अंतिम स्तंभ- भाग 1 : बहू के बाद सास बनने पर भी क्यों नहीं बदली सुमेधा की जिंदगी

‘‘तू यह बात किसी को मत बताना’’, वह मेरे हाथों को अपने हाथ में ले कर चिरौरी सी कर रही थी, ‘‘मेरी इतनी बात मान लेना.’’

मेरा मुंह उतर गया. ‘‘क्या रे, तू तो मेरा दिमाग ही खराब कर रही है. मैं तो तेरी दी यह साड़ी पहन कर दुनियाभर में मटकती फिरती हूं कि देखोदेखो सब लोग, मेरी प्यारी सहेली ने कितनी सुंदर साड़ी दी है. और तू कह रही है कि किसी को मत बताना.’’

‘‘तू मेरा नाम मत बताना, बस.’’

‘‘वाह, यह तो कोईर् भी पूछेगा कि इतनी सुंदर साड़ी किस सहेली ने दी, किस खुशी में दी.’’

‘‘तू तो जानती है रे, कितनी मुसीबत हो जाएगी मेरी.’’

‘‘जिंदगीभर मुसीबत ही रही तेरी तो…’’

मेरा मन सच में खराब हो गया. असल में मुझे याद आ गया. 35 बरस पहले भी सुमेधा ने मुझे साड़ी दी थी. ऐसे ही छिपा कर. ऐसे ही कहा था,  ‘किसी को मत बताना.’ अवसर था इस की पहली संतान, ‘पुत्र’ के जन्म का. सासससुर, जेठजेठानी, देवरदेवरानी, ढेर सारे रिश्तेदारों व अतिथियों से भरा घर. पूरे घर में आनंदोत्सव की धूम. वह मुझे अपने कमरे में ले गई थी. अपनी अलमारी खोल एक साड़ी निकाल कर मुझे पकड़ाते हुए बोली, ‘जल्दी से इसे अपने पर्स के भीतर डाल ले. अपने पैसे से खरीद कर लाई हूं. गुलाबी रंग तुझ पर बहुत खिलता है. जरूर पहनना इसे.’

‘तेरे पास पैसा ही कितना बचता है. सारी तनख्वाह तो तू अपनी सासुमां को देती है. अगर साड़ी देने का इतना ही मन था तो आज तो तोहफे में तुझे ढेरों साडि़यां मिली हैं. उन्हीं में से कोई मुझे दे देती.’

‘वे सब साडि़यां, तोहफे तो सासुमां को मिले हैं.’

‘बेटा तेरा हुआ है. लोगों ने तोहफे तुझे दिए हैं?’

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और आज, आज गृहप्रवेश का शुभ अवसर है. उसी बेटे ने बनवाया है शानदार मकान. मकान क्या है, शानदार शाही बंगला है. जाने कहांकहां से ढूंढ़ढूंढ़ कर लाया है एक से एक बेशकीमती साजोसामान. भीतर से बाहर, हर ओर जगमगाते टाइल्स वाले फर्श. दमकती दीवारें. सामने अहाते में रंगबिरंगे फूलों से महकता बगीचा. पोर्टिको में खड़ी नईनवेली चमचमाती कार. बाजू में 2 दमदार दुपहिया वाहन दोनों पतिपत्नी के. रोबदार अलसेशियन कुत्ता. वैभव ही वैभव.

और मुझे याद आ रहा है उस का वह छोटा सा घर. ससुराल का संयुक्त परिवार वाला घर छूटने के बाद पति की नौकरी में जब वह घर बसाने आईर् थी, तो उसे यही घर मिला था. 2 छोटेछोटे कमरे, एक किचन. छोटा सा बरामदा. उसी से लगा निहायत छोटा सा बाथरूमटौयलेट. बरतन मांजने की जगह नहीं. न ही कपड़े सुखाने की.

हम सभी सहेलियों के वे दिन बड़ी भागदौड़ वाले थे. अपनी गृहस्थी से किसी तरह समय निकाल कर दोचार बार गई थी मैं उस के घर. एकदम अकबका जाती थी. इतने बड़े घर की लड़की, कैसे रहती है इस दड़बे जैसे छोटे से फ्लैट में. मगर वह खुश नजर आती.

तड़के सुबह से रात गए फुरसत ही नहीं उसे तो. मुंहअंधरे ही अपने नित्यकर्म से निबट, नाश्ता तैयार करना, चाय बनाना, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना. पति की तैयारी में मदद करना, रूमाल, पेन, डायरी रखना, सब के बैग में टिफिन रखना. सब से अंत में अपने पर्स में टिफिन बौक्स डाल मामूली सी साड़ी लपेट चप्पल फटकारती स्कूल भागना. शाम ढेर सारी कौपियों व सब्जीभाजी के थैलों से लदीफंदी जल्दीजल्दी घर लौटना.

पति, बच्चे सब उस का ही इंतजार करते बारबार दरवाजे पर आ रहे हैं. बाहर निकल कर ताक रहे हैं. उस की छाती खुशी से भर जाती. बच्चों को छाती से लगा झट से काम में जुट जाती. चायनाश्ता खाना. बीचबीच में बरतन साफ करना, पोंछा लगाते जाना. जिस पर सब की अलगअलग फरमाइशें. किसी को पकौड़े चाहिए, किसी को गुलगुले. सब की फरमाइशें पूरी करती सुख सागर में मगन.

ऐसे में कभी कोई सहेली, कोई रिश्तेदार, अतिथि आ जाए तो क्या पूछना. पति उस के भारी मजाकिया. छका डालते अपने मजाकों से सब को. नहले पर दहले भी पड़ते उन पर. वह देखदेख कर विभोर होती.

गृहस्थी का आनंददायक सुख. सुखों से भरे दिन बीतते गए. बच्चे बड़े होते गए. स्कूल, कालेज, नौकरीचाकरी, कामधंधे, शादीब्याह निबटते गए. नातीपोते भी आते गए.

व्यस्तताओं के इस दौर में हमारा संपर्क लंबे अरसे तक नहीं हो पाया. बरसों बाद उसे अपने ही शहर में, अपने ही दरवाजे पर देख कर मेरी तो चीख निकल गई. भरपूर गले मिल कर हम रो लिए. आंसू पोंछ कर मैं पूछने लगी, ‘कैसे आ गई तू अचानक यहां?’

‘मैं तो पिछले कई महीनों से यहां हूं. तेरा घर नहीं ढूंढ़ पा रही थी.’

‘मेरा घर नहीं ढूंढ़ पा रही थी? तेरा तो बचपन ही इन्हीं गलियों में बीता है. इसी सामने वाले घर में तो रहते थे तुम लोग.’

‘वह घर तो मेरे नानाजी का था न. शुरू में हम लोग नानाजी के घर में ही रहते थे. बाद में पिताजी भी नौकरी के साथ जगह बदलते रहे. नानाजी की मृत्यु के बाद यह घर बेच दिया गया. हमारा यहां आना भी छूट गया. एकदो बार तुम्हारे ही घर के शादीब्याह के कार्यक्रम में आए थे, तो तुम्हारे ही घर ठहरे थे.

‘अब तो पूरी गली बदल गई है. बिल्ंिडग ही बिल्ंिडग नजर आती हैं. पूरा शहर ही बदल गया है. मुझे तो अपनी गली ही पकड़ में नहीं आ रही थी. एक बुजुर्ग सज्जन से तेरे पिताजी का नाम ले कर पूछा तो वे बेचारे तेरे दरवाजे तक पहुंचा गए. यह भी बता गए कि यह घर तो एक अरसे से सूना पड़ा था, अब उन की लड़की आ कर रहने लगी है. अच्छा किया जो पति का साथ छूटने के बाद यहां आ गई. पिता के उजाड़ सूने घर में दिया जला दिया तूने तो. मगर यहां पुरानी यादें तो सताती होंगी.’

‘खूब. मगर तू बता रही थी कि तू पिछले कई महीने से यहां है. कहां ठहरी है?’

‘खैरागढ़ रोड पर. एक फ्लैट किराए पर लिया है. मेरा लड़का अब उसी तरफ मकान भी बनवा रहा है.’

‘मकान बनवा रहा है? इस शहर में, क्यों?’

‘बहू यहीं शिक्षाकर्मी हो गई है.’

‘और बेटा?’

‘बेटे का काम तो भागमभाग का है. बहू यहीं रहेगी. वह आताजाता रहेगा, यह सोच कर यहीं मकान बनवा रहा है.’

‘करता क्या है लड़का?’

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‘कंप्यूटर से संबंधित कुछ काम करता है. मैं आजकल के कामधंधे ठीक से समझती नहीं. महीने में 25 दिन तो दौरे पर रहता है. कभी कोलकाता, कभी लखनऊ, कभी धनबाद. जाने कहांकहां. घर आता है तो इतना थका रहता है कि मुझ से तो दो बोल भी नहीं बतिया पाता. अब मकान बनाने में भिड़ गया है तो और दम मारने की फुरसत नहीं.’

फिर वह मेरे घर अकसर ही आने लगी. हम बातें करते रहते. बचपन की, कालेज के दिनों की, अपनीअपनी गृहस्थी की. उस के पति अवकाशप्राप्ति के बाद ही सिधार गए थे. बताने लगी, ‘कह गए थे कि उन के भविष्य निधि वगैरह का पैसा दोनों बेटियों में बांट दिया जाए. मगर लड़के ने उन पैसों से मकान के लिए प्लौट खरीद लिया. कह दिया, बहनों को बाद में कमा कर दे देगा सारा पैसा. युद्ध स्तर पर चल रहा है मकान का काम. सारा पैसा उसी में झोंक रहा है. मुझ से स्पष्ट कह दिया, घर का खर्च तो अभी तुम्हें ही चलाना है, मां. वह नहीं कहता तो भी तो मैं करती ही थी अपनी खुशी से. महीनेभर का राशन, शाकसब्जियां, बच्चों की फरमाइशें, अभी तो पूरी पैंशन इसी सब में जा रही है.’

‘और बहू का पैसा?’

‘बाप रे, मैं उन पैसों के बारे में मुंह से नहीं बोल सकती. जाने क्या सोच कर बेटे ने जमीन का प्लौट भी उसी के नाम लिया है. सोचा होगा कुछ.’

और मैं गृहप्रवेश पर उस के घर गई तो दंग रह गई. यह तो राजामहाराजाओं का शाही बंगला लगता है. आखिर इतना पैसा इस के पास आया कहां से.

मगर वह गदगद थी, बोली, ‘‘बच्चा मेरा जिंदगीभर छोटे से दड़बे में रहा है न. सो, अपने सपनों का महल बनाया है. मेरे लिए इस से बड़ी खुशी की बात और क्या हो सकती है. आज मेरा बहुत मन हो रहा है कि तुझे तेरी पसंद की साड़ी पहनाऊं.’’

मैं ने फिर वही बात कही कि तेरा इतना ही मन है तो जो इतनी साडि़यां तोहफे में आई हैं, मैं उन्हीं में से एक पसंद कर लेती हूं.

‘‘वे सब तो बहू को तोहफे  में मिली हैं. घर बहू का है. मैं तुझे अपनी तरफ से देना चाहती हूं. अपने पैसों से.’’

अगली शाम वह मुझे जिद कर दुकान ले गई. उस का मन रखने के लिए मैं ने एक साड़ी पसंद कर ली. अब वह कहने लगी कि, ‘‘किसी को बताना मत.’’

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उस की इस बात से मेरा मन खराब हो गया. इधर जब से वह वहां आई थी, उस की स्थिति देख कर मेरा मन खराब ही हो जाता था. उस का घर मेरे घर से काफी दूर था. उस तरफ रिकशा या कोई सवारी मिलती ही न थी. घर में 2 दुपहिया वाहन और एक नईनवेली कार थी. मगर वह मेरे घर पैदल ही आती. पोते, पोती और बहू के स्कूल से लौटने के बाद. उस की ओपन हार्ट सर्जरी हो चुकी थी. बुढ़ापे पर पहुंचा जर्जर शरीर. मेरे घर पहुंचते ही पस्त पड़ जाती. मेरे घर में बैठेबैठे घंटों हो जाते, न कोई उसे लेने आता, न खोजखबर लेता. बेटा घर में हो, तब भी नहीं. उलटे, मां को व्यंग्य करता, ‘तुम ही दौड़दौड़ कर सहेली के घर जाती हो. तुम्हारी सहेली तो कभी दर्शन ही नहीं देती.’

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डौलर का लालच : कैसे सेवकराम को ले डूबा मसाज पार्लर का लालच

लेखक- राजेंद्र शर्मा सूदन

सेवकराम फैक्टरी में मजदूर था. वह 12वीं जमात पास था. घर की खस्ता हालत के चलते वह आगे की पढ़ाई नहीं कर सका था, लेकिन उस का सपना ज्यादा पैसा कमा कर बड़ा आदमी बनने का था.

फैक्टरी में लंच टाइम हो गया था. सेवकराम सड़क के किनारे बने ढाबे पर खाना खा रहा था. उस के सामने अखबार रखा था. उस के एक पन्ने पर छपे एक इश्तिहार पर उस की निगाह टिक गई.

इश्तिहार बड़ा मजेदार था. उस में नए नौजवानों को मौजमस्ती वाले काम करने के एवज में 20-25 हजार रुपए हर महीने की कमाई लिखी गई थी. सेवकराम मन ही मन हिसाब लगाने लगा. इस तरह तो वह 5 साल तक भी दिल लगा कर काम करेगा, तो 8-10 लाख रुपए आराम से कमा लेगा.

इश्तिहार में लिखा था कि भारत के मशहूर मसाज पार्लर को जवान लड़कों की जरूरत है, जो विदेशी व भारतीय रईस औरतों की मसाज कर सकें. अच्छा काम करने वाले को विदेशों के लिए भी बुक किया जा सकता है.

इतना पढ़ते ही सेवकराम की आंखों के सामने रेशमी जुल्फें लहराती गोरे गुलाबी तराशे बदन वाली गोरीगोरी विदेशी औरतें उभर आईं, जिन्हें कभी पत्रिकाओं में, फोटो में या फिल्मों में देखा था. अगर उसे काम मिल गया, तो ऐसी खूबसूरत हसीनाओं के तराशे गए बदन उस की बांहों में होंगे. ऐसे में तो उस की जिंदगी संवर जाएगी. फैक्टरी में सारा दिन जान खपाने के बाद उसे 3 हजार रुपए से ज्यादा नहीं मिल पाते. मिल मालिक हर समय काम कम होने का रोना रोता रहता है.

सेवकराम ने उसी समय इश्तिहार के नीचे लिखा मोबाइल नंबर नोट किया और तुरंत फैक्टरी की नौकरी छोड़ने का मन बना लिया.

सेवकराम सीधा दफ्तर गया और बुखार होने का बहाना बना कर 3 दिन की छुट्टी ले ली. इस के बाद वह बाजार गया. वहां पर उस ने 2 जोड़ी नए कपडे़ और जूते खरीदे. वह जब बड़े घरानों की औरतों के सामने जाएगा, तो उस के कपड़े भी अच्छे होने चाहिए.

सेवकराम शाम तक सपनों में डूबा बाजार में घूमता रहा. उस का कमरे पर जाने को मन नहीं हो रहा था. रात का खाना भी उस ने बाहर ढाबे पर ही खाया. वह देर रात कमरे पर गया.

कमरे में 4-5 आदमी एकसाथ रहते थे. उस के तमाम साथी सो गए थे. वह भी अपनी चारपाई पर लेट गया. उस ने अपने साथ वाले लोगों का जायजा लिया कि गहरी नींद में सो गए हैं या नहीं. जब उसे तसल्ली हो गई, तो उस ने इश्तिहार वाला फोन नंबर मिलाया और बात की.

दूसरी तरफ से किसी लड़की की उखड़े हुए लहजे में आवाज गूंजी, ‘इतनी रात गुजरे कौन बेवकूफ बोल रहा है? तुम्हें जरा भी अक्ल नहीं है क्या? सुबह तो होने दी होती… क्या परेशानी है?’

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‘‘मैडमजी, माफ करना. मैं एक परदेशी हूं. हम एक कमरे में 4-5 लोग रहते हैं. मैं आप से चोरीछिपे बात करना चाहता था, इसलिए उन के सोने का इंतजार करता रहा. मैं ने आप का इश्तिहार अखबार में पढ़ा था. मैं आप के मसाज पार्लर में काम करना चाहता हूं. मुझे काम की सख्त जरूरत है.’’ सेवकराम ने बेहद नरम लहजे में कहा था. इस से दूसरी तरफ से बोल रही लड़की की आवाज में भी मिठास आ गई थी. ‘ठीक है, तुम ने हमारा इश्तिहार पढ़ा होगा. हमारे मसाज पार्लर की कई जवान औरतें, लड़कियां हमारी ग्राहक हैं, जिन की मसाज के लिए हमें जवान लड़कों की जरूरत रहती है. तुम बताओ कि मर्दों की मसाज करोगे या जवान औरतों की?’

यह सुनते ही सेवकराम रोमांचित हो उठा. उसे तो ऐसा महूसस हुआ, जैसे उसे नौकरी मिल गई है. उस की आवाज में जोश भर उठा. वह शरमाते हुए बोला, ‘‘मैडमजी, मेरी उम्र 30 साल है. मुझे जवान औरतों की मसाज करना अच्छा लगता है. मैं अपना काम मेहनत और ईमानदारी से करूंगा.’’

‘ठीक है, तुम्हें काम मिल जाएगा. बस, इतना ध्यान रखना होगा कि उस समय कोई शरारत नहीं होनी चाहिए, वरना नौकरी से निकाल दिए जाओगे,’ दूसरी तरफ से बेहद सैक्सी अंदाज में जानबूझ कर चेतावनी दी गई, तो सेवकराम रोमांटिक होते हुए बोला, ‘‘जी, मैं अपना काम समझ कर करूंगा. मेरे मन में उन के लिए कोई गलत भावना नहीं आएगी.’’

‘ठीक है, तुम्हारा नाम मैं रजिस्टर में लिख लेती हूं. कल दिन में तुम करिश्मा बैंक में 10 हजार रुपए हमारे खाते में जमा करा दो. रुपए जमा होते ही तुम्हारा एक पहचानपत्र भी बनाया जाएगा. जिसे दिखा कर तुम देश के किसी भी शहर में काम के लिए जा सकते हो,’ उधर से निर्देश दिया गया.

यह सुन कर सेवकराम कुछ परेशान हो गया और बोला, ‘‘मैडमजी, 10 हजार रुपए तो कुछ ज्यादा हैं.’’ ‘ठीक है, फिर हम तुम्हारा पहचानपत्र नहीं बनाएंगे. अगर तुम्हें पुलिस ने पकड़ लिया, तो क्या जेल जाना पसंद करोगे?’

‘‘क्या ऐसा भी हो जाता है मैडमजी?’’ सेवकराम ने थोड़ा घबराते हुए पूछा.

‘ऐसा हो जाता है सेवकरामजी. ये परदे में करने वाले काम हैं. पुलिस पकड़ लेती है. बोलो, क्या तुम पुलिस के चक्कर में फंसना चाहते हो?’

‘‘ठीक है मैडमजी, मैं कल ही 10 हजार रुपए जमा करा दूंगा. बस, आप मेरा पहचानपत्र बनवा कर तुरंत काम पर बुलाइए. मैं ज्यादा दिन बेरोजगार नहीं रह सकता,’’ सेवकराम ने कहा, तो फोन कट गया.

उस रात सेवकराम सो नहीं सका. उस के दिलोदिमाग में खूबसूरत, जवान औरतों के दिल घायल करते हुए जिस्मों के सपने छाए रहे. सारी रात ऐसे ही गुजर गई.

अगले दिन सेवकराम सीधे बैंक पहुंचा और अपनी पासबुक से 20 हजार रुपए निकाले. 10 हजार रुपए तो उस ने रात फोन पर बताए गए खाते में जमा करा दिए और बाकी के 10 हजार रुपए अपने खर्चे के लिए रख लिए. अब वह लाखों रुपए कमाएगा.

सेवकराम को तो अब मसाज पार्लर के दफ्तर से फोन आने का इंतजार था. इसी इंतजार में 4-5 दिन गुजर गए, मगर उस औरत का फोन नहीं आया.

सेवकराम को अब बेचैनी होना शुरू हो गई. उस ने 10 हजार नकद खाते में जमा कराए थे. इंतजार की घडि़यां काटनी मुश्किल होती हैं, फिर भीउस ने 7 दिनों तक इंतजार किया.

आखिर में सेवकराम ने ही फोन कर के पूछा, तो दूसरी तरफ से किसी औरत की आवाज गूंजी, मगर वह आवाज पहले वाली नहीं थी. उस के बात करने का लहजा जरा कड़क और गंभीर था.

‘‘क्या बात है मैडमजी, मुझे 10 हजार रुपए आप के खाते में जमा कराए 7-8 दिन गुजर गए हैं. अभी मेरा परिचयपत्र भी नहीं मिला है. मुझे काम की सख्त जरूरत है.’’

‘आप बेफिक्र रहें. आप का परिचयपत्र तैयार है. हमारी मसाज पार्लर कमेटी ने एक टीम बनाई है, जिस में आप का नाम भी शामिल है. इस टीम को विदेशों में भेजा जाएगा.’

सेवकराम खुशी से उछल पड़ा. वह चहकते हुए बोला, ‘मैडमजी, जल्दी से टीम को काम दिलाओ. विदेश में तो काम करने के डौलर मिलेंगे न?’’

‘हां, वहां से तो तुम लोगों की पेमेंट डौलरों में होगी,’ औरत ने बताया, तो थोड़ी देर के लिए सेवकराम सीने पर हाथ रख कर हिसाब लगाता रहा. आंखों के सामने नोटों के बंडल चमकते रहे. अपनी बेताबी जाहिर करते हुए उस ने पूछा, ‘‘अब देर क्यों की जा रही है? हम तो काम के लिए कहीं भी जाने को तैयार हैं.’’

‘आप सब के परिचयपत्र मंजूरी के लिए विदेश मंत्रालय भेजे जाने हैं. अगर भारत सरकार से मंजूरी मिल गई, तो तुम लोग किसी भी देश में बेधड़क हो कर काम कर सकते हो, मगर भारत सरकार की मंजूरी दिलाने के लिए 20 हजार रुपए का खर्चा आएगा. आप को 20 हजार रुपए उसी खाते में जमा कराने होंगे.’

‘‘मैडमजी, इतनी बड़ी रकम तो बहुत ज्यादा है. हम तो गरीब आदमी हैं,’’ सेवकराम की तो मानो हव  निकल गई थी. उस का जोश ढीला पड़ने लगा था.

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‘हम मानते हैं कि 20 हजार रुपए ज्यादा हैं, मगर यह सोचो कि जब तुम अलगअलग देशों में जाओगे, वहां से वापस आने पर लाखों रुपए ले कर आओगे. सोच लो, अगर विदेश नहीं जाना चाहते हो, तो रहने दो,’ औरत ने दूसरी तरफ से कहा, तो सेवकराम पलभर के लिए खामोश रहा, फिर जल्दी ही वह बोला, ‘‘ठीक है, मैं 20 हजार रुपए आप के खाते में जमा करा दूंगा. बस, मेरा काम सही होना चाहिए.’’

सेवकराम ने ठंडे दिमाग से सोचा, तो उसे यह काम फायदे का लगा. बेशक, 20 हजार रुपए उस के पास नहीं थे, फिर भी अगर उधार उठा कर लगा देगा, तो बाहर के पहले टूर में लाखों रुपए वारेन्यारे कर देगा, इसलिए 20 हजार रुपए उन के खाते में जमा कराना ही फायदे में रहेगा.

सेवकराम ने इधरउधर से रुपए उधार लिए और उसी खाते में जमा करा दिए. अब वह इंतजार करने लगा. उसे यकीन था कि उसे बुलाया जाएगा.

सेवकराम को इंतजार करतेकरते 10 दिन गुजर गए. सेवकराम के मन में तमाम तरह के खयाल आ रहे थे. वह इस मुगालते में था कि दफ्तर वाले खुद फोन करेंगे. वह महीने भर से काम छोड़ कर बैठा था. जमापूंजी खर्च हो चुकी थी. ऊपर से 20 हजार रुपए का कर्जदार और हो गया था.

काफी इंतजार करने के बाद सेवकराम ने उसी फोन नंबर पर फोन किया, तो मोबाइल बंद मिला. काफी कोशिश करने के बाद भी उस नंबर पर बात नहीं हुई. उस के पैरों तले जमीन खिसक गई.

वह उसी पल उस बैंक में गया, जहां अजनबी खाते में उस ने 30 हजार रुपए जमा कराए थे. वहां से पता चला कि वह खाता वहां से 5 सौ किलोमीटर दूर किसी शहर में किसी बैंक का था. अब उस खाते में महज 4 रुपए कुछ पैसे बाकी थे.

सेवकराम थाने में गया, लेकिन पुलिस ने उस की शिकायत लिखने की जरूरत नहीं समझी. थकहार कर वह कमरे पर लौट आया. विदेशों में जा कर खूबसूरत औरतों की मसाज करने के एवज में लाखों डौलर कमाने के चक्कर में सेवकराम ने अपनी जमापूंजी गंवा दी, साथ ही 20 हजार रुपए का कर्जदार भी हो गया. लालच में वह न तो घर का रहा और न घाट का.

Short Story: तोहफा अप्रैल फूल का

लेखक- नरेश कुमार पुष्करना

अप्रैल की पहली तारीख थी. चंदू सुबह से ही सब से मूर्ख बननेबनाने की बातें कर रहा था. इसी कशमकश में वह स्कूल पहुंचा, लेकिन स्मार्टफोन पर बिजी हो गया. हमेशा गैजेट्स की वर्चुअल दुनिया में खोया रहने वाला चंदू स्मार्टफोन से व्हाट्सऐप पर गुडमौर्निंग के मैसेजेस कौपीपेस्ट कर रहा था कि अचानक व्हाट्सऐप पर एक मैसेज आया. इस मैसेज को पढ़ने और इंप्लीमैंट करने के बाद जो नतीजा उस के सामने आया उस से वह ठगा सा रह गया. दरअसल, किसी ने उसे अप्रैल फूल बनाया था. वह खुद पर खिन्न था लेकिन तभी उसे खुराफात सूझी. अत: उस ने भी अपने सभी दोस्तों को अप्रैल फूल बनाने की सोची और अपने सभी कौंटैक्ट्स पर उस मैसेज को कौपी कर दिया.

उस के कौंटैक्ट्स में उस की क्लास टीचर अंजू मैडम का नंबर भी था, सो मैसेज उन के नंबर पर भी फौरवर्ड हो गया. मैसेज में लिखा था, ‘क्या आप किसी अमित कुमार को जानते हैं? वह कह रहा है कि वह आप को जानता है. उसे आप का फोन नंबर दूं या आप को उस का फोटो सैंड करूं. मेरे पास उस का फोटो है. आप बोलें तो दूं नहीं तो नहीं.’

संयोग से मैडम के वुडबी का नाम भी अमित था, सो उन्हें बड़ी हैरानी हुई. उन्होंने आननफानन में रिप्लाई किया कि फोटो भेज दो और उन्हें मेरा नंबर भी दे दो, लेकिन जवाब में चंदू ने उन्हें फोटो भेजा तो वे ठगी रह गईं. फिर नीचे लिखे मैसेज को पढ़ कर हैरान हुईं. लिखा था ‘अप्रैल फूल बनाया.’ उस फोटो में अंगरेजी फिल्म ‘द मम्मी’ के प्रेतात्मा वाले करैक्टर का भद्दा चित्र था. मैम को चंदू पर बहुत गुस्सा आया. सो उन्होंने उसे सबक सिखाने की सोची. ‘अपने से बड़ों से मजाक करता है. इसे सबक सिखाना ही होगा.’ लेकिन साथ ही वे संदेश भी देना चाहती थीं कि मजाक हमउम्र से ही करे.

चंदू, जिस का पूरा नाम चंद्रप्रकाश था, 11वीं कक्षा का छात्र था. पढ़ाई में निखद लेकिन बात बनाने में आगे. तिस पर उसे छोटेबड़े का भी लिहाज न था. हमेशा गैजेट्स की वर्चुअल दुनिया में ही खोया रहने वाला चंदू स्मार्टफोन मिलने के बाद तो और खो गया था. हर समय, चैटिंग, व्हाट्सऐप, यूट्यूब में लगा रहता. प्रार्थना के बाद जब सब क्लासरूम में आए तो क्लास टीचर अंजू क्लास में आते ही बोलीं, ‘‘आज सुबह से ही तुम सब एकदूसरे को अप्रैल फूल बना रहे हो. चलो, मैं भी तुम्हें खेलखेल में फन के रूप में पढ़ाती हूं. मैं इतिहास विषय से कुछ प्रश्न पूछूंगी, जो सब से ज्यादा सही उत्तर देगा उसे इनाम दिया जाएगा. शर्त यह है कि वह किसी तरह मुझे अप्रैल फूल भी बनाए.’’

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मैम ने पहला प्रश्न पूछा, ‘‘बाबर का जन्म कब हुआ था?’’ सभी छात्र शून्य में देखने लगे लेकिन पीछे बैठा चंदू झट से बोला, ‘‘14 फरवरी, 1483.’’

‘‘सही जवाब,’’ मैम ने कहा और अगला प्रश्न दागा, ‘‘क्रीमिया का युद्ध कब से कब तक चला?’’

इतिहास की तिथियां किसे याद रहती हैं. अत: सभी चुप थे. तभी चंदू फिर बोला, ‘‘जुलाई 1853 से सितंबर 1855 तक.’’

‘‘बिलकुल सही,’’ एक बार फिर तालियां बजीं. तभी प्रीति बोल पड़ी, ‘‘मैम आप के बालों पर चौक लगा है.’’

‘‘हां, मुझे पता है,’’ कह कर वे चुप हो गईं. दरअसल, प्रीति ने मैम को अप्रैल फूल बनाना चाहा था. फिर मैम ने अगला प्रश्न पूछा, ‘‘कुतुबमीनार किस ने बनवाई थी?’’ इस बार कईर् छात्रों के हाथ खड़े थे, लेकिन अंजू मैडम ने जानबूझ कर चंदू से ही पूछा तो उस ने भी सटीक उत्तर बता दिया, ‘‘गुलाम वंश के संस्थापक कुतबुद्दीन ऐबक ने.’’

‘‘सही उत्तर,’’ कह कर मैम ब्लैक बोर्ड की ओर मुड़ीं तो राहुल बोल पड़ा, ‘‘मैम, आप की साड़ी के पल्लू पर छिपकली है.’’

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अंजू मैम जानती थीं कि अप्रैल फूल बनाया जा रहा है, सो बोलीं, ‘‘तुम हटा दो.’’ अब मैम जो भी प्रश्न पूछतीं पीछे डैस्क पर बैठा चंदू उस का सही जवाब बताता. 10 में से केवल एक सवाल का उत्तर अन्य छात्र ने दिया. बाकियों ने सिर्फ अप्रैल फूल बनाने की नाकाम कोशिश की. सभी छात्र इस बात से भी हैरान थे कि फिसड्डी चंदू आज इतनी आसानी से बिलकुल सटीक उत्तर कैसे दे रहा है? अंत में नतीजा सुनाती अंजू मैम बोलीं, ‘‘आज के इस चैलेंज में ज्यादा से ज्यादा सवालों के सही जवाब चंदू ने दिए और अप्रैल फूल भी उसी ने बनाया,’’ कहती हुई मैम चंदू की सीट पर गईं और उस के हाथ से मोबाइल छीनती हुई बोलीं, ‘‘देखो, यह सभी प्रश्नों के उत्तर नैट से गूगल सर्च कर के दे रहा था.’’

फिर वे चंदू की ओर मुखातिब होती हुई बोलीं, ‘‘चंदू, आखिरी पीरियड में आ कर मुझ से अपना मोबाइल और अप्रैल फूल का तोहफा ले जाना.’’ सभी बच्चे हैरान थे कि चंदू ने बैठेबैठे खेलखेल में इनाम जीत लिया. सभी को इस बात से चंदू से ईर्ष्या थी, लेकिन चंदू बहुत खुश था. आखिरी पीरियड में चंदू अंजू मैम के पास गया तो उन्होंने उसे एक बड़ा सा डब्बा थमा दिया, जिसे बहुत ही सुंदर पैकिंग से पैक किया हुआ था. ऊपर चिट लगी थी, ‘‘चंदू को अप्रैल फूल का तोहफा मुबारक.’’ चंदू ने खुशीखुशी तोहफा लिया और क्लासरूम में आ कर बड़े उत्साह से खोलने लगा. तोहफे का डब्बा खोलते समय वह फूला नहीं समा रहा था. चंदू ने पैकिंग पेपर हटाया औैर डब्बा खोला. वह तोहफा देखने को खासा उत्सुक था. उस के आसपास अन्य छात्र भी इकट्ठे हो तोहफा देखने को उत्सुक दिखे. डब्बे को खोलने पर उसे अंदर एक और छोटा डब्बा मिला. चंदू हैरान था. अब इस डब्बे को खोला तो अंदर एक और डब्बा था. चंदू नरवस हो गया. डब्बे में डब्बा खोलते उस के पसीने छूट गए. वह सोचने लगा, ‘मैम ने अच्छा तोहफा दिया है कि खोलते रहो.’

एक छात्र बोला, ‘‘लगता है चंदू को मैम ने अप्रैल फूल बनाया है, डब्बे में डब्बा ही खुलता जा रहा है.’’ ‘हां, शायद अप्रैल फूल के तोहफे में अप्रैल फूल ही बनाया है मैम ने,’ सोचता हुआ चंदू डब्बे खोलता गया लेकिन अंत में जो डब्बा मिला उसे पा कर वह फूला न समाया. यह अत्यंत महंगे मोबाइल फोन का डब्बा था.  चंदू खुश हो गया. उसे लगा मैम ने इतना महंगा फोन गिफ्ट किया है, लेकिन ज्यों ही उस ने मोबाइल फोन का डब्बा खोला, उस में मोबाइल के बजाय एक पत्र पा कर हैरान हुआ. फिर पत्र निकाल कर पढ़ने लगा. लिखा था,‘चंदू तुम्हें अप्रैल फूल का तोहफा मुबारक हो. तुम ने सुबह मुझे मैसेज कर अप्रैल फूल बनाया, मुझे बहुत पिंच हुआ. संयोग से मेरे वुडबी का नाम भी अमित है सो मैसेज का संबंध उन से जुड़ा, लेकिन बाद में तुम्हारे द्वारा भेजा ‘ममी’ का फोटो देख दिल धक्क रह गया. तुम्हें मजाक करते समय यह भी खयाल नहीं रहा कि तुम मजाक किस से कर रहे हो. उस की उम्र क्या है. तुम से संबंध क्या है. तुम्हें इस तरह की हरकतें अपने हमउम्र के साथ ही करनी चाहिए, बड़ों के  साथ नहीं. ‘दूसरे, तुम ने स्कूल में मोबाइल लाने की गलती की, क्योंकि स्कूल में मोबाइल अलाउड नहीं होता. तुम जानते ही हो. तिस पर तुम ने गूगल सर्च कर कर के प्रश्नों के उत्तर दिए और मुझे फूल बनाया. इस तरह तुम सटीक उत्तर दे पाए परंतु क्या खुद को परख पाए? परीक्षा खुद को परखने का पैमाना है. स्कूल परीक्षा में मोबाइल भी नहीं होगा, तब क्या करोगे? ‘समय से चेत जाओ और गैजेट्स की वर्चुअल दुनिया से बाहर आ कर ऐक्चुअल में विचरण करो. गैजेट्स का सही इस्तेमाल सीखो. नैट से नकल के बजाय हैल्प लो और अपने नोट्स बनाओ. परीक्षा की तैयारी करो. मैं ने पहले भी जब क्लास टैस्ट लिए हैं तुम्हें मोबाइल सर्च करते पाया है, पर तुम्हारी बेइज्जती न हो इसलिए चुप थी. आज का नाटक भी तुम्हारे कारण किया. तभी मैं तुम से ही सब प्रश्न पूछ रही थी और तुम उत्साह में नैट से देख कर उत्तर देते रहे. मेरा फर्ज था समय रहते तुम्हें चेताऊं. आगे से मजाक हमउम्र लोगों से करना साथ ही पढ़ाई के लिए स्मार्टफोन का इस्तेमाल करो इस से गैजेट्स का सही इस्तेमाल भी होगा और तुम्हारा भला भी. हैप्पी अप्रैल फूल.

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‘तुम्हारी क्लास टीचर

‘अंजू.’

चंदू ने पत्र फोल्ड कर के जेब में रख लिया लेकिन उस में लिखी बातों ने उस के हृदय को झकझोर कर रख दिया. सभी साथी भी उसे हमदर्दी की नजरों से देख रहे थे. उसे सबक मिल गया था. ‘वाकई अगर वह डिजिटल दुनिया से निकल कर ऐक्चुअल तैयारी करे तो परीक्षा में अच्छे अंक ही नहीं लाएगा बल्कि टौप भी करेगा. अगली परीक्षा में वह इन बातों पर जरूर अमल करेगा और अप्रैल फूल के इस तोहफे को जीवन का टर्निंग पौइंट मान कर संभाल कर रखेगा.’ यह संकल्प लेते हुए चंदू ने पत्र जेब में डाला और नैट पर परीक्षा सामग्री सर्च कर डायरी में नोट्स बनाने बैठ गया.

अंतिम स्तंभ- भाग 3 : बहू के बाद सास बनने पर भी क्यों नहीं बदली सुमेधा की जिंदगी

दुख और क्षोभ में भरी सहेली कुछ पल खामोश खड़ी देखती रही. आंखों में पानी उतर आया. आंखें पोंछ कर प्लेटों में पकौड़े डाले. चटनी निकाली. ले जा कर सहेलियों को परोसा और हाथ जोड़ कर आग्रह किया, ‘‘यही स्वागत कर पा रही हूं तुम लोगों का.’’ फिर किचन में जा कर हाथ जोड़ कर प्रार्थना की, ‘‘कृपा कर के अब बनाना बंद करो. माफी चाहती हूं मैं ने तुम्हें डिस्टर्ब किया.’’

सहेलियां तो दुखी मन से उस की चर्चा करते शाम की ट्रेन से चली गईं अपनेअपने शहर, पर मैं परेशान ही रही. अगली शाम को वह खुद आ गई मेरे घर. वैसे ही जर्जर शरीर ढोते, हांफतेहांफते. बोली, ‘बच्चे स्कूल से आ गए, बहू भी. तब आ पाई हूं. चाय पिला.’

मैं ने जल्दी से चाय बनाई. नाश्ता बनाने के लिए चूल्हे पर कढ़ाई चढ़ाई कि वह बोली, ‘‘बनाना छोड़, घर में कुछ हो तो वही दे दे.’’

मुझे संकोच हो आया, ‘‘सवेरे मेथी के परांठे बनाए थे. जल्दी काम निबटाने के चक्कर में आखिरी लोइयों को मसल कर 2 मोटेमोटे परांठे बना लिए थे. वही हैं. तू दो मिनट रुक न. मैं बढि़या सा कुछ बनाती हूं.’’

एकदम अधीर सी वह कहने लगी, ‘‘मुझे मेथी के मोटे परांठे ही अच्छे लगते हैं. तू दे तो सही.’’

उस की बेताबी देख मैं ने वही मोटेमोटे परांठे परोस दिए. चटनी थी. वह धड़ल्ले से खाने लगी. खा कर चाय पीने लगी तो मैं ने पूछा, ‘‘तू भूखी थी क्या?’’

उस की आंख में पानी उतर आया, बोली, ‘‘हां.’’

‘‘हो क्या गया?’’

उस का गला भर आया. कुछ रुक कर बोली, ‘‘कांड ही हो गया था. मेरे हाथ जोड़ कर माफी मांगने के बाद बहू अपने कमरे में जा कर मुंह लपेट कर औधेमुंह पलंग पर पड़ गई. मैं ने जा कर चौका समेटा. बचे हुए ढेर सारे घोल में से कुछ फ्रिज में रखा. बाकी कामवाली को दे दिया. पकौड़ों में से भी कुछ रखा, बाकी कामवाली को दिया. रात का खाना बना कर बच्चों को खिलाया.

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‘‘उसे खाने के लिए बुलाया तो भड़क गई, ‘मुझे चैन से जीने देना है कि नहीं. नम्रता का आवरण ओढ़े मुझे टौर्चर करती रहती है धूर्त बुढि़या.’ मैं भी पगला गई, ‘तुम चाहती हो कि मैं मर जाऊं. मौत आएगी तभी न मरूंगी.’

‘‘अपनी दयनीय विवशता पर मैं रोती जाऊं और लड़ती जाऊं. वह भी रोती जाए और लड़ती जाए. उस का मुख्य आरोप था कि मैं पाखंडी हूं. अपने को श्रेष्ठ समझती हूं और उसे हमेशा नीचा दिखाने के चक्कर में रहती हूं. दुख से मेरा कलेजा फटा जा रहा था. मैं भी अपने कमरे में जा कर बिस्तर में रोती पड़ी रही. रातभर नींद नहीं आई. मुझ से कहां गलती होती है, यही समझ में नहीं आया.

‘‘आधी रात के करीब बेटा आया. सीधे अपने कमरे में गया. मैं सहमीसटकी आहट लेती रही, क्या खाना परोसने जाऊं. मगर कुछ देर बाद बेटा खुद कमरे में आ गया, बोला, ‘मां, तुम लोग मुझे जीने दोगी कि नहीं. मैं तुम से कितनी बार कह चुका हूं कि उस में सहनशक्ति नहीं है. उसे डिस्टर्ब मत किया करो. वह भूखीप्यासी स्कूल से आई कि लड़के चले आए. किसी तरह लड़कों को पढ़ा रही थी कि तुम ने अपनी सहेलियों के लिए नाश्ता बनाने का फरमान सुना दिया. मां, आखिर तुम चाहती क्या हो? तुम हम को छोड़ कर तो रह नहीं सकतीं, तुम खुद जानती हो. तुम समय से पिछड़ चुकी हो. तुम्हें तो एटीएम से पैसा निकालना तक नहीं आता.’

‘‘तुझे एटीएम से पैसा निकालना नहीं आता सुमेधा?’’ मैं हैरान हो गई.

‘‘मैं कभी गई ही नहीं. तेरे जीजाजी के बाद से बैंक वगैरह के सारे कागजात बेटे के पास ही रहते हैं. मुझ से सिर्फ दस्तखत लेता रहा है. एटीएम से पैसा निकाल कर वही देता रहा है. वह न हो, तो बहू ला देती है.’’

‘‘तुझे पता है वे कितना निकालते हैं, तुझे कितनी पैंशन मिलती है?’’

‘‘वे मेरे हाथ में वही रकम थमा देते हैं, जो मुझे शुरू में मिलती थी.’’

मैं सिर पकड़ कर बैठ गई, बोली, ‘‘वह सब मैं तुझे सिखा दूं. मगर यह बता, क्या तू इन को छोड़ कर कहीं अलग सच में नहीं रह सकती?’’

‘‘फायदा क्या है. यहां मैं बेटे की सूरत तो देख सकती हूं. पोतेपोती से बोलबतिया तो लेती हूं. मैं जानती हूं, ये लोग मुझे मूर्ख, गंवार और अवांछित प्राणी समझ कर अपमानित करते रहते हैं. कुत्ता भी इन का अपना है, दुलारा है. मगर मैं नहीं. मैं क्या करूं. मुझ में इन के लिए ही प्रेम उमड़ता है. फिर बीचबीच में बेटियां आ जाती हैं. दामाद और बच्चे भी. मेरी छाती भर आती है. बेहद सुख लगता है. कभी देवरजेठभतीजेभतीजी वगैरह भी आ जाते हैं.

‘‘बहू अपने मायके वालों के अतिरिक्त किसी का आना पसंद नहीं करती. कई बार अपने कमरे से बाहर भी नहीं निकलती. मगर ये लोग बहुत समझदार हैं. उस के कमरे में जा कर खुद बोलबतिया लेते हैं. बेटियां तो अकसर भाभी के लिए तोहफे ले कर आती हैं. भरेपूरे मायके में आने से उन का भी तो ससुराल में मान बढ़ता है. इन्हीं सब से इस परिवार की प्रतिष्ठा बनी हुई है.

‘‘बहू को तो परिवार की प्रतिष्ठा की समझ नहीं है. शायद आजकल की अधिकतर युवतियों को ही नहीं है. अपना पति, अपने बच्चे, अपनी शानशौकत से भरी जिंदगी, अपना अधिकार, अपनी सत्ता. इन सब के लिए चाहिए पैसा. बटोर सको तो बटोरो. इसी में चौंधियाई हुई हैं. प्रतिष्ठा की फिक्र तो हम जैसों को होती है. सच तो यह है, मुझे जितना प्रेम अपने बेटेबेटी, नातीपोते से है, उतना ही परिवार की प्रतिष्ठा से है. बल्कि कुछ ज्यादा ही. अपने जीतेजी तो मैं इस प्रतिष्ठा को बचाए ही रखूंगी.’’

उस की आंखों में पानी छलछला आया था, ‘‘जाने मेरी मौत के बाद इस परिवार की प्रतिष्ठा का क्या होगा?’’

परिवार की प्रतिष्ठा. अच्छे से जानती हूं कि यह तो उस की घुट्टी में रही है. याद आया, कालेज के दूसरे साल में थी कि वह पड़ोस के एक लड़के से प्रेम कर बैठी थी. लड़का एमए का छात्र था. यह कुछकुछ पूछने उस के पास जाती थी. भीतर ही भीतर प्रेम का सागर हिलोरें ले रहा था. मगर बातें हो पातीं सिर्फ पढ़ाई की. मुझ से कहने लगी, ‘तू उस से पूछ न, क्या वह मुझे चाहता है.’

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लड़का पहले ही मुझे अपने जज्बात बता चुका था, मैं बोली, ‘अगर वह ‘हां’ में जवाब दे तो क्या तू उस से शादी कर सकेगी?’ वह एकदम खामोश हो गई. फिर बोली, ‘मैं ऐसा नहीं कर सकती. वह दूसरी बिरादरी का है. बाबूजी को बहुत दुख होगा. समाज में हमारे परिवार की बदनामी होगी.’ उस की आंखें छलछलाने लगी थीं, आगे बोली, ‘मैं इस दारुण दुख को चुपचाप पी लूंगी, मगर परिवार की प्रतिष्ठा कलंकित नहीं कर सकती.’

और आज…?

आज भी उस की आंखों में पानी छलछला आया था, ‘‘जाने मेरी मौत के बाद इस परिवार की प्रतिष्ठा का क्या होगा?’’

भीगे नेत्रों से देखती रह गई मैं. परिवार की प्रतिष्ठा का भारी बोझ उठाए उस जर्जर अंतिम स्तंभ को. घर में दुपहिया वाहन और एक नईनवेली कार थी. मगर वह मेरे घर पैदल ही आती, पोते, पोती और बहू के स्कूल से लौटने के बाद. उस की ओपन हार्ट सर्जरी हो चुकी थी. बुढ़ापे पर पहुंचा जर्जर शरीर. मेरे घर पहुंचते ही पस्त पड़ जाती.

यह भी खूब रही. मेरे बेटे का मित्र आशीष, दिल्ली के इंदिरागांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर यूरोप के एक देश की एयरलाइंस कार्यालय में नौकरी करता है. यह एयरलाइंस अपने कर्मचारियों को अपने देश में घूमने के लिए डिस्काउंट टिकट और होटल में ठहरने की सुविधा भी देती है.

इसी सुविधा के अंतर्गत जब वह पहली बार यूरोप में उन के देश घूमने गया तो होटल के कमरे में अपना समान रख कर बालकनी की तरफ लगे शीशे के दरवाजे के हैंडल को नीचे की ओर शीघ्रता से घुमा कर खोलने लगा तो ऊपर की ओर से पूरा का पूरा दरवाजा दोनों ओर से खुल गया और उस के ऊपर गिरने लगा. उस ने दरवाजे को कई बार टिकाना चाहा लेकिन जैसे ही वह उसे छोड़ने का प्रयास करता वह तेजी से उस के ऊपर गिरने लगता.

अपने दोनों हाथों से उस ने दरवाजों को संभाल रखा था. उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे, तभी किसी ने मुख्य दरवाजे की घंटी बजाई. आशीष ने जोर से चिल्लाते हुए उसे अंदर आने को कहा. जैसे ही दरवाजा खुला तो होटल का वह कर्मचारी भीतर का दृश्य देख कर चौंक गया. वह कर्मचारी उस के पास आया और उस ने आशीष का हाथ पकड़ कर उसे वहां से हटाया और उसे दरवाजे की तकनीक समझाई.

नया व्यक्ति, जो इस तकनीक को नहीं जानता है, वह आम दरवाजे जैसे ही हैंडल नीचे की ओर कर, दरवाजे को खोलने की कोशिश करता है, तो उसे पूरा का पूरा दरवाजा खुल कर नीचे गिरने जैसा लगता है. आज भी यूरोप घूमने जाने पर ऐसे दरवाजेखिड़कियां खोलते ही यह वाकेआ ताजा हो जाता है और सब आशीष का नाम ले कर खूब ठहाके लगाते हैं.

मेरे एक बहुत ही घनिष्ठ मित्र हड्डी रोग विशेषज्ञ हैं. उन का क्लिनिक घर के पास ही है. उन की नईनई शादी हुई थी. कुछ दिनों बाद उन की पत्नी की मौसी उन के यहां आईं. जब भी वे मरीजों के प्लास्टर चढ़ाते तो घर पास में होने के कारण घर आ जाते और स्नान वगैरह करते. जब वे घर आते तो उन के कपड़े चूने से सने होते थे. उन्हें ऐसी हालत में मौसी रोज देखतीं.

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लौट कर मौसी अपनी बहन के घर जा कर बोलीं, ‘‘तुम तो कहती हो कि लड़का डाक्टर है, पर मुझे तो लगता है वह सफेदी करने वाला है. घर में जब भी आता है, सारे कपड़े चूने से सने रहते हैं.’’

आज भी डाक्टर साहब इस बात को याद कर के हंस पड़ते हैं.

अंतिम स्तंभ- भाग 2 : बहू के बाद सास बनने पर भी क्यों नहीं बदली सुमेधा की जिंदगी

मुझे सच में उन के घर जाना सुखद न लगता. मेरे जाते ही पोतेपोती अपना वीडियो गेम छोड़ कर आ कर जम जाते दादी के कमरे में. कान लगाए सुनते रहते हमारी बातें. बच्चों की आंखों में कहीं बालसुलभ मासूमभाव नहीं. अजीब उपेक्षा और हिकारतभरा भाव होता. दादी के कंधे पर चढ़ रहे हैं… ‘दादी, चलो, हम को होमवर्क कराओ.’ दादी की हिम्मत नहीं कि झिड़क सकें, ‘जाओ, बाहर खेलो,’ उन के शातिरपने का किस्सा भी सुन चुकी हूं मैं.

कुछ दिनों पहले सहेली की छोटी बेटी की लड़की हुई थी. मैं घर आई तो बोली, ‘‘बच्ची की छठी में जाना है. छोटी सी सोने की चेन देने का मन है. किसी अच्छे ज्वैलर की दुकान से दिलवा दे.’’ मैं उसे अपने परिचित ज्वैलर की दुकान में ले गई. उस ने एक चेन पसंद की. मगर जैसा लौकेट वह चाहती थी, वैसा दुकान में था नहीं. दुकानदार ने कहा, ‘‘4 दिनों में वह वैसा लौकेट बनवा देगा.’’

4 दिनों बाद वह दुकान में गई, अकेले ही. लौकेट लिया. घर लौटी. बेटाबहू, बच्चे सामने अहाते में ही कुरसियां डाले बैठे थे. बेटा बोला, ‘कहां गई थी मां?’

उस ने मेरा नाम बता दिया.

10 वर्षीय पोता आंखें तरेर कर बोला, ‘‘इतना झूठ क्यों बोलती हो, दादी. तुम तो ज्वैलर की दुकान से लौकेट ले कर आ रही हो.’’

सहेली का चेहरा फक पड़ गया, ‘‘कैसे कह रहा है तू यह?’’

‘‘मैं गया था न तुम्हारे पीछेपीछे. जब तुम लौकेट पसंद कर रही थीं, मैं तुम्हारे ही तो पीछे बैठा था सोफे पर.’’

सारा किस्सा सुन कर मैं अवाक रह गई, ‘‘उस लड़के को यह कैसे पता चला कि तू ज्वैलर की दुकान जा रही है?’’

‘‘मैं मोबाइल पर ज्वैलर से पूछ रही थी, क्या लौकेट बन कर आ गया? लड़के ने सुन लिया होगा. उस ने मां को बताया होगा. और मां ने बेटे को मेरे पीछे लगा दिया होगा.’’

यह मोबाइल का किस्सा भी अजीब है. वह अपने जमाने की अच्छी पढ़ीलिखी अध्यापिका, मगर अब जैसे एकदम पिछड़ी हुई, मूर्खगंवार. मोबाइल में फोन करना तक नहीं आता था उसे. जब मैं उस से कहूं, ‘तू इतनी दूर से मेरे घर आती है पैदल, तो मुझे फोन कर दिया कर, ताकि मैं घर पर ही रहूं.’ तो बोली, ‘मुझे तो फोन करना ही नहीं आता. बड़ी बेटी अपना पुराना मोबाइल छोड़ गईर् है. जिस से मैं किसी का फोन आए तो बात कर लेती हूं, बस.’

फोन करना उसे किसी ने नहीं सिखाया, न बेटे ने, न बेटी ने. न उन नातीपोतों ने जिन की मोबाइल पर महारत देखदेख कर वह चमत्कृत होती रहती है.

मैं ने उसे फोन करना, रिचार्ज करना सब सिखा दिया. वह गदगद होने लगी, ‘‘तू ने मुझ पर बड़ी कृपा की. अब मैं खुद भी अपनी बेटियों से बात कर सकती हूं.’’

अब वह जब भी फोन करे, पोतापोती कहीं भी हों, आ कर डट जाते.

उस के पोतापोती के सामने तो बात करना भी मुश्किल. सो, मैं ऐसे समय उस के घर जाती, जब बच्चेबहू सब स्कूल में हों. शहर से दूर उस एकांत शाही बंगले में वह अकेली और उन का भयानक कुत्ता. फाटक पर मुझे देखते ही उन का भयानक कुत्ता भूंकना शुरू कर देता. वह पगली सी फाटक पर आती और मुझे अंक में भर कर भीतर ले जाती.

मैं कहती, शांति से बैठ कर गपशप कर, मगर वह पगलाई सी जल्दीजल्दी नाश्ता बनाने लगती, हलवा, पकौड़े, चीले, जो सूझता वही. फिर बारबार कहने लगती…खा न रे, गरमगरम. देख, मैं नाश्ता भूली तो नहीं हूं.

चायनाश्ता खत्म होते ही फौरन सारे बरतन मांजधो कर चिकन में पूर्ववत सजा कर अपार संतुष्टि से बैठ जाती. मेरा मन और खराब होने लगता. याद आ जाता. ठीक ऐसा ही वह तब भी करती थी जब अपनी सासुमां के साथ रहती थी. हम उस से मिलने गए और अगर सासुमां घर में न हों तो उस की चपलता देखते ही बनती थी. फटाफट नाश्ता तैयार कर लेती. जल्दीजल्दी खाने के लिए चिरौरी करने लगती. खाना खत्म होते ही बरतन मांजधो कर सजा कर रख देती.

तब सासुमां का आतंक था. अब बहू का. तब ननददेवर की जासूसी अब पोतेपोती की. आतंक से भीतर ही भीतर आक्रांत. मगर उन्हीं लोगों की सेवा में तत्पर, मगन.

अजब समानता दिखती मुझे 35 साल पहले देखी उस सास में और अब शानदार पोशाक में सजी, काला चश्मा लगाए खुले केश उड़ाती धड़ल्ले से बाइक दौड़ाती इस आधुनिक बहू में. सास का चेहरा हमेशा चढ़ा ही दिखता, यह हमेशा मिमियाती ही दिखती. अब बहू का चेहरा हमेशा चढ़ा ही दिखता है. यह मिमियाती ही दिखती है.

सबकुछ जानतेसमझते हुए भी इधर शायद मुझ से ही कुछ बेवकूफी हो गई. हुआ यह कि मेरे घर अचानक हमारी कुछ पुरानी सहेलियां आ गईं. मैं ने उसे फोन किया कि तू मिलने आ सकती है क्या. वह एकदम तड़प गई, ‘घर में कोई है नहीं. बहू और बच्चे स्कूल में, बेटा दौरे पर. घर सूना छोड़ कर कैसे आऊं?’

मैं सहेलियों को ले कर उस के घर ही पहुंच गई. हमें देखते ही वह मारे खुशी के बेहाल. खूब गले मिलना, रोनाधोना हुआ. सब को अपने कमरे में बैठा वह दौड़ी किचन की ओर. सहेलियां चिल्लाईं, ‘बैठ न रे. बोलबतिया. नाश्ता बनाने में समय बरबाद मत कर. कितनी मुश्किल से तो हम लोग आ पाए हैं. वह बैठ गई. ढाई बजतेबजते बच्चे आ गए. वह बच्चों को खाना देने के लिए किचन को दौड़ी. हम आपस में बतियाने लगे.

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काफी देर हो गई. हार कर मैं किचन में गई. देखा, उस ने बच्चों के लिए ताजा भात बनाया था और अब रोटियां सेंक रही थी. नवाब बच्चे डब्बे में रखी सुबह की रोटी नहीं खा सकते थे. सहेलियों को देख कर और चिढ़ गए, ‘‘दादी, ये कैसी रोटियां दे रही हो. फूलीफूली दो.’’ मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘ताजी रोटियां हैं, चुपचाप खाओ.’’ उस ने फौरन मेरे मुंह पर हाथ रख दिया ओर बच्चों को पुचकारने लगी, ‘‘लो, आज दादी को माफ कर दो. कर दोगे न?’’

बच्चों को खिला कर जैसे ही उस ने चाय का पानी चूल्हे पर चढ़ाया, मैं ने मना कर दिया, ‘‘सहेलियां जल्दी मचा रही हैं, अब चाय बनाने में समय बरबाद मत कर.’’ मन मार कर वह सहेलियों के बीच आ कर बैठ गई. बातचीत में अब वह रस नहीं आ रहा था. मन ही मन सब को कुछ कचोट रहा था. सहेलियों को उस की स्थिति और उसे सहेलियों का ठीक से स्वागत न कर पाने की विवशता. तिस पर दोनों शातिर जासूस हमारे ही बीच आ कर खड़े हो गए, ‘‘दादी, मेरा रैकेट कहां है? मेरा कलरबौक्स कहां है?’’

तभी बहू भी आ गई. तीखी नजरों से सास के कमरे को देखती बाथरूम की ओर चली गई. वहां से लौटी तो उस के ट्यूशन वाले लड़के आ गए. ट्यूशन पढ़ाना यानी पैसे बनाना. सो, लड़कों को देखते ही वह सामने बैठक में ही पढ़ाने बैठ गई.

सहेली की स्थिति अतिथियों के बीच अत्यंत दयनीय. आती हूं, कह कर गई और शायद बहू से चिरौरी की कि मेरी कुछ सहेलियां आ गई हैं, कुछ चायनाश्ता बना दो. बहू तमतमाई हुई किचन की ओर जाती दिखी. काफी देर हो गई. मगर न चाय आई, न नाश्ता. वह इतनी देर से सहेलियों को चायनाश्ते के लिए रोके हुए थी.

हार कर वह किचन की ओर गई. उस के पीछे मैं भी. बहू ने एक भारीभरकम भगोने में कनस्तर का सारा बेसन उड़ेल कर घोल बना लिया था और तेवर में तनी धड़ाधड़ पकौड़े छाने जा रही थी. बड़ी सी परात में पकौड़ों का पहाड़ लगा हुआ था.

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भयंकर भूल: मोबाइल लेने की सनक का क्या हुआ अंजाम

लेखक- आशा वर्मा

पंडित रामसनेही जवानी की दहलीज लांघ कर अधेड़ावस्था के आंगन में खड़े थे. अपने गोरे रंग और ताड़ जैसे शरीर पर वह धर्मेंद्र कट केश रखना पसंद करते थे. ज्यादातर वह अपने पसंदीदा हीरो की पसंद के ही कपड़े पहनते थे लेकिन कर्मकांड कराते समय उन का हुलिया बदल जाता था और ताड़ जैसे उन के शरीर पर धोतीकुरते के साथ एक कंधे पर रामनामी रंगीन गमछा दिखाई देता तो दूसरे कंधे पर मदारी की तरह का थैला लटका होता जिस में पत्रा, जंत्री और चालीसा रखते थे. माथे पर लाल रंग का बड़ा सा तिलक लगाए रामसनेही जब घर से निकलते तो गलीमहल्ले के सारे लड़के दूर से ही ‘पाय लागे पंडितजी’ कहते थे. सफेद लिबास के रामसनेही और पैंटशर्ट के रामसनेही में बहुत फर्क था.

रामसनेही को पुरोहिताई का काम अपने पुरखों से विरासत में मिला था क्योंकि बचपन से ही उन के पिता उन को अपने साथ रखते थे. विरासत की परंपरा में रह कर उन्होंने विवाह, मुंडन, गृह प्रवेश और मरने के बाद के तमाम कर्मकांड कराने की दीक्षा बखूबी हासिल कर ली थी. हर कार्यक्रम पर बोले जाने वाले श्लोक उन को कंठस्थ हो गए थे.

छोटे भाई से यजमानी के बंटवारे के समय पंचायत में तिकड़म भिड़ा कर ऊंचे तथा रईस घरों की यजमानी उन्होंने हथिया ली थी. छोटे भाई को जो यजमानी मिली थी वह कम आय वालों की थी, जहां पैसे कमाने की गुंजाइश बहुत कम थी. परिवार के नाम पर रामसनेही की एक अदद बीवी और बच्ची थी.

आज की पुरोहिताई के सभी गुण रामसनेही में कूटकूट कर भरे थे. और होते भी क्यों न, आखिर 15 सालों से शंख फूंकफूंक कर पारंगत जो हो चुके थे. लड़केलड़कियों की जन्मकुंडली न मिल रही हो तो वह कोई जुगत निकाल देते थे. विवाह का मुहूर्त या तिथि इधरउधर करना उन के बाएं हाथ का खेल था. कुंडली देख कर भविष्यवाणी भी करते थे. शनी से ले कर राहूकेतू की दशा का निराकरण भी करवाते थे. झाड़फूंक, जादुई अंगूठियों से वशीकरण जैसे कार्यों में उन्हें महारत हासिल थी.

व्यावसायिक तो रामसनेही इतना थे कि कंजूस की पोटली से भी अशरफी निकाल लें. जैसा यजमान वैसा काम के सिद्धांत पर चल कर उन्होंने अपने गुणों को और भी पैना कर लिया था. वह सब तरह का नशा करते थे पर जब गांजा का नशा करते तो मन ही मन औरतों के शृंगार का आनंद भी लेते थे. कुल मिला कर उन के बारे में हम यही कह सकते हैं कि 21वीं सदी की पंडिताई के साथसाथ वह बेहतरीन हरफनमौला इनसान थे.

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इधर बीच उन्हें भी एक मोबाइल लेने की सनक सवार हुई ताकि अपने काम को वह अच्छी तरह से अंजाम दे सकें. यही नहीं व्यस्त दिनों में वह पूरे दिन का एक रिकशा किराए पर लेने की बात भी सोच रहे थे ताकि मुनाफे को अधिक से अधिक बढ़ाया जा सके.

रामसनेही को जो मोबाइल पसंद आया उस की कीमत 5 हजार रुपए थी. जोड़बटोर कर उन के पास कुल 3 हजार रुपए हो रहे थे. बाकी 2 हजार रुपए किसी से मांगना वह अपनी शान के खिलाफ समझ रहे थे. इसलिए मोबाइल के विचार को फिलहाल टाल कर किसी बड़े रईस के यहां कर्मकांड होने का इंतजार करने लगे. इस के लिए उन्हें अधिक दिन तक इंतजार नहीं करना पड़ा. जैसे ही सेठ चुन्नीलाल की गद्दी से नई कोठी में गृहप्रवेश कराने का बुलावा आया उन की बांछें खिल गईं.

चुन्नीलाल शहर के रईस आदमी थे. कोई भी कार्यक्रम रहा हो पंडितजी उन के यहां से काफी पैसे पाते रहे थे. उन के लिए यह घर मोटी यजमानी का था. चूंकि उस दिन पंडितजी का कार्यक्रम कहीं और नहीं था इसलिए समय से काफी पहले ही वह चुन्नीलाल के नए घर पहुंच गए.

गली में घुसते ही विभिन्न पकवानों की खुशबू का एहसास पंडितजी को होने लगा. दरवाजे पर पहुंचे तो चुन्नीलाल के बड़े लड़के नंदू ने पंडितजी के पैर छुए. आंगन में पहुंचे तो आकारप्रकार देख कर वह चौंधिया गए. विशालकाय आंगन में कम से कम 200 आदमी एकसाथ बैठ सकते थे. राजामहाराजाओं के महल जैसा उन का घर चमक रहा था.

घर मेहमानों से खचाखच भरा था. आंगन के एक ओर की दालान में महिलाएं बैठी थीं, तो दूसरी ओर की बड़ी दालान में पुरुष बैठे थे. सभी लोग कार्यक्रम शुरू होने का इंतजार कर रहे थे. कार्यक्रम के अनुसार यह तय हुआ कि पूजा शुरू होते ही पूडि़यां बनने का काम शुरू कर दिया जाए और पूजा खत्म होते ही मेहमानों की पंगतें बैठा दी जाएं.

इस दौरान ही पंडितजी को सेठ चुन्नीलाल नजर आ गए. वह सफेद धोतीकुरता, गले में कम से कम 10 तोले की सोने की जंजीर और हाथ की उंगलियों में हीरे की अंगूठियां पहने थे. अपने भारीभरकम शरीर के साथ चुन्नीलाल पंडितजी के पैर छूने की रस्म अदायगी के लिए झुके तो उन के हाथ पंडितजी के घुटनों तक मुश्किल से पहुंच पाए. यद्यपि चुन्नीलाल पंडित से उम्र में काफी बड़े थे पर रिवाज तो पूरा करना ही था. शायद अपने बड़प्पन की रक्षा के लिए ही उन्होंने रईसी अंदाज में पंडितजी को अपनेपन की एक मधुर धौल जमाते हुए कहा, ‘‘पंडितजी, इतनी देर कहां लगा दी.’’

पंडित रामसनेही तो समय से पहले ही पहुंचे थे इसलिए चुन्नीलाल के धौल पर थोड़ा खिसिया गए. कान के पास बजते मोबाइल के एहसास ने अपमान के इस घूंट को शरबत समझ कर पीते हुए होंठों पर मुसकान ला कर पंडितजी बोले, ‘‘सेठजी, आप चिंता क्यों कर रहे हैं. आप बैठें तो सही, देखिए कैसे जल्दी मैं काम को पूरा करता हूं.’’

आदेश के स्वर में सेठ चुन्नीलाल ने फिर मुंह खोला, ‘‘अरे, शार्टकट मत कर देना. पूरे विधिविधान से पूजा करानी है?’’

विधिविधान से पूजा कराने की बात चुन्नीलाल ने सिर्फ अपनी पत्नी को खुश करने के लिए कही थी अन्यथा मन से तो वह पूजापाठ के पक्ष में ही नहीं थे. वह तो शहर भर से आने वाले समाज के प्रतिष्ठित लोगों का स्वागत करना चाह रहे थे लेकिन घर में बड़े होने के नाते इस कार्यक्रमरूपी मटके को पत्नी के साथ बैठ कर उन्हें अपने सिर पर फोड़ना पड़ रहा था.

‘‘लालाजी, मैं आप के घर का सारा धार्मिक कार्यक्रम विधिविधान से पूरा करता हूं,’’ पंडितजी गर्व से बोले.

‘‘वह तो ठीक है पंडितजी,’’ चुन्नीलाल जल्दी में बोले, ‘‘यह तो बताइए कि कितना खर्च आएगा जिस में भेंट, पूजा का चढ़ावा, न्योछावर एवं दक्षिणा सभी कुछ शामिल हो.’’

इस सवाल पर पंडितजी थोड़ा रुके और माथे पर बनावटी सलवटें डाल कर मन ही मन कुछ गणना करते हुए बोले, ‘‘2 हजार रुपए से थोड़ा ऊपर.’’

‘‘2 हजार रुपए ज्यादा नहीं हैं. खैर, जल्दी शुरू करो. लंच का समय हो रहा है. आने वालों को समय से खाना भी खिलाना है.’’

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पंडितजी ने मंत्रोच्चारण के साथ अपना कार्यक्रम शुरू कर दिया. हवन करने के लिए एक तरफ चुन्नीलाल अपनी पत्नी कमला के साथ बैठे थे, उन से थोड़ा हट कर मुन्नीलाल पैसों की गठरी संभाले बैठा था. दूसरी ओर पंडित रामसनेही खुद विराजमान थे. उन की नजर बारबार मुन्नीलाल के हाथ की गठरी पर जा कर रुक जाती. मन में यही हूक उठती कि आज यह गठरी खाली करा लेनी है.

गृहप्रवेश के श्लोक वह निर्धारित शैली के अनुसार बोलते चले गए और यजमान को बीचबीच में आचमन करने का तो कभी चावल छिड़कने का, सिंदूर लगाने का, पान के पत्ते से पानी छिड़कने का निर्देश देते रहे. इस दौरान चढ़ावा चढ़ाने की बात भी वह नहीं भूलते.

गृहप्रवेश का धार्मिक कार्यक्रम बेरोकटोक चल रहा था लेकिन पंडितजी और चुन्नीलाल दोनों ही दिमागी उलझनों में उलझे हुए थे. चुन्नीलाल सोच रहे थे कि डेढ़ घंटे के काम के लिए पंडित ने उन से 2 हजार रुपए मांगे हैं जो इस काम को देखते हुए बहुत अधिक हैं लेकिन वह करते भी क्या, मौका ऐसा था कि जबरन उन्हें अपने मुंह पर ताला लगाना पड़ रहा था. नातेरिश्तेदार, महल्ले वालों के साथ शहर के इज्जतदार लोग भी उन की खुशी में शरीक होने आए थे. ऐसे समय पैसे के लिए पंडित से विवाद करना ठीक नहीं था. लेकिन मन ही मन फैसला ले लिया था कि आगे इस लालची पंडित को नहीं बुलाएंगे.

उधर पंडित रामसनेही मन ही मन मुसकरा रहे थे कि सेठ को तो उन्होंने यह सोच कर अधिक पैसा बताया था कि कुछ मोलतोल होगा पर यजमान ने तो कोई मोलभाव ही नहीं किया. फिर उन के दिमाग में आया कि इतने बड़े सेठ से मुझे 4 हजार रुपए बोलना चाहिए था तो बात 3 तक आ कर पट जाती. इसी विचार मंथन के क्रम में शुरू की खुशी अब पछतावे में बदल गई थी.

अचानक पंडितजी के दिमाग में बिदाई की दक्षिणा वाली बात आ गई और उन के चेहरे पर फिर से खुशी की लहर दौड़ गई. सोचने लगे, यजमान से कितनी दक्षिणा मांगी जाए. मन की बात मन में 2 हजार रुपए से शुरू हुई, लेकिन इस कार्यक्रम में हजारों रुपए पानी की तरह बहता देख कर अंतिम दक्षिणा की रकम मन ही मन 2 हजार रुपए से बढ़ कर 5 हजार रुपए हो गई.

पूजा समाप्त होने से 5 मिनट पहले ही चुन्नीलाल ने खाना शुरू करने का इशारा अपने छोटे भाई को कर दिया. मुन्नीलाल खाने की व्यवस्था करने जैसे ही ऊपरी मंजिल की ओर चले उन के साथ परिवार के दूसरे लोग भी चल दिए. चूंकि पेटपूजा का कार्यक्रम ऊपर वाली मंजिल में शुरू होने जा रहा था इसलिए आंगन से काफी लोग छंट चुके थे. पूजा खत्म होते ही पंडितजी ने अधिकार के साथ कहा, ‘‘यजमान अंतिम दक्षिणा.’’

चुन्नीलाल दरियादिली से बोले, ‘‘हां, पंडितजी, कितनी दक्षिणा चाहिए.’’

शिकारी बिल्ली की तरह चुन्नीलाल रूपी चूहे पर झपट्टा मारने को तैयार पंडितजी कुछ धीमे स्वर में बोले, ‘‘यजमान 5 हजार रुपए.’’

चुन्नीलाल समझे कि भूल से पंडितजी 500 की जगह 5 हजार रुपए कह गए होंगे इसलिए फिर से पूछा, ‘‘कितने रुपए दे दूं.’’

पंडितजी इस बार आवाज तेज कर उस में चाटुकारिता का पुट घोलते हुए बोले, ‘‘मालिक, महज 5 हजार रुपए.’’

चुन्नीलाल इतनी रकम सुन कर सन्न रह गए. भौचक हो कर बोले, ‘‘पंडित, तुम्हारा दिमाग तो नहीं फिर गया है. जानते हो कि तुम कितनी बड़ी रकम मांग रहे हो.’’

‘‘हुजूर, आप बड़े लोग हैं,’’ चाटुकारिता की चाशनी में अपने शब्दों को लपेट कर पंडितजी बोले, ‘‘आप के लिए 5 हजार रुपए चुटकी है. पूरे शहर में आप का नाम है. किस जमाने से हमारे बापदादों ने आप के यहां पुरोहिती शुरू की थी.’’

2 हजार रुपए के चक्कर में चुन्नीलाल तो पहले से ही पंडितजी पर खार खाए बैठे थे, इस 5 हजार रुपए की नई मांग ने आग में घी का काम किया. तमतमाए चेहरे से चुन्नीलाल दहाड़े, ‘‘पंडितजी, आप अपने आपे में रहिए. इतना तो मैं कदापि नहीं दूंगा. 5 हजार रुपए हंसीठट्ठा समझ रखा है क्या?’’

इतने में कमला पति चुन्नीलाल को इशारे से चुप कराती हुई बोलीं, ‘‘पंडितजी, यह तो संयुक्त परिवार है इसलिए आप को हम लोग धनी दिख रहे हैं. हम लोग भी घर में दालरोटी ही खाते हैं. आप तो बहुत ज्यादा मांग रहे हैं. 5 हजार रुपए आप को मैं अपने बेटे नंदू की शादी में इन्हीं से दिलवाऊंगी, अभी तो 500 रुपए आप रख लें.

पंडितजी ने कमला की कोमलता को टटोल लिया. आंतरिक शक्ति बटोर कर उन्होंने कमला की तरफ मुंह कर के कहा, ‘‘अरे, मालकिन, यह गरीब ब्राह्मण आप लोगों से नहीं मांगेगा तो इस शहर में किस के पास मांगने जाएगा. यह तो धर्मकर्म का काम है. पुरोहित को देना तो सब से बड़ा पुण्य का काम होता है. यही दिया तो आगे काम आता है.’’

इसी बीच चुन्नीलाल ने 500 रुपए पंडितजी के हाथ में पकड़ाने का प्रयास किया पर वह उन रुपयों को छूने को तैयार न थे.

लिहाजा, 500 रुपए का वह नोट जमीन पर गिर पड़ा. लक्ष्मी का इस तरह अपमान होता देख कर मुन्नीलाल भड़क उठे, ‘‘500 रुपए लेना हो तो लो नहीं तो अपने घर का रास्ता नापो.’’

मोलतोल एवं तय तोड़ की सारी गुंजाइशें खत्म हो चुकी थीं. पंडितजी हाथ आई चिडि़या को किसी भी सूरत में छोड़ना नहीं चाह रहे थे. उधर दोनों भाई चुन्नीलाल और मुन्नीलाल वीर योद्धा की तरह अपनी बात पर डटे रहे. कमला भी अपनी दाल गलती न देख थोड़ी दूर जा कर खड़ी हो गईं. दोनों ओर आवेश बढ़ने लगा. वाक्युद्ध अपने पूरे उफान पर था. यद्यपि पंडितजी अकेले थे पर वाक्पटुता में निपुण थे, तभी तो अपनी चाटुकारिता से बात को बीच में संभाल लेते थे.

पंडित रामसनेही जब हर तरफ से यजमान को झुकाने की कोशिश में हार गए तो अपने पूर्वजों के अंतिम ब्रह्मास्त्र ‘शाप’ का सहारा लिया और फिल्मी अंदाज में भड़क कर बोले, ‘‘यजमान, यह ब्राह्मण की दक्षिणा है, मुझे नहीं दोगे तो तुम्हें कहीं और देना पड़ेगा. अगर मैं ने मन से शाप दे दिया तो सारा घर भस्म हो जाएगा.’’

यह सुन कर वहां खड़े घर के लोग अवाक् रह गए. मगर बाहर से आंगन की तरफ आता चुन्नीलाल का छोटा बेटा पल्लू का धैर्य जाता रहा. पंडितजी का आखिरी कहा शब्द उस के हृदय में भाले की तरह चुभा था इसलिए वह भी युद्ध के मैदान में कूद पड़ा.

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पंडितजी की तरफ पल्लू झपट्टा मार कर गरजते हुए बोला, ‘‘सौ जूते मारो इस ढोंगी पंडित को. इस ने अपने आप को समझ क्या रखा है?’’

इसी के साथ हाथ में चप्पल ले कर पल्लू पंडितजी पर टूट पड़ा.

बात एकदम उलटी हो गई. पंडितजी का ब्रह्मास्त्र उन्हीं पर बज्र बन कर गिर पड़ा था. सेर को सवा सेर मिल गया था. पंडितजी इस युद्ध में चारों खाने चित हो चुके थे. तभी पल्लू और पंडितजी के बीच मुन्नीलाल और चुन्नीलाल आ गए. एक ने पल्लू की कमर पकड़ी तो दूसरे ने हाथ पकड़े और मौका देख कर पंडित रामसनेही बिना झोला उठाए और चप्पलें पहने अपनी जान हथेली पर रख कर त्वरित गति से एक प्रशिक्षित धावक की तरह संकटमोचन का नाम मन में ले कर भागे तो जा कर घर की चौखट पर ही रुके. उन के कानों में मोबाइल की घंटी तो नहीं अपने ही दिल की धड़कन सुनाई दे रही थी, जो किसी धौंकनी की रफ्तार से धड़क रही थी.

पंडित रामसनेही का झोला, पुस्तकें, 500 रुपए और उन की चप्पलें शहर में लगे कर्फ्यू की तरह आंगन में अनाथ पड़ीं अपनी कहानी बयां कर रही थीं.

Short Story: महिला सशक्तीकरण के 3 तल्ले

पूरे देश में महिलाओं का सशक्तीकरण आंदोलन जोरशोर से चल रहा था. कहीं छोटीछोटी गोष्ठियों तो कहीं बड़ीबड़ी सभाओं के द्वारा महिलाओं को सशक्तीकरण के लिए जाग्रत किया जा रहा था. एक दिन हम भी महिला सशक्तीकरण आंदोलन की अध्यक्षा नीलम का भाषण सुनने उन की सभा में पहुंच गए. यह तो अनादिकाल से ही चला आ रहा है कि जहां महिलाएं हों, उन के पीछेपीछे पुरुष पहुंच ही जाते हैं. लेकिन हम इस परंपरा के तहत महिलाओं की सभा में नहीं पहुंचे थे. हमें तो अपने लेख के लिए कुछ सामग्री चाहिए थी, जो जीवंत सत्य और यथार्थपरक हो.

नीलम मंच से कह रही थीं, ‘‘बहनो, इस पुरुष जाति ने युगोंयुगों से हम पर अत्याचार किए हैं. कभी अहिल्या को शाप दे कर शिला बना दिया, तो कभी सीता को घर से निकाल दिया. हद तो तब हो गई बहनो, जब भरी सभा में कौरवों ने द्रौपदी का चीरहरण कर लिया. बहनो, इस पुरुषप्रधान समाज में आज भी यही हो रहा है. हम इसे बरदाश्त करने वाली नहीं. क्या बहनो, हमें यह सब बरदाश्त करना चाहिए?’’ ‘‘नहींनहीं बिलकुल नहीं,’’ भीड़ से जोरदार आवाज आई. फिर जोरदार तालियां बजीं. कुछ महिलाओं ने खड़े हो कर ‘नीलम जिंदाबाद’, के नारे भी लगाए.

‘‘बहनो, दुख तो इस बात का है कि इन मर्दों ने आज भी महिलाओं को दोयम दर्जे का बना रखा है. कोई 4 बीवियां रखने का अधिकार रखता है, तो कोई चुटकी बजाते ही तलाक दे देता है. बहनो, तुम्हीं बताओ हमें 4 पति रखने का अधिकार क्यों नहीं? महंगाई के इस जमाने में एक पति की आमदनी से ढंग से घर का खर्च चलता है क्या? 4 पति होंगे तो हमें 4 गुना खर्च करने को मिलेगा कि नहीं? हमें सरकार के सामने यह मांग रखनी चाहिए कि औरत को भी एक से अधिक पति रखने का कानूनी अधिकार मिलना चाहिए.’’

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नीलम की यह बात सुन कर हमें लगा कि ये बहक गई हैं. अब इन का विरोध होगा. लेकिन हमारी सोच के विपरीत भीड़ से उन को जबरदस्त समर्थन प्राप्त हुआ. एक दबंग महिला ने उठ कर कह ही दिया, ‘‘बिलकुल ऐसा होना चाहिए. जिन के पति कम कमाते हैं उन्हें तो तुरंत एक पति और कर लेना चाहिए.’’

उस दबंग महिला की बात सुन कर वहां खड़े अनेक मर्द वहां से इसलिए खिसक लिए कि कहीं उन की पत्नी दूसरे पति की तलाश में तो नहीं निकल पड़ी. नीलम के क्रांतिकारी विचारों को सुन कर अपना दिल उन का साक्षात्कार लेने को मचल उठा. हम शाम को ही उन के घर पहुंच गए. उन्होंने अपने पति का परिचय कराते हुए कहा, ‘‘इन से मिलिए, ये मेरे दूसरे पति हैं. ये पहले मेरे स्टैनो हुआ करते थे. पहले पति को तलाक देने के बाद मैं ने इन से प्रेम विवाह कर लिया. मेरा बड़ा बेटा बस इन से 4 साल छोटा है.’’

महिला सशक्तीकरण की बात आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, ‘‘देखिए भाई साहब, समाज में महिलाओं के साथ कितना अन्याय हो रहा है. बालिका भू्रण हत्या, अबोध बालिकाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं, शिक्षा में भेदभाव, नौकरियों में भेदभाव, धर्म के नाम पर बुरके से ढांकना, यह सब अन्याय और अत्याचार नहीं तो और क्या है? यह सब बंद होना चाहिए.’’

हम नीलम के विचारों से बड़े प्रसन्न हुए. फिर हम ने पत्रकार के अंदाज में पूछा, ‘‘लेकिन नीलमजी, यह सब कैसे होगा?’’

‘‘यह सब होगा. महिलाओं को जागरूक कर के होगा. उन्हें शिक्षा प्रदान कर के होगा. हर बालिका को स्कूल भेज कर होगा.’’

उसी समय एक 12-13 साल की लड़की वहां कपप्लेट उठाने के लिए आई. जब हम ने नीलमजी से उस के बारे में पूछा तो वे बोलीं, ‘‘नौकरानी की बेटी है. जिस दिन वह बीमार पड़ती है, तो अपनी बेटी को काम पर भेज देती है. अब इन नौकरों की क्या कहें, बड़े नालायक होते जा रहे हैं. कुछ काम तो करना नहीं चाहते, पढ़नालिखना तो बहुत दूर की बात है. इन जाहिलों को कोई नहीं सुधार सकता.’’ नीलमजी का असली चेहरा हमारे सामने आ गया था. अब हम ने वहां से उठना ही बेहतर समझा. लेकिन हम ने यह सोच लिया था कि महिलाओं के सशक्तीकरण आंदोलन की तह में पहुंच कर ही रहना है. आखिर देशविदेश में इतने आंदोलन होने के बावजूद महिलाएं सशक्त क्यों नहीं बन सकीं? हमारे कविगणों को यह कहने के लिए मजबूर क्यों होना पड़ा कि अबला तेरी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी?

शहरों से अधिक हमारी आबादी गांवों में बसती है, इसलिए हम चल पड़े गांव की ओर. भरी दोपहरी में एक आम के पेड़ की छांव मेंएक चौधराइन चौधरी को दोपहर का खाना खिला रही थीं. चौधरी हाथ पर रोटी रखे बड़े मजे से आम की चटनी के साथ खा रहे थे. हमें देख कर कुछ सकपका गए, ‘अतिथि देवो भव:’ का खयाल कर के उन्होंने हमें छांव में बैठने की जगह दी.

फिर पूछा, ‘‘तो क्या सेवा करूं थारी?’’

‘‘चौधरी साहब, महिला सशक्तीकरण पर मैं चौधराइनजी से कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूं.’’

चौधरी ने चौधराइन से कहा, ‘‘चौधराइन, ये शहरी बाबू शक्तिवक्ति पर कुछ पुच्छड़ चाहें, बता दिए कुछ इन्हें.’’

‘‘बताओ तो क्या बताऊं?’’ चौधराइन हम से बोलीं, तो हम ने 10-15 मिनट चौधराइन को विषय समझाया.

तब चौधराइन बोलीं, ‘‘देखो शहरी बाबू, बड़ीबड़ी बातें तो हमारी समझ में न आवें. हम तो इतना जाणे कि हमारा मरद चाहे हमें कितना भी मारेछेत्ते, है तो वह अपना ही. घर में 4 बरतन हों तो खड़केंगे ही. शहरवालियों को मैं कुछ न कैती, वे तो फैशन करे घूमे सै. कोईकोई तो कईकई खसम रखे सै. हम तो अपने मरद के खूंटे से बंधीं सै. अरे हां, हमारे मरद के खिलाफ कुछ न कहयो, नहीं तो हम से बुरी कोई न होवे.’’

‘‘अरी तू बावली होरी सी? वे तेरे सै बात करणे की खातिर आए और तू झगड़ा कर रई. ले उठा अपने बरतनभांडे और जा घर कू. और शहरी बाबू तुम बुरा मत मानियो इस की बातों का. हम गांव वाले क्या जानें इन सब बलाओं को, जो सरकार कर दे वही ठीक है.’’

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चौधराइन हमें खरीखरी सुना कर चली गई थीं. ऐसा लगता था कि वे गांव में बसने वाली 70% महिलाओं का प्रतिनिधित्व कर रही थीं. चौधराइनजी की बातें सुन कर हमें नीलमजी की बातें फीकी लगने लगी थीं. अब हम ने कालेज गोइंग छात्रा के विचार लेना भी जरूरी समझा. आखिर वे हमारे देश की भावी पीढ़ी का नेतृत्व करने वाली में से हैं, जो एक बहुत बड़ा तबका है. इन्हीं के हाथों में भावी महिला समाज है. अकस्मात हमारी मुलाकात एक विश्वविद्यालय की छात्रा से हो गई. महिला सशक्तीकरण शब्द का प्रयोग करने पर उस ने हमें अनपढ़ समझा. महिला सशक्तीकरण का सही उच्चारण न कर पाने के कारण उस ने अंगरेजी की बैसाखी का सहारा लिया और कहा, ‘‘सर, यू नो, वूमन इंपावरमैंट तो तभी होगा न जब हम को बिलकुल फ्री कर दिया जाएगा. यू नो, वी आर ऐवरीवेयर इन बाउंडेशन. उस की चेन को तोड़ना होगा. लड़की किस से मैरिज करना चाहती है, यह मौम और डैड का मैटर नहीं होना चाहिए. यू नो, लाइफ पार्टनर के साथ तो हमें रहना है, मौम और डैड को तो नहीं.’’

मुझे छात्रा की बातों में दम नजर आ रहा था. वह आगे बोली, ‘‘सैकंड थिंग इज दिस, हर वूमन को अपने पैरों पर जरूर स्टैंड करना चाहिए. यदि हसबैंड धोखा देना चाहे तो उस के धोखा देने से पहले हमें उसे किक आउट कर देना चाहिए. यह तभी होगा जब हम सैल्फ डिपैंड होंगी. जहां तक संबंधों की बात है यह हमारा निजी मामला है यानी पर्सनल मैटर. हम किस से संबंध बनाएं यह हमारी मरजी. मैं खुद लिव इन रिलेशनशिप में रह रही हूं. किसी को इस बात से क्या परेशानी जब मेरी मौम और डैड को कोई प्रौब्लम नहीं? मेरी मौम और डैड को मेरे बारे में सब पता है. हम एकदूसरे से कुछ भी छिपा कर नहीं रखते. सब बातों पर खुल कर चर्चा करते हैं. यही तो है वूमन इंपावरमैंट.’’

हम उस छात्रा के खुलेपन और जिंदादिली के कायल हो गए. उस से मुलाकात कर हम महिला सशक्तीकरण आंदोलन के तीसरे तल्ले तक पहुंच चुके थे, जिस का वर्णन हम ने आप के सामने कर दिया. मेरी दृष्टि में तीनों तल्लों की महिलाओं ने अपने स्तर से सशक्त प्रदर्शन किया. आप को किस के विचार अच्छे लगे? इस प्रश्न को आप पर छोड़ता हूं एक सार्थक बहस के लिए. प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा.

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Short Story: बहारो वायरस बरसाओ…

आजकल हमें उतना डर स्वाइन फ्लू, आई फ्लू और बर्ड फ्लू से नहीं लग रहा जितना हम वाइफ फ्लू से परेशान हैं. बाकी फ्लू तो देरसबेर दवा लेने से ठीक हो जाते हैं, लेकिन वाइफ फ्लू की आज तक कोई दवा ही नहीं बन पाई है.

और तो और कुंआरेपन में हमें मूंछें रखने का बहुत शौक था, लेकिन सुहागरात को ही वाइफ ने पहला वार मूंछों पर ही किया और साफसाफ शब्दों में कह दिया कि देखोजी, आज के बाद तुम्हारे चेहरे पर मूंछें नहीं दिखनी चाहिए.

हम ने इसे कोरी धमकी समझा, लेकिन अगली सुबह सो कर उठने के बाद जब ब्रश करने गए तब आईने में मूंछविहीन चेहरा देख कर हम सहम गए और समझ गए कि यह वाइफ जो कहती है, उसे कर के भी दिखा देती है, इसलिए अपनी भलाई इसी में है कि अब बाकी की जिंदगी वाइफदास बन कर गुजारी जाए.

अगली सुबह हम अभी आधा घंटा और सोने के मूड में थे, तभी गरजती हुई आवाज आई, ‘‘देखोजी, यह सोनावोना बहुत हो गया, मैं उन पत्नियों में से नहीं हूं, जो सुबह से शाम तक अकेले ही घर में खटती रहती हैं, चलो उठो…पानी आ गया है, पानी भरो, इस के बाद सब्जी लेने जाओ और हां, दूध भी लेते आना.’’

इस के बाद थोड़े प्यार से बोली, ‘‘तुम चाय बना कर लाना अपन साथसाथ पिएंगे.’’

अभी तक तो हम कुछ समझ नहीं पाए थे, लेकिन फिर ऐसा लगा कि हमें वाइफ फ्लू ने जकड़ लिया है, जो कभी गरमी के साथ चढ़ता है तो कभी ठंड के साथ उतरता है…वाइफ को देखते ही हमारे बदन में झुरझुरी सी फैल जाती है.

अब हमारे लिए यह शोध का विषय हो गया कि आखिर यह वाइफ फ्लू होता क्या है? यह क्यों आता है? इस के लक्षण क्या हैं और इस के वायरस कहां से फैलते हैं?

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सीधी सी बात है, वाइफ फ्लू शादी के बाद होता है. अब यह हसबैंड की शक्ति पर निर्भर करता है कि वह वाइफ फ्लू को कितना झेल पाता है. वाइफ फ्लू से एक बार पीडि़त होने के बाद ताजिंदगी इस की गिरफ्त में रहना पड़ता है.

लगातार वाइफ फ्लू की चपेट में आने के बाद हसबैंड हमेशा डराडरा सा रहने लगता है, उस की आंखें नीची रहती हैं, बोलने की शक्ति क्षीण होती जाती है, परंतु श्रवणशक्ति बढ़ जाती है. इसी के साथ उस का ब्लडप्रैशर एकदम बढ़ जाता है.

ऐसे मरीज ज्यादा से ज्यादा समय घर से बाहर गुजारने लगते हैं तथा बद से बदतर स्थितियों में भी जीने का जज्बा रखते हैं. वाइफ  फ्लू से पीडि़त मरीजों में काम करने की आदत सी पड़ जाती है और उन्हें थकान कम महसूस होती है.

कोल्हू के बैल की तरह काम करते हुए वे वाइफ से प्रशंसा पाने के भूखे रहते हैं. ऐसे हसबैंडों को गुस्सा कम आता है, लेकिन ये मन ही मन कुढ़ते रहते हैं.

इस फ्लू के वायरस शादीब्याह के समय बरात आदि की जगहों पर बहुतायत से पाए जाते हैं और कुंआरे लड़कों पर एकदम अटैक करते हैं.

ये वायरस पहले मीठे सपने दिखाते हैं, फिर सपने साकार करने की ललक जगाते हैं और उस के बाद जिंदगी भर रोने का कारण बन जाते हैं.

हमारी शादी के समय भी जब हमें हमारी भाभी ने, इशारे से उस कमसिन, नाजुक सी लड़की को दिखाते हुए हमारे अरमान जगाए थे तब हम हवा में ऐसे उछले थे कि सीधे उसी के पास जा कर गिरे थे.

लेकिन हम ने अपने दोस्तों को वाइफ फ्लू से जूझते देखा था, इसलिए दूरी बनाने की कोशिश करने लगे. तब उस ने बड़ी नजाकत के साथ कहा था, ‘‘तुम तो जी मुझ से ऐसे डर रहे हो जैसे मैं कोई वायरस हूं. अरे, भौंरा भी मुहब्बत में अपनेआप को कुरबान कर देता है, तो फिर तुम तो इंसान हो. हमारी मुहब्बत की कीमत समझा करो.’’

उस ने जिस अंदाज में ये सब बातें कही थीं, उस से हम भौंरे की तरह उस के आगेपीछे घूमने लगे थे.

‘‘बहारो वायरस बरसाओ, मेरा हसबैंड आ रहा है…’’ हमारी होने वाली वाइफ जोरजोर से यह गाना गाने लगी.

खैर, जनाब शादी तो होनी थी, सो हो गई और हम लगातार वाइफ फ्लू से जकड़ते गए. जब हम वाइफ फ्लू से बचने के उपायों पर विचार करने लगे तब हम ने पाया कि वाइफ फ्लू से पीडि़त हसबैंड को हमेशा अपनी वाइफ की तारीफ करने की ऐंटीबायोटिक्स डोज लेते रहना चाहिए. इस में कमी होने पर ये वायरस तेजी से हमला करते हैं.

जब वाइफ बनठन कर बाजार जाए तब एक कंधे पर सामान वाला झोला और दूसरे पर बच्चों को लादने में देर नहीं करनी चाहिए. जब वाइफ किसी सामान को पसंद कर रही हो एवं मोलभाव कर रही हो तब बीच में टांग नहीं अड़ानी चाहिए. हसबैंड को तो बस जेब में भरपूर पैसा रखना चाहिए और उसे खर्च करने में कंजूसी नहीं करनी चाहिए.

वाइफ फ्लू से पीडि़त हसबैंड को अपने बचाव के लिए सुबह से शाम तक ‘वाइफाय नम:’ का जाप करते रहना चाहिए और अपने दिन की शुरुआत राशिफल देख कर करनी चाहिए.

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यदि दिन अच्छा नहीं हो तो उस दिन वाइफ के बेलन से डरते रहना चाहिए और यदि दिन अच्छा हो तो समझिए कि खाली डांटडपट से जान छूट जाएगी.

वाइफ फ्लू पर हमारा शोध जब चरमसीमा पर था, तभी एक गरजती आवाज से हम सहम गए.

‘‘चलो जल्दी उठो, बहुत आलसी हो गए हो. आज इतवार है और सुबह से शाम तक के सारे काम तुम्हारे ही जिम्मे हैं…’’

तभी हमें छींक आ गई, तो उस ने कहा, ‘‘सुनोजी, ऐसा लगता है, तुम्हें स्वाइन फ्लू के वायरसों ने जकड़ लिया है, जल्दी से डाक्टर के पास जाओ.’’

हम ने कहा, ‘‘अरे, जो सालों से वाइफ फ्लू से लड़ रहा हो, उस के लिए यह स्वाइन फ्लूव्लू कुछ नहीं है.’’

तभी हमारी कामवाली रमिया ने आगे आ कर बड़े प्यार से कहा, ‘‘ओ साब, तुम जल्दी से स्वाइन फ्लू का इलाज करवा लो, यह बहुत खतरनाक है. इस से तुम को डर नहीं लगे पर अपुन को लगता है. मैं यह काम छोड़ कर चली जाऊंगी. फिर मेरे वाले काम भी तुम को ही करने होंगे. सही माने में साब, अपुन तुम्हारे ऊपर ही तो तरस खाती है…’’

वाइफ फ्लू वाले हमारे जख्मों पर रमिया ही मरहम लगाती रहती है यानी वाइफ फ्लू के वायरस को कम करने का एकमात्र सहारा रमिया ही है, क्योंकि जब हम उस के साथ बरतन मंजवाते, कपड़े धुलवाते तब वाइफ हमें हटा कर खुद काम करने लगती, इसलिए हम उस की बात नहीं टाल सके और डाक्टर के पास गए. डाक्टर ने हमारा चैकअप करने के बाद लंबेचौड़े परचे पर स्वाइन फ्लू की जगह वाइफ फ्लू से पीडि़त लिख कर परचा हमें थमा दिया और बताया कि इस वायरस का प्रभाव पति या पत्नी में से किसी एक के चले जाने पर स्वयं ही समाप्त हो जाता है, इसलिए सहने और झेलने की आदत ही इस का उपचार है.

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Short Story: नैगेटिव से पौजिटिव

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

रीती जब कोरोना टेस्ट के लिए कुरसी पर बैठी, तब उस के हाथपैर कांप रहे थे और आंखों के सामने अंधेरा सा छा रहा था.

एक बार कुरसी पर बैठने के बाद रीती का मन किया कि वह भाग जाए… इतनी दूर… इतनी दूर कि उसे कोई भी न पकड़ सके… ना ही कोई बीमारी और ना ही कोई दुख… मन में दुख का खयाल आया तो रीती ने अपनेआप को मजबूत कर लिया.

“ये सैंपल देना… मेरे दुखों को झेलने से ज्यादा कठिन तो नहीं,” रीती कुरसी पर आराम से बैठ गई और अपनेआप को डाक्टर के हवाले कर दिया… ना कोई संकोच और ना ही कोई झिझक.

सैंपल देने के बाद रीती आराम से अकेले ही घर भी वापस आ गई थी. हाथपैर धोने के बाद भी कई बार अपने ऊपर सेनेटाइज किया और अपना मोबाइल हाथ में ले लिया और सोफे में धंस गई.

सामने दीवार पर रीती के पापा की तसवीर लगी हुई थी, जिस पर चढ़ी हुई माला के फूल सूख गए थे. अभी उन्हें गए हुए 10 दिन ही तो हुए हैं, कोरोना ने उन जैसे जिंदादिल इनसान को भी अपना निवाला बना लिया था.

रीती यादों के धुंधलकों में खोने लगी थी.

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पापा की बीमारी का रीती को पता चला था, तब उन से मिलने जाने के लिए वह कितना मचल उठी थी, पर अमन इस संक्रमण काल में रीती के उस के मायके जाने के सख्त खिलाफ थे, पर रीती समझ चुकी थी कि हो सकता है कि वह फिर कभी पापा को न देख सके, इसलिए उस ने अमन की चेतावनी की कोई परवाह नहीं की… और वैसे भी अमन कौन सा उस की चिंता और परवाह करते हैं जो रीती करती. इसलिए वह लखनऊ से बरेली अपने मायके पापा के पास पहुंच गई थी, पर पापा की हालत बहुत खराब थी. एक तो उन की उम्र, दूसरा अकेलापन.

पापा ने अपना पूरा जीवन अकेले ही तो काटा था, क्योंकि रीती की मां तो तब ही मर गई थी, जब वह केवल 10 साल की थी. और फिर पापा ने अकेले ही रीती की देखभाल की थी और उन के उसी निर्णय के कारण आज वे अकेले थे.

रीती गले से लग गई थी पापा के. पापा ने उसे अपने से अलग करना चाहा तो भी वह उन्हें जकड़े रही थी. बापबेटी अभी एकदूसरे से कुछ कहसुन भी न पाए थे कि अस्पताल से पापा के पास फोन आया कि उन की रिपोर्ट पौजिटिव आई है, इसलिए वे अपनेआप को घर में ही आइसोलेट कर लें, क्योंकि शहर के किसी अस्पताल में बेड और जगह नहीं है.

पापा रीती के पास से उठ खड़े हुए मानो उस से दूर जाना चाहते हों और दूसरे कमरे में चले गए.

पूरे एक हफ्ते तक रीती पापा के साथ रही. घरेलू नुसखों से इलाज करना चाहा, पर सब बेकार रहा. पापा को कोरोना निगल ही गया.

रीती लखनऊ वापस तो आई, पर अमन ने घर में घुसने नहीं दिया. अंदर से ही गोमती नगर वाले फ्लैट की चाभी फेंकते हुए कहा, “अपनी जांच करा लो और नैगेटिव हो तभी आना.”

अपने प्रति ऐसा तिरस्कार देख कर एक वितृष्णा से भर गई थी रीती. हालांकि अमन को कभी भी उस की जरूरत नहीं रही, ना ही उस के शरीर की और ना ही उस के मानसिक सहारे की. इस से पहले भी अमन और उस का रिश्ता सामान्य नहीं रहा. शादी के बाद पूरे एक हफ्ते तक अमन रीती के कमरे में ही नहीं गए, फिर एक दिन बड़े गुस्से में अंदर आए, उन की आंखों में प्यार की जगह नफरत थी.

वे शादी के समय हुई तमाम कमियों के शिकवेशिकायत ले कर आए और पूरी रात ऐसी बातों में ही गुजार दी.

कुछ दिन बाद अमन ने रीती को बताया कि वह उस से किसी तरह की उम्मीद न रखे, क्योंकि वह अपनी एक सहकर्मी से प्रेम करता है और रीती से उस की शादी महज एक समझौता है, जो अमन ने अपने मांबाप को खुश रखने के लिए किया है.

“हुंह… पुरुष अगर दुश्चरित्रता करे तो भी माफ है और अगर औरत अपने परिवार के खिलाफ जाए तो वह कुलटा और चरित्रहीन कहलाती है.”

मन ही मन में सोच रही थी रीती.

हालांकि अमन के अफेयर की बात कितनी सच थी, ये वह नहीं जान पाई थी, मगर कुछ दिन बाद अमन की हरकतों से इतना तो रीती जान गई थी कि अमन एक पुरुष के जिस्म में तो था, पर उस के अंदर पौरुष की शक्ति का अभाव था… शायद इसीलिए अमन ने रीती को खुद से ज्यादा उम्मीदें न लगाने के लिए अफेयर वाली बात बताई थी.

समझौता तो रीती ने भी किया था अमन से शादी करने का. वह शादी नहीं करना चाहती थी, पर पापा थे जो आएदिन उस की शादी के लिए परेशान रहते. रीती लड़कों का नाम सुन कर परेशान हो जाती. कोई भी लड़के उसे आकर्षित क्यों नहीं करते थे, हां, विश्वविद्यालय में पढ़ते समय कैंपस में कुछ लड़कियों की तरफ सहज ही खिंच जाती थी रीती, खासतौर से खेलकूद में रहने वाली मजबूत काठी की लड़कियां उसे बहुत जल्दी अपनी ओर आकर्षित करती थीं. इसी तरह की एक लड़की थी सुहाना, लंबे कद और तीखे नैननक्श वाली. रीती को सुहाना से प्यार होने लगा था, वह अपना बाकी का जीवन सुहाना के ही साथ बिताना चाहती थी.

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ये बात बीए प्रथम वर्ष की थी, जब सुहाना को देखा था रीती ने और बस पता नहीं क्यों उस से बात करने का मन करने लगा, जानपहचान बढ़ाई. पता चला कि सुहाना भी लड़कियों के होस्टल में रहती है. सुहाना सुंदर थी या नहीं, ये बात तो रीती के लिए मायने ही नहीं रखती थी. उसे तो बस उस के साथ होना भाता था, कभीकभी पार्क में बैठेबैठे सुहाना के हाथ को अपने हाथ में पकड़ कर बातें करना रीती को अच्छा
लगता.

जाड़े की एक दोपहर में जब दोनों कुनकुनी धूप में बैठे हुए थे, तब सुहाना के सीने पर अपनी कोहनी का दबाव बढ़ा दिया था रीती ने, चिहुंक पड़ी थी सुहाना, “क…क्या कर रही है रीती?”

“अरे कुछ नहीं यार. बस थोड़ी सी एनर्जी ले रही हूं,” हंसते हुए रीती ने कहा, तो बात आईगई हो गई.

हालांकि अपनी इस मानसिक और शारीरिक हालत से रीती खुश थी, ऐसा नहीं था. वह भी एक सामान्य जीवन जीना चाहती थी, पर एक सामान्य लड़की की तरह उस के मन की भावनाएं नहीं थीं.

अपनी इस हालत के बारे में जानने के लिए रीती ने इंटरनेट का भी सहारा लिया. रीती ने कई लेख पढ़े और औनलाइन डाक्टरों से भी कंसल्ट किया.

रीती को डाक्टरों ने यही बताया कि उस का एक लड़की की तरफ आकर्षित होना एक सामान्य सी अवस्था है और इस दुनिया में वह अकेली नहीं है, बल्कि बहुत सी लड़कियां हैं, जो लैस्बियन हैं और रीती को इस के लिए अपराधबोध में पड़ने की आवश्यकता नहीं है.

सुहाना के प्रति रीती का प्रेम सामान्य है, ये जान कर रीती को और बल मिला. रीती अपना बाकी का जीवन सुहाना के नाम कर देना चाहती थी, पर उन्हीं दिनों सुहाना के साथ एक लड़का अकसर नजर आने लगा.

एक लड़के का इस तरह से सुहाना के करीब आना रीती को अच्छा नहीं लग रहा था, पर सुहाना… सुहाना भी तो उस लड़के की तरफ खिंचाव सा महसूस कर रही थी, एक प्रेम त्रिकोण सा बनने लगा था उन तीनों के बीच, जिस के दो सिरों पर तो एकदूसरे के प्रेम और खिंचाव का अहसास था, पर तीसरा बिंदु तो अकेला था और वह बिंदु अपना प्रेम प्रदर्शित करे भी तो कैसे? पर, रीती ने सोच लिया था कि वो आज सुहाना से अपने प्रेम का इजहार कर देगी और अपना बाकी का जीवन भी उस के साथ बिताने के लिए अपनेआप को समर्पित कर देगी.

“व्हाट…? हैव… यू गौन मैड… तुम जा कर अपना इलाज करवाओ और आज के बाद मेरे करीब मत आना,” सुहाना चीख रही थी और उस का बौयफ्रैंड अजीब नजरों से रीती को घूर रहा था और रीती किसी अपराधी की तरह सिर झुकाए खड़ी रही, और जब उसे कुछ समझ नहीं आया, तो वहीं पर धम्म से बैठ गई थी. सुहाना और उस का बौयफ्रैंड उसे छोड़ कर वहां से चले गए.

अगले दिन पूरे विश्वविद्यालय में रीती के लैस्बियन होने की बात फैल गई थी. कैंपस में लड़के उस पर फिकरे कसने लगे थे, “अरे तो हम में क्या बुराई है? कुछ नहीं तो एक किस ही दे दे.”

“अरे ओए सनी लियोन… हमें भी तो वो सब सिखा दे…”

रीती को ये सब बुरा लगने लगा था. अगर सुहाना को उस का साथ नहीं चाहिए था, तो साफ मना कर देती… पूरे कैंपस में सीन क्रिएट करने की क्या जरूरत थी… आज सब लोग उस पर हंस रहे हैं… इतनी बदनामी के बाद रीती को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? लड़कों और लड़कियों के ताने उसे जीने नहीं दे रहे थे… उस के पास अब विश्वविद्यालय और होस्टल छोड़ने के अलावा कोई चारा नहीं था.

आज की क्लास उस की आखिरी क्लास होगी और फिर आज के बाद विश्वविद्यालय में कोई रीती को नहीं देखेगा… उस के बाद आगे रीती क्या करेगी? पापा से पढ़ाई छोड़ देने के बारे में क्या कहेगी? खुद उसे भी पता नहीं था.

अपने होस्टल के कमरे में रीती तेजी से अपना सामान पैक कर रही थी. उस के मन में सुहाना के प्रति भरा हुआ प्यार अब भी जोर मार रहा था.

रीती के दरवाजे पर दस्तक हुई. रीती ने आंसू पोंछ कर दरवाजा खोला तो देखा कि एमए की एक छात्रा उस के सामने खड़ी थी. वह रीती को धक्का दे कर अंदर आ गई और बोली, “क्या कुछ गलत किया है तुम ने? जो इस तरह अपनेआप से ही शर्मिंदा हो रही हो… और ये विश्वविद्यालय छोड़ कर जा रही हो…”

रीती अर्शिया नाम की उस लड़की को प्रश्नसूचक नजरों से देखने लगी. अर्शिया ने आगे रीती को ये बताया कि लैस्बियन होना कोई गुनाह नहीं है, बल्कि एक सामान्य सी बात है. प्रेम में सहजता बहुत आवश्यक है और फिर आजकल तो लोग लाखों रुपये खर्च कर के अपना जेंडर बदल रहे हैं. लोग बिना शादी किए सेरोगेसी के द्वारा बच्चों को गोद ले रहे हैं और फिर हम तो प्यार ही फैला रहे हैं, फिर हम कैसे गलत हो सकते हैं?

अर्शिया की बातें घाव पर मरहम के समान लग रही थीं रीती को.

“हम… तो क्या मतलब, तुम भी लैस्बियन हो,” रीती ने पूछा.

“हां… मैं एक लैस्बियन हूं, पर मुझे तुम्हारी तरह समलैंगिक कहलाने में कोई शर्म नहीं आती है, बल्कि मैं अपनी इस पहचान को लोगों के सामने रखने में नहीं हिचकती… आखिर हम किसी का रेप नहीं करते, किसी का मर्डर नहीं करते…फिर हमें शर्म कैसी?” अर्शिया ने अपनी बात कह कर रीती को बांहों में भर लिया और रीती ने भी पूरी ताकत से अपनी बांहें अर्शिया के इर्दगिर्द डाल दीं.

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उस दिन के बाद से पढ़ाई पूरी होने तक अर्शिया और रीती एक ही साथ रहीं.
कुछ महीनों के बाद अर्शिया की नौकरी मुंबई में एक मल्टीनेशनल कंपनी में लग गई थी. वह जाना तो नहीं चाहती थी, पर जीविका और कैरियर के नाम पर उसे जाना पड़ा. पर अर्शिया जल्दी वापस आने का वादा कर के गई थी और लगभग हर दूसरे दिन फोन करती रही.

रीती के पापा ने उस की शादी तय कर दी थी. मैं किसी लड़के से शादी कर के कैसे खुश रहूंगी? मैं एक समलैंगिक हूं, ये बात मुझे पापा से बतानी होगी, पर पापा से एक लड़की अपने लैस्बियन होने की बात कैसे बता सकती है? और रीती भी कोई अपवाद नहीं थी. सो, उस ने मोबाइल को अपनी बात कहने का माध्यम बनाया और पापा के व्हाट्सएप नंबर पर एक मैसेज टाइप किया, जिस में रीती ने अपने लैस्बियन होने की बात कबूली और ये भी कहा कि वे उस की शादी किसी लड़के से न तय करें, क्योंकि ऐसा कर के वे उस की निजता और उस के जीवन के साथ खिलवाड़ करेंगे.

कई दिनों तक पापा घर नहीं आए और ना ही उन का कोई रिप्लाई आया. एक बाप भला अपनी बेटी के लैस्बियन होने पर उस को क्या जवाब देता…?

फिर एक दिन पापा का रिप्लाई आ गया, जिस में समाज की दुहाई देते हुए उन्होंने कहा था कि एक बाप होने के नाते लड़की की शादी करना उन की मजबूरी है, क्योंकि उन्हें भी समाज में और लोगों को मुंह दिखाना है. अपनी लड़की के समलैंगिक होने की बात अन्य लोगों को बता कर वे अपनी नाक नहीं कटवाना चाहते, इसलिए उसे चुपचाप शादी करनी होगी.

पापा की मरजी के आगे रीती कुछ न कह सकी और उस की शादी अमन से हो गई थी.

रीती की शादी और अर्शिया की नौकरी भी उन दोनों के बीच का प्रेम नहीं कम कर पाई थी. अर्शिया फोन और सोशल मीडिया के द्वारा रीती से जुड़ी हुई थी.

रीती अभी और पता नहीं कितनी देर तक पुरानी यादों में डूबी रहती कि उस का मोबाइल फोन बज उठा. अमन का फोन था. बोला, “सुनो… तुम्हारी कोरोना की रिपोर्ट पौजिटिव आ गई है. मुझ से दूरी बनाए रखना… और तुम गोमती नगर वाले फ्लैट में ही रहती रहना… और मैं अब और तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहता. मैं अस्पताल में जांच कराने जा रहा हूं. क्या पता तुम ने मुझे भी संक्रमित तो नहीं कर दिया?”

आंसुओं में टूट गई थी रीती… वह कोरोना पौजिटिव आई थी इसलिए नहीं, बल्कि इसलिए कि उस के पति ने एक कायर की भांति व्यवहार
किया था. महामारी के समय जब उसे अपने पति से देखभाल और प्यार की सब से ज्यादा जरूरत थी, तब उस के पति ने अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया था…

दुख के इस समय में उसे अर्शिया की याद सताने लगी थी. भारी मन से उस ने अर्शिया का नंबर मिला दिया. अर्शिया का नंबर ‘नोट रीचेबल’ आ रहा था.

“अपना फोन अर्शिया कभी बंद नहीं करती, फिर आज उस का मोबाइल…” किसी अनिष्ट की आशंका में डूब गई थी रीती.

तकरीबन 2 घंटे के बाद अर्शिया के फोन से रीती के मोबाइल पर फोन आया.

“लौकडाउन के कारण मेरी कंपनी बंद हो गई है, इसलिए मैं तुझ से मिलने लखनऊ आ गई हूं. कैब कर ली है… अपने घर की लोकेशन व्हाट्सएप पर भेज दे. जल्दी से पहुंचती हूं, फिर ढेर सारी बातें होंगी,” खुशी की लहर रीती के मन को बारबार भिगोने लगी थी.

आज इतने दिनों के बाद वह अपने प्यार से मिलेगी, अपने सच्चे प्यार से, जो न केवल उस के जिस्म की जरूरत को समझती है, बल्कि उस के मानसिक अहसास को भी अच्छी तरह जानती है.

लोकेशन भेजते ही रीती को खुद के पौजिटिव होने की बात याद आई. उस ने तुरंत कांपते हाथों से संदेश टाइप किया, “मैं तो कोरोना पौजिटिव हूं…मुझ से दूर ही रहना… अभी मत आओ.”

“ओके,” अर्शिया का उत्तर आया.

एक बार फिर से अकेले होने के अहसास से दम घुटने सा लगा था रीती का. तकरीबन आधे के घंटे बाद कालबेल बजी.

“भला यहां कौन आ गया?” भारी मन से रीती ने दरवाजा खोला. सामने कोई था, जो पीपीई किट पहने और चेहरे पर मास्क और फेस शील्ड लगा कर खड़ा था.

उस की आवाज से रीती ने उसे पहचाना. वो अर्शिया ही तो थी. रीती ने चाहा कि वह उस के गले लग जाए, पर ठिठक सी गई.

“भला किसी अपने को कोई बीमारी हो जाती है तो उसे छोड़ तो नहीं दिया जाता…अब मैं आ गई हूं… अब मैं घर पर ही तेरा इलाज करूंगी,” अर्शिया ने घर के अंदर आते हुए कहा.

अर्शिया ने रीती की रिपोर्ट के बाबत औनलाइन डाक्टरों से भी कंसल्ट किया और घरेलू नुसखों का भी सहारा लिया और पूरी सतर्कता के साथ रीती की सेवा की.

जब हृदय में प्रेम फूटता है, तो किसी भी बीमारी को सही होने में ज्यादा समय नहीं लगता. रीती के साथ भी यही हुआ. सही समय पर उचित दवा और प्यारभरी देखभाल के चलते जल्दी ही रीती ठीक होने लगी और कुछ दिनों बाद उस की अगली कोरोना रिपोर्ट नैगेटिव आ गई
थी.

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आज उन दोनों के बीच कोई पीपीई किट नहीं थी. न जाने कितनी देर तक दोनों एकदूसरे से प्यार करते रहे थे.

“मैं अमन को तलाक देने जा रही हूं… पर, तुम्हें अपने से दूर नहीं जाने दूंगी,” रीती ने अर्शिया की गोद में लेटते हुए कहा.

“तो दूर जाना भी कौन चाहता है? पर, क्या समलैंगिक रिश्ते में रहने पर तुम्हें समाज से डर नहीं लगेगा ?” अर्शिया ने पूछा.

“तो समाज ने मेरा कौन सा ध्यान रखा है, जो मैं समाज का खयाल करूं… अब से मैं अपने लिए जिऊंगी… अभी तक तो मैं कितना नैगेटिव सोच रही थी… तुम्हारी संगत में आ कर पौजिटिव हुई हूं… और अब मैं इसे हमेशा अपने जीवन का हिस्सा बना कर रखूंगी,” दोनों ने एकदूसरे के हाथों को थाम लिया था. चारों ओर पौजिटिविटी का उजाला फैलने लगा था और रीती की सोच भी तो नैगेटिव से पौजिटिव हो गई थी.

खुद को दें क्वालिटी टाइम

लेखिका-सोनिया राणा

वर्किंग मदर्स की बात करें तो सभी के मन में सब से पहले सुबह से रात तक एक व्यस्त रूटीन में बंधी महिलाएं आती हैं, जो सुबह उठ कर सब से पहले अपने परिवार का नाश्ता तैयार करतीं, फिर पूरे दिन की तैयारी कर खुद काम पर जातीं. जब दफ्तर से वापस आतीं तो परिवार में मातापिता को भी वक्त देतीं और अपने बच्चों के साथ भी क्वालिटी टाइम स्पैंड करतीं.

पहले से ही दिन के 24 घंटों में वर्किंग मदर्स खुद के लिए चंद मिनट भी नहीं निकाल पाती थीं और अब कोविड-19 महामारी ने उन की मुश्किलों को और कई गुणा बढ़ा दिया है. अब महत्त्वाकांक्षी महिलाओं को अपने कैरियर के साथसाथ घर वालों की सेहत के साथ ही घर को भी सुरक्षित बनाए रखने के लिए साफसफाई पर अतिरिक्त समय बिताना पड़ता है.

जो कामकाजी मां पहले दिन में कुछ पल अपने लिए निकालने के लिए जद्दोजहद करती थी उसे अब सांस लेने की भी फुरसत नहीं मिलती. लेकिन आप का यह रूटीन आप के परिवार के लिए भले जरूरी हो, लेकिन आप के लिए भविष्य में मुश्किल पैदा कर सकता है.

एक महिला परिवार की नींव होती है. अब सोचिए हम अपनी नींव पर इतना वजन दे देंगे तो पूरे घर का क्या होगा. इसलिए वर्किंग मदर हो या घरेलू महिला यह मुद्दा अब जोर पकड़ने लगा है कि उन का खुद का खयाल रखना कितना महत्त्वपूर्ण है.

बात फिर चाहे शारीरिक फिटनैस की हो या मानसिक सेहत की, डाक्टर्स भी महिलाओं को खुद की देखभाल करने की सलाह देते हैं.

हैल्दी खाना आप के लिए भी है जरूरी

अकसर महिलाओं की कोशिश रहती है कि परिवार में बड़ी उम्र के लोगों या बढ़ती उम्र के बच्चों के हिसाब से हैल्दी खाना बनाने की. लेकिन जब बात खुद की हो तो ज्यादातर महिलाएं अपने शरीर की जरूरतों पर उतना ध्यान नहीं देतीं.

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डाक्टरों का मानना है कि महिलाओं को हर उम्र में सही पोषण की जरूरत होती है. आयरन और कैल्सियम की जरूरत हर उम्र की महिलाओं के लिए होती है, इसलिए अपने खाने में आयरन और कैल्सियम से युक्त भोजन की जिस में पालक, ब्रोकली, चुकंदर, स्प्राउट्स, दूध, पनीर, टोफू जैसी चीजें शामिल हों.

मी-टाइम है जरूरी

सब से जरूरी है कि आप अपने शैड्यूल में अपने लिए भी वक्त तय करें, जिस में आप अपनी पसंद का काम करें. आप चाहे उस वक्त को ग्रूमिंग के लिए इस्तेमाल करें या फिर अगर आप को किताबें, मैगजीन पढ़ने या फिर संगीत सुनना पसंद करती हों अथवा चित्रकला की शौकीन हों, तो उस वक्त को अपने मूड के हिसाब से इस्तेमाल करें.

अगर मन सिर्फ आराम करने का हो तो भी उस में कुछ गलत नहीं है. इस से आप को दिन बोझिल नहीं लगेगा और आप का मानसिक तनाव कम होगा.

व्यायाम है जरूरी

जैसे बच्चों के विकास के लिए शारीरिक ऐक्टिविटीज को ले कर आप परेशान होती हैं ऐसे ही आप को अपनी सेहत पर फोकस करने की भी जरूरत होती है. जरूरी है कि हर उम्र की महिलाएं अपनी सेहत के हिसाब से दिन में करीब 30 मिनट ऐक्सरसइज के लिए जरूर निकालें. जरूरी नहीं कि आप जिम में जा कर ही पसीना बहाएं. इस महामारी के वक्त अहम यह है कि आप सुरक्षित वातावरण में दिन में भले 10 मिनट वाक करें.

इस से आप को पूरा दिन काम करने की ऊर्जा मिलेगी साथ ही थकान भी मिटेगी. जरूर नहीं कि सुबह जल्दी उठ कर या शाम में ही ऐक्सरसाइज करें, बल्कि जिस वक्त आप को टाइम मिले उसे व्यायाम के लिए उपयोग करें बस ध्यान रखें कि ऐक्सरसाइज के ठीक पहले आप ने हैवी डाइट न ली हो.

अच्छी नींद लें

खुद की देखभाल में सब से आसान और सब से मुश्किल काम यही है कि आप अपनी नींद पूरी करें. डाक्टरों का मानना है कि दिन में करीब 7-8 घंटे की नींद वयस्क के लिए जरूरी है. ऐसे में अगर आप 7-8 घंटे से कम सोती हैं तो खुद ही बीमारियों को न्योता देने की तैयारी कर रही हैं.

महिलाएं सब का खयाल रखने में इतनी मशगूल रहती हैं कि खुद उन के लिए क्या सही है यह जानते हुए भी उसे नहीं कर पातीं. कभी घर की जिम्मेदारी तो कभी दफ्तर के काम का प्रैशर महिलाएं बिना शिकायत खुद ही उठाती हैं.

अब चूंकि दिन में 24 ही घंटे हैं, जिन में आप को अपना, परिवार का और दफ्तर काम संभालना है तो महिलाएं बाकी सब के टाइम में कटौती किए बिना अपनी नींद के वक्त मेें कटौती कर लेती हैं जोकि शौर्ट टर्म के लिए तो ठीक लगता है, लेकिन रोजाना ऐसा रूटीन आप की सेहत बिगाड़ सकता है.

इस से बचने के लिए जरूरी है कि जैसे आप सुबह अलार्म लगा कर उठने का वक्त तय करती हैं ठीक उसी तरह रात को सोना का वक्त भी फिक्स करें.

मैडिटेशन भी होगा मददगार

तनावभरे दिन के बाद जरूरी है कि मस्तिष्क को कुछ आराम दें. इस में मैडिटेशन आप के लिए मददगार साबित होगा. आप चाहें तो शांत अंधेरे कमरे में बैठ कर दिन में कम से कम 10 मिनट मैडिटेट करें और अगर आप का ध्यान भटक रहा हो तो बहुत सी ऐप्लिकेशन इन दिनों आप को अपने मोबाइल स्टोर में मिल जाएंगी जिन से आप आसानी से अपना ध्यान लगा सकती हैं.

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आत्मग्लानी से बचें, खुद की प्रशंसा करें

महामारी हो या नहीं वर्किंग मदर्स इस आत्मग्लानी में रहती हैं कि वे अपने बच्चों और अपने परिवार का ज्यादा ध्यान रख पातीं, लेकिन उन्हें यह समझना जरूरी है कि वे इंसान हैं और जितना उन से हो सकता है वे कर रही हैं.

खुद की दूसरी मांओं से तुलना न करें. आप को अपने परिवार, अपने बच्चों की जरूरतों की बेहतर समझ है और आप अपनी कूबत से ज्यादा मेहनत और वक्त उन के लिए देती हैं. इसलिए आत्मग्लानी से बाहर आएं और अपने किए काम की प्रशंसा करें.

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