दादीकी चिता में चाचा ने आग दी. ताऊ अपने 2 बच्चों के साथ अमेरिका जा कर बस गए थे. चिता धूधू कर जल उठी. गंगा के किनारे की तेज हवा ने आग में घी का काम किया. चिता की प्रचंड अग्नि ने सर्दी के उस मौसम में भी पास खड़े लोगों को काफी गरमाहट का अनुभव करा दिया.
करीब 50-60 लोगों की भीड़ में मैं भी शामिल था. मैं ने बड़े ही कुतूहल से दादी के अस्पताल जाने से ले कर उन के इलाज और उन के मरने तक की घटनाओं के अलावा उन्हें श्मशान घाट तक ले जाने में बरती गई तमाम पुरातनवादी रूढि़यों को देखा था, उन्हें सम?ाने का प्रयास किया था, पर मेरी सम?ा में यह नहीं आया था कि नियमों का पालन क्यों आवश्यक था या इन के न मानने से क्या नुकसान हो जाने वाला था? मैं ने पहली बार इस तरह की मौत को नजदीकी से देखा था.
अम्मांजी के 3 दामादों में मैं सब से छोटा दामाद हूं. अम्मांजी की शवयात्रा में शामिल होना मेरे लिए इस तरह का पहला अनुभव था.
10 दिसंबर की सुबह नहाते समय दादीजी स्नानगृह में ही गिर गई थीं. काफी खून निकला था. उन्हें तुरंत अस्पताल ले जाया गया था. डाक्टर का कहना था कि दिमाग की नस फट गईर् है.
मु?ा से जो करते बना, मैं ने किया. मेरी पत्नी तो अपनी दादी की सेवा के लिए रातदिन अस्पताल में ही रही. असल में वे मेरी दादी नहीं, मेरी पत्नी की दादी थी. मेरी पत्नी की मां थी. जल्दी मृत्यु होने के बाद दादी ने उस की देखभाल की थी. मेरी पत्नी के पिता कुछ साल पहले ही गुजरे थे. इसीलिए पूरे घर में मेरी और मेरी पत्नी की दादी से खूब बनती थी.
मेरी 2 बड़ी सालियां चाचा की बेटियां व अम्मांजी की एकमात्र बहू चाची बेटियों के अपने पूरे बच्चों सहित दोपहर को अस्पताल पहुंचती थीं. शाम तक पूरी टीम दादी के पास बैठने के बजाय बाहर मटरगश्ती ज्यादा करती थी. मैं जब भी कभी वहां पहुंचता अपनी चचेरी सालियों को कभी चाय तो कभी कौफी पीते हुए, तो कभी बाहर सड़क पर टहलते हुए पाता था. एक बार पूछा तो कहने लगीं, ‘‘यहां सर्दी काफी है. बच्चों को ठंड न लग जाए, इसलिए धूप का सेवन बेहद जरूरी है.’’
मैं सवाल करता, ‘‘फिर आप लोग बच्चों को यहां क्यों ला रहे हैं? कुछ लोग घर ठहर जाया करें. कुछ रात में आ जाया करें.’’
एक छूटती ही बोली थी, ‘‘मेरे बच्चे मेरे साथ ही आएंगे. मैं उन्हें किसी के भरोसे छोड़ कर क्यों आऊं? रात में बच्चों को यहां सुलाना ठीक नहीं, क्योंकि बच्चों को इन्फैक्शन हो जाता है. घर ही सब से सुरक्षित जगह है. मैं स्वयं इन्फैक्शन के डर से नहीं आना चाहती पर क्या करूं, मां कहती हैं तो आना पड़ता है. नहीं आऊंगी तो लोग क्या कहेंगे (गोया वह रिश्तेदारों के तानों के डर से यहां आ रही थीं) दूसरे दादी भी तो दीप्ति को ही मानती हैं, अब दीप्ति ही उन्हें देखे.’’
मैं इस जवाब से निरुत्तर हो गया था. वे दोनों बहनें व दीप्ति की चाची इस जवाब से प्रसन्न नजरा आ रही थीं. मैं सोचने लगा, ‘शायद मैं ही बेवकूफ हूं जो यहां पड़ा हूं.’
मगर तुरंत दूसरा विचार मन में आ गया, ‘दीदी हैं. सेवा करने में क्या हरज है. सब नालायक सही पर मैं तो नालायक नहीं.’ इन्हीं दादी की वजह से मेरी दीप्ति से शादी हो गई थी. चाचाताऊ तो उस की शादी में इंटरैस्ट ही नहीं ले रहे थे. मेरी शादी पर दादी ने ही बढ़चढ़ कर हम दोनों के प्रेम विवाह पर मुहर लगाई थी. चाचाचाचियां तो दीप्ति को किसी टीचर से बांध देना चाहते थे. मैं दक्षिणी भारतीय था और दादी ने न जाति पूछी, न मेरे घरवालों के बारे में पूछा. उन्हें दीप्ति पर पूरा भरोसा था.
जब से दादी बूढ़ी होने लगी थीं, दीप्ति ही उन का सारा काम करती थी. काम यह उन का बचपन से करती आई थी पर मेरे साथ एमबीए करने के बाद उसी एनएनसी में काम करने के बाद भी उन के छोटेछोटे काम दीप्ति के हवाले थे. दीप्ति और मैं दोनों अनाथ से थे. मु?ो भी दादी ने वही प्यार दिया जो मु?ो कभी किसी से नहीं मिला इसलिए रातदिन उन की अस्पताल में सेवा करते हुए हम दोनों को खुशी ही हुई, दादी भला बो?ा कैसे हो सकती है? चाचाओंचाचियों की वे जानें.