जब दुलहन हो पैसे वाली

राहुल एक मध्यवर्गीय परिवार का होनहार युवक था. वह अपने जैसी मेहनती और पढ़ीलिखी लड़की से शादी करना चाहता था. मेरठ के अमीर परिवार से उस के लिए रिश्ता आ गया. शैली दिखने में खूबसूरत पर अल्हड़ थी. राहुल ने अपनी मम्मी और भैया को समझना भी चाहा परंतु किसी ने उस की ओर ध्यान नहीं दिया था. बहुत धूमधाम से विवाह हुआ और फिर शैली को ले कर राहुल बैंगलौर चला गया.

जल्द ही शैली के तौरतरीकों से राहुल परेशान हो उठा. जब भी राहुल शैली के परिवार से बात करता तो उन्हें उस की परेशानी समझ ही नहीं आती. जिसे राहुल फुजूलखर्ची मानता था वह शैली के घर वालों के हिसाब से सामान्य  खर्च था.

सुशील की जब अनुराधा से शादी हुई तो शुरू में सुशील ससुराल की चमकदमक देख कर बहुत खुश था पर जल्द ही वह ससुराल वालों के अनावश्यक हस्तक्षेप से तंग आ गया. उन के हनीमून प्लैन से ले कर उन के बच्चे की डिलिवरी तक सबकुछ वही लोग तय करते थे. अनुराधा खुद अपने ससुराल वालों को दोयम दर्जे का मानती है.

सुशील अपने घर वालों और ससुराल वालों के बीच पिस रहा है और बहुत सारी बीमारियों ने उस के शरीर में घर बना लिया है.

मृणाल का नयना से पे्रम विवाह हुआ था. शुरू के 2 वर्ष तक तो प्रेम के सहारे नयना की जिंदगी चलती रही पर फिर जल्द ही वह प्रेम से ऊब गई. हकीकत से सामना होते ही नयना और मृणाल को समझ आ गया कि उन की सोच में जमीनआसमान का फर्क है. अब नयना के घर वालों ने ही मृणाल को अपने व्यापार में लगा लिया है. विवाह के 10 वर्ष के बाद भी मृणाल की हैसियत अपनी ससुराल में दामाद की कम, एक कर्मचारी की ज्यादा है.

इन सभी उदाहरणों से एक बात तो साफ है कि विवाह के बाद लड़कियों को ही नहीं लड़कों को भी अपनी ससुराल में तालमेल बैठाने में बहुत दिक्कतें आती हैं और वे तब और अधिक हो जाती हैं जब लड़के की ससुराल बहुत अमीर हो.

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तालमेल बैठाने में आती है दिक्कत: विवाह की गाड़ी आपसी तालमेल से ही सरपट दौड़ती है मगर अगर पत्नी बहुत अमीर परिवार से है तो तालमेल बैठाने में बहुत ज्यादा समय लगता है. जो अमीर परिवार की लड़की को जरूरत लगती है वह हो सकता है एक मध्यवर्गीय परिवार के लड़के को फुजूलखर्ची लगती हो. अगर आप की पत्नी बहुत अमीर परिवार से है तो यह जान लें कि उस की आदतें एक दिन में नहीं बदल जाएंगी. कुछ आप को समझना होगा और कुछ उसे.

अनावश्यक हस्तक्षेप से बचें:

जब दोनों परिवारों में आर्थिक भिन्नता होती है तो यह देखने में आता है कि दोनों ही परिवार अपनेअपने ढंग से अपना वर्चस्व बनाने के लिए अनावश्यक हस्तक्षेप करते हैं. यह जिंदगी आप दोनों को गुजारनी है. आप के परिवारों को नहीं, इसलिए किस की बात सुननी है किस की नहीं यह आप स्वयं तय कर सकते हैं. हर किसी की बात पर अमल करने की कोशिश करेंगे तो आप लोगों के बीच में मनमुटाव ही रहेगा.

निर्धारित करें सीमारेखा:

हर मातापिता अपनी बेटी को बहुत खुश देखना चाहते हैं. इस कारण कभीकभी वे अपनी बेटी को ऐसे तोहफे दे देते हैं, जो उन के दामाद के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचा सकते हैं. अगर आप अपनी ससुराल से ऐसे तोहफे स्वीकार नहीं करना चाहते हैं तो साफ मगर विनम्र शब्दों में मना कर दीजिए. हो सकता है पहली बार आप की पत्नी और उस के परिवार को बुरा लगे परंतु रिश्तों को निभाने के लिए एक सीमारेखा निर्धारित करना आवश्यक है.

हीनभावना को रखें दूर:

अगर आप की पत्नी बहुत अमीर परिवार से है और फिर भी उस के परिवार ने उसे आप के लिए चुना है, तो इस बात का साफ मतलब है कि आप के अंदर कुछ ऐसे गुण और हुनर होंगे जो उन्हें दूसरे लड़कों में नजर नहीं आए होंगे. आप की जितनी आमदनी है, उसी के अनुरूप अपनी जिंदगी के सफर की शुरुआत कीजिए. बहुत बार देखने में आता है कि हीनभावना से ग्रस्त हो कर लड़के अधिक खर्चा कर देते हैं, जो बाद में उन्हीं की जेब पर भारी पड़ता है.

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तोहफों से न आंकें रिश्तों की कीमत:

ससुराल अमीर हो तो बहुत बार लड़के अनावश्यक दबाव के चलते महंगेमहंगे तोहफे देते हैं, जो उन की जेब पर भारी पड़ता है. रिश्तों को मधुर बनाने के लिए तोहफों की नहीं, अच्छे तालमेल की आवश्यकता होती है.

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तापसी की शादी संयुक्त परिवार में हुई थी. शुरूशुरू में तो सबकुछ ठीक रहा पर बाद में तापसी को घुटन महसूस होने लगी. हर बार कहीं जाने से पहले पुनीत का अपने मातापिता से पूछना, कोई भी कार्य उन से पूछे बिना न करना, इन सब बातों से तापसी के अंदर एक मौन आक्रामकता सी आ गई. पुनीत के यह कहने पर कि वह ये सब मम्मीपापा के सम्मान के लिए कर रहा है, तापसी के गले नहीं उतरता. वह एक मल्टीनैशनल कंपनी में मैनेजर के पद पर कार्यरत थी पर अपने सासससुर के कारण कभी किसी लेट नाइट पार्टी में शामिल नहीं होती थी.

कपड़े भी बस सूट या ज्यादा से ज्यादा जींसकुरती पहन लेती थी. अपने सहकर्मियों

को हर तरह की ड्रैस पहने और लेट नाइट पार्टी ऐंजौय करते देख कर उसे बहुत गुस्सा आता था. तापसी ने पुनीत से शादी की पहली वर्षगांठ में तोहफे के रूप में अपने लिए एक अलग घर मांग लिया.

उधर तापसी के पति के साथसाथ उस के सासससुर को भी सम झ नहीं आ रहा था कि आखिर तापसी ऐसा क्यों चाहती है. बहुत सम झाने के बाद भी जब कोई हल न निकला तो पुनीत ने अलग फ्लैट ले लिया. तापसी कुछ दिन बेहद खुश रही. उस ने फ्लैट को अपने तरीके से सजाया. ढेर सारी अपनी पसंद के कपड़ों की शौपिंग करी पर एक माह के भीतर ही घरदफ्तर संभालते हुए थक कर चूर हो गई. काम पहले भी नौकर ही करते थे पर सासससुर के घर पर रहने से सारे काम समय से और सही ढंग से होते थे. अब पूरा घर बेतरतीब रहता था.

तापसी ने गहराई से सोचा तो उसे यह भी सम झ आया कि उस ने कभी अपने सासससुर से लेट नाइट पार्टी, दोस्तों को घर बुलाने के लिए या अपनी पसंद के कपड़े पहनने के लिए पूछा ही नहीं था. उस के मन में सासससुर को ले कर एक धारणा थी जिस वजह से तापसी कभी उन के करीब नहीं जा पाईर् थी. अब चाह कर भी वह किस मुंह से उन के पास जाए.

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अगर आप इस उदाहरण पर गौर करें तो एक बात सम झ आएगी कि तापसी ने मन ही मन यह निश्चय कर लिया था कि उसे अपने सासससुर के मुताबिक जिंदगी जीनी पड़ेगी पर उस ने इस बाबत कभी किसी से बात नहीं करी. उधर पुनीत ने भी कभी तापसी के भीतर बसे डर को सम झने की कोशिश नहीं

करी. बस यह सोच कर आजकल की पत्नियां ऐसी ही होती हैं, वह अलग फ्लैट में शिफ्ट हो गया था.

उधर नितिन की जब से शादी हुई थी उस के मम्मीपापा की बस यही शिकायत रहती थी कि वह अपना सारा समय और ध्यान अपनी पत्नी चेतना को ही देता है, जबकि असलियत में ऐसा कुछ नहीं था. नितिन की कंपनी में

बहुत वर्क प्रैशर था. इस वजह से वह घर में कम समय दे पाता था, इसलिए जो समय वह पहले अपने मातापिता को देता था अब चेतना को देता था. उस के मम्मीपापा उसे सम झ नहीं पाएंगे, ऐसी उसे उम्मीद नहीं थी. उन के व्यवहार से आहत हो कर 2 माह के भीतर ही वह अलग हो गया.

अब नितिन के मम्मीपापा को एहसास हो रहा था कि नितिन और चेतना के साथ रहने से कितने ही छोटेछोटे काम जो चुटकियों में हो जाते थे अब पहाड़ जैसे लगने लगे हैं.

संयुक्त परिवार के फायदे भी हैं तो थोड़ेबहुत नुकसान भी हैं और यह बहुत नैचुरल भी है, क्योंकि जब चार बरतन एकसाथ रहेंगे तो खटकेंगे भी. मगर जहां बच्चे लड़ते झगड़ते भी अपने मातापिता के साथ मजे से जिंदगी गुजार लेते हैं वहीं उन्हीं बच्चों के विवाह के बाद रिश्तों का समीकरण बदल जाता है. जो बच्चे कभी जान से भी अधिक प्यारे थे वे अब अजनबी लगने लगते हैं.

साथ रहना क्यों नहीं मंजूर

आइए, पहले बात करते हैं उन कारणों की, जिन की वजह से शादी के बाद कोई भी युवती संयुक्त परिवार में नहीं रहना चाहती है फिर भले ही शादी से पहले वह खुद भी संयुक्त परिवार में रह रही थी.

1. पर्सनल स्पेस

यह आजकल के युवाओं के शब्दकोश में बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है. शादी के तुरंत बाद पतिपत्नी को अधिक से अधिक समय एकसाथ बिताना पसंद होता है, क्योंकि उस समय वे एकदूसरे को सम झ रहे होते हैं पर इस नाजुक और रोमानी वक्त पर बड़ों की अनावश्यक टोकाटाकी चाहे उन के फायदे के लिए ही क्यों न हो एक बंधन जैसी प्रतीत होती है.

2. रस्मों रिवाज का जाल

जब नईनवेली दुलहन को सास के साथ रहना होता है, तो उसे न चाहते हुए भी बहुत सारी रस्में जैसे नहा कर ही रसोई में जाना, पूर्णमासी का व्रत रखना, गुरुवार को बाल न धोना, ससुराल पक्ष में किसी के आने पर सिर को ढक कर रखना इत्यादि मानना पड़ता है, जिस के कारण उसे घुटन महसूस होने लगती है.

3. आर्थिक आजादी

संयुक्त परिवार में कभीकभी यह भी देखने को मिलता है कि बेटेबहू को पूरी तनख्वाह सासससुर के हाथ में देनी होती है और अगर तनख्वाह नहीं देनी होती है, तो घर की पूरी आर्थिक जिम्मेदारी बेटेबहू के कंधों पर डाल दी जाती है. ऐेसे में उन्हें अपने हिसाब से खर्च करने की बिलकुल मोहलत नहीं मिलती है.

4. घरेलू राजनीति

सासबहू की राजनीति केवल एकता कपूर के सीरियल तक ही सीमित नहीं होती है. यह वास्तव में भी संयुक्त परिवारों में पीढ़ी दर पीढ़ी चलती है. एकदूसरे के रिवाजों या रहनसहन के तरीकों पर छींटाकशी, खुद को दूसरे से बेहतर साबित करने की खींचतान के चक्कर में कभीकभी सास और बहू दोनों ही बहुत निचले स्तर तक चली जाती हैं.

5. कैसे बनेगी बात

बस जरूरत है बड़ों को थोड़ा और दिल बड़ा करने की और छोटों को अपने

स्वभाव में थोड़ी सहनशीलता लाने की. अगर दोनों ही पीढि़यां इन छोटेछोटे पर काम के सु झावों पर ध्यान दें तो आप का घर संवर सकता है:

6. खुल कर बातचीत करें

बेटे की शादी के बाद उस के वैवाहिक जीवन को ठीक से पनपने के लिए उन्हें प्राइवेसी अवश्य दें. अगर आप को अपनी परवरिश पर भरोसा है तो आप का बेटा आप का ही रहेगा. अगर आप लोग नए जोड़े को पर्सनल स्पेस या प्राइवेसी देंगे तो  वे भी अवश्य आप का सम्मान करेंगे. कोई  बात अच्छी न लगी हो तो मन में रखने के  बजाय बेटे और बहू को एकसाथ बैठा कर  सम झा दें पर उन की बात सम झने की भी  कोशिश करें और फिर एक सा झा रास्ता भी निकाल लें ताकि आप लोग बिना किसी शिकायत के उस रास्ते पर चल सकें.

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7. क्योंकि सास भी कभी बहू थी

अपने वैवाहिक जीवन की तुलना भूल कर भी अपने बेटेबहू के जीवन से न करें. आप के बेटे के जीवन में हर तरह का तनाव है. बारबार यह ताना न मारें कि वह ससुराल के रस्मोंरिवाजों को नहीं निबाह रही है. जमाना बदल गया है और जीवनशैली भी. आप के बच्चे तनावयुक्त जीवन जी रहे हैं. अगर बच्चे खुद आप के पास नहीं आते तो आप खुद उन के पास जा कर एक बार प्यार से उन के नए रिश्ते और काम के बारे में पूछ कर तो देखें, उन्हें आप की आप से ज्यादा जरूरत है.

8. साथी हाथ बढ़ाना

घर एक संगठित इकाई की तरह ही होता है. आप सिर्फ नौकरी से रिटायर हुए हैं, जीवन से नहीं. अगर आप के बच्चे घर की लोन की किस्त भरते हैं तो आप फलदूध या राशन का सामान ला सकते हैं. घर के कार्यों में यथासंभव योगदान करें. अपने पोतेपोती की देखभाल करने से आप नौकर नहीं बन जाएंगे. मगर उतनी ही जिम्मदारी लें जितनी लेने की आप की सेहत इजाजत दे.

9. खुले दिल से तारीफ करें

अगर आप को अपने बेटे या बहू की कोई बात बुरी लगती है तो उसे पास बैठा कर खुल कर बात करें. इसी तरह उन की अच्छी बातों की भी तारीफ कर अकसर यह देखने में आता है कि कमी निकालने में हम एक क्षण की भी देरी नहीं करते पर तारीफ हम दिल में ही रख लेते हैं. अत: खुले दिल से हर अच्छे कार्य की तारीफ करेंगे तो उन के साथसाथ आप का मन भी खिल उठेगा.

सोचिये ! कि आप अनमोल हैं

कुछ दिनों पहले अपनी कॉलेज की मित्र से अचानक मिलना हुआ. उसके हालचाल पूछती लेकिन उसके रहन-सहन और चेहरे के भाव पढ़ कर हाल-चाल स्वतः ही समझ आ गए.

फिर भी मन नहीं माना सो पूछ लिया “कैसी हो स्नेहलता” ?

उस ने बात काटते हुए कहा “तुम बताओ कैसी हो, मेरा तो क्या है यहीं मायका, यही ससुराल कुछ बदला नहीं. सुना है तुम्हारे पति नेवी में अफसर हैं, बड़ी मौज-मस्ती की ज़िन्दगी होती है इस फील्ड के लोगों की”

हम्म होती तो है पर तुम मुझ से कुछ छिपाने की कोशिश कर रही हो, मुझे ऐसा महसूस हो रहा है.  देखो मैं जैसी कल थी वैसी ही आज हूँ नेवी का अफसर मिला तो क्या मैं बदल जाऊंगी ?

वह अपने मन के उदगार खोल देना चाहती थी पर शायद डरती थी कि जग हंसाई न हो इसलिए टाल भी रही थी.  जैसे ही मैं ने अपने न बदलने की बात कही तो बोली आज व्यस्त हूँ कल पार्क में मिलते हैं और उसने मुझे अपना फोन नंबर दे दिया.

एक खूंटे से खोला दूसरे पर बाँधा 

अगले दिन हम पार्क में मिले तो थोड़ी देर औपचारिक बातें की. उसके बाद उसने जो बताया वह सुनकर मैं आश्चर्यचकित थी.  कहने लगी “क्या बताऊँ शादी के समय बताया  गया कि पति इंजीनियर हैं, कहने को तो हैं भी सही लेकिन विवाह के समय से ही कहीं टिक कर काम नहीं करते थे. सो हर एक- दो माह में बेरोजगार हो जाते. कुल मिला कर यह हुआ कि फिर इनके स्वभाव के कारण काम मिलना ही बंद हो गया.  अब इतने बरसों से बेरोजगार हैं. न तो कोई आमदनी ऊपर से सारा दिन घर बैठ कर हुकुम चलाना. मैं नौकरी करती हूँ तो कहते हैं पत्नी कमाए और पति घर में रहे तो पत्नी ही घर खर्च चलायेगी न. अब तू मेरे खर्चे उठा.

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बाहर का कोई काम कहूं तो पचास रुपये के काम के लिए  पांच सौ माँगते हैं. मैं जो कमा कर लाती हूँ उसे भी बाहर खा-पीकर उड़ा देते हैं.  कभी-कभी तो घर में इतना तमाशा कर देते हैं कि पड़ौसियों को भी खबर हो जाती है और झगड़ा छुड़ाने आना पड़ता है .

पर दुखों का अंत यहाँ नहीं होता. मैं नौकरी करती हूँ तो सास घर संभाल लेती थी. अचानक से हार्ट-अटैक से उनकी भी मृत्यु हो गयी. अब ससुर और पति को हाथों में देने वाला तो कोई रहा नहीं. तो ससुर मुझ से कुढ़े-चिढ़े से रहते हैं. घर में नन्द आ कर हुकूमत करती है सो अलग. ससुर ने घर में रखे गहनों और प्रॉपर्टी का बड़ा हिस्सा नन्द को दे भी दिया है और रिश्तेदारों में मेरी बुराई भी खूब करते हैं. सिर्फ इतना ही नहीं अब घर खर्च के लिए सारी जिम्मेदारी भी मेरी है और उस पर भी दिन-रात ताने और तिरस्कार ही मिलता है. बदकिस्मती की पराकाष्ठा यह है कि मेरी कोई  संतान भी नहीं पैदा हुई जिसके सहारे मैं बुढापा काट सकूं.  कुल मिला कर ज़िंदगी  नर्क हो गयी है.

जब तुम्हारा इस उम्र में भी निखरा चेहरा देखा तो अपने आप पर शर्म आयी और मैं ने तुम्हें  टालने की कोशिश की. क्या करूं मेरे माता-पिता ने जांच-परख कर मेरा विवाह नहीं किया. बस  बिना सोचे-समझे मुझे एक खूटे से खोला और दूसरे पर बाँध दिया.

मेरे पति कहने को इंजीनियर लेकिन असलियत में बिगड़ा-बेरोजगार. यदि कुछ कहूं तो मुझे व मेरे माता-पिता को गलियां देते हैं. यदि अपनी किसी मित्र या रिश्तेदार को अपनी कमाई से कुछ उपहार देना चाहूं तो झगड़ा करते हैं. बस मैं सब से लिए जाऊं वह उन्हें अच्छा लगता है. दरअसल मेरे पति के माता-पिता ने  उन्हें सर चढ़ा कर रखा . बचपन से उनकी हर जिद पूरी की क्यूंकि इकलौता बेटा है. अब मेरे पति तो कुछ करते नहीं सो ससुराल वाले   सारी उम्मीद मुझ ही से रखते हैं.  उनका बेटा तो किसी  योग्य है नहीं, बस मैं ही घर और बाहर दोनों सम्भालूँ.

सही बात तो यह है इसमें कहीं न कहीं मेरे माता-पिता की भी गलती है. क्यूंकि मध्यम वर्गीय परिवार से हूँ, बचपन से हमें घर में काम करवाया और बार-बार कहा जाता कि लड़कियों को घर का कम सीखना जरूरी है. मैं ने पढाई भी की लेकिन माँ ने कभी मौज-मस्ती करने की छूट नहीं दी. लड़कियों को ऐसे रहना चाहिए उन्हें ब्याह पूर्व श्रृंगार नहीं करना चाहिए, लोग क्या कहेंगे आदि. मेरी अपनी तो कोई पर्सनैलिटी ही नहीं रही.

वहां भी ज़रा सा कुछ करूँ तो मां झिड़कती थी और मुझे दे भी ऐसे परिवार में दिया कि यहाँ हर वक़्त ताने और तिरस्कार के सिवा कुछ नहीं मिलता.

पति का स्वयं के माता-पिता से ही सामंजस्य नहीं 

ऐसा ही एक केस मुझे अपनी एक पूर्व पड़ौसन का मालूम हुआ. गीता एक संयुक्त परिवार में रहती थी. उसका पति पढ़ा-लिखा एक मल्टी-नेशनल कंपनी में सोफ्टवेयर इंजीनियर था. लेकिन उसका परिवार  गरीबी से उठा हुआ बहुत ही दकियानूसी विचारधारा वाला था. उसका एक भाई, माँ, पिताजी और एक विवाहित बड़ी बहिन अपनी नयी बहु के साथ विवाह होते ही ऐसा व्यवहार करते थे जैसे जब मोहल्ले में नया कुत्ता आते ही पहले से रह रहे कुत्ते एकजुट होकर भोंकते लगते  हैं.  वह महिला सभ्य, सुशिक्षित, सुन्दर थी. लेकिन गरीब परिवार में ब्याह कर जैसे उसकी ज़िंदगी नर्क हो गयी थी.  ससुराल वाले निहायत ही बदतमीज़ किस्म के थे. उसके हर काम में कमी निकालना, उसके मायके से कुछ भी आये  उसे दुत्कार कर फेंक देना, बड़ी नन्द का हर वक़्त कुछ न कुछ लेने के लिए मुंह खुला ही रहता. इस पर भी पति-पत्नी को अलग करने की हर कोशिश की जाती. तमाम बंदिशें उस पडौसन पर थी. यहाँ तक कि जब सारा परिवार एक साथ बैठे तो वह अपने कमरे में ही अकेले  बैठी रहती. उसे घर के ड्राइंग रूम तक आने की भी अनुमति नहीं थी.

उसके पति अपने परिवार वालों को बहुत समझाते थे किन्तु उसके सामने तो सब ठीक रहते उसके ऑफिस जाते ही सब उसे बंदिश दे देते. उसे चार वर्ष में हमने घर से बाहर निकलते हुए नहीं देखा था.

काम वाली बाइयां बताया करती थी कि बहु को तंग करने में पढ़े-लिखे देवर समेत परिवार वाले  कोई कसर नहीं छोड़ते थे.

एक बार एक डॉक्टर के यहाँ  मेरी उस से मुलाक़ात हो गयी. वहां जब मैं ने उस से पूछा कि वह कभी किसी से मिलती-जुलती क्यूँ नहीं ? तब उसने इन सारी बंदिशों के बारे में बताया.  यहाँ तक कि उसके सास-ससुर अपने बेटे से कहते “तेरी शादी करके हमें क्या फ़ायदा हुआ, इस बहु को निकाल दे हम तेरी दूसरी शादी कर देंगे”

जब मैं ने उस से पूछा “तुम्हारे सास-ससुर का रहन-सहन तो देखने से ही ऐसा लगता है कि पहले किसी छोटी बस्ती में रहते रहे हो जबकि तुम्हारे परिवार का तो अच्छा लिविंग स्टैण्डर्ड है, फिर यह रिश्ता हो कैसे गया”

वह बहुत दुखी होकर बोली “सब किस्मत का खेल है, देखने में तो हमारे परिवार का लिविंग स्टैण्डर्ड अच्छा दिखाई देता है क्यूंकि मेरे माँ का परिवार सचमुच पैसे वाला और पढ़ा-लिखा है. लेकिन मेरे पापा इकलौते बेटे हैं और देखने में बहुत सुन्दर. मेरी माँ पांच बहनें हैं उसमें सबसे  बड़ी मेरी  माँ.  नानी को पांच बेटियाँ होने की फ़िक्र खाए जाती थी. इसलिए दसवीं  कक्षा में ही मेरी माँ का विवाह पिताजी को सुन्दर एवं इकलौता देख कर कर दिया. पापा के परिवार में न तो पहले की जमा-पूंजी थी और न ही पापा की बढ़िया नौकरी. पापा ने सदा ही बिजनेस करने की चाहत रखी लेकिन कामयाब न हुए.  पापा इकलौता बेटा होने के कारण जिद्दी स्वाभाव उस पर पापा का मेरी मां से उम्र में दस वर्ष बड़ा होना. ज़रा-ज़रा सी बात पर माँ पर हाथ उठाते, खूब गाली-गलौज करते. घर में तो जैसे हर दिन कोहराम ही मचा रहता. माँ, पापा से तो लड़ नहीं  पाती थी. उनका गुस्सा हम भाई-बहनों पर निकालतीं. मुझे खूब मारती और बंदिश में भी रखती. हाँ हमारा घर हमेशा साफ़-सुथरा रहता, कपड़े हमने हमेशा सुन्दर पहने क्यूंकि माँ गृहकार्य में दक्ष हैं, सो हाथ से बना कर अच्छे कपड़े हमें पहनाती.

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जब मेरे विवाह की बात चली पापा लड़का तो अच्छा देखना चाहते, लड़का मुझे पसंद भी कर लेता किन्तु जात-समाज में पापा के व्यवहार के कारण हमारी कोई इज्ज़त नहीं  ऊपर से दान-दहेज़ देने की क्षमता भी नहीं. फिर कोई अच्छा परिवार मुझे अपनी बहू कैसे बनाता ?

सो मेरे पापा ने बस पढ़ा-लिखा लड़का देख कर मेरा रिश्ता यहाँ कर दिया. पापा को मेरे पति के माता-पिता पसंद तो नहीं आये थे पर दूसरा कोई विकल्प भी हमारे सामने नहीं था.

किन्तु इनके परिवार में तो माँ-बाप  और बेटे का ही आपसी सामंजस्य नहीं था. बेटा तो पढ़ा-लिखा नए विचारों का, घर में सारी -सुख सुविधाएं रखना चाहता किन्तु माता-पिता की नज़र बेटे की तनख्वाह पर रहती और बहु को नौकरानी की तरह रखना चाहते.

इस चक्कर में संयुक्त परिवार में ज़िंदगी नर्क हो गयी.

असली बात तो यह है कि गरीब की लड़की न यहाँ सुखी न वहाँ.

मां की अनुपस्थिति में पिता ही मॉलेस्ट करे

एक महिला हमारे अपार्टमेंट में रहा करती थी. अक्सर शाम को जब हम अपने-अपने बच्चों को लेकर पार्क में जाते वह भी वहीं वॉक पर आया करती. न तो उसकी कोई सहेली होती और न ही वह किसी से कुछ ख़ास बात करती. मेरी उस से जिम में दोस्ती हो गयी. वह  बात-बात में यह कह देती “मैं तो किसी को दोस्त बनाना पसंद ही नहीं करती’ अपार्टमेंट में होने वाले किसी ईविंट में भी वह शामिल नहीं होती थी. मैं समझ गयी कि कहीं कुछ तो कमी है.

जिम में  वर्क आउट करते समय उस से बातचीत होती और हम सहेलियां बन गयीं. एक-एक कर जब उसने परतें खोली तो मैं सन्न रह गयी. उसके पिता की आय कुछ ख़ास नहीं थी सो मां ने विवाह उपरान्त पढाई की और नौकरी करने लगी. जब उसने आपबीती  बतायी तो आँखें भर आयी. बचपन से ही घर के काम की जिम्मेदारी तो उस पर थी ही. घर में रिश्तेदारों का भी आना-जाना लगा रहता. मां की अनुपस्थिति में कई अपनों ने उस से छेड़-छाड़ की, माँ का स्ट्रिक्ट व्यवहार था ऊपर से वह व्यस्त रहती तो कभी किसी को वह अपने साथ हुई घटनाएँ बता ही नहीं पायी. बड़ी हुई और एक दिन जब माँ काम पर गयी पापा ने ही मॉलेस्ट किया. वह हर वक़्त तनाव में रहने लगी, माँ को बताना चाहती थी पर क्या कहे ? माँ घर से बाहर जाने  की जैसे ही तैयारी करती वैसे ही वह तनाव में आ जाती.  फिर भी एक दिन हिम्मत करके उसने माँ को बताया. घर में खूब कोहराम मचा, और एक दिन उसका भाई उसे होस्टल में रहने के लिए छोड़ आया.

विवाहोपरांत जैसा उसका परिवार था उसी के स्तर का ससुराल मिला.  ससुराल वाले चाहते थे कि वह नौकरी करे किन्तु विवाह के एक वर्ष में ही उसने एक बेटी को जन्म दिया और अपने कटु अनुभव को याद करते हुए उसने नौकरी न करने का फैसला किया. ससुराल वालों को यह बर्दाश्त न हुआ. कल तक तो घर में अच्छी कमाई आ रही थी अब  वह बंद हो गयी थी. बस टोकाटाकी का जो दौर शुरू हुआ तो फिर बंद न हुआ. उसके पति को आते ही उसकी शिकायतें की जातीं. यदि वह अपनी सफाई में कुछ कहना चाहती तो पति सुनते ही नहीं. एक दिन दोनों में खूब बहस हुई और उसके पति ने उस पर हाथ उठा लिया.

आज वह संयुक्त परिवार में तो नहीं, बल्कि पति का ट्रांसफर होने से शहर ही बदल गया है लेकिन दोनों का आपसी रिश्ता सदा के लिए ख़राब हो चुका है. पति की कंजूसी की भी आदत है सो उसके हर खर्च पर पति की नज़र रहती है और इसी के चलते उसमें हीन भावना घर कर गयी है न तो वह बढ़िया , महंगे कपडे पहनती है और न ही किसी से मिलना-जुलना पसंद करती है.   उसे किसी पर भरोसा भी नहीं  होता है और न ही वह किसी को दोस्त बनाती है.

परवरिश व माहौल का असर सिर्फ किताबें पढ़ने से नहीं जाता 

ऊपर से सभी केसेज़ देखने के बाद ऐसा महसूस होता है कि जिसे शुरू से दबा कर रखा जाये उसे वैसे ही रहने की आदत भी पड़ जाती है.  दूसरा वैवाहिक  रिश्ते अक्सर एक ही स्तर के परिवारों में बनते हैं. इसीलिये अक्सर मध्यम वर्गीय लड़कियों को मायके में ताने-तिरस्कार सुन -सुन कर बड़ा होना होता है वहीं विवाह उपरान्त सब की चाकरी करने पर भी लानत ही दी जाती है. ऐसे केसेज़ में अक्सर यह भी देखा गया है कि लड़कियों को पति पढ़े-लिखे तो फिर भी मिल जाते हैं, किन्तु जिस माहौल में वे पले-बढे हैं  अक्सर उसका असर भी उनके व्यवहार में रहता है.  यदि वे अच्छी तनख्वाह ले आयें तो भी घर में कलह-कलेश का माहौल बना ही रहता है.

स्वाभिमान के साथ कोम्प्रोमाइज़ नहीं 

आवश्यकता है कि लड़कियां स्वयं खुद का मोल समझें. मायके में माता-पिता बेटियों की अच्छी परवरिश करें. विवाह उपरान्त लडकियां अपने स्वाभिमान को कायम रखते हुए ही ससुराल में एडजस्ट करें. जहाँ कहीं स्वाभिमान को ठेस लगे और उस पर भी लड़की सहन करती जाये तो उसके पढ़े-लिखे होने का कोई औचित्य ही नहीं.

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पढाई का मतलब यह नहीं कि आप सिर्फ रुपये कमा कर लायें. अपितु अपने मान-सम्मान  की रक्षा करते हुए परिवार में अपनी ख़ास जगह बनायें. यदि किसी भी कारणवश परिवार आपको सम्मान नहीं देता है तो मैं कहूंगी कि परिवार को आपकी कीमत महसूस नहीं हो रही. तो आप स्वयं भी उनके व्यवहार को  नज़र अंदाज करते हुए अपनी राह पर दृढ़ निश्चय के साथ चलें.

बेटियों को ही नहीं, बेटों को भी संभालें

मेरी सहेली ने एक बार मुझे एक वाकया सुनाया. जब वह अपनी 8 वर्षीया बेटी रिचा को अकेले में ‘गुड टच’ और ‘बैड टच’ के बारे में बता रही थी, तब बेटी ने उस से कहा था, ‘मम्मी, ये बातें आप भैया को भी बता दो ताकि वह भी किसी के साथ बैड टचिंग न करे.’

सहेली आगे बताती है, ‘‘बेटी की कही इस बात को तब मैं महज बालसुलभ बात समझ कर भूल गई. मगर जब मैं ने टीवी पर देखा कि प्रद्युम्न की हत्या में 12वीं के बच्चे का नाम सामने आया है तो मैं सहम उठी. इस से पहले निर्भया कांड में एक नाबालिग की हरकत दिल दहला देने वाली थी. अब मुझे लगता है कि 8 वर्षीया रिचा ने बालसुलभ जो कुछ भी कहा, आज के बदलते दौर में बिलकुल सही है. आज हमें न सिर्फ लड़कियों के प्रति, बल्कि लड़कों की परवरिश के प्रति भी सजग रहना होगा. 12वीं के उस बच्चे को प्रद्युम्न से कोई दुश्मनी नहीं थी. महज पीटीएम से बचने के लिए उस ने उक्त घटना को अंजाम दिया.’’

आखिर उस वक्त उस की मानसिक स्थिति क्या रही होगी? वह किस प्रकार के मानसिक तनाव से गुजर रहा था जहां उसे अच्छेबुरे का भान न रहा. हमारे समाज में ऐसी कौनकौन सी बातें हैं जिन्होंने बच्चों की मासूमियत को छीन लिया है. आज बेहद जरूरी है कि बच्चों की ऊर्जा व क्षमता को सही दिशा दें ताकि उन की ऊर्जा व क्षमता अच्छी आदतों के रूप में उभर कर सामने आ सकें.

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आज मीडिया का दायरा इतना बढ़ गया है कि हर वर्ग के लोग इस दायरे में सिमट कर रह गए हैं. ऐसे में यह जरूरी हो गया है कि हम अपने बच्चों को मीडिया की अच्छाई व बुराई दोनों के बारे में बताएं. एक जमाना था जब टैलीविजन पर समाचार पढ़ते हुए न्यूजरीडर का चेहरा भावहीन हुआ करता था. उस की आवाज में भी सिर्फ सूचना देने का भाव होता था. मगर आज समय बदल गया है. आज हर खबर को मीडिया सनसनी और ब्रेकिंग न्यूज बना कर परोस रहा है. खबर सुनाने वाले की डरावनी आवाज और चेहरे की दहशत हमारे रोंगटे खड़े कर देती है.

घटनाओं की सनसनीभरी कवरेज युवाओं पर हिंसात्मक असर डालती है. कुछ के मन में डर पैदा होता है तो कुछ लड़के ऐसे कामों को अंजाम देने में अपनी शान समझने लगते हैं. अफसोस तो इस बात का भी होता है कि मीडिया घटनाओं का विवरण तो विस्तारपूर्वक देती है परंतु उन से निबटने का तरीका नहीं बताती.

कुछ मातापिता हैलिकौप्टर पेरैंट बन कर अपने बच्चों पर हमेशा कड़ी निगाह रखे रहते हैं. हर वक्त हर काम में उन से जवाबतलब करते रहते हैं. इसे आप भले ही अपना कर्तव्य समझते हों परंतु बच्चा इसे बंदिश समझता है. कई शोधों में यह सामने आया है कि बच्चे सब से ज्यादा बातें अपने मातापिता से ही छिपाते हैं, जबकि हमउम्र भाईबहनों या दोस्तों से वे सबकुछ शेयर करते हैं.

आज के बच्चे वर्चुअल वर्ल्ड यानी आभासी दुनिया में जी रहे हैं. वे वास्तविक रिश्तों से ज्यादा अपनी फ्रैंड्सलिस्ट, फौलोअर्स, पोस्ट, लाइक, कमैंट आदि को महत्त्व दे रहे हैं. वे किसी भी परेशानी का हल मातापिता से पूछने के बजाय अपनी आभासी दुनिया के मित्रों से पूछ रहे हैं. वे अंतर्मुखी होते जा रहे हैं, साथ ही, उन का आत्मविश्वास भी वर्चुअल इमेज से ही प्रभावित हो रहा है. बच्चों को यदि सोशल मीडिया तथा साइबर क्राइम से संबंधित सारी जानकारी होगी और अपने मातापिता पर पूर्ण विश्वास होगा, तो शायद वे ऐसी हरकत कभी नहीं करेंगे.

एकल परिवारों में बच्चे सब से ज्यादा अपने मातापिता के ही संपर्क में रहते हैं. ऐसे में वे अपने अभिभावक की नकल करने की कोशिश भी करते हैं. बच्चों में देख कर सीखने का गुण होता है. ऐसे में अभिभावक उन्हें अपनी बातों द्वारा कुछ भी समझाने के बजाय अपने आचरण से समझाएं तो यह उन पर ज्यादा असर डालेगा. उदाहरणस्वरूप, नीता अंबानी अपने छोटे बेटे अनंत को मोटापे से छुटकारा दिलाने के लिए उस के साथसाथ खुद भी व्यायाम तथा डाइटिंग करने लगी थीं.

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प्रौढ़ होते मातापिता अपने किशोर बेटों से बात करते समय उन से बिलकुल भी संकोच न करें. मित्रवत उन से लड़कियों के प्रति उन की भावनाओं को पूछें. रेप के बारे में वे क्या सोचते हैं, यह भी जानने की कोशिश करें. यदि कोई लड़की उन्हें ‘भाव’ नहीं दे रही है तो वे इस बात को कैसे स्वीकार करते हैं, यह जानने की अवश्य चेष्टा करें.

आमतौर पर यदि खूबसूरत लड़की किसी लड़के को भाव नहीं देती तो लड़का इसे अपनी बेइज्जती समझता है और इस बारे में जब वह अपने दोस्तों से बात करता है तो वे सब मिल कर उसे रेप या एसिड अटैक द्वारा उक्त लड़की को मजा चखाने की साजिश रचते हैं. एसिड अटैक के मामलों में 90 प्रतिशत यही कारण होता है. इसलिए, ‘लड़कियां लड़कों के लिए चैलेंज हैं’ ऐसी बातें उन के दिमाग में कतई न डालें.

निर्भया कांड में शामिल नाबालिग युवक या प्रद्युम्न हत्याकांड में शामिल 12वीं के छात्र का उदाहरण दे कर बच्चों को समझाने का प्रयास करें कि रेप और हत्या करने वाले को समाज कभी भी अच्छी नजर से नहीं देखता. कानून के शिकंजे में फंसना मतलब पूरा कैरियर समाप्त. सारी उम्र मानसिक प्रताड़ना व सामाजिक बहिष्कार का भी सामना करना पड़ता है.

मातापिता अपने बच्चों को अच्छा व्यक्तित्व अपनाने के लिए कई बार समाज या परिवार की इज्जत की दुहाई देते हुए उन पर एक दबाव सा बना देते हैं, जो बच्चों के मन में बगावत पैदा कर देता है. मनोवैज्ञानिक फ्रायड के अनुसार, ‘‘जब हम किसी को भी डराधमका कर या भावनात्मक दबाव डाल कर अपनी बात मनवाना चाहते हैं तो यह एक प्रकार की हिंसा है.’’

बच्चे में किसी भी तरह की मानसिक कमियां हैं तो अभिभावक उसे छिपाएं नहीं, बल्कि स्वीकार करें और उसी के अनुसार उस की परवरिश करते हुए उस के व्यक्तित्व को संवारें. दिल्ली के निकट गुरुग्राम के रायन इंटरनैशनल स्कूल के प्रद्युम्न की हत्या करने वाला 12वीं का छात्र अपराधी नहीं था, बल्कि एक साइकोपैथ था. यह एक ऐसा बच्चा है जिसे सही मौनिटरिंग व सुपरविजन की जरूरत है यानी उसे परिवार के प्यार व मातापिता के क्वालिटी टाइम की जरूरत है. समय रहते यदि उस की मानसिक समस्याओं का निवारण किया गया होता तो शायद प्रद्युम्न की जान बच सकती थी. जिस तरह शरीर की बीमारियों का इलाज जरूरी है उसी तरह मानसिक बीमारियों की भी उचित इलाज व देखभाल की आवश्यकता होती है. इसे ले कर न ही मातापिता कोई हीनभावना पालें और न ही बच्चों को इस से ग्रसित होने दें.

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जिंदगी की बाजी जीतने के 15 सबक

कोरोना ने हमारी जिंदगी पूरी तरह से बदल डाली है. हमारी मस्ती, फुजूलखर्ची, आए दिन रैस्टोरैंट्स में पार्टी, खानापीना, बेमतलब भी घूमने निकल जाना, कभी शौपिंग, कभी मूवी तो कभी रिश्तेदारों का आनाजाना धूममस्ती इन सब पर विराम लग चुका है. ज्यादातर लोग वर्क फ्रौम होम कर रहे हैं. लोगों के बेमतलब आनेजाने पर ब्रेक लग गया है. मास्क और सैनिटाइजर जीवन के अहम हिस्से बन गए हैं.

ऐसे में यदि आप भी बीती जिंदगी से कुछ सबक ले कर आने वाली जिंदगी को बेहतर अंदाज में जीना चाहते हैं तो अपनी जीवनशैली, सोच और जीने के तरीके में कुछ इस तरह के बदलाव लाएं ताकि एक सुकून भरी जिंदगी की शुरुआत कर सकें.

रिश्तों को संजोना सीखें

रिश्ते आप की जिंदगी में अहम भूमिका निभाते हैं. परेशानी के समय इंसान अपने घर की तरफ ही भागता है. हम ने कोरोनाकाल में देखा कि किस तरह लोग शहर छोड़ कर अपनेअपने गांव की तरफ भाग रहे थे. दरअसल, हर इंसान को पता होता है कि अजनबी शहर में तकलीफ के समय आप अकेले होते हैं. इस से तकलीफ अधिक बड़ी महसूस होती है.

पर जब आप अपनों के बीच होते हैं तो मिलजुल कर हर तकलीफ से नजात पा जाते हैं. भले ही तकलीफ खत्म न हो पर दर्द बांट कर उसे सहना आसान हो जाता है. मांबाप, भाईबहन जिन्हें आप कितना भी बुरा क्यों न कहें पर जब बीमारी हारी या कोई परेशानी आती है तो वही हमारा संबल बनते हैं.

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इसलिए हमेशा अपने रिश्तों को सहेज कर रखना चाहिए. उन्हें एहसास दिलाते रहना चाहिए कि आप उन्हें कितना प्यार करते हैं. जिस तरह बैंकों और दूसरी जगहों पर आप समयसमय पर रुपए जमा करते हैं वैसे ही रिश्तों में भी निवेश कीजिए. थोड़ाथोड़ा प्यार बांट कर रिश्तों की बगिया को गुलजार रखिए, एक समय आएगा जब यही बगिया आप की जिंदगी को सींच कर फिर से हरीभरी बना देगी.

मंदिरा की अनिल के साथ लव मैरिज हुई थी. अनिल हमेशा से मंदिरा की हर बात मानता था. शादी के बाद मंदिरा और अनिल मुश्किल से 2-4 महीने सब के साथ रहे. इस के बाद अनिल ने मंदिरा की सलाह पर अलग होने का फैसला ले लिया. मांबाप उन के इस फैसले से बहुत दुखी थे, मगर मंदिरा को ससुराल रास नहीं आ रही थी.

सास ने बहू का हाथ थाम कर कहा, ‘‘बेटा साथ रहने में क्या बुराई है? इतना बड़ा घर है. तुझे कोई परेशानी नहीं होगी.’’

मंदिरा ने साफ जवाब दिया, ‘‘मम्मीजी घर कितना भी बड़ा हो पर लोगों की भीड़ तो देखो ननद, देवर, जेठजी, जेठानीजी, आप, पापाजी और नंदू इतने लोगों के बीच मेरा दम घुटता है. उस पर यह रिश्तेदारों का आनाजाना. मुझे बचपन से मम्मीपापा के साथ अकेले रहने की आदत है. अब शादी के बाद पति के साथ अकेली घर ले कर रहूंगी. मैं ने अनिल से पहले ही कह दिया था.’’

मां ने बेटे की तरफ देखा फिर नजरें झका लीं. अनिल और मंदिरा ने दूसरी लोकैलिटी में एक अच्छा सा घर लिया और वहां रहने लगे. वक्त गुजरता रहा. मंदिरा आराम से अकेली पति के साथ रहती और खाली समय में टीवी देखती या मोबाइल पर सहेलियों के साथ लगी रहती.

वह अपने ससुराल वालों की कभी कोई खोजखबर भी नहीं लेती थी. न अनिल को उन के घर जाने देती. अनिल की अच्छीखासी कमाई होने लगी. उन्हें किसी चीज की कमी नहीं थी.

इस बीच कोरोना का प्रकोप शुरू हुआ. अनिल की नौकरी छूट गई. मंदिरा इस समय प्रैगनैंट थी. आर्थिक समस्याएं सिर उठाने लगीं. मुसीबत तब और बढ़ गई जब अनिल कोरोना पौजिटिव निकला. मंदिरा के हाथपैर फूल गए. अब वह अपनी और गर्भ के बच्चे की चिंता करे या पति की. उस ने अपनी मां को फोन लगाया, मगर वे खुद बीमार थीं.

हार कर उस ने अपनी सास को सारी परिस्थितियों से अवगत कराया. सास ने सारी बात सुनते ही अपना सामान पैक किया और मंदिरा के पास रहने आ गईं.

उन्होंने आते ही अनिल को अलग कमरे में क्वारंटाइन कर दिया. मंदिरा की प्रैगनैंसी का आठवां महीना देखते हुए उसे भी दूसरे कमरे में बैड रैस्ट पर रहने को कहा और खुद काम में लग गईं. खानेपीने, दवा देने और बाकी देखभाल की सारी जिम्मेदारियां अपने ऊपर ले ली. मंदिरा के देवर ने भी बाहरभीतर की सारी जिम्मेदारियां उठा लीं तो ससुर ने हर संभव आर्थिक सहायता पहुंचानी शुरू कर दी. मंदिरा का जीवन बिखरने से बच गया.

10-12 दिनों में अनिल की हालत सुधर गई. 1 सप्ताह के अंदर मंदिरा की डिलिवरी भी हो गई. उस ने एक प्यारी सी बेटी को जन्म दिया था. पूरे परिवार ने बच्ची को हाथोंहाथ लिया. मंदिरा मन ही मन में बहुत शर्मिंदा थी.

उस ने अनिल से रिक्वैस्ट करते हुए कहा, ‘‘मैं चाहती हूं कि हमारी बच्ची अस्पताल से सीधी अपने घर जाए यानी अपनी दादी के घर.’’

मंदिरा की बात सुन कर सास की आंखों  से आंसू बह निकले. उन्होंने मंदिर को गले से लगा लिया.

सब से बड़ी पूंजी

असल में रिश्ते हमारी जिंदगी की सब से बड़ी पूंजी होते हैं. हम धनदौलत कितनी भी कमा लें, मगर जब तक रिश्तों की दौलत नहीं कमाते जिंदगी में असली खुशी और सुकून हासिल नहीं हो पाता. जीवन में जो भी आप के अपने हैं उन के लिए हमेशा खड़े रहें.

किसी भी रिश्ते को ग्रांटेड न लें. हर रिश्ते को अपना सौ प्रतिशत दें तभी मौके पर वे आप के काम आएंगे.

आप मिलजुल कर जीवन का हर इम्तिहान पास कर लेंगे. अपनों को इतना करीब रखें कि उन का साथ आप की खुशियों को दोगुना और गमों को आधा कर दे.

आजकल हम एकल परिवारों में रहने के आदी होते जा रहे हैं और ऐसे में बहुत से  करीबी रिश्तों से भी दूर हो जाते हैं. जरूरत के वक्त हमें उन रिश्तों की अहमियत समझ में आती है. कोरोना ने काफी हद तक लोगों की आंखें खोली हैं. उन्हें अपनों के साथ के महत्त्व का पता चला है.

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निवेश पर दें विशेष ध्यान

संकट में जरूरत के वक्त 2 ही चीजें काम आती हैं- अपनों का साथ और जमा किए गए रुपए. रिश्ते बना कर रखने के साथ हमें इस नए साल में निवेश की अहमियत पर भी ध्यान देना होगा. जरूरी नहीं कि आप बहुत बड़ी रकम ही निवेश करें. आप की इनकम ज्यादा नहीं तो भी कोई हरज नहीं है. आप छोटेछोटे निवेश कर बड़े लक्ष्य पा सकते हैं.

वैसे भी एक जगह ज्यादा निवेश करने से बेहतर होता है कई जगह थोड़ीथोड़ी मात्रा में निवेश करना. इस से रुपए डूबने के चांस कम होते हैं और प्रौफिट अधिक होने की संभावना बढ़ जाती है.

सिप

जहां तक निवेश की बात है तो म्यूचुअल फंड निवेश का एक बेहतरीन औप्शन है. म्यूचुअल फंड में सिप में आप पैसे लगा  सकते हैं. इस में शेयर का लाभ भी मिल जाता  है और यह सुरक्षित भी होता है. फिक्स्ड इंटरैस्ट रहता है जो  बहुत ज्यादा फ्लक्चुएशन  नहीं होता है.  इस में लंबे  समय तक छोटीछोटी  रकम निवेश की  जा सकती है. जो लोग रिस्क लेने को तैयार हैं  वे इक्विटी लिंक्ड सेविंग स्कीम में रुपए लगा सकते हैं. जो सेफ निवेश चाहते हैं वे हाइब्रिड  या डेट म्यूचुअल फंड में रुपए लगा सकते हैं.  इस में आप को काफी हद तक फिक्स रिटर्न मिलता है.

लाइफ इंश्योरैंस

लाइफ इंश्योरैंस के तहत 15 साल में अधिकतर कंपनियां डबल इनकम देती हैं. आप अपनी सुविधानुसार मंथली, क्वार्टरली, हाफईयरली या ईयरली निवेश कर सकते हैं.

सुकन्या समृद्धि योजना

बेटी पैदा होने के 10 साल के अंदर इस योजना का लाभ ले सकते हैं. यह एक सरकारी योजना है, जिस में आप को सालाना 250 रुपए का निवेश करना होता है. इस में रिटर्न काफी अच्छा मिलता है. 7.5% तक का ब्याज मिल जाता है. लड़़की के 21 साल की होने पर रुपए मैच्योर हो कर मिल जाते हैं.

पब्लिक प्रोविडैंट फंड

आप पीपीएफ में थोड़ेथोड़े पैसे लगा कर अच्छाखासा कमा सकते हैं. यह भी एक सुरक्षित निवेश है.

शेयर

पहले एफडी में रिटर्न अच्छा था सो ज्यादातर लोग जो सुरक्षित निवेश चाहते थे वे फिक्स डिपौजिट या रेकरिंग डिपौजिट में निवेश करते थे. पर अब बैंकों द्वारा ब्याज काफी कम दिया जा रहा है, इसलिए लोग दूसरे औप्शंस की ओर देख रहे हैं.

फुजूलखर्ची पर रोक

आज तक हम जिंदगी को बहुत ही हलके में लेते आए हैं. जब मन किया बिना किसी जरूरत भी कपड़े खरीद लिए, शौपिंग कर ली, कोई गैजेट पसंद आया तो औनलाइन और्डर कर दिया, जब मन किया बाहर खाने चले गए, हर वीकैंड दोस्तों के साथ पार्टी की, छोटीबड़ी बात पर सैलिब्रेट करने पहुंच गए. यानी कुल मिला कर हम फुजूलखर्ची में सब से आगे रहते हैं. पर अब इस महामारी के बाद हमें यह सबक जरूर लेना चाहिए कि बेवजह रुपए उड़ाना उचित नहीं. कोरोनाकाल में कितनों की नौकरी चली गई और कितनों को कट कर सैलरी मिल रही है. आगे आने वाले कुछ समय में भी स्थिति ऐसे ही रहने वाली है. इसलिए खर्च पर लगाम जरूरी है.

वैसे भी जीवन में आने वाली तरहतरह की परेशानियों से लड़ने का पहला जरीया पैसा ही होता है. इसलिए सब से महत्त्वपूर्ण है कि कभी भी अपनी बचत से समझौता न करें.

सेहत है तो सब है

इस कोरोनाकाल ने हमें यह बात तो अच्छी तरह समझ दी है कि जिंदगी में सेहत से बढ़ कर कुछ नहीं. सेहत खराब हो तो दुनियाभर की सुखसुविधाएं और धनदौलत रखी रह जाती है और आप की जिंदगी 1-1 सांस को मुहताज हो जाती है. अपनी इम्यूनिटी मजबूत रख कर हम खुद को हर तरह के रोगों से बचा सकते हैं. इम्यूनिटी के लिए हैल्दी लाइफस्टाइल अपनाना और अच्छा खानपान बहुत जरूरी है.

रोजाना सुबह टहलना और व्यायाम करना, सेहतमंद भोजन लेना, सकारात्मक सोच और गहरे रिश्ते आप की सेहत बनाए रखते हैं. नए साल में आप सब से पहले अपनी दिनचर्या पर ध्यान दें और शरीर की तंदुरुस्ती पर काम करें. अच्छा खाएं, अच्छा सोचें और अच्छा करें. इस से न सिर्फ मन को सुकून मिलेगा, बल्कि शरीर भी अंदर से मजबूत बनेगा.

बेकार के विवादों से बचें

अकसर हम अपनी जिंदगी का सुखचैन बेवजह के लड़ाईझगड़ों और तनावों में खो देते हैं पर हासिल कुछ नहीं होता. उलटा रिश्तों के साथसाथ सेहत भी जरूर बिगड़ जाती है. बीते साल ने हमें एहसास दिलाया है कि जिंदगी में कभी भी कुछ भी हो सकता है. कल का कोई भरोसा नहीं है. ऐसे में हमें अपने आज पर फोकस करना चाहिए. आज को खूबसूरत बनाने के लिए दिल और दिमाग में सुकून का होना बहुत जरूरी है. सुकून के लिए जरूरी है कि हम विवादों से दूरी बना कर रखें.

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ऐसी जगह घूमने जाएं जहां कभी न गए हों

प्रकृति का आंचल बहुत बड़ा है. हम जितना ही प्रकृति के करीब रहेंगे उतना ही हमारा शरीर सेहतमंद रहेगा. वैसे भी नईनई जगह घूमने से हमारी जिंदगी में रोमांच बना रहता है. कोरोना ने जब हमें घरों में बंद कर दिया तो हमें एहसास हुआ कि बाहर घूमने का आनंद क्या है.

हालात धीरेधीरे ठीक होंगे और हमें मौका मिलेगा कि हम एक बार फिर प्रकृति के करीब जा सकें. उन जगहों पर घूमने निकल सकें, जहां सेहत के साथ आप को आंतरिक खुशी भी मिले. जितना हो सके अपने घर के आसपास भी हरियाली बनाए रखने का प्रयास करें.

होल्ड पर रखे काम पूरा करें

अकसर हम अपनी जिंदगी के महत्त्वपूर्ण कामों/लक्ष्यों को होल्ड पर रख कर चलते हैं. इस के पीछे हमारा एक ही बहाना होता है कि समय नहीं मिलता. कभी औफिस की आपाधापी तो कभी घर और बच्चों के काम, सुबह से उठ कर जो दौड़भाग शुरू होती है वह देर रात तक चलती है. फिर ऐक्स्ट्रा काम कैसे किया जाए. यह बहाना सुनने में उचित लगता है. पर इस की आड़ में आप कुछ बहुत कीमती चीज खो रहे हैं.

अनिमेष एक गवर्नमैंट औफिसर था, साथ ही लिखता भी था. लंबे समय से उस की इच्छा थी कि वह अपनी कहानियों का संग्रह छपवाए. मगर काम में व्यस्त होने की वजह से वह इस ओर ध्यान नहीं दे सका. फिर जब कोरोना के कारण वह 15 दिन अस्पताल के बैड पर रहा तब उस ने खुद से सवाल किया कि कोरोना के कारण उसे आज कुछ हो जाता तो सब से ज्यादा अफसोस किस बात का होगा. इस वक्त उस के दिमाग में एक ही बात आई और वह थी काश उस ने अपना कहनी संग्रह छपवा लिए होता.

समय का सदुपयोग

कोरोनाकाल में हम ने सीखा है कि कैसे भागदौड़ कम कर के भी हम अपने सारे दायित्व निभा सकते हैं. वर्क फ्रौम होम करते हुए आप के दिमाग में यह बात जरूर आई होगी कि कहीं न कहीं आप रैग्युलर दिनों में अपना समय फुजूल के कामों में भी बरबाद करते थे.

एक तरफ औफिस आनेजाने में कई घंटे लगना तो दूसरी तरफ दोस्तों के साथ कभी शौपिंग तो कभी डिनर, कभी महंगे रैस्टोरैंट के बाहर अपनी बारी का इंतजार करते रहना तो कभी मूवी के बहाने घंटों बरबाद करना. इस के बजाय यदि आप उस समय का सदुपयोग करते हुए होल्ड पर रखे काम पूरे कर लें तो आप वह अचीव कर सकेंगे जो आप का सपना है.

याद रखिए कई बार जो काम आप भविष्य के लिए होल्ड करते जाते हैं क्या पता जिंदगी उन्हें बाद में पूरा करने का मौका ही न दे. इसलिए जो भी काम करना है वर्तमान में निबटाइए. आज का दिन आप के पास है. कल की खबर नहीं. तो क्यों न सारे जरूरी काम आज ही निबटा लिए जाएं.

बिना वजह भी खुश रहें

जिंदगी में यदि आप खुश होने के लिए किसी मौके की तलाश करते रहेंगे तो कभी खुश नहीं रह सकेंगे. इंसान खुश रहता है तो उस की इम्यूनिटी मजबूत होती है और वह चुस्तदुरुस्त बना रहता है. मन की खुशी का अच्छी सेहत से सीधा संबंध है. इसलिए खुद को हमेशा खुश रखें. इस से चेहरे पर भी चमक आती है. बिना वजह भी कुछ अच्छी बातें सोच कर मुसकराएं. आकर्षक और स्मार्ट कपड़े पहनें, अच्छी दिखें, मेकअप करें और अंदर से आत्मविश्वास बना कर रखें इस तरह आप सुंदर भी दिखेंगे और सेहतमंद भी रहेंगे.

उम्मीदों के बोझ तले रिश्ते

रिश्ता कोई भी हो उसमें उम्मीदें अपने आप पनपने लगती हैं. उम्मीदों पर खरा उतर गए तो रिश्ता गहराने लगता है वरना दरारों में देर नहीं लगती. कुछ रिश्ते जन्म से जुड़े होते हैं जहां कई दफा लाठी मारने से पानी अलग नहीं होता. लेकिन उनका क्या जो बीच सफर में जुड़े वो भी जीवन भर के लिए. जब बात हो पति पत्नि के रिश्ते की तो उम्मीदें कई बार सामान्य से ज्यादा हो जाती हैं. उम्मीदें स्वाभाविक हैं लेकिन यही दुख का बड़ा कारण भी. यानि जितनी ज्यादा उम्मीद उतना बड़ा दुख. रिश्तों की कामयाबी के लिए कई बातों का ध्यान रखना होता है. इनमें ये भी शामिल है कि आप अपने साथी के लिए क्या करते हैं और बदले में क्या उम्मीद रखते हैं. लेकिन ये किस हद तक ठीक है जिससे रिश्ता खूबसूरती से आगे बढ़ता चले ये बात भी मायने रखती है. इसका एक आसान फॉर्मुला है 80/20.

क्या है 80/20?

रिश्ते की डोर दोनों साथी थामें हैं. यानि उम्मीदें दोनो ओर से हैं. ऐसे में तकरार से बचने के लिए 80/20 का फॉर्मुला आपके काम आ सकता है. यहां आपको खुद की उम्मीदों से अपने साथी को 20 प्रतिशत की रिहायत देने की जरूरत है. बचा 80 प्रतिशत उनको आपकी उम्मीदों पर खरा उतरने का मौका देगा और आपको रिश्ते में संतुष्टी का अहसास होगा. एक बात आपको समझने की जरूरत है सौ प्रतिशत कुछ भी संभव नहीं, फिर इंसानी गलतियां कुछ हद्द तक नजरअंदाज किए बिना कैसे निभाया जा सकता है? इसलिए ये बीस प्रतिशत की रियायत आपके साथी को भी खुलेपन का अनुभव होने देगी और आपको शिकायत का कम मौका मिलेगा.

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जानकारों की मानें तो

80/20 का फॉर्मुला जानकारों का सुझाया हुआ है. शोध बताते हैं कि ज्यादा उम्मीद रखने वाले साथियों में तकरार की स्थिति अधिक बनी रहती है. इसलिए जानकारों का मानना है कि रिश्ते की मिठास को बनाए रखने के लिए उम्मीदों के बोझ को कम करना बेहद जरूरी है. जानकार ही नहीं बड़े बुजुर्गों से भी अक्सर यही नसीहत मिलती है कि जितनी उम्मीदें कम उतनी खुशियां ज्यादा. इसलिए इस फॉर्मुला को लागू करने के लिए जरूरी है कि आप खुद को और अपने साथी को स्पेस दें.

डॉ अमूल्य सेठ, साइकैटरिस्ट, कोलंबिया एशिया हॉस्पिटल गाजियाबाद से बातचीत पर आधारित

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मां-बाप कहें तो भी तब तक शादी नहीं जब तक कमाऊ नहीं

‘‘बहुत हो गई पढ़ाई. जितना चाहा उतना पढ़ने दिया, अब बस यहीं रुक जा. आगे और उड़ने की जरूरत नहीं. बहुत अच्छे घर से रिश्ता आया है. खूब पैसा है, फैमिली बिजनेस है. लड़का कम पढ़ा-लिखा है तो क्या हुआ, दोनों जेबें तो हरदम भरी रहती हैं उसकी।’’ पिता के तेज स्वर से पल भर को कांपी निम्मी ने अपनी हिम्मत जुटाते हुए कहा, ‘‘पर पापा, मैं नौकरी करना चाहती हूं. इतनी पढ़ाई शादी करके घर बैठने के लिए नहीं की है. और नौकरी कोई पैसे कमाने का लक्ष्य रखकर ही नहीं की जाती, अपनी काबीलियत को निखारने और दुनिया को और बेहतर ढंग से जानने-समझने के लिए भी जरूरी है. मैं जब तक कमाने नहीं लगूंगी, शादी करने के बारे में सोचना भी नहीं चाहती. अच्छा होगा आप मुझ पर दबाव न डालें. मैं मां की तरह हर बात के लिए अपने पति पर निर्भर नहीं होना चाहती, फिर चाहे वह कितने ही पैसेवाला क्यों न हो. और एक बात नौकरी करना या खुद कमाना उड़ना नहीं होता, आत्मसम्मान के साथ जीना होता है.’’ निम्मी की बात सुन उसके पापा को आघात लगा, पर वह समझ गए कि निम्मी उनकी जिद के आगे झुकने वाली नहीं, इसलिए शादी के प्रकरण को उन्होंने वहीं रोकने में भलाई समझी. 

 टूटे सपनों से खुशी नहीं मिलती

निम्मी तो अपने सपनों को पूरा कर पाई, पर कितनी लड़कियां हैं जो ऐसा कर पाती हैं? उन्हें मां-बाप की जिद के आगे हार मानकर शादी करनी पड़ती है, जबकि वे खुद कमा कर अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती हैं. शादी के बाद अपने टूटे सपनों के साथ जीते हुए वे न खुद खुश रह पाती हैं, न ही पति को खुशी दे पाती हैं. 

कंगना रानौत की एक फिल्म आई थी, ‘सिमरन’ जिसमें वह कहती है, 

‘मुझे लगता है मेरी पीठ से दो छोटे-छोटे तितली के जैसे पंख निकल रहे हैं. हवाएं मुझे रोक नहीं सकती, रास्ते मुझे बांध नहीं सकते, मेरे पीठ पर पंख हैं और मन में हौसला है. मैं कभी भी उड़ सकती हूं.’ यह संवाद पहली बार नौकरी पर जाने वाली लड़कियों की भावनाओं को खूबसूरती से व्यक्त करता है. यूं तो नौकरी मिलना या कोई काम करना किसी को भी आत्मनिर्भर और खुद पर भरोसा करने के एहसास से भरता है, लेकिन जब लड़कियों के कमाने की होती है, तो आज भी उसे अलग ढंग से तो देखा ही जाता है साथ ही माना जाता है कि मानो उसने कोई बड़ी उपलब्धि हासिल कर ली है या नौकरी करने का मतलब है झंडे गाड़ना. लड़के के लिए कमाना एक स्वीकृत धारणा है, पर लड़की के कमाने की बात हो तो आज इक्कीसवीं सदी में भी सबसे पहले उसके मां-बाप ही रोड़ा बनकर खड़े हो जाते हैं. 

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बोझ से कम नहीं

‘‘पढ़ लिया, बेशक काबिल हो, पर शादी करो और हमें हमारी जिम्मेदारी से मुक्त करो, वरना समाज कहेगा कि देखो मां-बाप ने लड़की को घर में बिठा रखा है या मां-बाप उसकी कमाई खा रहे हैं.’’ यह जुमला बहुत सारे घरों में सुनने को मिलता है. वक्त बेशक बदल गया है पर लड़की अभी भी मां-बाप के लिए उनकी जिम्मेदारी है या बोझ. मजे की बात तो यह है कि लड़कों की परवरिश उन्हें पैसा कमाने लायक बनाने के लिए की जाती है, बेशक वैसे उनमें किसी चीज की तमीज न हो, पर लड़कियों के लिए हर चीज को आना जरूरी है, उसका सुघड़ पत्नी, मां, बहू होना जरूरी है, और अगर पैसा कमाना भी आ गया तो उसे किस्मत वाली बेशक कहा जाएगा पर योग्य नहीं. कई बार तो इसे पिछले जन्म में उसके अच्छे कर्म करने तक से जोड़ दिया जाता है. 

दृढ़ता से अपनी बात रखें

कोई लड़की कमाने की इच्छुक नहीं है, और मां-बाप शादी करवा देते हैं तो बात अलग है, पर अगर वह कमाने के बाद ही फिर जिंदगी के अगले पड़ाव पर कदम रखना चाहती है तो सही यही होगा कि मां-बाप की जिद के आगे न झुकें. पछतावे के साथ पूरी जिंदगी गुजारने से अच्छा है, पहले ही अपनी बात दृढ़ता से उनके सामने रखें और उन्हें समझाएं कि आखिर क्यों आप कमाना चाहती हैं. 

आजकल लड़कियां आत्मनिर्भर तो हुई हैं, लेकिन केवल 48 प्रतिशत महिलाओं की आबादी में एक-तिहाई से भी कम नौकरी कर रही हैं. इसका कारण भी यही है कि लड़कियों को काम करने के लिए बढ़ावा ही नहीं दिया जाता, और लड़कियां भी ये मानकर बैठ जाती हैं कि मेरा पति अच्छा कमाएगा और वही घर चलाएगा. लेकिन क्या वे इस बात की गारंटी ले सकती हैं कि पति की कमाई निरंतर बनी रहेगी. हो सकता है किसी कारणवश उसकी नौकरी छूट जाए या काम ही ठप्प हो जाए, ऐसे में अगर वह नौकरी करती होगी तो गृहस्थी की गाड़ी रुकेगी नहीं. अपने मां-बाप को यह पहलू भी दिखाएं और खुद भी समझें. 

सकारात्मक बदलाव महसूस होता है

शादी बेशक जीवन का जरूरी हिस्सा है, लेकिन शादी से पहले नौकरी करना भी किसी महत्वपूर्ण पड़ाव से कम नहीं. बात केवल पैसा कमाने की ही नहीं है, वरन नौकरी लड़कियों अनगिनत उपहार देती है, उनमें  आत्मविश्वास पैदा करती है, जिंदगी में विकल्पों की उपलब्धता कराती है, एक सकारात्मक बदलाव और खुद व दूसरों की नजरों में अपने लिए सम्मान अर्जित करवाती है. कानपुर से दिल्ली नौकरी करने आई महिमा जिसने मां-बाप के शादी के दबाव से बचने के लिए अपने शहर से दूर आकर काम करने का निश्चय किया, का मानना है कि ‘‘नौकरी से होने वाले बदलाव लड़की के दिमाग में एक तरह की गूंज पैदा करते हैं, जो कहती है कि अब मैं दुनिया का कोई भी काम कर सकती हूं.’’ यह सच है कि कमाने लगने के बाद लड़की हां चाहे रह सकती है, मनचाहे कपड़े पहन सकती है, खुल कर सांस ले सकती है और सबसे बड़ी बात है कि वह तब अपनों के लिए कुछ भी कर सकती है. कमाने के बाद लड़की को दो चीजें मिलती हैं- आजादी और सम्मान. आजादी का अर्थ मनमानी करना नहीं, वरन अपने सम्मान की रक्षा करते हुए अपनी सोच को किसी बंधन में बांधे जीना है, जो हर किसी के लिए जरूरी होता है, फिर चाहे वह लड़की हो या लड़का. 

खुद तय करें

मां-बाप चाहे लाख शोर मचाएं कि शादी कर लो, लेकिन सबसे पहले किसी लड़की के लिए यह तय करना जरूरी है कि वह शादी करना चाहती है कि नहीं, या कब करना चाहती है. मां-बाप को समझाएं कि आप बोझ नहीं हैं और न ही बनना चाहती हैं, इसलिए ही कमाना चाहती हैं. भारतीय समाज में ज्यादातर लड़कियों की परवरिश सिर्फ शादी करने के लिए हिसाब से की जाती है. सामाजिक असुरक्षा या अकेले रह जाने का डर लड़कियों के मन में इतना भर दिया जाता है कि वे शादी के बिना अपनी जिंदगी सोच भी नहीं सकतीं. यह सवाल बार-बार उनके सामने आकर खड़ा होता रहता है कि इससे बचने के लिए आत्मनिर्भर होना जरूरी है. जबरदस्ती शादी करना कभी सही नहीं होता और इससे लड़की का जीवन बहुत प्रभावित होता है. तलाक के बढ़ते मामलों की भी यह बहुत बड़ी वजह है. माता-पिता को इस बात का एहसास कराना जरूरी है कि शादी के लिए कुछ समय रुका जा सकता है, क्योंकि यह एक बहुत ज़रूरी फैसला है. ऐसा इंसान जिसके साथ पूरा जीवन बिताना है, उसके बारे में फैसला लेने में जल्दबाजी क्यों की जाए. उससे पहले खुद अगर आत्मनिर्भर बन लिया जाए तो फैसला सही ढंग से लिया जा सकता है. 

एक पहचान होगी

कट्टर सोच, जिद और समाज क्या कहेगा, इससे परे हटकर, माता पिता को भी समझना चाहिए की उनकी बेटी अगर आगे बढ़ती है तो उसकी खुद की एक पहचान बनेगी. हमेशा वह अपने पिता, भाई या पति के नाम से ही जानी जाए, क्या यह ठीक होगा? एक कैरियर का होना उसे एक अलग पहचान देगा, और लोग उसे उसके खुद के नाम से पहचानेंगे. यह किसी भी मां-बाप के लिए गर्व की बात हो सकती है. 

माता-पिता को यह भी समझना होगा कि अगर उनकी लड़की काम करती है तो वह अपने साथ-साथ अपने जैसी कितने ही लोगों को हौसला देती है, और अपनी खुशी और संतुष्टि पाने का अधिकार उसे भी है. 

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लड़कों की सोच में भी आया है बदलाव

पिछले कुछ समय से लड़कों के भी शादी करने के समीकरण बदल गए हैं. पहले की तरह वह अब केवल सुंदर या घर के काम में दक्ष पत्नी नहीं चाहता. वह नौकरीपेशा लड़की को पसंद कर रहा है जो आर्थिक रूप से उसकी मदद कर सके. जब लड़के बदल रहे हैं तो मां-बाप क्यों न जिद छोड़ दें और अपनी बेटी को कमाने की अनुमति देकर उसके सुनहरे भविष्य की नींव रखने में मदद करें.

मैं ससुराल के माहौल से नाखुश हूं, मैं क्या करुं?

सवाल-

  मैं 23 वर्षीय नवविवाहिता हूं. शादी के बाद ढेरों सपने संजोए मायके से ससुराल आई, मगर ससुराल का माहौल मुझे जरा भी पसंद नहीं आ रहा. मेरी सास बातबेबात टोकाटाकी करती रहती हैं और कब खुश और कब नाराज हो जाएं, मैं समझ ही नहीं पाती. वे अकसर मुझ से कहती रहती हैं कि अब तुम शादीशुदा हो और तुम्हें उसी के अनुरूप रहना चाहिए. मन बहुत दुखी है. मैं क्या करूं, कृपया सलाह दें?

जवाब-

अगर आप की सास का मूड पलपल में बनताबिगड़ता रहता है, तो सब से पहले आप को उन्हें समझने की कोशिश करनी होगी. खुद को कोसते रहना और सास को गलत समझने की भूल आप को नहीं करनी चाहिए. घरगृहस्थी के दबाव में हो सकता है कि वे कभीकभी आप पर अपना गुस्सा उतार देती हों, मगर इस का मतलब यह कतई नहीं हो सकता कि उन का प्यार और स्नेह आप के लिए कम है.

दूसरा, अपनी हर समस्या के समाधान और अपनी हर मांग पूरी कराने के लिए आप ने शादी की है, यह सोचना व्यर्थ होगा. किसी बात के लिए मना कर देने से यह जरूरी तो नहीं कि वे आप की बेइज्जती करती हैं.

आज की सास आधुनिक खयालात वाली और घरगृहस्थी को स्मार्ट तरीके से चलाने की कूवत रखती हैं. एक बहू को बेटी बना कर तराशने का काम सास ही करती हैं. जाहिर है, घरपरिवार को कुशलता से चलाने और उन्हें समझने के लिए आप की सास आप को अभी से तैयार कर रही हों.

बेहतर यही होगा कि आप एक बहू नहीं बेटी बन कर रहें. सास के साथ अधिक से अधिक समय रहें, साथ घूमने जाएं, शौपिंग करने जाएं. जब आप की सास को यकीन हो जाएगा कि अब आप घरगृहस्थी संभाल सकती हैं तो वे घर की चाबी आप को सौंप निश्चिंत हो जाएंगी.

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खाने की टेबल पर साथ मिलकर लें स्वाद और संवाद का आनंद

खाने की मेज सिर्फ रोटी, भाजी, खीरपूड़ी आदि का संगम नहीं है, बल्कि बातचीत और गिलेशिकवे सुधारने की एक जिंदा इकाई भी है. यहां पर हर सदस्य को स्वाद और संवाद दोनों ही मिलते हैं.

किसी ने खूब कहा भी है कि परिवार ही वह पहली पाठशाला है जहां जीवन का हर छोटाबड़ा सबक सीखा जा सकता है. इसलिए जब भी अवसर मिले परिवार के साथ ही बैठना चाहिए. इस का सब से आसान उपाय यही है कि भोजन ग्रहण करते समय सब साथ ही बैठें.

अनमोल पल

जब पूरा परिवार साथ बैठ कर भोजन का आनंद लेता है तो उस समय हर पल अनमोल होता है. मनोवैज्ञानिक इसे गुणवत्ता का समय मानते हैं.साथसाथ भोजन करना कई मामलों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है.

आजकल सभी अपने कामों और जिंदगी में इतना बिजी रहते हैं कि एकसाथ रहते हुए भी परिवार के साथ बैठने का समय तक नहीं मिल पाता है. इसी वजह से परिवार के साथ बैठ कर भोजन करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है, लेकिन ऐसा करना बच्चोंे और परिवार के लिए बहुत जरूरी है.

परिवार के साथ खाना खाने से आपस में दोस्ताना संबंध बनता है, स्वानस्य्वा की तरफ से लापरवाही में कमी आती है, शांतिपूर्ण विचार मन में पनपते हैं और मानसिक स्तर जैसे उदासी, ऊब, बेचैनी, घबराहट आदि महसूस नहीं होते.

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बेहतर चलन है

अगर कुछ ऐसे पारिवारिक मसले आ गए हैं जिन का हल नहीं निकल रहा है तो साथ खाने का चलन जरूर शुरू करें. यह बहुत अच्छा तरीका है, फैमिली यूनिट बनाने का और बच्चों के साथ अपने रिश्ते सुधारने का.

आप के लिए एक बेहतरीन अभिभावक बनने का यह अच्छा मौका है. नए रिश्तों को मजबूत करना चाहें तो साथ बैठ कर खाना खाएं. जैसे नया मेहमान या कोई पुराना रिश्तेदार भी आया है तो उस के साथ संबंध पक्का करने के लिए तो यह सब से बढ़िया तरीका है.

साथ खाने से बच्चों में टेबल मैनर्स भी सुधारे जा सकते हैं. आप के बच्चे सीखेंगे कि टेबल पर समय से जाना है जिस से परिवार के बाकी सदस्य भूखे नहीं बैठे रहें.

वहां पर किस तरह बैठना है, चम्मचकटोरी कैसे इस्तेमाल करना है वगैरह बच्चे बगैर किसी निर्देशन के सहज ही सीख जाते हैं.

यादगार रहेगा

जब आप के बच्चे बड़े होंगे तब वे आप के साथ बिताए हुए इस भोजन समय को कभी नहीं भूलेंगे. उन्हें इस बात का एहसास रहेगा कि परिवार का साथ बैठ कर खाना कितना जरूरी है और आगे चल कर वे भी अपने बच्चों में यही आदत डालेंगे.

वैसे तो आजकल कुछ न कुछ उपलब्धता के चलते हरकोई भरपेट खाना तो खा लेता है लेकिन उस से पोषण कम ही मिल पाता है. ऐसे में घर पर या बाहर जब भी मौका हो परिवार के साथ मिल कर खाने से न केवल बड़े बल्कि बच्चे भी पोषित खाना खाते हैं, उन में भी पोषित खाना खाने की आदत पैदा होती है.

परिवार के साथ डिनर करने पर स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं जैसेकि निराशा, हताशा, मोटापा, बारबार खाने की आदत, नशीले पदार्थों के सेवन आदि से किशोर दूर ही रहते हैं.

मिल कर भोजन करना कई बातों को पारदर्शी भी बनाता है क्योंकि एक बात एक बार ही कही जाती है और सब के सामने रखी जाती है. अतः यह आपसी समझ बनाने के लिए भी काफी अच्छा होता है.

न फोन न इंटरनैट

डाइनिंग टेबल पर खाना खाते समय फोन या इंटरनैट का इस्तेमाल नहीं के बराबर होता है. इस से इस दौरान ऐसा आनंद उत्पन्न होता है कि हरकोई खुशी महसूस करता है.

परिवार जब साथ मिल कर खाना खाए तो टीवी सहज ही बंद कर दिया जाता है और बच्चे मातापिता की निगरानी में क्वालिटी डाइट लेते हैं.इतना ही नहीं पारिवारिक समागम में भोजन को ले कर कुछ अलग ही तरह का सकारात्मक माहौल देखा जा सकता है.

शोध के बाद एक बात और सामने आई है कि एकसाथ खाने से मातापिता को अपने बेटे और बेटियों के स्वभाव, उन की अभिरुचि आदि का पता लगाने में मदद मिल सकती है.

बढ़ता है आत्मविश्वास

इस के अलावा जो बच्चे हमेशा अपने मातापिता के साथ खाते हैं, वे अपने कैरियर, दुनियादारी, मित्रों से सुकून भरे संबंध, स्वास्थ्य आदि के बारे में निर्णय लेने में काफी समझदार हो जाते हैं.

एकसाथ बैठ कर भोजन करने से न सिर्फ पारिवारिक सुकून व आनंद बढ़ता है, बल्कि यह स्वस्थ और तनावमुक्त रहने का भी एक आसान व प्रभावी तरीका है.

खाने की मेज पर जब पूरा परिवार एकसाथ होता है, तो एकदूसरे के बीच संवाद बढ़ता है, परिवार के लोग एक दूसरे के सुखदुख के बारे में जान पाते हैं. किसी के मन में कुछ भार है तो वह कम हो जाता है.

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घर के सदस्य अगर मिल कर भोजन करने की आदत डालें, तो इस से न केवल परिवार में खुशी बढ़ेगी उन में सामंजस्य भी बना रहेगा.

मातापिता बच्चों से बातचीत करते हैं, उन की दिनचर्या आदि पर चर्चा करते हैं तो इस का मानसिक प्रभाव बहुत अच्छा होता है. परिवार के साथ मन बांट लेने से बच्चों का आत्माविश्वाुस भी बढ़ता है. उन में जीवन के प्रति रूझान बढ़ता है और वे मेहनती बनते हैं.

जब सताए घर की याद

बेहतर भविष्य और अच्छी नौकरी की चाह में घर से दूर रहने वाले युवाओं की संख्या दिनबदिन बढ़ती जा रही है. चूंकि अत्याधुनिक समाज में आए तकनीकी विकास ने आज संभावनाओं के नए द्वार खोल दिए हैं, लिहाजा यह दूरी बच्चों और उन के परेरैंट्स के लिए ज्यादा माने नहीं रखती है, क्योंकि मोबाइल, इंटरनेट, सोशल साइट्स के जरीए ये अपनों के संपर्क में लगातार बने रहते हैं. मगर घर से दूर रहने वाले युवाओं के लिए बाहर इतना आसान भी नहीं होता. कई बच्चे बाहर रह कर होम सिकनैस का शिकार हो जाते हैं, जिस से अपनी पढ़ाई या नौकरी में अपना सौ प्रतिशत नहीं दे पाते. यह होम सिकनैस उन की कार्यक्षमता को प्रभावित करती है, लिहाजा सफलता पाने की दौड़ में वे पीछे रह जाते हैं.

आखिर क्या है होम सिकनैस

बाहर रहने वाला बच्चा जब घर की याद कर अकेलापन महसूस करे और तनावग्रस्त रहने लगे तो यह लक्षण होम सिकनैस का है. घरपरिवार से अत्यधिक लगाव की स्थिति में बच्चा कहीं बाहर रहने से घबराता है और यदि बाहर रहना पड़े तो वह बारबार बीमार पड़ जाता है या अपनी पढ़ाई और अन्य कार्यों के प्रति उदासीन हो जाता है. यह स्थिति बच्चे के मानसिक व शारीरिक विकास को तो बाधित करती ही है, उस की कार्यक्षमता पर भी बेहद बुरा प्रभाव डालती है. यह समस्या ज्यादातर उन युवाओं के समक्ष खड़ी होती है जो पहली बार घरपरिवार से दूर रह रहे होते हैं या फिर वे इस का शिकार आसानी से बनते हैं जो कुछ अधिक संवेदनशील होते हैं.

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होम सिकनैस के कारण

दरअसल, घर पर रहने वाले बच्चे छोटेछोटे कामों के लिए मां को आवाज लगाते नजर आते हैं. घर के इसी सहज और सुविधाजनक माहौल के चलते वे आसान जिंदगी जीने के आदी हो जाते हैं. मगर बाहर रहने के दौरान जब उन्हें अपने सभी कार्य स्वयं ही करने पड़ते हैं तो ये कार्य उन्हें बोझ लगते हैं और उन की झल्लाहट का कारण बनते हैं. दूसरी तरफ कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं जो मम्मीपापा या भाईबहनों को याद कर उदास हो जाते हैं. अपने घरपरिवार से अत्यधिक जुड़ाव के कारण उन्हें बाहर रहना और वहां के माहौल में एडजस्ट करना बहुत मुश्किल लगता है.

ऐसी स्थिति में क्या करें

कहते हैं न कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है. तो जब आप अपनी आरामतलब जिंदगी को छोड़ कर घर से बाहर निकलेंगे तभी चुनौतियों से जूझने की क्षमता आप के अंदर विकसित हो सकेगी. यह जान लें कि जितनी अधिक मेहनत उतना बेहतर भविष्य. यह सही है कि अपनों से दूर रहना आसान नहीं. फिर भी घबराने के बजाय अगर समाधान ढूंढ़ा जाए और कुछ बेहतर विकल्पों की तलाश की जाए तो घर से दूर अकेलेपन की यह राह इतनी भी कठिन नहीं प्रतीत होगी. आइए, जानें कि घर की याद जब बहुत सताने लगे तो क्या करें:

अपना मनोबल ऊंचा रखें: यह माना कि आप अपने घर से दूर हैं और घर वालों से बारबार नहीं मिल सकते, लेकिन आज के दौर में उन के संपर्क में आसानी से रहा जा सकता है. मगर इस का यह मतलब भी नहीं कि आप अपनी पढ़ाई या जौब पर ध्यान न दे कर बारबार उन्हें कौल करते रहें. यदि हो सके तो रोज शाम को अपने काम से फ्री हो कर आप घर फोन कर सब की खैरखबर ले सकते हैं, साथ ही अपने काम व प्रोग्रैस के बारे में उन्हें बता सकते हैं.

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नए दोस्त बनाएं: अपने कालेज, कोचिंग या कार्यस्थल पर नए दोस्त बनाएं. उन के साथ कुछ समय व्यतीत करें. आसपास की जगहों पर उन के साथ घूमने का प्रोग्राम भी बना सकते हैं. इस से आप का अकेलापन दूर होने के साथ ही उस जगह विशेष के बारे में भी आप को नई जानकारी प्राप्त होगी. वैसे भी दोस्तों के साथ क्वालिटी वक्त बिता कर हम तरोताजा महसूस करते हैं.

खुद को व्यस्त रखें: अगर पढ़ाई या जौब करने के बाद आप के पास कुछ समय बचता है तो आप उस समय का प्रयोग अपना शौक पूरा करने में कर सकते हैं. इस के अलावा अपने पासपड़ोस में दूसरों की मदद करने में भी आप अपना खाली वक्त बिता सकते हैं. किसी की सहायता कर के आप को बेइंतहा खुशी महसूस होगी और इस से आप खुद को बहुत ऊर्जावान भी पाएंगे.

खुद से एक मुलाकात: अकेलेपन के इस सुअवसर का लाभ उठाएं और इस खूबसूरत वक्त में खुद से एक मुलाकात करना न भूलें. वैसे भी बाद में जीवन की बढ़ती व्यस्तता और आपाधापी में यह मौका हमें कम ही मिल पाता है. कहने का सार सिर्फ यह है कि अपनी अच्छाइयों और कमियों से रूबरू हो कर इस समय आप अपने व्यक्तित्त्व के सुधार की ओर अग्रसर हो सकते हैं.

अकेलेपन के शिकार तो नहीं: अकेलापन अवसाद की स्थिति की निशानी है, जबकि व्यक्ति के अकेले रहने का वक्त अपनेआप को कामयाब बनाने का एक स्वर्णिम अवसर है. अत: स्वयं को प्रेरित कर अपना आत्मविश्वास बढ़ाएं. हर उस पल जब आप अकेला महसूस करें खुद को दिलासा दें कि यह स्थिति सदा के लिए नहीं है और जल्द ही आप अपने निश्चित मुकाम पर पहुंचेंगे.

इस तरह इन उपायों को अमली जामा पहना कर अपनी सफलता की राह में आड़े आ रही होम सिकनैस नामक बाधा से आसानी से छुटकारा पाया जा सकता है.

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