Hindi Moral Tales : थैंक्यू मम्मीपापा – बेटे के लिए क्या तरकीब निकाली?

Hindi Moral Tales : ‘‘हां, बोलो तानिया, कैसी हो,’’ फोन उठाते ही वरुण ने तानिया का स्वर पहचान लिया.

‘‘मैं तो ठीक हूं, पर तुम्हारी क्या समस्या है वरुण?’’ तानिया ने तीखे स्वर में पूछा.

‘‘कैसी समस्या?’’

‘‘वह तो तुम्हीं जानो पर तुम से बात करना तो असंभव होता जा रहा है. घर पर फोन करो तो मिलते नहीं हो. मोबाइल हमेशा बंद रहता है,’’ तानिया ने शिकायत की.

‘‘आज पूरा दिन बहुत व्यस्त था. बौस के साथ एक के बाद एक मीटिंगों का ऐसा दौर चला कि सांस लेने तक की फुरसत नहीं थी. मीटिंग में मोबाइल तो बंद रखना ही पड़ता है,’’ वरुण ने सफाई दी.  ‘‘बनाओ मत मुझे. तुम जानबूझ कर बात नहीं करना चाहते. मैं क्या जानती नहीं कि तुम अपनी कंपनी के उपप्रबंध निदेशक हो. तुम्हें फोन पर बात करने से कौन मना कर सकता है?’’

‘‘प्रश्न किसी और के मना करने का नहीं है पर जो नियमकायदे दूसरों के लिए बनाए गए हैं, उन का पालन सब से पहले मुझे ही करना पड़ता है,’’ वरुण ने सफाई दी.

‘‘यह सब मैं कुछ नहीं जानती. पर मैं बहुत नाराज हूं. फोन करकर के थक गई हूं मैं.’’

‘‘छोड़ो ये गिलेशिकवे और बताओ कि किसलिए इतनी बेसब्री से फोन पर संपर्क साधा जा रहा था?’’

‘‘वाह, बात तो ऐसे कर रहे हो जैसे कुछ जानते ही नहीं. याद है, आज संदीप ने तुम्हारे स्वागत में बड़ी पार्टी का आयोजन किया है.’’

‘‘याद रहने, न रहने से कोई अंतर नहीं पड़ता. मैं ने पहले ही कहा था कि मैं पार्टी में नहीं आ रहा. आज मैं बहुत व्यस्त हूं. व्यस्त न होता तो भी नहीं आता. मुझे पार्टियों में जाना पसंद नहीं है.’’

‘‘क्या कह रहे हो? संदीप बुरा मान जाएगा. उस ने यह पार्टी विशेष रूप से तुम्हारे लिए ही आयोजित की है.’’

‘‘जरा सोचो तानिया, पिछले 10 दिन में हम जब भी मिले हैं, किसी न किसी पार्टी में ही मिले हैं. तुम्हें नहीं लगता कि कभी हम दोनों अकेले में ढेर सारी बातें करें. एकदूसरे को जानेंसमझें?’’

‘‘कितने पिछड़े विचार हैं तुम्हारे, बातें तो हम पार्टी में भी कर सकते हैं और एकदूसरे को जाननेसमझने को तो पूरा जीवन पड़ा है,’’ तानिया ने अपने विचार प्रकट किए तो वरुण बुरी तरह झल्ला गया. पर वह कोई कड़वी बात कह कर कोई नई मुसीबत मोल नहीं लेना चाहता था.

‘‘ठीक है, तो फिर कभी मिलेंगे. बहुत सारी बातें करनी हैं तुम से,’’ वरुण ने लंबी सांस ली थी.

‘‘क्या, पार्टी में नहीं आ रहे तुम?’’ तानिया चीखी.

‘‘नहीं.’’

‘‘ऐसा मत कहो, तुम्हें मेरी कसम. आज की पार्टी में तुम्हारी मौजूदगी बेहद जरूरी है.’’

‘‘केवल एक ही शर्त पर मैं पार्टी में आऊंगा कि आज के बाद तुम मुझे किसी दूसरी पार्टी में नहीं बुलाओगी,’’ वरुण अपना पीछा छुड़ाने की नीयत से बोला था.

‘‘जैसी आप की आज्ञा महाराज,’’ तानिया नाटकीय अंदाज में हंस कर बोली.  वरुण पार्टी में पहुंचा तो वहां की तड़कभड़क देख कर दंग रह गया था. ज्यादातर युवतियां पारदर्शी, भड़काऊ परिधानों में एकदूसरे से प्रतिस्पर्धा करती नजर आ रही थीं.

तानिया को देख कर पहली नजर में तो वरुण पहचान ही नहीं सका. कुछ देर के लिए तो वह उसे देखता ही रह गया था.

‘‘अरे, ऐसे आश्चर्य से क्या घूर रहे हो?’’ तानिया खिलखिलाई थी, ‘‘कैसा लग रहा है मेरा नया रूपरंग? आज का यह नया रूपरंग, साजसिंगार खासतौर पर तुम्हारे लिए है. बालों का यह नया अंदाज देखो और यह नई ड्रैस. इसे आज के मशहूर डिजाइनर सुशी से डिजाइन करवाया है,’’ तानिया सब के सामने अपनी प्रदर्शनी कर रही थी. पर वरुण के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला था.

‘‘क्या कर रही हो तुम? क्यों लोगों के सामने अपना तमाशा बना रखा है तुम ने. अपना नहीं तो कम से कम मेरे सम्मान का खयाल करो,’’ वरुण उसे एक ओर ले जा कर बोला था.

‘‘क्यों, क्या हुआ? तुम तो ऐसे नाराज हो रहे हो जैसे मैं ने कोई अपराध कर डाला होे. खुद तो कभी मेरी प्रशंसा में दो शब्द बोलते नहीं हो और मेरे पूछने पर यों मुंह फुला लेते हो,’’ तानिया आहत स्वर में बोली थी.

‘‘तुम्हें दुखी करने का मेरा कोई इरादा नहीं था. पर फिर भी…’’

‘‘फिर भी क्या?’’

‘‘मैं अपनी भावी पत्नी से थोड़े शालीन व्यवहार की उम्मीद रखता हूं और तुम्हारी यह ड्रैस? इस के बारे में जो न कहा जाए वह कम है,’’ वरुण शायद कुछ और भी कहता कि तभी संदीप अपने 2 दूसरे मित्रों के साथ आ गया था.

‘‘हैलो वरुण,’’ संदीप ने बड़ी गर्मजोशी से आगे बढ़ कर हाथ मिलाया था.

‘‘आज आप को यहां देख कर मुझे असीम प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है. मैं ने यह पार्टी आप के सम्मान में आयोजित की है. आप के न आने से इस सब तामझाम का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता,’’ संदीप ने कहा और वहां मौजूद अतिथियों से उस का परिचय कराने लगा. तानिया भी उस के साथ ही अपने दोस्तों से वरुण का परिचय करा रही थी.

‘‘इन से मिलिए, ये हैं डा. पंकज राय. शल्य चिकित्सक होने के साथ ही तानिया के अच्छे मित्र भी हैं,’’ एक युवक से परिचय कराते हुए कुछ ठिठक सा गया था संदीप.  ‘‘डा. पंकज से इन का परिचय मैं स्वयं कराऊंगी. मेरे बड़े अच्छे मित्र हैं. 2 वर्ष तक हम दोनों साथ रहे हैं. एकदूसरे को जाननेसमझने का प्रयत्न किया. जब लगा कि हम एकदूसरे के लिए बने ही नहीं हैं तो अलग हो गए,’’ तानिया ने विस्तार से डा. पंकज का परिचय दिया.  ‘‘तानिया ठीक कहती है. मैं ने तो इसे सलाह दी थी कि हमारे साथ रहने की बात आप को न बताए. पर यह कहने लगी कि आप संकीर्ण मानसिकता के व्यक्ति नहीं हैं. वैसे भी आजकल तो यह सब आधुनिक जीवन का हिस्सा है,’’

डा. पंकज ने अपने विचार प्रकट किए थे.  कुछ क्षणों के लिए तो वरुण को लगा कि उस का मस्तिष्क किसी प्रहार से सुन्न हो गया है. पर दूसरे ही क्षण उस ने खुद को संभाल लिया. वह कोई भी उलटीसीधी हरकत कर के लोगोें के उपहास का पात्र नहीं बनना चाहता था.  पर मन में एक फांस सी गड़ गई थी जो लाख प्रयत्न करने पर भी निकल नहीं रही थी. अच्छा था कि वरुण के चेहरे के बदलते भावों को किसी ने नहीं देखा.

हाथ में शीतल पेय का गिलास थामे वह एक ओर पड़े सोफे पर बैठ गया.  पिछले कुछ समय की घटनाएं चलचित्र की तरह वरुण के मानसपटल से टकरा रही थीं. 10-12 दिन पहले ही बड़ी धूमधाम से तानिया से उस की सगाई हुई थी. बड़े से पांचसितारा होटल में मानो आधा शहर ही उमड़ आया था. तानिया के पिता जानेमाने व्यवसायी थे. विधानपरिषद के सदस्य होने के साथ ही राजनीतिक क्षेत्र में उन की अच्छी पैठ थी. सगाई से पहले वरुण 3-4 बार तानिया से मिला था. उसे लगा कि तानिया ही उस के सपनों की रानी है, जिस की उसे लंबे समय से प्रतीक्षा थी. अपने सुंदर रंगरूप और खुले व्यवहार से किसी को भी आकर्षित कर लेना तानिया के बाएं हाथ का खेल था.  वरुण के मातापिता ने तानिया को देखते ही पसंद कर लिया था. वरुण का परिवार भी शहर के संपन्न परिवारों में गिना जाता था. पर उस के मातापिता ‘सादा जीवन उच्च विचार’ के पक्षधर थे. सगाई के अवसर की तड़कभड़क देख कर उस के मित्रों और संबंधियों ने दांतों तले उंगली दबा ली थी. वरुण और उस के मातापिता ने भी इसे स्वाभाविक रूप से ही लिया था. पर अब वरुण को लग रहा था कि सबकुछ बहुत जल्दबाजी में हो गया. उसे तानिया को अच्छी तरह जाननेसमझने के बाद ही कोई निर्णय लेना चाहिए था.  तानिया की कई सहेलियां व दोस्त थे. उस ने खुद ही वरुण को सबकुछ स्पष्ट रूप से बता दिया था. शायद उस के इस खुले स्वभाव ने ही प्रारंभ में उसे प्रभावित किया था. आज जब युवा खुलेआम एकदूसरे से मिलतेजुलते हैं तो उन में मित्रता होना स्वाभाविक है. वह अब तक स्वयं को खुली मानसिकता का व्यक्ति समझता था, पर आज की घटना ने उसे पूर्ण रूप से उद्वेलित कर दिया था.

हर समय अपने पुरुष मित्रों की बातें करना, उन के गले में बाहें डाल कर घूमना, उन के साथ बेशर्मी से हंसना, खिलखिलाना, तानिया के ऐसे व्यवहार को वह सहजता से नहीं ले पा रहा था. मन ही मन स्वयं को भी झिड़क देता था.  ‘समय बहुत तेजी से बदल रहा है वरुण राज. उस के कदम से कदम मिला कर नहीं चले तो औंधे मुंह गिरोगे,’ वह खुद को ही समझाता. कभीकभी तो उसे लगता मानो वह संकीर्ण मानसिकता का शिकार है, जो आधुनिकता का जामा पहन कर भी स्त्री की स्वतंत्रता को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं आ सका.  पर आज नहीं, आज तो उसे लगा कि यह उस की सहनशक्ति से परे है. वह इतना आधुनिक भी नहीं हुआ कि समाज की समस्त वर्जनाओं को अस्वीकार कर के उच्छृंखल जीवनशैली अपना ले. उस के धीरगंभीर स्वभाव और अनुशासित जीवनशैली की सभी प्रशंसा करते थे.

धीरेधीरे सबकुछ शीशे की तरह साफ होता जा रहा था. वरुण को लगने लगा कि उसे ग्लैमर की गुडि़या नहीं जीवनसाथी चाहिए, जो शायद तानिया चाह कर भी नहीं बन सकेगी.  वरुण अपने गंभीर खयालों में खोया था कि एक हाथ में सिगरेट और दूसरे में गिलास थामे तानिया लहराती हुई आई.  ‘‘हे, वरुण, तुम यहां बैठे हो? मैं ने तुम्हें कहांकहां नहीं ढूंढ़ा. चलो न, डांस करेंगे,’’ वरुण को देखते ही उस ने आग्रह किया था.  वरुण तुरंत ही उठ खड़ा हुआ था. ‘‘तानिया यह सब क्या है? तुम तो कह रही थीं कि तुम तो सिगरेटशराब को छूती तक नहीं?’’ वरुण ने तीखे स्वर में प्रश्न किया था.  ‘‘मैं तो अब भी वही कह रही हूं. यह सिगरेट तो केवल अदा के लिए है. मुझे तो एक कश लेते ही इतने जोर की खांसी उठती है कि सांस लेना कठिन हो जाता है. तुम भी लो न. अच्छा लगता है. दोनों साथ में फोटो खिचवाएंगे. और यह तो केवल शैंपेन है, महिलाओें का पेय.’’

‘‘धन्यवाद, मैं ऐसे अंदाज दिखाने में विश्वास नहीं रखता,’’ वरुण ने मना किया तो तानिया उसे डांसफ्लोर तक खींच ले गई. तानिया देर तक वहां थिरकती रही, वरुण ने कुछ देर उस का साथ देने का प्रयत्न किया फिर कक्ष से बाहर आ गया. बाहर की ठंडी सुगंधित मंद पवन ने उसे बड़ी राहत दी. वह कुछ देर वहीं बैठ कर आकाश में बनतीबिगड़ती आकृतियों को देखता रहा.  पीनेपिलाने, नाचनेगाने और देर रात तक पार्टी गेम्स खेलने के बाद जब भोजन शुरू हुआ तो सुबह के 4 बज गए थे. वरुण की भूख मर चुकी थी.  तानिया से विदा ले कर जब तक घर पहुंचा तो पौ फटने लगी थी.

‘‘यह घर आने का समय है?’’ उस की मां शोभा देवी झल्लाई थीं.

‘‘मां, तानिया के मित्रों की पार्टी थी. रात भर गहमागहमी चलती रही. मैं थोड़ी देर सो जाता हूं. 3 घंटे के बाद जगा देना. 9 बजे तक कार्यालय पहुंचना है. आवश्यक कार्य है,’’ थके उनींदे स्वर में बोल कर वरुण अपने कमरे में सोने चला गया.  ‘‘आ गया तुम्हारा बेटा?’’ प्रात: टहलने के लिए तैयार हो रहे वरुण के पिता मनोहर ने व्यंग्यपूर्ण स्वर में पत्नी से कहा. ‘‘हां, आ गया,’’ शोभा ने बुझे स्वर में कहा था.

‘‘देख लो, साहबजादे के लक्षण ठीक नजर नहीं आ रहे.’’

‘‘हम दोनों चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते. पढ़ालिखा समझदार है वरुण. अच्छे पद पर है. विवाह भी हम ने उस की पसंद पर छोड़ दिया है. सब देखसुन कर उस ने तानिया को पसंद किया था. पढ़ीलिखी सुंदर स्मार्ट लड़की है. दोनों आनंद से जीवन बिताएं, इस से अधिक हमें क्या चाहिए.’’

‘‘वह भी होता नजर नहीं आ रहा. तुम्हें नहीं लगता कि हमारे और उन के सामाजिक स्तर में बड़ा अंतर है.’’

‘‘होंगे वे बड़े लोग, हम भी उन से किसी बात में कम नहीं हैं. वैसे भी यदि वरुण प्रसन्न है तो तुम क्यों अपना दिल जला रहे हो,’’ शोभा ने बात को वहीं विराम देना चाहा था.

‘‘वह भी ठीक है. काजीजी दुबले क्यों…’’ ठहाका लगाते हुए मनोहर बाबू टहलने के लिए पार्क की ओर चल पड़े.

कुछ दिन इसी ऊहापोह में बीत गए. वरुण अंतर्मुखी होता जा रहा था.  उस दिन डिनर के समय वरुण अपने ही विचारों में खोया हुआ था. शोभा देवी कुछ देर तक उसे ध्यान से देखती रही थीं.

‘‘वरुण,’’ उन्होंने धीमे स्वर में पुकारा.

‘‘हां, मां, कहिए न, क्या बात है?’’

‘‘बात क्या होगी, तेरी सगाई क्या हुई हम तो तुम से बात करने को तरस गए. बात क्या है बेटे?’’

‘‘कुछ नहीं मां. ऐसे ही कुछ सोचविचार कर रहा था.’’

‘‘सोचविचार बाद में करना. कभी हम से भी बात करने का समय निकाला करो न.’’

‘‘कैसी बात कर रही हो मां. कहिए न, क्या कहना है?’’

‘‘तानिया के पापा का फोन आया था. वे विवाह की तिथि पक्की कर के चटपट इस जिम्मेदारी से मुक्ति पाना चाहते हैं.’’

‘‘ऐसी जल्दी भी क्या है मां? अभी 10 दिन पहले ही तो सगाई हुई है. थोड़े दिन साथ घूमफिर लें, एकदूसरे को समझ लें, फिर विवाह के बारे में सोचेंगे.’’

‘‘क्या कह रहा है बेटे, सगाई के बाद कोई लंबे समय तक प्रतीक्षा नहीं करता. वैसे भी कितना समय चाहिए तुम्हें एकदूसरे को जानने के लिए?’’ शोभा देवी हैरानपरेशान स्वर में बोली थीं.

‘‘मां, हमारे विचारों में कोई समानता नहीं है. मुझे नहीं लगता कि यह विवाह एक दिन भी चल पाएगा. जीवन भर की तो कौन कहे,’’ वरुण रूखे स्वर में बोला था.

‘‘यह क्या कह रहा है बेटे? ये सब तो सगाई से पहले सोचना था.’’

‘‘उसी भूल की तो सजा पा रहा हूं मैं. सच कहूं तो सगाई के बाद से मैं ने एक दिन भी चैन से नहीं बिताया. मां, यह सगाई तोड़ दो. इस विवाह से न मैं खुश रहूंगा, न तानिया. हम दोनों के विचारों और जीवनशैली में जमीनआसमान का अंतर है.’’

शोभा देवी स्तब्ध रह गईं. जब मनोहर बाबू ने भोजन कक्ष में प्रवेश किया तो वहां बोझिल चुप्पी छाई थी.

‘‘क्या बात है. आज मांबेटे का मौनव्रत है क्या?’’ उन्होंने उपहास किया था.

‘‘मौनव्रत तो नहीं है पर पूरी बात सुनोगे तो तुम्हारे पांवों तले से धरती खिसक जाएगी,’’ शोभा देवी रोंआसे स्वर में बोली थीं.

‘‘फिर तो कह ही डालो. हम भी इस अलौकिक अनुभूति का आनंद उठा ही लें.’’

‘‘तो सुनो, वरुण तानिया से विवाह नहीं करना चाहता. चाहता है कि इस सगाई को तोड़ दिया जाए.’’

‘‘क्या? यह सच है वरुण?’’

‘‘जी पापा, मैं विवाह के बंधन को अपने लिए ऐसा पिंजरा नहीं बना सकता जिस में मेरा अस्तित्व मात्र एक परकटे पंछी सा रह जाए.’’  मनोहर बाबू यह सुन कर मौन रह गए थे. वरुण के स्वर से उस की पीड़ा स्पष्ट हो गई थी.  ‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी इच्छा. अभी तो केवल सगाई हुई है. यदि तुम समझते हो कि तुम दोनों की नहीं निभ सकती तो सगाई को तोड़ देने में ही सब की भलाई है.’’

मनोहर बाबू और शोभा ने तानिया के मातापिता के सामने पूरी स्थिति स्पष्ट कर दी. काफी विचारविमर्श के बाद उस संबंध को वहीं समाप्त करने का निर्णय लिया गया.  दोनों पक्षों ने एकदूसरे को दी हुई वस्तुओं की अदलाबदली कर संपूर्ण प्रक्रिया की इतिश्री कर डाली.  आज बहुत दिनों के बाद शोभा देवी ने वरुण के चेहरे पर स्वाभाविक चमक देखी थी. मन में गहरी टीस होने पर भी उस के चेहरे पर संतोष था.

Hindi Story Collection : वापसी – तृप्ति अमित के पास वापस क्यों लौट आयी?

Hindi Story Collection : दिल्ली पहुंचने की घोषणा के साथ विमान परिचारिका ने बाहर का तापमान बता कर अपनी ड्यूटी खत्म की, लेकिन वीरा की ड्यूटी तो अब शुरू होने वाली थी. अंडमान निकोबार से आया जहाज जैसे ही एअरपोर्ट पर रुका, वीरा के दिल की धड़कनें यह सोच कर तेज होने लगीं कि उसे लेने क्या विजेंद्र आया होगा?

अपने ही सवालों में उलझी वीरा जैसे ही बाहर आई कि सामने से दौड़ कर आती विपाशा ‘मांमां’ कहती उस से आ कर लिपट गई.

वीरा ने भी बेटी को प्यार से गले लगा लिया.

‘5 साल में तू कितनी बड़ी हो गई,’ यह कहते समय वीरा की आंखें चारों ओर विजेंद्र को ढूंढ़ रही थीं. शायद आज भी विजेंद्र को कुछ जरूरी काम होगा. विपाशा मां को सामान के साथ एक जगह खड़ा कर गाड़ी लेने चली गई. वह सामान के पास खड़ी- खड़ी सोचने लगी.

5 साल पहले उस ने अचानक अंडमान निकोबार जाने का फैसला किया, तो  महज इसलिए कि वह विजेंद्र के बेरुखी भरे व्यवहार से तिलतिल कर मर रही थी.

विजेंद्र ने भरपूर कोशिश की कि अपनी पत्नी वीरा से हमेशा के लिए पीछा छुड़ा ले. उस ने तो कलंक के इतने लेप उस पर चढ़ाए कि कितना ही पानी से धो लो पर लेप फिर भी दिखाई दे.

यही नहीं विजेंद्र ने वीरा के सामने परेशानियों के इतने पहाड़ खड़े कर दिए थे कि उन से घबरा कर वह स्वयं विजेंद्र के जीवन से चली जाए. लेकिन वीरा हर पहाड़ को धीरेधीरे चढ़ कर पार करने की कोशिश में लगी रही.

अचानक ही अंडमान में नौकरी का प्रस्ताव आने पर वह एक बदलाव और नए जीवन की तैयारी करते हुए वहां जाने को तैयार हो गई.

अंडमान पहुंच कर वीरा ने अपनी नई नौकरी की शुरुआत की. उसे वहां चारों ओर बांहों के हार स्वागत करते हुए मिले. कुछ दिन तो जानपहचान में निकल गए लेकिन धीरेधीरे अकेलेपन ने पांव पसारने शुरू कर दिए. इधर साथ काम करने वाले मनचलों में ज्यादातर के परिवार तो साथ थे नहीं, सो दिन भर नौकरी करते, रात आते ही बोतल पी कर सोने का सहारा ढूंढ़ लेते.

छुट्टी होने पर घर और घरवाली की याद आती तो फोन घुमा कर झूठासच्चा प्यार दिखा कर कुछ धर्मपत्नी को बेवकूफ बनाते और कुछ अपने को भी. ऐसी नाजुक स्थिति में वे हर जगह हर किसी महिला की ओर बढ़ने की कोशिश करते, पट गई तो ठीक वरना भाभीजी जिंदाबाद. अंडमान में वीरा अपने कमरे की खिड़की पर बैठ कर अकसर यह नजारे देखती. कई बार बाहर आने के लिए उसे भी न्योते मिलते पर उस का पहला जख्म ही इतना गहरा था कि दर्द से वह छटपटाती रहती.

कंपनी से वीरा को रहने के लिए जो फ्लैट मिला था, उस फ्लैट के ठीक सामने पुरुष कर्मचारियों के फ्लैट थे. बूढ़ा शिवराम शर्मा भी अकसर शराब पी कर नीचे की सीढि़यों पर पड़ा दिख जाता. कैंपस के होटलों में शिवराम खाना कम खाता रिश्ते ज्यादा बनाने की कोशिश करता. उस के दोस्ती करने के तरीके भी अलगअलग होते थे. कभी धर्म के नाते तो कभी एक ही गांव या शहर का कह कर वह महिलाओं की तलाश में रहता था. शिवराम टेलीफोन डायरेक्टरी से अपनी जाति के लोगों के नाम से घरों में भी फोन लगाता. हर रोज दफ्तर में उस के नएनए किस्से सुनने को मिलते. कभीकभी उस की इन हरकतों पर वीरा को गुस्सा भी आता कि आखिर औरत को वह क्या समझता है?

कभीकभी उस का साथी बासु दा मजाक में कह देता, ‘बाबू शिवराम, घर जाने की तैयारी करो वरना कहीं भाभीजी भी किसी और के साथ चल दीं तो घर में ताला लग जाएगा,’ और यह सुनते ही शिवराम उसे मारने को दौड़ता.

3 महीने पहले आए राधू के कारनामे देख कर तो लगता था कि वह सब का बाप है. आते ही उस ने एक पुरानी सी गाड़ी खरीदी, उसे ठीकठाक कर के 3-4 महिलाओं को सुबहशाम दफ्तर लाने और वापस ले जाने लगा था. शाम को भी वह बेमतलब गाड़ी मैं बैठ कर यहांवहां घूमता फिरता.

एक दिन अचानक एक जगह पर लोगों की भीड़ देख कर यह तो लगा कि कोई घटना घटी है लेकिन कुछ समझ में नहीं आ रहा था. भीड़ छंटने पर पता चला कि राधू ने किसी लड़की को पटा कर अपनी कार में लिफ्ट दी और फिर उस के साथ छेड़छाड़ शुरू कर दी तो लड़की ने शोर मचा दिया. जब भीड़ जमा हो गई तो उस ने राधू को ढेरों जूते मारे.

वीरा अकसर सोचती कि आखिर यह मर्दों की दुनिया क्या है? क्यों औरत को  बेवकूफ समझा जाता है. दफ्तर में भी वीरा अकसर सब के चेहरे पढ़ने की कोशिश करती. सिर्फ एकदो को छोड़ कर बाकी के सभी एक पल का सुख पाने के लिए भटकते नजर आते.

वीरा की रातें अकसर आकाश को देखतेदेखते कट जातीं. जीने की तलाश में अंडमान आई वीरा को अब धरती का यह हिस्सा भी बेगाना सा लग रहा था. बहुत उदास होने पर वह अपनी बेटी विपाशा से बात कर लेती. फोन पर अकसर विपाशा मां को समझाती रहती, उस को सांत्वना देती.

5 साल बाद विजेंद्र ने बेटी विपाशा के माध्यम से वीरा को वापस आने का न्योता भेजा, तो वह अकसर यही सोचती, ‘आखिर क्या करे? जाए या न जाए. पुरुषों की दुनिया तो हर जगह एक सी ही है.’ आखिरकार बेटी की ममता के आगे वीरा, विजेंद्र की उस भूल को भी भूल गई, जिस के लिए उस ने अलग रहने का फैसला किया था.

वीरा को याद आया कि घर छोड़ने से पहले उस ने विजेंद्र से कहा था कि मैं ने सिर्फ तुम्हें चाहा है, कभी अगर मेरे कदम डगमगाने लगें या मुझे जीवन में कभी किसी मर्द की जरूरत पड़ी तो वापस तुम्हारे पास लौट आऊंगी. आखिर हर जगह के आदमी तो एक जैसे ही हैं. इस राह पर सब एक पल के लिए भटकते हैं और वह भटका हुआ एक पल क्या से क्या कर देता है.

कभी वीरा सोचती कि बेटी के कहने का मान ही रख लूं. आज वह ममता की भूखी, मानसम्मान से बुला रही है, कहीं ऐसा न हो, कल को उसे भी मेरी जरूरत न रहे.

अचानक वीरा के कानों में विपाशा के स्वर उभरे, ‘‘मां, तुम कहां खोई हो जो तुम्हें गाड़ी का हार्न भी नहीं सुनाई पड़ रहा है.’’

वीरा हड़बड़ाती हुई गाड़ी की ओर बढ़ी. घर पहुंच कर विपाशा परी की तरह उछलने लगी. कमला से चाय बनवा कर ढेर सारी चीजों से मेज सजा दी.

सामने से आते हुए विजेंद्र ने एक पल को उसे देखा, उस की आंखों में उसे बेगानापन नजर आया. घर का भी एक अजीब सा माहौल लगा. हालांकि गीतांजलि अब  विजेंद्र के जीवन से जा चुकी थी, फिर भी वीरा को जाने क्यों अपने लिए शून्यता नजर आ रही थी. हां, विपाशा की हंसी जरूर उस के दिल को कुछ तसल्ली दे देती.

वह कई बार अपनेआप से ही बातें करती कि ऊपरी तौर पर वह लोगों के लिए प्रतिभासंपन्न है लेकिन हकीकत में वह तिनकातिनका टूट चुकी थी. जीने के लिए विपाशा ही उस की एकमात्र आशा थी.

विजेंद्र की कुछ मीठी यादों के सहारे वीरा अपना दुख भूलने की कोशिश करती, वह तो बेटी के प्रति मां की ममता थी जिस की खुशी के लिए उस ने अपनी वापसी स्वीकार कर ली थी. वह सोेचती, जब जीना ही है तो क्यों न अपने इस घर के आंगन में ही जियूं, जहां दुलहन बन के आई थी.

वीरा की वापसी से विपाशा की खुशी में जो इजाफा हुआ उसे देख कर काम वाली दादी अकसर कहती, ‘‘बेटा, निराश मत हो. विजेंद्र एक बार फिर से वही विजेंद्र बन जाएगा, जो शादी के कुछ सालों तक था. मैं जानती हूं कि तुम्हें विजेंद्र की जरूरत है और विपाशा को तुम्हारी. क्या तुम विपाशा की खुशी के लिए विजेंद्र की वापसी का इंतजार नहीं कर सकतीं?

‘‘आखिर तुम विपाशा की मां हो और समाज ने जो अधिकार मां को दिए हैं वह बाप को नहीं दिए. तुम्हारी वापसी इस घर के बिखरे तिनकों को फिर से जोड़ कर घोंसले का आकार देगी. खुद पर भरोसा रखो, बेटी.’’

लेखक- बीना बुदकी 

Hindi Kahaniyan : अहसास – क्या था प्रिया का रहस्य

Hindi Kahaniyan : सुबहसुबह मैं लौन में व्यायाम कर रहा था. इस वक्त दिमाग में बस एक ही बात चल रही थी कि प्रिया को अपना कैसे बनाऊं. 7 साल की प्रिया जब से हमारे घर में आई है हम दोनों पतिपत्नी की यही मनोस्थिति है. हमारे दिलोदिमाग में बस प्रिया ही रहती है. साथ ही डर भी रहता है कि कोई उसे हम से छीन कर न ले जाए.

आज से 2 महीने पहले तक प्रिया हमारी जिंदगी में नहीं थी. कोरोना के कारण हुए लॉकडाउन के शुरू होने के करीब 1 सप्ताह बाद की बात है. उस दिन रात में अचानक हमारे दरवाजे पर तेज दस्तक हुई. वैसे लॉकडाउन की वजह से लोगों का एकदूसरे के घर आनाजाना बंद था. रात के 11बजे थे. सड़कें सुनसान थीं. मोहल्ला वीरान था. ऐसे में तेज घंटी की आवाज सुन कर मेरी पत्नी निभा थोड़ी सहम गई. मैं ने उठ कर दरवाजा खोला. सामने 2 पुलिस वाले खड़े थे. उन में से एक ने एक बच्ची का हाथ थामा हुआ था.

मासूम सी वह बच्ची बड़ीबड़ी आंखों से एकटक मुझे देख रही थी. मैं ने सवालिया नजरों से पुलिस वाले की तरफ देखा,”जी कहिए?”

“कुछ दिनों के लिए इस बच्ची को अपने घर में पनाह दे दीजिए.  इस के मांबाप को कोरोना हो गया है. उन की हालत गंभीर है. उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया है. इस लड़की का कोई रिश्तेदार इधर नहीं रहता. अकेली है बिचारी.”

“पर हम क्यों रखें? मतलब मेरे बारे में किस ने बताया आप को ?””

“दरअसल इस के घर में एक डायरी थी. जिस में आप का पता लिखा हुआ था. जब किसी और परिचित का पता नहीं चला तो हम इसे आप के पास ले कर आ गए. इस मासूम की सूरत देखिए. इस की सुरक्षा का ख्याल रखना जरूरी है. इस के मांबाप कोरोना पौजिटिव हैं मगर इस की रिपोर्ट नेगेटिव आई है. इसलिए डरने की कोई बात नहीं. प्लीज रख लीजिए इसे.”

मैं ने निभा की तरफ देखा तो उस ने स्वीकृति में सिर हिलाया.

मैं ने कहा,” ओके रख लेता हूं. मुझे अपना नंबर दे दीजिए.”

“जरूर. यह मेरा कार्ड है और इस में नंबर है मेरा. कभी जरूरत पड़े तो मुझे फोन कर लीजिएगा.” पुलिस वाले ने कार्ड के साथ बच्ची का हाथ मेरे हाथों में दिया और चला गया.

निभा ने बच्ची को अंदर लाते हुए प्यार से पूछा,” बेटा आप का नाम क्या है?”

“प्रिया”

अच्छा घर कहां है आप का ?”

बच्ची ने इस सवाल सवाल का कोई जवाब नहीं दिया और चुपचाप एक कोने में खड़ी हो गई. निभा उस के लिए पानी ले आई और अपना एक पुराना टौप दे कर उसे नहाने को भेज दिया. फिर मेरी तरफ देख कर बोली,” हमारी कोई संतान नहीं. चलो कुछ दिन इस बच्ची के ही पेरेंट्स बन जाते हैं.”

मैं भी मुस्कुरा उठा. इस तरह प्रिया हमारी जिंदगी में शामिल हो गई. वह काफी शांत और गुमसुम सी रहती. हमारे सवालों का संक्षेप में जवाब दे कर अपनी दुनिया में खोई रहती. मगर एक खूबी थी उस में कि इतनी कम उम्र में भी काफी समझदार और काम में एक्टिव थी. अपना सारा काम बिना नखरे किए आराम से कर लेती. यही नहीं घर के कामों में निभा की मदद करने का भी पूरा प्रयास करती. वह स्टूल पर चढ़ कर गैस जला लेती और चाय बना देती. सब्जियां काट देती. काफी चीजें बनानी भी आती थीं उसे.

प्रिया को आए करीब चारपांच दिन बीत चुके थे. इस बीच हम जब भी प्रिया से उस के मांबाप के बारे में या गांव के बारे में पूछते तो वह खामोश रह जाती. ऐसा नहीं था कि उसे बोलना नहीं आता था या समझ की कमी थी. वह हर बात बखूबी समझती थी और निभा के आगे कभीकभी ऐसी बात भी बोल जाती जो उस की उम्र के देखे अधिक समझदारी वाली बात होती. उस ने अपनी नानी के गांव का नाम लिया मगर जब भी उस के मांबाप के बारे में पूछा जाता तो वह खामोश हो जाती.

एक दिन वह मेरे करीब आ कर बैठ गई और धीमे से बोली,” अंकल पुलिस वाले अंकल से मेरी मम्मी के बारे में पूछो न.”

“हां बेटा, अभी पूछता हूं.” मैं ने पुलिस वाले द्वारा दिया गया कार्ड निकाला और नंबर लगाने लगा. मगर कई दफा कोशिश करने के बावजूद नंबर नहीं लग सका. हर बार नौट रीचेबल आता रहा. फिर प्रिया ने अपनी फ्राक की जेब से निकाल कर एक कागज दिया जिस में एक नंबर लिखा था. मैं ने उस नंबर को भी ट्राई किया. मगर वह भी नौट रीचेबल आ रहा था.

मैं ने निभा की तरफ देखा. हम दोनों ही बहुत असमंजस की स्थिति में थे. अगले दिन फिर से प्रिया ने फोन करने को कहा. नंबर फिर से नौट रीचेबल आया. यह बात हमें बहुत अजीब सी लग रही थी. मैं ने सामने की पुलिस चौकी में जा कर पता करने का निश्चय किया.

मैं नजदीकी पुलिस चौकी पहुंच गया और थाना इंचार्ज से जा कर मिला. वह बिजी था. आधा घंटा इंतजार करने के बाद उस ने मुझे बुलाया. सारी कहानी सुनाई तो उस ने 2- 3 नंबर मिलाए, बात की. मगर कोई सही बात पता नहीं चल पाई. उस ने फिर आने को कह कर मुझे टरका दिया.

मैं ने घर जा कर प्रिया को समझाया,”देखो बेटा अभी आप के मम्मीपापा का पता नहीं चल रहा है. पर आप परेशान न हो. हम दोनों भी आप के मम्मीपापा की तरह ही हैं. हम आप का हमेशा ध्यान रखेंगे. हमें अपना मम्मीपापा समझो. ओके बेटा.”

प्रिया ने हां में सिर हिलाया और चली गई. इस के बाद उस ने कभी भी अपने मम्मीपापा के बारे में नहीं पूछा. अब वह हम दोनों से थोड़ाथोड़ा घुलनेमिलने लगी थी.

इधर मैं और निभा उसे पा कर काफी प्रसन्न थे. कुछ दिनों में ही वह हमें अपने घर की सदस्य लगने लगी. दरअसल हमें उस से प्यार हो गया था. उस की आदत सी हो गई थी. अब हम दिल से चाहने लगे थे कि उसे वापस लेने कोई न आए. उस के मांबाप भी नहीं.

एक दिन मैं सुबहसुबह एक्सरसाइज कर घर में घुसा तो प्रिया कहीं नजर नहीं आई. वरना वह रोज सुबह 5 बजे उठ जाती है और मेरे साथ एक्सरसाइज भी करती है. आज वह एक्सरसाइज के लिए भी नहीं आई थी.

मैं ने तीनों कमरों में देखा. वह कहीं नहीं थी. इस के बाद मैं ने किचन में झांका. वहां निभा नाश्ता बना रही थी. प्रिया वहां भी नहीं थी. मैं ने निभा से पूछा,”प्रिया को देखा है? कहीं दिख नहीं रही.”

“वह तो सुबह में आप के साथ ही होती है.”

“पर आज आई ही नहीं.” मैं घबड़ा गया था.

“देखो कहीं छत पर तो नहीं.” निभा ने कहा तो मैं दौड़ता हुआ छत पर पहुंचा.

प्रिया एक कोने में बैठी कागज पर चित्र उकेर रही थी. मैं दंग रह गया. उस ने बेहद खूबसूरत पेंटिंग बनाई थी. मैं ने उसे गोद में ले कर चूम लिया. आज उस की एक नई खूबी का पता चला था. मैं ने उसे अपने पास रखी पेंटिंग से जुड़ी चीजें जैसे कैनवस और कलर्स निकाल कर दिए तो वह हौले से मुस्कुरा उठी.

अब तो वह अक्सर ही पेंटिंग करने बैठ जाती. उस के चित्रों का विषय प्रकृति होती थी. साथ ही कई बार दर्द का चित्रांकन भी किया करती. उस की हर तस्वीर में एक अकेली लड़की भी जरूर होती.

एक दिन रात में 8 बजे के करीब फिर से घंटी बजी. हमारा दिल धड़क उठा. मुझे लगा कहीं पुलिस वाले तो नहीं आ गए प्रिया को लेने. निभा ने भी कस कर प्रिया का हाथ पकड़ लिया. हम दोनों ही अब प्रिया को वापस करने के पक्ष में नहीं थे. प्रिया जैसी बच्ची को पा कर हमें अपने जीवन का मकसद मिल गया था. मैं ने मन ही मन यह तय करते हुए दरवाजा खोला की पुलिस वालों को किसी भी तरह समझा-्बुझा कर वापस भेज दूंगा. दरवाजा खोला तो सामने पड़ोस के नीरज जी को देख कर मेरे दिमाग की सारी टेंशन काफूर हो गई. वह हमारे पास सिरका लेने आए थे. निभा ने एक छोटी शीशी में सिरका डाल कर उन्हें दे दिया और हम दोनों ने चैन की सांस ली.

वैसे जैसेजैसे हमारा प्यार प्रिया के लिए बढ़ रहा था हमारे दरवाजे पर होने वाली हर दस्तक हमें अंदर से हिला देती. हम सहम जाते. धड़कनें बढ़ जातीं. जब सायरन की आवाज आती तो भी हमारा दिल बैठ जाता. डर लगता की विदाई का समय तो नहीं आ गया है. पर शुक्र है कि इतने दिनों में प्रिया पर हक जताने कोई नहीं आया था.

कहीं न कहीं हम दिल ही दिल में यह तमन्ना भी करने लगे थे कि प्रिया के मांबाप न बचें ताकि प्रिया हमेशा के लिए हमारी हो जाए.

एक दिन निभा ने मुझ से कहा,” क्यों न हम प्रिया को प्रॉपर गोद ले लें. फिर हमारे मन का यह भय भी जाता रहेगा कि कोई उसे ले न जाए. हम प्रिया को एक बेहतर जिंदगी भी दे पाएंगे.”

निभा का यह सुझाव मुझे बेहद पसंद आया. अगले ही दिन मैं ने अपने एक वकील दोस्त अभिनव को फोन लगाया और उस से प्रिया के बारे में सब कुछ बताता हुआ बोला,” यार मैं प्रिया को गोद लेना चाहता हूं. तू बता, फॉर्मेलिटीज कैसे पूरी करें.”

मेरी बात सुन कर वह हंसता हुआ बोला,”यार यह सब इतना आसान नहीं. बहुत लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है. बच्चा गोद लेने में दो-तीन साल तक लग जाते हैं.”

“पर यार प्रिया तो हमारे पास ही है. ”

“याद रखो वह तुम्हारे पास है पर तुम्हारी है नहीं. अभी तुम्हें यह भी नहीं पता कि उस के मांबाप कौन हैं, कहां हैं, जिंदा हैं या नहीं. उस के घर में और कौनकौन हैं, दादा, चाचा, मामा, बुआ आदि. वे लोग बच्ची को गोद देना चाहते भी हैं या नहीं. बिना किसी अप्रूवल तुम इस तरह किसी अनजान बच्ची को गोद नहीं ले सकते. तुम्हें पहले इस बच्ची को पुलिस वालों को सौंप देना चाहिए.”

“अच्छा सुन, निभा से बात कर के बताता हूं.” कह कर मैं ने फोन रख दिया.

अभिनव को सारी बात बता कर मैं पछता रहा था. उस ने मुझे और भी ज्यादा उलझन में डाल दिया था. मैं इस बात को ले कर कुछ सोचना नहीं चाहता था. बस प्रिया के साथ बीत रहे इस समय को महसूस करना चाहता था. यही हाल निभा का भी था.

भले ही प्रिया ने अपने चारों तरफ रहस्य का घेरा बना रखा था, भले ही प्रिया हमें मिलेगी या नहीं इस बात को ले कर अभी भी अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई थी मगर फिर भी उस का साथ हमें हर पल एक नए खूबसूरत और संतुष्ट जीवन का अहसास दे रहा था और हमें यह अहसास बहुत पसंद आ रहा था.

Famous Hindi Stories : निकम्मा – जिसे जिंदगीभर कोसा, उसी ने किया इंतजाम

Famous Hindi Stories :  दीपक 2 साल बाद अपने घर लौटा था. उस का कसबा भी धीरेधीरे शहर के फैशन में डूबा जा रहा था. जब वह स्टेशन पर उतरा, तो वहां तांगों की जगह आटोरिकशा नजर आए. तकरीबन हर शख्स के कान पर मोबाइल फोन लगा था.

शाम का समय हो चुका था. घर थोड़ा दूर था, इसलिए बीच बाजार में से आटोरिकशा जाता था. बाजार की रंगत भी बदल गई थी. कांच के बड़े दरवाजों वाली दुकानें हो गई थीं. 1-2 जगह आदमीऔरतों के पुतले रखे थे. उन पर नए फैशन के कपड़े चढ़े हुए थे. दीपक को इन 2 सालों में इतनी रौनक की उम्मीद नहीं थी. आटोरिकशा चालक ने भी कानों में ईयरफोन लगाया हुआ था, जो न जाने किस गाने को सुन कर सिर को हिला रहा था.

दीपक अपने महल्ले में घुस रहा था, तो बड़ी सी एक किराना की दुकान पर नजर गई, ‘उमेश किराना भंडार’. नीचे लिखा था, ‘यहां सब तरह का सामान थोक के भाव में मिलता है’. पहले यह दुकान भी यहां नहीं थी.

दीपक के लिए उस का कसबा या यों कह लें कि शहर बनता कसबा हैरानी की चीज लग रहा था.

आटोरिकशा चालक को रुपए दे कर जब दीपक घर में घुसा, तो उस ने देखा कि उस के बापू एक खाट पर लेटे हुए थे. अम्मां चूल्हे पर रोटी सेंक रही थीं, जबकि एक ओर गैस का चूल्हा और गैस सिलैंडर रखा हुआ था.

दीपक को आया देख अम्मां ने जल्दी से हाथ धोए और अपने गले से लगा लिया. छोटी बहन, जो पढ़ाई कर रही थी, आ कर उस से लिपट गई.

दीपक ने अटैची रखी और बापू के पास आ कर बैठ गया. बापू ने उस का हालचाल जाना. दीपक ने गौर किया कि घर में पीले बल्ब की जगह तेज पावर वाले सफेद बल्ब लग गए थे. एक रंगीन टैलीविजन आ गया था.

बहन के पास एक टचस्क्रीन मोबाइल फोन था, तो अम्मां के पास एक पुराना मोबाइल फोन था, जिस से वे अकसर दीपक से बातें कर के अपनी परेशानियां सुनाया करती थीं.

शायद अम्मां सोचती हैं कि शहर में सब बहुत खुश हैं और बिना चिंता व परेशानियों के रहते हैं. नल से 24 घंटे पानी आता है. बिजली, सड़क, साफसुथरी दुकानें, खाने से ले कर नाश्ते की कई वैराइटी. शहर यानी रुपया भरभर के पास हो. लेकिन यह रुपया ही शहर में इनसान को मार देता है. रुपयारुपया सोचते और देखते एक समय में इनसान केवल एक मशीन बन कर रह जाता है, जहां आपसी रिश्ते ही खत्म हो जाते हैं. लेकिन अम्मां को वह क्या समझाए?

वैसे, एक बार दीपक अम्मां, बापू और अपनी बहन को ले कर शहर गया था. 3-4 दिनों बाद ही अम्मां ने कह दिया था, ‘बेटा, हमें गांव भिजवा दो.’

बहन की इच्छा जाने की नहीं थी, फिर भी वह साथ लौट गई थी. शहर में रहने का दर्द दीपक समझ सकता है, जहां इनसान घड़ी के कांटों की तरह जिंदगी जीने को मजबूर होता है.

अम्मां ने दीपक से हाथपैर धो कर आने को कह दिया, ताकि सीधे तवे पर से रोटियां उतार कर उसे खाने को दे सकें. बापू को गैस पर सिंकी रोटियां पसंद नहीं हैं, जिस के चलते रोटियां तो चूल्हे पर ही सेंकी जाती हैं. बहन ने हाथपैर धुलवाए. दीपक और बापू खाने के लिए बैठ गए.

दीपक जानता था कि अब बापू का एक खटराग शुरू होगा, ‘पिछले हफ्ते भैंस मर गई. खेती बिगड़ गई. बहुत तंगी में चल रहे हैं और इस साल तुम्हारी शादी भी करनी है…’

दीपक मन ही मन सोच रहा था कि बापू अभी शुरू होंगे और वह चुपचाप कौर तोड़ता जाएगा और हुंकार भरता जाएगा, लेकिन बापू ने इस तरह की कोई बात नहीं छेड़ी थी.

पूरे महल्ले में एक अजीब सी खामोशी थी. कानों में चीखनेचिल्लाने या रोनेगाने की कोई आवाज नहीं आ रही थी, वरना 2 घर छोड़ कर बद्रीनाथ का मकान था, जिन के 2 बेटे थे. बड़ा बेटा गणेश हाईस्कूल में चपरासी था, जबकि दूसरा छोटा बेटा उमेश पोस्ट औफिस में डाक रेलगाड़ी से डाक उतारने का काम करता था.

अचानक न जाने क्या हुआ कि उन के छोटे बेटे उमेश का ट्रांसफर कहीं और हो गया. तनख्वाह बहुत कम थी, इसलिए उस ने जाने से इनकार कर दिया. जाता भी कैसे? क्या खाता? क्या बचाता? इसी के चलते वह नौकरी छोड़ कर घर बैठ गया था.

इस के बाद न जाने किस गम में या बुरी संगति के चक्कर में उमेश को शराब पीने की लत लग गई. पहले तो परिवार वाले बात छिपाते रहे, लेकिन जब आदत ज्यादा बढ़ गई, तो आवाजें चारदीवारी से बाहर आने लगीं.

उमेश ने शराब की लत के चलते चोरी कर के घर के बरतन बेचने शुरू कर दिए, फिर घर से गेहूंदाल और तेल वगैरह चुरा कर और उन्हें बेच कर शराब पीना शुरू कर दिया. जब परिवार वालों ने सख्ती की, तो घर में कलह मचना शुरू हो गया.

उमेश दुबलापतला सा सांवले रंग का लड़का था. जब उस के साथ परिवार वाले मारपीट करते थे, तो वह मुझे कहता था, ‘चाचा, बचा लो… चाचा, बचा लो…’

2-3 दिनों तक सब ठीक चलता, फिर वह शराब पीना शुरू कर देता. न जाने उसे कौन उधार पिलाता था? न जाने वह कहां से रुपए लाता था? लेकिन रात होते ही हम सब को मानो इंतजार होता था कि अब इन की फिल्म शुरू होगी. चीखना, मारनापीटना, गली में भागना और उमेश का चीखचीख कर अपना हिस्सा मांगना… उस के पिता का गालियां देना… यह सब पड़ोसियों के जीने का अंग हो गया था.

इस बीच 1-2 बार महल्ले वालों ने पुलिस को बुला भी लिया था, लेकिन उमेश की हालत इतनी गईगुजरी थी कि एक जोर का थप्पड़ भी उस की जान ले लेता. कौन हत्या का भागीदार बने? सब बालबच्चों वाले हैं. नतीजतन, पुलिस भी खबर होने पर कभी नहीं आती थी.

उमेश को शराब पीते हुए 4-5 साल हो गए थे. उस की हरकतों को सब ने जिंदगी का हिस्सा मान लिया था. जब उस का सुबह नशा उतरता, तो वह नीची गरदन किए गुमसुम रहता था, लेकिन वह क्यों पी लेता था, वह खुद भी शायद नहीं जानता था. महल्ले के लिए वह मनोरंजन का एक साधन था. उस की मित्रमंडली भी नहीं थी. जो कुछ था परिवार, महल्ला और शराब थी. परिवार के सदस्य भी अब उस से ऊब गए थे और उस के मरने का इंतजार करने लगे थे. एक तो निकम्मा, ऊपर से नशेबाज भी.

लेकिन कौऐ के कोसने से जानवर मरता थोड़े ही है. वह जिंदा था और शराब पी कर सब की नाक में दम किए हुए था.

लेकिन आज खाना खाते समय दीपक को पड़ोस से किसी भी तरह की आवाज नहीं आ रही थी. बापू हाथ धोने के लिए जा चुके थे.

दीपक ने अम्मां से रोटी ली और पूछ बैठा, ‘‘अम्मां, आज तो पड़ोस की तरफ से लड़ाईझगड़े की कोई आवाज नहीं आ रही है. क्या उमेश ने शराब पीना छोड़ दिया है?’’

अम्मां ने आखिरी रोटी तवे पर डाली और कहने लगीं, ‘‘तुझे नहीं मालूम?’’

‘‘क्या?’’ दीपक ने हैरानी से पूछा.

‘‘अरे, जिसे ये लोग निकम्मा समझते थे, वह इन सब की जिंदगी बना कर चला गया…’’ अम्मां ने चूल्हे से लकडि़यां बाहर निकाल कर अंगारों पर रोटी को डाल दिया, जो पूरी तरह से फूल गई थी.

‘‘क्या हुआ अम्मां?’’

‘‘अरे, क्या बताऊं… एक दिन उमेश ने रात में खूब छक कर शराब पी, जो सुबह उतर गई होगी. दोबारा नशा करने के लिए वह बाजार की तरफ गया कि एक ट्रक ने उसे टक्कर मार दी. बस, वह वहीं खत्म हो गया.’’

‘‘अरे, उमेश मर गया?’’

‘‘हां बेटा, लेकिन इन्हें जिंदा कर गया. इस हादसे के मुआवजे में उस के परिवार को 18-20 लाख रुपए मिले थे. उन्हीं रुपयों से घर बनवा लिया और तू ने देखा होगा कि महल्ले के नुक्कड़ पर ‘उमेश किराने की दुकान’ खोल ली है. कुछ रुपए बैंक में जमा कर दिए. बस, इन की घर की गाड़ी चल निकली.

‘‘जिसे जिंदगीभर कोसा, उसी ने इन का पूरा इंतजाम कर दिया,’’ अम्मां ने अंगारों से रोटी उठाते हुए कहा.

दीपक यह सुन कर सन्न रह गया. क्या कोई ऐसा निकम्मा भी हो सकता है, जो उपयोगी न होने पर भी किसी की जिंदगी को चलाने के लिए अचानक ही सबकुछ कर जाए? जैसे कोई हराभरा फलदार पेड़ फल देने के बाद सूख जाए और उस की लकडि़यां भी जल कर आप को गरमागरम रोटियां खाने को दे जाएं. हम ऐसी अनहोनी के बारे में कभी सोच भी नहीं सकते.

Famous Hindi Stories : सच होते सपने – गोपुली ने कैसे बदली अपनी जिदंगी

Famous Hindi Stories :  गोपुली को लगने लगा कि उस के मां बाप ने उस की जिंदगी तबाह कर दी है. उन्होंने न जाने क्या सोच कर इस कंगले परिवार में उसे ब्याहा था?

वह तो बचपन से ही हसीन जिंदगी के ख्वाब देखती आई थी.

‘‘ऐ बहू…’’ सास फिर से बड़बड़ाने लगी, ‘‘कमाने का कुछ हुनर सीख. इस खानदान में ऐसा ही चला आ रहा है.’’

‘‘वाह रे खानदान…’’ गोपुली फट पड़ी, ‘‘औरत कमाए और मर्द उस की कमाई पर गुलछर्रे उड़ाए. लानत है, ऐसे खानदान पर.’’

उस गांव में दक्षिण दिशा में कुछ कारीगर परिवार सालों से रह रहे थे. न जाने कितनी ही पीढि़यों से वे लोग ठाकुरों की चाकरी करते आ रहे थे. तरक्की के नाम पर उन्हें कुछ भी तो नहीं मिला था. आज भी वे दूसरों पर निर्भर थे.

पनराम का परिवार नाचमुजरे से अपना गुजरा करता आ रहा था. उस की दादी, मां, बीवी सभी तो नाचमुजरे से ही परिवार पालते रहे थे. शादीब्याह के मौकों पर उन्हें दूरदूर से बुलावा आया करता था. औरतें महफिलों में नाचमुजरे करतीं और मर्द नशे में डूबे रहते.

कभी गोपुली की सहेली ने कहा था, ‘गोपा, वहां तो जाते ही तुझे ठुमके लगाने होंगे. पैरों में घुंघरू बांधने होंगे.’

गोपुली ने मुंह बना कर जवाब दिया था, ‘‘नाचे मेरी जूती, मैं ऐसे खोटे काम कभी नहीं करूंगी.’’

लेकिन उस दिन गोपुली की उम्मीदों पर पानी फिर गया, जब उस के पति हयात ने कहा, ‘‘2 दिन बाद हमें अमधार की बरात में जाना है. वहां के ठाकुर खुद ही न्योता देने आए थे.’’

‘‘नहीं…’’ गोपुली ने साफसाफ लहजे में मना कर दिया, ‘‘मैं नाचमुजरा नहीं करूंगी.’’

‘‘क्या…’’ हयात के हाथों से मानो तोते उड़ गए.

‘‘कान खोल कर सुन लो…’’ जैसे गोपुली शेरनी ही बन बैठी थी, ‘‘अपने मांबाप से कह दो कि गोपुली महफिल में नहीं नाचेगी.’’

‘‘फिर हमारे पेट कैसे भरेंगे बहू?’’ सामने ही हुक्का गुड़गुड़ा रहे ससुर पनराम ने उस की ओर देखते हुए सवाल दाग दिया.

‘‘यह तुम सोचो…’’ उस का वही मुंहफट जवाब था, ‘‘यह सोचना मर्दों का काम हुआ करता है.’’

गोपुली के रवैए से परिवार को गहरा धक्का लगा. आंगन के कोने में बैठा हुआ पनराम हुक्का गुड़गुड़ा रहा था. गोपुली की सास बीमार थी. आंगन की दीवार पर बैठा हुआ हयात भांग की पत्तियों को हथेली पर रगड़ रहा था.

‘‘फिर क्या कहती हो?’’ हयात ने वहीं से पूछा.

‘‘देखो…’’ गोपुली अपनी बात दोहराने लगी, ‘‘मैं मेहनतमजदूरी कर के तुम लोगों का पेट पाल लूंगी, पर पैरों में घुंघरू नहीं बांधूंगी.’’

कानों में घुंघरू शब्द पड़ते ही सास हरकत में आ गई. उसे लगा कि बहू का दिमाग ठिकाने लग गया है. वह खाट से उठ कर पुराना संदूक खोलने लगी. उस में नाचमुजरे का सामान रखा हुआ था.

सास ने संदूक से वे घुंघरू निकाल लिए, जिन के साथ उस के खानदान का इतिहास जुड़ा हुआ था. उन पर हाथ फेरते हुए वह आंगन में चली आई. उस ने पूछा, ‘‘हां बहू, तू पैरों में पायल बांधेगी या घुंघरू?’’

‘‘कुछ भी नहीं,’’ गोपुली चिल्ला कर बोली.

हयात सुल्फे की तैयारी कर चुका था. उस ने जोर का सुट्टा लगाया. चिलम का सारा तंबाकू एकसाथ ही भभक उठा. 2-3 कश खींच कर उस ने चिलम पनराम को थमा दी, ‘‘लो बापू, तुम भी अपनी परेशानी दूर करो.’’

पनराम ने भी जोर से सुट्टा लगाया. बापबेटे दोनों ही नशे में धुत्त हो गए. सास बोली, ‘‘ये दोनों तो ऐसे ही रहेंगे.’’

‘‘हां…’’ गोपुली ने भी कहा, ‘‘ये काम करने वाले आदमी नहीं हैं.’’

सामने से अमधार के ठाकुर कर्ण सिंह आते हुए दिखाई दिए. सास ने परेशान हो कर कहा, ‘‘ठाकुर साहब आ रहे हैं. उन से क्या कहें?’’

‘‘जैसे आ रहे हैं, वैसे ही वापस चले जाएंगे,’’ गोपुली ने जवाब दिया.

‘‘लेकिन… उन के बयाने का क्या होगा?’’

‘‘जिस को दिया है, वह लौटा देगा,’’ गोपुली बोली.

ठाकुर कर्ण सिंह आए, तो उन्होंने छूटते ही कहा, ‘‘देखो पनराम, तुम लोग समय पर पहुंच जाना बरात में.’’

‘‘नहीं…’’ गोपुली ने बीच में ही कहा, ‘‘हम लोग नहीं आएंगे.’’

गोपुली की बात सुन कर ठाकुर साहब को अपने कानों पर यकीन ही नहीं हो रहा था. उन्होंने पनराम से पूछा. ‘‘क्यों रे पनिया, मैं क्या सुन रहा हूं?’’

‘‘मालिक, न जाने कहां से यह मनहूस औरत हमारे परिवार में आ गई है,’’ पनराम ठाकुर के लिए दरी बिछाते हुए बोला.

ठाकुर दरी पर बैठ गए. वे गोपुली की नापजोख करने लगे. गोपुली को उन का इस तरह देखना अच्छा नहीं लगा. वह क्यारियों में जा कर गुड़ाईनिराई करने लगी और सोचने लगी कि अगर उस के पास भी कुछ खेत होते, तो कितना अच्छा होता.

अमधार के ठाकुर बैरंग ही लौट गए. गोपुली सारे गांव में मशहूर होने लगी. जितने मुंह उतनी ही बातें. सास ने पूछा, ‘‘क्यों री, नाचेगी नहीं, तो खाएगी क्या?’’

‘‘मेरे पास 2 हाथ हैं…’’ गोपुली अपने हाथों को देख कर बोली, ‘‘इन्हीं से कमाऊंगीखाऊंगी और तुम सब का पेट भी भरूंगी.’’

तीसरे दिन उस गांव में पटवारी आया. वह गोपुली के मायके का था, इसलिए वह गोपुली से भी मिलने चला आया. गोपुली ने उस से पूछा, ‘‘क्यों बिशन दा, हमें सरकार की ओर से जमीन नहीं मिल सकती क्या?’’

‘‘उस पर तो हाड़तोड़ मेहनत करनी होती है,’’ पटवारी के कुछ कहने से पहले ही हयात ने कहा.

‘‘तो हराम की कब तक खाते रहोगे?’’ गोपुली पति हयात की ओर आंखें तरेर कर बोली, ‘‘निखट्टू रहने की आदत जो पड़ चुकी है.’’

‘‘जमीन क्यों नहीं मिल सकती…’’ पटवारी ने कहा, ‘‘तुम लोग मुझे अर्जी लिख कर तो दो.’’

‘‘फिलहाल तो मुझे यहींकहीं मजदूरी दिलवा दो,’’ गोपुली ने कहा.

‘‘सड़क पर काम कर लेगी?’’ पटवारी ने पूछा.

‘‘हांहां, कर लूंगी,’’ गोपुली को एक नई राह दिखाई देने लगी.

‘‘ठीक है…’’ पटवारी बिशन उठ खड़ा हुआ, ‘‘कल सुबह तुम सड़क पर चली जाना. वहां गोपाल से बात कर लेना. वह तुम्हें रख लेगा. मैं उस से बात कर लूंगा.’’

सुबह बिस्तर से उठते ही गोपुली ने 2 बासी टिक्कड़ खाए और काम के लिए सड़क की ओर चल दी. वह उसी दिन से मजदूरी करने लगी. छुट्टी के बाद गोपाल ने उसे 40 रुपए थमा दिए.

गोपुली ने दुकान से आटा, नमक, चीनी, चायपत्ती खरीदी और अपने घर पहुंच गई. चूल्हा जला कर वह रात के लिए रोटियां बनाने लगी.

सास ने कहा, ‘‘ऐ बहू, तू तो बहुत ही समझदार निकली री.’’

‘‘क्या करें…’’ गोपुली बोली, ‘‘परिवार में किसी न किसी को तो समझदार होना ही पड़ता है.’’

गोपुली सासससुर के लिए रोटियां परोसने लगी. उन्हें खिलाने के बाद वह खुद भी पति के साथ रोटियां खाने लगी. हयात ने पानी का घूंट पी कर पूछा, ‘‘तुझे यह सब कैसे सूझा?’’

गोपुली ने उसे उलाहना दे दिया, ‘‘तुम लोग तो घर में चूडि़यां पहने हुए होते हो न. तुम ने तो कभी तिनका तक नहीं तोड़ा.’’ इस पर हयात ने गरदन झुका ली.

गोपुली को लगने लगा कि उस निठल्ले परिवार की बागडोर उसे ही संभालनी पड़ेगी. वह मन लगा कर सड़क पर मजदूरी करने लगी.

एक दिन उस ने गोपाल से पूछा, ‘‘मैं उन्हें भी काम दिलवाना चाहती हूं.’’

‘‘हांहां…’’ गोपाल ने कहा, ‘‘काम मिल जाएगा.’’

गोपुली जब घर पहुंची, तो हयात कोने में बैठा हुआ चिलम की तैयारी कर रहा था. गोपुली ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘ये गंदी आदतें छोड़ दो. कल से मेरे साथ तुम भी सड़क पर काम किया करो. मैं ने गोपाल से बात कर ली है.’’

‘‘मैं मजदूरी करूंगा?’’ हयात ने घबरा कर पूछा.

‘‘तो औरत की कमाई ही खाते रहोगे,’’ गोपुली ने ताना मारा.

‘‘नहीं, ऐसी बात तो नहीं है,’’ हयात सिर खुजलाते हुए बोला, ‘‘तुम कहती हो, तो तुम्हारे साथ मैं भी कर लूंगा.’’ दूसरे दिन से हयात भी सड़क पर मजदूरी करने लगा. अब उन्हें दोगुनी मजदूरी मिलने लगी. गोपुली को सासससुर का खाली रहना भी अखरने लगा.

एक दिन गोपुली ने ससुर से पूछा, ‘‘क्या आप रस्सियां बंट लेंगे?’’

‘‘आज तक तो नहीं बंटीं,’’ पनराम ने कहा, ‘‘पर, तुम कहती हो तो…’’

‘‘खाली बैठने से तो यही ठीक रहेगा…’’ गोपुली बोली, ‘‘दुकानों में उन की अच्छी कीमत मिल जाया करती है.’’ ‘‘बहू, मुझे भी कुछ करने को कह न,’’ सास ने कहा.

‘‘आप लंबी घास से झाड़ू बना लिया करें,’’ गोपुली बोली.

अब उस परिवार में सभी कमाऊ हो गए थे. एक दिन गोपुली सभापति के घर जा पहुंची और उन से कहने लगी, ‘‘ताऊजी, हमें भी जमीन दिलवाइए न.’’

तभी उधर ग्राम सेवक चले आए. सभापति ने कहा, ‘‘अरे हां, मैं तो तेरे ससुर से कब से कहता आ रहा हूं कि खेती के लिए जमीन ले ले, पर वह तो बिलकुल निखट्टू है.’’

‘‘आप हमारी मदद कीजिए न,’’ गोपुली ने ग्राम सेवक से कहा.

ग्राम सेवक ने एक फार्म निकाल कर गोपुली को दे दिया और बोले, ‘‘इस पर अपने दस्तखत कर दो.’’

‘‘नहीं,’’ गोपुली बोली, ‘‘इस पर मेरे ससुर के दस्तखत होंगे. अभी तो हमारे सिर पर उन्हीं की छाया है.’’

‘‘ठीक है…’’ सभापति ने कहा, ‘‘उन्हीं से करा लो.’’

गोपुली खुशीखुशी उस फार्म को ले कर घर पहुंची और अपने ससुर से बोली, ‘‘आप इस पर दस्तखत कर दें.’’

‘‘यह क्या है?’’ ससुर ने पूछा.

गोपुली ने उन्हें सबकुछ बतला दिया.

पनराम ने गहरी सांस खींच कर कहा, ‘‘अब तू ही हम लोगों की जिंदगी सुधारेगी.’’ उस दिन आंगन में सास लकड़ी के उसी संदूक को खोले बैठी थी, जिस में नाचमुजरे का सामान रखा हुआ था. गोपुली को देख उस ने पूछा, ‘‘हां तो बहू, इन घुंघरुओं को फेंक दूं?’’

‘‘नहीं…’’ गोपुली ने मना करते हुए कहा, ‘‘ये पड़े रहेंगे, तो गुलामी के दिनों की याद दिलाते रहेंगे.’’

गोपुली ने उस परिवार की काया ही बदल दी. उस के साहस पर गांव वाले दांतों तले उंगली दबाने लगे. घर के आगे जो भांग की क्यारियां थीं, वहां उस ने प्याजलहसुन लगा दिया था.

सासससुर भी अपने काम में लगे रहते. पति के साथ गोपुली सड़क पर मजदूरी करती रहती. गोपुली की शादी को 3 साल हो चुके थे, लेकिन अभी तक उस के पैर भारी नहीं हुए थे. सास जबतब उस की जांचपरख करती रहती. एक दिन उस ने पूछा, ‘‘बहू, है कुछ?’’

‘‘नहीं…’’ गोपुली मुसकरा दी, ‘‘अभी तो हमारे खानेखेलने के दिन हैं. अभी क्या जल्दी है?’’ सास चुप हो गई. हयात और पनराम ने भांग छोड़ दी. अब वे दोनों बीडि़यां ही पी लेते थे.

एक दिन गोपुली ने पति से कहा, ‘‘अब बीड़ी पीना छोड़ दो. यह आदमी को सुखा कर रख देती है.’’

‘‘ठीक?है,’’ हयात ने कहा, ‘‘मैं कोशिश करूंगा.’’

आदमी अगर कोशिश करे, तो क्या नहीं कर सकता. गोपुली की कोशिशें रंग लाने लगीं. अब उसे उस दिन का इंतजार था, जब उसे खेती के लिए जमीन मिलेगी.

उस दिन सभापति ने हयात को अपने पास बुलवा लिया. उन्होंने उसे एक कागज थमा कर कहा, ‘‘ले रे, सरकार ने तुम को खेती के लिए जमीन दी है.’’

‘‘किधर दी है ताऊजी?’’ हयात ने पूछा.

‘‘मोहन के आगे सुंगरखाल में,’’ सभापति ने बताया. हयात ने घर जा कर जमीन का कागज गोपुली को दे दिया, ‘‘गोपुली, सरकार ने हमें खेती के लिए जमीन दे दी है.’’

गोपुली ने वह कागज ससुर को थमा दिया, ‘‘मालिक तो आप ही हैं न.’’ पनराम ने उस सरकारी कागज को सिरमाथे लगाया और कहा, ‘‘तुम जैसी बहू सभी को मिले.’

Hindi Moral Tales : जान पहचान – हिमांशुजी से मिलने को क्यों आतुर थी सीमा?

Hindi Moral Tales : जुलाई की एक शाम थी. कुछ देर पहले ही बरसात हुई थी. मौसम में अभी भी नमी बनी हुई थी. गीली मिट्टी की सौंधी सुगंध चारों ओर फैली हुई थी. सीमा को 2 घंटे हो गए थे. वह अपने कपड़े फाइनल नहीं कर पा रही थी, ‘क्या पहनूं? बरसात भी बंद हो गई है’. समय देखने के लिए उस ने घड़ी पर नजर डाली, ‘साढ़े 5 बज गए. लगता है मुझे देर हो जाएगी.’ उस ने जल्दी से कपड़े चेंज कर मां को आवाज लगाई, ‘‘मां, मैं जा रही हूं, मुझे आने में शायद देर हो जाएगी,’’ सीमा लगभग भागती हुई रैस्टोरैंट पहुंची.

लतिका मैम ने उसे देखते ही कहा, ‘‘कम, लतिका.’’

‘‘यस, मैम,’’ यह कहते ही सीमा उस लेडी के पीछे हो ली. लतिका नए हेयरकट में बेहद सुंदर लग रही थी. साथ ही टाइट जींस और टाइट टीशर्ट, गले में बीड्स की माला और पैरों में सफेद रंग की हाई हील. उस के हेयरकट के साथ उस की सुंदरता को और बढ़ा रहे थे. कालेज में हमेशा लतिका मैडम को साड़ी और सूटसलवार में ही देखा था. उसे थोड़ा अटपटा जरूर लगा, लेकिन ठीक है उसे क्या लेनादेना, वह तो सिर्फ अपने काम के लिए आई है.

‘‘रैस्टोरेंट ढूंढ़ने में कोई परेशानी तो नहीं हुई,’’ लतिका मैडम ने उस के कपड़ों पर नजर डालते हुए पूछा.

सीमा लौंग स्कर्ट और ढीला सा कुरता पहन कर आई थी और बालों की पोनी बना कर उन्हें बांधा था. ‘‘नहीं मैडम, ज्यादा परेशानी नहीं हुई.’’

‘‘अच्छा है, अभी हिमांशुजी आ रहे हैं. तुम अपने सारे सर्टिफिकेट तो लाई हो न.’’

‘‘जी मैडम,’’ उस ने अपने आसपास देखा और बोली, ‘‘वैसे मुझे लगा था कि देर हो गई है.’’

लतिका के साथ बैठा रोनी हंसते हुए बोला, ‘‘तुम्हें अगर देर हो जाती तो यह रोल किसी और को मिल जाता. वैसे भी बड़े लोग जल्दी कहां आते हैं.’’

लतिका मैडम ने उसे घूरा और बोली, ‘‘रोनी, तुम कब सीरियस होगे,’’ फिर सीमा की तरफ देख कर बोली, ‘‘इसे तो तुम जानती हो न, यह रोनी है.’’

‘‘यस, मैडम.’’

तभी 2 और लड़कों ने रैस्टोरैंट में प्रवेश किया. वे तेजी से चलते हुए लतिका मैडम की तरफ आ रहे थे.

‘‘आज तो गरमी ने हद कर दी है,’’ उस में से एक ने अपनी जेब से रुमाल निकाला और पसीना पोंछने लगा.

‘‘इतनी देर कहां कर दी, सुमेर.’’

‘‘मैडम बरसात हो रही थी इसलिए थोड़ी देर हो गई.’’

‘‘यह तो अच्छा है कि अभी तक हिमांशुजी नहीं आए हैं वरना…’’

‘‘कितनी उमस है आज,’’ फिर लतिका मैडम की तरफ देख कर बोला, ‘‘मैडम, हिमांशुजी आएंगे भी या नहीं या आज फिर खाली हाथ लौटना होगा.’’

‘‘मेरी उन से फोन पर बात हुई थी, वे थोड़ी देर में पहुंचने ही वाले हैं,’’ वेटर को और्डर दे कर वह सीमा का सब से परिचय कराने लगी, ‘‘सीमा, यह सुमेर है और यह अर्जुन.’’

‘‘मैडम, नम्रता और दीपाली नहीं आईं.’’

‘‘वे आज नहीं आएंगी क्योंकि उन का घर बहुत दूर है. इस बारिश ने सबकुछ गड़बड़ कर दिया.’’

वे सब आपस में बातें करने लगे. सीमा आसपास मौजूद एकएक वस्तु का मुआयना करने लगी. वह सोच रही थी, ‘कैसे होंगे हिमांशुजी जिन का सब इंतजार कर रहे हैं.’

उस ने अपने चारों तरफ नजरें दौड़ाईं, साथ वाली टेबल पर अधेड़ उम्र के 2 आदमी बैठे थे.

‘‘अरे यार, फिर से बीवी का फोन है, जरा सा मजा भी नहीं लेने देती.’’

‘‘सुन ले न,’’ दूसरा आदमी बोला.

‘‘हां, तू विस्की और्डर कर मैं फोन सुन कर आता हूं.’’

कुछ देर बाद दोनों शराब की चुसकियों के साथ पता नहीं किस के खयालों में खो गए.

‘‘ये आजकल के लड़कों ने अच्छी रीत बना रखी है, डेट पर जाने की.’’

‘‘सीमा, लो न, कहां खो गई हो,’’ उस ने देखा उस के सामने बियर की बोतलें पड़ी हैं.

‘‘नहीं मैडम, मैं नहीं पीती.’’

‘‘अरे लो न, आज से तुम हमारी मंडली में शामिल हो रही हो तो हम जैसा तो बनना ही पड़ेगा.’’

‘‘नहीं मैडम, प्लीज, आप मेरे लिए कौफी मंगवा दें.’’

‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी मरजी. आज पहला दिन है इसलिए आज तुम्हें छोड़ देते हैं, लेकिन आगे से नहीं,’’ लतिका मैडम ने यह कह कर वेटर को आवाज लगाई.

2 टेबल छोड़ कर एक नवविवाहित जोड़ा बैठा हुआ था. सीमा ने देखा कि उस नवविवाहिता ने गुलाबी रंग की साड़ी पहनी थी और बहुत मेकअप किया हुआ था. उस की साड़ी का पल्लू बारबार गिर जाता था. पता नहीं वह अपने पति को आकर्षित कर रही थी या फिर हौल में बैठे लोगों को.

पति उस के मुंह में चम्मच से आइसक्रीम डाल रहा था और वह अदाओं से उस की तरफ देख रही थी. बीचबीच में वह अपने आसपास भी देख लेती थी.

‘‘क्या आइटम है,’’ तभी उस के कानों में आवाज आई, सुमेर उस नवविवाहिता के लिए कह रहा था.

‘‘छोड़ो न उसे, तुम इधर ध्यान दो,’’ लतिका मैडम ने उसे डांट लगाते हुए कहा.

‘‘स्क्रिप्ट क्या है मैडम?’’

‘‘अभी मुझे कुछ नहीं पता, हिमांशुजी के आने पर ही सब फाइनल होगा.’’

‘‘वैसे प्ले का नाम क्या है?’’

‘‘एक मुट्ठी आसमान.’’

‘‘और हीरोइन कौन है?’’

‘‘तुम्हारे सामने तो बैठी है.’’

‘‘क्या?’’ सब ने आश्चर्य से सीमा को देखा, जैसे कोई अनोखी लड़की देख ली हो.

‘‘अरे, अभी नाम फाइनल नहीं हुआ है. वैसे मैं ने सीमा को कालेज के प्ले में परफौर्म करते देखा है. क्या कमाल की अदाकारा है.’’

‘‘लेकिन क्या यह हिमांशुजी को…’’ अर्जुन कहतेकहते रुक गया.

‘‘हां, क्यों नहीं.’’

सीमा अपनेआप में सिकुड़ रही थी. भले ही उस के प्ले ने कालेज में धूम मचाई थी, पर प्रोफैशनली वह पहली बार किसी से मिलने आई थी, ऐसी अजीबोगरीब जगह पर.

‘‘आप कुछ बोलती भी हैं या सिर्फ प्ले में ही अपनी जबान खोलती हैं,’’ रोनी उस का मजाक उड़ाते हुए बोला तो सब हंस पड़े.

‘‘अभी नई है न, फिर देखना,’’ लतिका मैडम ने उस का बचाव किया.

‘‘अच्छा, कौफी तो लो.’’

‘‘हां,’’ ऐसा कह कर सीमा ने हलकेहलके सिप लेने शुरू किए और बाकी सब बियर की बोतलें खाली करने लगे.

सीमा को ये सब अजीब लग रहा था. लतिका मैडम की आजादी, उस की तरफ उन का झुकाव, क्यों कर रही हैं वे उस के लिए, क्यों उसे ही मिलने के लिए बुलाया है, इसी उधेड़बुन में डूबी सीमा ने फिर सोचा, ‘बस, एक बार काम मिल जाए तो अपनी प्रतिभा दिखा दूंगी और फिर सब बातों से पीछा छूट जाएगा.’

तभी अर्जुन ने अपनी घड़ी देखी, ‘‘मैडम, लगता है आज भी हिमांशुजी से मुलाकात नहीं होगी. बहुत देर हो गई है मुझे, इसलिए जाना पड़ेगा.’’

‘‘फिर तो मुझे भी तेरे साथ जाना पड़ेगा क्योंकि मैं तेरे साथ बाइक पर आया था. वरना 200 रुपए खर्च कर के वापस जाना पड़ेगा,’’ सुमेर कहते हुए खड़ा हो गया.

‘‘मैडम, मैं भी चलती हूं. बहुत देर हो गई है. इतनी रात तक मैं अकेली कभी भी घर से बाहर नहीं रही,’’ सीमा भी खड़ी हो गई.

‘‘लेकिन तुम नहीं जा सकती सीमा क्योंकि ये दोनों तो पहले भी हिमांशुजी से मिल चुके हैं और इन के रोल फाइनल हैं, लेकिन यह तुम्हारी पहली मुलाकात है, फिर बड़े आदमी तो हमेशा देर से ही आते हैं. अगर तुम्हारे जाने के बाद हिमांशुजी आए तो तुम्हें न पा कर बुरा मान जाएंगे और यह न तो तुम्हारे लिए सही होगा और न ही मेरे लिए,’’ लतिका मैडम एक सांस में इतना कुछ बोल गई.

कुछ देर बाद रोनी भी बहाना बना कर चलता बना. ‘‘बहुत देर से तलब लग रही थी, अब मौका मिला है,’’ सब के जाने के बाद लतिका ने सिगरेट जला ली. सीमा को उस का धुआं बरदाश्त नहीं हो रहा था. चारों तरफ शराब और सिगरेट की गंध फैली हुई थी. सीमा का मन कर रहा था कि वह वहां से उठ कर भाग जाए पर हिमांशुजी से मिलना भी जरूरी था.

‘‘तुम्हें पता है, इस रोल के लिए कितनी लड़कियां मेरे पास आई थीं, पर मुझे सब से ज्यादा प्रतिभा तुम में दिखाई दी और इसलिए मैं ने तुम्हें हिमांशुजी से मिलवाने का फैसला किया है.’’

तभी लतिका मैडम बोली, ‘‘वह देखो, हिमांशुजी आ गए हैं.’’

सीमा ने देखा, एक अधेड़ उम्र का गंजा आदमी उस की ओर चला आ रहा है. उस ने महंगे कपड़े पहने हुए हैं. उस के साथ 2 और आदमी हैं पर हिमांशुजी ने उन्हें वहीं रुकने का इशारा किया.

‘‘अरे, बैठोबैठो, मुझे बहुत ज्यादा देर तो नहीं हो गई लतिका,’’ कहते हुए वे सीमा के पास वाली कुरसी पर बैठ गए.

‘‘अरे, नहीं सर.’’

सीमा हैरानी से उन्हें देखे जा रही थी.

‘‘सर, यह है सीमा. मैं ने आप से इस के बारे में बात की थी.’’

उस ने सीमा को ऐसे देखा जैसे हलाल करने से पहले कसाई अपने बकरे को देखता है. सीमा ने डर कर अपनी नजरें झुका लीं.

‘‘ओह, तो आप हैं सीमाजी.’’

‘‘यह बहुत प्रतिभावान है सर, आप इस के सर्टिफिकेट्स देखिए.’’

‘‘हांहां, जरूर देखेंगे इन के सर्टिफिकेट्स,’’ उन की नजर अभी भी सीमा के चेहरे पर गड़ी हुई थी.

‘‘सीमा दिखाओ, इन्हें अपने सर्टिफिकेट्स.’’

‘‘जी, मैडम.’’

‘‘बहुत बढि़या,’’ उन्होंने एक उड़ती हुई नजर उन सर्टिफिकेट्स पर डाली, ‘‘वैसे तुम ने इन्हें सब समझा दिया है न,’’ उन्होंने अपना एक हाथ सीमा के कंधे पर रख दिया.

‘‘समझाना क्या है सर, आजकल की लड़कियां तो वैसे भी बहुत समझदार होती हैं,’’ और उस ने अपनी एक आंख झपका कर इशारा किया.

‘‘लगता है आप वैजिटेरियन हैं,’’ हिमांशुजी ने उस के आगे पड़े हुए कौफी के कप को देख कर कहा.

‘‘जी, मैं समझी नहीं.’’

‘‘आप कौफी पी रही हैं.’’ कौफी और वैजिटेरियन का संबंध सीमा को समझ नहीं आया.

‘‘हां, तो सीमा हमारी शर्तें क्याक्या होंगी, वह तुम्हें लतिका समझा देगी,’’ उन का हाथ धीरेधीरे सीमा की पीठ पर सरकने लगा था.

‘‘जी, सर,’’ सीमा की सोचनेसमझने की शक्ति खत्म होती जा रही थी.

‘‘रिहर्सल कब से शुरू होगी वह भी तुम्हें लतिका ही समझा देगी,’’ कहते हुए इस बार उन का हाथ सीमा की जांघ पर आ गया. सीमा को लगा जैसे हजार चींटियां उस के बदन पर रेंग रही हैं.

सीमा झटके से खड़ी हो गई, ‘’मैडम मुझे अब चलना चाहिए.‘’

‘’लेकिन अभी तो जानपहचान नहीं हुई है,‘’ लतिका बोली.

सीमा का चेहरा क्रोध से लाल हो रहा था. अपना पर्स उठाते हुए तेजी से उस ने कहा ‘’इतनी जानपहचान मेरे लिए काफी है.‘’

वह भाग कर बाहर आ गई और घर की ओर बढ़ने लगी. पूरा घटनाक्रम उस के दिमाग में चल रहा था. हिमांशु का उसे देखना, छूना सर्टिफिकेट तो मात्र बहाना था. यह सब लतिका की एक चाल थी. फिल्म दिलवाने के नाम पर वह उसे किसी और ही काम में फंसा रही थी.

यह सब सोचते हुए उसे लगा मानो दिमाग की नसें फट जाएगी. वह जोरजोर से सांस लेने लगी. बाहर अभी भी बहुत उमस थी पर उसे वह उमस अंदर की ठंडी हवा से कहीं ज्यादा अच्छी लग रही थी. वह एक मुट्ठी आसमान के लिए अपना सारा जहां कुरबान नहीं कर सकती थी.

Latest Hindi Stories : इंटरनैट – क्या कावेरी अपने फैसले से खुश थी?

Latest Hindi Stories : लैंडलाइनपर जय के फोन से शाम 4 बजे नितिन और कावेरी की नींद खुली. फोन और लैंडलाइन पर, वे हैरान हुए. आजकल तो लैंडलाइन पर कभीकभार ही भूलेभटके किसी का फोन आता था. आज शनिवार था, दोनों की औफिस की छुट्टी थी तो लंच कर के गहरी नींद में सोए थे. घंटी बजती जा रही थी, दोनों ने एकदूसरे को शरारती नजरों से देखा और उठने का इशारा किया.

कावेरी ने न में सिर हिलाया तो नितिन ही उठा, ‘‘हैलो,’’ कहते ही उस की आवाज में जोश भर आया. कावेरी को उस की बातें सुनाई दे रही थीं.

कब? बहुत बढि़या आ जा.

‘‘हां, बिलकुल, बहुत मजा आएगा, यार. कितने साल हो गए. पता व्हाट्सऐप कर दूं? उफ, फिर लिख ले.’’

नितिन फोन पर पता लिखवा कर फोन रख कर कावेरी के पास आ कर लेट गया और कहने लगा, ‘‘गेस करो डियर, कौन आ रहा है?’’

‘‘तुम्हीं बता दो.’’

‘‘अरे थोड़ा तो गेस करो.’’

‘‘कोई पुरानी जानपहचान लग रही है जिस के पास हमारा लैंडलाइन नंबर भी है.’’

‘‘जय मुंबई आया है अभी, एक मीटिंग है उस की, डिनर पर आएगा, फिर वापस आज ही चला जाएगा, रात की ही फ्लाइट से.’’

कावेरी भी उत्साह से भर कर खुश हो गई. बोली, ‘‘अरे वाह, करीब 5 साल तो हो ही गए होंगे मिले हुए. आज तो खूब मजा आएगा जब बैठेंगे 3 यार, तुम वो और मैं. चलो बताओ, क्याबनाएं डिनर में? वैसे तो मेड आजकल छुट्टी पर है, घर में सब्जी वगैरह भी नहीं है, मैं सारा सामान शनिवार को ही तो लाती हूं. अब पहले कुछ सामान ले आएं?’’

‘‘पर तुम तो कह रही थी आज तुम्हें चाइना बिस्ट्रो का खाना खाना है, तुम्हारा बहुत दिन से मन था, वहीं से खाना और्डर कर लें? जय को भी वहां का चाइनीज खाना बहुत पसंद आएगा. तुम कहां इस समय किचन में घुसोगी. आराम करो, खाना और्डर कर लेंगे.’’

‘‘वाह, क्या आइडिया है. ऐसा पति सब को मिले.’’

नितिन ने शरारत से पूछा, ‘‘इस आइडिया की फीस पता है न?’’

कावेरी हंस पड़ी, ‘‘नहीं, जाननी भी नहीं है.’’

‘‘पर मैं तो बता कर रहूंगा,’’ कहतेकहते नितिन ने कावेरी को अपनी तरफ खींच लिया.

सहारनपुर की एक गली में ही नितिन, कावेरी और जय के घर थे. बचपन से ही तीनों की दोस्ती बहुत पक्की थी. बड़े होने पर कावेरी और नितिन की दोस्ती प्यार में बदल गई थी जिस पर दोनों के परिवार वालों ने खुशीखुशी मुहर लगा दी थी. जय दिल्ली में कार्यरत था. अपनी फैमिली के साथ वहीं रहता था तो 5 सालों से मिलना ही नहीं हो पाया था.

अचानक कावेरी को याद आया. पूछा, ‘‘अरे, यह बताओ जय ने लैंडलाइन पर फोन क्यों किया? उस के पास तो हमारे मोबाइल नंबर भी हैं. बात होती तो रहती है.’’

‘‘वह बहुत देर से मोबाइल फोन ही ट्राई कर रहा था. इंटरनैट ही नहीं था शायद और ज्यादा सब्र उस में है भी नहीं, जानती हो न?’’

कावेरी हंस पड़ी, ‘‘हां, यह तो है. सब्र नहीं उस में.’’

दोनों पुरानी बातें याद कर हंसते रहे. दोनों ही उस के आने से बहुत खुश थे. दोनों नहा धो कर अच्छी तरह तैयार हो गए. पूरा हफ्ता बिजी रहने के बाद दोनों ही वीकैंड में पूरी तरह से रिलैक्स करते. कावेरी सुंदर साड़ी पहन कर सजसंवर गई. सुंदर वह थी ही, इस समय और खूबसूरत लग रही थी. दोनों ने यह नियम बना रखा था कि जब साथ होंगे, फोन कम ही देखेंगे.

अब 7 बजे दोनों ने अपनाअपना फोन उठाया. कावेरी ने कहा, ‘‘चलो, बढि़या डिनर और्डर करते हैं.’’

जैसे ही दोनों ने अपनाअपना फोन देखा, इंटरनैट गायब था. थोड़ी देर तक बारबार वाईफाई रीस्टार्ट किया. फिर चिंता होने लगी. नितिन ने कहा, ‘‘लैंडलाइन से और्डर कर देते हैं, आओ.’’

लैंडलाइन से फोन करने पर उधर घंटी जाती रही, पर फोन नहीं उठाया गया. अब तक 8 बज गए थे. अब दोनों को चिंता होने लगी.

नितिन ने कहा, ‘‘कार भी सर्विसिंग के लिए दे रखी है. कोरोना के केसेज फिर दोबारा बहुत बढ़ गए हैं. औटो से जा कर खाना लाना भी सेफ नहीं है. औटो में तो बैठने का मन भी नहीं करता है आजकल. क्या करें यार.’’

कावेरी के चेहरे पर अब पसीने की बूंदें झलकने लगीं. बोली, ‘‘अब तो यही समझ आ रहा है कि जो भी घर में है जल्दी से बना लूं. हमारा दोस्त इतने टाइम बाद हम से मिलने आ रहा है. उस से बैठ कर बातें भी तो करनी हैं,’’ कह कर कावेरी ने साड़ी का पल्ला अपनी कमर में खोंसा और किचन की तरफ चल दी.

नितिन भी उस के पीछेपीछे चलते हुए बोला, ‘‘मैं भी हैल्प करता हूं. मिल कर बनाते हैं यार के लिए कुछ.’’

कावेरी को नितिन पर प्यार आ गया. रुक कर उस के गाल चूम लिए. दोनों ने एकदूसरे को प्यार किया और ‘साथी हाथ बढ़ाना…’ गाते हुए  खाना बनाने में जुट गए. दोनों ने बड़े मन से खाना बनाया. घर में रखे आलू, फ्रोजन मटर और पनीर की स्टफिंग तैयार कर कावेरी ने मिक्स्ड वैज परांठे बनाए. दही तो था ही. नितिन लगातार इंटरनैट भी चैक करता रहा और आलू छीलने में, बाकी चीजों में उस ने पूरी हैल्प की. बीच में कहा, ‘‘यार, बड़ी प्यारी लग रही हो, कमर में साड़ी का पल्ला खोंसे. मेरी मां तो बहू के इस रूप पर फिदा हो जाएंगी. रुको, तुम्हारा वीडियो बना कर उन्हें भेजता हूं.’’

कावेरी जोर से हंस पड़ी और फिर सचमुच अपना वीडियो बनाने में नितिन को पूरा सहयोग करने लगी. साथसाथ कमैंट्री भी करती जा रही थी, ‘‘अब आप कभी भी इन परांठों को अपनी सासूमां को बना कर खिला सकते हैं. वे खुश होंगी तो आप भी चैन से जीएंगी. मैं अपना यह पहला वीडियो अपनी प्यारी सासूमां को समर्पित करता हूं.’’

यों ही हंसतेखेलते काम निबटा लिया गया. 9 बज रहे थे. नितिन ने कहा, ‘‘वह कहां रह गया? आया नहीं अभी तक,’’ कह उस ने फोन उठाया और अपना सिर पकड़ लिया, ‘‘यार, नैट नहीं है, तुम देखना.’’

‘‘हां, नो नैटवर्क.’’

‘‘मैं तो उस का कोई कौंटैक्ट नंबर भी लेना भूल गया, अब कैसे पता करें?’’

थोड़ी देर होटल के ही लैंडलाइन से जय ने फोन किया, ‘‘यार, यह तुम्हारा कैसा शहर है… यहां नेटवर्क ही नहीं है. क्या मुसीबत हुई है आज. कितने जरूरी काम थे. इतनी देर से उबेर या ओला बुक करने की कोशिश कर रहा हूं. कुछ भी नहीं हो रहा है. मैं नहीं आने वाला अब जल्दी तुम्हारे शहर में.’’

‘‘कल्पना बंद करो और आने की कोशिश करो, यार. मेरी कार भी सर्विसिंग के लिए गई हुई है वरना कोई प्रौब्लम ही नहीं थी.’’

‘‘देख, मैं यहां इस ट्रैफिक टाइम में औटो से तो बिलकुल नहीं आने वाला. अब मैं आ ही नहीं रहा हूं. बहुत लेट हो गया हूं. मैं यहीं से वापस चला जाऊंगा. शायद अगली बार मिल पाएं. क्या बकवास शहर है.’’

‘‘हां, जैसे तुम्हारे शहर में तो कभी नैट जाता ही नहीं.’’

अब फोन स्पीकर पर था. कावेरी भी शामिल हो गई थी. थोड़ीबहुत बातें हुईं, फिर  यह समझ आ गया कि इस बार मिलना हो नहीं पाएगा. फिर फोन रख कर नितिन ने कहा, ‘‘यार, खाना तो बहुत बढि़या तैयार हो गया था. बना भी कुछ ज्यादा ही है…’’

नितिन की बात अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि उन के फ्लैट की डोरबैल बजी.

सामने वाले फ्लैट में रहने वाले दंपती सुमित और रेखा थे. इन दोनों से कभी नितिन और कावेरी की ज्यादा बातचीत नहीं हुई थी. वे दोनों भी वर्किंग थे. सालभर पहले ही इस फ्लैट में आए थे. यों ही आतेजाते लिफ्ट में बस एक स्माइल और हैलो का आदानप्रदान ही हुआ था.

नितिन ने जैसे ही दरवाजा खोला, सुमित ने झेंपते हुए कहा, ‘‘हम लोग कई दिनों से बाहर गए हुए थे. अभी आए हैं. इंटरनैट ही नहीं चल रहा है. फोन काम ही नहीं कर रहा है. एक कप दूध मिलेगा?’’

‘‘अरे, क्यों नहीं. ऐसे क्यों नहीं करते कि आप फ्रैश हो कर यहीं आ जाओ. चाय भी पी लें और कुछ खाना भी खा लें.’’

सुमित और उस के पीछे खड़ी रेखा संकोच से भर उठी. कहा, ‘‘नहींनहीं, बस आप एक कप दूध दे दीजिए.’’

‘‘अरे, सिर्फ दूध से कैसे काम चलेगा? आज कुछ भी और्डर नहीं कर पाएंगे.’’

नितिन और कावेरी के स्वर में इतना अपनापन और सरलता थी कि दोनों फिर तैयार हो ही गए. बोले, ‘‘ठीक है, हम फ्रैश हो कर आते हैं.’’

नितिन ने दरवाजा बंद कर कावेरी से कहा, ‘‘ठीक किया, इन के साथ ही आज डिनर करते  हैं. ये दोनों हमेशा मुझे अच्छे लगे हैं. वैसे भी यहां किसी को भी कभी इतनी फुरसत नहीं होती कि मिल कर कभी किसी के साथ बैठ पाएं. आज खाना तो है ही. चलो, फिर एक बार साबित हो गया कि दानेदाने पर खाने वाला का नाम लिखा होता है.’’

‘‘हां, मुझे भी खुशी हो रही है. आज पहली बार कोई पड़ोसी हमारे घर आएगा.’’

20 मिनट बाद ही सुमित और रेखा आ गए. पहली बार आए थे. थोड़ा तो संकोच स्वाभाविक था, पर नितिन और कावेरी खुले दिल के सरल स्वभाव के इंसान थे तो थोड़ी देर में ही सुमित और रेखा खुलने लगे. उन्होंने घर के इंटीरियर की खुले दिल से तारीफ की. फिर अपने हाथ में पकड़ा पैकेट कावेरी को देते हुए रेखा ने कहा, ‘‘हम दोनों मेरे मम्मीपापा से मिलने गए हुए थे.  मम्मी ने आते हुए यह पूरनपोली बना कर दी है. आप के लिए भी ले आई. यह महाराष्ट्र की फेमस चीज है.’’

‘‘अरे, वाह. हां, औफिस में कोई लाता है तो मैं जरूर खाती हूं. मुझे बहुत पसंद है, थैंक्स,’’ कहते हए कावेरी ने खुशी से वह पैकेट ले लिया. फिर उन लोगों के लिए चाय ले आई. अब तक सब सहज रूप से बातें करने लगे थे.

खाना जब लगा तो रेखा ने बहुत तारीफ करते हुए खाया. हंस कर कहा, ‘‘औफिस में भी नौर्थ इंडियंस अकसर परांठे लाते हैं तो मैं अपनी रोटी उन्हें दे कर उन के परांठे ले लेती हूं.’’

आजकल सब के दिल में अपने काम में व्यस्त रहने के चलने एक खालीपन भरता ही जा रहा है. मशीनी जीवन से दूर यह आज की शाम चारों को एक नया अपनापन दे रही थी. अब यह लग ही नहीं रहा था कि चारों आज पहली बार ही मिले हैं. हंसीमजाक शुरू हो गया था जो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था.

सुमित ने कहा, ‘‘आज तो दिल खुश हो गया. अब तो हर वीकैंड का कोई प्रोग्राम रहना ही चाहिए. हर वीकैंड पर मूवी देख लो, बाहर खाना खा आओ बस यही करते हैं. ऐसी शाम बारबार आती रहनी चाहिए नितिन.’’

चारों हमउम्र ही थे. अब सब एकदूसरे का नाम ही ले रहे थे.

एक बात सुनो, ‘‘हमारी एक आंटी का अलीबाग में फार्महाउस है. कोरोना टाइम में कहीं और आनाजाना तो हो नहीं रहा, वहां कोई नहीं रहता है. एक हाउस हैल्प है बस. क्यों न वहां 1-2 रातें घूमने चला जाए?’’ सुमित बोला,

जवाब कावेरी ने दिया, ‘‘हम तैयार हैं.’’

‘‘यार, आज तो मन खुश हो गया. तुम लोगों के साथ तो सफर की थकान भी उतर गई. यह तो कभी सोचा नहीं था कि हमारे पड़ोसी इतने अच्छे हैं. एक दिन अचानक हम एक शाम में ही इतने अच्छे दोस्त बन जाएंगे,’’ रेखा ने बहुत प्यार से कहा तो कावेरी मुसकरा दी.

सब बैठ कर अपने घर, परिवार, औफिस की बातें करते रहे. 12 कब बज गए, पता ही नहीं चला.फिर सुमित ने कहा, ‘‘चलो, अब सोया जाए, अब तो मिलते ही रहेंगे. थैंक यू, दोस्तो.’’

नितिन ने कहा, ‘‘हमें थैंक्स मत कहो, इंटरनैट को कहो कि थैंक यू, इंटरनैट. अच्छा हुआ तुम चले गए. तभी तो हम मिले वरना तो तुम लोगों ने फोन कर के दूध और खाना मंगा लिया होता.’’

‘‘हां, फिर हमें इतने अच्छे परांठे न मिलते.’’

‘‘और मुझे पूरनपोली, नहीं तो तुम ने अकेले खा ली होती,’’ कहतेकहते कावेरी ने मुंह बनाया तो सब जोर से हंस पड़े.

उन के जाने के बाद नितिन और कावेरी ने खुशी से कहा, ‘‘कितना अच्छा लगा, यार. कितना जरूरी होता है दोस्तयारों का साथ. आज तो इंटरनैट के जमाने ने कमाल कर दिया. भाई साहब गए तो अच्छे दोस्तों से मिलना हो गया. एक दोस्त से नहीं मिल पाए तो 2 दोस्त और मिल गए, जय से तो अब अगली बार मिल ही लेंगे पर आज दिल खुश हो गया.’’

नितिन ने सहमति में सिर हिला दिया. दोनों सारा सामान समेटते हुए फिर गा रहे थे, ‘‘जहां चार यार मिल जाएं, वहीं रात हो गुलजार…’’

Moral Stories in Hindi : बीमार थीं क्या

Moral Stories in Hindi : ‘‘क्याबात है मुन्नी, पीलीपीली सी क्यों लग रही हो? बीमार थीं क्या?’’ भाभी की मां ने बड़े स्नेह से सिर पर हाथ रख कर

मेरा हालचाल पूछा तो मन भीग सा गया. कोई आप के स्वास्थ्य की इतनी चिंता करे तो अच्छा लगता ही है.

‘‘अपने खानेपीने का खयाल रखा करो बेटा. औरत घर की धुरी होती है. वही अगर बीमार पड़ जाए तो पूरा घर अस्तव्यस्त हो जाता है.’’

‘‘जी, आंटीजी, तबीयत थोड़ी ठीक नहीं थी. पहले वायरल हो गया था. उस के बाद खांसी ने जकड़ लिया. आप सुनाइए, कैसा चल रहा है? घर में सब ठीक हैं न?’’

उन के जाने पर मैं सोच में पड़ गई कि क्या सचमुच मेरा चेहरा पीलापीला लग रहा है? अभी तो मैं भाई की शादी के लिए सजीसंवरी हूं. भारी मेकअप करने और गहनों से लदीफंदी मैं इन्हें पीली क्यों लगी? क्या मेकअप ने भी मेरा पीला रंग नहीं छिपाया?

मुझे चिंता ने घेर लिया कि कितना तो खयाल रखती हूं मैं अपनी सेहत का. फिर भी हर साल बीमार हो जाती हूं. पिछले साल भी टाइफाइड होने पर बेहद कमजोर हो गई थी. पूरे 4 महीने लग गए थे मुझे अपनेआप और घर को संभालने में. राजीव कितनी छुट्टियां लेते. हार कर उन की मां और मेरी मां को हमारा घर संभालना पड़ा था. दोनों बारीबारी से आती थीं. तब से अपना विशेष खयाल रखती हूं, क्योंकि पहले ही मैं ससुराल और मायके वालों को परेशान कर चुकी हूं.

भाभी की मां फिर मेरे पास आ कर बोलीं, ‘‘देखो बेटा, सुबहसुबह उठ कर सैर करने जाया करो. रात को 5-6 बादाम भिगो दिया करो.

सुबह छील कर शहद और अदरक के साथ लिया करो.’’

न जाने वे क्याक्या बोलती रहीं. इस का मतलब मैं अभी तक बीमार हूं. क्या राजीव मुझ से झूठ बोलते हैं? मेरे खून की जांच तो वे कराते रहते हैं. वे तो कहते हैं कि अब मेरी तबीयत पूरी तरह ठीक है. शरीर में सारे तत्त्व पूरे हैं. फिर मैं स्वयं भी कोई कमजोरी महसूस नहीं करती. भाई की शादी की तैयारी में भी मैं ने भागभाग कर सारे काम किए हैं और अभीअभी बरात के लिए तैयार हो कर आई हूं. मुझे किसी ने बताया क्यों नहीं कि मैं इतनी बीमार लग रही हूं.

तभी कोई आ गया और भाभी की मां उन से बातें करने में व्यस्त हो गईं. मैं अनमनी सी भारी कदमों से एक बार फिर भीतर वाले कमरे में चली गई. राजीव ने क्या झूठ बोला मेरे साथ? वे तो कहते थे अब हम अपना परिवार बढ़ाने के बारे में सोच सकते हैं. उस के लिए मेरी सेहत अब पूरी तरह उपयुक्त है, तो क्या राजीव ने झूठ कहा मुझ से कि मैं स्वस्थ हूं? क्या सभी

मुझ से छिपा रहे हैं मेरी बिगड़ी हालत? भैयाभाभी भी, मां भी और विजय भैया भी?

मैं स्वयं को आईने में निहारने लगी कि बीमार तो नहीं लग रही हूं मैं.

एक ही तो बहन हूं मैं अपने भाइयों की. लाडप्यार से पली. सभी सिरआंखों पर लेते हैं मुझे. मैं बीमार हूं किसी ने बताया क्यों नहीं मुझे? क्या सभी ने एकदूसरे को यह समझा रखा है कि जो भी मुझ से मिले बस यही कहे कि मैं बहुत सुंदर लग रही हूं?

अभी बाहर कार से जब मैं निकली तब दिल्ली वाले मौसाजी मिल गए. मुझे देख कर कितने खुश हुए थे, ‘‘अरे वाह, आज तो हमारी बच्ची बहुत सुंदर लग रही है… जीती रहो.’’

अगर मैं बीमार लग रही होती तो क्या मौसाजी बताते नहीं? राजीव तो बारबार तारीफ करते ही हैं मेरी परंतु उन पर अब क्या भरोसा करूं. सवाल यह नहीं है मैं कैसी लग रही हूं, सवाल यह है कि क्या मैं अब भी बीमार ही हूं?

‘‘नीलू, जरा इधर आना तो,’’ भीतर आतेआते दूल्हा बने विजय भैया बोले, ‘‘जरा सूईधागे से सेहरा पगड़ी के साथ ही सी दो… बारबार उतर रहा है. अरे वाह, कितनी सुंदर लग रही है आज मेरी गुडि़या,’’ कुछ पलों को विजय भैया अपना सेहरा संभालना भूल से गए.

मैं शीशे के सामने चुपचाप खड़ी थी. भाई के शब्दों पर आंखें भर आईं मेरी.

‘अरे, क्या हुआ है तुझे नीलू… चुपचाप सी क्यों है?’’

भैया ने पास आ कर सिर पर हाथ रखा.

‘‘क्या मैं अभी भी बीमार लगती हूं विजय भैया?’’ मैं ने पूछा.

‘‘नहीं तो. किस ने कहा तुम बीमार हो? जब थीं तब थीं अब तो ठीक हो. क्या तुम्हें स्वयं पता नहीं चलता? भागदौड़ कर सारे काम कर रही हो… क्या बीमार महसूस करती हो?’’

मैं चुपचाप सूईधागा ला कर भैया का सेहरा पगड़ी के साथ सीने लगी. तभी वहां राजीव और विजय भैया के मित्र आ गए.

‘‘यह भाभी की मां की बुरी आदत है विजय कि जिस पर भी प्यार आ रहा है उसी की सेहत खराब करती जा रही हैं… बाहर मुझे मिलीं तो कहने लगीं मैं बहुत बीमार लग रहा हूं… रंग पीला पड़ गया है… हटो जरा सामने से मैं देखूं तो कहां से पीलानीला लग रहा हूं मैं,’’ कह विजय भैया को एक तरफ कर राजीव भी शीशे में स्वयं को गौर से देखने लगे. फिर बोले, ‘‘यार, अच्छाभला तो हूं मैं. पिछले ही महीने मैं ने अपने सारे कपड़े खुलवाए हैं. अगर कमजोर होता तो सब से पहले कपड़े ही ढीले पड़ते हैं न?’’

कुछ देर और आईने में खुद को देख कर राजीव बोले, ‘‘आज तो मैं ने भी खास मेकअप किया है भई… घर का दामाद हूं मैं… अच्छीखासी पौलिश की है चेहरे पर. फिर भी मेरा रंग पीला लग रहा है. बता न विजय क्या सचुमच मैं बीमार लग रहा हूं?’’

क्षण भर को विजय भैया ने मेरा हाथ रोक दिया. मैं भी तनिक चौंकी राजीव के शब्दों पर. हम तीनों की नजरें मिलीं और फिर मिलीजुली हंसी कमरे में गूंज गई.

‘‘लगता है तुम दोनों से ही उन्हें खास प्यार है… क्या करें वे भी. तुम उन की बेटी ननद हो… सुना होगा न तुम बीमार थीं बस उसी को लक्ष्य किया होगा… मुझे भी जब मिलती हैं यही कहती हैं क्या बात है विजय बीमार हो क्या? तबीयत तो ठीक है न बड़े कमजोर लग रहे हो.’’

हंसी में उड़ गया सारा तनाव. वास्तव में कुछ लोगों का प्यार करने का यही ढंग होता है. वे आप के दुश्मन नहीं होते. बस एक तरीका होता है प्यार जताने का जबकि आप की सेहत से भी उन का कोई लेनादेना नहीं होता. वे तो मात्र अपने स्नेह और अपनत्व का प्रदर्शन करते हैं. यह अलग बात है मुझ जैसे बीमारी से उठ कर बड़ी मेहनत कर के स्वस्थ होते इंसान पर इस का विपरीत प्रभाव पड़ता है. मैं बीमार थी अब मैं स्वस्थ होना चाहती हूं. अगर वे मुझ से यही कह देतीं कि वाह नीलू, अब तुम अच्छी लग रही हो. अब कमजोर भी नहीं लग रही तो शायद मेरा उत्साह बढ़ जाता और भाई की शादी की चहलपहल में भी मैं अवसाद से न घिरती.

प्यार इस तरह क्यों व्यक्त किया जाए कि जिस से प्यार किया जा रहा हो उस पर नकारात्मक प्रभाव पड़े और वह राजीव और मेरी तरह पागल होने लगे. आज के व्यस्त जीवन में जीवन जीवन ही कहां रह गया है. मशीन की तरह काम करते हैं हम पतिपत्नी… हंसने के लिए भी समय नहीं. खुश हैं कि नहीं यह भी पता नहीं चलता. मानों हंसना भी एक मशीनी क्रिया है. हंस दिए तो हंस दिए. न तो न सही.

आज दिल से सजधज कर भाई की बरात के लिए तैयार हुई तो उन के प्यार ने सब फीका कर दिया. प्यार प्यार कहां रहा वह तो गाली बन गया. भई, अच्छेभले इंसान से अगर इस तरह प्यार किया जाएगा तो उस पर मुझ जैसे इंसान वाला ही प्रभाव पड़ेगा न.

बरात चल पड़ी. खासी गर्मजोशी थी हम सब में. लड़की वालों के घर पहुंचे. जयमाला की रस्म होने लगी. दुलहन से मिलने लगे सब.

‘‘क्या बात है बेटा, बड़ी कमजोर लग रही हो, तबीयत ठीक नहीं थी क्या?’’ यह सुनाई दिया.

मुड़ कर देखा, भाभी की मां दुलहन से प्यार से पूछ रही थीं. राजीव और विजय मेरी तरफ देख मुसकराने लगे, मगर दुलहन के चेहरे पर वही भाव जो कुछ समय पहले मेरे और राजीव के चेहरे पर थे

Famous Hindi Stories : मैं थी, मैं हूं, मैं रहूंगी

Famous Hindi Stories : रितुल जैसे ही कमरे से बाहर निकली तो ऐसा लगा जैसे उस के मम्मीपापा के साथसाथ उस की 12 साला बेटी भी उसे सवालिया नजरों से देख रहे हैं. एक बार तो मन किया कि वापस कमरे में चली जाए पर कुछ सोच कर वह ठहर गई.

वह जैसे ही रसोई में घुसी तो मम्मी ने नफरत भरी नजरों से उस की तरफ देखा और कहा,”तुम्हें तो अभी तैयार होने में समय लगेगा, मैं खुद कर लूंगी.”

नहाते हुए रितुल सोच रही थी कि क्या करे वह अपनी शरीर की इस क्षुधा का? अगर वह पुरुष होती तो क्या उस से इतने सवालजवाब होते?विधवा है मगर है तो औरत ही न.अगर उसे पुरुषों का साथ भाता है तो वह क्या करे? किसी का घर तो नहीं तोड़ रही है वह… उस के बहुत से पुरुष मित्र हैं पर उस ने कभी भी कुछ चोरीछिपे नहीं किया है और न ही कभी किसी का दिल दुखाया है.

जब वह नहा कर बाहर निकली तो रितुल का मन फूल की तरह हलका हो गया था. हरी तांत वाली कौटन की साड़ी बांधती रितुल के होंठों पर मुसकराहट थिरक उठी. नलिन उसे हमेशा साड़ी में ही देखना पसंद करता था. नलिन के साथ ही तो कल उसे सुरेंद्र चाचा ने होटल से बाहर निकलते हुए देख लिया था. तुरंत छोटे भाई का फर्ज निभाते हुए मम्मीपापा को सूचित कर दिया गया था.

खींसें निपोरते हुए सुरेंद्र ने रितुल के पापा विपुल से कहा,”भैया, अपनी बेटी ऐसा करे, अच्छा नहीं लगता.कभी नलिन तो कभी सचिन, आज मैं ने देखा है कल को कोई और देखेगा तो न जाने क्याक्या बात बनाएं. मेरी बात मानें, समय रहते रितुल की दूसरी शादी कर दीजिए.”

पूरी रात रितुल को उस की मम्मी नीरजा परिवार की इज्जत की दुहाई और जवान होती बेटी की जिम्मेदारी के फर्ज के बारे में समझती रही थी. आखिरकर जब रितुल तंग आ गई तो उस ने झुंझलाते हुए कहा,”मम्मी, जब आप को 60 साल की उम्र में भी एक पुरुष संग की चाह होती है, तो बताओ मैं क्या करूं? आप एक औरत हो कर भलीभांति समझती होंगी, मैं क्या कहना चाहती हूं…”

कल रात का वाकेआ याद करते हुए नीरज सोच रही थी कि रितुल के कारण वह और विपुल अपना घर छोड़ कर यहां रह रहे हैं ताकि रितुल और उस की बेटी मीरा को अकेलापन न लगे और यह नाक कटवाने पर तुली हुई है.

रितुल ने जल्दीजल्दी अपने घुंघराले बालों पर ब्रश फेरा, उस की तरह ही उस के बाल भी एकदम कड़क और जंगली थे. किसी के काबू में नहीं आते थे.

बिना किसी से बात किए रितुल ने नाश्ता किया और मीरा से बोली,”मीरा, चलो स्कूल के लिए देर हो जाएगी.”

पूरे रास्ते मीरा अनमनी सी रही. जब रितुल ने पूछा,”बेटा, क्या हुआ है?अगर कोई बात है तो मुझ से बोल सकती हो…”

मीरा बोली,”मम्मी, आप शादी कर लीजिए.”

रितुल हंसते हुए बोली,”वह क्यों भला?”

मीरा बोली,”आप के बारे में कोई कुछ बोले तो मुझे अच्छा नहीं लगता है. मैं आराम से होस्टल में रह लूंगी.”

रितुल बोली,”तुम्हें यह सब सोचने की जरूरत नहीं है, तुम बस पढ़ाई पर ध्यान लगाओ,” रितुल ने मीरा को उतार कर कार अपने कालेज की दिशा में मोड़ दी.

रितुल एक 35 वर्षीय खूबसूरत विधवा है. महिला इसलिए नहीं है क्योंकि हमारे समाज में अगर कोई महिला विधवा या तलाकशुदा हो जाती है तो फिर वह महिला नहीं, विधवा या तलाकशुदा ही कहलाती है. रितुल का जीवनसाथी 3 साल पहले उसे बीच राह में छोड़ कर चला गया था. जाने वाला चला गया पर रितुल तो एक हाड़मांस की इंसान थी. अपनी दैहिक और मानसिक जरूरतों का वह क्या करे?

शाम को उस का डिनर सचिन के साथ था. सचिन से उस की मुलाकात एक फ्रैंड के घर पर हुई थी. सचिन पिछले 3 सालों से अपनी बीवी से अलग रह रहा था. उसे भी रितुल की बातें और उस का साथ भाता था. रितुल और औरतों से बिलकुल अलग थी. वह न केवल आर्थिक रूप से, बल्कि अपने विचारों से भी स्वतंत्र थी. उन की दोस्ती को लगभग 1-2 साल हो गए थे, पर आज तक कभी भी रितुल ने उस से शादी या किसी रिश्ते के लिए दबाव नहीं बनाया था.

सचिन और रितुल ने जब डिनर खत्म किया तो रात के 10 बज रहे थे. जब रितुल घर पहुंची तो मम्मीपापा के चेहरे पर तनाव तो था पर उन्होंने कुछ नहीं कहा.

रितुल के जीवन में बहुत से मित्र थे. उस ने उन्हें महिला और पुरुष की परिधि में कभी नहीं रखा था. जब तक उस के पास बीवी का तमगा था किसी ने उस से कोई प्रश्न नहीं किया था. पर जैसे ही वह अकेली हुई उस का अपना परिवार भी उसे सवालिया निगाहों से देखने लगा था. रितुल को समझ नहीं आ रहा था कि पति के न होने से वह कैसे अपनेआप को एकदम से बदल दे?

यह ठीक है कि उस का परिवार उस की दूसरी शादी करने के लिए तैयार था. पर 50-55 साल के टूटे हुए
पुरुषों के साथ रितुल समझौता करने के लिए तैयार नहीं थी. 55 साल का पुरुष उस की मानसिक, भावनात्मक या दैहिक जरूरतें कैसे पूरी कर सकता है?अगर समझौता करना ही है तो क्यों न वह अपनी शर्तों पर करे.

जब शाम को रितुल घर पहुंची तो रितुल के पापा विपुल बोले,”रितुल बेटा, हम सब समझते हैं, इसलिए मैं चाहता हूं कि तुम जल्द से जल्द दूसरी शादी कर लो.”

रितुल बोली,”पापा, आप ठीक कह रहे हैं पर मैं जल्दबाजी में कोई फैसला नहीं करना चाहती हूं. हमारे समाज में अधिकतर विवाह आर्थिक कारणों से होते हैं और मैं आर्थिक रूप से स्वाबलंबी हूं और मुझे किसी सहारे की जरूरत नहीं है. अगर कोई अच्छा साथी टकराया जो मुझे पूरी तरह अपना सके तो मैं आप को बताने में बिलकुल भी गुरेज नहीं करूंगी.”

तभी रितुल की मम्मी नीरजा बोली,”रितुल, दूसरी शादी एक समझौता ही तो है.”

रितुल बोली,”मम्मी, जब समझौता ही करनी है तो यह जिंदगी ही क्या बुरी है?”

नीरजा तिलमिला कर बोली,”अब बहुत अच्छी जिंदगी नहीं जी रही हो. होटलों के कमरों में बंद, कभी नलिन तो कभी सचिन…”

रितुल मुसकराते हुए बोली,”मम्मी, आप की बेटी हूं. कभी ऐसा कोई काम नही करूंगी जिस से मुझे अपनी नजरों में ही शर्मिंदा होना पड़े. मैं न किसी के गले पड़ी हूं और न ही किसी पुरुष से किसी भी तरह का कोई फायदा उठा रही हूं. अगर ये लोग मेरे साथ और मैं इन के साथ खुशी के कुछ पल गुजार लेती हूं तो फिर इस में क्या बुरा है?”

देर रात तक रितुल प्रजैंटेशन पर काम करती रही थी. कल औफिस में नए बौस के सामने प्रजैंटेशन है. सुना था, नए बौस बेहद खङूस हैं. कभी उन्हें किसी ने हंसते हुए नहीं देखा है. नाम है यश. अगले दिन जब रितुल औफिस पहुंची तो देखा अनंत का मूड औफ था. अनंत रितुल के साथ ही उस प्रोजैक्ट पर काम कर रहा था.

रितुल को देख कर बोला,”अच्छा है, आप देर से आई हो. मुझे तो इस खङूस ने इतना सुनाया कि मेरे वारेन्यारे कर दिए.”

रितुल डरतेडरते यश के कैबिन में पहुंची तो यश बोला,”रितुल, आप आज फिर लेट हैं. औरतों के लिए नौकरी बस टाइमपास होती है, बस नारी मुक्ति के नाम पर पतियों को तंग करने का तरीका.”

रितुल बोली,”सर, मेरे पति की 3 साल पहले मौत हो चुकी है.”

यश एकाएक उसे अचरज से देखने लगा. विधवा कहां से लगती है रितुल, कितनी बनीठनी तो रहती है. हमेशा पुरुषों में घिरी रहती है. यश मन ही मन सोचने लगा कि आज प्रजैंटेशन में पता चल जाएगा कि कितनी स्किल्ड है रितुल.

बोर्ड औफ डाइरैक्टर्स के सामने रितुल ने काफी अच्छे से सारे पौइंट्स ऐक्सप्लेन किए. यश चाह कर भी कुछ नुक्स निकाल नहीं पाया था.

जब यश रात को अपने परिवार के साथ डिनर करने गया तो देखा रितुल भी उसी होटल में थी. साथ में कोई
पुरुष भी था. यश का मन खराब हो गया. ये खूबसूरत औरतें ऐसी ही होती हैं.

तभी उस ने देखा कि रितुल और वह पुरुष उस की टेबल की तरफ ही आ रहे थे. रितुल ने यश का परिचय अपने मित्र सचिन से कराया. यश सोच रहा था कि रितुल कैसे इतना खुश रहती है. क्या इसे अपने पति से कोई प्यार नहीं था जो इतनी जल्दी उसे भूल गई? उस के रहनसहन से भी ऐसा ही लगता है.

फिर सचिन और रितुल, सचिन के फ्लैट पर गए और दोनों एकाकार हो गए. घर पहुंचतेपहुंचते रात के 12 बज गए थे. धीरे से उस ने कार पार्क करी और चुपके से मीरा को बांहों में भर कर सो गई. रितुल को पता था कि अगर सबकुछ ठीक रहा तो उस का प्रोमोशन हो जाएगा और वेतन भी बढ़ जाएगा. तब वह घर के लिए एक परमानैंट मैड रख लेगी. आखिर कब तक मम्मी यों ही खुद को घिसती रहेंगी.

रितुल के काम की सभी ने सराहना की थी पर प्रोमोशन अनंत को मिल गया जो रितुल को बस सहायता ही कर रहा था. रितुल ने जब यह सुना तो उसे अनंत के लिए खुशी तो हो रही थी पर उसे समझ नहीं आया कि आखिर ऐसा क्यों हुआ?

यश अनंत के प्रोमोशन पर बहुत खुश था. यह सब कियाधरा आखिर उस का ही था. यश को रितुल का हर समय मुसकराते रहना बहुत अखरता था. उसे लगता था कि रितुल बहुत ड्रामा करती है. पर आज भी उस ने देखा कि रितुल अनंत के साथ मजे से लंच कर रही थी.

यश को न जानें क्यों रितुल की मुसकराहट से चिढ़ थी. उस का बननासंवरना सबकुछ उसे अखरता था. धीरेधीरे यह बात रितुल को भी समझ आ गई थी कि यश उसे पसंद नहीं करता है पर फिलहाल उस के पास इस समस्या का कोई हल नहीं था.

कंपनी अपना नया प्रोजैक्ट बैंगलुरू में लगाने जा रही थी. इसी कारण से यश और रितुल को 4 दिन के लिए बैंगलुरू भेजा जा रहा था. यश ने पुरजोर कोशिश की कि उसे रितुल के साथ न जाना पड़े पर कुछ हो नहीं पाया. एअरपोर्ट पर भी यश ने रितुल से एक सम्मानजनक दूरी बना रखी थी. रितुल ने 1-2 बार बात करने की कोशिश भी की पर वह नाकाम ही रही. रितुल के टौप का खुला गला, स्किनफिटिंग की जींस सबकुछ यश को परेशान कर रहा था. यश मन ही मन सोच रहा था कि जरूर वह उसे फंसाने की कोशिश करेगी. पूरी यात्रा के दौरान दोनों चुप ही रहे.

रात को डिनर के समय रितुल ने यश का दरवाजा खटखटाया तो न चाहते हुए भी यश को उठना पड़ा. सफेद सूट में रितुल इतनी प्यारी लग रही थी कि यश के मुंह से अचानक निकल गया,”रितुल, तुम बेहद खूबसूरत और शांत लग रही हो.”

डिनर के समय यश ने अनुभव किया कि रितुल ऐसी भी नहीं है जैसा वह समझता था. वह अपनी बेटी और मम्मीपापा का बहुत खयाल रखती है.

रितुल ने सूप पीते हुए पूछा,”सर, आप के परिवार में कौनकौन हैं?”

यश बोला,”मैं और मम्मी. अगर पूछना चाहती हो कि अब तक शादी क्यों नहीं करी तो बता देता हूं… की थी, मगर मेरी बीवी 5 साल पहले मुझे उल्लू बना कर भाग गई,” रितुल यश को चुपचाप सुनती रही.

“मेरी जिंदगी की खुशी, रंग और रौनक सब को पैरों तले रौंद कर चली गई…”

रितुल बोली,”आप गलत बोल रहे हो, वह बस आप की जिंदगी से गई है. आप ने अपनी खुशियों की बागडोर उस के हाथों में दे दी थी.”

यश तल्खी से बोला,”तुम्हारे और मेरी सिचुएशन में फर्क है.”

रितुल मुसकराते हुए बोली,”क्या फर्क, बस यही कि मैं एक विधवा हो कर भी एक रंगीन जिंदगी जीती हूं और आप की बीवी के जाने से आप का पौरूष इतना आहत हो उठा कि आप ने जीना छोड़ दिया है. आप को क्या लगता है कि मेरी जिंदगी इतनी आसान है… क्या मुझे नहीं पता है कि आप के फीडबैक के कारण ही मुझे प्रोमोशन नहीं मिला है.

“सर, मुझे रोते हुए जिंदगी गुजारना पसंद नहीं है. मेरे पति की जिंदगी खत्म हुई है पर उन के साथ मैं अपनी जिंदगी खत्म नहीं कर सकती हूं…”

तभी फोन की घंटी बजी और रितुल फोन में खो गई थी. फोन नलिन का था. जब रितुल ने फोन रख दिया तो यश बोला,”थकती नहीं हो तुम इस तरह से? क्या मजा मिलता है तुम्हें ऐसे?

रितुल बोली,”जिंदगी जीने के टौनिक हैं मेरे दोस्त.”

अगले दिन तक रितुल से यश काफी खुल गया था. मन ही मन वह सोच रहा था कि वह कितना गलत था रितुल के बारे में.

अगली रात यश और रितुल ने एकसाथ गुजारी थी और अगले दिन यश रितुल को देख कर झेंप उठा और बोला,”आई एम सौरी रितुल.”

रितुल बोली,”अरे यश, वे हम दोनों के साझे पल थे. मुझे कोई शर्मिंदगी नहीं है तो तुम्हें क्यों है?”

इस औफिसियल ट्रिप ने यश का जिंदगी जीने का नजरिया ही बदल दिया था. उसे समझ आ गया था कि दुखों को गले लगा कर जिंदगी जी नहीं जा सकती है.

अब रितुल के पुरुष मित्रों में यश भी शामिल था. रितुल को अपने पुरुष मित्रों से किसी भी प्रकार की कोई उम्मीद नहीं थी. वे बस मिलते थे और अच्छा समय बिताते थे.

धीरेधीरे यश का मन रितुल की तरफ खींचने लगा था. रितुल को देख कर उसे जीने की प्रेरणा मिलती थी. वह उसे अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाना चाहता था. आज रितुल ने अपने प्रोमोशन मिलने की खुशी में एक छोटी सी पार्टी आयोजित की थी. उस में उस ने अपने सभी महिला और पुरुष मित्र आमंत्रित किए थे. यश, सचिन और नलिन तीनों ही बहुत खुश थे. तीनों को रितुल पर नाज था.

पार्टी जोरशोर से चल रही थी कि तभी यश रितुल के पास आ कर बोला, “रितुल, मेरी जिंदगी का हिस्सा बनोगी?”

रितुल हंसते हुए बोली,”यह क्या कह रहे हो तुम?”

यश बोला,”सीधी बात है, तुम्हें हमसफर बनाना चाहता हूं.”

रितुल प्यार से बोली,”यश, इस रिश्ते को दोस्ती तक ही रखो, किसी नाम में बांधने की कोशिश मत करो.”

यश आहत हो कर बोला,”आखिर क्यों?”

रितुल बोली,”क्योंकि मैं अभी तैयार नही हूं.”

यश व्यंग्य कसते हुए बोला,”हां, रोज नएनए स्वाद चखने की आदत जो पड़ गई है.”

रितुल बोली,”यश, मुझे पता था तुम्हारे अंदर अहम बहुत ज्यादा है. इसी कारण से मैं तुम्हारे साथ किसी रिश्ते में बंधना नहीं चाहती हूं. मेरी न ने तुम्हारा असली चेहरा उजागर कर दिया है. मैं लता की तरह किसी पुरुषरूपी वट से लिपटना नहीं चाहती हूं.

“मैं हूं, मैं थी और मैं रहूंगी, हर रिश्ते से ऊपर,” यह कह कर रितुल साङी लहराती नलिन की तरफ चली गई. यश को मलाल आ रहा था कि अपनी सोच के कारण उस ने एक अच्छे दोस्त के साथसाथ खूबसूरत रिश्ते का गला भी घोंट दिया है.

रितुल ने पति के जाने के बाद जो संबंध बनाए वे आज की आवश्यकता हैं क्योंकि अकेले स्त्री पुरूषों की संख्या बढ़ती जा रही है.

इस बारे में पाठकों की राय आमंत्रित है. जिन की राय अच्छी है, उन्हें प्रकाशित किया जाएगा. राय व्हाट्सएप पर … नंबर या sampadak@delhipress.biz पर भेज सकते हैं.

Hindi Story Collection : लिव टुगैदर का मायाजाल

Hindi Story Collection : सामने महेश खड़ा था. आंखों से झरझर आंसू बहाता हुआ, अपमानित सा, ठगा हुआ, पिटा हुआ सा, अपने प्रेम की यह हालत देखते हुए… स्वयं को लुटा हुआ महसूस कर, हिचकियों के साथ रो रहा था.

मैं उसे सामने देख कर अवाक् थी. मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मेरी वीरान जिंदगी में अब कोई आया है. ‘‘सपना…’’ रुंधे गले से महेश मुश्किल से बोल पाया.

किसी गहरे कुएं से आती मरियल सी आवाज…आज मुझे मेरे उन सब उद्बोधनों से ज्यादा भारी और अपनी महसूस हुई, जो मैं पिछले 10-12 साल से सुनती चली आ रही थी.

‘‘सपना स्वीटहार्ट… सपना डियर… सपना डार्लिंग…’’ की आवाजों का खोखलापन, जो मैं पिछले 2-3 बरस से महसूस कर रही थी, आज और ज्यादा खोखली लगने लगीं.

मेरे चारों तरफ मेरा अपना बनाया, अपना रचाया हुआ संसार खड़ा था. मलिन और निस्तेज पड़े हुए मेरे शरीर के चारों ओर शानदार चीजों से सजा हुआ मेरा बंगला अभिमान के साथ आसमान से बातें कर रहा था. उसी अभिमान के रथ पर कभी मैं भी सवार हो कर सपने संजोया करती थी…

‘‘सपना…एक बार मुझे खबर तो कर दी होती अपनी बीमारी की…’’ मेरे निशक्त शरीर को देखते हुए महेश के गले से दबीदबी सी आवाज निकली.

महेश के दिल में मेरे लिए… टिमटिमा कर जलता हुआ दीपक… मेरे मन के अंधेरे में एक किरण सी चमकी. अकेलापन, अवसाद और उदासी भरे मन में, महेश की उपस्थिति की दस्तक से एक नई तरह की आशा का संचार हुआ.

महेश ने ढूंढ़ कर कमरे की लाइट जलाई. कमरा एक बार फिर से रोशन हो गया. चारों तरफ गर्द ही गर्द जमा हो गया था. महंगामहंगा आधुनिक सामान धूल से अटा पड़ा था. कमरे की सजावट जहां अपने अतीत की आलीशानता बयान कर रही थी, वहीं उस पर जमी धूल की परत वर्तमान की बेजान तसवीर पेश कर रही थी.

स्पर्श सुख की अनुभूति पिछले कई महीने से उस ने महसूस नहीं की थी. मेरी अवसादग्रस्त जिंदगी की चिड़चिड़ाहट और चिल्लाहट से त्रस्त हो कर, नौकरनौकरानियां काम छोड़ कर चली गई थीं. महीनों से साफसफाई नहीं हुई थी.

पैसे से श्रम खरीदा जा सकता है, अपनापन नहीं, इस का प्रत्यक्ष दर्शन मुझे हो रहा था. दीवार पर लगे विशाल आईने पर निगाह पड़ते ही मैं चौंक गई. लेटेलेटे ही अपना प्रतिबिंब देख कर मुझे रोना आ गया. एक बार को तो मैं खुद को ही नहीं पहचान पाई.

मेरे पर हमेशा हंसतेखिलखिलाते रहने वाला विशाल आईना, गंदला हो कर मायूसी प्रकट कर रहा था. रोशनी से मेरी हालत का जायजा ले कर महेश और भी ज्यादा द्रवित हो गया. ‘‘सपना… कम से कम एक फोन तो कर दिया होता. इतनी बीमार पड़ी थीं. एकदम पीली पड़ गई हो,’’ महेश अपराधबोध से ग्रस्त हो कर अपनी ही रौ में कहे जा रहा था.

मैं महेश की हालत समझ रही थी. एकएक बीती बात मुझे याद आ रही थी. जब शरीर था तब विचार नहीं थे, अब शरीर नहीं रहा तो विचार डेरा डालने लगे.

अकेलेपन और अवसाद से महेश की सहानुभूति मुझे कुछ हद तक उबार रही थी. मैं उस से आंखें नहीं मिला पा रही थी. ‘महेश मेरा इतना लंबा इंतजार करता रहा. मेरे लिए… अभी तक इंतजार या फिर यों ही आया है अचानक.’

यादों के खंजर दिमाग में ठकठक कर रहे थे. महेश मेरा सहपाठी था. कालेज के वे दिन हवा में उड़ने के थे… आसमान से बातें करने के. यौवन पूरे निखार पर था. मैं तितलियों की तरह इधरउधर मंडराती रहती.

कलियां खिलेंगी तो मधुप मंडराएंगे ही और फिर यह तो समय होता है युवाओं को आकर्षित करने का… लोगों की फिसलती निगाहें पकड़ कर आह्लादित होने का.

हरदम सजनासंवरना, इधरउधर इतराते हुए फिरते रहना, न कोई चिंता थी, न ही कोई परवा. बस उड़ते ही जाना, लोगों की निगाहों में चढ़ते जाना. उन की कानाफूसियां सुन कर उल्लासित होना और उन की प्यासी निगाहें ताड़ कर उन्हें और तड़पाना. उन की अतृप्तता भरी मनुहार सुन कर स्वयं को तृप्त महूसस करना. चिंता नहीं थी तो चिंतन भी नहीं था…

महेश न जाने कब मुझ से दिल लगा बैठा था. भावुक महेश मेरे रूपयौवन के मोहजाल में फंस गया था. हरदम वह बिन पानी की मछली की तरह तड़पता रहता था.

पुरुष बेचारा, पहले प्यार को अपने दिल पर लगा लेता है… मेरे लिए पुरुषों की तड़प मेरी आत्मसंतुष्टि थी. अनादि काल से चली आई परंपरा नारी की तड़प से पुरुषों की आत्मसंतुष्टि को तोड़ना मेरे अहं को तुष्ट करती थी.

मैं 20वीं सदी की नारी थी. मेरे विचारों में खुला आसमान था. मेरा एक स्वतंत्र अस्तित्व है. मैं भी पुरुष की तरह एक इकाई हूं. प्रेम, प्यार एक अलग बात है. लेकिन शादी, बच्चे का बंधन मुझे नागवार लगता था.

कालेज के दिन फुरफुर कर उड़ गए. महेश की मासूम याचना मेरे मस्तिष्क पर सामान्य सी ठकठक थी.

अपनी अलग पहचान बनाने की लौ मन में निरंतर जलती रहती. मैं भावुकता में न बह कर पूर्ण व्यावसायिक हो गई थी.बहुराष्ट्रीय कंपनी में अच्छी नौकरी, ऊंचा ओहदा, भरपूर पगार… सारी सुखसुविधाएं मेरे कदमों को चूम रही थीं.

मैं स्वतंत्र, आर्थिक रूप से मजबूत, अच्छी प्रतिष्ठा वाली, फिर क्यों किसी पुरुष के अधीन रहूं. परिवार के बंधनों में बंधूं. पैसे से हर चीज हासिल की जा सकती है. अपनी शारीरिक जरूरतों के लिए एक अदद पुरुष भी.जब पदप्रतिष्ठा पा कर पुरुष बौरा सकता है तो स्त्री क्यों नहीं. मैं आर्थिक रूप से स्वतंत्र थी, मुझ में खुद के अहम की बू कुछ ज्यादा ही आ गई थी.

औफिस में ही कमल से मेलमिलाप बढ़ा. हर मुद्दे पर हमारी बौद्धिक बहसें होतीं. राजनीतिक, सामाजिक विचारविमर्श होता. हर विषय पर हम लोग खुले विचार रखते, यहां तक कि प्रेम और सैक्स पर भी.

मेरी मानसिक भूख के साथसाथ शारीरिक भूख भी जोर मारने लगी थी. समान बौद्धिक स्तर वाले कमल के साथ काफी तार्किक विचारविमर्श के बाद हम दोनों एकसाथ रहने लगे, बिना किसी वैवाहिक बंधन के.

लिव टुगैदर, हम 2 स्वतंत्र इकाई, 2 शरीर थे. एक छत के नीचे हो कर भी हमारी साझी छत नहीं थी. पहले तो अड़ोसपड़ोस में हमारे साथसाथ रहने पर कानाफूसियां हुईं, ‘छिनाल’, ‘वेश्या’ और न जाने किनकिन संबोधनों से मुझे नवाजा गया, लेकिन मैं तो उड़ान पर थी. इन सब बातों से मैं कहां डरने वाली थी. हवा में उड़ने वाले परिंदे जमीन पर बिछे जाल से कहां डरते हैं.

महल्ले के युवकयुवतियों को मेरे घर के आसपास फटकने की सख्त मनाही हो गई थी. मेरे घर के चारों तरफ अघोषित एलओसी बन गई थी, जिसे पार करना सफेदपोश शरीफों के बस की बात नहीं थी.

इक्कादुक्का कभी मेरे मकान की तरफ लोलुप निगाहें ले कर बढ़ते पर मेरी हैसियत से डर कर पीछे हो जाते.

जब शरीर बोलता है, तो विचार चुप रहते हैं. एलओसी के घेरे में मैं कब अकेली पड़ती गई इस का मुझे भान तक नहीं हुआ.

शरीर था कि खिलता ही जा रहा था. मैं शरीर के रथ पर सवार हो कर अभिमान के आसमान में उड़ रही थी.

कमल के साथ रहते हुए भी हमारा साझा कुछ नहीं था. मैं जब चाहती कमल के शरीर का भरपूर उपभोग करती. कमल को हमेशा उस की सीमारेखा दिखाती रहती. पुरुष हो कर भी कमल का पुरुषत्व मेरे सामने बौना रहता.

अपना फ्रैंड सर्कल मुझे खुशनुमा महसूस होता. लिव टुगैदर में पतिपत्नी के बीच की लाज और लिहाज, सामाजिक दबाव और बच्चे होने का मानसिक दबाव नहीं था. बस, उच्छृंखल व्यवहार, शरीर का विभिन्न तरह से भरपूर उपभोग, परम आनंद प्रदान करता.

देखते ही देखते कमल के साथ का मौखिक अनुबंध पूरा हो चला. साथ रहते कमल के मन में घर बसाने की चाहत घुल रही थी. कमल बहुत भावुक हो उठा था. अलगाव से उसे बेचैनी हो रही थी. वह शादी कर घर बसाने के लिए मिन्नतें करने लगा. लेकिन मैं तो मन और तन के उफान पर थी. तन अभी भी भरपूर बोल रहा था. भाव तो मन में थे ही नहीं. भाव होते तो मन कमजोर पड़ जाता. मैं नारी की गुलामी की पक्षधर बिलकुल नहीं थी.

शादी… यानी नारी की गुलामी के दौर की शुरुआत… मैं ने एक झटके में कमल को बाहर का रास्ता दिखा दिया.

मुझ में शारीरिक आकर्षण अभी भी उफान पर था. मर्दों की लाइन लगने को तैयार थी. प्रेम, प्यार बेवकूफों का शगल. बेकार में अपनी ऊर्जा जलाओ. तनमन को तरसाओ. मेरा सिद्धांत था, खाओपियो और मौज करो.

मांबाप के बीच की यदाकदा की खिंचन की पैठ मेरे मन में इतनी गहरी समाई हुई थी कि पारिवारिक स्नेह का तानाबाना पकड़ने में मैं कभी सफल नहीं हो पाई.

फिर बदलाव के धरातल पर पैर रख कर कभी महसूस करने और समझने की कोशिश ही नहीं की.भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति मेरी प्राथमिकता रही थी. उन की पूर्ति के लिए मेरे पास संसाधनों की किसी तरह कोई कमी नहीं थी. बस पैसा फेंको, सभी सुविधाएं हाजिर हो जाएंगी.

आलीशान बंगला होने के कारण कभी घर की ऊष्मा महसूस करने की कोशिश ही नहीं की. आधुनिकता के जनून में मेरा स्व ही मुझ पर सवार था.

कमल के बाद अब सैक्स पूर्ति के लिए सुरेश टकरा गया था. उस का भरापूरा शरीर था, छुट्टे सांड़ जैसा मस्तमस्त. मेरे साथ लिव टुगैदर उस के लिए बहुत अच्छा औफर था. हम दोनों साथसाथ रहने लगे, बिना किसी साझी छत के. फिर से वही शारीरिक आनंद की सुनहरी गुफा में विचरण.

मन की स्वतंत्र उड़ान में मैं कभी अपने को हारी हुई महसूस नहीं करती. ऐसा लगता कि मैं ने सुरेश के पौरुष के साथसाथ मर्दों के पौरुष को हरा दिया है.

समय कब गुजर जाता है, पता ही नहीं चलता. देह के कोणों का तीखापन कम होने लगा था. मन के कोण कुछ तीखे हो कर अधूरापन महसूस करने लगे थे.

हर माह मेरे वजूद में अंडा तैयार होता. निषेचित हो कर मुझे नारी का पूर्णत्व प्रदान करने के लिए आतुर रहता, पर शुरुआत में मैं पुरुष से बिलकुल हार मानने वाली नहीं थी. कमल और सुरेश के लाखों शुक्राणु बिना संगम के बह चुके थे. पर अब मेरा मन करता कि मैं हार जाऊं और मेरा मातृत्व जीते. नारी के अधूरेपन का एहसास मुझे महसूस होने लगा था. मन में कचोट सी उठने लगी थी.

मेरी चाहत सुन कर सुरेश एकदम से बिफर गया, ‘हमारे लिव टुगैदर के अनुबंध में बच्चा नहीं था.’

अब मुझे यह समझ ही नहीं आ रहा था कि मैं सुरेश को यूज कर रही हूं कि सुरेश मेरा इस्तेमाल कर रहा है. अपनेअपने अहं की जीत में हम दोनों ही हार रहे थे. हालांकि सब से ज्यादा शारीरिक और मानसिक नुकसान नारी को ही उठाना पड़ता है. पुरुष तो हमेशा हार कर भी जीतता है और जीत कर तो जीतता ही है.

अब मेरा शरीर ढलान पर था तो विचार उठने लगे. सामाजिक तानेबाने की कमी महसूस होने लगी. समाज में प्रतिष्ठा, पद, पैसा पा कर भी मैं सामाजिक कार्यक्रमों में अछूत जैसी स्थिति में रहती.

इंटरनैट, फेसबुक, ट्विटर, औरकुट, ब्लैकबेरी मैसेंजर से सारी दुनिया हमारी थी, लेकिन हमारा पड़ोसी, हमारा नहीं था. मेरा अभिमान चकनाचूर हो कर मिटने के लिए तैयार था, पर सुरेश बिलकुल झुकने के लिए तैयार नहीं था.

अब मेरी मिन्नतों के बाद भी वह अपने स्पर्म मेरी कोख में डालने के लिए तैयार नहीं था. मेरी हालत ‘जल बिन मछली’ जैसी हो रही थी. मेरा मन बच्चे के कोमल स्पर्श को बेचैन होता. कोमलकोमल हाथों की छुअन को महसूस करने के लिए मेरा मन व्यग्र होता, कंपित होता.

सामाजिक अकेलापन, अधूरा नारीत्व मुझे अवसादग्रस्त करने लगा था. सुरेश का ज्वार, उस का हारा हुआ चेहरा, अब मुझे आह्लादित नहीं करता था. उस का सपना डियर, सपना डार्लिंग… कहना मेरे मन को चिड़चिड़ा बना रहा था.

लिव टुगैदर मुझे इंद्रधनुषी मायाजाल सा महसूस होने लगा था. मेरा सबकुछ लुट कर भी मेरा अपना कुछ नहीं था. अनुबंध का समय पूरा हो गया. सुरेश एक झटके के साथ मुझे छोड़ गया. मेरी लाख मिन्नतों के बाद भी वह एक पल भी रुकने को तैयार नहीं हुआ. मेरे जज्बातों से उस को कोई लगाव नहीं था. जैसे एक झटके में मैं ने कमल को छोड़ दिया था, वैसे ही सुरेश ने मुझे छोड़ दिया.

आलीशान घर, महंगा विदेशी सामान मेरे चारों तरफ अभिमान के साथ सजा हुआ था, लेकिन मेरा अभिमान छंट रहा था. अकेलापन भयावह हो रहा था. परिवार के आपसी तानेबाने की कमी महसूस होने लगी थी.

समाज की नजरों में, अपने बौद्धिक विचारों में तो मैं नारी की जीत का आदर्श मौडल बन ही चुकी थी, पर वास्तविकता में मैं अपने अंदर जो रीतापन महसूस कर रही थी, वह मुझे सालता.

निराशा और अकेलापन मुझे दिवास्वप्नों में खोने लगा था. परिणामत: चिड़चिड़ापन और गुस्सा मुझ पर हरदम हावी रहने लगा था. औफिस में, घर में, मैं हरदम झुंझलाती, चिड़चिड़ाती रहती.

कभी मुझे लगता मेरा भी प्यारा सा परिवार है. पति है, छोटा सा बच्चा है, जो अपने नाजुक मसूड़ों से मेरे स्तन चूस रहा है. गीलेगीले होंठों से मुझे चूम रहा है. उस की सूसू की गरमाहट मुझे राहत दे रही है.

कभी लगता, मेरा अभिमान अट्टहास कर रहा है. मुझे चिढ़ा रहा है. मैं एकदम से अकेली पड़ गई हूं. चारों तरफ डरावनीडरावनी सूरतें घिर आई हैं.

घबराहट में मेरी एकदम से चीख निकल जाती. तंद्रा टूटती तो अकेला घर सांयसांय करता मिलता. नौकरनौकरानियां अपनी ड्यूटी निभातीं. मुझे खाना खाने के लिए जोर डालतीं, तो मैं उन पर ही चिल्ला पड़ती.

कुछ दिन मुझे झेलने के बाद वे भी मुझे छोड़ कर चली गईं.

अकेलापन और घिर आया. घर के चारों तरफ खिंची लक्ष्मण रेखा पार करने का साहस किसी में नहीं था. लिव टुगैदर के फंडे ने समाज से टुगैदरनैस होने ही नहीं दिया. मैं अवसादग्रस्त होती जा रही थी.

मन में घोर निराशा थी तो तन भी बीमार रहने लगा. न किसी काम में मन लगता न कुछ करने, खानेपीने की इच्छा होती. हरदम अकेलापन सालता, काटने को दौड़ता रहता, अकेलेपन का एहसास भी मुझे भयभीत करता रहता.

अब मैं क्या करूं? मेरे विचार कुंद पड़ते जा रहे थे. नातेरिश्तेदारों की परवा मैं ने कभी की ही नहीं थी, तो अब कौन साथ देता.

अवसादग्रस्त हो कर मैं ने नौकरी भी छोड़ दी थी. अकेली घर में पड़ी रहती. न खाने की सुध, न कोई बनाने वाला, न कोई मनाने वाला.

मम्मीपापा के बीच की मनुहार मुझे अब बारबार याद आती. भाइयों और बहनों के बीच की तकरार, लड़ाईझगड़ा याद आता.

अजीब हालत हो गई थी. शरीर सूख कर कांटा होता जा रहा था. न दिन का पता रहता न रात का. दीवाली पर हरदम रोशन रहने वाला मेरा बंगला और मेरा मन अंधेरे में घिरा रहता.

परिवार की अवधारणा को ताड़ कर लिव टुगैदर का मायाजाल, असीम सुख, अब समझ आ रहा था.

‘‘सपना… डाक्टर को बुला लाता हूं…’’ महेश कह रहा था.

मैं बेसुध सी पड़ी उस से आंखें नहीं मिला पा रही थी.

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