स्किन के लिए बेहद फायदेमंद है ह्यालुरोनिक एसिड, जानें ये 5 फायदें

गर्मियों में हमारी स्किन काफी मुरझाई हुई सी रहती है इसलिए इस मौसम में स्किन की देख भाल करना काफी जरूरी हो जाता है। जैसे बाहर निकलते समय आपको पूरे कपड़े पहनने चाहिए और स्किन को बार बार साफ करते रहना चाहिए और सबसे जरूरी सन स्क्रीन का प्रयोग करना चाहिए। लेकिन इसके बाद भी स्किन में डलनेस दिखने लगती ही है।

ऐसे में अपने चेहरे को गर्मियों के दौरान एक ग्लो अप देने के लिए आप ह्यालुरोनिक एसिड का प्रयोग करना शुरू कर सकती हैं। यह स्किन केयर इंग्रीडिएंट इन दिनों काफी चर्चा में है और इसके प्रसिद्ध होने की वजहें भी बिलकुल सटीक हैं क्योंकि यह सही में आपकी स्किन के लिए काफी लाभदायक होता है। आइए जानते हैं इसे प्रयोग करने के लाभ।

सन डैमेज से आपको बचाता है :

गर्मियों में ज्यादा समय तक सूर्य के संपर्क में रहने से आपकी स्किन को सन बर्न और हाइपर पिग्मेंटेशन हो सकती है। इससे बचने के लिए ह्यालुरोनिक एसिड का प्रयोग करें क्योंकि यह आपकी स्किन के मॉइश्चर लेवल को बनाए रखता है और सेल रिजनरेशन में मदद करता है। यह आपकी स्किन से सन स्पॉट और हाइपर पिग्मेंटेशन को कम करने में मदद करता है। इससे स्किन पहले से काफी ब्राइट हो सकती है।

सभी स्किन टाइप के लिए है सूटेबल :

अधिकतर प्रोडक्ट्स को प्रयोग करने से पहले हम यह देखते हैं की यह हमारी स्किन के टाइप का है या नहीं। लेकिन ह्यालुरोनिक एसिड सभी स्किन टाइप के लिए सूटेबल होता है इसलिए इसका प्रयोग हर कोई कर सकता है जो काफी अच्छी बात है। यह एक्ने प्रॉन स्किन के लिए भी सहायक है। यह स्किन में ऑयल कंट्रोल करने में भी मदद करता है।

एंटी ऑक्सीडेंट्स से भरपूर :

ह्यालुरोनिक एसिड में एंटी ऑक्सीडेंट काफी ज्यादा होते हैं। इसलिए यह आपकी स्किन को वातावरण में मौजूद पॉल्यूटेंट्स जैसे प्रदूषण, धूल मिट्टी और फ्री रेडिकल्स आदि से बचा सकता है। फ्री रेडिकल्स आपकी स्किन को डैमेज कर सकते हैं और आपको एजिंग के लक्षण कम उम्र में ही देखने को मिल सकते हैं। ह्यालुरोनिक एसिड को अपने स्किन केयर रूटीन में शामिल करके आप इन सभी चीजों से स्किन को बचा सकते हैं। इसके अलावा आप इसका प्रयोग करके सूर्य की यूवी किरणों का प्रभाव भी कम कर सकते हैं।

एजिंग के लक्षणों से बचाता है :

जैसे जैसे आपकी उम्र बढ़ती जाती है वैसे वैसे आपकी स्किन ड्राई होती जाती है और झुर्रियां जैसे एजिंग के लक्षण आपको देखने को मिलते हैं। ह्यालुरोनिक एसिड का प्रयोग करने से आप इन लक्षणों से बच सकते है। समय से पहले होने वाली एजिंग से आप स्किन को बचा सकती हैं और स्किन को मॉइश्चराइज भी रख सकती हैं।

डार्क सर्कल कम करने में सहायक :

ह्यालुरोनिक एसिड का प्रयोग अगर आप आंखों के नीचे करती हैं तो इससे आपको डार्क सर्कल्स कम होने में भी मदद मिल सकती है। यह आपकी स्किन में कॉलेजन के उत्पादन में मदद करता है जिस कारण आपकी स्किन से इस तरह की डार्कनेस कम हो सकती है। इसका प्रयोग आपको आंखों के नीचे थोड़ी थोड़ी मात्रा में ही करना चाहिए। अगर आपकी स्किन काफी पतली है तो उससे डील करने में भी यह लाभदायक रहने वाला है।

यह सारे लाभ आपको एक इंग्रेडिएंट्स का प्रयोग करके हो सकते हैं इसलिए आपको अपने स्किन केयर प्रोडक्ट्स में इस इंग्रीडिएंट से बनने वाले प्रोडक्ट्स का प्रयोग जरूर करना चाहिए ताकि गर्मियों में भी आपके चेहरे का निखार कहीं जाए न।

पीनट मसाला इडली और पोहा पनीर बॉम्ब्स, गर्मियों में बनाएं ये लाइट रेसिपीज

गर्मियों में हमारे शरीर की पाचन क्षमता बहुत कम हो जाती है इसीलिए आहार विशेषज्ञों द्वारा इस मौसम में हल्के भोजन की सलाह दी जाती है. ताकि पाचन तंत्र को भोजन को पचाने के लिए अतिरिक्त प्रयास न करने पड़ें. साथ ही इन दिनों किचिन में काम करना भी बहुत बड़ी चुनौती होती है आज हम ऐसी ही 2 लाइट रेसिपीज बनाना बता रहे हैं जिन्हें आप बड़ी आसानी से घर में उपलब्ध सामग्री से बना सकतीं हैं. इन्हें आप बनाकर भी फ्रिज में रख सकतीं हैं जिससे आपको गर्मी में किचिन में नहीं घुसना पड़ेगा तो आइए देखते हैं कि इन्हें कैसे बनाया जाता है-

1 पीनट मसाला इडली

कितने लोगों के लिए                6

बनने में लगने वाला समय         30 मिनट

मील टाइप                             वेज

सामग्री (इडली के लिए)

  • बारीक सूजी                       1 कप
  • दही                                   1/2 कप
  • पानी                                   1/2 कप
  • नमक                                  स्वादानुसार
  • ईनो फ्रूट सॉल्ट                     1/4 टीस्पून
  • बारीक कटी हरी मिर्च            2
  • बारीक कटा हरा धनिया          1 लच्छी
  • सामग्री (तड़के के लिए)
  • तेल                                  1 टीस्पून
  • दरदरी कुटी मूंगफली            1/4 कप
  • राई के दाने                         1/4 टीस्पून
  • करी पत्ता                           8-10
  • कश्मीरी लाल मिर्च            1/4 टीस्पून
  • उड़द और चने की दाल       1/4 टीस्पून

विधि

सूजी को दही और पानी में घोलकर आधे घण्टे के लिए रख दें ताकि सूजी फूल जाए. अब एक पैन में तेल गरम करके मूंगफली को हल्का सा रोस्ट करके तड़के की समस्त सामग्री डाल दें. आधे घण्टे बाद सूजी में नमक और ईनो फ्रूट सॉल्ट डालकर चलायें. धनिया पत्ती, कटी हरी मिर्च और तड़का डालें. अच्छी तरह चलाकर इड्ली मोल्ड्स में तैयार मिश्रण को डाल दें और भाप में 20 मिनट तक पकाएं. ठंडा होने पर डिमोल्ड करें. चटनी या टोमेटो सॉस के साथ सर्व करें. आप चाहें तो इन्हें काटकर फ़्राय भी कर सकते हैं.

2 पोहा पनीर बॉम्ब्स

कितने लोगों के लिए            4

बनने में लगने वाला समय       30 मिनट

मील टाइप                          वेज

सामग्री

  • पोहा                           1 कप
  • दही                            1/2  कप
  • चावल का आटा           1/4 कप
  • पनीर                          250 ग्राम
  • हरी मिर्च                     2
  • अदरक                         1 छोटी गांठ
  • बेकिंग सोडा                  1/4 टीस्पून
  • हरी, पीली, लाल कटी शिमला मिर्च 1 कप
  • बारीक कटा प्याज           1
  • बारीक कटी हरी धनिया     1 लच्छी
  • किसी गाजर                    1/2 कप
  • नमक                           स्वादानुसार
  • लाल मिर्च पाउडर          1/4 टीस्पून
  • गरम मसाला                 1/4 टीस्पून
  • अमचूर पाउडर               1/4 टीस्पून
  • तिल्ली                          1/4 टीस्पून
  • राई                              1/4 टीस्पून
  • तेल                              1 टेबलस्पून

विधि

पोहे को दही, अदरक और हरी मिर्च के साथ मिक्सी में पीस लें. अब इसमें चावल का आटा मिलाकर 20 मिनट के लिए ढककर रख दें. 4 छोटे आकार की कटोरी लेकर ग्रीस कर लें. अब इन्हीं कटोरियों की गोलाई के बराबर के पनीर से पतले पतले स्लाइस काट लें.  20 मिनट बाद पोहा चावल के आटे के फूलने से गाढ़ा हो जाएगा तब इसमें पानी मिलाकर चलाएं. अब पनीर, तेल, राई और तिल्ली को छोड़कर सभी सब्जियां, मसाले और बेकिंग पाउडर पोहे के घोल में डालकर अच्छी तरह चलाएं. ग्रीस की हुई कटोरियों में 1 चम्मच मिश्रण डालकर पनीर का स्लाइस रखें और इसे फिर से 1 चम्मच मिश्रण डालकर कवर कर दें. इसी प्रकार सारी कटोरियां तैयार कर लें. इन्हें भाप में 20 से 25 मिनट तक पकाएं. ठंडा होने पर डिमोल्ड कर लें. एक पैन में तेल गरम करके तिल्ली, और राई डालें और डिमोल्ड किये बॉम्ब्स को मध्यम आंच पर सुनहरा होने तक सेककर हरे धनिये की चटनी या टोमेटो सॉस के साथ सर्व करें.

पिता का नाम: भाग 3- एक बच्चा मां के नाम से क्यों नहीं जाना जाता

तापस ने मानसी से कहा, “वह एक ऐसी लड़की से शादी नहीं कर सकता जो शादी से पहले ही अपनी इज्जत गंवा बैठी हो, वह उस के क्या, किसी की भी पत्नी बनने के लायक नहीं है. जो अपनी मानमर्यादा और सम्मान की रक्षा नहीं कर सकती, शादी से पहले मां बनने वाली हो, वह उस के कुल की प्रतिष्ठा का क्या मान रख पाएगी.”

इतना सब तापस से सुनने के बाद मानसी में इतनी शक्ति ही नहीं बची कि वह कुछ कहे या सुने, मानसी रोती हुई खुद को और उस क्षण को कोसती हुई अपने फ्लैट लौट आई जब उस ने अपना सर्वस्व तापस को समर्पित कर दिया था.

मानसी ने अपनेआप को कमरे में बंद कर लिया. कभी उस का जी मर जाने को करता तो कभी तापस को जान से मार देने को. वह अभी खुद को संभाल नहीं पाई थी कि मानसी की मां का फोन आ गया और उन्होंने मानसी को बताया कि तापस के मातापिता ने रिश्ता तोड़ दिया है और कारण ठहराया है मानसी का वर्जिन नहीं होना.

मानसी की मां भी उसे समझने या संबल देने के बजाय उस पर ही सवालों की झड़ी लगा दी और मानसी को ही बुरा कहने लगी कि उस ने उन्हें समाज में मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा, अपनी इज्जत गंवा बैठी और ना जाने क्या क्या…? मानसी चुपचाप सुनती रही और फिर उस ने फोन रख दिया.

अगली सुबह मानसी के मातापिता बैंगलुरु उस के फ्लैट पर आ पहुंचे और उसे एबौर्शन के लिए मजबूर करने लगे लेकिन मानसी इस के लिए तैयार न हुई. एबौर्शन के लिए राजी न होने पर मानसी के मातापिता उस से यह कह कर नागपुर लौट ग‌ए कि उन्हें समाज में रहना है तो समाज के बनाए नियमों के अनुरूप ही चलना पड़ेगा और समाज बिन ब्याही मां को स्वीकार नहीं करता, उसे सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता और न ही उस से जुड़े लोगों को. इसलिए यदि वह एबौर्शन करा सकती है तो वह नागपुर अपने घर आ सकती है वरना उसे अपनी सूरत दिखाने की जरूरत नहीं.

मानसी को सच्चे दिल से प्यार करने की, खुद से ज्यादा अपने होने वाले जीवनसाथी पर विश्वास करने की सज़ा मिली थी. आज वह बिलकुल अकेली पड़ गई थी. सब ने उस का साथ छोड़ दिया था. वह अब यह जान चुकी थी कि समाज के ठेकेदारों के संग यह उस की अपनी लड़ाई है. समाज के बनाए नियमों के खिलाफ उसे अकेले ही लड़ना पड़ेगा. पगपग पर उसे बेइज्जत, लज्जित और गिराया जाएगा लेकिन उसे फिर खुद उठना होगा, खड़ा होना होगा और अपने व अपने बच्चे के लिए लड़ना होगा.

दुनिया और समाज से अकेली लड़ती हुई मानसी ने बेटे को जन्म दिया. मानसी के मातापिता उस से मिलने तक को नहीं आए. वक्त बीतता गया और फिर धीरेधीरे मानसी की बात अपने मातापिता से फोन पर होने लगी. मानसी का काम और व्यवहार इतना अच्छा था कि उस के व्यक्तित्व के आगे लोग झुकने लगे. औफिस में उसे सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा. मानसी का प्रमोशन भी हो गया और वह दिल्ली आ गई.

यों ही 5 साल बीत ग‌ए. मानसी का बेटा विवान 3 साल का हो गया. तापस ने फिर कभी मानसी की ओर मुड़ कर भी न देखा. इस बीच मानसी की सचाई को जानतेसमझते हुए उसे शादी के कुछ रिश्ते भी आए लेकिन मानसी फिर कभी किसी रिश्ते में नहीं बंधी. एक दिन अचानक सुबहसुबह डोरबैल बजी. दरवाजा खोलते ही मानसी हैरान रह ग‌ई. 5 सालों बाद आज पहली बार उस के मातापिता सामने खड़े थे. मानसी की आंखें नम हो गईं और वह झट से अपनी मां के गले लग गई लेकिन अगले ही पल तापस और उस के मातापिता को देख मानसी का खून खौल उठा. तभी मानसी की मां ने झट से उस का हाथ थाम लिया और बोली, “बेटा, सुन तो ले हम यहां क्यों आए हैं. तापस तुझ से कुछ कहना चाहता है.”

इतना सुन कर मानसी दरवाजे से हट ग‌ई और सब अंदर आ ग‌ए. तापस अपने दोनों हाथों को जोड़ कर बोला, “मानसी, मुझे माफ़ कर दो. मैं अपनी गलती सुधारना चाहता हूं. मैं तुम से शादी करना चाहता हूं. मैं अपने बेटे को अपना का नाम देना चाहता हूं. तुम तो जानती हो उस बच्चे का कोई भविष्य नहीं होता जिस के साथ पिता का नाम नहीं जुड़ा होता.”

यह सुन मानसी बड़े शांतभाव बोली, “अचानक यह हृदय परिवर्तन क्यों? अखिर ऐसा क्या हुआ कि तुम वाल्मीकि बनने चले? तुम इतने दिनों बाद आज क्यों अपनी गलती सुधारना चाहते हो? मुझे और मेरे बच्चे को अब क्यों अपनाना चाहते हो? क्या आज तुम्हें अपनी मान, मर्यादा और कुल की प्रतिष्ठा का ख़याल नहीं है या यह भूल गए हो कि मैं वर्जिन नहीं हूं एक बिनब्याही मां हूं.”

तापस सिर झुकाए सबकुछ सुनता रहा. उस के पास मानसी को देने के लिए कोई जवाब नहीं था. तभी तापस की मां बोली, “मानसी बेटा, इसे माफ कर दो. इसे अपने किए की सज़ा कुदरत ने दे दी है. एक सड़क दुघर्टना में यह अपना सबकुछ गवां चुका है, यहां तक कि अपना पुरुषत्व भी. अब यह कभी भी पिता नहीं बन सकता. तुम्हारा बेटा हमारे घर का चिराग है. उसे हमें लौटा दो. तुम्हें भी तापस से शादी के बाद तुम्हारा खोया हुआ मानसम्मान मिल जाएगा और तुम्हारे बेटे को पिता का नाम.”

होंठों पर मुसकान लिए मानसी बोली, “शादी कर के मुझे झूठा मानसम्मान नहीं चाहिए और रही बात पिता के नाम की, तो ऐसा है जब एक गीतकार गीत बनाता है तो उसे अपना नाम देता है, चित्रकार जब चित्र बनाता है उस के नीचे अपना नाम लिखता है और एक लेखक जब कोई रचना लिखता है तो उस के नीचे भी वह अपना ही नाम लिखता है. हर रचना रचनाकार के नाम से जानी जाती है तो फिर जब एक मां नौ महीने अपने बच्चे को अपने गर्भ में रखती है, गर्भ में रह कर ही बच्चा अपना आकार पाता है, स्वरूप पाता है तो जन्म लेते ही उस बच्चे के साथ पिता का नाम क्यों जरूरी हो जाता है. एक बच्चा अपनी मां के नाम से क्यों नहीं जाना जा सकता…? मेरा बेटा मेरे ही नाम से जाना जाएगा. उसे किसी पिता के नाम की जरूरत नहीं, आप सब जा सकते हैं.”

इतना कह कर मानसी दरवाजे के पास आ कर खड़ी हो गई. किसी ने कोई जवाब नहीं दिया. सब सिर झुकाए घर से बाहर निकल ग‌ए और मानसी ने अपने घर का दरवाजा बंद कर दिया.

वजूद से परिचय: भैरवी के बदले रूप से क्यों हैरान था ऋषभ?

‘‘मम्मी… मम्मी, भूमि ने मेरी गुडि़या तोड़ दी,’’ मुझे नींद आ गई थी. भैरवी की आवाज से मेरी नींद टूटी तो मैं दौड़ती हुई बच्चों के कमरे में पहुंची. भैरवी जोरजोर से रो रही थी. टूटी हुई गुडि़या एक तरफ पड़ी थी.

मैं भैरवी को गोद में उठा कर चुप कराने लगी तो मुझे देखते ही भूमि चीखने लगी, ‘‘हां, यह बहुत अच्छी है, खूब प्यार कीजिए इस से. मैं ही खराब हूं… मैं ही लड़ाई करती हूं… मैं अब इस के सारे खिलौने तोड़ दूंगी.’’

भूमि और भैरवी मेरी जुड़वां बेटियां हैं. यह इन की रोज की कहानी है. वैसे दोनों में प्यार भी बहुत है. दोनों एकदूसरे के बिना एक पल भी नहीं रह सकतीं.

मेरे पति ऋषभ आदर्श बेटे हैं. उन की मां ही उन की सब कुछ हैं. पति और पिता तो वे बाद में हैं. वैसे ऋषभ मुझे और बेटियों को बहुत प्यार करते हैं, परंतु तभी तक जब तक उन की मां प्रसन्न रहें. यदि उन के चेहरे पर एक पल को भी उदासी छा जाए तो ऋषभ क्रोधित हो उठते, तब मेरी और मेरी बेटियों की आफत हो जाती.

शादी के कुछ दिन बाद की बात है. मांजी कहीं गई हुई थीं. ऋषभ औफिस गए थे. घर में मैं अकेली थी. मांजी और ऋषभ को सरप्राइज देने के लिए मैं ने कई तरह का खाना बनाया.

परंतु यह क्या. मांजी ऋषभ के साथ घर पहुंच कर सीधे रसोई में जा घुसीं और फिर

जोर से चिल्लाईं, ‘‘ये सब बनाने को किस ने कहा था?’’

मैं खुशीखुशी बोली, ‘‘मैं ने अपने मन से बनाया है.’’

वे बड़बड़ाती हुई अपने कमरे में चली गईं और दरवाजा बंद कर लिया. ऋषभ भी चुपचाप ड्राइंगरूम में सोफे पर लेट गए. मेरी खुशी काफूर हो चुकी थी.

ऋषभ क्रोधित स्वर में बोले, ‘‘तुम ने अपने मन से खाना क्यों बनाया?’’

मैं गुस्से में बोली, ‘‘क्यों, क्या यह मेरा घर नहीं है? क्या मैं अपनी इच्छा से खाना भी नहीं बना सकती?’’

मेरी बात सुन कर ऋषभ जोर से चिल्लाए, ‘‘नहीं, यदि तुम्हें इस घर में रहना है तो मां की इच्छानुसार चलना होगा. यहां तुम्हारी मरजी नहीं चलेगी. तुम्हें मां से माफी मांगनी होगी.’’

मैं रो पड़ी. मैं गुस्से से उबल रही थी कि सब छोड़छाड़ अपनी मां के पास चली जाऊं. लेकिन मम्मीपापा का उदास चेहरा आंखों के सामने आते ही मैं मां के पास जा कर बोली, ‘‘मांजी, माफ कर दीजिए. आगे से कुछ भी अपने मन से नहीं करूंगी.’’

मैं ने मांजी के साथ समझौता कर लिया था. सभी कार्यों में उन का ही निर्णय सर्वोपरि रहता. मुझे कभीकभी बहुत गुस्सा आता मगर घर में शांति बनी रहे, इसलिए खून का घूंट पी जाती.

सब सुचारु रूप से चल रहा था कि अचानक हम सब के जीवन में एक तूफान आ गया. एक दिन मैं औफिस में चक्कर खा कर गिर गई और फिर बेहोश हो गई. डाक्टर को बुलाया गया, तो उन्होंने चैकअप कर बताया कि मैं मां बनने वाली हूं.

सभी मुझे बधाई देने लगे, मगर ऋषभ और मैं दोनों परेशान हो गए कि अब क्या किया जाए.

तभी मांजी ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे बेटा नहीं था उसी कमी को पूरा करने के लिए यह अवसर आया है.’’

मां खुशी से नहीं समा रही थीं. वे अपने पोते के स्वागत की तैयारी में जुट गई थीं.

 

अब मां मुझे नियमित चैकअप के लिए डाक्टर के पास ले जातीं.

चौथे महीने मुझे कुछ परेशानी हुई तो डाक्टर के मुंह से अल्ट्रासाउंड करते समय अचानक निकल गया कि बेटी तो पूरी तरह ठीक है औैर मां को भी कुछ नहीं है.

मांजी ने यह बात सुन ली. फिर क्या था. घर आते ही फरमान जारी कर दिया कि दफ्तर से छुट्टी ले लो और डाक्टर के पास जा कर गर्भपात कर लो. मांजी का पोता पाने का सपना जो टूट गया था.

मैं ने ऋषभ को समझाने का प्रयास किया, परंतु वे गर्भपात के लिए डाक्टर के पास जाने की जिद पकड़ ली. आखिर वे मुझे डाक्टर के पास ले ही गए.

डाक्टर बोलीं, ‘‘आप लोगों ने आने में बहुत देर कर दी है. अब मैं गर्भपात की सलाह नहीं दे सकती.’’

अब मांजी का व्यवहार मेरे प्रति बदल गया. व्यंग्यबाणों से मेरा स्वागत होता. एक दिन बोलीं, ‘‘बेटियों की मां तो एक तरह से बांझ ही होती हैं, क्योंकि बेटे से वंश आगे चलता है.’’

अब घर में हर समय तनाव रहता. मैं भी बेवजह बेटियों को डांट देतीं. ऋषभ मांजी की हां में हां मिलाते. मुझ से ऐसा व्यवहार करते जैसे इस सब के लिए मैं दोषी हूं. वे बातबात पर चीखतेचिल्लाते, जिस से मैं परेशान रहती.

एक दिन मांजी किसी अशिक्षित दाई को ले कर आईं और फिर मुझ से बोलीं, ‘‘तुम औफिस से 2-3 की छुट्टी ले लो… यह बहुत ऐक्सपर्ट है. इस का रोज का यही काम है.

यह बहुत जल्दी तुम्हें इस बेटी से छुटकारा दिला देगी.’’

सुन कर मैं सन्न रह गई. अब मुझे अपने जीवन पर खतरा साफ दिख रहा था. मैं ऋषभ के आने का इंतजार करने लगीं. वे औफिस से आए तो मैं ने उन्हें सारी बात बताई.

ऋषभ एक बार को थोड़े गंभीर तो हुए, लेकिन फिर धीरे से बोले, ‘‘मांजी नाराज हो जाएंगी, इसलिए उन का कहना तो मानना ही पड़ेगा.’’

मुझे कायर ऋषभ से घृणा होने लगी. अपने दब्बूपन पर भी गुस्सा आने लगा कि क्यों मैं मुखर हो कर अपने पक्ष को नहीं रखती. मैं क्रोध से थरथर कांप रही थी. बिस्तर पर लेटी तो नींद आंखों से कोसों दूर थी.

ऋषभ बोले, ‘‘क्या बात है? बहुत परेशान दिख रही हो? सो जाओ… डरने की जरूरत नहीं है. सबेरे सब ठीक हो जाएगा.’’

मैं मन ही मन सोचने लगी कि ऋषभ इतने डरपोक क्यों हैं? मांजी का फैसला क्या मेरे जीवन से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है? मेरा मन मुझे प्रताडि़त कर रहा था. मुझे अपने चारों ओर उस मासूम का करुण क्रंदन सुनाई पड़ रहा था. मेरा दिमाग फटा जा रहा था… मुझे हत्यारी होने का बोध हो रहा था. ‘बहुत हुआ, बस अब नहीं,’ सोच मैं विरोध करने के लिए मचल उठी. मैं चीत्कार कर उठी कि नहीं मेरी बच्ची, अब तुम्हें मुझ से कोई नहीं दूर कर सकता. तुम इस दुनिया में अवश्य आओगी…

मैं ने निडर हो कर निर्णय ले लिया था. यह मेरे वजूद की जीत थी. अपनी जीत पर मैं स्वत: इतरा उठी. मैं निश्चिंत हो गई और प्रसन्न हो कर गहरी नींद में सो गई.

सुबह ऋषभ ने आवाज दी, ‘‘उठो, मांजी आवाज दे रही हैं. कोई दाई आई है… तुम्हें बुला रही हैं.’’

मेरे रात के निर्णय ने मुझे निडर बना दिया था. अत: मैं ने उत्तर दिया, ‘‘मुझे सोने दीजिए… आज बहुत दिनों के बाद चैन की नींद आई है. मांजी से कह दीजिए कि मुझे किसी दाईवाई से नहीं मिलना.’’

मांजी तब तक खुद मेरे कमरे में आ चुकी थीं. वे और ऋषभ दोनों ही मेरे धृष्टता पर हैरान थे. मेरे स्वर की दृढ़ता देख कर दोनों की बोलती बंद हो गई थी. मैं आंखें बंद कर उन के अगले हमले का इंतजार कर रही थी. लेकिन यह क्या? दोनों खुसुरफुसुर करते हुए कमरे से बाहर जा चुके थे.

भैरवी और भूमि मुझे सोया देख कर मेरे पास आ गई थीं. मैं ने दोनों को अपने से लिपटा कर खूब प्यार किया. दोनों की मासूम हंसी मेरे दिल को छू रही थी. मैं खुश थी. मेरे मन से डर हवा हो चुका था. हम तीनों खुल कर हंस रहे थे.

ऋषभ को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि रात भर में इसे क्या हो गया. अब मेरे मन में न तो मांजी का खौफ था न ऋषभ का और न ही घर टूटने की परवाह थी. मैं हर परिस्थिति से लड़ने के लिए तैयार थी.

यह मेरे स्वत्व की विजय थी, जिस ने मुझे मेरे वजूद से मेरा परिचय कराया था.

पैंसठ पार का सफर: क्या कम हुआ सुरभि का डर

टेलीविजन का यह विज्ञापन उन्हें कहीं  बहुत गहरे सहला देता है, ‘झूठ बोलते हैं वे लोग जो कहते हैं कि उन्हें डर नहीं लगता. डर सब को लगता है, प्यास सब को लगती है.’ अगर वे इस विज्ञापन को लिखतीं तो इस में कुछ वाक्य और जोड़तीं, प्यास ही नहीं, भूख भी सब को लगती है… हर उम्र में…इनसान की देह की गंध भी सब को छूती है और चाहत की चाहत भी सब में होती है.

उम्र 65 की हो गई है. मौत का डर हर वक्त सताता है. यह जानते हुए भी कि मौत तो एक दिन सबको आती है. फिर उस से डर क्यों? नहीं, गीता की आत्मा वाली बात में उन की आस्था नहीं है कि आत्मा को न आग जला सकती है, न मौत मार सकती है, न पानी गला सकता है…सब झूठ लगता है उन्हें. शरीर में स्वतंत्र आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं लगता और शरीर को यह सब व्यापते हैं तो आत्मा को भी जरूर व्यापते होंगे. धर्मशास्त्र आदमी को हमेशा बरगलाया क्यों करते हैं? सच को सच क्यों नहीं मानते, कहते? वे अपनेआप से बतियाने लगती हैं, दार्शनिकों की तरह…

चौथी मंजिल के इस फ्लैट में सारे सुखसाधन मौजूद हैं. एक कमरे में एअरकंडीशनर, दूसरे में कूलर. काफी बड़ी लौबी. लौबी से जुडे़ दोनों कमरे, किचन, बाथरूम. बरामदे में जाने का सिर्फ एक रास्ता, बरामदे में 3 दूसरे फ्लैटों के अलावा चौथा लिफ्ट का दरवाजा है.

इस विशाल इमारत के चारों तरफ ऊंची चारदीवारी, पक्का फर्श, गेट पर सुरक्षा गार्ड. गार्ड रूम में फोन. गार्ड आगंतुक से पूछताछ करते हैं, दस्तखत कराते हैं. फोन से फ्लैट वाले से पूछा जाता है कि फलां साहब मिलने आना चाहते हैं, आने दें?

इस फ्लैट मेंऐसा क्या है जो पति उन्हें न दे कर गए हों? मौत से पहले उन्होंने उस के लिए सब जुटा दिया और एक दिन हंसीहंसी में कहा था उन्होंने, ‘आराम से रहोगी हमारे बिना भी.’

तब वह कु्रद्ध हो गई थीं, ‘ठीक है कि मुझे धर्मकर्म के ढोंग में विश्वास नहीं है पर मैं मरना सुहागिन ही चाहूंगी…मेरी अर्थी को आप का कंधा मिले, हर भारतीय नारी की तरह यह मेरी भी दिली आकांक्षा है.’ पर आकांक्षाएं और चाहतें पूरी कहां होती हैं?

उन के 2 बेटे हैं. एक ने आई.आई.टी. में उच्च शिक्षा पाई तो दूसरे ने आई.आई.एम. में. लड़की ने रुड़की से इलेक्ट्रोनिक इंजीनियरिंग में शिक्षा पाई. तीनों में से कोई भी अपने देश में रुकने को तैयार नहीं हुआ. सब को आज की चकाचौंध ने चौंधिया रखा था. सब कैरियर बनाने विदेश चले गए और उन की चाहत धरी की धरी रह गई. पति से बोली भी थीं, ‘लड़की को शादी के बाद ही जाने दो बाहर…कोई गलत कदम उठ गया तो बदनामी होगी,’ पर लड़की का साफ कहना था, ‘वहीं कोई पसंद आ गया तो कर लूंगी शादी. अपने जैसा ही चाहिए मुझे, सुंदर, स्मार्ट, पढ़ालिखा, वैज्ञानिक दृष्टि वाला.’

लड़कों ने भी उन की नहीं सुनी. पहले कैरियर बाद में शादी, यह कह कर विदेश गए और बाद में शादी कर ली पर बाप से पूछना तक मुनासिब नहीं समझा.

इस फ्लैट में अकेले वे दोनों ही रह गए. उस रात अचानक पति के सीने में दर्द उठा. वह घबराईं, डाक्टर को फोन किया. अस्पताल से एंबुलेंस आए उस से पहले ही उन्होंने अंतिम सांस ले ली. बच्चों को फोन किया तो दोनों ने फ्लाइट्स न मिलने की बात कही और बताया कि आने  में एक सप्ताह लगेगा, सबकुछ खुद ही निबटवा लें किसी तरह. उन्होंने पूछा भी था कि कैसे और किस से कराएं दाहसंस्कार? पर कोई उत्तर नहीं मिला उन्हें.

बच्चे आए. बाकी के कर्मकांड जल्दी से निबटाए और फिर एक दिन बोले, ‘पापा लापरवाह आदमी थे. इस उम्र में तेल, घी छोड़ देना चाहिए था, पर वह तो हर वक्त यहां दीवान पर लेटेलेटे या तो किताबें, अखबार पढ़ते या फिर टीवी पर खबरें सुनते रहते. उन्होंने तो कहीं आनाजाना भी छोड़ दिया था. ऐसे लाइफ स्टाइल का यही हश्र होना था. वह तो सब्जीभाजी तक नौकरानी से मंगाते. इस्तेमाल की चीजें दुकानों से फोन कर के मंगवा लेते. कहीं इस तरह जीवन जिया जाता है?’

कहते तो ठीक थे बच्चे पर उन के अपने तर्क होते थे. वह कहते, ‘यह महानगर है, सुरभि. यहां बेमतलब कोई न किसी से मिलता है न मिलना पसंद करता है. किसे फुर्सत है जो ठलुओं से बतियाए?’

‘ठलुए’ शब्द उन्हें बहुत खलता. आखिर उन के अपने दफ्तर के भी तो लोग हैं. उन में  भी 2-3 रिटायर व्यक्ति हैं. उन्हीं के पास जा बैठें. अगर ये ठलुए हैं तो वे कौन सा पहाड़ खोद रहे होंगे?

कहा तो बोले, ‘सब ने कोई न कोई पार्ट टाइम जौब पकड़ लिया है. किसी को फुर्सत नहीं है.’

‘तो आप भी ऐसा कुछ करने लगिए,’ सुरभि ने कहा था.

‘नहीं करना. अपने पास अब सब है. पेंशन तुम्हें भी मिलती है, मुझे भी. बच्चे सब बड़े हो गए. विदेश जा बसे. उन्हें हमारे पैसे की जरूरत नहीं है. अपने पास कोई कमी नहीं है, फिर क्यों इस उम्र में अपने से काफी कम उम्र के लोगों की झिड़कियां सुनें?’

जबरन ही कभीकभी शाम को खाने के बाद सुरभि पति को अपने साथ लिवा जातीं. सड़क पार एक बड़ा पार्क था, उस में चहलकदमी करते. वहां बच्चों का हुल्लड़ उन्हें पसंद न आता. खासकर वे जिस तरह धौलधप्प करते, गेंद खेलते, भागदौड़ में गिरतेपड़ते. कभीकभी उन की गेंद उन तक आ जाती या उन्हें लग जाती तो झुंझला उठते, ‘यह पार्क ही रह गया है तुम लोगों को हुल्लड़ मचाने के लिए?’

वह पति की कोहनी दबा देतीं, ‘तो कहां जाएं बेचारे खेलने? सड़क पर वाहनों की रेलपेल, घरों में जगह नहीं, स्कूल दूर हैं. कहां खेलें फिर?’

‘भाड़ में,’ वह चीख से पड़ते. यह उन का तकिया कलाम था. जब भी, जिस पर भी वह गुस्सा होते, उन के मुंह से यही शब्द निकलता.

आखिर उन की बात सच निकली… बच्चे हम से बहुत दूर, विदेश के भाड़ में चले गए और स्वयं भी वह चिता के भाड़ में और जीतेजी वह भी इस फ्लैट में अकेली भाड़ में ही पड़ी हुई हैं.

शाम को जब बर्तन मांजने वाली बर्तन साफ कर जाती तो वह अकसर सामने के पार्क में चली जातीं…इस भाड़ से कुछ देर को तो बाहर निकलें.

घूमती टहलती जब थक जातीं तो सीमेंट की बेंच पर बैठ जातीं. एक दिन बैठीं तो एक और वृद्धा उन के निकट आ बैठी. इस उम्र की औरतों का एकसूत्री कार्यक्रम होता है, बेटेबहुओं की आलोचना करना और बेटियों के गुणगान, अपने दुखदर्द और बेचारगी का रोना और बीमारियों का बढ़ाचढ़ा कर बखान करना. यह भी कि बहू इस उम्र में उन्हें कैसा खाना देती है, उन से क्याक्या काम कराती है, इस का पूरा लेखाजोखा.

बहुत जल्दी ऊब जाती हैं वह इन बुढि़यों की एकरस बातों से. सुरभि उठने को ही थीं कि वह वृद्धा बोली, ‘आजकल मैं सुबह टेलीविजन पर योग और प्राणायाम देखती हूं. पहले सुबह यहां घूमने आती थी, पर जब से चैनल पर यह कार्यक्रम आने लगा, आ ही नहीं पाती. आप को भी जरूर देखना चाहिए. सारे रोगों की दवा बताते हैं. अब आसन तो इस उमर में हो नहीं पाते मुझ से, पर हाथपांव को चलाना, घुटनों को मोड़ना, प्राणायाम तो कर ही लेती हूं.’

‘फायदा हुआ कुछ इन सब से आप को?’ न चाहते हुए भी सुरभि पूछ बैठीं.

‘पहले हाथ ऊपर उठाने में बहुत तकलीफ होती थी. घुटने भी काम नहीं करते थे. यहां पार्क में ज्यादा चलफिर लेती तो टीस होने लगती थी पर अब ऐसा नहीं होता. टीस कम हो गई है, हाथ भी ऊपर उठने लगे हैं, जांघों का मांस भी कुछ कम हो गया है.’

‘सब प्रचार है बहनजी. दुकानदारी कहिए,’ वह मुसकराती हैं, ‘कुछ बातें ठीक हैं उन की, सुबह उठने की आदत, टहलना, घूमनाफिरना, स्वच्छसाफ हवा में अपने फेफड़ों में सांस खींचना…कुछ आसनों से जोड़ चलाए जाएंगे तो जाम होने से बचेंगे ही. पर हर रोग की दवा योग है, यह सही नहीं हो सकता.’

पास वाली बिल्डिंग के तीसरे माले पर एक बूढ़े दंपती रहते थे. उन्होंने 15-16 साल का एक नौकर रख रखा था. बच्चे विदेश से पैसा भेजते थे. नौकर ने एक दिन देख लिया कि पैसा कहां रखते हैं. अपने एक सहयोगी की सहायता से नौकर ने रात को दोनों का गला रेत दिया और मालमता बटोर कर भाग गए. पुलिस दिखावटी काररवाई करती रही. एक साल हो गया, न कोई पकड़ा गया, न कुछ पता चला.

सुरभि और उन के पति ने तब से नियम बना रखा था कि पैसा और जेवर कभी नौकरों के सामने न रखो, जरूरत भर का ही बैंक से वह पैसा लाते थे. खर्च होने पर फिर बैंक चले जाते थे. किसी को बड़ी रकम देनी होती तो हमेशा यह कह कर दूसरे दिन बुलाते थे कि बैंक से ला कर देंगे, घर में पैसा नहीं रहता.

मौत सचमुच बहुत डराती है उन्हें. पति के जाने के बाद जैसे सबकुछ खत्म हो गया. क्या आदमी जीवन में इतना महत्त्व रखता है? कई बार सोचती हैं वह और हमेशा इसी नतीजे पर पहुंचती हैं. हां, बहुत महत्त्वपूर्ण, खासकर इस उम्र में, इन परिस्थितियों में, ऐसे अकेलेपन में…कोई तो हो जिस से बात करें, लड़ेंझगड़ें, बहस करें, देश और दुनिया के हालात पर अफसोस करें.

इसी इमारत में एक अकेले सज्जन भाटिया साहब अपने फ्लैट में रहते हैं, बैंक के रिटायर अफसर. बेटाबहू आई.टी. इंजीनियर. बंगलौर में नौकरी. बूढ़े का स्वभाव जरा खरा था. देर रात तक बेटेबहू का बाहर क्लबों में रहना, सुबह देर से उठना, फिर सबकुछ जल्दीजल्दी निबटा, दफ्तर भागना…कुछ दिन तो भाटिया साहब ने बरदाश्त किया, फिर एक दिन बोले, ‘मैं अपने शहर जा कर रहूंगा. यहां अकेले नहीं रह सकता. कोई बच्चा भी नहीं है तुम लोगों का कि उस से बतियाता रहूं.’

‘बच्चे के लिए वक्त कहां है पापा हमारे पास? जब वक्त होगा, देखा जाएगा,’ लड़के ने लापरवाही से कहा था.

भाटिया साहब इसी बिल्ंिडग के अपने  फ्लैट में आ गए.

भाटिया साहब के फ्लैट का दरवाजा एकांत गैलरी में पड़ता था. किसी को पता नहीं चला. दूध वाला 3 दिन तक दूध की थैलियां रखता रहा. अखबार वाला भी रोज दूध की थैलियों के नीचे अखबार रखता रहा. चौथे दिन पड़ोसी से बोला, ‘भाटिया साहब क्या बाहर गए हैं? हम लोगों से कह कर भी नहीं गए. दूध और अखबार 3 दिन से यहीं पड़ा है.’

पड़ोसी ने आसपास के लोगों को जमा किया. दरवाजा खटखटाया. कोई जवाब नहीं. पुलिस बुलाई गई. दरवाजा तोड़ा गया. भाटिया साहब बिस्तर पर मृत पड़े थे और लाश से बदबू आ रही थी. पता नहीं किस दिन, किस वक्त प्राण निकल गए. अगर भाटिया साहब की पत्नी जीवित होतीं तो यों असहाय अवस्था में न मरते.

ऐसी मौतें सुरभि को भी बहुत डराती हैं. कलेजा धड़कने लगता है जब वह टीवी पर समाचारों में, अखबारों या पत्रिकाओं में अथवा अपने शहर या आसपास की इमारतों में किसी वृद्ध को ऐसे मरते या मारे जाते देखती हैं. उस रात उन्हें ठीक से नींद नहीं आती. लगता रहता है, वह भी ऐसे ही किसी दिन या तो मार दी जाएंगी या मर जाएंगी और उन की लाश भी ऐसे ही बिस्तर पर पड़ी सड़ती रहेगी. पुलिस ही दरवाजा तोड़ेगी, पोस्टमार्टम कराएगी, फिर अड़ोसीपड़ोसी ही दाहसंस्कार करेंगे. बेटेबहू या बेटीदामाद तो विदेश से आएंगे नहीं. इसी डर से उन्होंने अपने तीनों पड़ोसियों को बच्चों के पते और टेलीफोन नंबर तथा मोबाइल नंबर दे रखे हैं…घटनादुर्घटना का इस उम्र में क्या ठिकाना, कब हो जाए?

अखबार के महीन अक्षर पढ़ने में अब इस चश्मे से उन्हें दिक्कत होने लगी है. शायद चश्मा उतर गया है. बदलवाना पड़ेगा. पहले तो सोचा कि बाजार में चश्मे वाले स्वयं कंप्यूटर से आंख टेस्ट कर देते हैं, उन्हीं से करवा लें और अगर उतर गया तो लैंस बदलवा लें. पर फिर सोचा, नहीं, आंख है तो सबकुछ है. अगर अंधी हो गईं तो कैसे जिएंगी?

पिछली बार जिस डाक्टर से आंख टेस्ट कराई थी उसी से आंख चैक कराना ठीक रहेगा. खाने के बाद वह अपनी कार से उस डाक्टर के महल्ले में गईं. काफी भीड़ थी. यही तो मुसीबत है अच्छे डाक्टरों के यहां जाने में. लंबी लाइन लगती है, घंटों इंतजार करो. फिर आंख में दवा डाल कर एकांत में बैठा देते हैं. फिर बहुत लंबे समय तक धुंधला दिखाई देता है, चलने और गाड़ी चलाने में भी कठिनाई होती है.

वह लंबी बैंच थी जिस के कोने में थोड़ी जगह थी और वह किसी तरह ठुंसठुंसा कर बैठ सकती थीं. खड़ी कहां तक रहेंगी? शरीर का वजन बढ़ रहा है.

बैठीं तो उन का ध्यान गया, बगल में कोई वृद्ध सज्जन बैठे थे. उन की आंखों में शायद दवा डाली जा चुकी थी, इसलिए आंखें बंद थीं और चेहरे को सिर की कैप से ढक लिया.

आखिरी बिछोह: भाग-4

तुम्हें क्या पता है वह जिन दोस्तों की पत्नियों के साथ फ्लर्ट करने का मन बनाता था उन दोस्तों को व्यस्त करने के लिए वह मुझे उन के साथ फ्लर्ट करने के लिए उकसाता था. मैं आखिर कितना सैक्रीफाइस करती… डर्टी माइंड, रास्कल को छोड़ने के अलावा मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था.’’

नित्या की आवाज आवेश में इतनी ऊंची हो गई थी कि पूरा बाररूम उस की तरफ देखने लगा. अनुज के नशे और रोमांस पर बेचैनी हावी हो गई. वह उठ खड़ा हुआ. उस ने नित्या का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘चलो, कमरे में चल कर बात करते हैं.’’

‘‘मुझे और पीनी है.’’

‘‘हां, चलो कमरे में मंगवाते हैं,’’ कह वह नित्या का हाथ पकड़ कर कमरे की ओर चल दिया.

नित्या लड़खड़ा रही थी. अनुज उसे सहारा दे कर कमरे तक लाया. रास्ते में नित्या का प्रवाह जारी था, ‘‘मैं… अगर उसे नहीं छोड़ती तो वह मुझे स्वैपिंग तक ले जाता. रास्कल, हिप्पोक्रेट…’’

कमरे में आ कर अनुज को राहत महसूस हुई. आते ही नित्या पलंग पर लेट गई और बोली, ‘‘मेरी ड्रिंक कहां है?’’

अनुज इतनी पीनेका आदी नहीं था. यदाकदा पीता था. आज वह पहले ही ज्यादा पी चुका था, परंतु कमरे में आ कर उस के मन में नित्या के साथ होने के रोमांस ने नशे की तलब बढ़ा दी थी. बाररूम में तो जैसे वह एक अदृश्य तनाव की उपस्थिति में इस रोमांच को नहीं जी पाया था. अब यहां नित्या के साथ इस एकांत में अचानक मुलाकात के सुख को जीने की लालसा से भर गया. वहां तुरंत सहमत हो गया और बोला, ‘‘अभी व्यवस्था करता हूं.’’

‘‘मुझे भूख लगी है.’’

‘‘हां, तुम्हारे सैंडविच भी मंगवाता हूं.’’

नित्या जैसे हलकी नींद में हो गई थी. ड्रिंक आने के बाद अनुज ने नित्या को चैतन्य किया और दोनों फिर से पीने लगे. रोमांच व नशे की तपिश में अनुज की भावुकता आइस्क्रीम की तरह पिघल रही थी, ‘‘तुम्हारा साथ 2 बार मिला, भरपूर मिला. बीच में जो अंतराल आया उस समय मेरे मन में तुम्हारे साथ होने की इच्छा जैसे शिखर पर पहुंच गई थी. तुम ने हर बार मुझ से दूरी बना ली तो तुम्हें खोने का एहसास बहुत

तीव्र होता गया. कभीकभी मैं सोचता था कि मैं ने पाया ही कब था पर तुम्हें खोने का एहसास बढ़ता जाता था.’’

‘‘तुम्हारी इच्छा थी तो मैं तुम्हें मिल गई हूं न. बस ये लिजलिजे

इमोशन छोड़ो, इन में मुझे हमेशा हिप्पोक्रेसी नजर आती है. हर नैतिकतावादी कहता कुछ है पाना कुछ और चाहता है.’’

नित्या की आवाज अभी भी लड़खड़ा रही थी पर ऐसा लग रहा था कि वह अपने पूर्व पति के बारे में अपनी भड़ास निकाल कर बहुत कुछ सहज हो गई है. वह चुपचाप पीने लगी.

अनुज ने कहा, ‘‘तुम ने ही कहा था कि हम तर्कवितर्क में नहीं उलझेंगे. आज बहुत दिनों बाद तुम्हारा साथ मिला है… फिर न जाने कब तुम्हारा साथ मिले… मैं चाहता हूं कि इस समय को हम अपनी पुरानी मित्रता को ताजा करने में बिताएं.’’

‘‘सच कहूं जब मैं कड़वी सचाई को जी रही थी तो मुझे कभीकभी तुम्हारी लिजलिजी भावुकता की याद आती थी.’’

‘‘सच?’’

‘‘हां सच, पर उस समय की भावुकता एक सुंदर छरहरे बदन में रहती थी आज वही भावुकता एक स्थूल शरीर में ऐसे लग रही है जैसे कोई अच्छा प्रोडक्ट किसी भद्दे पैक में हो,’’ कह नित्या मुसकराई.

अनुज नित्या के इस व्यंग्यात्मक लहजे का आदी था. नित्या की मुसकराहट के साथ उसे लगा कि जैसे बरसों पुरानी नित्या उस से बातें कर रही है. वह जैसे पुराने दिनों में वक्त बिताने के अनुभव से गुजर रहा था. शायद कुछ देर पहले यदि नित्या ने यह व्यंग्य किया होता तो वह आत्महीनता से भर जाता पर अब कि मनोस्थिति अलग थी.

अनुज भी जैसे विनोद के मूड में आ गया था. बचाव करने के बजाय उस ने कहा, ‘‘तुम्हारी मांसलता भी कम नहीं बढ़ी है.’’

कहने को तो वह कह गया पर एक पल में वह इस आशंका से भर गया कि कहीं इस उक्ति से नित्या आक्रामक तार्किक तेवरों में न आ जाए और फिर पहले जैसा माहौल न बन जाए. वह इस पल के सुखद एहसास को खोना नहीं चाहता था. उस ने संभलते हुए अपनी बात का भाव बदला, ‘‘वैसे तुम्हारी यह मांसलता तुम्हें और सुंदर बनाती है.’’

‘‘यह नशा है या मैच्योर होता ऐक्सपीरिएंस, पता नहीं पर अब तुम्हारी भावुकता प्रैक्टीकल हो गई है.’’

अनुज नित्या के सहज उत्तर से आश्वस्त हो गया. उसे नित्या का कमैंट रोमानी लगा. उस का रोमांच अब रोमानी हो गया. नित्या को उस ने इतना भावुकता से आत्मीय होते नहीं देखा था. आज लग रहा था जैसे 2 विरोधी जलधाराएं आपस में टकरा नहीं रही हैं वरन आपस में मिल कर आगे एक बड़े प्रवाह के रूप में बह रही हैं. अनुज ने नित्या से कुछ खाने का आग्रह किया पर उस पर शायद नशा ज्यादा हावी था. उस ने जैसेतैसे सैंडविच के 1-2 टुकड़े खाए और फिर कहा, ‘‘बस, तुम अभीअभी मुझे मेरी मांसलता के प्रति आगाह कर चुके हो.’’

आगे सब अप्रत्याशित था या सुनियोजित समझना मुश्किल था. 2 प्रवाह एकसाथ मिल कर किसी तेज धारा में बदल चुके थे. एक सागर तक पहुंच कर यह प्रवाह बिलकुल खत्म हो गया. रात पूरी तरह स्थिर हो गई थी.

सुबह जब अनुज उठा तो देखा नित्या सो रही है. अनुज को नित्या की मांसलता आकर्षणहीन लगी. वह चुपचाप अपने कमरे में आ गया. वह बहुत बेचैन और असमंजस की स्थिति में था. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. अचानक वह वितृष्णा से भर गया और वापस जाने के लिए अपना सामान पैक करने लगा.

‘‘सच है तुम समय के अंतर को नहीं पाट पाए. यही फासला बढ़ता चला गया. तुम्हारी हिप्पोक्रेसी मुझे पसंद नहीं थी. परिपक्व होने के बाद मैं ने उस का प्रतिकार करना सीख लिया था. बस इसी बिंदु से फासला स्थाई होता गया…’’

Father’s day 2023: त्रिकोण का चौथा कोण- भाग 1

मोबाइल की हर घंटी के साथ मोहित की कशमकश बढ़ती जा रही थी. लगातार 8 मिस्ड कौल के बाद जैसे ही पुन: घंटी बजी, तो मोहित ने अपना मोबाइल उठा लिया. इस बार भी निरुपमा का ही कौल था. क्षण भर सोच कर उस ने मोबाइल का स्विच औफ कर दिया. अब आगे क्या करना है, किस से क्या कहे क्या न कहे, वह सोच नहीं पा रहा था. आज जीवन के सभी नियंत्रण सूत्र उसे अपने हाथ से फिसलते नजर आ रहे थे. विचारों की उधेड़बुन में फंसा मोहित औफिस के कैबिन में पिछले 2 घंटे से तनाव कम करने का असफल प्रयास कर रहा था.

जीवन के इस मुकाम पर उस का अपना बेटा अंकित ही उसे इस दोराहे पर ला कर खड़ा कर देगा, यह तो मोहित ने कभी नहीं सोचा था. वर्षों से सब कुछ व्यवस्थित ही चल रहा था. मोहित ने अपने हिसाब से जीवन के सारे समीकरण सरल बना लिए थे, परंतु अंकित सब कुछ उलझा कर जटिल कर देगा, इस का उसे जरा भी अंदेशा नहीं था.

मोहित अपनी नई कंस्ट्रक्शन कंपनी अंकित के नाम से ही शुरू करने जा रहा था. उद्घाटन को केवल 2 दिन शेष थे. सोमवार को सुबह 10 बजे नए कंस्ट्रक्शन की नींव का पहला पत्थर मोहित की पत्नी दीप्ति के हाथों रखा जाना था. लेकिन अंकित ने अचानक उस के समक्ष ऐसी शर्त रख दी, जिस ने उस के अस्तित्व को हिला कर रख दिया था.

मोहित को निरुपमा के साथ अपने सभी संबंधों को हमेशा के लिए तोड़ना होगा… उन के बीच किसी प्रकार का कोई नाता नहीं रहेगा… यही शर्त थी अंकित की. वरना पिता के बिजनैस को छोड़ कर वह पूरे तौर पर अलग होने के लिए तैयार बैठा था.

मोहित की मदद के बिना भी वह जिंदा रह सकता है और अपनी मां को भी एक बेहतर जिंदगी दे सकता है, जो उस के हिसाब से वे उन्हें कभी दे ही नहीं सके थे. एक ऐसी सम्मानजनक जिंदगी, जिस सें सुख हो, संतोष हो. जीवन में ज्यादा या कम जो कुछ भी हिस्से में लिखा हो वह पूरापूरा अपना हो. अपने अस्तित्व के बंटवारे की कसक न हो. यही तो कहा था अंकित ने.

बेटे के मुंह से यह सब सुनने को मानसिक रूप से मोहित कभी तैयार न था. उस के जीवन के ढकेछिपे अध्याय को उघाड़ कर इस विषय को ले कर आज अचानक अंकित का मुंह खोलना उस के लिए एक प्रकार का सदमा ही था. भौचक्का मोहित लटकी सी सूरत ले कर विवश हो गया था वह सब कुछ सुनने के लिए, जो उसे वर्षों पहले ही सुनना चाहिए था. पर जिसे हक था यह सब कहने का यानी उस की धर्मपत्नी दीप्ति, वह तो चुप्पी ही साधे रही. अपने नाम के अनुरूप स्वयं जलजल कर मोहित के जीवन को प्रकाशित करती रही. यह उस की पतिभक्ति थी या पत्नीधर्म की विवशता, इस पर मोहित ने विचार ही कब किया था.

जीवन रूपी शतरंज के सभी मुहरों को अपनी सहूलियत से जमाने के आदी मोहित को अंकित का हस्तक्षेप सकपका गया. स्तब्ध रह गया मोहित, जब सुबह अंकित ने औफिस आ कर कहा, ‘‘पापा, मैं आप से जरूरी बात करना चाहता हूं. आज ही, अभी.’’

‘‘हांहां बोलो, नई कंपनी की शुरुआत को ले कर तुम थोड़ा नर्वस हो रहे हो, टैंशन में हो, मैं समझता हूं पर चिंता मत करो बेटे, मुझे तुम पर पूरा भरोसा है. देखना, तुम मेरी मदद के बिना ही इस कंपनी को अच्छी तरह चला लोगे. और इतना ही नहीं, मेरी इस पुरानी कंस्ट्रक्शन कंपनी से तुम कई गुना आगे निकल जाओगे.’’

मोहित अपनी ही रौ में बोल रहा था कि अंकित ने कहा, ‘‘नहीं पापा, मुझे आप से नई कंपनी के बारे में नहीं, बल्कि कुछ पर्सनल बातें करनी हैं. अपनी मम्मी की, आप की… समझ लीजिए हम सब की…’’ अंकित अटकअटक कर टूटते शब्दों को जोड़ कर बोलने का क्रम बना रहा था.

‘‘ओह…’’ मोहित के होंठों पर तिरछी मुसकान फैल गई और आंखों में गर्व के साथ शरारत उभर आई, ‘‘कोई लड़कीवड़की का चक्कर है क्या? भई, पहले बिजनैस तो सैट कर लो. लड़कियां कहां भागी जा रही हैं? वैसे कौन है हमारे साहबजादे की पसंद जरा हम भी तो जानें. अरे भई, हम बाप हैं तुम्हारे, तुम ने वह कहावत नहीं सुनी बाप सेर तो बेटा सवा सेर…’’ मोहित ने जोरदार ठहाका लगाया.

पर अंकित के चेहरे पर पसरे गंभीरता के भावों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ, बल्कि आवाज की दृढ़ता और अधिक बढ़ गई. शुष्क लहजे में अंकित पुन: बोल पड़ा, ‘‘पापा, मैं अपने संबंधों की चर्चा करने नहीं आया हूं.’’

सुनते ही मोहित के चेहरे पर विस्मय के साथ कई प्रश्न एकसाथ उभर आए.

‘‘मैं आप के और निरुपमाजी के अवैध संबंधों के बारे में बात करने आया हूं.’’

अगले ही क्षण जैसे मोहित की जबान तालू से चिपक गई. ये क्या कह रहा है अंकित.

‘‘आप को निरुपमाजी से अपने सभी संबंधों को तोड़ना होगा और पूरी तरह से हमारे बीच हमारा बन कर रहना होगा, वरना…’’

वरना क्या? पूछना चाहता था मोहित पर अपने बेटे के समक्ष अपराधियों की तरह उस की आवाज जाने कहां खो गई.

उस के पूछे बिना ही अंकित ने अपनी बात पूरी कर दी, ‘‘वरना पापा, मेरा आप के साथ और अधिक साथ नामुमकिन है.’’

‘‘क्यों?’’ मोहित से अधिक उस से बोला भी नहीं गया. निजी जीवन में अपनी सुविधा से जमाए गए गणित के बारे में युवा पुत्र को मां से नहीं, तो बाहरी दुनिया से सब कुछ पता चल ही गया होगा, इस का एहसास तो था मोहित को, पर अंतर्मुखी और संकोची स्वभाव का अंकित एक दिन इस तरह विरोध में उस के समक्ष आईना ले कर खड़ा हो सकता है, इस बात का उसे तनिक भी अनुमान नहीं था. जब पत्नी ने मुझे पूरे गुणदोषों के साथ स्वीकार कर लिया है, तो अब कोई समस्या ही नहीं रही, यही तो मोहित सोचता रहा था.

‘‘आप कारण जानना चाहते हैं?’’ भौंहों को ऊपर चढ़ाते हुए अंकित ने पलट कर प्रश्न किया. प्रश्न के साथ ही एक उपहास भरी हंसी उस के होंठों पर उभरी तो मोहित ने अपनी नजरें इधरउधर कर लीं, मानो अंकित की भेदती नजरों से बच कर भाग जाना चाहता हो.

‘‘क्योंकि पापा मैं एक सम्मान भरी जिंदगी जीना चाहता हूं और ऐसी ही जिंदगी भविष्य में अपने परिवार को भी देना चाहूंगा. एक ऐसी जिंदगी, जिस में बेखौफ, बेधड़क हो लोगों के बीच मैं और मेरे बच्चे सिर उठा कर उठबैठ सकें. जहां लोगों की कटाक्ष भरी नजरें व व्यंग्य भरे तानों के तीर मेरे मन को छलनी न करते हों. जहां हर वक्त यह डर न सताए कि कहीं कोई ऐसा अप्रिय प्रश्न न पूछ बैठे, जिस से इज्जत के तारतार होने के साथ ही बारबार दिल भी टूटताजुड़ता रहे. मैं इस टूटनेजुड़ने की प्रक्रिया से मुक्त होना चाहता हूं पापा…’’ एक सांस में मन का गुबार अंकित ने निकाल दिया.

इतना कह कर एक लंबी गहरी सांस ले कर अंकित नि:शब्द खड़ा रहा. थोड़ी देर के लिए दोनों के बीच मौन पसर गया.

फिर अंकित ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘आप को शर्त मंजूर न हो तो अपने साथ मैं मां को भी ले जाना चाहूंगा. मैं ने मां से बात कर ली है. वे तैयार हैं मेरे भरोसे जीवन की शाम गुजारने को. मैं ने उन्हें चांदसितारे या सूरज ला कर देने का वादा तो नहीं किया पर हां, इतना विश्वास जरूर दिलाया है कि कुछ सुकून भरे पल उन्हें जरूर दूंगा. आप की नई कंस्ट्रक्शन कंपनी को शुरू होने में अभी 2 दिन बाकी हैं. आप चैन से सोच सकते हैं अपने बारे में, अपने बचे हुए भविष्य के बारे में…’’

जिस दृढ़ता के भाव के साथ अंकित मोहित के सामने आया था, उसी आत्मविश्वास के साथ वह अपनी बात स्पष्ट कर निकल गया. चाह कर भी मोहित कुछ न कह सका. कहता भी क्या? स्वयं को चक्रव्यूह का निर्माता समझने वाला मोहित आज छिन्नभिन्न हो कर स्वयं उस व्यूह रचना में फंस गया था. इस व्यूह से बाहर निकलने का कोई रास्ता उसे सूझ नहीं रहा था.

खोखली रस्में

ओह…यह एक साल, लमहेलमहे की कसक ताजा हो उठती है. आसपड़ोस, घरखानदान कोई तो ऐसा नहीं रहा जिस ने मुझे बुराभला न कहा हो. मैं ने आधुनिकता के आवेश में अपनी बेटी का जीवन खतरे के गर्त में धकेल दिया था. रुपए का मुंह देख कर मैं ने अपनी बेटी की जिंदगी से खिलवाड़ किया था और गौने की परंपरा को तोड़ कर खानदान की मर्यादा तोड़ डाली थी. इस अपराधिनी की सब आलोचना कर रहे थे. परंतु अंधविश्वास की अंधेरी खाइयों को पाट कर आज मेरी बेटी जिंदा लौट रही है. अपराधिनी को सजा के बदले पुरस्कार मिला है- अपने नवासे के रूप में. खोखली रस्मों का अस्तित्व नगण्य बन कर रह गया.

कशमकश के वे क्षण मुझे अच्छी तरह याद हैं जब मैं ने प्रताड़नाओं के बावजूद खोखली रस्मों के दायरे को खंडित किया था. मैं रसोई में थी. ये पंडितजी का संदेश लाए थे. सुनते ही मेरे अंदर का क्रोध चेहरे पर छलक पड़ा था. दाल को बघार लगाते हुए तनिक घूम कर मैं बोली थी, ‘देखो जी, गौने आदि का झमेला मैं नहीं होने दूंगी. जोजो करना हो, शादी के समय ही कर डालिए. लड़की की विदाई शादी के समय ही होगी.’

‘अजीब बेवकूफी है,’ ये तमतमा उठे, ‘जो परंपरा वर्षों से चली आ रही है, तुम उसे क्यों नहीं मानोगी? हमारे यहां शादी में विदाई करना फलता नहीं है.’

‘सब फलेगा. कर के तो देखिए,’ मैं ने पतीली का पानी गैस पर रख दिया था और जल्दीजल्दी चावल निकाल रही थी. जरूर फलेगा, क्योंकि तुम्हारा कहा झूठ हो ही नहीं सकता.’

‘जी हां, इसीलिए,’ व्यंग्य का जवाब व्यंग्यात्मक लहजे में ही मैं ने दिया.

‘क्योंकि अब हमारी ऐसी औकात नहीं है कि गौने के पचअड़े में पड़ कर 80-90 हजार रुपए का खून करें. सीधे से ब्याह कीजिए और जो लेनादेना हो, एक ही बार लेदे कर छुट्टी कीजिए.’ मैं ने अपनी नजरें थाली पर टिका दीं और उंगलियां तेजी से चावल साफ करने लगीं, कुछ ऐसे ही जैसे मैं परंपरा के नाम पर कुरीतियों को साफ कर हटाने पर तुली हुई थी. एक ही विषय को ले कर सालभर तक हम दोनों में द्वंद्व युद्ध छिड़ा रहा. ये परंपरा और मर्यादा के नाम पर झूठी वाहवाही लूटना चाहते थे. विवाह के सालभर बाद गौने की रस्म होती है, और यह रस्म किसी बरात पर होने वाले खर्च से कम में अदा नहीं हो सकती. मैं इस थोथी रस्म को जड़ से काट डालने को दृढ़संकल्प थी. क्षणिक स्थिरता के बाद ये बेचारगी से बोले, ‘विमला की मां, तुम समझती क्यों नहीं हो?’

‘क्या समझूं मैं?’ बात काटते हुए मैं बिफर उठी, ‘कहां से लाओगे इतने पैसे? 1 लाख रुपए लोन ले लिए, कुछ पैसे जोड़जोड़ कर रखे थे, वे भी निकाल लिए, और अब गौने के लिए 80-90 हजार रुपए का लटका अलग से रहेगा.’

‘तो क्या करूं? इज्जत तो रखनी ही पड़ेगी. नहीं होगा तो एक बीघा खेत ही बेच डालूंगा.’

‘क्या कहा? खेत बेच डालोगे?’ लगा किसी ने मेरे सिर पर हथौड़े का प्रहार किया हो. क्षणभर को मैं इज्जत के ऐसे रखरखाव पर सिर धुनती रह गई. तीखे स्वर में बोली, ‘उस के बाद? सुधा और अंजना के ब्याह पर क्या करोगे? तुम्हारा और तुम्हारे लाड़लों के भविष्य का क्या होगा? तुम्हारे पिताजी तो तुम्हारे लिए 4 बीघा खेत छोड़ गए हैं जो तुम रस्मों के ढकोसले में हवन कर लोगे, लेकिन तुम्हारे बेटे किस का खेत बेच कर अपनी मर्यादा की रक्षा करेंगे?’ सत्य का नंगापन शायद इन्हें दूर तक झकझोर गया था. बुत बने ये ताकते रह गए. फिर तिक्त हंसी हंस पड़े, ‘तुम तो ऐसे कह रही हो, विमला की मां, मानो 4 ही बच्चे तुम्हारे अपने हों और विमला तुम्हारी सौत की बेटी हो.’

‘हांहां, क्यों नहीं, मैं सौतेली मां ही सही, लेकिन मैं गौना नहीं होने दूंगी. शादी करो तब पूरे खानदान  को न्योता दो, गौना करो तब फिर पूरे खानदान को बुलाओ. कपड़ा दो,  गहना दो, यह नेग करो वह जोग करो. सिर में जितने बाल नहीं हैं उन से ज्यादा कर्ज लादे रहो, लेकिन शान में कमी न होने पाए.’ इन के होंठों पर विवश मुसकान फैल गई. जब कभी मैं ज्यादा गुस्से में रहती हूं, इसी तरह मुसकरा देते हैं, मानो कुछ हुआ ही न हो. इन के होंठों की फड़कन कुछ कहने को बेताब थी, परंतु कह नहीं सके. उठ खड़े हुए और आंगन पार करते हुए कमरे की ओर चले गए. जब से विमला की शादी तय हुई, शादी संपन्न होने तक यही सिलसिला जारी रहा. ये कंजूसी से ब्याह कर के समाज में अपनी तौहीन करवाने को तैयार नहीं थे, और मैं रस्मों के खोखलेपन की खातिर चादर से पैर निकालने को तैयार नहीं थी. ‘गौने की रस्म अलग से करनी ही होगी. सदियों से यह हमारी परंपरा रही है,’ मैं इस थोथेपन में विश्वास करने को तैयार न थी.

छोटी ननद के ब्याह पर ही मैं ने यह निर्णय कर के गांठ बांधी थी. याद आता है तो दिल कट कर रह जाता है. ब्याह पर जो खर्च हुआ वह तो हुआ ही, सालभर घर बिठा कर उस का गौना किया गया तो 80 हजार रुपए उस में फूंक दिए गए. गौना करवाने आए वर पक्ष के लोगों की तथा खानदान वालों की आवभगत करतेकरते पैरों में छाले पड़ गए, तिस पर भी ‘मुरगी अपनी जान से गई, खाने वालों को मजा न आया’ वाली बात हुई. चारों ओर से बदनामी मिली कि यह नहीं दिया, वह नहीं दिया. ‘अरे, इस से अच्छी साड़ी तो मैं अपनी महरी को देती हूं… कंजूस, मक्खीचूस’ तथा इसी से मिलतीजुलती असंख्य उपाधियां मिली थीं.

मुझे विश्वास था कि मैं वर्तमान स्थिति और परिवेश में गौना करने में आने वाली कठिनाइयां बता कर इन्हें मना लूंगी. जल्दी ही मुझे इस में सफलता भी मिल गई. मेरी सलाह इन के निर्णय में परिवर्तित हो गई, किंतु ‘ये नहीं फलता है’ की आशंका से ये उबर नहीं पाए. विवाह संबंधी खरीदफरोख्त की कार्यवाहियां लगभग पूरी हो चुकी थीं. रिश्तेदारों और बरातियों का इंतजार ही शेष था. रिश्तेदारों में सब से पहले आईं इन की रोबदार और दबंग व्यक्तित्व वाली विधवा मौसी रमा, खानदानभर की सर्वेसर्वा और पूरे गांव की मौसी. दोपहर का समय था. विवाह हेतु खरीदे गए गहने, कपड़े एकएक कर मैं मौसीजी को दिखा रही थी. बातों ही बातों में मैं ने अपना फैसला कह सुनाया. सुनते ही मौसीजी ज्वालामुखी की तरह फट पड़ीं. क्रोध से भरी वे बोलीं, ‘क्यों नहीं करोगी तुम गौना?’

‘दरअसल, मौसीजी, हमारी इतनी औकात नहीं कि हम अलग से गौने का खर्च बरदाश्त कर सकें,’ मैं ने गहनों का बौक्स बंद कर अलमारी में रख दिया और कपड़े समेटने लगी.

‘अरे वाह, क्यों नहीं है औकात?’ मौसीजी के आग्नेय नेत्र मेरे तन को सेंकने लगे, ‘क्या तुम जानतीं नहीं कि शादी के समय विदाई करना हमारे खानदान में अच्छा नहीं समझा जाता?’

‘लेकिन इस से होता क्या है?’

‘होगा क्या…वर या वधू दोनों में से किसी एक की मृत्यु हो जाएगी. सालभर के अंदर ही जोड़ा बिछुड़ जाता है.’ मैं तनिक भी नहीं चौंकी. पालतू कुत्ते की तरह पाले गए अंधविश्वासों के प्रति खानदान वालों के इस मोह से मैं पूर्वपरिचित थी.

अलमारी बंद कर पायताने की ओर बैठती हुई मैं ने जिज्ञासा से फिर पूछा, ‘लेकिन मौसीजी, हमारे खानदान में शादी के समय विदाई करना अच्छा क्यों नहीं समझा जाता, इस का भी तो कोई कारण अवश्य होगा?’

‘हां, कारण भी है, तुम्हारे ससुर के चचेरे चाचा की सौतेली बहन हुआ करती थीं. विवाह के समय ही उन का गौना कर दिया गया था. बेचारी दोबारा मायके का मुंह नहीं देख पाईं. साल की कौन कहे, महीनेभर में ही मृत्यु हो गई.’’

अब क्या कहूं, सास का खयाल न होता तो ठठा कर हंस पड़ती. तर्कशास्त्र की अवैज्ञानिक परिभाषा याद हो आई. किसी घटना की पूर्ववर्ती घटना को उस कार्य का कारण कहते हैं. आज वैज्ञानिक धरातल पर भी यह परिभाषा किसी न किसी रूप में जिंदा है. परंतु मुंहजोरी से कौन छेड़े मधुमक्खियों के छत्ते को. मैं सहज स्वर में बोली, ‘लेकिन मौसीजी, उन से पहले जो विवाह के समय ही ससुराल जाती थीं क्या उन की भी मृत्यु हो जाया करती थी?’

‘अरे, नहीं,’ अपने दाहिने हाथ को हवा में लहराती हुई मौसीजी बोलीं, ‘उन के तो नातीपोते भी अब नानादादा बने हुए हैं.’ प्रसन्नता का उद्वेग मुझ से संभल न सका, ‘फिर तो कोई बात ही नहीं है, सब ठीक हो जाएगा.’

‘कैसे नहीं है कोई बात?’ मौसीजी गुर्राईं, ‘गांवभर में हमारे खानदान का नाम इसीलिए लिया जाता है…दूरदूर के लोग जानते हैं कि हमारे यहां शादी से भी बढ़चढ़ कर गौना होता है. देखने वाले दीदा फाड़े रह जाते हैं. तेरी फूफी सास के गौने में परिवार की हर लड़की को 2-2 तोले की सोने की जंजीर दी गई थी और ससुराल वाली लड़कियों को जरी की साड़ी पहना कर भेजा गया था.’ तब की बात कुछ और थी, मौसीजी. तब हमारी जमींदारी थी. आज तो 2 रोटियों के पीछे खूनपसीना एक हो जाता है. महीनेभर नौकरी से बैठ जाओ तो खाने के लाले पड़ जाएं. फिर गौना का खर्च हम कहां से जुटा पाएंगे?’

इसे अपना अपमान समझ कर मौसीजी तमतमा कर उठ खड़ी हुईं, ‘ठीक है, कर अपनी बेटी का ब्याह, न हो तो किसी ऐरेगैरे का हाथ पकड़ा कर विदा कर दे, सारा खर्च बच जाएगा. आने दे सुधीर को, अब मैं यहां एक पल भी नहीं रह सकती. जहां बहूबेटियों का कानून चले वहां ठहरना दूभर है.’ मौसीजी के नेत्रों से अंगार बरस रहे थे. वे बड़बड़ाती हुईं अपने कमरे की ओर बढ़ीं तो मैं एकबारगी सकते में आ गई. मैं लपक कर उन के कमरे में पहुंची. वे अपनी साड़ी तह कर रही थीं. साड़ी उन के हाथ से खींच कर याचनाभरे स्वर में मैं बोली, ‘मौसीजी, आप तो यों ही राई का पर्वत बनाने लगीं. मेरी क्या बिसात कि मैं कानून चलाऊं?’

‘अरे, तेरी क्या बिसात नहीं है? न सास है, न ननद है, खूब मौज कर, मैं कौन होती हूं रोकने वाली?’ उन की आवाज में दुनियाजहान की विवशता सिमट आई. उन की आंखों में आंसू आ गए थे. लगा किसी ने मेरा सारा खून निचोड़ लिया हो. मैं विनम्र स्वर में बोली, ‘मौसीजी, आज तक कभी हम लोगों ने आप की बात नहीं टाली है. मैं हमेशा आप को अपनी सास समझ कर आप से सलाहमशविरा करती आई हूं. फिर भी आप..

परंतु मौसीजी का गुस्सा शांत नहीं हुआ. मैं उन का हाथ पकड़ कर उन्हें आंगन में ले आई और उन्हें आश्वस्त करने का प्रयत्न करने लगी. ये शाम को आए. मौसीजी बैठी हुई थीं. दोपहर का सारा किस्सा मैं ने सुना डाला. मौसीजी का क्रोध सर्वविदित था. ये हारे हुए जुआरी के स्वर में बोले, ‘तब?’

‘तब क्या?’ मैं बोली, ‘50 हजार रुपए मौसीजी से बतौर कर्ज ले लीजिए. 60-70 हजार रुपए चाचाजी से ले लेना. मिलाजुला कर किसी तरह कर दो गौना. मैं और क्या कहूं अब?’

‘बेटी मेरी है, उन्हें क्या पड़ी है?’

‘क्यों नहीं पड़ी है?’ मेरा रोष उमड़ आया, ‘जब बेटी के ब्याह की हर रस्म उन लोगों की इच्छानुसार होगी तो खर्च में भी सहयोग करना उन का फर्ज बनता है.’ संभवतया मेरे व्यंग्य को इन्होंने ताड़ लिया था. बिना उत्तर दिए तौलिया उठा कर बाथरूम में घुस गए. रात में भोजन करने के बाद ये और मौसीजी बैठक में चले गए. बच्चे अपने कमरे में जा चुके थे. पप्पू को सुलाने के बहाने मैं भी अपने कमरे में आ कर पड़ी रही. दिमाग की नसों में भीषण तनाव था. सहसा मैं चौंक पड़ी. मौसीजी का स्वर वातावरण में गूंजा, ‘अरे सुधीर, तेरी बहू कह रही थी कि गौना नहीं होगा. अब बता भला, जब विवाह में विदाई करना हमारे यहां फलता ही नहीं है तब भला गौना कैसे नहीं होगा?’

‘अब तुम से क्या छिपाना, मौसी?’ यह स्वर इन का था, ‘मैं सरकारी नौकर जरूर हूं, लेकिन खर्च इतना ज्यादा है कि पहले ही शादी में 1 लाख रुपए का कर्ज लेना पड़ गया. 2 और बेटियां ब्याहनी हैं सो अलग. 20-30 हजार रुपए से गौने में काम चलना नहीं है, और इतने पैसों का बंदोबस्त मैं कर नहीं पा रहा हूं.’ मौसीजी के मीठे स्वर में कड़वाहट घुल गई, ‘अरे, तो क्या बेटी को दफनाने पर ही तुले हो तुम दोनों? इस से तो अच्छा है उस का गला ही घोंट डालो. शादी का भी खर्च बच जाएगा.’

‘अरे नहीं, मौसीजी, तुम समझीं नहीं. गौना तो मैं करूंगा ही. देखो न, विवाह से पहले ही मैं ने गौने का मुहूर्त निकलवा लिया है. अगले साल बैसाख में दिन पड़ता है.’

‘सच?’ मौसीजी चहक पड़ीं.

‘और नहीं तो क्या? 50 हजार रुपए तुम दे दो, 60-70 हजार रुपए चाचाजी से ले लूंगा. कुछ यारदोस्तों से मिल जाएगा, ठाठ से गौना हो जाएगा.’

‘क्या, 50 हजार रुपए मैं दे दूं?’ मौसीजी इस तरह उछलीं मानो चलतेचलते पैरों के नीचे सांप आ गया हो.

‘अरे, मौसी, खैरात थोड़े ही मांग रहा हूं. पाईपाई चुका दूंगा.’

‘वह तो ठीक है, लेकिन इतने रुपए मैं लाऊंगी कहां से? मेरे पास रुपए धरे हैं क्या?’ मेरी आंखें उल्लास से चमकने लगीं. भला मौसी को क्या पता था कि परंपरा की दुहाई उन की भी परेशानी का कारण बनेगी? मैं दम साधे सुन रही थी. इन का स्वर था, ‘अरे, मौसी, दाई से कहीं पेट छिपा है? तुम हाथ झाड़ दो तो जमीन पर नोटों की बौछार हो जाए. हर कमरे में चांदी के रुपए गाड़ रखे हैं तुम ने, मुझे सब मालूम है.’ ‘अरे बेटा, मौत के कगार पर खड़ी हो कर मैं झूठ बोलूंगी? लोग पराई लड़कियों का विवाह करवाते हैं, और मैं अपनी ही पोती के ब्याह पर कंजूसी करूंगी? लौटाने की क्या बात है, जैसे मेरा श्याम है वैसे तू भी मेरा बेटा है.’ मेरी हंसी फूट पड़ी. लच्छेदार शब्दों के आवरण में मन की बात छिपाना कोई मौसीजी से सीखे. भला उन की कंजूसी से कौन नावाकिफ था.

क्षणिक निस्तब्धता के बाद इन की थकी सी आवाज फिर उभरी, ‘तब तो मौसी, अब इस परंपरा का गला घोंटना ही होगा. न मैं इतने रुपए का जुगाड़ कर पाऊंगा और न ही गौने का झंझट रखूंगा. बोलो, तुम्हारी क्या राय है?’ ‘जो तुम अच्छा समझो,’ जाने किस आघात से मौसीजी की आवाज को लकवा मार गया और वह गोष्ठी समाप्त हो गई. दूसरे दिन चाचाजी का भी सदलबल पदार्पण हुआ. परंपरा और रस्मों के खंडन की बात उन तक पहुंची तो वे भी आगबबूला हो उठे, ‘सुधीर, यह क्या सुन रहा हूं? मैं भी शहर में रहता हूं. मेरी सोसाइटी तुम से भी ऊंची है. लेकिन हम ने कभी अपने पूर्वजों की भावना को ठेस नहीं पहुंचाई. तुम लोग लड़की की जिंदगी से खिलवाड़ कर रहे हो.’

‘चाचाजी, आप गलत समझ रहे हैं,’ ये बोले थे, ‘गौने के लिए तो मैं खूब परेशान हूं. लेकिन करूं क्या? आप लोगों की मदद से ही कुछ हो सकता है.’

चाचाजी के चेहरे पर प्रश्नचिह्न लटक गया. उन की परेशानी पर मन ही मन आनंदित होते हुए ये बोले, ‘मैं चाहता था, यदि आप 80 हजार रुपए भी बतौर कर्ज दे देते तो शेष इंतजाम मैं खुद कर लेता और किसी तरह गौना कर ही देता. आप ही के भरोसे मैं बैठा था. मैं जानता हूं कि आप पूर्वजों की मर्यादा को खंडित नहीं होने देंगे.’ चाचाजी का तेजस्वी चेहरा सफेद पड़ गया. उन के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. थूक निगलते हुए बोले, ‘तुम तो जानते ही हो कि मैं रिटायर हो चुका हूं. फंड का जो रुपया मिला था उस से मकान बनवा लिया. मेरे पास अब कहां से रुपए आएंगे?’ सुनते ही ये अपना संतुलन खो बैठे. क्रोधावेश में इन की मुट्ठियां भिंच गईं. परंतु तत्काल अपने को संभालते हुए सहज स्वर में बोले, ‘चाचाजी, जब आप लोग एक कौड़ी की सहायता नहीं कर सकते, फिर सामाजिक मर्यादा और परंपरा के निर्वाह के लिए हमें परेशान क्यों करते हैं? यह कहां का न्याय है कि इन खोखली रस्मों के पीछे घर जला कर तमाशा दिखाया जाए? मुझ में गौना करने की सामर्थ्य ही नहीं है.’ इतना कह कर ये चुप हो गए. चाचाजी निरुत्तर खड़े रहे. उन के होंठों पर मानो ताला पड़ गया था. थोड़ी देर पहले तक जो विमला के परम शुभचिंतक बने हुए थे, अब अपनीअपनी बगले झांक रहे थे. अब कोई व्यक्ति मेरी बेटी के प्रति सहानुभूति प्रकट करने वाला नहीं था. आज विमला भरीगोद लिए सहीसलामत अपने मायके लौट रही है. अंधविश्वास और खोखली रस्मों की निरर्थकता पाखंडप्रेमियों को मुंह चिढ़ा रही है. शायद वे भी कुछ ऐसा ही निर्णय लेने वाले हैं.

लेखिका- मंजुला

हिमशिला : माँ चुपचाप उसकी और क्यों देख रही थी

उस ने टैक्सी में बैठते हुए मेरे हाथ को अपनी दोनों हथेलियों के बीच भींचते हुए कहा, ‘‘अच्छा, जल्दी ही फिर मिलेंगे.’’

मैं ने कहा, ‘‘जरूर मिलेंगे,’’ और दूर जाती टैक्सी को देखती रही. उस की हथेलियों की गरमाहट देर तक मेरे हाथों को सहलाती रही. अचानक वातावरण में गहरे काले बादल छा गए. ये न जाने कब बरस पड़ें? बादलों के बरसने और मन के फटने में क्या देर लगती है? न जाने कब की जमी बर्फ पिघलने लगी और मैं, हिमशिला से साधारण मानवी बन गई, मुझे पता ही नहीं चला. मेरे मन में कब का विलुप्त हो गया प्रेम का उष्ण सोता उमड़ पड़ा, उफन पड़ा.

मेरी उस से पहली पहचान एक सैमिनार के दौरान हुई थी. मुख पर गंभीरता का मुखौटा लगाए मैं अपने में ही सिकुड़ीसिमटी एक कोने में बैठी थी कि ‘हैलो, मुझे प्रेम कहते हैं,’ कहते हुए उस का मेरी ओर एक हाथ बढ़ा था. मैं ने कुछकुछ रोष से भरी दृष्टि उस पर उठाई थी, ‘नमस्ते.’ उस के निश्छल, मुसकराते चेहरे में न जाने कैसी कशिश थी जो मेरे बाहरी कठोर आवरण को तोड़ अंतर्मन को भेद रही थी. मैं उस के साथ रुखाई से पेश न आ सकी. फिर धीरेधीरे 3 दिन उस के बिंदास स्वभाव के साथ कब और कैसे गुजर गए, मालूम नहीं. मैं उस की हर अदा पर मंत्रमुग्ध सी हो गई थी. सारे दिनों के साथ के बाद अंत में अब आज विदाई का दिन था. मन में कहींकहीं गहरे उदासी के बादल छा गए थे. उस ने मेरे चेहरे पर नजरें गड़ाए हुए मोहक अंदाज में कहा, ‘अच्छा, जल्दी ही फिर मिलेंगे.’

उस के हाथों की उष्णता अब भी मेरे तनबदन को सहला रही थी. मुझे आश्चर्य हो रहा था कि क्या मैं वही वंदना हूं, जिसे मित्रमंडली ने ‘हिमशिला’ की उपाधि दे रखी थी? सही ही तो दी थी उन्होंने मुझे यह उपाधि. जब कभी अकेले में कोई नाजुक क्षण आ जाता, मैं बर्फ सी ठंडी पड़ जाती थी, मुझ पर कच्छप का खोल चढ़ जाता था. पर क्या मैं सदा से ही ऐसी थी? अचानक ही बादलों में बिजली कड़की. मैं वंदना, भोलीभाली, बिंदास, जिस के ठहाकों से सारी कक्षा गूंज उठती थी, मित्र कहते छततोड़, दीवारफोड़ अट्टहास, को बिजली की कड़क ने तेजतेज कदम उठाने को मजबूर कर दिया. तेज कदमों से सड़क मापती घर तक पहुंची. हांफते, थके हुए से चेहरे पर भी प्रसन्नता की लाली थी. दरवाजा मां ने ही खोला, ‘‘आ गई बेटी. जा, जल्दी कपड़े बदल डाल. देख तो किस कदर भीग गई.’’

‘‘अच्छा मां,’’ कह कर मैं कपड़े बदलने अंदर चली गई.

मेरे हाथ सब्जी काट रहे थे पर चारों ओर उसी के शब्द गूंज रहे थे, ‘बधाई, वंदनाजी. आप के भाषण ने मुझे मुग्ध कर लिया. मन ने चाहा कि गले लगा लूं आप को, पर मर्यादा के चलते मन मसोस कर रह जाना पड़ा.’ उस के गले लगा लूं के उस भाव ने मेरे होंठों पर सलज्ज मुसकान सी ला दी. मां चौके में खड़ी कब से मुझे देख रही थीं, पता नहीं. पर उन की अनुभवी आंखों ने शायद ताड़ लिया था कि कहीं कुछ ऐसा घटा है जिस ने उन की बेटी को इतना कोमल, इतना मसृण बना डाला है.

‘‘बीनू, कौन है वह?’’

मैं भावलोक से हड़बड़ा कर कटु यथार्थ पर आ गई,  ‘‘कौन मां? कोई भी तो नहीं है?’’

‘‘बेटी, मुझ से मत छिपा. तेरे होंठों की मुसकान, तेरी खोईखोई नजर, तेरा अनमनापन बता रहा है कि आज जरूर कोई विशेष बात हुई है. बेटी, मां से भी बात छिपाएगी?’’

मैं ने झुंझला कर कहा, ‘‘क्या मां, कोई बात हो तो बताऊं न. और यह भी क्या उम्र है प्रेमव्रेम के चक्कर में पड़ने की.’’ मां चुपचाप मेरी ओर निहार कर चली गईं. उन की अनुभवी आंखें सब ताड़ गई थीं. मैं दाल धोतेधोते विगत में डूब गई थी. कालेज से आई ही थी कि मां का आदेश मिला, ‘जल्दी से तैयार हो जाओ. लड़के वाले तुम्हें देखने आ रहे हैं.’

‘मां, इस में तैयार होने की क्या बात है? देखने आ रहे हैं तो आने दो. मैं जैसी हूं वैसी ही ठीक हूं. गायबैल भी क्या तैयार होते हैं अपने खरीदारों के लिए?’

पिताजी ने कहा, ‘देख लिया अपनी लाड़ली को? कहा करता था कालेज में मत पढ़ाओ, पर सुनता कौन है. लो, और पढ़ाओ कालेज में.’

मैं ने तैश में आ कर कहा, ‘पिताजी, पढ़ाई की बात बीच में कहां से आ गई?’

मां ने डपटते हुए कहा, ‘चुप रह, बड़ों से जबान लड़ाती है. एक तो प्रकृति ने रूप में कंजूसी की है, दूसरे तू खुद को रानी विक्टोरिया समझती है? जा, जैसा कहा है वैसा कर.’ इस से पहले मेरे रूपरंग पर किसी ने इस तरह कटु इंगित नहीं किया था. मां के बोलों से मैं आहत हो उन की ओर देखती रह गई. क्या ये मेरी वही मां हैं जो कभी लोगों के बीच बड़े गर्व से कहा करती थीं, ‘मैं तो लड़केलड़की में कोई फर्क ही नहीं मानती. बेटी के सुनहले भविष्य की चिंता करते हुए मैं तो उसे पढ़ने का पूरा मौका दूंगी. जब तक लड़कियां पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जाएंगी, समाज से दहेज की बुराई नहीं जाने की.’

आज वही मां मेरे रूपरंग पर व्यग्ंय कर रही हैं, इसलिए कि मेरा रंग दबा हुआ सांवला है, मेरे बदन के कटावों में तीक्ष्णता नहीं है, मुझे रंगरोगन का मुलम्मा चढ़ाना नहीं आता, आज के चमकदमक के बाजार में इस अनाकर्षक चेहरे की कीमत लगाने वाला कोई नहीं. आज मैं एक बिकाऊ वस्तु हूं. ऐसी बिकाऊ वस्तु जिसे दुकानदार कीमत दे कर बेचता है, फिर भी खरीदार खरीदने को तैयार नहीं. ये सब सोचतेसोचते मेरी आंखों में आंसू भर आए थे. मैं ने अपनेआप को संयत करते हुए हाथमुंह धोया, 2 चोटियां बनाईं, साड़ी बदली और नुमाइश के लिए  खड़ी हो गई. दर्शकों के चेहरे, मुझे देख, बिचक गए.

औपचारिकतावश उन्होंने पूछा, ‘बेटी, क्या करती हो?’

‘जी, मैं बीए फाइनल में हूं.’

मुझे ऊपर से नीचे तक भेदती हुई उन की नजरें मेरे जिस्म के आरपार होती रहीं, मेरे अंदर क्रोध का गुबार…सब को सहन करती हुई मैं वहां चुपचाप सौम्यता की मूर्ति बनी बैठी थी. एकएक पल एकएक युग सा बीत रहा था. मैं मन ही मन सोच रही थी कि ऐसा अंधड़ उठे…ऐसा अधंड़ उठे कि सबकुछ अपने साथ बहा ले जाए. कुछ बाकी न रहे. अंत में मां के संकेत ने मेरी यातना की घडि़यों का अंत किया और मैं चुपचाप अंदर चली गई.

‘रुक्मिणी, उन की 2 लाख रुपए नकद की मांग है. क्या करें, अपना ही सोना खोटा है. सिक्का चलाने के लिए उपाय तो करना ही पड़ेगा न. पर मैं इतने रुपए लाऊं कहां से? भविष्य निधि से निकालने पर भी तो उन की मांग पूरी नहीं कर सकता.’ मां ने लंबी सांस भरते हुए कहा, ‘जाने भी दो जी, बीनू के बापू. यही एक लड़का तो नहीं है. अपनी बेटी के लिए कोई और जोड़ीदार मिल जाएगा.’ फिर तो उस जोड़ीदार की खोज में आएदिन नुमाइश लगती और इस भद्दे, बदसूरत चेहरे पर नापसंदगी के लेबल एक के बाद एक चस्पां कर दिए जाते रहे. लड़के वालों की मांग पूरी करने की सामर्थ्य मेरे पिताजी में न थी.

देखते ही देखते मैं ने बीए प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर लिया और मां के सामने एमए करने की इच्छा जाहिर की. पिताजी तो आपे से बाहर हो उठे. दोनों हाथ जोड़ कर बोले, ‘अब बस कर, बीए पढ़ कर तो यह हाल है कि कोई वर नहीं फंसता, एमए कर के तो हमारे सिर पर बैठ जाएगी.’ मेरी आंखों में आंसू झिलमिला उठे. मां ने मेरी बिगड़ी बात संवारी,‘बच्ची का मन है तो आगे पढ़ने दीजिए न. घर बैठ कर भी क्या करेगी?’ रोज ही एक न एक आशा का दीप झिलमिलाता पर जल्दी ही बुझ जाता. मां की उम्मीद चकनाचूर हो जाती. आखिर हैं तो मातापिता न, उम्मीद का दामन कैसे छोड़ सकते थे.

मैं ने अब इस आघात को भी जीवन की एक नित्यक्रिया के रूप में स्वीकार कर लिया था. पर इस संघर्ष ने मुझे कहीं भीतर तक तोड़मरोड़ दिया था. मेरी वह खिलखिलाहट, वे छतफोड़, दीवार तोड़ ठहाके धीरेधीरे बीते युग की बात हो गए थे. मेरे विवाह की चिंता में घुलते पिताजी को रोगों ने धरदबोचा था. नियम से चलने वाले मेरे पिताजी मधुमेह के रोगी बन गए थे, पर मेरे हाथ में कुछ भी न था. मैं अपनी आंखों के सामने असहाय सी, निरुपाय सी उन्हें घुलते देखती रहती थी. अपनी लगन व मेहनत से की पढ़ाई से मैं एमए प्रथम वर्ष में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हो गई. फाइनल में पहुंची कि एक दिन ट्रक दुर्घटना में पिताजी के दोनों पैर चले गए. मां तो जैसे प्रस्तर शिला सी हो गईं. घर की दोहरी जिम्मेदारी मुझ पर थी. मैं पिताजी का बेटा भी थी और बेटी भी. मैं ने ट्यूशनों की संख्या बढ़ा ली. पिताजी को दिलासा दिया कि जयपुरी कृत्रिम पैरों से वे जल्द ही अपने पैरों पर चलने में समर्थ हो सकेंगे. सब ठीक हो जाएगा. एमए उत्तीर्ण करते ही मुझे कालेज में नौकरी मिल गई.

धीरेधीरे जिंदगी ढर्रे पर आने लगी थी. मेरे तनाव कम होने लगे थे. कभी किसी ने मुझ से मित्रता करनी चाही तो ‘भाई’ या ‘दादा’ के मुखौटे में उसे रख कर अपनेआप को सुरक्षित महसूस करती. किसी की सहलाती हुई दृष्टि में भी मुझे खोट नजर आने लगता. एक षड्यंत्र की बू सी आने लगती. लगता, मुझ भद्दी, काली लड़की में किसी को भला क्या दिलचस्पी हो सकती है?

और उस पर मांपिताजी की नैतिकता के मूल्य. कभी किसी सहकर्मी को साथ ले आती तो पिताजी की आंखों में शक झलमला उठता और मां स्वागत करते हुए भी उपदेश देने से नहीं चूकतीं कि बेटा, बीनू के साथ काम करते हो? बहुत अच्छा. पर बेटा, हम जिस परिवार में, जिस समाज में रहते हैं, उस के नियम मानने पड़ते हैं. हां, मैं जानती हूं बेटा, तुम्हारे मन में खोट नहीं पर देखो न, हम तो पहले ही बेटी की कमाई पर हैं, फिर दुनिया वाले ताने देते हैं कि रोज एक नया छोकरा आता है. बीनू की मां, बीनू से धंधा करवाती हो क्या?

मां के उपदेश ने धीरेधीरे मुझे कालेज में भी अकेला कर दिया. खासकर पुरुष सहकर्मी जब भी देखते, उन के मुख पर विद्रूपभरी मुसकान छा जाती. मुझे मां पर खीझ होने लगती थी. यह नैतिकता, ये मूल्य मुझ पर ही क्यों आरोपित किए जा रहे हैं? मैं लोगों की परवा क्यों करूं? क्या वे आते हैं बेवक्त मेरी सहयता के लिए? बेटी की कमाई का ताना देने वालों ने कितनी थैलियों के मुंह खोल दिए हैं मेरे सामने? एक अकेले पुरुष को तो समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता? ये दोहरे मापदंड क्यों?

कई बार मन विद्रोह कर उठता था. इन मूल्यों का भार मुझ से नहीं उठाया जाता. सब तोड़ दूं, झटक दूं, तहसनहस कर दूं, पर मांपिताजी के चेहरों को देख मन मसोस कर रह जाती. वंदनाजी, आप हमेशा इतने तनाव में क्यों रहती हैं? मैं जानता हूं, इस कठोर चेहरे के पीछे स्नेहिल एक दिल छिपा हुआ है. उसे बाहर लाइए जो सब को स्नेहिल कर दे. ‘वंदनाजी नहीं, बीनू’ मेरे मुंह से सहसा निकल गया. प्रेम शायद मेरे दिल की बात समझ गया था.

‘बीनू, इस बार दिल्ली आओ तो अपने कार्यक्रम में 4 दिन बढ़ा कर आना. वे 4 दिन मैं तुम्हारा अपहरण करने वाला हूं.’ प्रेम की ये रसीली बातें मेरे कानों में गूंज उठतीं और मैं अब तक की तिक्तता को भूल सी जाती. मेरे अंतर की स्रोतस्विनी का प्रवाह उमड़ पड़ने को व्याकुल हो उठा है. उसे अब अपना लक्ष्य चाहिए ‘प्रेम का सागर.’ नहींनहीं, अब वह किसी वर्जना, किसी मूल्य के फेर में नहीं अटकने वाली. वह तो उन्मुक्त पक्षी के समान अपने नीड़ की ओर उड़ना चाहती है. कोई तो है इस कालेभद्दे चेहरे की छिपी आर्द्रता को अनुभूत करने वाला. आज बादल भी तो कितनी जोर से बरस रहे हैं. बरसो…बरसो…बरसो न मेरे प्रेमघन…मेरा पोरपोर भीग जाए ऐसा रस बरसो न मेरे प्रेमघन.

लेखिका- डा. माया गरानी

नीला आकाश -भाग 3 : क्या नीला दूसरी शादी के लिए तैयार हो पाई?

ऐसी मोटीमोटी बूंदें बरसने लगे कि नीला का स्कूटी चलाना मुश्किल हो गया. कहीं भीग न जाए इसलिए वह अपनी स्कूटी सहित एक घने पेड़ के नीचे यह सोच कर खड़ी हो गई कि जैसे ही बारिश रुकेगी स्कूटी से फुर्र हो जाएगी. मगर यह मुई बारिश तो रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. ‘‘अंदर आ जाइए, मैं आप को आप के घर तक छोड़ दूंगा,’’ अचानक एक चमचमाती गाड़ी नीला के सामने आ कर रुकी और खिड़की से ?ांकते हुए एक सुदर्शन नौजवान बोला तो नीला कुछ पल उसे देखती रह गई.

‘‘हैलो मैडम, कहां खो गईं आप? मैं ने कहा अंदर आ जाइए बारिश तेज है भीग जाएंगी आप,’’ जब उस नौजवान ने फिर वही शब्द दोहराए, तो नीला सचेत हो गई. ‘‘नो थैंक्स, मैं चली जाऊंगी,’’ उड़ती सी नजर उस शख्स पर डाल नीला ऊपर आसमान की तरफ देखने लगी जहां अभी भी कालेकाले बादल मंडरा रहे थे. इस का मतलब था बारिश अभी रुकने वाली नहीं है. एक मन हुआ उस की गाड़ी में बैठ जाए, लेकिन फिर लगा न बाबा भले ही भीगते हुए घर जाना पड़े पर किसी अनजान की गाड़ी में नहीं बैठेगी.

‘‘कहीं आप मु?ो उस टाइप का लड़का तो नहीं सम?ा रहीं?’’ वह नौजवान बोला तो नीला और सतर्क हो गई. ‘‘घबराइए नहीं, मैं आप को जानता हूं. आप महाराजा सयाजी राव यूनिवर्सिटी में पड़ती हैं न? मैं भी वहीं पढ़ता हूं. लेकिन आप से 1 साल सीनियर हूं,’’ बोल कर वह हंसा तो नीला ने उसे गौर से देखा. हां, याद आया. इस ने इसे महाराजा सयाजी राव यूनिर्वसटी में देखा तो है. ‘तो क्या हो गया,’ सोच नीला ने मुंह बनाया. ‘उस यूनिवर्सिटी में कितने ही लड़केलड़कियां पढ़ते हैं तो क्या सब मेरे दोस्त हो गए? और इस का क्या भरोसा, मदद के नाम पर ही यह मेरे साथ कुछ ऐसावैसा कर दे तो? न बाबा न, मैं इस के साथ नहीं जाऊंगी.

अपने मन में ही सोच नीला ने मुंह फेर लिया ताकि वह सम?ा जाए कि उसे उस की गाड़ी में नहीं बैठना. मगर वह लड़का तो नीला के पीछे ही पड़ गया कि वह उस की गाड़ी में आ कर बैठ जाए. ‘‘अरे, अजीब जबरदस्ती है. ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’ जब मैं ने कहा मु?ो नहीं बैठना आप की गाड़ी में तो फिर आप जिद क्यों कर रहे हैं? प्लीज, जाइए यहां से. बारिश जब रुकेगी, मैं खुद ही अपने घर चली जाऊंगी,’’ कंधे पर टंगे बैग को ठीक करते हुए नीला ने दो टूक शब्दों में कहा और फिर नजरें फेर लीं. ‘‘जिद मैं कर रहा हूं या आप? बारिश देख रही हैं?’’ बड़े हक से उस ने कहा, ‘‘स्कूटी की चिंता न करें, सुबह आप के घर पहुंच जाएगी,’’ बोल कर उस ने अपने कार का दरवाजा खोल दिया, तो न चाहते हुए भी नीला को उस की गाड़ी में आ कर बैठना पड़ा. लगा, कहीं सच में बारिश न रुकी तो उसे भीगते हुए घर जाना पड़ेगा. ‘‘वैसे अपनी सेफ्टी के लिए आप ने अपने बैग में कटर, चाकू, पेपर स्प्रे वगैरह तो रखा ही होगा न?’’ बोल कर वह हंसा, तो नीला भी मुसकरा पड़ी.

‘‘नहींनहीं, रखना ही चाहिए. इस में क्या है और देख तो रही हैं आज जमाना कितना खराब हो गया है. किसी पर भी विश्वास नहीं किया जा सकता,’’ बोल कर उस ने नीला को एक भरपूर नजरों से देखा, तो नीला की भी आंखें उस से जा टकराईं. इंसान का चेहरा उस के अच्छेबुरे होने का सुबूत दे ही देता है और इस अजनबी के चेहरे से ही लग रहा था कि इंसान बुरा नहीं है. ‘‘वैसे मेरा नाम आकाश है और आप का नाम?’’ गाड़ी बाईं तरफ मोड़ते हुए आकाश ने पूछा. तो नीला एकदम से बोल पड़ी, ‘‘राइट… राइट.’’ ‘‘अच्छा, तो आप का नाम राइटराइट है,’’ आकाश की हंसी छूट गई तो नीला भी खिलखिला पड़ी. नीला की खिलखिलाती हंसी देख कर आकाश उसे देखता ही रह गया.

लेकिन जब सामने से आती गाड़ी ने हौर्न बजाया तो वह घबरा कर सामने देखने लगा. उस दिन के बाद से आकाश और नीला दोनों दोस्त बन गए. लेकिन इसे सिर्फ दोस्ती कहना सही नहीं होगा क्योंकि जिस तरह से दोनों एकदूसरे से मिलने के लिए बेचैन हो उठते थे वह सिर्फ दोस्ती तो नहीं हो सकती. कुछ तो था दोनों के बीच पर खुल कर बोल नहीं पा रहे थे. लेकिन उन की आंखें रोज हजारों बातें करतीं. एक रोज बड़ी हिम्मत जुटा कर आकाश ने नीला को एक लव लैटर लिखा. अब कहेंगे, फोन के जमाने में लव लैटर? हां, क्योंकि जो बातें हम बोल कर नहीं कह पाते, लिख कर आसानी से कह देते हैं. आकाश ने भी वही किया. लैटर में उस ने अपने दिल की सारी बातें लिख डालीं और यह भी कि अगर नीला भी उस से प्रेम करती है, तो कल वह पीच कलर की ड्रैस पहन कर यूनिवर्सिटी आएगी.

दूसरे दिन नीला को पीच कलर की ड्रैस में यूनिवर्सिटी आया देख कर आकाश ऐसे बौरा गया कि सब के सामने ही उस ने नीला को अपनी गोद में उठा लिया और चिल्लाते हुए बोला, ‘‘आई लव यू सो मच नीला. विल यू मैरी मी?’’ नीला ने भी शरमाते हुए ‘हां’ बोला, तो वहां खड़े सारे लड़केलड़कियां खुशी से तालियां बजाने लगे. यूनिवर्सिटी में उस दिन से उन का नाम ‘दो हंसों का जोड़ा’ पड़ गया. नीला का परिवार वैसे तो बिहार का रहने वाला है, मगर सालों पहले उस के पापा परिवार सहित गुजरात के वड़ोदरा शहर में आ कर बस गए और तब से यहीं के हो कर रह गए. जहां नीला के पापा रेलवे में गार्ड की नौकरी करते थे, वहीं आकाश के पापा एक बिल्डर थे. वड़ोदरा में उन का अपना बड़ा घर था. इस के अलावा कई दुकानें भी थीं जिन्हें उन्होंने किराए पर लगा रखा था. उन के पास पैसों की कोई कमी नहीं थी.

मगर नीला के पापा के पास सिवा एक सरकारी नौकरी के कुछ भी नहीं था. अपना घर भी नहीं था. वे तो अपने परिवार के साथ रेलवे के दिए क्वार्टर में रहते थे. आर्थिक तौर पर दोनों परिवारों में जमीनआसमान का अंतर तो था ही, उन के खानापान में भी काफी भिन्नता थी. नीला का पूरा परिवार नौनवैजिटेरियन था, आकाश के घर वाले लहसुनप्याज तक को हाथ नहीं लगाते थे. लेकिन इस बात का उन के प्यार पर जरा भी असर नहीं पड़ा क्योंकि प्यार कहां खानपान और अमीरीगरीबी देखता है. प्यार तो सिर्फ प्यार की ही भाषा सम?ा है. खैर, वक्त के साथ दोनों ने जितना एकदूसरे को जाना, उन का प्यार एकदूसरे के लिए उतना ही गहरा होता चला गया. अकसर नीला और आकाश आसमान के नीचे तारों को निहारते हुए सपने बुनते और कहते कि एक दिन इस आकाश के नीचे ‘नीला आकाश’ की अपनी एक अलग दुनिया होगी जहां सिर्फ वे दोनों होंगे और कोई नहीं.’’ आकाश, मैं तुम्हारे लिए खाना पकाऊंगी और तुम पैसे कमा कर लाना,’’ आकाश के गले से ?ालती नीला कहती, तो वह सोचने लगता कि क्या उन का प्यार शादी के अंजाम तक पहुंच पाएगा? कहीं उन के परिवार वालों ने इस रिश्ते को इनकार कर दिया तो?’’ ‘‘मैं कुछ पूछ रही हूं आकाश, लेकिन तुम न जाने कहां खोए हुए हो.

बोलो, क्या सोच रहे थे. नीला उसे हिलाते हुए पूछती, तो वह कह देता कि कुछ भी तो नहीं. ‘‘चलो मान लिया? लेकिन एक बात तो बताओ. तुम मु?ा से ही शादी क्यों करना चाहते हो? ऐसा क्या देखा मु?ा में? दुनिया में और भी तो सुंदरसुंदर और पैसे वाली लड़कियां होंगी, फिर मैं ही तुम्हें क्यों भाई?’’ उस की बात पर आकाश मुसकराते हुए कहता है, ‘‘बता दूं? सच में?’’ ‘‘अरे हां, बताओ न?’’ उत्साहित सी नीला बोली. ‘‘क्योंकि मु?ो तुम्हारी छोटी बहन बहुत पसंद आ गई और तुम्हारे ही बहाने मैं उस के साथ भी फ्लर्ट कर सकूंगा. वैसे भी साली आधी घरवाली होती है,’’ बोल कर जब आकाश ठहाके लगा कर हंसा, तो नीला गुस्से से मुंह फुलाते हुए यह बोल कर वहां से जाने लगी कि तो फिर उसी से शादी कर लो न, ‘‘अरे…’’ आकाश उस के पीछे भागा, ‘‘मैं तो तुम्हें केवल छेड़ रहा था सच में. तुम्हें बुरा लगा तो सौरी,’’ बोल कर आकाश अपने दोनों कान पकड़ कर उठकबैठक लगाने लगा. यह देख कर नीला को हंसी आ गई. उस के लिए आकाश और आकाश के लिए नीला हवा की तरह अनिवार्य थे.

दोनों एकदूसरे के बिना जीने की कल्पना तक नहीं कर सकते थे. आकाश के पापा चाहते थे कि एमबीए के बाद आकाश मास्टर्ड करने के लिए अमेरिका चला जाए और वह अपने पापा की बात टाल नहीं सकता था. नीला को जब यह बात पता चली कि आकाश 2 साल के लिए अमेरिका जा रहा, तो वह बहुत उदास हो गई. उसे लगा कहीं अमेरिका जा कर आकाश उसे भूल न जाए. ‘‘पागल हो,’’ नीला को अपनी बांहों में समेटते हुए आकाश बोला, ‘‘तुम ने सोच भी कैसे लिया कि मैं तुम्हें भूल जाऊंगा वहां जा कर? अरे, तुम तो मेरी जान हो,’’ आकाश ने उसे सम?ाया, ‘‘वह भी तो सरकारी जौब पाना चाहती है. तो क्यों न ये 2 साल वह अपना मन पढ़ाई में लगा दे? देखना, फिर कैसे हवा की तरह 2 साल फुर्र से निकल जाएंगे और फिर हमतुम दोनों मिल कर एक नया इतिहास बनाएंगे,’’ गुनगुनाते हुए आकाश बोला.

यह सुन उदास सी नीला बोल पड़ी, ‘‘और अगर हम न मिल पाएं तो?’’ ‘‘तो… तो मर तो सकते हैं न एकसाथ?’’ उस की बात पर नीला ने उस के होंठों पर अपनी उंगली रख दी कि ऐसी बातें वह अपने मुंह से न निकाले. ‘‘तो फिर खुशीखुशी मु?ो विदा करो और हां, रोज हम फोन पर बातें किया करेंगे ओके न?’’ आकाश बोला. अमेरिका जाते समय आकाश ने नीला से यह वादा लिया कि वह कभी दुखी नहीं होगी, पढ़ाई में अपना मन लगाएगी और उसे रोज फोन करेगी. अपनी आगे की पढ़ाई के लिए उधर आकाश 2 साल के लिए अमेरिका चला गया और इधर नीला जौब की तैयारी में जुट गई. नीला ने अब तक अपने घरवालों को अपने प्यार के बारे में कुछ नहीं बताया था और न ही आकाश ने अपने परिवार वालों से नीला के बारे में कुछ कहा था. हमारे समाज में लड़कियों को ले कर घर के अंदर मर्यादा, परंपरा, संस्कृति, सुरक्षा की ऐसी मजबूत दीवार बंधी रहती है कि लड़कियां उसे लांघने के नाम से भी भय खाती हैं. मातापिता जल्द से जल्द दूसरे की अमानत सम?ा कर बेटी को उस के घर भेज कर गंगास्नान कर लेना चाहते हैं.

उन्हें लगता है जवानी के जोश में कहीं बेटी के पैर फिसल गए, तो अनहोनी हो जाएगी. इसलिए उसे बंद दरवाजों में कैद कर दिया जाता है. लेकिन नीला ने भी सोच लिया था कि उस के मातापिता मानें तो ठीक वरना वह खिड़की से लांघ कर चिडि़या की तरह फुर्र हो जाएगी इस घर से. घर में जब नीला की शादी की बात चलने लगी, तो उस ने यह बहाना बनाया कि पहले वह जौब लेगी, फिर शादी करेगी. लेकिन जब उस के मातापिता को यह बात मालूम पड़ी कि जौब तो सिर्फ एक बहाना है, बल्कि वह तो एक गुजराती लड़के से प्यार करती है और उस से ही शादी करना चाहती है, तो घर में भयंकर तूफान उठ खड़ा हुआ क्योंकि किसी गैरजातबिरादरी के लड़के से वे अपनी बेटी की शादी कैसे होने दे सकते भला? इसलिए उन्होंने ठान लिया कि अब जितनी जल्दी हो सके वे नीला की शादी अपने किसी जातबिरादरी के लड़के से करा देंगे. नीला के लिए लड़का भी ढूंढ़ा जाने लगा. यहां तक कि उस का घर से निकलना भी बंद करवा दिया गया. लेकिन नीला भी कम जिद्दी नहीं थी.

बोल दिया उस ने कि वह शादी करेगी तो सिर्फ आकाश से और अगर उन लोगों ने उस के साथ जबदस्ती करने की कोशिश की, तो वह पंखे से ?ाल जाएगी. नीला की धमकी से उस के मांपिता डर गए कि कहीं बेटी ने सच में कुछ कर करा लिया तो सब की जिंदगी आफत में आ सकती है. इसलिए उन्होंने बेमन से ही इस शादी की अनुमति दे दी. नीला से शादी की बात सुनते ही आकाश के मांपापा विरोध जताते हुए कहने लगे कि एक साधारण परिवार की बिहारी लड़की उन के घर की बहू कभी नहीं बन सकती. लेकिन आकाश ने भी खरीखरी सुना दीया उन्हें कि वह शादी तो नीला से ही करेगा. बेटे की जिद के आगे उन्हें भी ?ाकना पड़ा. पर आकाश की मां ने दिल से इस रिश्ते को नहीं स्वीकारा, बल्कि बेटे की जिद के कारण उसे इस शादी के लिए मानना पड़ा. दोनों परिवारों के आशीर्वाद से नीला और आकाश एक हो गए. जो नीला शादी के पहले एक रेलवे क्वार्टर में रहती थी आकाश से शादी होते ही वह महलों की रानी बन गई. यहां इस घर में नौकरचाकर, गाड़ी सबकुछ तो था,

पर वह सम्मान नहीं था जिस की वह हकदार थी. आकाश की मां हमेशा उसे उस के गरीबी को ले कर ताने मारती और कहती कि उस ने उस के बेटे को अपने रूपजाल में फांस लिया वरना तो उन के बेटे के लिए करोड़पति घरों की लड़कियों की लाइन लगी थी. गरीब घर की लड़की, गरीब घर की लड़की बोलबोल कर वह उस का और उस के मांबाप का अपमान करती और कहती कि सिर्फ पैसों के लिए उस ने आकाश से शादी की है. मगर ऐसा नहीं था. नीला ने कभी आकाश के पैसे और घर के लिए उस से शादी नहीं की बल्कि वह सच में उस से प्यार करती थी और यह बात आकाश भी जानता था. इसलिए तो वह उसे सम?ाता कि मां की बातों को दिल से मत लगाओ. मगर आकाश भी अपनी मां के रूखे व्यवहार से अच्छी तरह से वाकिफ था कि वह जिस के भी पीछे पड़ जाती है उस का सुखचैन छीन लेती है. नीला का भी उस ने सुखचैन छीन लिया था क्योंकि उठतेबैठते वह उसे जलील करती. उस की गरीबी को ले कर ताने मारती. यहां तक कि उस के मांबाप को भिंखमंगा तक बोल देती, जो किसी भी लड़की को अच्छा नहीं लगेगा. मगर आकाश की मजबूरी यह थी कि वह अपने मांबाप का इकलौता बेटा था और उन से अलग हो कर नहीं रह सकता था. समाज और लोग क्या कहेंगे कि शादी होते ही अपने मांबाप से अलग हो गया. इसलिए वह नीला से ही चुप रहने को कहता.

कहता कि धैर्य रखो, एक दिन सब ठीक हो जाएगा. मगर एक दिन जब खुद आकाश ने ही अपने कानों से मां को रिश्तेदारों के सामने नीला की बुराई करते सुना, तो उसे जरा भी अच्छा नहीं लगा. किसी के मांबाप, भाईबहन के लिए इतनी ओछी और गंदी बातें कोई भी लड़की कैसे सहन कर सकती है भला. नीला का बड़प्पन ही था कि इतना सब होने के बाद भी वह यहां रह रही थी, तो सिर्फ अपने आकाश के लिए. लेकिन अब आकाश का भी फर्ज बनता है कि वह उस के लिए कुछ करे. सो वह यहीं वड़ोदरा में ही एक 2 कमरे का फ्लैट ले कर नीला के साथ रहने लगा. इस बात के लिए भी नीला को ही दोषी ठहराया गया कि आते ही उस ने आकाश को उस के मांबाप से अलग कर दिया. मगर आकाश तो अब भी अपनी दोनों जिम्मेदारियां बखूबी निभा रहा था. एक रोज जब आकाश की मां को यह बात पता चली कि नीला मां बनने वाली है, तो वह दौड़ीदौड़ी यहां पहुंच गई और कहने लगी कि नीला उन के घर साथ आ कर रहे. लेकिन नीला वहां नहीं जाना चाहती थी और इस के लिए आकाश ने भी उसे फोर्स नहीं किया. 9 महीने पूरे होने पर नीला ने जब एक प्यारे से बेटे को जन्म दिया तो दोनों परिवारों में खुशी की लहर दौड़ गई.पोते के जन्म पर आकाश की मां ने अस्पताल से ले कर पूरे शहर में मिठाई बंटवाई. लेकिन यह कहते भी बाज नहीं आई कि नाती भले ही साधारण घर की है, पर पोता तो करोड़पति घर का है न.

आकाश को कंपनी की तरफ से 1 साल के लिए अमेरिका भेजा जा रहा था. मगर उल?ान यह थी कि नीला और रुद्र को अकेले छोड़ कर कैसे जाए क्योंकि रुद्र अभी बहुत छोटा था और नीला उसे अकेले नहीं संभाल पाती. इसलिए वह चाहता था कि जब तक वह अमेरिका से वापस नहीं आ जाता, नीला उस के घर जा कर रहेगी, तो वह निश्चिंत रहेगा. मगर नीला अपनी ससुराल नहीं जाना चाहती थी. इसलिए रुद्र को ले कर वह अपने मायके आ गई रहने. आकाश की मां का अपनी बहू से लाख मनमुटाव था, मगर पोते के मोह में वह यहां खिंची चली आती थी. इसी तरह 1 साल गुजर गया और आकाश के आने का दिन भी नजदीक आ गया. मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था. अमेरिका से वापस आ रहा प्लेन क्रैश हो गया और उस में बैठे सभी यात्रियों की मौत हो गई. आकाश की मौत से दोनों परिवारों पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा.

नीला की तो दुनिया ही लुट गई. उस की होली, दीपावली और सारी खुशियां आकाश के साथ ही चली गईं. उस की सास तो पहले ही नीला को पसंद नहीं करती थी. आकाश के न रहने पर वह और उन की आंखों में चुभने लगी. नीला जीए या मरे, कोई मतलब नहीं था उसे. उसे तो अब सिर्फ अपने पोते से मतलब था, जो उस के खानदान का एकलौता वारिस था. वे लोग अब रुद्र पर अपना पूरा अधिकार जताने लगे थे. कहने लगे कि रुद्र उन का खून है इसलिए अब वह उन के साथ ही रहेगा, परंतु नीला अपने बच्चे को उन्हें देने के लिए हरगिज तैयार नहीं थी. वैसे भी बच्चे पर सब से पहला अधिकार उस की मां का ही होता है. लेकिन यह बात वे लोग सम?ा ही नहीं रहे थे.

अपनी जिद में अड़े बैठे थे कि रुद्र को वे ले कर ही जाएंगे. जब यह मामला कोर्ट में पहुंचा, तो फैसला नीला की फेवर में आया और वे लोग तिलमिला कर रह गए. आर्थिक तौर पर तो नीला को कोई समस्या नहीं थी क्योंकि पढ़ीलिखी नीला एक बड़े सरकारी बैंक में जौब कर थी और मोटा वेतन पाती थी. लेकिन समस्या समाज और समाज में रह रहे लोगों की थी जो जबतब आ कर नीला के घावों पर यह कह कर नमक छिड़क जाते कि हाय, इतना लंबा जीवन… अकेले कैसे कटेगी… उस पर से एक छोटा बच्चा. अकेले संभाल पाएगी? बेटी की हालत देख कर नीला के मांपापा सोचते कि कैसे कटेगा उन की बेटी का इतना लंबा जीवन? क्या होगा उन की विधवा बेटी का जब वे नहीं होंगे तब? बेटी की चिंता में नीला के पापा डिप्रैशन में रहने लगे और एक रात जो सोए तो फिर उठे ही नहीं. महीनों बाद फिर आकाश के मांपापा नीला के सामने खड़े थे और मिन्नतें कर रहे थे कि वह रुद्र के साथ उन के घर आ कर रहे क्योंकि रुद्र और नीला के सिवा अब उन का है ही कौन. देख रही थी नीला, आकाश के चले जाने से उस के मांपापा एकदम टूट चुके थे. वे दोनों अपने जीवन की संध्याबेला अपने पोते के साथ बिताना चाहते थे, तो इस में गलत क्या है. इसलिए पिछली सारी बातें भुला कर नीला रुद्र के ले कर अपनी ससुराल आ गई रहने. वैसे भी रुद्र इस घर का उत्तराधिकारी था. इस घर का अकेला वारिस.

दिन हंसीखुशी बीत ही रहे थे कि एक दिन रुद्र बीमार पड़ गया. नीला ने उसे डाक्टर को दिखाना चाहा, पर उस की सास अपने गुरुमहाराज, आचार्यजी को अपने घर बुला लाई और कहने लगी कि आचार्यजी में बहुत तेज है, वे रुद्र को तुरंत ठीक कर देंगे. जैसे आचार्यजी के पास कोई जादू की छड़ी हो जिसे घुमाते ही रुद्र ठीक हो जाएगा. वैसे नीला इन पंडितोंपुरोहितों पर बिलकुल विश्वास नहीं करती थी, लेकिन सास के आगे कुछ बोल न सकी और आचार्यजी जैसाजैसा कहते गए, वह वैसावैसा करती गई. मगर फिर भी रुद्र की तबीयत जस की तस बनी हुई थी. जबकि इस पूजा के बहाने ही आचार्यजी इन से लाखों रुपये ऐंठ चुके थे. ये आचार्यजी देखने में भले ही साधारण इंसान लगते हों, पर करोड़पति आदमी थे. इन के वड़ोदरा और अहमदाबाद में अपने मकान थे. गाडि़यां थीं और हों भी क्यों न जब ऐसेऐसे करोड़पति अंधभक्त इन के चरणों में पड़े हों तो. रुद्र की तबीयत में कोई सुधार होता न देख कर आचार्यजी कहने लगे कि अब एक गुप्त पूजा करवानी पड़ेगी तभी रुद्र ठीक हो पाएगा. लेकिन इस गुप्त पूजा में सिर्फ नीला ही बैठ सकती है क्योंकि वह रुद्र की मां है. आचार्यजी ने यह भी कहा कि गुप्त पूजा रात के 12 बजे के बाद शुरू करनी पड़ेगी तभी फलेगा. नीला की सास इस पूजा के लिए तुरंत राजी हो गई.

मगर नीला को कुछ खटका. पता नहीं क्यों उस आचार्यजी के आंखों में उसे एक चालबाज आदमी नजर आता था. मगर उस की सास तो उस आचार्य के पावों में पड़ी होती थी, तो कहां से देख पाती उस की चालाकी. अब सास का हुक्म नीला टाल भी नहीं सकती थी और सब से बड़ी बात कि यह रुद्र की जिंदगी का सवाल था, तो नीला को इस पूजा के लिए मानना पड़ा. लेकिन जैसे ही पूजा शुरू हुई वह आचार्य हरकत में आ गया. गलत तरीके से वह नीला को छूने लगा तो नीला उठ खड़ी हुई और बोली, ‘‘यह क्या कह रहे हैं आप आचार्यजी? हम तो यहां पूजा के लिए आए हैं न?’’ ‘‘अरे हां तो पूजा ही तो कर रहे हैं,’’ आचार्य अजीब तरह से हंसा और बोला, ‘‘देखो, अभी तुम जवान हो… मन करता होगा तुम्हारा भी, जानता हूं मैं और यहां तो कोई भी नहीं है. इसलिए डरो मत. हम तुम्हें शारीरिक सुख देंगे और तुम मु?ो पैसा. दोनों खुश.’’ आचार्य की बेहूदगी देख कर नीला की आंखें आश्चर्य से बड़ी हो गईं. ‘‘अरे, ऐसे क्या देख रही हो? कुछ गलत कहा क्या मैं ने? तुम्हारे भले की बात की है.’’ ‘‘छि:, तो आप का असली रूप यह है आचार्यजी? काश, काश मेरी सास आप का यह रूप देख पातीं. लेकिन अब मैं उन्हें दिखाऊंगी आप का यह असली रूप,’’ बोल कर नीला वहां से ?ाटके से निकलने लगी कि उस आचार्य ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘तुम्हारी इतनी हिम्मत.’’ नीला पलटी और एक जोर का थप्पड़ उस आचार्य के कनपट्टी पर जड़ दिया जिस से उस का दिमाग ?ान?ाना उठा.

जब तक वह संभल पाता नीला वहां से निकल चुकी थी. आचार्य को लगा अगर नीला ने यह बात अपनी सास को जा कर बता दी, तो उस की वर्षों की मेहनत पर पानी फिर जाएगा. उस का बनाबनाया साम्राज्य ढह जाएगा. इसलिए वह भागा. बेहताहसा भागा और नीला से पहले वहां पहुंच गया. अपनी खुलती पोल देख कर वह कहने लगा कि नीला एक बदचलन औरत है. उस के खराब लक्षण की वजह से ही आकाश की मौत हुई और अब वह अपने बेटे रुद्र को भी खा जाएगी. अपनी बहू को सम?ाने के बजाय उस की सास ने उसे ही उंगली दिखाई और उसे खूब भलाबुरा कहा.

यह भी कहा कि वह कौन सा मनहूस दिन था जिस दिन आकाश से उस की शादी हुई थी. जहां ?ाठ को सच और सच को चरित्रहीन सम?ा जाता हो, वहां रहने का तो अब कोई मतलब ही नहीं था. सो नीला रुद्र को ले कर अपने बैंक के दिए घर में रहने आ गई. ‘‘क्या हुआ इतनी उदास क्यों बैठी हो? सब ठीक तो है?’’ औफिस में नीला को गुमसुम बैठे देख कर महेश ने पूछा, तो उस ने सिर्फ इतना ही कहा कि नहीं कुछ नहीं, बस यों ही. लेकिन उस से क्या कहे कि वह अपनी मां के व्यवहार से खिन्न है. ‘‘अच्छा चलो हम कैंटीन में चल कर चाय पीते हैं,’’ नीला का हाथ पकड़ कर राहुल बोला, तो वह एकटक उसे देखने लगी. ‘‘अरे, ऐसे क्या देख रही हो, पहली बार देखा है क्या मु?ो? चलो न,’’ महेश ने उस का हाथ खींचा तो वह उठ कर उस के पीछे चल दी. महेश नीला का कलीग और दोस्त था. कहें तो दोस्त ज्यादा. दोनों एकदूसरे को पसंद करते हैं. दोनों एक ही बैंक में जौब करते हैं, साथ ही औफिस आतेजाते हैं रोज. ‘‘अब बोलो क्या हुआ? क्यों इतनी गुमसुम हो?’’ चाय का घूंट भरते हुए महेश ने फिर वही बात पूछी तो नीला टाल गई क्योंकि क्या बताती उसे कि उस की मां रुद्र को देखना नहीं चाहती हैं.

चाहती हैं कि उस मासूम को उस की दादी के पास छोड़ दिया जाए. नीला की उदासी थोड़ी कम हो इसलिए महेश अपने परिवार के बारे में उस से बातें करने लगा. फिर राजनीति और फिल्मों पर बातें हुईं, तो नीला को अच्छा लगा. कुछ देर और वहां बैठ कर बातें करने के बाद नीला को उस के घर छोड़ कर महेश भी अपने घर चला गया. रात में फोन कर फिर उस ने नीला का हालचाल लिया और कहा कि कल संडे है तो वे कहीं घूमने चलेंगे. नीला ने भी सोचा काम के चक्कर में वह रुद्र को समय नहीं दे पाती है, इसलिए उस ने महेश के साथ जाने के किए हां बोल दिया. वह देख रही थी रुद्र अब तक महेश से ठीक से घुलमिल नहीं पाया था. उसे देखते ही वह नीला के गोद में छिप जाता और रोने लगता. पूरे रास्ते वह अपनी मां नीला से चिपका रहा. एक बार भी महेश की गोद में नहीं गया. महेश ने भी उस से बहुत ज्यादा प्यार नहीं दिखाया. बस दूर से ही दुलारता रहा. यह बात तो तय थी कि महेश नीला से शादी करना चाहता था, पर नीला पूरी तरह से श्योर नहीं थी अभी. उस दिन अकेले में जब महेश ने नीला के सामने शादी का प्रस्ताव रखा तो वह कुछ बोल नहीं पाई.

घर आ कर वह निढाल सोफे पर पड़ गई और सोचने लगी कि क्या महेश से उस की शादी का फैसला सही होगा? इंसान कुछ भी कहे पर उस के आंखों में सचाई दिख ही जाती है और महेश की आंखों में उस ने रुद्र के लिए कहीं कोई प्यार नहीं देखा था. बस दिखावा ही करता कि वह रुद्र से प्यार करता है. शादी के बाद कहीं महेश को रुद्र अच्छा न लगने लगे और वह उसे नीला से दूर कर दे तो? सोच कर ही नीला कांप उठी. वह सम?ा नहीं पा रही थी कि कौन सा रास्ता चुने? क्या करे? सामने दीवार पर आकाश का फोटो टंगा देख उस की आंखें भीग गईं.

अपने मन में यह बोल कर वह रो पड़ी कि आकाश, तुम मु?ो छोड़ कर क्यों चले गए? मां को रोते देख कर तोतली आवाज में जब रुद्र ने पूछा कि क्या हुआ? तो अपने आंसू पोंछते हुए नीला कहने लगी कि वह एक दिन उसे छोड़ कर तो नहीं चला जाएगा? ‘‘नहीं मां, मैं हमेशा आप के साथ रहूंगा. प्रौमिस,’’ बोल कर जब रुद्र ने अपनी मां को चूम लिया तो नीला को लगा आकाश उस के सामने खड़ा मुसकरा रहा है और कह रहा है कि तुम खुद को कमजोर क्यों सम?ाती हो नीला? तुम तो प्रकृति की ऐसी कृति हो, जो हर परिस्थिति संभाल लेती है और फिर मैं हूं न तुम्हारे साथ और हमेशा रहूंगा. नीला ने महसूस किया जैसे अचानक उस का पूरा घर महक उठा हो नीलाआकाश की खुशबू से.

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