अजय शायद उस की असहजता को समझ गया था. अत: वह दूसरे सोफे पर बैठ गया. फिर शुरू हुआ बीती बातों का लंबा सिलसिला… कितनी ही पुरानी यादें झरोखों से झांक गईं… कितने ही पल स्मृतियों में आए और चले गए… कभी दोनों खुल कर हंसे तो कभी आंखें नम हुईं… थोड़ी ही देर में दोनों सहज हो गए.
2 बार कौफी पीने के बाद पूर्णिमा ने कहा, ‘‘भूख लगी है… लंच नहीं करवाओगे?’’
‘‘यहीं रूम में करोगी या डाइनिंग हौल में चलें?’’ अजय ने पूछा और फिर पूर्णिमा की इच्छा पर वहीं रूम में खाना और्डर कर दिया. लंच के बाद फिर से बातें… बातें… और बहुत सी बातें…
‘‘अच्छा अजय, अब मैं चलती हूं… बहुत अच्छा लगा तुम से मिल कर. आई होप कि अब तुम अपनेआप को मेरे लिए परेशान नहीं करोगे,’’ पूर्णिमा ने टाइम देखा. शाम होने को थी.
‘‘एक बार गले नहीं मिलोगी,’’ अजय ने याचक दृष्टि से उस की तरफ देखा. न जाने क्या था उन आंखों में कि पूर्णिमा सम्मोहित सी उस की बांहों में समा गई.
अजय ने उसे अपने बाहुपाश में कस लिया और धीरे से अपने गरम होंठ उस के कान के नीचे गरदन पर लगा दिए. फिर उस का मुंह घुमा कर बेताबी से होंठ चूमने लगा. पूर्णिमा पिघलती जा रही थी. अजय ने उसे बांहों में उठाया और बिस्तर पर ले आया. पूर्णिमा चाह कर भी कोई विरोध नहीं कर पा रही थी. अजय के हाथ उस के ब्लाउज के बटनों से खेलने लगे.
तभी उस का मोबाइल बज उठा. पूर्णिमा जैसे नींद से जागी. अजय ने उसे फिर से अपनी ओर खींचना चाहा, मगर अब तक पूर्णिमा का सम्मोहन टूट चुका था. उस ने लपक कर फोन उठाया. फोन रवि का था. पूर्णिमा ने अपनी उखड़ी सांसों पर काबू पाते हुए रवि से बात की और उसे अपनी कुशलता के लिए आश्वस्त किया.
‘‘अजय, मैं ने तुम्हारी जिद पूरी कर दी. अब प्लीज तुम मुझ से संपर्क करने की कोशिश मत करना. मानोगे न मेरी बात?’’ पूर्णिमा ने अजय का हाथ अपने हाथ में ले कर उस से वादा लिया और कैंप की तरफ लौट गई.
लगभग 2 महीने हो गए… अजय की तरफ से कोई पहल नहीं हुई तो पूर्णिमा ने राहत की सांस ली. लेकिन उस की यह खुशी ज्यादा दिनों तक टिकी नहीं. अजय ने फिर से अपनी वही हरकतें शुरू कर दीं. कभी पूर्णिमा के रास्ते में खड़े रहना… तो कभी कालेज के गेट पर… कभी एसएमएस तो कभी व्हाट्सऐप मैसेज करना… मगर अब पूर्णिमा उसे पूरी तरफ इग्नोर करने लगी थी. हां, इस बीच उस ने पूर्णिमा को कोई फोन नहीं किया. फिर भी वह मन ही मन अजय की दीवानगी से डरने लगी थी, क्योंकि घर पहुंचने के बाद अकसर बच्चे उस के मोबाइल पर गेम खेलने लगते हैं. ऐसे में कहीं अजय का कोई मैसेज किसी ने पढ़ लिया तो मुसीबत हो जाएगी.
कुछ तो करना ही पड़ेगा… मगर क्या? क्या रवि को सब सच बता दूं? नहींनहीं पति चाहे कितना भी प्यार करने वाला हो पत्नी को कोई और चाहे यह कतई बरदाश्त नहीं कर सकता… तो क्या करूं? क्या अजय की पत्नी से मिलूं और उस से मदद मांगूं? नहीं, इस से तो अजय विभा की नजरों में गिर जाएगा… तो आखिर करूं तो क्या करूं? पूर्णिमा जितना सोचती उतना ही उलझती जाती.
अगले महीने पूर्णिमा का जन्मदिन आने वाला था. अजय फिर से एक आखिरी बार मिलने की जिद करने लगा. हालांकि अब पूर्णिमा उसे कोई रिस्पौंस नहीं देती. मगर अजय को उस के इस रवैए से कोई फर्क नहीं पड़ा. वह बदस्तूर जारी रहा. कभीकभी उस के संदेशों में अधिकारपूर्वक दी गई धमकी भी होती थी कि पूर्णिमा चाहे या न चाहे… वह उस के जन्मदिन पर उस से मिलेगा भी और सैलिब्रेट भी करेगा. बहुत सोच कर आखिर पूर्णिमा ने उसे मिलने की इजाजत दे दी.
तय समय पर पूर्णिमा अजय से मिलने पहुंची. यह अजय के सहकर्मी का घर था, जिसे
वह किराए पर दिया करता है. इन दिनों यह मकान खाली था और अजय ने उस से किसी जानकार को घर दिखाने के बहाने चाबी ले ली थी.
जैसाकि पूर्णिमा का अनुमान था, अजय ने केक, फूल और चौकलेट की व्यवस्था कर रखी थी. टेबल पर खूबसूरती से पैक किया गया एक गिफ्ट भी रखा था. पूर्णिमा ने हर चीज को नजरअंदाज कर दिया.
आज वह पूरी तरह से सतर्क थी. उस ने एक बार भी अजय को भावनात्मक रूप से खुद पर हावी नहीं होने दिया. कुछ देर औपचारिक बातें करने के बाद पूर्णिमा ने केक काटने की औपचारिकता पूरी की और फिर एक पीस अजय के मुंह में डाल दिया. इस के तुरंत बाद अजय ने उस की तरफ अपनी बांहें फैला दीं. मगर पूर्णिमा ने कोई रिस्पौंस नहीं दिया.
थोड़ी देर बाद उस ने अजय के परिवार का जिक्र छेड़ दिया, ‘‘विभा तुम्हें बहुत प्यार करती है न अजय?’’
‘‘हां, करती है,’’ अजय के चेहरे पर एक हलकी मुसकान आई.
‘‘कभी तुम ने उस से पूछा कि शादी से पहले वह किसी और से प्यार करती थी या नहीं?’’ पूर्णिमा ने आगे कहा.
‘‘नहीं… नहीं पूछा… और मैं जानना भी नहीं चाहता, क्योंकि उस समय मैं उस की जिंदगी का हिस्सा नहीं था,’’ अजय ने बहुत ही संयत स्वर में जवाब दिया.
‘‘अगर विभा ने अब भी अपने अतीत से रिश्ता जोड़ रखा हो तो?’’ पूर्णिमा ने एक जलता प्रश्न उछाला.
‘‘नहीं, विभा चरित्रहीन नहीं हो सकती… वह मुझ से कभी बेवफाई नहीं कर सकती,’’ अजय गुस्से से लाल हो उठा.
‘‘वाह अजय अगर विभा अपना अतीत याद रखे तो चरित्रहीन और तुम मुझ से रिश्ता रखो तो प्रेम… क्या दोहरी मानसिकता है… भई मान गए तुम्हारे मानदंड,’’ पूर्णिमा ने व्यंग्य से कहा.
अजय को कोई जवाब नहीं सूझा. वह सोच में डूब गया.
‘‘अजय, जैसा तुम सोचते हो लगभग वैसी ही सोच हर भारतीय पति अपनी पत्नी के लिए रखता है… शायद रवि भी… क्या तुम चाहते हो कि वह मुझे चरित्रहीन समझे?’’ पूर्णिमा उस के कंधे पर हाथ रखते हुए बोली.
‘‘नहीं, कभी नहीं. मुझे माफ कर दो पुन्नू… मैं तुम्हें खोने को अपनी हार समझ बैठा था और उसे जीत में बदलने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हो गया था. मैं सिर्फ अपना ही पक्ष देख रहा था… मैं भूल गया था कि 3 दूसरे लोग भी इस से प्र्रभावित होंगे,’’ अजय के स्वर में पश्चात्ताप झलक रहा था.
‘‘तो प्लीज, अगर तुम ने कभी सच्चे दिल से मुझे चाहा हो तो तुम्हें उसी प्यार का वास्ता… अब कभी मुझ से कोई उम्मीद मत रखना… इस रिश्ते को अब यहीं पूर्णविराम दे दो,’’ पूर्णिमा ने वादा लेने के लिए अजय के सामने हाथ फैला दिया, जिसे अजय ने कस कर थाम लिया.
पूर्णिमा ने आखिरी बार अजय को प्यार से गले लगाया और फिर अपने इस प्यार को पूर्णविराम दे कर आत्मविश्वास के साथ मुख्य दरवाजे की तरफ बढ़ गई.
अजय की बातों में वह कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाती थी. बस हांहूं कर के फोन काट देती थी. अजय ने ही बातोंबातों में उसे बताया कि जिस दिन पूर्णिमा की डोली उठी उसी दिन उस ने नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या करने की कोशिश की थी. 2 साल वह गहरे अवसाद में रहा. फिर किसी तरह अपनेआप को संभाल सका था. मांपापा के जोर देने पर उस ने विभा से शादी तो कर ली, मगर पूर्णिमा को एक पल के लिए भी नहीं भूल सका. विभा उस का बहुत खयाल रखती है. अब अजय भी 2 बच्चों का पिता है. कुछ महीने पहले ही उस का ट्रांसफर इस शहर में हुआ है आदिआदि…
अजय की इस शहर में उपस्थिति पूर्णिमा के लिए परेशानी का कारण बनने
लगी थी. अकसर जब पूर्णिमा कालेज के लिए निकलती तो अजय को किसी मोड़ पर बेताब आशिक की तरह खड़ा पाती. 1-2 बार तो उस का पीछा करतेकरते वह कालेज तक आ गया था. पूर्णिमा इसी फिक्र में घुली जा रही थी कि अजय कोई ऐसी बचकानी हरकत न कर बैठे जो उस के लिए शर्मिंदगी का कारण बन जाए. सोचसोच कर हमेशा खिलाखिला रहने वाला उस का चेहरा मुरझा कर पीला पड़ने लगा था.
‘‘पुन्नू, तुम्हें 20 अप्रैल याद है?’’ अजय ने उत्साहित होते हुए पूर्णिमा को फोन कर बताया.
‘‘याद तो नहीं था, मगर अब तुम ने याद दिला दिया,’’ पूर्णिमा ने ठंडा सा जवाब दिया.
‘‘सुनो, 20 अप्रैल आने वाली है… मैं तुम से मिलना चाहता हूं अकेले में… प्लीज, मना मत करना…’’ अजय के स्वर में विनती थी.
‘‘अजय यह मेरे लिए संभव नहीं है… यह शहर बहुत छोटा है… कोई हम दोनों को एकसाथ देख लेगा तो मुसीबत खड़ी हो जाएगी,’’ पूर्णिमा ने उसे समझाते हुए कहा.
‘‘यहां नहीं तो कहीं और चलो, मगर मिलना जरूर पुन्नू. तुम चाहो तो कुछ भी असंभव नहीं है… अगर तुम नहीं आओगी तो मैं दिनभर तुम्हारे कालेज के सामने खड़ा रहूंगा,’’ अजय अपनी जिद पर अड़ा रहा.
‘‘अजय 20 अप्रैल अभी दूर है… मैं पहले से कोई वादा नहीं कर सकती… अगर संभव हुआ तो सोचेंगे,’’ कह उसे टाल दिया.
मगर अजय आसानी से कहां टलने वाला था. वह हर तीसरे दिन कभी फोन तो कभी मैसेज के जरीए पूर्णिमा पर 20 तारीख को मिलने के लिए मानसिक दबाव बनाता रहा.
15 अप्रैल को अचानक पूर्णिमा को कालेज प्रशासन की तरफ से सूचना मिली कि उसे कालेज के एनसीसी कैडेट्स को ले कर ट्रेनिंग कैंप में जाना है. 19 से 25 अप्रैल तक दिल्ली में होने वाले इस कैंप में उसे कालेज की लड़कियों को ले कर 18 अप्रैल को दिल्ली के लिए रवाना होना था. पूर्णिमा ने मन ही मन अजय से मिलने की अनचाही मुसीबत से छुटकारा दिलाने के लिए कुदरत को धन्यवाद दिया और फिर गुनगुनाती हुई दिल्ली जाने की तैयारी करने लगी.
‘‘तो हम मिल रहे हैं न 20 को?’’ अजय ने 17 तारीख को उसे व्हाट्सऐप पर मैसेज किया.
‘‘मैं 20 को शहर से बाहर रहूंगी,’’ पूर्णिमा ने पहली बार अजय के मैसेज का जवाब दिया.
‘‘प्लीज, मेरे साथ इतनी कठोर मत बनो… किसी भी तरह अपना जाना कैंसिल कर दो… सिर्फ एक आखिरी बार मेरी बात मान लो… फिर कभी जिद नहीं करूंगा,’’ अजय ने रोने वाली इमोजी के साथ टैक्स्ट किया.
पूर्णिमा ने इस बार कोई जवाब नहीं दिया.
‘‘कहां जा रही हो इतना तो बता ही सकती हो?’’ अजय ने आगे लिखा.
‘‘दिल्ली.’’
‘‘मैं भी आ जाऊं?’’ अजय ने फिर लिखा.
‘‘तुम्हारी मरजी… इस देश का कोई भी नागरिक कहीं भी आनेजाने के लिए आजाद है,’’ टैक्स्ट के साथ 2 स्माइली जोड़ते हुए पूर्णिमा ने मैसेज किया. अब वह मजाक के मूड में आ गई थी, क्योंकि 20 अप्रैल को अजय से सामना नहीं होने की बात सोच कर वह अपनेआप को काफी हलका महसूस कर रही थी.
‘‘तो फिर 20 को मैं भी दिल्ली आ रहा हूं,’’ अजय ने लिखा.
पूर्णिमा ने मन ही मन सोचा कि अलबत्ता यह दिल्ली आएगा नहीं और अगर आ भी गया तो अच्छा ही होगा… शायद वहां एकांत में मैं इसे सच का आईना दिखा कर वर्तमान में ला सकूं… बावला. आज भी 10 साल पीछे ही अटका हुआ है.
पूर्णिमा अपने गु्रप के साथ 19 को सुबह दिल्ली पहुंच गई. कैंप में लड़कियों के ठहरने की व्यवस्था सामूहिक रूप से और ग्रुप के साथ आने वाले लीडर्स की व्यवस्था अलग से की गई थी. चायनाश्ते और खाने के लिए एक ही डाइनिंग हौल था जहां तय टाइमटेबल के अनुसार सब को पहुंचना था.
नाश्ते के बाद लड़कियां कैंप में व्यस्त हो गईं तो पूर्णिमा अपने कमरे में आ कर लेट गई. आज एक लंबे समय के बाद उस ने अपनेआप को फुरसत में पाया था. उस की आंख लग गई. उठी तो शाम हो रही थी. वह चाय के लिए हौल की तरफ चल दी.
तभी उस का फोन बजा, ‘‘मैं यहां आ गया हूं… तुम कहां ठहरी हो दिल्ली में?’’
‘‘अजय, तुम्हारा यहां आना संभव नहीं… तुम बेकार परेशान हो रहे
हो,’’ पूर्णिमा ने एक बार फिर उसे टालने की कोशिश की.
‘‘मेरा तुम्हारे पास आना संभव न सही… तुम तो मेरे पास आ सकती हो न… मैं अपना पता भेज रहा हूं… कल तुम्हारा इंतजार करूंगा,’’ कह कर अजय ने फोन काट दिया और कुछ ही देर बाद पूर्णिमा के मोबाइल पर अजय के होटल का पता आ गया.
24 को सुबह जब लड़कियां कैंप ऐक्टिविटीज में व्यस्त हो गईं तो पूर्णिमा कैब कर अजय के बताए पते पर चल दी. होटल की रिसैप्शन पर उस ने अजय का रूम पता किया और उसे मैसेज भिजवाया. अजय ने उसे रूम में ही बुलवा लिया.
रूम का दरवाजा खुला ही था, मगर भीतर काफी अंधेरा सा था. जैसे ही पूर्णिमा ने अंदर कदम रखा, सारी लाइटें एकसाथ जल उठीं और अजय उस के सामने लाल गुलाबों का गुलदस्ता लिए खड़ा था.
‘‘हैपी ऐनिवर्सरी,’’ कहते हुए अजय ने उसे प्यार से गुलदस्ता भेंट किया.
पूर्णिमा तय नहीं कर पाई कि वह इसे स्वीकारे या नहीं. फिर भी सामान्य शिष्टाचार के नाते उस ने उसे हाथ में ले कर वहां रखी टेबल पर रख दिया और सोफे पर बैठ गई. कुछ देर कमरे में सन्नाटा सा रहा.
‘‘कहते हैं कि किसी को शिद्दत से चाहो तो सारी कायनात आप को उस से मिलाने की कोशिशों में जुट जाती हैं,’’ हिंदी फिल्म का डायलौग दोहराते हुए अजय ने सन्नाटा भंग किया.
‘‘अजय, क्या चाहते हो तुम? क्यों ठहरे पानी में कंकड़ मारने की कोशिश कर रहे हो? अगर तूफान उठा तो बहुत कुछ बरबाद हो जाएगा,’’ पूर्णिमा ने फिर उसे समझाना चाहा.
‘‘प्लीज, आज कोई उपदेश नहीं… न जाने कितनी तपस्या के बाद तुम्हें इतने पास से देखनेमहसूस करने का मौका मिला है… मुझे इसे सैलिब्रेट करने दो,’’ अजय उस के बेहद पास खिसक आया था.
उस की बेताब सांसें पूर्णिमा अपने गालों पर महसूस कर रही थी. वह थोड़ा और सिमट कर कोने में खिसक गई.
‘‘कैसीहो पुन्नू?’’ मोबाइल पर आए एसएमएस को पढ़ कर पूर्णिमा के माथे पर सोच की लकीरें खिंच गईं.
‘मुझे इस नाम से संबोधित करने वाला यह कौन हो सकता है? कहीं अजय तो नहीं? मगर उस के पास मेरा यह नंबर कैसे हो सकता है और फिर यों 10 साल के लंबे अंतराल के बाद उसे अचानक क्या जरूरत पड़ गई मुझे याद करने की? हमारे बीच तो सबकुछ खत्म हो चुका है,’ मन में उठती आशंकाओं को नकारती पूर्णिमा ने वह अनजान नंबर ट्रू कौलर पर सर्च किया तो उस का शक यकीन में बदल गया. यह अजय ही था. पूर्णिमा ने एसएमएस का कोई जवाब नहीं दिया और डिलीट कर दिया.
अजय उस का अतीत था… कालेज के दिनों उन का प्यार पूरे परवान पर था. दोनों शादी करने के लिए प्रतिबद्ध थे. अजय उसे बहुत प्यार करता था, मगर उस के प्यार में एकाधिकार की भावना हद से ज्यादा थी. अजय के प्यार को देख कर शुरूशुरू में पूर्णिमा को अपनेआप पर बहुत नाज होता था. इतना प्यार करने वाला प्रेमी पा कर उस के पांव जमीन पर नहीं टिकते थे. मगर धीरेधीरे अजय के प्यार का यह बंधन बेडि़यों में तबदील होने लगा. अजय के प्रेमपाश में जकड़ी पूर्णिमा का दम घुटने लगा.
दरअसल, अजय किसी अन्य व्यक्ति को पूर्णिमा के पास खड़ा हुआ भी नहीं देख सकता था. किसी के भी साथ पूर्णिमा का हंसनाबोलना या उठनाबैठना अजय की बरदाश्त से बाहर होता था और फिर शुरू होता था रूठनेमनाने का लंबा सिलसिला. कईकई दिनों तक अजय का मुंह फूला रहता.
पूर्णिमा उस के आगेपीछे घूमती. मनुहार करती… अपनी वफाओं की दुहाई देती… बिना अपनी गलती के माफी मांगती. तब कहीं जा कर अजय नौर्मल हो पाता था और पूर्णिमा राहत की सांस लेती थी. मगर कुछ ही दिनों में फिर वही ढाक के तीन पात.
कालेज में इतने सारे दोस्त होते थे, साथ ही कई तरह की ऐक्टिविटीज भी. ऐसे में एकदूसरे से बोलनाबतियाना लाजिम होता था. बस वह यह देख पूर्णिमा से बात करना बंद कर देता था. पूर्णिमा एक बार फिर अपनी सारी ऊर्जा इकट्ठा कर उसे मनाने में जुट जाती थी.
धीरेधीरे पूर्णिमा के मन में अजय को ले कर डर घर करने लगा. अब वह किसी से बात करते समय नौर्मल नहीं रह पाती थी. उस का सारा ध्यान यही सोचने में लगा रहता कि कहीं अजय देख तो नहीं रहा… अगर अजय ने देख लिया तो मैं क्या जवाब दूंगी… कैसे उसे मनाऊंगी… उसे कुछ भी कह दूं वह संतुष्ट तो होगा नहीं… क्या सुबूत दूंगी उसे अपने पाकसाफ होने का आदिआदि.
कालेज खत्म होतेहोते आखिर पूर्णिमा ने अजय से ब्रेकअप करने का निश्चय कर ही लिया. वह भलीभांति जानती थी कि उस का यह फैसला अजय को तोड़ देगा, मगर यह भी तय था कि अगर आज वह भावनाओं में बह गई तो फिर हमेशा के लिए उस की जिंदगी की नाव अजय के शंकालु प्रेम के भंवर में फंस कर डूब जाएगी और यह स्थिति किसी के लिए भी सुखद नहीं होगी. न अजय के लिए और न ही खुद पूर्णिमा के लिए.
पूर्णिमा ने दिल पर पत्थर रख कर अपने पापा की पसंद के लड़के रवि से शादी कर ली. पुराने शहर से उस का नाता अब छुट्टियों में पीहर आने तक ही रह गया. अपने पुराने दोस्तों से ही उसे पता चला था कि अजय भी अपनी नौकरी के सिलसिले में यह शहर छोड़ कर चला गया.
इन बीते 10 सालों में जिंदगी ने एक भरपूर करवट ली थी. पूर्णिमा 2 बच्चों की मां बन चुकी थी. अब प्राइवेट कालेज में पढ़ाने लगी है. रवि, घरपरिवार और बच्चों में उलझी पूर्णिमा को पता ही नहीं चला कि कब समय पंख लगा कर उड़ गया. मगर आज अचानक अजय के इस एसएमएस ने पूर्णिमा को चौंका दिया. उसे महसूस हो रहा था कि वक्त की जिस राख को वह ठंडा हुआ समझ रही थी उस में अभी भी कोई चिनगारी सुलग रही है. उस की जरा सी लापरवाही उस चिनगारी को शोलों में बदल सकती है और इन शोलों की चपेट में आ कर न जाने किसकिस के अरमान स्वाहा होंगे.
अगले 3-4 दिन तक अजय की तरफ से कोई रिस्पौंस नहीं आया, मगर
पूर्णिमा इस बात को आईगई नहीं समझ सकती थी. वह अजय के सनकी स्वभाव को अच्छी तरह जानती थी कि जरूर उस के दिमाग में कोई खिचड़ी पक रही है. अजय यों शांत बैठने वालों में बिलकुल नहीं है.
और आज वही हुआ, जिस का पूर्णिमा को डर था. वह अपना लैक्चर खत्म कर के कौमनरूम में बैठी थी तभी उस का मोबाइल बज उठा. फोन अजय का था. उस ने धड़कते दिल से कौल रिसीव की.
‘‘कैसी हो पुन्नू?’’ अजय का स्वर कांप
रहा था.
‘‘माफ कीजिए, मैं ने आप को पहचाना नहीं,’’ पूर्णिमा ने अनजान बनते हुए कहा.
‘‘मैं तो तुम्हें एक पल को भी नहीं भूला… तुम मुझे कैसे भूल सकती हो पुन्नू?’’ अजय ने भावुकता से कहा.
पूर्णिमा मौन रही.
‘‘मैं अजय बोल रहा हूं… 10 साल बीत गए… कोई ऐसा दिन नहीं गुजरा जब तुम याद न आई हो… और तुम मुझे भूल गईं? मगर हां एक बात तो है… तुम आज भी वैसी की वैसी ही लगती हो… बिलकुल कालेज गर्ल… क्या करूं फेसबुक पर तुम्हें देखदेख कर अपने दिल को तसल्ली देता हूं…’’
अजय अपनी रौ में कहता जा रहा था पर पूर्णिमा की तो जैसे सोचनेसमझने की शक्ति ही समाप्त हो गई थी. उसे अपने खुशहाल भविष्य पर खतरे के काले बादल मंडराते साफ नजर आ रहे थे.
‘‘अभी फोन रखती हूं… मेरी क्लास का टाइम हो रहा है,’’ कहते हुए पूर्णिमा ने फोन काट दिया और सिर पकड़ कर बैठ गई. चपरासी से
1 कप कौफी लाने को कह कर वह इस अनचाही मुसीबत से निबटने का उपाय सोचने लगी. मगर यह आसान न था.
अजय की फोन कौल्स और एसएमएस की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी. कभीकभार व्हाट्सऐप पर भी मैसेज आने लगे थे. पूर्णिमा चाहती तो उसे ब्लौक कर सकती थी, मगर वह जानती थी कि टूटा हुआ आशिक चोट खाए सांप जैसा होता है… अगर वह सख्ती से पेश आई तो गुस्साया अजय न जाने कौन सा ऐसा कदम उठा ले जो उस के लिए घातक हो. हां, वह उस के किसी भी मैसेज का कोई जवाब नहीं देती थी. खुद उसे कभी फोन भी नहीं करती थी. मगर अजय के फोन वह रिसीव अवश्य करती थी ताकि उस का मेल ईगो संतुष्ट रहे.
यानी यह डर कि जाति के आधार पर भेदभाव किया तो आपराधिक मामला दर्ज हो सकता है. पर विवाह संस्था आपराधिक मुकदमों के दायरे से बाहर रही. इसलिए अगर कुछ नहीं बदला तो वह है अंतर्जातीय विवाह पर सामाजिक प्रतिबंध. एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि तमाम सर्वेक्षणों में जिन लोगों ने अंतर्जातीय विवाह के संबंध में सकारात्मक उत्तर दिए हैं, वे भी समय आने पर अपने जीवन में जातिगत विवाह को ही प्राथमिकता देते हैं. यहां तक कि अमेरिका में लंबे समय से बसे भारतीय भी विवाह अपनी जाति में ही करना पसंद करते हैं.”
“पापा, बहुसंख्यक वर्ग का कहा सत्य नहीं हो जाता. जाति और विवाह के नियम समाज द्वारा बनाए गए हैं. समाज जिसे बना सकता है, उसे मिटा भी सकता है. पर क्या ऐसा होगा? निकट भविष्य में यह संभव होता नहीं दिखाई देता क्योंकि वर्चस्व की लालसा कोई भी समाज त्यागने को आसानी से तैयार नहीं होता. ऐसे में कथित ऊंची जातियां अपना यह मोह भला क्यों त्यागना चाहेंगी? लेकिन, मैं पूरी तरह से आश्वस्त हूं कि जातिगत भेदभाव को मिटाने का अचूक उपाय एक ही है और वह है अंतर्जातीय विवाह. मेरे जैसे युवा यह परिवर्तन लाएंगे.”
“तो तुम समाज परिवर्तन करने निकले हो?”
“पापा, मैं कोई विद्यासागर तो हूं नहीं. लेकिन, इतना जरूर कह सकता हूं कि यदि हर व्यक्ति स्वयं को सुधार ले, तो समाज स्वयं ही सुधर जाएगा!”
“शिशिर, मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं, लेकिन यह सुधार का काम तुम मेरे घर से बाहर निकल कर करो. इस शादी के बाद मेरा तुम से कोई संबंध नहीं रहेगा.”
“पापा.”
“सोच लो. अभी समय है तुम्हारे पास. लौकडाउन समाप्त होने तक तो भोपाल नहीं लौट पाओगे.”
समय न तो रुकता है और न किसी के कहे अनुसार चलता है. संसार का यह चक्र कितना नियमित है, कितना समय का पाबंद है. कौन सा पल हमारे लिए क्या ले कर आने वाला है, मनुष्य कहां जानता है? फिर भी झूठे दंभ और स्वार्थ और में लगा रहता है.
उस शाम बलराज क्रोध में घर से निकल आया था. कालिंदी ने समझाया भी था कि शिशिर दवा औनलाइन मंगा देगा. लेकिन क्रोध और अहंकार मनुष्य का विवेक खत्म कर देता है. घर के दरवाजे पर वह उस का अंतिम स्पर्श था. वह घर से निकला तो था अपनी ब्लड प्रैशर की दवा खरीदने, लेकिन साथ ले आया था महामारी.
दवा की दुकान पर उसे पिछली गली में रहने वाले एक जानकार मिल गए थे. उन का बेटा कुछ दिन पहले ही कनाडा से लौटा था. उसके लिए ही सर्दीजुकाम की दवाई खरीदने आए थे. अभी वे बात कर ही रहे थे कि उन के सामने से पुलिस की 3 गाड़ियों के साथ एक ऐंबुलैंस भी गुजरी.
वह उन से कुछ पूछता, उस से पहले ही एक पुलिसकर्मी सामने आ कर बोला,”मनोहर शर्मा आप ही हैं ना?”
घबराहट के मारे परिचित के हाथ से दवा वाला थैला गिर गया था. बलराज को अभी भी कुछ समझ नहीं आ रहा था.
उस ने पूछा था,”क्या बात है?”
उस के प्रश्न का उत्तर परिचित के स्थान पर पुलिसकर्मी ने दिया,”आप के मोहल्ले में कोरोना वायरस विस्फोट हो सकता है, क्योंकि आप के पड़ोस में एक पढ़ालिखा गैरजिम्मेदार मूर्ख परिवार है.”
उस ने आगे कहा,”इन के बेटे को एअरपोर्ट पर समझाया गया था. लेकिन न तो उस ने सैल्फ आइसोलेशन किया और न ही उस का परिवार घर के अंदर रहा. इन पर कोरोनोवायरस की सलाह की उपेक्षा करने, सुरक्षा जांच से भागने और बहुत कुछ करने के लिए कई आरोप लगाए गए हैं. हम लोग कोरोना के प्रसार को रोकने के लिए दिनरात एक कर रहे हैं, वहीं कुछ लोग हैं जो नियमों का पालन नहीं कर रहे और सभी के जीवन को खतरे में डाल रहे हैं. अब देखिए इन के कारण पूरा मोहल्ला परेशान होगा और आप भी.”
बलराज चौंक पड़ा,”मैं…मैं क्यों?”
उस ने सहानुभूति से उस के कंधे पर हाथ रखा और बोला,”भाई साहब, आप तो डाइरैक्ट कौंटैक्ट में आ गए ना इन के…”
उस के बाद घटनाक्रम तेजी जे बदलता चला गया. वह घर जा नहीं सकते थे, शिशिर और कालिंदी को संक्रमण का खतरा था. शिशिर ही बैग लेकर होस्पिटल आया था. अगले 20 दिन उस ने मृत्यु के पहले मृत्यु को देखा.
लैटिन भाषा में कोरोना का अर्थ ‘मुकुट’ होता है और इस वायरस के कणों के इर्दगिर्द उभरे हुए कांटे जैसे ढांचों से माइक्रोस्कोप में मुकुट जैसा आकार दिखता है, जिस पर इस का नाम रखा गया. बलराज तो सदा से स्वयं को राजा माना करता था, तो यह मुकुट तो उस के सिर पर सजना ही था.
उस दौरान बलराज ने जाना कि मृत्यु से अधिक डर मृत्यु के इंतजार में होता है. ब्लड प्रैशर के मरीज के लिए यह बीमारी घातक थी. यह मुकुट वे अपने सिर से कभी उतार ही नहीं पाए और इसे सिर पर धारण किए हुए ही इस संसार को विदा कह दिया. देह भी घर नहीं लौट पाई थी.
ऐंबुलैंस में बलराज की मृत शरीर को को डालषकर शिशिर उसे होस्पिटल से यहां इलैक्ट्रिक क्रिमेटोरियम में ले आया था. नियमों के अनुसार कोरोना पौजिटिव मरीज के शव का संस्कार मुखाग्नि से नहीं किया जा सकता था.
महामारी ने उस की शरीर को अछूत बना दिया था. कोई भी उस के मृत शरीर के अंतिम संस्कार में आने को तैयार नहीं था. यहां तक कि श्मशान के स्टाफ ने भी शव का अंतिम संस्कार करने से इनकार कर दिया था. पिछले 1 घंटे से शिशिर फोन पर लोगों को समझाने में ही व्यस्त था.
श्मशान वह स्थान है जहा पर मुरदे जलाए जाते हैं, लेकिन श्मशान तो किसी मंदिर अथवा मसजिद से भी अधिक पवित्र स्थान है. यहां मनुष्य को अपनी वास्तविक हैसियत का पता चलता है. देखा जाए तो केवल जन्म के पलों में और मौत के पलों में ही कुछ सार्थक घटित होता है. प्रसूतिगृह और श्मशान घाट ये 2 ही समझदारी भरी जगहें हैं. इन दोनों स्थान पर मनुष्य वास्तविक जीवन को समझता है.
अभीअभी नगर निगम की टीम पहुंच गई. उन के कहने पर सिक्योर बौडी बैग में पैक बलराज के शरीर को बाहर निकाला गया. उस के बेटे को मेरे शव को छूने की भी अनुमति नहीं थी. मोर्चरी स्टाफ ने भी उस के शरीर को छूने से पूर्व पर्सनल प्रोटैक्टिव इक्विपमैंट ले लिया था. उस की अंतिम यात्रा को उस पीपीई स्टाफ ने पूरा कराया, जिस की जाति अज्ञात थी.
उस के शरीर को अंदर डाल कर स्विच औन कर दिया गया. अब उस का शरीर जल कर मिनटों में राख हो जाएगा.
बलराज शिशिर के मन में भी कटुता के बीज को रोपना चाहता था. लेकिन उस की हर बात का एक मौन के साथ समर्थन करने वाली उस की पत्नी कालिंदी ने यहां उस की नहीं सुनी. उस ने अपने बेटे के मस्तिष्क की कोमल धरती पर प्रश्न का बीज अंकुरित कर दिया. शिशिर ने प्रश्न करना आरंभ कर दिया और जहां प्रश्न अंकुरित होने लगते हैं, वह धरती बंजर अथवा विषैली नहीं रह जाती.
शिशिर अलग था. जो विशेषाधिकार बलराज को प्रफुल्लित किया करते थे, उन से उस का दम घुटता था.
वह कहता,”यह ब्राह्मणवादी विशेषाधिकार, मेरे उन विशेषाधिकारों का हनन करती है, जो एक मनुष्य होने के नाते मुझे मिलने चाहिए. जैसे, खुल कर जीने की इच्छा, अपनी उन आदिम व सभी भावनाओं को प्रगट करने की इच्छा, जो मनुष्य होने का प्रमाण है. मगर समाज को इस सब की फिक्र कहां, उसे तो अपनी उस सड़ीगली, बदबूदार व्यवस्था को बचाए रखने की चिंता है, जो सारे सांस्कृतिक विकास पर एक बदनुमा दाग है. आज न तो देश, न सरकार और न ही युवा, ऐसी सड़ीगली व्यवस्था को मानते हैं.”
जब इंजीनियरिंग कालेज में उस ने एक दलित मित्र को अपना रूमपार्टनर बनाया, तब बलराज ने उसे खूब कोसा, फब्तियां कसी, चुटकियां ली, पर वह डटा रहा.
बलराज कुढ़ता रहता, लेकिन शिशिर मुसकराता और कहता,”अस्वीकार्य को अधिक दिनों तक लादा नहीं जा सकता. जाति का जहर मेरे शरीर में हमेशा चुभता रहा है.”
बलराज कहता,”तुम्हारा भाग्य है कि तुम्हें इतने महान कुल में जन्म प्राप्त हुआ है. तनिक सोचो, क्या होता यदि तुम्हारा जन्म एक निम्न जाति में हुआ होता? मनुष्य को जो आसानी से मिल जाता है, वह उस का मूल्य ही नहीं जान पाता.”
“पापा, मैं भी तो यही कह रहा हूं. उस जाति अथवा समाज पर क्या अभिमान करना जिस का प्राप्त होना, महज हेड ऐंड टैल का खेलमात्र हो. ब्राह्मण बन कर जन्म लेने में मेरी व्यक्तिगत उपलब्धि क्या है? अभिमान के स्थान पर मुझे तो शर्म आती है, जब मात्र मेरी जाति के कारण मुझे सम्मान दिया जाता है. मुझे मेरे व्यक्तित्व के लिए सम्मान चाहिए, न कि किसी विशेष सरनेम के कारण. जन्म के लिए जिस कुल को चुनने पर आप का कोई अधिकार ही नहीं, उस कारण जब आप का अपमान किया जाता है, तो जरा सोचिए कि कितनी पीड़ा होती होगी?”
बलराज अहंकार के साथ कहता,”तो आरक्षण तो मिल गया ना उन्हें. यह उचित है क्या?”
“बिलकुल. वैसे आरक्षण कोई एहसान नहीं, उन का अधिकार है. एक समय था जब उच्च पदों पर तथाकथित उच्च जातियों का आधिपत्य था. आज वहां उन की मोनोपोली कम हो रही है. यह बात दूसरी है कि वर्तमान समय में आरक्षण राजनीतिक पार्टियों का एक हथियार भी बन गई है.”
बलराज कहता,”अरे सभी को अपनी सभ्यता और संस्कृति पर गर्व होता है! सभी स्वयं को अन्य से बेहतर साबित करते हैं. तुम मात्र ब्राह्मणों को दोष नहीं दे सकते.”
शिशिर कहता,”मुझे ब्राह्मणों से नहीं, उस सोच से दिक्कत है, जो स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ आँकती है. ऐसी सोच रखने वाला जिस धर्म, जाति, देश अथवा क्षेत्र से संबंध रखता हो, वह गलत ही है.”
थोड़ी देर विराम ले कर वह फिर कहता,”आप को पता है पापा, मेरी प्रगतिशील दलित मित्रों की मंडली भी ‘ब्राह्मण’ कह कर मेरा उपहास करती है, मानो मैं ब्राह्मणशाही का प्रतिनिधि करता हूं और ब्राह्मण परिवार में पैदा हो जाने के कारण ब्राह्मणशाही का सारा गुनाह मेरे सिर पर है. मैं जानता हूं कि वे मेरे मित्र हैं, और यह उन का मजाक है, मगर यह भी सच है कि आज घृणा और क्रोध दोनों तरफ है. लेकिन हमें इस घृणा का अंत करना है, उसे बढ़ाने का कारण नहीं बनना.”
धीरेधीरे उन के बीच बातचीत कम होती चली गई. शिशिर मेधावी था, अतः जीवन के सोपान पर आगे बढ़ने में उसे अधिक कठिनाई नहीं हुई. मध्य प्रदेश सरकार के बिजली विभाग में अभियंता के पद पर चयनित हो कर शिशिर भोपाल चला गया और दोनों पतिपत्नी इंदौर में अकेले रह गए. मांऔर बेटे की बातचीत लगभग प्रतिदिन हो जाया करती पर बलराज और शिशिर के बीच अबोला बढ़ता ही चला गया.
बलराज यह सोच कर संतोष कर लेता कि समय के साथ उस की सोच बदल जाएगी. वैसे भी वह अपने आसपास यह सब होता हुआ देख रहा था. आजकल की पीढ़ी दोहरी मानसिकता के साथ जी रही थी. सोशल नेटवर्किंग साइट पर जिस प्रथा और मान्यता का विरोध करते, लंबेलंबे आलेख शेयर किया करते, उसी प्रथा का अपने जीवन में निस्संकोच पालन किया करते थे.
इस समाज को अधिक खतरा उन से नहीं है जो गलत सोच रखते हैं, बल्कि उन से हैं जो अच्छी सोच होने का ढोंग करते हैं.
वैसे संख्या में कम, लेकिन सोच में अधिक एक वर्ग ऐसा भी है, जिस की कथनी और करनी अलग नहीं है. उस का बेटा शिशिर भी ऐसा ही था. अपने जीवनकाल में वह यह जान तो पाया, लेकिन समझ नहीं पाया.
शिशिर अपनी एक सहकर्मी के साथ विवाह करने का प्रस्ताव लेषकर उन के पास आया था. बलराज का संस्कारी मन इस प्रेम विवाह को समय की मांग सोच कर मान भी लेता यदि लड़की किसी उच्च जाति की होती. लेकिन साक्षी एक दलित परिवार की लड़की थी और एक दलित परिवार की लड़की को पुत्रवधू बना कर लाना उसे स्वीकार्य नहीं था. उस दिन वर्षों बाद पितापुत्र के बीच बात हुई थी.
बलराज ने ही बात को शुरू किया,”दलित और मुसलमान छोड़ कर तुम अपनी मरजी से किसी भी जाति में शादी कर सकते हो.”
एक मुसकान के साथ शिशिर बोला,”हम दोनों ने ही कभी यह नहीं सोचा कि हमारी जाति क्या है? हम उस विचारधारा से ताल्लुक रखते हैं, जहां इंसान जाति और धर्म की पहचान से बहुत ऊपर उठ जाता है. यह भी सच है कि प्रेम इंटरव्यू ले कर नहीं होते.”
उस दिन कालिंदी ने भी शिशिर को समझाया,”बेटा, पापा को भी तो समझो, हम जिस समाज में रहते हैं, वहां एक दलित से विवाह सही नहीं है.”
शिशिर चौंक गया था,”मां, जब दलित से मित्रता सही है, फिर विवाह गलत कैसे हो गया? वैसे भी समाज बदल गया है.”
इस बार बलराज मुसकराया था,”बेटा, सच यही है कि जाति एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में भारत में सिर्फ अपना रूप बदल रही है. जाति की शुद्धता बनाए रखने के लिए समाज में उस की खास जगह, खानपान और सामाजिक व्यवहार पर प्रतिबंध, व्यवसाय के स्वतंत्र चुनाव का अभाव और अंतर्जातीय विवाह पर रोक जरूरी माने गए हैं. आज इन लक्षणों में परिवर्तन आया है, जिस का सब से बड़ा कारण कानूनी बाध्यता है.
यह कहते हुए कृष्णा ने ताला खोला और अंदर चली गई. फिर वाशरूम से आ खिड़की बंद करती है और एक बार आईने में खुद को देख हाथों से अपना बाल ठीक कर सूटकेश उठा बाहर निकल आती है. बाहर आ कर आश्चर्य में पड़ जाती है. यह देख कि गुप्ता मैडम का पति उस से फिर कहता है, ‘‘मैडम आप बात कर लीजिए न आप कल कह रही थीं कि बहुत जरूरी है बात करना.’’
‘‘नहीं इतना जरूरी नहीं है,’’ कहते हुए कृष्णा ताला लगाती है, अब उसे थोड़ा गुस्सा भी आने लगा था. सोचती है यह आदमी तो पीछे ही पड़ गया, कैसे इस से पीछा छुड़ाऊं? ताला लगा कर जब वह पीछे मुड़ी तो उस आदमी को अजीब स्थिति में पाती है जैसे आंखें चढ़ी हों और सांसें बेतरतीब चल रही हो, कृष्णा को अब थोड़ा डर लगा और वह सूटकेश ले कर से तेजी से निकल पड़ती है. गुप्ता का पति अभी भी पीछे से पुकार रहा है.
‘‘मैडम फोन कर लीजिए.’’
कृष्णा ‘नो थैंक्स’ ‘नो थैक्स’ कहते लगभग भागते हुए सड़क तक पहुंची.
रास्ते भर कृष्णा सोच में डूबी रही कि अजीब आदमी है. कल जब फोन करनी थी तो इस ने एक बार भी फोन करने को नहीं कहा और आज पीछे पड़ गया- फोन कर लीजिए, बिलकुल सिरफिरा लगता है. थोड़ी देर में वह औफिस पहुंच गई. जैसे ही वह औफिस पहुंची गुप्ता मैडम से उस का सामना हुआ और वह उस के सूटकेश को देख अजीब नजरों से उसे ताकने लगी फिर पूछा, ‘‘क्या तुम गेस्ट हाउस गई थी’’ और उसे से पीछा छुड़ा यह सोचते हुए कि दोनों ही पतिपत्नी बड़े अजीब हैं, नर्गिस के पास पहुंची.
नर्गिस लंच ले चुकी थी. कृष्णा का बड़बड़ाते देख पूछ बैठी, ‘‘क्या हुआ?’’
कृष्णा ने बताया, ‘‘अरे ये गुप्ता मैडम और उस के पति दोनों बड़े अजीब लोग हैं. अभी मैं सूटकेश लेने गई थी गेस्ट हाउस में तो उस का पति कह रहा था कि मेरे लैंडलाइन से घर पर फोन कर लीजिए. अब मुझे फोन नहीं करना तो नहीं करना उसे क्या पड़ी है,’’ इस पर नर्गिस ने बताया, ‘‘मैं तुम्हें बताना भूल गई कि उस के बारे में बड़े अजीबअजीब से किस्से प्रचलित हैं, जरा बच के रहना उस से.’’ जब कृष्णा ने कोंचा तो उस ने बताया, ‘‘अस्पताल में एक बार इस आदमी ने एक नर्स को छेड़ा था. नर्स ने जब हल्ला किया तो लोग जमा हो गए. कहा जाता है ऐसे ही किसी मामले में एक बार वह सस्पेंड भी हो चुका है. अफवाह तो ऐसी ही थी पता नहीं सच क्या है और झूठ क्या? लेकिन इतना तो तय है कि इस की रैप्यूटेशन अच्छी नहीं है. तरहतरह की अफवाहें उड़ती रही हैं उस के बारे में.’’
‘‘मुझे तुम्हें पहले बताना चाहिए था,’’ कहते हुए कृष्णा के शरीर में एक झुरझुरी सी उठी लेकिन जाने की हड़बड़ी में सब भूल कर जल्दजल्दी काम निबटाने में लग गई. समय से पहले सब काम निबटा बास से छुट्टी ले वह स्टेशन के लिए रवाना हो गई.
स्टेशन पहुंची तो ट्रेन लगी हुई थी, अब फोन करने का समय नहीं था. वह जल्दी में ट्रेन में चढ़ गई. थोड़ी देर में ट्रेन खुल भी गई. खिड़की के बाहर हर पल दृश्य बदल रहा था. सांझ हो आई थी, खेतों के बीच से पशुपखेरू, लोगबाग अपनेअपने घरों को लौट रहे थे. कृष्णा को खयाल आया कि कल इस समय मैं भी अपने परिवार के साथ अपने घर में रहूंगी.
धीरेधीरे रात उतर आई और बाहर कुछ बत्तियों के सिवाय अब कुछ भी दिखाई पड़ना बंद हो गया. कृष्णा खाना खा कर कल के सपने देखती हुई सो गई. सुबहसुबह उस की नींद खुली तो उस का स्टेशन आने वाला था. जल्दीजल्दी उस ने अपना सामान समेटा. सोच रही थी पता नहीं जय स्टेशन आएगा या नहीं. वैसे जय को मालूम तो था कि वह आने वाली है पर 2 दिन से बात नहीं होने के कारण ठीक से प्रोग्राम नहीं बता पाई थी. पर उस की खुशी का ठिकाना नहीं रहा जब उस ने जय को हाथों में फूलों का बुके लिए खड़े देखा. शादी के बाद शायद यह उन की सब से लंबी जुदाई का वक्त रहा था. अत: दोनों मिलने को बेकरार थे. घर आ कर वह घर की सफाई और बच्चों के साथ मिल कर दीवाली की तैयारी में जुट गई. खुशी के 2-3 दिन कैसे बीत गए पता ही नहीं चला.
अपने परिवार के साथ मस्ती भरी दीवाली बीत गई. अब उसे कावेरी से मिलना
था. जैसा कि पहले से तय था दोनों कौफी हाउस में मिले और कौफी की चुस्कियों के साथ बातों का सिलसिला चल निकला. दोनों एकदूसरे को अपनी नई पोस्टिंग और नए जगह के बारे में बताने लगे. दोनों पहली बार अपने घरपरिवार से दूर अलग रहने के अनुभव को शेयर करने लगीं. कृष्णा ने बातों ही बातों में यात्रा से तुरंत पहले की वह टेलीफोन वाली बात कावेरी को बताया. कावेरी ने जोर का ठहाका लगाया और अपने बिंदास अंदाज में उस से पूछने लगी, ‘‘तुझे क्या लगता है क्यों वह तुझे फोन करवाने को इतना आतुर था और तुझ पर इतनी मेहरबानी कर रहा था?’’
कृष्णा ने कहा, ‘‘मुझे तो वह कुछ सिरफिरा लगा, हो सकता है रिटायरमैंट के बाद सठिया गया हो.’’
कावेरी ने उसी बिंदास अंदाज में एक और ठहाका लगाया और कहा, ‘‘अरे बुद्धू तू बालबाल बच गई इंनकार कर के वरना वह तुझे लपेटने वाला था. अगर तू उस के रूम में चली जाती तो वह पीछे से दरवाजा बंद करता और तुझ पर टूट पड़ता. तू खुद कह रही है न कि औफिस का समय था और उस समय कौरिडोर में कोई नहीं था और उस की आवाज भी उखड़ीउखड़ी सी थी.’’
‘‘अरे नहीं, क्या बात करती हो तुम, मैं एक अधेड़ उम्र की महिला वह मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकता था.’’
‘‘तेरे गोरे रंग पर मर मिटा होगा ये बता तुझ से तो बड़ा था न? तू कह रही है रिटायर्ड था तो कम से कम 15 साल तो बड़ा होगा ही तुझ से.’’
‘‘ये तू क्या कह रही है कावेरी मैं ने इस ऐंगल से तो सोचा ही नहीं.’’
‘‘तो सोच, अगर वह सिर्फ तुझ पर मेहरबानी कर रहा था तो शाम में जब तुम सब साथ चाय पी रहे थे और उस की पत्नी साथ थी उस ने तुझे फोन करने को क्यों नहीं कहा?’’
‘‘हां, तेरी यह बात भी सही है.’’
‘‘जी हां, मैं हमेशा सही ही कहती हूं. दिन में जब गेस्ट हाउस में निश्चय ही सारे
लोग औफिस जा चुके थे और कारिडोर
बिलकुल सूना पड़ा था तभी वह दरियादिल क्यों बन गया था और तभी उस ने तुझ से फोन करने को क्यों कहा? इस के पीछे कुछ तो वजह रही होगी.’’
‘‘हां, यह बात भी सही है कि उस समय पूरे कौरिडोर में कोई नहीं था.’’
‘‘यस और नर्गिस ने तुझे बताया भी कि उस का रिकौर्ड ठीक नहीं.’’
‘‘हां, पर उस ने पहले नहीं बताया न.’’
‘‘अगर नर्गिस ने पहले बताया होता तो तुम्हें उसी समय माजरा समझ में आ गया होता.’’
‘‘अच्छा ये बता उस की पत्नी ने औफिस में मुझ से क्यों पूछा कि तुम गेस्ट हाउस गई थी क्या?’’
‘‘वह इसलिए कि इसे अपने पति का चालचलन मालूम था और उसे हमेशा अपने पति पर संदेह रहता होगा कि वह फिर से कोई करामात कर सकता है.’’
विजय के हाथ से मैँ ने मिठाई का डब्बा और कार्ड ले लिया. पल्लवी को पुकारा. वह भी भागी चली आई और दोनों को प्रणाम किया.
‘‘जीती रहो, बेटी,’’ निशा ने पल्लवी का माथा चूमा और अपने गले से माला उतार कर पल्लवी को पहना दी.
मीना ने मना किया तो निशा ने यह कहते हुए टोक दिया कि पहली बार देखा है इसे दीदी, क्या अपनी बहू को खाली हाथ देखूंगी.
मूक रह गई मीना. दीपक भी योजना के अनुसार कुछ फल और मिठाई ले कर घर चला आया, बहाना बना दिया कि किसी मित्र ने मंगाई है और वह उस के घर उत्सव पर जाने के लिए कपड़े बदलने आया है.
‘‘अब मित्र का उत्सव रहने दो बेटा,’’ विजय बोला, ‘‘चलो चाचा के घर और बहन की डोली सजाओ.’’
दीपक चाचा से लिपट फूटफूट कर रो पड़ा. एक बहन की कमी सदा खलती थी दीपक को. मुन्नी के प्रति सहज स्नेह बरसों से उस ने भी दबा रखा था. दीपक का माथा चूम लिया निशा ने.
क्याक्या दबा रखा था सब ने अपने अंदर. ढेर सारा स्नेह, ढेर सारा प्यार, मात्र मीना की जिद का फल था जिसे सब ने इतने साल भोगा था.
‘‘बहन की शादी के काम में हाथ बंटाएगा न दीपक?’’
निशा के प्रश्न पर फट पड़ी मीना, ‘‘आज जरूरत पड़ी तो मेरा बेटा और मेरा पति याद आ गए तुझे…कोई नहीं आएगा तेरे घर पर.’’
अवाक् रह गए सब. पल्लवी और दीपक आंखें फाड़फाड़ कर मेरा मुंह देखने लगे. विजय और निशा भी पत्थर से जड़ हो गए.
‘‘तुम्हारा पति और तुम्हारा बेटा क्या तुम्हारे ही सबकुछ हैं किसी और के कुछ नहीं लगते. और तुम क्या सोचती हो हम नहीं जाएंगे तो विजय का काम रुक जाएगा? भुलावे में मत रहो, मीना, जो हो गया उसे हम ने सह लिया. बस, हमारी सहनशीलता इतनी ही थी. मेरा भाई चल कर मेरे घर आया है इसलिए तुम्हें उस का सम्मान करना होगा. अगर नहीं तो अपने भाई के घर चली जाओ जिन की तुम धौंस सारी उम्र्र मुझ पर जमाती रही हो.’’
‘‘भैया, आप भाभी को ऐसा मत कहें.’’
विजय ने मुझे टोका तब न जाने कैसे मेरे भीतर का सारा लावा निकल पड़ा.
‘‘क्या मैं पेड़ पर उगा था और मीना ने मुझे तोड़ लिया था जो मेरामेरा करती रही सारी उम्र. कोई भी इनसान सिर्फ किसी एक का ही कैसे हो सकता है. क्या पल्लवी ने कभी कहा कि दीपक सिर्फ उस का है, तुम्हारा कुछ नहीं लगता? यह निशा कैसे विजय का हाथ पकड़ कर हमें बुलाने चली आई? क्या इस ने सोचा, विजय सिर्फ इस का पति है, मेरा भाई नहीं लगता.’’
मीना ने क्रोध में मुंह खोला मगर मैं ने टोक दिया, ‘‘बस, मीना, मेरे भाई और मेरी भाभी का अपमान मेरे घर पर मत करना, समझीं. मेरी भतीजी की शादी है और मेरा बेटा, मेरी बहू उस में अवश्य शामिल होंगे, सुना तुम ने. तुम राजीखुशी चलोगी तो हम सभी को खुशी होगी, अगर नहीं तो तुम्हारी इच्छा…तुम रहना अकेली, समझीं न.’’
चीखचीख कर रोने लगी मीना. सभी अवाक् थे. यह उस का सदा का नाटक था. मैं ने उसे सुनाने के लिए जोर से कहा, ‘‘विजय, तुम खुशीखुशी जाओ और शादी के काम करो. दीपक 3 दिन की छुट्टी ले लेगा. हम तुम्हारे साथ हैं. यहां की चिंता मत करना.’’
‘‘लेकिन भाभी?’’
‘‘भाभी नहीं होगी तो क्या हमें भी नहीं आने दोगे?’’
चुप था विजय. निशा के साथ चुपचाप लौट गया. शाम तक पल्लवी भी वहां चली गई. मैं भी 3-4 चक्कर लगा आया. शादी का दिन भी आ गया और दूल्हादुलहन आशीर्वाद पाने के लिए अपनीअपनी कुरसी पर भी सज गए.
मीना अपने कोपभवन से बाहर नहीं आई. पल्लवी, दीपक और मैं विदाई तक उस का रास्ता देखते रहे. आधीअधूरी ही सही मुझे बेटी के ब्याह की खुशी तो मिली. विजय बेटी की विदाई के बाद बेहाल सा हो गया. इकलौती संतान की विदाई के बाद उभरा खालीपन आंखों से टपकने लगा. तब दीपक ने यह कह कर उबार लिया, ‘‘चाचा, आंसू पोंछ लें. मुन्नी को तो जाना ही था अपने घर… हम हैं न आप के पास, यह पल्लवी है न.’’
मैं विजय की चौखट पर बैठा सोचता रहा कि मुझ से तो दीपक ही अच्छा है जिसे अपने को अपना बनाना आता है. कितने अधिकार से उस ने चाचा से कह दिया था, ‘हम हैं न आप के पास.’ और बरसों से जमी बर्फ पिघल गई थी. बस, एक ही शिला थी जिस तक अभी स्नेह की ऊष्मा नहीं पहुंच पाई थी. आधीअधूरी ही सही, एक आस है मन में, शायद एक दिन वह भी पिघल जाए.
साउथ से लेकर बौलीवुड फिल्मों में नजर आ चुकी एक्ट्रेस हंसिका मोटवानी (Hansika Motwani) इन दिनों अपनी पर्सनल लाइफ को लेकर सुर्खियों में हैं. जहां बीते दिनों एक्ट्रेस की शादी की खबर और प्रपोजल की फोटोज सोशलमीडिया पर छाई हुई थीं तो वहीं अब हंसिका के होने वाले पति की पहली शादी की वीडियो वायरल हो रही है, जिसमें खास बात यह है कि एक्ट्रेस खुद उस शादी में ठुमके लगा रही हैं. आइए आपको बताते हैं पूरी खबर…
मंगेत्तर की पहली शादी में दिखीं हंसिका
एक्ट्रेस हंसिका मोटवानी जल्द ही अपने बिजनेस पार्ट्नर और मंगेत्तर सोहेल खतुरिया (Sohael Khaturiya) संग शादी करने वाली हैं. इसी बीच सोशलमीडिया पर खबरें और वीडियो वायरल हो रही हैं कि हंसिका मोटवानी के मंगेतर सोहेल खतुरिया उनकी दोस्त रिंकी के एक्स हसबैंड हैं. इतना ही नहीं दोनों की शादी की वीडियो में एक्ट्रेस हिस्सा बनते हुए और ठुमके लगाते हुए नजर आई थीं, जिसकी वीडियो तेजी से वायरल हो रही है.
वीडियो की बात करें तो हंसिका मोटवानी अपनी दोस्त रिंकी और उनके एक्स हसबैंड सोहेल खतुरिया की संगीत सेरेमनी में डांस करते हुए नजर आ रही हैं. इसके अलावा वह शादी के हर फंक्शन का हिस्सा बनती हुई दिखीं थीं. वहीं खबरें हैं कि रिंकी और सोहेल की शादी साल 2016 में ही हुई थी, जो शादी के कुछ समय बाद ही अलग हो गए थे.
बता दें, हाल ही में एक्ट्रेस हंसिका मोटवानी के मंगेत्तर ने उन्हें आईफिल टॉवर प्रपोज किया था, जिसके बाद उनके दिसंबर में जयपुर के मुंदोता फोर्ट में शादी की खबरें सोशलमीडिया पर छाई हुई हैं. हालांकि इस खबर पर एक्ट्रेस का कोई रिएक्शन सामने नही आया है.
कलाकारः सोनाक्षी सिन्हा, हुमा कुरेशी, शोभा खोटे, कंवलजीत सिंह, जहीर इकबाल, महत राघवेंद्र, डौली सिंह व अन्य
अवधिः दो घंटे 12 मिनट
युवा पीढ़ी में बौडी शेमिंग बहुत बड़ी समस्या है. इसी मुद्दे पर बोल्ड फिल्म ‘हेलमेट’ फेम निर्देशक सतराम रमानी फिल्म ‘‘डबल एक्सएल’’ लेकर आए हैं, जिसका निर्माण फिल्म की एक नायिका हुमा कुरेशी के भाई व अभिनेता साकिब सलीम ने किया है. फिल्मकार इस फिल्म के माध्यम से दर्शकों को बताना चाहते हैं कि सपनों को पूरा करने के लिए शरीर की साइज मायने नही रखता. लेकिन अफसोस उन्होने इतनी बुरी फिल्म बनायी है कि उनका संदेश दर्शकों तक पहुंच ही नही पाता. इतना ही नही फिल्म देखकर एक सवाल उठता है कि क्या साकिब सलीम व हुमा कुरेशी ने अपने पैतृक रेस्टारेंट ‘‘सलीम किचन’’ के प्रचार के लिए यह फिल्म बनायी है. पूरी फिल्म ‘स्वस्थ रहने‘ की आड़ में मोटे होने का महिमामंडन करती है. खासकर चिकन कबाब खाने का प्रचार.
कहानीः
फिल्म की कहानी शुरूआत उस दृश्य से होती है, जब राजश्री त्रिवेदी (हुमा कुरैशी) गहरी नींद में क्रिकेटर शिखर धवन के साथ डांस करने का मीठा सपना देख ही रही होती है कि मां( अलका कौशल ) हल्ला करके बेटी को जगा देती है. मां बेटी की शादी की चिंता में आधी हुई जा रही है. बेटी 30 पार कर चुकी है, मगर उसकी शादी नहीं हो रही और मां इसकी वजह बेटी का मोटापा मानती है, जबकि दादी( शुभा खोटे) और पिता(कंवलजीत)की नजर में बेटी हष्ट-पुष्ट है. उधर राजश्री को शादी का कोई शौक नहीं. राजश्री त्रिवेदी का सपना एक टीवी स्पोर्ट्स प्रेजेंटर बनना है. अपने सपने को पूरा करने के लिए राजश्री त्रिवेदी अपने पिता, मां और दादी की इच्छा के खिलाफ जाने पर आमादा हैं. राजश्री के माता पिता चाहते है कि वह शादी करके अपना घर बसा ले, लेकिन यह बात राजश्री को मान्य नही है. उधर दिल्ली निवासी सायरा खन्ना (सोनाक्षी सिन्हा) एक जिम वाले को डेट कर रही है, लेकिन उनका दिल अपना खुद का डिजाइनर लेबल बनाने को बेताब है. एक चैनल में इंटरव्यू देने के लिए राजश्री त्रिवेदी दिल्ली जाती है, जहंा रिजेक्ट हो जाने के बाद वाशरूम में रोेते हुए उनकी मुलाकात सायरा खन्ना से हो जाती है. दोनों वॉशरूम में रोते हुए अपने जीवन में गड़बड़ी के लिए अपने ‘डबल एक्सएल‘ शरीर को दोष देते हैं. सायरा खन्ना को लंदन जाकर कुछ निवेशकों के लिए एक फैशन यात्रा वृत्तांत का वीडियो बनाना है, मगर उनके पास निर्देशक नही है. तो राजश्री त्रिवेदी निर्देशक बन जाती हैं. क्योकि उन्होेने कुछ इंस्टाग्राम रील्स बनायी हैं. कैमरामैन के रूप में श्रीकांत (महत राघवेंद्र) आ जाते हैं. यह तीनों लंदन रवाना होते हैं. एअरपोर्ट पर जोई (जहीर इकबाल) इन्हे लेने आता है. जो कि इन दोनों को अपने सपनों को पूरा करने में मदद करता है. कपिल देव से जोई झूठ बोलकर राजश्री त्रिवेदी को कपिल देव से इंटरव्यू करने का अवसर दिलाता है. जिसे देखकर राजश्री त्रिवेदी को नौकरी मिल जाती है. सायरा खन्ना का अपना फैशन लेबल शुरू हो जाता है.
लेखन व निर्देशनः
बौलीवुड में बौडी शेमिंग पर ‘फन्ने खां और ‘दम लगा के हईशा’ जैसी बेहतरीन फिल्में पहले भी बन चुकी हैं. तो वहीं बंगला अभिनेत्री रिताभरी चक्रवर्ती ने भी इसी मुद्दे पर एक बंगला फिल्म ‘‘फटाफटी’’ बना रखा है. कम से कम फिल्मकार को इन पर गौर कर लेना चाहिए था. लेकिन फिल्म देखकर अहसास होता है कि फिल्मकार ने कंगना रानौट की सफल फिल्म ‘क्वीन’ सहित कई फिल्मों का कचूमर परोसते हुए केवल ‘सलीम किचन’ के प्रचार पर ही पूरा ध्यान रखा. इसी के चलते मोटापा बढ़ने पर शरीर को होने वाले नुकसान का जिक्र तक नही किया गया है. ‘‘हैप्पी भाग जाएगी’’ फेम मुदस्सर अजीज से ऐसी उम्मीद नही थी. फिल्म में किसी भी किरदार को ‘फैट फोबिया’ भी नही है. लेखक मुदस्सर अजीज व निर्देशक सतराम रमानी बौडी शेमिंग जैसे जरूरी मुद्दे वाले विषय की परतों को पूरी तरह से उकेरने में असफल रहे हैं. इतना ही नही पूरी फिल्म नारी स्वतंत्रता व आत्मनिर्भर नारी के खिलाफ गढ़ी गयी है. राजश्री त्रिवेदी इतनी आत्मनिर्भर है कि उसे लड़कियों या औरतों से किस तरह बात की जानी चाहिए, इसकी समझ नही है. तो वहीं सायरा पूरी तरह से पुरूष पर निर्भर नजर आती है.
इंटरवल से पहले फिल्म काफी धीमी गति से चलती है. इंटरवल पर अहसास होता है कि अब फिल्म में कोई रोचकता आएगी. मगर ऐसा नही होता. इंटरवल के बाद फिल्म पूरी तरह से विखर जाती है. बौडी शेमिंग के मुद्दे को जिस तरह की संवेदन शीलता की उम्मीद थी, उस पर भी लेखक व निर्देशक दोेनों खरे नही उतरे.
अभिनयः
फिल्म के किसी भी कलाकार का अभिनय प्रभावशाली नही है. दोनो नायिकाओं, हुमा कुरेशी और सोनाक्षी सिन्हा ने महज अपना वजन 15 किलो बढ़ाकर किरदार में फिट होने की इतिश्री कर ली. हुमा कुरेशी और सोनाक्षी सिन्हा की केमिस्ट्री भी नही जमी. श्रीकांत के किरदार में महत राघवेंद्र अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे हैं. जहीर इकबाल को बेहतर अभिनेता बनने के लिए अभी काफी मेहनत करनी पड़ेगी. अलका कौशल 30 पार कर चुकी अनब्याही बेटी की मां के दर्द को बखूबी बयान करती हैं. छोटे किरदार में शुभा खोटे याद रह जाती है. कंवलजीत के हिस्से करने को कुछ आया ही नही.
हमारे यहां हर लड़की औरत आए दिन बौडीशेमिंग के चलते ट्रोलिंग का शिकार होती रहती है. इसी के चलते लड़कियों को अपना मोटापा अपने सपनो को पूरा करने में बाधक लगने लगता है. जबकि मोटापे यानी कि बौडी शेमिंग का सपनों से या इंसान की प्रतिभा व कार्यक्षमता से कोई संबंध नहीं है. इसी बात को रेखंाकित करने के लिए फिल्मकार सतराम रमानी फिल्म ‘‘डबल एक्स एल’’ लेकर आ रहे हैं. जिसमें सोनाक्षी सिन्हा और हुमा कुरेशी की अहम भूमिकाएं हैं. सतराम रमानी इससे पहले ‘सुरक्षित सेक्स’ और ‘कंडोम’ जैसे टैबू वाले विषय पर ‘‘हेलमेट’’ जैसी फिल्म बनाकर शोहरत बटोर चुके हैं.
प्रस्तुत है सतराम रमानी से हुई एक्सक्लूसिब बातचीत के अंश. .
आपको फिल्मों का चस्का कैसे लगा?
-मेरे घर का कोई भी सदस्य फिल्म इंडस्ट्री से नहीं जुड़ा हुआ है. मैं सिंधी समुदाय से हॅूं. मेरे पिता का बिजनेस है. लेकिन मेरे पिता जी का थिएटर की तरफ काफी झुकाव रहा है. तो वह मुझे बचपन से ही मराठी थिएटर देखने के लिए ले जाया करते थे. जिसके चलते मेरे अंदर थिएटर यानी नाटक देखने और कुछ सीखने की इच्छा बलवती होती रही है. मुझे हर नाटक में एक नया क्रिएशन देखकर अच्छा लगता था. तो मेरा प्रेरणास्रोत कहीं न कहीं थिएटर ही रहा.
क्या आपने फिल्म निर्देशन की कोई ट्रेनिंग भी हासिल की?
-जी हॉ!. . जलगांव से मैं पुणे पहुंचा, जहां एमआई टी कालेज हैं. इस कालेज में फिल्म मेकिंग का कोर्स भी होता है. जलगांव में तो फिल्म मेकिंग का जिक्र भी भी नही होता था. उस वक्त तक तो लोगो को यह भी नहीं पात था कि फिल्म मेंकिंग भी एक प्रोफेशन हो सकता है. पर अब धीरे धीरे हालात बदल रहे हैं. उन दिनों सोशल मीडिया भी नही था. जब मैने कुछ रिसर्च किया तो मेरी समझ में आया कि मैं एमआई टी ज्वाइन कर लॅूं, तो शायद मेरा कुछ हो सकता है.
जब आपने अपने पिता जी को बताया होगा कि आप फिल्म मेकिंग सीखने के लिए पुणे जाना चाहते हैं, तो उनकी पहली प्रतिक्रिया क्या थी?
-देखिए, फिल्म मेकिंग का कोर्स होता है, यह बात ही उनके लिए नई थी. कहां होता है, कौन सिखाता है? कैसे होगा? सहित उनके कई सवाल थे. कोई गाइड करने वाला है?कई सवालों के जवाब किसी के पास नही थे. मैने अपने पिता जी से साफ साफ कहा कि आपके सवालों के जवाब मेरे पास नहीं है. मैं सिर्फ इतना जानता हॅूं कि मुझे पुणे जाकर एमआईटी कालेज से फिल्म मेंकिंग का कोर्स करना है. उसके बाद मेरे पिता ने कहा-अगर कुछ नही हुआ और तुम खाली हाथ वापस आए, तो मायूस तो नही हो जाओगे?’इस पर मैने कहा कि मैं कोशिश करना चाहता हॅूं. मेरे पास आपके इस सवाल का भी जवाब नही है. जब तक मैं करीब से उस चीज को, हालात को देखॅूंगा नहीं, तब तक कैसे कुछ कह सकता हॅूं. मेरे एक चाचा इंदौर में युनिवर्सिटी के निदेशक थे. तो मेरे पापा ने उनसे राय ली. मेरे चाचा ने कहा कि यदि सतराम का मन कर रहा है, तो उसे करने देना चाहिए. सही होगा तो कुछ बन जाएगा, यदि गलत होगा, तो उसे एक अनुभव मिल जाएगा.
पुणे के एमआईटी से फिल्म मेकिंग का कोर्स करने के बाद कैरियर कैसे शुरू हुआ?
-पुणे में फिल्म मेकिंग का कोर्स करने के बाद मुंबई पहुंचा. जहां एक नए संघर्ष की शुरूआत हुई. मंुबई में हमारा कोई दोस्त वगैरह नही था. इसलिए भी वक्त लगा. मुझे सबसे पहले टीसीरीज की एक फिल्म में बतौर सहायक निर्देशक काम करने का मौका मिला. लेकिन इस फिल्म की शुरूआत मे देरी होती जा रही थी. तभी मुझे पोस्ट प्रोडक्शन करने का अवसर मिल गया. जिसे करते हुए मैने काफी कुछ सीखा. मेरी सोच यह रही है कि एक निर्देशक को प्री प्रोडक्शन, प्रोडक्शन और पोस्ट प्रोडक्शन सहित हर काम की जानकारी होनी चाहिए. पोस्ट प्रोडक्शन करते हुए बहुत अच्छा लगा. मैने एडीटिंग सहित हर विभाग के बारे मंे जाना. पोस्ट प्रोडक्शन में मैने कई फिल्में की और इससे मेरा ज्ञान काफी बढ़ गया. और कहीं न कहीं मेरी कल्पनाओं में एडीटिंग भी आने लगी. पोस्ट प्रोडक्शन के बाद मैने कुछ फिल्में बतौर सहायक निर्देशक की. फिर वह वक्त आया जब मैने तय किया कि अब मुझे अपनी कहानी खुद कहनी है. और मैंने बतौर लेखक व निर्देशक फिल्म ‘हेलमेट’ बनायी. इस फिल्म के बनाने मे मुझे चार पांच वर्ष लग गए. काफी रिजेक्शन सहे. पर अंततः कामयाब हो ही गया. अंततः मैने अपने मन पसंद विषय पर फिल्म बनायी.
जब रिजेक्शन मिलते हैं, उस वक्त अपना हौसला किस तरह से बरकरार रखते हैं?
-इसके लिए सकारात्मक माइंड सेट ही काम आता है. मुझे लगता है कि इंसान के अंदर का धैर्य ही उसका काम करवाता है. यदि आपके अंदर पैशंस नही है, तो आप किसी भी क्षेत्र में सफलता हासिल नहीं कर सकते. हर काम के पूरा होने में वक्त लगता है. आपने आज प्लॉट खरीदा और आप सोचेंगें कि कल इमारत खड़ी हो जाए, तो यह संभव नही है. फर्क इतना है कि इमारत बनाने का प्रोसेस दिखता है, मगर हमारे यहां का प्रोसेस नजर नहीं आता. प्लॉट खरीदने पर आपको पता होता है कि अब इसकी नींव की खुदायी होगी, फिर नींव भरी जाएगी. . . वगैरह वगैरह. . तकनीकी काम संपन्न होने के बाद लोग रहने आएंगे. इसी तरह जब लेखक के दिमाग में कोई विचार आता है, तो उस विचार पर कहानी व पटकथा गढ़ने से उसके परदे पर आने तक का एक लंबा प्रोसेस हैं, जिसमें न दिखाई देने वाला वक्त लगता है. बीच बीच में कई पड़ाव होते हैं, जहां कई बार रिजेक्शन का भी सामना करना पड़ता है. इस बीच सही तरह के लोग जुड़ेंगें. आपको उनके साथ काम करना है, उनको आपके साथ काम करना है या नहीं करना है. . उस पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है. उसके बाद उस कहानी को परदे @स्क्रीन्स तक आने का एक अलग तकनीकी प्रोसेस शुरू होता है.
बतौर लेखक व निर्देशक पहली फिल्म ‘‘हेलमेट’’ के प्रदर्शन के बाद आपके प्रति फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोगों के रवैए में क्या बदलाव आया था?
-सच यह है कि जब मैने ‘सुरक्षित सेक्स’ के मुद्दे पर फिल्म ‘हेलमेट’ बनाने का निर्णय लिया था, तभी मेरे कुछ दोस्तों ने, जो कि फिल्मकार हैं, ने कहा था कि यह बहुत रिस्की विषय है. फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े कुछ लोगों ने फिल्म देखने के बाद मेरी प्रशंसा की कि मैंने इस तरह के विषय को अपनी फिल्म में उठाकर मनोरंजन प्रधान फिल्म बनायी. कई बार एक ही चीज को कुछ लोग गलत तरह से ले लेते हैं, तो वहीं कुछ लोग समझ जाते हैं. पर मैने दोनो तरह के लोगो के प्रतिशत पर गौर नही किया. मुझे लगा कि मैं अपने दिल व दिमाग की सुनकर एक फिल्म बनायी है, जिसे लोगों ने पसंद भी किया. मुझे जो सही लगा, वह मैने अपनी फिल्म में पेश किया. काफी लोगों को लगा कि शायद मैं वह इस तरह की फिल्म नही बना सकते.
‘हेलमेट’ तो सुरक्षित सेक्स व कंडोम पर आधारित फिल्म थी, जिस पर बात करना ‘टैबू’ है. ऐसे में आपको भी लगा होगा कि आपने रिस्क उठायी है?
-सर, असल में इस तरह से मैने सोचा ही नहीं था. मुझे लगा कि हमें कुछ अलग तरह के विषय पर फिल्म बनानी चाहिए, तो मैने कहानी लिखी और फिल्म बनायी. मैने इस बात पर विचार ही नही किया था कि इस फिल्म को बनाने के क्या परिणाम होंगे?
मगर इस तरह के विषय पर काम करने लिए संजीदगी और एक अलग तरह की समझ होनी चाहिए, वह समझ कहां से आयी थी?
-देखिए, फिल्म लिखते समय मेरे दिमाग में एक ही बात थी कि मुझे ज्ञान नहीं बांटना है. हमें किसी को कुछ भी सिखाना नही है. उस वक्त यह साफ था कि मुझे सनसनी नही फैलाना है. कोई गलत बात नही करनी है. इसी तरह हमने नई फिल्म ‘‘डबल एक्स एल’ में भी यह ध्यान रखना है कि मुझे किसी को मोटापे को लेकर कुछ सिखाना नहीं है. मुझे ओबीसिटी या अनहेल्दीनेस को भी प्रमोट नही करना है. हम सिर्फ यह बताना चाहते हैं कि आपके सपने आपके शरीर के किसी भी साइज का मोहताज नही है.
फिल्म ‘‘डबल एक्सएल’ की कहानी का बीज कहां से आया था?
-इस फिल्म की कहानी का बीज वास्तविक घटनाक्रम से आया था. सोनाक्षी सिन्हा व हुमा कुरेशी एक सोशल गैदरिंग में खाना खा रही थी. वहीं पर मुदस्सर अजीज भी मौजूद थे. उसी वक्त उन्हे ख्याल आया कि मोटे लोग किस तरह से सेलीब्रेट करते हैं. और हुमा ने कहा कि प्लस साइज औरतों के सपनों की कहानी पर फिल्म बनानी चाहिए. किस तरह प्लस साइज की औरतों के सपनों में रूकावट आती है. दोनों बहुत एक्साइटेड थे. दोनों ने कहा कि इस कहानी पर फिल्म बनेगी, तो हम अभिनय करना चाहेंगे. उसी वक्त मुदस्सर अजीज ने कह दिया कि वह कहानी लिखते हैं. फिर यह कहानी मेरे पास आयी, तो मैने कहा कि मैं निर्देशन करने के लिए तैयार हॅूं. उसके बाद पटकथा लिखी गयी औरशूटिंग हुई.
‘डबल एक्स एल’ की कहानी में निर्देशक के तौर पर किस बात ने आपको इंस्पायर किया?
-मैने सोचा है कि मैं हमेशा वास्तविक मुद्दों को ही अपनी फिल्म में उकेरता रहॅूं. और वह मुद्दे जिन्हे पहले किसी ने न छुए हों. प्लस सइज यानी कि मोटापे को लेकर हम सभी जागरूक हैं, लेकिन इन चीजों पर हमारा फोकश नही है. और न ही हम इन पर अटैंशन देना चाहते हैं. हमारे आस पास यह चीजें रोज हो रही हैं, पर वह सब आदत में आ चुकी हैं. यह गलत आदत है. मै देखता हॅूं कि मेरी पत्नी किसी फंक्शन मे जाने के लिए तैयार होते समय आइने के सामने खड़े होकर मुझसे पूछती हैं ‘मैं मोटी हो गयी हॅूं?’. तो अब मेरी समझ में आता है कि उन्हे मोटापे को लेकर कितना असुरक्षित पना महसूस होता है. क्योंकि किसी भी समारोह में पहुंचते ही लोग कमेंट करते हैं, ‘अरे, आपने वेट पुट ऑन किया है. ’तो उसके बाद पूरा समारोह कैसे बीतता होगा, इसे समझा जा सकता है. वास्तव में यह फिल्म मेरे पास तब आयी थी, जब यह विचार के स्तर पर ही थी. यह ऐसा विचार था जिसे बतौर निर्देशक मैं अपने दृष्टिकोण से बताना चाहता था.
क्या आपने इस मुद्दे को फिल्म में उठाया है?
-हमारी फिल्म यह कहने का प्रयास करती है कि आप जिस भी साइज या शेप में हैं, उससे आपके सपनों को पूरा होने में कोई रूकावट नही आती. हमारी फिल्म कहती है कि खुद को नॉर्मल महसूस करें. खुद को असुरक्षित महसूस न करें. हमारी फिल्म का संदेश है कि आपके सपने, आपकी प्रतिभा, आपकी क्षमताएं और सपने किसी ओर चीज से ज्यादा मायने रखती हैं.
आपकी फिल्म के किरदार छोटे शहरों से हैं. पर आप उन्हे लंदन तक ले जाते हैं. क्या सपनों को पूरा करने के लिए विदेश जाना जरुरी था?
-कहानी की मांग के कारण किरदार विदेश जाते हैं. विदेश जाने पर ही किरदारों के बीच जो कुछ बातें थीं, वह साफ होती हैं. खुद का खुद से वाकिफ होकर वापस आना जरुरी था.
इसी विषय पर बंगला में फिल्म ‘फटाफटी’बनी है?
-जी हॉ! मुझे इसकी जानकारी है. दक्षिण भारत व मराठी में भी इस विषय पर फिल्में बनी हैं. पर हमारी फिल्म इन सभी फिल्मों से काफी अलहदा है. हमारी फिल्म मूलतः प्लस साइज औरतों के सपनों की बात करती है. आपकी महत्वाकांक्षा व आपके टैलेंट की तुलना अपने शरीर के वजन से मत कीजिए. न ही समाज को इस तरह की तुलना करना चाहिए. अन्यथा हम प्लस साइज को ड्लि नही करना चाहते.
आपकी फिल्म ‘डबल एक्स एल’ के ट्रेलर से अहसास होता है कि आपकी फिल्म का कुछ हिस्सा फिल्म ‘क्वीन’ से प्रेरित है?
-लोगों को टैम्पलेट लग सकता है. मगर लिखते वक्त ऐसी कोई प्रेरणा नही ली गयी. हम सभी के दिमाग में ऐसा कुछ नहीं था कि ‘क्वीन’ से कुछ लेना है. ‘क्वीन’ तो एक अच्छी फिल्म थी और मेरी पसंदीदा फिल्मों में से एक है. पर हमने अपनी कहानी की जरुरत के अनुसार ही दृश्य रखे हैं.
फिल्म ‘‘डबल एक्स एल’’ के प्रदर्शन के बाद किस तरह के बदलाव आएंगे?
-मुझे लगता है कि इस फिल्म को देखने के बाद लोग आपस में शरीर के साइज को लेकर यानी कि मोटापे आदि को लेकर बात करना शुरू कर देंगे. हर किसी को किसी ने कभी न कभी बौडीशेम किया है. फिल्म देखकर लोग समझेंगे कि हमने भी ऐसा किया है. तो कहीं न कहीं इसका अंदरूनी असर अवश्य होगा.
बौडीशेमिंग को लेकर जो ट्रोलिंग होती है. क्या उन ट्रोलरों को भी यह फिल्म जवाब देती है?
-सर, मुझे लगता है कि ट्रोलिंग तो कभी बंद नही हो सकती. यह तो हमारी जिंदगी का एक हिस्सा बन गया है. मुझे नहीं पता कि हमारी फिल्म के प्रदर्शन के बाद ट्रोलिंग बंद होगी या नहीं या यह बढ़ेगा. जो लोग ट्रोलिंग कर रहे हैं, शायद उन्हे उसका मजा आता है. ऐसे लोग जब फिल्म देखेंगें, तो एक बार उनके मन में विचार तो आएगा ही. भले ही वह इस बार बात न करें.
स्क्रिप्ट की सभी तारीफ करते हैं, पर फिल्म बनने के बाद मामला कुछ और हो जाता है. यह कैसे हो जाता है?
-देखिए, कुछ बदलाव तो निर्देशक के स्तर पर आता ही है. देखिए, स्क्रिप्ट तो अलग बात है. जबकि फिल्म विज्युअल माध्यम है. स्क्रिप्ट की लैंगवेज अलग है. जिससे आप कहानी व दुनिया को समझाते हैं. पर वह कलाकार की परफार्मेंस व विज्युअल्स से दुनिया बदलने लगती है. यदि स्क्रिप्ट राइटर को खुश रखना है, तो निर्देशक की जिम्मेदारी बनती है कि वह स्क्रिप्ट से बेहतर फिल्म बनाए. यदि फिल्म अच्छी बनती है, तो पटकथा लेखक कहता है कि आपने हमारी पटकथा के साथ जस्टिस किया. इसके लिए निर्देशक अपनी तरफ से उसमें कुछ तो जोड़ता है. वैसे भी मेरा मानना है कि फिल्म मेकिंग मंे सभीका योगदान होता है. यह टीम वर्क है. फिर चाहे वह निर्माता का वीजन हो. यदि निर्देशक के अंदर क्षमता नहीं है कि वह पटकथा को परदे पर जीवंत रूप दे सके, तो सब बेकार है. इसमें एडीटर का भी योगदान होता है. कई बार एडीटर को लगता है कि यह दृश्य फिल्म की कहानी के साथ न्याय नहीं कर पा रहा है, तो उस वक्त निर्देशक या तो अपनी बात समझाए या फिर एडीटर की बात माने, यही दो रास्ते होते हैं. क्योंकि वह भी टीम का हिस्सा होता है. उसका मकसद भी फिल्म को बेहतर बनाना होता है. वह गलत नहीं बोल सकता.
आपने पोस्ट प्रोडक्शन करते हुए एडीटिंग सीखी है, इसका कितना फायदा निर्देशक के तौर पर मिलता है?
-बहुत ज्यादा मदद मिलती है. सबसे ज्यादा खुश निर्माता होता है. क्यांेकि हम उसका समय व पैसा दोनों बचाते हैं. निर्देशक के तौर पर हमारे दिमाग में क्लीयरिटी रहती है. हमें पता होता है कि कौन सा दृश्य रहेगा?, कौन सा दृश्य नही रहेगा?या कितनी अवधि का दृश्य रहेगा, यह वीजन साफ तौर पर आने लगा. इससे फायदा यह हुआ कि निर्माता को फायदा होने लगा. उसके समय व धन दोनों की बचत होने लगी.
कोविड महामारी के बाद सिनेमा में आ रहे बदलाव को आप किस तरह से देख रहे हैं?
-काफी बदलाव आ गया है. पिछले दो वर्षो में लोगों ने विश्व सिनेमा को काफी देखा है. लोगों केा बेहतरीन सिनेमा का एक्सपोजर मिला है. जिसके चलते लोगों ने ढेर सारी कहानियां लिखी हैं. अलग अलग तरह की कहानियां व स्टोरी टेलर सामने आ रहे हैं. अब भारतीय सिनेमा का स्टैंडर्ड उंचा हो रहा है. अब वह दौर गया, जहां मनोरंजन करने के लिए कुछ भी बना देते थे. अब कहानी में दम होना जरुरी हो गया है.
ओटीटी प्लेटफार्म के चलते सिनेमा को किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है?
-अब बेहतर कंटेंट बेहतर तरीके से पेश करना अनिवार्य हो गया है. निर्देशक के तौर हमें अपना क्राफ्ट उपर ले जाना है.
‘‘डबल एक्स एल’’ के बाद क्या योजनाएं हैं?
-दो स्क्रिप्ट लगभग तैयार हैं. बहुत जल्द कुछ अच्छी खबरें आएंगी.