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लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

बचपन में उस गेहुंए रंग की देहाती बाला का नाम तिजोरी रख दिया गया था. समय के साथसाथ वह निखरती चली गई और अब वह 16 सावन देखते हुए इंटर पास करने के बाद अपने पिता रघुवीर यादव का कामकाज देखती है. उस का तिजोरी नाम इसलिए रख दिया गया था कि उस के खेतिहर किसान पिता रघुवीर यादव ने चोरीडकैती के डर से उस के जन्म होने वाले दिन ही लोहे की मजबूत तिजोरी खरीद कर अपने घर के बीच वाले कमरे की मोटी दीवार में इतनी सफाई से चिनवाई थी कि दीवार देख कर कोई समझ नहीं सकता था कि उस दीवार में तिजोरी भी हो सकती है.

अनाज उपजाने के साथसाथ रघुवीर यादव की मंडी में आढ़त भी थी और छोटे  किसानों की फसलों को कम दामों में खरीद कर ऊंचे दामों पर बेचने का हुनर उन्हें मालूम था. उन का बेटा महेश, तिजोरी से 3 साल छोटा था. पढ़ाई से ज्यादा महेश का मन गुल्लीडंडा और कंचे खेलने में लगता था. पेड़ों पर चढ़ कर आम तोड़ने में भी उसे मजा आता था. इस के उलट तिजोरी को तीसरी जमात में ही 20 तक के सारे पहाड़े याद हो गए थे. 12वीं जमात तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि उस ने गणित में 100 में से 99 नंबर न पाए हों और सभी विद्यार्थियों को पछाड़ कर वह फर्स्ट डिवीजन न आई हो.

यही वजह थी कि दिनभर की सारी कमाई का हिसाब रघुवीर यादव ने 10वीं पास करते ही तिजोरी को सौंप दिया था. तिजोरी को उस लोहे की तिजोरी के

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