सूटकेस में लाशें भर कर ले जाने के मामले तो बहुत से आए हैं पर जिंदा लड़की को उस की मरजी से ले जाने के मामले कम ही आते हैं. दिल्ली के पास की जिंदल यूनिवर्सिटी में बौयज होस्टल में एक लड़की को स्मगल करने के लिए लड़कों ने सूटकेस का इस्तेमाल करना चाहा पर 25-30 किलोग्राम का वजन भी मुश्किल से ले जाने के लिए बने सूटकेस में अगर 50-60 किलोग्राम की लड़की को किसी तरह फिट भी कर लिया जाए तो लड़की का चाहे कुछ हो, सूटकेस के अंजरपंजर ढीले हो जाएंगे.

इस सूटकेस को घसीटने के चक्कर में उस का एक व्हील टूट गया और अंदर छिपी लड़की घबरा कर चीख उठी तो सिक्युरिटी स्टाफ को शक हो गया. जब सूटकेस खोला तो उस में जिंदा लड़की निकली. इस मामले में जबरदस्ती कहीं नहीं थी, यह सिर्फ सिक्युरिटी की आंखों में धूल झोंक कर बौयज होस्टल में लड़की को स्मगल करने का प्रैंक था.

सवाल उठता है कि बौयज होस्टलों में लड़कियों के आनेजाने पर बैन ही क्यों हो? जब होस्टलों में सब एडल्ट हैं और आने वाली लड़कियां भी एडल्ट हैं तो कौन सी मोरैलिटी की परतें गल जाएंगी अगर लड़कियां खुलेआम दिनरात साथ न बिता सकें.

असल में तो होस्टल स्टूडैंट्स होस्टल होने चाहिए. बौयज या गर्ल्स होस्टल नहीं. यह डिवीजन असल में उस मोरैलिटी का नतीजा है कि अगर लड़केलड़कियों को साथ मिलने दिया तो लड़कियां बिगड़ जाएंगी. यह नितांत बेवकूफी वाली बात है क्योंकि सदियों से मेलफीमेल संबंध सहमति से या जबरन समाजों के नियमों के बावजूद बनते रहे हैं और उन के बाद भी समाज में न अराजकता है न कोई लंबाचौड़ा डर.

घरों में लड़कियां सेफ रहती हैं, यह सिर्फ इसलिए है कि लड़के सोशल लिमिट्स जानते हैं. अगर लड़के चाहें तो वे किसी भी घर में घुस सकते हैं और कोई लड़की सेफ नहीं होती. सोशल मोरैलिटी तो वैसे ही पूरे जोरशोर से मानी जाती रही है और कुछ थोड़े से अपवाद होते तो उन के कारण बेमतलब का मंदिरोंमसजिदों की तरह औरतोंआदमियों के अलगअलग खेमे बना देना यूजलैस ही है.

अगर जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के मैनेजमैंट को अपने स्टूडैंट्स पर इतना भी भरोसा नहीं कि वे मेलफीमेल के साथ रहते थे तो वे क्या चैलेज की बात करेंगे, क्या पढ़ाएंगे, क्या राइट और रौंग का फर्क बताएंगे?

गनीमत है कि रेलवे ने स्लीपर्स में अभी तक मेलफीमेल का भेद नहीं किया है. अगर जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी जैसी सोच चलती रही तो पता चलेगा कि फैमिलीज को भी अलगअलग उसी तरह परदे लगा कर बांटना पड़ेगा जैसा 100 साल पहले कुछ मसलों में होता था. समाज में खुली छूट से कोई बिगड़ जाएगा यह सोच असल में औरतों को कमजोर करने की साजिश है. उन्हें सिर्फ भोगने की चीज बना दी गई है जिस की कीमत भोगे जाने पर कम हो जाती है. यह मैरिज मार्केट का फंडा है कि शादी के समय लड़की वर्जिन हो, अक्षत योनि वाली हो.

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