देश के इन राज्यों में है मिलता है जल्दी न्याय, जबकि यहां लंबित है कई मामले

तीसरी बार भारतीय न्याय रिपोर्ट के अनुसार दक्षिणी राज्यों का दबदबा जारी है. ये तीन राज्यों कर्नाटक, तमिलनाडु और तेलंगाना ने न्याय तक पहुंच प्रदान करने वाले राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की लिस्ट में टॉप 3 जगह हासिल की है. इसके अलावा गुजरात और आंध्र प्रदेश को क्रमशः चौथा और पांचवां स्थान दिया गया है. न्याय के मामले में सबसे बुरा प्रदर्शन करने वाले राज्यों में उत्तर प्रदेश टॉप पर है. रिपोर्ट में यूपी को 18 बड़े और ज्यादा जनसंख्या वाले राज्यों में सबसे खराब प्रदर्शन वाला राज्य बताया गया है.

कम आबादी वाले राज्यों में सिक्किम न्याय प्रदान करने के मामले में सबसे ऊपर है. 1 करोड़ से कम आबादी वाले राज्यों में सिक्किम के बाद दो नॉर्थ-ईस्ट राज्यों अरुणाचल प्रदेश और त्रिपुरा का नाम भी शामिल है. गोवा इस लिस्ट में सातवें नंबर पर है.

पहल करना जरुरी

इस बारें में इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के एडिटर माजा दारूवाला कहती है कि ये जस्टिस रिपोर्ट पिछले 3 साल से किया जा रहा है, इसमें मेरी टीम अलग – अलग राज्यों में जाती है और वहां के इंटेलेक्चुअल और ब्यूरोक्रेट्स से बात कर निरिक्षण करती है, जिसमे बातचीत से काफी बातें सामने आती है. कनार्टक के चीफ सेक्रेट्री ने बुलाकर बात की रिपोर्ट के आंकड़े देखे, तो उन्होंने मीटिंग बुलाई और लोगों की समस्याओं पर  चर्चा की और उसमें सुधार करने के बारें में सोचा है. फैले हुए आकड़ों को समेटने के बाद, इजी फोर्मेट में आने पर इसे समझना आसान हो जाता है और इसपर काम करने के अलावा एक बातचीत शुरू हो जाती है.

कर्नाटक में जस्टिस का आकड़ा सबसे अच्छा दिखने की वजह के बारें में पूछने पर माजा बताती है कि परफेक्ट वजह बताना संभव नहीं. एक वजह यह भी हो सकता है कि चुनाव आ रहे है, तो राज्य सरकार कुछ जल्दी सुधार कर लोगों का विश्वास पाना चाह रही हो, लेकिन ये सही है कि उन्होंने इस दिशा में काम करने का प्रयास किया है, जिसका परिणाम सामने दिख रहा है.

चौकाने वाले आंकड़े

भारत में लंबित मामलों के चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं. इंडिया जस्टिस की रिपोर्ट में बताया गया है कि कैसे देश में तेजी से कैदियों की संख्या बढ़ती जा रही है. इसके साथ ही इंडिया जस्टिस ने भारत की न्यायपालिका को लेकर भी आंकड़े जारी किए हैं, जिनमें बताया गया है कि देश की तमाम अदालतों में जजों की भारी कमी है. रिपोर्ट में ये भी बताया गया है कि देश के किन राज्यों में जस्टिस सिस्टम ने सबसे बेहतरीन काम किया है और कहां न्याय मिलने या मामलों के फैसलों में देरी हो रही है.

रिपोर्ट में ये भी बताया गया है कि हर एक जज पर लंबित मामलों का कितना भार है. जजों की कमी के चलते ये भार काफी ज्यादा बढ़ गया है. दिसंबर 2022 तक, देश में 10 लाख लोगों पर 19 जज थे और करीब 4.8 करोड़ मामलों का बैकलॉग था. जबकि लॉ कमीशन ऑफ इंडिया की तरफ से 1987 में ही सुझाव दिया गया था कि एक दशक में प्रत्येक 10 लाख लोगों के लिए 50 जज होने चाहिए. देश में कई राज्य ऐसे हैं जहां एक जज पर 15 हजार से ज्यादा मामले लंबित हैं.

अलग-अलग राज्यों के हाईकोर्ट के आंकड़े देखने पर पता चलता है कि पिछले कई सालों के मामले अब तक लंबित पड़े हैं. इसमें यूपी सबसे उपर है. यहां औसतन 11.34 सालों के केस भी अब तक लंबित हैं. वहीं इसके बाद पश्चिम बंगाल का नंबर आता है, जहां 9.9 साल औसत पेंडेंसी है. इस मामले में सबसे अच्छा प्रदर्शन त्रिपुरा का है, जहां औसत पेंडेंसी करीब एक साल है. इसके बाद सिक्किम (1.9 साल) और मेघालय (2.1 साल) लिस्ट में हैं.

11 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों की जिला अदालतों में प्रत्येक चार में से एक मामले 5 साल से अधिक समय से लंबित हैं. देश में ऐसे मामलों की सबसे ज्यादा हिस्सेदारी अंडमान और निकोबार द्वीप समूह (53 प्रतिशत), और सिक्किम में सबसे कम (0.8 प्रतिशत) है. बड़े और ज्यादा जनसंख्या वाले राज्यों में पश्चिम बंगाल में ऐसे मामले 48.4 प्रतिशत और बिहार में 47.7 प्रतिशत हैं.

सरकारी क्षेत्रों में महिलाओं के भर्ती की कमी

प्रोजेक्ट लीड वलय सिंह कहते है कि जब मैंने साल 2019 में पहली रिपोर्ट शेयर की थी, तो कर्नाटक के हाई कोर्ट में 47 परसेंट बहुत वेकेंसियाँ थी,जिसमे उन्होंने भर्तियाँ बढाई है, हाई कोर्ट की वेकेंसियाँ आधी कर दी. जेल के बजट को भी कम किया गया. सेशंस में सीसी टीवी कैमरे लगाये गए. पिछले सालों की तुलना करें, तो सभी राज्यों में कुछ न कुछ सुधार अवश्य हुआ है, कोशिश सभी कर रहे है. लेकिन बहुत धीमा काम होने पर जरुरत के हिसाब से कमी बढती जाती है. कारागारों की व्यवस्था ख़राब होता जा रह है, औरतों का आरक्षण बहुत धीरे-धीरे सुधर रहा है. औरते है, काम नहीं बेरोजगार है, वे काम करने के लिए तैयार भी है. देखा जाय तो आई टी सेक्टर में महिलाएं सबसे अधिक काम करती है,जबकि सरकारी निचली अदालतों में महिलाओं का राष्ट्रिय औसत 35 प्रतिशत है, बाकी सब जगह ये 20, 15 और 10 के नीचे है. लोअर जुडीशियरी में 33 प्रतिशत या 35 प्रतिशत या कई राज्यों में उससे भी अधिक महिलाएं जज बन रही है, लेकिन आई टी सेक्टर से तुलना करने पर पता चलता है कि महिलाएं और अधिक काम सरकारी क्षेत्र में कर सकती है. महिला पुलिस ऑफिसर का प्रतिशत 5 है.माजा दारूवाला आगे कहती है कि पुलिस का 90 प्रतिशत काम किसी टेरोरिस्ट या गैंग को पकड़ना नहीं होता. पुलिस का काम प्रसाशनिक, दिमाग और डेस्क वाला होता है. इसे कोई भी महिला कर सकती है.

100 फीसदी तक नहीं केस क्लीयरेंस रेट

राज्यों के केस क्लीयरेंस रेट की बात करें, तो हाईकोर्ट्स में 2018-19 से 2022 के बीच राष्ट्रीय औसत में छह प्रतिशत (88.5 प्रति प्रतिशत से 94.6 प्रतिशत) की बढ़ोतरी हुई है, लेकिन निचली अदालतों में 3.6 (93 प्रतिशत से 89.4 प्रतिशत) की गिरावट आई है. 2018 से 2022 के बीच त्रिपुरा ही इकलौता राज्य है जहां जिला अदालतों में केस क्लीयरेंस रेट 100 प्रतिशत से ऊपर रहा. हालांकि 2020 में कोरोनाकाल के दौरान त्रिपुरा में भी केस क्लीयरेंस रेट 40 प्रतिशत तक पहुंच गया था.

सही आंकड़ों का मिलना होता है मुश्किल

समस्या क्या होती है? मेरी टीम अच्छी है और मेरे पार्टनर ने सहयोग दिया है. ये समस्या आकड़ों की है, केवल सरकारी रिपोर्ट को देखते है, नेशनल, राज्य, पार्लियामेंट, बजट, असेम्बली को देखते हुए काम करते है,जो नहीं मिलता है, उसे राईट टू इनफार्मेशन में एप्लीकेशन डाल-डालकर देता निकलना पड़ता है. डेटा कई बार मुश्किल से देते है, या फिर उसमे खामिया होती है, जब इसे रिपोर्ट बनाते है, लोग आलोचना करते है और कहते है कि ये गलत रिपोर्ट है, लेकिन ये एक आइना है, क्रिटिक नहीं. इसमें बाधा होने पर दिखेगा. इसके अलावा इसमें हार्ड वर्क और पैशन होना जरुरी होता है, इसे देश के लिए ही किया जा रहा है. वह आगे कहती है कि भारत ने यह वादा किया है कि 2030 तक वह प्रत्येक व्यक्ति की न्याय तक पहुंच सुनिश्चित करेगा और सभी स्तरों पर प्रभावी, जवाबदेह और समावेशी संस्थानों का निर्माण करेगा, लेकिन इस साल आईजेआर के द्वारा प्रस्तुत आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि अभी हमें लंबा सफर तय करना है. मेरा  फिर से आग्रह है कि हम सब के लिए किफायती, कुशल, और सुलभ न्याय सेवाओं को भोजन, शिक्षा या स्वास्थ्य की तरह ही आवश्यक माना जाए. इसके लिए इसमें और अधिक संसाधनों को लगाने की, बहुत अधिक कैपेसिटी बिल्डिंग की लंबे समय से चली आ रही खामियों को दूर करने पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है.

मीडिया को ध्यान देने की है जरुरत

मीडिया में विश्वसनीयता की कमी,कितना नुकसान दायक है? माजा कहती है कि ये सही है आज की मीडिया में लोगों को कुछ सही खबर देने की जो परमंपरा पहले थी, वह अब ख़त्म हो गयी है. ऐसे में डेटा को लेकर कुछ लिखने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. यही वजह है कि लोग हमें रिपोर्ट के द्वारा ओपिनियन देने की बात कहते है. राय तो है,लेकिन उससे क्या बदलाव हो सकेगा.मैंने इन आंकड़ों पर रिपोर्ट तैयार की है. ये आंकड़े भी हमारी सरकार के है, इसका मुझसे कुछ लेना-देना नहीं है. मेरा सरकार के प्रति पक्षपाती होना भी नहीं है. सिर्फ सुधार जो हुआ है या कम हुआ है, उसकी प्रतिबिम्ब को दिखाना है. रिपोर्ट भी बनाने से पहले हमने डेटा को इकट्ठा किया और उसे ग्राउंड पर जाकर मिलान भी किया. रिपोर्ट एक छोटा पार्ट है, जिसमें काम करने के तरीके, लोग क्या सह रहे है, क्या नहीं, पारदर्शिता है या नही आदि कई बातों को सामने लाने की कोशिश की गई है.

बॉक्स में :

न्याय पालिका पर दबाव

  • सिक्किम हाई कोर्ट और चंडीगढ़ डिस्ट्रिक्ट हाई कोर्ट को छोड़कर देश के किसी भी कोर्ट में जजों की संख्या पूरी नहीं,
  • 18 बड़े और ज्यादा जनसँख्या वाले राज्यों में केस और क्लियरेंस रेट के मामले में सिर्फ केरल ने छुआ 100 फीसदी का आंकड़ा,
  • डिस्ट्रिक्ट कोर्ट लेवल पर किसी भी राज्य ने एससीएसटी और ओबीसी कोटा को पूरा नहीं किया,
  • न्याय के मामले में साउथ के राज्य सबसे आगे, जिसमे कर्णाटक, तमिलनाडु, और तेलंगाना ही 3 सबसे उपरी पायदान पर,

प्रति जज लंबित मामलों की औसत संख्या

  • राजस्थान –24000
  • मध्यप्रदेश –12000 से अधिक
  • उत्तरप्रदेश –करीब 12000
  • हिमाचल प्रदेश – करीब 9 हज़ार
  • आंध्रप्रदेश – करीब 9 हज़ार
  • हरियाणा – करीब 8 हज़ार

5 टिप्स: पतले होने का अफसोस नहीं, बस ड्रेसिंग सेंस मे बदलाव है जरूरी

राधिका एक मल्टी नेशनल कंपनी मे काम करती है नये फैशन के साथ चलना उसको बहुत पसन्द है लेकिन अफसोस की खुद को स्टाइलिश दिखाने मे वो हमेशा नाकाम ही रहती है क्योंकि वह बहुत दुबली पतली है. कोई उसे हैंगर कहता है तो कोई लकड़ी. कोई भी ड्रेस पहनने से पहले उसे कई बार सोचना पड़ता है. वह भी चाहती है कि वह खूबसूरत दिखे और एक नए आत्म विश्वास के साथ ज़माने के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सके. तो आज हम इस लेख के जरिए उन सभी ल़डकियों को बताना चाहते कि आप जेसी भी है बहुत खूबसूरत हैं बस जरूरत है तो खुद को आकर्षित बनाने की.

स्टाइलिश दिखने के लिए जरूरी नहीं कि हमारे पास ब्रांडेड कपड़ों की भरमार हो, या हर ड्रेस के मैचीग की ज्वेलरी और फुट वियर हो. बल्कि आपका ड्रेसिंग सेन्स आपके फिगर के अनुसार होना चाहिए.. तो फोलो करें हमारे ये टिप्स और दिखें खूबसूरत.

1 बॉडी फिट ड्रेस को करें इग्नोर

बॉडी  कर्व्स हर किसी को पसन्द आते हैं लेकिन यदि आप बहुत ज्यादा पतले हो तो यही आपका ओवर ऑल लुक खराब कर देते है इसलिए फिटिंग की ड्रेसेस को ना पहने , और  अपने फिगर को भरा हुआ दिखाने के लिए लेअर्स वाली ड्रेस आपके लिए बेहतर ऑप्शन हैं. लेकिन ध्यान रखें कि आपने साइज से ज्यादा ढीले कपड़े ना पहने , वरना आपका लुक खराब लगने लगेगा.

2 रंगों को दें महत्तव

रंग हमारा आत्मविश्वास बढ़ाने मे मदद करते हैं इसलिए जरूरी है कि आप ऐसे रंग के कपड़े पहने जो वाइब्रेंट और ब्राइट हों इस रंग के कपड़ों में आप पतली नहीं लगेगी.

3 होरिजेंटल पैटर्न चुने

आप होरिजेंटल लाइनों के पैटर्न वाले कपड़े चुनें.वर्टिकल लाइंस के पैटर्न को अवॉइड करें क्योंकि वर्टिकल मे आप और भी पतली लगेंगी. अच्छा होगा कि आप अबस्ट्रेक पैटर्न या प्रिंटेड कपड़ों का चयन करें.

4 वेस्टर्न ड्रेस खरीदते समय रखे ध्यान

यदि आपको वेस्टर्न ड्रेस पहनना पसंद है, तो वो   कट, बेबी डॉल कट और पफ स्लीव्स पहनें. इनसे आपका शरीर भरा- भरा लगेगा.जैगिंग या स्किन फिट जीस पहनने से बचे. स्ट्रेट कट, बूटकट या फलेयर्ड जींस आपके लिए बेहतर ऑप्शन है .पैंसिल स्कर्ट की जगह आप फलेयर्ड मिड स्कर्ट पहन सकती हैं.

5 एथनीक वियर में ना करें गलती

एथनीक वियर में ऐसी कुर्तियों को चुनें, जिनमें शोल्डर और हिप्स पर वॉल्यूम हो, यानी वे थोड़े लूज फिट मे हों. शिफोन, जोरजट जैसे हल्के कपड़े ना चुने बल्कि सिल्क जैसे मोटे कपडों का चयन आपके लिए बेहतर है.

‘कटहल’ फेम सान्या मल्होत्रा के हंसमुख चेहरे का राज क्या है, जानें यहां

कर्ली हेयर, खुबसूरत नाकनक्श और हंसमुख अभिनेत्री सान्या मल्होत्रा ने इंडस्ट्री में अपनी एक अलग पहचान बनाई है. दिल्ली की एक पंजाबी परिवार में जन्मी सान्या ने दिल्ली से अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की और दिल्ली विश्वविद्यालय के गार्गी कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त की. वह एक ट्रेन्ड बैले डांसर भी है. बहुत कम लोग जानते है कि बचपन में सान्या हकलाया करती थी, जिसे उन्होंने समय के साथ दूर किया.

सान्या वर्ष 2013 में, डांस रियलिटी शो ‘डांस इंडिया डांस‘ में भाग लेने के लिए मुंबई आई थी, लेकिन दुर्भाग्यवश शीर्ष 100 से आगे नहीं जा सकी, हालांकि, उन्होंने इस शो में भाग लेने में नाकाम रहने के बादनृत्य छोड़ दिया, क्योंकि उन्हें लगता था कि ये क्षेत्र उनके लिए ठीक नहीं है,लेकिन मुंबई में रहने के लिए कोशिश करने लगी, इसके लिए उन्होंने शुरुआत में कई विज्ञापनों में मॉडलिंगकिया, लेकिन उनका अभिनय कैरियर की शुरुआत 2016 में आमिर खान की स्पोर्ट्स ड्रामा फिल्‍म दंगल से की थी, जिसमें उन्होंने पहलवान बबीता फोगाट का किरदार निभाया था.इसके बाद उन्‍होंने कॉमेडी-ड्रामा फिल्‍म ‘बधाई हो’,‘फोटोग्राफ’, ‘लूडो’, ‘पगलेट’आदि कई फिल्मों, शोर्ट फिल्मों और वेब सीरीजमें अभिनय किया.सान्या के लिए बॉलीवुड बिल्कुल नई दुनिया थी, क्योंकि उनका कोई फिल्मी बैकग्राउंड नहीं था. इसलिए उन्हें पहचान बनाने में मुश्किल हुई और ये सबके लिए मुश्किल होता है,लेकिन इसे उन्होंने अधिक महत्व नहीं दिया. उनका कहना है कि हर किसी को कुछ उतार-चढ़ाव से गुजरना पड़ता है. सान्या ने अभिनय से पहले आमिर खान के प्रोडक्शन हाउस में कुछ दिनों तक इंटर्न के रूप में भी काम किया इससे उन्हें फिल्मों के बारें में जानकारी अच्छी मिली थी और अभिनय करने में भी आसानी हुई.

नेटफ्लिक्स पर आने वाली कॉमेडी ड्रामा फिल्म ‘कटहल’ में सान्या, पुलिस ऑफिसर महिमा की मुख्य भूमिका निभा रही है. उन्होंने गृहशोभा के साथ ख़ास बातचीत की, आइये जाने सान्या मल्होत्रा के जर्नी की कहानी उनकी जुबानी.

सान्या को हमेशा अलग प्रकार की फिल्मों में काम करना पसंद है, इसलिए वह हर तरह की भूमिका जो रियल लाइफ से जुडी हो उसमें काम करना पसंद करती है. इस फिल्म की खास बात के बारें में जिक्र करती हुई वह कहती है किमैंने कभी ऐसी कहानी के साथ काम नहीं किया है, इसके लेखक अशोक मिश्रा है. यह एक रियल लाइफ की कहानी है और बहुत अधिक रिलेटेबल भी है. इसमें कॉमेडी और मस्ती दोनों है, क्योंकि यहाँ एक राजनेता के दो कटहल चोरी हो जाती है, जिसे पूरा पुलिस फ़ोर्स खोज रहा है, ये बहुत ही मजेदार कांसेप्ट है. वन लाइनर सुनते ही मुझे बहुत पसंद आ गया था और मुझे इसे करने की इच्छा पैदा हुई. कटहल की पूरी शूटिंग ग्वालियर में हुई है. कठिन नहीं था, क्योंकि डायरेक्टर का निर्देशन बहुत अच्छा है, लेकिन संवाद को पकड़ना मेरे लिए मुश्किल था. ग्वालियर की भाषा को सीखने में कुछ समय लगा. एक बार भाषा पर पकड़ हो जाने पर केवल शूट में ही नहीं, बाकी समय में भी मैं वैसी ही भाषा बोलने लगी थी.

पुलिस की भूमिका को निभाना सान्या के लिए आसान नहीं था,वह कहती है कि पुलिस की भूमिका निभाना मेरे लिए एक गर्व की बात है,पुलिस की वर्दी मैंने फिल्म में पहनी है, पर उसकी डिग्निटी और रेस्पोंसिबिलिटी का एहसास मेरे अंदर आया है. इसके लिए मैं ग्वालियर गई थी, वहां पर पुलिसवालों ने मेरा बहुत साथ दिया, मुझे उनके काम करने के तरीके को समझना था. मैं वहां लेडी पुलिस ऑफिसर से मिली, उनके साथ 2 दिन समय बिताई. वहां मैंने उनके काम को देखकर बहुत प्रभावित भी हुई, क्योंकि वह महिला ऑफिसर अपनी ड्यूटी के साथ-साथ घर भी सम्हाल रही थी. ये सामंजस्य सिर्फ एक महिला पुलिस ही कर सकती है.वह एक पत्नी के साथ-साथ माँ भी है. ये सब मेरे लिए प्रेरणादायक रही.

 

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नहीं बनी टाइपकास्ट

टाइपकास्ट न होने को लेकर सान्या का कहना है कि मैंने सीरियस और ड्रामा हर तरह की फिल्में की है. यही वजह है कि मुझे अलग वैरायटी की फिल्मों में अभिनय का मौका भी मिला है,दंगल,पटाखा, लूडो, पगलेट आदि सारी फिल्में एक दूसरे से अलग और ख़ास चरित्र की है. कभी ड्रामा, कभी रोमांस, कभी कॉमेडी, कभी एक्शन है. मैं खुद को खुशनसीब समझती हूँ कि निर्देशक भी मुझे अपनी फिल्मों में इमेजिन करते है और मुझे एप्रोच करते है. मुझे एक्टिंग करना बहुत पसंद है और आप जो भी करवा लो, कर सकती हूँ.

हर फिल्म ने सिखाया बहुत कुछ

दंगल से अबतक की जर्नी में आप खुद कितनी ग्रो की है? पूछने पर अभिनेत्री का कहना है, मुझे लगता है कि कुछ सालों तक मैं अपने काम से खुश नहीं रहती थी. फिल्में रिलीज भी हुई, सबने प्रशंसा भी की, लेकिन मुझे कुछ कमी मुझमे नजर आती थी, लगता था मैं कुछ और अधिक अच्छा कर सकती हूँ. धीरे-धीरे अब लगने लगा है कि मैं ठीक हूँ और अच्छा काम कर रही हूँ, ये शिफ्ट फिल्म ‘पगलैट’ के बाद मुझमे आई है, क्योंकि इस फिल्म के बाद मेरे कैरियर में भी काफी बदलाव आया. मुझे काफी कॉन्फिडेंस मिला. अब मैं समझने लगी हूँ कि मेरी जर्नी अब ठीक चल रही है.

करती हूँ मेहनत

एक्टिंग में रियलिटी को दर्शाने के लिए सान्या बहुत मेहनत करती है, वह हंसती हुई कहती है कि मैं बहुत मेहनत खुद से करती हूँ,लेकिन फिल्ममेकिंग एक टीम एफर्ट है. मैं रोल छोटा हो या बड़ा मेहनत में कोई कमी नहीं करती और चरित्र को समझने की पूरी कोशिश करती हूँ. स्क्रिप्ट में मैं खुद से क्या डाल सकती हूँ इसकी कोशिश पहली फिल्म दंगल से ही रही है. वैसे देखा जाय तो एक कलाकार से अधिक डायरेक्टर का ही फिल्म को बनाने में योगदान होता है. वे जैसा चाहते है, एक्टिंग वैसी ही करनी पड़ती है. आगे मैं फिल्म, जवान, साम बहादुर आदि कई फिल्में कर रही हूँ.

है चुनौती ओटीटी को

सान्या आगे कहती है कि ओटीटी से फिल्म इंडस्ट्री में बहुत बदलाव आया है,क्रिएटिविटी बहुत बढ़ी है, शोर्ट फिल्म, वेब सीरीज,आदि बहुत कुछ बनाया जा रह है, इससे केवल कलाकार को ही नहीं, लेखक, निर्देशक, टेकनीशियन आदि सभी को काम मिल रहा है, ओटीटी के लिए फिल्में अधिक रिलेटेबल और अच्छी कहानियों को दिखाने की चुनौती है.

 

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हँसे खुलकर

सान्या की हंसमुख चेहरे के राज के बारें में पूछने पर हंसती हुई कहती है कि मेरी हंसमुख होने की वजह मेरी सोच है और मैं किसी बात को कभी भी अधिक नहीं सोचती, कम चीजों में ही खुश रहती हूँ और खुश रहना मुझे अच्छा लगता है. भूमिका कितनी भी सीरियस हो या कॉमेडी, मुझे हंसने के लिए कुछ खोजना नहीं पड़ता. फिल्मे भी मैं मनोरंजन वाली करना चाहती हूँ, क्योंकि हर व्यक्ति के जीवन में समस्याएं है और सीरियस फिल्में देखना कोई पसंद नहीं करता.

माँ है मेरी दोस्त

माँ के साथ बिताये पल के बारें में पूछने पर सान्या कहती है कि मैं अपनी माँ के साथ हर बात को शेयर करती हूँ, ऐसा किये बिना मुझे चैन नहीं होता. ये बचपन से मेरी आदत है. स्कूल से घर आने के बाद जब माँ किचन में रोटियां बना रही होती थी, मैं दरवाजे के आगे खड़ी होकर स्कूल में टीचर, बच्चों आदि से जुडी सारी बातें घंटो शेयर करती थी. आज भी अगर मुझे किसी प्रकार की कोई समस्या है तो माँ से शेयर अवश्य करती हूँ. माँ से अधिक वह मेरी दोस्त है. माँ के हाथ का बना राजमा चावल मुझे बहुत पसंद है. अभी मैं दिल्ली में हूँ, उन्हें पता है, लेकिन अभी तक राजमा चावल भेजा नहीं है. मैं एकबार उन्हें फिर से याद दिलाने वाली हूँ.

दिया सन्देश

मेरा मेसेज सभी से है कि हमेशा अच्छी और मनोरंजक फिल्में देखे, क्योंकि इससे मूड पर असर करता है, आप ख़ुशी का अनुभव कर सकते है. खुश रहना जीवन में बहुत जरुरी है. वयस्कों से लेकर यूथ सभी को जीवन में खुश रहने के बारें में खुद को सोचना है, ख़ुशी कोई देता नहीं, उसे खुद ही ढूँढना पड़ता है. मैंने इन कॉमेडी फिल्मों को कई बार देखा है, जिसमे अंगूर, हेराफेरी, हाउसफुल आदि फिल्में है, इसे देखने से मेरे अंदर ख़ुशी का अनुभव होता है और मेरा मूड अच्छा हो जाता है.

इंडिपेंडेंट फिल्ममेकर की किस समस्या का जिक्र कर रहे है संजय छाबड़िया, पढ़े इंटरव्यू

निर्माता संजय छाबड़िया ने बचपन से फिल्म और फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोगों को अपने घर में आते देखा है, क्योंकि उनके पिता गोरधन छाबड़िया भी एक निर्माता रहे है. उनका सम्बन्ध हिंदी सिनेमा के प्रमुख फाइनेंसरों के साथ रहा. वे गेलेक्सी एक्सपोर्ट के साथ मिलकर ओवरसीज में फिल्में डिस्ट्रीब्यूट किया करते थे. यही वजह है कि संजय छाबडिया का भी शुरू से फिल्म इंडस्ट्री से जुड़ाव रहा है.

मराठी इंडस्ट्री के साथ पिछले 20 वर्षों से फिल्मों का निर्माणकर रहे एवरेस्ट एंटरटेनमेंट के शांत और सौम्य स्वभाव के संजय छाबडिया मानते है कि मराठी इंडस्ट्री संस्कृति और कला प्रेमी है और हर तरह की फिल्में बनाना पसंद करते है, इसलिए उनके साथ काम करना उन्हें पसंद  है. अभी उन्होंने मराठी फिल्म ‘महाराष्ट्र शाहिर’है, जो लोक गायक, लेखक, एक्टर साहिर साबलेकी जीवनी पर आधारित है,ऐसेअनसंग हीरो की म्यूजिकल बायोपिक फिल्म को बनाते हुए वे व्यवसाय से अधिक युवा पीड़ी को कुछ अच्छा दिखाने के बारें में सोचतेहै, क्योंकि आज के युवा इंटेलिजेंट है और उन्हें क्या देखना है, वे जानते है. संजय ने अपनी जर्नी के बारें में गृहशोभा से ख़ास बात की और बताया कि इस मैगज़ीन को वे सालों से पढ़ते आ रहे हैं. ये उन्हें उनकी माँ और उनकी पसंदीदा मैगज़ीन है.

बायोपिक में ड्रामा होना जरुरी

क्या बायोपिक बनाना कमर्शियली रिस्की नहीं होता ? पूछने पर संजय बताते है कि जिस बायोपिक में ड्रामा हो, उसे बनाने में मजा आता है. किसी बायोपिक को डॉक्यूमेंट्री बनाने से कोई उसे देखना पसंद नहीं करता और मैं बॉक्सऑफिस अपील को देखता हूँ. अंग्रेजी फिल्म ‘एल्विस’भी बायोपिक है, जिसमे ड्रामा है और दर्शकों ने काफी पसंद किया. ये मराठी फिल्म भी ड्रामा वाली म्यूजिकल बायोपिक है, जिसे सभी को पसंद आयेगा.

है चुनौतियाँ

कोविड के बाद लोग थिएटर में जाना पसंद नहीं करते और ओटीटी ने एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री को पूरी तरह से काबू में कर लिया है, ऐसे में किसी फिल्म मेकर के लिए दर्शकों को थिएटर तक लाना बड़ी चुनौती होती है. संजय कहते है कि ये वाकई एक बड़ी चुनौती है,आज थिएटर में लोग उसी फिल्म को देखने जाते है, जिसकी प्रमोशन उन्हें थिएटर तक खींचकर ले जाती है औरउन्हें लगता है कि ऐसी कोई चीज, जो इस फिल्म में है, तो वे थिएटर में जाते है. मसलन उसका संगीत अच्छा हो, उसका प्रोडक्शन स्केल बड़ा हो,जो घर पर देख पाना संभव नहीं,फिल्म की एक्टिंग में जो लोग जुड़े है, वे बड़े हो, तब जाते है. पेंडेमिक के बाद बहुत कठिन हो चुका है, हर फिल्म को देखने दर्शक हॉल तक नहीं जाते. आज के दर्शक स्मार्ट हो चुके है, वे चुनते है कि कौन सी फिल्म में उन्हें जाना है,किसमें नहीं. ऑडियंस आज चूजी हो चुका है. छोटी फिल्मों के लिए तो ऑडियंस को हॉल तक खीच लाना बहुत चुनौती होती है.

हूँ प्रेरित मराठी संस्कृति से

मराठी संस्कृति से संजय बहुत प्रेरित हूँ उनका कहना है कि महाराष्ट्र का कल्चर बहुत ही अच्छा है, यहाँ के थिएटर से लेकर फिल्में सभी इनकी संस्कृति को दिखाती हुई होती है, इतना ही नहीं मैंने कई संभ्रांत परिवार के बच्चों को भी मराठी में बोलते हुए देखा है,जबकि दूसरे रीजनल कम्युनिटी में बच्चे हिंदी और अंग्रेजी ही बोलते है. साहित्य इनका बहुत रिच है.

मिली प्रेरणा

फिल्म निर्माण की प्रेरणा के बारें में पूछने पर संजय कहते है कि मैं इस व्यवसाय में पिछले 20 वर्षों से हूँ. मैंने वर्ष 2003 में शुरुआत की थी. हमने एक होम वीडियो पब्लिशिंग कंपनी एवरेस्ट मल्टीमीडियाके रूप में शुरुआत की थी, तीन साल की छोटी अवधि में 125 से अधिक फिल्मों की एक मजबूत वीडियो लाइब्रेरी का निर्माण किया, जिसमें ‘खुदा गवाह’, ‘आंखें’, ‘अर्जुन’, ‘शोला और शबनम’, ‘जैसी फिल्में शामिल है. नागिन’, ‘जानी दुश्मन’, ‘कटी पतंग’, ‘अमानुष’ और ‘नरम गरम’ आदि फिल्में जो एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री की अच्छी मनोरंजक फिल्मों में जानी जाती है. इसके बाद मैंने मराठी इंडस्ट्री की ओर रुख किया, क्योंकि तबतक मराठी फिल्मों का डिस्ट्रीब्यूशन अच्छी तरह नहीं हो पा रहा था और मेरे लिए ये एक अच्छा अवसर था. मैंनेइसे आगे लाने में पूरी मेहनत की है. मराठी इंडस्ट्री से मुझे सम्मान मिला है. अभी मैं बहुत सारी मेनस्ट्रीम की फिल्में कर रहा हूँ.मैं साल में करीब 4 फिल्में प्रोडक्शन करने की कोशिश करता हूँ. मैंने कई पुरस्कार भी जीते हैं.

संजय आगे कहते है कि वे दिन गए जब व्यावसायिक वजहों को अधिक देखा जाता था और फिल्मों में सुपरस्टार की मुख्य भूमिका होना जरुरी माना जाता था. अभी हर कलाकार सुपरस्टार है.  कहानी और विषय अब जरुरी है, क्योंकि दर्शक इंटेलिजेंट है.  कहानी मजबूतहोने पर हमें सुपरस्टार की आवश्यकता नहीं होती.इसलिए मैंने कई महिला प्रधान फिल्मों का भी निर्माण किया है.आगे दो मराठी फिल्मे, वेब सीरीज, गुजराती फिल्म बना रहे है.

मिली सफलता

मराठी इंडस्ट्री में जाने के लिए फिल्ममेकर संजय छाबडिया को एक हिम्मत की आवश्यकता थी, क्योंकि इसके  रीजनल सेगमेंट और उसके डिस्ट्रीब्यूशन को समझना आसान नहीं था, जिसमे स्टोरीटेलिंग, फिल्मों का निर्माण, दर्शकों की रूचि आदि को समझने में भी काफी समय लगा. वे कहते है कि मैंने सबसे पहले महेश मांजरेकर की महत्वाकांक्षी पुस्तक ‘मी शिवाजीराजे भोसले बोल्तॉय’ की फिल्म के निर्माण में हाथ बढाया. फिल्म बॉक्सऑफिस पर हिट हुई, क्योंकि यह फिल्म न केवल अब तक की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली मराठी फिल्म बनी,बल्कि इसने कई लोगों को प्रेरित भी किया.इसके बाद ‘शिक्षणच्या आइचा घो’, ‘मोरया’ और ‘तुकाराम’ जैसे यादगार क्लासिक्स फिल्मों का प्रोडक्शन किया, जिन्हें समीक्षकों के साथ-साथ व्यावसायिक सफलता भी मिली. मैं फिल्में पैशन के साथ बनाता हूँ, व्यावसायिक दृष्टिकोण को अधिक नहीं देखता. मुझे कहने में ख़ुशी होती है कि फिल्ममेकर राजकुमार हिरानी की फिल्में ऐसी होती है, जो एक अच्छी फिल्म होने के साथ-साथ अच्छा व्यवसाय भी करती है. सभी फिल्ममेकर को ऐसी कोशिश हमेशा करनी चाहिए.

मिलकर करें काम

संजय कहते है कि कॉर्पोरेट और इंडिपेंडेंट फिल्ममेकर दोनों को साथ मिलकर काम करना चाहिए, क्योंकि एक इंडिपेंडेंट फिल्ममेकर अपने बलबूते और रिस्क पर पैसा लगाता है, फिल्म रिलीज करता है. इसमें इंडिपेंडेंट फिल्ममेकर स्टोरी, स्टारकास्ट और दर्शकों के रुझान पर बहुत अच्छी तरह से सोच-विचार करता है, क्योंकि खुद का पैसा लगाता है. कॉर्पोरेट भी छानबीन करता है,लेकिन उनका एक अलग स्टाइल ऑफ़ वर्किंग होता है.उनके काम लेने के तरीके, डिस्ट्रीब्यूशन और इंफ्रास्ट्रक्चर अच्छी होती है. दोनों की अच्छी पार्टनरशिप होने पर दोनों को लाभ होता है और आजकल ये हिंदी और साउथ की फिल्मों में हो भी रहा है. क्रिएटिविटी का ज्ञान, जो इंडिपेंडेंट फिल्ममेकर के पास होता है, कोर्पोरेट के पास नहीं होता. एक इंडिपेंडेंट फिल्ममेकर के पास क्रिएटिव एबिलिटी, अच्छी कहानियां और फिल्मे बनाने की ताकत होती है, जबकि कॉर्पोरेट की ताकत है, अच्छी तरह से लोगों के पास फिल्म को पहुँचाना. दोनों में ही खूबियाँ और खामियां है,इसलिए दोनों को मिलकर काम करना जरुरी है.

गुलदस्ता – भाग 1: गलत पते पर आखिर क्यों गुलदस्ता आता था?

डोर बेल बजी तो अमन ने दरवाजा खोला फिर वही गलत पते पर बुके वाला खड़ा था.

‘‘अरे भैया फिर?’’ अमन ने अपना मत्था ठोक लिया, ‘‘हर शनिवार ही गलत पते पर गुलदस्ता लाते हो. भाई क्या चाहते हो? यह ऊपर 40 नंबर वाले का बुके है. अराधना नाम देखो न. 38 नंबर हमारा है. नाम अमन है. कितनी बार बताना पड़ेगा. जो भेजता है उस को बोलते क्यों नहीं कि सही पता लिखा करे…’’

‘‘प्लीज साहब आप ही दे देना… 40 नंबर वाली मैडम बहुत देर से आती है न? मुझे दुकान बंद कर 7 बजे अपने कमरे पर जाना होता है… मां बीमार है न साहब…’’ लड़का दांत निपोर कर यों कहता कि उसे लेना ही पड़ता.

‘‘मैडम को आप ही बोल देना साहब कि भेजने वाले को सही पता, लिखाने को.’’

‘‘अरे मेरा छुट्टी के दिन बस यही काम रह गया है कि तू देता जाए और मैं पहुंचाता जाऊं और वह भी बुके एक लड़की को… यह 8वां शनिवार है. आगे से मैं लूंगा नहीं… तू ही और्डर लिया कर न…’’

‘‘क्या बात करते हो साहबजी 4 पैसे किसी तरह जोड़ पाता हूं, गरीब के पेट पर लात न मारना साहब…’’ वह रोंआसा सा हो गया.

‘‘ठीक है ठीक है जा भई जान मत खा ला दे दे दूंगा… मैं ही कुछ करता हूं तेरी मैडम का…’’ अमन ने बुके ले कर दरवाजा बंद कर दिया. लड़कियों से बात करने में वह वैसे ही घबराता था. इसीलिए उन से बचता रहता.

‘क्या मुसीबत है,’ सोचते हुए बुके एक ओर टेबल पर रखा. फूल कुम्हलाएं नहीं इसलिए हमेशा की तरह जग में पानी ला कर उस में उसे खड़ा कर रख दिया. फिर सोचने लगा कि अब इंतजार करूं उन मैडम का कि कब उन के कदमों की आहट सुनूं और मैं झट उन की अमानत उन्हें पेश करूं… लानत है यार… दिनभर काम से थका मैं न टीवी देखूं, न किसी से फोन पर बात ही करूं कि कहीं आन की आहट न सुनाई दे और फिर अमानत पहुंचाने में बहुत देर हो जाए या इसी सब में भूल जाऊं तो सुबह उठते ही जा कर जबरदस्ती ऐटीकेट में सौरी कहते हुए देना पड़े… अजीब मुसीबत है… 9 बजे का अलार्म ही लगा लेता हूं. आज तो जा कर उस की घंटी बजा कर बोल ही दूंगा कि अपने वैलविशर को सही पता लिखने को तो बोल दे और बुके के लिए शनिवार शाम को घर पर ही रहा करे, वह अपना मन पक्का कर रहा था.

अमन कौफी बना कर ले आया. लैपटौप पर मंडे को अपनी क्लास के लिए एनीमेशन प्रोजैक्ट को ही चैक करने लगा. अमन ऐनीमेशन इंस्टिट्यूट में हाल ही में नियुक्त हुआ था. वहां से निकल कर कोचिंग सैंटर में पढ़ाने जाता. फैमिली में मातापिता और भाई का परिवार था जो बरेली में रहता था. यहां वह अकेला ही था.

8 बजे उस का टिफिन आ गया. खाने के बाद वह उनींदा हो चला. पर जागना होगा मैडमजी का गुलदस्ता जो देना है. सोचते हुए सो गया. जब अलार्म बजा तब उसे पता चला. बालों को ठीक किया, पांवों में स्लिपर्स डालीं, ‘बुके दे आऊं जान छूटे अब तक तो आ ही गई होगी मैडम… आज बोल ही दूंगा भेजने वाले को अपना सही पता बता दे, वरना रोजरोज की ड्यूटी तो अब करने से रहा…’ सोच वह बड़बड़ाता हुआ सीढि़यां चढ़ गया.

बैल दबाई तो लड़की बाहर आई.

‘‘यह आप का बुके फिर मुझे डिलिवर कर गया. दरअसल, गलती उस की भी नहीं भेजने वाला नाम तो आप का लिखता है पर घर का नंबर मेरा. मेरे बताने पर वह लड़का बारबार यहां आता है पर आप का घर लौक मिलता है, फिर वह मुझे ही…’’ कहते हुए उस के कान व गाल लाल हो उठे थे.

बुके हाथ में ले कर लड़की का चेहरा पहले के जैसे ही खिल उठा. उस की घबराहट, शर्म का मजा लेते हुए मुसकरा कर उस ने थैंक्स कहा और डोर बंद करने लगी.

‘‘एक मिनट मैडम, आप उन्हें सही पता बता दें तो बेहतर होगा और शनिवार शाम घर पर रहा करें… घबरा कर उस ने शेष शब्दों को अपने अंदर अपनी सम?ा से समय पर ही रोक लिया.

‘‘किसे?’’

‘‘अरे उसे जो आप को बुके मतलब यह गुलदस्ता भेजता है…’’ कह मन में सोचने लगा कि दिमाग से थोड़ा हटी हुई है क्या.

‘‘मुझे क्या मालूम? पता नहीं कौन भेजता है.’’

‘‘अरे तो आप रखती क्यों हैं?’’

‘‘फिर आप रखेंगे क्या? तो लीजिए…’’ उस ने बुके उस की ओर बढ़ा दिया.

‘‘अजीब बात है… भला मैं कैसे ले सकता हूं?’’

‘‘फूलों का क्या कुसूर 2 दिन की वैसे भी जिंदगी है बेचारों की… फेंके भी तो नहीं जा सकते…’’ वह उन्हें चेहरे के पास ला कर खिल उठी और गहरी सांस ले खुशबू सूंघने लगी.

‘‘अजीब लड़की है आप जिस को जानती नहीं उस से बुके कैसे ले लेती हैं? कुछ ऊंचनीच हो जाए… समझ नहीं आता पुलिस को रिपोर्ट क्यों नहीं करतीं?’’

‘न जाने किस अधिकार’ अपनेपन से वह उस पर ?ाल्ला उठा था. उस ने बाद में महसूस किया. किसी और का उसे इस तरह फूल देना उसे क्यों इतना बुरा लग रहा है… कहीं उस के प्रति उस का ?ाकाव तो नहीं हो रहा…? वह सोच में कुछ पल गुम रहा.

‘‘फिर तो आप ही पकड़े जाओगे… आप से ही तो मैं ने लिया है. आप मेरे पड़ोसी हो बस इतना जानती हूं,’’ वह हंसी थी.

अमन सीढि़यां उतरने को हुआ कि पीछे से आवाज आई, ‘‘अरे आप रखना चाहें तो आप ही रख लें अमन.’’

वह हैरानी से उसे देखने लगा.

‘‘आतेजाते आप का नाम कई बार पढ़ा है… आप ने पहले भी बताया था अपना 38 फ्लैट नंबर…’’ वह मुसकराई.

‘‘मैं ही डिलिवरी बौय को बोल दूंगा और्डर ही न लिया करे या उस का नामपता ले ले जो भेजता है, फिर बताता हूं उसे.’’

‘‘अरे किसी बेचारे गरीब के पेट पर क्यों लात मारेंगे… उस का क्या कुसूर… न फूलों का कुसूर… वह आप को दे जाता है आप मुझ तक… इस में बुरा क्या है… हां आप को थोड़ी तकलीफ जरूर होती है. आप उस से बोलिएगा मेरे दरवाजे पर ही रख जाया करेगा. 2-3 घंटे यों ही पड़े रहेंगे, बेचारे थोड़ा मुरझाएंगे ही तो

क्या हुआ…’’

वह फिर उतरने को हुआ कि फिर आवाज आई, ‘‘मगर शायद उन के मुरझने का दर्द आप को भी होता इसलिए आप इन्हें पानी में रख देते हैं सो नाइस ऐंड स्वीट औफ यू… थैंक्स अ लौट,’’ कहते हुए वह मुसकराई कि बंदा कितना सीधासादा है…

सरप्राइज: मां और बेटी की अनोखी कहानी- भाग 1

अजयटूर पर जाने से पहले पास खड़ी अपनी मां तनुजा को गंभीर देख मुसकराते हुए बोला, ‘‘अरे मां, 1 हफ्ते के लिए ही तो जा रहा हूं, आप क्यों मेरे हर बार जाने पर इतना चुप, उदास हो जाती हैं?’’

तनुजा ने फीकी हंसी हंस कर पास खड़ी अजय की पत्नी रिनी को देखा जो उन्हें घूरघूर कर देख रही थी.

अजय ने फिर कहा, ‘‘मां, रिनी को देखो, इस ने कितनी जल्दी मेरी टूरिंग जौब से एडजस्ट कर लिया है,’’ फिर तनुजा के गले में प्यार से बाहें डाल दीं. कहा, ‘‘टेक केयर, मां. शनिवार को सुबह आ ही जाऊंगा. बाय रिनी, तुम दोनों अपनाअपना ध्यान रखना.’’

अजय चला गया, घर का दरवाजा बंद कर रिनी ने फौरन अपने नाइट सूट की जेब में रखा अपना मोबाइल निकाला और कोई नंबर मिलाया और फिर अपने बैडरूम की तरफ चली गई. तनुजा वहीं सोफे पर बैठ गईं. रिनी ने भले ही अपने बैडरूम का दरवाजा बंद कर लिया था पर वह इतनी धीरे नहीं बोल रही थी कि तनुजा को सुनाई न पड़े. टू बैडरूम फ्लैट में रिनी दरवाजा बंद कर के कितना भी यह सोचे कि वह अकेले में बात कर रही है पर आवाज तनुजा के कानों तक पहुंच ही जाती है हमेशा. इस का रिनी को अंदाजा ही नहीं है.

तनुजा ने सुन लिया कि अब रिनी अपने बौयफ्रैंड यश के साथ मूवी और लंच के लिए जा रही है. आधे घंटे के अंदर रिनी सजीधजी पर्स उठा कर बाहर निकल गई, तनुजा से एक शब्द भी बिना बोले. तनाव से तनुजा का सिर भारी होने लगा. बैठीबैठी सोचने लगीं कि मांबेटे के जीवन पर यह लड़की ग्रहण बन कर कहां से आ गई. अजय ने जब तनुजा को रिनी के बारे में बताया था तो तनुजा को खुशी ही हुई थी. उन के मेहनती, सरल से बेटे के जीवन में आई इस लड़की का तनुजा ने दिल खोल कर स्वागत किया था.

इस घर में 2 ही तो जने थे, मांबेटा. अजय के पिता तो एक सड़क दुर्घटना में सालों

पहले इस दुनिया से जा चुके थे. रिनी को उन्होंने खूब लाड़प्यार से बहू स्वीकारा था. उस के मातापिता भी इसी शहर में थे. दोनों कामकाजी थे. रिनी अकेली संतान थी. तनुजा मौडर्न, सुशिक्षित महिला  थीं. वे काफी साल अध्यापन में व्यस्त रही थीं.

आज तनुजा बैठ कर पिछले साथ की घटनाओं पर फिर एक बार नजर डाल रही थीं. विवाह के बाद कुछ दिन तो सामान्य ही बीते थे पर रिनी का रवैया उन्हें तब खटकने लगा था जब अजय के टूर पर जाते ही रिनी का कोई न कोई दोस्त घर जा जाता था. लड़कियां तो कभीकभार इक्कादुक्का ही आती थीं, लड़के कई आते थे. तनुजा पुराने विचारों की भी नहीं थीं कि लड़कीलड़के की दोस्ती को गलत ही समझे पर यहां कुछ तो था जो उन्हें खटक रहा था. यही यश एक दिन आया था. उन्हें हैलो आंटी कहता हुआ सीधे रिनी के बैडरूम में चला गया था. तनुजा को बहुत गुस्सा आया था कि यह कौन सा तरीका है. तनुजा ने रिनी को आवाज दी तो यश ने बैडरूम के बाहर आ कर कहा, ‘‘आंटी, रिनी के सिर में दर्द है, वह आराम कर रही है.’’

तनुजा ने पूछ लिया, ‘‘तुम क्या कर रहेझ्र हो फिर?’’

‘‘उस के पास बैठा हूं, रिनी ने ही मुझे फोन पर बुलाया है,’’ कह कर यश ने बैडरूम का दरवाजा बंद कर लिया.

तनुजा के तनमन में अपमान व क्रोध की एक ज्वाला सी उठी. उन का मन हुआ कि रिनी के बैडरूम का दरवाजा भड़भड़ा कर खुलवा दें और यश को घर के बाहर कर दें पर ऐसा कुछ करने की नौबत ही नहीं आई.

रिनी ही स्लीवलैस पारदर्शी गाउन में उन के सामने पैर पटकते हुए खड़ी हो गई, ‘‘आप आज यह बात साफसाफ जान ही लें कि मैं अपनी मरजी से जीने वाली लड़की हूं, मैं किसी से नहीं डरती. और हां, अपने बेटे से मेरी शिकायत करने के लिए मुंह खोला तो अंजाम क्या होगा, इस की कल्पना भी आप नहीं कर सकतीं.’’

तनुजा ने डांट कर पूछा, ‘‘क्या कर लोगी? बेशर्म लड़की.’’

‘‘आप और आप के बेटे के खिलाफ पुलिस स्टेशन जा कर शिकायत कर दूंगी… मारपिटाई और दहेज का केस कर मांबेटे को जेल में डलवा दूंगी… जानती हैं न कानून आजकल लड़की की पहले सुनता है.’’

तनुजा पसीने से नहा गईं कि यह बित्ती सी लड़की उन्हें धमकी दे रही है. उफ, हम कहां फंस गए? मेरे शरीफ बेटे के जीवन में यह लड़की कहां से आ गई. थोड़ी देर बाद रिनी यश के साथ बाहर चली गई.

और एक अकेला यश ही नहीं, अरुण, ईशान और अनिल भी रिनी के पास आतेजाते रहते थे. तनुजा के रातदिन तो आजकल इसी चिंता में बीत रहे थे कि किस तरह बेटे को इस से छुटकारा मिले. उन्होंने एक दिन रिनी से कहा, ‘‘तुम अजय के जीवन से चली क्यों नहीं जाती? इन्हीं में से एक के साथ रहना.’’

रिनी ने टका सा जवाब दिया, ‘‘नहीं, रहूंगी तो यहीं, मैं एक के साथ बंध कर नहीं रह सकती.’’

‘‘तो फिर अजय से विवाह क्यों किया?’’

‘‘मम्मीपापा मुझ से परेशान थे. कहते थे शादी कर यहां से जाओ. यहां सिर्फ आप थीं. बंधना मेरा स्वभाव ही नहीं. अच्छा होगा, आप मुंह बंद रखें और जैसे मुझे जीना है, जीने दें. इसी में मांबेटे की भलाई है.’’

टूर पर अजय रोज तनुजा से बात करता था, रिनी से भी संपर्क में रहता था.

तनुजा रिनी के अभिनय पर हैरान रह जाती थी.

अजय टूर से आया तो शनिवार, रविवार दोनों दिन रिनी आदर्श पत्नी की तरह अजय के आगेपीछे घूमती रही, उस की पसंद की चीजें बनाती रही. तनुजा को गंभीर देख अजय ने हंस कर पूछा, ‘‘क्यों मां, मेरे पीछे सासबहू में झगड़ा हुआ क्या?’’

रिनी फौरन बोली, ‘‘हम सासबहू हैं ही नहीं, हम तो मांबेटी हैं.’’

तनुजा चुप रहीं. कई बार मन में आया कि अजय को सब सचसच बता दें… रिनी के चरित्र की पोलपट्टी खोल कर रख दें पर रिनी ने कानून की धमकी दी थी और वे जानती थीं कि मांबेटा दोनों परेशानी में पड़ सकते हैं. आजकल वे रातदिन यही सोच रही थीं कि कैसे इस बेलगाम लड़की से छुटकारा मिले.

आगे पढ़ें- क्या अजय को पता चली रिनी की सच्चाई?

भाभी- क्यों बरसों से अपना दर्द छिपाए बैठी थी वह

अपनी सहेली के बेटे के विवाह में शामिल हो कर पटना से पुणे लौट रही थी कि रास्ते में बनारस में रहने वाली भाभी, चाची की बहू से मिलने का लोभ संवरण नहीं कर पाई. बचपन की कुछ यादों से वे इतनी जुड़ी थीं जो कि भुलाए नहीं भूल सकती. सो, बिना किसी पूर्वयोजना के, पूर्वसूचना के रास्ते में ही उतर गई. पटना में ट्रेन में बैठने के बाद ही भाभी से मिलने का मन बनाया था. घर का पता तो मुझे मालूम ही था, आखिर जन्म के बाद 19 साल मैं ने वहीं गुजारे थे. हमारा संयुक्त परिवार था. पिताजी की नौकरी के कारण बाद में हम दिल्ली आ गए थे. उस के बाद, इधरउधर से उन के बारे में सूचना मिलती रही, लेकिन मेरा कभी उन से मिलना नहीं हुआ था. आज 25 साल बाद उसी घर में जाते हुए अजीब सा लग रहा था, इतने सालों में भाभी में बहुत परिवर्तन आ गया होगा, पता नहीं हम एकदूसरे को पहचानेंगे भी या नहीं, यही सोच कर उन से मिलने की उत्सुकता बढ़ती जा  रही थी. अचानक पहुंच कर मैं उन को हैरान कर देना चाह रही थी.

स्टेशन से जब आटो ले कर घर की ओर चली तो बनारस का पूरा नक्शा ही बदला हुआ था. जो सड़कें उस जमाने में सूनी रहती थीं, उन में पैदल चलना तो संभव ही नहीं दिख रहा था. बड़ीबड़ी अट्टालिकाओं से शहर पटा पड़ा था. पहले जहां कारों की संख्या सीमित दिखाई पड़ती थी, अब उन की संख्या अनगिनत हो गई थी. घर को पहचानने में भी दिक्कत हुई. आसपास की खाली जमीन पर अस्पताल और मौल ने कब्जा कर रखा था. आखिर घूमतेघुमाते घर पहुंच ही गई.

घर के बाहर के नक्शे में कोई परिवर्तन नहीं था, इसलिए तुरंत पहचान गई. आगे क्या होगा, उस की अनुभूति से ही धड़कनें तेज होने लगीं. डोरबैल बजाई. दरवाजा खुला, सामने भाभी खड़ी थीं. बालों में बहुत सफेदी आ गई थी. लेकिन मुझे पहचानने में दिक्कत नहीं हुई. उन को देख कर मेरे चेहरे पर मुसकान तैर गई. लेकिन उन की प्रतिक्रिया से लग रहा था कि वे मुझे पहचानने की असफल कोशिश कर रही थीं. उन्हें अधिक समय दुविधा की स्थिति में न रख कर मैं ने कहा, ‘‘भाभी, मैं गीता.’’ थोड़ी देर वे सोच में पड़ गईं, फिर खुशी से बोलीं, ‘‘अरे, दीदी आप, अचानक कैसे? खबर क्यों नहीं की, मैं स्टेशन लेने आ जाती. कितने सालों बाद मिले हैं.’’

उन्होंने मुझे गले से लगा लिया और हाथ पकड़ कर घर के अंदर ले गईं. अंदर का नक्शा पूरी तरह से बदला हुआ था. चाचाचाची तो कब के कालकवलित हो गए थे. 2 ननदें थीं, उन का विवाह हो चुका था. भाभी की बेटी की भी शादी हो गई थी. एक बेटा था, जो औफिस गया हुआ था. मेरे बैठते ही वे चाय बना कर ले आईं. चाय पीतेपीते मैं ने उन को भरपूर नजरों से देखा, मक्खन की तरह गोरा चेहरा अपनी चिकनाई खो कर पाषाण जैसा कठोर और भावहीन हो गया था. पथराई हुई आंखें, जैसे उन की चमक को ग्रहण लगे वर्षों बीत चुके हों. सलवटें पड़ी हुई सूती सफेद साड़ी, जैसे कभी उस ने कलफ के दर्शन ही न किए हों. कुल मिला कर उन की स्थिति उस समय से बिलकुल विपरीत थी जब वे ब्याह कर इस घर में आई थीं.

मैं उन्हें देखने में इतनी खो गई थी कि उन की क्या प्रतिक्रिया होगी, इस का ध्यान ही नहीं रहा. उन की आवाज से चौंकी, ‘‘दीदी, किस सोच में पड़ गई हैं, पहले मुझे देखा नहीं है क्या? नहा कर थोड़ा आराम कर लीजिए, ताकि रास्ते की थकान उतर जाए. फिर जी भर के बातें करेंगे.’’ चाय खत्म हो गई थी, मैं झेंप कर उठी और कपड़े निकाल कर बाथरूम में घुस गई.

शादी और सफर की थकान से सच में बदन बिलकुल निढाल हो रहा था. लेट तो गई लेकिन आंखों में नींद के स्थान पर 25 साल पुराने अतीत के पन्ने एकएक कर के आंखों के सामने तैरने लगे…

मेरे चचेरे भाई का विवाह इन्हीं भाभी से हुआ था. चाचा की पहली पत्नी से मेरा इकलौता भाई हुआ था. वह अन्य दोनों सौतेली बहनों से भिन्न था. देखने और स्वभाव दोनों में उस का अपनी बहनों से अधिक मुझ से स्नेह था क्योंकि उस की सौतेली बहनें उस से सौतेला व्यवहार करती थीं. उस की मां के गुण उन में कूटकूट कर भरे थे. मेरी मां की भी उस की सगी मां से बहुत आत्मीयता थी, इसलिए वे उस को अपने बड़े बेटे का दरजा देती थीं. उस जमाने में अधिकतर जैसे ही लड़का व्यवसाय में लगा कि उस के विवाह के लिए रिश्ते आने लगते थे. भाई एक तो बहुत मनमोहक व्यक्तित्व का मालिक था, दूसरा उस ने चाचा के व्यवसाय को भी संभाल लिया था. इसलिए जब भाभी के परिवार की ओर से विवाह का प्रस्ताव आया तो चाचा मना नहीं कर पाए. उन दिनों घर के पुरुष ही लड़की देखने जाते थे, इसलिए भाई के साथ चाचा और मेरे पापा लड़की देखने गए. उन को सब ठीक लगा और भाई ने भी अपने चेहरे के हावभाव से हां की मुहर लगा दी तो वे नेग कर के, शगुन के फल, मिठाई और उपहारों से लदे घर लौटे तो हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. भाई जब हम से मिलने आया तो बहुत शरमा रहा था. हमारे पूछने पर कि कैसी हैं भाभी, तो उस के मुंह से निकल गया, ‘बहुत सुंदर है.’ उस के चेहरे की लजीली खुशी देखते ही बन रही थी.

देखते ही देखते विवाह का दिन भी आ गया. उन दिनों औरतें बरात में नहीं जाया करती थीं. हम बेसब्री से भाभी के आने की प्रतीक्षा करने लगे. आखिर इंतजार की घडि़यां समाप्त हुईं और लंबा घूंघट काढ़े भाभी भाई के पीछेपीछे आ गईं. चाची ने  उन्हें औरतों के झुंड के बीचोंबीच बैठा दिया.

मुंहदिखाई की रस्मअदायगी शुरू हो गई. पहली बार ही जब उन का घूंघट उठाया गया तो मैं उन का चेहरा देखने का मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी और जब मैं ने उन्हें देखा तो मैं देखती ही रह गई उस अद्भुत सौंदर्य की स्वामिनी को. मक्खन सा झक सफेद रंग, बेदाग और लावण्यपूर्ण चेहरा, आंखों में हजार सपने लिए सपनीली आंखें, चौड़ा माथा, कालेघने बालों का बड़ा सा जूड़ा तथा खुशी से उन का चेहरा और भी दपदपा रहा था.

वे कुल मिला कर किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही थीं. सभी औरतें आपस में उन की सुंदरता की चर्चा करने लगीं. भाई विजयी मुसकान के साथ इधरउधर घूम रहा था. इस से पहले उसे कभी इतना खुश नहीं देखा था. उस को देख कर हम ने सोचा, मां तो जन्म देते ही दुनिया से विदा हो गई थीं, चलो कम से कम अपनी पत्नी का तो वह सुख देखेगा.

विवाह के समय भाभी मात्र 16 साल की थीं. मेरी हमउम्र. चाची को उन का रूप फूटी आंखों नहीं सुहाया क्योंकि अपनी बदसूरती को ले कर वे हमेशा कुंठित रहती थीं. अपना आक्रोश जबतब भाभी के क्रियाकलापों में मीनमेख निकाल कर शांत करती थीं. कभी कोई उन के रूप की प्रशंसा करता तो छूटते ही बोले बिना नहीं रहती थीं, ‘रूप के साथ थोड़े गुण भी तो होने चाहिए थे, किसी काम के योग्य नहीं है.’

दोनों ननदें भी कटाक्ष करने में नहीं चूकती थीं. बेचारी चुपचाप सब सुन लेती थीं. लेकिन उस की भरपाई भाई से हो जाती थी. हम भी मूकदर्शक बने सब देखते रहते थे.

कभीकभी भाभी मेरे व मां के पास आ कर अपना मन हलका कर लेती थीं. लेकिन मां भी असहाय थीं क्योंकि चाची के सामने बोलने की किसी की हिम्मत नहीं थी.

मैं मन ही मन सोचती, मेरी हमउम्र भाभी और मेरे जीवन में कितना अंतर है. शादी के बाद ऐसा जीवन जीने से तो कुंआरा रहना ही अच्छा है. मेरे पिता पढ़ेलिखे होने के कारण आधुनिक विचारधारा के थे. इतनी कम उम्र में मैं अपने विवाह की कल्पना नहीं कर सकती थी. भाभी के पिता के लिए लगता है, उन के रूप की सुरक्षा करना कठिन हो गया था, जो बेटी का विवाह कर के अपने कर्तव्यों से उन्होंने छुटकारा पा लिया. भाभी ने 8वीं की परीक्षा दी ही थी अभी. उन की सपनीली आंखों में आंसू भरे रहते थे अब, चेहरे की चमक भी फीकी पड़ गई थी.

विवाह को अभी 3 महीने भी नहीं बीते होंगे कि भाभी गर्भवती हो गईं. मेरी भोली भाभी, जो स्वयं एक बच्ची थीं, अचानक अपने मां बनने की खबर सुन कर हक्कीबक्की रह गईं और आंखों में आंसू उमड़ आए. अभी तो वे विवाह का अर्थ भी अच्छी तरह समझ नहीं पाई थीं. वे रिश्तों को ही पहचानने में लगी हुई थीं, मातृत्व का बोझ कैसे वहन करेंगी. लेकिन परिस्थितियां सबकुछ सिखा देती हैं. उन्होंने भी स्थिति से समझौता कर लिया. भाई पितृत्व के लिए मानसिक रूप से तैयार तो हो गया, लेकिन उस के चेहरे पर अपराधभावना साफ झलकती थी कि जागरूकता की कमी होने के कारण भाभी को इस स्थिति में लाने का दोषी वही है. मेरी मां कभीकभी भाभी से पूछ कर कि उन्हें क्या पसंद है, बना कर चुपचाप उन के कमरे में पहुंचा देती थीं. बाकी किसी को तो उन से कोई हमदर्दी न थी.

प्रसव का समय आ पहुंचा. भाभी ने चांद सी बेटी को जन्म दिया. नन्हीं परी को देख कर, वे अपना सारा दुखदर्द भूल गईं और मैं तो खुशी से नाचने लगी. लेकिन यह क्या, बाकी लोगों के चेहरों पर लड़की पैदा होने की खबर सुन कर मातम छा गया था. भाभी की ननदें और चाची सभी तो स्त्री हैं और उन की अपनी भी तो 2 बेटियां ही हैं, फिर ऐसा क्यों? मेरी समझ से परे की बात थी. लेकिन एक बात तो तय थी कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है. मेरे जन्म पर तो मेरे पिताजी ने शहरभर में लड्डू बांटे थे. कितना अंतर था मेरे चाचा और पिताजी में. वे केवल एक साल ही तो छोटे थे उन से. एक ही मां से पैदा हुए दोनों. लेकिन पढ़ेलिखे होने के कारण दोनों की सोच में जमीनआसमान का अंतर था.

मातृत्व से गौरवान्वित हो कर भाभी और भी सुडौल व सुंदर दिखने लगी थीं. बेटी तो जैसे उन को मन बहलाने का खिलौना मिल गई थी. कई बार तो वे उसे खिलातेखिलाते गुनगुनाने लगती थीं. अब उन के ऊपर किसी के तानों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था. मां बनते ही औरत कितनी आत्मविश्वास और आत्मसम्मान से पूर्ण हो जाती है, उस का उदाहरण भाभी के रूप में मेरे सामने था. अब वे अपने प्रति गलत व्यवहार की प्रतिक्रियास्वरूप प्रतिरोध भी करने लगी थीं. इस में मेरे भाई का भी सहयोग था, जिस से हमें बहुत सुखद अनुभूति होती थी.

इसी तरह समय बीतने लगा और भाभी की बेटी 3 साल की हो गई तो फिर से उन के गर्भवती होने का पता चला और इस बार भाभी की प्रतिक्रिया पिछली बार से एकदम विपरीत थी. परिस्थितियों ने और समय ने उन को काफी परिपक्व बना दिया था.

गर्भ को 7 महीने बीत गए और अचानक हृदयविदारक सूचना मिली कि भाई की घर लौटते हुए सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई है. यह अनहोनी सुन कर सभी लोग स्तंभित रह गए. कोई भाभी को मनहूस बता रहा था तो कोई अजन्मे बच्चे को कोस रहा था कि पैदा होने से पहले ही बाप को खा गया. यह किसी ने नहीं सोचा कि पतिविहीन भाभी और बाप के बिना बच्चे की जिंदगी में कितना अंधेरा हो गया है. उन से किसी को सहानुभूति नहीं थी.

समाज का यह रूप देख कर मैं कांप उठी और सोच में पड़ गई कि यदि भाई कमउम्र लिखवा कर लाए हैं या किसी की गलती से दुर्घटना में वे मारे गए हैं तो इस में भाभी का क्या दोष? इस दोष से पुरुष जाति क्यों वंचित रहती है?

एकएक कर के उन के सारे सुहाग चिह्न धोपोंछ दिए गए. उन के सुंदर कोमल हाथ, जो हर समय मीनाकारी वाली चूडि़यों से सजे रहते थे, वे खाली कर दिए गए. उन्हें सफेद साड़ी पहनने को दी गई. भाभी के विवाह की कुछ साडि़यों की तो अभी तह भी नहीं खुल पाई थी. वे तो जैसे पत्थर सी बेजान हो गई थीं. और जड़वत सभी क्रियाकलापों को निशब्द देखती रहीं. वे स्वीकार ही नहीं कर पा रही थीं कि उन की दुनिया उजड़ चुकी थी.

एक भाई ही तो थे जिन के कारण वे सबकुछ सह कर भी खुश रहती थीं. उन के बिना वे कैसे जीवित रहेंगी? मेरा हृदय तो चीत्कार करने लगा कि भाभी की ऐसी दशा क्यों की जा रही थी. उन का कुसूर क्या था? पत्नी की मृत्यु के बाद पुरुष पर न तो लांछन लगाए जाते हैं, न ही उन के स्वरूप में कोई बदलाव आता है. भाभी के मायके वाले भाई की तेरहवीं पर आए और उन्हें साथ ले गए कि वे यहां के वातावरण में भाई को याद कर के तनाव में और दुखी रहेंगी, जिस से आने वाले बच्चे और भाभी के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ेगा. सब ने सहर्ष उन को भेज दिया यह सोच कर कि जिम्मेदारी से मुक्ति मिली. कुछ दिनों बाद उन के पिताजी का पत्र आया कि वे भाभी का प्रसव वहीं करवाना चाहते हैं. किसी ने कोई एतराज नहीं किया. और फिर यह खबर आई कि भाभी के बेटा हुआ है.

हमारे यहां से उन को बुलाने का कोई संकेत दिखाई नहीं पड़ रहा था. लेकिन उन्होंने बुलावे का इंतजार नहीं किया और बेटे के 2 महीने का होते ही अपने भाई के साथ वापस आ गईं. कितना बदल गई थीं भाभी, सफेद साड़ी में लिपटी हुई, सूना माथा, हाथ में सोने की एकएक चूड़ी, बस. उन्होंने हमें बताया कि उन के मातापिता उन को आने नहीं दे रहे थे कि जब उस का पति ही नहीं रहा तो वहां जा कर क्या करेगी लेकिन वे नहीं मानीं. उन्होंने सोचा कि वे अपने मांबाप पर बोझ नहीं बनेंगी और जिस घर में ब्याह कर गई हैं, वहीं से उन की अर्थी उठेगी.

मैं ने मन में सोचा, जाने किस मिट्टी की बनी हैं वे. परिस्थितियों ने उन्हें कितना दृढ़निश्चयी और सहनशील बना दिया है. समय बीतते हुए मैं ने पाया कि उन का पहले वाला आत्मसम्मान समाप्त हो चुका है. अंदर से जैसे वे टूट गई थीं. जिस डाली का सहारा था, जब वह ही नहीं रही तो वे किस के सहारे हिम्मत रखतीं. उन को परिस्थितियों से समझौता करने के अतिरिक्त कोई चारा दिखाई नहीं पड़ रहा था. फूल खिलने से पहले ही मुरझा गया था. सारा दिन सब की सेवा में लगी रहती थीं.

उन की ननद का विवाह तय हो गया और तारीख भी निश्चित हो गई थी. लेकिन किसी भी शुभकार्य के संपन्न होते समय वे कमरे में बंद हो जाती थीं. लोगों का कहना था कि वे विधवा हैं, इसलिए उन की परछाईं भी नहीं पड़नी चाहिए. यह औरतों के लिए विडंबना ही तो है कि बिना कुसूर के हमारा समाज विधवा के प्रति ऐसा दृष्टिकोण रखता है. उन के दूसरे विवाह के बारे में सोचना तो बहुत दूर की बात थी. उन की हर गतिविधि पर तीखी आलोचना होती थी. जबकि चाचा का दूसरा विवाह, चाची के जाने के बाद एक साल के अंदर ही कर दिया गया. लड़का, लड़की दोनों मां के कोख से पैदा होते हैं, फिर समाज की यह दोहरी मानसिकता देख कर मेरा मन आक्रोश से भर जाता था, लेकिन कुछ कर नहीं सकती थी.

मेरे पिताजी पुश्तैनी व्यवसाय छोड़ कर दिल्ली में नौकरी करने का मन बना रहे थे. भाभी को जब पता चला तो वे फूटफूट कर रोईं. मेरा तो बिलकुल मन नहीं था उन से इतनी दूर जाने का, लेकिन मेरे न चाहने से क्या होना था और हम दिल्ली चले गए. वहां मैं ने 2 साल में एमए पास किया और मेरा विवाह हो गया. उस के बाद भाभी से कभी संपर्क ही नहीं हुआ. ससुराल वालों का कहना था कि विवाह के बाद जब तक मायके के रिश्तेदारों का निमंत्रण नहीं आता तब तक वे नहीं जातीं. मेरा अपनी चाची  से ऐसी उम्मीद करना बेमानी था. ये सब सोचतेसोचते कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला.

‘‘उठो दीदी, सांझ पड़े नहीं सोते. चाय तैयार है,’’ भाभी की आवाज से मेरी नींद खुली और मैं उठ कर बैठ गई. पुरानी बातें याद करतेकरते सोने के बाद सिर भारी हो रहा था, चाय पीने से थोड़ा आराम मिला. भाभी का बेटा, प्रतीक भी औफिस से आ गया था. मेरी दृष्टि उस पर टिक गई, बिलकुल भाई पर गया था. उसी की तरह मनमोहक व्यक्तित्व का स्वामी, उसी तरह बोलती आंखें और गोरा रंग.

इतने वर्षों बाद मिली थी भाभी से, समझ ही नहीं आ रहा था कि बात कहां से शुरू करूं. समय कितना बीत गया था, उन का बेटा सालभर का भी नहीं था जब हम बिछुड़े थे. आज इतना बड़ा हो गया है. पूछना चाह रही थी उन से कि इतने अंतराल तक उन का वक्त कैसे बीता, बहुतकुछ तो उन के बाहरी आवरण ने बता दिया था कि वे उसी में जी रही हैं, जिस में मैं उन को छोड़ कर गई थी. इस से पहले कि मैं बातों का सिलसिला शुरू करूं, भाभी का स्वर सुनाई दिया, ‘‘दामादजी क्यों नहीं आए? क्या नाम है बेटी का? क्या कर रही है आजकल? उसे क्यों नहीं लाईं?’’ इतने सारे प्रश्न उन्होंने एकसाथ पूछ डाले.

मैं ने सिलसिलेवार उत्तर दिया, ‘‘इन को तो अपने काम से फुरसत नहीं है. मीनू के इम्तिहान चल रहे थे, इसलिए भी इन का आना नहीं हुआ. वैसे भी, मेरी सहेली के बेटे की शादी थी, इन का आना जरूरी भी नहीं था. और भाभी, आप कैसी हो? इतने साल मिले नहीं, लेकिन आप की याद बराबर आती रही. आप की बेटी के विवाह में भी चाची ने नहीं बुलाया. मेरा बहुत मन था आने का, कैसी है वह?’’ मैं ने सोचने में और समय बरबाद न करते हुए पूछा.

‘‘क्या करती मैं, अपनी बेटी की शादी में भी औरों पर आश्रित थी. मैं चाहती तो बहुत थी…’’ कह कर वे शून्य में खो गईं.’’

‘‘चलो, अब चाचाचाची तो रहे नहीं, प्रतीक के विवाह में आप नहीं बुलाएंगी तो भी आऊंगी. अब तो विवाह के लायक वह भी हो गया है.’’

‘‘मैं भी अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाह रही हूं,’’ उन्होंने संक्षिप्त उत्तर देते हुए लंबी सांस ली.

‘‘एक बात पूछूं, भाभी, आप को भाई की याद तो बहुत आती होगी?’’ मैं ने सकुचाते हुए उन्हें टटोला.

‘‘हां दीदी, लेकिन यादों के सहारे कब तक जी सकते हैं. जीवन की कड़वी सचाइयां यादों के सहारे तो नहीं झेली जातीं. अकेली औरत का जीवन कितना दूभर होता है. बिना किसी के सहारे के जीना भी तो बहुत कठिन है. वे तो चले गए लेकिन मुझे तो सारी जिम्मेदारी अकेले संभालनी पड़ी. अंदर से रोती थी और बच्चों के सामने हंसती थी कि उन का मन दुखी न हो. वे अपने को अनाथ न समझें,’’ एक सांस में वे बोलीं, जैसे उन्हें कोई अपना मिला, दिल हलका करने के लिए.

‘‘हां भाभी, आप सही हैं, जब भी ये औफिस टूर पर चले जाते हैं तब अपने को असहाय महसूस करती हूं मैं भी. एक बात पूछूं, बुरा तो नहीं मानेंगी? कभी आप को किसी पुरुषसाथी की आवश्यकता नहीं पड़ी?’’ मेरी हिम्मत उन की बातों से बढ़ गई थी.

‘‘क्या बताऊं दीदी, जब मन बहुत उदास होता था तो लगता था किसी के कंधे पर सिर रख कर खूब रोऊं और वह कंधा पुरुष का हो तभी हम सुरक्षित महसूस कर सकते हैं. उस के बिना औरत बहुत अकेली है,’’ उन्होंने बिना संकोच के कहा.

‘‘आप ने कभी दूसरे विवाह के बारे में नहीं सोचा?’’ मेरी हिम्मत बढ़ती जा रही थी.

‘‘कुछ सोचते हुए वे बोलीं,  ‘‘क्यों नहीं दीदी, पुरुषों की तरह औरतों की भी तो तन की भूख होती है बल्कि उन को तो मानसिक, आर्थिक सहारे के साथसाथ सामाजिक सुरक्षा की भी बहुत जरूरत होती है. मेरी उम्र ही क्या थी उस समय. लेकिन जब मैं पढ़ीलिखी न होने के कारण आर्थिक रूप से दूसरों पर आश्रित थी तो कर भी क्या सकती थी. इसीलिए मैं ने सब के विरुद्ध हो कर, अपने गहने बेच कर आस्था को पढ़ाया, जिस से वह आत्मनिर्भर हो कर अपने निर्णय स्वयं ले सके. समय का कुछ भी भरोसा नहीं, कब करवट बदले.’’

उन का बेबाक उत्तर सुन कर मैं अचंभित रह गई और मेरा मन करुणा से भर आया, सच में जिस उम्र में वे विधवा हुई थीं उस उम्र में तो आजकल कोई विवाह के बारे में सोचता भी नहीं है. उन्होंने इतना समय अपनी इच्छाओं का दमन कर के कैसे काटा होगा, सोच कर ही मैं सिहर उठी थी.

‘‘हां भाभी, आजकल तो पति की मृत्यु के बाद भी उन के बाहरी आवरण में और क्रियाकलापों में विशेष परिवर्तन नहीं आता और पुनर्विवाह में भी कोई अड़चन नहीं डालता, पढ़ीलिखी होने के कारण आत्मविश्वास और आत्मसम्मान के साथ जीती हैं, होना भी यही चाहिए, आखिर उन को किस गलती की सजा दी जाए.’’

‘‘बस, अब तो मैं थक गई हूं. मुझे अकेली देख कर लोग वासनाभरी नजरों से देखते हैं. कुछ अपने खास रिश्तेदारों के भी मैं ने असली चेहरे देख लिए तुम्हारे भाई के जाने के बाद. अब तो प्रतीक के विवाह के बाद मैं संसार से मुक्ति पाना चाहती हूं,’’ कहतेकहते भाभी की आंखों से आंसू बहने लगे. समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा न करने के लिए कह कर उन का दुख बढ़ाऊंगी या सांत्वना दूंगी, मैं शब्दहीन उन से लिपट गई और वे अपना दुख आंसुओं के सहारे हलका करती रहीं. ऐसा लग रहा था कि बरसों से रुके हुए आंसू मेरे कंधे का सहारा पा कर निर्बाध गति से बह रहे थे और मैं ने भी उन के आंसू बहने दिए.

अगले दिन ही मुझे लौटना था, भाभी से जल्दी ही मिलने का तथा अधिक दिन उन के साथ रहने का वादा कर के मैं भारी मन से ट्रेन में बैठ गई. वे प्रतीक के साथ मुझे छोड़ने के लिए स्टेशन आई थीं. ट्रेन के दरवाजे पर खड़े हो कर हाथ हिलाते हुए, उन के चेहरे की चमक देख कर मुझे सुकून मिला कि चलो, मैं ने उन से मिल कर उन के मन का बोझ तो हलका किया.

दो पहलू : सास से क्यों चिढ़ती थी नीरा

सास की कर्कश आवाज कानों में पड़ी तो नीरा ने कसमसा कर अंगड़ाई ली. अधखुली आंखों से देखा, आसमान पर अभी लाली छाई हुई है. सूरज अभी निकला नहीं है, पर मांजी का सूरज अभी से सिर पर चढ़ आया है. न उन्हें खुद नींद आती है और न  किसी और को सोने देती हैं. एक गहरी खीज सी उभर आई उस के चेहरे पर.

परसों उस की नींद जल्दी टूट गई थी. लेटेलेटे कमर दर्द कर रही थी. वह उठ गई और अपने लिए चाय बनाने लगी. खटरपटर सुन कर मांजी की नींद टूट गई. बोल पड़ीं, ‘‘इतनी जल्दी क्यों उठ गई, बहू. कौन सा लंबाचौड़ा परिवार है जिस के लिए तुम्हें खटना पड़ेगा.’’

गुस्से से नीरा का तनबदन सुलग उठा था. आखिर यह चाहती क्या हैं? जल्दी उठो तो मुश्किल, देर से उठो तो मुश्किल. बोलने का बहाना भर चाहिए इन्हें.

अभी तो उसे यहां आए मुश्किल से 2 माह हुए  हैं, पर लगता है कि मानो दो युग ही गुजर गए हैं. अभी दीपक को वापस आने में पूरे 4 माह और हैं. कैसे कटेगा इतना लंबा समय? शुरू से ही संयुक्त परिवार के प्रति एक खास तरह की अरुचि सी थी उस के अंदर.

मातापिता ने भी उस के लिए वर देखते समय इस बात का खास खयाल रखा था कि लड़का चाहे उन्नीस हो, पर वह मांबाप से दूर नौकरी करता हो. उसे सास, ननदों के संग न रहना पड़े. आखिर काफी खोजबीन के बाद उन्हें इच्छानुसार दीपक का घर मिल गया था.

दीपक का परिवार भी छोटा सा था. मां, बाप और छोटी बहन. वह घर से अलग, दूसरे शहर में एक कालिज में अध्यापक था. सौम्य और सुदर्शन व्यक्तित्व वाले दीपक को सब ने पहली नजर में ही पसंद कर लिया था. शादी के बाद नीरा 8-10 दिन ससुराल रही थी.

इन चंद दिनों में ही सब का थोड़ाबहुत  स्वभाव उस के आगे उजागर हो गया था. बाबूजी गंभीर स्वभाव के अंतर्मुखी व्यक्ति थे. ज्यादा बोलते या बतियाते नहीं थे, पर उन की कसर मांजी पूरी कर देती थीं. मांजी जरा तेजतर्रार थीं. सारा दिन बकझक करना उन की आदत थी. ननद सिम्मी एक प्यारी सी हंसमुख लड़की थी. उस की हमउम्र थी.

मांजी हर बात में नुक्ताचीनी कर के बोलने का कोई न कोई बहाना ढूंढ़ लेती थीं. पर उन की इस आदत पर न कोई ध्यान देता था और न उन की बातों को गंभीरता से लेता था. बाबूजी निरपेक्ष से बस हां, हूं करते रहते थे. 10 दिन बाद ही दीपक नौकरी पर वापस गया, तो वह भी साथ चली गई थी.

दीपक को कालिज के पास ही मकान मिला हुआ था. नीरा ने सुघड़ हाथों से जल्दी ही अपनी गृहस्थी जमा ली. दीपक भी अपने पिता की ही तरह धीर, गंभीर था. नीरा कई बार सोचती कि एक ही परिवार में कैसा विरोधाभास है? कोई इतना बोलने वाला है और कोई इस कदर अंतर्मुखी. अभी उस की शादी को 3 माह ही हुए थे कि दीपक को विश्वविद्यालय की ओर से 6 माह के प्रशिक्षण के लिए जरमनी भेजने का प्रस्ताव हुआ. नीरा भी बहुत खुश थी.

दीपक उसे बांहों में समेट कर बोला था, ‘‘नीरू, तुम्हारे कदम बड़े अच्छे पड़े. बड़े दिनों का अटका काम हो गया. 6 माह तुम मां और बाबूजी के पास रह लेना. उन का भी बहू का चाव पूरा हो जाएगा.’’

नीरा जैसे आसमान से गिरी. इस ओर तो उस ने ध्यान ही नहीं दिया था. अचानक उस की आंखें भर आईं और वह बोली, ‘‘नहीं, मैं तुम्हारे बिना वहां अकेली नहीं रह सकती. मुझे भी अपने साथ ले चलो.’’

‘‘नहीं, नहीं, नीरू, यह संभव नहीं है. मैं फैलोशिप पर जा रहा हूं. वहां होस्टल में रह कर कुछ शोधकार्य करना है. तुम वहां कहां रहोगी? 6 माह का समय होता ही कितना है? पलक झपकते समय निकल जाएगा.’’

फिर तो सब कुछ आननफानन में हो गया. एक माह के अंदर ही दीपक जरमनी चला गया. उसे मांजी और बाबूजी के पास छोड़ते समय वह बोला था, ‘‘नीरू, मां की जरा ज्यादा बोलने की आदत है. वैसे दिल की वह साफ हैं. उन की बातों को दिल पर न लाना. तुम्हें पता तो है कि वह सारा दिन बोलती रहती हैं. तुम बस हां, हूं ही करती रहना.’’

दीपक की बात उस ने गांठ बांध ली थी. मांजी कुछ भी कहतीं, वह अपना मुंह बंद ही रखती. मांजी की बातों को कड़वे घूंट की तरह गटक जाती. पर उन का छोटीछोटी बातों पर हिदायतें देना और टोकना उसे सख्त नागवार गुजरता. सिम्मी न होती तो उस का समय बीतना और मुश्किल हो जाता. वही तो थी जिस के साथ हंस कर वह बोलबतिया लेती थी. वही उसे खींच कर कभी फिल्म दिखाने ले जाती तो कभी खरीदारी के लिए.

दीवार घड़ी ने टनटन कर के 6 बजाए तो वह चौंक पड़ी. अभी मांजी को बोलने का एक और विषय मिल जाएगा. वह न जाने किन सोचों में डूब गई. जल्दी से उठी और दैनिक कृत्यों से निवृत्त हो कर रसोई में जा कर आटा गूंधने लगी. बाबूजी और सिम्मी, दोनों 8 बजे घर से निकल जाते थे.

तभी सिम्मी आ कर जल्दी मचाने लगी, ‘‘भाभी, जल्दी नाश्ता दो, आज मेरा पहला घंटा है.’’

नीरा के कुछ बोलने से पहले ही मांजी बोल पड़ीं, ‘‘जरा जल्दी उठ जाया करो, बहू, मैं तो गठिया के मारे उठ नहीं पाती हूं. अब सब को देर हो जाएगी. हम तो सास के उठने से पहले ही मुंहअंधेरे सारा काम कर लेते थे. क्या मजाल जो सास को किसी बात पर बोलने का मौका मिले.’’

‘‘हो गया तुम्हारा भाषण शुरू?’’ बाबूजी गुस्से से बोले, ‘‘अभी सिर्फ 7 बजे हैं और सिम्मी को जाने में पूरा एक घंटा बाकी है.’’

‘‘तुम चुप रहो जी,’’ मांजी बोलीं, ‘‘पहले बेटी को सिर चढ़ाया, अब बहू को माथे पर बिठा लो.’’

नीरा चुपचाप परांठे सेकती रही. सिम्मी बोली, ‘‘कभी मां मौनव्रत रखें तो मजा ही आ जाए.’’

नीरा के होंठों पर मुसकान आ गई. सिम्मी पर भी मांजी सारा दिन बरसती ही रहती थीं. कालिज से आने में जरा देर हो जाए तो मांजी आसमान सिर पर उठा लेती थीं. प्रश्नों की बौछार सी कर देतीं, ‘‘देर क्यों हुई? घर पर पहले बताया क्यों नहीं था?’’ आदि.

सिम्मी झल्ला कर कहती, ‘‘बस भी करो मां, जरा सी देर क्या हो गई, तूफान मचा दिया. मैं कोई बच्ची नहीं हूं जो खो जाऊंगी. आजकल अतिरिक्त कक्षाएं लग रही हैं, इस से  देर हो जाती है. तुम्हें तो बोलने का बहाना भर चाहिए.’’

बेटी के बरसने पर मांजी थोड़ी नरम पड़ जातीं, फिर धीमे स्वर में बड़बड़ाने लगतीं. सिम्मी तो बेटी है. मांजी से तुर्कीबतुर्की सवालजवाब कर लेती है पर वह तो बहू है. उसे अपने होंठ सी कर रखने पड़ते हैं. बिना बोले यह हाल है. जो कहीं वह भी सिम्मी की तरह मुंहतोड़ जवाब देने लगे तो शायद मांजी कयामत ही बरपा कर दें. मांजी और बाबूजी का दिल रखने के लिए ही तो वह यहां रह रही है. वरना क्या इतने दिन वह अपने मायके में नहीं रह सकती थी?

बाबूजी और सिम्मी चले गए. वह भी रसोई का काम निबटा कर नहाधो कर आराम कर रही थी. पड़ोस से कुंती की मां आई हुई थीं. वह चाय बनाने लगी. बाहर महरी ने टोकरे में बरतन धो कर रखे थे. कांच का गिलास निकालने लगी तो जाने कैसे गिलास हाथ से छूट कर टूट गया.

मांजी बोल पड़ीं, ‘‘बहू, ध्यान से बरतन उठाया करो. महंगाई का जमाना है. इतने पैसे नहीं हैं जो रोजरोज गिलास खरीद सकें. जब अपनी गृहस्थी जमाओगी तब पता चलेगा.’’

बाहर वालों के सामने भी मांजी चुप नहीं रह सकतीं. नीरा की आंखों में क्रोध और क्षोभ के आंसू आ गए. चाय दे कर वह अपने कमरे में आ कर लेट गई. उस ने कभी अपने मांबाप की नहीं सुनी और यहां दिनरात मांजी की उलटीसीधी बातें सुननी पड़ती हैं.

रात खाने के समय नीरा ने देखा कि दही अभी ठीक से जमा नहीं है. मांजी का बोलना फिर शुरू हो गया, ‘‘तुम ने बहुत ठंडे या बहुत गरम दूध में खट्टा डाल दिया होगा, तभी तो नहीं जमा दही. अगर ध्यान से जमातीं तो क्या अब तक दही जम न जाता? दीपक को तो दही बहुत पसंद है. पता नहीं तुम वहां भी दही ठीक से जमा पाती होगी या नहीं.’’

बाबूजी बोल पड़े, ‘‘ओह हो, अब चुप भी रहोगी या बोलती ही जाओगी? तरी वाली सब्जी है. दही बिना कौन सा पहाड़ टूट रहा है? तुम्हें खाना हो तो हलवाई से ले आता हूं. बहू पर बेकार में क्यों नाराज हो रही हो?’’

मांजी खिसिया कर बोलीं, ‘‘लो और सुनो. बाप और बेटी पहले ही एक ओर थे. अब बहू को और शामिल कर लो गुट में.’’

नीरा शर्म से गड़ी जा रही थी. मांजी के तो मुंह में जो आया बोलने लगती हैं. किसी का लिहाज नहीं.

खाना खा कर वह कमरे में आई तो उस के मन में क्रोध भरा था. अब वह यहां हरगिज नहीं रह सकती. 2 माह जैसेतैसे काट लिए हैं पर अब और नहीं रहा जाता. उस की सहनशक्ति अब खत्म हो गई है. हर बात में टोकाटाकी, भाषणबाजी. आखिर कहां तक सुन सकती है वह? कभी कपड़ों में नील कम है तो कभी बैगन ठीक से नहीं भुने हैं, कभी चाय में पत्ती ज्यादा है तो कभी सब्जी में नमक कम. बिना वजह छोटीछोटी बातों में लंबाचौड़ा भाषण झाड़ देती हैं. बरदाश्त की भी हद होती है. अब वह यहां और नहीं रहेगी. वह उठ कर भैया को खत लिखने लगी. मायके में जा कर दीपक को भी पत्र डाल देगी कि भैया लेने आ गए थे, सो उन के साथ जाना पड़ा उसे.

सुबह मांजी की आवाज कानों में पड़ी, ‘‘उठो बहू, सुबह हो गई है.’’ वह उठने लगी तो उसे अचानक चक्कर सा आ गया. उस ने उठने की कोशिश की तो कमजोरी के कारण उठा न गया. हलकी झुरझुरी सी चढ़ रही थी. सारा बदन टूट रहा था.

वह फिर लेट गई और बोली, ‘‘मांजी, मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’

‘‘क्या हुआ तबीयत को?’’ यह कहती मांजी उस के कमरे में आ गईं. माथे पर हाथ रखा तो वह चौंक गईं. उन के मुंह से हलकी सी चीख निकल गई.

‘‘अरे, तुम्हारा माथा तो भट्ठी सा तप रहा है, बहू,’’ फिर वहीं से वह चिल्लाईं, ‘‘सुनो जी, जरा जल्दी इधर आओ.’’

‘‘अब क्या आफत है?’’ बाबूजी भुनभुनाते हुए कमरे में आ गए.

‘‘बहू को तेज बुखार है. जल्दी से जरा डाक्टर को बुला लाओ.’’

बाबूजी तुरंत कपड़े पहन कर डाक्टर को लेने चले गए.

मांजी नीरा के सिरहाने बैठ कर उस का माथा दबाने लगीं. ठंडेठंडे हाथों का हलकाहलका दबाव, नीरा को बड़ा भला लग रहा था. कुछ ही देर में बाबूजी डाक्टर को ले कर आ गए.

डाक्टर नीरा की अच्छी तरह जांच कर के बोले, ‘‘दवाएं मैं ने लिख दी हैं. इस हालत में अधिक तेज कैप्सूल तो दिए नहीं जा सकते.’’

‘‘किस हालत में?’’ मांजी पूछ बैठीं.

‘‘यह गर्भवती हैं,’’ डाक्टर बोला, ‘‘बुखार ठंड से चढ़ा है. तुलसीअदरक की चाय भी पिलाती रहें. 2-1 दिन में बुखार उतर जाएगा.’’

मांजी के आगे एक नया रहस्य खुला. नीरा ने तो इस बारे में उन्हें बताया ही नहीं था. वह बड़बड़ाने लगीं, ‘‘अजीब लड़की है, यह. अरे, मैं सास सही, पर सास भी मां होती है. मैं तो इस से सारा काम कराती रही और इस ने कभी बताया तक नहीं कि कुछ खास खाने का मन कर रहा है. ये आजकल की बहुएं भी बस घुन्नी होती हैं. एक हमारा जमाना था. हमें बाद में पता चलता था और सास को पहले से ही खबर हो जाती थी. अब बताओ, मैं ने तो कभी इस से यह भी नहीं पूछा कि क्या खाने की इच्छा है?’’

‘‘तो अब पूछ लेना. काफी वक्त पड़ा है. इस समय बहू को सोने दो,’’ बाबूजी बोले और कमरे से बाहर चले गए.

रात मांजी अपनी खाट नीरा के कमरे में ही ले आईं. रसोई का काम सिम्मी को सौंप दिया था इसलिए अब मांजी का आक्रोश  उस पर बरसता.

‘‘इतनी बड़ी हो गई है, पर खाना बनाने की अक्ल नहीं आई, गोभी में पानी तैर रहा है. और दाल इतनी गाढ़ी है कि गुठलियां बन गई हैं. दस बार कहा है कि जरा अपनी भाभी के साथ हाथ बंटाया करो. कुछ सीख जाओगी. पर…’’

‘‘ओहो मां, शुरू हो गईं तुम? एक तो खाना बनाओ, ऊपर से तुम्हारा भाषण सुनो. मुझ से खाना बनवाना है तो चुपचाप खा लिया करो, वरना खुद करो.’’

मांजी बड़बड़ाने लगीं, ‘‘इन बच्चों को तो समझाना भी मुश्किल है.’’

मांजी 2-2 घंटे बाद अदरकसौंफ वाला दूध ले कर नीरा के पास आ जातीं. खुद अपने हाथों से उसे दवा देतीं. रात भर माथा छूछू कर उस का बुखार देखतीं.

अपने प्रति मांजी को इतना चिंतित देख नीरा हैरान थी. बड़बोली मांजी के अंदर उस की इतनी फिक्र है और उस के प्रति इतना प्रेम है, आज तक कहां समझ पाई थी वह? वह तो मांजी के बोलने और टोकने पर ही सदा खीजती  रही.

नीरा 4-5 दिन बुखार की चपेट में रही. मांजी बराबर उस के सिरहाने बनी रहीं. उसे दवा, दूध, चाय, खिचड़ी आदि सब अपने हाथ से देती थीं. कई बार नीरा को लगता जैसे उस की मां ही सिरहाने बैठी हैं. उस का बुखार उतर गया था, पर मांजी उसे अभी जमीन पर पांव नहीं रखने देती थीं कि कहीं कमजोरी से दोबारा बुखार न चढ़ जाए.

दोपहर पड़ोस से रम्मो चाची उस का हाल पूछने आई थीं. उस के माथे पर हाथ रख कर बोलीं, ‘‘माथा तो ठंडा पड़ा है, बुखार तो नहीं है.’’

नीरा ने जवाब दिया, ‘‘हां, अब कल से बुखार नहीं है.’’

बाद में मांजी और रम्मो चाची बाहर आंगन में बैठ कर बातें करने लगीं.

रम्मो चाची बोलीं, ‘‘आजकल की बहुएं भी फूल सी नाजुक होती हैं.  हम भी तो इस भरी सर्दी में काम करते हैं, पर हमें तो कभी ताप नहीं चढ़ता. ये तो बस छुईमुई सी है,’’ फिर फुसफुसा कर बोलीं, ‘‘अरे, बहू को बुखार भी है या यों ही बहाना किए पड़ी है. आजकल की बहुएं तो तुम जानो, ऐसी ही होती हैं.’’

तभी मांजी का तीव्र स्वर सुनाई दिया, ‘‘बस, बस, रम्मो. तुम्हारा दिमाग भी कभी सीधी राह पर नहीं चला. तुम ने कभी अपनी बहुओं के दुखदर्द को समझा नहीं. तुम्हें तो सब कुछ बहाना लगता है. यह मत भूलो कि बहुएं भी हाड़मांस की बनी हैं. मैं ने तो नीरा और सिम्मी में कभी फर्क नहीं माना है. तुम भी अगर यह बात समझ लो तो तुम्हारे घर की रोज की चखचख खत्म हो जाए.’’

रम्मो चाची खिसियानी सी हो गईं, ‘‘मैं ने जरा सा क्या बोला, तुम ने तो पूरी रामायण बांच दी. यों ही बात से बात निकली थी तो मैं बोल पड़ी थी.’’

‘‘आज तो बोल दिया, आगे से मेरी बहू के बारे में यों न बोलना,’’ मांजी के अंदर अब भी आक्रोश था.

नीरा लेटीलेटी हैरानी से मांजी की बातें सुन रही थी. सचमुच वह मांजी को जान ही कहां पाई? दीपक ठीक ही कहते थे, ‘मुंह से मांजी चाहे बकझक कर लें पर मन तो उन का साफ पानी सा निर्मल है.’ इस बीमारी में उन्होंने उस का जितना खयाल रखा, उस की अपनी मां भी शायद इस तरह न रख पातीं.

और फिर मांजी सिर्फ उसी को तो नहीं बोलतीं. सिम्मी और बाबूजी भी मांजी की टोकाटाकी से कहां बच पाते हैं? यह तो मांजी का स्वभाव ही है. वैसे इस उम्र में आ कर औरतें अकसर इस स्वभाव की हो ही जाती हैं. उस की मां भी तो कितना बोलती हैं.

पर फर्क सिर्फ यह है कि वह मां हैं और यह सास हैं. उन का कहा वह इस कान से सुन कर उस कान से निकाल देती थी और सासू मां का कहा गांठ बांध कर रख लेती है. अभी तक उस ने सिक्के के एक ही पहलू को देखा था, दूसरा पहलू तो अब देखने को मिला जिस में ममता और प्रेम भरा है.

नीरा उठी. मेज पर रखे भैया को लिखे खत को उठाया और उस के टुकड़ेटुकड़े कर दिए. मायके जाने का विचार उस ने छोड़ दिया. दीपक के आने तक वह मांजी के साथ ही रहेगी. मांजी का दूसरा ममतापूर्ण और करुणामय रूप देख कर अब इस घर से जाने की इच्छा ही नहीं उसे.

लेखक- कमला चमोला

सबसे बड़ा रुपय्या: शेखर व सरिता को किस बात का हुआ एहसास

आमदनी बढ़ाने के लिए शेखर भी ओवरटाइम करता. अपनी जरूरतें कम कर के भविष्य के लिए रुपए जमा करता. सरिता भी घर का सारा काम अपने हाथों से कर के सीमित बजट में गुजारा करती थी.

सेवानिवृत्त होते ही समय जैसे थम गया. सबकुछ शांत हो गया. पतिपत्नी की भागदौड़ समाप्त हो गई.

शेखर ने बचत के रुपयों से मनपसंद कोठी बना ली. हरेभरे पेड़पौधे से सजेधजे लान में बैठने का उस का सपना अब जा कर पूरा हुआ था.

बेटा पारस की इंजीनियरिंग की शिक्षा, फिर उस का विवाह सभी कुछ शेखर की नौकरी में रहते हुए ही हो चुका था. पारस अब नैनीताल में पोस्टेड है. बेटी प्रियंका, पति व बच्चों के साथ चेन्नई में रह रही थी. दामाद फैक्टरी का मालिक था.

शेखर ने अपनी कोठी का आधा हिस्सा किराए पर उठा दिया था. किराए की आमदनी, पेंशन व बैंक में जमा रकम के ब्याज से पतिपत्नी का गुजारा आराम से चल रहा था.

घर में सुख- सुविधा के सारे साधन उपलब्ध थे. सरिता पूरे दिन टेलीविजन देखती, आराम करती या ब्यूटी पार्लर जा कर चेहरे की झुर्रियां मिटवाने को फेशियल कराती.

शेखर हंसते, ‘‘तुम्हारे ऊपर बुढ़ापे में निखार आ गया है. पहले से अधिक खूबसूरत लगने लगी हो.’’

शेखर व सरिता सर्दी के मौसम में प्रियंका के घर चेन्नई चले जाते और गरमी का मौसम जा कर पारस के घर नैनीताल में गुजारते.

पुत्रीदामाद, बेटाबहू सभी उन के सम्मान में झुके  रहते. दामाद कहता, ‘‘आप मेरे मांबाप के समान हैं, जैसे वे लोग, वैसे ही आप दोनों. बुजर्गों की सेवा नसीब वालों को ही मिला करती हैं.’’

शेखरसरिता अपने  दामाद की बातें सुन कर गदगद हो उठते. दामाद उन्हें अपनी गाड़ी में बैठा कर चेन्नई के दर्शनीय स्थलों पर घुमाता, बढि़या भोजन खिलाता. नौकरानी रात को दूध का गिलास दे जाती.

सेवा करने में बहूबेटा भी कम नहीं थे. बहू अपने सासससुर को बिस्तर  पर ही भोजन की थाली ला कर देती और धुले कपड़े पहनने को मिलते.

बहूबेटों की बुराइयां करने वाली औरतों पर सरिता व्यंग्य कसती कि तुम्हारे अंदर ही कमी होगी कि तुम लोग बहुओं को सताती होंगी. मेरी बहू को देखो, मैं उसे बेटी मानती हूं तभी तो वह मुझे सुखआराम देती है.

शेखर भी दामाद की प्रशंसा करते न अघाते. सोचते, पता नहीं क्यों लोग दामाद की बुराई करते हैं और उसे यमराज कह कर उस की सूरत से भी भय खाते हैं.

एक दिन प्रियंका का फोन आया. उस की आवाज में घबराहट थी, ‘‘मां गजब हो गया. हमारे घर में, फैक्टरी में सभी जगह आयकर वालों का छापा पड़ गया है और वे हमारे जेवर तक निकाल कर ले गए…’’

तभी शेखर सरिता के हाथ से फोन छीन कर बोले, ‘‘यह सब कैसे हो गया बेटी?’’

‘‘जेठ के कारण. सारी गलती उन्हीें की है. सारा हेरफेर वे करते हैं और उन की गलती का नतीजा हमें भोगना पड़ता है,’’ प्रियंका रो पड़ी.

शेखर बेटी को सांत्वना देते रह गए और फोन कट गया.

वह धम्म से कुरसी पर बैठ गए. लगा जैसे शरीर में खड़े रहने की ताकत नहीं रह गई है. और सरिता का तो जैसे मानसिक संतुलन ही खो गया. वह पागलों की भांति अपने सिर के बाल नोचने लगी.

शेखर ने अपनेआप को संभाला. सरिता को पानी पिला कर धैर्य बंधाया कि अवरोध तो आते ही रहते हैं, सब ठीक हो जाएगा.

एक दिन बेटीदामाद उन के घर आ पहुंचे. संकोच छोड़ कर प्रियंका अपनी परेशानी बयान करने लगी, ‘‘पापा, हम लोग जेठजिठानी से अलग हो रहे हैं. इन्हें नए सिरे से काम जमाना पडे़गा. कोठी छोड़ कर किराए के मकान में रहना पडे़गा. काम शुरू करने के लिए लाखों रुपए चाहिए. हमें आप की मदद की सख्त जरूरत है.’’

दामाद हाथ जोड़ कर सासससुर से विनती करने लगा, ‘‘पापा, आप लोगों का ही मुझे सहारा है, आप की मदद न मिली तो मैं बेरोजगार हो जाऊंगा. बच्चों की पढ़ाई रुक जाएगी.’’

शेखर व सरिता अपनी बेटी व दामाद को गरीबी की हालत में कैसे देख सकते थे. दोनों सोचविचार करने बैठ गए. फैसला यह लिया कि बेटीदामाद की सहायता करने में हर्ज ही क्या है? यह लोग सहारा पाने और कहां जाएंगे.

अपने ही काम आते हैं, यह सोच कर शेखर ने बैंक में जमा सारा रुपया निकाल कर दामाद के हाथों में थमा दिया. दामाद ने उन के पैरों पर गिर कर कृतज्ञता जाहिर की और कहा कि वह इस रकम को साल भर के अंदर ही वापस लौटा देगा.

श्ेखरसरिता को रकम देने का कोई मलाल नहीं था. उन्हें भरोसा था कि दामाद उन की रकम को ले कर जाएगा कहां, कह रहा है तो लौटाएगा अवश्य. फिर उन के पास जो कुछ भी है बच्चों के लिए ही तो है. बच्चों की सहायता करना उन का फर्ज है. दामाद उन्हें मांबाप के समान मानता है तो उन्हें भी उसे बेटे के समान मानना चाहिए.

अपना फर्ज पूरा कर के दंपती राहत का आभास कर रहे थे.

बेटे पारस का फोन आया तो मां ने उसे सभी कुछ स्पष्ट रूप से बता दिया.

तीसरे दिन ही बेटाबहू दोनों आकस्मिक रूप से दिल्ली आ धमके. उन्हें इस तरह आया देख कर शेखर व सरिता हतप्रभ रह गए. ‘‘बेटा, सब ठीक है न,’’ शेखर उन के इस तरह अचानक आने का कारण जानने के लिए उतावले हुए जा रहे थे.

‘‘सब ठीक होता तो हमें यहां आने की जरूरत ही क्या थी,’’ तनावग्रस्त चेहरे से पारस ने जवाब दिया.

बहू ने बात को स्पष्ट करते हुए कहा, ‘‘आप लोगों ने अपने खूनपसीने की कमाई दामाद को दे डाली, यह भी नहीं सोचा कि उन रुपयों पर आप के बेटे का भी हक बनता है.’’

बहू की बातें सुन कर शेखर हक्केबक्के रह गए. वह स्वयं को संयत कर के बोले, ‘‘उन लोगों को रुपया की सख्त जरूरत थी. फिर उन्होंने रुपया उधार ही तो लिया है, ब्याज सहित चुका देंगे.’’

‘‘आप ने रुपए उधार दिए हैं, इस का कोई सुबूत आप के पास है. आप ने उन के साथ कानूनी लिखापढ़ी करा ली है?’’

‘‘वे क्या पराए हैं जो कानूनी लिखापढ़ी कराई जाती व सुबूत रखे जाते.’’

‘‘पापा, आप भूल रहे हैं कि रुपया किसी भी इनसान का ईमान डिगा सकता है.’’

‘‘मेरा दामाद ऐसा इनसान नहीं है.’’ सरिता बोली, ‘‘प्रियंका भी तो है वह क्या दामाद को बेईमानी करने देगी.’’

‘‘यह तो वक्त बताएगा कि वे लोग बेईमान हैं या ईमानदार. पर पापा आप यह मकान मेरे नाम कर दें. कहीं ऐसा न हो कि आप बेटीदामाद के प्रेम में अंधे हो कर मकान भी उन के नाम कर डालें.’’

बेटे की बातें सुन कर शेखर व सरिता सन्न रह गए. हमेशा मानसम्मान करने वाले, सलीके से पेश आने वाले बेटाबहू इस प्रकार का अशोभनीय व्यवहार क्यों कर रहे हैं. यह उन की समझ में नहीं आ रहा था.

आखिर, बेटाबहू इस शर्त पर शांत हुए कि बेटीदामाद ने अगर रुपए वापस नहीं किए तो उन के ऊपर मुकदमा चलाया जाएगा.

बेटाबहू कई तरह की हिदायतें दे कर नैनीताल चले गए पर शेखर व सरिता के मन पर ंिंचंताओं का बोझ आ पड़ा था. सोचते, उन्होंने बेटीदामाद की सहायता कर के क्या गलती की है. रुपए बेटी के सुख से अधिक कीमती थोड़े ही थे.

हफ्ते में 2 बार बेटीदामाद का फोन आता तो दोनों पतिपत्नी भावविह्वल हो उठते. दामाद बिलकुल हीरा है, बेटे से बढ़ कर अपना है. बेटा कपूत बनता जा रहा है, बहू के कहने में चलता है. बहू ने ही पारस को उन के खिलाफ भड़काया होगा.

अब शेखर व सरिता उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे, जब दामाद उन का रुपया लौटाने आएगा और वे सारा रुपया उठा कर बेटाबहू के मुंह पर मार कर कहेंगे कि इसी रुपए की खातिर तुम लोग रिश्तों को बदनाम कर रहे थे न, लो रखो इन्हें.

कुछ माह बाद ही बेटीदामाद का फोन आना बंद हो गया तो शेखरसरिता चिंतित हो उठे. वे अपनी तरफ से फोन मिलाने का प्रयास कर रहे थे पर पता नहीं क्यों फोन पर प्रियंका व दामाद से बात नहीं हो पा रही थी.

हर साल की तरह इस साल भी शेखर व सरिता ने चेन्नई जाने की तैयारी कर ली थी और बेटीदामाद के बुलावे की प्रतीक्षा कर रहे थे.

एक दिन प्रियंका का फोन आया तो शेखर ने उस की खैरियत पूछने के लिए प्रश्नों की झड़ी लगा दी पर प्रियंका ने सिर्फ यह कह कर फोन रख दिया कि वे लोग इस बार चेन्नई न आएं क्योंकि नए मकान में अधिक जगह नहीं है.

शेखरसरिता बेटी से ढेरों बातें करना चाहते थे. दामाद के व्यवसाय के बारे में पूछना चाहते थे. अपने रुपयों की बात करना चाहते थे. पर प्रियंका ने कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया.

बेटीदामाद की इस बेरुखी का कारण उन की समझ में नहीं आ रहा था.

देखतेदेखते साल पूरा हो गया. एक दिन हिम्मत कर के शेखर ने बेटी से रुपए की बाबत पूछ ही लिया.

प्रियंका जख्मी शेरनी की भांति गुर्रा उठी, ‘‘आप कैसे पिता हैं कि बेटी के सुख से अधिक आप को रुपए प्यारे हैं. अभी तो इन का काम शुरू ही हुआ है, अभी से एकसाथ इतना सारा रुपया निकाल लेंगे तो आगे काम कैसे चलेगा?’’

दामाद चिंघाड़ कर बोला, ‘‘मेरे स्थान पर आप का बेटा होता तो क्या आप उस से भी वापस मांगते? आप के पास रुपए की कमी है क्या? यह रुपया आप के पास बैंक में फालतू पड़ा था, मैं इस रुपए से ऐश नहीं कर रहा हूं, आप की बेटी को ही पाल रहा हूं.’’

पुत्रीदामाद की बातें सुन कर शेखर व सरिता सन्न कर रह गए और रुपए वापस मिलने की तमाम आशाएं निर्मूल साबित हुईं. उलटे वे उन के बुरे बन गए. रुपया तो गया ही साथ में मानसम्मान भी चला गया.

पारस का फोन आया, ‘‘पापा, रुपए मिल गए.’’

शेखर चकरा गए कि क्या उत्तर दें. संभल कर बोले, ‘‘दामाद का काम जम जाएगा तो रुपए भी आ जाएंगे.’’

‘‘पापा, साफ क्यों नहीं कहते कि दामाद ने रुपए देने से इनकार कर दिया. वह बेईमान निकल गया,’’ पारस दहाड़ा.

सरिता की आंखों से आंसू बह निकले, वह रोती हुई बोलीं, ‘‘बेटा, तू ठीक कह रहा है. दामाद सचमुच बेईमान है, रुपए वापस नहीं करना चाहता.’’

‘‘उन लोगों पर धोखाधड़ी करने का मुकदमा दायर करो,’’ जैसे सैकड़ों सुझाव पारस ने फोन पर ही दे डाले थे.

शेखर व सरिता एकदूसरे का मुंह देखते रह गए. क्या वे बेटीदामाद के खिलाफ यह सब कर सकते थे.

चूंकि वे अपनी शर्त पर कायम नहीं रह सके इसलिए पारस मकान अपने नाम कराने दिल्ली आ धमका. पुत्रीदामाद से तो संबंध टूट ही चुके हैं, बहूबेटा से न टूट जाएं, यह सोच कर दोनों ने कोठी का मुख्तियारनामा व वसीयतनामा सारी कानूनी काररवाई कर के पूरे कागजात बेटे को थमा दिए.

पारस संतुष्ट भाव से चला गया.‘‘बोझ उतर गया,’’ शेखर ने सरिता की तरफ देख कर कहा, ‘‘अब न तो मकान की रंगाईपुताई कराने की चिंता न हाउस टैक्स जमा कराने की. पारस पूरी जिम्मेदारी निबाहेगा.’’

सरिता को न जाने कौन सा सदमा लग गया कि वह दिन पर दिन सूखती जा रही थी. उस की हंसी होंठों से छिन चुकी थी, भूखप्यास सब मर गई. बेटीबेटा, बहूदामाद की तसवीरोें को वह एकटक देखती रहतीं या फिर शून्य में घूरती रह जाती.

शेखर दुखी हो कर बोला, ‘‘तुम ने अपनी हालत मरीज जैसी बना ली. बालों पर मेंहदी लगाना भी बंद कर दिया, बूढ़ी लगने लगी हो.’’

सरिता दुखी मन से कहने लगी,‘‘हमारा कुछ भी नहीं रहा, हम अब बेटाबहू के आश्रित बन चुके हैं.’’

‘‘मेरी पेंशन व मकान का किराया तो है. हमें दूसरों के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी,’’ शेखर जैसे अपनेआप को ही समझा रहे थे.

जब किराएदार ने महीने का किराया नहीं दिया तो शेखर ने खुद जा कर शिकायती लहजे में किराएदार से बात की और किराया न देने का कारण पूछा.

किराएदार ने रसीद दिखाते हुए तीखे स्वर में उत्तर दिया कि वह पारस को सही वक्त पर किराए का मनीआर्डर भेज चुका है.

‘‘पारस को क्यों?’’

‘‘क्योेंकि मकान का मालिक अब पारस है,’’ किराएदार ने नया किराया- नामा निकाल कर शेखर को दिखा दिया. जिस पर पारस के हस्ताक्षर थे.

शेखर सिर पकड़ कर रह गए कि सिर्फ मामूली सी पेंशन के सहारे अब वह अपना गुजारा कैसे कर पाएंगे.

‘‘बेटे पर मुकदमा करो न,’’ सरिता पागलों की भांति चिल्ला उठी, ‘‘सब बेईमान हैं, रुपयों के भूखे हैं.’’

शेखर कहते, ‘‘हम ने अपनी संतान के प्रति अपना फर्ज पूरा किया है. हमारी मृत्यु के बाद तो उन्हें मिलना ही था, पहले मिल गया. इस से भला क्या फर्क पड़ गया.’’

सरिता बोली, ‘‘बेटीदामाद, बेटा बहू सभी हमारी दौलत के भूखे थे. दौलत के लालच में हमारे साथ प्यारसम्मान का ढोंग करते रहे. दौलत मिल गई तो फोन पर बात करनी भी छोड़ दी.’’

पतिपत्नी दोनों ही मानसिक वेदना से पीडि़त हो चुके थे. घर पराया लगता, अपना खून पराया हो गया तो अपना क्या रह गया.

एक दिन शेखर अलमारी में पड़ी पुरानी पुस्तकों में से होम्योपैथिक चिकित्सा की पुस्तक तलाश कर रहे थे कि अचानक उन की निगाहों के सामने पुस्तकों के बीच में दबा बैग आ गया और उन की आंखें चमक उठीं.

बैग के अंदर उन्होंने सालोें पहले इंदिरा विकासपत्र व किसान विकासपत्र पोस्ट आफिस से खरीद कर रखे हुए थे. जिस का पता न बेटाबेटी को था, न सरिता को,  यहां तक कि खुद उन्हें भी याद नहीं रहा था.

मुसीबत में यह 90 हजार रुपए की रकम उन्हें 90 लाख के बराबर लग रही थी.

उन के अंदर उत्साह उमड़ पड़ा. जैसे फिर से युवा हो उठे हों. हफ्ते भर के अंदर ही उन्होंने लान के कोने में टिन शेड डलवा कर एक प्रिंटिंग प्रेस लगवा ली. कुछ सामान पुराना भी खरीद लाए और नौकर रख लिए.

सरिता भी इसी काम में व्यस्त हो गई. शेखर बाहर के काम सभांलता तो सरिता दफ्तर में बैठती.

शेखर हंस कर कहते, ‘‘हम लोग बुढ़ापे का बहाना ले कर निकम्मे हो गए थे. संतान ने हमें बेरोजगार इनसान बना दिया. अब हम दोनों काम के आदमी बन गए हैं.’’

सरिता मुसकराती, ‘‘कभीकभी कुछ भूल जाना भी अच्छा रहता है. तुम्हारे भूले हुए बचत पत्रों ने हमारी दुनिया आबाद कर दी. यह रकम न मिलती तो हमें अपना बाकी का जीवन बेटीदामाद और बेटाबहू की गुलामी करते हुए बिताना पड़ता. अब हमें बेटीदामाद, बेटाबहू सभी को भुला देना ही उचित रहेगा. हम उन्हें इस बात का एहसास दिला देंगे कि उन की सहायता लिए बगैर भी हम जी सकते हैं और अपनी मेहनत की रोटी खा सकते हैं. हमें उन के सामने हाथ फैलाने की कभी जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

सरिता व शेखर के चेहरे आत्म- विश्वास से चमक रहे थे, जैसे उन का खोया सुकून फिर से वापस लौट आया हो.

नैरो माइंड: क्या तरू को हुआ गलती का एहसास

‘‘मौम, आप कब से इतनी नैरो माइंड हो गई हैं, ऐसा क्या हुआ है? क्यों इतनी परेशान हो रही हैं? सब ठीक हो जाएगा, आजकल यह इतनी बड़ी बात नहीं है. सोसायटी में यह सब चलता रहता है. मैं आज ही विपुल से बात करूंगी.’’

तरू के एकएक शब्द ने तृप्ति के रोमरोम को घायल कर दिया. कितनी मुश्किलों और नाजों से उस ने दोनों बेटियों को पाला था.

तृप्ति और तपन ने तिनकेतिनके जोड़ कर यह घर बसाया था. उस ने अपने सारे अरमानों एवं इच्छाओं का गला घोंट कर इन्हीं बेटियों की खुशी के लिए अपना जीवन कुर्बान कर दिया था.

साधारण परिवार में जन्मी तृप्ति को पढ़ाई के साथ डांस और एक्ंिटग का जन्मजात शौक था. स्कूल में उस की प्रतिभा निखारने में उस की डांस टीचर मिस गोयल का बड़ा हाथ था. उन्होंने तृप्ति के गुण को परख कर उसे निखारा. तृप्ति ने भी उन्हें निराश नहीं किया और स्कूली शिक्षा के दौरान ही शील्ड और मेडल के ढेर लगा दिए.

वह विश्वविद्यालय में पहुंची तो सहशिक्षा के कारण उस के मातापिता ने इस तरह के कार्यक्रम से उसे दूर रहने की हिदायत दे दी, साथ ही कह दिया, ‘बहुत हुआ, अब जो करना हो अपने घर में करना.’ वह मन मार कर डांस और एक्ंिटग से दूर हो गई, लेकिन मन में एक कसक थी तभी उस का विवाह तपन से हो गया.

तपन बैंक में क्लर्क थे. सामान्य तौर पर घर में कोई कमी नहीं थी, लेकिन उस का शौक मन में हिलोरे मार रहा था. उस ने डांस स्कूल में काम करने के लिए तपन को किसी तरह से तैयार किया था तभी तन्वी के आगमन का एहसास हुआ. तन्वी छोटी ही थी तभी गोलमटोल तरू आ गई और वह इन दोनों बेटियों की परवरिश में सब भूल गई. 5-6 साल कब निकल गए, पता ही नहीं लगा. अब तृप्ति को अपनी खुशहाल जिंदगी प्यारी लगने लगी.

धीरे-धीरे तन्वी और तरू बड़ी होने लगीं. जब दोनों छोटेछोटे पैरों को उठा कर नाचतीं तो तृप्ति का मन खिल उठता और अनायास ही अपनी बेटियों को स्टेज पर नृत्य करते हुए देखने की वह कल्पना करती. तन्वी एवं तरू को तृप्ति ने डांस स्कूल में दाखिला दिलवा दिया. जल्द ही उन की प्रतिभा रंग दिखाने लगी. वे नृत्य में पारंगत होने लगीं और इसी के साथ तृप्ति के सपने साकार होने लगे.

एक दिन तपन ने टोक दिया, ‘अब ये दोनों बड़ी हो गई हैं, डांस आदि छोड़ कर पढ़ाई पर ध्यान दें.’ तपन के टोकने से तृप्ति नाराज हो उठी और समय बदलने की दुहाई देने लगी. दोनों का आपस में अच्छाखासा झगड़ा भी हुआ और अंत में जीत तृप्ति की ही हुई. तपन चुप हो गए. उन्होंने दोनों लड़कियों को डांस और एक्ंिटग में आगे बढ़ने की इजाजत दे दी.

तन्वी का रुझान अपनेआप ही डांस से हट गया. वह पढ़ाई में रुचि लेने लगी. प्रोफेशनल कोर्स के लिए तन्वी होस्टल चली गई. तरू अकेली हो गई. चूंकि उस पर मां का वरदहस्त था, अत: वह डांस एवं एक्ंिटग के साथ ग्लैमर से भी प्रभावित हो गई थी.

अब तरू के आएदिन स्टेज प्रोग्राम होते. तृप्ति बेटी में अपने सपने साकार होते देख मन ही मन खुश होती रहती. तपन को तरू का काम पसंद नहीं आता था. तरू अकसर ग्रुप के साथ कार्यक्रम के लिए बाहर जाया करती थी. उस को अब बाहर की दुनिया रास आने लगी थी. उस के उलटेसीधे कपड़े तपन को पसंद न आते. अकसर तृप्ति से कहते, ‘तरू, हाथ से निकल रही है.’ इस पर वह दबी जबान से तरू को समझाती लेकिन उस ने कभी भी मां की बातों पर ध्यान नहीं दिया.

‘‘मौम, मुझे 1 हजार रुपए चाहिए.’’

‘‘क्यों? अभी कल ही तो तुम ने पापा से रुपए लिए थे.’’

‘‘मौम, सब मुझ से पार्टी मांग रहे थे… उसी में पैसे खर्च हो गए.’’

‘‘मैं तुम्हारे पापा से कहूंगी.’’

तरू तृप्ति से लिपट गई…तृप्ति पिघल गई. रुपए लेते ही वह फुर्र हो गई.

‘‘मौम, आजकल थिएटर में मेरा रिहर्सल चल रहा है, इसलिए देर से आऊंगी.’’

तृप्ति का माथा ठनका, ‘कल तो तरू ने कहा था कि इस हफ्ते मेरा कोई शो नहीं है.’

अभी वह इस ऊहापोह से निकल भी न पाई थी कि तपन पुकारते हुए आए.

‘‘तरू… तरू…’’

तृप्ति ने उत्तर दिया, ‘‘तरू का आज रिहर्सल है.’’

‘‘वह झूठ पर झूठ बोलती रहेगी, तुम आंख बंद कर उस पर विश्वास करती रहना. वह किसी लड़के की बाइक पर पीछे बैठी हुई कहीं जा रही थी, लड़का बाइक बहुत तेज चला रहा था,’’ तपन क्रोधित हो बोले थे.

तृप्ति घबरा कर चिंतित हो उठी. वह सोचने को मजबूर हो गई कि क्या तरू गलत संगत में पड़ गई है. मन ही मन घुटती हुई वह तरू के आने का इंतजार करने लगी.

लगभग रात में 11 बजे घंटी बजी. तृप्ति सोने की कोशिश कर रही थी. घंटी की आवाज सुन वह गुस्से में तेजी से उठी. दरवाजा खोलते ही तरू की हालत देख कर वह सन्न रह गई.

तरू की आंखें लाल हो रही थीं, एक लंबे बालों वाला लड़का उसे पकड़ कर खड़ा था. तृप्ति तपन से छिपाना चाह रही थी, इसलिए चुपचाप उस को सहारा दे कर उस के कमरे में ले गई और उसे बिस्तर पर लिटा दिया. तरू के मुंह से शराब की दुर्गंध आ रही थी.

तृप्ति की आंखों की नींद उड़ चुकी थी. वह मन ही मन रो रही थी और अपने को कोस रही थी. तरू को किस तरह सुधारे, वह क्या करे, कुछ सोच नहीं पा रही थी. उस का मन आशंकाओं से घिरा हुआ था. उसे तन्वी की याद आ रही थी. उस के मन में छात्रावास के प्रति अच्छे विचार नहीं थे लेकिन तरू तो उस की आंखों के सामने थी फिर कहां चूक हुई जो वह गलत हो गई. तपन ने तो सदैव उसे आगाह किया था, ‘लड़कियों को आजादी दो परंतु आजादी पर निगरानी आवश्यक है. नाजुक उम्र में बच्चे आजादी का नाजायज फायदा उठा कर खतरे में पड़ जाते हैं.’

तृप्ति ने रात पलकों में गुजारी. सुबह जब तरू उठी तो रात के बारे में पूछने पर अनजान बनती हुई बोली, ‘‘कल पार्टी में किसी ने उस की डिं्रक में कुछ मिला दिया था.’’

मां की ममता फिर से हावी हो गई. तृप्ति फिर से उस की बातों में आ गई थी.

अब जब हालात नियंत्रण से बाहर हो चुके थे तो तृप्ति उस पर रोक लगाना चाह रही थी. तरू एक न सुनती. एक दिन तृप्ति प्यार से उस का हाथ सहला रही थी, तभी उस के हाथों के काले निशान पर उस की नजर पड़ी. तुरंत तरू ने सफाई दी, ‘‘कुछ नहीं मौम. मैं स्कूटी ड्राइव करती हूं न, उसी का निशान है,’’ लेकिन उस के बहाने तृप्ति को विचलित कर चुके थे…उंगलियों के बीच में जले के निशान केवल सिगरेट के हो सकते हैं.

तृप्ति अब उस पर नजर रखने लगी. उसे तरहतरह से समझाने का प्रयास करती लेकिन तरू की आंखों पर तो ग्लैमर का चश्मा चढ़ा हुआ था. मोबाइल की घंटी सुनते ही वह भाग जाती थी. तृप्ति हालात को स्वयं ही सुधारने में लगी थी लेकिन तरू उस की एक न मानती.

निराशा एवं हताशा में तृप्ति बीमार रहने लगी तो तपन को चिंता हुई. उन्होंने तरू से कहा, ‘‘तुम कुछ दिन छुट्टी ले कर घर में रहो और मां की देखभाल करो, फिर कुछ दिन मैं छुट्टी ले लूंगा. लेकिन तरू ने एक न सुनी. तपन बहुत नाराज हुए और तृप्ति को ही कोसने लगे. तरू की बरबादी के लिए उसे ही जिम्मेदार बताने लगे. दिन और रात ठहर गए थे. अभी तक तृप्ति परेशान रहती थी अब तपन भी चिंतित और दुखी रहने लगे.

आज तो तरू को बेसिन पर उलटी करते देख कर तृप्ति सिहर गई. उस की बातों ने तो आग में घी का काम किया.

‘‘क्या हुआ, मौम? कोई पहाड़ टूट पड़ा है, क्यों मातम मना रही हो, क्या कोई मौत हो गई है. मैं डाक्टर के पास जा रही हूं, 1 घंटे की बात है, बस, सब नार्मल.’’

तृप्ति फूटफूट कर रो पड़ी. क्या हो गया इस नई पीढ़ी को. यह युवा वर्ग किधर जा रहा है, कहां गईं हमारी मान्यताएं. कहां गई शिक्षा. इतनी जल्दी इतना परिवर्तन. इतनी भटकन, क्या ऐसा संभव है?

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