जीवन  में आने वाले सुखदुख ही नहीं, बल्कि सफलता और असफलता भी हमारी सोच पर निर्भर करती है. अच्छी सोच जहां हमें ऊंचाइयों पर ले जाती है, वहीं संकीर्ण सोच हमारे कद को और भी छोटा कर देती है. लेकिन महिलाएं इस बात को समझना नहीं चाहतीं. इसीलिए आज भी वे संकुचित विचारों का दामन थामे हैं. उन के विचारों में स्वतंत्रता दिखाई नहीं देती. यदि महिलाएं सही माने में स्वतंत्र कहलाना चाहती हैं तो उन्हें अपने विचारों में स्वतंत्रता लानी होगी.

वंश के लिए ‘अंश’ जरूरी

इंदिरा गांधी जैसी मिसाल देश में होने के बावजूद महिलाएं यह मानने को तैयार नहीं हैं कि वंश चलाने के लिए उन के अंश (संतान) की जरूरत होती है, बेटे या बेटी की नहीं. लेकिन कानूनन अपराध होने के बावजूद आज भी कई महिलाएं लिंग परीक्षण के जरीए बेटा पाने की लालसा को पूरा करती हैं, जिस के लिए उन्हें अपने शरीर के साथ होने वाली चीरफाड़ से भी कोई परहेज नहीं यानी शारीरिक और मानसिक पीड़ा सहने के बावजूद महिलाएं अपनी सोच बदलने को तैयार नहीं हैं.

बात यहीं खत्म नहीं होती. अगर कोई महिला बेटाबेटी दोनों को जन्म देती है, तब भी वह अधिक ध्यान बेटे की परवरिश पर देती है, क्योंकि वह बेटे को अपना और बेटी को पराया समझती है. बेटे को जहां शुरुआत से ही आजादी दी जाती है, वहीं बेटी पर कई तरह की बंदिशें शुरू हो जाती हैं. दोनों की परवरिश में यह भेदभाव महिलाओं की सोच के कारण है.

कहने का तात्पर्य यह है कि महिलाएं अपनी सोच को बदल कर नया आयाम लिख सकती हैं. इस बात को ध्यान में रख कर कि बेटे की तरह बेटी की रगों में भी उन्हीं का खून है. जिस दिन महिलाएं यह सोचेंगी उस दिन से कन्या भू्रण हत्या के मामले खुदबखुद कम हो जाएंगे.

कुप्रथाओं को बढ़ावा

कहते हैं अगर कोई औरत कुछ करने की ठान ले, तो वह उसे कर के ही दम लेती है, मगर निराश करने वाली बात यह है कि ज्यादातर महिलाएं किसी को बरबाद करने की भले ठान लें, लेकिन कुछ अच्छा करने की नहीं ठानतीं. अगर वे ऐसा कुछ करतीं तो आज समाज में दहेज, बाल विवाह, परदा जैसी कुप्रथाएं अपने पांव न पसारतीं. असल में महिलाओं की सोच ने ही इन प्रथाओं को जीवित रखा है.

हाल ही में छपरा कोर्ट (बिहार) के सामने दहेज हत्या (सोनी देवी) का मामला आया.

सोनी देवी की शादी 2003 में हुई थी. ससुराल वाले उसे दहेज के लिए प्रताडि़त करते थे. उन की मांग पूरी न होने पर 24 अप्रैल, 2005 को उन लोगों ने सोनी की हत्या कर उस के शव को जला दिया. नतीजतन कोर्ट ने सोनी के पति और ससुर को 10 साल की और सास को 7 साल की सजा सुनाई. अगर सोनी की सास के विचार स्वतंत्र होते तो वह दहेज की मांग न करती और सोनी आज जीवित होती.

धर्म पर कर्म से ज्यादा यकीन

कहते हैं मानव के कर्म ही उस के विचारों की सर्वश्रेष्ठ व्याख्या है, लेकिन महिलाएं हमेशा कर्म के बजाय धर्म को अधिक अहमियत देती हैं. वे चाहें तो तीजत्योहार के मौके पर अनाथालय जा कर बेसहारा बच्चों को खुशी दे सकती हैं, लेकिन धनसंपत्ति, खुशहाली तो कभी पति की दीर्घ आयु आदि की प्राप्ति के लिए वे धर्म स्थलों के द्वार खड़ी हो जाती हैं. भले वे किसी गरीब या दीनदुखी की सहायता न करें, मगर धर्म के नाम पर धार्मिक स्थलों पर दान देने से पीछे नहीं हटतीं. ढोंगी साधूबाबाओं में भी उन का गहरा विश्वास होता है. घर में कलह से ले कर बांझपन आदि समस्याओं के लिए समाधान निकालने के बजाय वे बाबाओं के तावीजों का सहारा लेती हैं. यही वजह है कि आए दिन बाबाओं द्वारा महिला भक्त पर रेप के मामले बढ़ रहे हैं. आज यदि महिलाओं के विचार स्वतंत्र होते, तो बाबाओं की दुकानें न चलतीं.

जिम्मेदारी पति के कंधों पर ही क्यों

वे दिन गए जब महिलाएं हाउसवाइफ हुआ करती थीं. आज मैट्रो सिटीज की कई महिलाएं वर्किंग हैं, लेकिन बात जब भी आर्थिक जिम्मेदारी को संभालने की आती है, तो महिलाएं अपना पल्ला झाड़ लेती हैं. उन्हें लगता है कि पैसों से जुड़ा मसला पुरुषों को संभालना चाहिए. घर के राशन से ले कर खुद की शौपिंग तक वे पति के पैसों से करना चाहती हैं. आज भी होटल में लंच या डिनर पार्टी के बाद महिलाएं बिल भरने के लिए पुरुषों का मुंह ताकती हैं. कभी खुद से पहल नहीं करती हैं. पैसा खर्च करने की जिम्मेदारी सिर्फ पुरुषों की है, महिलाओं को अपनी यह सोच बदलनी चाहिए, क्योंकि जब वे बाकी मामलों में पुरुषों की बराबरी कर सकती हैं, तो उन्हें आर्थिक जिम्मेदारी को भी बराबर बांटना चाहिए.

मनोचिकित्सक डा. निमिषा के अनुसार, महिलाओं को अपने विचारों में स्वतंत्रता लाने के लिए अपनी सोच को बदलना चाहिए. उन्हें कुछ इस तरह सोचना चाहिए:

शिक्षित सोच: महिलाओं का शिक्षित होना बेहद जरूरी है. शिक्षा से उन का आत्मविश्वास बढ़ता है. निर्भयता आती है और उन्हें बहुत जानकारी मिलती है.

संतुलित सोच: महिलाओं को खुद के विषय में संतुलित सोच रखनी चाहिए. उन्हें भावनाओं में बह कर नहीं सोचना चाहिए और न ही भावनाओं में आ कर कोई फैसला करना चाहिए.

सामाजिक सोच: किसी भी सामाजिक सोच को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए, क्योंकि समाज द्वारा थोपा गया कोई भी निर्णय आप की खुशी और शांति से बढ़ कर नहीं है. एक खुश और शांत महिला समाज को बहुत कुछ दे सकती है.

निर्णय लेने की सोच: महिलाओं को अपने निर्णय खुद लेने चाहिए. इस से वे ज्यादा सफल साबित होंगी.

शिकार पढ़ीलिखी महिलाएं भी

मई, 2016 को एक एनआरआई महिला ने पंजाब के एक बाबा पर रेप करने का मामला दर्ज करवाया. महिला का आरोप है कि एक पाखंडी बाबा ने उसे बुरी आत्माओं से बचाने के नाम पर उस के साथ रेप किया. बाबा का कहना था कि वह उसे बुरी आत्माओं से आजाद करा देगा. आरोपी बाबा ने महिला के साथ गलत हरकतें कीं. महिला द्वारा आपत्ति जताने पर वह कहता कि वह उस के साथ नहीं, बल्कि बुरी आत्माओं के साथ ऐसा बरताव कर रहा है. आश्चर्य तो इस बात का है कि पढ़ीलिखी महिलाएं भी ऐसे बाबाओं के झांसे में आ जाती हैं.

कुछ दिनों पहले ही बाराबांकी में महिलाओं की गोद भरने के नाम पर 100 से भी अधिक महिलाओं का यौन शोषण करने वाले स्वयंभू बाबा परमानंद को गिरफ्तार किया गया. यह बाबा महिलाओं का यौन शोषण करने के साथसाथ उन का अश्लील वीडियो भी बनाता था. बाबा बेटा पैदा होने के लिए आशीर्वाद देने के बहाने महिलाओं को फंसाता था और उन का अश्लील वीडियो बना कर उन्हें अपने जाल में उलझा

लेता था.

क्या आप जानती हैं

अंडरस्टैंडिंग जैंडर इक्वैलिटी इन इंडिया 2012 के आंकड़ों के अनुसार, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा जैसे आर्थिक रूप से संपन्न राज्यों में लिंगानुपात की स्थिति पांडिचेरी, छत्तीसगढ़, मेघालय, मिजोरम, त्रिपुरा, केरल और ओडिशा जैसे राज्यों की तुलना में बेहद कम है? दिल्ली, चंडीगढ़, पंजाब, हरियाणा में प्रति हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या क्रमश: 866, 818, 813 और 877 है.

बदलनी होगी मानसिकता

‘‘सदियों से महिलाओं को आश्रित, परतंत्र या कमजोर देखा और माना गया है, जिस का काफी हद तक प्रभाव महिलाओं की खुद की मानसिकता पर होता है. उदाहरण के तौर पर अकसर महिलाएं जहां स्वतंत्रता से स्वयं का विकास कर सकती हैं, वहां भी इस मानसिकता और तमाम भूमिका निभाने के दबाव में वे अपना ध्यान नहीं रख पाती हैं. उन की मानसिकता उन्हें सिर्फ दूसरों का ध्यान रखने, त्याग करने या दूसरों के लिए जीने को प्रेरित करती है.’’

-डा. निमिषा, मनोचिकित्सक, इंटरनैशनल सर्टिफाइड लाइफ कोच, गुजरात

 

विचारों में स्वतंत्रता जरूरी

‘‘महानगरों की बात करें या कसबों की, महिलाएं पूर्णरूप से स्वतंत्र होने के बाद भी कोई निर्णय लेने से पहले अपने पति या सहयोगी की राय जरूर लेती हैं. किचन क्वीन होने के बाद भी खाने में क्या बनाऊं जैसा छोटा सवाल वे परिवार वालों से करती हैं. वे अपने कमाए पैसों का निवेश भी खुद नहीं कर पातीं. स्वतंत्र होते हुए भी महिलाओं ने खुद को सीमाओं में जकड़ रखा है, जिसे देख कर तो कतई नहीं लगता कि स्वतंत्र देश की स्वतंत्र महिलाएं विचारों से स्वतंत्र हैं.’’    

– डा. जयश्री सिंह, हिंदी प्राध्यापक, मुंबई

 

दहेज की बलि

राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2007 से 2011 के बीच देश में दहेज हत्याओं के मामलों में तेजी आई है. 2007 में ऐसे 1,093 मामले दर्ज हुए, लेकिन 2008 और 2009 में यह आंकड़ा क्रमश: 8,172 और 8,383 था. 2010 में इस प्रकार की 8,399 मौतें दर्ज की गईं और 2012 में भारत भर से दहेज हत्या के 8233 मामले सामने आए. आंकड़ों के औसत की मानें तो प्रत्येक घंटे 1 महिला दहेज की बलि चढ़ रही है.

 

खुद को मजबूत बनाएं

‘‘अफसोस कि विचारों से महिलाएं आज भी स्वतंत्र नहीं हैं. वे आज भी वही बोलती हैं, जो लोगों को सुनने में अच्छा लगता है. शादी और रिश्तों की मर्यादा संभालतेसंभालते उन की आवाज भी दब गई है और उन की आवाज तब तक दबी रहेगी जब तक वे खुद के लिए बोलेंगी नहीं. जब तक महिलाओं को इस बात की परवाह रहेगी कि लोग क्या सोचेंगे तब तक वे मजबूत हो कर भी कमजोर ही रहेंगी.’’

-काम्या पंजाबी, टीवी कलाकार

 

प्रभावशाली बनें महिलाएं

‘‘बेशक आज की महिलाएं पावरफुल हैं, उन्हें किसी की जरूरत नहीं है, वे पूरी तरह से स्वतंत्र हैं और अपने और अपनों से जुड़े लोगों के जीवन की बागड़ोर संभालने में सक्षम भी, लेकिन बात जब विचारों की आती है तो उन के विचार आज भी उतने प्रभावशाली नहीं हैं, जितने कि होने चाहिए. तो भला कोई कैसे कह सकता है कि महिलाएं विचारों से स्वतंत्र हैं?’’

-सारा खान, टीवी कलाकार

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