दुनियाभर के देशों में वर्ष 2011 में उठी क्रांति की ज्वाला अब ठंडी पड़ गई है. काहिरा के तहरीर चौक, दिल्ली के जंतरमंतर, न्यूयौर्क की वालस्ट्रीट जैसी जगहों पर आक्रोश में जो मुट्ठियां हवा में लहरा रही थीं अब वे तालियों में तबदील हो गई हैं. जिन भ्रष्ट, बेईमान, धार्मिक, सामंती, तानाशाही सोच के खिलाफ जो जनसैलाब उमड़ा था अब वहां गुस्सा नहीं, जयजयकार है. मानो बदलाव की आंधी में तमाम बुराइयों का सफाया हो गया है.
क्या दुनिया के देशों में शासकों की तानाशाही सोच और नीतियां बदल गई हैं क्या उदार लोकतांत्रिक मूल्य, समानता, स्वतंत्रता स्थापित हो चुके हैं जातीय, धार्मिक, नस्लीय, अमीरीगरीबी का भेदभाव व छुआछूत खत्म कर चुके हैं सामाजिक, राजनीतिक भ्रष्टाचार खत्म कर दिया गया है बिलकुल नहीं. फिर भी दुनियाभर, खासतौर से विश्व के 2 सब से बड़े और पुराने लोकतंत्रों अमेरिका और भारत में जनता के बीच कहीं कोई गुस्सा नहीं दिखता.
दुनियाभर में चालाकी और चतुराई से अब धार्मिक, व्यापारिक राजनीतिक तानाशाही ताकतें लोकतंत्र का लबादा पहन कर नए रूप में जनता की हितैषी बन कर सामने आ रही हैं. निरंकुश निर्णय थोपे जा रहे हैं. नासमझ जनता भी इन्हें सिरमाथे पर बैठाने में पीछे नहीं है.
धार्मिक और सैनिक तानाशाह वाले देशों जैसे मिस्र में मोहम्मद मोरसी और मुसलिम ब्रदरहुड और उदार लोकतंत्रों जैसे भारत में भाजपा के नरेंद्र मोदी और अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रंपप की जन लोेकप्रियता से साफ है कि इन देशों की जनता 5-7 साल पहले जिस व्यवस्था के खिलाफ आक्रोशित थी, अब उसी व्यवस्था के हिमायती नेताओं को पलकों पर बिठा रही है.
निरंकुश शासक
रूस, चीन, ब्रिटेन, फ्रांस, मिस्र जैसे देशों में कट्टर, संकीर्ण विचारधाराएं प्रबल हो रही हैं. विश्व को दिशा देने वाले महत्त्वपूर्ण कथित शक्तिशाली लोकतांत्रिक देशों में लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों, उद्देश्यों को ताक पर रख कर मनमाने, तानाशाहपूर्ण निर्णय लिए जा रहे हैं. अमेरिका, भारत, रूस में कहने को वोटों के जरिए सरकारें चुन कर आईं पर यहां उन राजनीतिक दलों या नेताओं की सरकारें हैं जिन का असल में लोकतंत्र में विश्वास नहीं रहा. धर्म, जाति, नस्ल के नाम पर इन की राजनीति चली. इन नेताओं की विचारधारा का क्रियान्वयन शासन और प्रशासन में दिख रहा है.
अमेरिका के चयनित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंपप के फैसलों में भी निरंकुशता की झलक दिखने लगी है. उन्हें अपरिपक्व और अराजक विचारों के रूप में मीडिया में पेश किया जा रहा है. उन के फैसलों की आलोचना हो रही है. देश की समस्याओं पर ध्यान देने के बजाय वे ट्विटर पर अपने आलोचकों पर हमले करने में समय बरबाद कर रहे हैं.
ट्रंप ने एक्सा नमोबिल के सीईओ रेक्स टेलरसन को विदेश मंत्री पद पर नियुक्ति किया है. टेलरसन का ट्रंपप की तरह विदेशों में बड़ा कारोबार है. वे रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के मित्र भी हैं. अमेरिकी चुनावप्रचार के दौरान ट्रंपप और पुतिन की दोस्ती पर प्रश्न उठते ही रहे थे. पुतिन को हिलेरी क्लिंटन के खिलाफ और ट्रंपप के अधिक करीब बताया गया था.
डोनाल्ड ट्रंप ने अपने सुरक्षा सलाहकार के तौर पर जनरल माइकल फ्लिन को नियुक्त किया है. इन्हें कट्टर मुसलिम विरोधी, नस्लवादी और धार्मिक षड्यंत्रकारी के तौर पर जाना जाता है.
उन के द्वारा बनाए गए मुख्य रणनीतिकार स्टीव बैनन को गोरों से लगाव रखने वाला करार दिया जा रहा है. अटौर्नी जनरल नियुक्त किए जा रहे जेफ सेसंस के बारे में कहा जा रहा है कि वे अपनी नस्लीय सोच के लिए जाने जाते हैं. इस सोच के चलते उन्हें पिछली सरकारों ने जज नहीं बनाया था.
डोनाल्ड ट्रंप गरीब, मजदूर, वेतनभोगियों पर ऐसा मंत्री थोप रहे हैं जो न्यूनतम मजदूरी से जुड़े कानूनों का भारी विरोध करते रहे हैं. ये सब ट्रंपप के निजी तौर पर लिए गए फैसले हैं. हालांकि ‘अमेरिका इज बाई नैचर अ कंट्री औफ इमीग्रैंट्स’ कहलाता था पर अब ट्रंपप कह रहे हैं कि राष्ट्रपति पद संभालने के बाद उन का पहला आदेश आव्रजन को ले कर होगा.
डोनाल्ड ट्रंप द्वारा 20 जनवरी को राष्ट्रपति पद ग्रहण करने से पहले ही एच 1 वीजा पर काम शुरू कर दिया गया है. डिज्नी जैसी कंपनियों के खिलाफ कार्यवाही की जा रही है. इस कंपनी ने बड़़े पैमाने पर अमेरिकी लोगों की जगह भारतीयों व अन्य देशों के लोगों को नौकरियां दी थीं.
डोनाल्ड ट्रंप ने चुनाव जीतने के बाद यह भी कहा था, ‘मेरी सरकार एकदम सीधा नियम बनाएगी, अमेरिकियों की चीजें खरीदो और अमेरिकियों को काम दो. हमें अपनी कंपनियों से काफी प्यार है पर अगर वे देश से बाहर जाएंगी तो हम उन से प्रेम नहीं करेंगे.’ एक बार फिर अमेरिका कुएं का मेढक ही बनना चाह रहा है.
आव्रजन के नियम बदलने से भारतीय आईटी कंपनियों पर सीधा असर पड़ेगा. ट्रंपप ने चुनावों में अमेरिकी युवाओं से विदेशी कंपनियों से नौकरियां छीन कर उन्हें देने का वादा किया था.
उन के लिए 200 सालों में बनी संस्थाएं निरर्थक हैं. वे अपने बच्चों, पत्नी व पुराने अमीर साथियों के साथ देश को चलाने की तैयारी में हैं.
डोनाल्ड ट्रंपप की नीतियां अमेरिका में बड़े य% से बनाई गई लोकतंत्र की सोच को तोड़ने में लग गई हैं. उन की अलोकतांत्रिक विचारधारा चुनावप्रचार में ही दिख गई थी. उन्होंने आप्रवासियों को बाहर निकालने, मुसलमानों को शरण न देने, मसजिदों पर निगरानी रखने, अश्वेतों के साथ नस्लीय भेदभाव जारी रखने का संदेश दे दिया था. स्त्रियों के प्रति उन के विचार भी भारत के तुलसीदास की कुख्यात सोच ‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी; ये सब ताड़न के अधिकारी’ से प्रेरित आम कट्टर हिंदुओं की सोच से अलग नहीं हैं.
गर्भपात, समलैंगिक संबंध जैसे विषयों पर भी डोनाल्ड ट्रंपप चर्च और पोंगापंथी कैथोलिकों से सहमत दिखते हैं.
भेदभाव की व्यवस्था
सदियों से गुलाम रही पुन अमेरिका और भारत की जनता अपने नए शासकों की चिकनीचुपड़ी, मीठी बातों में अपना कल्याण देख रही है और सुनहरी कल्पनाओं में डूबी है. भले ही इन की नीतियां और फैसले गरीब, आम लोगों को रसातल में ले जाने वाले हों. इन देशों के धर्मभक्त लोगों में पंडेपुजारी, पादरी, मौलवी अपने अनुयायियों को ईश्वर, उस के अवतार राजा पर संदेह नहीं, सिर्फ आस्था रखने की बात प्रचारित करते आए हैं. लेकिन वहां उदार, तार्किक, बराबरी के हकदार, सरकार के सेवक समझने वाले तत्त्वों की पकड़ भी थी.
भारत और अमेरिका में पिछली 2 सदियों में जिस धार्मिक, सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ आंदोलनों और कानूनों के जरिए बदलाव के प्रयास हुए, अब वहां वापस वही व्यवस्था कायम करने वाली सोच और नीतियों की कवायद की जा रही है. बराबरी पर आ रहे समाज में अमेरिका में अब फिर से गोरों का वर्चस्व कायम करने की बात दबे शब्दों में बिना कहे थोपी जा रही है.
अमेरिका में करीब 250 सालों से श्वेतअश्वेत, यहूदीहिस्पैनिक भेदभाव चलता आया है. लेकिन लगातार इस भेदभाव के खिलाफ चले आंदोलनों का परिणाम था कि बराक ओबामा जैसे अश्वेत को अमेरिका के राष्ट्रपति पद पर पहुंचने का अवसर मिला.
अमेरिका में 1950 से 1970 तक नस्लीय भेदभाव मिटाने, शिक्षा, रोजगार में समान अवसर देने के लिए कई कानून बनाए गए और सुप्रीम कोर्ट ने कई अहम फैसले किए. पिछली डेढ़ शताब्दी से अमेरिका में लोकतंत्र की सोच मजबूत हो रही थी पर अब डोनाल्ड ट्रंप और उन के कट्टर गोरे अमीरों व चर्च से प्रभावित संगठनों ने अमेरिका को वापस 18वीं सदी में धकेलने की तैयारी कर ली है.
अमेरिका हमेशा से दुनियाभर के सताए हुए लोगों को शरण देने में आगे रहा है. पिछले 8-10 दशकों में वहां आप्रवासियों के लिए चारों ओर से रास्ते खोल दिए गए थे. पर अब तानाशाह ट्रंपप मैक्सिको सीमा पर दीवार खड़ी करने का अपना संकल्प दोहरा रहे हैं. लोकतंत्र का प्रहरी अमेरिका दीवारें गिराने के बजाय खड़ी करने की बात कर रहा है.
संकीर्णता का वर्चस्व
दुनिया करीब आ रही थी. पिछली सदी के अंत तक विश्वभर के लोगों को एक व्यापक फलक दिखने लगा था. इंसान कहीं भी आजा सकता था, कहीं भी रह कर रोजगार, शिक्षा पा सकता था. अमेरिका में सिविल राइट ऐक्ट 1964 ला कर नस्ल, रंग, धर्म, लिंग या मूल राष्ट्रीयता के नाम पर भेदभाव करने पर प्रतिबंध लगाया गया. इस के बाद समानता, स्वतंत्रता, न्याय को ले कर कई और कानून बने. कालों को वोट का अधिकार नहीं था, संपत्ति केवल गोरों के पास होती थी उसी प्रकार कि जिस तरह भारत में शूद्रों को संपत्ति का अधिकार नहीं था, ब्राह्मण को यह हक हासिल था. 60 के दशक में होटलों, व्यापारियों और श्वेत कार ड्राइवरों द्वारा अश्वेतों को सेवा देने से इनकार करने का काफी चलन था. इसी दौरान मार्टिन लूथर किंग ने सुधार के लिए आंदोलन किए.
दूसरे विश्व युद्घ के बाद देश की आधी से ज्यादा अश्वेत आबादी दक्षिणी ग्रामीण क्षेत्रों के बजाय उत्तर और पश्चिम के औद्योगिक शहरों में रहने लगी थी. यह आबादी बेहतर रोजगार के अवसर, शिक्षा और कानूनी अलगाव से बचाव के लिए आ कर इधर बसने लगी थी. कानूनों के बाद भी सामाजिक तौर पर भेदभाव की व्यवस्था बनी रही.
भेदभाव वाली अमेरिकी सामाजिक व्यवस्था में पहले से ही गैर हिस्पैनिक गोरों की अपेक्षा काले ज्यादा गरीब हैं. गोरों के बजाय कालों की गरीबी दर दोगुनी है. बराबरी वाले कानूनों के बावजूद कालों के मुकाबले गोरों की संपत्ति बढ़ी है. ट्रंपप यह आर्थिक खाई अब और बढ़ाएंगे.
यहां 300 साल पहले आए यहूदियों को कुछ धार्मिक आजादी जरूर मिली पर जो ईसाईर् नहीं थे उन्हें वोटिंग का अधिकार नहीं था. बाद में यह प्रतिबंध हटाया गया. लेकिन भारत के विहिप, बजरंग दल, संघ की तरह अमेरिका में भी कई कट्टर हिंसक हेट गु्रप हैं जो गैर ईसाइयों पर हमले कर रहे हैं. गोरों के ये संगठन अब ताकतवर हो गए हैं.
मोदी की नीतियों के प्रचारप्रसार और उन्हें आगे लाने में हिंदू संगठनों ने जिस तरह भूमिका निभाई, अमेरिका में ईसाई संगठनों ने जीसस के नाम पर, जीसस के सेवाकार्य के लिए और क्रिश्चियन वैल्यू के नाम पर अपने धर्म वालों को एकजुट करने का काम किया. कहा जा रहा है कि अब ये लोग भारत के हिंदू राष्ट्र की तर्ज पर अमेरिका में क्रिश्चियन नेशन की मांग करने लगेंगे.
उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग उन की तर्ज पर नए चयनित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका में सामंती, शोषणकारी, भेदभाव वाले पोंगापंथी चर्च, कौर्पोरेटी वर्चस्व ला रहे हैं.
वहीं, अमेरिका की तरह भारत में भी पुराने धार्मिक व सामाजिक विभाजन वाली व्यवस्था के प्रयास जारी हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उन के अंधभक्त हिंदुत्व कौर्पोरेट सलाहकारों ने देश की आर्थिक व्यवस्था पर प्रहार किया है. इस से समाज 2 टुकड़ों में दिख रहा है. पहले कालाधन बाहर निकालने और फिर कैशलैस सोसाइटी के नाम पर मनमाने फैसले थोपे जा रहे हैं. एक तरफ पढ़ालिखा सवर्ण वर्ग है जिन के पास डैबिट, कै्रडिट कार्ड, इंटरनैट, मोबाइल बैंकिंग, लेनदेन के कई सारे ऐप्स हैं, दूसरी ओर दलित, पिछड़ा, गरीब, किसान, आदिवासी, मजदूर, छोटे दुकानदार हैं जो रोजमर्रा की मजदूरी से अपना पेट पाल रहे हैं. इन लोगों के पास बैंक खाता तक नहीं है, कार्ड और औनलाइन लेनदेन की बात तो दूर.
इस वर्ग के लिए नकदी लेनदेन अधिक सुविधाजनक रहा है पर सरकार तानाशाहपूर्ण डिजिटल लेनदेन लाद रही है. विमुद्रीकरण का फैसला मोदी ने तटस्थ अर्थशास्त्रियों की सलाह से नहीं, अपने चंद जीहुजूरियों के साथ लिया है. इस फैसले से गरीब प्रभावित हुआ है. अमीरों पर असर नहीं दिखता. कालाधन बैंक अधिकारियों की मिलीभगत से बड़े पैमाने पर सफेद हो गया है. सारे लक्ष्य ध्वस्त हो गए हैं. नोटबंदी से आर्थिक अराजकता, उथलपुथल के अलावा कुछ नहीं हुआ. यह गैरलोकतांत्रिक निर्णय है.
उलटे, बैंकों में भ्रष्टाचार सामने आ रहा है. बैंक अधिकारियों की मिलीभगत से मोदी के कालाधन बाहर निकालने की मुहिम पर पलीता लगा है. करोड़ोंअरबों की नई करैंसी आएदिन काले कारोबारियों के पास मिल रही है. बैंक अधिकारी पकड़े जा रहे हैं. बड़ी मात्रा में कालाधन सफेद हो चुका है. मोदी मंत्रिमंडल में जनता द्वारा ठुकरा दिए गए बिना जनाधार वाले ताकतवर मंत्री अरुण जेटली का वित्त मंत्रालय और उन की इंटेलीजैंस संस्थाएं नाकाम नजर आ रही हैं.
समान नागरिक संहिता पर मोदी सरकार अड़ी है. यह उन कट्टर हिंदू संगठनों का दबाव है जिन्होंने मोदीमोदी के नारे लगाने के लिए अपनी फौज सोशल मीडिया और उन की हर रैली व कार्यक्रमों में झोंक रखी है.
भारत और अमेरिका दोनों की सरकारें कट्टर सोच वाले अलोकतांत्रिक फैसले कर रही हैं. ऐसे में भारत और अमेरिका को पाकिस्तान की कट्टर आतंकी सोच पर उंगली उठाने का हक नहीं रहेगा. अपनी अलोकतांत्रिक नीतियों और फैसलों की वजह से ये नेता एडोल्फ हिटलर, मुसोलिनी, जोसेफ स्टालिन, किम जोंग की कतार में दिखने लगेंगे.
उधर, रूस में पुतिन के शासन में लोकतांत्रिक इंडैक्स में गिरावट आई है. भ्रष्टाचार में बढ़ोतरी हुई है. यूक्रेन, सीरिया में सैन्य हस्तक्षेप बढ़ने से धार्मिक तनाव चरम पर पहुंच गया. यह पुतिन के धार्मिक प्रेम की वजह से है. पुतिन भी रूस में मोदी की तरह शिक्षा, मकान, स्वास्थ्य और कृषि क्षेत्रों में सुधार का वादा कर सत्ता में आए थे पर वे रूसी और्थाेडौक्स चर्च के हुक्म के तलबगार बने दिखने लगे. 2012 में भारी जीत में गड़बड़ी के आरोप लगने पर उन के खिलाफ प्रदर्शन भी हुए. बदले में उन की यूनाइटेड रूस पार्टी के उन के समर्थकों ने रैलियां कीं.
पुतिन और उन के धार्मिक कट्टर समर्थक संगठन समलैंगिकों के खिलाफ हैं. उन पर हमले होते रहते हैं. तनाव का असर वहां की जीडीपी पर भी पड़ा. 2015 में जीडीपी गिर गया.
असल में रूस में 1914 में चर्च का बड़ा वर्चस्व था. 1917 में रशियन एंपायर ध्वस्त होने के बाद लेनिन ने कई सुधार किए. सब से पहले चर्च और राज्य को अलगअलग घोषित किया गया.
वहां बुद्धिस्ट, ईस्टर्न और्थोडौक्स क्रिश्चियन, इसलाम और यहूदी परंपरागत धर्म रहे हैं पर इन के बीच कोई शांति नहीं रही. बाहर से आए ईसाइयों के अलग चर्च होने के बावजूद एक ही धर्म में झगड़े आज भी चल रहे हैं.
पुतिन ने ईसाइयत को संरक्षण दिया. स्कूलों में धर्म की पढ़ाई कराने की इजाजत दी. वे खुद और्थोडौक्स चर्च जाते रहे हैं.
क्रांति की दरकार
मिस्र में 2011 की गुलाबी क्रांति के बाद लोकतंत्र का मुखौटा लगा कर सत्ता में कट्टरपंथी दक्षिणपंथी मुसलिम ब्रदरहुड सत्ता में आया. इस से पहले 1990 के दौर में इसलामी कट्टरपंथी ग्रुप सक्रिय हो गए थे. हिंसा का दौर चला. आमलोग इन से आजिज आ गए. सत्ता में भ्रष्टाचार, सैन्य तानाशाही और मजहबी बंदिशों ने लोगों को बगावत करने पर मजबूर कर दिया और तहरीर चौक पर जनसैलाब उमड़ पड़ा. काहिरा में बड़े पैमाने पर क्रांति की शुरुआत हुई, प्रदर्शन हुए. मुबारक सरकार का तख्ता पलट दिया गया और उन्हें काहिरा छोड़ कर भागना पड़ा. मार्च में चुनाव हुए तो मोहम्मद मोरसी राष्ट्रपति चुने गए. दक्षिणपंथी मुसलिम ब्रदरहुड लोकतंत्र के नाम पर चुन कर सत्ता में आया पर नए कानूनों में यह दल सख्ती से इसलामिक परंपराएं लागू करने पर उतारू रहा. जुलाई 2013 में मोरसी को हटा दिया गया. देश एक बार फिर अनिश्चितता की ओर चला गया.
लोकतंत्रों का जन्मदाता ब्रिटेन भी इसी राह पर है. ब्रिक्सिट फैसला ब्रिटेन के अपने में ही सिमटने का सुबूत है. यह उदारता नहीं, संकीर्णता का प्रमाण है. जनमत संग्रह से ब्रिटेन यूरोपीय यूनियन से अलग हुआ था. फैसला कैसे हुआ, यह आज भी अस्पष्ट है.
अमेरिका, यूरोप में समयसमय पर क्रांतियां होती रही हैं. इन से वहां सामाजिक, राजनीतिक बदलाव आए. अनेक वैज्ञानिकों, दार्शनिकों, समाजसुधारकों ने समाजों में लोकतांत्रिक सोच विकसित करने के प्रयास किए, स्वतंत्रता, समानता पर जोर दिया.
भारत में 18वीं सदी से धार्मिक व्यवस्था के खिलाफ सुधार आंदोलन हुए. कानूनों के जरिए बराबरी के प्रयास हुए, इस का सकारात्मक असर दिखने लगा था पर अब असली उदार लोकतंत्र की जगह छद्म लोकतंत्र हावी हो रहा है. जहां धार्मिक संकीर्णता, भेदभाव, असमानता, गुलामी है जबकि स्वतंत्रता, न्याय नहीं है.
आज फिर जनता की आंखों पर परदा डाल दिया गया है ताकि उसे दिखाई न दे कि ये लोग उसी व्यवस्था के पहरेदार हैं जो जनता को लूटती है. दुनिया में बहुत चतुराई से लोकतंत्रों का तानाशाहीकरण किया जा रहा है और जनता को पता भी नहीं चल पा रहा है. जनता, उलटे, वाहवाही कर रही है. वाह, क्या चमत्कार है कैसा जादू है किस अफीम के नशे में झुमाया जा रहा है वाह मोदी, वाह ट्रंपप, वाह पुतिन, वाह शी जिनपिंग.
अंधेरा कब तक
कोई भी सरकार और वहां का शासक अपनी नीतियों व कानूनों के माध्यम से मानवता, बराबरी, स्वतंत्रता, न्याय की एक संस्कृति विकसित करता है. अगर वह किसी खास धर्म, जाति, वर्ग, नस्ल को प्रश्रय देगा और औरों की उपेक्षा करेगा, दंडित करेगा तो ऐसी नीति दूसरे लोगों में आक्रोश जगाएगी.
लोकतंत्र के मूल स्वभाव में किसी तरह का भेदभाव नहीं है. लोकतंत्र में हर फैसले लोगों की सलाह या बहुमत से होते हैं. जनता के वोटों से लोकतंत्र में चुन कर आने वाला शासक अगर मनमरजी से निरंकुश फैसला करता है तो वह समाज और देश का भला नहीं, नष्ट करने वाला सिद्ध होता है.
विश्व में जनता से मिल रही शक्ति से दक्षिणपंथी ताकतें लोकतंत्र नहीं, तानाशाही कायम कर सकती हैं. ट्रंपप, मोदी, पुतिन जैसे नेता न केवल अपने देशों के लोगों के लिए, बल्कि विश्व के लिए भी संकट पैदा कर रहे हैं.
सदियों की धार्मिक बदहाली से बाहर निकलने का प्रयास कर रहे ये देश अब फिर से उसी दलदल में धंस रहे हैं. यह दुनियाभर के लिए खतरे का संदेश है. इतिहास से सीख न लेने वाला समाज और देश हमेशा दुखी रहता है. शिक्षा, सभ्यता, वैज्ञानिक तरक्की के बावजूद अमेरिका, भारत, रूस, फ्रांस जैसे अग्रणी देशों की सोच धर्मों की संकीर्ण सड़ीगली पगडंडियों की पिछलग्गू क्यों दिखाई दे रही हैं. इन में केवल अंधकार ही अंधकार है, प्रगति की रोशनी नहीं.
क्या जनता विश्व को एडोल्फ हिटलर, मुसोलिनी, स्टालिन, किम जोंग उन, डोनाल्ड ट्रंप, ब्लादिमीर पुतिन, नरेंद्र मोदी देती रहेगी मार्टिन लूथर किंग, मुस्तफा कमाल पाशा को कौन चुनेगा.