एक 26 साल की युवती के घर में तीन बंदूकधारी घुसते हैं और उसे बिस्तर पर ही गोलियों से छलनी कर के मार देते हैं. क्या उन्हें सजा मिलेगी? नहीं क्योंकि वह युवती अमेरिका की एक अश्वेत युवती थी. और गोलियां मारने वाले 3 गोरे पुलिसकर्मी थे जो ड्रग ढूंढने उस युवती के घर में घुसे थे. पिछले साल 13 मार्च को हुई इस घटना की तो ज्यादा को याद दिलाना भी अमेरिकी मीडिया जरूरत नहीं समझता.

भारत और अमेरिका दोनों लोकतंत्र अपने गरीबों, जन्म से अलग या धर्म से अल्पसंख्यकों के प्रति लोकतंत्र की बराबरी की दुहाईयों के बावजूद ये भयंकर भेदभाव कर रहे हैं. दोनों जगह लोकतंत्र की आड़ में और स्वतंत्र अदालतों के विशाल भवनों के बावजूद औरतों के साथसाथ जन्म से अलग दलित, पिछड़े या अश्वेतों को पुलिस का कहर सहना पड़ रहा है.

भारत में पुलिस वाले निरंतर निर्दोषों को गिरफ्तार कर रहे हैं और जैलों में ठूंस रहे हैं, अमेरिका में गिरफ्तार कर के जेल में तो ठूंसते हैं ही, गोली भी मार डालने या जार्ज फ्लायड की तरह घुटने के नीचे गर्दन दबा कर मार रहे हैं. यह युवती ब्रीओन्ना टेलर इस भेदभाव की शिकार हुई.

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युवतियां अपराधी नहीं हो सकतीं. यह नहीं कहा जा रहा पर यदि किसी पर संदेह है तो उसे अदालत में घसीटो, उस के खिलाफ सुबूत जमा करो. उसे सजा दिलवाओ. पर भारत और अमेरिका में आज सजा पहले दी जा रही है. जेल में बंद करने का हक कर पुलिस वाले को खुलेआम दे दिया गया है. जो पहुंच वाले उन्हें पुलिस व अदालतों पर भरोसा है क्योंकि उन के पास पहुंच और पैसा है पर आम गरीब साधारण केवल जन्म के दोष के कारण पुलिस वाले की हथकड़े पहने या गोली खाए यह 16वीं सदी का समाज है.
यह अफसोस है कि भारत और अमेरिका दोनों के लोकतंत्र बुरी तरह आज हेट ट्रैंड में गुजर रहे हैं. आज राजनीतिक नेता ही नहीं, सामाजिक नेता और मीडिया दोनों निर्माण कर रहे है तो उन दीवारों को जेंडर, बर्थ, फेश का बहाना ले कर बना रहे हैं जो समाज में दहशत पैदा कर रही हैं और समाज को पूरी तरह झिन्नमिल कर रही हैं. बहुसंख्यक प्रभावशाली कहने लगे हैं कि यह देश मेरा है, हत्यारा है और तुम पराए हो क्योंकि तुम्हारे नाम अलग हैं. तुम्हारे कपड़े अलग हैं, तुम्हारा खानपीन अलग है.

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