Best Hindi Stories : दोस्ती – शादी के बाद भी अवकाश से क्यों मिलती थी प्रिया?

Best Hindi Stories : शाम को दोनों भाई-बहन अधिक और आयरा सामने वाले पार्क से खेल कर थोड़ी देर पहले घर आ गये थे. आकर बैठे ही थे कि अचानक दरवाजे की घंटी बजी तो आयरा दौड़कर दरवाजा खोलने गई और दरवाजा खोलते ही सामने किसी अजनबी युवक को देखकर चकित रह गई.

अब तक घंटी की आवाज सुनकर पीछे-पीछे उसकी मां प्रिशा बाहर निकलीं और मुसकराते हुए बेटी से बोलीं, ‘‘बेटी, यह तुम्हारी मम्मा के दोस्त हैं अवकाश अंकल, नमस्ते करो अंकल को.’’

‘‘नमस्ते मम्मा के फ्रैंड अंकल,’’ कह कर हौले से मुसकरा कर वह अपने कमरे में चली आई और बैठ कर कुछ सोचने लगी.

कुछ ही देर में उसका भाई अधिक भी घर लौट आया. अधिक आयरा से 2-3 साल बड़ा था. अधिक को देखते ही आयरा ने सवाल किया, ‘‘भैया आप मम्मा के फ्रैंड से मिले?’’

‘‘हां मिला, काफी यंग और चार्मिंग हैं. वैसे 2 दिन पहले भी आए थे. उस दिन तू कहीं गई हुई थी.’’

‘‘वह सब छोड़ो भैया, आप तो मुझे यह बताओ कि वे मम्मा के बौयफ्रैंड हुए न?’’

‘‘यह क्या कह रही है पगली. वे तो बस फ्रैंड हैं. यह बात अलग है कि आज तक मम्मा की सहेलियां ही घर आती थीं. पहली बार किसी लड़के से दोस्ती की है मम्मा ने.’’

‘‘वही तो मैं कह रही हूं कि यह बौय भी है और मम्मा का फ्रैंड भी यानी बौयफ्रैंड ही तो हुए न?’’ आयरा ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘ज्यादा दिमाग मत दौड़ा, अपनी पढ़ाई कर ले,’’ अधिक ने उस पर धौंस जमाते हुए कहा.

थोड़ी देर में अवकाश चला गया तो प्रिशा की सास अपने कमरे से बाहर आती हुईं थोड़ी नाराजगी भरे स्वर में बोलीं, ‘‘बहू क्या बात है, तेरा यह फ्रैंड अब अकसर घर आने लगा है?’’

‘‘अरे नहीं मम्मीजी वह दूसरी बार ही तो आया था और वह औफिस के किसी काम के सिलसिले में.’’

‘‘मगर बहू तू तो कहती थी कि तेरे औफिस में ज्यादातर महिलाएं हैं. अगर पुरुष हैं भी तो वे अधिक उम्र के हैं, जबकि यह लड़का तो तुमसे भी छोटा लग रहा था.’’

‘‘मम्मीजी हम समान उम्र के हैं. अवकाश मुझसे केवल 4 महीने छोटा है. ऐक्चुअली हमारे औफिस में अवकाश का ट्रांसफर हाल में हुआ. पहले उसकी पोस्टिंग हैड औफिस मुंबई में थी. सो उसे प्रैक्टिकल नॉलेज काफी ज्यादा है. कभी भी कुछ मदद की जरूरत होती है तो तुरंत आगे आ जाता है. तभी यह औफिस में बहुत जल्दी सबका दोस्त बन गया है. अच्छा मम्मीजी आप बताइए आज खाने में क्या बनाऊं?’’

‘‘जो दिल करे बना ले बहू. पर देख लड़कों से जरूरत से ज्यादा मेलजोल बढ़ाना सही नहीं होता. तेरे भले के लिए कह रही हूं बहू.’’

‘‘अरे मम्मीजी आप निश्चिंत रहिए, अवकाश बहुत अच्छा लड़का है,’’ कह कर हंसती हुई प्रिशा अंदर चली गई, मगर सास का चेहरा बना रहा.

रात में प्रिशा का पति आदर्य घर लौटा तो खाने के बाद सास ने उसे कमरे में

बुलाया और धीमी आवाज में उसे अवकाश के बारे में सबकुछ बता दिया.

आदर्य ने मां को समझाने की कोशिश की, ‘‘मां आज के समय में महिलाओं और पुरुषों की दोस्ती आम बात है. वैसे भी आप जानती ही हो प्रिशा समझदार है. आप टैंशन क्यों लेती हो मां.’’

‘‘बेटा मेरी बूढ़ी हड्डियों ने इतनी दुनिया देखी है जितनी तू सोच भी नहीं सकता. स्त्री-पुरुष की दोस्ती यानी आग की दोस्ती. आग पकड़ते समय नहीं लगता बेटे… मेरा फर्ज था तुझे समझाना सो समझा दिया.’’

‘‘डौंट वरी मां ऐसा कुछ नहीं होगा. अच्छा मैं चलता हूं सोने,’’ कह कर आदर्य मां के पास से तो उठ कर चला आया मगर कहीं न कहीं उनकी बातें देर तक उसके जेहन में घूमती रहीं.

आदर्य प्रिशा से बहुत प्यार करता था और उस पर पूरा यकीन भी था. मगर आज जिस तरह मां शक जाहिर कर रही थीं उस बात को वह पूरी तरह इग्नोर भी नहीं कर पा रहा था.

रात में जब घर के सारे काम निबटा कर प्रिशा कमरे में आई तो आदर्य ने उसे छेड़ने के अंदाज में कहा, ‘‘मां कह रही थीं आजकल आपकी किसी लड़के से दोस्ती हो गई है और वह आपके घर भी आता है.’’

पति के भाव समझते हुए प्रिशा ने भी उसी लहजे में जवाब दिया, ‘‘जी हां, आपने सही सुना है. वैसे तो यह भी कह रही होंगी कि कहीं मुझे उससे प्यार न हो जाए और मैं आपको चीट न करने लगूं.’’

‘‘हां मां की सोच तो कुछ ऐसी ही है, मगर मेरी नहीं है. ऑफिस में मुझे भी महिला सहकर्मियों से बातें करनी होती हैं पर इसका मतलब यह तो नहीं है कि मैं कुछ और सोचने लगूं. मैं तो मजाक कर रहा था. आई नो ऐंड आई लव यू.’’

प्रिशा ने प्यार से कहा, ‘‘ओ हो चलो इसी बहाने, ये लफ्ज इतने दिनों बाद सुनने को तो मिल गए.’’

दोनों देर तक प्यार भरी बातें करते रहे. वक्त इसी तरह गुजरने लगा. अवकाश अकसर प्रिशा के घर आ जाता. कभीकभी दोनों बाहर भी निकल जाते. आदर्य को कोई एतराज नहीं था. इसलिए प्रिशा भी इस दोस्ती को ऐंजॉय कर रही थी. साथ ही ऑफिस के काम भी आसानी से निबट रहे थे.

प्रिशा ऑफिस के साथसाथ घर भी बहुत अच्छी तरह से संभालती थी. आदर्य को इस मामले में भी पत्नी से कोई शिकायत नहीं थी. मां अकसर बेटे को टोकतीं, ‘‘यह सही नहीं है आदर्य तुझसे. फिर कह रही हूं कि पत्नी को किसी और के साथ इतना घुलनेमिलने देना उचित नहीं है.’’

‘‘मां ऐक्चुअली प्रिशा ऑफिस के कार्यों में ही अवकाश की मदद लेती है. दोनों एक ही फील्ड में काम कर रहे हैं और एक-दूसरे को अच्छे से समझते हैं. इसलिए स्वाभाविक है कि काम के साथ-साथ थोड़ा समय संग बिता लेते हैं. इसमें कुछ कहना मुझे ठीक नहीं लगता. मां और फिर तुम्हारी बहू इतना कमा भी तो रही है. याद करो मां जब प्रिशा घर पर रहती थी तो कई दफा घर चलाने के लिए हमारा हाथ तंग हो जाता था. आखिर बच्चों को अच्छी शिक्षा दी जा सके, इसके लिए प्रिशा का काम करना भी तो जरूरी है न. फिर जब वह घर संभालने के बाद काम करने बाहर जा रही है तो हर बात पर टोका-टाकी भी तो अच्छी नहीं लगती है.’’

‘‘बेटे मैं तेरी बात समझ रही हूं पर तू मेरी बात नहीं समझता. देख थोड़ा नियंत्रण भी जरूरी है बेटे वरना कहीं तुझे बाद में पछताना न पड़े,’’ मां ने मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘ठीक है मां मैं बात करूंगा,’’ कह कर आदर्य चुप हो गया.

एक ही बात बार-बार कही जाए तो वह कहीं न कहीं दिमाग पर असर करती ही है. ऐसा ही कुछ आदर्य के साथ भी होने लगा था. जब काम के बहाने प्रिशा और अवकाश शहर के बाहर जाते तो आदर्य का दिल बेचैन हो जाता. उसे कई दफा लगता कि प्रिशा को अवकाश के साथ बाहर जाने से रोक ले या डांट लगा दे. मगर वह ऐसा नहीं कर पाता. आखिर उसकी गृहस्थी की गाड़ी यदि सरपट दौड़ रही है तो उसके पीछे कहीं न कहीं प्रिशा की मेहनत ही तो थी.

इधर बेटे पर अपनी बातों का असर पड़ता न देख आदर्य के मां-बाप ने अपने पोते और पोती यानी बच्चों को उकसाना शुरू कर दिया. एक दिन वे दोनों बच्चों को बैठा कर के समझाने लगे, ‘‘देखो बेटे आपकी मम्मा की अवकाश अंकल से दोस्ती ज्यादा ही बढ़ रही है. क्या आप दोनों को नहीं लगता कि मम्मा आपको या पापा को अपना पूरा समय देने के बजाय अवकाश अंकल के साथ घूमने चली जाती है?’’

अधिक ने कहा, ‘‘दादाजी मम्मा घूमने नहीं बल्कि ऑफिस के काम से ही अवकाश अंकल के साथ जाती हैं.’’

‘‘भैया को छोड़ो दादी. पर मुझे भी ऐसा लगता है जैसे मम्मा हमें सच में इग्नोर करने लगी हैं. जब देखो ये अंकल हमारे घर आ जाते हैं या मम्मा को ले जाते हैं. यह सही नहीं है.’’

‘‘हां बेटे इसीलिए मैं कह रही हूं कि थोड़ा ध्यान दो, मम्मा को कहो कि अपने दोस्त के साथ नहीं बल्कि तुम लोगों के साथ समय बिताया करे.’’

उस दिन इतवार था. बच्चों के कहने पर प्रिशा और आदर्य उन्हें लेकर वाटर

पार्क जाने वाले थे. दोपहर की नींद लेकर जैसे ही दोनों बच्चे तैयार होने लगे तो मां को न देखकर दादी के पास पहुंचे. पूछा, ‘‘दादीजी मम्मा कहां हैं. दिख नहीं रहीं?’’

‘‘तुम्हारी मम्मा गई अपने फ्रैंड के साथ. मतलब अवकाश अंकल के साथ.’’

‘‘लेकिन उन्हें तो हमारे साथ जाना था. क्या हम से ज्यादा बॉयफ्रैंड जरूरी हो गया?’’ कहकर आयरा ने मुंह फुला लिया. अधिक भी उदास हो गया.

लोहा गरम देख कर दादीमां ने हथौड़ा मारने की गरज से कहा, ‘‘यही तो मैं कहती आ रही हूं इतने समय से कि प्रिशा के लिए अपने बच्चों से ज्यादा महत्त्वपूर्ण वह पराया आदमी हो गया है. तुम्हारे बाप को तो कुछ समझ ही नहीं आता.’’

‘‘मां प्लीज ऐसा कुछ नहीं है, कोई जरूरी काम आ गया होगा?’’ आदर्य ने प्रिशा के बचाव में कहा, ‘‘पर पापा हमारा दिल रखने से जरूरी और कौन सा काम हो गया भला?’’ कहकर अधिक गुस्से में उठा और अपने कमरे में चला गया. उसने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया. आयरा भी चिढ़कर बोली, ‘‘लगता है मम्मा को हमसे ज्यादा प्यार उस अवकाश अंकल से हो गया है,’’ और फिर वह भी पैर पटकती अपने कमरे में चली गई. शाम को जब प्रिशा लौटी तो घर में सबका मूझ औफ था. प्रिशा ने बच्चों को समझाने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे अवकाश अंकल के पैर में गहरी चोट लग गई थी, तभी मैं उन्हें लेकर अस्पताल गई थी.’’

‘‘मम्मा आज हम कोई भी बहाना नहीं सुनने वाले. आपने अपना वादा तोड़ा है और वह भी अवकाश अंकल की खातिर. हमें कोई बात नहीं करनी,’’ कहकर दोनों वहां से उठकर चले गए.

अधिक और आयरा मां की अवकाश से इन नजदीकियों को पसंद नहीं कर रहे थे. वे अपनी ही मां से कटेकटे से रहने लगे. गरमी की छुट्टियों के बाद बच्चों के स्कूल खुल गए और अधिक अपने होस्टल चला गया. इधर प्रिशा के सास-ससुर ने इस दोस्ती का जिक्र उसके मां-बाप से भी कर दिया.

प्रिशा की मां भी इस दोस्ती के खिलाफ थीं. मां ने प्रिशा को समझाया तो पिता ने भी आदर्य को सलाह दी कि उसे इस मामले में प्रिशा पर थोड़ी सख्ती करनी चाहिए और अवकाश के साथ बाहर जाने की इजाजत कतई नहीं देनी चाहिए. इसी बीच आयरा की दोस्ती सोसाइटी के एक लड़के सुजय से हो गई. वह आयरा से 3-4 साल बड़ा था यानी वह अधिक उम्र का था. वह जूडो-कराटे में चैंपियन और फिटनैस फ्रीक लड़का था. आयरा उसकी बाइक रेसिंग से भी बहुत प्रभावित थी. वे दोनों एक ही स्कूल में थे. दोनों साथ स्कूल आने-जाने लगे.

सुजय दूसरे लड़कों की तरह नहीं था. वह आयरा को अच्छी बातें बताता. उसे सैल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग देता और स्कूटी चलाना भी सिखाता. सुजय का साथ आयरा को बहुत पसंद आता. एक दिन आयरा सुजय को अपने साथ घर ले आई. प्रिशा ने उसकी अच्छे से आवभगत की. सबको सुजय अच्छा लड़का लगा इसलिए किसी ने आयरा से कोई पूछताछ नहीं की.

अब तो सुजय अकसर ही घर आने लगा. वह आयरा की मैथ की प्रौब्लम भी हल कर देता और जूडो-कराटे भी सिखाता रहता. एक दिन आयरा ने प्रिशा से कहा, ‘‘मम्मा आपको पता है सुजय डांस भी जानता है. वह कह रहा था कि मुझे डांस सिखा देगा.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा है. तुम दोनों बाहर लॉन में फिर अपने कमरे में डांस की प्रैक्टिस कर सकते हो. मम्मा आपको या घर में किसी को ऐतराज तो नहीं होगा.’’

आयरा ने कहा, ‘‘अरे नहीं बेटा, सुजय अच्छा लड़का है. वह तुम्हें अच्छी बातें सिखाता है. तुम दोनों क्वालिटी टाइम स्पैंड करते हो फिर हमें ऐतराज क्यों होगा? बस बेटा यह ध्यान रखना कि सुजय और तुम फालतू बातों में समय मत लगाना, काम की बातें सीखो, खेलो-कूदो, उसमें क्या बुराई है?’’

‘‘ओके थैंक यू मम्मा,’’ कह कर आयरा खुशीखुशी चली गई.

अब सुजय हर संडे आयरा के घर आ जाता और दोनों डांस प्रैक्टिस करते. समय इसी तरह बीतता रहा. एक दिन प्रिशा और आदर्य किसी काम से बाहर गए हुए थे. घर में आयरा दादा-दादी के साथ अकेली थी. किसी काम से सुजय घर आया तो आयरा उससे गणित की प्रॉब्लम हल कराने लगी. आयरा और सुजय दौड़ कर बाथरूम पहुंचे तो देखा दादी फर्श पर बेहोश पड़ी हैं. आयरा के दादा ऊंचा सुनते थे. उनके पैरों में भी तकलीफ रहती थी. वे अपने कमरे में सोए थे. आयरा घबरा कर रोने लगी तब सुजय ने उसे चुप कराया और जल्दी से ऐंबुलेंस वाले को फोन किया. आयरा ने अपने मम्मी-डैडी को भी फोन करके हर बात बता दी.

इसी बीच सुजय जल्दी से दादी को लेकर पास के एक अस्पताल में भागा. उसने पहले ही अपने घर से रुपए मंगा लिए थे. अस्पताल पहुंच कर उसने बहुत समझदारी से दादी को एडमिट करा दिया और प्राथमिक इलाज शुरू कराया. उनको हार्ट अटैक आया था. अब तक आयरा के मां-बाप भी अस्पताल पहुंच गए थे.

डाक्टर ने प्रिशा और आदर्य से सुजय की तारीफ करते हुए कहा, ‘‘इस लड़के ने जिस फुरती और समझदारी से आपकी मां को हॉस्पिटल पहुंचाया है वह काबिलेतारीफ है. अगर ज्यादा देर हो जाती तो समस्या बढ़ सकती थी. यहां तक कि जान को भी खतरा हो सकता था.’’

प्रिशा ने बढ़ कर सुजय को गले से लगा लिया. आदर्य और उसके पिता ने भी नम आंखों से सुजय का धन्यवाद कहा. सब समझ रहे थे कि बाहर का एक लड़का आज उनके परिवार के लिए कितना बड़ा काम कर गया. हालात सुधरने पर आयरा की दादी को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई. घर लौटने पर दादी ने सुजय का हाथ पकड़ कर गदगद स्वर में कहा, ‘‘आज मुझे पता चला कि दोस्ती का रिश्ता कितना खूबसूरत होता है. तुमने मेरी जान बचाकर इस बात का एहसास दिला दिया बेटे कि दोस्ती का मतलब क्या है?’’

‘‘यह तो मेरा फर्ज था, दादीजी,?’’ सुजय ने हंस कर कहा.

तब दादी ने प्रिशा की तरफ देखकर ग्लानि भरे स्वर में कहा, ‘‘मुझे माफ कर दे बहू. दोस्ती तो दोस्ती होती है बच्चों की हो या बड़ों की. तेरी और अवकाश की दोस्ती पर शक करके हमने बहुत बड़ी भूल कर दी. आज मैं समझ सकती हूं कि तुम दोनों की दोस्ती कितनी प्यारी होगी. आज तक मैं समझ ही नहीं पाई थी.’’

प्रिशा आगे बढ़ कर सास के गले लगती हुई बोली, ‘‘मम्मीजी आप बड़ी हैं. आप को मुझसे माफी मांगने की कोई जरूरत नहीं है. आप अवकाश को जानती नहीं थीं, इसलिए आपके मन में सवाल उठ रहे थे. यह बहुत स्वाभाविक था पर मैं उसे पहचानती हूं. इसलिए बिना कुछ छिपाए उस रिश्ते को आपके सामने लेकर आई थी.’’

तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. प्रिशा ने दरवाजा खोला तो सामने हाथों में फल और गुलदस्ता लिए अवकाश खड़ा था. घबराए हुए स्वर में उसने पूछा, ‘‘मैं ने सुना है कि अम्माजी की तबियत खराब हो गई है. अब कैसी हैं ये, बस तुम्हें ही याद कर रही थीं,’’ प्रिशा ने हंसते हुए कहा और फिर अंदर ले आई, जहां सभी एक-साथ दादी के पास बैठे थे. आज सभी को एक-साथ हंसता-खेलता देख दादी का दोस्ती वाला शक मिट चुका था.

Ajay Devgn की हालिया रिलीज फिल्म रेड 2, बासी कड़ी में उबाल

Ajay Devgn : हाल ही में अजय देवगन की फिल्म रेड 2 रिलीज हुई जिसका दर्शकों को बेसब्री से इंतजार था. क्योंकि इसके पहले बनी रेड पार्ट वन, जो काफी अच्छी फिल्म थी. दर्शकों ने इस फिल्म को बहुत सराहा था. लिहाजा दर्शकों को पूरी उम्मीद थी कि अजय देवगन अभिनित रेड 2 भी धमाकेदार फिल्म होगी. ललेकिन ऐसे में कहना गलत ना होगा कि अजय देवगन की फिल्म रेड 2 ने पूरी तरह निराश किया है. रेड 2 लगभग वैसी ही लग रही है जैसे बासी कढ़ी में उबाला.

पता नहीं क्यों लेकिन आज फिल्म मेकर्स फिल्म की मेकिंग पर कम और पब्लिसिटी पर ज्यादा ध्यान देते हैं, जिस वजह से फिल्म का जितना ज्यादा प्रचार होता है, रिलीज के बाद वही फिल्म उतनी ही टाय टाय फीस निकलती है. इस फिल्म में भी ऐसा ही कुछ है, फिल्म की कहानी रेड डालने से शुरू होती है और उसी पर अटकी रहती है, पहली रेड से अगर दूसरी रेड 2 की अगर तुलना करे तो रेड 2 कमतर नजर आती है क्योंकि रेड 2 में कोई नयापन नहीं है. यहां तक कि अजय देवगन खुद दृश्यम की सफलता के बाद से करीबन हर फिल्म में सीधे सादे अंकल टाइप लुक में नजर आए है ..

फिल्म की हीरोइन वाणी कपूर के पास करने लायक कुछ खास नहीं था. तमन्ना भाटिया का जब से स्त्री 2 में आइटम नंबर आज की रात… हिट हुआ है , तब से हिंदी फिल्मों के मेकर तमन्ना का फिल्म में एक आइटम नंबर को फिल्म की सफलता की चाबी मान रहे है ,जिसके चलते रेड 2 में भी तमन्ना भाटिया का आइटम नंबर नशा … जबरदस्ती ठूस दिया गया है,  फिल्म के अगर डायरेक्शन की बात करें तो फिल्म का डायरेक्शन राजकुमार गुप्ता ने किया है जो इंटरवल तक ढीला और नाटकीय लगता है, इंटरवल के बाद डायरेक्शन में पकड़ नजर आती है.

फिल्म की कहानी कमजोर होने की वजह से फिल्म का डायरेक्शन भी ठीकठाक ही लगता है. अगर रेड 2 के आकर्षण की बात करें तो रितेश देशमुख जो विलेन के रोल में है उनका अभिनय दमदार दिखाई देता है. रेड 2 में एक और अच्छा कलाकार है जिसकी एक्टिंग में दम कम नजर आता है वह है सौरभ शुक्ला , लेकिन उनको ज्यादा फुटेज नहीं मिली है जिसमें वह अभिनय का जौहर दिखा सके. रेड 2 के पहले भाग में अजय देवगन के साथ इलियाना डी’क्रूज़ थी , इस बार रेड 2 में इलियाना के जगह वाणी कपूर नजर आई हैं. जिनकी पहले से ही स्टार वैल्यू नहीं है और फिल्म में भी उनका ज्यादा काम नहीं है.

फिल्म का संगीत मधुर है आइटम सॉन्ग नशा लोगों की जुबान पर चढ़ सकता है. ओवर एंड औल अजय देवगन की रेड 2 वो कमाल नहीं दिखा पाई है जो पहली रेड ने किया था . फिल्म में काफी सारी कमियां है जिस वजह से फिल्म दर्शकों के गले नहीं उतर रही, जिस दिन मेकर्स और एक्टर को यह बात समझ आ जाएगी कि आज के समय में फिल्म हीरो या आइटम नंबर के वजह से नहीं बल्कि अच्छे कंटेंट के बाद ही चलती है. उस दिन से बौलीवुड फिल्मों का भविष्य उज्ज्वल होना शुरू हो जाएगा . वरना अगर बड़े कलाकारों से सजी फिल्म की यही हालत रही तो वह दिन दूर नहीं जब दर्शक हिंदी फिल्मों से दूरी बनाने लगेंगे.

Skin Care Tips : क्या फेस सीरम से स्किन जवां होती है?

Skin Care Tips  :  अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक जरूर पढ़ें…

सवाल

मैं फेस सीरम के बारे में जानना चाहती हूं. क्या फेस सीरम में ऐंटीएजिंग गुण होते हैं, जो त्वचा को जवां बनाते हैं?

जवाब-

जी हां, सीरम से आप की कई तरह की परेशानियां कम होती हैं और चेहरा खूबसूरत बनता है. फेस सीरम कोलोजन के उत्पादन को बढ़ाता है और त्वचा को जवां और स्वस्थ बनाता है. यह त्वचा पर होने वाले पिंपल्स, घावों, दागों, मुंहासों और इन्फैक्शन को हील करता है. फेस सीरम त्वचा में गहराई तक जा कर उस की समस्याओं को कम करता है. आंखों के नीचे आए डार्कसर्कल्स को कम करने में भी फेस सीरम लाभकारी रहता है. इस से चेहरे की हलके हाथों से मालिश करें.

स्किन सीएम में ऐंटीऔक्सीडैंट्स होते हैं जोकि बाहरी तत्त्वों से त्वचा की रक्षा करते हैं. ये त्वचा की नई कोशिकाएं बनाने में भी मदद करते हैं, जिससे त्वचा की रंगत निखरती है. अगर आप की त्वचा रूखी है तो आप के लिए फेस सीरम लाभकारी होगा.

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अभी तक आपने फेस स्क्रब , मॉइस्चराइजर के बारे में तो खूब सुना ही होगा और इसे आप अपने स्किन केयर रूटीन में इस्तेमाल भी करते होंगे. लेकिन फेस सीरम ज्यादा प्रचलित नहीं होने के कारण या फिर इसके फायदों से अनजान रहने के कारण हम सब इसे अपने मेकअप रूटीन में शामिल करने से डरते हैं , लेकिन क्या आप जानते हैं कि ये फेस सीरम स्किन के लिए किसी मैजिक से कम नहीं होता है. जो भी लड़की या महिला इसे रोजाना इस्तेमाल करती है , उसकी स्किन ज्यादा यंग व जवां नजर आती है. ऐसे में आपके लिए ये जानना बहुत जरूरी है कि फेस सीरम है क्या और आप किन इंग्रीडिएंट्स से बने फेस सीरम का इस्तेमाल करके अपनी स्किन को फायदा पहुंचा सकती हैं. तो आइए जानते हैं .

फेस सीरम है क्या 

स्किन को जवां बनाए रखने के लिए हम क्या क्या नहीं करते हैं. कभी क्रीम्स बदलते हैं , कभी महंगे ब्यूटी प्रोडक्ट्स का चयन करते हैं तो कभी स्किन ट्रीटमेंट्स का सहारा लेते हैं. लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि अगर आप एक बार फेस सीरम को अपने डेली रूटीन में शामिल कर लेंगे फिर तो आपकी स्किन चमक दमक उठेगी. ऐसा ग्लो देखकर हर कोई यही सोचेगा कि आपने फेशियल लिया है. अगर आप भी ऐसा कॉम्प्लिमेंट पाना चाहती हैं तो जरूर ट्राई करें फेस सीरम.

असल में ये वाटर बेस्ड व बहुत ही लाइट वेट होने के कारण स्किन में आसानी से अब्सॉर्ब हो जाता है. साथ ही इसमें इतने ज्यादा एक्टिव इंग्रीडिएंट्स होते हैं , जो स्किन को हाइड्रेट, यंग व उसकी प्रोब्लम्स पर फोकस करके उसमें अलग ही तरह का ग्लो व अट्रैक्शन लाने का काम करते हैं. ये असल में त्वचा में कसाव, चमक व नमी लाकर उसे यंग बनाने का काम करता है. लेकिन तभी जब आपका फेस सीरम बना होगा इन इंग्रीडिएंट्स से.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz   सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

Hindi Story Collection : देर से ही सही – क्या अविनाश और सीमा की जिंदगी खुशहाल हो पाई

Hindi Story Collection : सीमा को लगा कि घर में सब लोग चिंता कर रहे होंगे. लेकिन जब वह घर पहुंची तो किसी ने भी उस से कुछ नहीं पूछा, मानो किसी को पता ही नहीं कि आज उसे आने में देर हो गई है. पिताजी और बड़े भैया ड्राइंगरूम में बैठे किसी मुद्दे पर बातचीत कर रहे थे. छोटी बहन रुचि पति रितेश के साथ आई थी. वह भी बड़ी भाभी के कमरे में मां के साथ बड़ी और छोटी दोनों भाभियों के साथ बैठी गप मार रही थी. सीमा ने अपने कमरे में जा कर कपड़े बदले, हाथमुंह धोया और खुद ही रसोई में जा कर चाय बनाने लगी. रसोई से आती बरतनों की खटपट सुन कर छोटी भाभी आईं और औपचारिक स्वर में पूछा, ‘‘अरे, सीमा दीदी…आप आ गईं. लाओ, मैं चाय बना दूं.’’

‘‘नहीं, मैं बना लूंगी,’’ सीमा ने ठंडे स्वर में उत्तर दिया तो छोटी भाभी वापस चली गईं.

सीमा एक गहरी सांस ले कर रह गई. कुछ समय पहले तक यही भाभी उस के दफ्तर से आते ही चायनाश्ता ले कर खड़ी रहती थीं. उस के पास बैठ कर उस से दिन भर का हालचाल पूछती थीं और अब…

सीमा के अंदर से हूक सी उठी. वह चाय का कप ले कर अपने कमरे में आ गई. अब चाय के हर घूंट के साथ सीमा को लग रहा था कि वह अपने ही घर में कितनी अकेली, कितनी उपेक्षित सी हो गई है.

चाय पीतेपीते सीमा का मन अतीत की गलियों में भटकने लगा.

सीमा के पिताजी सरकारी स्कूल में अध्यापक थे. स्कूल के बाद ट्यूशन आदि कर के उन्होंने अपने चारों बच्चों को जैसेतैसे पढ़ाया और बड़ा किया. चारों बच्चों में सीमा दूसरे नंबर पर थी. उस से बड़ा सुरेश और छोटा राकेश व रुचि थे, क्योंकि एक स्कूल के अध्यापक के लिए 6 लोगों का परिवार पालना और 4 बच्चों की पढ़ाई का खर्चा उठाना आसान नहीं था अत: बच्चे ट्यूशन कर के अपनी कालिज की फीस और किताबकापियों का खर्च निकाल लेते थे.

सीमा अपने भाईबहनों में सब से तेज दिमाग की थी. वह हमेशा कक्षा में प्रथम आती थी. उस का रिजल्ट देख कर पिताजी यही कहते थे कि सीमा बेटी नहीं बेटा है. देख लेना सीमा की मां, इसे मैं एक दिन प्रशासनिक अधिकारी बनाऊंगा.

अपने पिता की इच्छा को जान कर वह दोगुनी लगन से आगे की पढ़ाई जारी करती. बी.ए. करने के बाद सीमा ने 3 वर्षों के अथक परिश्रम से आखिर अपनी मंजिल पा ही ली. और आज वह महिला एवं बाल विकास विभाग में उच्च पद पर कार्यरत है. सीमा के मातापिता उस की इस सफलता से फूले नहीं समाते.

‘सीमा की मां, अब हमारे बुरे दिन खत्म हो गए. मैं कहता था न कि सीमा बेटी नहीं बेटा है,’ उस की पीठ थपथपाते हुए जब पिताजी ने उस की मां से कहा तो वह गर्व से फूल गई थीं. वह अपना पूरा वेतन मांपिताजी को सौंप देती. अपने ऊपर बहुत कम खर्च करती. मांपिताजी ने बहुत तकलीफें सह कर ही गृहस्थी चलाई थी अत: वह चाहती थी कि अब वे दोनों आराम से रहें, घूमेंफिरें. अकसर वह दफ्तर से मिली गाड़ी में अपने परिवार के साथ बाहर घूमने जाती, उन्हें बाजार ले जाती.

समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा. सुरेश और राकेश पढ़लिख कर नौकरियों में लग गए थे. उन की नौकरी के लिए भी सीमा को अपने पद, पहचान और पैसे का भरपूर इस्तेमाल करना पड़ा था. सीमा की सारी सहेलियों की शादी हो गई. जब भी उन में से कोई सीमा से मिलती तो उस का पहला सवाल यही रहता, ‘सीमा, तुम शादी कब कर रही हो? नौकरी तो करती रहोगी लेकिन अब तुम्हें अपना घर जल्दी बसा लेना चाहिए.’

सुरेश का विवाह हुआ फिर कुछ समय बाद राकेश का भी विवाह हुआ. तब भी मांपिताजी ने उस के विवाह की सुध नहीं ली. समाज में और रिश्तेदारों में कानाफूसी होने लगी. रिश्तेदार जो भी रिश्ता सीमा के लिए ले कर आते, मांपिताजी या सुरेश उन सब में कोई न कोई कमी निकाल कर उसे ठुकरा देते. इसी तरह समय बीतता रहा और घर में रुचि के विवाह की बात चलने लगी, लेकिन बड़ी बहन कुंआरी रहने के कारण छोटी के विवाह में अड़चन आने लगी. तभी सीमा के लिए अविनाश का रिश्ता आया.

अविनाश भी उसी की तरह प्रशासनिक अधिकारी था. उस में ऐसी कोई बात नहीं थी कि सीमा के घर वाले कोई कमी निकाल कर उसे ठुकरा पाते. रिश्तेदारों के दबाव के आगे झुक कर आखिर बेमन से उन्हें सीमा की शादी अविनाश से करनी पड़ी.

दोनों की छोटी सी गृहस्थी मजे से चल रही थी. शादी के बाद भी सीमा अपनी आधी से ज्यादा तनख्वाह अपने मातापिता को दे देती. एक ही शहर में रहने की वजह से अकसर ही वह मायके चली आती. घर में खाना बनाने के लिए रसोइया था ही इसलिए वह अविनाश के लिए ज्यादा चिंता भी नहीं करती थी. पर अविनाश को उस का यों मायके वालों को सारा पैसा दे देना या हर समय वहां चला जाना अच्छा नहीं लगता था. वह अकसर सीमा को समझाता भी था लेकिन वह उस की बातों पर ध्यान नहीं देती थी. आखिरकार, अविनाश ने भी उसे कुछ कहना छोड़ दिया.

अतीत की यादों से सीमा बाहर निकली तो देखा कमरे में अंधेरा हो आया था. पर सीमा ने लाइट नहीं जलाई. अब उसे एहसास हो रहा था कि उस के मातापिता ने अपने स्वार्थ के लिए उस की बसीबसाई गृहस्थी को उजाड़ने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी.

सीमा के मातापिता को हर समय यही लगता कि आखिर कब तक सीमा उन की जरूरतें पूरी करती रहेगी. कभी तो अविनाश उसे रोक ही देगा. सीमा की मां और भाभियां हमेशा अविनाश के खिलाफ उस के कान भरती रहतीं. उसे कभी घर के छोटेमोटे काम करते देख कहतीं, ‘‘देखो, मायके में तो तुम रानी थीं और यहां आ कर नौकरानी हो गईं. यह क्या गत हो गई है तुम्हारी.’’

मातापिता के दिखावटी प्यार में अंधी सीमा को तब उन का स्वार्थ समझ में नहीं आया था और वह अविनाश को छोड़ कर मायके आ गई. कितना रोया था अविनाश, कितनी मिन्नतें की थीं उस की, कितनी बार उसे आश्वासन दिया था कि वह चाहे उम्र भर अपनी सारी तनख्वाह मायके में देती रहे वह कुछ नहीं बोलेगा. उसे तो बस सीमा चाहिए. लेकिन सीमा ने उस की एक नहीं सुनी और उसे ठुकरा आई.

भाभी के कमरे से अभी भी हंसीठहाकों की आवाजें आ रही थीं. सीमा को याद आया कि जब 4 साल पहले वह अविनाश का घर छोड़ कर हमेशा के लिए मायके आ गई थी तब सब काम उस से पूछ कर किए जाते थे, यहां तक कि खाना भी उस से पूछ कर ही बनाया जाता था.

और अब…अंधेरे में सीमा ने एक गहरी सांस ली. धीरेधीरे सबकुछ बदल गया. रुचि की शादी हो गई. उस की शादी में भी उस ने अपनी लगभग सारी जमापूंजी पिता को सौंप दी थी. आज वही रुचि मां और भाभियों में ही मगन रहती है. अपने ससुराल के किस्से सुनाती रहती है. दोनों भाभियां, भैया, मां और पिताजी बेटी व दामाद के स्वागत में उन के आगेपीछे घूमते रहते हैं और सीमा अपने कमरे में उपेक्षित सी पड़ी रहती है.

रुचि के नन्हे बच्चे को देखते ही उस के दिल में एक टीस सी उठती. आज उस का भी नन्हा सा बच्चा होता, पति होता, अपना घर होता. सीमा दीवार से सिर टिका कर बैठ गई. तभी मां कमरे में आईं.

‘‘अरे, अंधेरे में क्यों बैठी है?’’ मां ने बत्ती जलाते हुए पूछा.

‘‘कुछ नहीं मां, बस थोड़ा सिर में दर्द है,’’ सीमा ने दूसरी ओर मुंह कर के जल्दी से अपने आंसू पोंछ लिए.

‘‘सुन बेटी, मुझे तुझ से कुछ काम था,’’ मां ने अपने स्वर में मिठास घोलते हुए कहा.

‘‘बोलो मां, क्या काम है?’’ सीमा ने पूछा.

‘‘रुचि दीवाली पर मायके आई है तो मैं सोच रही थी कि उसे एकाध गहना बनवा दूं. दामाद और नन्हे के लिए भी कपड़े लेने हैं. तुम कल बैंक से 15 हजार रुपए निकलवा लाना. कल शाम को ही बाजार जा कर गहने व कपड़े ले आएंगे.’’

‘‘ठीक है, कल देखेंगे,’’ सीमा ने तल्ख स्वर में कहा.

सीमा ने मां से कह तो दिया पर उस का माथा भन्ना गया. 15 हजार रुपए क्या कम होते हैं. कितने आराम से कह दिया निकलवाने को. इतने सालों से वह अपने पैसों से घरभर की इच्छाओं की पूर्ति करती आ रही है लेकिन आज तक इन लोगों ने उस के लिए एक चुनरी तक नहीं खरीदी. मां को रुचि के लिए गहनेकपड़े खरीदने की चिंता है लेकिन उस के लिए दीवाली पर कुछ भी खरीदना याद नहीं रहता.

दूसरे दिन दफ्तर में सीमा का मन पूरे समय अविनाश के इर्दगिर्द घूमता रहा. उसे अपने किए पर आज पछतावा हो रहा था. लंच में उस की सहेली अनुराधा उस के कमरे में आ बैठी. अकसर दोनों साथसाथ लंच करती थीं.

‘‘क्या बात है, सीमा?’’ अनुराधा ने कहा, ‘‘मैं कुछ दिनों से देख रही हूं कि तू बहुत ज्यादा परेशान लग रही है.’’

अनुराधा ने लंच करते समय जब अपनेपन से पूछा तो सीमा अपनेआप को रोक नहीं पाई. घर वालों के उपेक्षापूर्ण व स्वार्थी रवैए के बारे में उसे सबकुछ बता दिया.

‘‘देख सीमा, मैं ने तो पहले भी तुझे समझाया था कि अविनाश को छोड़ कर तू ने अच्छा नहीं किया पर तू मायके वालों के स्वार्थ को प्यार समझे बैठी थी और मेरी एक नहीं मानी. अब हकीकत का तुझे भी पता चल गया न.’’

‘‘मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया है. मेरी आंखें खुल गई हैं,’’ सीमा की आंखों से आंसू ढुलक पड़े.

‘‘अब जा कर आंखें खुली हैं तेरी लेकिन जब अविनाश ने तुझे मनाने और घर वापस ले जाने की इतनी बार कोशिशें कीं तब तो…बेचारा मनामना कर थक गया,’’ अनुराधा का स्वर कड़वा सा हो गया.

‘‘मैं अपनी गलती मानती हूं. अब बहुत सजा भुगत चुकी हूं मैं. मेरे पास अपना कहने को कोई नहीं रहा. मैं बिलकुल अकेली रह गई हूं, अनु,’’ इतना कह सीमा फफक पड़ी.

सीमा को रोते देख अनुराधा का मन पिघल गया. उसे चुप कराते हुए वह बोली, ‘‘देख, सीमा, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. हां, देर तो हो गई है लेकिन इस के पहले कि और देर हो जाए तू अविनाश के पास वापस चली जा. तेरा पति होगा, अपना घर, अपना बच्चा, अपना परिवार होगा,’’ अनुराधा ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे समझाया.

‘‘लेकिन क्या अविनाश मुझे माफ कर के फिर से अपना लेगा?’’ सीमा ने सुबकते हुए पूछा.

‘‘वह करे या न करे पर तुझे अपनी ओर से पहल तो करनी ही चाहिए और जहां तक मैं अविनाश को जानती हूं वह तुझे दिल से अपना लेगा, क्योंकि यह तो तुम भी जानती हो कि उस ने अब तक शादी नहीं की है,’’ अनुराधा ने कहा.

सीमा ने आंसू पोंछ लिए. आखिरी बार जब अविनाश उसे समझाने आया था तब जातेजाते उस ने सीमा से यही कहा था कि मेरे घर के दरवाजे तुम्हारे लिए हमेशा खुले रहेंगे और मैं जिंदगी भर तुम्हारा इंतजार करूंगा.

अनुराधा ने सीमा के हाथ पर अपना हाथ रखते हुए कहा, ‘‘जा, खुशीखुशी जा, बिना संकोच के अपने घर वापस चली जा. बाकी तेरी बहन की शादी हो चुकी है, भाई कमाने लगे हैं, पिताजी को पेंशन मिलती है. उन लोगों को अपना घर चलाने दे, तू जा कर अपना घर संभाल. एक नई जिंदगी तेरी राह देख रही है.’’

क्या करे क्या न करे? इसी ऊहापोह में दीवाली बीत गई. त्योहार पर घर वालों के व्यवहार ने सीमा के निर्णय को और अधिक दृढ़ कर दिया.

छुट्टियां बीत जाने के बाद जब सीमा आफिस गई तो मन ही मन उस ने अपने फैसले को पक्का किया. अपने जो भी जरूरी कागजात व अन्य सामान था उसे सीमा ने आफिस के अपने बैग में डाला और आफिस चली गई. आफिस में अनुराधा से पता चला कि अविनाश शहर में ही है टूर पर नहीं गया है. शाम को घर पर ही मिलेगा.

शाम को आफिस से निकलने के बाद सीमा ने ड्राइवर को अविनाश के घर चलने के लिए कहा. हर मोड़ पर उस का दिल धड़क उठता कि पता नहीं क्या होगा. सारे रास्ते सीमा सुख और दुख की मिलीजुली स्थिति के बीच झूलती रही. 10 मिनट का रास्ता उसे 10 साल लंबा लगा था. गाड़ी अविनाश के घर के सामने जा रुकी. धड़कते दिल से सीमा ने गेट खोला और कांपते हाथों से दरवाजे की घंटी बजाई. थोड़ी देर बाद ही अविनाश ने दरवाजा खोला.

‘‘सीमा, तुम…आज अचानक. आओआओ, अंदर आओ,’’ अविनाश सीमा को देखते ही खुशी से कांपते स्वर में बोला. उस के चेहरे की चमक बता रही थी कि सीमा को देख कर वह कितना खुश है.

‘‘मुझे माफ कर दो, अविनाश. घर वालों के झूठे मोह में पड़ कर मैं ने तुम्हें बहुत तकलीफ पहुंचाई है, बहुत दुख दिए हैं, पत्नी होने का कभी कोई फर्ज नहीं निभाया मैं ने, लेकिन आज मेरी आंखें खुल गई हैं. क्या तुम मुझे फिर से…’’ सीमा ने अपना बैग नीचे रखते हुए पूछा तो आगे के शब्द आंसुओं की वजह से गले में ही फंस गए.

‘‘नहींनहीं, सीमा, गलती सभी से हो जाती है. जो बीत गया उसे बुरा सपना समझ कर भूल जाओ. यह घर और मैं आज भी तुम्हारे ही हैं. देखो, तुम्हारा घर आज भी वैसे का वैसा ही है,’’ अविनाश ने सीमा को अपने सीने से लगा लिया.

सीमा का जब सारा गुबार आंसुओं में बह गया तो वह अविनाश से अलग होते हुए बोली, ‘‘मैं अपने मायके वालों के प्रति अपना आखिरी कर्तव्य पूरा कर आती हूं.’’

‘‘वह क्या, सीमा?’’ अविनाश ने आश्चर्य और आशंका से पूछा.

‘‘उन्हें फोन तो कर दूं कि मैं अपने घर आ गई हूं, वे मेरी चिंता न करें,’’ सीमा ने हंसते हुए कहा तो अविनाश भी हंसने लगा.

‘‘हैलो, कौन…मां?’’ सीमा ने मायके फोन लगाया तो उधर से मां ने फोन उठाया.

‘‘हां, सीमा, तुम कहां हो…अभी तक घर क्यों नहीं पहुंचीं?’’

‘‘मां, मैं घर पहुंच गई हूं, अपने घर…अविनाश के पास.’’

‘‘यह क्या पागलपन है, सीमा,’’ यह सुनते ही सीमा की मां बौखला गईं, ‘‘इस तरह से अचानक ही तुम…’’

मां और कुछ कहतीं इस से पहले ही सीमा ने फोन काट दिया. अपने नए जीवन की शुरुआत में वह किसी से उलटासीधा सुन कर अपना मूड खराब नहीं करना चाहती थी. उसे प्यास लगी थी. पानी पीने के लिए सीमा रसोई में गई तो देखा एक थाली में अविनाश दीपक सजा रहा है.

‘‘यह क्या कर रहे हो, अविनाश?’’ सीमा ने कौतूहल से पूछा.

‘‘दीये सजा रहा हूं.’’ अविनाश ने उत्तर दिया.

‘‘लेकिन दीवाली तो बीत चुकी है.’’

‘‘हां, लेकिन मेरे घर की लक्ष्मी तो आज आई है, तो मेरी दीवाली तो आज ही है. इसलिए उस के स्वागत में ये दीये जला रहा हूं,’’ अविनाश ने सीमा की तरफ प्यार से देखते हुए कहा तो सीमा का मन भर आया.

अब वह पतिपत्नी के इस अटूट स्नेह संबंध को हमेशा हृदय से लगा कर रखेगी, यह सोच कर वह भी दीये सजाने में अविनाश की मदद करने लगी. देर से ही सही लेकिन आज उन के जीवन में प्यार और खुशहाली के दीये झिलमिला रहे थे.

Hindi Fiction Stories : मैं हूं न – ननद की भाभी ने कैसे की मदद

Hindi Fiction Stories : लड़के वाले मेरी ननद को देख कर जा चुके थे. उन के चेहरों से हमेशा की तरह नकारात्मक प्रतिक्रिया ही देखने को मिली थी. कोई कमी नहीं थी उन में. पढ़ी लिखी, कमाऊ, अच्छी कदकाठी की. नैननक्श भी अच्छे ही कहे जाएंगे. रंग ही तो सांवला है. नकारात्मक उत्तर मिलने पर सब यही सोच कर संतोष कर लेते कि जब कुदरत चाहेगी तभी रिश्ता तय होगा. लेकिन दीदी बेचारी बुझ सी जाती थीं. उम्र भी तो कोई चीज होती है.

‘इस मई को दीदी पूरी 30 की हो चुकी हैं. ज्योंज्यों उम्र बढ़ेगी त्योंत्यों रिश्ता मिलना और कठिन हो जाएगा,’ सोचसोच कर मेरे सासससुर को रातरात भर नींद नहीं आती थी. लेकिन जिसतिस से भी तो संबंध नहीं जोड़ा जा सकता न. कम से कम मानसिक स्तर तो मिलना ही चाहिए. एक सांवले रंग के कारण उसे विवाह कर के कुएं में तो नहीं धकेल सकते, सोच कर सासससुर अपने मन को समझाते रहते.

मेरे पति रवि, दीदी से साल भर छोटे थे. लेकिन जब दीदी का रिश्ता किसी तरह भी होने में नहीं आ रहा था, तो मेरे सासससुर को बेटे रवि का विवाह करना पड़ा. था भी तो हमारा प्रेमविवाह. मेरे परिवार वाले भी मेरे विवाह को ले कर अपनेआप को असुरक्षित महसूस कर रहे थे. उन्होंने भी जोर दिया तो उन्हें मानना पड़ा. आखिर कब तक इंतजार करते.

मेरे पति रवि अपनी दीदी को बहुत प्यार करते थे. आखिर क्यों नहीं करते, थीं भी तो बहुत अच्छी, पढ़ीलिखी और इतनी ऊंची पोस्ट पर कि घर में सभी उन का बहुत सम्मान करते थे. रवि ने मुझे विवाह के तुरंत बाद ही समझा दिया था उन्हें कभी यह महसूस न होने दूं कि वे इस घर पर बोझ हैं. उन के सम्मान को कभी ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए, इसलिए कोई भी निर्णय लेते समय सब से पहले उन से सलाह ली जाती थी. वे भी हमारा बहुत खयाल रखती थीं. मैं अपनी मां की इकलौती बेटी थी, इसलिए उन को पा कर मुझे लगा जैसे मुझे बड़ी बहन मिल गई हैं.

एक बार रवि औफिस टूअर पर गए थे. रात काफी हो चुकी थी. सासससुर भी गहरी नींद में सो गए थे. लेकिन दीदी अभी औफिस से नहीं लौटी थीं. चिंता के कारण मुझे नींद नहीं आ रही थी. तभी कार के हौर्न की आवाज सुनाई दी. मैं ने खिड़की से झांक कर देखा, दीदी कार से उतर रही थीं. उन की बगल में कोई पुरुष बैठा था. कुछ अजीब सा लगा कि हमेशा तो औफिस की कैब उन्हें छोड़ने आती थी, आज कैब के स्थान पर कार में उन्हें कौन छोड़ने आया है.

मुझे जागता देख कर उन्होंने पूछा, ‘‘सोई नहीं अभी तक?’’

‘‘आप का इंतजार कर रही थी. आप के घर लौटने से पहले मुझे नींद कैसे आ सकती है, मेरी अच्छी दीदी?’’ मैं ने उन के गले में बांहें डालते हुए उन के चेहरे पर खोजी नजर डालते हुए कहा, ‘‘आप के लिए खाना लगा दूं?’’

‘‘नहीं, आज औफिस में ही खा लिया था. अब तू जा कर सो.’’

‘‘गुड नाइट दीदी,’’ मैं ने कहा और सोने चली गई. लेकिन आंखों में नींद कहां?

दिमाग में विचार आने लगे कि कोई तो बात है. पिछले कुछ दिनों से दीदी कुछ परेशान और खोईखोई सी रहती हैं. औफिस की समस्या होती तो वे घर में अवश्य बतातीं. कुछ तो ऐसा है, जो अपने भाई, जो भाई कम और मित्र अधिक है से साझा नहीं करती और आज इतनी रात को देर से आना, वह भी किसी पुरुष के साथ, जरूर कुछ दाल में काला है. इसी पुरुष से विवाह करना चाहतीं तो पूरा परिवार जान कर बहुत खुश होता. सब उन के सुख के लिए, उन की पसंद के किसी भी पुरुष को स्वीकार करने में तनिक भी देर नहीं लगाएंगे, इतना तो मैं अपने विवाह के बाद जान गई हूं. लेकिन बात कुछ और ही है जिसे वे बता नहीं रही हैं, लेकिन मैं इस की तह में जा कर ही रहूंगी, मैं ने मन ही मन तय किया और फिर गहरी नींद की गोद में चली गई.

सुबह 6 बजे आंख खुली तो देखा दीदी औफिस के लिए तैयार हो रही थीं. मैं ने कहा, ‘‘क्या बात है दीदी, आज जल्दी…’’

मेरी बात पूरी होने हो पहले से वे बोलीं,  ‘‘हां, आज जरूरी मीटिंग है, इसलिए जल्दी जाना है. नाश्ता भी औफिस में कर लूंगी…देर हो रही है बाय…’’

मेरे कुछ बोलने से पहले ही वे तीर की तरह घर से निकल गईं. बाहर जा कर देखा वही गाड़ी थी. इस से पहले कि ड्राइवर को पहचानूं वह फुर्र से निकल गईं. अब तो मुझे पक्का यकीन हो गया कि अवश्य दीदी किसी गलत पुरुष के चंगुल में फंस गई हैं. हो न हो वह विवाहित है. मुझे कुछ जल्दी करना होगा, लेकिन घर में बिना किसी को बताए, वरना वे अपने को बहुत अपमानित महसूस करेंगी.

रात को वही व्यक्ति दीदी को छोड़ने आया. आज उस की शक्ल की थोड़ी सी झलक

देखने को मिली थी, क्योंकि मैं पहले से ही घात लगाए बैठी थी. सासससुर ने जब देर से आने का कारण पूछा तो बिना रुके अपने कमरे की ओर जाते हुए थके स्वर में बोलीं, ‘‘औफिस में मीटिंग थी, थक गई हूं, सोने जा रही हूं.’’

‘‘आजकल क्या हो गया है इस लड़की को, बिना खाए सो जाती है. छोड़ दे ऐसी नौकरी, हमें नहीं चाहिए. न खाने का ठिकाना न सोने का,’’ मां बड़बड़ाने लगीं, तो मैं ने उन्हें शांत कराया कि चिंता न करें. मैं उन का खाना उन के कमरे में पहुंचा दूंगी. वे निश्चिंत हो कर सो जाएं.

मैं खाना ले कर उन के कमरे में गई तो देखा वे फोन पर किसी से बातें कर रही थीं. मुझे देखते ही फोन काट दिया. मेरे अनुरोध करने पर उन्होंने थोड़ा सा खाया. खाना खाते हुए मैं ने पाया कि पहले के विपरीत वे अपनी आंखें चुराते हुए खाने को जैसे निगल रही थीं. कुछ भी पूछना उचित नहीं लगा. उन के बरतन उन के लाख मना करने पर भी उठा कर लौट आई.

2 दिन बाद रवि लौटने वाले थे. मैं अपनी सास से शौपिंग का बहाना कर के घर से सीधी दीदी के औफिस पहुंच गई. मुझे अचानक आया देख कर एक बार तो वे घबरा गईं कि ऐसी क्या जरूरत पड़ गई कि मुझे औफिस आना पड़ा.

मैं ने उन के चेहरे के भाव भांपते हुए कहा, ‘‘अरे दीदी, कोई खास बात नहीं. यहां मैं कुछ काम से आई थी. सोचा आप से मिलती चलूं. आजकल आप घर देर से आती हैं, इसलिए आप से मिलना ही कहां हो पाता है…चलो न दीदी आज औफिस से छुट्टि ले लो. घर चलते हैं.’’

‘‘नहीं बहुत काम है, बौस छुट्टी नहीं देगा…’’

‘‘पूछ कर तो देखो, शायद मिल जाए.’’

‘‘अच्छा कोशिश करती हूं,’’ कह उन्होंने जबरदस्ती मुसकराने की कोशिश की. फिर बौस के कमरे में चली गईं.

बौस के औफिस से निकलीं तो वह भी उन के साथ था, ‘‘अरे यह तो वही आदमी

है, जो दीदी को छोड़ने आता है,’’ मेरे मुंह से बेसाख्ता निकला. मैं ने चारों ओर नजर डाली. अच्छा हुआ आसपास कोई नहीं था. दीदी को इजाजत मिल गई थी. उन का बौस उन्हें बाहर तक छोड़ने आया. इस का मुझे कोई औचित्य नहीं लगा. मैं ने उन को कुरेदने के लिए कहा, ‘‘वाह दीदी, बड़ी शान है आप की. आप का बौस आप को बाहर तक छोड़ने आया. औफिस के सभी लोगों को आप से ईर्ष्या होती होगी.’’

दीदी फीकी सी हंसी हंस दीं, कुछ बोलीं नहीं. सास भी दीदी को जल्दी आया देख कर बहुत खुश हुईं.

रात को सभी गहरी नींद सो रहे थे कि अचानक दीदी के कमरे से उलटियां करने की आवाजें आने लगीं. मैं उन के कमरे की तरफ लपकी. वे कुरसी पर निढाल पड़ी थीं. मैं ने उन के माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘क्या बात है दीदी? ऐसा तो हम ने कुछ खाया नहीं कि आप को नुकसान करे फिर बदहजमी कैसे हो गई आप को?’’

फिर अचानक मेरा माथा ठकना कि कहीं दीदी…मैं ने उन के दोनों कंधे हिलाते हुए कहा, ‘‘दीदी कहीं आप का बौस… सच बताओ दीदी…इसीलिए आप इतनी सुस्त…बताओ न दीदी, मुझ से कुछ मत छिपाइए. मैं किसी को नहीं बताऊंगी. मेरा विश्वास करो.’’

मेरा प्यार भरा स्पर्श पा कर और सांत्वना भरे शब्द सुन कर वे मुझ से लिपट कर फूटफूट कर रोने लगीं और सकारात्मकता में सिर हिलाने लगीं. मैं सकते में आ गई कि कहीं ऐसी स्थिति न हो गई हो कि अबौर्शन भी न करवाया जा सके. मैं ने कहा, ‘‘दीदी, आप बिलकुल न घबराएं, मैं आप की पूरी मदद करूंगी. बस आप सारी बात मुझे सुना दीजिए…जरूर उस ने आप को धोखा दिया है.’’

दीदी ने धीरेधीरे कहना शुरू किया, ‘‘ये बौस नए नए ट्रांसफर हो कर मेरे औफिस में आए थे. आते ही उन्होंने मेरे में रुचि लेनी शुरू कर दी और एक दिन बोले कि उन की पत्नी की मृत्यु 2 साल पहले ही हुई है. घर उन को खाने को दौड़ता है, अकेलेपन से घबरा गए हैं, क्या मैं उन के जीवन के खालीपन को भरना चाहूंगी? मैं ने सोचा शादी तो मुझे करनी ही है, इसलिए मैं ने उन के प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी. मैं ने उन से कहा कि वे मेरे मम्मी पापा से मिल लें. उन्होंने कहा कि ठीक हूं, वे जल्दी घर आएंगे. मैं बहुत खुश थी कि चलो मेरी शादी को ले कर घर में सब बहुत परेशान हैं, सब उन से मिल कर बहुत खुश होंगे. एक दिन उन्होंने मुझे अपने घर पर आमंत्रित किया कि शादी से पहले मैं उन का घर तो देख लूं, जिस में मुझे भविष्य में रहना है. मैं उन की बातों में आ गई और उन के साथ उन के घर चली

गई. वहां उन के चेहरे से उन का बनावटी मुखौटा उतर गया. उन्होंने मेरे साथ बलात्कार किया और धमकी दी कि यदि मैं ने किसी को बताया तो उन के कैमरे में मेरे ऐसे फोटो हैं, जिन्हें देख कर मैं किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहूंगी. होश में आने के बाद जब मैं ने पूरे कमरे में नजर दौड़ाई तो मुझे पल भर की भी देर यह समझने में न लगी कि वह शादीशुदा है. उस समय उस की पत्नी कहीं गई होगी. मैं क्या करती, बदनामी के डर से मुंह बंद कर रखा था. मैं लुट गई, अब क्या करूं?’’ कह कर फिर फूटफूट कर रोने लगीं.

तब मैं ने उन को अपने से लिपटाते हुए कहा, ‘‘आप चिंता न करें दीदी. अब देखती हूं वह कैसे आप को ब्लैकमेल करता है. सब से पहले मेरी फ्रैंड डाक्टर के पास जा कर अबौर्शन की बात करते हैं. उस के बाद आप के बौस से निबटेंगे. आप की तो कोई गलती ही नहीं है.

आप डर रही थीं, इसी का फायदा तो वह उठा रहा था. अब आप निश्चिंत हो कर सो जाइए. मैं हूं न. आज मैं आप के कमरे में ही सोती हूं,’’ और फिर मैं ने मन ही मन सोचा कि अच्छा है, पति बाहर गए हैं और सासससुर का कमरा

दूर होने के कारण आवाज से उन की नींद नहीं खुली. थोड़ी ही देर में दोनों को गहरी नींद ने आ घेरा.

अगले दिन दोनों ननदभाभी किसी फ्रैंड के घर जाने का बहाना कर के डाक्टर

के पास जाने के लिए निकलीं. डाक्टर चैकअप कर बोलीं, ‘‘यदि 1 हफ्ता और निकल जाता तो अबौर्शन करवाना खतरनाक हो जाता. आप सही समय पर आ गई हैं.’’

मैं ने भावातिरेक में अपनी डाक्टर फ्रैंड को गले से लगा लिया.

वे बोलीं, ‘‘सरिता, तुम्हें पता है ऐसे कई केस रोज मेरे पास आते हैं. भोलीभाली लड़कियों को ये दरिंदे अपने जाल में फंसा लेते हैं और वे बदनामी के डर से सब सहती रहती हैं. लेकिन तुम तो स्कूल के जमाने से ही बड़ी हिम्मत वाली रही हो. याद है वह अमित जिस ने तुम्हें तंग करने की कोशिश की थी. तब तुम ने प्रिंसिपल से शिकायत कर के उसे स्कूल से निकलवा कर ही दम लिया था.’’

‘‘अरे विनीता, तुझे अभी तक याद है. सच, वे भी क्या दिन थे,’’ और फिर दोनों खिलखिला कर हंस पड़ीं.

पारुल के चेहरे पर भी आज बहुत दिनों बाद मुसकराहट दिखाई दी थी. अबौर्शन हो गया.

घर आ कर मैं अपनी सास से बोली, ‘‘दीदी को फ्रैंड के घर में चक्कर आ गया था, इसलिए डाक्टर के पास हो कर आई हैं. उन्होंने बताया

है कि खून की कमी है, खाने का ध्यान रखें और 1 हफ्ते की बैडरैस्ट लें. चिंता की कोई बात नहीं है.’’

सास ने दुखी मन से कहा, ‘‘मैं तो कब से कह रही हूं, खाने का ध्यान रखा करो, लेकिन मेरी कोई सुने तब न.’’

1 हफ्ते में ही दीदी भलीचंगी हो गईं. उन्होंने मुझे गले लगाते हुए कहा, ‘‘तुम कितनी अच्छी हो भाभी. मुझे मुसीबत से छुटकारा दिला दिया. तुम ने मां से भी बढ़ कर मेरा ध्यान रखा. मुझे तुम पर बहुत गर्व है…ऐसी भाभी सब को मिले.’’

‘‘अरे दीदी, पिक्चर अभी बाकी है. अभी तो उस दरिंदे से निबटना है.’’

1 हफ्ते बाद हम योजनानुसार बौस की पत्नी से मिलने के लिए गए. उन को उन के पति का सारा कच्चाचिट्ठा बयान किया, तो वे हैरान होते हुए बोलीं, ‘‘इन्होंने यहां भी नाटक शुरू कर दिया…लखनऊ से तो किसी तरह ट्रांसफर करवा कर यहां आए हैं कि शायद शहर बदलने से ये कुछ सुधर जाएं, लेकिन कोई…’’ कहते हुए वे रोआंसी हो गईं.

हम उन की बात सुन कर अवाक रह गए. सोचने लगे कि इस से पहले न जाने

कितनी लड़कियों को उस ने बरबाद किया होगा. उस की पत्नी ने फिर कहना शुरू

किया, ‘‘अब मैं इन्हें माफ नहीं करूंगी. सजा दिलवा कर ही रहूंगी. चलो पुलिस

स्टेशन चलते हैं. इन को इन के किए की सजा मिलनी ही चाहिए.’’

मैं ने कहा, ‘‘आप जैसी पत्नियां हों तो अपराध को बढ़ावा मिले ही नहीं. हमें आप पर गर्व है,’’ और फिर हम दोनों ननदभाभी उस की पत्नी के साथ पुलिस को ले कर बौस के पास उन के औफिस पहुंच गए.

पुलिस को और हम सब को देख कर वह हक्काबक्का रह गया. औफिस के सहकर्मी भी सकते में आ गए. उन में से एक लड़की भी आ कर हमारे साथ खड़ी हो गई. उस ने भी कहा कि उन्होंने उस के साथ भी दुर्व्यवहार किया है. पुलिस ने उन्हें अरैस्ट कर लिया. दीदी भावातिरेक में मेरे गले लग कर सिसकने लगीं. उन के आंसुओं ने सब कुछ कह डाला.

घर आ कर मैं ने सासससुर को कुछ नहीं बताया. पति से भी अबौर्शन वाली बात तो छिपा ली, मगर यह बता दिया कि वह दीदी को बहुत परेशान करता था.

सुनते ही उन्होंने मेरा माथा चूम लिया और बोले, ‘‘वाह, मुझे तुम पर गर्व है. तुम ने मेरी बहन को किसी के चंगुल में फंसने से बचा लिया. बीवी हो तो ऐसी.,’’

उन की बात सुन कर हम ननदभाभी दोनों एकदूसरे को देख मुसकरा दीं.

Hindi Love Stories : यादों के आंसू

Hindi Love Stories : सांझ ढलते ही थिरकने लगते थे उस के कदम. मचने लगता था शोर, ‘डौली… डौली… डौली…’ उस के एकएक ठुमके पर बरसने लगते थे नोट. फिर गड़ जाती थीं सब की ललचाई नजरें उस के मचलते अंगों पर. लोग उसे चारों ओर घेर कर अपने अंदर का उबाल जाहिर करते थे.

…और 7 साल बाद वह फिर दिख गई. मेरी उम्मीद के बिलकुल उलट. सोचा था कि जब अगली बार मुलाकात होगी, तो वह जरूर मराठी धोती पहने होगी और बालों का जूड़ा बांध कर उन में लगा दिए होंगे चमेली के फूल या पहले की तरह जींसटीशर्ट में, मेरी राह ताकती, उतनी ही हसीन… उतनी ही कमसिन… लेकिन आज नजारा बदला हुआ था. यह क्या… मेरे बचपन की डौल यहां आ कर डौली बन गई थी.

लकड़ी की मेज, जिस पर जरमन फूलदान में रंगबिरंगे डैने सजे हुए थे, से सटे हुए गद्देदार सोफे पर हम बैठे हुए थे. अचानक मेरी नजरें उस पर ठहर गई थीं.

वह मेरी उम्र की थी. बचपन में मेरा हाथ पकड़ कर वह मुझे अपने साथ स्कूल ले कर जाती थी. उन दिनों मेरा परिवार एशिया की सब से बड़ी झोंपड़पट्टी में शुमार धारावी इलाके में रहता था. हम ने वहां की तंग गलियों में बचपन बिताया था. वह मराठी परिवार से थी और मैं राजस्थानी ब्राह्मण परिवार का. उस के पिता आटोरिकशा चलाते थे और उस की मां रेलवे स्टेशन पर अंकुरित अनाज बेचती थी.

हर शुक्रवार को उस के घर में मछली बनती थी, इसलिए मेरी माताजी मुझे उस दिन उस के घर नहीं जाने देती थीं.

बड़ीबड़ी गगनचुंबी इमारतों के बीच धारावी की झोंपड़पट्टी में गुजरे लमहे आज भी मुझे याद आते हैं. उगते हुए सूरज की रोशनी पहले बड़ीबड़ी इमारतों में पहुंचती थी, फिर धारावी के बाशिंदों के पास. धारावी की झोंपड़पट्टी को ‘खोली’ के नाम से जाना जाता है. उन खोलियों की छतें टिन की चादरों से ढकी रहती हैं.

जब कभी वह मेरे घर आती, तो वापस अपने घर जाने का नाम ही नहीं लेती थी. वह अकसर मेरी माताजी के साथ रसोईघर में काम करने बैठ जाती थी. काम भी क्या… छीलतेछीलते आधा किलो मटर तो वह खुद खा जाती थी. माताजी को वह मेरे लिए बहुत पसंद थी, इसलिए वे उस से बहुत स्नेह रखती थीं.

हम कल्याण के बिड़ला कालेज में थर्ड ईयर तक साथ पढे़ थे. हम ने लोकल ट्रेनों में खूब धक्के खाए थे. कभीकभार हम कालेज से बंक मार कर खंडाला तक घूम आते थे. हर शुक्रवार को सिनेमाघर जाना हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया था. इसी बीच उस की मां की मौत हो गई. कुछ दिनों बाद उस के पिता उस के लिए एक नई मां ले आए थे.

ग्रेजुएशन पूरी करने के बाद मैं और पढ़ाई करने के लिए दिल्ली चला गया था. कई दिनों तक उस के बगैर मेरा मन नहीं लगा था. जैसेतैसे 7 साल निकल गए. एक दिन माताजी की चिट्ठी आई. उन्होंने बताया कि उस के घर वाले धारावी से मुंबई में कहीं और चले गए हैं.

7 साल बाद जब मैं लौट कर आया, तो अब उसे इतने बड़े महानगर में कहां ढूंढ़ता? मेरे पास उस का कोई पताठिकाना भी तो नहीं था. मेरे जाने के बाद उस ने माताजी के पास आना भी बंद कर दिया था. जब वह थी… ऐसा लगता था कि शायद वह मेरे लिए ही बनी हो. और जिंदगी इस कदर खुशगवार थी कि उसे बयां करना मुमकिन नहीं.

मेरा उस से रोज झगड़ा होता था. गुस्से के मारे मैं कई दिनों तक उस से बात ही नहीं करता था, तो वह रोरो कर अपना बुरा हाल कर लेती थी. खानापीना छोड़ देती थी. फिर बीमार पड़ जाती थी और जब डाक्टरों के इलाज से ठीक हो कर लौटती थी, तब मुझ से कहती थी, ‘तुम कितने मतलबी हो. एक बार भी आ कर पूछा नहीं कि तुम कैसी हो?’ जब वह ऐसा कहती, तब मैं एक बार हंस भी देता था और आंखों से आंसू भी टपक पड़ते थे.

मैं उसे कई बार समझाता कि ऐसी बात मत किया कर, जिस से हमारे बीच लड़ाई हो और फिर तुम बीमार पड़ जाओ. लेकिन उस की आदत तो जंगल जलेबी की तरह थी, जो मुझे भी गोलमाल कर देती थी. कुछ भी हो, पर मैं बहुत खुश था, सिवा पिताजी के जो हमेशा अपने ब्राह्मण होने का घमंड दिखाया करते थे.

एक दिन मेरे दोस्त नवीन ने मुझ से कहा, ‘‘यार पृथ्वी… अंधेरी वैस्ट में ‘रैडक्रौस’ नाम का बहुत शानदार बीयर बार है. वहां पर ‘डौली’ नाम की डांसर गजब का डांस करती है. तुम देखने चलोगे क्या? एकाध घूंट बीयर के भी मार लेना. मजा आ जाएगा.’’

बीयर बार के अंदर के हालात से मैं वाकिफ था. मेरा मन भी कच्चा हो रहा था कि अगर पुलिस ने रेड कर दी, तो पता नहीं क्या होगा… फिर भी मैं उस के साथ हो लिया. रात गहराने के साथ बीयर बार में रोशनी की चमक बढ़ने लगी थी. नकली धुआं उड़ने लगा था. धमाधम तेज म्यूजिक बजने लगा था.

अब इंतजार था डौली के डांस का. अगला नजारा मुझे चौंकाने वाला था. मैं गया तो डौली का डांस देखने था, पर साथ ले आया चिंता की रेखाएं. उसे देखते ही बार के माहौल में रूखापन दौड़ गया. इतने सालों बाद दिखी तो इस रूप में. उसे वहां देख कर मेरे अंदर आग फूट रही थी. मेरे अंदर का उबाल तो इतना ज्यादा था कि आंखें लाल हो आई थीं. आज वह मुझे अनजान सी आंखों से देख रही थी. इस से बड़ा दर्द मेरे लिए और क्या हो सकता था? उसे देखते ही, उस के साथ बिताई यादों के झरोखे खुल गए थे.

मुझे याद हो आया कि जब तक उस की मां जिंदा थीं, तब तक सब ठीक था. उन के मर जाने के बाद सब धुंधला सा गया था. उस की अल्हड़ हंसी पर आज ताले जड़े हुए थे. उस के होंठों पर दिखावे की मुसकान थी.

वह अपनेआप को इस कदर पेश कर रही थी, जैसे मुझे कुछ मालूम ही नहीं. वह रात को यहां डांसर का काम किया करती थी और रात की आखिरी लोकल ट्रेन से अपने घर चली जाती थी. उस का गाना खत्म होने तक बीयर की पूरी 2 बोतलें मेरे अंदर समा गई थीं.

मेरा सिर घूमने लगा था. मन तो हुआ उस पर हाथ उठाने का… पर एकाएक उस का बचपन का मासूम चेहरा मेरी आंखों के सामने तैर आया. मेरा बीयर बार में मन नहीं लग रहा था. आंखों में यादों के आंसू बह रहे थे. मैं उठ कर बाहर चला गया. नवीन तो नशे में चूर हो कर वहीं लुढ़क गया था.

मैं ने रात के 2 बजे तक रेलवे स्टेशन पर उस के आने का इंतजार किया. वह आई, तो उस का हाथ पकड़ कर मैं ने पूछा, ‘‘यह सब क्या है?’’ ‘‘तुम इतने दूर चले गए. पढ़ाई छूट गई. पापी पेट के लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम तो करना ही था. मैं क्या करती?

‘‘सौतेली मां के ताने सुनने से तो बेहतर था… मैं यहां आ गई. फिर क्या अच्छा, क्या बुरा…’’ उस ने कहा. ‘‘एक बार माताजी से आ कर मिल तो सकती थीं तुम?’’

‘‘हां… तुम्हारे साथ जीने की चाहत मन में लिए मैं गई थी तुम्हारी देहरी पर… लेकिन तुम्हारे दर पर मुझे ठोकर खानी पड़ी. ‘‘इस के बाद मन में ही दफना दिए अनगिनत सपने. खुशियों का सैलाब, जो मन में उमड़ रहा था, तुम्हारे पिता ने शांत कर दिया और मैं बैरंग लौट आई.’’

‘‘तुम्हें एक बार भी मेरा खयाल नहीं आया. कुछ और काम भी तो कर सकती थीं?’’ मैं ने कहा. ‘‘कहां जाती? जहां भी गई, सभी ने जिस्म की नुमाइश की मांग रखी. अब तुम ही बताओ, मैं क्या करती?’’

‘‘मैं जानता हूं कि तुम्हारा मन मैला नहीं है. कल से तुम यहां नहीं आओगी. किसी को कुछ कहनेसमझाने की जरूरत नहीं है. हम दोनों कल ही दिल्ली चले जाएंगे.’’ ‘‘अरे बाबू, क्यों मेरे लिए अपनी जिंदगी खराब कर रहे हो?’’

‘‘खबरदार जो आगे कुछ बोली. बस, कल मेरे घर आ जाना.’’ इतना कह कर मैं घर चला आया और वह अपने घर चली गई. रात सुबह होने के इंतजार में कटी. सुबह उठा, तो अखबार ने मेरे होश उड़ा दिए. एक खबर छपी थी, ‘रैडक्रौस बार की मशहूर डांसर डौली की नींद की ज्यादा गोलियां खाने से मौत.’

मेरा रोमरोम कांप उठा. मेरी खुशी का खजाना आज लुट गया और टूट गया प्यार का धागा. ‘‘शादी करने के लिए कहा था, मरने के लिए नहीं. मुझे इतना पराया समझ लिया, जो मुझे अकेला छोड़ कर चली गई? क्या मैं तुम्हारा बोझ उठाने लायक नहीं था? तुम्हें लाल साड़ी में देखने

की मेरी इच्छा को तुम ने क्यों दफना दिया?’’ मैं चिल्लाया और अपने कानों पर हथेलियां रखते हुए मैं ने आंखें भींच लीं.

बाहर से उड़ कर कुछ टूटे हुए डैने मेरे पास आ कर गिर गए थे. हवा से अखबार के पन्ने भी इधरउधर उड़ने लगे थे. माहौल में फिर सन्नाटा था. रूखापन था. गम से भरी उगती हुई सुबह थी वह.

Hindi Kahaniyan : उस मुलाकात के बाद

Hindi Kahaniyan : शादी के बाद महिला मित्र रखने की कल्पना निहायत सोशल मीडियाई चीज है. मगर चाह हम सब पतियों में होती है. अनेक छिप कर ऐसा करने में कामयाब भी हो जाते हैं. अमूमन अपनी पत्नी को उस के द्वारा ही सताए जाने की पीड़ा का एहसास करा कर. खैर, यह किस्सा ऐसे ही एक हब्बी का है.

सहूलत के लिए मान लीजिए उस का नाम आनंद है. अब साहब आनंद को 4 साल की डेटिंग और शादी के 9 साल बाद जो मिली, वह न तो कुंआरी थी और न ब्याहता और न ही डाइवोर्सी उस का पति एक रात गौतम बुद्ध की तरह उसे सोता छोड़ कर चला गया था. उस समय वह सो तो नहीं रही थी और यह भी यह सोच कर उस के दर से उठा था कि वह रोक लेगी, मना लेगी उसे पर वह बेचारा फिल्मी तर्ज पर बढ़ता दूसरे शहर जा पहुंचा जहां उस ने एक नई नौकरी तलाशी, एक नया मकान किराए पर लिया.

अब जब आनंद एक दफ्तर में मुंह बनाए इस चौराहे पर देवी से मिला तो उसे एक पुरुष की तलाश थी, जो सहारा तो बने, पर कहे नहीं कि वह सहारा है. आप समझे कि नहीं. मतलब दे, पर ले नहीं. एहसान करे, जताए नहीं. जब बुलाए आए, जब कहे जा तो जाए. घूमने, पब या बार में जाने और खाना खाने के लिए वह अकेली थी, पर वैसे जमाने के लिए शादीशुदा.

खैर, आनंद भी अपनी पत्नी के भरपूर सताए जाने के बाद भी उसे छोड़ने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था. छोड़ भी दे तो दोबारा शादी करने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था. लिहाजा, उसे भी यह स्थिति बड़ी सहज लग रही थी. वह भी चाहता था कि कोई उसे पत्नी का सुख दे, पर उस पर पत्नी बन कर लदे नहीं. दोनों तरफ से बराबर का मुकाबला था. वे लोग आहिस्ताआहिस्ता एकदूसरे की तरफ बढ़ रहे थे. देखतेदेखते 1 साल गुजर गया. दोनों एकदूसरे के दफ्तर में बेमतलब के काम निकाल कर आतेजाते रहते.

एक दिन वह बोली, ‘‘एक काम करोगे?’’

‘‘और सालभर से क्या रह रहा हूं,’’ वह बोला.

‘‘मैं अपने उस से मिलना चाहती हूं. मुझे मिलवाने चलो.’’

‘‘कहां?’’

‘‘वहीं जहां वह रहता है.’’

‘‘मिल कर क्या करोगी?’’

‘‘दोदो हाथ.’’

‘‘और मैं?’’

‘‘तुम बस वापस ले आना,’’ वह बोली.

मतलब साफ था. वह अपने उस से समझौता करना चाहती थी और अब आनंद को स्टैपिनी की तरह इस्तेमाल कर रही थी. आनंद को ऐसी चुहलबाजी में काफी मजा आता था. बहरहाल, पिया के शहर का सफर शुरू हुआ. उस ने अपनी गाड़ी उठाई और उसे बराबर की सीट पर बैठा कर उसे ले चला.

रास्तेभर वह रिहर्सल करती रही. ‘वह यह कहेगा तो मैं यह कहूंगी. पहली बार हम कहां मिले थे. आखिरी बार क्या बातें हुई थीं?’

आनंद की तसल्ली के लिए वह उस से भी पूछती रहती थी कि तुम पहली बार अपनी वाली से कहां मिले थे? तुम उस की जगह होते तो क्या कहते, क्या करते?

बड़ी हिम्मत कर के बीच आधे सफर में आनंद ने पूछा, ‘‘तुम लोगों का मिलन हो गया तो मेरा क्या होगा?’’

‘‘होना क्या है, हम लोग ऐसे ही मिलते रहेंगे. अरे, तुम देख लेना समझौता मेरी शर्तों पर होगा… तुम उसे जानते नहीं हो. वह इतने छोटे दिल वाला नहीं है. अरे, शादी से पहले और शादी के बाद मेरे दोस्त अकसर घर आते थे,’’ वह तन कर बोली.

‘‘क्या उस की महिला दोस्त भी?’’

‘‘नहीं, वह नहीं. पर मुझे कोई एतराज

नहीं होता.’’

‘‘पर कहीं तुम्हारी शादी इस वजह से तो नहीं टूटी कि तुम्हारे मेल फ्रैंड्स थे?’’

‘‘नहीं, मुझे तो नहीं लगता.’’

ऐसी सब बातों के बीच सफर किसी तरह खत्म हुआ. अब हम दोनों एक होटल में थे. उस ने सूटकेस से बढि़या साड़ी निकाल कर पहनी. एक पार्लर से फेशियल करवाया. सैंट छिड़का और आनंद को छोड़ कर वह अपने खोए पति को फिर पाने के लिए उस के घर की ओर चल दी. मेरी गाड़ी ही चला कर.

2 घंटे का वादा कर के गई थी. मगर जब 5 घंटे बाद तक नहीं लौटी तो आनंद समझ गया कि उन का घर फिर बस गया. उसे अचानक अपने बीवीबच्चों की याद आ गई. उस ने नींद की 2 गोलियां खाईं और सो गया कि अगले दिन वापस चलने की तैयारी की जाए.

आधी रात के बाद दरवाजे पर हलकी सी दस्तक हुई. आनंद हड़बड़ा कर उठा पर ठिठका कि कहीं वह साथ में तो नहीं आया. हो सकता है भावुकता में उस ने सबकुछ मान लिया हो. पर तभी उसे याद आया कि वह ऐसी नहीं है.

वही थी. जीवन में फिर बहार थी. मुसकान लौट आई थी. बिंदी अपनी जगह से फैल गई थी. बाल बिखरे थे, होंठों की गहरी लिपस्टिक हट चुकी थी. शायद उस के मुंह में जा चुकी थी.

‘‘मुबारक हो.’’

‘‘ओह, छोड़ो यार,’’ उस ने आनंद को पहली बार यार कहा था, ‘‘हो गया.’’

‘‘होना क्या था? तुम सब आदमी सिर्फ औरत को झुकाना जानते हो,’’ वह काफी उत्तेजित थी.

मैं ने छेड़ना ठीक नहीं सम. वह कुछ देर रोती रही. फिर हंसने लगी. फिर पता नहीं कब हम दोनों सो गए.

सुबह चाय पर बात हुई. फैसला यह हुआ था कि  लड़ कर उस ने उसे निकाला था, वह पहल नहीं करेगा. अगर वह चाहे तो लड़के के जीवन में अपने लिए जगह तलाश कर सकती है.

मैं ने कहा, ‘‘हिंदी की ठोस कविता बंद करो. साफसाफ बताओ उस ने तुम्हें छुआ?’’

‘‘हां. बस बात बन गई.’’

‘‘अब घर चलें?’’ मैं ने पूछा.

‘‘नहीं, अभी मिलना है. आज भी और

कल भी.’’

‘‘तो मिलो. दिक्कत क्या है.’’

‘‘और तुम?’’

‘‘मैं भी मिल लेता हूं,’’ मैं ने हिचकते हुए कहा.

‘‘गड़गड़ मत करो. देखो, बात बड़ी साफ है. हमारे बीच जो गुजर गया वह लौट नहीं सकता. यह तो जमाने के तानों से बचने के लिए मैं ने पहल ही है वरना न मुझे उस की जरूरत है और न उसे मेरी. वह अलग शहर में रहेगा, मैं अलग. उस के पास मुझे पालने के लिए पैसे नहीं हैं. शादी से पहले के रोमानी खयाल अब पीले पड़ चुके हैं. जिंदगी की हकीकत में अब इश्क नहीं नाटक होगा,’’ वह सीरियस हो कर बोली.

‘‘मेरा क्या होगा जानेमन?’’

‘‘तुम तो शादी के लिए पहले भी तैयार नहीं थे. लिहाजा, वही होगा जो अब तक होता रहा है. हम लोग अच्छे दोस्त हैं और रहेंगे. पर अब तो तुम लोग एक मुलाकात और नजदीक आ गए हो. जब की तब देखी जाएगी,’’ उस के पास मानो जवाब तैयार था.

दोनों वापस अपने शहर लौट आए. इस बीच आनंद की बीवी को पता लग गया कि वह 2 रोज क्या करता रहा है.

शहर पहुंचने के अगले दिन आनंद दफ्तर आया तो उस के गालों और गले पर नाखूनों के गहरे निशान थे. रात को जम कर लड़ाई हुई लगता है.

अब निष्कर्ष यही है कि आनंद भी पत्नी को सोता छोड़ दूसरे शहर जा कर रहेगा.

कहानी का मोरल यही है कि किसी की सुताई हुई, छोड़ी हुई का खयाल रखना गरम रौड पर हाथ रखना होता है. छोड़ी हुई के मन को समझना आसान नहीं है.

Hasya Vyangya : गौसिप सर्विस

Hasya Vyangya : रचना का अति कोमल मन अपने घर में न जाने क्यों झुंझलाया सा रहता था. उस की हालत ऐसी होती थी जैसे रेस के घोड़े को खूंटे से बांध दिया गया होपरवह रस्सी तुड़ा कर मैदान में दौड़ने को उतावला हो रहा हो.

हर काम को जल्दी से जल्दी निबटाने की चेष्टा में रचना बेहाल रहती. वह एक हाथ से कंप्यूटर पर डेटा ऐंट्री कर रही होती तो दूसरे से मोबाइल पर व्हाट्सऐप और फेसबुक देखती. जो इक्कादुक्का कागज उस की मेज पर पहुंच जाते उन्हें जल्दीजल्दी लिबटा कर आधे कमेंट्स के साथ, ईमेलों में बिना पढ़े आई ऐग्री, मे बी, ओके करती जाती.

हर समय अपने काम में ही उलझे रहो, यह भी कोई जीना है भला? दिनभर में 2-4 बार दूसरों के डैस्कों का चक्कर लगाए बिना रचना का हाजमा गड़बड़ा जाता.

कभी रामेश्वरी के छोटेछोटे बच्चों में से कोई बीमार पड़ जाए तो तुरंत इंटरनैट से ही सूप और दलिया आदि की रैसिपी के प्रिंट आउट दे देती. उस का ड्रिंक्स का कुछ ज्यादा आदी पति तो कुछ ध्यान रखने से रहा. जितनी देर वह सूप आदि बनाने की रैसिपी बताएगी, उस के मोबाइल से सूप और्डर कर के उसी के घर पहुंचा न दे, उसे चैन नहीं मिलता. उस दौरान दुखियारी दूसरे डैस्कों पर काम में बिजी रामेश्वरी के दिल का कितना सारा बोझ उस की जबान से बाहर उगलवा कर अपने मन पर लाद लाएगी. कोई मिला तो थोड़ा बांट भी लेगी.

पहले इस तरह के चिंता के गट्ठरों को संभालने का कार्य घरेलू औरतें करती थीं. बात से बात निकलती थी और कई घरों के निरीक्षणपरीक्षण हो जाया करते थे. जवान लोग तो उन की अनुभव की पिटारियों से निकले अजूबों पर केवल हंसतेखिलखिलाते ही थे, पर रचना तो आज के जमाने की है. हर व्यक्ति इंटरनैट के रौकेट की रफ्तार से बात कर रहा है. फिर भला वह इतने महान कार्यों को घरेलू औरतों पर कैसे छोड़ सकती थी. फिर बड़े लोग भी तो कह गए हैं कि डू नाऊ, व्हाट यू कैन डू टुमारो. आज की गौसिप आज ही फैलाने में ऐक्सपर्ट थी रचना.

रचना इस बात का पालन करने में तनिक भी कंजूसी नहीं बरतना चाहती. आखिर जीवन के 29 बर्थडे मना लिए. अब अपने अनुभव और ज्ञान का सार औरों को भी बांट कर सब का उपकार करना ही तो ह्यूमन सर्विस है. वह इस का अक्षरश: पालन कर रही है.

अकसर वाणी सुब्रामणियम को घर जा कर रचना दक्षिण भारतीय रेस्तरां में डोसा, इडली, पोंगल की प्रेज करती.

एक दिन कौफी पीते हुए बोली, ‘‘वाणी, आप के होते हुए भी हम लोग डोसा और इडली उस छोटे ढाबे में खाएं. यह तो दुख की बात है. एक दिन सब को अपने घर बना कर औफिस में ला कर साउथ इंडियन डिशेज खिला.’’

‘‘क्यों नहीं रचना, तुम जब कहो मैं तैयार हूं,’’ वाणी अपनी साउथ इंडियन डिशेज की प्रशंसा से अभिभूत हो कर बोली.

रचना गदगद हो सैकड़ों थैंक्स दे कौफी का अंतिम घूंट गटक कर उमा और नीता के पास पहुंच गई.

फाइल में कार्य कर रही नीता की फाइल बंद कर उसे घसीट लाई. उमा के दराज में अपने हाथ से ताला लगा औफिस में बने इटिंग कौर्नर में औनलाइन डिलिवरी का इंतजार करती सब को विवश कर अपनी तारीफ के पुल बांधने लगी, ‘‘देखो भई, मुझे तुम लोगों का कितना

ध्यान रहता है. वाणी को तुम सब कंजूस कहती थीं पर पीठ ठोको मेरी, सब की दावत का प्रबंध कर के आ रही हूं,’’ और फिर उन्हें सारी बात बता दी.

‘‘मान गए रचना तुम्हें,’’ कह उमा ने उसे गुब्बारे सा फुला दिया, ‘‘वैसे तो हमें भी सब आता है बनाना खाने वाला उंगली चाटता रह जाए पर वाणी से मंगवा लेने वाले खाने का आग्रह तो पूरा करना था न.’’

कभीकभी ऐसे अवसरों पर रचना को कलीग्स की मीठीमीठी चोट से भी दोचार होना पड़ता था पर वह वार फ्रंट में साहसपूर्वक डटी रहती थी.

उमा की अन्य सहेली बोली, ‘‘भई रचना, तुम्हारी मां के हाथ के गुलाबजामुन और दहीवड़े खाए अरसा हो गया. हमारी मां लाख कोशिश करें, वैसा बना ही नहीं पातीं.’’

अंदर ही अंदर रचना चिहुंक उठी पर अधरों पर राजसी मुसकराहट तैरने लगी. फिर बोली कि शीघ्र ही मां से कह कर जल्दी ही घर में चाय पार्टी करूंगी. फिर वहां से चली गई. राह में हैरत से सोचती रही कि यह उमा वगैरह तो बड़ी तेज होती जा रही हैं.

फिर भी रचना की सेवाभावना में कोई अंतर नहीं आता. सुमिता की बेटी सुनीता को कोई लड़का उन के घर देखने आने वाला था. रचना ने पहले ही कह दिया, ‘‘सुमिता, मैं तेरी छोटी बहन के समान ही हूं. कोई संकोच मत करना. सर्व करने और सुनीता को तैयार करने का जिम्मा तुम मुझ पर छोड़ दे.’’

लड़के के मिलने के अगले दिन सहेलियों के साथ कहीं बैठक जम गई. सुमिता उस में नहीं थी. एक सहेली ने पूछा, ‘‘कहो रचना, कल तो तुम खूब बिजी रही होगी. तुम ही कल की मुख्य अतिथि बनी रही होगी हुआ क्या?’’

‘‘अरे, रहने भी दो,’’ रचना मुंह चिढ़ाने का अभिनय करती. बोली, ‘‘क्या करूं, किसी की हैल्प करना मुझे अच्छा लगता है. सुमिता के होश तो लड़के के आने के नाम से ही गुम हो जाते हैं. मैं ने कहा कि चलो सहेली है सपोर्ट करने में हरज नहीं. मेरे अलावा और तो किसी को बुलाया तक नहीं था उस ने.’’

‘‘सामान क्याक्या आया, यह तो बताओ? सारी सहेलियां सुमिता की गैरमौजूदगी में उस के मुंह से रनिंग कमैंटरी सुनने को बेचैन हो उठीं.’’

रचना ने बिदक कर मुंह बनाते हुए कहा, ‘‘न ही पूछो तो अच्छा है,’’ सनसनी फैला कर रचना ने सब के हावभाव देखे, फिर बोली, ‘‘अपनी फ्रैंड की इज्जत रखने के लिए मैं ज्यादा तो नहीं बता सकती पर लड़के के साथ भाभी, मां, बाप, छोटी बहन आई थी. एक कोई बूआ टाइप भी थी. अच्छी बरात थी.’’

थोड़ी देर चुक रह रचना ने फिर जोड़ा, ‘‘वह तो मैं ने संभाल लिया वरना सुमिता अकेले इतनों को कैसे हैंडल कर पाती.’’

‘‘छोड़ो मैं सब जानती हूं. यह बताओं कि सुनीता ने लड़के से बात की भी या नहीं? क्या वह राजी हो गई,’’ एक सहेली ने पूछा.

रचना अब सतर्क हो कर मुसकरा उठी, ‘‘तुम भी नीता सारी बातें कहलवा कर ही रहोगी. ऐसे में लोग कहते तो यही हैं न कि लड़की तो पसंद है, पर सोच कर बताएंगे. बाद में पता चला कि सुनीता ने खुद ही मां को मना कर दिया.

किसी की खुशी में सम्मिलित होने में रचना सदा तत्परता दिखाती थी. उसे डिस्टैंस की चिंता रहती थी और न बारिश का डर.

वंदना का नाम विशेष योग्यता की सूची में आ गया तो रचना बारिश में भाग कर बधाई दे आई.

अगली सुबह वाणी ने पूछा, ‘‘कल तुम बारिश में भाग कर कहां जा रही थी?’’

‘‘तुझे पता नहीं? वंदना का नाम विशेष योग्यता की सूची में आ गया है?’’

‘‘वह तो शुरू से ही बहुत होशियार है.’’

‘‘वाणी, क्या तुम होशियार नहीं हो? बस तुम वंदना की तरह रातदिन रटती नहीं रहती हो.’’

दरअसल, वाणी 1-2 ऐग्जाम्स में अव्वल आने से रह गई थी.

वाणी उस का आशय समझने की चेष्टा किए बिना पूछ बैठी, ‘‘हां रचना तुम

भी तो कहीं इंटरव्यू दे कर आई थी. क्या हुआ उस का?’’

रचना ने मुसकरा कर लापरवाही से बात बदल दी.

शीला उन की अच्छी सहेली है. एक बार वह बीमार पड़ गई. अब उस की अस्वस्थता की बात सुनते ही रचना शाम को रोज वहां पहुंचने लगी. उस के घर में इस तरह जाने को वह न जाने कब से तरस रही थी पर ‘जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ.’

रचना रोज पनीरपकोड़े और चौकलेटपेस्ट्री उड़ाती रही. अनुभव के मोती बटोरती रही. फिर एक दिन पुरानी बैठक में अपनी प्रशंसा सुन कर गदगद होती बोल उठी, ‘‘क्या करूं, जाना ही पड़ा. उस बेचारी को पूछने वाला कौन है? घर में सिर्फ उस का हसबैंड ही है न पर वह तो पक्का फ्लर्ट लगा मुझे.

‘‘क्योंक्यों?’’ उत्सुक आवाजों ने रचना को घेर लिया.

‘‘देखो भई, मेरी शिकायत मत कर देना पर अपनी आंखों से अब तो देख लिया. शीला के हब्बी की पीए क्या पटाखा चीज है. वह भी हर रोज शीला को देखने आती और पूरी किचन संभालती रही.’’

‘‘हाय सच? कैसी है? वह शीला के सामने कैसे आ गई?’’ सहेलियों की बढ़ती उत्सुकता से रचनाका चेहरा विजयी पताका सा फहराने लगा.

‘‘न पूछो बाबा, शीला के हब्बी ने मेरे सामने ही उस बीमार से जिस तरह लड़ाई की उस से दिल दहल गया.’’

‘‘पर पूरा किस्सा तो सुनाओ,’’ उमा ने रचना को टोका तो वह चिहुंक उठी, ‘‘न बाबा, कल यह बात फैलेगी तो मेरा ही नाम बदनाम होगा,’’ वह रंग फैला कर कदम बचाने लगी.

‘‘लेकिन तुम बहुत तेज हो रचना,’’ उमा ने हंस कर कहा, ‘‘सेवा कर के मजे से पूरा सीन देख आई. हम लोग तो खाली हवा में ही सुनीसुनाई अटकलें लगाया करते थे.’’

‘‘यह लो, एक तो किसी के काम आओ ऊपर से बातें सुनो,’’ रचना बिदक उठी.

‘‘भई, तुम्हारे जैसी सहेली भी अगर यों बुरा मानेगी तो हम मजाक किस से करेंगे?’’ उमा ने बात पलट कर कहा.

रचना उठते हुए सोचने लगी कि यह उमा तो शतरंज की गोटियों की तरह शह और मात देने लगी है. फिर हंसने का उपक्रम करती हुई बोली, ‘‘मुझे क्या अपना कोई काम नहीं है? तुम लोगों ने तो मुझे फालतू ही समझ लिया है,’’ और वह चली गई.

तब रचना की अंतरंग सहेलियों की खिलखिलाहट के मध्य एक नवपरिचिता बोली, ‘‘इन का हब्बी तो कालेज में पढ़ाता है न?’’

‘‘हां,’’ नीता ने जवाब दिया.

‘‘कितनी सिगरेट पीता है भई और जब देखो तब एमए की स्टूडैंट्स से घिरा रहता है. एक दिन तो मैं ने पिक्चरहौल में देखा था.’’

रचना की अंतरंग सहेलियां आंखों ही आंखों में मुसकरा पड़ीं.

‘‘बेचारी ने बचत करने के लिए मेड भी फुलटाइम नहीं लगा रखी है,’’ एक अन्य स्वर फूटा तो रचना का भेद देने वाली नवपरिचिता ने फिर बातों की कड़ी संभाल ली.

आवाजों के घेरे से दूर तेज कदमों से चलती हुई रचना घर पहुंची. ताला खोल कर घर में बिखरी चीजों को समेटते हुए सोचने लगी कि अपना घर छोड़ कर इन लोगों के लिए दिनरात भागती रहती हूं, पर सब ऐसी ही हैं और फिर गुस्से में उस ने उन के पास फिर कभी न जाने तक की बात सोच ली.

अगली सुबह फिर सूरज उगा. रोशनी के फैलते सागर में रचना का मन हुलसने लगा. हाथ फिर तीव्र गति से काम निबटाने में जुट गए. गौसिप की रोशनी को तो हर डैस्क में बिना बुलाए फैलना ही है. भला सहेलियों का क्या बुरा मानना, जब सेवा ही अपना परपज हो.

Mobile के अनहैल्दी इफैक्ट्स

Mobile : मोबाइल चैटिंग, मोबाइल गेम्स, मोबाइल रील्स, मोबाइल पोर्न असल में होता ही बड़ा अट्रैक्टिव है पर क्या काम का होता है? अगर दुनिया के यूथ आज अनइंप्लौयमैंट फेस कर रहे हैं तो इसलिए कि वे अनइंप्लौऐबल हैं. उन की नौलेज सिर्फ मोबाइल तक लिमिटेड है. वे सिर उठा कर देखते तक नहीं कि उन के साथ या उन के सामने क्या हो रहा है.

मोबाइल पर जो कंटैंट आ रहा है वह बहुत ज्यादा रैगूलेटेड है. वह कुछ लोगों की सोच पर डिपैंड करता है जो आप के देश, समाज, फैमिली से कहीं भी कनैक्टेड नहीं है. वे आप की चाहत को अपने ऐडवर्टाइजर्स की मांग के अनुसार मोल्ड करते हैं. वे आप को बदल रहे हैं, आप अपनी इच्छानुसार कुछ भी नहीं देख रहे या देख सकते.

यह मैंटल स्लैवरी है और जो जैनरेशन उस की गुलाम हो  जाए चाहे वह खुद को जैडजैड कह कर बैंड बजा ले पर असल में बैंड उस का बज रहा है. उसे स्लेवों की तरह घटिया काम करने को मजबूर किया जा रहा है और 40-45 तक होतेहोते वे अंधे और बहरे से होने लगें तो कोई सरप्राइज नहीं होगा.

यह जानकारी भी आप को मोबाइल पर नहीं मिलेगी क्योंकि मोबाइल प्लेटफौर्म हर इन्फौर्मेशन को सैंसर कर सकते हैं. वे आप को आधेअधूरे जवाब दे कर टरका सकते हैं.

जैनरेशन जैड अब कई बार्स के पीछे बंद होने वाली है. मैंटल बार्स जो लोहे की छड़ों से ज्यादा मजबूत हैं और जिन की चाबी किसी के पास नहीं है.

हर समय कान में इयर पैड्स लगाए रखना न केवल यूजुअल ऐटीकेट के खिलाफ है, यह कानों के लिए भी डैंजरस है. अब लगभग सारी दुनिया के डाक्टर और साइंटिस्ट इस बात को दोहरा रहे हैं कि हर समय कानों पर केवल मैकैनिकल साउंड सुनना अननैचुरल है और यह ह्यूमन सेफ्टी नैचुरल इंस्टिक्ट को किल भी कर रही है. बहुत छोटे बच्चों में यह स्पीच डिले और वर्चुअल औटिज्म जैसी बीमारियां पैदा कर रही है.

मोबाइल रैवोल्यूशन अपनेआप में अच्छी लगती है कि दुनियाभर का ज्ञान आप की मुट्ठी में है और आप कभी भी अकेले नहीं हैं और हर समय दोस्त बस एक क्लिक अवे हैं. यह कहनेसुनने में अच्छा लगता है. एक तरह से यह है ऐडिक्शन ड्रग्स और ड्रिंकिंग के ऐडिक्ट इन्हें लाइफस्टाइल और लाइफ

सपोर्ट सिस्टम मानते हैं क्योंकि वे इस पर डिपैंड हो चुके होते हैं और इसी तरह मोबाइल ऐडिक्ट इसे ऐडिक्शन नहीं लाइफ सपोर्ट मान रहे हैं.

मोबाइल बात करने के लिए तो ठीक है पर हर समय

फिल्म देखना, मोबाइल गेम्स में बिजी रहना, बेकार की गप्पें उन दोस्तों से मारना जिन्हें फिजीकली महीनों से नहीं देखा एक आर्टिफिशियल लाइफ की ओर ले जाता है. चाहे मोबाइल में

कितने ही गुण हों असल में यह है तो सिर्फ स्क्रीन ही है न जो इस कदर हावी हो गई है कि लोगों को उस ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है.

तो पुरुष हावी नहीं हो पाएगा

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने महिला दिवस के अवसर पर औपचारिकता निभाते समय औरतों के लिए जो संदेश दिया है वह खासा कन्फ्यूजिंग है. एक तरफ वे औरतों की बराबरी की वकालत करती हैं और उन्हें पुरुषों के समक्ष अवसर दिलाने की बात करती हैं, दूसरी तरफ बच्चे पैदा करते समय उन्हें दफ्तरोंफैक्टरियों से लंबी छुट्टी दिलाने की बात करती हैं कि इसी से समाज में सफल बच्चे पैदा होंगे.

एक तरह से वे पुरानी बात दोहरा रही हैं कि बच्चों को पैदा करना तो औरतों का प्राकृतिक कर्तव्य है ही, उन्हें पालना भी उन की और सिर्फ उन की जिम्मेदारी है. वे अपने भाषण में पिताओं पर कोई जिम्मेदारी नहीं डालतीं.

असल में औरतों पर बच्चों की इकलौती जिम्मेदारी उन के प्रति सब से बड़ा अन्याय है. प्रकृति ने चाहे जो भी हमें बनाया हो पर पिछले 10 हजार सालों में मानव सभ्यता के विकास ने प्रकृति की दी गई चीजों को बहुत बदला है.

प्रकृति ने मंदिर, चर्च, मसजिदें, गुरुद्वारे, बौधमठ नहीं दिए थे पर हम ने बनाए और उन के लिए मरनामारना सीखा. प्रकृति ने शहर बनाना, राज्य बनाना, सेनाएं बनाना नहीं सिखाया पर मानव इतिहास उन्हीं का इतिहास है.

प्रकृति ने मां को बच्चे पैदा करने की जिम्मेदारी दी पर उन्हें पालना पिता की जिम्मेदारी भी क्यों नहीं हो सकती? जब पूजापाठ करना हो, सैनिक ट्रैनिंग देनी हो, खेती और उद्योग में लगना हो तो पुरुष ने वे काम किए जो प्रकृति ने नहीं दिए थे. उन्होंने मांओं से उन की संतानें छीन लीं और उन्हें अपने कामों में लगा दिया. जब बड़े हो कर बेटों को ऊपर के गिनाए कामों में लगा दिया जा सकता है और बेटियों को दूसरे घरों में ब्याह कर सैक्स औब्जैक्ट बनाने की छूट पुरुष को दी जा सकती है तो बचपन में पालने की जिम्मेदारी पुरुष को क्यों नहीं दी जा सकती?

असल में मैटरनिटी लीव सिर्फ पुरुषों को मिलनी चाहिए और प्रैंगनैंसी लीव औरतों को. औरतें बच्चे पैदा कर के तुरंत बच्चों को पिताओं के हवाले कर काम पर पहुंच जाएं.

बच्चों की देखभाल करने के लिए पति व पत्नी दोनों को एकएक कर के बराबर के दिनों में छुट्टी मिलनी चाहिए ताकि पुरुष समझ सकें कि बच्चे पालना किस तरह का काम है और काम की जगह पर बच्चों वाले जोड़ों में दोनों को बराबर अनुभव का डिसएडवांटेज हो. आजकल लड़कियां लंबी छुट्टी पर जाती हैं और फिर छुट्टी बढ़वाती रहती हैं. पति और पत्नी बांट कर छुट्टियां लेंगे तो दोनों बराबर काम के अनुभवों में पीछे रहेंगे और फिर पुरुष हावी नहीं हो पाएगा.

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