भारत के उद्योगपति विकास के नाम पर देश के नियमों और कानूनों में परिवर्तन चाहते हैं पर केवल उन नियमों और कानूनों में जो महाअरबपतियों पर लागू होते हैं, आम आदमी पर नहीं. नरेंद्र मोदी की सरकार को जिताने में इन उद्योगपतियों ने जीजान लगा दी थी क्योंकि कांगे्रस राज में तो रिश्वत की बोलियां लग रही थीं, साथ ही फैसले बरसों के लिए टाले जाते थे ताकि रिश्वत की रकम बढ़ सके. पर ये उद्योगपति अभी भी खुश नहीं हैं.अनिल अंबानी ने कहा है कि उसी का डर इतना है कि फैसले फिर नहीं हो रहे. उसी का मतलब सीबीआई, सैंट्रल विजिलैंस कमीशन और कंट्रोलर औफ औडिटर जनरल. अनिल अंबानी का कहना है कि अगर सरकार कोई फैसला तुरतफुरत लेती है तो प्रधानमंत्री से ले कर बाबू तक सब शक के दायरे में आ जाते हैं. इसलिए बड़े बाबुओं, सचिवों ने फैसले टालने शुरू कर दिए हैं.

मजेदार बात यह है कि अनिल अंबानी और उन के साथी कानूनों की भरमार के बारे में ज्यादा नहीं कहते. आज आम आदमी भी डरा रहता है. भारत सरकार का प्रतीक चिह्न लगा लिफाफा अगर घर के दरवाजे पर पहुंच जाए तो आम आदमी का दिल पहले ही धड़कने लगता है. कोई वरदीधारी दरवाजे पर आ जाए तो जेल का डर होता है, सुरक्षा का नहीं. हमारे उद्योगपति अपने आराम की मांग करते हैं पर आम आदमी के मुंह से कौर का निवाला छीन कर. यदि उन्हें अपना भला चाहिए तो उन की मांग तो होनी चहिए कि सरकारी तानाशाही से हरेक को मुक्ति मिले चाहे अमीर हो या आम. मंत्रालयों में काम जल्दी हो तो नगर निकायों, आयकर कार्यालयों, थानों, अदालतों, पटवारियों के दफ्तरों, तहसीलदारों, सरकारी मंडियों वगैरह में भी, नहीं तो उन्हें कभी जनसमर्थन नहीं मिलेगा.

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