मौसम में बदलाव आया. वसंत विदाई पर था. टेसू के फूलों से प्रकृति सिंदूरी हो गई थी. मैं जब भी रविरंजन को याद करती, दिल में अंगारे दहक जाते. रवि कह के गए थे कि जब भी मेरी जरूरत हो कहना, मैं चला आऊंगा पर आए नहीं थे. गरम हवा के थपेड़े
तन को झुलसाने लगे थे. मैं ने लंबी छुट्टी पर जाने का मन बना लिया. फोन से मां को सूचित भी कर दिया.
बहुत दिनों बाद मां के पास पहुंची तो मु झे लगा जैसे मेरा बचपन लौट आया है. अकसर मां की गोद में सिर रख कर लेटी रहती. मां भी दुलार से कहतीं कि बस, तेरी एक नहीं सुनूंगी. कई घरवर देख रखे हैं. अब भी चेत जा. अपना कहने वाला कोई तो होना चाहिए, मैं और कितने दिन की हूं.
उत्तर में मैं ने मां को साफसाफ कह दिया कि मां मेरी जिंदगी में दखल मत दो. मैं जैसी हूं वैसी ही रहूंगी. अभी वर्तमान में जी रही हूं. कल की कल देखी जाएगी. और हां मां, मेरी कुछ कुलीग मसूरी जा रही हैं छुट्टियां मनाने, उन के साथ मैं ने भी जाने का प्रोग्राम बना लिया है. बस 2 दिन बाद ही जाना है.
मसूरी में मैं ने एक कौटेज बुक करा लिया था. दरअसल, मैं अपना मन शांत करने के लिए एकांत में कुछ दिन बिताना चाहती थी. मां से मैं ने झूठ ही कह दिया था कि मेरी फ्रैंड्स मेरे साथ जा रही हैं. सच तो यह था कि रवि द्वारा दी गई चोट ने मु झे बड़ी पीड़ा पहुंचाई थी. एकांत शायद मु झे राहत दे यह सोचा था मैं ने, इसीलिए अकेले मसूरी चली आई थी.
मसूरी में सैलानियों की टोलियां थीं और मैं बिलकुल अकेली अलगथलग घूमती. एक दिन अचानक एक 14-15 साल की किशोरी मेरे सामने आ खड़ी हुई. नमस्ते की और बोली, ‘‘आप शायद अकेली हैं. हमारी कंपनी लेना चाहेंगी? मैं और मेरे पापा हैं, हमें खुशी होगी आप के साथ. वे आ रहे हैं मेरे पापा.’’
फिर हमारा परिचय हुआ और लगभग रोज हमारे प्रोग्राम साथ बनने लगे.
हम अपनेअपने कौटेज से चल कर नियत समय पर, नियत स्थान पर पहुंच जाते. पर एक दिन मेरा मन निकलने को नहीं किया क्योंकि मेरा माथा तप रहा था. मैं अवचेतनावस्था में सोती रही.
शाम गहरा गई थी. ज्वर का जोर कम हुआ तब मैं ने आंखें खोलीं. देखा कि राजीव और उन की बेटी दोनों मेरे पास बैठे हैं. लड़की मेरे सिरहाने बैठी मेरा सिर दबा रही थी.
‘‘यह अचानक आप को क्या हो गया मिस प्रिया? हम तो चिंतित हो उठे थे. अब आप
कैसी हैं? मेरे पास दवा थी मैं ले आया हूं,
नीलू बेटा चाय बनाओ और आंटी को दवा दो,’’ राजीव बोले.
मैं ने बच्ची की ओर देखा. मासूम सा चिंतित चेहरा. मेरे ज्वर ने दोनों को उदास कर दिया था. मैं द्रवित हो उठी.
मैं सोचने लगी कितना अंतर है रवि और राजीव में. एक बरसाती नदी सा चंचल, दूसरा सागर सा शांत. मैं ने सोच पर लगाम लगाई. मैं इस अकेलेपन से डरने क्यों लगी हूं? मैं सदा यही सोचा करती कि रवि के अलावा मेरे जीवन में अब किसी पुरुष की जगह नहीं. पर राजीव… जागजाग कर दवा देना, कभी दूध गरम करना कभी पानी उबालना. ये नहीं होते तो इस अनजान जगह में बीमारी के बीच कौन होता मेरे पास?
मैं बहला रही थी अपनेआप को, भाग रही थी खुद से दूर. शायद सोच में डूब गई थी कि राजीव ने टोका, ‘‘क्या सोच रही हैं प्रियाजी?’’
‘‘आप के विषय में, आप नहीं जानते आप ने मु झे क्या दिया है. अकेलेपन और अंतर्द्वंद्व के भयावह दौर से गुजर रही हूं मैं.’’
‘‘देखिए प्रियाजी, आप बिलकुल फिक्र न करें. आप के ठीक हो जाने के बाद ही हम यहां से जाएंगे. मेरी बच्ची नीलू को आप ने ममता भरा जो प्यार दिया है, वह उसे इस से पहले नहीं मिला. वह चाह रही है कि आप सदा उस के साथ रहें. जब उस ने अपनी मां को खोया, तब बच्ची थी मात्र 2 साल की. बाकी मेरे विषय में आप जान चुकी हैं और मैं आप के. आप सम झ रही होंगी, मैं क्या कहना चाह रहा हूं?’’
‘‘मैं सम झ रही हूं, राजीवजी पर अभी कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हूं. इत्तफाक से हम दोनों का कार्यस्थल दिल्ली है. मैं बाद में आप से बात करती हूं.’’
छुट्टियां पूरी होने पर मैं मां के पास न लौट कर सीधे दिल्ली पहुंची.
घर इतने दिनों से बंद था. खोला तो लगा कि एक अनजानी रिक्तता हर तरफ पसरी थी. औफिस पहुंची तो वहां सन्नाटे भरी गहमागहमी थी. ज्ञात हुआ कि मिस सुजान की तबीयत अचानक खराब हो गई. उन्हें अस्पताल पहुंचाया गया. सुजान मेरे ही साथ काम करती थी. मैं स्वयं अपनेआप से उबर नहीं पा रही थी फिर भी सुजान को देखने अस्पताल पहुंची.
उस के आसपास अपना कहने वाला कोई नहीं था. मांबाप की मौत के बाद वह बिलकुल अकेली थी. उस की मानसिकता मेरे जैसी ही थी. अपने अहं, अपनी स्वतंत्रता की चाह में उस ने विवाह नहीं किया था. दिल की बातों को वह किसी से शेयर नहीं कर पाती थी और आज उस का परिणाम उस के सामने था. लोग कह रहे थे कि इसी कारण वह डिप्रैशन और मानसिक बीमारी की शिकार हो गई.
शायद मेरी मां इसी कारण मेरी चिंता करती रहती हैं, यह सोच कर मैं ऐसी दुखद और त्रासद स्थिति के लिए भयभीत हो उठी.
आगे का पूरा सप्ताह मैं ने ऊहापोह की स्थिति में गुजारा. मैं दोराहे पर खड़ी थी. कोई फैसला लेना कठिन हो रहा था. जीवन की
नौका अथाह जल में घूमती अपनी दिशा खो बैठी थी. किनारा उस की पहुंच से दूर होता जा रहा था. कभीकभी लगता कि मां का कहना मान लूं. पर क्या मां राजीव जैसे व्यक्ति से शादी करने की आज्ञा देंगी, जिस की एक बेटी है और जो विधुर है?
काफी सोचविचार के उपरांत मैं ने राजीव को फोन लगाया क्योंकि उन का और उन की बेटी का प्रस्ताव ही मु झे उचित लगा. मैं ने फोन पर बस इतना ही कहा, ‘‘इस अकेलेपन में मु झे आप की जरूरत है.’’
शाम झुक आई थी. मैं ने कमरे की खिड़की खोली तो ठंडी हवा के झोंके के साथ देखा कि राजीव की कार मेरे घर के नीचे आ लगी थी और वे अपनी बेटी के साथ मुख्य द्वार से प्रवेश कर रहे थे. मैं खुशी से झूम उठी. मु झे लगा कि यही सच है, यही सृष्टि का नियम है. मां को बताना ही होगा, उन्हें मानना ही होगा.