REVIEW: जानें कैसी है Taapsee Pannu की फिल्म Dobaaraa

रेटिंगः डेढ़ स्टार

निर्माताः शोभा कपूर ,  एकता कपूर ,  सुनीर खेत्रपाल और गौरव बोस

लेखकः निहित भावे (ओरिऑल पाउलो की फिल्म ‘मिराज’ पर आधारित)

निर्देशकः अनुराग कश्यप

कलाकारः तापसी पन्नू ,  पवैल गुलाटी ,  राहुल भट्ट ,  शाश्वत चटर्जी ,  हिमांशी चैधरी ,  नासर और शौर्य दुग्गल

अवधिः दो घंटे 15 मिनट

ओटीटी प्लेटफार्मः नेटफ्लिक्स

हिंदी फिल्में बाक्स आफिस पर लगातार दम तोड़ती जा रही है. फिल्मकार इसका सारा ठीकरा दक्षिण की सफल होती फिल्मों के सिर मढ़कर चैन की नींद सोने पर उतारू हैं. हिंदी भाषी फिल्मकार निरंतर दर्शकों  से दूरी बनाता जा रहा है. वह जमीन से जुड़े लेखकों व जमीनी रोचक व मनोरंजक कहानियों की भी अनदेखी करते हुए दक्षिण की फिल्मों का रीमेक, बायोपिक फिल्में अथवा विदेशी फिल्मों का हिंदी रूपांतरण करने में ही यकीन रख रहा है. इस तरह की फिल्में बनाते वक्त वह मौलिक फिल्म की कहानी का बंटाधार करने में भी पीछे नहीं रहता है. ऐसा महज नवोदित फिल्मकार कर रहे हों,  ऐसा भी नही है. पिछले बीस वर्षों के अंतराल ‘देव डी’, ‘गुलाल’, ‘‘गैंग्स आफ वासेपुर’,  ‘मुक्काबाज’ व ‘मनमर्जियां’ सहित 22 फिल्में निर्देशित कर चुके निर्देशक अनुराग कश्यप भी पीछे नहीं है. इस बार वह स्पेनिश फिल्म ‘मिराज’ का भारतीय करण कर ‘‘दोः बारा’’ नाम से लेकर आए हैं. जो कि 19 अगस्त से ‘नेटफिलक्स’ पर स्ट्रीम हो रही है. फिल्म कथानक के स्तर बहुत गड़बड़ है. कलाकारों का अभिनय औसत दर्जे से भी कमतर है. मजेदार बात यह है कि एक खास विचार धारा के पोषक अनुराग कश्यप ने अपनी फिल्म ‘‘दोः बारा’’ के माध्यम से दर्शकों को चुनौती दी है कि अगर आप वास्तव में पढ़े लिखे हैं, आपके पास फिल्म को समझने वाला दिमाग है, तो उनकी फिल्म को समझकर दिखाएं. अफसोस की बात यह है कि ‘नेटफ्लिक्स’ जैसे ओटीटी प्लेटफार्म के कर्ताधर्ता अनुराग कश्यप जैसे फिल्मकारों की घटिया व बोरिंग फिल्मों को स्ट्रीम कर धीरे धीरे भारत में अपना दर्शकों का आधार निरंतर खोते जा रहे हैं, मगर किसी के भी कान में जूं नहीं रेंग रही है.

कहानीः

फिल्म ‘दोः बारा ’’ की कहानी काफी जटिल है.  कहानी का आधार टाइम ट्रेवेल है. फिल्म की कहानी और किरदार 1990 और 2021 के बीच झूलते हैं. नब्बे के दशक में,  एक भयावह तूफानी रात में दो बजकर बारह मिनट पर 12 वर्षीय लड़के अनय की फायर ब्रिगेड की गाड़ी के नीचे आ जाने से मौत हो जाती है. अपनी मौत सेे पहले अनय  अपने पड़ोसी राजा (शाश्वस्त चटर्जी) को अपनी पत्नी की हत्या और फिर उस हत्या का सुराग मिटाते देख चुका होता है. पच्चीस साल बाद एक बार फिर उसी तरह की तूफानी रात में एक अस्पताल की नर्स अंतरा (तापसी पन्नू) अपने पति विकास ( राहुल भट्ट ) और बेटी अवंती के साथ उसी घर में रहने आती है, जिसमें कभी अनय अपनी मां के साथ रहा करता था. नए घर में अंतरा खुद को एक टीवी सेट के सामने पाती है. जैसे ही अंतरा टीवी को चालू करती है, उसे टीवी के अंदर वही बच्चा अनय दिखायी देता है. डरावनी बात यह है कि दूसरी तरफ अनय को भी अंतरा अपने टीवी में नजर आती है. अनय से बातचीत से अंतरा जान जाती है कि अनय कत्ल को देखने के बाद सड़क हादसे में मरने वाला है. अब वह टीवी के माध्यम से अनय की जान बचाने का प्रयास करती है.  अतीत में अनय को उस सड़क हादसे से बचा लेती है,  मगर उसके चक्कर में वर्तमान में अंतरा अपनी जिंदगी को इकट्ठा नही कर पा रही है.

लेखन व निर्देशनः

फिल्म लेखक व निर्देशक अनुराग कश्यप की फिल्म बनाने की अपनी शैली रही है. अब तक वह रीमेक या किसी विदेशी फिल्म का भारतीय करण करने से बचते रहे हैं. मगर बकौल अनुराग कश्यप उन्हे यह फिल्म तापसी पन्नू की वजह से निर्देशित करनी पड़ी. तापसी पन्नू को स्पेनिश फिल्म ‘‘मिराज’ की कहानी पसंद थी और उन्होने ही इसका भारतीयकरण करवाते हुए पटकथा लिखी थी, पर उन्हे कोई सही निर्देशक नही मिला, तो उन्होंने इसे निर्देशित करने के लिए अनुराग कश्यप से कहा. हम सभी जानते हैं कि अनुराग कश्यप और तापसी पन्नू एक ही विचारधारा के पोषक होने के अलावा एक साथ ‘मनमर्जियां’ फिल्म कर चुके हैं. मगर ‘दोः बारा’ में टाइम ट्रेवेल के साथ रहस्य व रोमांच को मनोरंजक तरीके से पेश करने में अनुराग कश्यप बुरी तरह से विफल रहे हैं. कहानी इस कदर उलझी हुई है कि सब कुछ दर्शक के सिर के उपर से जाता है. पर अनुराग कश्यप हमेशा इस बात से खुश होते है कि वह ऐसी फिल्म बनाते हैं, जिसे दर्शक समझ नही पाता.

टाइम ट्रेवेल को विज्ञान मानता है. मगर तूफानी मौसम बदलने पर जिस तरह के घटनाक्रम  अनुराग कश्यप ने फिल्म ‘‘दोः बारा ’’में दिखाए हैं, उसे तो विज्ञान नही मानता. यही ंपर अनुराग कश्यप अपनी बाजी हार जाते हैं. दर्शक तो टाइम ट्रेवेल व फिल्म के उस तथ्य को भी नही मानता कि तूफानी मौसम में कोई औरत या कोई बच्चा आकर कातिल को सजा दिलाने में सफल होता है. मगर फिल्म ‘दो ः बारा’ देखकर इस बात का अहसास ही नही होता कि यह अनुराग कश्यप स्टाइल की फिल्म है.

मजेदार बात यह है कि अनुराग कश्यप व तापसी पन्नू अपनी फिल्म ‘दो ः बारा’’ के प्रचार के लिए लगातार झूठ बोलते रहे. ट्ेलर लांच पर दावा किया कि उनकी फिल्म ‘दोः बारा’’, स्पैनिश फिल्म ‘मिराज’ का रीमेक नही है.  कुछ दिन बाद कबूल किया कि यह फिल्म उनके पास तापसी पन्नू लेकर आयी थीं.  इसके अलावा तापसी पन्नू और अनुराग कश्यप रोते रहे कि कोई उनकी फिल्म के ‘बौयकौट’ करने की मुहीम नही चलाता.

इतना ही नही अनुराग कश्यप के विचारों से सहमति रखने वाले फिल्म निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा की पत्नी और फिल्म समीक्षक अनुपमा चोपड़ा कुछ वर्षों से ‘‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’’ चलाती हैं, जिसमें एक खास सोच वाले फिल्म समीक्षकों को सदस्य बनाया गया है. और हर वर्ष पुरस्कार भी बांटे जाते हैं. ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्यों को  अगस्त के पहले सप्ताह में ही फिल्म दिखायी गयी थी . और उनके द्वारा फिल्म को दिए गए ‘स्टार’ को खूब सोशल मीडिया पर प्रचारित किया गया. इतना ही नही फिल्म का प्रेस शो मंगलवार, 16 अगस्त को आयोजित किया गया.  तब पीआरओ ने सभी पत्रकारों से कहा कि फिल्म की समीक्षा 19 तारीख से पहले न छपे. लेकिन सभी पत्रकारो से लिखकर मांगा गया कि वह कितने स्टार देंगे. जिस पत्रकार ने तीन से अधिक स्टार दिए, उसके नाम के साथ एकता कपूर, तापसी पन्नू सभी ने ट्वीट कर फिल्म को प्रचारित किया. पर अहम सवाल है कि क्या इससे घटिया फिल्म को दर्शक मिल जाएंगे??

फिल्म को एडीटिंग टेबल पर कसे जाने की जरुरत थी. फिल्म का गीत संगीत भी अति कमजोर है.

अभिनयः

अंतरा के किरदार में तापसी पन्नू ने काफी निराश किया है. मानाकि ‘‘दोः बारा’’ एक टाइम ट्रेवल वाली फिल्म है, पर तापसी पन्नू को इस तरह की फिल्मों में अभिनय करने का कुछ ज्यादा ही शौक है. वह इससे पहले टाइम ट्रेवेल वाली ‘‘ गेम ओवर’’ और ‘‘लूप लपेटा’’ में वह अभिनय कर चुकी हैं. मगर नर्स व डाक्टर अंतरा के किरदार में तापसी पन्नू का अभिनय निराशा जनक है. पत्नी को धोखा देने वाले विकास के किरदार में राहुल भट्ट भी आकर्षित नहीं करते. फिल्म ‘थप्पड़’ में तापसी पन्नू के साथ अभिनय कर अपने बेहतरीन अभिनय प्रतिभा की झलक दिखाने वाले अभिनेता पावेल गुलाटी  इस फिल्म में पुलिस अधिकारी बने आनंद उर्फ अनय  के किरदार में हैं. मगर उनके अभिनय में कोई जान नही है. अपनी पत्नी के कातिल राजा के किरदार में शाश्वत चटर्जी जरुर लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचते हैं. अन्य कलाकारों का अभिनय ठीक ठाक है.

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रेटिंगः डेढ़ स्टार

निर्माताःजी स्टूडियो, कलर येलो प्रोडक्शन और अलका हीरानंदानी

निर्देशकः आनंद एल राय

लेखकः कनिका ढिल्लों और हिमांशु शर्मा

कलाकारः अक्षय कुमार, भूमि पेडणेकर, सहजमीन कौर, साहिल मेहता, दीपिका खन्ना, सदिया खतीब,  स्मृति श्रीकांत, सीमा पाहवा, नीरज सूद व अन्य.

अवधिः एक घंटा पचास मिनट

बौलीवुड में आनंद एल राय की गिनती सुलझे हुए, बेहतरीन व समझदार निर्देशक के रूप में होती है.  ‘तनु वेड्स मनु’,  ‘रांझणा’, ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न’जैसी सफलतम फिल्मों के निर्देशन के बाद वह फिल्म निर्माण में व्यस्त हो गए. आनंद एल राय ने ‘निल बटे सन्नाटा’, ‘हैप्पी भाग जएगी’’,  ‘शुभ मंगल सावधान’ व तुम्बाड़’जैसी बेहतारीन व सफल फिल्मों का निर्माण किया. इसके बाद उनके अंदर अजीबोगरीग परिवर्तन नजर आने लगा. और पूरे तीन वर्ष बाद जब बतौर निर्माता व निर्देशक ‘जीरो’ लेकर आए, तो यह फिल्म बाक्स आफिस पर भी ‘जीरो’ ही साबित हुई. इसके बाद फिल्मकार के तौर पर उनका पतन ही नजर आता रहा है. बतौर निर्देशक उनकी पिछली फिल्म ‘अतरंगी रे’’ भी नही चली थी. अब बतौर निर्माता व निर्देशक उनकी उनकी नई फिल्म ‘‘रक्षाबंधन’’ 11 अगस्त को सिनेमाघरों में पहुंची है. इस फिल्म से भी अच्छी उम्मीद करना बेकार ही है. सच यही है कि ‘तनु वेड्स मनु’ या ‘रांझणा’ का फिल्मकार कहीं गायब हो चुका है. मजेदार बात यह है कि फिल्म ‘‘रक्षाबंधन’’ के ट्ेलर को दिल्ली में आधिारिक रूप से रिलीज करने से एक दिन पहले मुंबई में ट्ेलर दिखाकर अनौपचारिक रूप से जब अनंद एल राय ने हमसे बातें की थी, तो उस दिन उन्होने काफी समझदारी वाली बातें की थी. हमें लगा था कि उनके अंदर सुधार आ गया है. मगर दिल्ली में ट्रेलर रिलीज कर वापस आते ही वह एकदम बदल चुके थे. फिर उन्होने  अपनी फिल्म को लंदन व दुबई में जाकर प्रमोट किया. दिल्ली,  इंदौर,  लखनउ,  चंडीगढ़,  जयपुर, कलकत्ता,  पुणे,  अहमदाबाद,  वडोदरा सहित भारत के कई शहरों में ‘रक्षाबंधन’’ के प्रमोशन के लिए सभी कलाकारांे के साथ घूमते रहे. कलाकारों के लिए बंधानी साड़ी से जेवर तक खरीदते रहे. हर इंवेंअ पर लाखों लोगों का जुड़ा देख खुश होेते रहे. पर अब उन्हे ख्ुाद सोचना होगा कि हर शहर में जितनी भीड़ उन्हे देखने आ रही थी, उसमें से कितने प्रतिशत लोगों ने उनकी फिल्म देखने की जहमत उठायी. लोग सिनेमाघर मे अपनी गाढ़ी व मेहनत की कमाई से टिकट खरीदने के बेहतरीन कहानी देखते हुए मनोरंजन के लिए जाता है. जिसे ‘रक्षाबध्ंान’ पूरा नहीं करती. फिल्म का नाम ‘रक्षाबंध्न’ है, मगर इसमें न तो भाई बहन का प्यार उभर कर आया और न ही दहेज जैसी कुप्रथा पर कुठाराघाट ही हुआ.

कहानीः     

कहानी का केंद्र दिल्ली के चंादनी चैक में गोल गप्पे@ पानी पूरी यानी कि चाट बेचने वाले लाला केदारनाथ(अक्षय कुमार) और उनकी चार अति शरारती बहनों के इर्द गिर्द घूमती है. जिन्होने मृत्यू शैय्या पर पहुंची अपनी मां को वचन दिया था कि वह अपनी चारों छोटी बहनों की उचित शादी करवाने के बाद ही अपनी प्रेमिका सपना(  भूमि पेडणेकर) संग विवाह रचाएंगे. यह चारों बहने भी अपने आप में विलक्षण हैं. एक बहन दुर्गा (दीपिका खन्ना), जरुरत से ज्यादा मोटी हैं. एक बहन सांवली ( स्मृति श्रीकांत  ) , जबकि एक बचकाने लुक (सहजमीन कौर ) हैं. चैथी बहन गायत्री(सादिया खतीब) खूबसूरत व सुशील है. लाला केदारनाथ जिस चाट की दुकान पर बैठते हैं, वह उनके पिता ने शुरू किया था, जिस पर लिखा है ‘गर्भवती औरतें बेटे की मां बनने के लिए उनकी दुकान के गोल गप्पे खाएं. अब अपने पारिवारिक मूल्यों को कायम रखते हुए अपनी बहनों की शादी कराने के लाला केदारनाथ के सारे प्रयास विफल साबित हो रहे हैं. उधर सपना के पिता हरिशंकर(नीरज सूद) सरकारी नौकर हैं और उनके रिटायरमेंट में महज आठ माह बचे हैं. वह रिटायरमेंट से पहले ही अपनी बेटी सपना की शादी करवाने के लिए लाला केदारनाथ पर बीच बीच में दबाव डालते रहते हैं.

लाला केदारनाथ अपनी बहनों की शादी नही करवा पा रहे हैं. क्योंकि वह उस कर्ज की हर माह लंबी किश्त चुका रहे हैं, जिसे द्वितीय विश्व युद्ध के समय उनके पिता ने लिया था. इसके अलावा हर बहन की शादी में दहेज देने के लिए बीस बीस लाख रूपए नही हैं. किसी तरह जुगाड़कर 18 लाख रूपए दहेज में देकर वह मैरिज ब्यूरो चलाने वाली शानू (सीमा पाहवा ) की मदद से एक बहन गायत्री की शादी करवा देते हैं. उसके बाद अचानक हरीशंकर रहस्य खोलते हैं कि उन चारों बहनों के लाला केदारनाथ सगे भाई नही है. लाला केदारनाथ के पिता ने एक बंगले के सामने से उठाकर अपने रूार में नौक के रूप में काम करने के लिए लेकर आए थे, पर केदारनाथ मालिक ही बन बैठे. यहीं पर इंटरवल हो जाता है.

इंटरवल के बाद कहानी आगे बढ़ती है. अन्य बहनों की शादी के लिए लाला केदारनाथ अपनी एक किडनी बेचकर घर उसी दिन पहुंचते हैं, जिस दिन रक्षाबंधन है. तभी खबर आती है कि गायत्री ने आत्महत्या कर ली. और सब कुछ अचानक बदल जाता है. उसके बाद लाला केदारनाथ दूसरी बहनों की शादी करा पाते हैं या नही. . आखिर सपना व केदारनाथ की शादी होती है या नही. . इसके लिए तो फिल्म देखनी पड़ेगी. ?

लेखन व निर्देशनः

फिल्म ‘रक्षाबंधन’’ देखकर यह अहसास नही होता कि यह फिल्म ‘तनु वेड्स मनु ’ और ‘रांझणा’ जैसे फिल्मसर्जक की है. फिल्म की पटकथा अति कमजोर, भटकी हुई और गफलत पैदा करने वाली है. जब हरीशंकर को पता है कि लाला केदारनाथ तो भिखारी था, जिसे नौकर बनाकर लाया गया था, तो ऐसे इंसान के साथ हरीश्ंाकर अपनी बेटी सपना का विवाह क्यों करना चाहते हैं? फिल्म में इस सच को ‘जोक्स’ की तरह कह दिया जाता है. इसके बाद इस पर फिल्म में कुछ खास बात ही नही होती. इंटरवल तक फिल्म लाला केदारनाथ यानी कि अक्षय कुमार की झिझोरेपन वाली उझलकूद, मस्ती व स्तरहीन जोक्स के साथ स्टैंडअप कॉमेडी के अलावा कुछ नही है. इंटरवल से पहले एक दृश्य है. चांदनी चैक की व्यस्त गली में एक बेटे का पिता खुले आम कहता है,  ‘‘हमने अपनी बेटी की शादी के दौरान दहेज दिया था,  इसलिए हम अपने बेटे की शादी के लिए दहेज की मांग कर सकते हैं. ‘‘ कुछ दश्यों के बाद जब एक सामाजिक कार्यकर्ता जनता से दहेज को हतोत्साहित करने का आग्रह करती है,  तो लाला केदारनाथ ( अक्षय कुमार ) गर्व से उस महिला से कहते हैं कि दहेज की निंदा करना आसान है. जब आपकी दो लड़कियां हैंं,  लेकिन अगर दो बेटे होंते, तो आप निंदा न करती. चांदनी चैक के हर इंसान का समर्थन लाला केदारनाथ को मिलता है.

लेकिन जब गायत्री दहेज के चलते मारी जाती है, तब शराब के नशे में केदारनाथ दहेज का विरोध करते हुए अपनी बहनों की शादी में दहेज न देने का ऐलान करते हैं. अब इसे क्या कहा जाए?? कुल मिलाकर यह फिल्म ‘‘दहेज ’’की कुप्रथा पर भी कुठाराघाटनही कर पाती.  हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश मंे शराब के नशे में इंसान जो कुछ कहता है, उसे गंभीरता से नहीं लिया जाता. आनंद एल राय ने शायद 21 वीं सदी में भी साठ के दशक की फिल्म बनायी है, जहां जमींदार व साहूकारों का अस्तित्व है, तभी तो द्वितीय विश्व युद्ध के वक्त अपने पिता द्वारा लिए गए कर्ज को केदारनाथ चुका रहे हैं. कुल मिलाकर कमजोर व भटकी हुई पटकथा तथा औसत दर्जे के निर्देशन के चलते ‘दहेज विरोधी’ संदेश प्रभावी बनकर नहीं उभरता. इसके अलावा इस विषय पर अब तक सुनील दत्त की फिल्म ‘यह आग कब बुझेगी’ व ‘वी.  शांताराम’ की ‘दहेज’ सहित सैकड़ों फिल्में बन चुकी हैं.   पर दहेज प्रथा का उन्मूलन 21 वीं सदी में भी नही हुआ है.

गायत्री की मौत पर पुलिस बल की मौजूदगी में गायत्री की ससुराल के पड़ोसी चिल्ला चिल्लाकर आरोप लगाते हैं कि महज एक फ्रिज की वजह से गायत्री की हत्या की गयी है. मगर पुलिस मूक दर्शक ही बनी रहती है. बहनांे के लिए कुछ भी करने का दावा करने वाला भाई लाला केदारनाथ सिर्फ शराब पीकर आगे दहेज न देने का ऐलान करने के अलावा कुछ नही करता. फिल्म न तो न्याय की लड़ाई लड़ती है और न ही दहेज विरोधी कोई सशक्त संदेश ही देती है. यह लेखकद्वय और निर्देशक की ही कमजोरी है.

फिल्म के निर्देशक आनंद एल राय कभी टीवी से जुड़े रहे हैं. उनके बड़े भाई रवि राय ‘सैलाब’ सहित कई उम्दा व अति बेहतरीन सीरियल बना चुके हैं, उनके साथ आनंद एल राय बतौर सहायक काम कर चुके हैं. उन्ह दिनों जीटीवी पर एक सीरियल ‘अमानत’आया करता था. जिसमें लाला लाहौरी राम अपनी सात बेटियों की शादी के लिए चिंता में रहते हैं, मगर सभी की शादी हो जाती है. इसमें फिल्म ‘लगान’ फेम ग्रेसी सिंह, पूजा मदान, स्मिता बंसल, सुधीर पांडे, श्रेयश तलपड़े और रवि गोसांई जैसे कलाकार थे. काश आनंद एल राय और लेखकद्वय ने इस सीरियल की एक पिता औसात लड़कियों के किरदारों से कुछ सीखकर अपनी फिल्म ‘‘रक्षाबंधन’’ के किरदारों को गढ़ा होता?इतना ही नही लेखक व निर्देशक ने बॉडी शेमिंग के अलावा हकलाने वाले पुरुष जैसे घिसे पिटे तत्व भी इस फिल्म में पिरो दिए हैं. कहानी में कुछ तो नया लेकर आते.

लेखकद्वय के दिमागी दिवालिएपन का नमूना यह भी है कि  हरीशंकर, लाला केदारनाथ को बहुत कुछ सुनाकर उन्हे अपनी बेटी सपना से दूर रहने के लिए कहकर सपना की न सिर्फ शादी तय करते हैं, बल्कि बारात आ गयी है. शादी की रश्मंे शुरू हो चुकी हैं. अचानक हरीशंकर का हृदय परिवर्तन हो जाता है और पांचवे फेरे के बाद हरीशंकर अपनी बेटी से शादी को तोड़ने की बात कहते हैं और बारात की नाराजगी को अकेले ही झेले लेने की बात करते हैं. सपना फेरे लेने के की बजाय दूल्हे का साथ छोड़कर लाला केदारनाथ के पास पहुंच जाती है.  इस तरह तो विवाह संस्था का मजाक उड़ाने के साथ ही उसे कमजोर करने का प्रयास लेखकद्वय ले किया है. लेकिन हिंदू धर्मावलंबियो को खुश करने का कोई अवसर नही छोडा गया. जितने मंदिर दिखा सकते थे, वह सब दिखा दिया.

जी हॉ! गर्भवती औरतों को गोल गप्पा खिलाकर उन्हें बेटे की मां बनाने का दावा करना भी तांत्रिको या बंगाली बाबाओं की तरह 21वीं सदी में अंधविश्वास फैलाना ही है.

फिल्म के संवाद भी अजीबो गरीब हैं. एक जगह जब गायत्री को देखने लड़के वाले आते हैं, तो दुकान वाला कुछ सामान देने के बाद लाला केदारनाथ से कहता है कि दूध भी लेते जाएं. इस पर अक्षय कुमार कहते हैं-‘‘आज नागपंचमी नही है. ’

लेखकद्वय ने कहानी को फैला दिया, चार बहन के किरदार भी गढ़ दिए, पर क्लायमेक्स में उन्हे समझ में नही आया कि किस तरह खत्म करे, तो आनन फानन में कुछ दिखा दिया, जो दर्शक के गले नही उतरता.

वहीं गायत्री की मौत के बाद तीनो बने कुछ बनने का फैसला लेते हुए कहती हैं-‘‘अब हम कुत्ते की तरह प़ढ़ाई करेंगे. ’’. . . अब लेखकद्वय से कौन पूछेगा कि कुत्ते की तरह पढ़ाई कैसी होती है?

पिछले कुछ दिनों से कनिका ढिल्लों पर ‘अति-राष्ट्रवादी’ होने का आराप लगाकर हमला करने वाले भी निराश होंगे, क्योंकि इस फिल्म में लेखिका कनिका ढिल्लों ने चांदनी चैक में कुछ मुस्लिम व सिख चेहरे भी खड़े कर दिए हैं.

फिल्म का गीत संगीत घटिया ही कहा जाएगा. एक गीत चर्चा में आया था-‘‘तेरे साथ हूं मैं. . ’’ यह गाना तो फिल्म का हिस्सा ही नही है.

अभिनयः

लाला केदारनाथ के किरदार में अक्षय कुमार का अभिनय भी इस फिल्म की कमजोर कड़ी है. बौलीवुड में इतने लंबे वर्षों से कार्य करते आ रहे अक्षय कुमार आज भी इमोशनल सीन्स ठीक से नही कर पाते हैं. वह हर किरदार में सीधा तानकर चलते नजर आते हैं. इसके अलावा उन्होने अपने अभिनय की एक शैली बना ली है, जिसमें छिछोरापन, उछलकूद, निचले स्तर के जोक्स व मस्ती करते हैं. कुछ लोग तो उन्हे स्टैंडअप कमेडियन ही मानते हैं. एक दो फिल्मों में उनके ेइस अंदाज को पसंद किया गया, तो अब वह हर जगह इसी तह नजर आते हैं. पर यह लंबी सफलता देने से रहा. कई दृश्यों मंे वह बहुत ज्यादा लाउड नजर आते हैं. चांदनी चैक के दुकानदार, खासकर चाट बेचने वाला डिजायनर कपड़े पहनने लगा है, यह एक सुखद अहसास है. अक्षय कुमार का बचपन चांदनी चैक की गलियों में ही बीता,  इसका फायदा जरुर उन्हें मिला. अक्षय कुमार का बहनों का किरदार निभा रही अभिनेत्रियो संग केमिस्ट्री नही जमी.  सपना के किरदार मे भूमि पेडणेकर के हिस्से करने को कुछ खास रहा नही. सच कहें तो भूमि पेडणेकर के कैरियर की जो शुरूआत थी, उससे उनका कैरियर नीचे की ओर जा रहा है. इसकी मूल वजह फिल्मों के चयन को लेकर उनका सतर्क न होना ही है. 2020 में प्रदर्शित विधू विनोद चोपड़ा की फिल्म ‘‘शिकारा’’से  अभिनय में कदम रखने वाली अभिनेत्री सादिया खिताब जरुर गायत्री के छोटे किरदार में अपने अभिनय की छाप छोड़ जाती हैं. हरीशंकर के किरदार में नीरज सूद का अभिनय ठीक ठाक ही है. दीपिका खन्ना,  सहजमीन कौर और स्मृति श्रीकांत को अभी काफी मेहनत करने की जरुरत है. लाला केदारनाथ के सहायक के किरदार में साहिल मेहता जरुर अपने अभिनय की छाप छोड़ते हैं. उनके अंदर बेहतरीन कलाकार के रूप में खुद को स्थापित करने की संभावनाएं हैं, अब वह उनका किस तरह उपयोग करते हैं, यह तो उन पर निर्भर करता है.

यदि बौलीवुड इसी तरह से फिल्में बनाता रहा, तो बौलीवुड को डूबने से कोई नहीं बचा सकता. दक्षिण के सिनेमा के नाम आंसू बहाना भी काम नहीं आ सकता.

Delhi High Court ने लगाई ‘Shamshera‘ की ओटीटी रिलीज पर रोक, जानें कारण

हमने कुछ दिन पहले ही लिखा था कि ‘‘यशराज फिल्मस’’ से जुड़े कुछ लोग इसे डुबाने पर आमादा हैं और ‘‘यशराज फिल्मस’’ के कर्ताधर्ता आदित्य चोपड़ा इस बात को सम-हजय ही नहीं पा रहे हैं. हालात यह है कि ‘यशराज फिल्मस’ से जुड़ी खबरें तक छिपाने के प्रयास किए जा रहे हैं.‘‘यशराज फिल्सम’’ की रणबीर कपूर,वाणी कपूर और संजय दत्त के अभिनय से सजी फिल्म ‘‘शमशेरा’’ 22 जुलाई 2022 को सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई थी और इस फिल्म ने बाक्स आफिस पर पानी नहीं मांगा था. अब पता चला कि फिल्म का यह प्रदर्शन भी नाटकीय तरीके से हुआ था.खबरों के मुताबिक जब फिल्म ‘‘शमशेरा’’ का पहला पोस्टर बाजार में आया था,तभी से यह फिल्म विवादों से घिर गयी थी.इतना ही नही फिल्म के साथ जो विवाद थे,उन्हे देखते हुए ‘यशराज फिल्मस’ ने सिनेमाघरों मंे फिल्म के प्रर्दशन के छह सप्ताह बाद ओटीटी प्लेटफार्म को देने के नियम की धज्जियां उड़ाते हुए फिल्म को ओटीटी प्लेटफार्म ‘अमेजॉन प्राइम’ पर 21 अगस्त को प्रदर्शित करने के लिए बेच दिया.लेकिन ‘यशराज फिल्मस’ का यह दांव काम न आया और अब ताजा खबरों के अनुसार दिल्ली उच्च न्यायालय ने सुनवायी पूरी होन तक ‘शमशेरा’ के ओटीटी प्लेटफार्म पर प्रदर्शन @ स्ट्ीम होने पर रोक लगा दी है.

वास्तव में लेखक बिक्रमजीत सिंह भुल्लर ने ‘‘यशराज फिल्मस’ और फिल्म ‘‘शमशेरा’’ से जुड़े अन्य लोगो पर अपनी कहानी चुराने का आरोप लागते हुए 16 जुलाई 2022 को दिल्ली उच्च न्यायालय याचिका दायर कर पांच करोड़ रूपए की क्षतिपूर्ति का दावा करने के साथ ही फिल्म के सिनेमाघर व ओटीटी पर रिलीज पर रोक लगाने की याचिका दायर की थी.जिस पर अब तक पांच बार सुनवायी हो चुकी है. और अदालत ने फिलहाल अंतिम निर्णय होने तक फिल्म के रिलीज पर रोक लगा दी है.इसकी अगली सुनवायी 16 अगस्त 2022 को होनी है.

2006 से लेखक,निर्माता व निर्देशक के रूप में कार्यरत विक्रमजीत सिंह भुल्लर ने अपनी याचिका में दावा किया है कि उन्होने 18 वीं सदी पर आधारित पीरियड ड्रामा  वाली कहानी व पटकथा ‘‘कबहू ना छांड़े खेत’’ को लिखकर 2009 में ‘‘ द फिल्म राइटर्स एसोसिएशन’’ में 2009 में ही रजिस्टर्ड कराया था. लेखक का दावा है कि उन्होने यह कहानी व पटकथा 2008 में ही लिखी थी और इस पर एक दस मिनट की लघु फिल्म बनायी थी,जो कि 2008 में ही ‘स्पिनिंग व्हील फिल्म फेस्टिवल’ टोरटों मंें दस से बारह अक्टूबर 2008 के बीच दिखायी गयी थी.2015 में जुगल हंसराज और करण मल्होत्रा ,जो कि उस वक्त धर्मा प्रोडक्शन’ में कार्यरत थेे,को कहानी सुनायी गयी.फिर उनसे ईमेल पर पटकथा भी ेशेअर की गयी और ईमेल पर बातचीत होती रही.बाद मंे यह दोनो ‘यशराज फिल्म’ से जुड़ गए और अब उसी पर फिल्म ‘शमशेरा’ बनायी है. लेखक बिक्रमजीत सिंह भुल्लर ने अदालत में दायर अपनी याचिका में अपनी पटकथा व फिल्म के दृश्यों की तुलनात्मक रपट के अलावा करण मल्होत्रा व जुगल हंसराज के साथ हुई ईमेल,व्हाटसअप पर बातचीत के सारे सबूत भी दिए हैं.मामले की गंभीरता को देखते हुए अदालत ने ही ‘शमशेरा’ के ओटीटी रिलीज पर अंतिम सुनवायी तक रोक लगाने का आदेश जारी कर सभी पक्षों से जवाब तलब किया है.अब देखना है कि अदालत का अंतिम निर्णय क्या आता है? मगर इससे ‘यशराज फिल्मस’ की साख पर बट्टा जरुर लगा है.

75 वर्ष की आज़ादी को लेकर क्या कहते है हमारे Celebs, जानें यहां

भारत इस साल 75 वें स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहा है, आजादी के 7 दशक बाद भी क्या देश के नागरिकों को कुछ कहने की आजादी है या नहीं ? वे मानते है कि आज़ादी के इतने साल बाद भी हम पूरी तरह विकसित और आज़ाद नहीं है, इसकी वजह हमारी माइंडसेट है,जिसे पढ़े-लिखे लोग भी नहीं बदल पाते, इसे बदलना बहुत जरुरी है, आइये जाने क्या कहना चाहते है सेलेब्स ?

अली गोनी

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अभिनेता अली गोनी कहते है कि देश की आज़ादी बिना किसी से पूछे अपने हिसाब से चल रही है. मेरा मनपसंद फ्रीडम फाइटर भगत सिंह है, उन्होंने देश के आज़ादी की खातिर बहुत कम उम्र में खुद को बलिदान दिया है, जिसे हमें हमेशा याद रखने की जरुरत है. फिल्म ‘वीर ज़ारा’ का गाना ‘ऐसा देश है मेरा….’मेरा पसंदीदा देशभक्ति सॉंग है.

मृणाल जैन

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बंदिनी फेम अभिनेता मृणाल जैनका कहना है कि आजादी मेरे लिए एक भारतीय होना है. इसमें मुझे किसी को ये नहीं पूछना चाहिए कि मैं मारवाड़ी, पंजाबी, मराठी या मद्रासी हूँ. मेरा पसंदीदा फ्रीडम फाइटर महात्मा गाँधी और भगत सिंह है. उन्होंने देश के लिए खुद को कुर्बान किया है और उनकी इस बलिदान को देश के हर नागरिक को याद रखना है. मेरा मनपसंद देशभक्त गीत फिल्म ‘कर्मा’ का गीत ‘मेरा कर्मा तू….’ है.

कुलविंदर बक्शीश

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अभिनेता कुलदीप बख्शीश कहते है कि आज़ादी का ये पर्व उन सभी लोगों की मुझे याद दिलाता है, जिन्होंने इसे पाने के लिए अपने जीवन का बलिदान दिया है. मैं ऐसे फ्रीडम फाइटर को सैल्यूट करता हूँ. आज़ादी मेरे लिए अपने हिसाब से देश में बिना किसी डर के रहना और स्वतंत्र रूप से श्वास लेना है. ये सभी के लिए लागू होना चाहिए. मेरा पसंदीदा फ्रीडम फाइटर सुभाषचंद्र बोस है.

निवेदिता बासु

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निवेदिता बासु कहती है कि हजारों की संख्या में लोगों ने अपने जान की आहुति इस आजादी के लिए दिया है. उसे कभी भुलाया नहीं जाना चाहिए. ‘आई लव माय इंडिया…..’फिल्म ‘परदेस’ का गीत मुझे बहुत पसंद है. इस गाने को सुनते ही मुझे बहुत अच्छा अनुभव होता है. हम सभी देशवासियों को ये शपथ लेना है कि देश की किसी समस्या को मिलकर सामना करें और देश में शांति और सद्भावना को बनाए रखने में सहयोग दें.

विजयेन्द्र कुमेरिया

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अभिनेता विजयेन्द्र कुमेरिया कहते है कि हम सभी आज़ादी के 75 साल मना रहे है, लेकिन अभी भी विकास के क्षेत्र में काम बहुत कम है, मसलन स्वास्थ्य के देखभाल की अच्छी व्यवस्था, गरीबी कम होना, गांव की आर्थिक व्यवस्था, साफ-सफाई आदि पर बहुत अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है. जब हम स्पीच की आज़ादी को देखते है, तो कभी हम अपनी बात रख सकते है तो कभी नहीं. इसमें सोशल मीडिया ही है, जिसमे किसी बात की सच्चाई जाने बिना लोग अपनी विचारों को रखते है और यहाँ किसी को भी ट्रोल भी किया जा सकता है. फ्रीडम ऑफ़ स्पीच का अर्थ ये नहीं कि आप किसी को भी कुछ कह सकते है.

मोहित मल्होत्रा

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स्पिटविला 2 फेम मोहित मल्होत्रा कहते है कि 7 दशक बीतने के बाद भी हम सभी को उतनी आज़ादी नहीं है, जो हमें मिलनी चाहिए थी. राजनीतिक दबाव और मीडिया की वजह से फ्रीडम ऑफ़ स्पीच नहीं है. समाज के रूप में हमें अधिक खुले विचार रखने की आवश्यकता है, जजमेंटल होना नहीं. मेरा विश्वास है कि हम सभी को चाहे वह कलाकार, लेखक, सिंगर्स आदि जो भी हो उन्हें खुद की बात कहते रहना चाहिए.

अविनाश मुख़र्जी

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7 दशकों के बाद क्या देश के नागरिक आजाद हो चुके है? पूछते है बालिका वधु फेम जग्या यानि अविनाश मुखर्जी. बोलने की आज़ादी के अलावा हमारे कई फंडामेंटल राईट भी है, जो हम सभी को अपने अनुसार जीने की आज़ादी देता है. कई ऐसे क्षेत्र है जहाँ हमें विकास की जरुरत है. मेरे हिसाब से भारत आजाद है, लेकिन यहाँ के नागरिक नहीं, क्योंकि इसके उदाहरण कई है, जैसे लिंगवाद, जातिवाद, लैंगिक असमानता आदि में सुधार होना जरुरी है. जब तक ये नहीं होगा, तब तक देश पूरी तरह से आज़ाद नहीं कहलायेगा. लोगों को खुद बदलने की चाह न हो, तो सिस्टम में कुछ भी बदलाव करना संभव नहीं.

REVIEW: निराश करती Aamir Khan की फिल्म Lal Singh Chaddha

रेटिंगः एक स्टार

निर्माताः आमिर खान प्रोडक्शंस और वायकाम 18

निर्देशकः अद्वैत चंदन

लेखकः अतुल कुलकर्णी

कलाकारः आमिर खान, करीना कपूर खान, नागा चैतन्य,  मोना,  मानव विज,  आर्या शर्मा, मेहमान कलाकार शाहरुख खान व अन्य.

अवधिः दो घंटे 45 मिनट

बौलीवुड के फिल्मकारों के पास मौलिक कहानियां व मौलिक कहानी लेखकों का घोर अभाव है. इसी के चलते अब हर कोई विदेशी या दक्षिण की फिल्मों को ही हिंदी में बनाने पर उतारू हैं. पर यह सभी नकल भी ठीक से नही कर पा रहे हैं. इसमंे आमिर खान भी पीछे नहीं है. आमिर खान की ग्यारह अगस्त को सिनेमाघरों में पहुंची फिल्म ‘‘लाल सिंह चड्ढा’’ मौलिक फिल्म नही है,  बल्कि 1994 में प्रदर्शित अमरीकन  फिल्म ‘फॉरेस्ट गंप’’ का भारतीय करण है, जो कि मंदबुद्धि फारेस्ट नामक एक इंसान की बचपन से पिता बनने तक की एंडवेंचरस कहानी है. इसका भारतीय करण करते समय भारतीय संदर्भ जोड़ने के अलावा लाल सिंह को दयालु दिखाने के चक्कर में काफी गड़बड़ा गयी है. मूल फिल्म से लाल सिंह चड्ढा की कहानी काफी विपरीत है. मूल फिल्म के अनुसार लाल सिंह की मां अपने बेटे के लिए कोई सौदा नही करती. बल्कि भारतीय संवेदनाओ के अनुसार कहानी आगे बढ़ती है. मगर मूल कहानी के विपरीत लाल सिंह चड्ढा युद्ध के मैदान से पाकिस्तानी आतंकवादी को बचाकर भारतीय सेना के ही अस्पताल मे इलाज करवाने के बाद उसे अपना बिजनेस पार्टनर भी बनाता है? कुछ समय बाद उसे पाकिस्तान जाने की इजाजत दे देता है.  इसे कैसे जायज ठहराया जा सकता है? तो क्या आमिर खान का मानना है कि मुंबई पर आतंकवादी हमला करने वाले कसाब को भी फांसी देने की बजाय उसे भी सुधारने का अवसर देना चाहिए था?

कहानीः

यह कहानी पठानकोट से ट्रेन में बैठे लाल सिंह चड्ढा (आमिर खान)  से शुरू होती है, जो कि अपने बचपन से कहानी सुनाना शुरू करती है. लाल सिंह के बचपन की कहानी के साथ ही देश में घट रही घटनाएं भी सामने आती रहती हैं. यह कहानी पठानकोट के गांव में जन्में लालसिंह चड्ढा की है. जिसके परनाना के पिता, परनाना और नाना सेना में थे और यह तीनों युद्ध के मैदान से कभी जीवित नहीं लौटे. वह अपने नाना के ही घर में अपनी मां (मोना सिंह) के साथ रह रहे हैं. लाल सिंह ठीक से चल नही पाते हैं. डाक्टरों ने उनके पैर में लोहे की राड बांधकर सहारा दे रखा है. लाल सिंह का आई क्यू लेवल काफी कम है, इसलिए उसे काफी परेशानी झेलनी पड़ती है. स्कूल का पादरी प्रिंसिपल मंदबुद्धि होने के चलते लाल सिंह को मंद बुद्धि स्कूल में पढ़ाने की बात उसकी मां से कहते हैं. पर लाल सिंह की मां के जिद के आगे वह झुक जाता है. स्कूल में काफी परेशानी झेलनी पड़ती है. सभी उसे बेवकूफ समझते हैं. स्कूल में लाल सिंह को रूपा डिसूजा नामक दोस्त मिलती है. बचपन में ही लाल सिंह अपनी मां के साथ दिल्ली जाते हैं और जब वह प्रधानमंत्री आवास के सामने खड़े होकर तस्वीरें खिचवा रहे होते हैं, तभी पीछे से गोलियों की आवाज आती है और पता चलता है कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हो गयी है. सिख विरोधी दंगे शुरू हो जाते हैं. बेटे को दंगाइयों से बचाने के लिए लाल सिंह की मां उसके बाल काट देती है, जिससे वह सरदार नजर न आए.

स्कूल दिनों में ही एक मौका ऐसा आता है, जब कुछ लड़कों से बचने के लिए भागते भागते लाल सिंह के पैर को जकड़कर रखने वाली लोहे की राड टूट जाती हैं और लाल सिंह अपने पैरों पर दौड़ने लगते हैं.

लाल सिंह चड्ढा और रूपा डिसूजा की जिंदगी तब बदलने लगती है, जब दोनों कालेज पहुंचते हैं. तेज दौड़ने के चलते लाल सिंह को कालेज की दौड़ टीम का हिस्सा बना लिया जाता है. उधर अति महत्वाकांक्षी और अमीर बनने का ख्वाब देखने वाली रूपा (करीना कूपर खान) एक अमीर लड़के हरी के साथ रोमांस करना शुरू करती है. जबकि लाल सिंह भी रूपा से प्यार करता है. वह अपने नाना या परनाना की तरह सेना में नहीं जाना चाहता. लाल सिंह कहता है कि मैं किसी को मारना नहीं चाहता. पर एक दिन वह हरी को थप्पड़ मार देता है, जिससे नाराज होकर हरी, रूपा से संबंध खत्म कर देता है.

अपने भविष्य को लेकर द्विविधा से ग्र्रस्त लाल सिंह सेना में भर्ती हो जाता है. सेना में सह सैनिक बाला (नागा चैतन्य ) से उसकी दोस्ती होती है. बाला उसके साथ सेना से रिटायरमेंट के भागीदारी में व्यापार शुरू करने की योजना बनाता है. कारगिल में छह आतंकवादियों के छिपे होने की खबर मिलने पर सेना की एक टुकड़ी को भेजा जाता है, जिसमें लाल सिंह और बाला भी है. पर वहां मामला उलटा पड़ जाता है. क्योंकि वहां छह से कई गुना ज्यादा पाकिस्तानी सैनिक आतंकवादी भारी गोला बारूद के साथ मौजूद होते हैं. भारतीय सेना की टुकड़ी उनके हमलों से घबराकर पीछे लौटने लगती है. पीछे लौटते हुए लाल सिंह बसे तेज दौड़कर नीचे उतरता है. अचानक उसे बाला की याद आती है. वह बाला को लेने फिर से वापस पहाड़ी की तरफ भागता है. बीच में उसे एक घायल सैनिक मिलता है. उसे वह उठाकर नीचे सुरक्षित पहुंचाकर फिर बाला के लिए जाता है. ऐसा करते करते वह पाकिस्तानी सैनिक आतंकवादी के मुखिया मोहम्मद (मालव विज ), जो बुरी तरह से घायल है और बाला को भी वापस लेकर आता है. बाला की मौत हो जाती है. पर मोहम्मद का भारतीय सेना के अस्पताल में इलाज होता है. जिसे बाद में लाल सिह अपना बिजनेस मार्टनर बना लेता है. उधर वह रूपा को भूला नही है. मगर रूपा गलत राह पर चल पड़ी है. एक दिन मोहम्मद वापस पाकिस्तान लौट जाता है. कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. अंत में मालूम चलता है कि लाल सिंह चड्ढा,  असल में सिर्फ और सिर्फ भाग सकता था.  जब वो भाग रहा था,  उस बीच उसने अपना जीवन जिया.  न केवल अपना जीवन जिया, बल्कि और न जाने कितनों को जीना सिखाया.  और वो,  ये सब कुछ,  बेहद निर्मोही ढंग से कर रहा था.

लेखन व निर्देशनः

पौने तीन घंटे लंबी अवधि की फिल्म अति धीमी चाल से लाल सिंह चड्ढा की भटकती हुई कहानी है. दर्शक जिस तरह से मूल फिल्म ‘‘फौरेस्ट गंप’’ के साथ जुड़ता है, उस तरह ‘लाल सिंह चड्ढा’ के संग नही जुड़ पाता. आगे बढ़ती रहती है. यह फीचर फिल्म कम डाक्यूमेंट्री वाली फिल्म है. लाल सिंह चड्ढा के जीवन व रूपा के साथ उनकी प्रेम कहानी के साथ बीच बीच में आपातकाल हटाने,  सिख विरोधी दंगों, भारत को विश्व कप क्रिकेट में मिली पहली जीत, औपरेशन ब्लू स्टार, इंदिरा गांधी की हत्या, उनके अंतिम संस्कार में सुबकते राजीव गांधी, सिख विरोधी दंगे, मंडल कमंडल,  आडवाणी की रथ यात्रा, बाबरी विध्वंस, मुंबई बम धमाके, अबू सलेम और मोनिका बेदी की कथित प्रेम कहानी से लेकर वाराणसी के घाटों पर लिखा नारा-‘अबकी बार मोदी सरकार’ सहित देश में पिछले पचास वर्षों के दौरान घटित सभी ऐतिहासिक घटनाक्रम भी आते रहते हैं. मगर 2002 के गुजरात दंगों का कहीं कोई जिक्र नही आता? क्या यह इतिहास के साथ छेड़छाड़ नही है? इस हिसाब से यह फिल्म कुछ घटनाक्रमों का ऐतिहासिक दस्तावेज जरुर है.

मगर कहानी व पटकथा के स्तर पर अतुल कुलकर्णी ने एक अजेंडे के तहत ही पूरी फिल्म लिखी है. लेखक व निर्देशक ने फिल्म में सिख दंगों का चित्रण किया है, जिसमें आठ नौ वर्ष का बालक अपनी मां के साथ फंस गया है. हालात ऐसे हैं कि लाल सिंह को बचाने के लिए उसकी मां पास में पड़े कांच के टुकड़े से उसके बाल काट देती है, जिससे वह सरदार न लगे. मगर लेखक व निर्देशक यह नही दिखा पाए कि इस घटनाक्रम का अबोध बालक लाल सिंह के मनमस्तिष्क पर किस तरह का मनोवैज्ञानिक असर पड़ा?लाल सिंह की संगत और लाल सिंह के घर में रहते हुए लाल सिंह के साथ सोेने के बावजूद रूपा क्यों गलत राह पकड़ती है, इसे स्पष्ट नहीं किया गया. पूरी फिल्म में जब भी दंगे होते हैं, तो इस सच को स्वीकार करने की बनिस्बत ‘मलेरिया’ नाम दिया गया है. इतिहास के सच को दिखाते हुए इस तरह का डर क्यों? यदि डर है तो फिल्म न बनाएं. करीना के किरदार यानी कि रूपा के किरदार को मोनिका बेदी के रूप में चित्रित करना क्यो जरुरी समझा गया. अबू सलेम फिल्म नही बनाता था. एक सैनिक अपनी दयालुता वश किसी दुश्मन देश के सैनिक या आतंकवादी को उठा लाए, तो करूा भारतीय सेना  उस सैनिक का इतिहास भूगोल आदि की बिना जांच किए सैनिक अस्पताल में उसका इलाज करने के साथ ही उसे टेलीफोन बूथ चलाने की इजाजत देगा? उसके बाद वह वापस पाकिस्तान किस पासपोर्ट पर गया? इस पर भारतीय फिल्म सेंसर की अनदेखी समझ से परे है?क्योंकि यह दृश्य तो भारतीय सेना और पासपोर्ट जारी करने वाले विदेश मंत्रालय पर भी सवाल उठाता है?क्या इसे सिनेमाई स्वतंत्रता मानकर नजरंदाज किया जाना चाहिए? लेखक व निर्देशक ने ऐसा क्यों किया,  इसके पीछे उनकी क्या सोच रही है? यह तो वह जाने. पर मूल फिल्म ‘फौरेस्ट गम’ में अमरीकी सैनिक,  वियतनाम युद्ध में वियतनामी नही अमरीकी सैनिक को ही उठाकर लाता है और उसी के साथ भागीदारी में व्यापार भी करता है. इतना ही नही पठानकोट, पंजाब के गांव के बालक को पढ़ने के लिए क्रिश्चियन स्कूल व पादरी दिखाकर धर्म को बेचने की जरुरत क्यों पड़ी?

निर्देशक के तौर पर फिल्म में अद्वैत चंदन का नाम जरुर हे, मगर फिल्मू के अपरोक्ष रूप से निर्देशक आमिर खान ही हैं. फिल्म के निर्माता भी वह स्वयं हैं.

फिल्म का गीत संगीत भी आकर्षित नहीं करता.

अभिनयः

आमिर खान को परफैक्शनिट कलाकार माना जाता है. वह बेहतरीन कलाकार हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है. मगर लाल सिंह चड्ढा के किरदार को निभाते हुए आमिर खान ने वही सब किया है, जो वह इससे पहले ‘थ्री इडिएट’ या ‘पीके’ में कर चुके हैं. वही आंखों को चैड़ा करना,  गर्दन को टेढ़ा करना,  गला साफ करना,  पैंट को ऊंचा उठाना आदि. . बल्कि कई दृश्यों में तो ‘ओवर एक्टिंग’ करते नजर आते हैं. काली निराशा से आशावाद की ओर बढ़ने वाले दुश्मन देश के सैनिक मोहम्मद के किरदार में मानव विज अपनी छाप छोड़ जाते हैं. बाला के किरदार में नागा चैतन्य का किरदार छोटा है, मगर मनोरंजन के क्षण लाते हैं. रूपा के किरदार में करीना कपूर खान भी दर्शकों को आकर्षित करती हैं.

खुद को आइटम गर्ल नही मानती सपना चौधरी, पढ़ें खबर

पिछले डेढ़ दो माह से महाराष्ट् की राजनीति में जिस तरह की उथलपुथल हुई है, जिस तरह से विधायकों के अपराध व रिसोर्ट में ठहराने की घटनाएं घटी हैं, वह सब वकील से अभिनेता व फिल्म निर्माता  बने अमित कुमार की राजनीतिक व्यंग प्रधान फिल्म ‘‘लव यू लोकतंत्र‘‘ का हिस्सा है. अगर फिल्म ‘‘लव यू लोकतंत्र’’ दो माह पहले प्रदर्शित हो जाती तो लोग कहते कि महाराष्ट् के वर्तमान मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने इस फिल्म से प्रेरणा लेकर यह कदम उठाया है. वैसे अभय निहलानी निर्देशित फिल्म ‘‘लव यू लोकतंत्र’’ केे तमाम दृश्य देश के कई राज्यों में पिछले कुछ वर्षों से देश के कई राज्यों में लोकतंत्र बचाने के नाम हुए घटनाक्रमों की याद ही दिलाते हैं.  फिल्म ‘‘लव यू लोकतंत्र’’ की विषयवस्तु को बेहतर तरीके से फिल्म में राज्य की मुख्यमंत्री का किरदार निभा रही  ईशा कोपिकर के संवादों ‘‘राजनीति में मौका देखकर धोखा देना चाहिए. ‘‘ या फिर ‘जिसे शर्म आती है, उसे राजनीति नहीं आती. ‘‘से समझा जा सकता है.

अभय निहलानी निर्देशित इस फिल्म में वकील के किरदार में अमित कुमार तथा मुख्यमंत्री के किरदार में ईशा कोप्पीकर हैं.  फिल्म के अन्य कलाकारों में रवि किशन,  सपना चैधरी,  स्नेहा उल्लाल,  कृष्णा अभिषेक,  अली असगर,  मनोज जोशी का समावेश है. फिल्म के लेखक संजय छैल, संगीतकार ललित पंडित हैं.

वकालत करते करते अब अभिनेता व निर्माता बन चुके अमित  कुमार ने ‘‘जुरिच मीडिया हाउस एलएलपी’’ के बैनर तले बनी राजनीतिक व्यंग व हास्य प्रधान फिल्म ‘‘लव यू लोकतंत्र‘‘ के ट्रेलर और संगीत को लांच करने के लिए हाल ही में मुम्बई के द क्लब में भव्य समारोह का आयोजन किया. जहां मुख्य अतिथि के रूप में जैकी श्रॉफ व जावेद अख्तर के अलावा मेहमान के तौर पर पूनम ढिल्लो,  कश्मीरा शाह, अमर उपाध्याय सहित कई हस्तियां मौजूद रहीं.  तो वहीं संगीतकार ललित पंडित,  गायक शान,  अभिजीत भट्टाचार्य, अमृता फडणवीस और ब्राइट आउटडोर के योगेश लखानी भी उपस्थित रहे.

फिल्म ‘‘लव यू लोकतंत्र’’ में विधायकों की खरीद फरोख्त पर केंद्रित आइटम नंबर पर हरियाणवी डांसर सपना चैधरी अपने नृत्य का जलवा दिखाते हुए नजर आएंगी. फिल्म में यह गाना उस वक्त आता है जब कुछ विधायकों को एक रिसोर्ट में बंद करके रखा गया है. मजेदार बात यह है कि सपना चैधरी खुद को ‘‘आइटम गर्ल’’नही मानती. सपना चैधरी ने खुद कहा-‘‘मैं आइटम गर्ल नही हॅॅंू. मैं सपना चैधरी हॅूं. जो लाग मुझे आइटम गर्ल कहते हैं, उन्हे अपने कान नाक व आंख का इलाज करना चाहिए. मैं लोगों की सोच नही बदल सकती. मेरी सोच मेरी है और उनकी सोच उनकी है. मैं दूसरोे की सोच नही बदल सकती. पर हकीकत तो हकीकत है. मैं अंदर व बाहर से सपना चोधरी हॅूं, इसे कोई नही बदल सकता. इस राजनीतिक व्यंग वाली फिल्म में मेरा गाना सिच्युएशनल गाना है. जो कि कहानी में ट्विस्ट लाता है. ’’

फिल्म में सपना चैधरी के आइटम नम्बर का जिक्र करते हुए अमित कुमार कहा-‘‘फिल्म में एक सिचुएशन आती है जहां कुछ एमएलए को एक रिसॉर्ट में बंद कर दिए गए हैं. वहां पर एक गाने की जरूरत थी और उसके लिए हम सभी के जेहन में सपना चैधरी का नाम आया.  उनको जब गाने के बारे में बताया तो वह तुरंत तैयार हो गई और उन्होंने कोरोना काल मे भी मंुबई आकर इस गाने के लिए शूटिंग की थी. ’’

फिल्म में कृष्णा अभिषेक पर भी एक खास गाना फिल्माया गया है. इस गाने केे संदर्भ में कृष्णा अभिषेक कहते हैं-‘‘यह एक माइंड ब्लोइंग गाना है,  यह मेरे फेवरेट गीतों में से एक है. मैं डांस करने के लिए हमेशा आगे रहता हूँ, क्योंकि मुझे डांस बेहद पसंद है, यह मेरा पैशन है. यह गाना मुझे जैसे ही अॉफर हुआ मैंने तुरंत हामी भर दी क्योंकि यह एक कमाल का डांस नम्बर है. ’’

इस फिल्म से बौलीवुड में बतौर अभिनेता अपने कैरियर की नई शुरुआत कर रहे अमित कुमार इस अवसर पर कहा- ‘‘अदालत में तो हम वकील के रूप में काम करते हैं. मगर फिल्म में बतौर वकील अभिनय करना काफी चुनौतीपूर्ण था. कोविड के दौरान हमने शूटिंग की. हम काफी समय से फिल्म बनाने का सोच रहे थे, लेकिन कोई कहानी मुझे पसन्द नहीं आ रही थी.  फिर लेखक संजय छैल ने मुझे एक कहानी की आईडिया दिया. यह वही कहानी है , जिसकी झलक हमने हाल ही में महाराष्ट्र की राजनीति में घटित होते हुए देखा. इस फिल्म की कहानी हमने डेढ़ साल पहले सोची थी. यह इत्तेफाक है कि हमारी कल्पना हकीकत में बदल गई. हमारी फिल्म के संवाद वर्तमान समय के हालातों पर है. मसलन-‘‘सीएम के बेटे को उसी तरह  फंासया गया है, जैसे आजकल सेलेब्रिटी के बच्चों को फंसाया जा रहा है. ‘‘ ’’

फिल्म में मुख्यमंत्री का किरदार निभाने वाली अदाकारा ईशा कोपिकर ने कहा-‘‘ मैने इस पॉलिटिकल सटायर वाली फिल्म में मुख्यमंत्री का किरदार निभाया है. यह गंभीर फिल्म नही, बल्कि यथार्थ परक सिनेमा है. और इसमें एक संदेश भी है. इसका स्क्रीनप्ले बहुत ही फनी है. यह आपको ‘जाने भी दो यारों’ की याद दिला देगी. ’’

ओटीटी के आने से काम बढ़ा है- रूपाली सूरी

थिएटर से अभिनय की शुरुआत करने वाली अभिनेत्री रूपाली सूरी ने इंटरनैशनल फीचर फिल्म ‘डैड होल्ड माई हैंड’ से की थी.  इस फिल्म में उन्हें रत्ना पाठक शाह के साथ काम करने का मौका मिला. निर्देशन के साथसाथ विक्रम गोखले ने खुद ही इस फिल्म को एडिट और कंपोज भी किया है. इस में उन्होंने बड़ी खूबसूरती से लौकडाउन की कहानी को शूट किया है. रूपाली अभी कुछ वैब सीरीज और फिल्मों में काम कर रही है. व्यस्त समय के बीच उन्होंने गृहशोभा के लिए खास बात की. आइए, जानें उन की कहानी.

अभिनय की प्रेरणा कहां से मिली?

मेरे परिवार में कोई भी इस इंडस्ट्री से नहीं है, लेकिन छोटी उम्र में मेरी फीचर मौडल की तरह होने की वजह से कई फैशन शोज में भाग लिया. इस के अलावा उस दौरान घर में कुछ तंगी होने की वजह से मां ने मुझे आए हुए प्रोजैक्ट को करने के लिए कहा. उस प्रोजैक्ट के पूरा होते ही दूसरा प्रोजैक्ट आ गया. इस तरह से काम छूटा नहीं. काम करने के बाद कालेज के बाद ही मैं ने निश्चय कर लिया कि मुझे ऐक्टिंग ही करनी है क्योंकि तब तक मैं काम सीख चुकी थी.

मौडलिंग का काम मैं ने दूसरी कक्षा से शुरू कर दिया था. स्कूल में काम कम था, लेकिन कालेज में इस की रफ्तार तेज हुई. मौडलिंग के अलावा मैं ने कई सीरियल्स में भी काम किया. फिर धीरेधीरे वैब सीरीज, फिल्में आदि मिलती गईं क्योंकि अभिनय को सम?ाने के लिए इफ्टा जौइन किया. उन के साथ कई शोज किए. मेरा वह शुरुआती दौर था, जिस में कला, अभिनय के साथ बहुत सारी बातों को सीखना था.

मुझे यह सम?ाना जरूरी था कि मैं खुद क्या और कितना काम कर सकती हूं. इसलिए मैं ने थिएटर के मंच पर कई ऐक्सपैरिमैंटल शोज किए. वहां तालियों की गड़गड़ाहट, दर्शकों का तुरंत रिएक्शन मिलता था. अभी भी मैं स्टेज की दुनिया को मिस करती हूं. मुझे कई बार ऐसा लगता है कि इंडस्ट्री ने मुझे चुन लिया है, मैं ने नहीं चुना है.

कितना संघर्ष रहा?

संघर्ष का स्तर हमेशा अलग होता है. पहले संघर्ष में मैं ने आर्थिक तंगी के कारण काम शुरू किया था, दूसरे स्तर के संघर्ष में मेरे पास बस, टैक्सी, औटो के पैसे नहीं थे. कैसे मैं आगे बढ़ी हूं, यह मैं ही जानती हूं. तीसरा संघर्ष फैशन शो में जाने के लिए मेरे पास जूते खरीदने के पैसे नहीं थे.

आज पीछे मुड़ कर देखने पर मुझे महसूस होता है कि इतनी स्ट्रगल के बाद ही मु?ा में आत्मविश्वास आ पाया और मैं ने जो अपनी छोटी एक सफल दुनिया बनाई है वह इसी के बल पर बनी है. मेरी बड़ी बहन भी अभिनय से जुड़ी हैं. दोनों का रास्ते एक है, लेकिन अप्रोच अलगअलग है.

क्या आप को बड़ी बहन का सहयोग मिला?

सहयोग से अधिक मैं उन से प्रेरित हुई हूं. उन्होंने अपने जीवन में मेहनत कर एक जगह बनाई है. उन के सही कदम और गलतियों से मैं ने बहुत कुछ सीखा है. वे मेरे लिए ‘लाइव लैसन’ हैं. मैं साधारण परिवार से हूं, मेरे पिता गारमेंट के व्यवसाय में थे. अब रिटायर्ड हैं और मां गुजर चुकी हैं. मेरी मां बहुत कम उम्र में बिछड़ गईं. इस वजह से हम दोनों बहनें बहुत ही हंबल बैकग्राउंड से हैं.

इंडस्ट्री में गौडफादर न होने पर काम मिलना मुश्किल होता है. क्या आप को भी काम मिलने में परेशानी हुई?

यह तो होता ही रहता है क्योंकि पेरैंट्स के काम से उन के बच्चों को लाभ मिलता है. यह केवल इस इंडस्ट्री में ही नहीं हर जगह लागू होता है. पहला मौका उन्हें जल्दी मिलता है, लेकिन काम के जरीए उन्हें भी प्रूव करना पड़ता है कि वे इस इंडस्ट्री के लिए सही हैं.

कई बार काम होतेहोते कलाकार रिजैक्ट हो जाते हैं, क्या आप को रिजैक्शन का सामना करना पड़ा?

बहुत बार मुझे इन चीजों का सामना करना पड़ा. कई बार मैं रात 10 बजे मैनेजर को जगा कर पूछती थी कि मैं ने क्या गलत किया. कई बार तो साइनिंग अमाउंट मिलने के बाद भी रिजैक्ट हुई. कई बार सैट पर पहुंचने के बाद मुझे अगले दिन नहीं बुलाया गया. इस की वजह सम?ाना मुश्किल होता है. कभी कोई कहता है कि इस रोल के लिए मैं ठीक नहीं, तो दूसरा कोई और बहाना बनाता है. सामने कोई कुछ अधिक नहीं कहता. एक बार मैं निर्देशक अनीस बज्मी की फिल्म में कास्ट हुई, लेकिन उन्होंने साफ कह दिया कि नए कलाकार के साथ वे काम नहीं करते, उन्हें एक अनुभवी कलाकार चाहिए.

स्ट्रैस होने पर रिलीज कैसे करती हैं?

मैं आधी रात को मैनेजर से घंटों बात करती हूं और वे मुझे सम?ाती हैं. अगर वे उपलब्ध न हों तो मैं कथक डांस कर सारा स्ट्रैस निकाल लेती हूं. मैं एक कलाकार हूं और हर इमोशन को फील करती हूं, लेकिन एक बार उस से निकलने पर वापस मैं उस में नहीं घुसती और आगे बड़ जाती हूं.

किस शो ने आप की जिंदगी बदली?

टीवी ने मुझे बहुत सहयोग दिया है. उस के शोज से मुझे आज भी लोग याद करते हैं. मेरी वैब सीरीज, फिल्मों की अलग और टीवी की एक अलग पहचान है. शो ‘शाका लाका बूमबूम’ में मेरे चरित्र, विज्ञापनों आदि को लोग आज भी याद रखते हैं. इस तरह बहुत सारे ऐसे टीवी शोज हैं, जिन से मैं सब के घरों तक पहुंच पाई.

ओटीटी आज बहुत अधिक दर्शकों के बीच में पौपुलर है, इस का फायदा नए कलाकारों को कितना मिल पाता है?

ओटीटी आने से इंडस्ट्री में लोगों का काम और वेतन काफी बढ़ गया है. जिस तरह टीवी ने आज से कुछ साल पहले कलाकारों को अभिनय करने का एक बड़ा मौका दिया था, वैसे ही ओटीटी के आने से काम बहुत बढ़ा है. काम और पैसे का बढ़ना ही इंडस्ट्री के लोगों के लिए निश्चित रूप से एक प्रोग्रैस है. इस से यह भी कलाकारों को पता चला है कि केवल फिल्म ही नहीं, आप ओटीटी पर अभिनय कर के भी संतुष्ट हो सकते है. यह एक प्रोग्रैसिव दौर है.

परिवार का सहयोग कितना रहा?

परिवार के सहयोग के बिना आप कुछ भी नहीं कर सकते. पहले दिन से ही मुझे यह आजादी मिली है, मुझे कभी रोका या टोका नहीं गया है. एक ट्रस्ट और कौन्फिडेंट दिया गया है, जो मेरे लिए जरूरी था.

आप के ड्रीम क्या हैं?

मेरे ड्रीम्स बहुत छोटेछोटे हैं. मैं छोटी चीजों को पा कर खुश हो जाती हूं. ये छोटी चीजें मिल कर एक दिन बड़ी हो जाती हैं. मैं हमेशा प्रेजैंट में रहती हूं. डांस मेरा पैशन है, लेकिन कब यह जरूरत बन गई पता नहीं चला. मैं अपनी सुविधा के लिए शो करती हूं, रियाज करती हूं, ये मुझे संतुलित रखते हैं. मेरे कथक गुरु राजेंद्र चतुर्वेदी हैं.

आप के जीवन जीने का अंदाज क्या है?

आसपास वालों को खुश रखना और वर्तमान में जीना.

क्या आप ऐनिमल लवर हैं?

मुझे जानवरों से बहुत प्यार है. मेरे निर्देशक भरतदाभोलकर भी ऐनिमल लवर हैं. मेरा उन से जुड़ाव भी जानवरों की वजह से हुआ है, मेरी डौगी डौन सूरी 15 साल साथ रहने के बाद मर गई. मुझे उस की बहुत याद आती है.

रिजैक्शन को लेकर क्या कहती हैं ‘दिया और बाती हम’ एक्ट्रेस दीपिका सिंह

दिल्ली के मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी दीपिका सिंह को घर के आर्थिक हालात के चलते बीच में पढ़ाई छोड़ कर मातापिता की मदद के लिए नौकरी करते हुए पत्राचार से पढ़ाई पूरी करनी पड़ी. उन्होंने एक तरफ एमबीए की पढ़ाई पूरी की, तो दूसरी तरफ इवेंट का काम व थिएटर वगैरह करती रहीं. अंतत: उन्हें 2011 में टीवी सीरियल ‘दिया और बाती हम’ में अभिनय करने का अवसर मिला. पूरे 5 वर्ष तक यह सीरियल प्रसारित होता रहा. इस की शूटिंग के दौरान ही इसी सीरियल के निर्देशक रोहित राज गोयल से 2 मई, 2014 को विवाह रचा लिया.

शादी के बाद भी दीपिका सिंह अपने मातापिता की मदद करने के लिए तैयार रहती हैं. उस के बाद मई, 2017 में वे एक बेटे की मां भी बन गईं. 2018 में उन्होंने एक वैब सीरीज ‘द रीयल सोलमेट’ की. फिर 2019 में सीरियल ‘कवच’ में अभिनय किया और अब वह अपने पति रोहित राज गोयल के ही निर्देशन में एक संदेश देने वाली फिल्म ‘टीटू अंबानी’ में मौसमी का किरदार निभाया है, जिस की सोच यह है कि शादी के बाद भी लड़की को अपने मातापिता की मदद करनी चाहिए. यह फिल्म 8 जुलाई को सिनेमाघरों में पहुंच चुकी है. प्रस्तुत हैं, दीपिका सिंह से हुई बातचीत के अंश:

जब आप अभिनय में कैरियर बनाना चाहती थीं, तो फिर एमबीए करने की क्यों जरूरत महसूस की?

वास्तव में मैं एक इवेंट कंपनी में काम कर रही थी. इसी वजह से एक फैशन शो में हम गए थे, जहां एक लड़की के न आने से मुझे उस का हिस्सा बनना पड़ा और मैं विजेता भी बन गई. उस के बाद कुछ न कुछ काम मिलता गया और मैं करती रही. मैं ने दिल्ली में ही रहते हुए थिएटर भी किया और फिर सीरियल ‘दीया और बाती हम’ में अभिनय करने का अवसर मिला.

तो यह माना जाए कि आप को बिना संघर्ष किए ही सीरियल ‘दीया और बाती हम’ का हिस्सा बनने का अवसर मिल गया था?

इस संसार में बिना संघर्ष किए कुछ नहीं मिलता पर औडिशन देने के बाद 1 माह के अंदर ही मेरा चयन संध्या राठी के किरदार के लिए हो गया. मैं इसे अपनी डैस्टिनी मानती हूं पर पहले मैं ने दिल्ली में इस सीरियल के लिए औडिशन दिया था. फिर मुंबई आ कर 1 माह तक औडिशन व लुक टैस्ट वगैरह होते रहे.

‘दिया और बाती हम’ के समय औडिशन की जो प्रक्रिया थी और अब औडिशन की जैसी प्रक्रिया है उस में कितना अंतर आ गया है?

कोई बदलाव नहीं आया. बाद में मैं ने ‘कवच’ के लिए भी औडिशन दिया था. पहले लोग जानते नहीं थे, अब लोग जानते हैं, इसलिए फर्क आ गया है क्योंकि किरदार के अनुरूप चेहरा होने पर ही चयन होता है.

अब लोग जानते हैं तो जब किरदार के अनुरूप मैं नजर आती हूं, तभी बुलाते हैं. पहले हम लाइन में लग कर हर औडिशन देते थे. अब लोग मेरे चेहरे व मेरी प्रतिभा से वाकिफ हैं, तो उपयुक्त किरदार के लिए ही बुलावा आता है. अब लाइन में लग कर औडिशन देने की जरूरत नहीं पड़ती. तब मुझे लोगों को बताना पड़ता था कि मैं अभिनय कर सकती हूं. पहले भी मेरे अंदर टैलेंट था, मगर तब आत्मविश्वास की कमी थी. अब आत्मविश्वास भी बढ़ चुका है. फिर भी औडिशन हमेशा टफ होते हैं.

औडिशन में रिजैक्शन को किस तरह से लेती रहीं?

मजे से. जिंदगी में स्वीकार्यता कम मिलती है, रिजैक्शन ज्यादा मिलते हैं. इसलिए मैं कभी निराश नहीं होती. मैं हमेशा मान लेती थी कि औडिशन अच्छा नहीं हुआ होगा, इसलिए रिजैक्शन आया.

सीरियल ‘दिया और बाती हम’ व इस के संध्या राठी के किरदार को जबरदस्त सफलता मिली. आप को स्टारडम मिला. पर फिर इसे आप भुना नहीं पाईं? कहां गड़बड़ी हुई?

गड़बड़ी कहीं नहीं हुई. मैं ने बहुत मेहनत की थी, तब जा कर वह स्टारडम मिला. देखिए, डैस्टिनी आप को एक दरवाजे पर ला कर खड़ा कर देती है. उस के बाद आप की कठिन मेहनत, आप का इंटैशन, आप की विलिंग पावर ही काम आती है. इसी आधार पर आप खुद को टिकाए रख पाते हैं. पर मुझे जो स्टारडम मिला, उसे मैं सिर्फ डैस्टिनी नहीं कहूंगी बल्कि मेरी कठिन मेहनत व लगन से मिला.

2016 के बाद कोई बड़ा सीरियल नहीं किया?

जी हां, मैं अपनी निजी जिंदगी में आगे बढ़ रही थी. मैं ने विवाह रचाया. मेरा परिवार बना. पारिवारिक जीवन को ऐंजौय कर रही थी. मेरे परिवार का हर सदस्य बहुत ही ज्यादा सहयोगी है. इसलिए वहां से मुझे मेरे काम पर रुकावट डालने के बजाय हमेशा बढ़ावा ही मिला. पर मैं खुद को अपने दर्शकों के प्रति जिम्मेदार मानती हूं. ‘दीया और बाती हम’ के बाद मुझे बेहतरीन व चुनौतीपूर्ण पटकथा नहीं मिली. जब भी अच्छी पटकथा मिली, मैं ने की.

फिल्म ‘टीटू अंबानी’ में क्या खास बात पसंद आई कि आप ने इसे करना चाहा?

इस की कई वजहें रहीं. इस में कई बड़ेबड़े कलाकार हैं. इस की पटकथा व कहानी जबरदस्त है. इस के संवाद हर किसी को मोह लेने वाले हैं. गीत भी अच्छे हैं. जब मैं ने पटकथा पढ़ी, तो जिस तरह से इस कहानी में एक अच्छा संदेश पिरोया गया है, उस ने मुझे फिल्म को करने के लिए उकसाया. यह फिल्म हंसते व गुदगुदाते हुए अपनी बात कह जाती है. इस में मैं ही एकमात्र टीवी की कलाकार है, बाकी सभी तो फिल्मों से जुड़े कलाकार हैं.

मुझे तो मौसमी का किरदार जीवंत करना था. फिल्म के निर्देशक रोहित को बहुत कुछ पता था. सभी सह कलाकार काफी सपोर्टिब रहे. बीच में कोविड के बढ़ने से हमें शूटिंग में जरूर कुछ तकलीफें हुईं. यह फिल्म महज नारीप्रधान फिल्म नहीं है. इस में एक लड़के यानी टीटू का अपना संघर्ष है. टीटू के भी अपने सपने व महत्त्वाकांक्षाएं हैं तो मौसमी के भी अपने सपने व महत्त्वाकांक्षाएं हैं.

अपने मौसमी के किरदार को ले कर क्या कहेंगी?

मौसमी बहुत ही ज्यादा जिम्मेदार लड़की है. वह अपनी जिम्मेदारियों को गंभीरता से निभाती है. मौसमी अपने मातापिता की इकलौटी बेटी है, तो वह उन के प्रति अपने कर्तव्य व जिम्मेदारी का पूरी तरह से निर्वाह करती है. उस की सोच यह है कि जिस तरह लड़के से उस की शादी के बाद नहीं पूछा जाता कि वह अपने मातापिता की सेवा क्यों कर रहा है, उसी तरह उस से यानी लड़की से भी न पूछा जाए. मौसमी चाहती है कि वह अपने मातापिता की मदद करे और उन के मातापिता को डिग्नीफाइड रूप में देखा जाए. इस में टीटू किस तरह से मौसमी की मदद करता है या नहीं करता है, यह तो फिल्म देखने पर ही पता चलेगा.

समाज काफी बदला है. नारी स्वतंत्रता व नारी उत्थान को ले कर पिछले कुछ वर्षों में बहुत कुछ कहा गया. इस का समाज में क्या असर पड़ा और यह मुद्दा आप की फिल्म ‘टीटू अंबानी’ में किस तरह से है?

समाज में काफी बदलाव हुआ है. अभी भी मेरी राय में मानवीय रिश्तों में भी समानता होनी चाहिए. अब लगभग हर दूसरे परिवार में नारी कामकाजी है. पहले ऐसा नहीं था. पहले औरत की जिम्मेदारी घर में खाना पकाना, बच्चे पैदा करना और उन्हें पालना ही होती थी. जब बच्चे 8-10 साल की उम्र के हो जाएं, तब उन्हें अपने शौक को पूरा करने या काम करने की छूट मिलती थी. लेकिन उस उम्र में कामकाजी महिला के लिए पुन: वापसी करना मुश्किल हो जाता था. अब औरतें बराबरी पर चल रही हैं.

जब आप ने ‘दिया और बाती हम’ से कैरियर शुरू किया था, उस वक्त टीवी के कलाकारों को फिल्मों में काम नहीं मिल पाता था. पर अब ऐसा नही है. ऐसे में आप खुद को कहां पाती हैं?

मुझे प्राइम टाइम 9 बजे के सीरियल में अभिनय करने का मौका मिल गया था. वह भी लीड किरदार मिला था, जिस की मैं ने उम्मीद भी नहीं की थी. मैं तो सोचती थी कि मुझे बहन वगैरह के किरदार मिलेंगे पर लीड किरदार मिला. मैं ने इस सीरियल में अपने बालों में सफेदी पोत कर भी किरदार निभाया. मेरे लिए अभिनय करना अमेजिंग होता है. मैं अभिनेत्री इसीलिए बनी कि एक ही जिंदगी में कई अलगअलग जिंदगियां जीने का अवसर मिलेगा. मुझे अभिनय से प्यार है. जब तक सीरियल का प्रसारण शुरू नहीं हुआ, तब तक तो मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि मैं लीड किरदार निभा रही हूं. तो मेरा सोचने का नजरिया अलग है.

लेकिन तब से अब तक टीवी व फिल्म इंडस्ट्री में काफी बड़ा बदलाव आ चुका है. इस बदलाव में अहम भूमिका ओटीटी ने निभाई है. आज यह बंदिश नहीं रही कि टीवी कर रहे हैं, तो फिल्म या वैब सीरीज नहीं कर पाएंगे. अब तो दिग्गज सुपर स्टार भी ओटीटी व टीवी पर आ रहे हैं. अब सिर्फ नाम का फर्क रह गया अन्यथा टीवी, ओटीटी व फिल्म सब एक ही हैं. मैं भी फिल्म का हिस्सा बन चुकी हूं. अब कलाकार को टाइप कास्ट नहीं किया जाता. दर्शक के लिए कलाकार सिर्फ कलाकार है.

दीपिका सिंह के कई रूप हैं. आप औरत, मां, पत्नी, बहू और अभिनेत्री हैं. किसे कितना समय देती हैं?

जिस वक्त जिसे जरूरत होती है, उसे उतना समय देने का प्रयास करती हूं. अपनी तरफ से पूरा तालमेल बैठाने का प्रयास करती हूं. सब से ज्यादा समय मैं खुद को देती हूं. मेरी ससुराल में सभी कोऔपरेटिव हैं, इसलिए सबकुछ आसानी से मैनेज हो जाता है.

Dia Mirza ने भतीजी के निधन पर शेयर किया ये इमोशनल पोस्ट

बीते दिनों अपनी पर्सनल लाइफ को सुर्खियों में रहने वाली बॉलीवुड एक्ट्रेस दीया मिर्जा (Dia Mirza) मां बन गई हैं, जिसकी अपडेट वह फैंस के साथ शेयर करती रहती हैं. हालांकि कुछ दिनों से वह सोशलमीडिया से दूर थीं. लेकिन अब एक्ट्रेस ने अपनी एक अपडेट शेयर की है, जिसके बाद फैंस पोस्ट पर अपना रिएक्शन देते दिख रहे हैं. आइए आपको बताते हैं पूरी खबर…

भतीजी की फोटो की शेयर

 

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एक्ट्रेस दीया मिर्जा ने सोशलमीडिया पोस्ट के जरिए फैंस को बताया है कि उनकी भतीजी का निधन हो गया है. दरअसल, एक्ट्रेस ने अपने पोस्ट में लिखा, ‘मेरी भतीजी.. मेरी बच्ची.. मेरी जान…अब इस दुनिया में नहीं हो. मेरी कामना है कि तुम जहां भी रहो, तुम्हें शांति और प्यार मिले. तुम हमेशा मेरे दिल में रहोगी ओम शांति.’ वहीं इस पोस्ट के साथ एक्ट्रेस दिया मिर्जा ने अपनी भतीजी की फोटो भी शेयर की है, जिसे देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह उम्र में काफी कम थीं.

फैंस और सेलेब्स ने किया कमेंट

 

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एक्ट्रेस दीया मिर्जा का ये इमोशनल पोस्ट देखने के बाद जहां फैंस भी इमोशनल हो गए हैं तो वहीं सेलेब्स एक्ट्रेस की पोस्ट पर कमेंट करते हुए उन्हें सांत्वना दे रहे हैं. वहीं इन सितारों में ईशा गुप्ता जैसे कई सेलेब्स का नाम शामिल है.

बता दें, एक्ट्रेस दिया मिर्जा अपनी शादी और प्रैग्नेंसी को लेकर काफी सुर्खियों में रही हैं. दरअसल, शादी के कुछ महीने बाद ही एक्ट्रेस ने अपनी प्रैग्नेंसी की खबर सुनाकर फैंस को हैरान कर दिया था. हालांकि कई लोगों ने उन्हें सपोर्ट भी किया था. वहीं फिल्मी करियर की बात करें तो एक्ट्रेस दिया मिर्जा काफी समय से सिल्वर स्क्रीन से दूर हैं. हालांकि वह सोशलमीडिया के जरिए फैंस के साथ जुड़ी हुई रहती हैं.

REVIEW: जानें कैसी है जाह्नवी कपूर की ‘गुड लक जेरी’

रेटिंगः दो स्टार

निर्माताः सुभास्करन अल्लिराजाह, आनंद एल राय और महावीर जैन

लेखकः पंकज मट्टा

निर्देशकः सिद्धार्थ सेन गुप्ता

कलाकारः जाह्नवी कपूर,दीपक डोबरियाल, मीता वशिष्ठ, नीरज सूद,समता सुदिक्षा,जसवंत सिंह दलाल,साहिल मेहता,सौरभ सचदेव,मोहन कंभोज और सुशांत सिंह व अन्य.

अवधिः लगभग दो घंटे

ओटीटी प्लेटफार्मः हॉटस्टार डिजनी

एक लड़की के संघर्ष को दिखाने के लिए क्या उसका ड्ग्स के कारोबार से जुड़ा होना दिखाना आवश्यक है? क्या एक लड़की के संघर्ष को दिखाने के लिए उसका पंजाब में रहने वाली पंजाबी लड़की की बजाय मूलतः बिहार निवासी लड़की पंजाब में अपनी मां के इलाज के लिए ड्ग्स के कारोबार से जोड़ना उचित कहा जाएगा या इसे लेखक का दिमागी दिवालियापन कहा जाएगा. कुछ नया परोसने के नाम पर पर एक लड़की को ड्ग्स के कारोबार से जुड़ना दिखाना जरुरी तो नही कहा जाना चाहिए. भारत जैसे देश में हर लड़की को हर कदम पर कई तरह के संघर्ष से गुजरना पड़ता है. उन संघर्षों पर बात करने की जरुरत है. मगर ब्लैक कौमेडी अपराध कथा की श्रेणी वाली फिल्म ‘गुडलक जेरी’ के लेखक ने अपनी फिल्म में लड़की जेरी के संघर्ष को दिखाने के लिए उसे पंजाब में ड्ग्स के कारोबार से जुड़ा दिखा कर ख्ुाद को महान फिल्मकार साबित करने की कोशिश की है. मगर लेखक व निर्देशक फिल्म को संभाल नही पाए.

यॅूं तो यह मौलिक फिल्म नही है. बल्कि यह 17 अगस्त 2018 को सिनेमा घर में प्रदर्शित और इन दिनों ओटीटी प्लेटफार्म ‘‘जी 5’’पर स्ट्रीम हो रही तमिल फिल्म ‘कोलामावू कोकिला’ की रीमेक है. हिंदी में इस फिल्म में कहानी के स्तर पर ज्यादा बदलाव नही किया गया है. सिर्फ बैकड्ाप को पंजाब करने के साथ ही किरदारों को थोड़ा सा हिंदी भाषी दर्शकों को ध्यान रखकर कुछ बदला गया है. इसके अलावा फिल्म का क्लायमेक्स बदल दिया गया है.

कहानीः

जेरी अपनी मां व छोटी बहन के साथ दरभ्ंागा,बिहार से पंजाब के लिए ट्रेन  पकड़कर पंजाब पहुॅचती है. पंजाब में जया कुमारी उर्फ जेरी (जान्हवी कपूर) एक मसाज पार्लर में नौकरी करती है,यह बात जेरी की मां शरबती (मीता वशिष्ठ ) को पसंद नही है.  जबकि जेरी की उसकी छोटी बहन छाया उर्फ चेरी(समता सुदिक्षा) पढ़ाई करती है. जेरी की मां मोमो बना व बेचकर परिवार चलाती है. घर में यह तीन महिलाएं हैं और इन्हें एकतरफा प्यार करने वाले प्रेमी भी मौजूद हैं. जेरी की मां सरबती से पड़ोसी (नीरज सूद) प्यार करते हैं और वह खुद को इस घर का सदस्य ही समझते हैं. जबकि जेरी को रिंकू (दीपक डोबरियाल) अपनी प्रेमिका मानकर चल रहा है और गाहे बगाहे घर में घुसता रहता है. तो वहीं छाया उर्फ चेरी से शादी रचाने का मन-मस्तिष्क में ख्याल लिए एक पगलैट प्रेमी अक्सर दूल्हे के कपड़े पहनकर घर के अंदर घुसता रहता है.

इसी बीच एक दिन पता चलता है कि जेरी की मां सरबती को सेकंड स्टेज लंग कैंसर है.  डॉक्टर उनके इलाज के लिए 20 लाख रुपए का खर्च बताते हैं. जेरी पहले मसाज पार्लर की मालकिन से मां के इलाज के बीस लाख रूपए उधार मांगती है. जो कि वह मना कर देती है.  अब जेरी व चेरी दोनों चिंता मग्न रहने लगते हैं. एक दिन जेरी व चेरी दोनों बहने शॉपिंग करने जाती है,जहां  एक ड्रग्स तस्कर का पीछा करते हुए पुलिस उस शॉपिंग कॉम्पलेक्स में पहुॅच जाती है. ड्ग्स तस्कर भागता है,जो कि अचानक एक दुकान से बाहर निकलने के लिए जेरी के दरवाजा खोलने से वह तस्कर दरवाजे से टकराकर गिर जाता है. पुलिस तस्कर को पकड़कर ले जाती है,लेकिन नाटकीय तरीके से जेरी ड्ग्स सप्लायर टिम्मी के संपर्क में आती है और मां को बचाने की मजबूरी में इस धंधे में शामिल हो जाती है. उसे मां का इलाज कराने के लिए पैसे मिल जाते हैं. इस बीच दो बार वह पुलिस के चंगुल से ख्ुाद को किसी तरह बचाने में कामयाब हो जाती है. मां का इलाज हो जाने के बाद हो जाने के बाद जेरी पुलिस के झंझटो से बचने के लिए खुद को ड्ग्स के ध्ंाधे से अलग करना चाहती है. तब कया होता है,यह जानने के लिए तो फिल्म देचानी पड़ेगी.

लेखन व निर्देशनः

कमजोर कहानी व पटकथा के चलते फिल्म दर्शकों को बांधकर नही रखती. ठोस कहानी न होने के चलते फिल्म में कई दृश्यों का दोहराव भी है. फिल्म की पटकथा के चलते दर्शक ख्ुाद को ही भ्ंावर में फंसा हुआ महसूस करने लगता है. फिल्म अचानक चलते चलते ठहर सी जाती है. कई किरदार ठीक से गढ़े ही नही गए. कहानी के अंदर हास्य दृश्य अपने आप में अच्छे हैं, मगर वह फिल्म के साथ फिट नही बैठते. जेरी,उसकी मां व बहन दरभ्ंागा, बिहार से पंजाब आकर क्यों रह रहे हैं,इस पर यह फिल्म कुछ नही कहती. फिल्म का क्लायमेक्स अति घटिया है. वैसे फिल्म में एक नही कई क्लायमेक्स हैं,शायद ख्ुाद लेखक व निर्देशक ही निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि फिल्म को किस मोड़ पर खत्म किया जाए. लेखक व निर्देशक दर्शकांे को एक नई सीख देते है कि जेरी बिहार से है,इसलिए वह ‘मै’ की जगह ‘हम ’बोलती है. वाह क्या कहने ? इससे लेखक का भारत देश के बारे में कितना ज्ञान है,वह सामने आता है. दूसरी बात जेरी के परिवार को बिहारी रखने के पीछे क्या सोच रही,यह तो लेखक व निर्देशक ही बेहतर जानते होंगे. क्या पंजाबी लड़कियां कभी किसी गलत ध्ंाधे से नही जुड़ती? पूरी फिल्म में जेरी व शरबती महज चंद संवाद ही बिहारी लहजे मे बोलती है अन्यथा बिहारी लहजे की भाषा का बंटाधार ही किया गया है.

पंजाब में ड्ग्स तस्करी बहुत बडा मुद्दा है,मगर लेखक व निर्देशक इस पर बहुत उपर उपर से ही अपनी कहानी ले जाते हैं. उन्होने साफ साफ कुछ भी कहने से बचने की कोशिश की है. वह एक तरफ एक पुलिस वाले को ड्ग तस्कर से मिला हुआ दिखाते हैं,तो वहीं दूसरे पुलिस वाले को ड्ग्स तस्कारों का सफाया  करने पर आमादा दिखाते हैं. इस तरह की बातें तो तमाम फिल्मों में आ चुकी हैं.  बहुत ही उथली सी फिल्म है.

एडीटिंग टेबल पर फिल्म को कसा जाना चाहिए था.

अभिनयः

जेरी के किरदार में जान्हवी कपूर हैं,जो अपने समय की मशहूर व सशक्त अदाकारा स्व. श्रीदेवी की बेटी हैं. जान्हवी कपूर ने फिल्म ‘धड़क’ से बौलीवुड में कदम रखा था,पर इस फिल्म को खास सफलता नही मिली थी. इसके बाद वह ‘गंुजन सक्सेना’ और ‘रूही’ में नजर आयीं, मगर इन फिल्मों में भी उनके अभिनय में बहुत अच्छा निखार नहीं आया था. अब इस फिल्म में भी जान्हवी कपूर अपने अभिनय से बहुत ज्यादा असर नही डाल पाती. उन्हे अपने चेहरे के भावों को घटनाक्रम के अनुरूप तेजी से बदलना सीखना पड़ेगा. जेरी के किरदार के लिए जिस तरह से उन्हे सशक्त इरादे वाली नजर आनी चाहिए,वैसी वह नही है. वह जिस तरह की सीख अपनी बहन व मां को देती है,ठीक उसके विपरीत उसके चेहरे पर भाव रहतेहैं. रोने वाले दृश्य जरुर अच्छे बन पड़े हैं. पर लंबी रेस का घोड़ा बनने के लिए जान्हवी कपूर को अभी बहुत मेहनत करने की जरुरत है. रिंकू के किरदार में दीपक डोबरियाल जरुर अपने अभिनय की छाप छोड़ जाते हैं,मगर लेखक व निर्देशक ने उनके किरदार को कुछ अजीब सा क्यों बनाया,यह समझ से परे है. शरबती के किरदार में मीता वशिष्ठ का अभिनय शानदार है. पड़ोसी के किरदार में नीरज सूद का अभिनय ठीक ठाक ही कहा जाएगा,अफसोस उन्हे पटकथा से कोई मदद नही मिली.  चेरी के छोटे किरदार में समता सुदिक्षा अपने स्वाभाविक अभिनय के कारण याद रह जाती हैं. टिम्मी के किरदार में जसवंत सिंह दलाल ने बहुत स्वाभाविक अभिनय किया है. जिगर के किरदार मे साहिल मेहता भी अपनी छाप छोड़ जाते हैं. अन्य कलाकार ठीक ठाक हैं.

निर्माता ने फिल्म ‘‘गुडलक जेरी’’ को सिनेमाघरों की बजाय ओटीटी पर रिलीज करने का निर्णय कर अपने हक में फैसला किया है.

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