स्वयंसिद्धा- भाग 3: जब स्मिता के पैरों तले खिसकी जमीन

जब उस ने कालेज में प्रिंसिपल को अपना त्यागपत्र सौंपा, तो उस को यात्रा की शुभकामनाएं देने के साथ ही वे यह कहे बिना न रह सके, ‘‘मिसेज राणा, आप जैसे टीचर्स की हमें सदैव जरूरत रहती है. यदि कभी भी वापस आएं तो आप का यहां स्वागत ही होगा.’’

अपनों व परिचितों की ढेरों शुभकामनाएं लिए व सुखद भविष्य की कामना करती स्मिता हिम्मत कर के पलक के साथ अमेरिका के लिए रवाना हो गई. दिल में कहीं पति से मिलने की उमंग थी, तो थोड़ा अबूझा सा डर भी. पर साथ ही स्वयं पर हर स्थिति से निबटने का विश्वास भी था. इसी के सहारे वह इस अनजाने सफर पर निकल पड़ी थी. अचानक उसे आया देख आशुतोष कितना चौंक उठेंगे… क्या प्रतिक्रिया होगी उन की? इन्हीं विचारों में उलझी स्मिता ने 16-17 घंटे का लंबा सफर तय कर जब अमेरिका की धरती पर कदम रखा, तो उस की हवाएं उसे बेहद अपनी सी लगीं क्योंकि आशुतोष भी तो वहीं था.

एक प्रीपेड टैक्सी ले कर, उसे पता बता, वह बेटी के साथ अपने गंतव्य की ओर बढ़ चली. आधे घंटे के बाद एक छोटे सुंदर से घर के सामने जा कर टैक्सी रुक गई. स्मिता ने नेमप्लेट चैक की. वह सही पते पर पहुंची थी. उसे उतार कर टैक्सी लौट गई और स्मिता ने कालबैल का बटन दबाया, तो एक 15-16 वर्षीय लड़की दरवाजा खोल प्रश्नवाचक नजरों से उसे देखने लगी. पर स्मिता द्वारा अपना परिचय देने पर वह दरवाजा पूरा खोल, एक तरफ हट गई. पर उस की निगाहों में छिपा असमंजस स्मिता से छिप न सका था.

अंदर आते हुए स्मिता ने पूछा, ‘‘डा. राणा नहीं हैं घर पर?’’

‘‘वे और रिया मैडम 1 घंटे में आ जाएंगे,’’ उस का सामान अंदर रखती वह युवती बोली.

‘‘तुम्हारा क्या नाम है? सारा दिन यहीं रहती हो क्या?’’

‘‘जी चीना…’’ कुछ सकुचाते हुए वह बोली, ‘‘मैडम और साहब के आने पर चली जाती हूं. उन के आने तक घर की देखभाल व अन्य काम खत्म हो जाते हैं. मैडम, आप दोनों फ्रैश हो लीजिए, तब तक मैं कुछ नाश्ता वगैरह लाती हूं.’’ तत्परता से उस का सामान एक कमरे में रख वह चली गई.

स्मिता एक नजर साफसुथरे, सुसज्जित कमरे पर डाल कर अटैची खोलने लगी. कमरा गैस्टरूम ही लग रहा था, क्योंकि किसी पर्सनल यूज की कोई चीज वहां नजर नहीं आ रही थी. जब वे दोनों तैयार हो कर आईं तो चीना कौफी व नाश्ता ट्रौली पर सजा कर ड्राइंगरूम में ले आई. नाश्ता कर के स्मिता एक मैगजीन के पन्ने पलटने लगी. आशुतोष के आने में अभी 15-20 मिनट बाकी थे. पलक वहीं पास में खेल रही थी. काम खत्म कर के चीना अपना बैग उठा कर जाने लगी, तभी आशुतोष व रिया एकदूसरे के हाथ में हाथ डाले बातें करते हुए अंदर आए. स्मिता को सामने बैठा देख आशुतोष बुरी तरह चौंक गया, उस के चेहरे का रंग उड़ गया. सकपका कर उस ने रिया का हाथ छोड़ दिया. रिया उसे प्रश्नवाचक निगाहों से देख रही थी, तभी पलक दौड़ती हुई आ कर आशुतोष से, ‘पापा…पापा…’ कहती हुई लिपट गई. पापा…? रिया ने हैरानी से उसे देखा. फिर पूछा, ‘‘क्या यह तुम्हारी डौटर है?’’

‘‘ओह नो… ये मेरी रिलेटिव हैं और यह इन्हीं की बच्ची है. इस के पापा दुबई गए हुए हैं, इसलिए यह शुरू से मुझे ही पापा कह कर बुलाती है,’’ स्मिता की तरफ इशारा कर उस से नजरें चुराता आशुतोष साफ झूठ बोल गया.

सब कुछ इतनी जल्दी हुआ कि स्मिता को कुछ कहनेसुनने का अवसर ही नहीं मिला. एक क्षण में वह बिलकुल बेगानी बना दी गई. ऐसी परिस्थिति की तो उस ने कल्पना भी नहीं की थी. अभी इस आघात से वह उबर भी न पाई थी कि रिया ने उसे अभिवादन किया और ‘यहां अपने घर जैसा फील करें,’ कह कर अंदर की तरफ बढ़ गई.

तभी उसे आशुतोष का स्वर सुनाई दिया, ‘‘अरे स्मिताजी, आप अचानक यहां? कम से कम खबर तो कर दी होती आने की…’’ कहतेकहते आवाज में नाराजगी स्पष्ट झलक उठी थी.

रिया के आंखों से ओझल होते ही वह रोष भरे स्वर में बोला, ‘‘तुम से मैं ने अभी आने को मना किया था न… इतनी जल्दी क्या थी… आने से पहले कम से कम एक फोन तो कर दिया होता.’’

‘‘कैसे करती फोन… न आप का मोबाइल मिलता था, न आप ने ही महीने भर से फोन किया. घर में सब कितने परेशान थे और यह क्या तमाशा है? अब मैं एक रिलेटिव हो गई हूं, बस? और पलक… पलक आप की बेटी नहीं है?’’ कहतेकहते अपमान व पीड़ा से स्मिता की आंखें भर आईं. विदेशी धरती पर वह कितनी अकेली हो गई थी.

एकाएक आशुतोष का स्वर कुछ नर्म पड़ा, ‘‘मेरा मोबाइल कुछ खराब हो गया था. और देखो स्मिता, विस्तार में मैं तुम्हें बाद में बताऊंगा. आज की हकीकत यह है कि रिया से चर्च में मेरी शादी हो चुकी है. वह मुझे बैचलर समझती थी. मेरा प्लान था कि बाद में मैं उसे किसी तरह समझा कर मना लूंगा. वह मुझे बहुत चाहती है, मेरी खुशी के लिए वह मान भी जाती. तब मैं तुम दोनों को भी यहीं बुला लेता. पर तुम ने इस तरह आ कर मेरा सारा प्लान चौपट कर दिया.’’

‘‘और आप ने जो मेरी जिंदगी चौपट कर डाली है उस का क्या? ऐसी कौन सी मजबूरी आ गई थी, जो आप ने यह सब किया? आप ने यह सोच भी कैसे लिया कि इस योजना में मैं भी सहभागी बनूंगी? मुझे इस तरह धोखा दे कर आप ने अच्छा नहीं किया. हम सब की छोड़ो, पलक तक का ध्यान नहीं आया आप को?’’ बेबसी में उस की आंखें भर आई थीं.

‘‘देखो, मैं जानता हूं मैं गलत कर रहा हूं. पर रिया से संबंध बना कर यहां की हाई सोसाइटी में मेरी अच्छी पैठ हो गई है. इस के पिता काफी ऊंची पोस्ट पर हैं. उन्होंने मुझे कई तरह के बेहतर अवसर दिलाए हैं. आज की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में कितनों को ऐसे मौके मिलते हैं. तुम थोड़ा इंतजार करो बस, रिया को मैं जल्द ही मना लूंगा. फिर तुम दोनों भी यहीं आ जाना.’’

3 दिन बाद आशुतोष इंडिया जाने के लिए निकल पड़ा. एक लंबे अरसे के बाद अपने देश की मिट्टी की गंध महसूस कर उसे रोमांच हो आया. एक होटल में ठहरने का बंदोबस्त कर के वह एक टैक्सी कर रोनित से लिए पते पर जा पहुंचा.

थोड़ी देर पहले ही घर लौटी स्मिता कौफी का सिप लेती हुई ड्राइंगरूम में आ कर बैठी ही थी कि कालबैल बजी. स्मिता ने दरवाजा खोला तो सामने आगंतुक को देख चौंक उठी.

‘‘आप… आज अचानक यहां कैसे?’’

‘‘क्या अंदर आने के लिए नहीं कहोगी?’’

‘‘ओह… आइए…,’’ हिचकिचाहटपूर्वक एक तरफ हटती स्मिता ने व्यंग्य से कहा, ‘‘हम तो ठेठ भारतीय ही हैं, घर आए मेहमान को बैठने को तो कहते ही हैं. घर का पता कहां से मिला?’’

‘‘रोनित से. मैं आज सुबह ही यहां पहुंचा हूं और एक होटल में ठहरा हूं.’’

‘‘मेरे लिए इतनी तकलीफ उठाने की वजह?’’ स्मिता ने उपेक्षा से पूछा. वह चाह कर भी पति के आने पर स्वयं को खुश नहीं पा रही थी. मन का आक्रोश उस के कहे वाक्यों में झलक ही उठा था.

‘‘स्मिता मैं जानता हूं मैं ने जो कुछ तुम सब के साथ किया, अक्षम्य है. पर मैं तुम से अपनी हर गलती की क्षमा मांगने आया हूं. मेरा अपराध माफी के लायक तो नहीं, पर क्या तुम मुझे माफ कर सकोगी…?’’

बीच में ही उस की बात काटती स्मिता बोली, ‘‘रिया नहीं आई आप के साथ?’’

‘‘नहीं, वह अब इस हालत में नहीं है कि सफर कर सके. मन तो उस का भी बहुत था, पर कैंसर की वजह से बहुत कमजोर हो गई है.’’

‘‘ओह… आई एम सौरी,’’ सपाट से स्वर में स्मिता की आवाज उभरी.

‘‘तुम्हारी तबीयत खराब होने की खबर सुन कर मैं स्वयं को रोक नहीं पाया. अब कैसी हो?’’

‘‘ठीक हूं… जिंदा हूं. आप को क्षमा देने वाले तो अब इस दुनिया में रहे नहीं. रही मेरी व पलक की बात, तो पलक की तो मैं नहीं जानती, हां, अपनी बता सकती हूं. आप के कारण विश्वास टूटने पर प्यार नफरत में बदल गया था. पर नफरत के साथ जी कर जिंदगी तो नहीं गुजारी जा सकती, इसलिए मैं ने आप से नफरत करनी भी छोड़ दी. तब मुझे अपनी बच्ची के साथ जीवनसंग्राम में जूझने का हौसला मिला. आज मैं आप के प्रति उतनी ही तटस्थ हो चुकी हूं, जितनी किसी भी अन्य अजनबी के लिए हो सकती हूं. अब आप हमें शांति से रहने दें और कृपया यहां दोबारा न आएं.’’

‘‘ऐसे न कहो स्मिता… मैं एक बार अपनी बेटी से मिलना चाहता हूं, वह क्या कर रही है आजकल?’’ आशुतोष बेहद भावुक हो उठा था.

‘‘पलक अपनी फ्रैंड के साथ बाहर गई हुई है. काफी देर बाद लौटेगी. आजकल वह इंटर्नशिप के साथ ही एमएस की तैयारी भी कर रही है.’’

‘‘और अभिजीत कैसा है? कौनकौन हैं परिवार में?’’ बात करने के लिए उसे और कुछ समझ में नहीं आ रहा था.

‘‘अभिजीत के 2 बेटे हैं. बड़ा रोनित डाक्टर है, जो कनाडा में आप से मिला था और छोटा अभी इंटर में है,’’ कहते हुए स्मिता उठ कर खड़ी हो गई. परोक्ष रूप से जाने का संकेत पा कर आशुतोष भी उठ खड़ा हुआ.

उस के जाने के बाद स्मिता जीवन में अचानक आए इस मोड़ से थोड़ी विचलित हो उठी. क्या वास्तव में वह कभी उसे भूल पाई थी? कितनी ही रातें उस ने अकेले करवटें बदलते, रोते काटी थीं. क्या उन का कोई हिसाब था? उस का दर्द कौन जान सका था? पति की बेवफाई का जहर पी कर भी वह नीलकंठ सी मुसकराती रही, पलक की खुशी के लिए. पर कहीं अंदर से पति के प्रति उस की समस्त संवेदनाएं मरती चली गई थीं.

तभी फोन की घंटी घनघना उठी और उस ने रिसीवर उठा लिया, ‘‘हैलो कौन?’’

‘‘भाभी, मैं अभिजीत बोल रहा हूं, नमस्ते.’’

‘‘ओह अभि भैया, कहिए कैसे हैं आप सब? फोन कैसे किया?’’

‘‘भाभी, बेटी के डाक्टर बनने की मुबारकबाद देना चाहता हूं. सच कहूं तो यह आप की कड़ी तपस्या का ही फल है. बधाई हो.’’

‘‘आप सब को भी बधाई हो. आप सब के सहयोग के बिना तो मैं बिलकुल अकेली थी. इस दिन के लिए आप सब की भी तहे दिल से आभारी हूं. अब तो बस पलक को अच्छा घर और वर मिल जाए तो आखिरी जिम्मेदारी भी पूरी हो जाए.’’

‘‘इसीलिए तो आप को फोन किया है, भाभी… मेरे एक परिचित हैं, मिस्टर तनवीर. वे इनकम टैक्स औफिसर हैं. उन के घर के सब लोग बहुत ही मिलनसार व भले स्वभाव के हैं. उन का बेटा विवेक डाक्टरी पास कर के स्कौलरशिप पर रिसर्च करने कनाडा गया हुआ है. वहां वह रोनित का दोस्त है. रोनित ने विवेक को हर तरह से समझापरखा है. उस की बहुत तारीफ कर रहा था. विवेक अगले हफ्ते 10-15 दिनों के लिए भारत आ रहा है. आप कहें तो मैं पलक के लिए वहां बात चलाऊं?’’ अभिजीत ने कहा.

‘‘यदि आप ठीक समझते हैं, तो जरूर बात कर के देखिए, बल्कि मेरी तरफ से आप उन लोगों को यहां आने के लिए निमंत्रण दे दीजिए.’’

इस के बाद स्मिता ने आशुतोष के आने की जानकारी अभिजीत को फोन पर ही दे दी.

दीप दीवाली के- भाग 3: जब बहू ने दिखाएं अपने रंग-ढंग

इतने में एक नर्स रितु को इंजैक्शन लगाने आ गई. उस औरत की बेटी ने शायद पानी मांगा और उसे वह पानी पिलाने चली गई. रितु सोचने लगी कि उस की मम्मी भी एक औरत हैं और उस की सास भी, पर दोनों में कितना फर्क है. एक केवल शासन करना चाहती है, दूसरी नम्रतापूर्वक अनुसरण. एक किसी के घर को तोड़ना चाहती है, तो एक घर को बचाने के लिए स्वयं तकलीफ उठाती है. एक में दिखावा है, अभिमान है तो दूसरी में गंभीरता एवं सहजता है. पहली नारी है इसलिए सम्माननीय है, दूसरी सम्मान के साथसाथ श्रद्धा व प्रेम की पात्र भी है. एक केवल जननी है तो दूसरी मां. रितु की आंखें छलक रही थीं.

‘‘बेटा, चाय पी लो,’’ रामअवतार की आवाज से रितु का ध्यान भंग हो गया. रितु ने बड़े ध्यान से अपने ससुर की ओर देखा और सोचने लगी इस व्यक्ति ने आज तक मुझे बेटा के सिवा और किसी नाम से बात नहीं की और न ही कठोर शब्द बोले. इन लोगों के साथ गलत व्यवहार कर के मैं ने बहुत बड़ा अपराध किया है. फिर रितु का ध्यान भंग हुआ क्योंकि रामअवतारजी बगल वाली स्त्री से कह रहे थे :

‘‘बहनजी, आप को एक कष्ट दे रहा हूं. आप मेरी बहू को हाथ लगा कर उठा दें, ताकि वह चाय पी ले.’’

वह औरत उठी और रितु को उठा कर चाय पिलाने लगी तो रामअवतारजी वार्ड से बाहर चले गए. करीब 10 बजे सुनयना खिचड़ी और कुछ साफसुथरे कपड़े ले कर आ गईं और रितु को धीरे से बैठा कर चम्मच से अपने हाथ से खिलाने लगीं. आज उसे यह खिचड़ी मोहनभोग के समान लग रही थी.

शाम को करीब 4 बजे रितु के पापा गिरधारी प्रसाद और उस की मम्मी रजनी ने एकसाथ वार्ड में प्रवेश किया. उस समय सास सुनयना रितु के बालों में कंघी कर रही थीं. बैड की दूसरी तरफ एक खाली बैंच पर वे दोनों बैठ गए. दोनों का यहां आना ऐसा लग रहा था कि जैसे किसी पार्टी में आए हों. गिरधारी प्रसाद बारबार अपनी टाई को ठीक कर रहे थे और रजनी का तो कहना ही क्या था. दोनों के कपड़ों से महंगे परफ्यूम की खुशबू आ रही थी. पूरा जच्चाबच्चा वार्ड उस खुशबू से महक रहा था. दोनों ने औपचारिकता- वश हाथ जोड़ कर सुनयना को नमस्कार किया पर फिर उन  से कोई बात नहीं की.

एक थैले में कुछ सामान रख कर सुनयना ने उठते हुए कहा, ‘‘रितु, जितना मुझ से बन सका मैं ने कर दिया. अब तुम्हारे मम्मीपापा आ गए हैं, अब मैं अपने घर जा रही हूं. तुम भी एक सप्ताह बाद अपना टांका कटवा कर अपने घर चली जाओगी और हां, आज तक की दवाइयों का और अस्पताल के बिल का भुगतान मैं ने कर दिया है, जिस की सारी रसीदें तुम्हारे तकिए के नीचे रखी हैं. अखिलेश आएगा तो उसे मेरा आशीर्वाद कह देना.’’

इतना कह कर चलने के लिए जैसे ही उन्होंने कदम बढ़ाया, अचानक लगा कि उन का आंचल कहीं फंस गया है. उन्होंने पीछे मुड़ कर देखा तो रितु उन का आंचल पकड़े हुए है और डबडबाई आंखों से उन्हें ही देखे जा रही है. सुनयना ने आंचल छुड़ाने का प्रयास किया तो रितु धीरे से बोली, ‘‘मम्मी, क्या अपनी इस मूर्ख बेटी को माफ नहीं करोगी?’’

सुनयना ने झट से रितु का सिर अपनी छाती से लगा लिया और उस समय उन की भी आंखें छलछला उठीं. उन्होंने उस के माथे को सहलाते हुए कहा, ‘‘पगली, कहीं मां भी अपनी बेटी से नाराज होती है, स्वयं को मूर्ख क्योें कहती है. अरे, सैकड़ों लड़कियों में से चुन कर तुझे मैं अपने घर लाई थी तो तू मूर्ख कैसे हो गई. तू मेरी बहू नहीं बेटी है और बेटी ही तुझे समझा है.’’

सुनयना रोती जा रही थीं और कहती जा रही थीं, ‘‘ज्यादा नहीं रोते बेटा. अभी तुम्हारा शरीर कमजोर है, टांके कच्चे हैं, रोने से उन पर जोर पड़ता है और टूटने का भय रहता है,’’ यह कहते हुए वे अपने आंचल से उस के आंसुओं को पोंछने लगीं.

अचानक सुनयना का ध्यान दूसरी तरफ बैठे गिरधारी प्रसाद और उन की पत्नी रजनी की ओर गया तो वे लोग कब के चले गए थे. शायद रजनी ने सोचा होगा कि यहां अब उन का कोई काम नहीं, क्योंकि उन की कोई भी विद्या अब रितु पर असर नहीं करने वाली.

एक सप्ताह बाद रितु के टांके कट चुके थे और उसे अस्पताल से छुट्टी की अनुमति मिल गई थी. अखिलेश भी टूर से वापस आ गया. जब वह अपने कमरे पर गया तो उसे वहां सारी बातों की जानकारी मिल गई. वह अपना सामान कमरे में रख कर सीधे ही अस्पताल चला गया. मां को रितु के पास देख कर पहले तो ग्लानि से अखिलेश के पांव ही आगे नहीं बढ़ पा रहे थे, लेकिन जब उस ने रितु और अपनी मम्मी को मुसकराते हुए देखा तो मम्मी के पास जा कर उन के चरण छू कर प्रणाम किया.

अस्पताल से जिस दिन रितु को छुट्टी मिली उस ने स्पष्ट कह दिया कि वह अब किराए के मकान में न जा कर मम्मी के साथ सीधे अपने घर जाएगी. इसलिए उसे ले कर सुनयना घर आ गई थीं. अब उस घर में खुशियां ही खुशियां थीं. सभी के चेहरे मुसकराते रहते थे. नन्ही सी जान सब के लिए खिलौना बनी हुई थी.

रितु पर अभी बहुत प्रतिबंध था इसलिए वह केवल अपने कमरे में लेटी रहती थी. घर का सारा काम सुनयना ही करती थीं.

सुनयना ने रितु के पास आ कर कहा, ‘‘बेटी, मैं जरा बाजार जा रही हूं और बाहर से ताला लगा देती हूं ताकि तुझे बारबार उठना न पड़े,’’ और वे बाहर से ताला लगा कर चली गईं. रितु अपने कमरे में आ कर बेटी को दूध पिलाते हुए सो गई. अचानक उस की आंख खुली तो देखा कि कमरे में ट्यूबलाइट जल रही है. वह धीरे से अपने कमरे से बाहर निकली तो देखा कि आंगन में चावल के घोल का अल्पना बना हुआ था और वहां पर बहुत से दीपक रखे हुए हैं जिन्हें मम्मीजी बैठ कर जला रही हैं.

दीवाली बीतने के बाद मम्मीजी दीपक जला रही हैं. यह रहस्य उस की समझ में नहीं आ रहा था. वह धीरे से अपनी सास के पास गई. रितु की पायल की आवाज से सुनयना का ध्यान दरवाजे की ओर गया तो उन्होंने देखा कि दरवाजे पर रितु खड़ी है.

रितु ने आश्चर्यचकित स्वर में पूछा, ‘‘मम्मी, दीवाली तो कब की बीत गई… फिर ये सब आज क्यों?’’

सुनयना मुसकराते हुए रितु की ठोड़ी को ऊपर उठाते हुए बोलीं, ‘‘मेरे घर वर्षों बाद मेरे बच्चे आए हैं तो दीवाली तो अभी ही मनाऊंगी. मेरी बेटी दीवाली के बाद गई थी और दीवाली के बाद अपने साथ मेरी पोती भी ले कर आई है. इस खुशी में मैं ने आज दीवाली मनाई है. जाओ, तुम भी अच्छी सी साड़ी पहन लो और नूपुर को नए कपड़े पहना दो. मैं ने तुम दोनों के लिए नए कपड़े अलमारी में रख दिए हैं, फिर हमसब साथ मिल कर दीपक जलाएंगे.’’

रितु का हृदय गद्गद हो गया. वह अलमारी से कपड़े ले कर बाथरूम में बदलने चली गई. रितु ने झुक कर पहले सुनयना के पैर छू कर प्रणाम किया, फिर उस ने कहा कि मम्मी, नूपुर को आज यही आशीर्वाद दें कि इस में आप के जैसे गुण आ जाएं और वह जिस घर में जाए उस घर को स्वर्ग बना दे.

आंगन में रखी परात में जो 11 दीपक जल रहे थे, आज उन की लौ रितु को बड़ी ही सुंदर लग रही थी. वह अपलक केवल जलते दीपकों को ही देखे जा रही थी और वे जलते हुए दीपक उसे यों लग रहे थे मानो उन दीपकों की लौ से उस का जीवन ही जगमगा गया.

दीप दीवाली के- भाग 2: जब बहू ने दिखाएं अपने रंग-ढंग

दीवाली का त्योहार आया तो हर घर में धूमधाम से तैयारी शुरू हो गई, घरों में दीप जलाए जा रहे थे, पर सुनयना और रामअवतार दोनों उदास बैठे अतीत की यादों में खोए रहे. उन में त्योहार को ले कर न कोई उत्साह था न कोई उमंग. शाम को सुनयना केवल एक दीपक जला कर आंगन में रख आईं.

दीवाली के 2 दिन बाद रामअवतार को आफिस भेज कर सुनयना बच्चों को पढ़ाने चली गईं और जब वे शाम को लौट रही थीं तो रास्ते में उन की मुलाकात एक अनजान औरत से हो गई, जो उन्हें जानती थी पर सुनयना उसे नहीं जानती थीं.

पहले तो उस स्त्री ने सुनयना को नमस्ते की, फिर बताया कि रितु व अखिलेश उस के मकान के पास ही रहते हैं. आज रितु की तबीयत ज्यादा खराब थी और उसे उस के मकानमालिक आटोरिकशा से अस्तपाल ले गए हैं, क्योंकि अखिलेश यहां है नहीं और रितु की डिलीवरी होने वाली है.

सुनयना ने जब उस औरत से यह पूछा कि रितु के मकानमालिक उसे ले कर किस अस्पताल गए हैं, तो उस ने वर्मा नर्सिंग होम का नाम बता दिया.

सुनयना जल्दी से घर आईं और एक थैले में कुछ आवश्यक सामान रखा. अलमारी में जो पैसा रखा था उसे लिया और घर को ताला लगा कर आटो से वर्मा नर्सिंग होम चली गईं. वहां जा कर जब रितु के बारे में पता किया तो पता चला कि बच्चा नार्मल नहीं हो सकता इसलिए डाक्टर रितु को आपरेशन थिएटर में ले गए हैं. तभी एक नर्स ने आ कर आवाज लगाई कि रितु के साथ कौन है? डाक्टर एक फार्म पर साइन करने और आपरेशन फीस जमा कराने के लिए बुला रहे हैं.

सुनयना नर्स से जब रितु के बारे में पूछ रही थी तब वहीं पर रितु के मकान मालिक भी खड़े थे. वे समझ गए कि यह स्त्री शायद अखिलेश की मां हैं तभी इतनी बेचैनी से पूछ रही हैं. उन्होंने हाथ जोड़ कर सुनयना को नमस्ते किया और फिर सारी बातें उन्हें बता दीं. सुनयना ने भी उन्हें बता दिया कि रितु उन की बहू है.

सुनयना उस नर्स के साथ डाक्टर के कक्ष में चली गईं और डा. विमला भाटिया को नमस्ते कर उन्हें अपना परिचय दिया कि रितु उन की बहू है और वे आपरेशन की फीस जमा कराने आई हैं. पहले तो डाक्टर ने उन से एक फार्म पर हस्ताक्षर करवाए और फिर आपरेशन के लिए 25 हजार रुपए जमा कराने को कहा.

‘‘डाक्टर साहब, अभी तो आप 10 हजार रुपए जमा कर लें. बाकी पैसा मैं अपने पति से फोन कर के मंगवा लेती हूं, जब तक आप उस का आपरेशन करें. मुझे किसी भी हालत में जच्चा व बच्चा स्वस्थ चाहिए.’’

‘‘ज्यादा घबराने की जरूरत नहीं है. सब ठीक होगा. हां, आप यह पैसा काउंटर पर जा कर जमा करा दें और रसीद प्राप्त कर लें. वहीं से आप अपने पति को फोन भी कर दें.’’

डाक्टर के पास से आ कर सुनयना ने काउंटर पर जा कर पैसा जमा कर दिया और रसीद ले कर वहीं से रामअवतारजी को फोन कर के सारी बातें बता दीं. साथ ही यह भी कह दिया कि जल्दी से 15 हजार रुपए ले कर वर्मा नर्सिंग होम में आ जाएं.

करीब डेढ़ घंटे बाद रामअवतारजी वहां पर पैसा ले कर पहुंच गए लेकिन रितु के मम्मीपापा अभी तक नहीं आए थे. वे आपरेशन रूम के पास एक बैंच पर सुनयना के साथ बैठ कर इंतजार करने लगे. थोड़ी देर बाद एक नर्स सुनयना के पास आ कर पूछने लगी कि रितु के साथ कौन आया है.

सुनयना ने कहा, ‘‘मैं हूं.’’

‘‘बधाई हो, लड़की हुई है,’’ नर्स ने कहा, ‘‘बच्ची और उस की मां दोनों स्वस्थ हैं,’’ फिर थोड़ी देर बाद एक नर्स ने लड़की को ला कर सुनयना को दिखाया जिसे बड़े प्यार से उन्होंने पहले तो देखा फिर उस का माथा चूम अपने पति से कुछ इशारा किया. रामअवतारजी ने 500 रुपए का नोट निकाल कर नर्स को देते हुए कहा कि यह मेरी तरफ से आप सब लोगों को मिठाई खाने के लिए है.

थोड़ी देर बाद रितु को एक स्ट्रैचर पर लिटा कर वार्ड में लाया गया. उस समय वह बेहोश थी. वार्ड में एक बिस्तर पर लिटा कर उस के पास के पालने में बच्ची को भी लिटा दिया गया. सुनयना वहीं एक बैंच पर बैठ कर कभी बच्चे को तो कभी रितु को देखती रहीं और पति को घर भेज दिया.

करीब साढ़े 4 घंटे बाद रितु को होश आया. उस ने आंखें खोलीं तो देखा उस की सास सुनयना उस के पास बैठी हैं और उस की गोद में एक बच्चा है.

‘‘लक्ष्मी आई है, ठीक तुम्हारी तरह. तुम भी शायद जब पैदा हुई होगी तो ऐसी ही होगी,’’ सुनयना ने मुसकराते हुए कहा और रितु के माथे पर हाथ फेरने लगीं. रितु को बड़ा अच्छा लग रहा था. तभी उस के मकानमालिक भी वहां आ गए और बोले, ‘‘रितु, जब तुझे ले कर यहां आ रहा था तब मेरी पत्नी की तुम्हारी मम्मी से बातें हुई थीं और उन्होंने कहा था कि वे जल्द ही अस्पताल पहुंच रही हैं, पर अभी तक न खुद आईं और न तुम्हारे पापा आए हैं.’’

शाम हो गई थी, अभी तक सुनयना ने कुछ नहीं खाया था, बल्कि चाय तक भी नहीं पी थी. रात भर वह बैड के पास स्टूल पर बैठी कभी रितु का सिर दबातीं तो कभी बच्ची के रोने पर उसे उठा कर घुमातीं. इस तरह जिम्मेदारी को ढोते उन की रात आंखोंआंखों में कट गई.

सुबह रामअवतार थर्मस में चाय ले कर आए और दोनों को कपों में डाल कर चाय दी, फिर पत्नी की ओर देखते हुए कहा, ‘‘तुम अब घर जाओ. मैं यहां बैठता हूं. कल से तुम ने खाना भी नहीं खाया है. तुम्हारा खाना किचन में कल से ज्यों का त्यों बना हुआ रखा है. घर जाओ और रितु के लिए खिचड़ी बना कर लेती आना. तब तक मैं यहां पर बैठता हूं. आज मैं ने आफिस से छुट्टी ले रखी है.’’

सुनयना दोनों को बहुत सी हिदायतें दे कर चली गईं. रामअवतार वहीं बैंच पर बैठ गए. करीब 1 घंटे बाद कुछ सोच कर रितु से उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, मैं जरा बाहर बैठता हूं, कोई चीज चाहिए तो नर्स से कहलवा देना,’’ और वार्ड से बाहर निकल गए.

रितु के बगल वाले बैड पर भी एक स्त्री को आपरेशन से बच्चा हुआ था. उस की देखभाल के लिए उस की मां वहीं पर बैठी हुई थीं. जब रामअवतार वार्ड से बाहर चले गए तब वह औरत अपनी जगह से उठ कर रितु के बैड के पास आ गई और पूछने लगी, ‘‘तुम्हारे मम्मीपापा अच्छे स्वभाव के मालूम पड़ते हैं. खासकर तुम्हारी मम्मी तो बहुत ही अच्छी हैं. बेचारी रातभर तुम्हारी सेवा करती रही हैं.’’

‘‘ये दोनों मेरे मम्मीपापा नहीं, सासससुर हैं.’’

‘‘क्या?’’ वह औरत आश्चर्य से रितु का मुंह देखने लगी. फिर उस ने कहा, ‘‘क्या दुनिया में ऐसी भी सास होती है, जो कल से बिना खाएपिए अपनी बहू की सेवा कर रही है. बेटी, तुम बहुत खुशनसीब हो जो तुम्हें ऐसे सासससुर मिले हैं. पूरा वार्ड अब तक यही समझ रहा था कि ये तुम्हारे मम्मीपापा हैं. कोई सास अपनी बहू के लिए इतना कर सकती है यह मैं ने पहली बार देखा है. अगर हर सास तुम्हारी सास जैसी हो जाए तो कोई बहू जल कर नहीं मरेगी, कोई बहू गले में फंदा लगा कर नहीं मरेगी. कोई बहू जहर खा कर या गाड़ी के नीचे आ कर अपनी जान नहीं देगी.

‘‘मैं तो तुम्हें यही कहूंगी कि कभी अपनी सास को तकलीफ मत देना, कभी उन से कठोर बातें मत बोलना और बेटी, सच्चे मन से उन की बुढ़ापे में सेवा करोगी तो इस बुढि़या की आत्मा तुम्हें आशीर्वाद ही देगी.’’

स्वयंसिद्धा- भाग 7: जब स्मिता के पैरों तले खिसकी जमीन

हर कक्षा अव्वल नंबरों से उत्तीर्ण करती हुई पलक अब आकर्षक, बुद्धिमान एवं आधुनिक तरुणी बन चुकी थी. पारिवारिक संस्कार एवं आधुनिकता के अद्भुत संगम वाले व्यक्तित्व की स्वामिनी पलक आधुनिक पीढ़ी की सोच के अनुरूप ही हर बात तार्किक ढंग से सोचनेसमझने में विश्वास रखती थी.

प्रथम श्रेणी में इंटर करने के साथ ही उस का मैडिकल की हर प्रतियोगी परीक्षा में चयन होने से घर में खुशी की लहर दौड़ गई थी. एक लंबे अंतराल के पश्चात स्मिता ने सुख व चैन की सांस ली. बेटी के जीवन की एक दिशा तय होने के सुकून के साथ ही अपनी जिम्मेदारियों का सही निर्वाह कर पाने का संतोष भी था. मैडिकल कालेज में दाखिला होते ही पलक भी दूसरे शहर चली गई. उस के बाद के 5-6 वर्ष तो जैसे महीनों में बंट कर रह गए. हर वर्ष छुट्टियों में पलक के आने पर स्मिता के लिए तो घर में त्योहार जैसा माहौल हो जाता था. जितनी बेकरारी से वह बेटी के आने का इंतजार करती थी, उस के जाने के बाद उतनी ही बेचैन हो जाती. पर उस बेचैनी में भी कहीं गहरा आत्मसंतोष होता था. बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए सभी मांबाप कभी न कभी इस दौर से गुजरते ही हैं. आज बेटी को डाक्टर बन कर अपनी डिगरी प्राप्त करते देख उस के पूरे जीवन की तपस्या मानो सार्थक हो उठी थी.

पुरानी यादों में खोई स्मिता को समय बीतने का कुछ पता ही न चला था. उस ने घड़ी पर निगाह डाली. उसे आए घंटा भर से कुछ ज्यादा ही हो चुका था. पलक के आने का समय हो रहा था. आज पलक की पसंद का पूरा डिनर बनाने वह किचन की तरफ बढ़ गई.

आशुतोष ने स्मिता व पलक को आननफानन वापस तो लौटा दिया था पर रिया के सम्मुख भला बना रह कर भी वह अपनी नजरों में गिर गया था. जहां एक तरफ उसे अपना झूठ न पकड़े जाने का संतोष था, वहीं दिल के किसी कोने में उन दोनों के साथ किए गए अन्याय का अपराधबोध भी.

घर व परिजनों से दूर, बेइंतहा कमाई, कोई रोकनेटोकने वाला नहीं, ऐसे में माहौल के खुलेपन व समय के खालीपन को भरता रिया जैसी अत्याधुनिक विचारों वाली युवती का संग. वह भूल ही गया कि उस की पत्नी दूर भारत में कहीं उस के आने का इंतजार कर रही है. छोटी सी बेटी बाट जोह रही है. रिया के डैडी के उच्च सामाजिक रुतबे व रिया द्वारा किए गए प्रेम निवेदन की पहल ने उसे अपने विगत को बिसरा एक नए जीवन की शुरुआत करने के लिए उकसाने में अहम भूमिका निभाई थी. जल्द से जल्द समाज में ऊंचा रुतबा हासिल करने के लिए प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ में शामिल हो कर, अपना जमीर मार कर उस ने पैसा तो बहुत कमाया, परंतु दिल का एक कोना सदैव खाली रहा. पैसे से सुविधाएं ही तो खरीदी जा सकती हैं, संतोष नहीं. वह चाह कर भी कभी रिया को अपने अतीत के बारे में नहीं बता पाया.

विवाह के कुछ ही वर्षों बाद दोनों में अकसर छोटीछोटी बातों पर विवाद हो जाता. पश्चिमी संस्कृति में पलीबढ़ी रिया पति की हर बात तोलपरख कर मानती. रिया का शक्की एवं झगड़ालू स्वभाव अकसर उसे स्मिता की याद दिला जाता. तब पछताने के अलावा वह कुछ न कर पाता. उसे हैरानी भी होती थी कि रिया के स्वभाव का यह शक्कीपन वह पहले क्यों नहीं महसूस कर पाया? मातापिता के न रहने का दुखद समाचार पा कर भी, कुछ तो रिया की गिरती सेहत व कुछ अपने काम के बोझ तले दबा वह भारत जाने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाया.

रिया के स्वास्थ्य संबंधी टैस्टों की रिपोर्ट देख कर तो उस के पैरों तले जमीन ही खिसक गई थी. कैंसर के बेरहम पंजों में दबी वह धीरेधीरे मौत के मुंह में जा रही थी. आशुतोष ने उस के इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी. महंगी से महंगी दवाओं तथा अत्याधुनिक तकनीकों के सहारे उसे जिंदगी के कुछ वर्ष और मिल गए. उन्हीं दिनों अचानक आशुतोष से मिलने एक आकर्षक नवयुवक उस के घर पहुंचा. अपने भतीजे को पहचानने में उसे अधिक देर नहीं लगी. उसे देखते ही आशुतोष ने उसे गले लगा लिया. बिलकुल उस के छोटे भाई का ही तो प्रतिरूप था रोनित, जिसे सामने देख न जाने कितनी भूलीबिसरी यादें ताजा हो आई थीं.

बचपन से अपने पिता के मुंह से उन के बड़े भाई की बातें गाहेबगाहे सुनते बड़ा हुआ रोनित कनाडा में स्कौलरशिप पर जब पढ़ने पहुंचा, तो बरसों से घर से बिछुड़े सदस्य से मिलने की तीव्र इच्छा दबा न सका और पिता से उन का पता ले कर ढूंढ़ता हुआ पहुंच ही गया. रिया ने भी उस का परिचय जान कर उस की मेहमाननवाजी में कोई कमी नहीं छोड़ी थी. बचपन से सब को रिया के खिलाफ बोलते सुनते आए रोनित के मन में रिया की बहुत ही खराब छवि बनी हुई थी पर यहां तो बिलकुल उलटा ही मिला था. देर तक अपना दुखसुख सुनाने के बाद जब आशुतोष को पता चला कि इधर स्मिता की तबीयत हाई ब्लडप्रैशर व कुछ अन्य कारणों से अकसर खराब रहती है तथा कुछ दिन पहले अपैंडिक्स का औपरेशन भी हो चुका है, तो उसे झटका सा लगा था. चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आई थीं. रिया के सामने स्मिता के जिक्र से आशुतोष थोड़ा सकपकाया पर रिया अचंभित हुए बिना चुपचाप उन की बातें सुनती रही. आशुतोष ने रोनित से सब के पते ले लिए थे.

रोनित के जाने के बाद आशुतोष व रिया के बीच एक बोझिल सा मौन पसर गया. आशुतोष को हैरानी हो रही थी कि रिया ने उस के अतीत की सचाई जानने के बाद भी उस से कोई प्रश्न क्यों नहीं किया? अनुत्तरित प्रश्नों के भंवर से घिरे आशुतोष ने आखिर इस सन्नाटे को तोड़ते हुए कुछ कहना शुरू किया ही था कि रिया ने अपने निर्बल हाथ से उस की कलाई पकड़ कर उसे रोकने का उपक्रम किया तो वह चौंक गया. उसे रिया की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘आशु तुम हैरान होगे कि मैं ने तुम्हारे अतीत के बारे में जान कर भी तुम से कोई प्रश्न क्यों नहीं किया?’’

‘‘दरअसल, मैं खुद तुम्हें बताना चाहता था पर…’’

‘‘बस, अब कुछ नहीं बोलो मेरी सुनो. सच तो यह है कि शादी के कुछ वर्षों बाद ही मैं तुम्हारी पहली शादी के बारे में जान गई थी. जब स्मिताजी यहां आई थीं तब तो मैं उन्हें नहीं जानती थी. पर काफी दिन बाद हमारी मेड सर्वेंट चीना ने मुझे उन के बारे में बताया था. उस दिन उसी ने उन को अटैंड किया था अत: बातोंबातों में वह उन का परिचय जान गई थी. तुम्हें खो देने के डर से न चाहते हुए भी मैं तुम से कुछ पूछ नहीं पाई. सोचा, जैसे चल रहा है चलने दूं. उन का ध्यान आने पर कहीं तुम वापस न चले जाओ. पर तुम्हारे अतीत की जानकारी ने मुझे तुम्हारे प्रति शक्की बना दिया था. तुम्हें प्यार करते हुए भी, तुम पर मैं विश्वास न कर सकी. साथ ही, चाहते हुए भी स्मिता दीदी से कभी माफी न मांग पाई. तुम इंडिया जा कर मेरी तरफ से उन से क्षमा जरूर मांग लेना. अनजाने में ही सही, मैं उन की गुनहगार तो हूं ही.’’

आशुतोष केवल इतना ही कह सका, ‘‘तुम्हें मुझे बताना तो चाहिए था.’’

‘‘तो क्या तुम्हें नहीं बताना चाहिए था? उस समय शायद हम दोनों ही अपनेअपने स्वार्थ में अंधे हो गए थे. तुम्हें खो देने के डर से मेरे होंठ सिले रहे, पर आज जब जिंदगी मुझ से दामन छुड़ाने लगी है, मुझे एहसास हो रहा है कि हम ने स्मिता के साथ कितना बड़ा अन्याय किया है. हमारा रिश्ता ही दुरावछिपाव की बुनियाद पर रखा गया था, तो सुख कहां से मिलता? आज रोनित के मुंह से उन की अस्वस्थता का समाचार सुन कर तुम्हारी आंखों में उभर आई चिंता देख मुझे अपना अपराध और भी खल रहा है. पता नहीं क्यों, मैं तुम दोनों के बीच आ गई,’’ कहतेकहते रिया का स्वर भर्रा उठा.

‘‘मैं सोच रहा हूं एक बार इंडिया जाऊं, सब से मिलूं, पर तुम तो कमजोरी के कारण सफर कर नहीं पाओगी और यहां तुम्हें अकेला…’’

‘‘ओह, तुम मेरी चिंता न करो… मैं यहां मां को बुला लूंगी और नर्स तो 24 घंटे रहती ही है. मैं तो यों भी कुछ ही दिनों की मेहमान हूं, जाने से पहले तुम्हारे जीवन में सब ठीक से व्यवस्थित होता देख लूं तो चैन से मर सकूंगी. तुम जाओ मेरी तरफ से माफी जरूर मांगना,’’ कहतेकहते वह आशुतोष के सीने में मुंह छिपा कर फफक पड़ी. दिल पर रखा बोझ हटते ही आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा था.

स्वयंसिद्धा- भाग 6: जब स्मिता के पैरों तले खिसकी जमीन

स्मिता हलके से मुसकराई फिर बोली, ‘‘रुकिए… दूसरों से हम जितनी अपेक्षाएं रखते हैं, यदि उस की आधी भी दूसरों के प्रति पूरी करें तो शायद जिंदगी ज्यादा खुशहाल हो जाए. आज आप ने ईमानदारी से उत्तर दिया तो खुशी हुई कि आप को अपने किए का एहसास है. समस्याएं तो हम सब के जीवन में आती हैं. यह हम पर है कि हम उस समस्या को खींच कर बड़ा बना देते हैं या उस का समाधान ढूंढ़ कर उसे हल करते हैं. कोई भी समस्या इंसान से बड़ी नहीं होती. हम सब इंसान ही हैं, हम से गलतियां भी हो जाती हैं पर कहते हैं, प्रायश्चित्त के आंसू गुनाह धो देते हैं और माफ करने वाला छोटा नहीं हो जाता… ऐसा किसी ने मुझे समझाया है,’’ कहते हुए उस ने कविता की तरफ देखा जिस की आंखों में खुशी के आंसू झिलमिला उठे थे.

‘‘अपने परिवार की खुशी ही सदैव मेरी प्राथमिकता रही है… अगर सब यही चाहते हैं तो…’’ आगे कुछ कहते सहसा वह रुक गई.

उस की बातों का अर्थ समझते ही अभिजीत खुशी से भर उठा, ‘‘मुझे आप से यही उम्मीद थी भाभी…’’ और दौड़ कर आशुतोष को खींच कर स्मिता के बगल में खड़ा कर दिया. मौसी भी खुश हो कर दोनों को ढेरों शुभकामनाएं देने लगीं.

पलक तनिक हैरानी से मां को देखते फुसफुसा कर बोली, ‘‘मां आप के स्वाभिमान को यह गंवारा होगा?’’

‘‘बेटा… मेरा स्वाभिमान तो आज भी अपनी जगह है. पर पति हर स्त्री का अभिमान होता है, उसे कैसे वापस कर दूं?’’

पलक दौड़ कर अपनी मां के गले से लिपट गई. स्वयंसिद्धा के मान ने सब को जीवन की नई खुशियों से भर दिया था.

‘‘हरगिज नहीं… मैं रिया को अभी सब कुछ बता दूंगी. वह भले ही तैयार हो जाए पर मैं तैयार नहीं हूं ऐसी जिंदगी के लिए.’’

आशुतोष ने बिफरते हुए एकाएक स्मिता को चांटा मारने के लिए हाथ उठा लिया तो स्मिता चौंक गई. आशुतोष उसे धमकाते हुए बोला, ‘‘खबरदार जो इस विषय में तुम ने रिया से कोई बात की. तुम्हारे लिए अंजाम अच्छा न होगा, मैं कुछ भी कर सकता हूं.’’

उस का यह रूप देख कर स्मिता में न जाने कहां से हिम्मत आ गई. क्रोध से उस की आंखें लाल हो उठीं, ‘‘मारना चाहते हो? यह शौक भी पूरा कर लो. पैसे की हवस ने तुम्हें अंधा बना दिया है. मुझे यह सोच कर शर्म आती है कि मैं तुम्हारी पत्नी हूं. बस आज के बाद से हमारा कोई संबंध नहीं है.’’

उसी क्षण स्मिता ने अपना सामान समेटा व सहमी हुई पलक का हाथ थामे वापस एअरपोर्ट की तरफ निकल गई. रिया तब तक बाहर नहीं आई थी. आशुतोष ने उसे रोकने की कोई चेष्टा नहीं की. चुपचाप उसे जाते देखता रहा.

आते समय स्मिता के मन में जितनी उमंग व उत्साह था, वापसी का सफर उतना ही कष्टप्रद था. सारी घटनाएं एक के बाद एक इतनी तेजी से घटती चली गईं कि कहीं कुछ सोचनेसमझने की गुंजाइश ही नहीं थी. पर अब अकेले सफर में उस के सामने भविष्य की अनेकानेक समस्याएं सिर उठाए खड़ी थीं. पूरा जीवन उसे इसी छले गए विश्वास के दंश के साथ ही बिताना था. नन्ही पलक का क्या गुनाह था जो उसे पिता के प्यार से वंचित रहना पड़ेगा? क्या उसे आशुतोष के साथ उन्हीं परिस्थितियों में समझौता कर के जिंदगी गुजारनी चाहिए थी? तुरंत उस के दिल से आवाज आई, ‘हरगिज नहीं. नारी सब कुछ बरदाश्त कर सकती है पर सौत नहीं.’

बेहद तनाव भरे अगले कुछ घंटे गुजारने के पश्चात घर वापस पहुंच कर स्मिता को कुछ राहत मिली. अप्रत्याशित रूप से तीसरे ही दिन बहू को वापस आया देख मां व बाबूजी हतप्रभ रह गए. पर सहमी, चुप खड़ी पलक एवं स्मिता की उदास व सूजी आंखों से उन्होंने घट चुकी अनहोनी का अंदाजा लगा लिया था. मां को सामने पा कर स्मिता स्वयं को रोक न सकी और उन के गले लग फूटफूट कर रो पड़ी. जब दिल का गुबार कुछ हलका हुआ, तो उस ने उन्हें वहां का पूरा हाल कह सुनाया. सारी बात सुन कर बेटे की नालायकी से मांबाप को गहरा आघात पहुंचा था, पर अपनी पीड़ा भूल कर उन्होंने स्मिता को सांत्वना देते हुए कहा कि वे सब ठीक करने की कोशिश करेंगे.

‘‘अब क्या ठीक होगा मां… बचा ही क्या है? मैं उन पर जबरन कोई रिश्ता थोपना नहीं चाहती. वे यदि इसी में खुश हैं तो यही सही,’’ कह कर स्मिता अंदर चली गई.

स्मिता के पहुंचने के अगले ही दिन आशुतोष का फोन आया. रिसीवर उस के पिता ने ही उठाया था. पिता द्वारा समझाए जाने पर जब उस ने खुद को सही ठहराने का प्रयास किया और सालडेढ़ साल बाद उन्हें अपने पास बुला लेने के लिए कहा, तो उन्होंने उसे कड़ी फटकार लगाते हुए यहां तक कह दिया कि आज से वे सोच लेंगे कि उन का एक ही बेटा है और स्मिता भी अब उन की बहू नहीं, बल्कि बेटी है. वे स्वयं उस की दूसरी शादी करवाएंगे.

पर स्मिता ने दृढ़ स्वर में इसे नकार दिया, ‘‘नहीं बाबूजी… मुझे नहीं करनी है दूसरी शादी. एक गलती उन्होंने की है, अब मैं दूसरी नहीं करना चाहती. बस आप लोगों की छत्रछाया बनी रहे. मेरी जिंदगी का लक्ष्य अब केवल मेरी बेटी का भविष्य होगा. मुझे और कुछ नहीं चाहिए.’’

जिंदगी फिर इतनी आसान नहीं रह गई थी. कालेज की लैक्चररशिप तो उस ने तुरंत ही जौइन कर ली थी. नौकरी अब उस के लिए शौक नहीं वरन एक जरूरत बन गई थी. मुश्किलों के इस दौर में भी उस ने हिम्मत नहीं हारी और वक्त के इम्तिहान में हर चुनौती का सामना पूरे आत्मविश्वास के साथ किया. उस के साथ घटी बात की जानकारी केवल उस के चंद मित्रों व परिवार तक ही सीमित थी. अंजलि ने इस कठिन वक्त में स्मिता को एक सच्चे दोस्त की तरह मानसिक संबल दिया.

कालेज में सब की अपेक्षाओं पर खरी उतरती स्मिता ने घर में भी सारी जिम्मेदारियां बिना कहे ही संभाल ली थीं. मांबाबूजी के मार्गदर्शन में अभिजीत का विवाह एक सुशिक्षित एवं सुशील युवती कविता से तय कर के, बड़ी धूमधाम के साथ संपन्न कराया. मांबाबूजी दोनों बहुओं की तारीफ करते नहीं थकते थे.

कतराकतरा होती जिंदगी सप्रयत्न सहेज स्मिता सारा दिन स्वयं को अनेकानेक जिम्मेदारियों के निर्वाह में व्यस्त रखती, परंतु कभीकभी नन्ही पलक जब अपने पापा की याद में हुड़कती, तो उस पल को झेलना उसे सर्वाधिक दुष्कर लगता. ऐसे में उसे परिवार वालों का भरपूर सहयोग मिलता. कभी उस के चाचाचाची, जिन्हें पलक छोटे पापा व छोटी मां कहती थी, तो कभी उस के दादादादी, जिन्हें वह बड़े पापा व बड़ी मां कहती थी, अपनीअपनी तरह से उसे बहलाने का प्रयत्न करते थे. स्मिता भी अपनी तरफ से उसे मांबाप दोनों का प्यार देने का पूरा प्रयास करती थी. धीरेधीरे समय अपनी रफ्तार से गुजरता रहा. अभिजीत का ट्रांसफर दूसरे शहर में हो गया. दिन महीनों में व महीने सालों में बदलते रहे. वसंत व पतझड़ एक के बाद एक आते रहे.

लंबी बीमारी के बाद ससुर का निधन होने पर घर में सब दुख से भर उठे. आशुतोष ने खबर पहुंचने के बाद भी मात्र संवेदना कार्ड भेज कर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली. बेटे की हृदयविदारक उपेक्षा का दुख मां को गहरा आघात दे गया था, जिसे वे साल भर से ज्यादा नहीं झेल पाईं और चल बसीं. स्मिता एक तरह से बिलकुल अकेली रह गई थी. नातेरिश्तेदार भी संवेदना व्यक्त कर के अपनेअपने घर जा चुके थे. किशोर होती बेटी व बढ़ती जिम्मेदारियां… कभीकभी वह बेहद थक जाती थी पर फिर नए सिरे से जीवन समर में जूझने के लिए स्वयं को तैयार कर, सजग प्रहरी सी उठ खड़ी होती. उम्र के हर पड़ाव पर पलक को स्मिता का पूरा मार्गदर्शन मिला.

स्वयंसिद्धा- भाग 5: जब स्मिता के पैरों तले खिसकी जमीन

अभिजीत ने पलक को समझाते हुए कहा, ‘‘बेटा, ऐसे नहीं कहते… आखिर ये तुम्हारे पिता हैं.’’ पर पलक फिर वहां नहीं रुकी, उठ कर अंदर चली गई. अभिजीत के बहुत कहने पर आशुतोष अपना सामान लाने व वहीं रहने के लिए तैयार हो गया. बाजार से लौट कर स्मिता व कविता को सारी बातें पता चलीं. स्मिता

बिना कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किए अन्य कार्यों में लग गई. आशुतोष का इस तरह आ कर रहना उसे अच्छा तो नहीं लगा, परंतु उस ने कोई मुखर विरोध भी नहीं किया. हां, अभिजीत व कविता प्रयास करते रहे कि वह पुरानी कटु स्मृतियां भुला कर नए सिरे से अपना जीवन आशुतोष के साथ आरंभ करने के लिए राजी हो जाए.

एक दिन स्मिता का मूड अच्छा देख अभिजीत ने ही बात आरंभ की, ‘‘भाभी, पलक तो शादी के बाद अपने घर चली जाएगी. आप बिलकुल अकेली रह जाएंगी.’’

‘‘हां, सो तो है. पर पलक खुश तो मैं भी खुश. वैसे भी एक न एक दिन तो उसे जाना ही है.’’

‘‘भाभी आप का दिल तो बहुत बड़ा है. मैं सोच रहा था कि यदि बीती बातें भुला कर आप पुन: भैया के साथ एक नई जिंदगी की शुरुआत करें तो…’’

‘‘ओह, तो आप अपने भैया के हिमायती बन कर आए हैं?’’

‘‘नहीं भाभी, आप मुझे गलत न समझें. अपने भाई से पहले मैं आप का छोटा भाई हूं. पर भाभी मैं आप की जिंदगी में भी खुशी देखना चाहता हूं. भैया ने गलती तो की है पर उस का अपराधबोध सदा उन के मन पर हावी रहा. इसीलिए शर्मिंदगी के कारण वे बाद में चाहते हुए भी न आ पाए.’’

‘‘तो अब क्यों आए?’’

‘‘रोनित से आप की बीमारी व औपरेशन की बात सुन कर वे खुद को रोक न सके. उन की आंखों में मैं ने आप के लिए दर्द महसूस किया है.’’

एक क्षण के लिए स्मिता चुप हो गई. समझ वह भी रही थी लेकिन विश्वास करने की हिम्मत नहीं हो रही थी. पर दिल में कहीं हलकी सी खुशी महसूस हुई.

कविता उसे मनाती हुई बोली, ‘‘भैया की बातों से जो पता चला है, उस से तो यही लगता है कि रिया के साथ उन का पारिवारिक जीवन ज्यादा सुखद नहीं रहा है… यहां आप परेशान रहीं तो आराम उन्हें भी नहीं मिला… न दांपत्य सुख न संतान सुख.’’

‘‘तुम्हें कैसे पता चला?’’ स्मिता ने चौंक कर पूछा.

‘‘अभिजीत से भैया ने काफी बातें की थीं. उन्होंने ही मुझे बताया है. फिर कुछ गलती तो रिया की भी थी. शादी से पहले उसे भी तो भैया के बारे में पूरी जांचपड़ताल करनी चाहिए थी. बाद में जब उसे अपनी मेड सर्वेंट से हकीकत पता चल ही गई थी, तब भी उस ने इस बारे में कोई बात नहीं की. शायद अपनी गृहस्थी उजड़ने के डर से स्वार्थी हो गई थी. आखिर नारी ही नारी की दुश्मन बन गई न… काश, उस ने खुद को आप की जगह रख कर सोचा होता… वह भैया पर कभी विश्वास नहीं कर पाई और आए दिन उन के बीच टकराव होता रहा. उन का दांपत्य तो चलता रहा पर कागज के फूल की तरह, जिस में विश्वास व प्यार की खुशबू थी ही नहीं.’’

‘‘हां… यह बात तो ये भी कह रहे थे,’’ स्मिता कुछ सोचती सी कह उठी.

कविता स्मिता के पास सरक आई. उस का हाथ अपने हाथों में ले कर प्यार से सहलाते हुए बोली, ‘‘दीदी, हम सचमुच बस आप को खुश देखना चाहते हैं. जब से मैं इस घर में आई हूं, आप को सदा इस घरपरिवार और पलक की चिंता में होम होते देखा है. आज आप को अपने लिए सोचना है. अपनी जिंदगी की खुशियों के लिए सोचना है. मैं आप का दर्द समझती हूं. विश्वास टूटना बहुत तकलीफदेह होता है. पर हम सब इंसान हैं, गलती इंसानों से ही होती है और माफ करने वाला कभी छोटा नहीं होता.’’ कहतेकहते कविता की आवाज भर्रा गई.

प्रत्युत्तर में स्मिता हौले से उस का हाथ दबाते हुए विचारमग्न सी बोली, ‘‘मैं सोचूंगी कविता… पर पलक को समझाना बहुत मुश्किल है. उस बेचारी ने तो कभी पिता का प्यार जाना ही नहीं.’’

‘‘वह आप मुझ पर छोड़ दीजिए, मैं उसे समझाऊंगी,’’ कविता उत्साहित होते हुए बोली, ‘‘वह वैसे भी अपने जाने के बाद होने वाले आप के अकेलेपन को ले कर काफी चिंतित है. इसीलिए वह इंडिया छोड़ कर कहीं और जाने की सोचना ही नहीं चाहती.’’

विवाह के मात्र 2-3 दिन ही बचे थे. घर में मेहमान आने आरंभ हो गए थे. कातर स्वर व झुकी आंखों से अपनी गलती स्वीकारता आशुतोष सहज ही सब की सहानुभूति पा लेता था. परिणामस्वरूप, हर कोई स्मिता को ही समझाने लगता कि चलो देर से ही सही अब तो पति लौट आया है. उसे पुरानी बातें भुला कर संबंध सुधार लेने चाहिए.

स्मिता की बुजुर्ग मौसीसास उसे समझाती हुई बोलीं, ‘‘बहू, आशुतोष लौट आया है, इसी में सब्र कर लो. अरे मर्द है, अपनी गलती भी तो मान रहा है. अब आगे की सुध लो.’’

बारबार हर तरफ से दबाव पड़ने पर आखिर एक दिन उस ने पूरे परिवार के सामने आशुतोष से ही सीधे पूछा, ‘‘आप मर्द हैं इसलिए आप की 100 गलतियां माफ हो जानी चाहिए, यही बात सब लोग मुझे समझाना चाहते हैं. क्या मुझे अतीत की सब बातें भुला देनी चाहिए?’’

‘‘हां, यही तो मैं भी कहना चाह रहा हूं. मुझे अपने किए पर अफसोस है. उस वक्त केवल पैसा और उस से हासिल हो सकने वाली हर चीज प्राप्त कर लेने की प्रवृत्ति के साथ महत्त्वाकांक्षाओं की हैवानी भूख इतनी हावी थी कि और किसी के बारे में सोचने का कभी वक्त ही नहीं मिला. बस, मशीन बन कर पैसा ही कमाता रहा पर दिली खुशी कहीं नहीं पा सका. अब मुझ से और क्या चाहती हो बताओ, मैं सब करने को तैयार हूं.’’

‘‘सिर्फ मर्द होने से आप को यह अधिकार किस ने दे दिया कि जब जो चाहें करें?

घर में अजीब सी खामोशी थी. कुछ गलत तो नहीं कह रही थी स्मिता. एक क्षण रुक कर उस ने पुन: कहना शुरू किया, ‘‘अतीत के आप के गलत आचरण के कारण हमें, मां व बाबूजी को जो मानसिक पीड़ा भोगनी पड़ी, क्या उस की क्षतिपूर्ति संभव है? हमारी जिंदगी के वे सुनहरे साल, जो तरहतरह के अवरोधों से जूझने में ही बीत गए, बेटी का मासूम बचपन, जो इस निरपराध ने पिता का प्यार औरों में ढूंढ़ते हुए बिताया, क्या कुछ भी आप लौटा सकते हैं? पतिपत्नी का संबंध, जिसे मैं अटूट समझती थी, आप ने कितनी आसानी से तोड़ दिया था. जीवन के कठिन संघर्षों के दौर में भी मैं तो अपने कर्तव्य पथ से कभी विचलित नहीं हुई… क्या मेरे सामने कभी कोई लुभावना लालच नहीं आया होगा? अब आप के प्रायश्चित्त के 2 शब्द कह देने से जिंदगी के वे अनमोल वर्ष लौट तो नहीं आएंगे. स्त्री बहन, बेटी या मां के रूप में जितनी प्रिय होती है, पत्नी के रूप में उतनी ही पराई क्यों बना दी जाती है?’’

मन का आक्रोश शब्दों की राह बन चला था. वर्षों की पीड़ा आज स्मिता दबा न सकी थी.

स्मिता के आरोपों की मार झेलता आशुतोष चुपचाप सिर झुकाए खड़ा था. बीच में ही उसे शांत कराने की कोशिश करता वह बोल उठा, ‘‘मुझे अपनी गलतियों का एहसास है, स्मिता. मैं तुम सब का गुजरा वक्त तो नहीं लौटा सकता, हां यह विश्वास दिला सकता हूं कि मेरे कारण भविष्य में कभी तुम लोगों की आंखों में आंसू नहीं आएंगे…’’

‘‘पलक आप की भी बेटी है इस नाते उस का कन्यादान करने का आप को पूरा हक है. हां, स्वयं पहल कर के आप का आना मुझे अच्छा लगा पर आज आप से सिर्फ एक बात पूछूंगी. इस का उत्तर पूरी ईमानदारी से दीजिएगा.’’

सब सांस रोके स्मिता का मुंह देख रहे थे. आखिर वह क्या पूछना चाह रही थी.

तभी उस सन्नाटे को भेदती उस की आवाज उभरी, ‘‘जो कुछ आप ने मेरे साथ किया यदि वह कुछ मैं ने आप के साथ किया होता तो क्या आप मुझे माफ कर के अपना लेते?’’

स्मिता की बात समाप्त होतेहोते आशुतोष की नजरें झुक गईं. कुछ पल के बोझिल मौन के पश्चात वह धीरे से बोला, ‘‘नहीं… शायद नहीं… और अपने ही दर्पदंश से आहत थके कदमों से लौटने को मुड़ा.

दीयों की चमक- भाग 4: क्यों बदल गया भाभियों का प्यार

अवध का कहना था, ‘तुम्हें खानेपहनने की कोई दिक्कत नहीं  होगी. जैसे  चाहो, रहो लेकिन मैं दिवा को नहीं छोड़ सकता. तुम पत्नी हो और वह प्रेमिका.’

‘क्या केवल खानापहनना और पति के अवैध रिश्ते  को अनदेखा करना ही  ब्याहता का धर्म है?’ रमा इस कठदलीली को कैसे बरदाश्त करती. खूब रोईधोई. अपने सिंदूर,  मुन्ने का वास्ता दिया. सासससुर  से इंसाफ मांगा. उन्होंने उसे  धैर्य रखने की  सलाह दी. बेटे को  ऊंचनीच  समझाया,  डांटा, दुनियादारी का हवाला दिया.

लेकिन अवध पर दिवा के रूपलावण्य का जादू चढ़ा हुआ था. रमा जैसे चाहे, रहे. वह  दिवा को नहीं  छोड़ेगा.

एक  म्यान में  दो तलवारें नहीं  रह सकतीं. रमा को प्यारविश्वास  का खंडित हिस्सा  स्वीकार्य  नहीं.

पतिपत्नी का मनमुटाव,  विश्वासघात शयनकक्ष से बाहर आ चुका था. जब रमा पति को  समझाने  में  नाकामयाब रही तब एक दिन  मुन्ने को गोद में  ले मायके का रास्ता  पकड़ा.

सासससुर ने समझाया. ‘बहू, अपना घर पति को छोड़ कर मत जाओ. अवध की आंखों से  परदा जल्दी ही उठेगा. हम सब तुम्हारे  साथ हैं.’

किंतु रमा का भावुक  हृदय  पति के इस  विश्वासघात  से टूट गया था. व्यावहारिकता से  सर्वथा अपरिचित  वह इस घर में  पलभर भी रुकने के लिए  तैयार न थी जहां उस का पति पराई स्त्री  से  संबंध रखता हो. उस की खुद्दारी ने अपनी मां के  आंचल का सहारा लेना ही उचित समझा, भविष्य की  भयावह स्थिति से अनजान.

‘बहू,  मुन्ने के बगैर हम कैसे  रहेंगे?’ सासुमां ने मनुहार की.

‘पहले अपने  बेटे को  संभालिए, मैं  अपने बेटे पर  उस दुराचारी पुरुष की छाया तक नहीं पड़ने देंगे.’

‘उसे संभालना तो तुम्हें पड़ेगा  बहू. तुम उस की पत्नी  हो, ब्याहता हो. इस प्रकार मैदान  छोड़ने से बात  बिगड़ेगी ही.’

‘मुझे कुछ नहीं सुनना. मुझ में इतनी  सामर्थ्य है कि अपना और अपने मुन्ने का पेट  भर सकूं,’

रमा एक झटके में  पतिगृह छोड़ आई. मां ने  जब सारी बातें सुनीं तो सिर पीट लिया. फूल सी बच्ची पर ऐसा अत्याचार. उन्होंने बेटी को सीने से लगा लिया, ‘मैं अभी  ज़िंदा हूं, जेल की चक्की न पिसवा दी तो कहना.’

भाइयों ने दूसरे दिन ही कोर्ट में  तलाकनामा दायर करवा दिया. भाभियां भी  खूब चटखारे  लेले कर ननदननदोई  के  झगड़ों का वर्णन सुनतीं. रमा अपना सारा आक्रोश, अपमान, कुंठा नमकमिर्च  लगा कर  बयान करते न  थकती.

शुरुआती दिनों में  सभी जोशखरोश से रमा का साथ  देते. मुन्ने का भी  विशेष  ख़याल रखा जाता. फिर  प्रारंभ हुई कोर्टकचहरी की  लंबी प्रक्रिया. तारीख पर  तारीख़. वकीलों की ऊंची  फीस. झूठीसच्ची उबाऊ बयानबाजी. एक ही  बात उलटफेर कर. जगहंसाई. रमा और  मुन्ने का बढ़ता खर्चा. निर्णय की अनिश्चितता.

भाइयों में झुंझलाहट बढ़ने लगी. भाभियां जैसे इसी मौके की  तलाश में थीं. वे रमा और मुन्ने को नीचा दिखाने  का कोई अवसर हाथ से जाने  न देतीं.

बूढ़ी होती मां सिहर उठतीं, ‘मेरे बाद इस लाड़ली बेटी का क्या होगा? बेटेबहुओं का रवैया वे देख रही थीं. उन का चिढ़ना स्वाभाविक था क्योंकि सब की घरगृहस्थी है, बालबच्चे  हैं, बढ़ते खर्चे हैं. इस  भौतिकवादी  युग में  कोई किसी का नहीं. उस पर परित्यक्ता बहन और उस का  बच्चा जो जबरन उन के  गले पड़े हुए हैं.

कानूनी लड़ाई  में ही  महीने का  आखिरी रविवार  कोर्ट ने  मुन्ने को अपने पिता से मिलने का  मुकर्रर किया था. मुन्ने को इस दिन का  बेसब्री से इंतज़ार  रहता. बाकी दिनों की अवहेलना को वह विस्मृत कर देता.

अवध बिना नागा आखिरी रविवार की सुबह आते. रमा मुन्ने को उन के पास  पहुंचा देती. दोनों एकदूसरे की ओर देखते अवश्य, लेकिन  बात नहीं होती. मुन्ना हाथ हिलाता पापा के  स्कूटर पर हवा हो जाता.

अवध ने मुन्ने को अपने संरक्षण में लेने के लिए  कोर्ट से गुहार लगाई है बच्चे के भविष्य के लिए. ठीक  ही है  पापा के पास रहेगा, ऊंची पढ़ाई  कर पाएगा, सुखसुविधाएं पा सकेगा. वह  एक प्राइवेट स्कूल की  टीचर, 2 हजार रुपए  कमाने वाली, उसे क्या दे सकती है.

कोर्ट के आदेश से कहीं मुन्ना उस से  छिन गया, अपने पापा के पास  चला गया तब वह  किस के सहारे जिएगी. किसी निर्धन से उस की  पोटली गुम हो जाए, तो जो पीड़ा उस गरीब को होगी वही ऐंठन रमा के  कलेजे में  होने लगी. ‘न,  न, मैं बेटे को अपने से किसी कीमत पर  अलग नहीं होने दूंगी. वह सिसकने लगी. स्वयं से  जवाबसवाल करते  उसे  झपकी आ गई.

आंखें  खुली, तो पाया मुन्ना आ चुका है. हर बार की तरह खिलौने, मिठाईयों उस के पसंद की चौकलेट से  लदाफंदा.

घरवाले उन सामानों को हिकारत से देखते. यह नफरत की  बीज उस की ही बोई हुई है. रमा सबकुछ छोड़छाड़  भागी न  होती, उस की गृहस्थी यों तहसनहस न  होती. वह  डाल से  टूटे  पत्ते के समान  धूल चाट नहीं रहती.

“मम्मी, तुम्हारे लिए…”

“क्या?”

लाल पैकेट में  2 जोड़ी कीमती चप्पलें. रमा भौंचक, “यह क्या, तुम ने  पापा से कहा?”

“नहीं, नहीं,  पापा ने अपने मन से खरीदा. पापा अच्छे हैं,  बहुत अच्छे.  मम्मा, हम लोग पापा के साथ क्यों नहीं  रहते?”

रमा निरूत्तर थी. रमा ने चप्पलों की जोड़ी झट से छिपा दी. अगर  पहनती है तो घर वालों की कटुक्तियां और न पहने तब मुन्ने की  जिज्ञासा.

दिवाली का त्योहार  आ गया. भाईभाभी सपरिवार  खरीदारी में  व्यस्त. वह सूखे होंठ, गंदे कपड़ों में  घर की  सफाई में  लगी थी.

दरवाजे की  घंटी बजी. शायद, घर वाले लौट आए. इतनी  जल्दी…

रमा ने  दरवाजा खोला, सामने  अवध. रमा स्तब्ध. घर  में कोई नहीं  था.  उस की  जबान पर जैसे  ताला लग गया.

“भीतर आने के लिए नहीं कहोगी?” अवध के  प्रश्न पर वह संभल चुकी थी.

“हां, हां, आइए परंतु इस समय घर में कोई नहीं है.”

“मुन्ना कहां है? ”

“वह अपनी नानी के साथ पार्क  गया है.”

“अच्छा,  दीवाली की सफाई हो रही है.”

रमा समझ नहीं पा रही थी,  वह क्या  कहे.  इस विषम परिस्थिति के लिए वह कतई तैयार  न थी. जिस व्यक्ति पर कभी उस ने अपना  सर्वस्व नयोछावर किया था, उस के बच्चे की मां  बनी थी, उस से  ऐसी झिझक. थोड़ी सी बेवफाई और  कानूनी  दांवपेंच ने  दोनों के बीच  गहरी खाई खोद दी थी.

“रमा, तुम  मुझ से बहुत नाराज हो, होना भी चाहिए. मैं तुम्हारा  अपराधी हूं. मैं ने तुम्हें बहुत दुख दिए. दिवारुपी मृगतृष्णा के पीछे  भागता रहा. अपनी पत्नी के निश्च्छल प्रेम के सागर को पहचान नहीं पाया. अब  मैं तुम्हें और  मुन्ने को लेने आया हूं. मुझे  माफ कर दो.”

“मैं आप के साथ कैसे जाऊंगी, दिवा के साथ नहीं रह सकती. मुझे  मेरे हाल पर  छोड़ दीजिए,” आक्रोश आंखों से बह निकला.

“दिवा…दिवा से मेरा कोई लेनादेना नहीं  है, मैं ने उस से  सारे रिश्ते तोड़ लिए हैं. पहले ही काफी  देर हो चुकी है, अब अपनी पत्नी और बच्चे से  दूर नहीं रह सकता.”

“किंतु  मेरी मां, भाई, कोर्टकचहरी… ” उसे  अपने कानों पर  विश्वास नहीं  हो रहा था.

“मां, भाई को क्यों  एतराज होगा. अपनी पत्नी और बेटे  को लेने आया हूं. और रहा कोर्टकचहरी, लो तुम्हारे सामने ही सारे कागजात फाड़ फेंकता हूं. जब मियांबीवी राजी तो क्या  करेगा  काजी.”

“पर, मैं  कैसे  विश्वास करूं?”

“विश्वास तुम को करना  ही पड़ेगा. भरोसा एवं प्यार पर ही दाम्पत्य की  नींव टिकी होती है. तुम ने मुझ पर पहले ही अपना अधिकार जता बांहों का सहारा दे अपने पास  खींच लिया होता  तो मैं  दिवा  में अपनी खुशियां नहीं  तलाशता. सच है कि मैं  भटक गया था. किंतु  यह न भूलो, भटका हुआ मुसाफिर भी कभी न कभी सही राह  पा लेता है,” अवध ने अपनी बांहें फैला दीं.

परिस्थितियों की मार से आहत रमा इस अप्रत्याशित  घटनाक्रम से अचंभित  अपने पति के हृदय से जा लगी.

अवध, रमा और मुन्ने  दिवाली के दिन  जब अपने घर पहुंचे, एकसाथ लाखों दीये जल उठे.

दीवाली की खुशी  द्विगुणित हो गई. उन का  उजड़ा संसार  दिवाली की रोशनी में आबाद हो चुका था.

दीयों की चमक- भाग 3: क्यों बदल गया भाभियों का प्यार

गर्भ में मुन्ना के आते ही अवध खुशी से झूम उठा. सासससुर, देवरननद ने रमा की बलैया ली. देखने वाले दंग. इतने वर्षों पश्चात घर में पहला बच्चा. रमा को सभी हथेली पर रखते. ‘बहू यह न करो, वह न करो,’ सासुमां लाड़ लगातीं.

‘लो बहू तुम्हारे लिए,’ ससुर का हाथ फल, मेवों अन्य पौष्टिक पदार्थों से भरा रहता.

और अवध… वह बावला रमा को पलभर के लिए भी आंखों से ओझल नहीं होने देना चाहता था.

दफ्तर से बारबार फोन करता. रोज बालों के लिए गजरा, उपहार लाता. गोलमटोल शिशुओं की तसवीरों से कमरा जगमगा उठा.

मां व भाई रमा को लाने गयेए. सासससुर ने हाथ जोड़ लिए. बेटी का सुख, मानसम्मान देख मां व भाई गदगद हो उठे.

मां व भाई चाहते थे कि जच्चगी मायके में हो. वहीं सास, ससुर, पति पलभर के लिए बहू को आंखों से ओझल नहीं होने देना चाहते थे.

रमा दोनों पक्षों के दांवपेंच पर मुसकरा उठती.

रमा ने स्वस्थ सुंदर बेटे को जन्म दिया. बड़ी धूमधाम से जन्मोत्सव मनाया गया.

मां बन कर रमा निहाल हो उठी. जब देखो मुन्ने को छाती से चिपकाए रहती.

घरभर का खिलौना मुन्ना अपने बालसुलभ अदाओं से सब का मन मोह लेता.

‘रमा, बड़ा हो कर मुन्ना मेरी तरह इंजीनियर बनेगा,’ अवध की आंखें चमकने लगतीं.

‘नहीं, मैं इसे डाक्टरी पढ़ाऊंगी. लोगों की सेवा करेगा,’ रमा हंस पड़ती.

‘न डाक्टर न‌ इंजीनियर, यह मेरी तरह बैरिस्टर बनेगा,’ दादाजी कब पीछे रहने वाले थे.

‘कहीं नाना जैसा व्यापारी बना तो…’ नानी बीच में टपक पड़तीं.

सभी होहो कर हंसने लगते. हर्षोल्लास से लबालब थे मायके और ससुराल. किस की नजर लग गई.

आज उसी मुन्ने की जननी की सुध किसी को नहीं.

आखिर इस के पीछे कारण क्या है. मुन्ने के जन्म के बाद तीसरे महीने ही दिवाली का त्योहार और उस मनहूस दिवाली ने रमा व उस के मुन्ने की जीवनधारा पलट कर रख दी.

उस दिन घरबाहर खूब रंगरोशन  हुआ था. नाना प्रकार के पकवान, मिठाईयां, मेवों, उपहारों का ढेर लग गया था. रेशमी साड़ी और कीमती आभूषणों से लदीफंदी रमा पति का बेसब्री से इंतजार कर रही थी.

अवध देर से लौटे, साथ में एक सुंदर युवती थी. ‘रमा, यह मेरी कालेज की सहपाठी दिवा है.’

रमा ने हाथ जोड़ दिए, ‘नमस्ते.’

‌दिवा ने चुभती नजर रमा पर डाली, ‘कहां ढूंढा इतनी खूबसूरत पत्नी.’

‘अरे, तुम से कम ही,’ अवध का मजाकिया स्वभाव था.

किंतु रमा झेंप गई. अवध के इस बेतुके मजाक ने सीधे उस के दिल को टीस दी. दिवा जितनी देर रही, अवध से चिपकी रही. सुंदर वह थी ही, उस की दिलकश अदाएं, बात करने का अंदाज, बेवजह खिलखिलाना रमा को जरा भी नहीं सुहाया.

 

दिवाली पूजन, हंसीमजाक, शोरशराबा, भोजनपानी करतेकरते आधी रात बीत गई.

‘अब, मैं चलूंगी,’ दिवा बोली थी.

‘चलो, मैं तुम्हें छोड़ आता हूं,’ अवध  की आंखों की चमक रमा आज तक भूल नहीं पाई है. अगर वह पुरुष मनोविज्ञान की ज्ञाता होती तो कभी भी अपने पति को उस मायावी के संग न भेजती.

… पति जब तक घर लौटे, वह मुन्ने को सीने से चिपकाए सो ग‌ई थी. फिर तो अवध रमा और मुन्ने की ओर से उदासीन होता चला गया. उस की शामें दिवा के साथ बीतने लगीं.

पत्नी से उस की औपचारिक बातचीत ही होती. मुन्ने में भी खास दिलचस्पी नहीं रह गई थी उस की. भोली रमा पति के इस परिवर्तन को भांप नहीं पाई. दिनरात मुन्ने में खोई रहती. वह  मुन्ने को कलेजे से लगाए सुखस्वप्न में खोई थी.

एक दिन उस की सहेली ने फोन पर जानकारी दी, ‘आजकल तुम्हारे मियां जी बहुत उड़ रहे हैं.’

‘क्या मतलब?’

‘अब इतनी अनजान न बनो. तुम्हारे अवध का दिवा के साथ क्या चक्कर चल रहा है, तुम्हें मालूम नहीं? कैसी पत्नी हो तुम? दोनों स्कूटर पर साथसाथ घुमते हैं, सिनेमा व होटल जाते हैं और तुम पूछती हो, क्या मतलब,’ सहेली ने स्पष्ट किया.

‘देख, मुझे झूठीसच्ची कहानियां न सुना, वह अवध के साथ पढ़ती थी,’ रमा चिहुंक उठी.

‘पढ़ती थी न, अब अवध के साथ क्या गुल खिला रही है? मुझ पर विश्वास नहीं है, पूछ कर देख ले. फिर न कहना, मुझे आगाह नहीं किया. तुम इन मर्दों को  नहीं जानतीं. लगाम खींच कर  रख, वरना पछताएगी,’ सहेली ने फोन रख दिया.

अब रमा का दिल किसी काम में नहीं लग रहा था. मुन्ना भी आज उसे बहला नहीं सका. वह छटपटा उठी. सहेली की बात किस से कहे- मांजी से, पिताजी से… ना-ना उस की हिम्मत जवाब दे गई. वह सीधे अपने पति से ही बात करेगी, अवध ऐसा नहीं है.

अवध सदा से ही अपने रखरखाव, पहिरावे का विशेष ध्यान रखते थे. इधर कुछ ज्यादा ही सजग, सचेत रहने लगे हैं. हरदम खिलेखिले, प्रसन्न अपनेआप में मग्न. घर में पांव टिकते नहीं थे. भूल कर भी रमा को कहीं साथ घुमाने नहीं ले गए. मुन्ना एक अच्छा बहाना था. रमा को कोई शिकवा भी नहीं था. वह अपनी छोटी सी दुनिया में मस्त थी. जहां उस का प्यारा पति एवं जिगर का टुकड़ा मुन्ना था, वहीं उस की  खुशियों में उस की सहेली ने सेंधमारी की थी. वह बेसब्री से अवध की राह देखने लगी.

रात गए अवध लौटा, गुनगुनाता, सीटी बजाता बिलकुल आशिकाने मूड में.

‘खाना,’ रमा को अपने इंतजार में देख उसे आश्चर्य हुआ.

‘खा लिया है,’ वह बेफिक्री से कोट का बटन खोलने लगा.

रमा ने लपक कर कोट थाम लिया. लेडीज परफ्यूम का तेज भभका.

रमा को यों कोट थामते, अपने लिए जागते देख अवध चौंका.  क्योंकि मुन्ने के जन्म के बाद से वह बच्चे में ही खोई रहती. वह रात में लौटता, उस समय वह मुन्ने के साथ गहरी नींद में खर्राटे लेती मिलती. आज ऐसे तत्पर देख आश्चर्य चकित होना स्वाभाविक है.

परफ्यूम की महक ने रमा को दिवाली की रात की याद दिला दी. यही खुशबू दिवा के कपड़ों से उस दिन आ रही थी. सहेली ठीक कह  रही थी. रमा उत्तेजित हो उठी, ‘कहां खाए?

‘पार्टी थी.’

‘कहां?’

‘होटल में, कुछ क्लांइट आए थे.’

‘सच बोल रहे हो?’

‘तुम कहना क्या चाहती हो?’

‘यही कि तुम दिवा के साथ समय बिता कर, खा कर आ रहे हो.’

अवध का चेहरा  क्षणभर के लिए   फक पड़ गया. फिर  ढिठाई से बोला, ‘तुम्हें कोई आपत्ति है, मेरी बातों का विश्वास नहीं?’

‘दिवा के साथ  गुलछर्रे उड़ाते तुम्हें  शर्म नहीं आती एक बच्चे के पिता हो कर.  छि:,’ रमा क्रोध से कांपने लगी.

‘दिवा पराई नहीं, मेरी पहली पसंद है. वह तो  मां ने तुम्हारे नाम की माला न जपी होती, तुम्हारी  जगह पर  दिवा होती.’

‘उस ने  मेरे चलते  विवाह  नहीं किया. वह आज भी मुझे उतना ही चाहती है  जितना  कालेज के  दिनों में. फिर मैं उस का साथ क्यों न दूं. एक  वह  है  जो  मेरे लिए  पलक बिछाए रहती है  और एक तुम हो जिसे अपने  बच्चे से  फुरसत नहीं है,’ पति बेहयाई पर उतर आया.

रमा के पांवतले जमीन खिसक गई. आरोपप्रत्यारोप का सिलसिला  चलने लगा.

दीयों की चमक- भाग 1: क्यों बदल गया भाभियों का प्यार

रमा तिलमिला उठी. परिस्थिति ने उसे कठोर व असहिष्णु बना दिया था. बड़ी भाभी की तीखी बातें नश्तर सी चुभो रही थीं. कैसे इतनी कड़वी बातें कह जाते हैं वे लोग, वह भी मुन्ने के सामने. उन की तीखीकड़वी बातों का मुन्ने के बालमन पर कितना दुष्प्रभाव पड़ेगा, यह वे जरा भी नहीं सोचतीं.

क्यों सोचेंगी वे जब मां हो कर वे अपनी नन्ही सी संतान की भलाईबुराई समझ नहीं पाईं, भला उन्हें क्या गरज है.

हां, हां, सारा कुसूर उस का है…  घरपरिवार, भैयाभाभी यहां तक कि मां भी उसे ही दोषी करार देती हैं. सोने सी गृहस्थी तोड़ने की जिम्मेदार उसे ही ठहराया जाता है.
घर टूटा उस का जिसे सभी ने देखा और दिल, हृदय पर जो चोट लगी, उस पर किसी की नजर नहीं ग‌ई.

“बेटी, मर्द को वश में रखना सीख. इस तरह अपना घर छोड़ कर आने से तुम्हारा जीवन कैसे पार लगेगा,” मां के समझाने पर रमा बिफर उठी थी, “मां, किस मर्द की बात करती हो, उस की जो बातबात पर अकड़ता है. अपनी मांबहन के इशारे पर नाचता है या फिर उस की जो शादीशुदा, एक बच्चे का पिता होते हुए भी…छि:..” आगे के शब्द आंसुओं में डूब गए.

“रमा, होश से काम लो. अब तुम अकेली नहीं, एक नन्ही सी जान है तुम्हारे साथ,” मां ने धीरे से कहा.”इसी नन्ही सी जान की खातिर ही अपनी जान नहीं दी मैं ने. नहीं तो किसी कुएंतालाब में कूद जाती.”
“ना बेटी, ऐसी अशुभ बातें मुंह से मत निकालो,” मातृहृदय पिघल उठा.

“तुम्हारे दरवाजे नहीं आती, तुम लोगों के उलाहने नहीं सुनती. मेरे लिए इधर कुआं, उधर खाई है,” रमा रोती जाती, बीचबीच में अपनी वेदना मां के आंचल में डालती जाती.

अभी भी बड़ी भाभी की जबान कैंची की तरह चल रही थी, “दोनों में से एक काम हो- या उस मरदुए की आवभगत की जाए या फिर कोर्ट में केस लड़ा जाए.” “सच में दोनों बातें एकसाथ संभव नहीं लगतीं. उधर कोर्टकचहरी के चक्कर लगाओ और इधर हंसहंस कर पकवान खिलाओ,” छोटी भाभी भला कब पीछे रहने वाली थी. “ओह, तो एक कप चाय और 2 सूखे बिस्कुट को पकवान कहा जाता है,” परिस्थिति ने रमा को मुंहफट बना दिया था.

“खिलाओ पकवान, कोर्टकचहरी की क्या जरूरत है. एक ओर गालियां देती हो, दुनियाजहान से उस की बुराई करते नहीं थकती और दूसरी ओर उस को एंटरटेन करती हो. दुनिया क्या समझेगी,” बड़ी भाभी, छोटी भाभी एकबार शुरू हो जाती हैं, उन्हें चुप कराना मुश्किल हो जाता है.

उस का कुसूर यही था कि शिष्टाचारवश अपने पति अवध को एक कप चाय बना कर दिया था, साथ में 2 बिस्कुट भी. अवध से उस का  कोर्ट में तलाक का मुकदमा चल रहा है. कोर्ट के आदेश से वह महीने में एकबार अपने 4 वर्षीय बेटे से मिलने आता है. उसे घुमाताफिराता और तय समय पर वापस पहुंचा जाता.

वैसे भी दुखी हृदय, कमजोर काया, दुर्बल पक्ष ले कर कब तक बहस की जा सकती है, रमा रोने लगी.  हैरानपरेशान मुन्ना कभी बिलखती मां को देखता, कभी रणचंडिका बनी दोनों मामियों को. वह किस का पक्ष ले. झगड़ा अकसर उसे ही ले कर होता है. इस तथ्य को वह समझने लगा है. लेकिन क्यों इसे समझ  नहीं पाता. इस घर में और भी बच्चे रहते हैं, लड़ते हैं, झगड़ते हैं, खाते हैं, खेलते हैं, स्कूल पढ़ने जाते हैं उसी की तरह. लेकिन किसी को ले कर ऐसी लड़ाई नहीं होती, न हायतोबा. किसी की मम्मी उस की मम्मी की तरह नहीं बिसूरती रहती.

मामियां रेशमी साड़ियों में बनसंवर कर अपने पतिबच्चों के साथ सैरसपाटे पर जाती हैं, हंसतीखिलखिलाती. एक उस की मम्मी है…बदरंग कपड़ों, सूखे होंठ, उलझे बाल…किचन में रहेगी या पीछे बालकनी में उदास खड़ी आंखें पोंछती रहेगी.

30 वर्ष की युवावस्था में 60  वर्ष की गंभीरता ओढ़े मम्मी नानी के पास बैठेगी. उन की खुसुरफुसुर मुन्ने के समझ में नहीं आती. कुछ रोनेधोने की ही बात होगी, तभी मम्मी का गला रुंधा रहता है, आवाज फंसीफंसी निकलती है. नानी भी एक ही टौपिक से  ऊबी  हुई प्रतीत होती है, सो मुन्ने को झिड़क देती है, “जा, बाहर खेल, जब देखो मां से चिपका रहता है.”कहां जाएगा मां. इसे कोई साथ नहीं खेलाता,” मम्मी तुनक जाती.

“ढंग से खेलेगा, सभी खेलाएंगे,” नानी उकताई हुई सी बोली.”मां, तुम क्यों नहीं समझतीं. बच्चे इस के साथ सौतेला व्यवहार करते हैं. बिना कारण मुन्ने से झगड़ते हैं, मारते व चिढ़ाते हैं,” रमा का दबा आक्रोश मुखर हो गया.

नानी चुप रही. रमा का बातबात पर उत्तेजित हो जाना उन्हें नागवार गुजरता है क्योंकि घर में तेजतर्रार बहुएं हैं. मांबेटी का यों  बातें करना दोनों भाभियों को जरा भी नहीं सुहाता.
“आज हमारी खैर नहीं. छोटी, खूब लगाईबुझाई हो रही है.””होने दो दीदी, हम नहीं डरतीं किसी से; अपने पति की कमाई खाती हैं. कोई आंखें उठा कर देखे तो सही, नोच डालूंगी.” बहुओं के तानेतिश्ने से मां घबरा जाती, मन ही मन उस घड़ी को कोसती जब रमा हाथ में अटैची  और गोद में 10 माह का बच्चा लिए उस की देहरी पर आई थी.

5 वर्ष पहले ही कितनी धूमधाम से बिटिया का विवाह किया था. दोनों भाइयों से छोटी, सब की लाडली. पिता थे नहीं.  उन की जगह दोनों भाइयों ने रमा को पूर्ण संरक्षण दिया. दोनों भाभियां भी प्यारदुलार की वर्षा करते नहीं थकती थीं. आज वही भाभियां तलवार की धार बनी उस पर हर घड़ी वार करने के लिए बेचैन रहती हैं.शायद बदली हुई स्थिति  के कारण. रहिमन चुप हो बैठिए देख दिनन के फेर…

आज मुन्ने को कोर्ट के निर्देशानुसार अपने पापा के पास 8 घंटे के लिए जाना था. वह उतावला हो रहा था, “जल्दी, मम्मी जल्दी…”अर्द्धविक्षिप्त सी रमा गिरतेगिरते बची, “ओह, चप्पल टूट गई. इसे भी अभी ही धोखा देना था.” दो कदम चलना दूभर हो गया. पुरानी घिसी हुई चप्पल. वह लाचार इधर‌उधर  देखने लगी.

“मम्मी, जल्दी चलो, पापा आ गए होंगे.” उस की मनोस्थिति से अनजान मुन्ने की बेसब्री बढ़ती जा रही थी.

“मैं क्या करूं. तेरी जान को रोऊं. जब देखो सिर पर सवार रहता है. दो मिनट की चैन नहीं. कभी यह तो कभी वह. महीनेभर मैं खटतीपिटती रहती हूं, उस की कोई कीमत नहीं. तेरे पापा को क्या, महीने में एक दिन  लाड़चाव लगाना रहता है. और तू, उन्हीं का माला  जपता  रहता है. सब की नजरों में मैं खटकती हूं. अब इस चप्पल को भी कब का बैर था मुझ से. इसे अभी ही टूटना था. मुझ से चला नहीं जाता,” रमा बिफर उठी. मुन्ना सहम गया. उस ने मां की पांव की ओर देखा, “सच्ची मम्मी, इन टूटी चप्पलों में कैसे चलेंगी?”

चप्पल मम्मी के गोरे पैरों का सहारा भर थीं वरना वह कब की  घिस चुकी थीं- बदरंग, पुरानी…

मुन्ना की आंखों के समक्ष मामियों की ऊंची एड़ी की मौडर्न, चमचमाती जूतियों का जोड़ा घूम गया. कितनी जोड़ी होंगी उन के पास. जब वे उन्हें धारण कर खटखटाती चलती हैं, कितनी स्मार्ट लगती हैं, किसी फिल्म तारिका जैसी. और उस की मम्मी, घरबाहर यही एक जोड़ी चप्पल… और आज वह भी टूट गया.

सफर की हमसफर- भाग 1: प्रिया की कहानी

दिल्ली के प्रेमी युगलों के लिए सब से मुफीद और लोकप्रिय जगह यानी लोधी गार्डन में स्वरूप और प्रिया हमेशा की तरह कुछ प्यार भरे पल गुजारने आए थे. रविवार की सुबह थी. पार्क में हैल्थ कोंशस लोग मॉर्निंग वाक के लिए आए हुए थे. कोई भाग रहा था तो कोई ब्रिस्क वाक कर रहा था. कुछ लोग तरहतरह के व्यायाम करने में व्यस्त थे तो कुछ दूसरों को देखने में. झील के सामने पड़ी लोहे की बेंच पर बैठे प्रिया और स्वरुप एकदूसरे में खोए हुए थे. प्रिया की बड़ीबड़ी शरारत भरी निगाहें स्वरूप पर टिकी थी. वह उसे अपलक निहारे जा रही थी. स्वरूप ने उस के हाथों को थामते हुए कहा, “प्रिया, आज तो तुम्हारे इरादे बड़े खतरनाक लग रहे हैं. ”

वह हंस पड़ी,” बिल्कुल जानेमन. इरादा यह है कि तुम्हे अब हमेशा के लिए मेरा हाथ थामना होगा. अब मैं तुम से दूर नहीं रह सकती. तुम ही मेरे होठों की हंसी हो. भला हम कब तक ऐसे छिपछिप कर मिलते रहेंगे? और फिर प्रिया गंभीर हो गई.

स्वरूप ने बेबस स्वर में कहा,” अब मैं क्या कहूं? तुम तो जानती ही हो मेरी मां को. उन्हें तो वैसे ही कोई लड़की पसंद नहीं आती उस पर हमारी जाति भी अलग है.”

“यदि उन के राजपूती खून वाले इकलौते बेटे को सुनार की गरीब बेटी से इश्क हो गया है तो अब तुम या मैं क्या कर सकते हैं? उन को मुझे अपनी बहू स्वीकार करना ही पड़ेगा. पिछले 3 साल से कह रही हूँ. एक बार बात कर के तो देखो.”

“एक बार कहा था तो उन्होंने सिरे से नकार दिया था. तुम तो जानती ही हो कि मां के सिवा मेरा कोई है भी नहीं. कितनी मुश्किलों से पाला है उन्होंने मुझे. बस एक बार वे तुम्हें पसंद कर लें फिर कोई बाधा नहीं. तुम उन से मिलने गई और उन्होंने नापसंद कर दिया तो फिर तुम तो मुझ से मिलना भी बंद कर दोगी. इसी डर से तुम्हे उन से मिलवाने नहीं ले जाता. बस यही सोचता रहता हूं कि उन्हें कैसे पटाऊं.”

“देखो अब मैं तुम से तो मिलना बंद नहीं कर सकती तो फिर तुम्हारी मां को पटाना ही अंतिम रास्ता है.”

“पर मेरी मां को पटाना ऐसी चुनौती है जैसे रेगिस्तान में पानी खोजना.”

“ओके तो मैं यह चुनौती स्वीकार करती हूं. वैसे भी मुझे चुनौतियों से खेलना बहुत पसंद है. “बड़ी अदा के साथ अपने घुंघराले बालों को पीछे की तरफ झटकते हुए प्रिया ने कहा और उठ खड़ी हुई.

“मगर तुम यह सब करोगी कैसे?” स्वरूप ने उठते हुए पूछा.

“एक बात बताओ. तुम्हारी मां इसी वीक मुंबई जाने वाली हैं न किसी ऑफिसिअल मीटिंग के लिए. तुम ने कहा था उस दिन.

“हां, वह अगले मंगल को निकल रही हैं. आजकल में रिजर्वेशन भी कराना है मुझे.”

“तो ऐसा करो, एक के बजाए दो टिकट करा लो. इस सफर में मैं उन की हमसफर बनूंगी. पर उन्हें बताना नहीं,” आंखे नचाते हुए प्रिया ने कहा तो स्वरूप की प्रश्नवाचक निगाहें उस पर टिक गईं.

प्रिया को भरोसा था अपने पर. वह जानती थी कि सफर के दौरान आप सामने वाले को बेहतर ढंग से समझ पाते हैं. जब हम इतने घंटे साथ बिताएंगे तो हर तरह की बातें होंगी. उन्हें एक दूसरे को इंप्रेस करने का मौका मिलेगा. उन में दोस्ती हो सकेगी. कहने की जरुरत भी नहीं पड़ेगी. यह तय हो जाएगा कि वह स्वरूप की बहू बन सकती है. उस ने मन ही मन फैसला कर लिया था कि यह उस की आखिरी परीक्षा है.

स्वरूप ने मुस्कुराते हुए सर हिला तो दिया था पर उसे भरोसा नहीं था. उसे प्रिया का आइडिया बहुत पसंद आया था पर वह मां के जिद्दी, धार्मिक व्यवहार को जानता था. फिर भी उस ने हाँ कर दिया.

उसी दिन शाम में उस ने मुंबई राजधानी एक्सप्रेस (गाड़ी संख्या 12952 ) के एसी 2 टियर श्रेणी में 2 टिकट (एक लोअर और दूसरा अपर बर्थ )रिज़र्व कर दिया. जानबूझ कर मां को अपर बर्थ दिलाई और प्रिया को लोअर.

जिस दिन प्रिया को मुंबई के लिए निकलना था, उस से 2 दिन पहले से वह अपनी तैयारी में लगी थी. यह उस की जिंदगी का बहुत अहम सफर था. उस की ख़ुशियों की चाबी यानी स्वरुप का मिलना या न मिलना इसी पर टिका था. प्रिया ने वह सारी चीज़ें रख लीं जिन के जरिये उसे स्वरुप की मां पर इम्प्रैशन जमाने का मौका मिल सकता था.

ट्रेन शाम 4.35 पर नई दिल्ली स्टेशन से छूटनी थी. अगले दिन सुबह 8.35 ट्रेन का मुंबई अराइवल था. कुल 1385 किलोमीटर की दूरी और 16 घंटों का सफर था. इन 16 घंटों में उसे स्वरुप की मां को जानना था और अपना पूरा परिचय देना था.

वह समय से पहले ही स्टेशन पहुँच गई और बहुत बेसब्री से स्वरुप और उस की मां के आने का इंतजार करने लगी. कुछ ही देर में उसे स्वरुप आता दिखा. साथ में मां भी थी. दोनों ने दूर से ही एकदूसरे को आल द बेस्ट कहा.

ट्रेन के आते ही प्रिया सामान ले कर अपने बर्थ की तरफ बढ़ गई.  सही समय पर ट्रेन चल पड़ी. आरंभिक बातचीत के साथ ही प्रिया ने अपनी लोअर बर्थ मां को ऑफर कर दी. उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया क्यों कि उन्हें घुटनों में दर्द रहने लगा था. वैसे भी बारबार ऊपर चढ़ना उन्हें पसंद नहीं था. उन की नजरों में प्रिया के प्रति स्नेह के भाव झलक उठे. प्रिया एक नजर में उन्हें काफी शालीन लगी थी. दोनों बैठ कर दुनिया जहान की बातें करने लगे. मौका देख कर प्रिया ने उन्हें अपने बारे में सारी बेसिक जानकारी दे दी कि कैसे वह दिल्ली में रह कर जॉब कर रही है और इस तरह अपने मांबाप का सपना पूरा कर रही है. दोनों ने साथ ही खाना खाया। प्रिया का खाना चखते हुए मां ने पूछा,” किस ने बनाया? तुम ने या कामवाली रखी है?”

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