हालां कि पिछले दिनों विष्वव्यापी लाॅकडाउन के चलते काफी हद तक हवा शुद्ध हुई है. नदियों का पानी साफ हुआ है. पक्षियों का जीवन खुशहाल हुआ है और किसी हद तक ओजोन छतरी भी मजबूत हुई है. लेकिन दुनियाभर के वैज्ञानिकों ने साफ-साफ कह दिया है कि इस सबसे यह न उम्मीद की जाए कि ग्लोबल वार्मिंग को इससे कुछ फर्क पड़ेगा. ग्लोबल वार्मिंग को इन छोटी-छोटी बातों से फर्क तो पड़ेगा, लेकिन जब ये हमेशा के लिए हमारी जिंदगी का, हमारी चेतना के साथ हिस्सा हो जाएं. किसी महामारी के भय से घर में कैद हो जाने से साफ हुई हवा बहुत दिन तक वातावरण को जहर से मुक्त नहीं रख सकती, खासकर तब जबकि लाॅकडाउन खुलते ही दुनिया पहले से भी कहीं ज्यादा तेज रफ्तार से फिर पुराने ढर्रे पर चल पड़ी हो.

सवाल है पर्यावरण कैसे बचेगा? निश्चित रूप से पर्यावरण हम सबकी भागीदारी से बचेगा. अगर विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर हम एक नजर बिगड़ते पर्यावरण की क्रोनोलाॅजी पर डालें तो हमें आश्चर्य होगा कि पिछले लगभग 7 दशकों से हर गुजरते दिन के साथ पर्यावरण बिगड़ रहा है. मगर देखने वाली बात है कि हम यानी पूरी दुनिया कर क्या रही है? बातें, बातें और सिर्फ बातें. पर्यावरण दिवस एक मजेदार रस्म अदायगी का दिन बनकर रह गया है. यह कितनी बड़ी विडंबना है कि पूरी दुनिया बिगड़ते पर्यावरण की भयावहता को समझ रही है और इसके प्रति चेतना जगाने के लिए चीख रही है पर पता नहीं किसके लिए यह सब कुछ किया जा रहा है? क्योंकि हर कोई सिर्फ भयावहता का खाका खींच रहा है. बिगड़ते पर्यावरण की बातें कर रहा है, समझाने का प्रयास कर रहा है मगर पता यह नहीं चल रहा कि समझाया किसको जा रहा है? पर्यावरण की बिगड़ती हालत के साथ सबसे बड़ी विडंबना है कि हर कोई यह बात किसी और को बताना चाहता किसी और को इसकी भयावहता समझना चाहता है पर खुद कोई समझने को राजी नहीं.

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