर आसीन होने में मां के जीवन के घोर संघर्ष व कई बलिदान निहित थे.

मां हम से कहा करतीं, तुम एक डाली के 3 फूल हो. तुम तीनों अलगअलग शहरों में नौकरी करते हो. एक छत के नीचे एकसाथ रहना तुम्हारे लिए संभव नहीं, लेकिन यह प्रण करो कि एकदूसरे के सुखदुख में तुम हमेशा साथ रहोगे और दीवाली हमेशा साथ मनाओगे.’

हम तीनों भाई एक स्वर में हां कर देते, लेकिन मां संतुष्ट न होतीं और फिर बोलतीं, ‘ऐसे नहीं, मेरे सिर पर हाथ रख कर प्रतिज्ञा करो.’

हम तीनों भाई आगे बढ़ कर मां के सिर पर हाथ रख कर प्रतिज्ञा करते, मां आत्मविभोर हो उठतीं. उन की आंखों से खुशी के आंसू छलक जाते.

मां के मरने के बाद गांव छूटा. दीवाली पर इकट्ठा होना छूटा. और फिर धीरेधीरे बहुतकुछ छूटने लगा. आपसी निकटता, रिश्तों की गरमी, त्योहारों का उत्साह सभीकुछ लुप्त हो गया.

कहा जाता है कि खून के रिश्ते इतने गहरे, इतने स्थायी होते हैं कि कभी मिटते नहीं हैं, मगर दूरी हर रिश्ते को मिटा देती है. रिश्ता चाहे दिल का हो, जज्बात का हो या खून का, अगर जीवंत रखना है तो सब से पहले आपस की दूरी को पाट कर एकदूसरे के नजदीक आना होगा.

हम तीनों भाई एकदूसरे से दूर होते गए. हम एक डाली के 3 फूल नहीं रह गए थे. हमारी अपनी टहनियां, अपने स्तंभ व अपनी अलग जड़ बन गई थीं. भाई साहब देहरादून में मकान बना कर बस गए थे. मैं मुंबई में फ्लैट खरीद कर व्यवस्थित हो गया था. गोपाल ने बेंगलुरु में अपना मकान बना लिया था. तीनों के ही अपनेअपने मकान, अपनेअपने व्यवसाय व अपनेअपने परिवार थे.

मैं विचारों में डूबा ही था कि मेरी बेटी कनक ने कमरे में प्रवेश किया. मु झे इस तरह विचारमग्न देख कर वह ठिठक गई. चिहुंक कर बोली, ‘‘आप इतने सीरियस क्यों बैठे हैं, पापा? कोई सनसनीखेज खबर?’’ उस की नजर मेज पर पड़ी चिट्ठी पर गई. चिट्ठी उठा कर वह पढ़ने लगी.

‘‘तुम्हारे ताऊजी की है,’’ मैं ने कहा.

‘‘ओह, मतलब आप के बिग ब्रदर की,’’ कहते हुए उस ने चिट्ठी को बिना पढ़े ही छोड़ दिया. चिट्ठी मेज पर गिरने के बजाय नीचे फर्श पर गिर कर फड़फड़ाने लगी.

भाई साहब के पत्र की यों तौहीन होते देख मैं आगबबूला हो गया. मैं ने लपक कर पत्र को फर्श से उठाया व अपनी शर्ट की जेब में रखा, और फिर जोर से कनक पर चिल्ला पड़ा, ‘‘तमीज से बात करो. वह तुम्हारे ताऊजी हैं. तुम्हारे पापा के बड़े भाई.’’

‘‘मैं ने उन्हें आप का बड़ा भाई ही कहा है. बिग ब्रदर, मतलब बड़ा भाई,’’ मेरी 18 वर्षीय बेटी मु झे ऐसे सम झाने लगी जैसे मैं ने अंगरेजी की वर्णमाला तक नहीं पड़ी हुई है.

‘‘क्या बात है? जब देखो आप बच्चों से उल झ पड़ते हो,’’ मेरी पत्नी मीना कमरे में घुसते हुए बोली.

‘‘ममा, देखो मैं ने पापा के बड़े भाई को बिग ब्रदर कह दिया तो पापा मु झे लैक्चर देने लगे कि तुम्हें कोई तमीज नहीं, तुम्हें उन्हें तावजी पुकारना चाहिए.’’

‘‘तावजी नहीं, ताऊजी,’’ मैं कनक पर फिर से चिल्लाया.

‘‘हांहां, जो कुछ भी कहते हों. तावजी या ताऊजी, लेकिन मतलब इस का यही है न कि आप के बिग ब्रदर.’’

‘‘पर तुम्हारे पापा के बिग ब्रदर… मतलब तुम्हारे ताऊजी का जिक्र कैसे आ गया?’’ मीना ने शब्दों को तुरंत बदलते हुए कनक से पूछा.

‘‘पता नहीं, ममा, उस चिट्ठी में ऐसा क्या लिखा है जिसे पढ़ने के बाद पापा के दिल में अपने बिग ब्रदर के लिए एकदम से इतने आदरभाव जाग गए, नहीं तो पापा पहले कभी उन का नाम तक नहीं लेते थे.’’

‘‘चिट्ठी…कहां है चिट्ठी?’’ मीना ने अचरज से पूछा.

मैं ने चिट्ठी चुपचाप जेब से निकाल कर मीना की ओर बढ़ा दी.

चिट्ठी पढ़ कर मीना एकदम से बोली, ‘‘आप के भाई साहब को अचानक अपने छोटे भाइयों पर इतना प्यार क्यों उमड़ने लगा? कहीं इस का कारण यह तो नहीं कि रिटायर होने की उम्र उन की करीब आ रही है तो रिश्तों की अहमियत उन्हें सम झ में आने लगी हो?’’

‘‘3 साल बाद भाई साहब रिटायर होंगे तो उस के 5 साल बाद मैं हो जाऊंगा. एक न एक दिन तो हर किसी को रिटायर होना है. हर किसी को बूढ़ा होना है. बस, अंतर इतना है कि किसी को थोड़ा आगे तो किसी को थोड़ा पीछे,’’ एक क्षण रुक कर मैं बोला, ‘‘मीना, कभी तो कुछ अच्छा सोच लिया करो. हर समय हर बात में किसी का स्वार्थ, फरेब मत खोजा करो.’’

मीना ने ऐलान कर दिया कि वह दीवाली मनाने देहरादून भाईर् साहब के घर नहीं जाएगी. न जाने के लिए वह कभी कुछ दलीलें देती तो कभी कुछ, ‘‘आप की अपनी कुछ इज्जत नहीं. आप के भाई ने पत्र में एक लाइन लिख कर आप को बुलाया और आप चलने के लिए तैयार हो गए एकदम से देहरादून एक्सप्रैस में, जैसे कि 24 साल के नौजवान हों. अगले साल 50 के हो जाएंगे आप.’’

‘‘मीना, पहली बात तो यह कि अगर एक भाई अपने दूसरे भाई को अपने आंगन में दीवाली के दीये जलाने के लिए बुलाए तो इस में आत्मसम्मान की बात कहां से आ जाती है? दूसरी बात यह कि यदि इतना अहंकार रख कर हम जीने लग जाएं तो जीना बहुत मुश्किल हो जाएगा.’’

‘‘मुझे दीवाली के दिन अपने घर को अंधेरे में रख कर आप के भाई साहब का घर रोशन नहीं करना. लोग कहते हैं कि दीवाली अपने ही में मनानी चाहिए,’’ मीना  झट से दूसरी तरफ की दलीलें देने लग जाती.

‘‘मीना, जिस तरीके से हम दीवाली मनाते हैं उसे दीवाली मनाना नहीं कहते. सब में हम अपने इन रीतिरिवाजों के मामले में इतने संकीर्ण होते जा रहे हैं कि दीवाली जैसे जगमगाते, हर्षोल्लास के त्योहार को भी एकदम बो िझल बना दिया है. न पहले की तरह घरों में पकवानों की तैयारियां होती हैं, न घर की साजसज्जा और न ही नातेरिश्तेदारों से कोई मेलमिलाप. दीवाली से एक दिन पहले तुम थके स्वर में कहती हो, ‘कल दीवाली है, जाओ, मिठाई ले आओ.’ मैं यंत्रवत हलवाई की दुकान से आधा किलो मिठाई ले आता हूं. दीवाली के रोज हम घर के बाहर बिजली के कुछ बल्ब लटका देते हैं. बच्चे हैं कि दीवाली के दिन भी टेलीविजन व इंटरनैट के आगे से हटना पसंद नहीं करते हैं.’’

थोड़ी देर रुक कर मैं ने मीना से कहा, ‘‘वैसे तो कभी हम भाइयों को एकसाथ रहने का मौका मिलता नहीं, त्योहार के बहाने ही सही, हम कुछ दिन एक साथ एक छत के नीचे तो रहेंगे.’’ मेरा स्वर एकदम से आग्रहपूर्ण हो गया, ‘‘मीना, इस बार भाई साहब के पास चलो दीवाली मनाने. देखना, सब इकट्ठे होंगे तो दीवाली का आनंद चौगुना हो जाएगा.’’

मीना भाई साहब के यहां दीवाली मनाने के लिए तैयार हो गई. मैं, मीना, कनक व कुशाग्र धनतेरस वाले दिन देहरादून भाईर् साहब के बंगले पर पहुंच गए. हम सुबह पहुंचे. शाम को गोपाल पहुंच गया अपने परिवार के साथ.

मुझे व गोपाल को अपनेअपने परिवारों सहित देख भाई साहब गद्गद हो गए. गर्वित होते हुए पत्नी से बोले, ‘‘देखो, मेरे दोनों भाई आ गए. तुम मुंह बनाते हुए कहती थीं न कि मैं इन्हें बेकार ही आमंत्रित कर रहा हूं, ये नहीं आएंगे.’’

‘‘तो क्या गलत कहती थी. इस से पहले क्या कभी आए हमारे पास कोई उत्सव, त्योहार मनाने,’’ भाभीजी तुनक कर बोलीं.

‘‘भाभीजी, आप ने इस से पहले कभी बुलाया ही नहीं,’’ गोपाल ने  झट से कहा. सब खिलखिला पड़े.

25 साल के बाद तीनों भाई अपने परिवार सहित एक छत के नीचे दीवाली मनाने इकट्ठे हुए थे. एक सुखद अनुभूति थी. सिर्फ हंसीठिठोली थी. वातावरण में कहकहों व ठहाकों की गूंज थी. भाभीजी, मीना व गोपाल की पत्नी के बीच बातों का वह लंबा सिलसिला शुरू हो गया था, जिस में विराम का कोई भी चिह्न नहीं था. बच्चों के उम्र के अनुरूप अपने अलग गुट बन गए थे. कुशाग्र अपनी पौकेट डायरी में सभी बच्चों से पूछपूछ कर उन के नाम, पते, टैलीफोन नंबर व उन की जन्मतिथि लिख रहा था.

सब से अधिक हैरत मु झे कनक को देख कर हो रही थी. जिस कनक को मु झे मुंबई में अपने पापा के बड़े भाई को इज्जत देने की सीख देनी पड़ रही थी, वह यहां भाई साहब को एक मिनट भी नहीं छोड़ रही थी. उन की पूरी सेवाटहल कर रही थी. कभी वह भाईर् साहब को चाय बना कर पिला रही थी तो कभी उन्हें फल काट कर खिला रही थी. कभी वह भाई साहब की बांह थाम कर खड़ी हो जाती तो कभी उन के कंधों से  झूल जाया करती. भाई साहब मु झ से बोले, ‘‘श्याम, कनक को तो तू मेरे पास ही छोड़ दे. लड़कियां बड़ी स्नेही होती हैं.’’

भाई साहब के इस कथन से मु झे पहली बार ध्यान आया कि भाई साहब की कोई लड़की नहीं है. केवल 2 लड़के ही हैं. मैं खामोश रहा, लेकिन भीतर ही भीतर मैं स्वयं से बोलने लगा, ‘यदि हमारे बच्चे अपने रिश्तों को नहीं पहचानते तो इस में उन से अधिक हम बड़ों का दोष है. कनक वास्तव में नहीं जानती थी कि पापा के बिग ब्रदर को ताऊजी कहा जाता है. जानती भी कैसे, इस से पहले सिर्फ 1-2 बार दूर से उस ने अपने ताऊजी को देखा भर ही था. ताऊजी के स्नेह का हाथ कभी उस के सिर पर नहीं पड़ा था. ये रिश्ते बताए नहीं जाते हैं, एहसास करवाए जाते हैं.’’

दीवाली की संध्या आ गई. भाभीजी, मीना व गोपाल की पत्नी ने विशेष पकवान व विविध व्यंजन बनाए. मैं ने, भाई साहब व गोपाल के घर को सजाने की जिम्मेदारी ली. हम ने छत की मुंडेरों, आंगन की दीवारों, कमरों की सीढि़यों व चौखटों को चिरागों से सजा दिया. बच्चे किस्मकिस्म के पटाखे फोड़ने लगे. फुल झड़ी, अनार, चक्कर घिन्नियों की चिनगारियां उधरउधर तेजी से बिखरने लगीं. बिखरती चिनगारियों से अपने नंगे पैरों को बचाते हुए भाभीजी मिठाई का थाल पकड़े मेरे पास आईं और एक पेड़ा मेरे मुंह में डाल दिया. इस दृश्य को देख भाई साहब व गोपाल मुसकरा पड़े. मीना व गोपाल की पत्नी ताली पीटने लगीं, बच्चे खुश हो कर तरहतरह की आवाजें निकालने लगे.

कुशाग्र मीना से कहने लगा, ‘‘मम्मी, मुंबई में हम अकेले दीवाली मनाते थे तो हमें इस का पता नहीं चलता था. यहां आ कर पता चला कि इस में तो बहुत मजा है.’’

‘‘मजा आ रहा है न दीवाली मनाने में. अगले साल सब हमारे घर मुंबई आएंगे दीवाली मनाने,’’ मीना ने चहकते हुए कहा.

‘‘और उस के अगले साल बेंगलुरु, हमारे यहां,’’ गोपाल की पत्नी तुरंत बोली.

‘‘हां, श्याम और गोपाल, अब से हम बारीबारी से हर एक के घर दीवाली साथ मनाएंगे. तुम्हें याद है, मां ने भी हमें यही प्रतिज्ञा करवाई थी,’’ भाई साहब हमारे करीब आ कर हम दोनों के कंधों पर हाथ रख कर बोले.

हम दोनों ने सहमति में अपनी गर्दन हिलाई. इतने में मेरी नजर छत की ओर जाती सीढि़यों पर बैठी भाभीजी पर पड़ी, जो मिठाइयों से भरा थाल हाथ में थामे मंत्रमुग्ध हम सभी को देख रही थीं. सहसा मु झे भाभीजी की आकृति में मां की छवि नजर आने लगी, जो हम से कह रही थी, ‘तुम एक डाली के 3 फूल हो.’

तीज स्पेशल: 12 साल छोटी पत्नी- भाग 3-सोच में फर्क

वह हंस पड़ी, “खबर मिल गई आप को?”

“हां, स्पेशल इनविटेशन है. मालती और आंटी तो स्वागत की तैयारियों में जुटी होंगी?”

“हां, भाभी को सब से पहले पार्लर जाना याद आया.”

“सच…?”

“हां भाभी, मुझे तो लगता है कि वे यहां भाभी से मिलने ही आते हैं,” कह कर नीरा जोर से हंसी, तो मैं ने झूठ ही डांटा, “खबरदार, अपनी भाभी का मजाक नहीं बनाते.”

“आप से ही कह सकती हूं, वे तो भाभी से फोन पर भी टच में रहते हैं, उन का कहीं शिविर होने वाला है, भाभी वहां जा कर रहने की सोच रही हैं, आजकल भाभी सचमुच बहुत एक्साइटेड घूम रही हैं.”

“नीरा, यह बहुत चिंता की बात है. कुछ तो करना चाहिए.”

“हमारे यहां कुछ नहीं हो सकता, भाभी. सब की आंखों पर पट्टी बंधी है, उन के आने के टाइम पर मैं तो अपने फ्रैंड के घर चली जाऊंगी, मैं ने सोच लिया है, मैं तो मेंटली इन ड्रामों से थक चुकी हूं. अच्छाभला नाम है, नीलेश. दुनिया को पत्थर की दुनिया कहते हैं, तो पत्थर वाले बाबा हो गए. आशीर्वाद देने के बहाने जिस तरह से छूते हैं न, घिन आने लगती है. पर अपने घर वालों का क्या करूं?”

“मेरे पास एक आइडिया है, साथ दोगी? फिलहाल तो मालती के सिर से इन का भूत उतारना बहुत जरूरी है, नहीं तो शिविर में जा कर बैठ जाएगी. और आंटी झींकती भी रहेंगी और कुछ कह भी न पाएंगी.”

“बोलो भाभी, क्या करना है?”

मैं ने और नीरा ने बहुत देर तक काफी बातें की, अच्छाखासा प्रोग्राम बनाया और फोन रख दिया.

सुधीर के घर जाने वाले दिन जब मैं बिना कोई तमाशा किए आराम से तैयार होने लगी, तो जयराज को बड़ी हैरानी हुई, बोल ही पड़े, “क्या हुआ? बड़ी शांति से जाने के लिए तैयार हो रही हो?”

यह सुनते ही मुझे हंसी आ गई, तो वे और चौंके, ध्यान से मुझे देखा, उन की आंखों में तारीफ के भाव देख मैं हंस पड़ी, “हां, हां, जानती हूं कि अच्छी लग रही हूं.”

“तुम तो ऐसे तैयार हो गई हो, जैसे किटी पार्टी में जा रही हो.”

“नीलेश ने बुलाया है, सजना तो पड़ेगा ही,” मुझे शरारत सूझी, तो वे बुरा मान गए, “कैसी बकवास करती हो?”

“32-35 साल में बाबा बन गया तो अरमान तो खत्म नहीं हो गए होंगे न? वरना मुझे विशेष रूप से बुलाने का क्या मतलब था? पुरुष भक्त काफी नहीं हैं?”

“जिस ने घरसंसार न बसाया हो, उस के लिए ऐसी बातें करनी चाहिए? कितना त्यागपूर्ण जीवन जीते हैं. सबकुछ तो त्याग रखा है. तुम जैसी महिलाओं के कारण धर्म खतरे में है,” जयराज ने जब यह ताना कसा, मुझे बहुत तेज गुस्सा आया. मैं ने अपने मन में और पक्का ठान लिया कि मिस्टर नीलेश का तो भांडा फोड़ कर के रहूंगी. मैं चुप रही. मालती के घर पहुंचे, ऐसे दृश्य तो अब मेरे लिए आम रह ही नहीं गए हैं, पूरी तरह बाबाओं के प्रति अंधश्रद्धा में डूबे पति के कारण मैं ये अनुभव काफी झेल चुकी हूं. मालती जिस तरह से तैयार थी और जिस तरह से उस की नजर इस फर्जी बाबा को निहार रही थी, मुझे समझने के लिए कुछ शेष न रहा था.

किचन में मेरी और नीरा की कुछ जरूरी बातें हुईं. मैं नीलेश को प्रणाम करने उस के पास गई, उस पर अपना जाल फेंका, उसे तो फंसना ही था, नीरा दूर खड़ी मेरा और नीलेश का वीडियो बना रही थी, जो हम बाद में मालती को दिखाने वाले थे. पुरुष बस 3-4 ही थे, जो एक कोने में बैठे थे.

सजीसंवरी महिलाओं पर नीलेश की नजरें यहां से वहां घूम रही थीं, आशीर्वाद देने के बहाने उस ने मुझे कई बार छुआ, मन हुआ कि एक जोर का थप्पड़ मार कर सारी मस्ती भुला दूं, पर इस से क्या होता. लोग मुझे बुराभला कहते और फिर यह मजमा कहीं और लगता.

अभी मेरा एक ही उद्देश्य था कि मालती के सिर से नीलेश का भूत उतरे. वह मेरी अच्छी दोस्त थी, पर इस समय इस कपटी के हाथों कोई नुकसान न उठा ले, बस यही चिंता थी मुझे. वैसे वीडियो बन गए थे, जैसे मुझे चाहिए थे. जब सब हो गया, नीलेश और उस के साथी चले गए, हमें खाने के लिए रोक लिया गया था. सब से फ्री हो कर मैं, नीरा और मालती थोड़ी देर साथ आ कर बैठे, फिर नीरा ‘चाय बना कर लाती हूं,’ कह कर बाहर चली गई. मैं ने बात छेड़ी, “कहो, कैसा रहा बाबा का दर्शन?”

वह यों शरमा गई, तो मेरा दिमाग घूम गया, “क्यों भाई, तुम्हारा चेहरा क्यों शर्म से लाल हो रहा है?”

“मुझे नीलेश के प्रवचन अच्छे लगते हैं, मैं कुछ दिन उन के शिविर में जा कर रहने वाली हूं.”

“बच्चों की पढ़ाई का क्या होगा? तुम्हारा घर कौन देखेगा?”

“सब ईश्वर की मरजी से ही तो होता है.”

“ईश्वर क्या तुम्हारे बच्चों का होमवर्क करवाएंगे?”

“जयराज भाई जैसी भक्ति क्यों नहीं रखती तुम?” उस ने चिढ़ कर कहा. मैं ने तो आज ठान ही लिया था, ”इसलिए, क्योंकि ये बाबा उन की कमर नहीं सहलाते, बहाने से बारबार उन्हें नहीं छूते. हम महिलाओं को जो इन महापुरुषों के स्पर्श से घिन आती है, उस का जयराज जैसों को कहां अंदाजा होता है? क्यों इन पर मोहित हुई चली जा रही हो? ये वीडियो देखोगी? आज का ही है. ये देखो, कितनी बार मेरे करीब आने की कोशिश की है आज इस लंपट ने. देखो,” कहते हुए मैं ने उसे वीडियो दिखाए, जहां वह नीलेश मुझ पर लट्टू होहो कर पास आए जा रहा था.

यह वीडियो देख मालती का मुंह लटक गया. मैं ने कहा, “दोस्त हो मेरी. तुम्हें मूर्खता करते हुए नहीं देख सकती. और जयराज पति हैं, इन सब बातों पर रोज तो उन से नहीं लड़ सकती न. फिर भी कोशिश तो कर ही रही हूं, आज जा कर ये वीडियो उन्हें भी दिखाऊंगी. तुम जैसे भक्तों को सुधारने में जितनी मेहनत करनी पड़े करूंगी.”

इतने में नीरा चाय ले कर आ गई. मैं ने उसे इशारे से बता दिया कि काम हो गया है. थोड़ी देर हलकीफुलकी बातें कर के हम वहां से चलने के लिए निकले.

जयराज ने विदा लेते हुए मालती से कहा, “भाभी, अच्छा आयोजन था. ऐसे ही फिर किसी प्रोग्राम में जल्दी मिलते हैं.”

मालती ने बेदिली से कहा, “नहीं, भाईसाहब. किसी और दिन ऐसे ही मिल लेंगे, मिलने के लिए ऐसे ही आयोजन रह गए हैं क्या?”

मालती के इस जवाब पर जयराज ने मुझे घूर कर देखा. मैं जोर से हंस पड़ी, कहा, “और क्या, आ जाओ हमारे घर वीकेंड पर. साथ डिनर करते हैं. सेलिब्रेट करते हैं,” सब के मुंह से एकसाथ निकला, “क्या सेलिब्रेट करना है?”

नीरा और मैं बस खुल कर हंस दिए, कहा कुछ नहीं. मालती भी समझ गई थी और फिर वह भी हंस पड़ी.

शाह फैमिली को धमकी देगी डिंपल, अनुपमा निकालेगी हेकड़ी

रुपाली गांगुली और गौरव खन्ना स्टारर ‘अनुपमा’ के अपकमिंग एपिसोड में होगा हाई वोल्टेज ड्रामा. शो के मेकर्स सीरियल को नंबर वन बनाने के लिए जद्दोजहद कर रहे है. टीवी सीरियल ‘अनुपमा’ में आए दिन नए-नए ट्विस्ट देखने को मिलते है. ‘अनुपमा’ के ट्विस्ट ने दर्शकों का दिमाग हिला रखा है. टीवी सीरियल ‘अनुपमा’ में अपकमिंग एपिसोड में काफी धमाकेदार होने वाला है.

डिंपल को पड़ा जोरदार चांटा

रुपाली गांगुली और गौरव खन्ना स्टारर ‘अनुपमा’ के अपकमिंग एपिसोड देखने को मिलेगा कि कपाड़िया हाउस में अनुज अपने भाई अंकुश पर भड़कता है क्योंकि वह रॉमिल को सिर पर चढ़ा रहा है. इस दौरान अनुज सबको बोलता है कि उसे पता है कि घर और बिजनेस में क्या हो रहा है और जल्द ही मीटिंग के लिए तैयार हो जाए

वहीं दूसरी तरफ शाह हाउस में ड्रामा होगा. डिंपल परिवार वालों के खिलाफ हद से ज्यादा बदतमीजी करेगी, जिस वजह से अनुपमा उसको जोरदार चांटा जड़ देती है. समर अपनी मां से सवाल पूछने की हिम्मत करता है, लेकिन अनुपमा उसे पूरे 101 थप्पड़ मारने की धमकी देकर चुप करवा देती है.

 

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डिंपल से सवाल करेगी अनुपमा

टीवी सीरियल ‘अनुपमा’ में आगे देखने को मिलेगा कि अनुपमा डिंपल को जवाब देते हुए कहती है, ‘तुझे मुझसे बात करनी है तो सिर्फ मुझतक रहे. मेरे पति और मां-पिता पर गई, तो ऐसे ही जवाब मिलेगा.’

इसके बाद अनुपमा डिंपल से कहेगी कि मुझे जरा भी शौक नहीं है किसी और की गृहस्थी में टांग घुसाने की. तुम लोग अच्छी तरह घर क्यों नहीं संभालते हो. मैं तुम लोगों के भरोसे तो अपने बा-बाबूजी को नहीं छोड़ सकती. इस घर में सबने तुझे अपनाने की कोशिश की. तूने इस घर के लिए क्या किया है. ‘ अनुपमा समर और डिंपल को ताना मारते हुए कहते हैं कि तुम लोगों को साइकिल चलाने तक आती नहीं है और हवाई जहाज चलाना है.

 

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वहीं शो में आगे देखने को मिलेगा कि डिंपल अपना हिस्सा मांगती है. जब तक हमें अपना हिस्सा नहीं मिलेगा. तब तक हम तो यहां से नहीं जाएंगे.’ यह सब सुनकर सब लोग डिंपल की तरफ देखने लगते है. इसके बाद डिंपल कहती है- अगर हमें अपना हिस्सा नहीं मिलेगा तो अदालत हमें अपना हक दिला देगी. इसके बाद अनुपमा घर का बंटवारा करती है और उन्हें घर में हर एक सामान के पैसे देने के लिए कह देती है.

व्हीट ग्रास जूस के अद्भूत फायदे, जूस से करें दिन की शुरूआत, रहेंगे तरोताजा

स्वस्थ रहने के लिए हम सभी क्या-क्या नहीं करते. हम सभी चाहते है हमारा शरीर फिट और स्वस्थ रहे है। हैल्थी रहने के लिए पोषक तत्वों का होना बेहद जरूरी है.

व्हीट ग्रास जूस में सबसे ज्यादा पोषक तत्व मौजूद होते है, इसके साथ ही आप हाइड्रेटेड रहना चाहते है तो व्हीट ग्रास जूस का सेवन जरूर करें. गर्मियों के सीजन में बॉडी को हाइड्रेटेड रखना बहुत जरूरी है. व्हीट ग्रास में कई सारे पोषक तत्व पाए जाते हैं. इसमें कई विटामिन, आवश्यक अमीनो एसिड और आयरन, जिंक और मैग्नीशियम जैसे अन्य खनिज भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं.

व्हीट ग्रास जूस का सेवन करने से प्रतिरक्षा और प्रजनन क्षमता में सुधार, वजन घटाने में सहायक, कोलेस्ट्रॉल के स्तर को कम करने समेत कई अन्य लाभ प्रदान करता है.

व्हीट ग्रास जूस के अद्भूत फायदे

  1. रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है

व्हीट ग्रास जूस एक फायदेमंद इम्युनिटी बूस्टर है और बिमारियो-रोगों को दूर करता है. इसमें पाए जाते है महत्वपूर्ण एंजाइमों और अमीनो एसिड से भरपूर है. जो आपके बॉडी के हानिकारक प्रदूषकों और कार्सिनोजेन्स के दुषप्रभावों बचाता है.

2. वजन घटाने में सहायक

व्हीट ग्रास जूस में सेलेनियम नामक खनिज होता है, जो थायरॉयड ग्लैंड के कमकाज को बेहतर बनाने में मदद करता है. व्हीट ग्रास वजन बनाए रखने में भी मदद करता है. इसके साथ ही व्हीट ग्रास में पाए जाने पोषक तत्व आपके फूड क्रेविंग और ओवरईटिंग से दूर रखता है. वजन कम करने के लिए आपको रोजना खाली पेट एक गिलास जूस पीना चाहिए.

3. पाचन में सहायक

व्हीट ग्रास जूस में अधिक मात्रा में एंजाइम और फाइवर के कारण आपके पाचन तंत्र को बेहतर बनाने में मदद करता है. यह सूजन, गैस और कब्ज जैसी समस्याओं को रोकने में मदद करता है.

4. बॉडी को डिटॉक्स करता है

गलत खान-पान की आदत और गलत जीवनशैली की वजह से लोग अस्वस्थ रहते है. व्हीट ग्रास में क्लोरोफिल होता है जो शरीर में रक्त और लीवर को डिटॉक्स करने मदद करता है और सेल्स को मजबूत करता है. व्हीट ग्रास जूस पीने से रक्त कोशिका की संख्या बढ़ती है और ब्लड के स्तर में भी वृद्धि होती है.

BB OTT 2: ट्विटर पर ट्रेंड हुए एल्विश, अभिषेक के फैंस को लगा झटका

सलमान खान का कॉन्ट्रोवर्शियल रियलिटी शो बिग बॉस ओटीटी 2 को दर्शकों से खूब प्यार मिल रहा है. बिग बॉस ओटीटी 2 फिनाले के पड़ाव पर पहुंच गया है. बिग बॉस ओटीटी 2 टॉप 5 कंटेस्टेंट्स मिल गए है. फाइनल में मनीषा रानी, एल्विश यादव, पूजा भट्ट, अभिषेक मल्हान और बेबिका धुर्वे पहुंच गए हैं.

बिग बॉस ओटीटी 2 में एल्विश यादव ने बतौर वाइल्ड कार्ड कंटेस्टेंट एंट्री ली थी और तभी से एल्विश का नाम ट्विटर पर छाया हुआ है. वहीं, एल्विश के फैंस ने उनको अपना विनर मान लिया है. दरअसल, बिग बॉस ओटीटी 2 के ग्रैंड फिनाले से सिर्फ दो दिन रह गए है. ऐसे में एल्विश के फैंस ने ट्विटर पर #ElvishForTheWin और #VoteForElvish ट्रेंड करवाया है.

ट्विटर पर एल्विश यादव छाए हुए है

बिग बॉस ओटीटी 2 में एल्विश यादव ने बतौर वाइल्ड कार्ड कंटेस्टेंट आए है. वहीं अभिषेक मल्हान शुरुआत से ही घर में स्टॉग कंटेस्टेंट साबित हुए है. दोनों कंटेस्टेंट्स की सोशल मीडियो पर तगड़ी फैन फॉलोइंग है. इस बीच एल्विश यादव के फैंस ट्विटर पर गदर मचा दी है. एल्विश के फैंस उनको विनर बनाने के लिए पूरा जोर लगा रहे है. ट्विटर पर छाया #ElvishForTheWin और #VoteForElvish ट्रेंड. लाखों संख्या में ट्वीट किए जा रहे है. इसके साथ ही कुछ लोग फैंस से एल्विश के लिए ज्यादा से ज्यादा वोट करने की अपील कर रहे हैं. एक यूजर ने लिखा, ‘एल्विश का दिल बहुत बड़ा है… लेकिन फुकरा आत्म-मुग्ध, असुरक्षित और अहंकारी व्यक्ति है… एल्विश सच्चा विजेता है.’ इसी तरह के और भी ट्वीट आ रहे हैं.

टॉप 5 कंटेस्टेंट्स

वहीं बिग बॉस ओटीटी 2 के टॉप 5 में एल्विश यादव, अभिषेक मल्हान, मनीषा रानी, पूजा भट्ट और बेबिका धुर्वे ने अपनी जगह बनाई है. फैंस मनीषा रानी को टॉप 3 में देख रहे हैं. वहीं यह दावा किया जा रहा है कि बिग बॉस ओटीटी 2 में टॉप 3 की रेस में पूजा भट्ट और बेबिका धुर्वे पीछे रह जाएंगी. एल्विश यादव, अभिषेक मल्हान और मनीषा रानी आगे जाएंगे. इन तीनों में से ही कोई एक विनर हो सकता है.

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