मोदी सरकार के नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध में दिल्ली के शाहीन बाग़ में प्रदर्शन कर रहे लोगों के आंदोलन पर तो कोरोना वायरस की वजह से ब्रेक लग गया, लेकिन उन प्रदर्शनों की छाप अभी तक लोगों के ज़हन में ताजा है. दिल्ली की हाड़ कंपाती सर्द रातों में खुले आसमान के नीचे ठंडी ज़मीन पर दुपट्टों से अपने सिर ढंके बैठी हज़ारों मुस्लिम औरतों की अग्रिम पंक्ति में उस 82 साला बुज़ुर्ग खातून बिलकिस बानो के चेहरे की दृढ़ता ने मोदी सरकार की नींदें उड़ा रखी थीं. अपने बच्चों के घर से बेघर होने के डर के चलते बिलकिस आंदोलन की अगुवा बन कर उभरी थीं. बिलकिस एंटी सीएए प्रोटेस्ट के दौरान शाहीन बाग प्रदर्शन का जाना-पहचाना चेहरा बन गयी थीं. लोग इस बात के लिए उनकी तारीफ कर रहे थे कि इस उम्र में भी वह किसी चीज के खिलाफ आवाज उठाने से पीछे नहीं हट रहीं हैं.

बिलकिस रोज हजारों मुस्लिम और गैर मुस्लिम महिलाओं के साथ शाहीन बाग जाती थीं और प्रदर्शन का हिस्सा बनती थीं. कई बार तो उनकी रातें भी वहीँ गुज़रती थीं और वो सिर्फ कपड़े बदलने के लिए ही घर तक जाती थीं और तुरंत ही लौट आती थीं. बीते साल शाहीन बाग में नागरिकता कानून को वापस लेने की मांग को लेकर 101 दिनों तक धरना प्रदर्शन चला था. बिलकिस करीब 3 महीने तक विरोध के दौरान शाहीन बाग की सड़कों पर बैठी रही थीं. बिलकिस बानो ने यह धरना 11 दिसंबर 2019 को उस वक़्त शुरू किया था जब धर्म के आधार पर नागरिकता देने वाले क़ानून को संसद के दोनों सदनों में पास कर दिया गया था. कड़ाके की ठंड में खुले आसमान के नीचे शुरू हुए इस धरना प्रदर्शन ने वैश्विक मीडिया का भी ध्यान खींचा था और बिलकिस बानो 'शाहीन बाग़ की दादी' के नाम से मशहूर हो गई थीं. शाहीन बाग़ प्रदर्शन के दौरान बिलकिस देश के अट्ठारह फीसदी नागरिकों की आवाज़ बन गयी थीं. उन्होंने दिल्ली की भीषण सर्दी, बारिश, धूप और उस पर शाहीन बाग़ के आंदोलनकारियों को लगातार मिल रही धमकियों के बावजूद प्रदर्शन-स्थल से ना हटने की हिम्मत दिखाई थी. 'शाहीन बाग़ की दादी' के नाम से मशहूर होती बिलकिस मीडिया कैमरों के आगे दहाड़ी थी - अगर कोई बन्दूक भी चला देता है तो भी मैं नहीं हटूंगी.

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