दीयों की चमक- भाग 2: क्यों बदल गया भाभियों का प्यार

मुन्ना उदास हो गया. उस का बालसुलभ मन इन विसंगतियों को समझ नहीं सका. रमा किसी प्रकार अपना पैर संभालसंभाल मंजिल तक पहुंची. सामने खड़े अवध उसे एकटक देख रहे थे. नज़रें मिलते ही उन्होंने आंखें  झुका लीं.

कितने स्मार्ट लग रहे हैं अवध. लगता है नया सूट सिलवाया है- रौयल ब्लू पर लाल टाई, कार भी न‌ई खरीदी है. अरे वाह, क्षणभर के लिए ही सही उस की आंखें चमक उठीं.

मुन्ना पापा को देखते ही दौड़ पड़ा, “बाय मम्मी.”

“बाय.”

“पापा, न‌ई गाड़ी किस की है?” पापा को पा कर मुन्ना  सारे जग को भूल जाता है, शायद मां को भी.

“तुम्हारी है. तुम्हें कार की सवारी पसंद है न.”

“सच्ची, मेरे लिए, मेरी है,” उसे विश्वास नहीं हो रहा था.

पिछले सप्ताह वह मामा के कार में ताकझांक कर रहा था. उसे मामा के बेटे ने हाथ पकड़  कर ढकेल दिया था.

“मैं भी गाड़ी में बैठूंगा,” मुन्ने का मन कार से निकलने का नहीं कर रहा था.

मामा का  बेटा उसे परास्त करने का तरीका सोच ही रहा था, उसी समय बड़ी मामी सजीधजी कहीं जाने के लिए निकली. मुन्ने को कार में ढिठाई करते देख सुलग पड़ी, “पहले घर, अब कार. सब में इस को हिस्सा चाहिए. इन मांबेटा ने जीना दूभर कर दिया है, सांप का बेटा संपोला.”

मामी की कटुक्तियां  वह समझा या नहीं, लेकिन इतना अवश्य समझ गया कि इस खूबसूरत कार पर उस का कोई अधिकार नहीं है.

उसे, उस की मम्मी, उस के पापा से कोई प्यार नहीं करता. उस ने कार से उतरने में ही अपनी भलाई समझी. अभी जा कर मम्मी से सब की शिकायत करता हूं.

लेकिन मम्मी है कहां? वह रसोई में शाम की पार्टी की तैयारी में जुटी थी. बड़े मामा का प्रमोशन हुआ था और उन के शादी की सालगिरह भी थी. सभी व्यस्त थे, खरीदारी, घर की सजावट, रंगरोगन में. फ़ालतू तो वह और उस की मम्मी.

वह मम्मी के पास जा पहुंचा. आग की लपटों में मम्मी का गोरा रंग  ताम्ब‌ई हो रहा था. वह एक के बाद एक स्वादिष्ठ व्यंजन बनाने में हलकान हो रही थी. इस स्थिति में उन्हें परेशान करना सही नहीं.

“मम्मी, एक ले लूं.” लाल सुर्ख कचौड़ी की खुशबू उसे सदैव आकर्षित करती है.

मम्मी ने उंगली के इशारे से मना किया. उस के बढ़ते हाथ रुक गए.

“पूजा के बाद मिलेगा न, मम्मी?”

“हां मेरे लाल,” मम्मी ने लाड़ले को सीने से लगा लिया. मां का शरीर कितना गरम है. सीने में उबलते हुए जज़्बात चक्षु से भाप बन निकलने लगे.

“मेरा राजा बेटा, अपना होमवर्क करो. मैं थोड़ी देर में आती हूं.” वह जानता है मम्मी रात्रि के 12 बजे से पहले नहीं आने वाली. तब तक  वह  दुबक कर सो जाएगा.

मम्मी पार्टी समाप्त होने पर बचाखुचा काम समेटेंगी. 2 निवाले खाएंगी या ‘भूख नहीं है,’ कह कर छुट्टी पा लेंगी.  उसे एकबार मम्मी ने इसी तरह किसी पार्टी में एक मिठाई खाने के लिए दे दी थी. उस दिन कितना शोर मचा था. यों अपने बेटे को कुछ खाने के लिए देना दोनों मामियों को  कितना नागवार गुजरा था. उस दिन से मम्मी ने जैसे कसम खा ली थी. न कुछ उठा कर बेटे को देती थीं न खुद लेती थीं. अपने ही मांबाप के घर में; अपने लोगों के बीच दोनों मांबेटे किरकिरी बने हुए हैं.

सिर्फ मांग में सिंदूर पड़ जाने से, एक बच्चे की मां बन जाने से कोई इतना पराया हो जाता है. यही भाभियां रमा की एक‌एक अदा पर नयोछावर होती थीं. उस को खिलानेपिलाने में आगे रहती थीं. उन्हीं की नजरों में वह ऐसा गिर चुकी है.

“मम्मी, देखो, न‌ई गाड़ी मेरे लिए. तुम भी चलो, खूब घूमेंगे, पिकनिक पर जाएंगे. अपने दोस्तों को भी ले जाऊंगा,” मुन्ना खुशी से बावला हो रहा था.

अवध अपने बेटे का चमकता मुखड़ा निरेख रहे थे और रमा, बापबेटे के इस मिलन को किस प्रकार ले- हंसे या रोए. हंसना वह भूल चुकी है और रोना…इस आदमी के सामने जो उस के बेटे का बाप है.

ना, वह रोएगी नहीं. कमजोर नहीं पड़ेगी. वहां से भागना चाहती है. टूटी हुई चप्पल…हाय रे, समय का फेर.

पति कार स्टार्ट कर जा चुके थे.  मुन्ने का हिलता हाथ नजरों से ओझल हो गया. वह टूटी चप्पल वहीं फेंक नंगेपांव घर लौट आई.

मां किताब पढ़ रही थीं. भाभियां अपनेआप में मस्त. किसी का ध्यान उस की ओर नहीं. वह बिस्तर पर कटे पेड़ के समान गिर पड़ी. हृदय की पीड़ा आंखों में आंसू बन बह चली. बचपन से ले कर आज तक की घटनाएं क्रमवार याद आने लगीं…

रमा के पिता व्यापारी थे. अच्छा खातापीता परिवार. दोनों भाइयों से छोटी रमा सब की लाड़ली, सुंदर, संस्कारी.

पिता के बाद भाइयों ने कारोबार संभाल लिया. भाभियां उस पर दिलों जान छिड़कतीं. भाईबहन का प्यार देख मां फूली नहीं समातीं. रमा रूपवती, मिलनसार लड़की थी. लेकिन मां के अत्यधिक लाड़प्यार, भाइयों के संरक्षण, भाभियों का दोस्ताना व्यवहार ने उसे कुछ ज्यादा ही भावुक बना दिया था. निर्णय लेने की क्षमता का उस में विकास नहीं हो पाया था. आगापीछा नहीं जानती थी. शायद यही सब उस के सर्वनाश का कारण बना और इसी सब ने उसे आज इस विकट स्थिति में खड़ा कर दिया.

“रमा बड़ी हो गई है, उस के लिए वर ढूंढने की जिम्मेदारी तुम दोनों भाइयों की और विवाह की तैयारी दोनों भाभियों की,” मां बेटी रमा के ब्याह के लिए चिंतित थी.

भाइयों ने इसे गंभीरता से लिया और उसी दिन से शुरू हुआ उचित वर, घर की तलाश. घरवर दोनों मनोनुकूल मिलना आसान नहीं.

कहीं लड़का योग्य तो घर कमजोर. कहीं घर समृद्ध लेकिन वर रमा के योग्य नहीं. इसी बीच गांवघर की बूआ अवध का रिश्ता ले कर आईं. वे कभी अवध के रूपगुण का बखान करतीं, कभी उस के ऊंचे खानदान व धनदौलत का. रमा छिपछिप कर सुनती, अपने भावी जीवन की कल्पना में डूबतीउतराती रहती.

रिश्ता पक्का हो गया. विवाह धूमधाम से संपन्न हुआ. लेनदेन में कोई कमी नहीं. वरपक्ष से कोई दबाव भी नहीं था. अवध के परिवार वालों को रमा भा गई थी. परिवार पसंद आ गया था.  शुरू में सबकुछ ठीकठाक रहा. अवध रमा पर जान छिड़कता था. मायके की तरह रमा ससुराल में भी सब की लाड़ली बनी हुई थी.

स्वयंसिद्धा- भाग 2: जब स्मिता के पैरों तले खिसकी जमीन

धीरे-धीरे आशुतोष के आने का वक्त भी करीब आता जा रहा था, पर इधर उस के फोन काल्स हर हफ्ते 3-4 बार आने के बजाय 10-15 दिन में आने लगे थे. देर से फोन करने का उलाहना देने पर कभी वह बिजी होने की बात बता देता तो कभी झुंझला पड़ता. पर स्मिता इंतजार करने के अतिरिक्त कर भी क्या सकती थी? इंतजार की घडि़यां जब समाप्ति के नजदीक होती हैं तो और लंबी लगने लगती हैं. घर में सब 2-4 दिन में ही आशुतोष के वापस आने की प्रतीक्षा कर रहे थे, पर फोन से बात होने पर उस ने बताया कि उस ने सरकार से अपने लिए फिर 1 वर्ष का ऐक्सटैंशन मांगा है.

‘‘पर क्यों?’’ स्मिता किंचित रोष व उलझन भरे स्वर में पूछे बिना न रह सकी थी.

‘‘स्मिता, मैं तो आना चाहता हूं, पर यहां हर वह सुविधा उपलब्ध है, जो वहां इंडिया में मेरे डिपार्टमैंट में नहीं है. मैं कोशिश कर रहा हूं कि यहां कहीं अच्छी जौब भी ढूंढ़ लूं. इस बीच यदि मुझे ट्रेनिंग का 1 साल और मिल जाता है, तो अच्छा ही है. आगे का बाद में प्लान करेंगे. तुम वहां मांबाबूजी के पास हो ही… कोई चिंता की बात तो है नहीं.’’

इस के बाद थोड़ी देर पलक व घर के अन्य सदस्यों से बात कर के आशुतोष ने फोन काट दिया. स्मिता को लगा मानो उस की किश्ती किनारे आतेआते पुन: लहरों के थपेड़ों से दूसरे किनारे जा पहुंची है. 1 वर्ष और यानी पूरे 365 दिन. उसे समझ नहीं आ रहा था इतना लंबा समय वह कैसे काटेगी. पर हकीकत तो यही थी और उसे स्वीकारना उस की मजबूरी. अनमनी सी वह अपनेआप को कामों में व्यस्त रखने का उपक्रम करती रही.

जिंदगी एक बार फिर उसी पुरानी रफ्तार से चल पड़ी थी. ट्यूशन पढ़ने वालों की संख्या भी बढ़ती गई. एक दिन कालेज के प्रिंसिपल ने स्मिता को कुछ जरूरी बात करने के लिए फोन कर के बुलाया. विज्ञान के अध्यापक के अचानक चले जाने से वह पद रिक्त पड़ा था. वहां के विद्यार्थियों के अनुरोध पर ही उन्होंने स्मिता को कालेज में लैक्चररशिप के लिए प्रस्ताव दिया था. पति के आने में अभी तो पूरा साल पड़ा था. जब घर बैठे ही इतना अच्छा अवसर मिल रहा था, तो उसे गंवाने का कोई औचित्य भी नजर नहीं आता था. घर में बड़ों की अनुमति से उस ने वह औफर स्वीकार कर लिया. फिर जल्दी ही वह सब की प्रिय अध्यापिका बन गई. उस का पढ़ाने का तरीका ही ऐसा था कि किसी को अलग से ट्यूशन की आवश्यकता महसूस ही नहीं होती थी.

स्मिता ने अपने कैरियर व घरेलू जिम्मेदारियों के बीच सही तालमेल बैठाते हुए पलक का भी प्रीनर्सरी में ऐडमिशन करा दिया था. उन्हीं दिनों अभिजीत का इंजीनियरिंग में चयन हो जाने से वह रुड़की चला गया. कालेज का खुशनुमा माहौल, व्यस्त दिनचर्या एवं एक सहअध्यापिका अंजलि से अच्छी जानपहचान हो जाने से स्मिता का वक्त अच्छा कटने लगा था. अंजलि के पति डा. सुनील बहल भी आशुतोष के साथ ही अमेरिका गए थे. वे अवधि पूरी होने पर लौट आए थे. अंजलि व स्मिता अकसर एकदूसरे से अपने दिल की बातें करती रहती थीं. जल्दी ही उन में गहरी दोस्ती हो गई.

एक दिन बातों ही बातों में अंजलि ने झिझकते हुए पूछा, ‘‘स्मिता, एक बात पूछूं… बुरा तो नहीं मानोगी?’’

‘‘अरे पूछो न… भला तुम्हारी बात का क्यों बुरा मानूंगी.’’

‘‘सब लोग वापस आ गए हैं पर डा. राणा वहीं क्यों रुक गए?’’

‘‘दरअसल, वहां उन्हें कुछ और काम करना था. उन्होंने सरकार से 1 साल का ऐक्सटैंशन और मांगा है.’’

स्मिता के सहज ढंग से कहे गए उत्तर से अंजलि आश्वस्त नहीं हुई. स्मिता को लगा वह कुछ कहना चाह रही है, परंतु संकोचवश कह नहीं पा रही.

आखिर उस ने ही पूछा, ‘‘तुम कुछ परेशान लग रही हो? क्या बात है?’’

‘‘पता नहीं मुझे कहनी चाहिए या नहीं… पर तुम तो मेरी दोस्त हो इसलिए तुम्हें अंधेरे में नहीं रखना चाहती हूं,’’ अंजलि हर शब्द तोलतोल कर कह रही थी.

उस के बोलने की संजीदगी से स्मिता का हृदय आशंका से धड़कने लगा था. शंकाएं नागफनी की तरह सिर उठाने लगी थीं. वह धीरे से केवल यही पूछ सकी, ‘‘कुछ कहो तो…’’

‘‘वहां मेरे पति सुनील डा. राणा के रूममेट थे. वे कह रहे थे कि डा. राणा की उसी इंस्टिट्यूट की एक अमेरिकन रिसर्च स्कौलर से कोर्टशिप चल रही थी और शायद जल्दी ही…’’

बीच में ही उस की बात काटती स्मिता बोल उठी, ‘‘नहींनहीं, ऐसा कुछ नहीं हो सकता. जरूर डा. बहल को कोई गलतफहमी हुई होगी. आशु तो हम सब को बहुत प्यार करते हैं… भला वे ऐसा क्यों करेंगे?’’

‘‘हो सकता है तुम्हारी बात ही सच हो. पर तुम्हें आगाह करना मैं ने अपना फर्ज समझा… तुम बुरा न मानना,’’ उस ने पुन: क्षमायाचना करते हुए कहा.

उस दिन स्मिता मन ही मन बेहद चिंतित हो उठी थी. पति द्वारा किए जाने वाले फोन काल्स में बढ़ता समय अंतराल, संक्षिप्त होती जा रही बातचीत, बात करने का ढंग, सभी कुछ कहीं न कहीं अंजलि की बात का ही तो समर्थन करता प्रतीत हो रहा था. मांबाबूजी को वह क्या बताती? अभी तो वही उस बात पर विश्वास नहीं कर पा रही थी. उस ने निश्चय कर लिया था कि रात में वह स्वयं आशुतोष से इस विषय पर बात करेगी. या तो वह पैसा कमाने की धुन छोड़ कर यहीं आ जाए या उसे व पलक को भी वहीं बुला ले. समस्याओं का कुछ हल सूझता दिखा तो मन कुछ शांत हुआ. डा. सुनील को जरूर कोई गलतफहमी हुई होगी. मेरे साथ इतना बड़ा विश्वासघात नहीं हो सकता. व्यर्थ ही मैं मन में शक पाल रही हूं.

सारे काम निबटा कर उस ने कई बार फोन मिला कर बात करनी चाही पर आशंका से कांपती उंगलियों से डायल करना उस दिन उसे अत्यंत दुरूह लग रहा था. यदि अंजलि की बात सच निकली तो…? अजीब ऊहापोह की स्थिति हो रही थी. आखिर दिल कड़ा कर के उस ने आशुतोष का मोबाइल नंबर डायल कर ही दिया. उधर रिंग जा रही थी मगर फोन उठ नहीं रहा था. तभी उसे ध्यान आया यहां तो रात है मगर वहां तो अभी दिन होगा. हो सकता है कि आशुतोष काम पर जाने के लिए तैयार हो रहे हों.

वह फोन काटने ही वाली थी कि तभी उधर से किसी स्त्री का अमेरिकन लहजे में स्वर उभरा, ‘‘येस… रिया फर्नांडिस हियर…’’

‘‘सौरी,’’ कह कर स्मिता ने तुरंत फोन काट दिया. शायद घबराहट में वह गलत नंबर डायल कर गई थी. पर चैक किया तो देखा नंबर तो सही डायल हुआ था. पर यह रिया फर्नांडिस कौन है? इतनी सुबह आशुतोष के पास क्या कर रही होगी? उस ने फिर फोन किया. इस बार उसे अधिक इंतजार नहीं करना पड़ा.

उधर से आशुतोष की आवाज आई, ‘‘हैलो… कौन स्मिता?’’

‘‘हां… मैं ने पहले भी मिलाया था. किसी रिया ने…’’

‘‘ओ हां, उसी के यहां तो मैं पेइंग गैस्ट की तरह रह रहा हूं. तुम्हें बताने ही वाला था आजकल में…’’

‘‘मगर बिजी होंगे… है न? 15-20 दिन हो गए हैं आप का फोन आए. क्या बात है? पुराना होस्टल क्यों छोड़ दिया?’’

‘‘असल में मैं ने इंडियन गवर्नमैंट से जो

1 साल का ऐक्सटैंशन मांगा था वह उन्होंने मंजूर नहीं किया है. इसलिए मैं ने वह नौकरी छोड़ दी और यहां पार्ट टाइम जौब ढूंढ़ ली है. वह होस्टल छूटा तो अपने ही साथ रिसर्च कर रही एक दोस्त के यहां मैं बतौर पेइंग गैस्ट रहने लगा हूं.’’

‘‘तो मुझे व पलक को भी वहीं बुला लीजिए,’’ स्मिता से रहा न गया, अधीरतावश वह यह कह ही बैठी.

‘‘कम औन स्मिता… यहां मेरे रहने का ठिकाना नहीं है, तुम दोनों को कहां रखूंगा? थोड़ा सब्र करो… तुम दोनों को बाद में बुलाऊंगा,’’ उधर से झुंझलाया हुआ स्वर स्मिता के कानों से टकराया. पर वह भी आसानी से मानने वाली नहीं थी.

‘‘मैं भी वहां पार्ट टाइम जौब कर लूंगी फिर कोई दिक्कत नहीं होगी. हम लोग किस्तों पर कोई छोटा सा मकान ले लेंगे. आप अपना पता बता दें, मैं स्वयं आ जाऊंगी… या आप बुलाना ही नहीं चाहते?’’

‘‘कोई खेल है अमेरिका चले आना? वीजा बनवाना पड़ता है, पासपोर्ट बनता है… फिर पैसा चाहिए टिकट के लिए.’’

‘‘आप उस की चिंता न करो. मैं ने सब चीजें अपटूडेट करा रखी हैं. टूरिस्ट वीजा भी बन जाएगा. आप के भेजे पैसों में से भी मैं ने काफी बचत की हुई है और मैं भी अब डिग्री कालेज में लैक्चरार हो गई हूं,’’ फिर उस ने संक्षेप में पूरी बात आशुतोष को बता दी, मगर उस से कोई उत्साहजनक प्रतिक्रिया न पा कर उसे आश्चर्य नहीं हुआ.

‘‘ठीक है, फिर तुम अपनी जौब में ध्यान लगाओ. मैं बाद में तुम्हें फोन करूंगा, अभी तो मुझे अस्पताल पहुंचने की जल्दी है,’’ कह कर बगैर प्रतीक्षा किए उस ने फोन काट दिया.

स्मिता चाह कर भी आशुतोष से कुछ नहीं पूछ सकी. रिश्तों की नजाकत उस के होंठ सिए थी पर मन था कि शक के थपेड़ों से लहूलुहान हुआ जा रहा था. मानव स्वभाव है कि अंत तक आशा का दमन नहीं छोड़ना चाहता. उस ने भी खुद को समझा कर शांत करने का प्रयास किया कि लोगों का क्या है, दूसरों को हंसताबोलता देख कर कुछ भी अनुमान लगा लेते हैं. आशुतोष एक अच्छे, पढ़ेलिखे व जिम्मेदार व्यक्ति हैं. वे ऐसा कोई अशोभनीय कदम नहीं उठाएंगे. उसे खुद पर मन ही मन कुछ ग्लानि भी हुई. वह तो फिर भी यहां पूरे परिवार के साथ है, वहां परदेश में उन का कौन है… यदि दोस्त से हंसबोल लेते हैं तो कौन सा गुनाह कर दिया? उसे मन में संदेह नहीं लाना चाहिए था. जरूर डा. सुनील गलत समझे हैं. यही सब सोचते, पलक को थपकियां दे कर सुलाते वह स्वयं भी निद्रा के आगोश में चली गई.

सुबह सो कर उठी तो मन फूल सा हलका लग रहा था. अंजलि की बातों से उपजी चिंता पति से बात करने पर काफी हद तक दूर हो गई थी. व्यर्थ के विचार मन से झटक वह स्वयं को अधिक तरोताजा महसूस कर रही थी और सोच रही थी कि अंजलि को भी सब कुछ ठीक होने का विश्वास दिला देगी.

क्लास में लैक्चर देने के बाद वह स्टाफ रूम में जब थोड़ी फुरसत में अंजलि से मिली, तो उस के कुछ कहने से पहले ही अंजलि ने एक पता लिखा कागज उस की तरफ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘स्मिता, यह पता उसी दोस्त का है, जहां डा. राणा अकसर होस्टल छोड़ कर रहने चले जाते थे. सुनील वहां से आते समय पता ले आए थे.’’

धड़कते दिल से स्मिता ने कागज ले लिया. पता रिया फर्नांडिस का ही था. उस ने कागज संभाल कर पर्स में रख लिया. आशुतोष तो अपना पता बताना टाल गया था पर आखिर स्मिता को वह कहीं न कहीं से मिल ही गया. उस ने पिछली रात पति से हुई बातचीत अंजलि को बताई कि उन्होंने रिया के घर शिफ्ट कर लेने की बात स्वयं फोन पर बताई थी. मन में चोर होता तो क्यों बताते? वह तरहतरह से अंजलि को विश्वास दिलाती रही कि वैसा कुछ नहीं होगा, जैसा कि वे लोग सोच रहे हैं. अगले वर्ष वे लौट ही आएंगे या उसे ही वहां बुला लेंगे. पर शायद अंजलि से ज्यादा वह स्वयं को सब कुछ सामान्य होने का विश्वास दिलाना चाह रही थी.

आशुतोष से बात हुए पूरा महीना निकल गया. स्मिता व घर वालों ने कई बार फोन मिलाया पर हर बार ‘मोबाइल का स्विच औफ है’ की कंप्यूटर टोन आती रही या फोन मिलते ही काट दिया जाता था. आशुतोष ने पलट कर कभी फोन नहीं किया, जिस से स्मिता के मन में पुन: शक की नागफनी उगने लगी. उस ने दबी जबान से अपनी सास को सारी बातें बता दीं. घर में मां व बाबूजी भी आशुतोष में आए परिवर्तन को महसूस कर रहे थे. आखिर इस विषय में विचारविमर्र्श कर के सर्वसम्मति से तय किया गया कि स्मिता व पलक के लिए टिकट व वीजा वगैरह का इंतजाम वे लोग करवा देंगे. पता मिल ही गया है, अत: अब अधिक देर न कर उन दोनों को वहां चले जाना चाहिए. फिर सब धीरेधीरे ठीक ही हो जाएगा. शायद बेटी का मुंह देख कर उन के बेटे के बहकते कदम ठीक राह पर आ जाएं. अभिजीत ने बाबूजी के साथ दौड़धूप कर के सारे पेपर्स पूरे करा टिकट स्मिता के हाथों में थमा दिया.

दीप दीवाली के- भाग 1: जब बहू ने दिखाएं अपने रंग-ढंग

‘‘बहू, बाथरूम में 2 दिन से तुम्हारे कपड़े पड़े हैं, उन्हें धो कर फैला तो दो,’’ सुनयना ने आंगन में झाड़ू लगाते हुए कहा.

‘‘अच्छा, फैला दूंगी, आप तो मेरे पीछे ही पड़ जाती हैं,’’ बहू ने अपने कमरे से तेज आवाज में उत्तर दिया.

‘‘इस में चिल्लाने की क्या बात है?’’

‘‘चिल्लाने की बात क्यों नहीं है. कपड़े मेरे हैं, फट जाएंगे तो मैं आप से मांगने नहीं आऊंगी. जिस ने मेरा हाथ पकड़ा है वह खरीद कर भी लाएगा. आप के सिर में क्यों दर्द होने लगा?’’

बहू अपने कमरे से बोलती हुई बाहर निकली और तेज कदमों से चलती हुई बाथरूम में घुस गई और अपना सारा गुस्सा उन बेजान कपड़ों पर उतारती हुई बोलती जा रही थी, ‘‘अब इस घर में रहना मुश्किल हो गया है. मेरा थोड़ी देर आराम करना भी किसी को नहीं सुहाता. इस घर के लोग चाहते हैं कि मैं नौकरानी बन कर सारे मकान की सफाई करूं, सब की सेवा करूं जैसे मेरा शरीर हाड़मांस का नहीं पत्थर का है.’’

अपने इकलौते बेटे अखिलेश के लिए सुनयना ने बहुत सी लड़कियों को देखने के बाद रितु का चुनाव किया था. दूध की तरह गोरी और बी.काम. तक पढ़ी सर्वांग सुंदरी रितु को देखते ही सुनयना उस पर मोहित सी हो गई थीं और घर आते ही घोषणा कर दी थी कि मेरी बहू बनेगी तो रितु ही अन्यथा अखिलेश भले ही कुंआरा रह जाए.

इस तरह सुनयना ने 2 साल पहले अपने बेटे का विवाह रितु से कर दिया था.

रितु अपने पूरे परिवार की लाड़ली थी, विशेषकर अपनी मां की. इसलिए वह थोड़ी जिद्दी, अहंकारी और स्वार्थी थी. उस के घर मेें उस की मां का ही शासन था.

बचपन से रितु को मां ने यही पाठ पढ़ाया था कि ससुराल जाने के बाद जितनी जल्दी हो सके अपना अलग घर बना लेना. संयुक्त परिवार में रहेगी तो सासससुर की सेवा करनी पड़ेगी.

वैसे तो सुनयना के परिवार में भी किसी चीज की कमी नहीं थी, पर रितु के परिवार के मुकाबले उन की स्थिति कुछ कमजोर थी. सुनयना के पति रामअवतार एक कंपनी में हैड अकाउंटेंट थे. वेतन कम था पर उसी कम वेतन में उन की पत्नी सुनयना अपने घर को बड़े ही सलीके से चला रही थीं, साथ ही अपने इकलौते बेटे अखिलेश को भी उन्होंने अच्छी शिक्षा दिलवाई थी. इस समय अखिलेश एक विदेशी कंपनी में प्रोजैक्ट मैनेजर के पद पर कार्य कर रहा था, जिस की शाखाएं देश भर के बड़ेबड़े शहरों में थीं. अखिलेश को अकसर अपनी कंपनी की अलगअलग जगह की शाखाओं का दौरा करना पड़ता था.

अखिलेश जानता था कि कितनी कठिनाई से उस के मम्मीपापा ने उसे अच्छी शिक्षा दिलवाई है, इसलिए उस का झुकाव हमेशा अपने मातापिता और अपने घर की ओर रहता था. वह अपने वेतन में से कुछ रितु को दे कर बाकी पैसा अपनी मम्मी के हाथों में रख देता था.

2-3 महीने तो रितु ने यह सब देख कर सहन किया. यहां की सारी स्थितियों की जानकारी वह अपनी मां को बताना कभी नहीं भूलती थी. हर रात दिनभर की घटनाओं की जानकारी वह अपनी मां को दे दिया करती और मां उसे अपना गुरुमंत्र देना कभी नहीं भूलती थीं.

करीब 3 महीने बाद रितु ने पहले तो अपने पति पर शासन करना शुरू किया और जब वहां बात नहीं बनी तो उस ने अपनी सास सुनयना से बातबात में झगड़ा करना शुरू कर दिया. एक बार जो उस का मुंह खुला तो उस ने सुनयना की हर ईंट का जवाब पत्थर से देना शुरू कर दिया. अब तो इस घर में हर दिन सासबहू में झगड़ा होने लगा. जिस घर में रितु के आने से पहले जो शांति थी, अब उस शांति का वहां नामोनिशान भी न रहा.

अब सुनयना की दोपहर घर से थोड़ी दूर एक कमरे में गरीब बच्चों को पढ़ाने में व्यतीत होने लगी. रामअवतार एक शांतिप्रिय व्यक्ति होने के नाते दोनों को कुछ भी कह नहीं पाते थे. पत्नी को अधिक प्यार करते थे इसलिए उसे अपने तरीके से समझा दिया और बहू के मुंह लगना उचित नहीं समझते थे इसलिए वे अपने आफिस से लेट आने लगे.

अखिलेश की भी यही स्थिति थी. जिस मां ने तमाम मुसीबतें झेल कर उसे पालापोसा, पढ़ालिखा कर इस लायक बनाया कि वह इज्जत की रोटी कमा सके उन से वह कठोर बातें बोल ही नहीं सकता था. लेकिन रितु के सामने उस की हिम्मत ही नहीं होती थी. उधर रितु रातदिन अखिलेश के कान भरने लगी कि अब वह इस घर में नहीं रहेगी. उसे या तो वह उस के मायके पहुंचा दे या दूसरा मकान किराए पर ले कर रहे.

शाम को जब अखिलेश आफिस से आया तो सीधे अपने कमरे में गया. कमरे में रितु बाल बिखेरे, अस्तव्यस्त कपड़ों में गुस्से में बैठी थी. अखिलेश ने उस से पूछा, ‘‘आज क्या हुआ. इस तरह क्यों बैठी हो? आज फिर मां से झगड़ा हुआ क्या?’’

‘‘और क्या? तुम्हारी मां मुझ से प्यार से बात करती हैं?’’ शेरनी की तरह गुर्राते हुए रितु ने कहा और उस की आंखों से आंसू बहने लगे. इसी के साथ दोपहर का सारा वृत्तांत रितु ने नमकमिर्च लगा कर बता दिया. पुरुष सब सह सकता है पर सुंदर स्त्री के आंसू वह सहन नहीं कर सकता. अखिलेश ने फौरन अपना निर्णय सुना दिया कि वह कल ही इस घर को छोड़ देगा. यह बात सुनते ही रितु के आंसू कपूर की भांति उड़ गए.

सोतेजागते रात गुजर गई. सुबह जल्दी उठ कर अखिलेश घर से निकल गया और करीब 2 घंटे बाद घर आ कर मां से बोला कि मैं ने अलग मकान देख लिया है और रितु के साथ दूसरे मकान में जा रहा हूं.

मां ने कहा, ‘‘अपने पापा को आ जाने दो, उन से बात कर के चले जाना.’’

‘‘नहीं, मां. अब मैं किसी का इंतजार नहीं कर सकता. हर दिन कलह से अच्छा है अलग रहना. कम से कम शांति तो रहेगी.’’

‘‘ठीक है. मैं तुम्हें रोकूंगी नहीं क्योंकि अब तुम बच्चे नहीं रहे, जैसा तुम्हें ठीक लगे करो. तुम्हें जिस सामान की जरूरत हो ले जा सकते हो और वैसे भी यह सबकुछ तुम्हारा ही है,’’ कांपती हुई आवाज में अखिलेश से कह कर सुनयना ड्राइंगरूम में जा कर बैठ गईं. उस समय उन की आंखों में आंसू थे, जिन्हें वे अपने आंचल से बारबार पोंछ रही थीं.

थोड़ी देर बाद अखिलेश जा कर एक छोटा ट्रक ले आया, साथ में 2 मजदूर भी थे. मजदूरों ने सामान को ट्रक में चढ़ाना शुरू कर दिया. आधे घंटे बाद उसी ट्रक में दोनों पतिपत्नी भी बैठ कर चले गए.

सुनयना की हिम्मत नहीं हुई कि वे बाहर निकल कर उन दोनों को जाते हुए देखें.

शाम को जब रामअवतारजी आफिस से आए तब उन्हें अपनी पत्नी सुनयना से सारी जानकारी मिली. दुख तो बहुत हुआ पर हर दिन के झगड़े से अच्छा है, दोनों जगह शांति तो रहेगी. यह सोच कर वे चुप रहे. उस रात दोनों पतिपत्नी ने खाना नहीं खाया.

अखिलेश और रितु को गए हुए करीब 1 वर्ष हो गया था. ठीक दीवाली के 10 दिन बाद ही दोनों ने घर छोड़ा था.

स्वयंसिद्धा- भाग 4: जब स्मिता के पैरों तले खिसकी जमीन

बड़े भाई के भारत लौट आने का समाचार सुन कर उसे सुखद आश्चर्य हुआ, ‘‘चलिए अच्छा ही हुआ, जो वे वापस आ गए. आप से अनुरोध है कि कोई भी निर्णय लेने से पहले अच्छी तरह सोचविचार कर लीजिएगा.’’

‘‘हां सोचूंगी… अभी कुछ नहीं कह सकती,’’ कह कर स्मिता ने थोड़ी देर कविता व रोहित से बात कर के फोन रख दिया.

पलक के लौटने पर स्मिता ने उसे अभिजीत के फोन के बारे में बताया तो डैक औन करती पलक बोली, ‘‘क्या मां… पढ़ाई पूरी हुई नहीं कि बस शादी की जल्दी पड़ गई आप को.’’

प्यार से बेटी को देखती स्मिता उस का सिर सहलाते हुए बोली, ‘‘बेटा, पढ़ाई जितनी चाहे करो, पर बेटियां तो पराया धन होती हैं. एक न एक दिन तो उन्हें जाना ही होता है. जब अच्छा रिश्ता मिल रहा है तो अभी करने में हरज भी क्या है?’’

‘‘घरजंवाई ढूंढ़ लो मां. मैं कहीं नहीं जा रही हूं आप को छोड़ कर…’’ लापरवाही से पलक बोली.

‘‘धत पगली… इतनी बड़ी हो गई है, पर बचपना नहीं गया,’’ मां ने मीठी झिड़की देते हुए कहा.

कुछ ही दिनों बाद अभिजीत ने फोन पर स्मिता को खुशखबरी दे दी कि उन लोगों को फोटो में पलक बेहद पसंद आई है. बस, 2 दिन बाद विवेक के आने का इंतजार है, ताकि वे दोनों भी एकदूसरे को देखसमझ लें तो रिश्ता पक्का कर दिया जाए. फिर उन के आने का दिन व समय बता कर उस ने फोन रख दिया.

स्मिता ने अतिथियों को सम्मानपूर्वक अंदर ला कर ड्राइंगरूम में बैठाया. आरंभ में औपचारिक वार्त्तालाप चलता रहा पर जल्द ही उन लोगों के सुलझे व्यक्तित्व के कारण वातावरण दोस्ताना हो गया.

आकर्षक एवं सुदर्शन व्यक्तित्व के धनी विवेक को नापसंद करने का कोई प्रश्न ही नहीं था. स्मिता ने तो मन ही मन पलक के साथ उस की जोड़ी की कामना भी कर डाली.

स्मिता का परिवार सिंह दंपती के साथ बातों में व्यस्त था. पलक और विवेक बाहर लौन में टहल रहे थे. तभी बातों के बीच अचानक पलक ने विवेक से पूछ ही लिया, ‘‘क्या आप हमेशा विदेश में ही रहना चाहेंगे?’’

‘‘डिपैंड करता है इस पर कि आगे क्या परिस्थितियां रहती हैं. वैसे, मैं सोचता हूं कि कुछ वर्षों बाद यहीं लौट आऊं. यहां कुछ सालों में पापा भी रिटायर हो जाएंगे. ये लोग शायद ही वहां जाना चाहें. आप किस तरह के परिवार में विश्वास रखती हैं, एकल या सम्मिलित?’’

‘‘मैं तो यही समझती हूं कि यदि पीढि़यों की शृंखला आपस में प्रतिबद्ध रहे तो परिवार में समृद्धि व खुशहाली स्वयं आ जाती है और अगर परिवार से किसी सदस्य को कभी दूर जाना भी पड़ता है, तो यही दूरी केवल स्थानों की होनी चाहिए, न कि दिलों की.’’

पलक के कथन से विवेक प्रभावित हुए बिना न रह सका, ‘‘बिलकुल सच कह रही हैं आप. आप को विदेश जाना पसंद नहीं, लेकिन अभी मुझे 2-3 साल तो वहां लगेंगे ही.’’

देखते ही देखते पूरा दिन कब कैसे निकल गया, किसी को पता ही नहीं चला. पलक व विवेक की परस्पर सहमति जान कर संबंध पक्का करने के लिए शगुन स्वरूप विवेक के मातापिता ने केवल 1 रुपया स्वीकार किया. विवेक के लौटने से पहले ही शादी की तिथि निकल आई थी, इसलिए दोनों पक्षों ने जोरशोर से विवाह की तैयारियां आरंभ कर दीं.

आशुतोष को इंडिया आए 1 हफ्ता होने को आ रहा था. फोन पर वह रिया का हालचाल भी लेता रहता था, साथ ही शहर के कुछ नर्सिंग होम्स में जौब के लिए भी प्रयासरत था.

स्मिता के बेरुखी से पेश आने के बाद वह पुन: घर जाने में हिचक रहा था और फोन पर जब भी उस ने बात करने का प्रयास किया, स्मिता ने फोन काट दिया. तब उस ने अभिजीत का नंबर मिलाया तो उसे पता चला कि वे लोग इस समय यहीं आए हुए हैं. सुन कर उसे कुछ ढाढ़स बंधा. आखिर अगले दिन वह फिर से घर पहुंचा. स्मिता उस दिन कविता के साथ शौपिंग के लिए बाजार गई हुई थी. घर पर केवल पलक व अभिजीत ही थे.

कालबैल बजने पर अभिजीत ने ही दरवाजा खोला. इतने वर्षों बाद अचानक भाई को सामने देख कर उसे सुखद एहसास हुआ.

‘‘भैया आप… आइए अंदर आइए…’’ वह बोला.

थोड़ी हिचक के बाद आशुतोष अंदर आ गया. नजरें पलक व स्मिता को ढूंढ़ रही थीं. उस का आशय भांप अभिजीत ने भाई को स्मिता व कविता के शौपिंग के लिए गए होने की बात बताने के साथ ही पलक की शादी तय होने की खुशखबरी भी सुना दी. इतने वर्षों बाद परिवार से मिलने की खुशी आशुतोष की आंखों से साफ झलक रही थी.

तभी उसे भाई का शिकायत भरा स्वर सुनाई दिया, ‘‘आप ने ऐसा क्यों किया भैया? भाभी ने मुझे फोन पर आप के आने की बाबत बताया था. आने में इतनी देर क्यों की?’’

‘‘तुम सब को नाराज होने का पूरा हक है. शायद मेरी मति ही मारी गई थी, जो अच्छेभले परिवार को छोड़ कर वहां की मृगमरीचिका में भटकता रहा. शुरू में जब गया था तब वक्त

की रिक्तता तो रिया के साथ से भर गई, परंतु दिल शांति से खाली होता गया. दिलोदिमाग पर सदैव कुछ गलत कर बैठने का अपराधबोध हावी रहा. पर रोनित से स्मिता की तबीयत के बारे में सुन कर मैं खुद को रोक नहीं सका. आना तो हम दोनों ही चाहते थे पर रिया आ नहीं सकती थी, इसलिए मैं और नहीं रुक पाया. अब मैं यहां आ कर अपने साथ उस की तरफ से भी क्षमा मांगना चाहता हूं. स्मिता का दर्द उस ने और मैं ने साथसाथ ही जिया है. कभीकभी कुछ लमहों की गलती की सजा हम पूरी उम्र भुगतते रहते हैं,’’ कहतेकहते आशुतोष का गला भर आया.

भाई को पश्चात्ताप की अग्नि में जलता देख अभिजीत द्रवित हो उठा. सांत्वनापूर्वक उस का हाथ अपने हाथों में ले कर ढाढ़स बंधाता हुआ बोला, ‘‘दिल छोटा न कीजिए भैया… मैं भाभी से बात करूंगा. पलक भी बहुत समझदार बच्ची है, मैं बुलाता हूं उसे.’’

तभी पलक स्वयं आ कर अपने छोटे पापा के पास बैठ गई. आगंतुक के प्रति अभिवादन की भी उपेक्षा दर्शा उस ने अपने पिता के प्रति दिल में भरी नफरत का स्पष्ट इजहार कर दिया था. परंतु आशुतोष की बेटी से मिलने की खुशी इस तिरस्कार से कहीं अधिक थी. कांपते वात्सल्यपूर्ण स्वर में आशुतोष बोल उठा, ‘‘यहां आओ बेटी… मेरे पास आ कर बैठो… अपने पापा को नहीं पहचाना? मैं तुम से भी क्षमा…’’

एक उपेक्षा भरी निगाह पिता पर डाल वह बीच में ही लापरवाही से बोली, ‘‘क्षमा… मैं कौन होती हूं क्षमा करने या दंड देने वाली? होश संभालने से ले कर अब तक मैं ने अपनों में आप को तो कहीं नहीं पाया और अपने परिवार से मुझे भरपूर प्यार मिला है. कभी आप की कमी महसूस नहीं हुई. मैं नहीं जानती आप कौन हैं और ये कहानियां यहां क्यों सुना रहे हैं?’’

‘‘कह लो बेटी… दिल में भरा सारा गुस्सा निकाल लो. मुझे बुरा नहीं लगेगा…’’ आशुतोष को बेटी की जलीकटी भी फूल झरने जैसी लग रही थी.

तभी अभिजीत को कुछ ध्यान आया, ‘‘भैया, आप ठहरे कहां हैं?’’

‘‘होटल में… क्यों?’’

‘‘आप अपना सामान यहीं ले आइए. अगले हफ्ते ही पलक की शादी है. आप समय से ही आए हैं. अब आप भी भाभी के साथ कन्यादान कर सकेंगे.’’

आशुतोष के कुछ कहने से पहले ही पलक झटके से उठ खड़ी हुई, ‘‘ऐक्स्क्यूजमी, छोटे पापा… मेरे लिए मेरी मां ही मातापिता दोनों हैं. हमें इन की कोई जरूरत नहीं है. हां, इन के लिए गैस्टरूम खुलवा दूंगी, चाहें तो वहां रुक सकते हैं.’’

Anupama: काव्या ने वनराज को कही बिजनेस डुबाने की बात! जानें क्या है माजरा

सीरियल अनुपमा (Anupama) में इन दिनों किंजल और तोषू के कारण शाह फैमिली में बड़ा हंगामा होता हुआ नजर आ रहा है. हालांकि इस हंगामे में काव्या के कम ही सीन्स देखने को मिल रहे हैं. हालांकि औफस्क्रीन काव्या यानी एक्ट्रेस मदालसा शर्मा (Kavya Aka Madalsa Sharma) वनराज (Sudhanshu Panday) के साथ मस्ती करती नजर आ रही हैं, जिसकी वीडियो सोशलमीडिया पर तेजी से वायरल हो रही है.

काव्या ने कही बिजनेस डुबाने की बात

हाल ही में एक्ट्रेस मदालसा शर्मा ने अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर एक वीडियो शेयर की है, जिसमें वह वनराज के रोल में नजर आने वाले एक्टर सुधांशु पांडे संग डांस करती हुई दिख रही है. हालाकिं सुधांशु पांडे एक्ट्रेस की एक्टिंग करते हुए दिख रहे हैं.  वहीं इस वीडियो को शेयर करते हुए एक्ट्रेस मदालसा शर्मा ने लिखा, नृत्य अकेडमी का नया बिजनेस खोलने की तैयारी करते हुए काव्या… और पीछे वनराज बिजनेस डुबाने की पूरी तैयारी करते हुए. Vanraj shah is “back” literally!!!! #vanya. स्टार्स की ये फनी वीडियो फैंस को काफी पसंद आ रही है.

काव्या के सीन हुए कम

सीरियल की बात करें तो इन दिनों अनुपमा की कहानी का फोकस किंजल और तोषू पर होता हुआ दिख रहा है. जिसके चलते काव्या यानी एक्ट्रेस मदालसा शर्मा सीरियल में कम ही नजर आ रही हैं. हालांकि सोशलमीडिया के जरिए वह फैंस के साथ जुड़ी हुई हैं और अपनी नई नई अपडेट शेयर कर रही हैं.

बता दें, सीरियल में इन दिनों तोषू का अनुपमा और शाह फैमिली के लिए गुस्सा बढ़ता हुआ दिख रहा है, जिसके चलते वह अपनी बेटी आर्या को लेकर घर से भाग गया है. हालांकि अनुपमा उसे ढूंढकर दोबारा घर वापस ले आई है. लेकिन अपकमिंग एपिसोड में वह किंजल के सामने गिड़गिड़ाते हुए माफी मांगेगा और उसे दोबारा एक मौका देने की बात कहता नजर आएगा.

REVIEW: मृत देह का अंतिम संस्कार- रीति रिवाज बनाम विज्ञान है फिल्म गुड बाय

रेटिंगः डेढ स्टार

निर्माताः सरस्वती इंटरटेनमेंट, विकास बहल, एकता कपूर, शोभा कपूर, विराज सावंत,

लेखक व निर्देशकःविकास बहल

कलाकारःअमिताभ बच्चन, रश्मिका मंदाना, नीना गुप्ता, सुनील ग्रोवर, पावेल गुलाटी, अभिशेख खान, आशीश विद्यार्थी, इला अविराम, साहिल मेहता, शिविन नारंग, संजीव पांडे, अरूण बाली, शयांक शुक्ला व अन्य.

अवधिः दो घंटे 22 मिनट

‘क्वीन’ जैसी फिल्म के निर्देशक विकास बहल इंसान की मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार को केद्र बनाकर फिल्म ‘गुड बाय’ लेकर आए हैं, जिसमें टकराव इस बात पर है कि इंसान के मरने के बाद उसका अंतिम संस्कार उसकी इच्छा अनुसार किया जाए अथवा हजारों वर्षों से चले आ रहे रीति रिवाज के अनुसार. कथानक के स्तर पर यह विचार बहुत संुदर है और इस पर बात भी होनी चाहिए. आखिर हम कब तक दकियानूसी या पोंगा पंथी रीति रिवाजों को झेलते रहेंगें. मगर फिल्मकार विकास बहल लेखन व निर्देशन के स्तर पर पूरी तरह से विफल रहे हैं. उन्होने अति संवेदनशील व दुःखद मृत्यु का भी मजाक बनाकर रख दिया है. विकास बहल की फिल्म कीक हानी का आधार रीति रिवउज बनाम विज्ञान है, मगर वह इसके साथ न्याय नहीं कर पाए. बल्कि वह अंततः धर्म व अंधविश्वास को बढ़ावा देने में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लिया.

फिल्म ‘गुड बाय’ की पूरी कहानी गायत्री की असामयिक मृत्यु से जूझ रहे चंडीगढ़ परिवार की दुर्दशा,  अंत्येष्टि की तैयारी से लेकर तेहरवीं तक महिला के अंतिम संस्कार के इर्द-गिर्द घूमती है. काया फिल्मकार ने सी विषय पर कुछ समय पहले आयी फिल्म ‘रामप्रसाद की तेहरवीं ’ देखकर कुछ सीख लिया होता है. ‘रामप्रसाद की तेहरवीं’ मे भी फिल्मकार ने बहुत ही संुदर तरीके से वही सवाल उठाए थे, जिन्हें विकास बहल ने अपनी फिल्म में उठाया है.

कहानीः

चंडीगढ़ में हरीश भल्ला (अमिताभ बच्चन) अपनी पत्नी गायत्री (नीना गुप्ता) के साथ रहते हैं. उनके तीन बेटे व एक बेटी यानी कि चार बच्चे हैं. मगर सभी बच्चे पढ़ लिखकर चंडीगढ़ से इतर शहरांे व विदेशों में कार्यरत हैं. बेटी तारा (रश्मिका मंदाना) मुंबई में वकील हैं,  दो बेटे अंगद व करन (पवेल गुलाटी) विदेश में मल्टीनैशनल कंपनी में जॉब करते हैं और छोटा बेटा नकुल माउंटेनियर है. हरीश भल्ला की एक युवा नौकरानी है, जिसे वह परिवार के सदस्य की तरह मानते है. संकेत मिलते हैं कि उसका अंगद के साथ प्रेम लीला चल रही है.  जिंदगी से भरपूर गायत्री की अचानक हार्ट- अटैक से मौत हो जाती है.  सभी बच्चे अपनी मां की अंतिम विदाई के लिए चंडीगढ़ पहुंचते हैं.

फिल्म शुरू होती है मंुबई के एक डिस्को बार से. जहां दुनिया दारी से बेफिक्र तारा भल्ला (रश्मिका मंदाना)‘शराब पीने के साथ ही नृत्य करती है. वह मुंबई की नवोदित वकील है, जिसने अपना पहला केस आज ही जीता है. दूसरे दिन सुबह जब डिस्को बार का वेटर तारा के घर जाता है, तो तारा अपने प्रेमी मुदस्सर के साथ सो रही होती हें. दरवाजे की घंटी बजकार वह उन्हें नींद से जगाकर मोबाइल फोन देते हुए बताता है कि रात में उनके पिता हरीश भल्ला (अमिताभ बच्चन) के कई कॉल आए थे. मजबूरन उसने एक काल उठाया तो उन्होने बुरी खबर दी थी कि आपकी यानी कि तारा की माँ गायत्री (नीना गुप्ता) नहीं रही.

तारा तुरंत चंडीगढ़ अपने घर फ्लाइट पकड़कर पहुंचती है. दाह संस्कार की तैयारी चल रही होती है. पारिवारिक मित्र पी. पी.  सिंह (आशीष विद्यार्थी) खुद को परंपरा के स्वयंभू संरक्षक मानकर सभी को निर्देश देते हैं कि क्या करना है, कैसे करना है. वह रीति रिवाजों और अनुष्ठानों के बारे में बताते हैं. तारा एक युवा विद्रोही लड़की है. वह बार बार रीति-रिवाजों का विरोध करते हुए इस तथ्य पर जोर देती रहती है कि यह उस तरह का अंतिम विदायी नहीं है, जैसा उनकी  मुक्त-उत्साही माँ चाहती थीं. तारा के दो भाईयों अंगद के अलावा लॉस एंजेलिस निवासी करण (पावेल गुलाटी) को उनकी मां के निधन की विधिवत सूचना दी जाती है. वह दुनिया के दो अलग-अलग हिस्सों से घर वापसआने के लिए संघर्ष करते हैं. करण अपनी अमरीकी पत्नी डेजी (एली अवराम) के साथ आता है. डेजी इस बात से अनभिज्ञ है कि  हिंदू धर्म में अंतिम संस्कार में किस रंग के कपड़े पहनने चाहिए. गायत्री की अंतिम यात्रा में कंधा देने मुदस्सर भी पहुॅचता है, न चाहते हुए भी हरीश भल्ला चुप रह जाते हैं. दाह संस्कार संपन्न होने के बाद पूरा परिवार गायत्री भल्ला की अस्थियों को लेकर ऋषिकेश की यात्रा पर निकलता है. जहां चतुर पंडितजी (सुनील ग्रोवर) अस्थि विर्सजन का कार्य कराते हुए जीवन और मृत्यु में धार्मिक कर्मकांडों की केंद्रीयता के बारे में बताता है. वह तारा से कहहा है, ‘जिसे आप नहीं मानती, वह गलत हो यह जरुरी नही. ’इसी के साथ वह चतुर पंडित तारा से कहता है-‘‘उन्हे उन कहानियों और यादों का जश्न मनाना चाहिए जो गायत्री ने उसके लिए छोड़ी है. ’’यहां पर पंडित के कहने पर भी बड़ा बेटा करण अपने सिर के बाल     नहीं मुड़ाता है. लेकिन     तीसरे भाई नकुल के बारे में के बारे में तब पता चलता है जब अंतिम संस्कार व तेहरवीं संपन्न हो चुकी होती है और हरीश भल्ला के जन्मदिन पर घर आता है कि वह माउंटेरियन है और अपनी मां की इच्छा पूरी करने के लिए पहाड़ चढ़ रहा था.

नकुल अपनी मां की मौत के बारे में दुखी होता है और अपने सिर के बाल मंुडवाता है, तब करण भी बाल मंुड़वा लेता है. यह देखकर हरीश भल्ला भी खुश हो जाते हैं.

लेखन व निर्देशनः

बौलीवुड में कुछ निर्देशक ऐसे भी हैं जिन्हे ‘वन फिल्म वंडर’ कहा जाता है. यह वह निर्देशक हैं,  जिन्होने अपने पूरे कैरियर में महज एक बेहतरीन फिल्म ही दी, बाकी फिल्मों में वह मात खा गए. तो ऐसे ही ‘वन फिल्म वंडर’ निर्देशक विकास बहल एक बार फिर बुरी तरह से मात खा गए हैं. विकास बहल ने सबसे पहले 2011 में नितेश तिवारी के साथ फिल्म ‘‘चिल्लर पार्टी’’ का निर्देशन किया था. फिल्म ठीक ठाक बनी थी और इसका सारा श्रेय नितेश तिवारी को गया था.  फिर 2013 में विकास बहल लिखित व निर्देशित फिल्म ‘क्वीन’’ न सिर्फ बाक्स आफिस पर सफल रही, बल्कि हर किसी ने इस फिल्म की तारीफ की. विकास बहल को ‘क्वीन’ के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का राष्ट्ीय पुरस्कार भी मिल गया. और इसी के साथ उनकी प्रतिभा पर ग्रहण लग गया. ‘क्वीन’ के बाद विकास बहल ने ‘शानदार’ और ‘सुपर 30’ का निर्देशन किया. इन दोनो ही फिल्में ने बाक्स आफिस पर पानी नही मांगा और आलोचको ने भी फिल्म को पसंद नहीं किया था. अब विकास बहल ‘गुड बाय’ लेकर आए हैं, जो कि उनकी खराब फिल्म ‘शानदार’ से भी बदतर फिल्म है. वह इस फिल्म में भारतीय संस्कार,  रीतिरिवाज या विज्ञान किसी को भी ठीक से चित्रित नहीं कर पाए. कम से कम फिल्सर्जक विकास बहल यही बता देते कि मृत शरीर को नहलाकर उसके कान और नाक में रुई डालने के पीछे  वैज्ञानिक मान्यता यह है कि मृतक के शरीर के अंदर कोई कीटाणु ना जा सके. व पैर के दोनों अंगूठों को बांधने के पीछे तर्क यह है कि शरीर की दाहिनी नाड़ी व बाईं नाड़ी के सहयोग से मृत शरीर सूक्ष्म कष्टदायक वायु से मुक्त हो जाए.

घटिया जोक्स, इंसान की मौत पर जिस तरह के दृश्य फिल्माए गए हैं, वह बर्दाश्त नही किए जा सकते. फिल्म में विदेशी संस्कृति को बढ़ावा दिया गया है. गायत्री की मौत के बाद उनकी जिस तरह से उनका एक बेटा घर आता है और उनकी मृत देह के पास जमीन पर गिरता है, वह दृश्य लेखक निर्देशक के ेदिवालिएपन का परिचायक है.

अमूमन हम देखते है कि अंत्येष्टि के वक्त आयी महिलाएं आपस में ही मगन रहती है. फिल्मकार ने इस फिल्म में दिखाया है कि गायत्री की सहेलियां आरामदायक कुर्सी हथियाने,  सेल्फी क्लिक करने या व्हाट्सएप ग्रुप के लिए नाम तय करने में किस तरह मगन रहती है. मगर यह दृश्य इस तरह चित्रित किए गए है कि यह मनोरंजन करने की बनिस्बत झल्लाहट पैदा करते हैं.

विकास बहल ने अपनी फिल्म ‘‘गुड बाय ’’ में सवाल तो जरुर उठाया है कि इंसान अपनी मौत किस तरह से चाहता है, मौत के बाद वह अपने मृत देह का संस्कार कैसे करना चाहता है? परिवार वाले किस रीति रिवाज से मृतक का दाह संस्कार करते हैं? रीति रिवाज के वैज्ञानिक कारण क्या हैं? मगर वह इन सवालोंे के जवाब नहीं दे पाए. पूरी फिल्म विखरी विखरी सी है. इतना ही फिल्म का एक भी किरदार सही ढंग से नही लिखा गया है. हरीश व गायत्री जब अंगद को गोद लेने जाते हैं, उस वक्त के कुछ संवाद महिला विराधी हैं. इसके अलावा एक संवाद है कि जब इनकी सैलरी बढ़ी तो हमने सोचा एक बालक और गोद ले ले. तो क्या बाकी के तीन बच्चे भी गोद लिए हुए हैं? सब कुछ अस्पष्ट हैं. यहां तक कि अमिताभ बच्चन का किरदार भी विकसित नही हुआ.

विकास बहल का लेखन व  निर्देशन कमियों से युक्त हैं.

अभिनयः

अमिताभ बच्चन  का अभिनय ठीक ठाक ही है. वास्तव में उनकाहरीश भल्ला के किरदार अविकसित है, जिसका असर उनके अभिनय पर पड़ना स्वाभाविक है. गायत्री के किरदार में नीना गुप्ता का किरदार कुछ क्षणों के लिए फ्लेशबैक में आता है और वह अपनी छाप छोड़ जाती हैं. तारा के किरदार में रश्मिका मंदाना की यह पहली हिंदी फिल्म है. इससे पहले वह ‘पुष्पा द राइज’ में जलवा विखेर चुकी हैं. पर ‘पुष्पा द राइज’ में उन्हे पसंद करने वालों को निराशा होगी. इस फिल्म में वह सिर्फ संुदर नजर आयी हैं. पंडित के किरदार में सुनील ग्रोवर अपने अभिनय की छाप छोड़ते हैं. बाकी कोई प्रभावित नही करता.

एचएफएमडी के मामले में कैसे करें बच्चों की देखभाल, जानें एक्सपर्ट की राय

कोविड-19 महामारी के बाद स्कूलों के खुलने और बच्चों के क्लास में वापस लौटने के साथ पेरेंट्स को हैंड, फुट एंड माउथ डिजीज (एचएफएमडी) की चिंता सता रही है. यह रोग बहुत ही तेजी से फैलता है और खासकर बच्चों को नुकसान पहुँचाता है. एचएफएमडी क्या होता है. इसके कारण और लक्षण और उपाय बता रहे हैं-

डॉ. अमित गुप्ता, वरिष्ठ सलाहकार, बाल एवं शिशु रोग विशेषज्ञ, मदरहुड हॉस्पिटल, नोएडा

एचएफएमडी क्या होता है – कारण और लक्षण

हैंड-फुट-माउथ डिजीज (एचएफएमडी) एक वायरस रोग है, जो काफी संक्रामक होता है और यह आमतौर पर बच्चों और नवजातों को प्रभावित करता है. रोग एंटेरोवायरस प्रजाति के वायरस द्वारा आता है, जो अक्सर कॉक्ससैकीवायरस के कारण होता है. कॉक्ससैकीवायरस ए6 और ए16 और एंटेरोवायरस 71 एचएफएमडी के व्यापक रूप से फैलने का प्रमुख कारक है. यह सामान्य तौर पर संक्रमण होने के बाद त्वचा से त्वचा के संपर्क में आने, खाँसने और छींकने से फैलता है. इस वायरस के कारण मुँह में अल्सर के साथ-साथ बच्चे के हाथ, पैर और मुँह में छाले हो जाते हैं.

इसे बढ़ने से रोकने के क्या उपाय हैं-

ऐसे कई तरीके हैं, जिससे कि एचएफएमडी को फैलने से रोकने में मदद मिल सकती है. इस वायरस से बचने के लिये बच्चों को अपनी साफ-सफाई का ख्याल रखना सिखाना चाहिए. बच्चों को हाथ धोने के लिये प्रेरित करें. हाथों को किस तरह धोना है, यह सिखाने के बाद इस बात का ध्यान रखें कि वे नियमित रूप से अपने हाथों की सफाई कर रहे हों. ये आदतें संपूर्ण सेहत और स्वच्छता बनाए रखने में बेहद अहम भूमिका निभा सकते हैं.

एचएफएमडी को फैलने से रोकने का एक महत्वपूर्ण, लेकिन सरल तरीका है कि यदि पेरेंट्स को त्वचा पर रैश, बुखार और मुँह में छाले जैसे आम लक्षण नजर आ रहे हैं तो बच्चों को किंडरगार्टन, स्कूल, नर्सरी या किसी भी अन्य तरह की एक्टिविटी में जाने से रोकें ताकि वे किसी दूसरे बच्चे के संपर्क में नहीं आएं.

जब आपका बच्चा एचएफएमडील से संक्रमित हो जाए तो पेरेंट्स को क्या करना चाहिए?

यदि उन्हें बच्चे में कोई लक्षण नजर आते हैं तो तुरंत ही डॉक्टर के पास जाने की सलाह दी जाती है. ऐसी स्थिति में घबराएं नहीं. सही इलाज से संक्रमित को दर्द से छुटकारा मिल सकता है, जो इस समस्या की वजह से उत्पन्न हुआ है. इस समस्या के लक्षणों के इलाज में शामिल है, दर्दनाशक दवाएँ, रैशेज के लिये त्वचा को शांत करने वाली दवाएँ, और खुजली होने पर एंटीएलर्जिक दवाएं.

हैंड-फुट-माउथ डिजीज एक हफ्ते से लेकर 10 दिनों तक चलता है और प्रभावित बच्चों को मुँह में छाले होने की वजह से निगलने में परेशानी हो सकती है. हैंड, फुट ऐंड माउथ डिजीज से पीड़ित लोग, जब बीमार होते हैं तो पहले हफ्ते सबसे ज्यादा संक्रामक होते हैं. कई बार लोग लक्षणों के खत्म हो जाने या कोई भी लक्षण ना होने के कुछ दिनों या हफ्तों तक इस वायरस को दूसरों तक पहुँचा सकते हैं.

भले ही वयस्कों में हैंड, फुट ऐंड माउंथ डिजीज आम नहीं होता, लेकिन उन्हें निम्न सावधानियों का पालन करना चाहिए ताकि उन्हें यह रोग न हो और वे घर के बच्चों तक इसे नहीं पहुँचायें.

सावधानियां-

-अपने बच्चे के शरीर से निकलने वाले तरल पदार्थ के संपर्क में आने, यानी उनके छालों को छूने, उनकी नाक साफ करने, उनके डायपर बदलने और रेस्टरूम इस्तेमाल करने में उनकी मदद करने आदि के बाद अपने हाथों को अच्छी तरह धोएं.

-इस बात का ध्यान रखें कि आपका बच्चा कपड़े, तौलिए, टूथब्रश, कप और बर्तन जैसी चीजें कभी शेयर नहीं करें.

-जब तक कि आपके बच्चे के फफोलों का सारा तरल पूरी तरह सूख नहीं जाता, उन्हें प्रीस्कूल, किंडरगार्टन या किसी भी प्रकार के आफ्टर-स्कूल एक्टिविटीज में भेजने से बचना चाहिए.

कंजर्वेटिव धर्म के गुलाम

मीट खाना अपनी पसंद नापसंद पर निर्भर करता है और ङ्क्षजदा पशुओं के प्रति दया या क्रूरता से इस का कोई मतलब नहीं है. मुंबई हाईकोर्ट ने कुछ जैन संगठनों की इस अर्जी को खारिज कर दिया कि मीट के खाने के विज्ञापन भी न छापें और टीवी पर न दिखाए जाएं क्योंकि ये मीट न खाने वालों की भावनाओं को आहट करते हैं.

पशु प्रेम वाले में लोग वही हैं जो गौपूजा में भी विश्वास करते हैं पर उस के बछड़े का हिस्सा छीन कर उस का दूध पी जाते हैं. ये वही लोग हैं जो वह अन्न खाते हैं जो जानवरों के प्रति क्रूरता बरतते हुए किसानों द्वारा उगाया जाता है, ये वही लोग है जो पेड़ों से उन फलों को तोड़ कर खाते हैं जिन पर हक तो पक्षियों का है और उन की वजह से पक्षी कम हो रहे हैं.

यह विवाद असल में बेकार का है कि मीट खाने या न खाने वालों में से कोई बेहतर है या नहीं. अगर एक समाज या एक व्यक्ति मीट नहीं खाता तो यह उस की निजी पसंद पर टिका है और हो सकता है यह पसंद परिवार और उस के समाज ने उसे विरासत में दी हो. पर इस जने को कोई हक नहीं कि दूसरों को अपनी पसंद के अनुसार हांकने कीकोशिश करे.

पिछले सालों में सभी को एक डंडे से हांकने की आदत फिर बढ़ती जा रही है. पहले तो धर्म हर कदम पर नियम तय किया करते थे और किसी के एक इंच इधरउधर नहीं होने देते थे पर जब से स्वतंत्रताओं का युग आया है और लोगों को छूट मिली है कि वे तर्क तथ्य और सुलभता के आधार पर अपनी मर्जी से अपने फैसले करें और तब तक आजाद हैं जब तक दूसरे के इन्हीं हकों को रोकते हैं, तब से समाज में विविधवा बढ़ी है.

आज खाने में शुद्ध वैष्णव भोजनालय और चिकन सैंटर बराबर खुल सकते हैं और खुलते हैं पर कुछ कंजर्वेटिव धर्म के गुलाम दूसरों पर अपनी भक्ति थोपने की कोशिश करने लगे हैं. भारत को तो छोडि़ए, स्वतंत्रताओं का गढ़ रहा अमेरिका भी चर्च के आदेशों के हिसाब से गर्भपात को रोकने की कोशिश कर रहा है जिस का असल में अर्थ है औरत की कोख पर बाहर वालों का हमला.

मीट खाना अच्छा है या बुरा यह डाक्टरों का फैसला होना चाहिए धर्म के ठेकेदारों का नहीं जो हमेशा संूघते रहते हैं कि किस मामले में दखल दे कर अपना झंडा ऊंचा किया जा  सकता है. यह तो पक्की बात है कि जब भी कोई धाॢमक मुद्दा बनता है, चंदे की बरसात होती है. यही तो धर्म को चलाता है और यही मीट खाने वालों को रोकने के प्रयासों के पीछे है.

परवरिश: मानसी और सुजाता में से किसकी सही थी परवरिश

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प्यार से संवारें बच्चे का कल

आज की व्यस्त जीवनशैली में मातापिता अपने काम व जिम्मेदारियों के बीच अपने शिशु के छोटेछोटे खास पलों को महसूस करने से वंचित रह जाते हैं. दरअसल हर दिन की छोटीछोटी गतिविधियां नवजात शिशु के विकास में मदद करती हैं और उन में आत्मविश्वास, जिज्ञासा, आत्मसंयम और सामाजिक कौशल की कला का विकास करती हैं.

यहां हम एक खास उम्र में होने वाले परिवर्तनों के बारे में बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि आप को यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि किस तरह से बातचीत के माध्यम से नवजात शिशु में सामाजिक, भावनात्मक ज्ञान का विकास किया जा सकता है. यह मातापिता और शिशु के बीच की एक विशेष पारस्परिक क्रिया है जो हर पल को खास व सुंदर बनाती है.

स्तनपान के समय

जब आप अपने शिशु को स्तनपान कराती हैं तब आप उसे केवल आवश्यक पोषण प्रदान करने के अलावा भी कुछ खास करती हैं, जो उसे उस की दुनिया में सुरक्षा का एहसास कराता है. शिशु को भूख लगने पर स्तनपान कराना उसे शांत महसूस करने में मदद करता है. आप के चेहरे को देख कर, आप की आवाज सुन कर और आप के स्पर्श को महसूस कर के वह महत्त्वपूर्ण काम पर ध्यान केंद्रित करने में सक्षम बनता है. जब वह देखता है कि वह संचार करने के प्रयास में सफल हो रहा है तो आप उस की भाषा की कला विकसित करने में उस की मदद करती हैं. जब आप उसे स्तनपान कराएं तब उस से धीरेधीरे बात करें, उस का शरीर हाथों से सहलाएं और उसे आप के स्पर्श का अनुभव करने दें.

नवजात को आराम दें

जब आप अपने शिशु को आराम देती हैं तब आप उसे बताती हैं कि दुनिया एक सुरक्षित जगह है जहां कोई है जो उस की परवाह करता है, उस का ध्यान रखता है. शिशु जितना ज्यादा आराम महसूस करता है उसे दूसरों से जुड़ने में उतनी ही मदद मिलती है और वह सीखता है कि उस के आसपास की दुनिया कैसे काम करती है. जब आप का शिशु रोता है तब आप तुरंत जवाब दे कर उसे सिखाती हैं कि आप उस की हमेशा देखभाल करेंगी. यह सोच कर परेशान न हों कि आप तुरंत जवाब दे कर उसे बिगाड़ रही हैं. दरअसल, शोध बताते हैं कि जब बच्चे रोते हैं, तब तुरंत प्रतिक्रिया करने पर वे कम रोते हैं, क्योंकि इस से वे सीखते हैं कि उन का ध्यान रखने वाला आ रहा है. जब आप उसे आराम देती हैं तब आप उसे उस के तरीके से खुद को शांत रहना सिखाती हैं.

जब आप का शिशु रोता है या आप उसे परेशान देखती हैं तब अलगअलग चीजों पर ध्यान दें जैसे उसे भूख तो नहीं लगी है, उसे डकार तो नहीं लेनी, उस का डायपर चैक करें. अलगअलग तरीके से गोद में लें, गाना गाएं, प्यार से बात करें.

शिशु के संकेतों को समझें

नवजात शिशु कई तरह की नईनई चीजें करते हैं, जिन्हें हम समझ नहीं पाते हैं, लेकिन इन संकेतों को समझ कर उन के विकास में मदद की जा सकती है. लेकिन यह जरूरी नहीं है कि हर शिशु एक ही तरह का संकेत दे. आप को यह बात समझने की जरूरत है कि हर शिशु अलग होता है और सब की सीखने की क्षमता अलगअलग होती है. आप के साथ घनिष्ठ संबंध बनाना उस के सीखने की कला, स्वास्थ्य और विकास की नींव है इसलिए अपने शिशु के व्यवहार और विकास में हर बदलाव में ध्यान दें और शिशु चिकित्सक के संपर्क में रहें.

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