कृषि कानूनों की तरह न हो जाएं अग्निवीर

अग्निपथ स्कीम की चर्चा के दौरान भारतीय सेनाओं के अफसरों की चर्चा न के बराबर हो रही है. जहां लाखों युवा आम्र्ड फोसर्स में नौकरी पाने के अवसर खोने पर पूरे देश में ट्रेनें, बसें, भाजपा कार्यालय, सरकारी संपत्ति जला रहे हैं, करीब 1 लाख अफसरों वाली सेना योग्य व कर्मठ अफसरों की कमी से जूझ रही है.

छठे व 7वें सैंट्रल पे कमीशन में अफसरों के वेतन काफी बढ़ गए हैं और बहुत ही सुविधाएं भी आम्र्स फोर्र्सेस के अफसरों की मिल जाती है जो वेतन में नहीं गिनी जातीं, अफसरों में कमी सरकार के लिए एक चिंता बनी है.

अफसरों को लगता है कि वे जो जोखिम लेते हैं, जिस तरह उन के बच्चों को तबदिलों की वजह से भटकना पड़ता है, सेना को औफिस लाइफ क्लालिटी युवा सेवा में नौकरी पाने को बेचैन नहीं दिखते. जहां आम रोजमर्रा के लिए लाखों युवा कस कर मेहनत करते दिखते हैं, पढ़ेलिखे परिवारों के बच्चे आईआईटी, नीट, क्लैट, एमबीए आदि की तैयारी में लगे रहते हैं. भारतीय जनता पार्टी अपनी सोच पर बहुत गरूर करती है पर उस के नेताओं में अपने बच्चों को सेना में भेजने की रूचि न के बराबर है.

अग्निवीर योजना का एक लाभ जरूर है कि जो युवा 21 से 25 साल तक रिटायर होंगे उन की शादी हुई ही नहीं होगी और सैनिक विडोज तो कम दिखेंगे. जो सेना में रह जाएंगे उन की औरतें विधवा होने का पूरा रिस्क लेती है क्योंकि सेना जिंदगी भर की पेंशन देने का वादा करती हैं.

अफसरों के लिए आज भारी क्वालिकेशन की जरूरत है क्योंकि सेना भी अब आधुनिक होती जा रही है और जो समान विदेशों से खरीदा जहा रहा है, चाहे हवाई जहाज हो, सब मेरीम हो, टैंक हों, उन में कंप्यूटरों की जरूरत होती है. आज की लड़ाई में चाहे अफसर पीछे रहें, जोखिम बराबर का बना रहता है और पढ़ेलिखे कमीशंड औफिसर बच्चे की कोई रूचि नहीं दिखा रहे.

भारत का लैंड बौर्डर 15,000 किलोमीटर कम है और 7,500 किलोमीटर सी बौर्डर है और हर जगह फैसले लेने के लिए अफसर स्पौट पर चाहिए होते है पर सरकार की सुविधाओं की घोषणाओं, बड़ेबड़े विज्ञापनों के बावजूद ‘देशभक्त’ युवा इस नौकरी में ज्यादा आगे नहीं आ रहे. अफसरों में दलित व मुसलिम न के बराबर लिए जाते हैं और ये वर्ग पढ़लिख कर भी कोई रूचि नहीं दिखाते क्योंकि समाज की छूआछूत की भावना को आर्मी की खास ट्रेनिंग भी पूरी तरह गला नहीं पाती. अच्छे घरों के मांबाप अपने इललौते से बच्चों को इस जोखिम की नौकरी में भेजना ही नहीं चाहते. यह स्थिति अग्निवीरों से बिलकुल उलट है जहां लाखों सैनिक बच्चे के लिए टैस्ट की तैयारी में खुद को महिनों तक बुरी तरह थका रहे हैं. ऐसा अफसर बनने में न के बराबर हो रहा है. देश के अखबारों में सैनिक अफसर बनने की परिक्षाओं की कोिचग के विज्ञापन लगभग नहीं दिखते क्योंकि इस में बहुत कम का इंट्रस्ट है.

शौर्ट सर्विस कमीशन के अफसर आर्मी की ट्रेनिंग के बाद अक्सर रिटायर हो कर निजी सैक्टर में नौकरी पाने का मौका ढूंढऩे लगते हैं क्योंकि अब वे शहरों की जिंदगी का मजा लेना चाहते हैं और रेगिस्तान, पहाड़ी, दुर्गम या कोस्टल विरान इलाकों में खुश नहीं रहते. निजी सैक्टर बिना जोखिम वाली अच्छी नौकरियां शौर्ट सॢवस कमीशंड अफसरों को देना हैं और रिटायरमैंट लेना अक्लमंदी लगती है जबकि अग्निवीरों के लिए उल्टी रिटायरमैंट एक सूसाइड की तरह है.

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कथाओं और मान्यताओं पर प्रहार

सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में औरतों को शेयर्ड हाउसहोल्ड में रहने का अधिकार दे कर एक नया दौर शुरू किया है. सताई हुई औरतें कहां जाएं, कौन सी छत ढूंढ़ें, यह सवाल बहुत बड़ा है. जो किसी कारण अकेली रह गई हों, पति हिंसक हो, बच्चे छोड़ गए हों, उम्र हो गई हो, लंबी बीमारी हो, पूजापाठी जनता ऐसी किसी भी बेचारी औरत को निकालने में जरा भी हिचकिचाती नहीं है.

सुप्रीमकोर्ट ने कहा है कि डोमैस्टिक वायलैंस ऐक्ट की धारा 17(1) ऐसी किसी भी औरत को, चाहे वह मां हो, बेटी हो, बहन हो, पत्नी हो, विधवा हो, सास हो, बहू हो घर में रहने का अधिकार रखती है चाहे उस के पास उस घर में संपत्ति का हक हो या न हो. यह अधिकार हर धर्म, जाति की औरत का है. कोई भी उस अनचाही औरत को घर से नहीं निकाल सकता, जो किसी अधिकार से उस घर में कभी आई थी.

एक पत्नी अपने पति के घर में रहने का हक रखती है चाहे घर पति का न हो, पति के मातापिता या भाईबहन का हो अगर पति वहां रह रहा है. उसी तरह घर की बेटी को घर से नहीं निकाला जा सकता. चाहे उस का विवाह हो गया हो और वह पति को छोड़ आई हो. कोई मां को नहीं निकाल सकता कि उसे अब दूसरे बेटे या बेटी के पास जा कर रहना चाहिए. कोई औरत छत से महरूम न रहे इस तरह का फैसला अपनेआप में क्रांतिकारी है.

सोनिया गांधी की सरकार के जमाने में 2005 में बना हुआ यह कानून व यह फैसला असल में उन पौराणिक कथाओं पर एक तमाचा है जिन में पत्नी को बेबात के बिना बताए घर से निकाल दिया गया क्योंकि कुछ लोगों को शक था. यह उन कथाओं और मान्यताओं पर प्रहार है जिन में औरतों को गलती करने पर पत्थर बना दिया जाता था, जो सड़क पर पड़ा रहे.

भारतीय संस्कृति में तो पापपुण्य का हिसाब रहता है. विधवा आमतौर पर पाप की भागी मानी जाती है कि वह पति को खा गई और उसे कैसे ससुराल में रहने की इजाजत दी जा सकती है. यह फैसला ऐसी औरतों को पौराणिक संस्कृति के विरुद्ध जा कर संरक्षण देता है.

विडंबना यह है कि इस समाज में वे औरतें ही धर्म की दुहाई देती हैं जो कभी न कभी उसी धर्म की मान्यताओं की शिकार बनती हैं. आजादी के बाद बहुत से कानून बने जिन में औरतों को हक मिले पर वे कट्टरपंथी सरकारों की देन नहीं हैं. कट्टरपंथी तो उन को पूजास्थलों तक ले जाने में व्यस्त रहते हैं.

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पाप धोना हो तो संपत्ति लुटाएं

भारतीय जनता पार्टी की अधिकृत प्रवक्ता नूपुर शर्मा और एक दूसरे मीडिया प्रभारी नवीन कुमार एक टीवी डिबेट में इस्लाम पर कुछ ऐसी फब्तियां कस दी कि सारे मुसलमानों की ही नहीं, सारी दुनिया के मुसलिम देशों की भौंहें तन गईं. नूपुर शर्मा और नवीन कुमार ने जो भी कहा वह भारतीय जनता पार्टी समर्थक अपने व्हाट्सएप गु्रपों में अर्से से कहते रहे हैं और इस्लाम हिंदू विवाद में खुद को श्रेष्ठ दिखाने के लिए पैगंबर को अपमानित करने के लिए फौरवर्ड कर के अपने को हिंदू योद्धा मानते रहे हैं.

इस बार जोश में ज्ञानवापी मसजिद पर चल रही बहस में नूपुर जोश में आ गई और एंकर ने उसे टोका तक  नहीं. एंकर की सोच भी ऐसी ही है कि हिंदू ही सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि वही उसे टीआरपी दिला रहा है.

हर धर्म के अपने ग्रंथों में अपने ही आराध्यों के बारे में न जाने क्याक्या कहां गया है और हर धर्म के अपने सुधारक कई बार अपने धर्म के लोगों को असलियत बताते रहते हैं. लगभग सभी देशों में ईशिनदा, कानून बने हुए हैं ताकि लोग अपने धर्म की पोल न खोलें. दूसरे धर्म की पोलपट्टी मौका देख कर खोली जाती है जब अपने धर्म पर होते आक्रमण से बचाना हो चाहे. वह स्वाधर्मी का हो या विधर्मी का. भारतीय जनता पार्टी की सत्ता चूंकि धर्म पर टिकी है जिस की मुख्य घुटी 1000 साल का मुसलिम राज है, वे प्राइवेट में बहुत अनर्गल बोलते रहते हैं. इस बार टेलीविजन बहस में बोल दिया गया और वह भी औफिस बीयरर द्वारा, पटाखा फूट गया और कई मुसलिम देशों की सरकारों ने भारतीय दूत को बुला कर सफाई देनेको कहा.

नूपुर शर्मा और नवीन कुमार का दोष नहीं है क्योंकि अपनी 1000 वर्षों की गुलामी की खीज उतारने का उन के पास और कोई चारा नहीं है कि वे मुसलिम जमात को बदनाम करें. इस्लाम चाहे जैसा भी हो, उन के ग्रंथों में जो भी लिखा हो, यह तो स्पष्ट है न कि हिंदू राजा बारबार, सैंकड़ों बार, मुट्ठी भर इस्लामी हमलावरों के हाथों हारते रहे क्योंकि हमारा अपना धर्म हमें सब को बांट कर रखता है ताकि ब्राह्मïण शिरोमणि सब से ऊपर बन रहें और निरंतर दानदक्षिणा पाते रहें. आजकल दान में वोट भी जम कर ली जा रही है कि इस वोट के दान से हर घर में सोना बरसेगा, पैट्रोल, डीजल 35 रुपए लीटर होगा, 15 लाख रुपए हरेक के खाते में जाएंगे, पाकिस्तान से कश्मीर वापिस लिया जाएगा, चीन को कातिल आंखें दिखाई जाएंगी और आम हिंदू को धर्म काज करने के हर 4 कदम पर नया नवेला मंदिर मिलेगा जहां वह पाप धोने के लिए अपनी संपत्ति लुटा सके.

आज जब इतना मिल रहा हो और पुरानी कालिख धुल रही हो तो विरोधी के पुरखों को कोसने में क्या जाता है? 7 पीढिय़ों तक जाने की परंपरा हमारे यहां हर परिवार में है ही. ये शब्द व्हाट्सएप यूनिवॢसटी हर रोज औन लाइन क्लासों में पढ़ाती रहती है. बस वह डाला. पहले 2-3 दिन तो छोटीमोटी शिकायतें हुई तो नुपूर शर्मा ने कह डाला कि गृहमंत्री, प्रधानमंत्री, पार्टी के औफिसों को उस का पूरा समर्थन है. अब बचे पीछें दुपक रहे हैं.

यह विवाद बिलकुल निरर्थक है क्योंकि आज की विश्व की िचता रूस यूक्रेन युद्ध है, ग्लोबल वार्मिंग है. कोविड माहमारी है, खानेपीने की चीजों में हो रही कमी है, औरतों के साथ शिक्षा और आजादी के बावजूद न रुकता भेदभाव व हिंसक व्यवहार है. इन समस्याओं की जगह किस के अपराध ने कब क्या किया, यह बाल की खाल निकाल कर सिर्फ धर्म की दुकान चलवाना है.

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जाति और धर्म

पिछले कुछ सालों से कश्मीर एक बार फिर देश के सैलानियों के लिए एक स्पौट बन रहा था, खासतौर पर सॢदयों में जब गुलमर्ग पर पूरी तरह बर्फ पड़ जाती थी और स्वीइंग और एलैजिग को मजा लूटा जा सकता था. अब लगता है कि एक बार फिर कश्मीर हिंदूमुसलिम विवाद में फंस रहा है.

भारत सरकार ने बड़ी आनबानशान से कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश घोषित करते हुए उसे उपराज्यपाल के अंतर्गत डाल दिया और संविधान के अनुच्छेद 370 को संशोधित करते हुए ऐलान कर डाला कि कश्मीर अब पूरी तरह भारत का हिस्सा हो गया. पर मईजून माह में ताबड़तोड़ आतंकवादी हमलों ने फिर उन पुराने दहशत भरे दिनों के वापिस ला दिया. जब देश के बाहरी इलाकों के लोग कश्मीर में व्यापार तक करने जाने में घबराते थे.

आतंकवादी चुनचुन कर देश के बाहरी इलाकों से आए लोगों को मार रहे हैं. एक महिला टीचर और एक युवा नवविवाहित बैंक मैनेजर की मौत ने फिर से कश्मीर को पराया बना डाला है. जो सरकार समर्थक पहले व्हाट्सएप, फेसबुक, टिवटर पर कश्मीर में प्लाट खरीदने की बातें कर रहे थे अब न जाने कौन से कुओं में छिप गए हैं.

किसी प्रदेश, किसी जाति, किसी धर्म को दुश्मन मान कर चलने वाली नीति असल में बेहद खतरनाक है. आज के शहरी जीवन में सब लोगों को एकदूसरे के साथ रहने की आदत डालनी होती क्योंकि शहरी अर्थव्यवस्था सैंकड़ों तरह के लोगों के सम्मिलित कामों का परिणाम होती है.

हर मोहल्ले में, हर सोयायटी में, हर गली में हर तरह के लोग रहें, शांति से रहे और मिलजुल कर रहें तो ही यह भरोसा रह सकता है कि चाहे कश्मीर में हो या नागालैंड में, आप के साथ भेदभाव नहीं होगा यहां तो सरकार की शह पर हर गली में में जाति और धर्म की लाइनें खींची जा रही हैं ताकि लोग आपस में विभाॢजत रह कर या तो सरकार के जूते धोएं या अपने लोगों से संरक्षण मांगने के लिए अपनी अलग बस्तियां बनाएं.

जब हम दिल्ली के जाकिर नगर और शाहीन बाग को पराया मानने लगेंगी तो कश्मीर को कैसे अपनाएंगे?

सैलानी अलगअलग इलाकों को एक साथ जोडऩे का बड़ा काम करते हैं. वे ही एक देश की अखंडता के सब से बड़े सूत्र हैं, सरकार की ब्यूपेक्रेसी या पुलिस व फौज नहीं. कश्मीरी आतंकवादी इस बात को समझते हैं और इसलिए इस बार निशाने पर बाहर आए लोगों को निशाना बना रहे हैं और परिणाम है कि घर और परिवार सरकारी नीतियों के शिकार हो रहे हैं. निहत्थों पर वार करना कायरता है और उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार अपना देश की जनता से किए वादे को पूरा करेगी और पृथ्वी पर बसें स्वर्ग को हर भारतीय के लिए खोले रखेगी.

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भारत में धर्म की दुकानें

भारत के गुरू, स्वामी, धर्माचार्य, महंत, पंडित, पुजारी इस मामलों में अपने अमेरिकी तरहतरह के चर्चों में पादरियों, प्रिस्टों, बिशपों, पेस्टरों से बेहतर हैं. भारत में शायद ही किसी पर सैक्सुअल एब्यूज करने का आरोप लगता है पर अमेरिका के दक्षिण में चर्च के एक संप्रदाय साउदर्न बापटिस्ट कनवेंशन के पास 2000 से 2019 तक के 700 चर्च के पादरियों पर लगाए गए आरोपों की लंबी लिस्ट है. वर्षों से साउदर्न बापटिस्ट कनवेंशन चर्च इस लिस्ट में नए नाम जरूर जोड़ता रहा है पर इसे पब्लिक होवे से रोकता रहा है.

मई 2022 में जब यह रिपोर्ट लीक हो गई और इस लिस्ट के चेहरे टीवी स्क्रीनों पर दिखने लगे तो चर्च ने माना कि इन लोगों ने सैंकड़ों लोगों की जिंदगियों से खेला है और साउदर्न बापटिस्ट कनवेंशन चर्च रूस चर्च के पादरियों के गुनाहों के शिकारों को कुछ न्याय दिलाने का वायदा करता है.

विदेशी चर्च को भारत में एक समझा जाता है जबकि विदेशों में चर्च सैंकड़ों टुकड़ों में बंटा है ठीक वैसे ही जैसे हमारे यहां हर मंदिर, हर आश्रम, हर मठ अपने एक गुरू या संप्रदाय की निजी संपत्ति होता है. न चर्च, न गुरूद्वारों न बौंध मठ, न मंदिर किसी एक सत्ता के अंग है. वे सब अलगअलग अस्तिाव रखते हैं और सब के पास अपार संपत्ति है और धर्म की गाड़ी ईश्वर नहीं पैसा चलाता है जो भक्त दान करते हैं और चर्च या धर्म की हर दुकान में काम करने वालों को सेक्स सुख पाने का अक्सर खास मोटिव होता है. कैलीक्रोर्निया के इस चर्च में कम से कम 700 लोगों पर दोष लगाया जा चुका है और जब से यह भंडाफोड़ हुआ है, नए नाम जुड़ रहे हैं.

चर्च की चर्चा इसलिए की जा रही है कि भारत में धर्म की दुकानें आमतौर पर इन आरोपों से मुक्त रहती हैं. हमारे भक्त अमेरिकी भक्तों से ज्यादा भक्तिभाव रखते हैं और अपने पंडि़तों, स्वामियों गुरूओं के खिलाफ ज्यादा बोलते नहीं है. आसाराम बापू जैसे इक्केटुक्के मामलों में सजा हुई है पर आमतौर पर अगर मामला अदालत में चला जाता भी है तो जज या तो घबरा कर उसे टालते रहते है या मामले में पूरे सुबूत नहीं है कह कर बंद कर देते हैं.

सैक्सुअल एब्यूज पर हर तरह के धर्म लाखों डालर के समझौते हर साल आजकल कर रहे हैं. पीडि़तों को वे कहते हैं कि भगवान  के काम में ज्यादा दखलअंदाजी न करो, मरने के बाद ईश्वर को क्या जवाब दोगे. भक्त जो ईश्वर की काल्पनिक भक्ति में अगाध विश्वास रखता है आमतौर पर चुप रहता है. चर्चा के पादरियों के सैक्सुअल एब्यूज का उस के पास वही उत्तर होता है जो एक हिंदू के पास है. ईश्वर सब देखता है, ईश्वर सब पापों का दंड खुद देगा.

धर्म के हर तरह के दुकानदारों, भक्तों को इस तरह भ्रमित कर रखा है कि वे संतों, महंतों, पादरियों मुल्लाओं की हर ज्यादती को वरदान समझते हैं. वे तनमन और धन से की जाने वाली सेवा में तन में की जाने वाली सेवा का कोई अवसर नहीं छोडऩा चाहते. जिन गुनाहों पर सेक्यूलर सरकार और कानून गुनाहगार को जेल में डाल देता है, उसी को धर्म केवल पाप कहता है और या तो प्रायश्चित करवाता है या कह देता है कि चाय भरने के बाद ईश्वर की अदालत में होगा. जब गुनाहगार ईश्वर का अपना एजेंट हो तो कौन सा कानून उसे सजा देगा यह अमेरिका में स्पष्ट है, भारत में भी.

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महिला नेता: नाम बड़े और दर्शन छोटे

राजस्थान की सत्ता वसुंधरा राजे के हाथों से फिसल चुकी है और इसलिए फिलहाल सिर्फ पश्चिम बंगाल ऐसा राज्य है जहां एक महिला मुख्यमंत्री हैं और वे हैं ममता बनर्जी. कुछ साल पहले तक यानी 2011 और 2014 में भारत के 4 राज्यों की जिम्मेदारी महिला मुख्यमंत्रियों के हाथों में थी.

जम्मूकश्मीर में महबूबा मुफ्ती, गुजरात में आनंदीबेन पटेल, राजस्थान में वसुंधरा राजे और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी. इस से पहले तमिलनाडु में जयललिता भी थीं. आजादी के बाद से अब तक भारत में कुल 16 महिला मुख्यमंत्री हुई हैं जिन में उमा भारती, राबड़ी देवी और शीला दीक्षित, मायावती, जैसे नाम शामिल हैं.

भले ही भारत में महिला मुख्यमंत्रियों की संख्या गिनीचुनी हो, मगर हम इस से इनकार नहीं कर सकते कि ममता बनर्जी, जयललिता और मायावती जैसी महिलाएं सब से ताकतवर मुख्यमंत्रियों में से एक रही हैं. इन का कार्यकाल काफी प्रभावी रहा है. फिर चाहे वह तमिलनाडु में जयललिता की जनवादी योजनाएं हों या उत्तर प्रदेश में मायावती का कानूनव्यवस्था को काबू में करना और ममता का हर दिल पर राज करना.

मगर जब बात उन के द्वारा महिलाओं के हित में किए जाने वाले कामों की होती है तो हमें काफी सोचना पड़ता है. दरअसल, इस क्षेत्र में उन्होंने कुछ याद रखने लायक किया ही नहीं. यह बात सिर्फ मुख्यमंत्रियों या प्रधानमंत्री के ओहदे पर पहुंची महिला शख्सियतों की ही नहीं है बल्कि हर उस महिला नेता की है जो सत्ता पर आसीन होने के बावजूद महिला हित की बातें नहीं उठाती.

प्रभावी और बराबरी का हक

एक सामान्य सोच यह है कि यदि महिलाएं शीर्ष पदों पर होंगी तो महिलाओं के हित में फैसले लेंगी. लेकिन ऐसा हो नहीं पाता. इंदिरा गांधी जब देश की प्रधानमंत्री थीं तब कोई क्रांति नहीं आ गई या जिन राज्यों में महिलाएं मुख्यमंत्री थीं वहां महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी हो गई ऐसा भी नहीं है. हम यह भी नहीं कह सकते कि पुरुष राजनेता महिलाओं के हक में फैसले ले ही नहीं सकते. मगर इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि महिलाओं से जुड़े संवेदनशील मुद्दों को महिला नेताओं द्वारा उठाया जाना ज्यादा प्रभावी और बराबरी का हक देने वाला हो सकता है.

महिला और पुरुष जिन समस्याओं का सामना करते हैं, वे बिलकुल अलग होती हैं. हाल ही में लोकसभा में सैरोगेसी बिल पास किया गया. संसद में 90% सांसद पुरुष थे जो चाह कर भी गर्भधारण नहीं कर सकते. फिर भी इन पुरुषों ने यह बिल पास किया. हमारी नीतियां देश की 50% आबादी यानी महिलाओं की जरूरतों से मेल नहीं खातीं. इसलिए हमें ऐसी महिला नेताओं की ज्यादा जरूरत है जो महिलाओं के मुद्दों को उठा सकें.

उदाहारण के लिए राजस्थान में गांवों की महिलाएं पीढि़यों से पानी की कमी का सामना कर रही हैं. लेकिन इन महिलाओं को राहत देने के लिए वहां की सरकार द्वारा कभी कोई महत्त्वपूर्ण कदम नहीं उठाया गया क्योंकि सरकार में कोई महिला मंत्री नहीं है. सच यह है कि महिला मंत्री ही महिलाओं की स्थिति में कुछ बदलाव ला सकती हैं क्योंकि वे औरतों की समस्याओं को सम झ पाती हैं.

गंभीर मुद्दों पर ध्यान नहीं

महिलाओं को लगता कि महिला प्रतिनिधि को इसलिए चुनना चाहिए क्योंकि वह महिला मुद्दों को प्रमुखता देगी या कम भ्रष्ट होगी या ज्यादा नैतिक होगी, मगर ऐसा होता नहीं.

हाल ही में जब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने महिलाओं की रिप्पड जींस को ले कर एक विवादित बयान दिया तो महिला नेताओं ने उन की जम कर क्लास लगाई. सपा सांसद जया बच्चन से ले कर तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा, शिवसेना सांसद प्रियंका चतुर्वेदी, कांग्रेस प्रवक्ता गरिमा दसौनी ने तीरथ सिंह रावत पर निशाना साधा. किसी ने सोच बदलने की नसीहत दी तो किसी ने उन के बयान को अमर्यादित बताया.

मगर सवाल उठता है कि क्या केवल इस तरह के छोटेमोटे मुद्दों पर बयानबाजी कर के ही महिला नेताओं के कर्तव्यों की इतिश्री हो जाती है? क्या महिलाओं से जुड़े गंभीर मुद्दों पर उन्हें ध्यान नहीं देना चाहिए?

महिलाओं में विश्वास पैदा करना जरूरी

महिला नेताओं द्वारा महिला सुरक्षा या सम्मान पर तो काफी बातें की जाती हैं और यह जरूरी भी है लेकिन इस के साथ ही महिलाओं के कई अहम मुद्दे होते हैं जिन्हें अकसर नजरअंदाज कर दिया जाता है. ऐसे में जरूरी है कि उन के अधिकारों की बात को शामिल किया जाए ताकि महिलाओं को लगे कि अब कोई आ गई है जो उन के लिए सोचेगी, उन की तकलीफ महसूस कर सकेगी. इस से वोट देने में भी उन की दिलचस्पी बढ़ेगी. उन्हें इस बात का एहसास होगा कि सरकार बनाने में उन का योगदान भी जरूरी है और वे अपनी पसंद की प्रतियोगी को आगे ला सकती हैं.

क्यों नहीं लेतीं फैसले

दरअसल, जब कोई महिला नेता बनने के मार्ग में आने वाली तमाम अड़चनें पार कर के राजनीति में ऊंचे पद पर पहुंचती है तो उस की प्रतियोगिता उन तमाम पुरुषों से होती है जो पहले से सत्ता में काबिज हैं और हर तरह के हथकंडे अपना कर अपना नाम बनाए रखने में सक्षम हैं. ऐसे में महिला नेताएं भी चुनाव जीतने के लिए वही हथकंडे अपनाने लगती हैं जो पुरुष अपनाते हैं. ऐसे में इस पूरी प्रक्रिया में महिलाओं के मुद्दे कहीं पीछे चले जाते हैं.

असली फर्क तब आएगा जब महिलाओं की संख्या में बड़ा अंतर आए. पुरुष अपनी बात मनवाने में इसलिए कामयाब होते हैं क्योंकि वे राजनीति में बहुसंख्यक और महिलाएं अल्पसंख्यक हैं. जब अधिक महिलाएं सत्ता पर आसीन होंगी तो वे अपने मकसद को सही दिशा दे पाएंगी. उन्हें सत्ता खोने का उतना डर नहीं रह जाएगा.

राजनीति में महिलाएं कम क्यों हैं

स्वतंत्रता आंदोलनों के समय से ले कर आजाद भारत में सरकार चलाने तक में महिलाओं की राजनीतिक भूमिका अहम रही है. इस के बावजूद जब राजनीति में महिला भागीदारी की बात आती है तो आंकड़े बेहद निराशाजनक तसवीर पेश करते हैं. बात ऐक्टिव पालिटिक्स की हो या वोटर्स के रूप में भागीदारी की, दोनों ही स्तर पर महिलाओं की हिस्सेदारी बहुत कम है. वैसे महिला वोटरों की स्थिति पहले से थोड़ी बेहतर हुई है. मगर विश्व स्तर पर भारत की पौलिटिक्स में सक्रिय महिलाओं की दृष्टि से भारत 193 देशों में 141वें स्थान पर ही है.

भारत में आजादी के बाद पहली केंद्र सरकार की 20 कैबिनेट मिनिस्टरी में सिर्फ 1 महिला राजकुमारी अमृत कौर थीं जिन्हें स्वास्थ्य मंत्री का कार्यभार सौंपा गया था. लाल बहादुर शास्त्री की सरकार में एक भी महिला को जगह नहीं दी गई. यहां तक कि इंदिरा गांधी के कैबिनेट में भी एक भी महिला यूनियन मिनिस्टर नहीं थी. राजीव गांधी की कैबिनेट में सिर्फ 1 महिला मोहसिना किदवई को शामिल किया गया. मोदी सरकार में महिलाओं की स्थिति पहले से बेहतर हुई है. लेकिन अभी भी स्थिति को पूरी तरह से बेहतर नहीं माना जा सकता है. महिला वोटरों की बात करें या महिला नेताओं की, कहीं न कहीं अभी भी घर के पुरुष उन के फैसलों को प्रभावित करते हैं.

अगर भारतीय राजनीति में सक्रिय महिलाओं को देखें तो उन में से ज्यादातर सशक्त राजनीतिक परिवारों से आती हैं. फिर चाहे वे इंदिरा गांधी हों या वसुंधरा राजे. ऐसी कई वजहें हैं जो महिलाओं को राजनीति में आने से रोकती हैं. मसलन, इस क्षेत्र में सफल होने के लिए जेब में काफी पैसे होने चाहिए और जरूरत पड़ने पर हिंसा का रास्ता भी इख्तियार करने की हिम्मत होनी चाहिए.

वैसे भी राजनीति एक मुश्किल पेशा है. इस में काफी अनिश्चिंतताएं होती हैं. जब तक आप के पास कमाई का कोई ठोस और अतिरिक्त विकल्प न हो आप सक्रिय राजनीति में ज्यादा समय तक नहीं टिक सकते. अगर हम मायावती और जयललिता का उदाहरण लें तो उन के पास कांशीराम और एमजीआर जैसे राजनीतिक गुरु थे जिन्होंने उन की आगे बढ़ने में मदद की थी.

यही नहीं महिलाओं को राजनीति में ही नहीं बल्कि हर क्षेत्र में दोहरा काम करना पड़ता है. महिलाओं को पुरुषों के साथ कंपीटिशन के लिए खुद को उन से बेहतर साबित करना पड़ता है.

ऐक्टिव पौलिटिक्स में महिलाओं की स्थिति

वैसे ऐक्टिव पौलिटिक्स में महिलाओं का टिकना भी आसान नहीं होता. उन की बुरी स्थिति के लिए जिम्मेदार सिर्फ राजनीतिक पार्टियों ही नहीं बल्कि हमारा समाज भी है जो महिलाओं को राजनीति में स्वीकारने को तैयार नहीं होता है. महिला नेताओं के प्रति लोगों की सोच आज भी संकीर्ण है. हमारे देश में महिलाएं अपने काम से ज्यादा वेशभूषा और लुक के लिए जानी जाती हैं. पुरुष सहयोगी समयसमय पर टीकाटिप्पणियां करने से बाज नहीं आते. प्रियंका गांधी अगर राजनीति में आती हैं तो उन के कपड़ों से ले कर उन के नैननक्श पर टिप्पणियां की जाती हैं. प्रियंका को ले कर ये बातें भी खूब कही गईं कि खूबसूरत महिला राजनीति में क्या कर पाएगी.

शरद यादव ने वसुंधरा राजे के मोटापे पर कमैंट करते हुए कहा था कि वसुंधरा राजे मोटी हो गई हैं, उन्हें आराम की जरूरत है. इस तरह की टिप्पणियों का क्या औचित्य? इसी तरह ममता बनर्जी, मायावती, सुषमा स्वराज से ले कर तमाम उन महिला राजनीतिज्ञ को इस तरह के कमैंट्स  झेलने पड़ते हैं. उन की किसी भी विफलता पर उन के महिला होने के ऐंगल को सामने ला दिया जाता है जबकि विफलता एक पुरुष राजनीतिज्ञ को भी  झेलनी पड़ती है.

निराधार बातें क्यों

लोगों को लगता है कि महिला कैंडिडेट के जीतने की उम्मीद बहुत कम होती है. उन के मुताबिक महिलाएं अपने घरेलू कामों के बीच राजनीति में एक पुरुष के मुकाबले कम समय दे पाती हैं. लोगों को ऐसा भी लगता है कि महिलाओं को राजनीतिक सम झ कम होती है, इसलिए अगर वे जीत कर भी आती हैं तो महिला विभाग, शिशु विभाग जैसे क्षेत्रों तक सीमित रखा जाता है. मगर हम निर्मला सीतारमण, शीला दीक्षित, ममता बनर्जी जैसी महिला नेताओं की तरफ देखें तो ये बातें निराधार महसूस होंगी.

एक महिला कैंडिडेट को अपने क्षेत्र में

एक पुरुष कैंडिडेट के मुकाबले ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है. शायद यही सारी वजहें हैं कि वे अपना वजूद बचाए रखने के लिए महिला मुद्दों

के बजाय दूसरे अधिक प्रचारित मुद्दों पर नजर बनाए रख कर खुद को सुरक्षित रखने का प्रयास करती हैं. महिला नेताओं को वैसे भी अपनी सुरक्षा के मामले में खासतौर पर सतर्क रहना पड़ता है.

शिक्षा के लिए भटकते छात्र

हमारे युवाओं में पढऩे की ललक नहीं है, ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि अकेले चीन में 23,000 भारतीय युवा मीडिकल की पढ़ाई करने नहीं जाते. विदेश में अपनों से दूर, अलग भाषा, अलग रहनसहन में मेडिकल की पढ़ाई का रिस्क लेना इन स्टूडेंट्स की किसी भी तरह एक स्किच जानवर अपना भविष्य बनाने का एम साबित करता है पर कोविड की वजह से ये अब भारत लौट कर अपनी आधीअधूरी पढ़ाई औन लाइन कर रहे हैं.

ये 2300 स्टूडेंट्स केवल बड़े शहरों के नहीं, यूपी, हरियाणा, उत्तराखंड, तमिलनाडू के भी हैं और अब इंतजार कर रहे हैं कोविड का कहर खत्म हो. हालांकि चीन लौटना इन के लिए बेहद मंहगा होगा क्योंकि इस समय एयर टिकट 1 लाख रुपए का है और फिर 15-20 दिन अपने खर्च पर क्वारंटीन होना पड़ता है. सस्ती फीस और एडमिशन के चक्कर में भी युवा चीन गए थे और इन्हें उम्मीद थी कि धीरेधीरे स्थिति ठीक होगी और वे चीनी डिग्री के साथ दुनियाभर में मेडिकल प्रेक्टिस करने की कोशिश कर सकते हैं.

जब यूक्रेन पर रूस ने हमला किया था तो भी पता चला कि कितने भारतीय स्टेडेंट्स वहां पढ़ रहे हैं जबकि यूक्रेन तो चीन की तरह विकसित भी नहीं है. भारतीय स्टूडेंट्स पहले अफगानिस्तान में पढ़ रहे थे. तजाकिस्तान, कजाकिस्तान जैसे पूर्व सोवियत संघ के देशों में भी हजारों छात्र हैं.

यह भारतीय एजूकेशन की पोल खोलता है कि देश अपने ही स्टूडेंट्स के प्रति इतना ज्यादा बेरहम है कि उन्हें शिक्षा बेचने वाली देशी विदेशी संस्थाओं के आगे लुटनेपिटने भेज देता है. अपने चारों ओर कोई आस न देख कर हार कर भारतीय स्टूडेंट्स जहां भी एडमिशन मिलता है वहां का रूख कर लेते हैं. मेडिकल के अलावा और बहुत से कोर्स आज विदेशों में किए जा रहे हैं.

मानना पड़ेगा कि भारतीय मांबाप इतने दिलेर है कि लाखों खर्च कर के अपने लाडलों को अनजाने देशों की अनजानी डिग्री लेने भेजे देते हैं जिस की क्लालिटी और एक्स्पटैंस का कोई अतापता नहीं है. यह भी मानना पड़ेगा कि हमारी शिक्षा ब्यूरोक्रेसी कितनी मोटी खाल की है कि उसे भारतीय छात्रों की इन तकलीफो का कोई ख्याल नहीं है और देश में ही सस्ती शिक्षा सुलभ कराने में वे कुछ नहीं कर रहे. कहने को हम जगद्गुरू हैं पर हमारे यहां का हर अच्छा छात्र विदेश में जा कर गुरू ढूंढ़ता है.

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बर्बाद होता युवाओं का भविष्य

35 वर्षकी आयु में युवा अब बचत कम कर रहे हैं और अपनी सारी कमाई आज ही शौकों में पूरा कर रहे हैं. कोविड से यह खर्चीलापन बड़ गया है क्योंकि अकेले रहने वाला अब आज की सोचते हैं, कल का न जाने क्या होगा? जिस के निकट संबंधी कोविड की मौत के शिकार हो गए हैं, उन में तो नेगेटिविजन भर गया कि कल का क्या करूं, कल की बचत क्यों करें.

यह खतरनाक स्थिति है. बिमारी को तो असल में बचत की आदत डालनी चाहिए क्योंकि महामारी के दिनों में जब कमाई बंद हो जाए और इलाज पर खर्च बढ़ जाए तो अपनी बचत ही काम आएगी, कोविड के दिनों में तो बहुत सी जानें इसलिए गई कि इलाज, औक्सीजन, वैंटीलेटर, हास्पिटल के लायक पैसे बचे  नहीं थे.

दिक्कत यह है कि कोविड की आइसोलेशन ने लोगों को मोबाइल, लैपटौप का गुलाम बना दिया जो बारबार नया खरीदने को उकसाते रहते हैं. मोबाइल और लैपटौप पर औन लाइन जानकारी में विज्ञापन भरे ही नहीं हैं, वे पढऩे के दौरान बारबार बीच में आते हैं और अब जब तक एड फ्री साइट का पैसा न दिया गया हो, वे उन चीजों को बेचते हैं जो जरूरत की नहीं है जिन के दामों के बारे में कहीं से चैक नहीं किया जा सकता.

औफ लाइन बाजार में खरीदी का एक फायदा है कि दुकानदार अपनेआप में एक फिल्टर होता है. वह वही सामान रखता है जो ठीक है और जिसकी शिकायत करने के लिए अलग दिन ग्राहक फिर घर आ कर खड़ा न हो जाए. औफ लाइन बाजार में खरीदारी करने के लिए आनेजाने में लगने वाले समय और पैसे का एक फिल्टर होता है जो बेकार की खरीदी को रोकता है. दुकान से सामान ढो कर घर तक ले जाने के डर का एक और फिल्टर लग जाता है. अगर सामान अच्छा ओर लोकप्रिय हो तो आसपास की कई दुकानों पर वही सामान मिलने लगता है और दुकानदार मुनाफा कम कर के कंपीटिशन में सस्ता बेचते हैं.

औन लाइन खरीद में कार्ड से पेमेंट करते समय लोग भूल जाते है कि इस माह वे कितने का सामान खरीद चुके हैं. उन को छोटी चीजें याद ही नहीं रहती. पेमेंट करने के बाद डिलिवरी का समय देर से होता है तो नौंटकी दिया राम भूल जाना बड़ी बात नहीं होती. जब सामान मिलता है तो वह एक तरह से गिफ्ट लगता है और पैकेंट उसी तरह खोला जाता है मानो किसी ने गिफ्ट दिया हो.

इस मैंटिलिटी का नतीजा है कि आज के युवाओं के पास पैसा नहीं बना रहे. यूरोप, अमेरिका में सैकड़ों युवा बड़े शहरों से अब मातापिता के पास फिर शिफ्ट हो रहे हैं जहां रहना खाना मुफ्त मिलता है. जेनरेशन गैप के विवाह तो होते हैं पर अकेले मातापिता भी खुश रहते है. उन्हें दिक्कत तब होती है जब खाली हाथ बच्चे शादी के बाद आ धमकते हैं और फिर ससुरदामाद या सासबहू का विवाद शुरू हो जाता है. यदि समय रहते बचत की जाती तो यह नौबत नहीं आती.

युवाओं की पढऩे की तेज से कम होती आदत और बेबात में पिंगपिग करते मैसेज उन्हें किसी भी बात को गंभीरता से करने का समय नहीं देते. हर वह व्यक्ति जो खाली है, जब मर्जी किसी को हाई का मैसेज डाल देता है, कोई चीज फौरवर्ड कर देता है. मोबाइल हाथ में आते ही विज्ञापन भी टपकने लगते हैं और लाख कोशिश करो वे हटते नहीं है.

खर्चीले युवा न केवल एक पूरी पीढ़ी को भूखा मारेंगे, वे डैल्लेपमैंट को रोक लगा देंगे. दुनिया का विकास बचत पर हुआ. रोमन युग में सडक़ें और पानी लाने के एक्वाडक्ट बने थे ये आम लोगों की बचत के कारण. युवाओं की प्रौडक्टिविटी जब ज्यादा होती है तब वे ज्यादा खर्चा कर बचत नहीं करेंगे तो पूरी वल्र्ड इकौनौमी का कचरा बैठ जाएगा. यह कोविड और रूसी हमले की तरह है जो खतरनाक नतीजे दे सकता है.

अपना समय बचत बेकार का सामान खरीदने में न लगाएं. कुछ बनाए और उसे बनाने के लिए पढ़ कर कुछ जानकारी लें. सुखी आज और कल के लिए बचत ही सब से ज्यादा जरूरी है.

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दहेज कानून: कवच बन गया हथियार

वैशाली और रोहित की शादी 3 साल पहले ही हुई थी. वैशाली के पिता सेवानिवृत्त हो चुके थे जबकि वैशाली शादी के बाद भी नौकरी कर रही थी. वह चाहती थी कि अपनी पूरी तनख्वाह अपने मायके वालों को दे ताकि वहां का खर्च चल सके. पति और ससुराल वालों का कहना था कि उन्हें इस बात की आपत्ति नहीं है कि वह मायके को आर्थिक सहयोग क्यों कर रही है पर ससुराल की आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं है, इसलिए वह आधी तनख्वाह ही अपने मायके वालों को दे.

मगर वैशाली ने एक न सुनी और अपनी सारी तनख्वाह मायके को देती रही. इस बात को लेकर पति और सासससुर से उस से कई बार विवाद भी हुआ. जब बात बढ़ी तो उस ने अपने पति और ससुराल वालों से कहा कि वह उन्हें दहेज मांगने और उस के लिए प्रताडि़त करने के झठे मामले में फंसा देगी. बेचारे ससुराल वाले चुप हो गए.

रोहित के पिता यानी वैशाली के ससुर भी इस बीच बीमार पड़ गए. उन के इलाज में काफी पैसा चाहिए था. इसलिए पति ने अपनी पत्नी को सख्त हिदायत दी कि वह आगे से अपनी तनख्वाह मायके न भेजे. उसे तैश आ गया और पुलिस में जा कर उस ने अपने पति और सासससुर के खिलाफ दहेज के लिए सताने, प्रताडि़त करने की रिपोर्ट लिखा दी. पुलिस उन्हें पकड़ कर ले गई. बड़ी मुश्किल से जमानत हुई.

सिक्के का दूसरा पहलू

तनू की शादी मनोज से हुई. शादी के समय लड़के वालों ने किसी तरह की कोई मांग नहीं रखी. लड़की वालों ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार जो कुछ किया, वह स्वीकार किया गया. शादी के बाद पता चला कि तनू के किसी लड़के के साथ पहले से ही प्रेम संबंध थे और आज भी वह उस से लुकछिप कर मिलती है.

एक दिन पति ने उसे अपने प्रेमी के साथ रंगरलियां मनाते देख लिया और घर आने पर उस की पिटाई कर दी. इस पर उस ने हल्ला मचा कर पति को बदनाम कर दिया कि वह दहेज में मोटरसाइकिल की मांग कर रहा है. नहीं दी, इसलिए मु?ो मारा. पुलिस व कोर्ट को उस ने अपनी चोट भी दिखाई, लेकिन इस बात को स्वीकार नहीं किया कि उस के विवाहेतर संबंध हैं. नतीजतन दहेज प्रताड़ना के आरोप में आज पति जेल में बंद हैं.

मोनिका की शादी नरेंद्र से हुई है. शादी के बाद से ही दोनों के विचार मेल नहीं खाए. घरपरिवार वालों ने कहा कि यदि नहीं पटती है तो एकदूसरे से तलाक ले लें, लेकिन वह इस के लिए तैयार नहीं हुई. बोली मैं तो ससुराल वालों की छाती पर मूंग दलूंगी. जरा सा विवाद होने पर वह पुलिस थाने पहुंच जाती है तथा दहेज प्रताड़ना की रिपोर्ट दर्ज करा देती है. अब तो पुलिस भी इस बात को जान गई है कि आपसी विवादों को दहेज प्रताड़ना का नाम दिया जा रहा है.

प्राय: देखा गया है कि लड़की ससुराल में जा कर दहेज प्रताड़ना का आरोप लगाने की धौंस दे कर अपनी मनमानी करती है या अपनी मरजी से पति और ससुराल वालों को चलाना चाहती है. जब उस की बात नहीं बनती या उस का विरोध होता है तो वह दहेज प्रताड़ना का आरोप लगाने से भी नहीं हिचकिचाती.

तलाक का दुख

आजकल 28 से ले कर 35 साल तक सैकड़ों लड़कियां तलाक का दुख भोग रही हैं क्योंकि पतिपत्नी में नहीं बनती. कल तक लड़कियों और पत्नियों को पैर की जूती समझ जाता था, आज उन में हजारों हुनर सीख कर पैसा कमाने लगी हैं और वे सासससुर, जेठजेठानी या अपने पति का रोब सहने को तैयार नहीं हैं.

जब रीतिरिवाज का नाम ले कर रोकटोक लगाने की कोशिश की जाती है तो दबंग या पढ़ीलिखी लड़कियां पति पर आरोप लगा डालती हैं, कुछ झठे, कुछ सच्चे. दहेज का आरोप लगाना बड़ा आसान है.

प्रश्न यह है कि यदि लड़की वालों को पहले से ही यह ज्ञात है कि सामने वाला दहेज का इच्छुक है, तो क्यों करते हैं शादी वहां? सामने वाला जबरदस्ती तो किसी लड़की से शादी नहीं करता. यदि आप को वहां शादी नहीं करनी है तो न करें, लेकिन शादी के बाद उन्हें दहेज प्रताड़ना के झठे केस में तो न फंसाएं.

सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में फैसला देते हुए कहा है कि किसी व्यक्ति को केवल दहेज की मांग के आधार पर ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता है जब तक कि इस के लिए मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना न दी गई हो और इस के चलते मौत हुई हो.

बैंच ने एक फैसले में कहा है कि अभियोजन को इस संबंध में पुख्ता सुबूत पेश करने होंगे कि पीडि़त की मौत से पहले आरोपी ने मांग के सिलसिले में उसे प्रताडि़त किया था. भारतीय दंड विधान की धारा 498 ए या 304 बी के तहत दहेज मांगना अपनेआप में कोई अपराध नहीं है.

कानून का बेजा इस्तेमाल

दहेज कानून को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है. मामला चाहे जो हो उसे दहेज से जोड़ कर ससुराल पक्ष को प्रताडि़त और अपमानित किया जा रहा है. शिक्षित, उच्च पदों पर पदस्थ महिलाएं भी इस कानून की आड़ में ससुराल पक्ष को मजा चखाने से बाज नहीं आतीं. यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को सलाह दी थी कि दहेज मामलों का दुरुपयोग न हो, इस के लिए दहेज कानून पर फिर से विचार किया जाए.

आज लड़कों को शादी के लिए लड़कियां मिल नहीं रही हैं. ऐसे में दहेज मांगने की बात समझ से परे है बल्कि कई बार तो शादी का पूरा खर्च लड़के वाले ही उठाते हैं. लेकिन बाद में लड़की वाले दहेज प्रताड़ना के झठे आरोप में उन्हें फंसा देते हैं.

फर्जी मुकदमे

अभी स्थिति यह है कि दहेज प्रताड़ना के 90% मुकदमे फर्जी होते हैं. उन में सत्यता कम और असत्यता ही अधिक होती है. कानून ऐसा है कि इस में बड़ी आसानी से निर्दोषों को फंसाया जा सकता है. शादी के 25 साल बाद या 3-4 बच्चे होने के बाद दहेज का मुकदमा करना, मुकदमे की पोल खोल देता है.

आमतौर पर सासससुर अपनी बहू को बेटी की तरह ही रखते हैं और उस की सुखसुविधा में कोई कसर नहीं छोड़ते. हजार में से कोई एक इस का अपवाद भला हो सकता है, लेकिन अब गेहूं के साथ घुन भी पिसने लगा है. परिवार का हित चाहना बहू को रास नहीं आता. ऐसे में वह उन्हें अपने तरीके से परेशान करने लगती है तथा वैमन्स्य, दुर्भावना और समझ के अभाव में वह अपने ही मातापिता तुल्य सासससुर को जेल पहुंचा देती हैं.

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लड़की बोझ क्यों

बेटे पैदा करने का दबाव औरतों पर कितना ज्यादा होता है इस का नमूना दिल्ली के एक गांव में मिला जिस में एक मां ने अपनी 2 माह की बेटी की गला घोंट कर हत्या कर दी और फिर उसे कुछ नहीं सू झा तो एक खराब ओवन में छिपा कर बच्ची के चोरी होने का ड्रामा करने लगी. इस औरत के पहले ही एक बेटा था और आमतौर पर औरतें एक बेटे के बाद और बेटी से खुश ही होती हैं.

हमारा समाज चाहे कुछ पढ़लिख गया हो पर धार्मिक कहानियों का दबाव आज भी इतना ज्यादा है कि हर पैदा हुई लड़की एक बो झ ही लगती है. हमारे यहां पौराणिक कहानियों में बेटियों को इतना अधिक कोसा जाता है कि हर गर्भवती बेटे की कल्पना करने लगती है.

रामसीता की कहानी में राम तो राजा बने पर सीता के साथ हमेशा भेदभाव होता रहा. महाभारत काल की कहानी में कुंती हो या द्रौपदी या फिर हिडिंबा सब को वे काम करने पड़े थे जो बहुत सुखदायी नहीं थे.

ये कहानियां अब हमारी शिक्षा का अंग बनने लगी हैं. औरतों को त्याग की देवी का रूप कहकह कर उन का जम कर शोषण किया जाता है और वे जीवनभर रोतीकलपती रहती हैं. कांग्रेसी शासन में बने कानूनों में औरतों को हक मिले पर उन का भी खमियाजा उन्हें ही भुगतना पड़ता है क्योंकि हर हक भोगने के लिए पुलिस और अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ता है और भाई या पिता को उस के साथ जाना पड़ता है तो वे उस दिन को कोसते हैं जब बेटी पैदा हुई थी. हर औरत के अवचेतन मन में इन पौराणिक कहानियों और औरतों के व्रतों, त्योहारों से यही सोच बैठी है कि वे कमतर हैं और उन्हें ही अपने सुखों का बलिदान करना है.

रोचक बात है कि लगभग सारे सभ्य समाज में, जहां धर्म का बोलबाला है, औरतें एक न एक अत्याचार की शिकार रहती हैं. पश्चिमी अमीर देशों में भी औरतों की स्थिति पुरुषों के मुकाबले कमजोर है और बराबर की योग्यता के बावजूद वे ग्लास सिलिंग की शिकार रहती हैं और एक स्तर के बाद उन की पदोन्नति रुक जाती है. जब पूरे विश्व में पुरुषों का बोलबाला हो तो क्या आश्चर्य कि दिल्ली के चिराग दिल्ली गांव की नई मां को बेटी के जन्म पर अपना दोष दिखने लगा हो और गलती को सुधारने के लिए उसे मार ही डाला हो.

अब उस औरत को सजा देने की जगह मानसिक रोगी अस्पताल में कुछ दिन रखा जाना चाहिए. वह अपराधी है पर उस के अपराध पर उसे जेल भेजा गया तो उस के पति और बेटे का जीवन दुश्वार हो जाएगा. पति न तो दूसरी शादी कर सकता है, न घर अकेले चला सकता है.

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