नर्सरी स्कूलों में अपने बच्चों को प्रवेश दिलाना मातापिताओं के लिए सारे देश में एक दुखद प्रक्रिया हो गई है. बच्चे स्कूल जाएं, पढ़ेंलिखें और योग्य युवा बनें. यह अब आदर्श सपना हो गया है कि बच्चे अच्छे स्कूल में जाएं, जहां शान से सिर उठा सकें और फिर पढ़ें या न पढ़ें चमचमाते दिखें. स्कूली शिक्षा पढ़ाई व जानकारी के लिए नहीं वर्ग और वर्ण यानी स्टेटस और कास्ट से जुड़ गई है, जो पहले नर्सरी प्रवेश से शुरू होती है. गोरे ऊंचे वर्ण में पैदा हुई संतान की तरह अच्छा स्कूल जीवन में सफलता की पक्की सीढ़ी माना जाने लगा है.

दिल्ली के स्कूलों में नर्सरी में प्रवेश में ही इतने विवाद होने लगे हैं कि उच्च व सर्वोच्च न्यायालय व सरकार रोज नियम व कानून बनाती और बदलती है. दिल्ली में बहुत स्कूलों को वह जमीन दी गई है जिसे सरकार ने जबरन किसानों से सस्ते दाम पर खरीदा था और उसे बाजार भाव से थोड़े से कम दाम पर स्कूल चलाने वाली संस्थाओं को अलौट किया था. इस अलौटमैंट में बहुत सी शर्तें डाल दी गई थीं, जिन्हें उस समय संस्था के संचालक पढ़ते भी नहीं थे, क्योंकि जमीन का बड़ा टुकड़ा पाना अपनेआप में एक टेढ़ी खीर होता है. अब सरकार उस हक के नाते स्कूलों पर रोब गांठती है, तो संचालक चूंचूं करते हैं.

हाल ही में दिल्ली सरकार ने आदेश दिया है कि नर्सरी में प्रवेश केवल आसपास के पड़ोसी इलाकों में रह रहे मातापिताओं के बच्चों को दिया जाएगा और जो लोग किराए पर रह रहे हैं वे इस सुविधा का लाभ न उठा सकेंगे. किराएदारों को वंचित रखा गया है, क्योंकि मातापिता फर्जी किराया ऐग्रीमैंट बनवा लेते हैं ताकि मनचाहे स्टेटस और कास्ट के स्कूल में दाखिला मिल सके.

छोटेछोटे बच्चों को भेड़ों की तरह रिकशों और कैबों में भर कर ले जाना देश भर में देखा जा सकता है, क्योंकि नेबरहुड स्कूल भी इतने दूर होते हैं कि आज के कोमल बच्चे 20-25 मिनट की वाक भी नहीं कर सकते. व्यस्त मातापिता उन्हें रिकशा वालों और कैब ड्राइवरों के हवाले कर देते हैं.

एक तरह से मातापिताओं, स्कूल संचालकों और सरकारों ने मिल कर शिक्षा का न केवल भयंकर बाजारीकरण कर दिया है, इस पर शासकीय आदेशों, अदालती फैसलों, नेतागीरी की कालिख व पैसे की चाहत के काले ब्रश भी फेर दिए हैं. मातापिता 4 लोगों में अपने बच्चे के स्कूल के गुणगान गा सकें. इस के लिए वे हर नेता, संचालक, व्यापारी की खुशामद को तैयार रहते हैं.

नर्सरी से ले कर 8वीं कक्षा तक की शिक्षा पास के स्कूल में हो यह अच्छी बात है पर अंत के 4 साल ही बच्चे का भविष्य बनाएं, ऐसी कोई नीति बननी चाहिए और इन 4 सालों में वे धर्म, जाति, स्टेटस के आधार पर नहीं, बल्कि योग्यता के आधार पर स्कूलों में प्रवेश पाएं.

छोटे बच्चे नामी स्कूल से न जुड़ें यह भावना पैदा करने की कोशिश करना आवश्यक हो रहा है ताकि छुटपन में ही बच्चों में उच्च या हीनभावना पैदा न हो. यह पहेली हल करना आसान नहीं, क्योंकि किसी को उसे हल करने की फुरसत भी नहीं है.

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